पहला
प्रश्न :
बुद्ध
बातें करते
हैं होश की, जागने की,
और आप
बीच-बीच में
मस्ती, नशा,
शराब और
लीनता की
बातें भी
उठाया करते
हैं। बुद्ध पर
बोलते समय
विपरीत की
चर्चा क्यों
आवश्यक है? कृपया
समझाएं।
दृष्टि
न हो, तो
विपरीत दिखाई
पड़ता है। दृष्टि
हो, तो जस
भी विपरीत
दिखाई न पड़ेगा।
जिसको बुद्ध
होश कहते हैं,
उसी को
सूफियों ने
बेहोशी कहा। जिसको
बुद्ध
अप्रमाद कहते
हैं, उसी
को भक्तों ने
शराब कहा। बुद्ध
के वचनों में
और उमर खैयाम
में इंचभर का
फासला नहीं। बुद्ध
ने जिसे मंदिर
कहा है, उसी
को उमर खैयाम
ने मधुशाला
कहा। बुद्ध तो
समझे ही नहीं
गए उमर खैयाम
भी समझा नहीं
गया। उमर
खैयाम को
लोगों ने समझा
कि शराब की
प्रशंसा कर
रहा है।
कुछ
अपनी करामात
दिखा ए साकी
जो खोल
दे आंख वो
पिला ए साकी
होशियार
को दीवाना
बनाया भी तो
क्या
तुम
बेहोश हो। शराब
तो तुमने पी
ही रखी है। संसार
की शराब। किसी
ने धन की शराब
पी रखी है और
धन में बेहोश
है। किसी ने
पद की शराब पी
रखी है और पद
में बेहोश है।
किसी ने यश की
शराब पी रखी
है। जिनको न
पद, यश, धन की शराब
मिली, वे
सस्ती शराब
मयखानों में
पी रहे हैं। वे
हारे हुए
शराबी हैं।
और बडा
मजा तो यह है
कि बड़े शराबी
छोटे शराबियों
के खिलाफ हैं।
जो दिल्ली में
पदों पर बैठे
हैं, वे
छोटे-छोटे
मयखानों में
लोगों को शराब
नहीं पीने
देते। उन्होंने
खुद भी शराब
पी रखी है। लेकिन
उनकी शराब
सूक्ष्म है। उनका
नशा बोतलों
मैं बंद नहीं
मिलता। उनका
नशा बारीक है।
उनके नशे को
देखने के लिए
बड़ी गहरी आंख
चाहिए। उनका
नशा स्थूल
नहीं है।
राह पर
तुमने शराबी
को डगमगाते
देखा, राजनेता
को डगमगाते
नहीं देखा? राह में
तुमने शराबी
को गिर जाते
देखा, धनी
के पैर तुमने
डगमगाते नहीं
देखे? शराबी
को ऊलजलूल
बकते देखा, पदधारियों
को ऊलजलूल
बकते नहीं
देखा? तो
फिर तुमने कुछ
देखा नहीं। संसार
में आंख बंद
करके जी रहे
हों।
बहुत
तरह की शराबें
हैं। संसार
शराब है। उमर
खैयाम, सूफी या
भक्त जिस शराब
की बात कर रहे
हैं, वह
ऐसी शराब है
जो संसार के
नशे को तोड़ दे।
जो तुम्हें
जगा दे।
परमात्मा
की शराब का
लक्षण है
जागरण। इसलिए
बुद्ध और उमर
खैयाम की
बातों में
फर्क नहीं है।
जानकर ही
बुद्ध के साथ
इन मस्तानों
की भी बात कर
रहा हूं। क्योंकि
अगर तुम्हें
फर्क दिखाई
पड़ता रहा, तो न तो
तुम बुद्ध को
समझ सकोगे और
न इन दीवानों
को। जब इन
दोनों में
तुम्हें कोई
फर्क न दिखाई
पड़ेगा, तभी
तुम समझोगे।
'परमात्मा का
भी एक नशा है। लेकिन
नशा ऐसा है कि
और सब नशे तोड़
देता है। नशा
ऐसा है कि तुम्हारी
नींद ही तोड़
देता है। नशा
ऐसा है कि
जागरण की एक
अहर्निश धारा
बहने लगती है।
फिर भी उसे
नशा क्यों
कहें? तुम
पूछोगे। जब
होश आता है, तो नशा
क्यों कहें? नशा इसलिए
है कि होश तो
आता है, मस्ती
नहीं जाती। होश
तो आता है, मस्ती
बढ़ जाती है। और
ऐसा होश भी
क्या जो मस्ती
भी छीन ले! फिर
तो मरुस्थल का
हो जाएगा होश।
फिर तो
रूखा-सूखा
होगा। फिर तो
हरियाली न
होगी, फूल
न खिलेंगे, और पक्षी
गीत न गाएंगे,
और झरने न
बहेंगे, और
आकाश के तारों
में सौंदर्य न
होगा।
या तो
तुम उमर खैयाम
को समझ लेते
हो कि यह किसी साधारण
शराब की प्रशंसा
कर रहा है, और या तुम
समझ लेते हो
कि बुद्ध
मस्ती के खिलाफ
हैं। दोनों
नासमझियां
हैं। बुद्ध
मस्ती के
खिलाफ नहीं
हैं। बुद्ध से
ज्यादा मस्त
आदमी तुम कहां
पाओगे? तुम
कहोगे, यह
जरा अड़चन की
बात है। बुद्ध
को किसी ने
कभी नाचते
नहीं देखा। मीरा
नाचती है, चैतन्य
नाचते हैं। बुद्ध
को कब किसने
नाचते देखा? पर मै तुमसे
कहता हूं? ऐसे
भी नाच हैं जो
दिखाई नहीं
पड़ते। और मैं
तुमसे यह भी
कहता हूं कि
नाच की एक ऐसी
आखिरी स्थिति
भी है, जहां
सब थिर हो
जाता है। ऐसा
भी नाच है, जहां
कंपन नहीं
होता।
किसी और
उदाहरण से
समझें जो तुम्हारी
समझ में आ जाए।
क्योंकि यह
बात तो बेबूझ
हो जाएगी, पहेली बन
जाएगी। कोई मर
जाता है
प्रियजन, तो
तुमने आंखों
से आंसू बहाते
लोग देखे हैं।
कभी तुमने उस
दुख की घड़ी को
भी देखा है जब आंसू
भी नहीं बहते।
ऐसे भी दुख
हैं। दुख की
आत्यंतिक ऐसी
भी गहराई है
कि आंख से आंसू
भी नहीं बहते,
मुंह से आह
भी नहीं
निकलती। दुख
इतना गहन हो
जाता है कि आंसू
बहाना भी दुख
की बेइज्जती
मालूम होगी। दुख
इतना गहन हो
जाता है कि
रोना भी
व्यर्थ मालूम
होगा।
रोते भी
वे हैं, जिनके दुख
में अभी थोड़ी
सुख की सुविधा
है। जिनका दुख
पूरा नहीं है।
रोते भी वे
हैं, जिनके
दुख ने अभी
आखिरी तक नहीं
छू लिया है। हृदय
के आखिरी कोर
तक को नहीं
भिगो दिया है।
चिल्लाते भी
वे हैं, जिनका
दुख स्थूल है।
तुमने कभी ऐसी
घड़ी जरूर देखी
होगी, कि
दुख महान हुआ,
दुख इतना
बड़ा था कि तुम
सम्हाल न पाए,
आंखें भी
सम्हाल न
पायीं, आंसू
भी सम्हाल न
पाए, सब
सन्नाटा हो
गया। आघात
इतना गहरा था
कि कंपन ही न
हुआ।
मनोवैज्ञानिक
कहते हैं, अगर ऐसी
घड़ी हो तो
किसी भी तरह
उस व्यक्ति को
रुलाने की
चेष्टा करनी
चाहिए, अन्यथा
वह मर भी जा
सकता है। किसी
भांति उसे
हिलाओ, रुलाओ,
उसकी आंखों
में किसी भांति
आंसू ले आओ, ताकि आघात
हल्का हो जाए,
ताकि आघात
बह जाए ताकि
दुख आंसुओ से
निकल जाए और
भीतर राहत आ
जाए।
तुम दुख
के कारण रोते
हो, या
दुख से
छुटकारा पाने
के कारण रोते
हो? तुम
दुख के कारण
रोते हो, या
दुख से राहत
पाने के लिए
रोते हो? दुख
जब सघन होता
है, तो आवाज
भी नहीं उठती।
दिल जब सच में
ही टूट जाता
है, तो
आवाज भी नहीं
उठती।
ठीक
इससे विपरीत
अब तुम समझ
सकोगे। मीरा
नाचती है। अभी
नाच सकती है, इसलिए। अभी
नाच इतना गहरा
नहीं गया है। अभी
लीनता और
समाधि की दशा
इतनी गहरी
नहीं गई है
जहां नाच भी
खो जाए। ऐसे
भी नाच हैं
जहा नाच भी खो
जाता है। ऐसे
भी दुख हैं
जहा आंसू भी
नहीं होते।
बुद्ध
भी नाच रहे
हैं, लेकिन
बड़ा सूक्ष्म
है यह नृत्य। यह
इतना सूक्ष्म
है कि स्थूल आंखें
न पकड़ पाएंगी।
इसे तो केवल
वे ही देख
पाएंगे
जिन्होंने
ऐसा नाच जीया
हो, जाना
हो।
मैं
तुमसे कहता
हूं? बुद्ध
नाच रहे हैं। अन्यथा
हो ही नहीं
सकता। मैं
तुमसे कहता
हूं बुद्ध ने
पी ली वह शराब,
जिसकी मैं
बात कर रहा
हूं। आनंद
इतना सघन है,अवाक हो गए
हैं! ठगे रह गए
हैं! मीरा तो
नाच भी सकी, थोड़ी राहत
मिली होगी। आनंद
भी जब सघन हो
जाए तो कुछ
करो तो राहत
मिल जाती है। बुद्ध
पी गए। पूरा
आनंद पी गए। अगर
कोई मुझसे
पूछे, तो
बुद्ध का नशा
मीरा से भी
ज्यादा है। मीरा
को तो कम से कम
नाचने की खबर
रही। बुद्ध को
उतनी खबर भी न
रही।
ध्यान
रखना, जब
मैं मीरा, या
बुद्ध, या
किन्हीं और की
बात करता हूं
तो ये बातें
तुलनात्मक
नहीं हैं, कंपेरेटिव
नहीं हैं। मैं
किसी को
छोटा-बड़ा नहीं
कह रहा हूं। मैं
तो सिर्फ
तुम्हें
समझाने के लिए
बात ले रहा
हूं। तुम्हें
बुद्ध समझ में
आ जाएं, तो
तुम्हें उमर
खैयाम भी समझ
में आ जाएगा।
फिट्जराल्ड
ने, जिसने
उमर खैयाम का
अंग्रेजी में
अनुवाद किया,
उमर खैयाम
को बरबाद कर
दिया। क्योंकि
सारी दुनिया
ने
फिट्जराल्ड
