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शनिवार, 5 सितंबर 2015

तंत्र--सूत्र--(भाग--3)--प्रवचन--39

यहीं मन बुद्ध है--(प्रवचन—उन्‍नतालीसवां)

सूत्र:

61—जैसे जल से लहरें उठतीं है और अग्‍नि से लपटें,
      वैसेही सर्वव्‍यापक हम से लहराता है।
62जहां कहीं तुम्‍हारा मन भटकता है, भीतर या बाहर,
      उसी स्‍थान पर, यह।
63—जब किसी इंद्रिय—विशेष के द्वारा स्‍पष्‍ट बोध हो,
      उसी बोध में स्‍थित होओ।

श्री अरविंद ने कहीं कहा है कि पूरा जीवन योग है। और यह बात सही है। हर चीज ध्यान बन सकती है। और जब तक हर चीज ध्यान न बने, समझना कि तुम्हें ध्यान नहीं घटित हुआ है। ध्यान खंड—खंड में नहीं होता है।
या तो ध्यान होता है—और जब वह होता है तो तुम पूरे के पूरे उसमें होते हो—या वह नहीं होता है। तुम अपने जीवन के एक अंश को ध्यानपूर्ण नहीं बना सकते; वह असंभव है। लेकिन सब जगह वही कोशिश चलती है।
तुम पूरे—पूरे ही ध्यानपूर्ण हो सकते हो; तुम्हारा कोई अंश ध्यानपूर्ण नहीं हो सकता। वह असंभव है। क्योंकि ध्यान तुम्हारा स्वभाव है; वह श्वास लेने जैसा है। तुम चाहे जो भी करो, तुम श्वास लेते रहते हो। तुम्हारे करने से उसका कुछ लेना—देना नहीं है; तुम सतत श्वास लेते रहते हो। चलते हुए, बैठे हुए, लेटे हुए सोए हुए, तुम श्वास लेना जारी रखते हो। तुम ऐसा नहीं कर सकते कि कभी श्वास लो और कभी न लो। यह एक सातत्य है।
ध्यान आंतरिक श्वास है। और जब मैं कहता हूं कि ध्यान अंतस की श्वास है तो मैं कोई प्रतीक के अर्थ में नहीं कहता हूं। ध्यान वस्तुत: आंतरिक श्वास है। जिस भांति तुम हवा की श्वास लेते हो, उसी भांति चेतना की श्वास भी ले सकते हो। और जब तुम चेतना की श्वास भीतर—बाहर लेना शुरू कर देते हो तो तुम मात्र शरीर नहीं रहे। इस उच्चतर श्वास—प्रश्वास के शुरू होने से, इस चेतना के, जीवन के श्वास—प्रश्वास के आरंभ होने से तुम एक नए लोक में, एक नए आयाम में प्रवेश कर जाते हो। वह आयाम ही अध्यात्म है। तुम्हारी श्वास शारीरिक है; ध्यान आध्यात्मिक है।
तो तुम अपने जीवन के एक खंड को ध्यानपूर्ण नहीं बना सकते हो। ऐसा नहीं है कि तुम सुबह ध्यान कर लो और फिर दिनभर के लिए उसे भूल जाओ। ऐसा नहीं है कि तुम मंदिर या चर्च गए, वहा ध्यान किया और ध्यान से वैसे ही बाहर निकल आए जैसे मंदिर से बाहर आ जाते हो। यह संभव नहीं है। और अगर तुम ऐसी चेष्टा करोगे तो वह चेष्टा झूठी होगी। तुम मंदिर में प्रवेश कर सकते हो और बाहर आ सकते हो; लेकिन वैसे ही तुम ध्यान में प्रवेश करके बाहर नहीं आ सकते। जब तुम ध्यान में प्रवेश करते हो तो प्रवेश कर ही गए। अब तुम जहां भी जाओगे, ध्यान तुम्‍हारे साथ होगा।
यह बहुत बुनियादी, प्राथमिक बात है, जिसे सतत स्मरण रखना चाहिए। दूसरी बात कि तुम ध्यान में कहीं से भी प्रवेश कर सकते हो; क्योंकि सारा जीवन गहन ध्यान में है। पर्वत ध्यान में हैं; तारे ध्यान में हैं; फूल, पेड़—पौधे, हवाएं ध्यान में हैं। और तुम कहीं से भी ध्यान में प्रवेश कर सकते हो। कुछ भी हो, कुछ भी प्रवेश—द्वार बन सकता है।
इसका प्रयोग हो चुका है। यही कारण है कि इतनी विधियां हैं। यही वजह है कि इतने धर्म हैं। और इसीलिए एक धर्म दूसरे को नहीं समझ सकता है, क्योंकि उनके प्रवेश—द्वार भिन्न—भिन्न हैं। और कोई—कोई धर्म तो ऐसे हैं जो धर्म के नाम से भी नहीं जाने जाते। कुछ लोगों को तो तुम धार्मिक की भांति पहचानोगे भी नहीं, क्योंकि उनका प्रवेश—द्वार इतना भिन्न है।
उदाहरण के लिए एक कवि है। किसी गुरु के पास गए बिना भी, धार्मिक, तथाकथित धार्मिक हुए बिना भी एक कवि ध्यान में उतर सकता है। उसकी कविता, उसकी सृजनात्मकता द्वार बन सकती है, वह उससे ही ध्यान में प्रवेश कर सकता है। या कोई कुम्हार, जो मिट्टी के बर्तन बनाता है, मिट्टी के बर्तन बनाते हुए ही ध्यान में जा सकता है। उसका शिल्प ही द्वार बन सकता है। या कोई धनुर्विद अपनी धनुर्विद्या के द्वारा ध्यान में उतर जा सकता है। वैसे ही कोई माली भी। कोई कहीं से भी प्रवेश कर सकता है।
तुम जो भी करते हो वही चीज विधि बन सकती है। अगर उसे करते हुए बोध की गुणवत्ता बदल जाए तो वही चीज विधि बन सकती है। तो तुम जितनी चाहो उतनी विधियां हो सकती हैं। कोई भी कृत्य द्वार बन सकता है। कृत्य या विधि या उपाय या मार्ग महत्वपूर्ण नहीं हैं; महत्वपूर्ण है चेतना की वह गुणवत्ता जिससे तुम उस कृत्य को करते हो।
भारत के एक महान संत, कबीर, जुलाहे थे और ज्ञान को उपलब्ध होने के बाद भी जुलाहे ही बने रहे। उनके हजारों शिष्य थे। उनके शिष्य उनसे कहते थे कि अब आप कपड़ा बुनना बंद कीजिए; अब आपको यह सब करने की जरूरत नहीं है। हम हैं, हम आपकी हर तरह देखभाल करेंगे। कबीर हंसकर कहते : यह बुनना बुनना भर नहीं है। मेरा कपड़ा बुनना तो बाहरी कृत्य है, लेकिन इसके साथ—साथ मेरे भीतर कुछ होता है जिसे तुम नहीं देख सकते। यह मेरा ध्यान है।
कपड़ा बुनते—बुनते कोई जुलाहा ध्यानी कैसे हो जा सकता है? तुम जिस चित्त से कपडा बुनते हो, अगर वह चित्त ध्यानपूर्ण है तो फिर कृत्य प्रासंगिक नहीं है। कृत्य तो अप्रासंगिक है।
एक दूसरे संत हुए जो कुम्हार थे। उनका नाम गोरा था। वे मिट्टी के बर्तन बनाते थे। बर्तन बनाते हुए गोरा नाचते थे, गीत गाते थे। जब वे चाक पर बर्तन गढ़ते थे तो जैसे—जैसे बर्तन चाक पर केंद्रीभूत होता था, गोरा भी अपने भीतर केंद्रीभूत हो जाते थे। तुम्हें तो एक ही चीज दिखाई देती कि चाक घूम रहा है, मिट्टी का बर्तन आकार ले रहा है और गोरा उसे केंद्रीभूत कर रहे हैं। तुम्हें एक ही केंद्रीकरण दिखाई देता; लेकिन उसके साथ—साथ, युगपत, एक दूसरा केंद्रीकरण भी घटित हो रहा था—गोरा भी केंद्रिभूत हो रहे थे। बर्तन को गढ़ते हुए, बर्तन को रूप देते हुए, वे खुद भी आंतरिक चेतना के अदृश्य जगत में रूपायित हो रहे थे।
जब बर्तन निर्मित हो रहा था—वह उनका असली कृत्य नहीं था—तो वे साथ ही साथ अपना भी सृजन कर रहे थे।
कोई भी कृत्य ध्यानपूर्ण हो सकता है। और एक बार तुमने जान लिया कि कैसे कोई कृत्य ध्यानपूर्ण होता है तो फिर कठिनाई नहीं है। तब तुम अपने सभी कृत्यों को ध्यान में रूपांतरित कर सकते हो। और तब सारा जीवन योग बन जाता है। तब सड़क पर चलना, या दफ्तर में काम करना, या सिर्फ बैठना, कुछ भी न करना ध्यान बन सकता है। कुछ भी ध्यान बन सकता है। स्मरण रहे, ध्यान कृत्य में नहीं है, कृत्य की गुणवत्ता में है।
अब हम विधियों में प्रवेश करेंगे।

