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गुरुवार, 8 सितंबर 2016

एस धम्‍मो सनंतनो--(प्रवचन--029)

कल्याण मित्र की खोज—(प्रवचन—उन्‍नतीसवां)

 सारसूत्र:

निधीनं' व पवत्तारं यं पस्से व वज्जदास्सिनं।
निग्‍गव्‍हवादि मेधावि तादिसं पंडित भजो।
तादिसं भजमानस्स सेय्यो होति न पापिको ।।70।।

न भजे पापके मित्ते न भजे पुरिसधमे।
भजेथ मित्ते कल्याणे भजेथ पुरिसधमे ।।71।।

धम्मपीती' सुखं सेति विपसन्नेन चेतसा ।
अरियप्पवेदिते धम्मे सदा रमति पंडितो ।।72।।

उदकं हि नयंति नेत्तिका उसुकारा नमयति तेजनं ।
दारु नमयंति तच्छका अत्तानं दमयंति पंडिता ।।73।।

      बीर ने कहा है, निंदक नियरे राखिए आंगन कुटी छवाय।
      जिन ने भी जीवन के सागर में गहरी डुबकी लगाई, और मोतियों के साथ इस मोती को वे सभी खोज लाए।
      बुद्ध का पहला सूत्र आज के लिए है?
      'निधियों को बतलाने वाले के समान अपने दोष दिखलाने वाला मिल जाए तो उस वाक्ताडन करने वाले मेधावी पुरुष की संगति करनी चाहिए क्योंकि वैसे की संगति करने से ही कल्याण होता है, कभी अकल्याण नहीं।'
      साधारणत: हम उसकी संगति करना चाहते हैं, जो हमारी प्रशंसा करे। प्रशंसा से अहंकार भरता है। कोई कहे कि हम सुंदर हैं, कोई कहे कि हम शुभ हैं, कोई कहे कि हम श्रेष्ठ हैं—सुख मिलता है। लेकिन सुख बड़ा महंगा है। क्योंकि जो हम नहीं हैं, यदि हमने मान लिया कि हम हैं, तो होने के सब द्वार बंद हो जाएंगे।
      और कौन सुंदर हो पाता है? सुंदर होने के रास्ते पर हो सकते हैं। यह मार्ग ऐसा नहीं कि इसकी मंजिल आती हो। सुंदर से सुंदरतर होते जाते हैं, लेकिन सुंदर तो कोई कभी नहीं हो पाता। श्रेष्ठतर से श्रेष्ठतर होते चले जाते हैं, लेकिन श्रेष्ठ तो कोई कभी नहीं हो पाता। यात्रा है।
      लेकिन प्रशंसा करने वाला ऐसी भ्रांति दे देता है कि मंजिल आ गई। प्रशंसा करने वाले से सावधान रहना। उस पर भरोसा मत कर लेना; उस पर भरोसा किया कि भटके। यद्यपि मन कहेगा, मान लो। क्योंकि इतनी सस्ती श्रेष्ठता मिलती हो, इतने सस्ते में सौंदर्य, सत्य मिलता हो, कौन नासमझ इनकार करेगा? मुक्त में ही मिलता हो, बिना मांगे मिलता हो, कोई अपने से आकर तुम्हारी प्रशंसा करता हो—कौन इनकार करता है?
तुमने कभी खयाल किया? जब कोई तुम्हारी प्रशंसा करने लगता है, इनकार करना भी चाहो तो करते नहीं बन पड़ता। लेकिन ध्यान रखना, जब भी कोई तुम्हारी प्रशंसा करता है, तभी तुम भीतर अपने एक अपराध—भाव भी अनुभव करोगे। तुमने वह स्वीकार कर लिया, जो तुम नहीं हो। तुमने सस्ते में कीर्ति चाही। तुमने बिना कुछ चुकाए, बिना मूल्य दिए स्तुति चाही।
      इसलिए तो दुनिया में खुशामद इतनी कारगर होती है; क्योंकि कोई भी इनकार नहीं कर पाता। कुरूप से कुरूप आदमी से कहो, तुम सुंदर हो, इनकार न कर पाएगा। बुरे से बुरे आदमी से कहो, तुम साधु हो, इनकार न कर पाएगा।
      लेकिन जो तुमसे साधु कह रहा है, जो तुम्हें भला बता रहा है, उसके अपने प्रयोजन हैं। वह तुमसे कुछ पाना चाहता है। यह मत सोचना कि यह प्रशंसा मुफ्त में ही मिल रही है। अभी मुफ्त में दिखाई पड़ती होगी, थोड़ी ही देर में समझ में आएगा, मुक्त में नहीं थी; इसका मूल्य चुकाना ही पड़ेगा।
      और बाहर के मूल्य तो ठीक हैं कि कुछ रुपए उधार ले जाएगा वह आदमी, या किसी पद की तुमसे आकांक्षा करेगा, या नौकरी की प्रार्थना करेगा, या अदालत में झूठी गवाही दिलवाएगा, ये तो सब छोटी बातें हैं। बड़ा भयंकर मूल्य तुम चुका रहे हो, वह यह कि कहीं तुम्हें उसकी बात पर भरोसा आ गया, तो तुम सदा के लिए भटक जाओगे। क्योंकि तुमने उस संपदा में भरोसा कर लिया, जो तुम्हारे पास नहीं है। अब तुम खोजोगे क्यों ई
      यह तो ऐसे हुआ, जैसे किसी भिखारी को भरोसा आ गया कि वह सम्राट है। यह तो ऐसे हुआ, जैसे किसी बीमार को भरोसा आ गया कि वह स्वस्थ है। यह तो आख बंद करना हुआ। यह तो आत्मघात हुआ। यह बहुत महंगा सौदा है।
प्रशंसा करने वाले से सावधान रहना। क्योंकि प्रशंसा करने वाले से हित तो कभी हो ही नहीं सकता, अहित ही होगा।
      थोड़ा समझो, प्रशंसा तभी प्रशंसा जैसी मालूम होती है, जब तुम जैसे नहीं हो, वह तुम्हें वैसा बतलाए। अगर वह उतना ही कहे जितना तुम हो, तो उसमें तो कुछ प्रशंसा होती नहीं; तथ्य का वक्तव्य होता है, उससे तुम प्रसन्न न होओगे। काने को काना कह देने से काना प्रसन्न न होगा; तथ्य का तो स्वीकार है। काने को तो कहो कि कितनी सुंदर आंखें हैं तुम्हारी! अंधे को कहो, नयन सुख! तब प्रशंसा होगी। प्रशंसा सदा ही झूठ है। झूठ हो तभी तुम प्रसन्न होते हो प्रशंसा से। अगर सच हो तो प्रशंसा में प्रशंसा जैसा क्या रहा? अगर तुमने गुलाब के फूल को कहा, कोमल हो; तो कौन सी प्रशंसा हुई? ही, जब तुम काटे को कहते हो, कोमल हो; तब काटा प्रसन्न होता है।
      प्रशंसा से तुम तभी प्रसन्न होते हो, जब कुछ ऐसा कहा गया हो, जो तुम सदा से चाहते थे कि हो, लेकिन है नहीं। झूठ ही सुख देता है प्रशंसा में। और उस प्रशंसा से बढ़ता है तुम्हारे भीतर अहंकार, दर्प, अभिमान।
      अभिमान तुम्हारे जीवन की सारी झूठ का जोड़ है, निचोड़ है। हजार—हजार तरह के झूठ इकट्ठे करके अहंकार खड़ा करना पड़ता है। अहंकार सब झूठों का जोड़ है, भवन है, महल है। ईंट—ईंट झूठ इकट्ठा करो, तब कहीं अहंकार का महल बनता है।
      और प्रशंसा ऐसे ही है, जैसे गुब्बारे को हवा फुला देती है; ऐसे ही प्रशंसा तुम्हें फुला देती है। लेकिन ध्यान रखना, जितना गुब्बारा फूलता है, उतना ही फूटने के करीब पहुंचता है। जितना ज्यादा फूलता है, उतनी मौत करीब आने लगती है। जितना फूलने में प्रसन्न हो रहा है, उतनी ही कब्र के निकट पहुंच रहा है, जीवन से दूर जा रहा है, मौत के करीब आ रहा है।
      अहंकार गुब्बारे की तरह है। जितना फूलता जाता है, उतना ही कमजोर, उतना ही अब टूटा तब टूटा होने लगता है।
      सभी बुद्ध पुरुषों ने कहा है, प्रशंसा के प्रति कान बंद कर लेना। उससे हित न होगा। निंदा के प्रति कान बंद मत करना; आलोचना के प्रति कान बंद मत करना; उससे लाभ ही हो सकता है, हानि कुछ भी नहीं हो सकती।
      क्यों लाभ हो सकता है? क्योंकि निंदा करने वाला अगर झूठ बोले तो कुछ हर्जा नहीं; क्योंकि उसके झूठ में कौन भरोसा करेगा? निंदा के तो सच में भी भरोसा करने का मन नहीं होता।
      सच्चे आदमी को निंदक झूठा कहे, सच्चा आदमी मुस्कुराकर निकल जाएगा। इस बात में कोई बल ही नहीं है। यह बात ही व्यर्थ है। इस पर दो क्षण सोचने का कोई कारण नहीं। इस पर क्रोधित होने की तो कोई बात ही नहीं उठती।
      ध्यान रखना, जब तुम किसी को झूठा कहो और वह क्रोधित हो जाए तो समझना कि तुमने कोई गांठ छू दी; तुमने कोई घाव छू दिया; तुमने कोई सत्य पर हाथ रख दिया। जब वह अप्रभावित रह जाए तो समझ लेना कि तुमने कुछ झूठ कहा। चोर को चोर कहो तो बेचैन होता है। अचोर को चोर कहने से बेचैनी क्यों होगी? उसके भीतर कोई घाव नहीं है, जिसे तुम चोट पहुंचा सको। निरहंकारी को अहंकारी कहने से कोई काटा नहीं चुभता; अहंकारी को ही चुभता है।
      तो अगर कोई तुम्हारी निंदा झूठ करे तो व्यर्थ। सच्ची निंदा में ही भरोसा नहीं आता तो झूठी निंदा में तो कौन भरोसा करेगा? लेकिन अगर निंदा सच हो तो बड़े काम की है, क्योंकि तुम्हारी कोई कमी बता गई, तुम्हारा कोई अंधेरा पहलू बता गई; तुम्हारा कोई भीतर का भाव छिपा हुआ, दबा हुआ प्रगट कर गई। जिसे तुम अपनी पीठ की तरफ कर लिए थे, उसे तुम्हारे आंख के सामने रख गई। कमियां आख के सामने आ जाएं तो मिटाई जा सकती हैं। कमियां पीठ के पीछे हो जाएं तो बढ़ती हैं, फलती हैं, फूलती हैं; मिटती नहीं।
