पहला
प्रश्न:
भगवान
बुद्ध का
मार्ग संदेह
के स्वीकार से
शुरू होता है।
क्या उनका बग
भी आज के युग
जैसा ही
बुद्धिवादी
था, संदेहवादी
था? और
क्या आज के
समय में
धम्मपद सबसे
ज्यादा प्रासांगिक
है?
नहीं——बुद्ध
का युग तो बुद्धिवादी
नहीं था; न
ही संदेहवादी
था। बुद्ध
अपने समय से
बहुत पहले
पैदा हुए थे। अब
ठीक समय था
बुद्ध के लिए—पच्चीस
सौ साल बाद।
बुद्ध
जैसे व्यक्ति
सदा ही अपने
समय के पहले होते
हैं। जमाने को
बड़ी देर लगती
है उस जगह
पहुंचने में, जो
बुद्ध
पुरुषों को
पहले दिखाई पड़
जाता है। बुद्धत्व
का अर्थ है
देखने की
ऊंचाइयां। जैसे
कोई पहाड़ पर
चढ़कर देखे, दूर सैकड़ों
मील तक दिखाई
पड़ता है। और
जैसे कोई जमीन
पर खड़े होकर
देखे तो थोड़ी
ही दूर तक आंख
जाती है।
बुद्ध
पुरुष सदा ही
अपने समय के
पहले होते हैं।
और इसलिए
बुद्ध
पुरुषों को सदा
ही उनका समय, उनका
युग इंकार
करता है, अस्वीकार
करता है। बुद्ध
ने जो बातें
कहीं हैं, अभी
भी उनके लिए
पूरा—पूरा समय
नहीं आया। कुछ
आया है अभी भी
पूरा नहीं आया।
समझने
की कोशिश करें।
बुद्ध
ने एक ऐसे
धर्म को जन्म
दिया, जिसमें
ईश्वर की कोई
जगह नहीं है। एक
ऐसी
प्रार्थना
सिखाई, जिसमें
परमात्मा का
कोई स्थान
नहीं। अड़चन है—आज
भी अड़चन है। आज
भी तुम बिना
परमात्मा के
प्रार्थना
कैसे करोगे? आज भी
तुम्हें
कठिनाई होगी। प्रार्थना
बिना
परमात्मा के
होगी कैसे? तुम वस्तु
में आधार
खोजते हो, बाहर
सहारा खोजते
हो। परमात्मा
भी बाहर ही
तुम कल्पित
करते हो।
तुम्हें
प्रार्थना भी
करनी हो
प्रार्थना तो भीतर
की भावदशा है।
उसके लिए भी
बाहर कोई
निमित्त
चाहिए!
बुद्ध
ने सब निमित्त
छुड़ा लिए। बुद्ध
ने कहा, प्रार्थना
पर्याप्त है,
परमात्मा
की कोई जरूरत
नहीं। अभी भी
देर है मनुष्य
के इतने धार्मिक
होने में, जहां
प्रार्थना
परमात्मा के
बिना
पर्याप्त होगी।
इसका अर्थ हुआ
कि मनुष्य
परिपूर्ण रूप
से अंतर्मुखी
हो। यह
परमात्मा की
बात भी बाहर
देखने की ही
बात है। जब भी
तुम परमात्मा
शब्द का उपयोग
करते हो, तब
तुम्हारी आंख
बाहर गई। यहां
तुमने कहा
परमात्मा, वहा
मंदिर बने। यहां
तुमने कहा
परमात्मा, वहा
प्रतिमा बनी। इधर
तुम्हारे मन
में परमात्मा
का खयाल आया
कि कहीं आकाश
में तुम्हारी आंख
उसे खोजने लगी।
कहा परमात्मा,
और
परमात्मा एक
व्यक्ति हो
गया—स्रष्टा,
पृथ्वी को,
जगत को
बनाने वाला हो
गया। फिर तुम
झुकते हो।
तुम
किसी के सामने
झुकते हो। तुम्हारा
झुकना शुद्ध
नहीं। तुम
मजबूरी में
झुकते हो। झुकना
तुम्हारा
आनंद नहीं। तुम
कारण से झुकते
हो,
अकारण नहीं।
बुद्ध
ने कहा, प्रार्थना
पर्याप्त है। प्रतिमा
की कोई जरूरत
नहीं। झुकना
इतना आनंदपूर्ण
है कि किसी के
सामने झुकने
का बहाना भी
क्यों खोजना?
इसे
थोड़ा समझो। कठिन
है,
बड़ी दूर की
बात है। अभी
भी युग आया
हुआ नहीं
मालूम होता। रोज
किताबें
बुद्ध पर लिखी
जाती हैं। करीब—करीब
सभी किताबें
जो बुद्ध पर
लिखी जाती हैं,
वे यही
परेशानी
अनुभव करते
हैं लेखक उनके,
कि धर्म और
बिना ईश्वर के?
तो फिर
नास्तिकता
क्या है?
बुद्ध
ने एक ऐसा
धर्म दिया, जिसमें
नास्तिक होकर
भी तुम
धार्मिक हो
सकते हो। आस्तिकता
को शर्त न
बनाया। बेशर्त
धर्म दिया। आस्तिकता
में तो सीमा
बन जाती है कि
केवल वे ही
बुलाए जाएंगे,
जो मानते
हैं। बुद्ध ने
कहा, मानने
या न मानने का
कोई सवाल नहीं
है। जो झुकने
को तैयार हैं,
वे बुला ही
लिए गए।
और
झुकने का कोई
संबंध किसी के
सामने झुकने
से नहीं है। यह
हमारी आदत गलत
है। यह सोचने
का ढंग गलत है।
क्या तुम
अकारण नहीं
झुक सकते? क्या
झुकना अपने आप
में अपना अंत
नहीं हो सकता?
साधन न हो, साध्य हो? मार्ग न हो, मंजिल हो? नारद ने
जैसे कहा है, भक्ति
फलरूपा है, क्या झुकना
अपने आप में
सांध्यरूप
नहीं हो सकता किसी
के सामने।
बुद्ध
कहते हैं, कोई
सामने होगा तो
तुम पूरे झुक
ही कैसे पाओगे?
अड़चन पड़ेगी।
किसी की
मौजूदगी बाधा
डालेगी। तुम
पूरे मुक्त न
हो पाओगे। दूसरे
की मौजूदगी
सीमा बनाएगी। कटघरा
खड़ा करेगी। दूसरा
देखता है। बुद्ध
ने कहा, अगर
परमात्मा है
तो मनुष्य कभी
स्वतंत्र न हो
पाएगा। मोक्ष
कैसे होगा? दूसरा बना
ही रहेगा बना
ही रहेगा। दूसरा
देखता ही
रहेगा। उसकी आंखें,
टकटकी तुम
पर लगी ही
रहेगी। तुम
कभी खुलकर सहज
न हो पाओगे।
बुद्ध
ने एक धर्म
दिया, जो
परमात्मा से
मुक्त है। बुद्ध
ने एक मोक्ष
दिया, जिसमें
परमात्मा की
कोई आवश्यकता
नहीं। इतनी
ऊंचाई पर कोई
धर्म कभी नहीं
पहुंचा। थोड़ा
सोचो तो! धर्म
की इतनी ऊंचाई,
कि
परमात्मा भी
अनावश्यक हो
जाए। प्रार्थना
की इतनी
बुलंदी कि
परमात्मा भी
आवश्यक न रह
जाए। झुकना
अपने आप में
इतना
परिपूर्ण
आनंद है कि इसे
दूसरे के
सहारे की
जरूरत नहीं। सहज—स्फूर्त!
आत्म—भाव!
लेकिन
अगर यहीं तक
बात होती, तो
इतनी बात तो
महावीर ने भी
कर दी थी। बुद्ध
की कुछ
विशेषता न थी।
और महावीर
बुद्ध से कुछ
वर्ष पहले, उम्र में
बुजुर्ग थे। वे
कोई तीस—चालीस
साल बड़े थे। यह
बात तो महावीर
ने कह दी थी। और
महावीर ने कोई
नई बात न कही
थी। जैन
परंपरा में
महावीर के
पहले तेईस
तीर्थंकर और
हो चुके थे। बड़ी
पुरानी
परंपरा थी
ईश्वर—रहित
धर्म की भी। छोटी
धारा थी; जैन
कभी बड़े
विस्तार रूप
में नहीं फैल
पाए—फैल नहीं
सकते। उनका भी
ठीक समय नहीं
आया। उनकी भी
बात बड़ी समय
के पहले हो गई।
क्षीण धारा
रही, लेकिन
थी। यह कोई नई
बात न थी।
अगर
बुद्ध ने इतना
ही कहा होता
तो बुद्ध भी
जैन धारा के
एक अंग हो
जाते। लेकिन
बुद्ध ने
बुलंदी और भी
ऊंची ली। बुद्ध
ने पंख और भी
बड़े आकाश की
तरफ उठाए। और
बुद्ध ने ऐसी
बात कही, जिसको
समझना तो दूर,
कोई कहेगा
इस पर भी
भरोसा नहीं
आता।
बुद्ध
ने कहा, आत्मा
भी नहीं है। परमात्मा
तो है ही नहीं।
जिसकी तुम
प्रार्थना करो
वह तो है ही
नहीं, जो
प्रार्थना
करता है, वह
भी नहीं है; सिर्फ
प्रार्थना ही
है। तुम प्रेम
करो वह तो है
ही नहीं, जो
प्रेम करता है
वह भी नहीं है।
प्रेम—पात्र
भी नहीं है, प्रेमी भी
नहीं है। ध्यान
का विषय भी
नहीं है और
ध्यानी भी
नहीं है। बस, ध्यान है। दोनों
किनारे नहीं
हैं। द्वैत
बिलकुल नहीं
है। द्वंद्व
बिलकुल नहीं
हैं। बुद्ध ने
कहा, शून्य
है। न
परमात्मा है,
न प्रार्थी
है। परमात्मा
के कारण बाधा
पड़ती है। और
तम परमात्मा
को तब तक न छोड़
पाओगे, जब
तक तुम हो। तुम्हारे
कारण भी बाधा
पड़ती है। अब
इसे हम समझें।
जब
तक तुम हो, तब
तक तुम यह न
मान पाओगे कि
परमात्मा
नहीं है। तुम्हारे
होने की धारणा
में ही
परमात्मा के होने
की धारणा का
बीजारोपण है। मैं
हूं तो तू भी
होगा। इस
विराट तू का
नाम ही
परमात्मा है। अगर
तू नहीं है तो
मैं कैसे हो
सकता हूं? मैं
और तू साथ—साथ
ही सार्थक हैं;
अलग—अलग
व्यर्थ हो
जाते हैं।
तो
बुद्ध ने पहले
तो कहा, परमात्मा
नहीं है। वहां
तक महावीर का
संग—साथ रहा। इसलिए
जैन बुद्ध को
महात्मा कहते
हैं, भगवान
नहीं। आदमी
भला है, थोड़ी
दूर तक गया है।
महात्मा है, भगवान नहीं
है। अभी पूरा
नहीं पहुंचा
है। आधी बात
तक तो साथ गया
है, फिर
इसका मार्ग
अलग हो गया है।
फिर इसने तो
जड़ ही तोड़ दी। परमात्मा
नहीं था यह तो
कहा ही; आत्मा
भी नहीं है.!
