सारसूत्र-
अनवस्सुतचित्तस्स
अनन्वाहतचेतसो।
पुज्जपापपहीनस्स
नत्थि
जागरतो
भयं।।34।।
कुम्भूपमं
कायमिमं
विदित्वा
नगरूपमं चित्तमिदं
ठपेत्वा।
योधेथ
मारं पज्जायुधेन
जितं च रक्खे
अनिवेसनोसिया।।35।।
अचिरं
वत’
यं कायो पठविं
अधिसेस्सति।
छुद्धो
अपेतविज्जाणो
निरत्थं व
कलिड्गरं।।36।।
दिसो
दिसं यन्तं
कयिरा वेरी व
पन वेरिन।
मिच्छापणिहितं
चितं पापियों
नं ततो
करे।।37।।
न
तं माता-पिता
कयिरा अज्जे
वापि च जातका।
दुनिया
है तहलके में
तो परवा न
कीजिए
यह दिल
है रूहे-अस्र
का मसकन बचाइए
दिल
बुझ गया तो
जानिए अंधेर
हो गया
एक शमा
आंधियों में
है रोशन बचाइए
संसार
बदलता है, फिर भी
बदलता नहीं। संसार
की मुसीबतें
तो बनी ही
रहती हैं। वहां
तो तूफान और
आधी चलते ही
रहेंगे। अगर
किसी ने ऐसा
सोचा कि जब
संसार बदल
जाएगा तब मैं
बदलूंगा, तो
समझो कि उसने
न बदलने की
कसम खा ली। तो
समझो कि उसकी
बदलाहट कभी हो
न सकेगी। उसने
फिर तय ही कर
लिया कि बदलना
नहीं है, और
बहाना खोज लिया।
बहुत
लोगों ने
बहाने खोज रखे
हैं। वे कहते
हैं, संसार
ठीक हालत में
नहीं है, हम
ठीक होना भी
चाहें तो कैसे
हो सकेंगे? अंधे हैं
ऐसे लोग, क्योंकि
संसार कभी ठीक
नहीं हुआ, फिर
भी
व्यक्तियों
के जीवन में
फूल खिले हैं।
कोई बुद्ध
रोशन हुआ, कोई
कृष्ण, कोई
क्राइस्ट
सुगंध को
उपलब्ध हुए
हैं। संसार तो
चलता ही रहा
है। ऐसे ही
चलता रहेगा। संसार
के बदलने की
प्रतीक्षा मत
करना। अन्यथा
तुम बैठे
रहोगे
प्रतीक्षा
करते, अंधेरे
में ही जीयोगे,
अंधेरे में
ही मरोगे। और
संसार तो सदा
है। तुम अभी
हो, कल
विदा हो जाओगे।
इसलिए
एक बात खयाल
में रख लेनी
है, बदलना
है स्वयं को। और
कितने ही
तूफान हों, कितनी ही
आधियां हों, भीतर एक ऐसा
दीया है कि
उसकी शमा जलाई
जा सकती है। और
कितना ही
अंधकार हो
बाहर, भीतर
एक मंदिर है
जो रोशन हो
तुम
बाहर के
अंधेरे से मत
परेशान
होना। उतना
ही चिंता और
उतना ही श्रम
भीतर की
ज्योति को
जलाने में लगा
देना। और बड़े
आश्चर्य की तो
बात यही है कि
जब भीतर प्रकाश
होता है, जब तुम्हारी
आंखों के भीतर
प्रकाश होता
है, तो
बाहर अंधकार
मिट जाता है। कम
से कम
तुम्हारे लिए
मिट जाता है। तुम
एक और दूसरे
ही जगत में
जीने लगते हो।
और हर व्यक्ति
परमात्मा को
धरोहर है। कुछ
है, जो तुम
पूरा करोगे तो
ही मनुष्य
कहलाने के अधिकारी
हो सकोगे।
एक अवसर
है जीवन, जहा कुछ
सिद्ध करना है।
जहा सिद्ध
करना है कि हम
बीज ही न रह
जाएंगे, अंकुरित
होंगे, खिलेंगे,
फूल बनेंगे।
सिद्ध करना है
कि हम संभावना
ही न रह जाएंगे,
सत्य
बनेंगे। सिद्ध
करना है कि हम
केवल एक आकांक्षा
ही न होंगे कुछ
होने की, हमारे
भीतर होना
प्रगट होगा। उस
प्रागटय का
नाम ही
दुनिया
है तहलके में
तो परवा न
कीजिए
यह दिल
है रूहे-अस्र
का मसकन बचाइए
यह जो
भीतर हृदय है, जिसे
बुद्ध ने
चित्त कहा, जिसे महावीर,
उपनिषद और
वेद आत्मा
कहते हैं, यह
अस्तित्व का
मंदिर है।
रूहे-अस्र
का मसकन बचाइए
दिल बुझ
गया तो जानिए
अंधेर हो गया
अंधेरे
की उतनी चिंता
मत करिए। अंधेरे
ने कब किसी
रोशनी को
बुझाया है? अंधेरा
कितना ही बड़ा
हो, एक
छोटे से
टिम-टिमाते
दीए को भी
नहीं बुझा
सकता। अंधेरे
से कभी अंधेर
नहीं हुआ है।
दिल बुझ
गया तो जानिए
अंधेर हो गया
एक शमा आंधियों
में है रोशन
बचाइए
वह जो
भीतर ज्योति
जल रही है
जीवन की, वह जो
तुम्हारे
भीतर जागा हुआ
है, वह जो
तुम्हारा
चैतन्य है, बस उसको
जिसने बचा
लिया। सब बचा
लिया। उसे जिसने
खो दिया, वह
सब भी बचा ले
तो उसने कुछ
भी बचाया नहीं।
फिर तुम
सम्राट हो जाओ,
तो भी
भिखारी रहोगे।
और भीतर की
ज्योति बचा लो,
तो तुम चाहे
राह के भिखारी
रहो, तुम्हारे
साम्राज्य को
कोई छीन नहीं
सकेगा।
सम्राट
होने का एक ही
ढंग है, भीतर की
संपदा को
उपलब्ध हो
जाना। स्वामी
होने का एक ही
ढंग है, भीतर
के दीए के साथ
जुड़ जाना, एक
हो जाना। और
वह जो भीतर का
दीया है, चाहता
है प्रतिपल
उसकी बाती को
सम्हालो, उकसाओ।
उस बाती के
उकसाने का नाम
ही ध्यान है। बाहर
के अंधेरे पर
जिन्होंने
ध्यान दिया, वे ही
अधार्मिक हो
जाते हैं। और
जिन्होंने
भीतर के दीए
पर ध्यान दिया,
वे ही
धार्मिक हो
जाते हैं। मंदिर-मस्जिदों
में जाने से
कुछ भी न होगा।
मंदिर
तुम्हारा
भीतर है। प्रत्येक
व्यक्ति अपना
मंदिर लेकर
पैदा हुआ है। कहो
खोजते हो
मंदिर को? पत्थरों
में नहीं है। तुम्हारे
भीतर जो
परमात्मा की
छोटी सी लौ है,
वह जो होश
का दीया है, वहा है।
ये
बुद्ध के
सूत्र उस
अप्रमाद के
दीए को हम कैसे
उकसाएं उसके
ही सूत्र हैँ।
इन सूत्रों.
से दुनिया में
क्रांति नहीं
हो सकती, क्योंकि
समझदार
दुनिया में
क्रांति की
बात करते ही
नहीं। वह कभी
हुई नहीं। वह
कभी होगी भी नहीं।
समझदार तो
भीतर की क्रांति
की बात करते
हैं, जो
सदा संभव है। हुई
भी है। आज भी
होती है। कल
भी होती रहेगी।
असंभव की
चेष्टा करना
मूढ़ता है। और
असंभव की
चेष्टा में जो
संभव था वह भी
खो जाता है। जो
मिल सकता था
वह भी नहीं
मिल पाता उसकी
चेष्टा में जो
कि मिल ही नहीं
सकता है। संभव
की चेष्टा ही
समझ का सबूत
है। असंभव की
चेष्टा ही
मूढ़तापूर्ण
जीवन है।
बुद्ध
ने कहा है, 'जिसके
चित्त में राग
नहीं है, और
इसलिए जिसके
चित्त में
द्वेष नहीं है,
जो
पाप-पुण्य से
मुक्त है, उस
जाग्रत पुरुष
को भय नहीं। '
तुम तो
भगवान को भी
खोजते हो तो
भय के कारण। और
भय से कहा
भगवान
मिलेगा? ही, भगवान
मिल जाता है
तो भय खो जाता
है। भगवान और
भय साथ-साथ
नहीं हो सकते।
यह तो ऐसे ही
है जैसे
अंधेरा और
प्रकाश साथ-साथ
रखने की कोशिश
करो। तुम्हारी
प्रार्थनाएं
भी भय से
आविर्भूत होती
हैं। इसलिए
व्यर्थ हैं। दो
कौड़ी का भी
उनका मूल्य
नहीं है। तुम
मंदिर में
झुकते भी हो
तो कंपते हुए
झुकते हो। यह
प्रेम का
स्पंदन नहीं
है, यह भय
का कंपन है।
बड़ा
फर्क है दोनों
में।
जब
प्रेम उतरता
है हृदय में, तब भी सब
कैप जाता है। लेकिन
प्रेम की
पुलक! कहां
प्रेम की पुलक,
कहां भय का
घबड़ाना, कंपना!
ध्यान रखना, प्रेम की भी
एक ऊष्मा है
और बुखार की
भी। और प्रेम
में भी एक
गरमाहट घेर
लेती है और
बुखार में भी।
तो दोनों को
एक मत समझ
लेना। भय में
भी आदमी झुकता
है, प्रेम
में भी। पर
दोनों को एक
मत समझ लेना। भयभीत
भी प्रार्थना
करने लगता है,
प्रेम से
भरा भी। लेकिन
भयभीत की
प्रार्थना
अपने भीतर
घृणा को छिपाए
होती है। क्योंकि
जिससे हम भय
करते हैं उससे
प्रेम हो नहीं
सकता।
इसलिए
जिन्होंने भी
तुमसे कहा है, भगवान से
भय करो, उन्होंने
तुम्हारे
अधार्मिक
होने की बुनियाद
रख दी। मैं
तुमसे कहता
हूं। सारी दुनिया
से भय करना, भगवान से भर
नहीं। क्योंकि
जिससे भय हो
गया, उससे
फिर प्रेम के,
आनंद के
संबंध जुड़ते
ही नहीं। फिर
तो जहर घुल
गया कुएं में।
फिर तो पहले
से ही तुम
विषाक्त हो गए।
फिर तुम्हारी
प्रार्थना
में धुआ होगा,
प्रेम की
लपट न होगी। फिर
तुम्हारी
प्रार्थना से
दुर्गंध उठ
सकती है। और
तुम धूप और
अगरबत्तियों
से उसे छिपा न
सकोगे। फिर
तुम फूलों से
उसे ढांक न
सकोगे। फिर
तुम लाख उपाय
करो, सब
उपाय ऊपर-ऊपर
रह जाएंगे। थोड़ा
सोचो, जब
भीतर भय हो तो
कैसे
प्रार्थना
पैदा हो सकती
है?
