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गुरुवार, 8 सितंबर 2016

एस धम्‍मो सनंतनो--(प्रवचन--024)

हु लुत्फ—ए—मय तुझसे क्या कहूं——(प्रवचन—चौबीसवां)

पहला प्रश्न :
 भगवान, आप मुझे देख—देखकर शराब की बातें क्यों करते हैं? सीधे—सीधे क्यों नहीं कह देते? मैं सिद्ध हूं; आपको कुछ हूं कहना है?
 रू ने पूछा है।
      पियक्‍कड़ों को देखकर शराब की बात उठ आए यह स्वाभाविक है। मेरे पास तुम्हें कहने को कुछ भी नहीं है—तुम्हीं को कहता हूं। एक दर्पण हूं; उससे अगद। नहीं। तुम्हारी तस्वीर तुम्हीं को लौटा देता हूं।
      तो प्रश्न तो मजाक में ही पूछा है तरु ने, लेकिन मजाक का भी बड़ा सत्य होता ते। जरूर बात उसकी पकड़ में आई। उसको देखकर मुझे शराब की बात याद आती होगी।
लेकिन तरु ही अगर पियक्कड़ होती तो कोई अड़चन न थी; सभी पीए हुए हैं। अलग—अलग मधुशालाएं हैं। अलग—अलग ढंग की शराब है। लेकिन सभी पीए हुए हैं। किसी ने धन की शराब पी है, किसी ने पद की शराब पी है, लेकिन सभी बेहोश हैं।

      संसार में होने का ढंग ही बेहोशी है। जब तक तुम परमात्मा की शराब न पी लो, तब तक तुम संसार की शराब पीते ही रहोगे; वह परिपूरक है। और परमात्मा की शराब, बस ऐसी एक शराब है, जो होश देती है; जो बेहोशी नहीं लाती। बाकी सब शराबें बेहोशी लाती हैं, विस्मरण लाती हैं। तुम अपने को भूल जाते हो। और अपने को भूलकर कहीं कोई सत्य को पा सकेगा? अपने को मिटाना है, भुलाना नहीं। मिटाकर सत्य मिलता है। भुलाना तो धोखे की बात है। तुम तो बने ही रहते हो। बस, तुम्हें याद नहीं रह जाती कि तुम हो।
      तो शराब इस संसार की चाहे मधुशालाओं में मिलने वाली शराब हो, चाहे राजधानियों में पदों की शराब हो, चाहे बाजारों में धन की शराब हो, चाहे मंदिरों में, मस्जिदों में त्यागियों की शराब हो, जिसमें भी तुम अपने को भूल जाते हो—मिटते नहीं—याद रखना, भूल जाते हो बने तो रहते हो। नशा कितनी देर टिकेगा? थोड़ी देर बाद फिर होश उभर आएगा, फिर तुम वापस लौट आओगे।
      परमात्मा की भर शराब ऐसी है कि पीकर कोई फिर होश में नहीं आता। होश में नहीं आता, इसका अर्थ, बचता ही नहीं जो वापस लौट आए। बाकी शराबें क्षणभंगुर हैं। परमात्मा की शराब शाश्वत है। एस धम्मो सनंतनो।
      जिसने उसे पी लिया. फिर वह बचता ही नहीं। मिट ही जाता है। जो मिटाए, ऐसी शराब खोजो। तब तुम चकित होओगे। तब तुम एक विरोधाभास के करीब आ जाओगे। वह विरोधाभास यह है होश मिटा सकता है; बेहोशी मिटाती नहीं, बचाती है।
      पीए तो सभी हैं। गलत शराब पीए हैं। ठीक शराब ढ़ालनी है तुम्हारी प्यालियों में। गलत पी—पीकर तो तुम गलत हो गए हो। क्योंकि जो तुम पीते हो, वही हो जाते हो। वही तुम्हारी रगों में और नसों में घूमने लगता है। लेकिन अब तक धर्मों ने भी ठीक पी लेने की बात तो कम कही, गलत की निंदा बहुत की।
      मेरे मन में शराब की कोई निंदा नहीं है। निंदा से मेरा कोई संबंध नहीं है। शराब की निंदा क्या करनी? क्योंकि कुछ लोग फिर निंदा की ही शराब पीते हैं। फिर वह निंदा ही करने में भूले रहते हैं। फिर उनका कुल नशा इतना ही रह जाता है कि दूसरों को नर्क भेजते रहें और दूसरों को पाप के दंड देते रहें। तब उनकी दुष्टता और उनकी मूढ़ता नए रास्ते खोज लेती है।