के बहाने ही, उसी के
मार्ग से, उसी
के निमित्त से
उमर खैयाम को
जाना। और सारी
दुनिया ने यही
समझा कि यह
शराब की चर्चा
है, यह
मयखाने की
चर्चा है। यह
मयखाने की
चर्चा नहीं है,
शराब की
चर्चा नहीं है,
यह मंदिर की
बात है।
कुछ
अपनी करामात
दिखा ए साकी
जो खोल
दे आंख वो
पिला ए साकी
होशियार
को दीवाना
बनाया भी तो
क्या
दीवाने
को होशियार
बना ए साकी
बुद्ध
ने ऐसी ही
शराब ढाली, जिसमें
दीवाने
होशियार बन
जाते हैं। वही
उनका अप्रमाद
योग है। वही
उनकी जागरण की
कला है। लेकिन
मैं इसको
फिर-फिर शराब
कहता हूं। क्योंकि
मैं चाहता हूं
तुम यह न भूल
जाओ कि यह रूखी-सूखी
जीवन स्थिति
नहीं है, बड़ी
हरी-भरी है। यह
रेगिस्तान
नहीं है, मरूद्यान
है। यहां फूल
खिलते हैं, पक्षी
चहचहाते हैं। यहां
चांद-तारे
घूमते हैं। यहां
गीतों का जन्म
होता है। यहां
रोएं-रोएं में,
जरें-जरें
में अज्ञात की
प्रतिध्वनि
सुनी जाती है।
यहां मंदिर की
घंटियों का
नाद है और
मंदिर में
जलती धूप की
सुगंध है। बुद्ध
नीरस नहीं
बैठे हैं। हीरा
सम्हालकर
बैठे हैं।
कबीर
ने कहा है, हीरा
पायो गांठ
गठियायो।
तुम ऊपर
ही ऊपर मत
देखते रहना, गांठ ही
दिखाई पड़ती है।
भीतर हीरे को
गठियाकर बैठे
हैं। हिलते भी
नहीं, इतना
बड़ा हीरा है। कंपित
भी नहीं होते,
इतना बड़ा
हीरा है। इतनी
बड़ी संपदा
मिली है कि
धन्यवाद देना
भी ओछा पड़
जाएगा। छोटा
पड़ेगा। अहोभाव
भी प्रगट क्या
करें! अहोभाव
प्रगट करने
वाला भी खो
गया है। कौन
धन्यवाद दे, कौन अनुग्रह
की बात करे, कौन उत्सव
मनाए।
मैं
तुमसे यह कह
रहा हूं कि
ऐसे उत्सव भी
हैं जब उत्सव
भी ओछा पड़
जाता है। इसलिए
जानकर ही बात
कर रहा हूं। जब
कभी उमर खैयाम
की तुमसे बात
करूंगा, तो बुद्ध की
भी बात करूंगा।
क्योंकि न तो
उमर खैयाम
समझा जा सकता
है बुद्ध के
बिना, न
बुद्ध समझे जा
सकते हैं उमर
खैयाम के बिना।
मेरी
सारी चेष्टा
यही है कि
जिनको तुमने
विपरीत समझा
है, उनको
तुम इतने गौर
से देख लो कि
उनकी
विपरीतता खो
जाए। और
अलग-अलग रंगों
और रूपों में
तुम्हें एक ही
सौंदर्य की
झलक मिल जाए। मीरा
के नाच में
अगर तुम्हें
बुद्ध बैठे
मिल जाएं और बुद्ध
की ध्यानस्थ
प्रतिमा में
अगर तुम्हें मीरा
का नाच मिल
जाए, तो
हाथ लग गई
कुंजी। मंदिर
का द्वार तुम
भी खोलने में
समर्थ हो जाओगे।
जिन्होंने
इससे अन्यथा
देखा, उन्होंने
देखा नहीं। उन
अंधों की
बातों में मत
पड़ना।
दूसरा
प्रश्न?
कुछ
दिल ने कहा? कुछ भी
नहीं
कुछ
दिल ने सुना? कुछ भी
नहीं
ऐसे
भी बातें होती
हैं?
ऐसे
ही बातें होती
हैं!
एक तो
मनुष्य की
बुद्धि में
चलते हुए
विचारों का जाल
है। वहां सब
साफ-सुथरा है।
वहां चीजें
कोटियों में
बंटी हैं, क्योंकि
वहां तर्क का साम्राज्य
है। और एक फिर
हृदय में उठती
हुई लहरें हैं।
वहा कुछ भी
साफ-सुथरा
नहीं है। वहा
तर्क का
साम्राज्य
नहीं है। वहां
प्रेम का
विस्तार है। वहां
हर लहर दूसरी
लहर से जुड़ी
है। वहां कुछ
भी अलग- थलग
नहीं है, सब
संयुक्त है। वहा
शून्य भी
बोलता है, और
बोलना भी सन्नाटे
जैसा है। वहां
नृत्य भी आवाज
नहीं करता, और वहां
सन्नाटा भी
नाचता है।
तर्क की
जितनी
कोटियां हैं, जैसे-जैसे
तुम हृदय के
करीब आते हो, टूटती चली
जाती हैं। तर्क
के जितने
हिसाब हैं, जैसे-जैसे
तुम हृदय के
करीब आते चले
जाते हो, वे
हिसाब व्यर्थ
होने लगते हैं।
जितनी
धारणाएं हैं
विचार की, वे
धारणाएं बस जब
तक तुम
मस्तिष्क में
जीते हो, खोपड़ी
ही तुम्हारा
जब तक घर है, तब तक
अर्थपूर्ण
हैं। जैसे ही
थोड़े गहरे गए,
जैसे ही
थोड़ी डुबकी ली,
जैसे ही
थोड़े अपने में
लीन हुए, जैसे
ही हृदय के
पास सरकने लगे,
वैसे ही सब
रहस्य हो जाता
है। जो जानते
थे, पता
चलता है वह भी
कभी जाना नहीं।
जो सोचते थे
कभी नहीं जाना,
एहसास होता
है जानने लगे।
शात छूटता है,
अज्ञात में
गति होती है। किनारे
से नाव मुका
होती है और उस
सागर में प्रवेश
होता है, जिसका
फिर कोई
किनारा नहीं। इस
किनारे से नाव
मुका होती है,
उस तरफ जहां
फिर कोई दूसरा
किनारा नहीं
है, तटहीन
सागर है हृदय
का, वहा
बड़ी पहेली बन
जाती है।
कुछ दिल
ने कहा? कुछ भी नहीं
कुछ दिल
ने सुना? कुछ भी नहीं
ऐसे भी
बातें होती
हैं?
ऐसे ही
बातें होती
हैं!'
दिल को
सुनने की कला
सीखनी पड़ेगी। अगर
पुरानी आदतों
से ही सुना, जिस ढंग
से मन को सुना
था, बुद्धि
को सुना था, अगर उसी ढंग
से सुना, तो
तुम हृदय की
भाषा न समझ
पाओगे। वह
भाषा भाव की
है। उस भाषा
में शब्द नहीं
हैं, संवेग
हैं। उस भाषा
में शब्दकोश
से तुम कुछ भी
सहायता न ले
सकोगे। उस
भाषा में तो
जीवन के कोश
से ही सहायता
लेनी पड़ेगी।
और
इसीलिए अक्सर
लोग हृदय के
करीब जाने से
डर जाते हैं। क्योंकि
हृदय के पास
जाते ऐसा लगता
है, जैसे
पागल हुए जाते
हैं। सब
साफ-सुथरापन
नष्ट हो जाता
है। ऐसा ही
समझो कि विराट
जंगल है जीवन
का, और
तुमने एक छोटे
से आंगन को
साफ-सुथरा कर
लिया है-काट
दिए झाड़-झंखाड़,
दीवालें
बना ली हैं। अपने
आंगन में तुम
सुनिश्चित हो।
जरा आंगन से
बाहर निकलो, तो जंगल की
विराटता घबड़ाती
है। वहां खो
जाने का डर है।
वहां कोई
राजपथ नहीं। पगडंडियां
भी नहीं हैं, राजपथ तो
बहुत दूर।
उस
विराट बीहड़
जंगल में, जीवन के
जंगल में तो
तुम चलो, जितना
चलो उतना ही
रास्ता बनता
है। चलने से
रास्ता बनता
है। चलने के
लिए कोई
रास्ता तैयार
नहीं है। रेडीमेड
वहां कुछ भी
नहीं है। इसलिए
आदमी डरता है,
लौट आता है
अपने अपान में।
यही तो अड़चन
है। बुद्धि
तुम्हारा आंगन
है, जहां
सब साफ-सुथरा
है, जहां
गणित ठीक बैठ
जाता है।
प्लेटो
ने अपनी
अकादमी, अपने स्कूल
के द्वार पर
लिख रखा
था-जों गणित न जानता
हो, वह
भीतर न आए। प्लेटो
यह कह रहा है, जिसने
बुद्धि की
भाषा न सीखी
हो, वह
यहां भीतर न
आए।
मेरे
द्वार पर भी
लिखा है कुछ। प्लेटो
तो लिख सकता
है, क्योंकि
बुद्धि के पास
शब्द हैं, मैं
लिख नहीं सकता।
लेकिन मेरे
द्वार पर भी
लिखा है कि जो
हृदय की भाषा
न समझता हो, वह भीतर न आए।
क्योंकि यहां
हम उस जगत की
ही बात कर रहे
हैं, जिसकी
कोई बात नहीं
हो सकती। यहां
हम उसी तरफ
जाने की
चेष्टा में
संलग्न हैं, जहां जाना अपने
को मिटाने
जैसा है। जहा
केवल वे ही
पहुंचते हैं
जो अपने को
खोने को तत्पर
होते हैं। तो
डर लगेगा।
इसीलिए
तो लोग प्रेम
से भयभीत हो
गए हैं। प्रेम
की बात करते
हैं, प्रेम
करते नहीं। बात
खोपड़ी से हो
जाती है। करना
हो, तो
जीवन के बीहड़
जंगल में
प्रवेश करना
होता है। खतरे
ही खतरे हैं। प्रेम
के संबंध मे
लोग सुनते हैं,
समझते हैं,
गीत गाते
हैं, कथाएं
पढ़ते हैं, प्रेम
करते नहीं। क्योंकि
प्रेम करने का
अर्थ, अपने
को मिटाना। अहंकार
खो जाए, तो
ही प्रेम का
अंकुरण होता
है। और जिसने
प्रेम ही न
जाना-जिस
अभागे ने
प्रेम ही न जाना-वह
प्रार्थना
कैसे जानेगा। वह
तो प्रेम की
पराकाष्ठा
है। वह तो
प्रेम का
आखिरी निचोड़
है, आखिरी
सार है।
'कुछ दिल ने
कहा? कुछ
भी नहीं
कुछ दिल
ने सुना? कुछ भी नहीं
ऐसे भी
बातें होती
हैं? ऐसे
ही बातें होती
हैं!