      तो निंदक नुकसान तो कर ही नहीं सकता, लाभ ही कर सकता है। कबीर ठीक कहते हैं, निंदक नियरे राखिए। उसे तो पास ही बसा लेना। उसका तो घर—आयन कुटी छवा देना। उससे कहना, अब तुम कहीं जाओ मत; अब तुम यहीं रहो, ताकि कुछ भी मैं छिपा न पाऊँ। तुम मुझे उघाड़ते रहो, ताकि कोई भूल—चूक मुझसे हो न पाए; ताकि तुम मेरे जीवन को नग्न करते रहो; ताकि मैं ढांक न पाऊं अपने को। क्योंकि जहा—जहां घाव ढंक जाते हैं, वहीं—वहीं नासूर हो जाते हैं। घाव उघड़े रहें खुली हवा में, सूरज की रोशनी में—भर जाते हैं। और घाव उघड़े रहें तो तुम उन्हें भरने के लिए कुछ करते हो, औषधि की तलाश करते हो, सदगुरु को खोजते हो, चिकित्सक की खोज करते हो।
      बुद्ध ठीक कहते हैं, 'निधियों को बतलाने वाले के समान...। '
      निंदक को ऐसे समझना, जैसे कोई खजाने की खोज करवा रहा हो। तुम्हारी भूल—खो में ही तुम्हारी निधि दबी है। और जब तक तुम भूल—खो के पार न हो जाओ, निधि को न पा सकोगे।  
      ऐसे समझो कि गड्डा खोदते हो तुम, हीरे—जवाहरात की खदान पड़ी है, लेकिन पीछे मिट्टी—पत्थर की पर्त है, उसे अलग कर दो तो खदान मिल जाए।
      जलस्रोत खोजते हो तुम, गड्डा खोदते हो, कुआ खोदते हो, बीस फीट, तीस फीट, चालीस, पचास फीट। कचरा, कूड़ा, पत्थर, मिट्टी सब निकाल डालते हो शुद्ध जल की धार मिल जाती है। जिन फावड़ों ने मिट्टी खोदकर निकाली, वे दुश्मन नहीं हैं, वे मित्र हैं। जिन फावड़ों ने तुम्हारे भीतर से कूड़ा—करकट निकालकर बाहर ले आए, वे तुम्हारे दुश्मन नही हैं, मित्र हैं।
      साधारण आदमी निंदा से भयभीत होता है। क्या है निंदा का भय? निंदा का भय यही है कि तुम जिसे छिपाते हो, वह उसे प्रगट कर देती है। तुम किसी तरह बामुश्किल उसे छिपा पाते हो, वह उघाड़ देती है। निंदा तुम्हें दुश्मन मालूम पड़ती है, क्योंकि तुम जो कर रहे हो, उससे विपरीत कर देती है।
      लेकिन अगर गौर से देखोगे तो तुम जो कर रहे हो, वही तुम्हारी दुश्मनी है। क्योंकि जिन भूलों को छिपा लिया, उनसे तुम पार न हो सकोगे। जिन रोगों को तुमने बताया नहीं, चिकित्सक को बताया नहीं, जिन रोगों को तुमने एक्सरे के सामने न किया, प्रगट न होने दिया, उन्हीं रोगों में तुम दबे—दबे मर जाओगे।
      रोग को छिपाना मत। रोग का निदान चाहिए। रोग को प्रगट करना होगा। रोग की औषधि खोजनी है। रोग से छुटकारा पाना है, छिपाना नहीं है।
      तो दुश्मन तुम हो, जो तुमने भूलें छिपाई हैं; निंदक नहीं। निंदक दुश्मन मालूम पड़ता है, क्योंकि वह तुम्हारी भूलें उघाड़ता है। लेकिन अब तुम ऐसा समझो कि तुमने ही अपनी दुश्मनी की थी भूलें छिपाकर। निंदक उससे उलटा कर रहा है। निंदक तुम्हारा मित्र है; तुम दुश्मन थे।
      लेकिन बहुत बार जीवन में हम पहचान नहीं पाते, कौन मित्र है, कौन शत्रु है। हम यही नहीं समझ पाते कि हम अपने मित्र हैं या शत्रु हैं। वहीं पहली भूल हो जाती है। तुमने अपनी एक प्रतिमा बना रखी है, जो झूठ है। वह प्रतिमा तुमने उन लोगों के हाथ से बनवा ली है, जिन्होंने तुम्हारी प्रशंसा की थी।
      तुम छोटे थे, तुम्हारी मां ने कहा, बड़े सुंदर हो। तुम्हारी मां का इसमें न्यस्त स्वार्थ है। सभी मां अपने बेटे को सुंदर कहती हैं। क्योंकि बेटे के सुंदर होने में ही मां के सुंदर होने का प्रमाण है, सौंदर्य का प्रमाण है। अगर बेटा कुरूप है तो मां कुरूप हो गई। कोई मं। अपने बेटे को कुरूप नहीं कह सकती। कोई बेटा अपनी मां को कुरूप नहीं कह सकता। यह षड्यंत्र पारस्परिक है 1 क्योंकि बेटा अगर मा को कुरूप कहे, तो खुद कैसे सुंदर हो पाएगा? जब स्रोत ही कुरूप हो गया जहा से मैं आता हूं, तो मैं कैसे सुंदर हो पाऊंगा?
      तो हर बेटा अपनी मां को सुंदर कहता है, हर मां अपने बेटे को सुंदर कहती है। हर मां अपने बेटे को लाल बताती है, हीरे—जवाहरात बताती है। कारण है; बेटा फल है और अगर फल कडुवा निकल गया तो वृक्ष नीम का हो गया। अगर फल जहरीला निकल गया तो स्रोत जहर का हो गया।
      मां का अहंकार दाव पर लगा है बेटे में। बाप का अहंकार दाव पर लगा है बेटे में। तुम जरा मां और पिताओं की बातें सुनो। अगर इन सबकी बातें सच हैं तो इस दुनिया में इतने मेधावी लोग हों कि सारी पृथ्वी मेधा से भर जाए। हर एक मां—बाप यही सोच रहे हैं कि उन्होंने हीरे को जन्म दे दिया। फिर कहो ये हीरे खो जाते हैं? फिर इन हीरों का कोई पता नहीं चलता। ये हीरे और हीरों को जन्म देने लगते हैं। इनके हीरे होने का कुछ पता नहीं चलता। जिंदगी कूड़े—करकट से भरती चली जाती है।
      ध्यान रखना, तुम्हारी मां ने तुम्हें एक वहम दे दिया होगा कि तुम बड़े सुंदर हो। तुम्हारे पिता ने तुम्हें वहम दे दिया होगा कि तुम बड़े बुद्धिमान हो। बाप धक्के देता रहता है कि प्रथम आओ परीक्षा में। बाप का अहंकार दांव पर लगा है। तुम्हारा ही नहीं है सवाल, बच्चे ही परीक्षा नहीं दे रहे हैं, मां—बाप परीक्षा. मां—बाप की परीक्षा हुई जा रही है। जब तुम घर आते हो और असफल होकर आते हौं तो मां—बाप दुखी हो जाते हैं तुमसे भी ज्यादा। तुमने उनकी प्रतिमा खंडित कर दी।
      तुम जब कुछ दुष्कर्म करते हो, कुछ बुरा काम करते हो, तो मां—बाप इसलिए दुखी नहीं होते कि तुम ने बुरा काम किया; दुख का कारण अहंकार है। अगर तुम्हारा दुष्कर्म छिपा रह जाए तो कोई हर्जा नहीं। मां—बाप भी चेष्टा करते हैं कि तुम्हारा दुष्कर्म पता न चल जाए। छिप जाए, तो ठीक। पता चलने से कष्ट होता है, अहंकार को चोट लगती है—मेरा बेटा!
      मुल्ला नसरुद्दीन का बेटा बड़ी बेहूदी गालियां देता है और बड़ी लज्जत से। वह बाप से ही सीखा है। बाप भी बड़े कुशल हैं गालियां देने में। बेटा उनसे भी आगे निकल गया। अक्सर बेटे बाप से आगे निकल जाते हैं। बहुत बार मैंने नसरुद्दीन को कहा कि यह बेटा तुम्हें झंझट में डालेगा। फिर उसके स्कूल जाने का वक्त आ गया तो मैंने कहा, अब क्या करोगे? उसने कहा, तरकीब खोज ली है। उसने लड़के के कोट के कालर पर लिख दिया : इस लड़के के विचार अपने हैं; परिवार वालों से उनका कोई संबंध नहीं।
      ऐसे कहीं बच सकोगे? बेटे की गालियां बाप की गालियों का प्रमाण हो जाएंगी। बेटे के सत्कर्म बाप के सत्कर्मों का प्रमाण हो जाएंगे। जो सत्कर्म बाप ने खुद नहीं किए वे भी वह चाहता है, बेटा करे। बाप बेटों से बड़ी अपेक्षाएं रखते हैं। जो खुद पूरी नहीं कर पाए, वे सभी महत्वाकांक्षाएं रखते हैं।
      ये ही तुम्हें तुम्हारा पहला अहंकार देते हैं। फिर इस अहंकार को लेकर तुम जिंदगीभर जीते हो। फिर तुम इकट्ठे करते रहते हो। जहा से भी प्रशंसा मिल जाती है, जो भी तुम्हारी पीठ ठोंक देता है, उसे तुम इकट्ठा कर लेते हो। और जो भी तुम्हारी निंदा करता है, वह दुश्मन है, वह मित्र नहीं, वह शत्रु है। 
      धीरे—धीरे इन्हीं झूठों के सहारे तुम अपनी एक प्रतिमा निर्मित करते हो। वह प्रतिमा बुनियादी रूप से गलत है। इसलिए जब तुम्हारी कोई निंदा करता है, उस प्रतिमा के विपरीत पड़ती है निंदा, प्रतिमा खंडित होती है; उससे बेचैनी होती है। लेकिन बुद्ध पुरुष कहते हैं, उस बेचैनी को सह लेना; उस कष्ट को सह लेना; उस अशांति को झेल लेना। वह अशांति, वह कष्ट, वह बेचैनी उपयोगी है। इस प्रतिमा को गिर ही जाने देना, इसे एक बार खंडित हो ही जाने देना, ताकि तथ्य साफ हो सके।
      और ध्यान रखना, सत्य तक वही पहुंचता है, जो पहले तथ्य तक पहुंच जाए। अगर तथ्यों से ही तुम अपने को झुठला रहे हो, तो परम सत्य तक तुम कभी भी न पहुंच पाओगे।