      मेरे मन में कोई निंदा नहीं है। निंदा करने वालों ने ही तो शराब में इतना रस भर दिया। इतना रस शराब में है नहीं, लेकिन निषेध से रस जन्मता है।
      आपकी जिद ने मुझे और पिलाई हजरत
      शेखजी इतनी नसीहत भी बुरी होती है
      अगर बहुत ज्यादा लोगों से कहते रहो, मत करो! मत करो! करने का आकर्षण पैदा होता हैं। अगर लोगों से कहो, यहां झांकना मना है। तो लोग वहीं झांकने लगते हैं।
      मैं विश्वविद्यालय में था। तो विश्वविद्यालय का जो पेशाबघर था, उसके ठीक पास ही, थोड़े ही दूर चलकर हमारा विभाग था। पढ़ने के दिनों की बात है। उस पेशाबघर में मैंने एक तीर बना दिया दीवाल पर और लिख दिया, ऊपर मत देखना। तीर और एक बना दिया, वहां लिख दिया, ऊपर देखना सख्त मना है। और एक आखिरी ऊपर छत पर, छप्पर पर, लिख दिया, महाशय! तत्काल नीचे देखिए। पर इतनी देर में लोग अपना पायजामा खराब कर लेते। अपने डिपार्टमैंट के बाहर बैठकर हम देखते रहते कि किन—किन ने पढ़ा है। करीब—करीब सभी पढ़कर लौटते।
      आपकी जिद ने मुझे और पिलाई हजरत
      शेखजी इतनी नसीहत भी बुरी होती है
      तो मैं तुमसे कहता नहीं कि मत पीना। मैं तुमसे कहता हूं कि जब पीने ही चले सो ठीक ही शराब पीना। जब पीने की ही बात ठान ली, और जब परमात्मा ही मिलता हो पीने को तो फिर संसार क्यों पीना? फिर कूड़ा—करकट क्यों पीना? जब ऐसी बेखुदी मिलती हो, जो सदा के लिए मिल जाए, जब बोझ सदा के लिए उतर जाने की संभावना हो तो क्षणभंगुर की विस्मृति को क्यों अपने हृदय में जगह देनी?
      मैं तुम्हें बड़ी शराब देता हूं। छोटी शराब छीनने का मेरा आग्रह नहीं। कंकड़—पत्थरों से, उनके त्याग करवाने की मेरी कोई शिक्षा नहीं। मैं तुम्हें हीरे देता हुं। हीरे मिल जाएं, कंकड़—पत्थर अपने से छूट जाते हैं। मैं तुम्हारे मंदिर को परमात्मा की मधुशाला बनाना चाहता हूं। वहां ऐसी मस्ती हो कि मधुशालाएं झेंप जाएं। तो ही धर्म पृथ्वी पर जीतेगा।
नहीं तो धार्मिक तो लगता है रूखा—सूखा। शराबी ही ज्यादा मस्त मालूम होते हैं। धार्मिक तो लगता है काटे जैसा। शराबी में ही कभी—कभी फूल की झलक मिल जाती है। जरूर कहीं कोई भूल हो गई है। मंदिर ने भी कोई गलत राह चुन ली—निषेध की, इंकार की, त्याग की।
      मैं तुमसे कहता हूं? धर्म महाभोग है। तुम्हें अगर शराब पीने की जरूरत पड़ रही है तो उसका केवल इतना ही अर्थ है कि तुम महाभोग से वंचित हो। विराट तुम पर उतर सकता था, लेकिन तुमने ठीक दिशा न खोजी। विराट तुम्हारा अपान बन सकता था, लेकिन तुम अपनी अंधेरे की खोज में छिपे बैठे हो। इसलिए जरूरत पड़ती है।
      शराब चोरी से परमात्मा की झलक लेने की कोशिश है—चोरी से! पीछे के दरवाजे से! चोर कभी—कभी तुम्हारे घर में घुस आता है, तो तुमने खयाल किया? एक झलक तो उसे भी मिल ही जाती होगी तुम्हारे घर की, तुम्हारे बैठकखाने की। लेकिन चोर की झलक भी कोई झलक है? भागा— भागा है। चोर की तरह आया है। मेहमान भी घर में आता है, अतिथि भी घर में आता है; तुम द्वार पर उसका स्वागत करते हो। शराब, चोरी—छिपे परमात्मा की झलक लेने की कोशिश है। और जिस मंदिर में स्वागत हो सकता हो, जहा तुम अतिथि हो सकते हो—सम्माननीय, सम्मानित, वहां चोर होकर क्यों जाना?