इसने होने की
धारणा ही बदल
दी। इसने होने
की सब सीमाएं
उखाड़ दीं।
बड़ी
अड़चन होती है
बुद्धि को। कुछ
भी नहीं है तो
फिर इतना सब
है और इस सब के
नीचे कुछ भी
नहीं है; और
बुद्ध कहते
हैं, यह सब
जो है, इस
सब के भीतर
कहीं भी कोई
सीमा नहीं है।
यह विराट है, लेकिन यह
विराट कहीं भी
बँटा हुआ, कटा
हुआ नहीं है। न
मैं में बंटा
है, न तू
में बंटा है। अविच्छिन्न
है यह धारा। इसमें
आत्मा कहीं भी
नहीं है। इसमें
कहीं भी मैं
कहने की
गुंजाइश नहीं
है। जहां मैं
कहा, वहीं
असत्य हुआ।
और
ये जो बातें
बुद्ध ने कहीं, ये
कोई दार्शनिक
की बातें न
थीं, एक
अनुभव सिद्ध
पुरुष के वचन
थे। तुम भी जब
गहरे ध्यान
में जाओगे तो
न परमात्मा को
पाओगे, न
स्वयं को
पाओगे। अस्तित्व
होगा
निर्विकार, जिस पर कोई
सीमा न होगी, कोई सरहद न
होगी। अस्तित्व
होगा
निर्विकार, जैसे कोरा
आकाश! बदलियों
के रूप भी न
होंगे। इस परम
शून्य को
बुद्ध ने
निर्वाण कहा।
संदेह
से शुरू की
यात्रा और
शून्य पर
पूर्ण की। संदेह
और शून्य के
बीच में बुद्ध
का सारा बोध है।
अभी भी समय
नहीं आया। संदेह
को धर्म का
आधार बनाया और
शून्य को धर्म
की उपलब्धि। बाकी
सारे धर्म
विश्वास को
आधार बनाते
हैं और पूर्ण
को उपलब्धि। यह
तो बिलकुल
उलटा हो गया। नाव
उलटा दी। इतने
उलटे धर्म को
समझने के लिए
बड़ी गहन प्रज्ञा
चाहिए। सीधा—सीधा
धर्म समझ में
नहीं आता, जहां
विश्वास से
शुरुआत होती
है और जहां
पूर्ण पर अंत
होता है। सीधा—सीधा
धर्म भी समझ
से छूट—छूट
जाता है। जो
तुमसे ज्यादा
मांग भी नहीं
करता। कहता है,
सिर्फ
श्रद्धा करो। वह
भी नहीं हो
पाता। हम ऐसे
अभागे! उतना
भी नहीं सधता।
श्रद्धा ही
करने को कहता
है साधारण
धर्म, मान
लो। खोज की
बात ही नहीं
कहता।
बुद्ध
कहते हैं, मानने
से न चलेगा। बड़ी
खोज करनी
पड़ेगी। पहले
कदम के पहले
भी बडी यात्रा
है। साधारण
धर्म कहता है,
पहला कदम बस
तुम्हारे
भरोसे की बात
है; उठा लो।
इससे ज्यादा
कुछ करना नहीं।
तुमसे ज्यादा
मांग नहीं
करता।
लेकिन
बुद्ध का धर्म
तो तुमसे पहले
कदम पर पहुंचने
के लिए भी बड़ी
लंबी यात्रा
की मांग करता
है। वह कहता
है,
संदेह की
प्रगाढ़ अग्नि
में जलना होगा;
क्योंकि
तुम जो भरोसा
करोगे वह
तुम्हीं करोगे
न! तुम जो
भरोसा करोगे,
वह
तुम्हारी
बूद्धि ही
करेगी न!
तुम्हारी बुद्धि
अगर बाधा है
तो तुम्हारी
बुद्धि से आया
भरोसा सीढ़ी
कैसे बनेगा? तुम्हारी
बुद्धि में ही
अगर रोग है तो
उस रोग से
जन्मा हुआ
विश्वास भी
बीमारी ही
होगा।
इसलिए
तो सारी
दुनिया पर
मंदिर हैं, मस्जिद
हैं, गुरुद्वारे
हैं—इतना
विश्वास फैला
हुआ है, लेकिन
कहीं खबर
मिलती धर्म की?
कहीं सुगंध
उठती धर्म की?
कहीं दीए
जलते धर्म के?
गहन अंधकार
है। कहीं कोई
चिराग नहीं। मंदिर
अंधेरे पड़े है।
मंदिर अंधेरे
ही नहीं पड़े
हैं, अंधेरे
के सुरक्षा—स्थल
बन गए हैं। मस्जिदों
में अंधेरा
शरण पा रहा है।
आस्था के नाम
पर सब तरह के
पाप पलते हैं।
विश्वास के
नीचे सब तरह
का झूठ चलता
है। धर्म
पाखंड है, क्योंकि
शुरुआत में ही
चूक हो जाती
है। पहले कदम
पर ही तुम
कमजोर पड़ जाते
हो। पहले कदम
पर ही साहस से
खोज नहीं करते।
तुम्हारा
विश्वास
तुम्हारा ही
होगा। तुम्हारा
विश्वास
तुम्हें
तुमसे पार न
ले जा सकेगा।
इसलिए
बुद्ध ने कहा, तोड़ो
विश्वास, छोड़ो
विश्वास। सब
धारणाएं गिरा
देनी तै। संदेह
की अग्नि में
उतरना है। दुस्साहसी
चाहिए, खोजी
चाहिए, अन्वेषक
चाहिए—अभियान
पर जाने की
जिनकी क्षमता
हो, चुनौती
स्वीकार करने
का जिनके भीतर
साहस हो।
और
बुद्ध कहते
हैं,
आश्वासन
कोई भी नहीं
है। क्योंकि
कौन तुम्हें
आश्वासन दे ' यहां कोई भी
नहीं है जो
तुम्हारा हाथ
पकड़े। अकेले
ही जाना है। मरते
वक्त भी बुद्ध
ने कहा, अप्प
दीपो भव। अपने
दीए बनो। मैं
मरा तो रोओ मत।
मैं कौन हूं? ज्यादा से
ज्यादा इशारा'
कर सकता था।
चलना तुम्हें
था। मैं रहूं
तो तुम्हें
चलना है, मै'
जाऊं तो
तुम्हें चलना
है। मेरे ऊपर
झुको मत। मेरा
सहारा मत लो। क्योंकि
सब सहारे
अंततः
तुम्हें
लंगड़ा बना देते
हैं। सब सहारे
अंततः
तुम्हें अंधा
बना देते हैं।
सहारे धीरे—धीरे
तुम्हें
कमजोर कर जाते
हैं। बैसाखियां
धीरे—धीरे
तुम्हारे
पैरों की परिपूर्ति
हो जाती हैं। फिर
तुम पैरों की
फिक्र ही छोड़
देते हो।
बुद्ध
ने कहा, संदेह
करो। बुद्ध का
धर्म
वैज्ञानिक है।
संदेह
विज्ञान का
प्राथमिक चरण
है।
इसलिए
भविष्य में
जैसे—जैसे
लोकमानस
वैज्ञानिक
होता जाएगा, वैसे—वैसे
समय बुद्ध के
अनुकूल होता
जाएगा। जैसे—जैसे
वैज्ञानिक
चित्त का
विस्तार होगा,
जैसे—जैसे
लोग सोचने और
विचारने की
गहनता में
उतरेंगे और उधार
और बासे
विश्वास न
करेंगे, हर
किसी की बात
मान लेने को
राजी न होंगे,
बगावत
बढ़ेगी, लोग
हिम्मती
होंगे, विद्रोही
होंगे, वैसे—वैसे
बुद्ध की बात
लोगों के करीब
आने लगेगी।
पश्चिम
में आज जितना
बुद्ध का आदर
है,
किसी और का
नहीं। जीसस का
भी नहीं। साधारण
आदमियों की
बात छोड़ दें, लेकिन
पश्चिम में जो
भी विचारक हैं,
चिंतक हैं,
वैज्ञानिक
हैं, उनके
मन में बुद्ध
का आदर रोज
बढ़ता जाता है।
बाकी लोगों के
आदर रोज कम
होते जाते हैं।
बाकी लोग
हारती बाजी लड़
रहे हैं; बुद्ध
बिना लड़े
जीतते चले
जाते हैं। क्योंकि
जो बड़ी बात
बुद्ध ने कही,
वह यह है, कि हम तुमसे
मानने को नहीं
कहते, खोजने
को कहते हैं। यह
सूत्र है
विज्ञान का। जब
खोज लेंगे तो
मानेंगे। बिना
खोजे कैसे मान
लेंगे?