इसलिए
बुद्ध ने
परमात्मा की
बात ही नहीं की।
अभी तो
प्रार्थना ही
पैदा नहीं हुई
तो परमात्मा
की क्या बात
करनी? अभी
आंख ही नहीं
खुली तो रोशनी
की क्या चर्चा
करनी? अभी
चलने के योग्य
ही तुम नहीं
हुए हो, घुटने
से सरकते हो, अभी नाचने
की बात क्या
करनी? प्रार्थना
पैदा हो तो
परमात्मा। लेकिन
प्रार्थना
तभी पैदा होती
है जब अभय--फियरलेसनेस।
यहां एक
बात और समझ
लेनी जरूरी है।
अभय का अर्थ
निर्भय मत समझ
लेना। ये
बारीक भेद हैं
और बड़े
बुनियादी हैं।
निर्भय और अभय
में बड़ा फर्क
है। जमीन-आसमान
का फर्क है। शब्दकोश
में तो दोनों
का एक ही अर्थ
लिखा है। जीवन
के कोश में
दोनों के अर्थ
बड़े भिन्न हैं।
निर्भय का
अर्थ है जो
भीतर तो भयभीत
है, लेकिन
बाहर से जिसने
किसी तरह
इंतजाम कर
लिया। जो भीतर
तो कंपता है, लेकिन बाहर
नहीं कंपता। जिसने
न कंपने का
अभ्यास कर
लिया है। बाहर
तक कंपन को
आने नहीं देता।
जिनको तुम
बहादुर कहते
हो, वे
इतने ही कायर
होते हैं,
जितने कायर। कायर
डरकर बैठ जाता
है, बहादुर
डरकर बैठता
नहीं, चलता
चला जाता है। कायर
अपने भय को
मान लेता है, बहादुर अपने
भय को इनकार
किए जाता है, लेकिन भयभीत
तो है ही। अभय
की अवस्था बड़ी
भिन्न है। न
वहा भय है, न
वहां
निर्भयता है। जब
भय ही न रहा, तो निर्भय
कोई कैसे होगा?
अभय का अर्थ
है, भय और
निर्भय दोनों
ही जहां खो
जाते हैं। जहां
वह बात ही
नहीं रह जाती।
इस
अवस्था को
-बुद्ध और
महावीर दोनों
ने भगवत्ता की
तरफ पहला कदम
कहा है। कौन
आदमी अभय को
उपलब्ध होगा? कौन से
चित्त में अभय
आता है? जिस
चित्त में राग
नहीं, उस
चित्त में
द्वेष भी नहीं
होता। स्वभावत:।
क्योंकि राग
से ही द्वेष
पैदा होता है।
तुमने
खयाल किया, किसी को
तुम सीधा-सीधा
शत्रु नहीं
बना सकते। पहले
मित्र बनाना
पड़ता है। एकदम
से किसी को
शत्रु बनाओगे
भी तो कैसे
बनाओगे? शत्रु
सीधा नहीं
होता, सीधा
पैदा नहीं
होता, मित्र
के पीछे आता
है। द्वेष
सीधे पैदा
नहीं होता, राग के पीछे
आता है। घृणा
सीधे पैदा
नहीं होती, जिसे तुम
प्रेम कहते हो
उसी के पीछे
आती है। तो
शत्रु किसी को
बनाना हो तो
पहले मित्र
बनाना पड़ता है।
और द्वेष किसी
से करना हो तो
पहले राग करना
पड़ता है। किसी
को दूर हटाना
हो तो पहले
पास लेना पड़ता
है। ऐसी अनूठी
दुनिया है। ऐसी
उलटी दुनिया
है।
द्वेष
से तो तुम
बचना भी चाहते
हो। लेकिन
जिसने राग
किया, वह
द्वेष से न बच
सकेगा। जब
तुमने
व्यक्ति को
स्वीकार कर
लिया, तो
उसकी छाया कहो
जाएगी? वह
भी तुम्हारे
घर आएगी। तुम
यह न कह सकोगे
मेहमान से कि
छाया बाहर ही
छोड़ दो, हमने
केवल तुम्हें
ही बुलाया है।
छाया तो साथ
ही रहेगी। द्वेष
राग की छाया
है। वैराग्य
राग की छाया
है।
इसलिए
तो मैं तुमसे
कहता हूं असली
वैरागी-वैरागी
नहीं होता। असली
वैरागी तो राग
से मुक्त हो
गया। इसलिए
महावीर-बुद्ध
ने उसे नया ही
नाम दिया है, उसे
वीतराग कहा है।
तीन शब्द
हुए-राग, वैराग्य,
वीतरागता। राग
का अर्थ है
संबंध किसी से
है, और ऐसी
आशा कि संबंध
से सुख मिलेगा।
राग सुख का
सपना है। किसी
दूसरे से सुख
मिलेगा, इसकी
आकांक्षा है। द्वेष,
किसी दूसरे
से दुख मिल
रहा है इसका
अनुभव है। मित्रता,
किसी को
अपना मानने की
आकांक्षा है। शत्रुता,
कोई अपना
सिद्ध न हुआ, पराया सिद्ध
हुआ, इसका
बोध है। मित्रता
एक स्वप्न है।
शत्रुता
स्वप्न का टूट
जाना। राग
अंधेरे में
टटोलना है, द्वार की
आकांक्षा में।
लेकिन जब
द्वार नहीं मिलता
और दीवाल
मिलती है, तो
द्वेष पैदा हो
जाता है। द्वार
अंधेरे में है
ही नहीं, टटोलने
से न मिलेगा। द्वार
टटोलने में
नहीं है। द्वार
जागने में है।
तो
बुद्ध कहते
हैं, जिसके
चित्त में राग
नहीं है। राग
का अर्थ है, जिसने यह खयाल
छोड़ दिया कि
दूसरे से सुख
मिलेगा। जो
जाग गया, और
जिसने समझा कि
राख किसी से
भी नहीं मिल
सकता। एक ही
भ्रांति है, कहो इसे
संसार, कि
दूसरे से सुख
मिल सकता है। पत्नी
से, या
पिता से, या
भाई से, या
बेटे से, या
मित्र से, या
धन से, या
मकान से, या
पद से, दूसरे
से सुख मिल
सकता है-तो
राग पैदा होता
है। स्वाभाविक,
जिससे सुख
मिल सकता है
उसे हम गंवाना
न चाहेंगे। जिससे
सुख मिल सकता
है उसे हम
बचाना
चाहेंगे। जिससे
सुख मिल सकता
है वह कहीं
दूर न चला जाए,
कहीं कोई और
उस पर कब्जा न
कर ले। तो
पत्नी डरी है
कि पति कहीं
किसी और
स्त्री की तरफ
न देख ले। पति
डरा है कि
पत्नी कहीं
किसी और में
उत्सुक न हो
जाए। क्योंकि
इसी से तो सुख
की आशा है। वह
सुख कहीं और
कोई दूसरा न
ले ले।
लेकिन
सुख कभी किसी
दूसरे से मिला
है? किसी
ने भी कभी कहा
कि दूसरे से
सुख मिला है? आशा और आशा
और आशा। आशा
कभी भरती नहीं।
किसने
तुम्हें
आश्वासन दिया
है कि दूसरे
से सुख मिल
सकेगा? और
दूसरा जब
तुम्हारे पास
आता है, तो
ध्यान रखना, वह अपने सुख
की तलाश में
तुम्हारे पास
आया है। तुम
अपने सुख की
तलाश में उसके
पास गए हो। न
उसको प्रयोजन
है तुम्हारे
सुख से, न
तुमको
प्रयोजन है
उसके सुख से। मिलेगा
कैसे, प्रयोजन
ही नहीं है? पत्नी
तुम्हारे पास
है, इसलिए
नहीं कि
तुम्हें सुख
दे। तुम पत्नी
के पास हो, इसलिए
नहीं कि तुम
उसे सुख दो।
उपनिषद
कहते हैं, कौन
पत्नी को
पत्नी के लिए
प्रेम करता है?