      'निधियों को बतलाने वाले के समान अपने दोष दिखलाने वाला मिल जाए तो उस वाक्ताडन करने वाले मेधावी पुरुष की संगति करनी चाहिए।
      बुद्ध कहते हैं, मेधावी पुरुष; मजाक में कह रहे हैं। बड़ा गहरा व्यंग किया है। वे कह रहे हैं, उस महापुरुष का सत्संग करना चाहिए। उस प्रतिभाशाली का सत्संग करना चाहिए। उसे प्रतिभाशाली कह रहे हैं वे मजाक में, क्योंकि तुम्हारे दोष तो वह देख लेता है, अपने नहीं देख पाता, बड़ा प्रतिभाशाली है! उसकी आंखें दुनियाभर की भूल—चूक खोज लेती हैं, सिर्फ अपनी भूल—चूक नहीं खोज पातीं। तुम उसका लाभ ले लेना। अपनी कुशलता का लाभ वह खुद नहीं ले पा रहा है।
अगर इतनी ही खोज उसने अपने दोषों की—की होती तो जीवन रोशनियों से भर गया होता। अंधेरे कभी के मिट गए होते उसके। फूल खिल गए होते उसकी जिंदगी में। लेकिन उस प्रतिभा का उपयोग वह अपने लिए नहीं कर पाया है। तुम कर लेना, तुम मत चूक जाना। तुम उसकी प्रतिभा का पूरा—पूरा फायदा ले लेना।
      मैंने सुना है, चीन में एक बहुत बड़ा चित्रकार हुआ। वह अपने आलोचक को, अपने बड़े से बड़े आलोचक को, जब भी वह चित्र बनाता था, तो उसे पहले बुलाकर दिखा लेता था; तभी किसी और को दिखाता था। वह आलोचक भी कोई साधारण आलोचक न था। वह भूल—चूक खोज ही लेता था। चित्रकार उसे धन्यवाद देता, फिर ठीक करने में लग जाता। कभी—कभी ऐसा भी हुआ कि वर्षों लग जाते। लेकिन जब तक आलोचक तृप्त न हो जाता, तब तक वह चित्रकार चित्र को बाहर न जाने देता। उसके चित्र आज भी महिमापूर्ण हैं। उसके चित्र ऐसे हैं कि उनमें भूल खोजनी कठिन है। उसने खुद ही वह मौका न छोड़ा। लेकिन धीरे—धीरे आलोचक को यह खयाल आया कि मैं अपनी जिंदगी व्यर्थ ही गंवा रहा हूं। इस आदमी के चित्रों की आलोचना कर—करके मैं क्या पा रहा हूं? इतनी मेहनत से मैं खुद ही चित्रकार हो गया होता। लेकिन तब तक बड़ी देर हो चुकी थी।
      प्रतिभा का उपयोग कर लेना। आलोचक के पास गहरी प्रतिभा है। प्रतिभा है दोषों को देखने की। नासमझ है, अपने लिए नहीं उपयोग कर पा रहा है। लेकिन तुम नासमझी मत करना।
      'निधियों को बतलाने वाले के समान।
      सम्मान देना उसे। निधियां ही बतला रहा है। क्योंकि जहा उसने तुम्हारा एक झूठ बतलाया, वहीं झूठ के नीचे छिपा हुआ तुम्हारा सत्य भी है। अगर झूठ से तुम मुक्त हो गए, सत्य प्रगट हो जाएगा। झूठ ने सत्य के झरने को चट्टान की तरह दबाया है। उसने अगर तुम्हारी हिंसा बतलाई, तुम्हारा क्रोध बतलाया, तुम्हारी चोरी—बेईमानी बतलाई, तो उनके ठीक नीचे उनसे विपरीत छिपा है।
      जहां तुमने चोरी छिपा रखी है, उसी के नीचे तुम्हारा अचौर्य छिपा है। जहां तुमने अपनी कामवासना छिपा रखी है, उसी के नीचे, उसी चट्टान के नीचे तुम्हारे ब्रह्मचर्य की संभावना छिपी है। जहां तुम्हारा क्रोध है, उसी के नीचे तुम्हारी करुणा के स्रोत बह रहे हैं। ठीक कहते हैं बुद्ध, 'निधियों को बतलाने वाले के समान?
      चट्टान हटा लेने की बात है; वह तुम कर लेना। बताने का काम उसने कर दिया हटाने का काम तुम कर लेना। लेकिन आधा काम तो उसने पूरा कर ही दिया। निदान हो गया, डायग्नोसिस हो गई, बीमारी पकड़ ली गई। अब औषधि की तलाश बहुत बड़ी बात नहीं है। वह तो कोई साधारण सा केमिस्ट भी कर देगा। विशेषज्ञ की जरूरत तो होती है निदान के लिए। चिकित्सक की जरूरत तो होती है निदान के लिए। बीमारी ठीक से पकड़ ली गई, हल हो ही गई।
      ही, बीमारी ठीक से पकड़ में न आए तो हल होना मुश्किल है। तुम लाख इलाज करते चले जाओ, तुम्हारे इलाज नई बीमारियां पैदा कर देंगे। पुरानी बीमारी अपनी जगह सुरक्षित रहेगी, नई हजार बीमारियां पैदा हो जाएंगी।
      ऐसे ही तो तुम्हारी जिंदगी उलझ गई है। तुम निदान होने ही नहीं देते। बीमार खुद ही अपनी बीमारी का निदान नहीं होने दे रहा है। और मुफ्त चिकित्सक मौजूद हैं। उन मेधावी पुरुषों की मेधा का उपयोग कर लेना। कहीं ऐसा न हो कि तुम्हारे उपयोग करने के पहले वे खुद ही अपने उपयोग में लग जाएं और तुम्हारी चिंता छोड़ दें। नहीं, आंगन—कुटी छवा लेना। उन्हें अपने पास ही बसा लेना।
      'क्योंकि वैसी संगति से कल्याण ही होता है, कभी अकल्याण नहीं होता।'
      और ध्यान रखना, कभी ऐसा मत मान लेना कि तुम पूरे हो गए हो; वह भ्रांति है। कोई कभी पूरा नहीं होता। जीवन सतत गति है, जीवन यात्रा है। यात्रा ही मंजिल है। इसलिए याद रखना, जो भी तुम हो गए हो, बहुत कुछ होने को सदा बाकी है।
      क्यों साज के परदे में मस्तूर हो लय तेरी
      गुंचा है अगर गुल हो गुल है तो गुलिस्तां हो
      अगर अभी कली की तरह है तू तो फूल बन; अगर फूल की तरह है तो पूरे वसंत की ऋतु बन। यात्रा ही यात्रा है। साज के परदे में कहीं तेरी लय दबी न रह जाए। कहीं वीणा के तारों में छुपी न रह जाए।
      क्यों साज के परदे में मस्तूर हो लय तेरी
      जो तुम्हारी निंदा करे, आलोचना करे, जो तुम्हारे तारों को छेड़े, ऐसा मत सोचना कि दुश्मन है; ऐसा मत सोचना कि उसने तुम्हारी नींद बिगाड़ी। उसने तुम्हारे भीतर कुछ जगाया। वह नासमझ है, पागल है। इतनी ही मेहनत से उसके खुद के तार जग जाते। इतनी ही मेहनत से उसकी खुद की वीणा नाच उठती।
      लेकिन तुम तो उपयोग कर ही लेना। अकारण प्रभु की अनुकंपा हुई है कि निंदक तुम्हें मिल गया है। तुम इस प्रसाद को ऐसे ही मत छोड़ देना। तुम इस प्रसाद का पूरा भोग लगा लेना।
      ध्यान रखना, अगर तुमने अपने को प्रशंसा—प्रशंसा में ही ढांककर बचाया तो तुम ऐसे पौधे होओगे, जिसको न तो धूप लगी, न हवा के झोके लगे, न आंधियों ने घेरा, न जिसकी छाती पर बादल गरजे और बिजलियां चमकींहीट हाउस प्लांट, सब तरह से सुरक्षित—प्रशंसाओ में, स्तुतियों में, प्रमाणपत्रों में, प्रियजनों की छत्र—छाया में।
      तुम बड़े कमजोर रहोगे। जीवन का जरा सा ही धक्का तुम्हारे सारे भवन को गिरा देगा। तुम्हारी नाव असली नहीं, कागज की है। जरा सी लहर और तुम डूब जाओगे। तुम्हें डुबाने के लिए मझधार की भी जरूरत न पड़ेगी। तुम चुल्लभर पानी में डूब जाओगे। कोई बड़े सागरों की जरूरत न रहेगी। तुम्हारी नाव ही तुम्हें डुबा देगी, नदियों की जरूरत नहीं है।
      अपने को इतनी सुरक्षा में मत सम्हालना, क्योंकि वही सुरक्षा तुम्हें भयंकर सिद्ध होगी। खोलना जीवन के खुलेपन में—वहां आंधिया भी हैं कभी; माना कि कठिन है। और धूप भी तेज है; और माना कि कभी—कभी कष्टपूर्ण भी है। रास्ते कंटकाकीर्ण हैं, राजपथ नहीं हैं, जंगलों की बीहड़ पगडंडियां हैं। कभी बादल गरजते हैं, कभी शीत ठिठुराती है, कभी धूप जलाती है, कभी उखड़ेउखड़े हो जाते हो। ऐसे अंधड़ आते हैं कि जड़ें उखड़ी—उखड़ी हो जाती हैं; अब मरे, तब मरे, ऐसी हालत हो जाती है।
      लेकिन इसी सब में व्यक्तित्व का जन्म होता है। इन्हीं सब चोटों में, तुम्हारे भीतर जो छिपा है, वह मजबूत होता है। इसी सारे संघर्षण में आत्मा की लय उठनी शुरू होती है।
      क्यों साज के परदे में मस्तूर हो लय तेरी
      गुंचा है अगर गुल हो गुल है तो गुलिस्तां हो
तुम सुरक्षाओं के बहुत आदी मत हो जाना। खुशामदों के बहुत आदी मत हो जाना। सावधान रहना। 
      तू वो जुल्फ शानापरवर जिसे खौफ है हवा का
      मैं वो काकुलेपरेशा जो संवर गई हवा से
      एक तो तुम बाल कंघी से सम्हाल लेते हो, खूब सम्हालकर घर से निकलते हो, जरा सी हवा की चोट लगी, बाल बिखर जाते हैं।
      तू वो जुल्फ शानापरवर जिसे खौफ है हवा का
तो अगर तुम ऐसे सम्हालकर घर से बाल चले हो तो तुम हवा के झोकों से डरोगे। चल क्या पाओगे?