तो शराबी क्षणभर को भूलता है। जिन शराबियों की मैं बात कर रहा हूं वे सदा के लिए भूल जाते हैं। मैं तुमसे कुछ छुड़ाना नहीं चाहता। त्याग पर मेरा जोर नहीं है। मैं तुम्हें ठीक—ठीक भोग सिखाना चाहता हूं। विराट तुम में उतर आए। तुम्हारे हाथ में मैं बोतल देना चाहता हूं परमात्मा की।
      'आप मुझे देख—देखकर शराब की बातें क्यों करते हैं?
      तुम्हें देख—देखकर और बात भी किस बात की करूं?
      'मैं सिद्ध हूं; आपको कुछ कहना है?'
      अब शराबियों से विरोध करना ठीक नहीं। मान ही लेना उचित है। कौन झंझट ले! जब तुम्हें होश आएगा तो खुद ही समझ आ जाएगी। होश लाने की कोशिश करता रहूंगा। तुम क्या कहते हो, उसकी मैं चिंता नहीं करता।
      मेरे पिता के एक मित्र हैं। वे बचपन से मुझे जानते हैं घोर शराबी हैं। कभी—कभी मुझसे मिलने आ जाते थे। तो मेरे परिवार के लोगों को शक हुआ कि बात क्या होती है? क्योंकि घंटों। एक दिन वे आए थे, तो मेरी बुआ मकान के पीछे—जहां बैठकर हम दोनों बात कर रहे थे—छिपकर सुनती रही। वह बड़ी हैरान हुई। क्योंकि वे शराबी कह रहे थे कि उन्नीस सौ बत्तीस में वे जेल गए थे। स्वतंत्रता के आंदोलन में। तब तो मैं एक ही साल का था। वे मुझसे कह रहे थे कि हम दोनों जब जेल में तीन साल बंद रहे. याद है कुछ? मैंने कहा, सब याद है। एक—एक बात याद है। तो जेल की वे बातें करते रहे और यह मानकर कि हम दोनों बंद रहे। मेरी बुआ तो हैरान हुई। ठीक, वह शराबी को तो माफ कर सकती थी। उसको यह समझ में न आया कि मुझे क्या हो गया है?