वहां
भीतर ऐसी ही
तरंगें चलती
रहती हैं। वहां
ही और ना में
फासला नहीं। वहां
हो भी कभी ना
होता है, ना भी कभी ही
होता है। वहां
सब विरोध लीन
हो जाते हैं
एक में। उत्तर
में मैं तुमसे
कहना चाहूंगा-
कान वो
कान है जिसने
तेरी आवाज
सुनी
आंख वो आंख
है जिसने तेरा
जलवा देखा
जब तक
कान आदमियों
की ही बात सुनते
रहे, जब
तक कान वही
सुनते रहे जो
बाहर से आता
है, जब तक
कान आहत नाद
को सुनते
रहे-जिसकी चोट
पड़ती है कान
पर और कान के
पर्दों पर
झन्नाहट होती है-तब
तक कान-कान ही
नहीं। और जब
तक आंखों ने
वही देखा जो
बाहर से आकर
प्रतिबिंब
बनाता है, तब
तक उधार ही
देखा। तब तक सत्य
का कोई अनुभव
न हुआ। तब तक
सपना ही देखा।
जब कानों ने
वह सुना जो
भीतर से उमगता
है, जो
भीतर से उठता
है, जो
भीतर से भरता
है, तभी
कान -कान हैं। और
जब आंखों ने
वह देखा जो आंखें
देख ही नहीं
सकतीं, जब आंखों
ने वह देखा जो आंख
बंद करके
दिखाई पड़ता है,
जब आंखें अपने
पर लौटीं, स्वयं
को देखा, तभी
आंखें हैं।
कान वो
कान है जिसने
तेरी आवाज
सुनी
आंख वो आंख
है जिसने तेरा
जलवा देखा
सरको। भीतर
की तरफ चलो। थोड़ी
अपने से पहचान
करें। संसार
की बहुत पहचान
हुई। बहुत
परिचय बनाए, कोई काम
नहीं आते। बहुत
संग-साथ किया,
अकेलापन
मिटता नही। भीड़
में खड़े हो, अकेले हो
बिलकुल। ऐसे
भी लोग हैं जो
जिंदगी भर भीड़
में रहते हैं
और अकेले ही
रह जाते हैं। और
ऐसे भी लोग
हैं जो अकेले
ही रहे और
क्षणभर को भी
अकेले नहीं। जिन्होंने
भीतर की आवाज
सुन ली उनका
अकेलापन समाप्त
हो गया। उन्हें
स्वात उपलब्ध
हुआ। जिन्होंने
भीतर के दर्शन
कर लिए, उनके
सब सपने खो गए।
सपनों की कोई
जरूरत न रही। सत्य
को देख लिया, फिर कुछ और
देखने को नहीं
बचता।
राबिया
अपने घर में
बैठी थी। हसन
नाम का फकीर
उसके घर
मेहमान था। सुबह
का सूरज निकला, हसन बाहर
गया। बड़ी
सुंदर सुबह थी।
आकाश में
रंगीन बादल
तैरते थे और
सूरज ने सब
तरफ किरणों का
जाल फैलाया था।
हसन ने
चिल्लाकर कहा,
राबिया!
भीतर बैठी
क्या करती है?
बाहर आ, बड़ी
सुंदर सुबह है।
परमात्मा ने
बड़ी सुंदर
सुबह को पैदा
किया है। और
आकाश में बड़े
रंगीन बादल
तैरते हैं। पक्षियों
के गीत भी हैं।
किरणों का जाल
भी है। सब
अनूठा है। स्रष्टा
की लीला देख, बाहर आ!
राबिया
खिलखिलाकर
हंसी और उसने
कहा, हसन!
तुम ही भीतर आ
जाओ। क्योंकि
हम उसे ही देख
रहे हैं जिसने
सुबह बनाई, जिसने सूरज
को जन्म दिया,
जिसके
किरणों के जाल
को देखकर तुम
प्रसन्न हो रहे
हो, भीतर
आओ, हम उसे
ही देख रहे
हैं।
कान वो
कान है जिसने
तेरी आवाज
सुनी
आंख वो आंख
है जिसने तेरा
जलवा देखा
तीसरा
प्रश्न :
भगवान, आप अपने
प्रवचनों में
प्रतिदिन ऐसी
तात्कालिकता
पैदा कर देते
हैं कि रोआं-रोआं
सिहर उठता-है।
और हृदय में
बाढ़ सी आ जाती
है और एक
शिखर-अनुभव की
सी स्थिति बन
जाती है। फिर
आप कहते हैं
कि यदि हम
तैयार हों, तो घटना इसी
क्षण घट सकती
है। कृपया इस
तैयारी को कछ
और स्पष्ट
करें।
फिर से
प्रश्न को पढ़
देता हूं
क्योंकि
प्रश्न में ही
उत्तर छिपा है।
आप अपने
प्रवचनों में
प्रतिदिन ऐसी
तात्कालिकता
पैदा कर देते
हैं कि रोआं-रोआं
सिहर उठता है
और हृदय में
बाढ़ सी आ जाती
है। '
बाढ़
नहीं आती, बाढ़ सी!
'और एक
शिखर-अनुभव की
सी स्थिति बन
जाती है।'
शिखर
नहीं, शिखर
की सी। वहीं
उत्तर है। वहीं
तैयारी चूक
रही है।
बुद्धि
झूठे सिक्के
बनाने में बड़ी
कुशल है। बाढ़
की सी स्थिति
बना देती है। बाढ़
का आना और है। बाढ़
के आते तो फिर
हो गई घटना!
लेकिन बाढ़ की
सी स्थिति से
नहीं होगी। यह
तो ऐसा ही है
जैसे तट पर
बैठे हैं, नदी में
तो बाढ़ नहीं
आती, सोच
लेते हैं, एक
सपना देख लेते
हैं, एक
ख्वाब देखा कि
बाढ़ की सी
स्थिति आ गई। फिर
आंख खोलकर
देखी कि गाव
अपनी जगह है-न
गांव डूबा, न कुछ
बहा-नदी अपनी
जगह है। बाढ़
की सी स्थिति
आई और गई। कूड़ा-करकट
वहीं का वहीं
पड़ा है, कुछ
भी बहा न। कुछ
ताजा न हुआ, कुछ नया न
हुआ।
मैं जब
बोल रहा हूं
तो दो तरह की
संभावनाएं बन सकती
हैं। तुम मुझे
अगर बुद्धि से
सुनो, तो
ज्यादा से
ज्यादा बाढ़ की
सी स्थिति
बनेगी। बुद्धि
बड़ी कुशल है। और
बुद्धि, तुम
जो चाहो उसी
का सपना देखने
लगती है।
बुद्धि
से मत सुनो। कृपा
करो, बुद्धि
को जरा बीच से
हटाओ। सीधे-सीधे
होने
दो बात
हृदय की हृदय
से। बुद्धि से
सुनते हो तब..
तब तरंगें
बुद्धि में
उठती हैं। लेकिन
बुद्धि की
तरंगें तो
पानी में
खींची गई लकीरों
जैसी हैं-बन
भी नहीं पातीं
और मिट जाती
हैं। बुद्धि
का भी कोई
भरोसा है!
विचार क्षणभर
नहीं ठहरते और
चले जाते हैं।
आए भी नहीं कि
गए। बुद्धि तो
मुसाफिरखाना
है। वहां कोई
घर बनाकर कभी
रहा है? रेलवे स्टेशन
का
प्रतीक्षालय
है। यात्री
आते हैं, जाते
हैं। वहा
तुम्हारे
जीवन में कोई
शाश्वत का नाद
न बजेगा। एस
धम्मो सनंतनो।
उस
सनातन का
बुद्धि से कोई
संबंध न हो
पाएगा। बुद्धि
क्षणभंगुर है।
पानी के बबूले
हैं-बने, मिटे। उनमें
तुम घर मत
बसाना। कभी-कभी
पानी के बबूलों
में भी सूरज
की किरणों का
प्रभाव ऐसे
रंग दे देता
है, इंद्रधनुष
छा जाते हैं। मेरी
बात तुम सुनते
हो। बुद्धि
सुनती है, तरंगायित
हो जाती है, बाढ़ की सी
स्थिति बन
जाती है। एक
सपना तुम
देखते हो। फिर
उठे, गए, बाढ़ चली गई। तुम
जहां थे वहीं
के वहीं रह गए।
कूड़ा-करकट भी
न बहा, तुम्हें
पूरा बहा ले
जाने की तो
बात ही दूर! शायद
तुम और भी
मजबूत होकर जम
गए। क्योंकि
एक बाढ़, तुम्हें
लगा आई और चली
गई, और
तुम्हारा कुछ
भी न बिगाड़
पाई। ऐसे तो
तुम रोज सपने
देखते रहो
बाढ़ों के, कुछ
भी न होगा।
बुद्धि
को हटा दो। जब
सुनते हो तो
बस सुनो, विचारों मत।
सुनना काफी है,
विचारना
बाधा है। मैं
तुमसे यह नहीं
कह रहा हूं कि
मैं जो कहता हूं
उसे मान लो। क्योंकि
वह मानना भी
बुद्धि का है।
मानना बुद्धि
का, न
मानना बुद्धि
का। स्वीकार
करना बुद्धि
का, अस्वीकार
करना बुद्धि
का। मैं तुमसे
यह नहीं कहता
कि जो मैं
तुमसे कह रहा
हूं उसे तुम
मान लो। न मैं
तुमसे कहता
हूं न मानो, न कहता हूं
मानो। मैं तो
कहता हूं
सिर्फ सुन लो।
सोचो मत। बुद्धि
को कह दो, तू
चुप!