      मैं वो काकुलेपरेशा जो संवर गई हवा से
      और मैं उस जुल्फ की तरह हूं उन बालों की तरह हूं, जो आंधियों और हवाओं के कारण सम्हल गए। जिनको मैंने नहीं सम्हाला, हवाएं आयीं, उनके साथ खेलीं और सम्हाल गयीं।
      जिंदगी बड़ी भिन्न—भिन्न होगी। इसलिए अक्सर बहुत सुविधा—संपन्न परिवारों में संकल्पवान आत्माओं के जन्म नहीं होते। जिनको बचपन से ही सब तरह की सुरक्षा मिली हो और संघर्ष का कोई मौका न मिला हो, चुनौती न मिली हो, वहां प्रतिभाएं पैदा नहीं होतीं। वहां लय वीणा में ही पड़ी रह जाती है; कोई छेड़ता ही नहीं। और धीरे—धीरे कोई छेड़ न दे, इससे भय हो जाता है।
      तूफानों को संवारने दो। आंधियों को व्यवस्था देने दो। संघर्ष ही तुम्हारे जीवन की शांति बने तो तुम्हारी शाति का मूल्य अनिर्वचनीय होगा।
      एक ऐसी शांति भी है, जो घर के कोने में बैठकर सम्हाली जा सकती है। वह शाति मुर्दा होगी, मरघट की होगी। उसमें जीवन न होगा; उसमें हृदय की धड़कन न होगी। जीवन की अराजकता तुम्हारे भीतर एक अनुशासन लाए। जीवन ही तुम्हें अनुशासन दे। कडुवे—मीठे अनुभव, सुख—दुख के अनुभव, धूप—ताप के अनुभव, अंधड़, आंधिया, तूफान तुम्हारी नाव को मजबूत करें। तुम घबड़ाकर किनारे की छांव मत ले लेना।
      भीतर के जगत में आलोचक, निंदक तूफान उठा देता है। कोई तुम्हें गाली दे जाता है, एक आधी तुम्हें घेर लेती है। तुम क्या करते हो? जब तुम्हें कोई गाली दे जाता है, जब कोई तुम्हारी निंदा करता है, तब तुम क्या करते हो?
      गुरजिएफ कहता था कि जब मेरे पिता की मृत्यु हुई, तो उन्होंने मुझसे कहा कि मेरे पास देने को कुछ भी नहीं है, लेकिन एक संपदा मेरे पास है, जो मेरे पिता ने मुझे दी थी। और उससे मैंने बड़ी बहुमूल्य फसलें काटीं जिंदगी में, वही कुंजी मैं तुझे दे जाता हूं। तू अभी बहुत छोटा है—नौ ही साल उसकी उम्र थी—लेकिन तू याद रखना। कभी न कभी यह तेरे काम आएगी। अभी तू समझ न सकेगा, लेकिन इसे याद रखना। जब समझ आ जाए, तब उपयोग कर लेना।
      गुरजिएफ के मरते पिता ने कहा कि जब तुझे कोई गाली दे, तेरी कोई निंदा 
करे, तो चौबीस घंटे सोचना, फिर जवाब देना। बस, इसको याद रखना अभी। अभी तेरी समझ में भी न आएगा। लेकिन इस संपदा से मैंने जिंदगी में बड़ी बहुमूल्य फसलें काटीं।
      और गुरजिएफ ने कहा बाद में कि पिता के मरते समय के वचन थे, भूलना मुश्किल था। जैसे कोई सील लगा गया है हृदय पर; जैसे किसी ने जलते हुए अक्षरों में लिख दिया हृदय पर। पिता ने तो यही कहा था, जब तू समझदार हो जाए; लेकिन मैं उसी दिन समझदार हो गया। पिता चल बसे। उसी दिन से मैंने फिक्र करनी शुरू कर दी। किसी ने गाली दी, किसी ने अपमान किया, किसी ने निंदा की, मैं कह आया कि मैं चौबीस घंटे बाद आकर जवाब दे जाऊंगा। पिता को वचन दिया है मरते वक्त। मन तो अभी हो रहा है कि जवाब दे दूं मजबूरी है लेकिन, वचन पूरा करना है—चौबीस घंटे बाद।
      और चौबीस घंटे बाद, गुरजिएफ ने कहा, कभी जवाब देने की जरूरत न रही। चौबीस घंटे सोचा तो अक्सर तो यही पाया कि दूसरे ने जो कहा, सच ही कहा।
      तुम जरा गौर से देखो, जितने लोगों ने तुम्हारी निंदाएं की हैं, उनमें कितनी सच्चाइयां थीं? कभी एकांत में बैठकर उन पर ध्यान करो। तुम इतने उद्विग्न ही इसलिए हो गए थे कि सचाई छू ली गई थी।
      एक राजनेता ने मुल्ला नसरुद्दीन से आकर कहा कि तुम मेरे संबंध में झूठी अफवाहें फैलाना बंद करो, अन्यथा मैं तुम्हें अदालत में खींच ले जाऊंगा। नसरुद्दीन ने कहा, भगवान को धन्यवाद दो, खुदा का शुक्र समझो कि मैं झूठी बातें कह रहा हूं अगर सच कहने लगू तुम और मुश्किल में पड़ जाओगे। कहते हैं, फिर राजनेता दुबारा उसके पास न गया कि और एक झंझट की बात है।
      सच तो और भी मुश्किल में डाल जाएगा। अच्छा ही है कि दुश्मन झूठी बातें कर रहे हैं। तुम गौर करना। गुरजिएफ की पूरी जिंदगी बदल गई। क्रांति घटित हो गई। एक छोटा सा सूत्र—सारे शास्त्र समा गए।
      चौबीस घंटे बहुत वक्त हो जाता है। चौबीस घंटे अगर तुम्हें सोचना पड़े तो तुम कैसे झुठलाओगे इस बात को? किसी ने कहा कि तुम बेईमान हो; कैसे झुठलाओगे इस बात को? चौबीस घंटे यह बात तुम्हें याद आती रहेगी। किसी न किसी क्षण में यह दिखलाई पड़ेगा, कहा तो सच ही है; हूं तो बेईमान। तो तुम धन्यवाद दे आना जाकर कि ठीक कहा था।
      जब कोई बेईमान कहता है, उसी वक्त अगर उत्तर देने की तैयारी की, तो उस वक्त तुम बड़े उद्विग्न हो। किसी ने घाव छू दिया है। दर्द अभी हरा है। अभी पीड़ा तुम्हें घेरे है। अभी सोच—विचार का मौका नहीं है। अभी तुम जो करोगे, वह अंधा कृत्य होगा, प्रतिक्रिया होगी। थोड़ा सोचो, विचारो, ध्यान करो, मौन से चिंतन करो, मनन करो; तो या तो तुम पाओगे कि उसने जो कहा, सच है।
      और दो ही विकल्प हैं : या तो तुम पाओगे, जो कहा सच है, या तुम पाओगे कि जो कहा झूठ है। तीसरा तो कोई विकल्प नहीं है। अगर तुमने पाया सच है, धन्यवाद दे आना। अगर तुमने पाया झूठ है, तो परेशान होना व्यर्थ है। अगर पाया कि झूठ है तो हंस लेना; अगर पाया कि सच है तो जाकर शुक्रिया अदा कर आना। क्रोध की जगह नहीं है। प्रत्युत्तर का कोई कारण नहीं है। प्रतिक्रिया में पड़ने का कोई भी, कहीं भी कोई आधार नहीं है।
      और ध्यान रखना, यदि तुम चाहते हो कि कभी तुम्हारे जीवन की ज्योति जगमगाए, अगर तुम चाहते हो कि कभी सच में ही तुम्हारे जीवन का फूल खिले, तो काटो से इतने दूर—दूर रहने की आदत छोड़ो। क्योंकि फूल काटो में खिलते हैं। ज्योति अंधेरे में जगमगाती है। पत्थर पर जब छेनी चलती है कलाकार की तो मूर्तियां निर्मित होती हैं। और पत्थर कह दे कि नहीं, छेनी बर्दाश्त नहीं, काटो मत। मैं जैसा हूं? मुझे वैसा ही रहने दो; तो पत्थर अनगढ़ पत्थर ही रह जाएगा। थोड़ी सी छेनी की चोट सहना जरूरी है।
      गुलशन—परस्त हूं मुझे गुल ही नहीं अजीज
      कांटों से भी निबाह किए जा रहा हूं मैं
      अगर तुम सच में ही फूलों के प्रेमी हो, तो तुम कांटों से भी निबाह करना सीख लोगे। गुलशन—परस्त हूं—फूलों का प्रेमी हूं; मुझे गुल ही नहीं अजीज—और मुझे फूल ही प्यारे हैं, ऐसा नहीं है।
      कांटों से भी निबाह किए जा रहा हूं मैं
      करना ही होगा। निबाह कहना भी शायद ठीक नहीं; निबाह में ही थोड़ी सी अड़चन आ गई है जैसे। निबाह किए जा रहा हूं मैं—किसी तरह झेले जा रहा हूं। नहीं, वह बात भी ठीक नहीं है। काटो से भी उतना ही प्रेम करना होगा, जितना फूलों से। अगर तुमने काटो से प्रेम न किया तो तुम आज नहीं कल प्लास्टिक के फूल खरीद लाओगे, क्योंकि उन्हीं में काटे नहीं होते। कागज के फूल खरीद लाओगे, क्योंकि उनमें कांटे नहीं होते। असली फूल, अगर गुलाब की आकांक्षा है तो कीटों की तैयारी भी चाहिए।
      कांटें उतने ही जीवन का अनिवार्य अंग हैं, जितने फूल। अंधेरा उतना ही जरूरी है, जितना प्रकाश। रात उतनी ही आवश्यक है, जितना दिन। मौत उतनी ही जरूरी है, जितना जन्म। मित्रों और शत्रुओं के बीच थपेड़े खा—खाकर ही तुम्हारे भीतर के चैतन्य का आविर्भाव होता है।
      अगर तुमने जिद की कि हम तो एक को ही पकड़कर जीएंगे, तो तुम ऐसे आदमी हो जो जिद कर रहा है कि हम एक ही पैर से चलेंगे। तुम ऐसे आदमी हो जो जिद कर रहा है, हम एक ही पंख से उड़ेंगे। तुम ऐसे आदमी हो जो जिद कर रहा है, हम एक ही पतवार से अपनी नाव खे लेंगे। 
      कभी एक ही पतवार से नाव खेकर देखी? न देखी हो तो जरूर नदी पर जाकर देखना; उससे बड़ा अनुभव होगा। जब तुम एक ही पतवार से नाव खेओगे, वह गोल—गोल चक्कर लगाने लगेगी। जाएगी कहीं नहीं, चक्कर बहुत लगाएगी। ऐसी ही तुम्हारी जिंदगी है। जाती कहीं नहीं, होता कुछ भी नहीं, चक्कर ही चक्कर! कोल्हू के बैल की तरह घूमे चले जाते हो। दोनों पतवारें चाहिए। दोनों पतवारों के बीच नाव तीर की तरह चलने लगती है।
      और ध्यान रखना, बुद्ध कहते हैं कि आलोचक, विरोधी, निंदक की संगति से कल्याण ही होता है, अकल्याण कभी नहीं होता।
      क्योंकि निंदा कभी तुम्हारे अहंकार: का तो भोजन बन ही नहीं सकती। जहर बन सकती है—बनेगी; अहंकार को मार डालेगी, तुम्हें विनम्र करेगी, तुम्हें नबाएगी झुकाकी, तुम्हें ज्यादा समझदार करेगी, लेकिन अहंकार को नहीं भर सकती। इसलिए सदा कल्याण है। क्योंकि अहंकार ही एकमात्र अकल्याण है। प्रशंसा से खतरा हो सकता है, तुम और अकड़ जाओ। निंदा से कोई भी खतरा नहीं है।
      और कैसे हम पागल हैं कि प्रशंसक की तलाश करते हैं! कैसे हम पागल हैं! जीवनभर हम यही खोज करते हैं कि कोई मिल जाए, जो हमारी प्रतिमा को सजा दे संवार दे। कोई मिल जाए, जो हमारे ऊपर प्रशंसा के इत्र छिड़क दे। कोई मिल जाए जिसमें हम अपने को झांककर सुंदर पा सकें। कोई ऐसा दर्पण, जो हमारे सौंदर्य को झलका दे। चाहे हम सुंदर हों या न हों, हम दर्पण पर निर्भर हैं। दर्पण बता दे कि सुंदर, तो बस ठीक।
      हम दूसरों की आंखों में झांक रहे है—अपनी गरिमा के लिए, अपने गौरव के लिए। और गौरव केवल उसी का है, जो अपने भीतर झांकता है। गरिमा केवल उसी की है, जो अपने भीतर झांकता है।
      नहीं नाउम्मीद इकबाल अपनी किश्ते—वीरा से
      जरा नम हो तो यह मिट्टी बड़ी जरखेज है साकी
      निराश नहीं हूं अपने बंजर खेत से!