      जाते ही शराबी को उन्होंने मुझे पकड़ा और कहा कि तुम्हें हो क्या गया है? क्या तुम भी पी लिए हो? उन्नीस सौ बत्तीस में तुम्हारी उम्र एक साल की थी। यह आदमी तो का हो गया। यह उन्नीस सौ बत्तीस में जेल गया था। और तुम जेलखाने की दोनों बातें कर रहे थे। अब मैंने कहा, इसका विरोध भी कौन करे? और विरोध करने से सार भी क्या है? यह कोई सुनेगा? अगर मैं इसका विरोध करूं तो मैं भी होश में नहीं।
सो तरु, तू सिद्ध है! अगर विरोध करूं तो मैं होश में नहीं।
      लेकिन एक और शराब है। जिस शराब को तुमने अभी शराब समझा, वह असली नहीं है, उधार है। नगद नहीं, धोखा है। आत्मवंचना है। नगद परमात्मा की शराब पीयो।
      कर्ज की पाते थे मय लेकिन समझते थे कि हा
      रंग लाएगी हमारी फाकामस्ती एक दिन
      कर्ज की पीते थे मय लेकिन समझते थे कि हैं
      रंग लाएगी हमारी फाकामस्ती एक दिन
      जब पीना ही हो तो कर्ज की मत पीना, उधार की मत पीना। और सभी शराबें जो तुम्हारे बाहर से आती हैं, उधार हैं। एक ऐसी शराब भी है, जो तुम्हारे अंतरतम में निचुड़ती है। वही केवल नगद है और उधार नहीं। ऐसे भी अंगूर हैं, जो तुम्हारी अंतरात्मा में लगते हैं। और ऐसी भी शराब है, जो वहीं अंतरात्मा की धूप में पकती है। वहीं अंतरात्मा में ढलती है। तुम्हीं शराब हो वहां और तुम्हीं पीने वाले भी। वहा तुम्हीं मधुशाला हो, तुम्हीं मधुपात्र, तुम्हीं मदिरा। तब तो तुमने नगद पी। जिसने बाहर से पी, उसने उधार पी।
      और कर्ज की पीकर यह मत सोचना कि कभी रंग आने वाला है। रंग छिन जाएगा। फीके हो जाओगे और। जीवन उदास होगा, क्षीण होगा। जीवन पर धूल जम जाएगी और। रंग न खिलेंगे, फूल न खिलेंगे, सुगंध न निकलेगी। तुम्हारी श्वास में शराब की बू आएगी।
      बुद्धों की श्वास में भी खुशबू है किसी और शराब की। बुद्धों के पास ही बैठकर तुम डोलने लगोगे। बिना पीए डोलने लगोगे। बुद्धों के पास से लौटोगे तो पैर डगमगा के। एक मस्ती छा जाएगी। दिनों लग जाएंगे वापस लौटने में अपने पुराने ढंग पर।
      सत्संग को पीयो। सत्संग बाहर से आने वाली शराब नहीं।
      बुद्ध पुरुष तुम्हें कुछ देते नहीं; जो तुम्हारे भीतर सोया है, उसे जगाते हैं। बुद्ध पुरुष तुम्हें न तो धन देते हैं, न तुम्हें पद देते हैं, न तुम्हें विस्मृति देते हैं। बुद्ध पुरुष तुम्हारे भीतर जो छिपा है, उसे जगाते हैं। वही तुम्हारा धन बन जाता है, वही तुम्हारा पद, और वही तुम्हें एक ऐसी मस्ती से भर जाता है, जो फिर कभी छिनती नहीं। अभी तो जिसे तुमने अपना जीवन समझा है, वह जीवन की छाया भी नहीं है। वह तो दूर की ध्वनि भी नहीं जीवन की। अभी तो तुमने जिसे जीवन समझा है, वह बड़ी त्‍वरा धारणा है। इस जीवन की पीड़ा के बोझ से तुम अपने को भुलाने में लग जाते हो। कोई सिनेमा में जाकर बैठ जाता है, तो घड़ीभर को अपने को भूल जाता है। भूल जाता है तस्वीरों में।