किसी
दूसरे के बताए
कहीं सत्य
मिला है? सत्य
इतना सस्ता
नहीं है। सत्य
कोई संपत्ति
नहीं है कि
पिता मरे और
बेटे के नाम वसीयत
कर जाए। न ही
सत्य कोई
प्रसाद है कि
गुरु अनुकंपा
करे और दे दे। देने—लेने
की बात ही
नहीं; खोजना
पड़ेगा। कंटकाकीर्ण
मार्गों पर
चलना पड़ेगा। लहूलुहान,
थके—हारे
पहुंच जाओ, सौभाग्य!
जरूरी नहीं है
कि पहुंच ही
जाओ। क्योंकि
भटकाव बहुत
हैं खाई—खड्ड
बहुत हैं, भ्रम—जाल
बहुत हैं, माया—मरीचिकाएं
बहुत हैं, कहीं
भी खो जा सकते
हो।
और
तुम्हारे
भीतर भी
कमजोरियां
बहुत है। थक
जाओ तो कहीं
भी भरोसा करके
रुक सकते हो। किसी
भी मंदिर के
सामने, किसी
भी मस्जिद के
सामने पस्त
हिम्मत, थके—हारे
सिर झुका सकते
हो। इसलिए
नहीं कि
तुम्हें कोई
जगह मिल गई, जहां सिर
झुकाने का
मुकाम आ गया
था, बस
सिर्फ इसलिए
कि अब तुम थक
गए; अब और
नहीं खोजा
जाता। तुम
खयाल करना, तुम्हारे
झुकने में
कहीं पस्त—हिम्मती
तो नहीं है!
कहीं सिर्फ
हार गए पराजित
हो गए, ऐसा
तो नहीं है? हारे को हरि
नाम—कही ऐसा
तो नहीं है? कि हार गए, अब करें
क्या, तो
हरिनाम जपने
लगे। कहीं ऐसा
तो नहीं है कि
धर्म
तुम्हारी
मजबूरी है, असहाय
अवस्था है?
बुद्ध
तुम्हें कोई
जगह नहीं देते।
तुम्हारी
कमजोरी के लिए
वहा कोई जगह
नहीं है। बुद्ध
कहते हैं, ज्ञान
तो मिलता है
आत्म—परिष्कार
से, शास्त्र
से नहीं। सत्य
कोई धारणा
नहीं है। सत्य
कोई सिद्धात
नहीं है। सत्य
तो जीवन का
निखार है। सत्य
तो ऐसा है, जैसे
सोने को कोई
आग में डालता
है तो निखरता
है; जलता
है, पिघलता
है, तड़फता
है, निखरता
है। व्यर्थ जल
जाता है, सार्थक
बचता है। सत्य
तो तुममें है,
कूड़े—करकट
में दबा है। और
जब तक तुम आग
से न गुजरो, तुम उस सत्य
को कैसे खोज
पाओगे?
जल्दी
मत करना—बुद्ध
कहते हैं—भरोसा
कर लेने की। भरोसा
तभी करना, जब
संदेह करने की
जगह ही न रह
जाए।
इस
फर्क को खयाल
में लो। दूसरे
धर्म कहते हैं, भरोसा
कर लो संदेह
के विपरीत। संदेह
को ओझल कर दो आंख
से। उपेक्षा
कर दो। संदेह
है माना, तुम
भरोसा कर लो। संदेह
को दबा दो
भरोसे की राख
में। संदेह को
भूल जाओ भरोसे
की आडू में। भरोसे
की छाया में
टिक जाओ। ढांक
लो अपना सिर, जैसे
शुतुर्मुर्ग दुश्मन
को देखकर रेत
में सिर छूपा
लेता है। ऐसे
चारों तरफ
संदेह ने
तुम्हें घेरा
है। तुम अपने
सिर को आस्था
के रेत में
दबा लो। भूल
जाओ। देखो ही
मत आंख खोलकर
क्योंकि आंख
खोलकर। देखोगे
तो संदेह
उठेंगे।
और
धर्म कहते हैं
कि श्रद्धा कर
लो संदेह के विपरीत।
बुद्ध कहते
हैं,
संदेह कर लो।
पूरी तरह कर
लो। इतना कर
लो कि संदेह
गिर जाए और
श्रद्धा का आविर्भाव
हो। वह बड़ी
अलग बात है। वह
बिलकुल ही अलग
बात है। और
धर्मों की
श्रद्धा
संदेह के
विपरीत है। बुद्ध
की श्रद्धा
संदेह का अभाव
है। जब संदेह
नहीं बचता तो
जो बचती है, वही श्रद्धा
है।
इसलिए
पहले संदेह से
जूझ लो। अगर
संदेह के रहते
श्रद्धा कर ली
तो ऊपर—ऊपर
श्रद्धा होगी, भीतर—भीतर
संदेह होगा। और
जो भीतर है, वही
निर्णायक है। किसे
धोखा देना है?
ऊपरी
वस्त्रों से
कुछ भी न होगा।
क्या
फायदा रंगीन
लबादों के तले
रूह
जलती रहे, घुलती
रहे, पजमुर्दा
रहे
क्या
फायदा? वह
तुम्हारे
भीतर जो दबा
है, वही
तुम हो। बुद्ध
कहते हैं, उसे
बाहर निकाल लो।
उससे छुटकारा
पाने का एक ही
उपाय है, उसे
रोशनी में ले
आओ।
ऐसा
नहीं कि बुद्ध
श्रद्धा के
विरोधी हैं। वस्तुत:
तो बुद्ध ही
श्रद्धा के
पक्षपाती है। लेकिन
उनकी श्रद्धा
हिम्मतवर की
श्रद्धा है; कमजोर
की नहीं, कायर
की नहीं। उनकी
श्रद्धा
साहसी की, दुस्साहसी
की श्रद्धा है।
उनकी श्रद्धा
वैज्ञानिक की
श्रद्धा है, अंधविश्वासी
की नहीं।
अभी
समय नहीं आया।
आता लगता है; पहली
पगध्वनियां
सुनाई पड़ने
लगीं, पहली
किरण सुबह की
फूटी। उनका
समय आता लगता
है। भविष्य
बुद्ध का है। जब
राम और कृष्ण,
क्राइस्ट
और जरथुस्त्र
के दीए बुझने—बुझने
को होंगे, जब
उनके दीए
आखिरी घड़ियां
गिनते होंगे,
तब बुद्ध का
सूरज उगेगा। बुद्ध
इस पृथ्वी पर
रहने वाले हैं।
ऐसी तो घड़ी की
मैं कल्पना कर
सकता हूं जब
लोग जीसस को
भूल जाएं। इसकी
संभावना है। ऐसी
घड़ी की कल्पना
भी करनी
मुश्किल है, जब बुद्ध को
भूल जाएं। क्योंकि
रोज—रोज लोग
चिंतनशील
बनेंगे। रोज—रोज
हिम्मतवर
होंगे। रोज—रोज
आदमी बड़ा हो
रहा है, प्रौढ़
हो रहा है; बचपने
की बातें खो
रहीं हैं। तो
आज नहीं कल, कल नहीं
परसों, बुद्ध
के दिन करीब
आते चले
जाएंगे। आ ही
रहे हैं।
बुद्ध
ने एक अनूठी
श्रद्धा को
जन्म दिया है।
श्रद्धा की
बात ही नहीं
की। क्योंकि
श्रद्धा की
बात क्या
करनी! जब
बीमारी नहीं
होती तो तुम
स्वस्थ होते
हो। जब संदेह
नहीं होता तो
तुम
श्रद्धालु
होते हो। तो
बुद्ध कहते
हैं,
श्रद्धा का
आरोपण नहीं
करना है, न
श्रद्धा का
आचरण करना है,
न श्रद्धा
का अनुशासन
अपने ऊपर
थोपना है। श्रद्धा
की बात ही भूल
जाओ। तुम तो
ठीक संदेह कर
लो। क्योंकि
संदेह करने से
ही मिटता है। संदेह
कर—कर के ही
जाता है। जो
नहीं करता, उसमें ही
बचा रहता है। जो
कर लेता है, वह एक न एक
दिन संदेह की
सीमांत पर आ
जाता है।
तर्क—तर्क
से ही जाता है, जैसे
काटे—काटे से
निकाले जाते
हैं और जहर—जहर
से मिटाया
जाता है। तर्क—तर्क
से ही जाता है।
तर्क ठीक से
ही कर लो। बुद्ध
कहते हैं, जल्दी
मत करना। तर्क
की परिपक्वता
चाहिए। परिपक्वता
सब कुछ है।
फिर
एक दिन तुम उस
घड़ी,
उस सीमा पर
आ जाते हो, जहा
तर्क के पार
के आकाश दिखाई
पड़ने शुरू
होते हैं। तर्क
ही वहां ले
आता है। फिर
तर्क को छोड़ना
नहीं पड़ता। जब
और पार के
आकाश दिखाई
पड़ने लगते हैं,
तर्क छूट
जाता है। संदेह
में कोई जी
नहीं सकता, अगर ठीक से
संदेह करे 1
क्योंकि
संदेह
नकारात्मक है।
नकार में
जीओगे कैसे? जीने के लिए
विधेय चाहिए। बीमारी
में जीओगे
कैसे? जीने
के लिए
स्वास्थ्य
चाहिए। संदेह
तो मृत्यु
जैसा है, श्रद्धा
जीवन जैसी है।
संदेह में कोई
सदा के लिए
ठहर नहीं सकता।
लेकिन
लोग ठहर गए
हैं। चमत्कार
घट गया है। और
चमत्कार
इसलिए घट गया
है कि लोगों
ने झूठी श्रद्धा
ओढ़ ली है। उस
झूठी श्रद्धा
में वे खुद ही
नहीं छिप गए
हैं,
उनके सारे
संदेह भी
सुरक्षित हो
गए हैं।
तुमने
आस्तिक को
देखा—तथाकथित
आस्तिक को? बाजार
भरे हैं। नगर
उससे भरे हैं।
मंदिरो और
गिरजों में
प्रार्थना कर
रहा है। तुमने
उसे गौर से
देखा, कितना
डरा हुआ है? उसकी आस्था
कितनी
डगमगाती हुई
है? तुमने
कभी उससे बात
की? डरता
है। उसकी
श्वास फूल आती
है अगर संदेह
की बात करो। अगर
प्रार्थना
करते तुम उससे
पूछो कि सच
में तुम्हें
पक्का भरोसा
है कि ईश्वर
है?