 पहली विधि :

जैसे जल से लहरें उठती हैं और अग्नि से लपटें वैसे ही सर्वव्यापक हम से लहराता है।

हले तो यह समझने की कोशिश करो कि लहर क्या है और तब तुम समझ सकते हो कि कैसे यह चेतना की लहर तुम्हें ध्यान में ले जाने में सहयोगी हो सकती है।
तुम सागर में उठती लहरों को देखते हो। वे प्रकट होती हैं; एक अर्थ में वे हैं और फिर भी किसी गहरे अर्थ में वे नहीं हैं। लहर के संबंध में समझने की यह पहली बात है। लहर प्रकट होतीं है; एक अर्थ में लहर है। लेकिन किसी गहरे अर्थ में लहर नहीं है, गहरे अर्थ में सिर्फ सागर है। सागर के बिना लहर नहीं हो सकती; और जब लहर है भी तो भी वह सागर ही है। लहर रूप भर है, सत्य नहीं है। सागर सत्य है, लहर केवल रूप है।
भाषा के कारण अनेक समस्याएं उठ खड़ी होती हैं। क्योंकि हम कहते हैं लहर, इससे लगता है कि लहर कुछ है। बेहतर हो कि हम लहर न कहकर लहराना कहें; लहर नहीं, लहराना ही है। वह कोई वस्तु नहीं, एक क्रिया भर है। वह एक गति है, प्रक्रिया है, वह कोई पदार्थ नहीं है। वह कोई तत्व या सत्य नहीं है। पदार्थ या तत्व तो सागर है; लहर एक रूप भर है।
सागर शांत हो सकता है। तब लहरें विलीन हो जाएंगी, लेकिन सागर तो रहेगा। सागर शांत हो सकता है, या बहुत सक्रिय और क्षुब्ध हो सकता है, या सागर निष्‍क्रिय हो सकता है। लेकिन तुम्हें कोई शांत लहर देखने को नहीं मिलेगी। लहर सक्रियता है, सत्य नहीं। जब सक्रियता है तो लहर है; यह लहराना है, गति है, हलचल है—एक साधारण सी हलचल। लेकिन जब शांति आती है, जब निष्‍क्रियता आती है तो लहर नहीं रहती, लेकिन सागर रहता है। दोनों अवस्थाओं में सागर सत्य है। लहर उसका एक खेल है। लहर उठती है, खो जाती है; लेकिन सागर रहता है।
दूसरी बात, लहरें अलग— अलग दिखती हैं। प्रत्येक लहर का अपना व्यक्तित्व है, अनूठा, औरों से भिन्न। कोई दो लहरें समान नहीं होतीं; कोई लहर बड़ी होती है, कोई छोटी। उनके अपने — अपने विशिष्ट लक्षण होते हैं। प्रत्येक लहर का निजी ढंग होता है। और निश्चित ही प्रत्येक लहर दूसरे से भिन्न होती है। एक लहर उठ रही हो सकती है और दूसरी मिट रही हो सकती है। जब एक उठती है तो दूसरी गिरती है। दोनों एक नहीं हो सकतीं; क्योंकि एक जन्म ले रही होती है और दूसरी मिट रही होती है। फिर भी दोनों लहरों के पीछे जो सत्य वह एक ही है। वे भिन्‍न दिखती है, वे पृथक दिखती है, वे अलग—अलग दिखती है;
लेकिन यह दिखना भ्रांत है। गहराई में एक ही सागर है; और लहरें चाहे जितनी असंबद्ध दिखे, वे परस्पर संबद्ध हैं।
जब एक लहर उठ रही होती है और दूसरी गिर रही होती है तो तुम्हें उनमें संबंध नहीं दिखाई पड़ता है। संबंध प्रकट नहीं है। उठती हुई लहर मिटती हुई लहर से कैसे संबद्ध हो सकती है? एक बूढ़ा आदमी मर रहा है और एक बच्चा जन्म ले रहा है, उन दोनों के बीच क्या संबंध हो सकता है? अगर उनमें कोई संबंध है तो दोनों साथ—साथ मरेंगे या साथ—साथ जन्म लेंगे। बच्चा पैदा हो रहा है; का मर रहा है। एक लहर मिट रही है, दूसरी उठ रही है।
लेकिन संभव है कि उठती लहर मिटने वाली लहर से ऊर्जा ग्रहण कर रही हो। मिटने वाली लहर अपनी मृत्यु के द्वारा उसे उठने में मदद कर रही हो। बिखरने वाली लहर उस लहर के लिए कारण बन सकती है जो उठ रही है। बहुत गहरे में वे एक ही सागर से जुड़ी हैं, वे भिन्न नहीं हैं, वे पृथक नहीं हैं। उनका व्यक्तित्व झूठा है, भ्रामक है। वे जुड़ी हुई हैं। उनका द्वैत भासता तो है, लेकिन है नहीं। उनका अद्वैत सत्य है।
अब मैं सूत्र को फिर से पढ़ता हूं. 'जैसे जल से लहरें उठती हैं और अग्नि से लपटें, वैसे ही सर्वव्यापक हम से लहराता है।
हम जागतिक सागर में लहर मात्र हैं। इस पर ध्यान करो; इस भाव को अपने भीतर खूब गहरे उतरने दो। अपनी श्वास को उठती हुई लहर की तरह महसूस करना शुरू करो। तुम श्वास लेते हो; तुम श्वास छोडते हो। जो श्वास अभी तुम्हारे अंदर जा रही है वह एक क्षण पहले किसी दूसरे की श्वास थी। और जो श्वास अभी तुमसे बाहर जा रही है वह अगले क्षण किसी दूसरे की श्वास हो जाएगी। श्वास लेना जीवन के सागर में लहरों के उठने—गिरने जैसा ही है। तुम पृथक नहीं हो, बस लहर हो। गहराई में तुम एक हो। हम सब इकट्ठे हैं, संयुक्‍त हैं। वैयक्तिकता झूठी है, भ्रामक है। इसलिए अहंकार एकमात्र बाधा है। वैयक्तिकता झूठी है। वह भासती तो है, लेकिन सत्य नहीं है। सत्य तो अखंड है, सागर है, अद्वैत है।
यही कारण है कि प्रत्येक धर्म अहंकार के विरोध में है। जो व्यक्ति कहता है कि ईश्वर नहीं है वह अधार्मिक न भी हो, लेकिन जो कहता है कि मैं हूं वह अवश्य अधार्मिक है।
गौतम बुद्ध नास्तिक थे; वे किसी ईश्वर में विश्वास नहीं करते थे। महावीर वर्धमान नास्तिक थे, उन्हें भी किसी ईश्वर में विश्वास नहीं था। लेकिन वे पहुंच गए, उन्होंने पाया; वे समग्रता को, पूर्ण को उपलब्ध हुए। अगर तुम्हें किसी परमात्मा में विश्वास नहीं है तो तुम अधार्मिक नहीं हो, क्योंकि धर्म के लिए ईश्वर बुनियादी नहीं है। धर्म के लिए निरहंकार बुनियादी है। और अगर तुम ईश्वर में विश्वास भी करते हो, लेकिन अहंकार भरे मन से विश्वास करते हो तो तुम अधार्मिक हो। अहंकार—रहित मन के लिए ईश्वर में विश्वास की भी जरूरत नहीं है; निरहंकारी व्यक्ति अपने आप ही, सहज ही परमात्मा में लीन हो जाता है। निरहंकारी होकर तुम लहर से नहीं चिपके रह सकते हो; तुम्हें सागर में गिरना ही होगा। अहंकार लहर से चिपका रहता है। जीवन को सागर की भांति देखो और अपने को लहर मात्र समझो; और इस भाव को अपने भीतर उतरने दो।