पत्नी के
लिए कोई प्रेम
नहीं करता, अपने लिए
प्रेम करता है।
कौन पति को
पति के लिए प्रेम
करता है? अपने
लिए प्रेम
करता है। सुख
की आकांक्षा
अपने लिए है। और
इसलिए अगर ऐसा
भी हो जाए कि
तुम्हें लगे
कि दूसरे को
दुख देकर सुख
मिलेगा, तो
भी तुम तैयार
हो। और यही
होता है। सोचते
हैं दूसरे से
सुख मिलेगा, लेकिन हम भी
दूसरे को दुख
ही दे पाते
हैं और दूसरा
भी हमें दुख
दे पाता है।
जिसने
इस सत्य को
देख लिया वह
संन्यस्त हो
गया। संन्यास
का क्या अर्थ
है? जिसने
इस सत्य को
देख लिया कि
दूसरे से सुख
न मिलेगा, उसने
अपनी दिशा मोड़
ली। वह भीतर
घर की तलाश
में लग गया। अपने
भीतर खोजने
लगा, कि
बाहर तो सुख न
मिलेगा अब
भीतर खोज लूं।
शायद जो बाहर
नहीं है वह
भीतर हो।
और
जिन्होंने भी
भीतर झांका, वे कभी
खाली हाथ वापस
न लौटे। उनके
प्राण भर गए। उनके
प्राण इतने भर
गए कि उन्हें
खुद ही न मिला,
उन्होंने
लुटाया भी, उन्होंने
बांटा भी। कुछ
ऐसा खजाना
मिला कि
बांटने से
बढ़ता गया। कबीर
ने कहा है, दोनों
हाथ उलीचिए। जब
सुख मिल जाए
तो दोनों हाथ
उलीचिए। क्योंकि
जितना उलीचो
उतना ही बढ़ता
चला जाता है। जैसे
कुएं से पानी
खींचते जाओ, झरने और नया
पानी ले आते
हैं। पुराना
चला जाता है, नया आ जाता
है।
जिसको
सुख मिल गया
उसे यह राज भी
पता चल गया कि
बांटों। क्योंकि
अगर
सम्हालोगे तो
पुराना ही
सम्हला रहेगा, नया-नया न
आ सकेगा। लुटाओ,
ताकि तुम
रोज नए
होते चले जाओ।
छोटा-छोटा कुआं
भी छोटा थोड़े
ही है। अनंत
सागर से जुड़ा
है। भीतर से
झरनों के
रास्ते हैं। इधर
खाली करो, उधर भरता
चला जाता है।
तुम
आत्मा ही थोड़े
ही हो, परमात्मा
भी हो। तुम
छोटे कुएं ही
थोड़े ही हो, सागर भी हो। सागर
ही छोटे से
कुएं में से
झांक रहा है। छोटा
कुआं एक खिड़की
है जिससे सागर
झांका। तुम भी
एक खिड़की हो, जिससे
परमात्मा
झांका। एक बार
अपनी सुध आ
जाए, एक
बार यह खयाल आ
जाए कि मेरा
सुख मुझ में है,
तो राग
समाप्त हो
जाता है।
'जिसके चित्त
में राग नहीं….।'
अर्थात
जिसने जान
लिया कि सुख
मेरा भीतर है।
इसलिए जिसके
चित्त में
द्वेष भी नहीं
है। स्वभावत:, जब दूसरे
से सुख मिलता
ही नहीं, तो
कैसी शिकायत,
कैसा शिकवा
कि दूसरे से
दुख मिला? यह
बात ही फिजूल
हो गई। सुख का
खयाल था तो ही
दुख का खयाल
बनता था। जिससे
तुम जितनी
ज्यादा
अपेक्षा रखते
हो उससे उतना
ही दुख मिलता
है।
लोग
मुझसे पूछते
हैं कि
पति-पत्नी
एक-दूसरे के
कारण इतने
दुखी क्यों
होते हैं? तो मैं
उनसे कहता हूं,
वह संबंध
ऐसा है जहां
सबसे ज्यादा
अपेक्षा है, इसलिए। जितनी
अपेक्षा, उतनी
मात्रा में
दुख होगा। क्योंकि
उतनी असफलता
हाथ लगेगी। राह
पर चलता आदमी
अचानक
तुम्हारे पास
से गुजर जाता
है, उससे
दुख नहीं
मिलता। मिलने
का कोई कारण
नहीं, अजनबी
है। अपेक्षा
ही कभी नहीं
की थी। और अगर
अजनबी
मुस्कुराकर
देख ले, तो
अच्छा लगता है।
तुम्हारी
पत्नी
मुस्कुराकर
देखे, पति
मुस्कुराकर
देखे, तो
भी कुछ अच्छा
नहीं लगता। लगता
है जरूर कोई
जालसाजी होगी।
पत्नी
मुस्कुरा रही
है! मतलब कहीं
बाजार में साड़ी
देख आई है? या
कहीं गहने देख
लिए? या
कोई नया
उपद्रव है? क्योंकि
सस्ता नहीं है
मुस्कुराना, कोई मुफ्त
नहीं
मुस्कुराता। जहां
संबंध हैं
वहां तो लोग
मतलब से
मुस्कुराते
हैं। पति अगर
आज ज्यादा
प्रसन्न घर आ
गया है, फूल
ले आया है, मिठाइयां
ले आया है, तो
पत्नी
संदिग्ध हो
जाती है, कि
जरूर कुछ...
जरूर कुछ दाल
में काला है। किसी
स्त्री को
बहुत गौर से देख
लिया होगा, प्रायश्चित्त
कर रहा है। नहीं
तो कभी घर कोई
मिठाइयां
लेकर आता है!
जिनसे
जितनी
अपेक्षा है
उनसे उतना ही
दुख मिलता है।
जितनी
अपेक्षा है, उतनी ही
टूटती है। जितना
बड़ा भवन
बनाओगे ताश के
पत्तों का, उतनी ही
पीड़ा होगी। क्योंकि
गिरेगा। उतना
श्रम, उतनी
शक्ति, उतनी
अभीप्साओं के
इंद्रधनुष, सब टूट
जाएंगे। सब
जमीन पर रौंदे
हुए पड़े होंगे,
उतनी ही
पीड़ा होगी। अजनबी
से दुख नहीं
मिलता। अपरिचित
से दुख नहीं
मिलता। क्योंकि
अपेक्षा
जरूरी है।
लेकिन
अगर तुम
अपेक्षा ही
छोड़ दो, तो तुम्हें
क्या कोई दुख
दे सकेगा? इसे
बहुत सोचना। इस
पर मनन करना, ध्यान करना।
अगर तुम
अपेक्षा छोड़
दो, कोई
मांग न
रहे--क्योंकि
तुम जाग गए कि
मिलना किसी से
कुछ भी नहीं
है-तो तुम
अचानक पाओगे
तुम्हारे
जीवन से दुख
विसर्जित हो
गया। अब कोई
दुख नहीं देता।
सुख न मांगो
तो कोई दुख
नहीं देता। तब
तो बड़ी अभूतपूर्व
घटना घटती है।
तुम सुख नहीं
मांगते, कोई
दुख नहीं देता।
न बाहर से सुख
आता है, न
दुख आता है। पहली
बार तुम अपने
में रमना शुरू
होते हो। क्योंकि
अब बाहर नजर
रखने की कोई
जरूरत ही न रही।
जहा से कुछ
मिलना ही नहीं
है, जहा
खदान थी ही
नहीं, सिर्फ
धोखा था, आभास
था, तुम आंख
बंद कर लेते
हो।
इसलिए
बुद्धपुरुषों
की आंख बंद है।
वह जो बंद आंख
है ध्यान करते
बुद्ध की, या
महावीर की, वह इस बात की
खबर है केवल
कि अब बाहर
देखने योग्य
कुछ भी न रहा। जब
पाने योग्य न
रहा, तो
देखने योग्य
क्या रहा न:
देखते थे, क्योंकि
पाना था। पाने
का रस लगा था, तो गौर से
देखते थे। जो
पाना हो, वही
आदमी देखता है।
जब पाने की
भ्रांति ही
टूट गई तो
आदमी आंख बंद
कर लेता है। बंद
कर लेता है
कहना ठीक नहीं,
आंख बंद हो
जाती है। पलक
अपने आप बंद
हो जाती है। फिर
आंख को व्यर्थ
ही दुखाना
क्या फिर आंख
को व्यर्थ ही
खोलकर परेशान क्या
करना; और
यह जो दृष्टि
पर पलक का गिर
जाना है, यही
भीतर दृष्टि
का पैदा हो
जाना है।
'जिसके चित्त
में राग नहीं
और इसलिए
जिसके चित्त
में द्वेष
नहीं, जो
पाप-पुण्य से
मुक्त है, उस
जाग्रत पुरुष
को भय नहीं।'
पाप और
पुण्य, वे भी बाहर
से ही जुड़े
हैं, जैसे
सुख और दुख। इसे
थोड़ा समझना। यह
और भी सूक्ष्म,
और भी जटिल
है। यह तो
बहुत लोग
तुम्हें
समझाते मिल
जाएंगे कि सुख-दुख
बाहर से मिलते
नहीं, सिर्फ
तुम्हारे
खयाल में हैं।
लेकिन जो लोग
तुम्हें
समझाते हैं
बाहर से सुख न
मिलेगा, और
इसलिए बाहर से
दुख भी नहीं
मिलता, वे
भी तुमसे कहते
हैं, पुण्य
करो, पाप न
करो। शायद वे
भी समझे नहीं।
क्योंकि समझे
होते तो दूसरी
बात भी बाहर
से ही जुड़ी
है। क्या है
दूसरी बात? वह पहली का
ही दूसरा पहलू
है।
पहला है, दूसरे से
मुझे सुख मिल
सकता है। मिलता
है दुख। इसलिए
राग बांधता
हूं और द्वेष
फलता है। बोता
राग के बीज
हूं फसल द्वेष
की काटता हूं।
चाहता हूं राग,
हाथ में आता
है द्वेष। तड़फड़ाता
हूं। जैसे
बुद्ध ने कहा,
कोई मछली को
सागर के बाहर
कर दे। तट पर
तडुफड़ाएं। ऐसा
आदमी तड़फड़ाता
है।
फिर
पाप-पुण्य
क्या है? पाप-पुण्य
इसका ही दूसरा
पहलू है। पुण्य
का अर्थ है, मैं दूसरे
को सुख दे
सकता हूं। पाप
का अर्थ है, मैं दूसरे
को दुख दे
सकता हूं। तब
तुम्हें समझ
में आ जाएगा। दूसरे
से सुख मिल
सकता है यह, और मैं
दूसरे को सुख
दे सकता हूं
यह, दोनों
एक ही सिक्के
के दो पहलू
हुए। दूसरा
मुझे दुख देता
है यह, और
मैं दूसरे को
दुख दे सकता
हूं यह भी, उसी
बात का पहलू
हुआ।
इसलिए
बुद्ध ने इस
सूत्र में बड़ी
महिमापूर्ण बात
कही है। कहा
है कि जिसके
चित्त में न
राग रहा, न द्वेष; जो
पाप-पुण्य से
मुक्त है। क्योंकि
जब यही समझ
में आ गया कि
कोई मुझे सुख नहीं
दे सकता, तो
यह भ्रांति अब
कौन पालेगा कि
मैं किसी को सुख
दे सकता हूं? तो कैसा
पुण्य? फिर
यह भ्रांति भी
कौन पालेगा कि
मैंने किसी को
पाप किया, किसी
को दुख दिया। यह
भांति भी गई। सुख-दुख
के जाते ही, राग-द्वेष
के जाते ही
पाप-पुण्य भी
चला जाता है। पाप-पुण्य
सुख और दुख के
ही सूक्ष्म
रूप हैं।
इसलिए
तो धर्मगुरु
तुमसे कहते
हैं कि जो
पुण्य करेगा
वह स्वर्ग
जाएगा। स्वर्ग
यानी सुख। तुमने
चाहे इसे कभी
ठीक-ठीक न
देखा हो। और
धर्मगुरु
कहते हैं, जो पाप
करेगा वह नर्क
जाएगा। नर्क
यानी दुख। अगर
पुण्य का
परिणाम
स्वर्ग है और
पाप का परिणाम
नर्क है, तो
एक बात साफ है
कि पाप-पुण्य
सुख-दुख से ही
जुड़े हैं। जब
सुख-दुख ही खो
गया, तो
पाप-पुण्य भी
खो जाते हैं।
ध्यान
रखना, दुनिया
में दो तरह के
भयभीत लोग हैं।
जिनको तुम
अधार्मिक
कहते हो, वे
डरे हैं कि
कहीं दूसरा
दुख न दे दे। और
जिनको तुम
धार्मिक कहते
हो, वे डरे
हैं कि कहीं
मुझसे किसी
दूसरे को दुख
न हो जाए। जिनको
तुम अधार्मिक
कहते हो, वे
डरे हैं कि
कहीं ऐसा न हो
कि मैं दूसरे
से सुख लेने
में चूक जाऊं।
और जिनको तुम
धार्मिक कहते
हो, वे डरे
हैं कि कहीं
ऐसा न हो कि
मैं दूसरे को
सुख देने से
चूक जाऊं। तो
तुम्हारे
धार्मिक और
अधार्मिक
भिन्न नहीं
हैं। एक-दूसरे
की तरफ पीठ
किए खड़े होंगे,
लेकिन एक ही
तल पर खड़े हैं।
तल का कोई भेद
नहीं है। कोई
तुम्हारा
धार्मिक
अधार्मिक से
ऊंचे तल पर
नहीं है, किसी
और दूसरी
दुनिया में
नहीं है।
हो
दौरे-गम कि
अहदे-खुशी
दोनों एक हैं
दोनों
गुजश्तनी हैं
खिजां क्या
बहार क्या
चाहे
पतझड़ हो, चाहे वसंत, दोनों ही
क्षणभंगुर
हैं। दोनों
अभी हैं, अभी
नहीं हो
जाएंगे। दोनों
पानी के
बुलबुले हैं। दोनों
ही क्षणभंगुर
हैं। दोनों
में कुछ चुनने
जैसा नहीं है।
क्योंकि अगर
तुमने बहार को
चुना, तो
ध्यान रखना, अगर तुमने
वसंत को चुना
तो पतझड़ को भी
चुन लिया। फिर
वसंत में अगर
सुख माना, तो
पतझड़ में दुख
कौन मानेगा?