तुम
मुझे ऐसे ही
सुनो जैसे अगर
पक्षी कोई गीत
गाता हो, उसे सुनते
हो। तब तो
बुद्धि कोई
काम नहीं कर
सकती। यद्यपि
वहां भी थोड़े
अपने हाथ
फैलाती है। थोड़े
झपट्टे मारती
है। कहती है
बड़ा सुंदर है।
कल सुना था
वैसा ही गीत
है। यह कौन सा
पक्षी गा रहा
है? थोड़े-बहुत
हाथ मारती है,
लेकिन
ज्यादा नहीं। क्योंकि
पक्षी की भाषा
तुम नहीं
समझते।
मैं
तुमसे कहता
हूं मेरी भाषा
भी तुम समझते
मालूम पड़ते हो, समझते
नहीं। क्योंकि
जो मैं बोल
रहा हूं वही
मैं बोल नहीं रहा
हूं। जो मैं
तुम्हें कहता
हुआ सुनाई पड़
रहा हूं उससे
कुछ ज्यादा
तुम्हें देना
चाहता हूं। शब्दों
के साथ-साथ
शब्दों की
पोटलियों में
बहुत शून्य
बांधा है। स्वरों
के साथ-साथ
उनके पीछे-पीछे
बहुत सन्नाटा
भी भेजा है। जो
कह रहा हूं
वही नहीं, अनकहा
भी कहे हुए के
पीछे-पीछे
छिपा आ रहा है।
तुम अगर
बुद्धि से ही
सुनोगे, तो जो मैंने
कहा वही
सुनोगे, अनकहे
से वंचित रह
जाओगे। जो कहा
ही नहीं जा
सकता, उससे
तुम वंचित रह
जाओगे। बाढ़
उससे
आती है।
दृश्य के साथ
जो अदृश्य को
बांधा है, प्रतीकों
के साथ उसे रख
दिया है जिसका
कोई प्रतीक
नहीं, शब्दों
की पोटलियों
में शून्य को
सम्हाला है। अगर
बुद्धि से
सुना, पोटली
हाथ लग जाएगी,
पोटली के
भीतर जो था वह
खो जाएगा। उसी
के लिए पोटली
का उपयोग था। कंटेंट
खो जाएगा। विषयवस्तु
खो जाएगी। कंटेनर,
खाली डब्बा
हाथ लग जाएगा।
तब बाढ़ की सी
स्थिति मालूम
पड़ेगी।
सुनो, सोचो मत। सुनो,
मानने न
मानने की
जरूरत ही नहीं
है। मैं तुमसे
कहता हूं
सुनने से ही
मुक्ति हो सकती
है, अगर
तुम मानने, न मानने के
जाल को खड़ा न
करो। क्योंकि
जैसे ही तुम्हारे
मन में सवाल
उठा कि ठीक है,
मानने
योग्य है; या
सवाल उठा ठीक
नहीं है.
मानने योग्य
नहीं है। जब
तुम कहते हो
ठीक है, मानने
योग्य है, तो
तुम क्या कर
रहे हो ' तुम
यह कह रहे हो, मेरे अतीत
से मेल खाती
है बात। मेरे
विचारों से
तालमेल पड़ता
है। मेरी अतीत
की श्रद्धा, मान्यताएं,
सिद्धात, शास्त्र, उनके अनुकूल
है। तो तुमने
मुझे कहो सुना?
तुमने अपने
अतीत को -ही
मुझसे
पुनः-पुन:
सिद्ध कर लिया।
यहां मैं
तुम्हारे
अतीत को सही
सिद्ध करने के
लिए नहीं हूं।
तो फिर
बाढ़ कैसे आएगी
' जिसको
बहाना था, बाढ़
जिसे ले जाती,
वह और मजबूत
हो गया। या
तुमने कहा कि
नहीं, बात
जमती नहीं। अपने
शास्त्र के
अनुकूल नहीं,
प्रतिकूल
है। अपने
सिद्धातों के
साथ नहीं
बैठता। तो
तुमने अपने को
तोड़ ही लिया
अलग। जोड़ते हो
तो बुद्धि से,
तोड़ते हो तो
बुद्धि से। यहां
कुछ बात ही और
हो रही है। न
जोड़ने का सवाल
है, न
तोड़ने का सवाल
है। अगर
बुद्धि बीच से
हट जाए, तो
जोड़े कौन, तोड़े
कौन 'एक ही
बचता है, जुड़े
कौन, टूटे
कौन?
अगर
बुद्धि हट जाए, तो तुम
पाओगे कि मैं
तुम्हारे
भीतर वहां हूं,
तुम मेरे
भीतर यहां हो।
तब मैं कुछ
ऐसा नहीं कह
रहा हूं? जो
मेरा है। मेरा
कुछ भी नहीं
है। कबीर ने
कहा है, मेरा
मुझमें कुछ
नहीं।
जो मैं
कह रहा हूं
उसमें मेरा
कुछ भी नहीं
है। जो मैं कह
रहा हूं वह
तुम्हारा ही
है। लेकिन
तुमने अपना
नहीं सुना है, मैंने
अपना सुन लिया
है। जो मैं
तुमसे कह रहा
हूं जब तुम
पहचानोगे, तो
तुम पाओगे यह
तुम्हारी ही
आवाज थी। यह
तुम्हारा ही
गीत था जो
मैंने
गुनगुनाया।
यहां
कोई
शास्त्रों की, सिद्धातों
की बात नहीं
हो रही है, ये
सब तो बहाने
हैं, खूंटियां
हैं। यहां तो
शास्त्रों, सिद्धातों
के बहाने कुछ
दूसरा ही खेल
हो रहा है। अगर
तुमने शब्द ही
सुने और उन पर
ही विचार किया-ठीक
है या गलत; मानें
कि न मानें; अपने अनुकूल
पड़ता है कि
नहीं-तो तुम
मुझसे चूक गए।
और जो मुझसे
चूका, वह
खुद से भी
चूका। तुम
अपने से ही
चूक गए।
अब तुम
पूछते हो... अगर
तुमने अपना
प्रश्न ही गौर
से देखा होता
तो समझ में आ
जाता।
'आप अपने
प्रवचनों में
प्रतिदिन ऐसी तात्कालिकता
पैदा कर देते
हैं कि रोआं-रोआं
सिहर उठता है।
और हृदय में
बाढ़ सी आ जाती
है।
बाढ़ सी? सावधान, बाढ़ सी से
बचना। बाढ़
चाहिए।
और एक
शिखर-अनुभव की
सी स्थिति बन
जाती है। ,
शिखर-अनुभव
की सी? सावधान,
यह झूठा
सिक्का है!
मन के
एक स्वभाव को
समझ लो। तुम
जो चाहते हो, मन उसकी
प्रतिमाएं
बना देता है। वह
कहता है, यह
लो, हाजिर
है। दिनभर तुम
भूखे रहे, रात
सपना देखते हो
कि सुस्वादु
भोजन कर रहे
हो। मन कहता
है, दिनभर
भूखे रहे, यह
लो भोजन हाजिर
है। लेकिन रात
तुम कितना ही
सुस्वादु
भोजन करो, पेट
न भरेगा। हालांकि
नींद सम्हल
जाएगी। भूखे
रहते तो नींद
लगना मुश्किल
होती। सपने ने
कहा, यह लो
भोजन, मजे
से कर लो और सो
जाओ। तुमने
सपने में भोजन
कर लिया, सो
गए।
तुमने
कभी खयाल किया, नींद में
प्यास लगी है,
गर्मी की
रात है, शरीर
ने बहुत पसीना
छोड़ दिया है, नींद में
प्यास लग गई
है। अब डर है, अगर प्यास
बढ़ जाए तो
नींद टूट जाए।
तो मन कहता है,
उठो। उठे
तुम सपने में,
गए
रेफ्रिजरेटर
के पास, सपने
में ही
कोकाकोला पी
लिया, लौटकर
अपने बिस्तर
पर सो गए। निश्चित
अब। मन ने
धोखा दे दिया।
प्यास अपनी
जगह है। न तुम
उठे, न तुम
गए कहीं; बस
एक स्वभाव, एक बाढ़
सी-कोकाकोला
सा; नींद
सम्हल गई, करवट
लेकर तुम सोए
रहे। सुबह पता
चलेगा कि अरे,
प्यासे
रातभर पड़े
रहे!
स्वप्न
का काम है
निद्रा की
रक्षा। कहीं
नींद टूट न
जाए, तो
स्वप्न का
इंतजाम है। स्वप्न
सुरक्षा है। नींद
को नहीं टूटने
देता। सब तरह
से बचाता है। और
धोखा पैदा हो
जाता है। कम
से कम नींद
में तो काम चल
जाता है। सुबह
जागोगे, तब
पता चलेगा। जिस
दिन जागोगे उस
दिन सोचोगे
बाढ़ सी? किस
धोखे में रहे,
किस सपने
में खो गए?
इन
बातों का
भरोसा मत करो।
इससे एक बात
साफ है कि जो
भी मैं कहता
हूं तुम्हारी
बुद्धि उसकी
छानबीन करती
है, फिर
तुम्हारे
भीतर जाता है।
तुम्हारी
बुद्धि
पहरेदार की
तरह खड़ी है। जो
मैं कहता हूं,
बुद्धि
पहले परीक्षण
करती है उसका,
फिर भीतर
जाने देती है।
परीक्षण ही
करे तो भी ठीक
है। उसका
रंग-रूप भी
बदल देती है। अतीत
के अनुकूल बना
देती है। बुद्धि
यानी तुम्हारा
अतीत। जो
तुमने अब तक
जाना है, अनुभव
किया है, पढ़ा
है, सुना
है, उस
सबका संग्रह। तो
तुमसे कोई नई
बात कही ही
नहीं जा सकता।
और मैं तुमसे
नई ही बात
करने की जिद्द
किए बैठा हूं।
तुम वही
सुन सकते हो
जो पुराना है, मैं
तुमसे वही
कहने की जिद्द
किए बैठा हूं,
कि जो नया
है। जो
नितनूतन है
वही सनातन है।
जो प्रतिपल
नया है वही
सनातन है। जो
कभी पुराना
नहीं हो सकता
वही पुरातन है।
लेकिन
तुम्हारी
बुद्धि वहां
बैठी है। अपना
सारा धूल जमाए
हुए है। कोई
भी चीज आती है,
बुद्धि
उसके रंग को
बदल देती है। तब
तुम सुन पाते
हो, पर वह सुनना
धोखा हो गया। फिर
बाढ़ की सी
स्थिति बनती
है। वहीं
तैयारी चूक गई।
मैं
तुमसे कहता
हूं इसी क्षण
घटना घट सकती
है, यदि
तुम तैयार हो।
तैयार का क्या
अर्थ?