इस विधि को तुम कई ढंग से उपयोग में ला सकते हो। श्वास लेते हो तो भाव करो कि सागर ही तुम्‍हारे भीतर श्वास ले रहा है; सागर ही तुम्‍हारे भीतर आता है बाहर जाता है, आता—जाता रहता है। प्रत्येक श्वास के साथ महसूस करो कि लहर उठ रही है, प्रत्येक श्वास के साथ महसूस करो कि लहर मिट रही है। और दोनों के बीच में तुम कौन हो? बस एक शून्य, खालीपन।
उस शून्यता के भाव के साथ तुम रूपांतरित हो जाओगे। उस खालीपन के भाव के साथ तुम्हारे सब दुख विलीन हो जाएंगे। क्योंकि दुख को होने के लिए किसी केंद्र की जरूरत है—वह भी झूठे केंद्र की। शून्य ही तुम्हारा असली केंद्र है। उस शून्य में दुख नहीं है; उस शून्य में तुम गहन विश्राम में होते हो। जब तुम ही नहीं हो तो तनावग्रस्त कौन होगा? तुम तब आनंद से भर जाते हो। ऐसा नहीं है कि तुम आनंदपूर्ण होते हो; सिर्फ आनंद होता है। तुम्हारे बिना क्या तुम दुख निर्मित कर सकते हो?
यही कारण है कि बुद्ध कभी नहीं कहते हैं कि उस अवस्था में, उस परम अवस्था में आनंद होगा। वे ऐसा नहीं कहते; वे यही कहते हैं कि दुख नहीं होगा, बस। आनंद की बात करने से तुम भटक सकते हो, इसलिए बुद्ध आनंद की बात नहीं करते। वे कहते हैं कि आनंद की बात ही मत पूछो, सिर्फ इतना जानो कि दुख से कैसे मुक्‍त हुआ जाए; उसका मतलब है कि अपने बिना, खुद के बिना कैसे हुआ जाए।
हमारी समस्या क्या है? समस्या यह है कि लहर अपने को सागर से पृथक मानती है। तब समस्याएं उठ खड़ी होती हैं। अगर लहर अपने को सागर से पृथक मानती है तो उसे तुरंत मृत्यु का भय पकड़ेगा। लहर तो मिटेगी। लहर अपने चारों ओर अन्य लहरों को मिटते हुए देख सकती है। और तुम अपने को बहुत समय तक धोखा नहीं दे सकते। लहर देख रही है कि दूसरी लहरें मिट रही हैं। और लहर जानती है कि उसके उठने में ही कहीं मृत्यु छिपी है। क्योंकि दूसरी लहरें भी तो क्षणभर पहले उठ रही थीं और अब वे गिर रही हैं, बिखर रही हैं, मिट रही हैं। तुम्हें भी मिटना होगा।
अगर लहर अपने को सागर से पृथक मानती है तो देर—अबेर मृत्यु का भय उसे अवश्य घेरेगा। लेकिन अगर लहर जान ले कि मैं नहीं हूं सागर है, तो मृत्यु का कोई भय नहीं है। लहर ही मरती है, सागर नहीं मरता। मैं मर सकता हूं; लेकिन जीवन नहीं मरता। तुम मर सकते हो, तुम मरोगे; लेकिन जीवन नहीं मरेगा, अस्तित्व नहीं मरेगा। अस्तित्व तो लहराता ही जाता है। वह तुममें लहराया है; वह दूसरों में लहराएगा। और जब तुम्हारी लहर बिखर रही होगी, तो संभव है कि तुम्हारे बिखराव में से ही दूसरी लहरें उठे। सागर जारी रहता है।
जब तुम अपने को लहर के रूप से पृथक देख लेते हो और सागर के साथ, अरूप के साथ एक जान लेते हो, एकात्म अनुभव करते हो, तो फिर तुम्हारी मृत्यु नहीं है। अन्यथा मृत्यु का भय दुख निर्मित करेगा। प्रत्येक पीड़ा में, प्रत्येक संताप में, प्रत्येक चिंता में मृत्यु का भय मूलभूत है। तुम भयभीत हो, कांप रहे हो। चाहे तुम्हें इसका बोध न हो, लेकिन अगर तुम अपने अंतस में प्रवेश करोगे तो पाओगे कि प्रत्येक क्षण तुम कांप रहे हो, क्योंकि तुम मरने वाले हो। तुम अनेक सुरक्षा के उपाय कर सकते हो, तुम अपने चारों ओर किलाबंदी कर सकते हो; लेकिन कुछ भी काम न देगा। कुछ भी काम नहीं देगा, धूल धूल में जा मिलेगी। तुम धूल में मिलने ही वाले हो।
क्या तुमने कभी इस बात पर गौर किया है, इस तथ्य पर ध्यान किया है कि अभी तुम रास्ते पर चल रहे हो तो जो धूल तुम्हारे जूते पर जमा हो रही है, हो सकता है वह धूल किसी नेपोलियन, किसी सिकंदर के शरीर की धूल हो! सिकंदर इस समय कहीं न कहीं धूल बना पड़ा है और हो सकता है कि तुम्हारे जूते से चिपकी धूल सिकंदर के शरीर की ही धूल हो। यही तुम्हारा भी हाल होने वाला है। इस क्षण तुम हो और अगले क्षण तुम नहीं होगे। यही तुम्हारा भी हाल होने वाला है। देर—अबेर धूल धूल में मिल जाएगी; लहर विदा हो जाएगी।
भय पकड़ता है। जरा कल्पना करो कि तुम किसी के जूते से चिपकी हुई धूल हो या कोई तुम्हारे शरीर से, तुम्हारी प्रेमिका के शरीर से चाक पर बर्तन गढ़ रहा है। या कल्पना करो कि तुम किसी कीड़े के शरीर में या वृक्ष के शरीर में प्रवेश कर रहे हो। लेकिन यही हो रहा है। प्रत्येक चीज रूप है और रूप को मिटना है। केवल अरूप शाश्वत है। अगर तुम रूप से बंधे हो, अगर रूप से तुम्हारा तादात्‍मय है, अगर तुम अपने को लहर मानते हो, तो तुम अपने ही हाथों उपद्रव में पड़ने जा रहे हो।
तुम सागर हो, लहर नहीं। यह ध्यान सहयोगी हो सकता है। यह तुम्हारा रूपांतरण बन सकता है, यह आमूल संपरिवर्तन बन सकता है। लेकिन इसे अपने पूरे जीवन पर फैलने दो। श्वास लेते हुए सोचो, भोजन करते हुए सोचो, चलते हुए सोचो। दो चीजें सोचो कि रूप सदा लहर है और अरूप सागर है, कि रूप मृण्मय है और अरूप अमृत है।
और ऐसा नहीं है कि तुम किसी दिन मरोगे; तुम प्रतिदिन मर रहे हो। बचपन मरता है और यौवन जन्म लेता है। फिर यौवन मरता है और बुढ़ापा जन्मता है। और फिर बुढापा भी मरता है और रूप विदा हो जाता है। प्रत्येक क्षण तुम मर रहे हो; प्रत्येक क्षण तुम जन्म रहे हो। तुम्हारे जन्म का पहला दिन तुम्हारे जीवन का पहला दिन नहीं है, वह तो आने वाले अनेक—अनेक जन्मों में से एक है। वैसे ही तुम्हारे इस जीवन की मृत्यु पहली मृत्यु नहीं है; वह तो सिर्फ इस जीवन की मृत्यु है। तुम पहले भी मरते रहे हो। प्रतिक्षण कुछ मर रहा है और कुछ जन्म ले रहा है। तुम्हारा एक अंश मरता है, दूसरा अंश जन्मता है।
शरीर शास्त्री कहते हैं कि सात वर्षों में तुम्हारे शरीर का कुछ भी पुराना नहीं बचता है, एक—एक चीज, एक—एक कोष्ठ बदल जाता है। अगर तुम सत्तर वर्ष जीने वाले हो तो इस बीच तुम्हारा शरीर दस बार बदलेगा, पूरे का पूरा बदलेगा। हर सात वर्षों में तुम्हें नया शरीर मिलता है। लेकिन यह परिवर्तन अचानक नहीं होता, प्रत्येक क्षण कुछ न कुछ बदल रहा होता है।