      नहीं नाउम्मीद इकबाल अपनी किश्ते—वीरा से
      इस बंजर खेत से जीवन के, निराश नहीं हो गया हूं।
      जरा नम हो तो यह मिट्टी बड़ी जरखेज है साकी
      थोड़ी सी नम हो जाए तो इस मिट्टी से फुलवारियां पैदा हो सकती हैं।
      जरा नम हो जाए! तुम जितने अकड़े, उतने तुम बंजर खेत हो जाओगे। तुम जितने नम हुए, उतने ही तुम्हारे भीतर से सृजन की क्षमता है। जितने तुम विनम्र हुए, जितनी तुम्हारी खेत की मिट्टी गीली हुई, जितने तुम भीगे, उतनी संभावना तुम्हारे भीतर से प्रगट होगी। निंदक तुम्हें नम कर जा सकता है।
      प्रशंसक तुम्हें अकड़ा जाता है। प्रशंसक से भागना। प्रशंसक की तरफ पीठ कर लेना। उससे कुछ लाभ तो हो ही नहीं सकता, ज्यादा से ज्यादा इतना ही हो सकता है कि नुकसान न हो। वह भी तुम पर निर्भर है। अगर तुम बहुत सजग हो तो नुकसान न होगा। तुम्हारी जरा सी मूर्च्छा और गड्डा तैयार है। प्रशंसा जाल है, फंदा है। अगर तुम सावधान हो तो बचकर निकल जाओगे। हानि कुछ न होगी, लाभ कुछ भी नहीं हो सकता। निंदा से हानि की कोई संभावना नहीं है।
      'बुरे मित्रों की संगति न करे, न अधम पुरुषों की संगति करे। कल्याण मित्रों की संगति करे और उत्तम पुरुषों की संगति करे।'
      समझना पड़ेगा। क्योंकि तुम्हें लगेगा, इसमें तो विरोधाभास हो गया। पहले कहा कि निंदक को पास रखे, और अब कहते हैं, बुरे मित्रों की संगति न करे।
      असल में तुम्हारी जो भी निंदा करता है, उसको तुम बुरा समझते हो। बुद्ध नहीं समझते उसे बुरा। बुद्ध तो उसे बुरा समझते ही नहीं। वह अपने प्रति बुरा होगा, तुम्हारे प्रति बुरा नहीं है। तुम्हारे प्रति तो उसका प्रत्येक कृत्य कल्याण से भरा हुआ है। ऐसा नहीं है कि वह तुम्हारी शुभेच्छा चाहता है, लेकिन वह जो भी कर रहा है, उसका तुम उपयोग कर सकते हो। और उसके द्वारा फेंके गए पत्थर भी तुम्हारे पास आते—आते फूल बन सकते हैं। तुम पर निर्भर है।
      'बुरे मित्रों की संगति न करे। '
      फिर बुरा कौन है? निंदक तो बुरा नहीं है; बुरा लगता है। इस फर्क को ठीक से समझ लेना। बुरा लगने से कोई बुरा नहीं होता। तुम डाक्टर के पास जाते हो, वह सर्जरी करता है, बुरा लगता है, बुरा है नहीं। निंदक सर्जन जैसा है, काटता है; बुरा लगता है। शायद अपनी तरफ से वह बुरा ही करना चाहता है, उससे भी कोई प्रयोजन नहीं है। लेकिन तुम लाभ ले सकते हो। उसने जो द्वार हानि के लिए खोला था, वही द्वार तुम्हारी संपदा का द्वार बन सकता है। तुम्हारे हाथ में सब कुछ है। निंदक तुम्हारे हाथ में है।
फिर बुरा मित्र कौन है? जो मित्र जैसा मालूम होता है, और मित्र है नहीं। क्योंकि आगे एक बात बुद्ध और कहते हैं,
      'बुरे मित्रों की संगति न करे, न अधम पुरुषों की संगति करे। '
      तो पहले तो ध्यान रखना, निंदक को बुद्ध बुरा मित्र नहीं कहते। वह मित्र है ही नहीं, शत्रु है; और भला शत्रु है। बुरे मित्र उन्हें कहते हैं बुद्ध, जो तुम्हारी प्रशंसा कर रहे हैं। और जिनका कुछ लाभ है प्रशंसा करने में। जो तुम्हें बढ़ावा दे रहे हैं, जो तुम्हारे गुब्बारे को फुलाए जा रहे हैं। और तुम बड़े आनंदित हो रहे हो। तुम समझ रहे हो, उत्सव की घड़ी है यह।
      वे तुम्हारी मौत करीब लाए जा रहे हैं। वे तुम्हें मिटाने के करीब लिए जा रहे हैं। वे तुम्हें उस जगह छोड़ जाएंगे, जहां से लौटना मुश्किल हो जाएगा। वे तुम्हारे अहंकार को इतना बड़ा कर देंगे कि जीना ही असंभव हो जाएगा। अहंकार ही तुम्हारे जीवनभर के लिए तुम्हारी छाती पर बैठ जाएगा।
      उन्हें तुमसे प्रयोजन नहीं है। उनके कुछ अपने लाभ हैं, जो तुम्हारी प्रशंसा से मिल सकते हैं। तुम्हें बड़ा कहकर वे तुम्हारा उपयोग करना चाहते हैं। वे तुम्हारा शोषण करने में उत्सुक हैं। उनकी नजर तुम्हें साधन बना लेने की है।
      जब तुम्हारे पास कोई प्रशंसा करने आए तो ध्यान रखना, कोई भी इसलिए प्रशंसा करने नहीं आता कि तुम बड़े महान हो। अगर तुम महान हो, तब तो लोग निंदा करने आ सकते हैं, प्रशंसा करने नहीं आते। क्योंकि तुम्हारी महानता से उनके अहंकार को चोट लगती है। वे तुम्हारे दुश्मन होने लगते हैं। तुम्हारी महानता से कोई प्रयोजन नहीं है। वे तुम्हारी प्रशंसा करने तभी आते हैं, जब उन्हें तुमसे कुछ काम लेना है। जब वे तुम्हारा उपयोग करना चाहते हैं। तुम्हारी सीढ़ी बनाना चाहते हैं। तुम्हारे कंधे पर चढ़कर कहीं जाना चाहते हैं।
      राजनेता तुम्हारे द्वार पर आकर खड़ा हो जाता है हाथ जोड़कर, कि मैं आपके चरणों की धूल हूं। तुम बड़े प्रसन्न होते हो। तुम बड़े गौरवान्वित होते हो। यह आदमी अपने वोट की तलाश में आया है। इसे न तुम्हारे चरणों से मतलब है। यह तुम्हें पहचानेगा भी नहीं। कल पद पर पहुंच जाने के बाद तुम इसके द्वार पर धक्के खाओगे। यह तुम्हें पहचानेगा भी नहीं। तुम इसी भरोसे में इसको वोट दे दिए थे।
      अमरीका के प्रेसीडेंट रूजवेल्ट के संबंध में कहा जाता है कि जब वे राष्ट्रपति के पद के लिए खड़े हुए तो उन्होंने एक लाख लोगों को व्यक्तिगत पत्र लिखे। उनमें छोटे—मोटे लोग थे, बड़े लोग थे, सब तरह के लोग थे। स्टेशन का कुली भी था, गरीब से गरीब आदमी थे। वे चकित हो गए। चौदह साल, पंद्रह साल पहले अगर वे किसी स्टेशन पर आए थे तो जिस कुली ने उनका सामान ढोकर कार तक पहुंचाया था, उसको जब पत्र मिला—पंद्रह साल बाद, उसके नाम पर, व्यक्तिगत—और न केवल इतना, बल्कि उसमें यह भी पत्र में था कि पंद्रह साल पहले जब मैं आया था, तब तुमसे मिलना हुआ था। तब तुम्हारी पत्नी की तबीयत खराब थी, अब कैसी है? तो पागल हो गया वह कुली। अब कोई राजनीति का सवाल ही न रहा। अब किसी पार्टी का कोई सवाल न रहा। वह तो दीवाना हो गया! तुम थोड़ा सोचो। लाखों लोगों ने उनके लिए काम किया निजी तौर से।
      अगर वे दुबारा उस स्टेशन पर आते पंद्रह साल बाद; तो भी वे पूछते कि फलां—फलां नाम का कुली कहा है? वे हर चीज नोट करके रखते थे—कितने बच्चे हैं उसके, पत्नी बीमार है, बच्चा अभी किस क्लास में पढ़ रहा है—वे सब नोट करके रखते। कोई मतलब न था। इस आदमी से कुछ लेना—देना न था। लेन—देन कुछ और ही था। लेकिन इतनी सी फिक्र उस आदमी को फुला जाती है। इतनी सी चिंता उस आदमी के प्रति, उस छोटे आदमी को पहली दफा झलक देती है कि मैं कोई छोटा आदमी नहीं, रूजवेल्ट जैसा आदमी चिंता करता है कि मेरी पत्नी बीमार है या नहीं! पंद्रह साल बाद भी मुझे याद रखता है।
      जो तुम्हारी प्रशंसा कर रहा है, उससे थोड़े सावधान रहना। उसके हाथ तुम्हारे खीसे में होंगे। वह तुम्हें बाजार मैं कहीं न कहीं बेच देगा। तुम जितने जल्दी उसके चंगुल के बाहर हो सको, उतना अच्छा है। बुरा मित्र वही है, जो तुम्हारा साधन की तरह उपयोग करना चाहता है।
      मित्रता तो तुम्हें साध्य बना देती है, साधन नहीं। मित्रता तभी है, प्रेम तभी है, जब तुमने किसी दूसरे को साध्य बना दिया और दूसरे ने तुम्हें साध्य बना दिया। तुमसे कोई लाभ नहीं लेना है। तुम्हारा कोई भी शोषण नहीं करना है। तुम्हारी खुशी में जब खुशी है और तुम्हारी पीड़ा में जब पीडा है। तुमसे जब कोई लाभ का संबंध ही नहीं है, सारा संबंध प्रेम का है, बेशर्त है, तब कोई मित्र है। जहा शर्तें लगी हैं, वहां कोई मित्रता नहीं है। वहां मित्रता धोखा है। वहां मित्रता केवल चालबाजी है। वहा मित्रता कूटनीति है।
      'बुरे मित्रों की संगति न करे।
      ऐसे मित्रों से सावधान रहना।
      'न अधम पुरुषों की संगति करे। '
      अधम पुरुष वह है, जिसकी जीवन—यात्रा नीचे की तरफ हो रही है। उसके साथ संग—साथ ठीक नहीं है। क्योंकि तुम अभी इतने बलशाली नहीं हो कि कोई नीचे की तरफ जा रहा हो और तुम नीचे की तरफ न जाने लगो। अभी तुम हर किसी के साथ पैर मिलाने लगते हो, हर किसी के साथ चल पड़ते हो। अभी तुम कमजोर हो, अभी तुम बहुत शक्तिशाली नहीं हो। अभी तुम्हारे भीतर सारी नीचे जाने वाली वासनाएं छिपी पड़ी हैं।
      अगर तुम कोई मंदिर जा रहे थे, और रास्ते में एक मित्र मिल गया और वेश्याघर की बात करने लगा, तो बहुत संभावना है कि तुम मंदिर की फिक्र छोड़ो। तुम कहो, मंदिर कल भी रहेगा, इतनी जल्दी क्या है? यह भी हो सकता है, तुम उसकी सुनकर भी मंदिर पहुंच जाओ, लेकिन मंदिर पहुंच न पाओगे। पूजा—प्रार्थना में लगे भी तुम्हें वेश्यागृह की याद आने लगेगी। हाथ जोड़ोगे भगवान के समक्ष, लेकिन तुम्हारी वहां भी मौजूदगी न होगी। तुम जा चुके! तुम गए या नहीं, यह सवाल नहीं है।