मेरे
एक शिक्षक थे।
बूढ़े हो गए। जब
गांव जाता था, उनके
पास जाता था। आखिरी
बार गया तो
उन्होंने खबर
भेजी कि मत
आना। फिर भी
मैं गया। मैंने
उनसे पूछा कि
अब कभी न
आऊंगा। जब
आपने खबर भेजी
तो न आऊंगा। लेकिन
कारण पूछने
आया हूं कि
मुझे क्यों
इंकार किया है?
वे कहने लगे,
इंकार का
कोई कारण नहीं
है। वर्षों
तुम्हारी
प्रतीक्षा
करता हूं जब
आते हो। लेकिन
अब डरने लगा
हूं। तुम्हारी
बातों से
संदेह पैदा हो
जाता है।
मंत्र
लड़खड़ाने लगते
हैं। अब मौत
मेरी करीब है।
अब मुझे आस्था
से मर जाने दो।
मैंने
कहा,
यह आस्था जो
इतनी लड़खड़ाती
है, जो
जिंदगी में भी
जिंदा नहीं है,
यह मौत में
काम आएगी? ये
मंत्र जो इतने
लड़खड़ाते हैं,
जिनकी कोई
जड़ें नहीं, जो मेरे
हिलाए हिल
जाते हैं, ये
कितने दूर साथ
देंगे मौत में?
ये कहो तब
साथ जाएंगे?
तब
तो,
मैने कहा, मुझे आना ही
पड़ेगा। फिर अब
मैं तुम्हारे
इंकार को न
सुनूंगा। आता
ही रहूंगा। क्योंकि
मौत करीब है; इसलिए जल्दी
करो। जिंदगी
यूं ही गंवाई।
इन संदेहों से
छुटकारा हो
सकता था। इनको
तुम छुपाए
बैठे रहे। इनको
तुमने पानी
दिया। इनको
तुमने भोजन
दिया। इनको
तुमने बचाया। तुम्हारी
आस्था इनके
लिए शक्तिदाई
हुई। तुम्हारी
आस्था ने इनके
ऊपर कंबल
लपेटा। ये
मुर्झा गए
होते, ये
मर गए होते, लेकिन तुमने
इन्हें न मरने
दिया। और अब
मौत करीब आती
है। तुम मरने
के करीब हो तो
भी तुम इनको
बचा रहे हो। अब
तो जल्दी करो।
अब तो इनको
उभर आने दो। कोई
हर्जा नहीं, कि तुम
संदेह करते
हुए ही मर जाओ।
उतना साहस तो
कम से कम साथ
होगा। उतना
आत्मविश्वास
तो कम से कम
साथ होगा। उस
परमात्मा के
सामने
प्रार्थना
करते हुए मर रहे
हो, जिस पर
तुम्हें भीतर
भरोसा ही नहीं।
तुम्हारी
प्रार्थना
झूठी। तुम्हारा
प्रेम झूठा। झूठ
से कहीं कोई
सत्य तक
पहुंचा है?
बुद्ध
ने संदेह दिया।
इसलिए नहीं कि
बुद्ध का युग
बुद्धिवादी
था;
नहीं, बुद्ध
बूद्धिवादी
थे। वे प्रगाढ़
संदेह से ही
श्रद्धा तक
पहुंचे थे। उन्होंने
लंबे और कठिन
मार्ग से
यात्रा की थी।
लेकिन लंबे और
कठिन मार्ग से
ही यात्रा
होती है। कोई
शार्ट कट है
ही नहीं। तुम
जिसको
श्रद्धा माने
हो, वह शार्ट
कट है। तुम
बिना गए, बिना
कहीं पहुचे, बिना कुछ
हुए श्रद्धा
कर लिए हो। तुम्हारी
श्रद्धा
नपुंसक है।
तुम
जानते हो
भलीभांति। इसलिए
तुम ऐसे लोगों
की बातें
सुनते फिरते
हो,
जहां
तुम्हारी
श्रद्धा में
थोड़ा बल आ जाए,
थोड़ी ताकत आ
जाए। तुम
भयभीत हो। तुम्हारे
शास्त्रों
में लिखा है, नास्तिकों
की बातें मत
सुनना। नास्तिक
कुछ कहे तो
कान में
उंगलियां डाल
लेना।
इन
शास्त्रों को
छुट्टी दो। ये
शास्त्र
कमजोरी
सिखाते हैं। ये
शास्त्र
परमात्मा. तक
कैसे ले
जाएंगे? जो
आस्था इतनी
डरपोक हो कि
नास्तिक की
बात सुनने से
कंपती हो, इससे
तो नास्तिक
बेहतर। कम से
कम उसके
शास्त्रों
में कहीं तो
नहीं लिखा है।
कि आस्तिक की
बात सुनने से
डरना। लगता है,
उसकी
नास्तिकता
में उसका
भरोसा ज्यादा
है; तुम्हारी
आस्तिकता से। और
जिस पर
तुम्हें ही
भरोसा नहीं है
उससे क्या—
क्या सिद्ध हो
सकता है?
तो
ध्यान रखना, बुद्ध
ने संदेह दिया।
संदेह
प्रक्रिया है
श्रद्धा को
पाने की। संदेह
करते—करते तुम
संदेह से मुका
हो जाते हो। संदेह
में चलते—चलते
तुम उस जगह आ
जाते हो जहा
श्रद्धा का
सूरज उगता है।
थी
वह शायद अपनी
ही बेचारगी की
एक पुकार
जिसको
अपनी
सादालौही से
खुदा समझा था
मैं
तुमने
जिसे
परमात्मा
समझा है, कहीं
वह तुम्हारी
असहाय अवस्था
की पुकार ही तो
नहीं!
थी
वह शायद अपनी
ही बेचारगी की
एक पुकार
असहाय
अवस्था में
भयभीत, पीड़ित,
दुखी आदमी
परमात्मा को
पुकारने लगता
है। कहीं वह
तुम्हारी
बेचारगी की
पुकार ही तो
नहीं है?
जिसको
अपनी
सादालौही से
खुदा समझा था
मैं
जिसको
अपनी नासमझी
से,
बालपन से
तुमने
परमात्मा
समझा है, वह
कहीं असहाय
अवस्था की
पुकार ही तो
नहीं! जिसको
तुमने झुकना
समझा है, वह
कहीं
तुम्हारे
कंपते और
भयभीत पैरों
की कमजोरी ही
तो नहीं!
जिसको तुमने
समर्पण समझा
है, वह
कहीं
तुम्हारी
कायरता ही तो
नहीं!
समर्पण
के लिए संकल्प
चाहिए। झुकने
के लिए खड़े
होने वाला बल
चाहिए। परमात्मा
को पुकारने के
लिए बेचारगी
नहीं, भीतर की
एक असहाय
अवस्था नहीं,
भीतर का परम
संतोष, परम
अहोभाव चाहिए।
बुद्ध
ने परमात्मा
नहीं छीना, तुमसे
तुम्हारी बेचारगी
छीनी। तुमने
बेचारगी को ही
परमात्मा का
नाम दे दिया था।
बुद्ध ने
तुमसे मंदिर
नहीं छीने, तुम्हारे
कमजोरी के
शरणस्थल छीने।
और बुद्ध ने
कहा, तुम्हें
खुद ही चलना
है। बुद्ध ने
तुम्हारे
पैरों को
सदियों—सदियों
के बाद फिर से
खून दिया। तुम्हें
अपने पैरों पर
खड़े करने की
हिम्मत दी।
बुद्ध
सदगुरु हैं। और
बुद्ध उसी को
सदधर्म कहते
हैं,
जो तुम्हें
तुम्हारे
भीतर छिपे हुए
सत्य से परिचित
कराए। झूठी
आस्थाओं में
नहीं, धारणाओं
में नहीं, शास्त्रों
में नहीं, व्यर्थ
के शब्दजालों
में न भटकाए। जो
तुम्हें
तुमसे ही मिला
दे।
और
जब तुम अपने
से मिलोगे तो
तुम पाओगे, विराट
शून्य है वहा।
तुम्हारे ठीक
भीतर कोई भी
नहीं है। इससे
हमें ऐसा लगता
है, कोई भी
नहीं है तो
फिर सार क्या
खोजने का ' कोई
भी नहीं है तो
फिर आत्म—ज्ञान
' आत्मा को
पाने की बातें?
जो
जानते हैं, उन्होंने
आत्मा के स्वरूप
को भी शून्य
ही कहा है, निर्गुण
ही कहा है। बुद्ध
ने उसे ठीक—ठीक
अभिव्यक्ति
दी। उन्होंने
आत्मा शब्द
में भी खतरा
देखा। क्योंकि
उससे लगता है
कि तुम किसी
चीज की तलाश
में हो, जो
भीतर रखी है। जब
तुम कहते हो, मेरे भीतर
आत्मा है, तुमने
खयाल किया—ऐसे
ही, जैसे
तुम्हारे घर
में कुर्सी
रखी है, तुम्हारे
भीतर आत्मा
रखी है! आत्मा
कोई वस्तु है
कि गए भीतर और
पा गए?