एक
महिला मेरे
पास लाई गई। रोती
थी, छाती
पीटती थी, पति
उसके चल बसे। वह
कहने लगी, मुझे
किसी तरह
सांत्वना दें,
समझाएं। किसी
तरह मुझे मेरे
दुख के बाहर
निकालें। मैंने
उससे कहा, सुख
तूने लिया। माना
कि सुख था, अब
दुःख कौन
भोगेगा? तू
बहुत
होशियारी की
बात कर रही है।
पति के होने
का सुख, तू
कभी मेरे पास
नहीं आई कि
मुझे इस सुख
से बचाएं। जगाएं,
ये मैं सुख
में डूबी जा
रही हूं। तू
कभी आई ही
नहीं इस
रास्ते पर।
लोग जब
दुख में होते
हैं तभी मंदिर
की तरफ जाते
हैं। और जो
सुख में जाता
है, वही
समझ पाता है। दुख
में जाकर तुम
समझ न पाओगे। क्योंकि
दुख छाया है, मूल नहीं। मूल
तो जा चुका, छाया गुजर
रही है। छाया
को कैसे रोका
जा सकता है?
मैंने
उस महिला को
कहा, तू
रो ही ले, अब
दुख को भी भोग
ही ले। क्योंकि
भ्रांति दुख
की नहीं है, भ्रांति सुख
की है। सुख
मिल सकता है, तो फिर दुख
भी मिलेगा। वसंत
से मौह लगाया,
तो पतझड़ में
रोओगे। जवानी
में खुश हुए, बुढ़ापे में
रोओगे। पद में
प्रसन्न हुए
तो फिर पद
खोकर कोई
दूसरा रोका
तुम्हारे लिए
रा मुस्कुराए
तुम, तो आंसू
भी तुम्हें ही
ढालने पड़ेंगे।
और दोनों एक
जैसे हैं ऐसा
जिसने जान
लिया, क्योंकि
दोनों का
स्वभाव
क्षणभंगुर है,
पानी के
बबूले जैसे
हैं।
ध्यान
रखना, यह
जानना सुख में
होना चाहिए, दुख में
नहीं। दुख में
तो बहुत
पुकारते हैं
परमात्मा को,
और फिर सोचते
हैं, शायद
उस तक आवाज
-नहीं पहुंचती।
दुख में
पुकारने की
बात ही गलत है।
जब तुमने सुख.
में न पुकारा,
तो तुम गलत
मौके पर पुकार
रहे हो। जब
तुम्हारे पास
कंठ था और तुम
पुकार सकते थे,
तब न पुकारा;
अब जब कंठ
अवरुद्ध हो
गया है तब
पुकार रहे हो!
अब पुकार
निकलती ही
नहीं। ऐसा
नहीं है कि
परमात्मा
नहीं सुनता है।
दुख में पुकार
निकलती ही
नहीं। दुख तो
अनिवार्य हो
गया।
अगर
सुख में न
जागे, और
सुख को गुजर
जाने दिया, तो अब छाया
को भी गुजर
जाने दो। मेरे
देखे, जो
सुख में जागता
है वही जागता
है। जो दुख
में जागने की
कोशिश करता है
वह तो साधारण
कोशिश है, सभी
करते हैं। हर
आदमी दुख से
मुक्त होना
चाहता है। ऐसा
आदमी तुम पा
सकते हो जो
दुख से मुक्त
नहीं होना
चाहता; लेकिन
इसमें सफलता
नहीं मिलती, नहीं तो सभी
लोग मुक्त हो
गए होते। लेकिन
जो सुख से
मुक्त होना
चाहता है, वह
तत्क्षण
मुक्त हो जाता
है। लेकिन सुख
से कोई मुक्त
नहीं होना
चाहता। यही
आदमी की
विडंबना है।
दुख से
तुम मुका होना
चाहते हो, लेकिन
वहा से मार्ग
नहीं। सुख से
तुम मुक्त
होना नहीं
चाहते, वहां
से मार्ग है। दीवाल
से तुम निकलना
चाहते हो, द्वार
से तुम निकलना
नहीं चाहते। जब
दीवाल सामने आ
जाती है, तब
तुम सिर पीटने
लगते हो कि
मुझे बाहर
निकलने दो। जब
-द्वार सामने
आता है, तब
तुम कहते हो
अभी जल्दी
क्या है? आने
दौ दीवाल को, फिर
निकलेंगे।
ध्यान
रखना, जो
सुख में
संन्यासी हुआ,
वही हुआ। तेन
त्यक्तेन
भुजीथा:। उन्होंने
ही छोड़ा
जिन्होंने
भोग में छोड़ा।
पत्नी मर गई, इसलिए तुम.
संन्यासी हो
गए। दिवाला
निकल गया, इसलिए
संन्यासी हो
गए। नौकरी न
लगी, इसलिए
संन्यासी हो
गए। चुनाव हार
गए, इसलिए
संन्यासी हो
गए। तो
तुम्हारा
संन्यास हारे
हुए का
संन्यास है। इस
संन्यास में
कोई प्राण
नहीं। लोग
कहते हैं, 'हारे
को हरिनाम। हारे
को हरिनाम? हारे हुए को
तो कोई हरि का
नाम नहीं हो
सकता।
जीत में
स्मरण रखना
बड़ा मुश्किल
है। क्योंकि
जीत बड़ी
बेहोशी लाती
है। जीत में
तो तुम ऐसे
अकड़ जाते हो
कि अगर परमात्मा
खुद भी आए, तो तुम
कहो फिर कभी
आना, आगे
बढ़ो, अभी
फुर्सत नहीं। और
मैं तुमसे
कहता हूं
परमात्मा आया
है, क्योंकि
जीत में द्वार
सामने होता है।
लेकिन तुम
अंधे होते हो।
'जिसके चित्त
में राग नहीं
और इसलिए
जिसके चित्त
में द्वेष
नहीं, जो
पाप-पुण्य से
मुक्त है, उस
जाग्रत पुरुष
को भय नहीं।'
भय
क्यों पैदा
होता है? भय दो कारण
से पैदा होता
है। जो तुम
चाहते हो, कहीं
ऐसा न हो कि न
मिले, तो
भय पैदा होता
है। या, जो
तुम्हारे पास
है, कहीं
ऐसा न हो कि खो
जाए, तो भय
पैदा होता है।
लेकिन जाग्रत
पुरुष को पता
चलता है कि
तुम्हारे पास
केवल तुम ही
हो, और कुछ
भी नहीं। और
जो तुम हो, उसको
खोने का कोई
उपाय नहीं। उसे
न चोर ले जा
सकते हैं, न
डाकू छीन सकते
हैं। नैनं
छिंदति
शस्त्राणि-उसे
शस्त्र छेद
नहीं पाते। नैनं
दहति
पावकः-उसे आग
जलाती नहीं। जाग्रत
को पता चलता
है कि जो मैं
हूं वह तो शाश्वत,
सनातन है। उसकी
कोई मृत्यु
नहीं।
सोया
कंपता है। डरता
है कि कहीं
कोई मुझसे छीन
न ले।
दो दिन
पहले एक युवती
ने मुझे आकर
कहा कि मैं सदा
डरती रहती हूं
कि जो मेरे
पास है, कहीं छिन न
जाए। मैंने
उससे पूछा कि
तू पहले मुझे
यह बता, क्या
तेरे पास है? उसने कहा, जब आप पूछते
हो तो बड़ी
मुश्किल होती
है, है तो
कुछ भी नहीं। फिर
डर किस बात का
है? क्या
है तुम्हारे
पास जो खो
जाएगा? धन?
और जो तुम
सोचते हो
तुम्हारे पास
है और खो सकता
है, क्या
तुम उसे बचा
सकोगे? तुम
कल पड़े रह
जाओगे। सांस
नहीं
आएगी-जाएगी, मक्खियां
उड़ेगीं
तुम्हारे
चेहरे पर-तुम
उड़ा भी न
सकोगे-धन यहीं
का यहीं पड़ा
रह जाएगा। धन
तुम्हारा है?