      तुम्हारे भीतर नीचे उतरने की संभावना बहुत प्रगाढ़ है। क्योंकि नीचे उतरना हमेशा सुगम है; ऊपर जाना कठिन है, पहाड़ पर चढ़ने जैसा है। नीचे जाना पहाड़ से उतरने जैसा है। पहाड़ पर चढ़ना हो तो श्रम करना पड़ता है। उतरना हो तो पहाड़ का ढलान ही तुम्हें दौड़ा ले आता है नीचे; कुछ करना नहीं पड़ता।
      नीचे जाते हुए आदमी की तरफ दोस्ती का हाथ मत बढ़ाना। क्योंकि यह तो खुद ही कठिन है कि तुम अपने को ही चढ़ा लो; और एक और आदमी का हाथ पकड़कर उसको भी चढ़ाना और भी मुश्किल हो जाएगा। अपने को ही बचाना मुश्किल है,दूसरे को बचाना और मुश्किल हो जाएगा। संभावना यही है कि नीचे जाने वाला तुम्हें भी नीचे घसीटने लगे। और नीचे जाने वालों की भीड़ है। उनका वजन भारी है, उनका ग्रैविटेशन बहुत है। भूल मत जाना।
      एक दफा ऐसा हुआ, मैं नदी के किनारे बैठा था। एक सज्जन और थोड़ी दूर पर सीढ़ियों पर बैठे थे। और एक आदमी डूबने लगा। मैं भागा दौड़कर उसको बचाने के लिए। मगर मेरे पहले वे जो सज्जन सीढ़ियों पर बैठे थे वे कूद गए। तो मैंने सोचा, बात खतम हुई। मैं खड़ा हो गया। मैं देखा कि वह दूसरा आदमी भी डूबने लगा। मैंने पूछा, यह मामला क्या है? वह जो डूब रहा था, उसकी तो फिक्र छोड़नी पड़ी, क्योंकि वह तो दूर था, पहले इन सज्जन को निकालना पड़ा। इनको निकालकर मैंने पूछा कि तुम कूदे कैसे? उसने कहा, मैं भूल ही गया कि मुझे तैरना नहीं आता। उसको डूबता देखकर यह याद ही न रही मुझे कि मुझे तैरना नहीं आता।
      तुम जरा खयाल रखना कि तुम्हें ऊपर जाना अभी आता भी है? कहीं नीचे जाने वाले पर दया करके मत उतर जाना। थोड़े सावधान रहना। कहीं ऐसा न हो कि डूबता तुम्हें भी डुबा ले। इसलिए बहुत सावधानी, बहुत सावचेती से चलने की बात है।  'बुरे मित्रों की संगति न करे, न अधम पुरुषों की संगति करे। कल्याण मित्रों की संगति करे और उत्तम पुरुषों की संगति करे।
      'कल्याण मित्र' बुद्ध का अपना शब्द है, बड़ा प्यारा शब्द है। कल्याण मित्र ही मित्र है। कल्याण मित्र का अर्थ है, जो तुम्हारे कल्याण की आकांक्षा से भरा है। जिसकी प्रार्थनाएं तुम्हारे कल्याण की आकांक्षा से भरी हैं। जिसका तुमसे कुछ और स्वार्थ नहीं है। जो तुम्हें खुश देखना चाहेगा; जो तुम्हें गीत गाता देखना चाहेगा; जो तुम्हें खुश देखकर अनंत गुना खुश हो लेगा। कल्याण मित्र का अर्थ है, तुम्हारे कल्याण में जिसका आनंद है। और तुम्हारा किसी तरह का उपयोग साधन की तरह करने की जिसकी कोई आकांक्षा नहीं है।
      कल्याण मित्र की तलाश करीब—करीब गुरु की तलाश है। क्योंकि तुम्हारे कल्याण की कामना वही कर सकता है, जो अपने कल्याण को उपलब्ध हुआ हो। तुम्हें ऊपर ले जाने की आकांक्षा वही कर सकता है, जो ऊपर पहुंचा हो। जिसने पहाड़ के शिखरों पर घर बनाया हो, वही तुम्हें तुम्हारी घाटियों के अंधेरे से बाहर ला सकेगा। जिसने रोशनी जानी हो, जो परमात्मा में क्षणभर जीया हो, जिसने परमात्मा का स्वाद लिया हो। क्योंकि तभी, केवल तभी कल्याण की वर्षा होनी शुरू होती है; उसके पहले नहीं
      कल्याण मित्र बुद्ध का शब्द है गुरु के लिए। बुद्ध गुरु शब्द के पक्षपाती नहीं; थोड़े विरोधी हैं। बुद्ध बड़े अनूठे मनुष्य हैं। वे कहते हैं कि गुरु शब्द विकृत हो गया है। हो भी गया है; उस दिन भी हो गया था। गुरुओं के नाम पर इतना शोषण चला है, गुरुओं के नाम पर इतना व्यवसाय चला है। गुरुओं ने लोगों को कहीं पहुंचाया,ऐसा तो मालूम नहीं होता, भटकाया ऐसा मालूम होता है। कभी सौ गुरुओं में कोई एक गुरु होता होगा, निन्यानबे तो गुरु नहीं होते, सिर्फ गुरु आभास!
      इसलिए बुद्ध ने नया शब्द चुन लिया, कल्याण मित्र। बुद्ध ने अपने शिष्यों को कहा है कि मैं तुम्हारा कल्याण मित्र हूं। और बुद्ध ने कहा है कि इस जीवन की सारी समझ के बाद, अब दुबारा जब मैं आऊंगा, तो मेरा नाम मैत्रेय होगा—सिर्फ मित्र! मैत्रेय। भविष्य में जब मैं आऊंगा तो मेरा नाम मैत्रेय होगा। जैसे गुरु को बिलकुल ही काट दिया। पर ठीक ही है। गुरु का प्रयोजन ही वही है कि वह तुम्हारा कल्याण मित्र हो जाए।
मित्र बड़ा प्यारा शब्द है। और बुद्ध ने उसे बड़ी महिमा दे दी कल्याण शब्द साथ जोड़कर। जैसे लोहे के साथ पारस जोड़ दिया—सब सोना हो गया।
      'बुरे मित्रों की संगति न करे, न अधम पुरुषों की संगति करे। कल्याण मित्रों की संगति करे और उत्तम पुरुषों की संगति करे। '
      अगर कल्याण मित्र न मिले तो उत्तम पुरुष की संगति करें। उत्तम पुरुष का अर्थ है: जो तुमसे थोड़ा आगे गया।
      कल्याण मित्र का अर्थ है जो पहुंच गया; जिसने शिखर पर घर बना लिया।
      उत्तम पुरुष का अर्थ है : जो मार्ग पर है, लेकिन तुमसे आगे है; तुमसे श्रेष्ठतर है, तुमसे सुंदरतर है। उत्तम पुरुष का अर्थ है : साधु। उत्तम पुरुष का अर्थ है : थोड़ा तुमसे आगे। कम से कम उतना तो तुम्हें ले जा सकता है, कम से कम उतना तो तुम्हें खींच ले सकता है। चार कदम सही, लेकिन चार कदम भी क्या कम हैं? चार कदम बढ़कर और आगे तुम्हें उत्तम पुरुष दिखाई पड़ने लगेंगे।
      उत्तम पुरुषों के साथ रहते—रहते ही तुम्हें कल्याण मित्र की पहचान आएगी। उत्तम पुरुषों के साथ रमते—रमते ही तुम्हारी आंखें शिखर की तरफ उठनी शुरू होंगी। ऊंचाई की तरफ जाने वाले लोग, ऊंचाई की तरफ दृष्टि करने लगते हैं। नीचाई की तरफ जाने वाले लोग, नीचाई की तरफ दृष्टि रखते हैं। तुम्हारी दृष्टि वहीं हो जाती है, जहां तुम जाना चाहते हो।
      'उत्तम पुरुषों की, कल्याण मित्रों की संगति करे। '
      बड़े परिणाम होते हैं अगर उत्तम पुरुषों का संग—साथ मिल जाए। क्योंकि जीवन का एक बुनियादी नियम समझ लेना जरूरी है। तुम अकेले पैदा नहीं हुए। तुम समाज में पैदा हुए हो। तुमने पहली भी श्वास ली थी, तो समाज में ली थी। अकेले तो शायद तुम बच ही न सकते। मनुष्य का बच्चा बच नहीं सकता अकेला। मां न हो, पिता न हो, परिवार न हो, तो बच्चे के बचने की कोई उम्मीद नहीं, कोई आशा नहीं। समाज, चारों तरफ प्रियजनों का परिवार, उनके बीच ही तुमने पहली श्वास ली है।
      उस बड़े जन्म के लिए उस नए जन्म के लिए भी फिर तुम्हें एक परिवार चाहिए जहां तुम एक और श्वास लोगे—परमात्मा की श्वास कहो, निर्वाण की श्वास कहो। यह शरीर की श्वास के लिए भी तुम्हें औरों की जरूरत पड़ी थी। किसी की चाहत की जरूरत पड़ी थी। किसी के प्रेम की जरूरत पड़ी थी। अकेले तुम न बच पाते। आदमी प्रेम में जन्मता है। और इसलिए जिसके जीवन में प्रेम नहीं, वह आदमी अभी जन्मा ही नहीं। आदमी के हृदय की धड़कन सिर्फ श्वासों से नहीं बनी है; और भी सूक्ष्म स्तर पर प्रेम से बनी है।
      उत्तम पुरुषों के साथ का अर्थ है एक नया परिवार।
      ऐसा ही एक परिवार बनाने की यहां कोशिश चल रही है। मुझसे लोग पूछते हैं, गेरुआ वस्त्र क्यों? मैं कहता हूं परिवार का प्रतीक है। ताकि तुम पहचाने जा सको कि मुझसे संबंधित हो, मेरे परिवार के हो। एक कोशिश चल रही है, एक परिवार बन जाए, ताकि उसमें जो नए लोग आएं, उनके लिए उत्तम पुरुषों का साथ मिल सके। उन्हें तलाशने न जाना पड़े नए जन्म के लिए। अगर बहुत से लोगों का समूह किसी यात्रा पर जा रहा हो तो सुगमता हो जाती है।
      इसीलिए तो लोग तीर्थयात्रा पर समूह बनाकर जाते हैं। अकेले कठिन हो जाता है। संग—साथ सरल हो जाता है।
      गए दिन कि तन्हा था मैं अंजुमन में
      यहां अब मेरे सजदा और भी हैं
      वह समय गया, जैसे ही तुम्हें संग—साथ मिल जाता है उत्तम पुरुषों का।
      गए दिन कि तन्हा था मैं अंजुमन में
      अकेला था, वह समय गया।
      यहां अब मेरे सजदा और भी हैं
      अब मेरे रहस्य को, मेरे भेद को, मेरी खोज को बांटने वाले साझीदार भी हैं। बड़ा भरोसा पैदा होता है, जब तुम पाते हो कि और लोग भी उसी यात्रा पर निकले। अकेला पाकर अपने को हाथ—पैर कमजोर होने लगते हैं। अकेला पाकर और लंबाई मंजिल की देखकर भय पैदा होने लगता है, पूरी हो सकेगी? अकेला पाकर और शिखरों की दूरी देखकर अपने पैरों पर भरोसा नहीं आता कि इन छोटे—छोटे पैरों से, कमजोर पैरों से, वहां तक पहुंच पाएंगे?