गौर
से देखो, कौन
भीतर जाएगा? अगर आत्मा
भीतर रखी है
तो फिर यह
भीतर जाने वाला
कौन है? अगर
आत्मा भीतर
रखी है तो फिर
यह बाहर कौन
गया? बुद्ध
कहते हैं, न
बाहर, न भीतर।
वह जो यात्रा
है, वह जो
बाहर और भीतर
आने वाला जाने
वाला चैतन्य
है, वही है।
और वह चैतन्य
वस्तु नहीं है,
प्रवाह है। वह
चैतन्य कोई
ठहरा हुआ जल
का सरोवर नहीं
है; गंगा
की सागर की
तरफ भागती
धारा है। बुद्ध
ने आत्मा शब्द
का उपयोग नहीं
किया, क्योंकि
आत्मा से जड़ता
का पता चलता
है। तुम बड़े
हैरान होओगे,
क्योंकि
तुम तो आत्मा
का उपयोग जड़ता
के विपरीत
करने के आदी
हो। तुम तो
कहते हो, यह
पत्थर जड़ है, इसमें कोई
आत्मा नहीं। तुम
तो कहते हो, आदमी में
आत्मा है। आदमी
जड़ नहीं।
बुद्ध
ने कहा, आत्मा
शब्द में ही
जड़ता है। आत्मा
शब्द का मतलब
यह हुआ
कि
कुछ तुम्हारे
भीतर ठहरा हुआ
है,
रुका हुआ है।
कुछ तुम्हारे
भीतर मौजूद ही
है। तो जो
मौजूद ही है, वह जड़ है।
तुम्हारे
भीतर कुछ हो
रहा है—सतत। उसको
आत्मा कैसे
कहें; प्रवाहमान
है, होने
की अवस्था है,
'है' नहीं।
सदा हो रहा है।
चैतन्य एक यात्रा
है। तीर्थयात्रा
कहो! 'कोई
ठहराव नहीं है,
कोई मुकाम
नहीं है। चलते
जाने का नाम
है, होते
जाने का नाम
है। और यह
होना कभी पूरा
नहीं होता, क्योंकि जो
पूरा हो जाए
तो फिर जड़ता। इसलिए
बुद्ध की बात
को समझना कठिन
है। बुद्ध हुए
बिना समझना
कठिन है। लेकिन
बुद्ध कहते
हैं, मानना
मत। समझना हो
तो तैयारी
रखना यात्रा
की। मानना हो
तो किसी और
द्वार पर जाकर
सो रहना। बुद्ध
का द्वार
तुम्हारे लिए
नहीं है।
'भगवान
बुद्ध का
मार्ग संदेह
के स्वीकार से
शुरू होता है।
क्या उनका युग
आज के युग
जैसा ही
बुद्धिवादी था?
नहीं, युग
से कोई संबंध
नहीं है। बुद्ध
अपने युग के
बहुत पहले आ
गए थे। बुद्ध
पुरुष सदा ही
अपने युग के
पहले होते हैं।
बुद्ध पुरुष
कभी भी
समसामयिक। हीं
होते, कंटेम्प्रेरी
नहीं होते। जहां
होते हैं, वहा
से आगे होते
हैं। इसलिए जब
भी होते हैं, जहा भी होते
हैं, वहीं
समझे नहीं जाते।
वे जो भी कहते
हैं, वही
दीवालों पर। पड़ता
है, कानों
पर नहीं। वे
जो भी बताते
हैं, अंधी आंखें
पर
पड़ता है, आंखें
पर
नहीं। हम
उन्हें सुन
लेते हैं, समझ
नहीं पाते।
इतना
ही होता तो भी
कुछ बुरा नहीं
था। हम उन्हें
गलत समझ पाते
हैं। इतना ही
होता कि हम
कहते कि हम
नहीं समझ पाए, तो
भी कोई हर्जा
न था; हम
उन्हें
गलत
समझ पाते हैं।
क्योंकि यह तो
हम मान ही
नहीं सकते कि
हम समझ नहीं
सकते। ठीक
नहीं समझ सकते
तो गलत समझ
लेते हैं। लेकिन
यह धारणा तो
मन में
परिपोषित
करते ही चले
जाते हैं कि
समझ लिया।
जिन्होंने
बुद्ध को सुना, जिन्होंने
बुद्ध को माना,
जो बौद्ध बन
गए, उन्होंने
भी समझा नहीं।
उन्होंने
परमात्मा को
छोड़ दिया, बुद्ध
को पकड़ लिया। वे
बुद्ध की पूजा
करने लगे। बात
कुछ बनी नहीं।
पुराने मंदिर
हट गए, नया
मंदिर आ गया। पुरानी
परंपरा चली गई,
नई परंपरा
ने जगह ले ली। पुराने
शास्त्र, वेद
और गीता हट गए
तो बुद्ध के
वचन शास्त्र
बन गए। समझे
नहीं लोग।
बुद्ध
ने तुम्हें
तुम पर फेंका
था। बुद्ध ने
कहा था, तुम
ही तुम्हारे
शास्ता हो। तुम
हो तुम्हारे
गुरु हो। तुम
ही तुम्हारे
शास्त्र हो और
तुम्हारे चैतन्य
के सिवाय कहीं
कोई सहारा मत
खोजना। चैतन्य
को जगाना। उसी
जागने में तुम
एक दिन पाओगे,
कि इधर तुम
भी खो गए, उधर
परमात्मा भी
खो गया; मात्र
चैतन्य का
सागर बचा। उसको
बुद्ध ने
निर्वाण कहा
है। जहां बूंद
सागर से एक हो
जाती है। जहां
बूंद पाती है
कि सागर ही है।
लेकिन
बुद्ध ने सभी
शब्द
नकारात्मक उपयोग
किए। वह भी
तुम्हारी वजह
से। कोई अड़चन
न थी कि वे
शून्य की जगह
पूर्ण कह देते।
कोई अड़चन न
थी। तुम्हारे
कारण। क्योंकि
जैसे ही कोई
विधायक शब्द
उपयोग किया जाए, तुम
तत्क्षण
श्रद्धा करने
को तैयार हो। तुम
चलने को राजी
नहीं हो, तुम
विश्वास करने
को राजी हो। तो
बुद्ध ने सब
नकारात्मक
शब्दों का
उपयोग किया। मोक्ष
तक का उपयोग
नहीं किया। क्योंकि
मोक्ष शब्द को
सुनते ही
तुम्हें ऐसा लगता
है कि कोई ऐसा
वक्त आएगा
जहां हम
परिपूर्ण रूप
से मुक्त
होंगे—मगर
होंगे। जहां
मैं रहूंगा, मुक्त होकर
रहूंगा; बंधन
न होंगे, मैं
होऊंगा।
बुद्ध
ने कहा, तुम्हीं
बंधन हो। जब
बंधन न होंगे
तो तुम भी न
होओगे। कुछ
होगा, जिसका
तुम्हें कोई
भी पता नहीं
है। उसे मैं
मत कहो, और
आज कोई उपाय
नहीं है उसे
समझने का। आज
तक तो तुमने
जो जाना है वे
बंधन ही बंधन
जाने हैं। अब
तक तो तुम
बंधनों का जोड़
हो। तुम एक कारागृह
हो।
तो
बुद्ध ने कहा, मैं
मुक्त होकर
रहेगा, ऐसा
नहीं; मैं
से मुक्ति हो
जाएगी। इसलिए
बुद्ध ने
मोक्ष शब्द का
उपयोग न किया।
नया शब्द गढ़ा—निर्वाण।
निर्वाण का
अर्थ होता है,
जैसे तुम
दीए को फूंक
देते हो, दीया
बुझ जाता है, तो कहते हैं
दीए का
निर्वाण हो
गया। निर्वाण
का अर्थ है, जैसे दीया
बुझ जाता है। फिर
तुम खोजकर भी
न पा सकोगे कि
ज्योति कहां गई?