तुम एक लहर हो और वह भी बहुत ठोस नहीं। प्रतिक्षण तुम बदल रहे हो। और लहर थिर नहीं हो सकती, गतिहीन नहीं हो सकती, लहर को सतत बदलते रहना है, सतत गतिमान रहना है। थिर लहर जैसी कोई चीज नहीं होती है। कैसे हो सकती है? थिर लहर का कोई अर्थ नहीं है। वह गति है, प्रक्रिया है। तुम गति हो, प्रक्रिया हो। अगर तुम इस गति से तादात्म कर बैठे और अपने को जन्म और मृत्यु के बीच सीमित मानने लगे तो तुम पीड़ा में, दुख में पड़ोगे। तब तुम आभास को सत्य मान रहे हो। इसको ही शंकर माया कहते हैं।
सागर ब्रह्म है; सागर सत्य है। अपने को लहर मानो, या उठती—गिरती लहरों का एक सातत्य मानो; और उसके साक्षी होओ। तुम कुछ कर नहीं सकते हो। ये लहरें विलीन होंगी। जो प्रकट हुआ है, वह विलीन होगा; उसके संबंध में कुछ नहीं किया जा सकता। सब प्रयत्न बिलकुल व्यर्थ है। सिर्फ एक चीज की जा सकती है। वह है इस लहर—रूप का साक्षी होना। और एक बार तुम साक्षी हो गए तो तुम्हें अचानक उसका बोध हो जाएगा जो लहर के पार है, जो लहर के पीछे है, जो लहर में भी है और लहर के बाहर भी है, जिससे लहर बनती है और जो फिर भी लहर के पार है; जो सागर है।
'जैसे जल से लहरें उठती हैं और अग्नि से लपटें, वैसे ही सर्वव्यापक हम से लहराता है।
सर्वव्यापक हमसे लहराता है। तुम नहीं हो; सर्वव्यापक है। वह तुम्हारे द्वारा लहरा रहा है। इसे महसूस करो, इसका मनन करो, इस पर ध्यान करो। और बहुत—बहुत ढंगों से इसे अपने पर घटित होने दो।
मैंने तुम्हें श्वास के संबंध में कहा। तुममें कामवासना उठती है; उसे महसूस करो, ऐसे नहीं जैसे वह तुम्हारी कामवासना है, बल्कि ऐसे कि सागर तुममें लहरा रहा है, जीवन तुममें धड़क रहा है, जीवन तुममें लहर ले रहा है। तुम संभोग में मिलते हो, ऐसा मत सोचो कि दो लहरें मिल रही हैं, ऐसा मत सोचो कि दो व्यक्ति मिल रहे हैं; बल्कि ऐसा सोचो कि दो व्यक्ति एक—दूसरे में विलीन हो रहे हैं। दो व्यक्ति अब नहीं बचे, लहरें विलीन हो गई हैं, केवल सागर बचा है। तब संभोग ध्यान बन जाता है।
जो भी तुम्हें घटित हो रहा है, ऐसा भाव करो कि वह ब्रह्मांड को घटित हो रहा है, कि मैं उसका अंश मात्र हूं कि मैं सतह पर एक लहर मात्र हूं। सब कुछ अस्तित्व पर छोड़ दो। झेन सदगुरु डोजेन कहा करता था—जब उसे भूख लगती थी तो वह कहता था—कि ऐसा लगता है कि अस्तित्व को मेरे द्वारा भूख लगी है। जब उसे प्यास लगती तो वह कहता था कि मेरे भीतर अस्तित्व प्यासा है।
यह ध्यान तुम्हें उसी स्थिति में पहुंचा देगा। तब तुम्हारा अहंकार बिखर जाता है, मिट जाता है और सब कुछ ब्रह्मांड का हिस्सा हो जाता है। तब जो भी होता है, अस्तित्व को होता है। तुम अब यहां नहीं हो। और तब कोई पाप नहीं है; तब कोई जिम्मेवारी नहीं है।
मेरा मतलब यह नहीं है कि तुम उच्छृंखल हो जाओगे। मेरा मतलब यह भी नहीं है कि तुम पापी हो जाओगे। पाप असंभव हो जाएगा, क्योंकि पाप अहंकार के इर्द—गिर्द ही घटित होता है। जिम्मेवारी नहीं रहेगी, क्योंकि अब तुम गैर—जिम्मेवार नहीं हो सकते। अब तो केवल तुम हो; इसलिए किसके प्रति जिम्मेवार होगे?
अब अगर तुम किसी को मरते देखोगे तो तुम्हें लगेगा कि उसके साथ, उसके भीतर, मैं ही मर रहा हूं तब तुम्हें लगेगा कि पूरा जगत मर रहा है और मैं उस जगत का अंश हूं। और अगर किसी फूल को खिलते देखोगे तो तुम उसके साथ—साथ खिलोगे। अब सारा ब्रह्मांड तुममय है। और ऐसी घनिष्ठता में, ऐसी लयबद्धता में होना समाधि में होना है। ध्यान मार्ग है और यह एकता का भाव, सब के साथ जुड़े होने का भाव, मंजिल है।
इसे प्रयोग करो। सागर को स्मरण रखो और लहर को भूल जाओ। और ध्यान रहे, जब भी तुम लहर को स्मरण करोगे और लहर की भांति व्यवहार करने लगोगे तो तुम भूल करोगे और उसके कारण दुख में पड़ोगे। कहीं कोई ईश्वर नहीं है जो तुम्हें दंड दे रहा है। जब भी तुम किसी भ्रांति के शिकार होते हो, तुम अपने को दंड देते हो। जगत में एक नियम है, धर्म है, ताओ है। अगर तुम इसके साथ लयबद्ध चलते हो तो तुम आनंद में हो। यदि तुम उसके विपरीत चलोगे, तुम अपने को दुख में पाओगे। वहां आकाश में कोई नहीं बैठा है तुम्हें दंडित करने को। वहां तुम्हारे पापों का कोई बही—खाता नहीं है; न उसकी कोई जरूरत है।
यह ठीक गुरुत्वाकर्षण जैसा है। अगर तुम सही ढंग से चलते हो तो गुरुत्वाकर्षण सहयोगी होता है; गुरुत्वाकर्षण के बिना तुम चल नहीं सकते। लेकिन अगर तुम गलत ढंग से चलोगे तो गिरोगे; अपनी हड्डी भी तोड़ ले सकते हो। लेकिन कोई तुम्हें दंड नहीं दे रहा है; सिर्फ नियम है गुरुत्वाकर्षण का, निरपेक्ष नियम है। अगर तुम गलत चलोगे और गिरोगे तो तुम्हारी हड्डी टूट जाएगी। और ठीक से चलोगे तो उसका मतलब है कि तुम गुरुत्वाकर्षण का सही उपयोग कर रहे हो। ऊर्जा का सही और गलत दोनों तरह से उपयोग हो सकता है।
जब तुम अपने को लहर मानते हो तो तुम जागतिक नियम के विरोध में हो, तुम सत्य के विरोध में हो। तब तुम अपने लिए दुख निर्मित करोगे। कर्म के सिद्धांत का यही मतलब है। कोई कानून बनाने वाला नहीं है; परमात्मा कोई जज नहीं है। जज होना कुरूप बात है। और अगर ईश्वर कोई जज होता तो अब तक बिलकुल ही ऊब गया होता या पागल हो गया होता। वह कोई जज नहीं है; वह कोई कंट्रोलर नहीं है; वह कोई कानून बनाने वाला भी नहीं है। जगत के अपने ही नियम हैं। और बुनियादी नियम यह है कि सच्चा होना आनंद में होना है और झूठा होना दुख में होना है।