      लेकिन एक लंबी कतार है। तुमसे आगे कोई, उससे भी आगे कोई, उससे भी आगे कोई, एक सिलसिला है। तब हजारों मील की यात्रा भी सुगम हो जाती है। क्योंकि तुम्हें हमेशा कोई न कोई आगे—उतना तो साफ है कि लोग पहुंच गए हैं; हम भी पहुंच सकते हैं।
      जो एक मनुष्य के लिए संभव है, वह दूसरे के लिए संभव हो जाता है। अगर परमात्मा एक आदमी को भी मिला है, तो करोड़ों लोगों के हृदयों में श्रद्धा पैदा हो जाती है कि मिल सकता है। अगर समाधि को एक ने भी पाया है, तो हजारों दिल धड़कनें लगते हैं आशा से—अब निराश होने की कोई बात नहीं।
      उनकी तलाश करना—कल्याण मित्रों की, सदगुरूओं की—जो तुम्हारे जीवन की अंतर दशा को बदलने में संगी—साथी हो जाते हैं। बदलते तो तुम्हीं हो, लेकिन उनकी मौजूदगी में भरोसा आ जाता है 1
      जैसे मां बैठी हो, तो छोटा बच्चा चलने की कोशिश करता है सुगमता से, डरता नहीं। देख लेता है लौट—लौटकर कि मां बैठी है, कोई फिक्र नहीं। गिरेगा भी तो भी उठा लिया जाएगा। कोई हाथ फैले हुए हैं पास। किसी के प्रेम ने साया दिया है। कोई छाया चारों तरफ से घेरे हुए है। तो दूर—दूर जाने की कोशिश भी करता है। आंगन के पार निकल जाता है। लौट—लौटकर देखता रहता है। देखा बच्चे को? लौटकर देख लेता है कि मां है या नहीं? एक चोरी—छिपे नजर डाल लेता है। अगर मां हट गई, रुक जाता है, वापस लौटने लगता है। तब आंगन के बाहर जाना खतरनाक है।
      तुमने देखा, छोटा बच्चा गिर जाए तो पहले देखता है कि मां है आसपास या नहीं; अगर मां हो तो रोता है, अगर मां न हो तो नहीं रोता। बड़ी हैरानी की बात है। इतना छोटा बच्चा, इतना गहरा गणित पहचान गया कि सार क्या है! रोना किसके लिए है? कौन बुझाएगा? कौन समझाएगा? कौन आकर सिर थपथपाएगा? यहां कोई भी नहीं है। इतनी भी आशा रखनी फिजूल है कि आंसू बहाओ। उठकर कपड़े झांड़कर।
छोटा बच्चा चोट से नहीं रोता, प्रेम के भरोसे से रोता है। चोट काफी नहीं है रुलाने को। अगर कोई सहानुभूति मिलने की संभावना ही न हो तो क्या सार!
      जैसे ही तुम अंतर्जगत के आकाश में यात्रा करते हो, फिर छोटे बच्चे हो गए। फिर कोई चाहिए, जिसकी हिम्मत के साथ तुम बढ़ सको। जो तुमसे कभी कह सके—
      बढ़ा दी इतना कहकर शमा ने परवानों की हिम्मत
      है जलना काम उनका जो हैं दिल वाले जिगर वाले
      इतनी बात भी कोई कह दे। शमा इतना ही कह दे, तो परवानों की हिम्मत जलने की हो जाती है।
      है जलना काम उनका जो हैं दिल वाले जिगर वाले
      कोई तुम्हारी पीठ ठोंक दे। कोई कहे कि ठीक, शाबाश! कोई कहे कि पहचान ली, तुम्हारे पैर में ताकत है; पहुंच जाओगे। कोई कहे कि इन्हीं घड़ियों से हम भी गुजरे थे। वे घड़िया गुजर गयीं, कठिन थे दिन, तुम्हारे भी गुजर जाएंगे।
      एक आस्था पैदा होती है। एक अनूठा बल पैदा होता है। किसी अनजाने मार्ग से शक्ति के स्रोत खुल जाते हैं।
      वे हैं अमीर निजामे—जहां बनाते हैं
      मैं हूं फकीर मिजाजे—जहां बदलता हूं
      नेता और गुरु का फर्क समझ लेना। नेता है वह, जो समाज की परिस्थितियां,
      देश की परिस्थितियां बदलने में लगा रहता है।
      वे हैं अमीर निजामे —जहां बनाते हैं
      मैं हूं फकीर मिजाजे—जहां बदलता हूं
      और सदगुरु है वह, जो तुम्हारे भीतर का मिजाज—बाहर का निजाम नहीं, भीतर का मिजाज, बाहर की परिस्थिति नहीं, भीतर की मनःस्थिति बदलता है।
      कल्याण मित्र वही है, जो तुम्हारे भीतर की मनःस्थिति को बदलने में सहयोगी हो जाता है। और यह तभी संभव है, जब वह तुमसे ऊपर हो, उत्तम पुरुष हो। यह तभी संभव है, जब वह तुमसे आगे गया हो। जो तुमसे आगे नहीं गया है, वह तुम्हें कहीं ले जा न सकेगा। आगे ले जाने की बातें भी करे तो तुम्हें नीचे ले जाएगा।
      इसलिए सजग रहना; क्योंकि आगे ले जाने की बातें करने वाले बहुत लोग मिलेंगे। लेकिन ध्यान रखना कि आगे तुम जा रहे हो? चलना संग—साथ उनके, क्योंकि और कोई परीक्षा भी नहीं है, लेकिन कसौटी करते रहना : शात हो रहे हो पहले से? मौन हो रहे हो पहले से प जीवन में उत्सव की किरण आ रही है? अंधेरा थोड़ा कम मालूम पड़ता है पहले से? दीए की लौ थोड़ी थिर होती, स्थिर होती, मालूम होती है पहले से? प्रेम बढ़ रहा है? जीवन में थोड़ी गुनगुनाहट आ रही है? गा सकते हो? नाच सकते हो? अगर यह बढ़ती हो रही हो, उत्सव की बढ़ती हो रही हो, तो समझना कि आगे जा रहे हो।
      अगर जीवन में उदासी बढ़ रही हो, विपन्नता आ रही हो, धीरे—धीरे जीवन एक अंधेरी रात की तरह मालूम पड़ रहा हो तो भाग खड़े होना।
      मैं बहुतों को वहां उलझे देखता हूं इसलिए कह रहा हूं। धर्म के नाम पर उदासी बढ़ाई जाती है। परमात्मा अगर कुछ है तो उत्सव है। चारों तरफ देखो—फूलों में, वृक्षों में, आकाशों में। परमात्मा अगर कुछ है तो उत्सव है, सतत उत्सव है। महोत्सव है। एक क्षण को भी उत्सव ठहरता नहीं। यह नाच चलता ही रहता है। ये झरने बहते ही रहते हैं। ये फूल खिलते ही रहते हैं। जरा गौर से देखो, कहीं तुम्हें उदासी दिखाई पड़ती है? कहीं तुम्हें उदासीनता दिखाई पड़ती है? कहीं तुम्हें इस जीवन के विराट में, कहीं जरा सा भी कोना ऐसा मालूम पड़ता है, जहां तुम्हारे तथाकथित विरक्त और त्यागियों से कोई तालमेल बैठ जाए?
      कहीं चूक हो रही है। जिसे वे ऊपर जाना समझ रहे हैं, वह ऊपर जाना नहीं है, वे पत्थर होकर और नीचे उतरे जा रहे हैं। और कठोर होते जा रहे हैं, संवेदनशीलता बढ़ी नहीं, घट गई है। सौंदर्य का बोध बढा नहीं, नष्ट हो गया है। प्रेम फैला नहीं, बिलकुल सिकुड़ गया है। सिकुड़ा हुआ प्रेम, मरी हुई संवेदनाएं, थकी—थकी सांसें, उदास पथरीलापन!