तुम फिर बता
न सकोगे कि
पूरब गई
ज्योति कि पश्चिम
गई। फिर तुम
बता न सकोगे
कि आकाश में
ठहर गई कि पाताल
में ठहर गई। फिर
तुम कह न
सकोगे कहां है
ज्योति। विराट
में खो गई। नहीं
हो गई।
तो
बुद्ध ने एक
अनूठा शब्द
गढ़ा : निर्वाण।
निर्वाण के दो
अर्थ हैं। एक
अर्थ है, दीए
का बुझ जाना। जैसे
दीया बुझ गया,
ऐसे ही तुम
बुझ जाओगे। फिर
मत पूछो कि
कहां रहोगे—मोक्ष
में स्वर्ग
में परियों से
घिरे, परियों
के झुरमुट में
कल्पतरु के
नीचे बैठे, जो—जो
वासनाएं
त्याग दी थीं
उनका भोग करते
हुए, या
नर्क में
पापों का कष्ट,
दंड पाते
हुए ' कहा
क्या होगा आगे,
बुद्ध ने
कहा, मत
पूछो यह बात। जैसे
दीया बुझ जाता
है, निर्वाण
में ऐसे ही
तुम बुझ जाओगे।
निर्वाण
का दूसरा अर्थ
होता है—वाण
का अर्थ होता
है,
वासना—निर्वाण
का अर्थ होता
है, वासना
का बुझ जाना। जैसे
दीया बुझ जाता
है, ऐसी
वासना बुझ
जाएगी। और तुम
एक वासना हो। दूसरे
धर्म कहते हैं
कि तुम अलग हो,
वासनाओं ने
तुम्हें घेरा।
बुद्ध कहते
हैं, तुम
सभी वासनाओं
का जोड़ मात्र
हो। यह बड़ा
क्रांतिकारी
विचार है। दूसरे
धर्म कहते हैं,
तुम हो और
वासनाएं हैं। बुद्ध
कहते हैं, वासनाएं
हैं, उनके
जोड़ का नाम
तुम हो।
जैसे
हम लकड़ियों का
एक गट्ठर
बांधते हैं। दस
लकड़ियां पड़ी
थीं,
उनको' बांधकर
एक गट्ठर बना
लिया। अब हम
इसको बंडल
कहते हैं, गट्ठर
कहते हैं। लेकिन
गट्ठर क्या दस
लकड़ियों से
कुछ अलग है? दस लकड़ियां
इकट्ठी हैं। एक—एक
लकड़ी बाहर
निकाल लो तो
पीछे गट्ठर
बचेगा प जब
दसों लकड़ियां
लोगे तो पीछे
कुछ भी न
बचेगा।
ऐसा
बुद्ध ने कहा
कि तुम अलग और
तुम्हें
वासनाओं ने
घेरा, ऐसा
नहीं; तुम
वासना हो, तुम
तृष्णा हो, हवस, होने
की दौड़! बस! तुम
सारी वासनाओं
का जोड़ हो। एक—एक
वासना
निकालते जाओ। उतने
ही तुम कम
होते जाओगे। जिस
दिन आखिरी
वासना बुझ
जाएगी, उस
दिन तुम न हो
जाओगे। उस दिन
पीछे तुम
बचोगे नहीं। जैसा
कि और लोग
कहते हैं कि
पीछे तुम
बचोगे, शुद्ध
आत्मा बचेगी। ऐसा
बुद्ध कहते
हैं, क्या
बचेगा? गट्ठर
पीछे नहीं
बचेगा, सब
खो जाएगा। इस
खो जाने को
निर्वाण कहते
हैं। मोक्ष
नहीं कहा, कैवल्य
नहीं कहा, परमपद
नहीं कहा, ब्रह्मलोक
नहीं कहा, क्योंकि
वे सब विधायक
शब्द हैं। उनको
सुनते से ही
तुम्हारी
वासनाओं में
प्राय आ जाते
हैं।
अभी
तुम मुझे सुन
रहे हो, लेकिन
कहीं तुम्हारे
भीतर कोई कहे
चला जा रहा
होगा कि नहीं—नहीं,
ऐसा कैसे
होगा? सब
वासनाएं
शून्य हो
जाएंगी तो हम
न होंगे? नहीं,
सब वासनाएं
शून्य हो
जाएंगी, मगर
हम होंगे। शुद्ध
रूप में होंगे।
मगर शुद्ध रूप
का मतलब क्या
होता है? शुद्ध
तुम तभी होते
हो, जब
नहीं होते हो।
जब तक हो तब तक
तो अशुद्धि
रहेगी। होना
ही अशुद्धि है।
बुद्ध
ने बड़ी बारीक
बात कही। बारीक
से बारीक, जो
कभी किसी ने
नहीं कही थी। फिर
उस पर कोई और
परिष्कार
नहीं हो सका। हो
भी न सकेगा। बुद्ध
ने आखिरी बात
कही। बुद्ध
अंतिम
वक्तव्य हैं। उसमें
और सुधार करना,
तरमीम करनी,
संशोधन
करना मुश्किल
है।
दूसरा
प्रश्न:
आपका
ही वचन है: समझ
आवश्यक है, पर
पर्याप्त
नहीं। बुद्धि
के पास अवश्य
एक छोटा सा
द्वीप है प्रकाशित,
लेकिन वह
द्वीप एक
अर्द्ध
प्रकाशित
सागर में है। और
वह अर्द्ध
प्रकाशित
सागर एक
पूर्णत: अप्रकाशित
महासागर में
है। क्या इस
वक्तव्य पर
प्रकाश डालने
की कृपा करेंगे?
निश्चित
ही,
समझ आवश्यक
है। अनावश्यक
तो इस जगत में
कुछ भी नहीं
है। अन्यथा
होता ही नहीं।
है, तो आवश्यक
ही होगा है।
तो आवश्यकता
से ही है। अनावश्यक
आएगा कहां से?
आया है, सिलसिला
है, संबंध
है। कार्य—कारण
का कोई प्रवाह
है, जोड़ है।
समझ
उपयोगी है। क्योंकि
समझ ही तो
तुम्हें
समझाएगी कि
समझ काफी नहीं
है। समझ से ही
तो तुम समझोगे
कि समझ के पार
जाना है। समझ
ही तो तुम्हें
जगाएगी कि यह
समझ की नींद से
उठो। बहुत
देखे सपने
विचारों के। प्रत्यय
और धारणाओं के
जाल में बहुत
जीए। अब उठें।
सुबह हुई, भोर
हुई।
कौन
तुम्हें
जगाएगा लोभ से? कौन
तुम्हें
जगाएगा क्रोध
से? कौन
तुम्हें
जगाएगा काम से?
अगर कोई
सदगुरु के वचन
भी सार्थक हो
जाते हैं तुम्हें
जगाने में, तो इसीलिए
कि उस सदगुरु
के वचन
तुम्हारी समझ
के साथ, तुम्हारी
सोई हुई समझ
के साथ कोई
संबंध
स्थापित कर
लेते हैं। किसी
सदगुरु के वचन
अगर तुम्हें
जगाने में समर्थ
हो जाते हैं, तो इसीलिए
कि तुम्हारी
समझ और सदगुरु
के बीच सेतु
बन जाता है; अन्यथा कोई
उपाय न था। पत्थरों
को तो जगाऊं!
सुनते रहेंगे,
पड़े रहेंगे।
तुममें भी
बहुत पत्थर
हैं, जो
सुनते रहेंगे,
पड़े
रहेंगे। किसी
के भीतर समझ
होगी तो करवट
लेगी, अंगड़ाई
लेगी, जगेगी।
देख
के कररोफर
दौलत का तेरा
जी ललचाए
धन
को देखकर
ईर्ष्या जगती
है,
महत्वाकांक्षा
जगती है।
देख
के कररोफर
दौलत का तेरा
जी ललचाए
सूंघ
के मुस्की
जुल्फों की बू
नींद सी तुझको
आए
जैसे
बेगार की
कश्ती लहरों
में बुलाए
मन
की मौज में
नीयत यूं है
तेरी
डांवाडोल
तौल, अपने
को तौल!
लेकिन
तौलने का तो
एक ही सूत्र
है,
भीतर की समझ
थोड़ी देखना
शुरू करे। तुमने
अब तक अपनी
समझ का एक ही
उपयोग किया है—नासमझी
को साथ दिया
है। क्रोध
करना है तो
तुमने समझ का
सहारा दिया है
क्रोध को। समझ
तो तुम्हारे
पास है; ठीक
उतनी ही, जितनी
किसी बुद्ध
पुरुष के पास
है। उपयोग
कहीं गलत हो
रहा है, गलत
दिशा में हो
रहा है।
जब
तुमने क्रोध
किया है तो
तुमने हजार
तर्क खोजे हैं
कि क्रोध
जरूरी था। तुमने
अपने बच्चे को
मारा है, क्रोध
किया है, तो
तुमने कहा, न मारेंगे
तो सुधरेगा
कैसे? जैसे
कि यह कोई
सिद्ध प्रमाण
हो कि मारने
से कोई कभी
सुधरा है। कौन
सुधरा है? नहीं,
लेकिन
बहाना है। असली
बात थी कि तुम
क्रोधित हो गए
थे। लेकिन
क्रोध को सीधा—सीधा
करने की तो
तुम्हारी भी
हिम्मत नहीं। लोग
क्या कहेंगे?
तुम अच्छे—अच्छे
कारण खोजते हो।
तुम कहते हो, बच्चे को
सुधारना है।
शिक्षक
स्कूल में
बच्चों को
पीटता है, इसलिए
नहीं कि
बच्चों को
सुधारने से
उसे कुछ लेना—देना
है; क्या
प्रयोजन है? लेकिन जब भी
बच्चे उसके
अधिकार को
कहीं भी चोट
करते हैं, उसके
अहंकार को
कहीं भी चोट
करते हैं, तब
वह ऐसा नहीं कहता
कि मेरे
अहंकार को चोट
पहुंची है, इसलिए मैं
तुम्हें
मारूंगा। क्योंकि
यह बात तो फिर
जरा मुश्किल
हो जाएगी, इसको
छिपाना
मुश्किल हो
जाएगा। वह
कहता है, तुम्हारे
सुधार के लिए,
तुम्हारे
हित के लिए
तुम्हें मारना
जरूरी है।
तुमने
कभी गौर किया
कि तुम कितने
तर्क और कितने
कारण खोजते हो
क्रोध के लिए!
लोभ के लिए
तुम समझ का
कितना सहारा
देते हो!
ईर्ष्या को भी
तुम ईर्ष्या
नहीं कहते, स्पर्धा
कहते हो। यह
समझ का सहारा
है। तुम कहते
हो, स्पर्धा
न होगी तो
जीवन जड़ हो
जाएगा। प्रतियोगिता
न होगी तो
विकास कैसे
होगा? प्रगति
कैसे होगी?