 दूसरी विधि :

जहां कहीं तुम्हारा मन भटकता है भीतर या बाहर उसी स्थान पर यह।

ह मन द्वार है—यही मन। जहां कहीं यह मन भटकता है, जो कुछ यह सोचता है, मनन करता है, सपने देखता है—यही मन और यही क्षण द्वार है।
यह एक अति क्रांतिकारी विधि है; क्योंकि हम कभी नहीं सोचते कि साधारण मन द्वार है। हम सोचते हैं कि कोई महान मन, कोई बुद्ध या जीसस का मन प्रवेश कर सकता है। हम सोचते हैं कि बुद्ध या जीसस के पास कोई असाधारण मन है। और यह सूत्र कहता है कि तुम्हारा साधारण मन ही द्वार है—वही मन जो सपने देखता है, कल्पनाएं करता है, ऊलजलूल सोच—विचार करता है। यही मन द्वार है जो कुरूप कामनाओं और वासनाओं से, क्रोध और लोभ से खचाखच भरा है; जिसमें वह सब है जो निंदित है, जो तुम्हारे बस के बाहर है, जो तुम्हें यहां से वहां भटकाता रहता है; जो सतत एक पागलखाना है। यही मन द्वार है।
'जहां कहीं तुम्हारा मन भटकता है...।
इस जहां कहीं को स्मरण रखो। भटकने का विषय महत्वपूर्ण नहीं है।
'जहां कहीं तुम्हारा मन भटकता है, भीतर या बाहर, उसी स्थान पर, यह।
बहुत सी बातें समझने जैसी हैं। एक कि साधारण मन उतना साधारण नहीं है जितना हम समझते हैं। साधारण मन जागतिक मन से असंबद्ध नहीं है; वह उसका ही अंश है। उसकी जड़ें अस्तित्व के केंद्र तक चली गई हैं; अन्यथा तुम अस्तित्व में नहीं हो सकते हो। एक पापी भी परमात्मा में आधारित है; अन्यथा वह अस्तित्व में नहीं हो सकता है। वह जो शैतान है वह भी: परमात्मा के सहारे के बिना नहीं हो सकता है। अस्तित्व ही इसलिए संभव है; क्योंकि वह परमात्मा में प्रतिष्‍ठित है।
तुम्हारा मन स्‍वप्‍न देखता है, कल्पना करता है, भटकता है; वह तनावग्रस्त है, दुख में है, संताप में है। वह जैसे भी गति करता है, जहां कहीं भी जाता है, वह समग्र से जुड़ा रहता है। अन्यथा संभव नहीं है। तुम अस्तित्व से भाग नहीं सकते; वह असंभव है। इसी क्षण तुम्हारी जड़ें अस्तित्व में गडी हैं। तब क्या किया जाए?
अगर इसी क्षण हमारी जड़ें अस्तित्व में गड़ी हैं तो अहंकारी मन को लगेगा कि फिर तो कुछ करना नहीं है। हम तो परमात्मा में ही हैं, फिर इतनी आपा— धापी की क्या जरूरत? तुम्हारी जड़ें तो परमात्मा में हैं, लेकिन तुम इस तथ्य के प्रति मूर्च्‍छित हो। जब मन भटकता है तो दो चीजें होती हैं. मन और भटकाव; मन के विषय और मन; आकाश में तिरते बादल और आकाश। वहां दो चीजें हैं : बादल और आकाश। कभी ऐसा भी हो सकता है कि बादल इतने हो जाते हैं कि आकाश छिप जाता है, तुम उसे देख नहीं पाते।
लेकिन जब तुम नहीं देख पाते हो तब भी आकाश विलीन नहीं हो जाता है। वह विलीन नहीं हो सकता है। आकाश के विलीन होने का कोई उपाय नहीं है। वह है; आच्छादित या प्रकट, दृश्य या अदृश्य, वह है। लेकिन बादल भी हैं। अगर तुम बादलों पर ही ध्यान देते हो तो आकाश भूल जाता है। और अगर तुम आकाश पर ध्यान देते हो तो बादल गौण हो जाते हैं; वे आते और जाते हैं। तुम्हें बादलों की बहुत चिंता लेने की जरूरत नहीं है। वे आते—जाते रहते हैं। वे आते—जाते रहे हैं, लेकिन उन्होंने आकाश को रत्तीभर भी नष्ट नहीं किया है। उन्होंने आकाश को गंदा भी नहीं किया है। उन्होंने उसको स्पर्श भी नहीं किया है। आकाश तो सदा कुंआरा है।
जब तुम्हारा मन भटकता है तो दो चीजें होती हैं। एक तो बादल हैं, विचार हैं, विषय हैं, बिंब हैं; और दूसरी चेतना है, खुद मन है। जब तुम बादलों पर, विचारों पर, बिंबों पर बहुत ध्यान देते हो तो तुम आकाश को भूल गए। तब तुम मेजबान को भूल गए और मेहमान में ही बुरी तरह उलझ गए। वे विचार, वे बिंब, जो भटक रहे हैं; केवल मेहमान हैं। अगर तुम मेहमानों पर सब ध्यान लगा देते हो तो तुम अपनी आत्मा ही भूल बैठे।
अपने ध्यान को मेहमानों से हटाकर मेजबान पर लगाओ; बादलों से हटाकर आकाश पर केंद्रित करो। और इसे व्यावहारिक ढंग से करो। कामवासना उठती है, यह बादल है। या बड़ा घर पाने का लोभ पैदा होता है; यह भी बादल है। तुम इससे इतने ग्रस्त हो जा सकते हो कि तुम भूल ही जाओ कि यह किस में उठ रहा है, यह किस को घटित हो रहा है, कौन इसके पीछे है, किस आकाश में यह बादल उठ रहा है। उस आकाश को स्मरण करो; और अचानक बादल विदा हो जाएगा। सिर्फ दृष्टि बदलने की जरूरत है; परिप्रेक्ष्य बदलने की जरूरत है। दृष्टि को विषय से विषयी पर, बाहर से भीतर पर, बादल से आकाश पर, अतिथि से आतिथेय पर ले जाने की जरूरत है। सिर्फ दृष्टि को बदलना है, फोकस बदलना है।
एक झेन सदगुरु लिंची प्रवचन कर रहा था। भीड में से किसी ने कहा : मेरे एक प्रश्न का उत्तर दें, मैं कौन हूं? लिंची ने बोलना बंद कर दिया। सब लोग चौकन्ने हो गए। लिंची क्या उत्तर देने जा रहा है, सब यही सोच रहे थे। लेकिन उसने कोई उत्तर नहीं दिया। वह कुर्सी से नीचे उतरा, आगे बढ़ा और उस आदमी के पास पहूंचा। पूरी भीड़ चकित और सजग हो उठी। लोगों की श्‍वासें तक रूक गई थी़ं। लिंची क्‍या करने जा रहा है? उसे कुर्सी पर बैठे—बैठे ही जवाब दे देना था; कुर्सी से उठने की क्‍या जरूरत थी। और प्रश्‍नकर्ता तो बहुत भयभीत हो उठा। लिंची अपनी बेधक दृष्‍टि उस व्‍यक्‍ति पर जमाए पास आया। उसने उस आदमी का गला पकड़ लिया,उसे झकझोरा और कहा: आंखें बंद करो और उसका स्‍मरण करो जा यह प्रश्‍न पूछ रहा है। कि मैं कौन हूं।
उस आदमी ने आंखें बंद की—हालांकि डरते—डरते बंद की। वह अपने भीतर खोजने गया कि किसने यह प्रश्‍न पूछा है। और वह वापस नहीं आया। भीड़ प्रतीक्षा करती रहीं,प्रतीक्षा करती रही,प्रतीक्षा करती रहीं। उस आदमी का चेहरा मौन और शांत हो गया। तब लिंची ने उसे फिर झकझोरा: अब बाहर आओ और सबको बताओ कि तुम कौन हो। वह आदमी हंसने लगा और उसने कहा: जवाब देने का आपका खूब अद्भुत ढंग है। लेकिन यदि कोई व्‍यक्‍ति अभी मुझसे यही पूछे तो मैं भी वही करूंगा; मैं उत्‍तर नहीं दे सकता।
यह दृष्‍टि की, परिप्रेक्ष्‍य की बदलाहट थी। तुम पूछते हो कि मैं कौन हूं। और तुम्‍हारा मन प्रश्‍न पर केंद्रित है, जब कि उत्‍तर के ठीक पीछे प्रश्‍नकर्ता में छिपा है। दृष्‍टि को बदलों; अपने पर लौट ओओ।
यह सूत्र कहता है: जहां कहीं तुम्‍हारा मन भटकता है, भीतर या बाहर, उसी स्‍थान पर यह।
विषय से मन पर चले आओ और तुम फिर साधारण मन न रहे। तुम विषयों के कारण साधारण हो। दृष्‍टि के बदलते ही तुम स्‍वयं बुद्ध हो जाते हो। तुम बुद्ध ही हो; लेकिन अनेक बादलों के नीचेदबे हो। इतना ही नहीं कि तुम बादलों से दबे हो; तुम उनसे बंधे हो, तुम उन्‍हें जाने भी नहीं देते।
तुम सोचते हो कि बादल मेरी संपदा है। तुम सोचते हो कि जितने बादल होंगे; मैं उतना ही बेहतर, उतना ही ज्‍यादा समृद्ध हो जाऊंगा। और तुम्‍हारा सारा आकाश, सारा आंतरिक आकाश उनसे आच्‍छादित है, ढंका है, एक अर्थ में बादलों का जीवन ही संसार है।
यह बात एक क्षण में घट सकती है—यह दृष्‍टि की बदलाहट। यह सदा अचानक ही घटती है। मैं यह नहीं कहा रहा हूं कि तुम कुछ भी मत करो और यह अचानक घटेगी। तुम्‍हें बहुत कुछ करना होगा। लेकिन यह क्रमिक ढंग से नहीं घटता है। तुम्‍हें बहुत कुछ करना होगा। करना ही होगा। तब करते—करते एक दिन वह क्षण आता है जब तुम भाप बनने के सही तापमान पर पहुंच जाते हो। अचानक पानी—पानी नहीं रहता है। वह भाप बन गया। अचानक तुम विषय से बाहर हो गए; तुम्‍हारी आंखें अब बादलों पर नहीं अटकी है। अब अचानक तुम आंतरिक आकाश की तरफ भीतर मुड़ गए।