तो तुम जिनको सोच रहे हो गुरु हैं, वे गुरु नहीं हैं। वे तुम्हें और अंधेरी घाटियों में ले जा रहे हैं। वे तुम्हें कब में ही उतारकर रहेंगे। मंदिर की तरफ यह यात्रा नहीं है।
      'धर्म रस का पान करने वाला प्रसन्नचित्त से सुखपूर्वक सोता है।'
यह कसौटी है।
      'धर्म रस का पान करने वाला प्रसन्नचित्त से सुखपूर्वक सोता है। '
      धर्म रस—उस छोटे से शब्द में सब कह दिया। धर्म रस है। रसो वै सः। परमात्मा रस है।
      तन भीगा मन भीगा कण—कण तृण—तृण भीगा
      देहरी द्वारा आंगन उपवन त्रिभुवन भीगा
      रस है परमात्मा। भिगा दे, डुबा दे, रोआं—रोआं पुलकित हो जाए।
      ठीक कहा बुद्ध ने, 'धर्म रस का पान करने वाला प्रसन्नचित्त से...।'
      उसके जीवन में तुम प्रफुल्लता पाओगे; प्रसन्नचित्तता पाओगे। उसकी गुनगुनाहट तुम्हें उसके पास जाते ही सुनाई पड़ेगी। तुम उसके पास किन्हीं अनूठी ऊर्जाओं का नृत्य देखोगे। तुम उसके आभा—मंडल में अंधेरा नहीं पाओगे, आकाश का विस्तार, सूर्य की किरणें पाओगे। इससे ही पहचान करना। रस जहां बंटता हो, जहां रस की मधुशाला खुली हो, वहीं।
      जहां मधु न बंटता हो, जहा रस न बंटता हो, वहां धर्म के नाम पर कुछ धोखा हो रहा होगा। वह मरे, मुर्दा लोगों की जमात होगी। वह हारे हुए थके हुए लोगों की जमात होगी। कहते हैं, हारे को हरिनाम। हार गए, अब कुछ न बचा, हरिनाम करने लगे। जिंदगी में पराजित हो गए कहीं पहुंच न पाए, लड़खड़ा गए। अब क्या करें? राम नाम चदरिया ओढ़ ली। बैठ गए उदास होकर।
      परमात्मा उदास नहीं है। तुमने गौर किया? परमात्मा त्यागी ही नहीं है, महाभोगी है। नहीं तो कभी का सृष्टि—क्रम बंद हो जाए। बुद्ध परमात्मा की बात नहीं करते, जरूरत नहीं है। बुद्ध के लिए धर्म रस ही परमात्मा का प्रतीक है।
      'धर्म रस का पान करने वाला प्रसन्नचित्त से सुखपूर्वक सोता है। '
      उसकी तंद्रा स्वप्न—रहित है। उसका जागरण विचार—शून्य है। रस ही रस है।
      तन भीगा मन भीगा कण—क्या तृण—तृण भीगा
      देहरी द्वारा अपान उपवन त्रिभुवन भीगा
      सब भीगा है रस से।
      'पंडित सदा आयोंपदिष्ट धर्म में रमण करता है। '
      आर्य शब्द को समझना जरूरी है। आर्य शब्द का अर्थ होता है : श्रेष्ठ। इससे आर्यों से कोई संबंध नहीं है; जाति सूचक नहीं है। बुद्ध ने कहा है, आर्य वही है, जो ऊपर की तरफ जा रहा है। ऊर्ध्वगामी ऊर्जा आर्य है।
      'पंडित सदा आयोंपदिष्ट धर्म में रमण करता है। '
      ऊपर जाने वालों की जो जमात है, समझदार उसके साथ हो लेता है। आर्यों के साथ हो लेता है। उत्तम पुरुषों के साथ हो लेता है। उसी में रमण करता है। और जो ऊंचा ले जाता है, वही भीतर ले जाता है। जो भीतर ले जाता है, वही ऊंचा ले जाता है। ऊंचाई और गहराई स्वयं में एक ही बात के नाम हैं।
      इसे थोड़ा समझना। संसार की गहराई से तो धर्म की ऊंचाई विपरीत है, लेकिन धर्म की ऊंचाई स्वयं की गहराई से पर्यायवाची है। जितने तुम भीतर जाओगे, उतने ऊपर गए; संसार से ऊपर गए। जितने संसार में तुम नीचे जाओगे, उतने अपने से बाहर गए।
संसार में जाना, अपने से बाहर जाना—एक ही बात है। परमात्मा में जाना, अपने भीतर जाना—एक ही बात है। जिस दिन तुम अपने अंतरतम में पहुंच जाते हो, उस दिन तुम कैलाश के शिखर पर विराजमान हो गए। संसार चारों तरफ चलता ही रहता है, लेकिन तुम्हारी लौ अकंपित हो जाती है। तुम अपने भीतर उस अंतर्गृह में पहुंच गए, जहां कोई लहर नहीं पहुंचती।
      मैं अकंपित दीप प्राणों का लिए
      यह तिमिर तूफान मेरा क्या करेगा
      जब तुम्हारी लौ थिर हो जाती है, तब कोई तूफान तुम्हें डिगाता नहीं। अभी तुम कहते हो, तूफान डिगाता है। वह सिर्फ बहाना है। तूफान नहीं डिगाता, तुम डिगते हो। तूफान तो सिर्फ बहाना है। जब तुम अडिग हो जाते हो, कोई तूफान नहीं डिगाता। तुमने कभी खयाल किया, छोटे—मोटे दीए को, अंधड़ आता है, बुझा जाता है। लेकिन बड़ी अग्नि लगी हो पहाड़ों पर, बड़ी अग्नि लगी हो नगर में तो छोटे दीयों को हवा के झोंके बुझा जाते हैं, बड़ी अग्नि को बढ़ाने लगते हैं। रूपांतरण हो गया। छोटा दीया कहेगा, हवा ने बुझाया; बड़ी अग्नि कहेगी, हवा ने बढ़ाया। किसका भरोसा करोगे?
      तुम बुझ जाते हो जरा से तूफान में, क्योंकि बड़ा छोटा दीया है चैतन्य का। जरा चैतन्य की आग तुम्हारे जीवन में फैले। यही हवाएं, यही तूफान फिर तुम्हें मिटाते नहीं; तुम्हें भरने लगते हैं। तुम्हें पोषण देने लगते हैं।
      मैं अकंपित दीप प्राणों का लिए
      यह तिमिर तूफान मेरा क्या करेगा
      'लहर बनाने वाले पानी को मोड़ते हैं। वाणकार वाण को सीधा करते हैं। बढ़ई लकड़ी को ठीक करते हैं। और पंडित जन अपने को ही नियंत्रित करते हैं। '
      दुनिया में और सब कलाएं बाहर हैं। मूर्तिकार मूर्ति बनाता है, चित्रकार चित्र बनाता है, गीतकार गीत बनाता है। लेकिन बुद्ध कहते हैं, असली शानी अपने को बनाता है। मूर्ति को नहीं गढ़ता, अपने को गढ़ता है। चित्र को नहीं रंगता, अपने को रंगता है। गीत को नहीं सजाता, अपने को सजाता है। अपने सौंदर्य को निखारता है। बड़े से बड़ा स्रष्टा वही है, जो अपने को सृजन दे देता है; जो अपने को नया जन्म दे देता है।
      जिंदगी कुछ और शै है इल्म है कुछ और शै
      जिंदगी सोजे—जिगर है इल्म है सोजे—दिमाग
      इल्म में दौलत भी है कुदरत भी है लज्जत भी है
      एक मुश्किल है कि हाथ आता नहीं अपना सुराग
      तो एक तो ज्ञान है, जिससे बाहर की चीजें जानी जाती हैं—कहें विज्ञान।
      जिंदगी कुछ और शै है इल्म है कुछ और शै
      यह ज्ञान कुछ और बात है। और जिंदगी तो भीतर है। ज्ञान बाहर—बाहर है। ये दोनों कुछ अलग आयाम हैं।
      जिंदगी सोजे—जिगर है
      जिंदगी तो हृदय की बात है।
      इल्म है सोजे—दिमाग
      और ज्ञान तो बुद्धि की बात है। ज्ञान तो सिर को छूता है, बस। तुम्हें नहीं डुबाता, तुम्हें नहीं छूता। ज्ञान से तुम और सब जान लेते हो, सिर्फ स्वयं अनजाने रह जाते हो। ऐसे जानने का भी क्या सार, जिसमें भीतर अंधेरा रह जाए और बाहर रोशनी हो जाए? ऐसे जानने से भी क्या फायदा, जिससे हम सब तो जान लें और वही अनजाना रह जाए, जो सब जान रहा है।
      इल्म में दौलत भी है कुदरत भी है लज्जत भी है
      सब कुछ है जान में; सिर्फ एक कठिनाई है—
      एक मुश्किल है कि हाथ आता नहीं अपना सुराग
      अपना पता नहीं चलता।
      बुद्ध कहते हैं, और अपना पता न चले, तो तुम पंडित नहीं। तो तुमने ज्ञान में व्यर्थ ही अपने को गंवा दिया। यह ज्ञान दो कौड़ी का है।
      जो अपने को जान ले, वही समझदार है। और जैसे ही तुम अपने को जानते हो—जैसे ही—वैसे ही तुम पाते हो, तुम सीमित नहीं हो, तुम असीम हो। जब तक नहीं जाना, तभी तक सीमा है। अज्ञान की सीमा है, जान की कोई सीमा नहीं। जब तक नहीं जाना, तभी तक कूल—किनारे हैं। जब जाना, तो सागर ही सागर है।
      जैसे फूल है, फूल की तो सीमा है, लेकिन गंध की? गंध मुक्त हो जाती है, उड़ जाती है आकाशों में। कहीं कोई सीमा नहीं है।
      फूल डाली से गुंथा ही रह गया
      घूम आई गंध पर संसार में
      व्यक्ति है सीमित मगर व्यक्तित्व का
      चिर असीमित चिर अबाधित है प्रसार
      फूल डाली से गुंथा ही रह गया
      घूम आई गंध पर संसार में
      उस गंध को ही आत्मा कहते हैं। बुद्ध ने उस गंध को अनत्ता कहा है, अनात्मा कहा है।
      शब्द से बहुत परेशान मत हो जाना। उपनिषद उसी गंध को आत्मा कहते हैं। वे कहते हैं, वही तुम्हारा वास्तविक होना है। और बुद्ध कहते हैं उसे अनात्मा, अनत्ता। क्योंकि वे कहते हैं, वहां तुम्हारा मैं जैसा कोई भाव नहीं; उसको आत्मा कैसे कहें? होना तो है वहा, मैं नहीं है।
      बुद्ध की बात उपनिषद से भी गहरी जाती मालूम पड़ती है। उपनिषद के आगे एक और कदम। आत्मा में थोड़ा अहंकार मालूम पड़ता है—मैं। बुद्ध कहते हैं, उसे भी जाने दो, वह भी सीमा बन जाएगी। जहा तक मैं है, वहां तक तू भी रहेगा।
      फूल डाली से गुंथा ही रह गया
      घूम आई गंध पर संसार में
      तुम गंध जैसे हो जाओ, फूल जैसे नहीं।
      समझ गंध है। फिर न शरीर बांधता, न मन बांधता। समझ मन और शरीर दोनों के पार है। समझ साक्षी भाव है।

आज इतना ही।


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