तैयार का इतना
ही अर्थ, अगर
तुम अपनी
बुद्धि को
किनारे रख
देने को तैयार
हो। अगर तुम
कहते हो, ठीक
है, हो जाए
साक्षात्कार
सीधा-सीधा।
आएं
हमारे दिल में
दिल से ही
मिलाएंगे
यह बीच
में भूमिका
बांधने के लिए
बुद्धि न होगी।
परिचय करवाने
के लिए बुद्धि
न होगी तो अभी
इसी घड़ी घटना
घट सकती है।
धर्म के
लिए ठहरने की
कोई जरूरत ही
नहीं। उसका कल
से कुछ
लेना-देना
नहीं। आज हो
सकता है। धर्म
सदा नगद है, उधार
नहीं। कल का
कोई आश्वासन
नहीं देता मैं
तुम्हें। अभी
हो सकता है, इसी क्षण हो
सकता है। कुरल
का तो तुम्हें
वे ही आश्वासन
देते हैं जो
तुम्हारी
बुद्धि को ही
अपील कर रहे
हैं, तुम्हारी
बुद्धि को ही
निमंत्रण दे
रहे हैं। मैंने
तुम्हारी
बुद्धि को कोई
निमंत्रण
नहीं दिया है,
तुम्हें
बुलाया है। जिस
दिन भी तुम
आओगे बुद्धि
को अलग रखकर, किनारे
हटाकर, उसी
क्षण मिलन
संभव है।
तुम
मुखातिब भी हो
करीब भी हो
तुमको
देखूं कि
तुमसे बात
करूं
तुम
यहां बैठे हो, मैं यहां
बैठा हूं-
तुम मुखातिब
भी हो करीब भी
हो
तुमको
देखूं कि
तुमसे बात
करूं
'अगर तुमने
मुझसे बात की,
चूके। अगर
तुमने मुझे
देखा, पाया।
यहां मैं
तुमसे बोल भी
रहा हूं और
यहां हूं भी। बोलना
सिर्फ बहाना
है। बोलना तो
सिर्फ
तुम्हें
बुलाना है। बोलना
तो सिर्फ यह
है कि खाली
तुम न बैठ
सकोगे मेरे
पास इतनी देर।
रोज-रोज खाली
बैठने को तुम
न आ सकोगे। उतनी
समझ की तुमसे
अपेक्षा नहीं।
अगर मैं चुप
हो जाऊंगा, तुम
धीरे-धीरे
छंटते चले
जाओगे। तुम
कहोगे खाली ही
वहां बैठना है,
तो अपने घर
ही बैठ लेंगे।
घर भी तुम न
बैठोगे, क्योंकि
तुम कहोगे
खाली बैठने से
क्या सार? इतना
समय तो धन में
रूपांतरित हो
सकता है। कुछ
कमा लेंगे, कुछ कर
लेंगे।
मैं
तुमसे बोल रहा
हूं ताकि
तुम्हें
उलझाए रखूं। ऐसे
ही जैसे छोटा
बच्चा ऊधम कर
रहा हो, खिलौना दे
देते हैं। खिलौने
से खेलता रहता
है, उतनी
देर कम से कम
शात रहता है। तुमसे
बात करता हूं
शब्द तो
खिलौने हैं। थोड़ी
देर तुम खेलते
रहो, शायद
खेलने में मन
तल्लीन हो जाए,
ठहर जाओ तुम
थोड़ी देर मेरे
पास। शायद तुम
आंख उठाकर
देखो और मैं
तुम्हें
दिखाई पड़ जाऊं।
असली सवाल वही
है, असली
काम वही है। उसी
क्षण असली काम
शुरू होगा जिस
दिन तुम मुझे
देखोगे।
तुम
मुखातिब भी हो
करीब भी हो
तुमको
देखूं कि
तुमसे बात
करूं
कब तक
तुम मुझसे बात
करते रहोगे? देखो अब। और
तैयारी का कोई
अर्थ नहीं है।
बात होती है
बुद्धि से। देखना
होता है हृदय
से। जब तुम
देखते हो, तो
आंखों के पीछे
हृदय आ जाता
है। जब तुम
बात करते हो, तो आंखों के
पीछे बुद्धि आ
जाती है। बुद्धि
यानी
तुम्हारे
विचार करने का
यंत्र। हृदय
यानी
तुम्हारे
प्रेम करने का
यंत्र। देखना
एक प्रेम की
घटना है। और
अगर प्रेम से
नहीं देखा, तो क्या खाक
देखा! जब आंख
से प्रेम उड़लता
हो तभी देखना
घटता है।
मैं
तुम्हारे सामने
भी हूं? तुमसे बात
भी कर रहा हूं।
अब यह
तुम्हारे ऊपर
है, तुम
अपने से पूछ
लो-
तुम
मुखातिब भी हो
करीब भी हो
तुमको
देखूं कि
तुमसे बात
करूं
बात तुम
करते रहो
जन्मों-जन्मों
तक, बात
से बात निकलती
रहेगी। बात
मैं करता
रहूंगा, बात
करने में कहीं
कोई अड़चन है? बात से सरल
कहीं कोई और
बात है 7 लेकिन
यह सिर्फ बहाना
था। बहाना था
कि शायद इसी
बीच किसी दिन
खिलौनों से
खेलते-खेलते
तुम आंख उठाकर
देख लो। खिलौनों
में उलझे होने
के कारण मन तो
खिलौनों में
उलझा रह जाए, और तुम्हारी
आंख मुझे मिल
जाए। बुद्धि
शब्दों में
उलझी तो उलझी
रहे, कभी
किसी क्षण में
रंध्र मिल जाए,
थोड़ी जगह
मिल जाए, और
तुम झांककर
मेरी तरफ देख
लो। उसी क्षण
घटना घट सकती
है। मैं देने
को तैयार हूं
तुम जिस दिन
लेने को तैयार
होओगे।
चौथा
प्रश्न :
कहां
ले चले हो बता
दो मुसाफिर
सितारों
से आगे ये
कैसा जहां है
वो क्या
इश्क के बाकी
इम्तहां हैं
पूछो मत, चलो। पूछना
भी बुद्धि की
होशियारी है। प्रेम
के मार्ग पर
भी बुद्धि
पूछती है, कहां
ले चले हो? और
प्रेम के
मार्ग पर
बुद्धि चल
नहीं सकती। और
बुद्धि अगर
पूछती रहे, तो तुम्हें
भी न चलने
देगी। कभी तो
इतना साहस करो,
कि चलो चलते
हैं। पूछेंगे
नहीं। यही तो
प्रेम का
लक्षण है।
अगर
मुझसे प्रेम
है तो पूछने
की कोई जरूरत
नहीं, चल
पड़ो। पूछना
प्रेम के
अभाव
का द्योतक है।
पहले से सब
पक्का कर लेना
है-कहां जा
रहे हैं? क्यों जा
रहे हैं? क्या
प्रयोजन है? अपना कोई
लाभ है, नहीं
है? कहीं ले
जाने वाला
अपना ही कोई
लाभ तो नहीं
देख रहा है? कहीं ले
जाने वाला
धोखा तो नहीं
दे रहा है? बुद्धि
आत्मरक्षा है
और प्रेम
आत्मसमर्पण। दोनों
साथ-साथ नहीं
हो सकते।
यही
प्रेम का
आखिरी इम्तहां
है। आखिरी, कि चल पड़ो।
और बुद्धि पर
कितने दिन
भरोसा करके
देख लिया, पहुंचे
कहां? कितना
बुद्धि के साथ
हिसाब करके
दिख लिया, मंजिल
कहीं आती तो
दिखाई पड़ती
नहीं। झलक भी
नहीं मिलती। फिर
भी इस पर
भरोसा किए जा
रहे हो?
ठीक-ठीक
बुद्धिमान
आदमी अपनी
बुद्धि पर
संदेह करने
लगता है। वह
बुद्धि की
पराकाष्ठा है, जब अपनी
बुद्धि पर
संदेह आता है।
आना चाहिए। सिर्फ
बुद्धुओं को
अपनी बुद्धि
पर संदेह नहीं
आता। कितने
दिन से चलते
हो उसी के साथ,
कहां
पहुंचे हो? फिर भी
भरोसा उसी पर
है।
जिस दिन
भी तुम्हें यह
दिखाई पड
जाएगा उसी दिन
जीवन में एक
नया मार्ग
खुलता है। एक
नया द्वार
खुलता है। वह
हमेशा पास ही
था, कोई
बहुत दूर न था।
बुद्धि, हृदय
में फासला ही
कितना है? वह
पास ही था, अब
भी पास है। लेकिन
जब तक तुम
बुद्धि की ही
सुने जाओगे, पूछे चले
जाओगे?.। यह
पूछना
आश्वस्त होने
की चेष्टा है।
कैसे मैं
तुम्हें
आश्वस्त करूं?
कुछ भी मैं
कहूं, वह
मेरा ही कहना
होगा, तुम्हारा
अनुभव न बन
जाएगा। जब तक
तुम्हारा
अनुभव न बन
जाए, तब तक
मुझ पर भरोसा
कैसे आएगा?
तो दो
ही उपाय हैं। या
तो तुम जैसे
चलते हो वैसे
ही चलते रहो। शायद
कभी थकोगे, अनंत
जन्मों के बाद
ऊबोगे, होश
आएगा, तो
फिर किसी का
हाथ पकड़ोगे। वह
हाथ अभी भी
उपलब्ध है। वह
हाथ सदा
उपलब्ध रहेगा।
उस हाथ का
मुझसे या किसी
का कोई
लेना-देना नहीं
है। वह हाथ तो
परमात्मा का
है। वह
परमात्मा का
हाथ अनेक
हाथों में
प्रविष्ट हो
जाता है। कभी
बुद्ध के हाथ
में, कभी
मोहम्मद के
हाथ में। लेकिन
तुम्हारा हाथ
उसे पकड़ेगा
तभी तो कुछ
होगा। और तुम
तभी पकड़ोगे जब
तुम अशात की
यात्रा पर
जाने को तैयार
हो।
मत पूछो, 'कहां ले
चले हो बता दो
मुसाफिर!'