ऐसा कभी क्रमिक रूप से नहीं होता कि तुम्‍हारी आँख का एक अंश भीतर की और मुड़ जाता है। और उसका दूसरा अंश बाहर बादलों पर लगा रहता है। नहीं, यह अंशों में नहीं घटित होता कि तुम अब दस प्रतिशत भीतर हो और नब्‍बे प्रतिशत बाहर, कि बीस प्रतिशत भीतर हो और अस्‍सी प्रतिशत बाहर। नहीं, जब यह घटित होता है तो शत प्रतिशत होता है। क्योंकि तुम अपनी दृष्टि को खंड—खंड नहीं कर सकते हो। या तो तुम विषयों को देखते हो या अपने को, या संसार को या ब्रह्म को।
फिर तुम संसार में वापस आ सकते हो; तुम फिर अपनी दृष्टि बदल सकते हो। अब तुम मालिक हो। सच तो यह है कि तुम तभी मालिक होते हो जब स्वेच्छा से अपनी दृष्टि बदल सकते हो।
मुझे एक तिब्बती संत मारपा का स्मरण आता है। जब वह ज्ञान को उपलब्ध हुआ—जब वह बुद्ध हुआ, जब वह अंतस की ओर मुड़ गया, जब उसने अंतराकाश का, अनंत का साक्षात्कार किया—तो किसी ने उससे पूछा. मारपा, अब कैसे हो? तो मारपा ने जो उत्तर दिया वह अपूर्व है, अप्रत्याशित है। अब तक किसी बुद्ध ने वैसा उत्तर नहीं दिया था। मारपा ने कहा. पहले जैसा ही दुखी।
वह आदमी तो भौचक्का रह गया; उसने पूछा : पहले जैसा ही दुखी? लेकिन मारपा हंसा; उसने कहा : ही, लेकिन एक फर्क के साथ। और फर्क यह है कि अब मेरा दुख स्वैच्छिक है। अब मैं कभी—कभी बस संसार का स्वाद लेने के लिए अपने से बाहर चला जाता हूं लेकिन मैं मालिक हूं। मैं किसी भी क्षण भीतर लौट सकता हूं। और दोनों ध्रुवों के बीच गति करना अच्छा है। तभी कोई जीवंत रहता है। मारपा ने कहा : मैं अब दोनों जगत में गति कर सकता हूं। कभी मैं दुखों में लौट जाता हूं लेकिन अब दुख मुझे नहीं घटित होते हैं, मैं ही उन्हें घटित होता हूं। और मैं उनसे अछूता रहता हूं।
निश्चित ही, जब तुम स्वेच्छा से गति करते हो तो तुम अछूते रहते हो। एक बार तुमने जान लिया कि दृष्टि को अंतर्मुखी कैसे किया जाए, तुम संसार में वापस आ सकते हो। सभी बुद्धषुरुष संसार में वापस आए हैं। वे दृष्टि को फिर संसार पर ले जाते हैं। लेकिन अब आंतरिक मनुष्य की गुणवत्ता भिन्न है। वह जानता है कि यह उसकी स्वतंत्र दृष्टि है; वह बादलों को भी गति करने की इजाजत दे सकता है। अब बादल मालिक न रहे, वे तुम पर हावी नहीं हो सकते। वे अब तुम्हारी मर्जी से घूमते हैं।
और यह सुंदर है। कभी—कभी बादलों से भरा आकाश सुंदर होता है, बादलों की हलचल सुंदर होती है। अगर आकाश आकाश बना रहे तो बादलों को तिरने दिया जा सकता है। समस्या तो तब खड़ी होती है जब आकाश अपने को भूल जाता है और वहां बादल ही बादल रह जाते हैं। तब सब कुछ कुरूप हो जाता है, क्योंकि स्वतंत्रता खो गई।
यह सूत्र सुंदर है. 'जहां कहीं तुम्हारा मन भटकता है, भीतर या बाहर, उसी स्थान पर, यह।
झेन परंपरा में इस सूत्र का गहरा उपयोग हुआ है। झेन कहता है कि साधारण मन ही बुद्ध—मन है। भोजन करते हुए तुम बुद्ध हो; सोते हुए तुम बुद्ध हो, कुएं से पानी ले जाते हुए तुम बुद्ध हो। तुम हो! कुएं से पानी ले जाते हुए भोजन करते हुए, बिस्तर पर लेटे हुए तुम बुद्ध हो! यह बात सोच में भी नहीं आती; यह पहेली जैसी लगती है। लेकिन यह सत्य है। अगर पानी ढोते हुए तुम सिर्फ पानी ढोते हो, तुम उसे समस्या नहीं बनाते और सिर्फ पानी ढोते हो, अगर तुम्हारा मन बादलों से मुक्‍त है और आकाश खाली है, अगर तुम केवल पानी ढोते हो, तो तुम बुद्ध हो। तब भोजन करते हुए तुम सिर्फ भोजन करते हो और कुछ नहीं करते।
लेकिन हम जब भोजन करते हैं तो उसके साथ हजारों चीजें करते रहते हैं। हो सकता है कि तुम्‍हारा मन भोजन में बिलकुल न हो; तुम्‍हारा शरीर यंत्र की तरह भोजन कर रहा हो और तुम्हारा मन कहीं और हो।
किसी विश्वविद्यालय का एक छात्र यहां कुछ दिन पहले आया था। उसकी परीक्षा करीब थी, इसलिए वह कुछ पूछने आया था। उसने कहा : मैं बहुत उलझन में हूं। समस्या यह है कि मैं एक लड़की के प्रेम में पड़ गया हूं और परीक्षा निकट है। जब मैं लड़की के साथ होता हूं तो परीक्षा की सोचता रहता हूं और जब पढ़ता होता हूं तो लड़की की सोचता रहता हूं। मैं क्या करूं? पढ़ते समय मैं वहां नहीं होता, मैं कल्पना में अपनी प्रेमिका के साथ होता हूं। और प्रेमिका के साथ जब होता हूं तो कभी उसके साथ नहीं होता; मैं अपनी समस्याओं के बारे में, नजदीक आती परीक्षा के बारे में चिंता करता रहता हूं। नतीजा यह है कि सब कुछ गड्ड—मड्ड हो गया है।
यह लड़का ही नहीं ऐसे ही हर कोई गड्ड—मड्ड हो गया है। तुम जब दफ्तर में होते हो तो तुम्हारा मन घर में होता है; तुम जब घर में होते हो तो तुम्हारा मन दफ्तर में होता है। और तुम ऐसा जादुई करिश्मा कर नहीं सकते; घर में होकर तुम घर में ही हो सकते हो, दफ्तर में नहीं हो सकते; और अगर तुम दफ्तर में हो तो तुम्हारा दिमाग ठीक नहीं है, तुम पागल हो। तब हर चीज दूसरी चीज में उलझ जाती है, गुत्थमगुत्था हो जाती है। तब कुछ भी स्पष्ट नहीं रहता है। और यही मन समस्या है।
कुएं से पानी खींचते हुए, कुएं से पानी ढोते हुए तुम अगर मात्र यही काम कर रहे हो तो तुम बुद्ध हो। अगर तुम झेन सदगुरुओं के पास जाओ और उनसे पूछो कि आप क्या करते हैं? आपकी साधना क्या है? ध्यान क्या है? तो वे कहेंगे : जब नींद आती है तो हम सो जाते हैं; जब भूख लगती है तो हम भोजन कर लेते हैं। बस यही हमारी साधना है और कोई साधना नहीं है।
लेकिन यह बहुत कठिन है, हालांकि आसान मालूम पड़ता है। अगर भोजन करते हुए तुम सिर्फ भोजन करो, अगर बैठे हुए तुम सिर्फ बैठो और कुछ न करो, अगर तुम वर्तमान क्षण के साथ रह सको, उससे हटो नहीं, अगर तुम वर्तमान क्षण में डूब सको, न कोई अतीत हो, न कोई भविष्‍य हो, अगर. वर्तमान क्षण ही एकमात्र अस्तित्व हो, तो तुम बुद्ध हो। तब यही मन बुद्ध—मन बन जाता है।
तो जब तुम्हारा मन भटकता हो तो उसे रोकने की चेष्टा मत करो, बल्कि आकाश को स्मरण करो। जब मन भटके तो उसे रोको मत। उसे किसी बिंदु पर लाने की, एकाग्र करने की चेष्टा मत करो। नहीं, उसे भटकने दो, लेकिन भटकाव पर बहुत अवधान मत दो—न पक्ष में, न विपक्ष में। क्योंकि तुम चाहे उसके पक्ष में रहो या विपक्ष में, तुम उससे बंधे रहते हो। आकाश को स्मरण करो। भटकन को चलने दो और इतना ही कहो : ठीक है, यह चलती हुई राह है; अनेक लोग इधर—उधर चल रहे हैं। मन एक चलती राह है। मैं आकाश हूं बादल नहीं।
इसे स्मरण रखो, इस भाव में उतरो; इसमें ही स्थित रहो। देर—अबेर तुम देखोगे कि बादलों की गति मंद पड़ रही बादलों के बीच बड़े अंतराल आने लगे हैं। वे अब उतने काले नहीं हैं, उतने घने नहीं हैं। उनकी गति मंद हो गई है,. उनके बीच अंतराल देखे जा सकते हैं, उनके पीछे का आकाश दिखाई पड़ने लगा है। अपने को आकाश की भांति अनुभव करते रहो, बादलों की भांति नहीं। देर—अबेर किसी दिन, किसी सम्यक क्षण में, जब तुम्हारी दृष्टि सचमुच भीतर लौट गई है, बादल विलीन हो जाएंगे; और तब तुम शुद्ध आकाश हो, सदा से शुद्र, सदा से अस्पर्शित आकाश हो।
और एक बार तुमने इस कुंआरेपन को जान लिया तो फिर बादलों में, बादलों के संसार में वापस आ सकते हो। तब संसार का अपना ही सौंदर्य है, तब तुम इसमें रह सकते हो, लेकिन अब तुम मालिक हो।
संसार बुरा नहीं है। मालिक की तरह संसार समस्या है; जब तुम ही मालिक हो तो तुम उसमें रह सकते हो। तब संसार का अपना ही सौंदर्य है, वह सुंदर है, प्यारा है। लेकिन तुम उस सौंदर्य को, उस माधुर्य को अपने भीतर मालिक होकर ही जान सकते हो।