तुम नहीं थे
तब भी यहां था,
तुम नहीं
होओगे तब भी
यहां होगा। और
ध्यान रखना, हान रोका
नहीं कि तुम
खो गए। मालिक
खो गया और धन
रोएं। धन को
पता ही नहीं
कि तुम भी
मालिक थे। तुमने
ही मान रखा था।
तुम्हारी
मान्यता ऐसी
ही है जैसे
मैंने सुना है, एक हाथी
एक छोटे से
नदी के गल पर
से गुजरता था
और एक मक्खी
उस हाथी के
सिर पर बैठी
थी। जब पुल कंपने
लगा, और उस
मक्खी ने कहा,
देखो! हमारे
वजन से पुल
कंपा जा रहा
है। हमारे वजन
से! उसने हाथी
से कहा, बेटे!
हमारे वजन से
पुल कैप रहा
है। हाथी ने
सहा कि मुझे
अब तक पता ही न
था कि तू भी
ऊपर बैठी है 1
कहते
हैं छिपकलियां, उनको कभी
निमंत्रण मिल
जाता है उनकी
जात-बिरादरी। में
तो जाती नहीं,
वे कहती हैं
महल गिर जाएगा,
सम्हाले
हुए हैं। छिपकली
चली पाएगी तो
महल गिर
जाएगा!
तुम्हारी
भ्रांति है कि
तुम्हारे पास
कुछ है। तुम्हारी
मालकियत झूठी
है। हां, जो
तुम्हारे
पास है वह
तुम्हारे पास
है। उसे न कभी
किसी ने छीना
है, न
कोई छीन सकेगा।
असलियत में
संपदा की
परिभाषा यही
है कि जो छीनी
न जा सके। जो
छीनी जा सके
वह तो विपदा
है, संपदा
नहीं है। वह
संपत्ति नहीं
है, विपत्ति
है।
तो दो
डर हैं आदमी
जिनसे कंपता
रहता है। कहीं
मेरा छिन न
जाए। स्वभावत:
तुमने जो
तुम्हारा
नहीं है उसको
मान लिया मेरा, इसलिए भय
है। वह छिनेगा
ही। सिकंदर भी
न रोक पाएगा, नेपोलियन भी
न रोक पाएगा, कोई भी न रोक
पाएगा। वह
छिनेगा ही। वह
तुम्हारा कभी
था ही नहीं। तुमने
नाहक ही अपना
दावा कर दिया
था। तुम्हारा
दावा झूठा था,
इसलिए तुम
भयभीत हो रहे
हो। और जो
तुम्हारा है,
वह कभी
छिनेगा नहीं। लेकिन
उसकी तरफ
तुम्हारी नजर
नहीं है। जो
अपना नहीं है,
उसको मानकर
बैठे हो। और
जो अपना है, उसे त्याग
कर बैठे हो। संसार
का यही अर्थ
है। संपदा का
त्याग और
विपदा का भोग।
संसार का यही
अर्थ है, जो
अपना नहीं है
उसकी घोषणा कि
मेरा है, और
जो अपना है
उसका विस्मरण।
जिसको
स्वयं का
स्मरण आ गया
वह निर्भय हो
जाता है। निर्भय
नहीं, अभय
हो जाता है। वह
भय से मुक्त
हो जाता है। जो
तुम्हारा
नहीं है उसने
ही तो तुम्हें
भिखारी बना
दिया है। मांग
रहे हो, हाथ
फैलाए हो। और
कितनी ही
भिक्षा मिलती
जाए मन भरता
नहीं। मन भरना
जानता ही नहीं।
बुद्ध
कहते हैं, मन की आकांक्षा
दुष्पूर है,
वासना दुष्पूर
है, वह कभी
भरती नहीं।
एक
सम्राट के
द्वार पर एक
भिखारी खड़ा था।
और सम्राट ने
कहा कि क्या
चाहता है, उस
भिखारी ने कहा,
कुछ ज्यादा
नहीं चाहता, यह मेरा
भिक्षापात्र
भर दिया जाए। छोटा
सा पात्र था। सम्राट
ने मजाक में
ही कह दिया कि
अब जब यह भिखारी
सामने ही खड़ा
है, और
पात्र भरवाना
है, और
छोटा सा पात्र
है, तो
क्या अन्न के
दानों से भरना,
स्वर्ण अशर्फियों
से भर दिया
जाए।
मुश्किल
में पड़ गया। स्वर्ण
अशर्फियां
भरी गयीं, सम्राट
भी हैरान हुआ,
वे स्वर्ण
अशर्फियां खो
गयीं। पात्र
खाली का खाली
रहा। लेकिन
जिद पकड़ गई
सम्राट को भी
कि यह भिखारी,
यह क्या
मुझे हराने
आया है! वह बड़ा
सम्राट था, उसके खजाने
बड़े भरपूर थे।
उसने कहा कि
चाहे सारा
साम्राज्य
लुट जाए लेकिन
इस भिखारी से
थोड़े ही
हारूंगा! उसने
डलवायीं
अशर्फियां।
लेकिन
धीरे-धीरे उसके
हाथ-पैर कंपने
लगे। क्योंकि
डालते गए और
वे खोती गयीं।
आखिर वह घबड़ा
गया।
वजीरों
ने कहा कि ये
तो सब लुट
जाएगा। और यह
पात्र कोई
साधारण पात्र
नहीं मालूम
होता। यह तो
कोई जादू का
मामला है। यह
आदमी तो कोई
शैतान है। उस
भिखारी ने कहा, मैं
सिर्फ आदमी
हूं र शैतान
नहीं। और यह
पात्र आदमी के
हृदय से बनाया
है। हृदय कब
भरता है? यह
भी नहीं भरता।
इसमें कुछ
शैतानियत
नहीं है, सिर्फ
मनुष्यता है।
कहते
हैं, सम्राट
उतरा सिंहासन
से, उस
भिखारी के पैर
छुए और उसने
कहा कि मुझे
एक बात समझ
में आ गई-न
तेरा पात्र
भरता है, न
मेरा भरा है। तेरे
पात्र में भी
ये सब स्वर्ण
अशर्फियां खो
गयीं, और
मेरे पात्र
में भी खो गई
थीं, लेकिन
तूने मुझे जगा
दिया। बस अब
इसको भरने की
कोई जरूरत न
रही। अब इस
पात्र को ही
फेंक देना है।
जो भरता ही
नहीं उस पात्र
को क्या ढोना!
लेकिन
आदमी मांगे
चला जाता है, जो उसका
नहीं है। और
चाहे कितनी ही
बेइज्जती से
मिले, बेशर्मी
से मिले, मांगे
चला जाता है। भिखारी
बड़े बेशर्म
होते हैं। तुम
उनसे कहते चले
जाते हो, हटो,
आगे जाओ, वे जिद्द
बांधकर खड़े
रहते हैं। बड़े
हठधर्मी होते
हैं। हठयोगी। भिखमंगा
मन ही बड़ा
जिद्दी है। बड़ी
बेशर्मी से
मांगे चला
जाता है।
पिला दे
ओक से साकी जो
मुझसे नफरत है
प्याला
गर नहीं देता
न दे शराब तो
दे
ओक से
ही पी लेंगे।
प्याला
गर नहीं देता
न दे शराब तो
दे
मांगे
चले जाते हैं।
कोई लज्जा भी
नहीं है। पात्र
कभी भरता नहीं।
कितने जन्मों
से तुमने मांग
है! कब जागोगे? कितनी
बेइज्जती से
मांगा है!
कितने
धक्के-मुक्के
खाए हैं!