एक तो
बताना
मुश्किल है। क्योंकि
तुम्हारी
भाषा में उस
जगत के लिए
कोई शब्द नहीं
है। और बताने
पर भी तुम
भरोसा कैसे
करोगे? पूछो बुद्ध
से, वे
कहते हैं
निर्वाण। पूछो
मीरा से, वह
कहती है कृष्ण,
बैकुंठ। क्या
होता है
शब्दों को
सुनने से। मीरा
के चारों तरफ
खोजकर देखो, तुम्हें
बैकुंठ का कोई
पता न चलेगा। क्योंकि
बैकुंठ तो
मीरा के भीतर
है। और जब तक
वैसा ही
तुम्हारे
भीतर न हो जाए,
जब तक तुम
भी डुबकी न
लगा लो!
मत
पूछो, 'कहां
ले चले हो बता
दो मुसाफिर, सितारों के
आगे ये कैसा
जहा है?'
सितारों
के आगे का
अर्थ ही यही
होता है-जहां
तक दिखाई पड़ता
है, उसके
आगे। सितारों
का मतलब है, जहां तक
दिखाई पड़ता है।
सितारों
के आगे जहां
और भी हैं
इसका
मतलब इतना ही
है कि कुछ
दिखाई नहीं
पड़ता, ये
आंखें थक जाती
हैं। इन आंखों
की सीमा आ
जाती है।
सितारों
के आगे जहां
और भी है
अभी
इश्क के इम्तहां
और भी हैं
इश्क का
इम्तहांन
क्या है? वही, जहां
नहीं दिखाई
पड़ता वहां भी
किसी के ऊपर
भरोसा। जहां
नहीं दिखाई
पड़ता वहा भी
श्रद्धा। जहा
नहीं दिखाई
पड़ता वहा भी
चलने का साहस।
तुम
जिसे संदेह
कहते हो, गौर से
खोजना, कहीं
वह सिर्फ
कायरता तो
नहीं है! कहीं
डर तो नहीं है,
कहीं भय तो
नहीं है कि
कहीं लूट न
लिए जाएं! कहीं
ऐसा तो नहीं
है कि कैसे
पक्का करें, कौन लुटेरा
है, कौन
मार्गदर्शक
है!
लेकिन
इसकी फिकर
छोड़ो, पहले
यह सोचो, तुम्हारे
पास लुट जाने
को है भी क्या?
तुम पहले ही
लुट चुके हो। संसार
से बड़ा और
लुटेरा अब
तुम्हें कहा
मिलेगा? संसार
ने तो
रत्ती-रत्ती,
पाई-पाई भी
लूट लिया है। एक
सिफर हो, एक
शुन्यमात्र
रह गए हो। आंकड़ा
तो एक भी नहीं
बचा है भीतर। कुछ
भी नहीं है पास,
फिर भी डरे
हो कि कहीं
लुट न जाओ।
यह जो
तुम' पूछते
हो--कहां ले
चले हो बता दो
मुसाफिर, यह
भय के कारण, कायरता के
कारण, साहस
की कमी के
कारण। लेकिन
तुम जहां भी
चलते रहे हो
अब तक, अगर
वहा से ऊब गए
हो, तो अब
खतरा क्या है?
किसी नए
मार्ग को
खोजकर देख लो।
असली सवाल
साहस का है। साधारणत:
लोग सोचते हैं,
श्रद्धालु
लोग डरपोक हैं,
कायर हैं। और
मैं तुमसे
कहता हूं र
श्रद्धा इस
जगत में सबसे
बड़ा दुस्साहस
है।
ऐसा हुआ
कि तिब्बत का
एक फकीर अपने
गुरु के पास
गया। गुरु की
बड़ी ख्याति थी।
और यह फकीर
बड़ा
श्रद्धालु था।
और गुरु जो भी
कहता, सदा
मानने को
तैयार था। इसकी
प्रतिष्ठा
बढ़ने लगी। और
शिष्यों को
पीड़ा हुई। उन्होंने
एक दिन इससे
छुटकारा पाने
के लिए-एक पहाड़ी
के ऊपर बैठे
थे-इससे कहा
कि अगर
तुम्हें गुरु
में पूरी
श्रद्धा है तो
कूद जाओ। तो
वह कूद गया। उन्होंने
तो पक्का माना
कि हुआ खतम। नीचे
जाकर देखा तो
वह पद्यासन
में बैठा था। और
ऐसा सौंदर्य
और ऐसी सुगंध
उन्होंने कभी
किसी व्यक्ति
के पास न देखी
थी, जो
उसके चारों
तरफ बरस रही
थी। वे तो बड़े
हैरान हुए। सोचा
संयोग है।
संदेह
ज्यादा से
ज्यादा संयोग
तक पहुंच सकता
है, कि
संयोग की बात
है कि बच गया। कोई
फिकर नहीं। एक
मकान में आग' लगी थी, उन्होंने
कहा कि चले
जाओ, अगर गुरु
पर पूरा भरोसा
है, शिष्यों
ने ही। वह चला
गया भीतर। मकान
तो जलकर राख
हो गया। जब वे
भीतर गए तो
आशा थी कि वह
भी जलकर राख
हो चुका होगा।
वह तो वहां
ऐसे बैठा था, जल में
कमलवत। आग ने
छुआ ही नहीं। उन्होंने
सुनी थीं अब
तक ये बातें
कि ऐसे लोग भी
हुए हैं-जल
में कमलवत, पानी में
होते हैं और
पानी नहीं
छूता। आज जो
देखा, वह
अदभुत
चमत्कार था!
आग में था और
आग ने भी न छुआ।
पानी न छुए, समझ में आता
है!
अब
संयोग कहना
जरा मुश्किल
मालूम पड़ा। गुरु
के पास ये
खबरें पहुंची।
गुरु को भी
भरोसा न आया, क्योंकि
गुरु खुद ही
इतनी श्रद्धा
का आदमी न था। गुरु
ने सोचा कि
संयोग ही हो
सकता है, क्योंकि
मेरे नाम से
हो जाए! अभी तो
मुझे ही भरोसा
नहीं कि अगर
मैं जलते मकान
में जाऊं तो
बचकर लौटूंगा,
कि मैं कूद
पड पहाड़ से और
कोई हाथ मुझे
सम्हाल लेंगे
अज्ञात के। तो
गुरु ने कहा
कि देखेंगे। एक
दिन नदी के तट
से सब गुजरते
थे। गुरु ने
कहा कि तुझे
मुझ पर इतना
भरोसा है कि
आग में बच गया,
पहाड़ में बच
गया, तू
नदी पर चल जा। वह
शिष्य चल पड़ा।
नदी ने उसे न
डुबाया। वह
नदी पर ऐसा
चला जैसे जमीन
पर चल रहा हो। गुरु
को लगा कि
निश्चित ही
मेरे नाम का
चमत्कार है। अहंकार
भयंकर हो गया।
कुछ था तो
नहीं पास।
तो उसने
सोचा, जब
मेरा नाम लेकर
कोई चल गया, तो मैं तो चल
ही जाऊंगा। वह
चला, पहले
ही कदम पर
डुबकी खा गया।
किसी तरह
बचाया गया। उसने
पूछा कि यह
मामला क्या है
मैं खुद डूब
गया! वह शिष्य
हंसने लगा। उसने
कहा, मुझे
आप पर श्रद्धा
है, आपको
अपने पर नहीं।
श्रद्धा
बचाती है।
कभी-कभी
ऐसा भी हुआ है
कि जिन पर
तुमने श्रद्धा
की उनमें कुछ
भी न था, फिर भी
श्रद्धा ने
बचाया। और
कभी-कभी ऐसा
भी हुआ है, जिन
पर तुमने श्रद्धा
न की उनके पास
सब कुछ था, लेकिन
अश्रद्धा ने
डुबाया है। कभी
बुद्धों के
पास भी लोग
संदेह करते
रहे और डूब गए।
और कभी इस तरह
के पाखंडियों
के पास भी
लोगों ने
श्रद्धा की और
पहुंच गए।
तो मैं
तुमसे कहता
हूं गुरु नहीं
पहुंचाता, श्रद्धा
पहुंचाती है। इसलिए
मैं तुमसे
कहता हूं
श्रद्धा ही
गुरु है। और
जहा तुम्हारी
श्रद्धा की आंख
पड़ जाए वहीं
गुरु पैदा हो
जाए। परमात्मा
नहीं
पहुंचाता, प्रार्थना
पहुंचाती है। और
जहां
हृदयपूर्वक
प्रार्थना हो
जाए वहीं परमात्मा
मौजूद हो जाता
है। मंदिर
नहीं
पहुंचाते, भाव
पहुंचाते हैं।
जहां भाव है
वहां मंदिर है।
मत पूछो
कि कहां ले
चला हूं। चलने
की हिम्मत हो, साथ हो
जाओ। चलने की
हिम्मत न हो, नाहक समय
खराब मत करो, भाग खड़े होओ।
ऐसे आदमी के
पास नहीं रहना
चाहिए जिस पर
भरोसा न हो। कहीं
और खोजो। शायद
किसी और पर
भरोसा आ जाए। क्योंकि
असली सवाल भरोसे
का है! किस पर
आता है, यह बात
गौण है। कौन
जाने किसी और
पर आ जाए, तो
फिर तुम्हारा
मार्ग वहीं से
हो जाएगा। जिसके
पास जाकर
तुम्हें
पूछने का सवाल
न उठे कि कहां
ले चले हो, चल
पड़ने को तैयार
हो जाओ। अंधेरे
में जाता हो
वह तो अंधेरे
में, और
नर्क में जाता
हो तो नर्क
में। जहा
तुम्हारे मन
में ये संदेह
और सवाल न
उठते हों, यही
आखिरी मंजिल
है, यही
आखिरी इम्तहां
है।
सितारों
के आगे जहां
और भी हैं
अभी
इश्क के इम्तहां
और भी हैं
और
आखिरी इम्तहांन
इश्क का यही
है कि प्रेम
इतना अनन्य हो, श्रद्धा
इतनी अपूर्व
हो कि श्रद्धा
ही नाव बन जाए,
कि प्रेम ही
बचा ले। मार्ग
नहीं
पहुंचाता, श्रद्धा
पहुंचती है। मंजिल
कहीं दूर थोड़े
ही है। जिसने
प्रेम किया, उसने अपने
पांचवां
प्रश्न:
लीनता
व भक्ति के
साधक को बुद्ध
के होश की और अप
दीपो भव की
बातों के
प्रति क्या
रुख रखना चाहिए?
जरूरत क्या
है? तुम्हें
सभी के प्रति
रुख रखने की
जरूरत क्या है?