 तीसरी विधि:

जब किसी इंद्रिय— विशेष के द्वारा स्पष्ट बोध हो उसी बोध में स्थित होओ।

तुम अपनी आख के द्वारा देखते हो। ध्यान रहे, तुम अपनी आख के द्वारा देखते हो। आंखें नहीं देख सकतीं; उनके द्वारा तुम देखते हो। द्रष्टा पीछे छिपा है, भीतर छिपा है, आंखें बस द्वार हैं, झरोखे हैं। लेकिन हम सदा सोचते हैं कि हम आख से देखते हैं; हम सोचते हैं कि हम कान से सुनते हैं। कभी किसी ने कान से नहीं सुना है। तुम कान के द्वारा सुनते हो, कान से नहीं। सुनने वाला पीछे छिपा है। कान तो रिसीवर भर है।
मैं तुम्हें छूता हूं; मैं बहुत प्रेमपूर्वक तुम्हारा हाथ अपने हाथ में लेता हूं। यह हाथ नहीं है जो तुम्हें छूता है, यह मैं हूं जो हाथ के द्वारा तुम्हें छू रहा हूं। हाथ यंत्र भर है। और स्पर्श भी दो भांति का है। एक, जब मैं सच ही तुम्हें स्पर्श करता हूं। और दूसरा, जब मैं स्पर्श से बचना चाहता हूं। मैं तुम्हें छूकर भी स्पर्श से बच सकता हूं; मैं अपने हाथ में न रहूं; मैं हाथ से अपने को अलग कर लूं।
इसे प्रयोग करके देखो, तुम्हें एक भिन्न अनुभव होगा, एक दूरी का अनुभव होगा। किसी पर अपना हाथ रखो और अपने को अलग रखो; वहां सिर्फ मुर्दा हाथ होगा, तुम नहीं। और अगर दूसरा व्यक्ति संवेदनशील है तो उसे मुर्दा हाथ का एहसास होगा; वह अपमानित अनुभव करेगा। क्योंकि तुम उसे धोखा दे रहे हो; तुम छूने का दिखावा कर रहे हो, छू नहीं रहे हो।
स्त्रियां इस मामले में बहुत संवेदनशील हैं, तुम उन्हें धोखा नहीं दे सकते। स्पर्श के प्रति, शारीरिक स्पर्श के प्रति वे ज्यादा सजग हैं; वे जान जाती हैं। हो सकता है पति मीठी—मीठी बातें कर रहा हो, वह फूल ले आया हो और कह रहा हो कि मैं तुम्हें प्रेम करता हूं; लेकिन उसका स्पर्श कह देगा कि वह वहा नहीं है। और स्त्रियों को सहज—बोध हो जाता है कि कब तुम उनके साथ हो और कब नहीं। अगर तुम अपने मालिक नहीं हो तो तुम उन्हें धोखा नहीं दे सकते। अगर तुम्हें अपने ऊपर मालकियत नहीं है तो तुम उन्हें धोखा नहीं दे सकते। और जो अपना मालिक है वह पति होना नहीं चाहेगा, यह कठिनाई है। तुम जो भी कहोगे, तुम्हारा स्पर्श उसे झुठला देगा।
बच्चे बहुत संवेदनशील होते हैं, तुम उन्हें धोखा नहीं दे सकते। तुम उनकी पीठ भला थपथपाते हो, लेकिन वे जान जाते है कि यह थपथपाना मुर्दा है। अगर तुम्‍हारे हाथ में प्रेम—ऊर्जा का प्रवाह नहीं है तो वे जान जाते हैं। एक मुर्दा हाथ उपयोग में लाया जा रहा है। और जब तुम समग्रता से अपने हाथ में मौजूद होते हो, जब तुम खुद हाथ के साथ आगे बढ़ते हो, जब तुम्हारे प्राण तुम्हारे हाथ में आ गए हैं, जब तुम्हारी आत्मा ही वहा मौजूद है, तब स्पर्श की गुणवत्ता ही भिन्न होती है।
यह सूत्र कहता है कि इंद्रियां द्वार भर हैं—एक माध्यम, एक यंत्र, एक रिसीविंग स्टेशन। और तुम उनके पीछे छिपे हो।
'जब किसी इंद्रिय—विशेष के द्वारा स्पष्ट बोध हो, उसी बोध में स्थित होओ।
संगीत सुनते हुए अपने को कान में मत खो दो, मत भुला दो; उस चैतन्य को स्मरण करो जो पीछे छिपा है। होश रखो। किसी को देखते हुए इस विधि का प्रयोग करो। तुम यह प्रयोग मुझे देखते हुए अभी और यहीं कर सकते हो। क्या हो रहा है?
तुम मुझे आख से देख सकते हो। और जब मैं कहता हूं आख से तो उसका मतलब है कि तुम्हें इसका बोध नहीं है कि तुम आख के पीछे छिपे हो। तुम मुझे आख के द्वारा देख सकते हो। और जब मैं कहता हूं आख के द्वारा तो उसका मतलब है कि आख बस तुम्हारे और मेरे बीच में एक यंत्र भर है, तुम आख के पीछे खड़े हो, आख के द्वारा देख रहे हो, जैसे कोई खिड़की या ऐनक के द्वारा देखता है।
तुमने बैंक में किसी क्लर्क को अपनी ऐनक के ऊपर से देखते हुए देखा होगा। ऐनक उसकी नाक पर उतर आयी है और वह देख रहा है। उसी ढंग से मुझे देखो, मेरी तरफ देखो, ऐसे देखो जैसे आख के ऊपर से देखते हो, मानो तुम्हारी आंखें सरककर नीचे नाक पर आ गई हों और तुम उनके पीछे से मुझे देख रहे हो। अचानक तुम्हें गुणवत्ता में फर्क मालूम पड़ेगा। तुम्हारा परिप्रेक्ष्य बदलता है, आंखें महज द्वार बन जाती हैं। और यह ध्यान बन जाता है।
सुनते समय कानों के द्वारा मात्र सुनो और अपने आंतरिक केंद्र के प्रति जागे रहो। स्पर्श करते हुए हाथ के द्वारा मात्र छुओ और आंतरिक केंद्र को स्मरण रखो जो पीछे छिपा है। किसी भी इंद्रिय से तुम्हें आंतरिक केंद्र की अनुभूति हो सकती है। और प्रत्येक इंद्रिय आंतरिक केंद्र तक जाती है, उसे सूचना देती है।
यही कारण है कि जब तुम मुझे देख और सुन रहे हो—जब तुम आख के द्वारा देख रहे हो और कान के द्वारा सुन रहे हो—तो तुम जानते हो कि तुम उसी व्यक्ति को देख रहे हो जिसे सुन भी रहे हो। अगर मेरे शरीर में कोई गंध है तो तुम्हारी नाक उसे भी ग्रहण करेगी। उस हालत में तीन—तीन इंद्रियां एक ही केंद्र को सूचना दे रही हैं। इसी से तुम संयोजन कर पाते हो, अन्यथा संयोजन कठिन होता।