कितनी बार
निकाले गए हो
महफिल से! फिर
भी खड़े हो।
पिला दे
ओक से साकी जो
मुझसे नफरत है
प्याला
गर नहीं देता
न दे शराब तो
दे
संसार
में आदमी
कितनी
बेइज्जती झेल
लेता है। कितनी
बेशर्मी से
मांगे चला
जाता है। और
एक बात नहीं
देखता कि इतना
मांग लिया, कुछ भरता
नहीं; पात्र
खाली का खाली
है। कितना
मांग लिया, कुछ भरता
नहीं, दुष्पूर
है। जिस दिन
यह दिखाई पड़
जाता है उसी
दिन तुम पात्र
छोड़ देते हो। उसी
क्षण अभय
उत्पन्न हो
जाता है।
अभय
उन्हीं को
उत्पन्न होता
है जिन्होंने
यह सत्य देख
लिया कि जो
तुम्हारा है
वह तुम्हारा है, मांगने
की जरूरत नहीं।
तुम उसके
मालिक हो ही। और
जो तुम्हारा
नहीं है, कितना
ही मांगो, कितना
ही इकट्ठा करो,
तुम मालिक
उसके हो न
पाओगे। जिसके
तुम मालिक हो,
परमात्मा
ने तुम्हें
उसका मालिक
बनाया ही है। और
जिसके तुम
मालिक नहीं हो,
उसका
तुम्हें
मालिक बनाया
नहीं। इस
व्यवस्था में
तुम कोई
हेर-फेर न कर
पाओगे। यह
व्यवस्था
शाश्वत है। एस
धम्मो सनंतनो।
और
जिसके जीवन
में अभय आ गया, बुद्ध
कहते हैं, उसके
जीवन में सब आ
गया। वह
परमात्मा
स्वयं हो गया।
जहां अभय आ
गया, वहां
उठती है
प्रार्थना, वहां उठता
है परमात्मा। लेकिन
उसकी बुद्ध
बात नहीं करते,
वह बात करने
की नहीं है।
वह चुपचाप
समझ लेने की
है। वह आंख से आंख
में डाल देने
की है। वह
इशारे-इशारे
में समझ लेने
की है, जोर
से कहने में
मजा बिगड़ जाता
है। वह बात
चुप्पी में
कहने की है। इसलिए
बुद्ध उसकी
बात नहीं करते।
वे मूल बात कह
देते हैं, आधार
रख देते हैं
फिर वे कहते
हैं, बीज
डाल दिया फिर
तो वह अपने से
ही अंकुर बन
जाता है।
'इस शरीर को
घड़े के समान
अनित्य जान, इस चित्त को
नगर के समान
दृढ़ ठहरा, प्रज्ञारूपी
हथियार से मार
से युद्ध कर, जीत के लाभ
की रक्षा कर, और उसमें
आसक्त न हो।'
'इस शरीर को
घड़े के समान
अनित्य जान।’
शरीर
घड़ा ही है। तुम
भीतर भरे हो
घड़े के, तुम घड़े
नहीं हो। जैसे
घड़े में जल
भरा है। या और
भी ठीक होगा, जैसा खाली
घड़ा रखा है और
घड़े में आकाश
भरा है। घड़े
को तोड़ दो, आकाश
नहीं टूटता। घड़ा
टूट जाता है, आकाश जहा था
वहीं होता है।
घड़ा टूट जाता
है, सीमा
मिट जाती है। जो
सीमा में बंधा
था वह असीम के
साथ एक हो
जाता है। घटाकाश
आकाश के साथ
एक हो जाता है।
शरीर
घड़ा है। मिट्टी
का है। मिट्टी
से बना है, मिट्टी
में ही गिर
जाएगा। और
जिसने यह समझ
लिया कि मैं
शरीर हूं वही
भ्रांति में
पड़ गया। सारी
भ्रांति की
शुरुआत इस बात
से होती है कि मैं
शरीर हूं। तुमने
अपने
वस्त्रों को
अपना होना समझ
लिया। तुमने
अपने घर को
अपना होना समझ
लिया। ठहरे हो
थोड़ी दैर को, पड़ाव है
मंजिल नहीं, सुबह हुई और
यात्रीदल चल
पड़ेगा। थोड़ा
जागकर इसे
देखो।
मामूर-ए-फना
की कोताहियां
तो देखो
एक मौत
का भी दिन है
दो दिन की
जिंदगी में
बड़ी
कंजूसी है। बड़ी
संकीर्णता है।
मामूर-ए-फनां
की कोताहियां
तो देखो
एक मौत
का भी दिन है
दो दिन की
जिंदगी में
कुल दो
दिन की जिंदगी
है। उसमें भी
एक मौत का दिन
निकल जाता है।
एक दिन की
जिंदगी है और
कैसे इठलाते
हो! कैसे अकड़े
जाते हो! कैसे
भूल जाते हो कि
मौत द्वार पर
खड़ी है! शरीर
मिट्टी है और
मिट्टी में
गिर जाएगा।
'इस शरीर को
घड़े के समान
अनित्य जान।’
बुद्ध
यह नहीं कहते
कि मान। बुद्ध
कहते हैं, जान। बुद्ध
का सारा जोर
बोध पर है। वे
यह नहीं कहते
कि मैं कहता
हूं इसलिए मान
ले कि शरीर
घड़े की तरह है।
वे कहते हैं, तू खुद ही
जान। थोड़ा आंख
बंद कर और
पहचान, तू
घड़े से अलग है।
ध्यान रखना, जिस चीज के
भी हम द्रष्टा
हो सकते हैं, उससे हम अलग
हैं। जिसके हम
द्रष्टा न हो
सकें, जिसको
दृश्य न बनाया
जा सके, वही
हम हैं। आंख
बंद करो और
शरीर को तुम
अलग देख सकते
हो। हाथ टूट जाता
है, तुम
नहीं टूटते।
तुम लाख कहो
कि मैं टूट
गया, बात
गलत मालूम
होगी, खुद
ही गलत मालूम
होगी। हाथ टूट
गया, पैर
टूट गया, आंख
चली गई, तुम
नहीं चले गए। भूख
लगती है, शरीर
को लगती है, तुम्हें
नहीं लगती। हालांकि
तुम कहे चले
जाते हो कि
मुझे भूख लगी है।
प्यास लगती है,
शरीर को
लगती है। फिर
जलधार चली
जाती है, तृप्ति
हो जाती है, शरीर को
होती है।
सब
तृप्तियाँ, सब
अतृप्तिया
शरीर की हैं। सब
आना-जाना शरीर
का है। बनना-मिटना
शरीर का है। तुम
न कभी आते, न
कभी जाते। घड़े
बनते रहते हैं,
मिटते जाते
हैं। भीतर का
आकाश शाश्वत
है। उसे कोई
घड़ा कभी छू
पाया! उस पर
कभी धूल जमी!
बादल बनते हैं,
बिखर जाते
हैं। आकाश पर
कोई रेखा
छूटती है! तुम
पर भी नहीं
छूटी। तुम्हारा
क्वांरापन
सदा क्वारा है।
वह कभी गंदा
नहीं हुआ। इस
भीतर के सत्य
के प्रति जरा आंख
बाहर से बंद
करो और जागो।
बुद्ध
कहते हैं, 'इस शरीर
को घड़े के
समान अनित्य
जान।
सिद्धात
की तरह मत मान
लेना कि ठीक
है। क्योंकि
तुमने बहुत
बार सुना है, महात्मागण
समझाते रहते
हैं, शरीर
अनित्य है, क्षणभर का
बुलबुला है, तुमने भी
सुन-सुनकर याद
कर ली है बात। याद
करने से कुछ
भी न होगा। जानना
पड़ेगा। क्योंकि
जानने से
मुक्ति आती है।
ज्ञान रूपांतरित
करता है।
इस
चित्त को इस
तरह ठहरा ले
जैसे कि कोई
नगर चट्टान पर
बसा हो, या किसी नगर
का किला पहाड़
की चट्टान पर
बना हो-अडिग
चट्टान पर बना
हो।
'इस
चित्त को
नगरकोट के
समान दृढ़ ठहरा
ले।'
सारी
कला इतनी ही
है कि मन न
कंपे, अकंप
हो जाए। क्योंकि
जब तक मन
कंपता है तब
तक दृष्टि
नहीं होती। जब
तक मन कंपता
है तब तक तुम
देखोगे कैसे?
जिससे
देखते थे वही
कैप रहा है। ऐसा
समझो कि तुम
एक चश्मा लगाए
हुए हो, और
चश्मा कैप रहा
है। चश्मा कैप
रहा है, जैसे
कि हवा में
पत्ता कैप रहा
हो, कोई
पत्ता कंप रहा
हो तूफान में,
ऐसा
तुम्हारा
चश्मा कैप रहा
है। तुम कैसे
देख पाओगे? दृष्टि
असंभव हो
जाएगी। चश्मा
ठहरा हुआ होना
चाहिए।
मन
कंपता हो, तो तुम
सत्य को न जान
पाओगे। मन के
कंपने के कारण
सत्य तुम्हें
संसार जैसा दिखाई
पड़ रहा है। जो
एक है, वह
अनेक जैसा
दिखाई पड़ रहा
है, क्योंकि
मन कंप रहा है।
जैसे कि रात
चांद है, पूरा
चांद है आकाश
में, और
झील नीचे कंप
रही है लहरों
से, तो
हजार टुकड़े हो
जाते हैं चांद
के, प्रतिबिंब
नहीं बनता। पूरे
झील पर चांदी
फैल जाता है, लेकिन चांद
का प्रतिबिंब
नहीं बनता। हजार
टुकड़े 'हो
जाते हैं। फिर
झील ठहर गई, लहर नहीं
कंपती, सब
मौन हो गया, सन्नाटा हो
गया, झील
दर्पण बन गई, अब चांद एक
बनने लगा। अनेक
दिखाई पड़ रहा
है, अनेक
है नहीं। अनेक
दिखाई पड़ रहा
है कंपते हुए
मन के कारण।
मैंने
सुना है, एक रात
मुल्ला
नसरुद्दीन घर
आया। शराब ज्यादा
पी गया है। हाथ
में चाबी लेकर
ताले में
डालता है, नहीं
जाती, हाथ
कंप रहा है। पुलिस
का आदमी द्वार
पर खड़ा है। वह
बड़ी देर तक
देखता रहा, फिर उसने
कहा कि
नसरुद्दीन, मैं कुछ
सहायता करूं?
लाओ चाबी
मुझे दो, मैं
खोल दूं। नसरुद्दीन
ने कहा, चाबी
की तुम फिकर न
करो, जरा
इस कंपते मकान
को तुम पकड़ लो,
चाबी तो मैं
खुद ही डाल
दूंगा।
जब आदमी
के भीतर शराब
में सब कैप
रहा हो, तो उसे ऐसा
नहीं लगता कि
मैं कैप रहा
हूं; उसे
लगता है यह
मकान कंप रहा
है। तुमने कभी
शराब पी? भांग
पीकर कभी चले
रास्ते पर?