मेरे
पास लोग आ
जाते हैं। वे
कहते हैं कि
अगर
प्रतियोगिता
खो गई तो प्रगति
खो जाएगी। तो
प्रगति को
बचाने के लिए
प्रतियोगिता
करनी उनको
जरूरी मालूम
पड़ती है। यद्यपि
प्रतियोगिता
के अच्छे नाम
के नीचे सिर्फ
ईर्ष्या छिपी
है,
जलन छिपी है।
किसी दूसरे के
पास है और
उनके पास नहीं
है। कोई दूसरा
आगे है और वे
पीछे हैं।
तो
तुमने लोभ को
सहारा दिया है, क्रोध
को सहारा दिया
है, तुमने
कामवासना को
सहारा दिया है।
तुमने समझ का
अब तक गलत
उपयोग किया है।
समझ
का एक और उपयोग
है,
सही उपयोग
है। वही
सदधर्म है। वह
उपयोग है, क्रोध
को समझने के
लिए समझ का
उपयोग। क्रोध
क्या है? लोभ
क्या है? जिसने
क्रोध को समझा,
वह क्रोध से
दूर हटने लगा।
जिसने लोभ को
समझा, वह
लोभ से दूर
हटने लगा। क्योंकि
लोभ ने सिवाय
नर्कों के और
कुछ बनाया नहीं
तुम्हारे लिए।
और क्रोध ने
दूसरों को
जलाया—जलाया
हो, न
जलाया हो, तुमको
तो जलाया ही
है। क्रोध से
तुमने दूसरों
पर कुछ अंगारे
फेंके जरूर, लेकिन
अंगारों को
पहले अपने
भीतर तो पैदा
करना पड़ता है।
जब
तुम किसी को
गाली देते हो
तो दूसरे को
चोट पहुंचेगी
न पहुंचेगी, यह
उस पर निर्भर
है, तुम्हारी
गाली पर नहीं।
क्योंकि तुम
किसी बुद्ध
पुरुष को गाली
दोगे तो नहीं
चोट पहुंचेगी।
गाली चोट नहीं
पहुंचाती। वह
तो किसी बुद्ध
पर निर्भर है
कि वह गाली को
पकड़ लेगा तो
चोट खाएगा। तुम्हारी
गाली ने चोट
नहीं पहुंचाई,
लेकिन गाली
देते वक्त
गाली को पैदा
करना पड़ता है
भीतर। तुम्हारे
भीतर नासूर
चाहिए। नहीं
तो गाली पैदा
कैसे होगी? नाली के
कीड़े पैदा
करने हों तो
गंदी नाली
चाहिए। गालिया
पैदा करनी हों
तो हृदय में
नासूर चाहिए,
दुखते घाव
चाहिए, मवाद
चाहिए। नहीं
तो गाली कैसे
पैदा होगी? गाली कहीं
आकाश से तो नहीं
आती।
गुलाब
की झाड़ी पर
गुलाब लगते
हैं। जड़ों से
सम्हालता है, तब
गुलाब की झाड़ी
पर गुलाब लगते
हैं। तुम्हारी
झाड़ी पर अगर
गालियां लगती
हैं तो जड़ों
से आती होंगी।
कहीं अल्सर
होंगे भीतर—आत्मा
के अल्सर। कहीं
घाव होंगे
भयंकर। वहां
तुम पहले
पोसते हो, पालते
हो, गालियों
को बड़ा करते
हो। तुम्हारे
भीतर कोई गर्भ
होगा, जहां
गालियां
सुरक्षित
होती हैं, निर्मित
होती हैं। कोई
कारखाना होगा।
फिर तुम वहा
तैयार करते हो।
अपने को
गंवाकर, अपने
को मिटाकर
अंगारे पैदा
करते हो। फिर
उन्हें
फेंकते हो
दूसरों पर, कि दूसरे भी
जलें। तुम पहले
ही जल चुके
होते हो।
तुम
से बहुत बार
कहा गया है कि
क्रोध मत करना, दंड
पाओगे। मैं
तुमसे कहता
हूं कि क्रोध
मत करना, क्योंकि
क्रोध के पहले
ही तुम दंड पा
चुके होते हो।
क्रोध के बाद
दंड मिले, यह
बात ही गलत। कौन
देगा बाद में
दंड? कोई
नियंता नहीं
बैठा है। नियंता
होता तो तुम
उससे बचने की
तरकीब भी
निकाल लेते। वकील
खड़े कर लेते। रिश्वत
खिला देते। बहुत
यही कर रहे
हैं। वे सोचते
हैं, प्रार्थना
एक रिश्वत है।
पूजा एक
रिश्वत है। पुजारी
एक वकील है। जरा
इसका आना—जाना
है भगवान के
पास, इसके
सहारे वे अपनी
भी खबर पहुंचा
देते हैं।
नहीं, गाली
देने के पहले
ही तुम्हें
दंड मिल चुका।
लोभ करने के
पहले ही, लोभ
के पालने में
ही तुम सड़
चुके। अब और
दंड की कोई
जरूरत नहीं है।
काफी हो गई
बात।
समझ
का दूसरा
उपयोग है, क्रोध
को समझो, सहारा
मत दो। और
जैसे ही तुम
बिना सहारा
दिए क्रोध को
देखोगे, तुम
पाओगे, यह
तो जहर था। यह
तो आत्मघात था।
तुम कर क्या
रहे थे अब तक? अपने को
मिटाने में
लगे थे! तुम
हटने लगोगे दूर।
और जो ऊर्जा, जो शक्ति
क्रोध में
संलग्न होकर
व्यर्थ नष्ट होती
थी, विध्वंस
होती थी, वही
ऊर्जा करुणा
बन जाएगी।
जब
क्रोध हटता है
तो करुणा पैदा
होती है। क्योंकि
ऊर्जा को कहीं
तो जाना होगा।
जब काटे न
बनेंगे तो
ऊर्जा मुक्त
होगी, फूल
बनेगी। जो लोभ
बनती थी ऊर्जा,
वही दान
बनेगी। जो काम
बनती थी ऊर्जा,
वही प्रेम
बनेगी।
और
अनंत सीढ़ियां
हैं आत्म—जीवन
की। धीरे—धीरे
तुम ऊपर उठते
जाते हो। गुरुत्वाकर्षण
तुम्हें
खींचता नहीं। एक
ऐसी घड़ी आती
है सदधर्म की, जहां
तुम्हें पंख
लग जाते हैं; जहां तुम
प्रसादरूप हो
जाते हो; जहा
तुम्हें कोई
बाधा नहीं रह
जाती। करे जो
हिम्मत तो कुछ
फजाएं इन
आसमानों के
पार भी हैं
करे
जो हिम्मत तो
कुछ फजाएं इन
आसमानों के पार
भी हैं
ये
मैंने माना
सकूं मयस्सर
तुझे तहे—आसमां
नही है
यह
मैंने माना कि
जहां तुम हो, जैसे
तुम जी रहे हो,
जिस आसमान
के तले तुमने
अपना घर बनाया
है, बड़ा
छोटा है। आंगन
तुम्हारा
बहुत छोटा है,
रहने योग्य
नहीं। तुम जिस
काल—कोठरी में
रह रहे हो; काम,
क्रोध, लोभ,
मोह से
तुमने जो अपने
आसपास घर बना
लिया है, वह
नर्क है।
ये
मैंने माना
सकूं मयस्सर
तुझे तहे—आसमां
नहीं है
यह
जो छोटा सा
आसमान
तुम्हारे
जीवन का है, इसके
नीचे कोई
सुकून, कोई
शाति, कोई
आनंद संभव
नहीं है, यह
माना। लेकिन
घबड़ाने की कोई
बात नहीं है!
करे जो हिम्मत
तो कुछ फजाएं
इन आसमानों के
पार भी हैं
आसमानों
के पार और भी
आसमान हैं। आसमानों
के पार——और पार—और
भी आसमान हैं।
आसमानों का
कोई अंत नहीं
है।
इस
अनंत आसमानों
के विस्तार को
बुद्ध ने शून्य
कहा है। यह
शून्य वही है, जिसको
उपनिषद
ब्रह्म कहते
हैं। इन अनंत
आसमानों के
साथ अपने को
एक कर लेने को
बुद्ध ने
निर्वाण कहा
है। यह
निर्वाण वही
है, जिसको
और बुद्ध
पुरुषों ने
मोक्ष कहा है।
बुद्धि
बड़ी छोटी सी
बात है। बुद्धि
से ही अगर
तुमने सारे
जीवन को समझना
चाहा, तो
तुमने बड़ी
संकीर्ण
सीमाएं लगा
दीं अस्तित्व
पर। तुम्हारी
संकीर्ण
सीमाओं के
कारण ही तुम
अस्तित्व से
वंचित रह
जाओगे।
बुद्धि
उपयोगी है, उसका
उपयोग कर लो। उसका
उपयोग कर लो
उसके पार:
जाने के लिए। उसकी
सीढ़ी बना लो। उस
पर चढ़ जाओ। उससे
छलता लगाने का
उपयोग कर लो।
दीवार
से घिरा था
हरम का कुसूर
क्या
पैदा
अगर हदूद में
वुसअत न हो
सकी
मंदिर
का क्या कुसूर? मस्जिद
का क्या कुसूर?
दीवाल से
घिरी है।
दीवार
से घिरा था
हरम का कुसूर
क्या
काबा
का क्या कुसूर? काशी
का क्या कुसूर?