अगर तुम्हारी आंखें ही देखती हैं और कान ही सुनते हैं तो यह जानना कठिन होता कि तुम उसी व्यक्ति को सुन रहे हो जिसे देख भी रहे हो, या दो भिन्न व्यक्तियों को देख और सुन रहे हो; क्योंकि दोनों इंद्रियां भिन्न हैं और वे आपस में नहीं मिलती हैं। तुम्हारी आंखों को तुम्हारे कानों का पता नहीं है और तुम्हारे कानों को तुम्हारी आंखों का पता नहीं है। वे एक—दूसरे को नहीं जानते हैं; वे आपस में कभी मिले नहीं हैं। उनका एक—दूसरे से परिचय भी नहीं कराया गया है। तो फिर सारा. समन्वय, सारा संयोजन कैसे घटित होता है?
कान सुनते है, आंखें देखती है, हाथ छूते है, नाक सूंघती है; और अचानक तुम्‍हारे भीतर कहीं कोई जान जाता है कि यह वही आदमी है जिसे मैं सुन रहा हूं देख रहा हूं छू रहा हूं और सूंघ रहा हूं। यह ज्ञाता इंद्रियों से पृथक और भिन्न है। सभी इंद्रियां इस ज्ञाता को ही सूचना देती हैं। और इस ज्ञाता में, इस केंद्र में सब कुछ सम्मिलित होकर, संयोजित होकर एक हो जाता है। यह चमत्कार है।
मैं एक हूं; तुमसे बाहर मैं एक हूं। मेरा शरीर, मेरे शरीर की उपस्थिति, उसकी गंध, मेरा बोलना, सब एक हैं। लेकिन तुम्हारी इंद्रियां मुझे विभाजित कर देंगी। तुम्हारे कान मेरे बोलने की खबर देंगे, तुम्हारी नाक मेरी गंध की खबर देगी और तुम्हारी आंखें मेरी उपस्थिति की खबर देंगी। वे इंद्रियां मुझे टुकड़ों में बांट देंगी। लेकिन फिर तुम्हारे भीतर कहीं पर मैं एक हो जाऊंगा। जहां तुम्हारे भीतर मैं एक होता हूं वह तुम्हारे होने का केंद्र है। वह तुम्हारा बोध है, चैतन्य है। तुम उसे बिलकुल भूल गए हो। यह विस्मरण ही अज्ञान है। और बोध या चैतन्य आत्म—ज्ञान का द्वार खोलता है। तुम और किसी उपाय से अपने को नहीं जान सकते हो।
'जब किसी इंद्रिय—विशेष के द्वारा स्पष्ट बोध हो, उसी बोध में स्थित होओ।
उसी बोध में रहो, उसी बोध में स्थिर रहो। होशपूर्ण होओ।
आरंभ में यह कठिन है। हम बार—बार सो जाते हैं, और आख के द्वारा देखना कठिन मालूम पड़ता है। आख से देखना आसान है। आरंभ में थोड़ा तनाव अनुभव होगा अगर तुम आख के द्वारा देखने की चेष्टा करोगे। और न केवल तुम तनाव अनुभव करोगे, वह व्यक्ति भी तनाव अनुभव करेगा जिसे तुम देखोगे।
अगर तुम किसी को आख के द्वारा देखोगे तो उसे लगेगा कि तुम अनुचित रूप से दखल दे रहे हो, कि तुम उसके साथ अभद्र व्यवहार कर रहे हो। तुम अगर आख के द्वारा देखोगे तो दूसरे को अचानक अनुभव होगा कि तुम उसके साथ उचित व्यवहार नहीं कर रहे हो। क्योंकि तुम्हारी दृष्टि बेधक बन जाएगी, तुम्हारी दृष्टि गहराई में उतर जाएगी। अगर यह दृष्टि तुम्हारी गहराई से आती है, वह उसकी गहराई में प्रवेश कर जाएगी।
यही कारण है कि समाज ने एक बिल्ट—इन सुरक्षा की व्यवस्था कर रखी है। समाज कहता है कि जब तक तुम किसी के प्रेम में नहीं हो, उसे बहुत घूरकर मत देखो। अगर तुम प्रेम में हो तो देख सकते हो। तब तुम उसके अंतर्तम तक प्रवेश कर सकते हो, क्योंकि वह तुमसे भयभीत नहीं है। तब दूसरा तुम्हारे प्रति नग्न हो सकता है, समग्रत: नग्न हो सकता है; वह तुम्हारे प्रति खुला हो सकता है। लेकिन साधारणत:, अगर तुम प्रेम में नहीं हो, तो किसी को घूरने की, बेधक दृष्टि से देखने की मनाही है।
भारत में हम ऐसे आदमी को, जो दूसरे को घूरता है, लुच्चा कहते हैं। लुच्चा का अर्थ है, देखने वाला। लुच्चा शब्द लोचन से आता है। लुच्चा का अर्थ हुआ कि जो आख ही बन गया है। इसलिए इस विधि का प्रयोग किसी अपरिचित पर मत करो। वह तुम्हें लुच्चा समझेगा। पहले इस विधि का प्रयोग ऐसे विषयों के साथ करो जैसे फूल हैं, पेड़ हैं, रात के तारे है। वे इसे अनुचित दखल नहीं मानेंगे; वे एतराज नहीं उठाएंगे। बल्कि वे इसे पसंद करेंगे, उन्हें बहुत अच्छा लगेगा। वे इसका स्वागत करेंगे।
तो पहले उनके साथ प्रयोग करो और फिर अपनी पत्नी, अपने बच्चे, अपने प्रियजनों के साथ। कभी अपने बच्‍चे को गोद में उठा लो और उसको आँख के द्वारा देखो। बच्चा इसे समझेगा, सराहेगा। वह अन्य किसी से भी ज्यादा समझेगा, क्योंकि अभी समाज ने उसे पंगु नहीं बनाया है, विकृत नहीं किया है। वह अभी सहज है। तुम अगर उसे आख के द्वारा देखोगे तो उसे प्रगाढ़ प्रेम की अनुभूति होगी, उसे तुम्हारी उपस्थिति का एहसास होगा।
अपने प्रेमी या प्रेमिका को ऐसे देखो। और फिर जैसे—जैसे तुम्हें इस बात की पकड़ आएगी, जैसे—जैसे तुम इसमें कुशल होगे, वैसे—वैसे तुम धीरे— धीरे दूसरों को भी देखने में समर्थ हो जाओगे। क्योंकि तब किसी को पता नहीं चलेगा कि तुमने इस गहराई से उसे देखा। और जब अपनी इंद्रियों के पीछे सतत सजग होकर खड़े होने की कला तुम्हारे हाथ आ जाएगी तो इंद्रियां तुम्हें धोखा न दे पाएंगी। अन्यथा इंद्रियां धोखा देती हैं। ऐसे संसार में, जो सिर्फ भासता है, इंद्रियों ने तुम्हें उसे सच मानने का धोखा दिया है।
अगर तुम इंद्रियों के द्वारा देख सके और सजग रह सके तो धीरे— धीरे संसार माया मालूम पड़ने लगेगा, स्‍वप्‍नवत मालूम पड़ने लगेगा। और तब तुम उसके तत्व में, उसके मूल तत्व में प्रवेश कर सकोगे। वह मूल तत्व ही ब्रह्म है।

आज इतना ही।



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