जरूर चलकर
देखना चाहिए,
एक दफा
अनुभव करने
जैसा है। उससे
तुम्हें पूरे
जीवन के अनुभव
का पता चल जाएगा
कि ऐसा ही
संसार है। इसमें
तुम नशे में
चल रहे हो। तुम
कैप रहे हो, कुछ भी नहीं
कंप रहा है। तुम
खंड-खंड हो गए
हो, बाहर
तो जो है वह
अखंड है। तुम
अनेक टुकड़ों
में बंट गए हो,
बाहर तो एक
है। दर्पण टूट
गया है तो
बहुत चित्र
दिखाई पड़ रहे
हैं, जो. है
वह एक है। बुद्ध
कहते हैं, चित्त
ठहर जाए, अकंप
हो जाए, जैसे
दीए की लौ ठहर
जाए, कोई
हवा कंपाए न।
'प्रज्ञारूपी
हथियार से मार
से युद्ध कर, जीत के लाभ
की रक्षा कर, पर उसमें
आसक्त न हो।
यह बड़ी
कठिन बात है। कठिनतम, साधक के
लिए। क्योंकि
इसमें
विरोधाभास है।
बुद्ध कहते
हैं, आकांक्षा
कर, लेकिन
आसक्त मत हो। सत्य
की आकांक्षा
करनी होगी। और
सत्य को जीतने
की भी यात्रा
करनी होगी। विजय
को सुरक्षित
करना होगा, नहीं तो खो
जाएगी हाथ से
विजय। ऐसे
बैठे-ठाले
नहीं मिल जाती
है। बड़ा उद्यम,
बड़ा उद्योग,
बड़ा श्रम, बड़ी साधना, बड़ी
तपश्चर्या।
'जीत के लाभ
की रक्षा कर।
और जो
छोटी-मोटी जीत
मिले उसको
बचाना, रक्षा करना,
भूल मत जाना
नहीं तो जो
कमाया है वह
भी खो जाता है।
तो
ध्यान सतत
करना होगा, जब तक
समाधि उपलब्ध
न हो जाए। अगर
एक दिन की भी
गाफिलता की, एक दिन की भी
भूल-चूक की, तो जो कमाया
था वह खोने
लगता है। ध्यान
तो ऐसा ही है
जैसे कि कोई
साइकिल पर सवार
आदमी पैडल
मारता है। वह
सोचे कि अब तो
चल पड़ी है
साइकिल, अब
क्या पैडल
मारना! पैडल
मारना बंद कर
दे तो ज्यादा
देर साइकिल न
चलेगी। चढ़ाव
होगा तब तो
फौरन ही गिर
जाएगी। उतार
होगा तो शायद
थोड़ी दूर चली
जाए, लेकिन
कितनी दूर
जाएगी? ज्यादा
दूर नहीं जा
सकती। सतत
पैडल मारने
होंगे, जब
तक कि मंजिल
ही न आ जाए।
ध्यान
रोज करना होगा।
जो-जो कमाया
है ध्यान से, उसकी
रक्षा करनी
होगी। 'जीत के लाभ
की रक्षा कर। '
वह
जो-जो हाथ में
आ जाए उसको तो
बचाना। जितना
थोड़ा सा चित्त
साफ हो जाए, ऐसा मत
सोचना कि अब
क्या करना है
सफाई। वह फिर
गंदा हो जाएगा।
जब तक कि
परिपूर्ण
अवस्था न आ
जाए समाधि की
तब तक श्रम
जारी रखना
होगा।
हां, समाधि
फलित हो जाए, फिर कोई
श्रम का सवाल
नहीं। समाधि
उपलब्ध हो जाए,
फिर तो तुम
उस जगह पहुंच
गए जहा कोई
चीज तुम्हें
कलुषित नहीं
कर सकती। मंजिल
पर पहुंच गए। फिर
तो साइकिल को
चलाना ही नहीं,
उतर ही जाना
है। फिर तो जो
पैडल मारे वह
नासमझ। क्योंकि
वह फिर मंजिल
के इधर-उधर हो
जाएगा। एक ऐसी
घड़ी आती है, जहां उतर
जाना है, जहा
रुक जाना है, जहां यात्रा
ठहर जाएगी। लेकिन
उस घड़ी के
पहले तो श्रम
जारी रखना। और
जो भी
छोटी-मोटी
विजय मिल जाए,
उसको
सम्हालना है। संपदा
को बचाना है।
'प्रज्ञारूपी
हथियार से मार
से युद्ध कर।
वही एक
हथियार है
आदमी के
पास-होश का, प्रज्ञा का।
उसी के साथ
वासना से लड़ा
जा सकता है। और
कोई हथियार
काम न आएगा। जबर्दस्ती
से लड़ोगे, हारोगे।
दबाओगे, टूटोगे।
वासना को किसी
तरह छिपाओगे,
छिपेगी
नहीं। आज नहीं
कल फूट पड़ेगी।
विस्फोट होगा,
पागल हो
जाओगे। विक्षिप्त
हो जाओगे, विमुक्त
नहीं। एक ही
उपाय है, जिससे
भी लड़ना हो
होश से लड़ना। होश
को ही एकमात्र
अस्त्र बना
लेना। अगर
क्रोध है, तो
क्रोध को
दबाना मत
क्रोध को
देखना, क्रोध
के प्रति
जागना। अगर
काम है, तो
काम पर ध्यान
करना। होश से
भरकर देखना, क्या है काम
की वृत्ति।
और तुम
चकित होओगे, इन सारी
वृत्तियों का
अस्तित्व
निद्रा में है,
प्रमाद में
है। जैसे दीया
जलने पर
अंधेरा खो
जाता है, ऐसे
ही होश के आने
पर ये
वृत्तियां खो
जाती हैं। मार,
शैतान, काम-कुछ
भी नाम
दो-तुम्हारी
मूर्च्छा का
ही नाम है।
अहो! यह
तुच्छ शरीर
शीघ्र ही
चेतना-रहित
होकर व्यर्थ
काठ की भांति
पृथ्वी पर पड़ा
रहेगा।
बुद्ध
कहते हैं, जब तुम
जागकर देखोगे,
परम आनंद का
अनुभव होगा। भीतर।
एक उदघोष
होगा--
'अहो! यह
तुच्छ शरीर
शीघ्र ही
चेतना-रहित
होकर व्यर्थ
काठ की भांति
पृथ्वी पर पड़ा
रहेगा। '
यह शरीर
तुम नहीं। और
जिस दिन तुम
अपने शरीर को
व्यर्थ काठ की
भाति पड़ा हुआ
देख लोगे, उसी दिन
तुम शरीर के
पार हो गए। अतिक्रमण
हुआ। शरीर मौत
है। शरीर रोग
है। शरीर
उपाधि है। जो
शरीर से मुक्त
हुआ, वह
निरुपाधिक हो
गया।
शरीर से
मुक्त होने का
क्या अर्थ है? शरीर से
मुक्त होने का
अर्थ है, इस
बात। की
प्रतीति गहन
हो जाए, सघन
हो जाए; यह
लकीर फिर
मिटाए न मिटे,
यह बोध
फिर
दबाए न दबे; यह बोध
सतत हो जाए; जागने में, सोने में यह
अनुभव होता
रहे कि तुम
शरीर में हो, शरीर ही
नहीं।
'जितनी हानि द्वेषी-द्वेषी
की या वैरी-वैरी
की करता है, उससे अधिक
बुराई गलत
मार्ग पर लगा
हुआ चित्त करता
है।
दुश्मन
से मत डरो, बुद्ध
कहते हैं, वह
तुम्हारा
क्या
बिगाड़ेगा? डरो
अपने चित्त से।
शत्रु-शत्रु
की इतनी हानि
नहीं
करता-नहीं कर
सकता-जितना
तुम्हारा
चित्त गलत
दिशा में जाता
हुआ तुम्हारी
हानि करता है।
बुद्ध ने कहा
है तुम्हारा
ठीक दिशा में
जाता चित्त ही
मित्र है। और
तुम्हारा गलत
दिशा में जाता
चित्त ही शत्रु
है। तुम अपने
ही चित्त से
सावधान हो जाओ।
तुम अपने ही
चित्त का
सदुपयोग कर लो,
सम्यक
उपयोग कर लो, फिर
तुम्हारी कोई
हानि नहीं
करता। अगर कोई
दूसरा भी
तुम्हारी
हानि कर पाता
है, तो
सिर्फ इसीलिए
कि तुम्हारा
चित्त गलत दिशा
में जा रहा था,
नहीं तो कोई
तुम्हारी
हानि नहीं कर
सकता। ठीक
दिशा में जाते
चित्त की हानि
असंभव है। इसलिए
असली सवाल उसी
भीतर के दृढ़
दुर्ग को उपलब्ध
कर लेना है।
'जितनी हानि
द्वेषी-द्वेषी
की या वैरी-वैरी
की करता है, उससे अधिक
बुराई गलत
मार्ग पर लगा
हुआ चित्त
करता है। '
क्या है
गलत मार्ग? स्वयं को
न देखकर शेष
सब दिशाओं में
भटकते रहना। भीतर
न खोजकर, और
सब जगह खोजना।
अपने में न
झांककर सब जगह
झांकना। अपने
घर न आना, और
हर घर के
सामने भीख
मलना गलत
मार्ग है। और
ऐसे तुम चलते
ही रहे हो!
चलता
हूं थोड़ी दूर
हर एक सहरी के
साथ
पहचानता
नहीं हूं अभी
राहबर को मैं
यह
चित्त
तुम्हारा
हरेक के साथ
हो जाता है। कोई
भी यात्री मिल
जाता है, उसी के साथ
हो जाता है। कोई
स्त्री मिल गई,
कोई पुरुष
मिल गया, कोई
पद मिल गया, कोई धन मिल
गया, कोई
यश मिल गया, चल पड़ा। थोड़ी
दूर चलता है, फिर हाथ
खाली पाकर फिर
किसी दूसरे के
साथ चलने लगता
है। राह पर
चलते
अजनबियों के
साथ हो लेता
है। अभी अपने
मार्गदर्शक
को पहचानता
नहीं है।
चलता हूं
थोड़ी दूर हर
एक सहरी के
साथ
जो मिल
गया उसी के
साथ हो लेता
है।
अपना
कोई होश नहीं।
पहचानता
नहीं हूं अभी
राहबर को मैं
अभी कौन
मार्गदर्शक
है, कौन
गुरु है,
उसे मैं
पहचानता नही।
बुद्ध
ने कहा है, तुम्हारा
होश ही
तुम्हारा
गुरु है। कभी आंख
लुभा लेती है,
रूप की तरफ
चल पड़ता है। कभी
कान लुभा लेता
है, संगीत
की तरफ चल
पड़ता है। कभी
जीभ लुभा लेती
है, स्वाद
की तरफ चल
पड़ता है।
चलता
हूं थोड़ी दूर
हर एक शहरी के
साथ
पर हाथ
कभी भरते नहीं, प्राण
कभी तृप्त
होते नहीं। सोचकर
कि यह ठीक
नहीं, फिर
किसी और के
साथ चल पड़ते
हैं। मगर एक
बात याद नहीं
आती-
पहचानता
नहीं हूं अभी
राहबर को मैं
कौन है
जिसके पीछे
चलूं? होश,
जागृति, ध्यान,
उसके पीछे
चलो तो ही
पहुंच पाओगे। क्योंकि
उसका जिसने
साथ पकड़ लिया
वह अपने घर लौट
आता है, वह
अपने स्रोत पर
आ जाता है। गंगा
गंगोत्री
वापस आ जाती
है।
'जितनी भलाई
माता-पिता या
दूसरे
बंधु-बांधव नहीं
कर सकते, उससे
अधिक भलाई सही
मार्ग पर लगा
हुआ चित्त करता
है। '
और कोई
मित्र नहीं है, और कोई
सगा-साथी नहीं
है। और कोई
संगी संग करने
योग्य नहीं है।
एक ही साथ खोज
लेने योग्य है,
अपने बोध का
साथ। फिर तुम
वीराने में भी
रहो, रेगिस्तान
में भी रहो, तो भी अकेले
नहीं हो। और
अभी तुम भरी
दुनिया में हो
और बिलकुल
अकेले हो। चारों
तरफ भीड़- भाड़
है, बड़ा
शोरगुल है, पर तुम
बिलकुल अकेले
हो। कौन है
तुम्हारे साथ '
मौत आएगी, कौन
तुम्हारे साथ
जा सकेगा? लोग
मरघट तक
पहुंचा आएंगे।
उससे आगे फिर
कोई तुम्हारे
साथ जाने को
नहीं है। फिर
तुम्हें कहना
ही पड़ेगा, मन
से कहो, बेमन
से कहो-
शुक्रिया
ऐ कब तक
पहुंचाने
वाले
शुक्रिया
अब
अकेले ही चले
जाएंगे इस
मंजिल से हम
फिर
चाहे मन से
कहो, चाहे
बेमन से कहो; कहो चाहे न
कहो; मौत
के बाद अकेले
हो जाओगे। थोड़ा
सोचो, जो
मौत में काम न
पड़े वे जीवन
में साथ थे! जो
मौत में भी
साथ न हो सका, वह जीवन में
साथ कैसे हो
सकता है? धोखा
था, एक
भ्रांति थी। मन
को भुला लिया
था, मना
लिया था, समझा
लिया था। डर
लगता था अकेले
में। अकेले
होने में
बेचैनी होती
थी। चारों तरफ
एक सपना बसा
लिया था। अपनी
ही कल्पनाओं
का जाल बुन
लिया था। अपने
अकेलेपन को
भुलाने के लिए
मान बैठे थे
कि साथ है। लेकिन
कोई किसी के
साथ नहीं। कोई
किसी के संग
नहीं। अकेले
हम आते हैं और
अकेले हम जाते
हैं। और अकेले
हम यहां हैं, क्योंकि दो
अकेलेपन के
बीच में कहां
साथ हो सकता
है?