तुम अपनी
श्रद्धा का
बिंदु चुन लो,
शेष सब को
भूल जाओ। तुम्हें
कोई सारे
बुद्धों के
प्रति
श्रद्धा थोड़े
ही रखनी है। एक
पर तो रख लो। सब
पर रखने में
तो तुम बड़ी
झंझट में पड़
जाओगे। एक पर
ही इतनी मुश्किल
है, सब पर
तुम कैसे रख
सकोगे? तुम
एक मंदिर को
तो मंदिर बना
लो; सब
मस्जिद, सब
गुरुद्वारे, सब शिवालय, उनकी तुम
चिंता में मत
पड़ो। क्योंकि
जिसका एक
मंदिर-मंदिर
बन गया, वह
एक दिन अचानक
पा लेता है कि
सभी मस्जिदों
में, सभी
गुरुद्वारों
में वही मंदिर
है। एक सिद्ध
हो जाए सब
सिद्ध हो जाता
है।
और अगर
तुमने यह
चेष्टा की कि
मैं सभी में
श्रद्धा रखूं
तुम्हारे पास
श्रद्धा इतनी
कहां है? इतना
बांटोगे, रत्ती-रत्ती
श्रद्धा हो
जाएगी। अगर
अल्लाह को
पुकारना हो तो
पूरे प्राणों
से अल्लाह को
ही पुकार लो। अल्ला
ईश्वर तेरे
नाम-इस तरह की
बकवास में मत
पड़ना। क्योंकि
तब न तुम्हारे
राम में बल
होगा और न तुम्हारे
अल्लाह में बल
होगा। यह
राजनीतिक
बातचीत हो
सकती है, धर्म
का इससे कुछ
लेना-देना
नहीं। अल्लाह
को ही तुम
परिपूर्ण
प्राणों से
पुकार लो, तुम
अल्लाह में ही
छिपे राम को
किसी दिन
पहचान लोगे। अल्लाह
ही जब पूरी
त्वरा और
तीव्रता से
पुकारा जाता
है, तो राम
भी मिल जाते
हैं। राम जब
पूरी त्वरा से
पुकारा जाता
है, तो अल्लाह
भी मिल जाता
है। क्योंकि
ये सब नाम उसी
के हैं। लेकिन
तुम बैठकर इन
सभी नामों की
माला मत बनाना।
लीनता
और भक्ति के
साधक को जरूरत
ही क्या है
बुद्ध की? बुद्ध
जानें,उनका
काम जाने। लीनता
और भक्ति का
साधक लीनता और
भक्ति में डूबे।
ऐसी अड़चनें
क्यों खड़ी
करना चाहते हो?
क्योंकि
ध्यान रखना, मंजिल एक
है, मार्ग
अनेक हैं। तुम
अगर सभी
मार्गों पर एक
साथ चलना चाहो,
पागल हो
जाओगे। चलोगे
तो एक ही मार्ग
पर, यद्यपि
सभी मार्ग उसी
मंजिल पर
पहुंचा देते
हैं। लेकिन
अगर तुम्हें
बंबई जाना हो,
तो तुम एक
ही मार्ग
चुनोगे। अगर
तुमने सभी
मार्ग चुन लिए,
तो दो कदम
इस मार्ग पर
चलोगे, दो
कदम उस मार्ग
पर चलोगे, चार
कदम किसी और
मार्ग पर
चलोगे, तुम
पहुंचोगे
कैसे? एक
ही मार्ग पर
चलोगे तो
पहुंचोगे।
भक्त की
दुनिया अलग है।
भक्त के देखने
के ढंग अलग
हैं। भक्त के
तौर - तरीके
अलग हैं। भक्त
की जीवन-शैली
अलग है। साधक
की जीवन -शैली
अलग है। साधक
होश को साधता
है। होश से ही
मस्ती को पाता
है। भक्त
मस्ती को
साधता है। मस्ती
से ही होश को
पाता है।
जबाने
-होश से ये
कुफ्र सरजद हो
नहीं सकता
मैं
कैसे बिन पिए
ले लूं खुदा
का नाम है
साकी
भक्त की
बडी अलग
दुनिया है। वह
कहता है, हम तो खुदा
का नाम भी
लेंगे तो बिना
पीए नहीं ले
सकते। खुदा का
नाम है, कोई
साधारण बात है
कि बिना पीए
ले लें! मस्ती
में ही लेंगे।
होश में -खुदा
का नाम लें? बात जमती
नहीं। डूबकर
लेंगे। पागल
होकर लेंगे।
जबाने-होश
से ये कुफ्र
सरजद हो नहीं
सकता
भक्त
कहता है कि
मेरी जबान से
ये पाप मैं न
कर सकूंगा।
मैं
कैसे बिन पिए
ले लूं खुदा
का नाम है
साकी
पीकर ही
लूंगा। नाचकर लूंगा।
मस्ती में
सराबोर करके
लूंगा। होश से
खुदा का नाम? तो
बुद्धि पर ही
अटक जाएगा। लड़खड़ाते
कदमों से
लूंगा।
पांव
पडैं कित के
किती -सहजो ने
कहा है।
झूमते
हुए लेंगे।
सम्हलकर और
खुदा का नाम? वह नाम
खुदा का ही न
रहा फिर भक्त
की दुनियां
बड़ी अलग है।
गुनाह
गिन-गिन के
मैं क्यों
अपने दिल को
छोटा करूं
सुना है
तेरे करम का
कोई हिसाब
नहीं
तेरी
कृपा का कोई
अंत नहीं, हम काहे
को छोटा मन
करें गिन
-गिनकर अपने
पापों
को, कि
यह भूल की, वह
भूल की। यह तो
तेरे संबंध
में शिकायत हो
जाएगी भक्त कहता
है, हम
अपनी भूलों और
पापों का
हिसाब रखें
गुनाह
गिन-गिन के
मैं क्यों
अपने दिल को
छोटा करूं
सुना है
तेरे करम का
कोई हिसाब
नहीं
परमात्मा
का हृदय अगर
बड़ा है, अगर
परमात्मा की
करुणा अपार है,
तो हम अपने
मन को क्यों
छोटा करें।
भक्त
पाप-माप की
फिकर नहीं
करता। इसका यह
मतलब नहीं है
कि पाप करता
है। भक्त
परमात्मा में
ऐसा लीन हो
जाता है कि
पाप होते नहीं।
जिसने
परमात्मा को
इतने हृदय से
याद किया हो, उससे पाप
कैसे होंगे?
इसे तुम
समझ लो। भक्त
पाप छोड़ता
नहीं। परमात्मा
को पकड़ता है, पाप छूट
जाते हैं। साधक
पाप छोड़ता है।
पाप के छूटने
से परमात्मा
को पाता है। साधक
को चेष्टा
करनी पड़ती है,
रत्ती-रत्ती।
साधक संघर्ष
है, संकल्प
है। भक्त
समर्पण है। भक्त
कहता है, तेरी
करुणा इतनी
अपार है कि हम
क्यों नाहक
दीन हुए जाएं
कि यह भूल हो
गई, वह भूल
हो गई? तू
भी कहीं इन
भूलों की फिकर
करेगा! हमारी
भूलों का तू हिसाब
रखेगा? हम
इतने छोटे हैं
कि बड़ी भूले
भी तो हमसे
नहीं होतीं। तुमने
कौन सी बड़ी
भूल की, जरा
सोचो। और अगर
परमात्मा
हिसाब रखता हो,
तो
परमात्मा न
हुआ कोई
दुकानदार हो
गया। तुम्हारी
भूलें भी क्या
हैं? क्या
भूलें की हैं
तुमने? भक्त
तो कहता है, अगर की भी
होगी, तो
तूने ही
करवायी होगी। तेरी
कोई मर्जी रही
होगी।
भक्त तो
यह कहता है कि
यह भी खूब मजा
है! तूने ही बनाया
जैसा हमें-अब
हमसे भूलें हो
रही हैं, और सजा हमको,
यह भी खूब
मजा है! यह भी
खूब रही! बनाए
तू करवाए तू
फंस जाएं हम!
भक्त अपने को
बीच में नहीं
लेता। वह कहता
है, तेरा
काम, तू
जान। तूने
बनाया जैसा
बनाया, जो
करवाया, वह
हुआ। हम तेरे
हैं, अब तू
ही समझ। भक्त
का ढंग और!
साधक कहता है,
भूलें हो
गयीं, एक-एक
भूल को काटना
है, सुधारना
है।
तो
तुम अपना
मार्ग चुन लो
एक दफा। फिर
बार-बार यह मत
पूछो कि मैंने
भक्त का मार्ग
चुन लिया, अब
मैं होश भी
साधना चाहता
हूं। फिर बात
गलत हो जाएगी।
कि मैंने भक्त
का मार्ग चुन
लिया, अब
मुझे योगासन
भी करने हैं। नाचने
वाले को कहां
फुर्सत
योगासन करने
की! और क्या
मजा है योगासन
का, जिसको
नाचना आ गया!
और नाच से बड़ा
कहीं कोई योगासन
है? योगासन
का अर्थ होता
है, जहां
हम उससे मिलकर
एक हो जाएं। नाच
से बड़ा कहीं
कोई योगासन है?
क्योंकि
नाच से बड़ा
कहां कौन सा
योग है? नृत्य
महायोग है। पर
वह भक्त की
बात है।
अगर
भक्त का मार्ग
चुन लिया तो
भूलो.. बुद्ध
को भूल जाने
से कोई अड़चन न
होगी और बुद्ध
कुछ नाराज न
होंगे। जब तुम
मंजिल पर
पहुंचोगे, उनका
आशीर्वाद भी
तुम्हें
मिलेगा ही कि
तुम आ गए, और
मुझे छोड़कर
भी आ गए। लेकिन
अगर बुद्ध को
चुना है, तो
फिर छोड़ दो
भक्त की बात।
कहीं
ऐसा न हो कि ये
तुम्हारे मन
की तरकीबें हों
कि तुम जो
चुनते हो वह
करना नहीं है, तो दूसरे
को बीच में ले
आते हो, ताकि
अड़चन खड़ी हो
जाए, दुविधा
बन जाए। दुविधा
बन जाए तो
करें कैसे?
बुद्ध
को चुन लिया, पर्याप्त
हैं बुद्ध। किसी
की कोई जरूरत
नहीं। फिर
मीरा और
चैतन्य को भूल
जाओ। फिर
कृष्ण को बीच
में लाओ ही मत।
बुद्ध काफी
हैं। यह इलाज
पर्याप्त है। उनकी
चिकित्सा
पूरी है। उसमें
किसी और को
जोड़ने की कोई
जरूरत नहीं।
लेकिन
वह ढंग और, वह
दुनिया और!