दीवाल से
घिरी हैं।
पैदा
अगर हदूद में
वुसअत न हो
सकी
अगर
विशालता पैदा
न हो सकी तो
कुसूर कुछ भी
नहीं, क्योंकि
दीवालें थीं। तुम्हारी
बुद्धि
विचारों की
दीवाल से घिरी
है। उस दीवाल
को हटाना ही
पड़ेगा; तो
वुसअत पैदा हो
जाए; तो
विशालता पैदा
हो जाए।
तुमने
कभी एक भी
क्षण अनुभव
किया, जब
विचार नहीं
होते, तुम
होते हो? जब
विचार नहीं
होते, तुम
भी नहीं होते।
जब विचार नहीं
होते, तब
एक विराट आकाश
होता है। तब
बीच की कोई
दीवाल नहीं
होती जो बांटे,
अलग करे। कोई
विभाजन नहीं
होता। तुम
अविभाज्य
होते हो। अस्तित्व
के साथ एक
होते हो। उसी
को भक्तों ने
भगवान कहा है।
वह
भक्तों की
भाषा है। बुद्ध
को वह भाषा
प्रिय नहीं। क्योंकि
बुद्ध ने उस
भाषा के बड़े
दुष्परिणाम देखे।
भक्तों के लिए
ठीक रही होगी, लेकिन
भक्तों के
पीछे जो चलते
हैं, उन्होंने
कुछ और ही समझ
लिया।
थोड़ा
देखो, भगवान
का अर्थ है, विशालता। इसलिए
भक्त वह है, जिसने जीवन
की विशालता
जानी। जिसने
ऐसा जीवन जाना,
जिस पर कोई
सीमा नहीं। लेकिन
फिर हिंदू
भक्त है, वह
हिंदू भगवान
की पूजा करता
है। उसका
भगवान भी
सीमित है। फिर
ईसाई है, वह
ईसाई भगवान की
पूजा करता है।
उसका भगवान भी
सीमित है।
भगवान
का अर्थ ही है, जो
असीम हो। और
अंधों ने
भगवान पर भी
सीमाएं लगा दी
हैं। उन्होंने
विशालता के
चारों तरफ भी
दीवाल खड़ी कर
दी। उन्होंने
कहा, यह
हमारी
विशालता है, वह तुम्हारी
विशालता है। ये
अलग—अलग हैं। उन्होंने
एक—दूसरे के
सिर भी फोड़े, मंदिर तोड़े,
मस्जिदें
जलायी। लेकिन
सारी सीमाएं
मूलतः बुद्धि
की सीमाएं हैं।
और जब तक भीतर
बुद्धि विशाल
न हो जाए, तब
तक तुम बाहर
मंदिर—मस्जिद
खड़े करते ही
रहोगे। उससे
कोई भेद न
पड़ेगा।
समझ
जरूरी है। छोटा
सा द्वीप है
समझ का, जिस
पर थोड़ी रोशनी
है। उसका
उपयोग कर लो। उस
रोशनी को हाथ
में ले लो। उस
रोशनी की मशाल
बना लो। तो
द्वीप के
चारों तरफ घना
अंधकार है, तुम मशाल लेकर
चल पड़ो। तुम
जहा रहोगे, वहां अंधकार
न रहेगा।
समझ
सीमित घेरे
में न रह जाए
तो मशाल बन
जाती है। फिर
तुम जहां जाते
हो,
वहीं
तुम्हारा
मार्गदर्शन
करती है। अगर
सीमित घेरे
में रह जाए तो
बंधन बन जाती
है। तो फिर
तुम डरने लगते
हो अंधेरे में
जाने से। तुम
ऐसे आदमी हो, जिसने घर
में दीया जला
रखा है; बाहर
जाने से डरता
है, क्योंकि
बाहर अंधेरा
है। मैं तुमसे
कहता हूं बाहर
अंधेरा है, माना, और
अंधेरे में
जाने से डर है
यह भी माना, दीया हाथ
में क्यों
नहीं उठा लेते
2 दीए को साथ बाहर
क्यों नहीं ले
जाते? जहां
जाओ, दीए
को साथ ले जाओ।
तुम जहां
रहोगे, वहां
अंधेरा न
रहेगा।
समझ
की मशाल बनानी
जरूरी है। समझ
को ठोंककर
कहीं गाड़ मत
दो,
हिंदू—मुसलमान
की मत बनाओ, मंदिर—मस्जिद
में सीमित मत
करो; मुक्त
रखो। मशाल बना
लो। जहां
जाओगे, वहां
रोशनी बढ़ती
जाएगी। इन
अनंत विस्तार
में तुम समझ
की नाव बना लो।
इसको तुम राह
की खूंटी मत
बनाओ। उससे
बंधो मत, नाव
बना लो। यह
तुम पर निर्भर
है। जिस लकड़ी
से खूंटी बनती
है, जिससे
तुम बंधते हो,
उसी लकड़ी से
नाव भी बन
जाती है।
तीसरा
प्रश्न:
भगवान
बुद्ध आत्मा
को नहीं लेकिन
चैतन्य को, अप्रमाद
को तो मानते
हैं। और
चैतन्य शायद
परम है, या
क्या उसका भी
निर्वाण होता
है?
कठिन
होगा समझना। चैतन्य
का भी निर्वाण
हो जाता है। क्योंकि
चैतन्य की
जरूरत तभी तक
है, जब तक तुम्हारे
भीतर अचैतन्य
है; अचेतना
है। जब तक घर
में अँधेरा है, तभी तक
रोशनी की
जरूरत है। और
जब तक भीतर बीमारी
है, तभी तक
औषधि की जरूरत
है। और जब
बीमारी ही चली
गई तो औषधि का
क्या करोगे? और जब
अंधेरा ही न
रहा तो रोशनी
को क्या करोगे?
सुबह तो
दीया बुझा
देते हो न! जब
सूरज उग आया
तो दीए का
क्या करोगे? जब सूरज उग
आया तो मशाल
लेकर चलोगे तो
लोग पागल
समझेंगे।
एक
ऐसी घड़ी आती
है आखिरी, जहा
चैतन्य की भी
जरूरत नहीं रह
जाती। इतना
विराट चैतन्य
चारों तरफ
फैला होता है
कि अपने
चैतन्य का
क्या सवाल है?
उसको भी
ढोना बोझ
मालूम पड़ने
लगता है।
होने
ही को है ऐ दिल
तकमील
मुहब्बत की
एहसासे—मुहब्बत
भी मिटता नजर
आता है
प्रेम
पर,
प्रेम की
यात्रा में
ऐसा पड़ाव आता
है, जहा
प्रेम का भाव
भी विलीन हो
जाता है। क्योंकि
सभी भाव
विपरीत पर
निर्भर हैं।
होने
ही को है ऐ दिल
तकमील
मुहब्बत की
अब
प्रेम की
पूर्णता करीब
ही आती है। यह
करीब ही आने
लगी ऐ दिल, प्रेम
की पूर्णता!
एहसासे—मुहब्बत
भी मिटता नजर
आता है
अब
तो प्रेम का
भाव भी मिटता
हुआ नजर आ रहा
है। तो
पूर्णता करीब
आने लगी।
इसे
समझो। विपरीत
के कारण
आवश्यकता है। क्रोध
है,
इसलिए
समझाते हैं, करुणा चाहिए।
जब क्रोध ही न
होगा तो करुणा
भी क्या चाहिए?
इसका यह
मतलब नहीं है
कि तुम कठोर
हो जाओगे। इसका
मतलब इतना ही
है कि तुम
इतने करुणा से
एक हो जाओगे
कि तुम्हें
पता ही न
चलेगा कि
करुणा है। करुणा
का पता भी
कठोर लोगों को
चलता है।
तुम
रास्ते पर
किसी को दान
दे आते हो, तो
तुम कहते
फिरते हो कि
दान दे आए। यह
लोभी आदमी का
लक्षण है। लोभ
के कारण दान
का पता चला। अगर
लोभ बिलकुल
मिट गया हो तो
देने का पता
कैसे चलेगा? दे दोगे ऐसे
ही, जैसे
श्वास बाहर
आती है, भीतर
जाती है। किसको
पता चलता है? हा, कभी—कभी
पता चलता है
श्वास का; श्वास
की कोई बीमारी
हो जाए तो पता
चलता है। नहीं
तो श्वास का
कहीं पता चलता
है? चलती
रहती है, आती—जाती
रहती है। स्वास्थ्य
का कोई पता
नहीं चलता, बीमारी का
ही पता चलता
है।
तुम्हें
प्रेम का पता
चलता है, क्योंकि
तुम्हारे
भीतर घृणा अभी
भी मौजूद है। जब
घृणा बिलकुल
मिट जाएगी, तुम क्या
किसी से कह
सकोगे कि मैं
तुम्हें प्रेम
करता हूं? कैसे
कहोगे? तुम
प्रेम—रूप हो
गए होओगे। कौन
कहेगा, मैं
प्रेम करता
हूं? कौन
अलग होकर
कहेगा कि मैं
प्रेम करता
हूं? प्रेम
करने के लिए
भी घृणा करने
की क्षमता चाहिए।
प्रेम करता
हूं ऐसा पता
चलने के लिए
घृणा शेष चाहिए।
जब घृणा
बिलकुल ही
शून्य हो जाती
है, तो
प्रेम कैसा!
इधर घृणा गई, प्रेम का
भाव भी गया। इसका
यह मतलब नहीं
है कि प्रेम
नहीं बचता। प्रेम
ही प्रेम बचता
है, लेकिन
बोध कैसे हो?
जब
तक भीतर
मूर्च्छा है, तब
तक चेतना भी
पता चलती है। जब
मूर्च्छा
बिलकुल चली
जाती है तो
चेतना का भी
पता नहीं चलता।
पता किसको चले?
कैसे चले? पता चलने के
लिए विपरीत की
मौजूदगी
चाहिए।
तुम
बाहर हो जेल खाने
के तुम्हें
पता चलता है
जेल के बाहर
होने का? कुछ
पता नहीं चलता।
एक दफा जेल
होकर आओ। तब
जेल से छूटोगे,
राह पर आकर
खड़े हो जाओगे,
तो तुम्हें
पता चलेगा
स्वतंत्रता
का। राह से
हजारों लोग
निकल रहे हैं,
उनमें से
किसी को पता
नहीं चलता। तुम
अगर उनसे
कहोगे, नाचो!
मुक्त हो तुम!
जेल के बाहर
हो। वे कहेंगे,
पागल हो गए?
दफ्तर जा
रहे हैं। अपने
घर जा रहे हैं।
नाचे किसलिए?
तुमको लगता
है, नाचे। तुम
जेल में थे। जंजीरों
ने तुम्हें
स्वतंत्रता
का बोध दिया। लेकिन
कितनी देर यह
याद रहेगी? एक—आध दिन, दो दिन, चार
दिन, दस
दिन। जैसे—जैसे
स्वतंत्रता
स्वीकार हो
जाएगी, वैसे—वैसे
बोध खो जाएगा।
सिर
का पता चलता
है,
जब सिर में
दर्द होता है।
जब सिर में
दर्द नहीं
होता, सिर
का पता नहीं
चलता। जिसको
सिर में दर्द
कभी हुआ ही
नहीं है, उसे
सिर का पता ही
नहीं है।
शांति
का पता चलता
है,
क्योंकि
अशांति है।
विश्राम
का पता चलता
है,
क्योंकि
थकान है।
प्रकाश
का पता चलता
है,
क्योंकि
अंधकार है।
जीवन
का पता चलता
है,
क्योंकि
मौत है।
जिन्होंने
अमृत जीवन को
जाना, उनको
धीरे—धीरे
जीवन का पता
भी नहीं चलता।
जहा
मृत्यु नहीं
है, वहां
जीवन का पता
कैसे चले?
होने
ही को है ऐ दिल
तकमील
मुहब्बत की
एहसासे—मुहब्बत
भी मिटता नजर
आता है।
आज
इतना ही।
thank you guruji
जवाब देंहटाएं