जन्म के
पहले अकेले, मौत के
बाद अकेले, यह थोड़ी सी
दूर पर राह
मिलती है, इस
राह पर बड़ी
भीड़ चलती है, तुम यह मत
सोचना
तुम्हारे साथ
चल रही है। सब
अकेले-अकेले
चल रहे हैं। कितनी
ही बड़ी भीड़ चल
रही हो, सब
अकेले- अकेले
चल रहे हैं। इसको
जिसने जान
लिया, इसको
जिसने समझ
लिया, वह
फिर अपना साथ
खोजता है। क्योंकि
वही मौत के
बाद भी साथ
होगा। फिर वह
अपना साथ खोजता
है। वह कभी न
छूटेगा।
अपना
साथ खोजना ही
ध्यान है। दूसरे
का साथ खोजना
ही विचार है। इसलिए
विचार
में सदा दूसरे
की याद बनी
रहती है। तुम्हारे
सब विचार
दूसरे की याद
हैं। अगर तुम
ध्यान
करो-विचार पर
विचार करो
बैठकर-तो तुम
पाओगे
तुम्हारे
विचारों में
तुम करते क्या
हो? तुम्हारे
विचारों में
तुम दूसरों की
याद करते हो। बाहर
से साथ न हों, तो भीतर से
साथ हैं।
एक युवा
संन्यस्त
होने एक गुरु
के पास पहुंचा।
निर्जन मंदिर
में उसने
प्रवेश किया। गुरु
ने उसके चारों
तरफ देखा और
कहा कि किसलिए
आए हो? उस
युवक ने कहा
कि सब छोड़कर
आया हूं
तुम्हारे
चरणों में, परमात्मा को
खोजना है। उस
गुरु ने कहा, पहले ये भीड़-
भाड़ जो तुम
साथ ले आए हो
बाहर ही छोड़
आओ। उस युवक
ने चौंककर
चारों तरफ
देखा, वहां
तो कोई भी न था।
भीड़- भाड़ का
नाम ही न था, वह अकेले ही
खड़ा था। उसने
कहा, आप भी
कैसी बात करते
हैं, मैं
बिलकुल अकेला
हूं। तब तो उस
युवक को थोड़ा
शक हुआ कि मैं
किसी पागल के
पास तो नहीं आ
गया!
उस गुरु
ने कहा, वह मुझे भी
दिखाई पड़ता है।
आंख बंद करके
देखो, वहां
भीड़- भाड़ है। उसने
आंख बंद की, जिस पत्नी
को रोते हुए
छोड़ आया है, वह दिखाई
पड़ी। जिन
मित्रों को
गांव के बाहर
बिदा मांग आया
है, वे खड़े
हुए दिखाई पड़े।
बाजार, दुकान,
संबंधी, तब
उसे समझ आया
कि भीड़ तो साथ
है।
विचार
बाहर की भीड़
के प्रतिबिंब
है। विचार, जो
तुम्हारे साथ
नहीं हैं उनको
साथ मान लेने
की कल्पना है।
ध्यान में तुम
बिलकुल अकेले
हो; या
अपने ही साथ
हो, बस।
'जितनी
भलाई
माता-पिता या
दूसरे
बंधु-बांधव नहीं
कर सकते, उससे
अधिक भलाई सही
मार्ग पर लगा
चित्त करता है।
'
सही
मार्ग से क्या
मतलब? अपनी
तरफ लौटता। जिसको
पतंजलि ने
प्रत्याहार
कहा है। भीतर
की तरफ लौटता।
जिसको महावीर
ने
प्रतिक्रमण
कहा है। अपनी
तरफ आता हुआ। जिसको
जीसस ने कहा
है, लोटों,
क्योंकि
परमात्मा का
राज्य बिलकुल
हाथ के करीब
है। वापस आ
जाओ।
यह
वापसी, यह लौटना
ध्यान है। यह
लौटना ही
चित्त का ठीक
लगना है। तुम
चित्त के ठीक
लगने से यह मत
समझ लेना कि
अच्छी-अच्छी
बातों में लगा
है। फिल्म की
नहीं सोचता, स्वर्ग की
सोचता है। स्वर्ग
भी फिल्म है। अच्छी-अच्छी
बातों में लगा
है। दुकान की
नहीं सोचता, मंदिर की
सोचता है। मंदिर
भी दुकान है। अच्छी-अच्छी
बातों में लगा
है। यह मत समझ
लेना मतलब कि
पाप की नहीं
सोचता, पुण्य
की सोचता है। पुण्य
भी पाप है। अच्छी-अच्छी
बातों का तुम
मतलब मत समझ
लेना कि
राम-राम जपता
है। मरा-मरा
जपो कि
राम-राम जपो, सब बराबर है।
दूसरे की याद,
पर का
चिंतन! फिर वह
मंदिर का हो
कि दुकान का, राम का हो कि
रहीम का, इससे
कोई फर्क नहीं
पड़ता।
ठीक
दिशा में लगे
चित्त का अर्थ
है, अपनी
दिशा में
लौटता। वहा
विचार छूटते
जाते हैं। धीरे-
धीरे तुम ही
रह जाते हो, तुम्हारा
अकेला होना रह
जाता है। शुद्ध।
मात्र तुम। इतना
शुद्ध कि मैं
का भाव भी नही
उठता। क्योंकि
मैं का भाव भी
एक विचार है। अहंकार
भी नहीं उठता,
क्योंकि
अहंकार भी एक
विचार है। जब
और सब छूट
जाते हैं, उन्हीं
के साथ वह भी
छूट जाता है। जिस
मुकाम पर तुम 'तू। को छोड़
आते हो, वहीं
'मैं' भी
छूट जाता है। जहां
तुम दूसरों को
छोड़ आते हो, वहीं तुम भी
छूट जाते हो। फिर
जो शेष रह
जाता है, फिर
जो शेष रह
जाता है
शुद्धतम, जब
तक उसको न पा
लो तब तक
जिंदगी गलत
दिशा में लगी
है।
ये जिंदगी
गुजार रहा हूं
तेरे बगैर
जैसे
कोई गुनाह किए
जा रहा हूं
मैं
जब तक
इस जगह न आ जाओ
तब तक सारी
जिंदगी एक
गुनाह है, एक पाप है।
तब तक तुम
कितना ही अपने
को समझाओ, कितना
ही अपने को
ठहराओ, तुम
कंपते ही
रहोगे भय से। तब
तक तुम कितना
ही समझाओ, तुम
धोखा दे न पाओगे।
तुम्हारी हर
सांत्वना के
नीचे से खाई
झांकती ही
रहेगी भय की, घबड़ाहट की। मृत्यु
तुम्हारे पास
ही खड़ी रहेगी।
तुम्हारी
जिंदगी को
जिंदगी मानकर
तुम धोखा न दे
पाओगे। और तुम
कितने ही
पुण्य करो, जब तक तुम
स्वयं की
सत्ता में
नहीं
प्रविष्ट हो
गए हो-
ये
जिंदगी गुजार
रहा हूं तेरे
बगैर
वही
परमात्मा है। वही
तुम्हारा
होना है-तुमसे
भी मुका। वही
परमात्मा है। जहा
घड़ा छूट गया
और कोरा आकाश
रह गया। नया, फिर भी
सनातन। सदा का,
फिर भी सदा
नया और ताजा।
ये
जिंदगी गुजार
रहा हूं तेरे
बगैर
जैसे
कोई गुनाह किए
जा रहा हूं
मैं
और जब
तक तुम उस जगह
नहीं पहुंच
जाते तब तक
तुम अनुभव
करते ही रहोगे
कि कोई पाप
हुआ जा रहा है।
कुछ भूल हुई
जा रही है। पैर
कहीं गलत पड़े
जा रहे हैं। लाख
सम्हालो, तुम सम्हल न
पाओगे। एक ही
सम्हलना है, और वह
सम्हलना है
धीरे- धीरे
अपनी तरफ
सरकना। उस
भीतरी बिंदु पर
पहुंच जाना है,
जिसके आगे
और कुछ भी
नहीं। जिसके
पार बस विराट
आकाश है।
इसे
बुद्ध ने
शुद्धता कहा
है। इस
शुद्धता में
जो प्रविष्ट
हो गया उसने
ही निर्वाण पा
लिया। उसने ही
वह पा लिया
जिसे पाने के
लिए जीवन है। और
जब तक ऐसा न हो
जाए तब तक
गुनगुनाते ही
रहना भीतर, गुनगुनाते
ही रहना-
ये
जिंदगी गुजार
रहा हूं तेरे
बगैर
जैसे
कोई गुनाह किए
जा रहा हूं
मैं
इसे याद
रखना तब तक। भूल
मत जाना। कहीं
ऐसा न हो कि
तुम किसी पड़ाव
पर ही
सोए रह जाओ।
कहीं ऐसा न हो
कि तुम भूल ही
जाओ कि जीवन
जागने का
पाठशाला है। इससे
उत्तीर्ण होना
है। यहां घर
बसाकर बैठ
नहीं जाना है।
आज
इतना ही।
THANK YOU GURUJI
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