वहा एक-एक भूल
को काटना है। होश
को साधना है। संकल्प
को प्रगाढ़
करना है। अपने
को निखारना है,
शुद्ध करना
है। तुम जब
निखर जाओगे, शुद्ध हो
जाओगे, तब
परमात्मा
तुममें
उतरेगा।
भक्त
परमात्मा को
बुला लेता है
और कहता है, तुम आ जाओ,
मुझसे तो
क्या निखरेगा
मुझसे क्या
सुधरेगा। तुम
आ जाओगे, तुम्हारी
मौजूदगी ही
निखार देगी, सुधार देगी।
दोनों
बिलकुल ठीक
हैं। मेरे लिए
कोई चुनाव
नहीं है।
दोनों तरह के
लोग पहुंचते
है। तुम अपनी
प्रकृति के अनुकूल
मार्ग को चुन
लो। अगर तुम
समर्पण कर
सकते हो, तो भक्ति। अगर
तुम समर्पण न
कर सकते हो, समर्पण में
तुम्हारा रस न
हो, अनुकूल
न पड़ता हो, तो
फिर योग, तप,ध्यान।
ध्यान
उनके लिए, जो प्रेम
में डूबने से
घबड़ाते हों। प्रार्थना
उनके लिए, जो
प्रेम में
डूबने को तत्पर
हों। ध्यान
में विचार को
काटना है। प्रेम
में विचार को
समर्पित करना
है। दोनों
स्थिति में
विचार चला
जाता है। ध्यानी
काटता है, प्रेमी
परमात्मा के
चरणों में रख
देता है कि तुम
सम्हालो।
आखिरी
प्रश्न
कल
आए थे प्रभु
मेरे घर
मैं
सो रही थी
बेखबर
कौन
से कर्मों के
फल हैं
प्रेमसागर
आप
आए और मैं खड़ी
रही बाहर
जीवन
जैसे-जैसे
थोड़ा झुकेगा,
जैसे-जैसे
अहंकार
थोड़ा-थोड़ा
गलेगा,
वैसे-वैसे
अंधेरी से
अंधेरी रात
में भी उसकी बिजलियां
कौंधनी शुरू
हो जाती हैं। तुम
झुके नहीं कि
उसका आना शुरू
हुआ नहीं। तुम्हीं
बाधा हो। तुम्हीं
दीवाल बनकर
खड़े हो। तुम
गिर जाओ, उसका
खुला आकाश सदा
से ही मुक्त
है।
परमात्मा
दूर नहीं है, तुम अकड़े
खड़े हो। तुम्हारी
अकड़ ही दूरी
है। तुम्हारा
नब जाना, तुम्हारा
झुक जाना ही
निकटता हो
जाएगी। उपनिषद
कहते हैं, परमात्मा
दूर से दूर और
पास से भी पास
है। दूर, जब
तुम अकड़ जाते
हो। दूर, जब
तुम पीठ कर
लेते हो। दूर,
जब तुम
जिद्द कर लेते
हो कि है ही
नहीं। दूर, जब तुम कहते
हो मैं ही हूं
तू नहीं है। पास,
जब तुम कहते
हो तू ही है, मैं नहीं
हूं। जब तुम आंख
खोलते हो। जब
तुम अपने
पात्र को-अपने
हृदय के पात्र
को-उसके सामने
फैला देते हो,
तब तुम भर
जाते हो, हजार-हजार
खजानों से।
प्रभु
तो रोज ही आ
सकता है। आता
ही है। उसके
अतिरिक्त और
कौन आएगा? जब तुम
नहीं पहचानते,
तब भी वही
आता है। जब
तुम पहचान
लेते हो, धन्यभाग!
जब तुम नहीं
पहचानते, तब
भी उसके
अतिरिक्त और
कोई न कभी आया
है, न आएगा।
वही आता है। क्योंकि
सभी शक्लें
उसी की हैं। सभी
रूप उसके। सभी
स्वर उसी के। सभी
आंखों से वही
झांका है। तो
अगर कभी एक
बार ऐसी
प्रतीति हो कि
आगमन हुआ है, तो उस
प्रतीति को
गहराना, सम्हालना;
उस प्रतीति
को साधना, सुरति
बनाना। और
धीरे-धीरे
कोशिश करो, जो भी आए
उसमें उसको
पहचानने की।
पुरानी
कहावत है, अतिथि
देवता है। अर्थ
है कि जो भी आए
उसमें
परमात्मा को
पहचानने की
चेष्टा जारी
रखनी चाहिए। चाहे
परमात्मा
हजार बाधाएं
खड़ी करे, तो
भी तुम धोखे
में मत आना। परमात्मा
चाहे गालियां
देता आए तो भी
तुम समझना कि
वही है। मित्र
में तो दिखाई
पड़े ही, शत्रु
में भी दिखाई
पड़े। अपनों
में तो दिखाई
पड़े ही, परायों
में भी दिखाई
पड़े। रात के
अंधेरे में ही
नहीं, दिन
के उजाले में
भी। नींद और
सपनों में ही
नहीं, जागरण
में भी। अभी
तुम कली हो, और जितने
पदचाप
तुम्हें उसके
सुनाई पड़ने
लगें उतनी ही
पखुडियां
तुम्हारी
खुलने लगेंगी।
तुम्हारी
पीड़ा मैं
समझता हूं। कभी-कभी
उसकी झलक
मिलती है और
खो जाती है। कभी-कभी
आता पास लगता
है और
पदध्वनियां
दूर हो जाती
हैं। लगता है
मिला, मिला,
और कोई
सूत्र हाथ से
छूट जाता है।
चमन में
फूल तो खिलते
सभी ने देख लिए
चमन में
फूल तो खिलते
सभी ने देख
लिए
सिसकते
गुंचे की हालत
किसी को क्या
मालूम
वह जो
कली का रोना
है, सिसकना
है-
सिसकते
गुंचे की हालत
किसी को क्या
मालूम
पर वह
तुम्हारी सभी
की हालत है। सिसकते
हुए गुंचे की
हालत। रोती
हुई कली की
हालत। और कली
तभी फूल हो
सकती है जब
अनंत के पदचाप
उसे सुनाई पड़ने
लगें। तुम
अपने तईं फूल
न हो सकोगे। सुबह
जब सूरज उगता
है और सूरज की
किरणें नाच उठती
हैं आकर कली
की निकटता में, सामीप्य
में-कली के
ऊपर-जब सूरज
की किरणों के हल्के-हल्के
पद कली पर
पड़ते हैं, तो
कली खिलती है,
फूल बनती है।
जब तक
तुम्हारे ऊपर
परमात्मा के
पदचाप न पड़ने लगें,
उसके स्वर
आकर आघात न
करने लगें, तब तक तुम
कली की तरह ही
रहोगे।
और कली
की पीड़ा यही
है कि खिल
नहीं पाई। जो
हो सकता था, वह नहीं
हो पाया। नियति
पूरी न हो, यही
संताप है, यही
दुख है। हर
आदमी की पीड़ा
यही है कि वह
जो होने को
आया है, नहीं
हो पा रहा है। लाख
उपाय कर रहा
है-गलत, सही;
दौड़-धूप कर
रहा है; लेकिन
पाता है, समय
बीता जाता है
और जो होने को
मैं आया हूं
वह नहीं हो पा
रहा हूं। और
जब तक तुम वही
न हो जाओ जो
तुम होने को
आए हो, तब
तक संतोष
असंभव है। स्वयं
होकर ही मिलता
है परितोष।
तो सुनो
प्रभु के पद
जहां। से भी
सुनाई पड़ जाएं।
और धीरे-धीरे
सब तरफ से
सुनाई पड़ने
लगेंगे। जिस
दिन हर घड़ी
उसी का अनुभव
होने लगे, कि वही
द्वार पर खड़ा
है, उस
क्षण फूल हठात
खुल जाता है। वह
जो सुगंध तुम
अपने भीतर लिए
हो, अभिव्यक्त
हो जाती है। वही
अनुग्रह है, उत्सव है, अहोभाव है।
चमन में
फूल तो खिलते
सभी ने देख
लिए
सिसकते
गुंचे की हालत
किसी को क्या
मालूम
मुझे
मालूम है। तुम्हारी
सबकी हालत
मुझे मालूम है।
क्योंकि वही
हालत कभी मेरी
भी थी। उस
पीड़ा से मैं
गुजरा हूं : जब
तुम खोजते हो
सब तरफ, कहीं सुराग
नहीं मिलता; टटोलते हो
सब तरफ और
चिराग नहीं
मिलता; और
जिंदगी
प्रतिपल बीती
चली जाती है, हाथ से क्षण
खिसकते चले
जाते हैं, जीवन
की धार बही
चली जाती
है-यह आई मौत, यह आई मौत; जीवन गया, गया-और कुछ
हो न पाए; पता
नहीं क्या
लेकर आए थे, समझ में ही न
आया; पता
नहीं क्यों आए
थे, क्यों
भेजे गए थे, कुछ प्रतीति
न हुई; गीत
अनगाया रह गया,
फूल अनखिला
रह गया।
सुनो
उसकी आवाज और
सभी आवाजें
उसकी हैं, सुनने की
कला चाहिए। गुनो
उसे, क्योंकि
सभी रूप उसी
के हैं, गुनने
की कला चाहिए।
जागते-सोते, उठते-बैठते
एक ही स्मरण
रहे कि तुम
परमात्मा से
घिरे हो। शुरू-शुरू
में चूक-चूक
जाएगा, भूल-
भूल जाएगा, विस्मृति हो
जाएगी, पर
अगर तुम धागे
को पकड़ते ही
रहे, तो
जैसा बुद्ध
कहते हैं, तुम
फूलों के ढेर
न रह जाओगे। वही
सुरति का धागा
तुम्हारे
फूलों की माला
बना देगा।
और फिर
मैं तुमसे
कहता हूं-फिर-फिर
कहता हूं-जिस
दिन तुम्हारी
माला तैयार है, वह खुद ही
झुक आता है, वह अपनी
गर्दन
तुम्हारी
माला में डाल
देता है। क्योंकि
उस तक, उसके
सिर तक, हमारे
हाथ तो न
पहुंच पाएंगे।
बस, हमारी
माला तैयार हो,
वह खुद हम
तक पहुंच जाता
है।
मनुष्य
कभी परमात्मा
तक नहीं
पहुंचता। जब
भी मनुष्य
तैयार होता है, परमात्मा
उसके
पास आता है।
आज
इतना ही।
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