      देखो, धोखे कैसे सरल हैं! परदे पर कुछ भी नहीं है। जानते हो तुम, परदे पर कुछ भी नहीं है। जानते हो तुम, जो दिखाई पड़ रहा है धूप—छाया का खेल है, लेकिन भूल जाते हो। भुलाने को ही आए हो, इसलिए भूल जाते हो। चाहते हो कि भूल जाओ। थोड़ी देर को भूल जाए घर, दुकान, बच्चे, पत्नी, चिंताएं, बोझ, दायित्व! थोड़ी देर को तुम निर्भार हो जाओ। थोड़ी देर को राहत मिल जाए। बोझ को उतारकर रख देने का मन है। बोझ उतरता नहीं। थोड़ी देर बाद सारा बोझ वहीं का वहीं होगा। शायद और बढ़ जाएगा.। क्योंकि इस संसार में कोई चीज ठहरी हुई नहीं है। बोझ भी बढ़ रहा है, जैसे वृक्ष बड़े हो रहे हैं। जैसे तुम्हारी उम्र बड़ी हो रही है, ऐसा तुम्हारा बोझ भी बड़ा हो रहा है। हर चीज बढ़ रही है। ये जितने क्षण तुमने सिनेमा में बिताए, उतने क्षण भी बोझ चुपचाप बड़ा होता जा रहा है। लौटकर तुम अपने को और भी थका—मादा, हारा हुआ पाओगे।
      कोई संगीत में भुला रहा है। और कुछ हैं, जो भजन—कीर्तन में भी भुला रहे हैं। अब यह समझने की बात है। अगर तुम्हारा भजन—कीर्तन परमात्मा के स्मरण से आ रहा है, नाम—स्मरण से आ रहा है, तब तो ठीक। अगर तुम्हारे भजन—कीर्तन का भी उपयोग वही तुम कर रहे हो, जो सिनेमा और संगीत और वेश्या का किया है, तो तुम्हारा भजन—कीर्तन नाममात्र को भजन—कीर्तन है, असली नहीं। तुम वहां भी शराब ही खोज रहे हो। धार्मिक ढंग की खोज रहे हो।
      ऐसे तुम अपने को भुलाए जाओ, अपने से दूर हुए जाओ, तुम्हारे होने और तुम्हारे असली होने में फासला बनता जाए.।
      बेखुदी कहां ले गई हमको
      देर से इंतजार है अपना
      ऐसी दशा है। अपनी ही प्रतीक्षा कर रहे हो। पता नहीं कहां खो गए हो! अपना ही ठीक—ठीक पता नहीं है। पैर कहीं पड़ रहे हैं, पता नहीं है। जीवन कहां जा रहा है, पता नहीं है। क्यों चले जा रहे हो, कुछ पता नहीं है।
      ऐसी गैर—पता अवस्था को तुम जीवन कहोगे! तो फिर मृत्यु क्या है? अगर तुम्हारा जीवन—जीवन है, तो इससे बदतर कुछ भी नहीं हो सकता। यह जीवन नहीं। तुम्हें जीवन का धागा ही हाथ में नहीं पकड़ में आया।
      जीवन कमाना होता है, मिलता नहीं। जीवन साधना है। जन्म के साथ जीवन नहीं मिलता। जन्म के साथ अवसर मिलता है। साधो, तो जीवन मिल जाएगा। न साधो, कभी न मिलेगा। तुमने जन्म को ही जीवन समझ लिया है। और इसीलिए तो तुम इतने परेशान हो कि भुलाने के लिए शराबों की जरूरत है।
      सदियों से मंदिर और मस्जिद ने शराब का विरोध किया है। चर्च और गुरुद्वारे ने शराब का विरोध किया है। लेकिन शराब जाती नहीं। मंदिर—मस्जिद उखड़ गए हैं, मधुशाला जमी है। मंदिर—मस्जिदों में कौन जाता है अब? जो जाते हैं वे भी कहां जाते हैं? वे भी कोई औपचारिकता पूरी कर आते हैं। जाना पड़ता है इसलिए जाते हैं। वहां बैठकर भी वहां कहां होते हैं? मन तो उनका कहीं और ही होता है।
      यह जरूरत अपने को भुलाने की इसीलिए है कि तुम्हें अपना पता ही नहीं। और जो तुमने अपने को समझा है वह काटे जैसा चुभ रहा है।
      तुम्हें मैं वही दे देना चाहता हूं, जो तुम्हारे पास है और जिससे तुम्हारे संबंध छूट गए हैं। उसको पा लेना ही सिद्ध हो जाना है। सिद्ध को भुलाने की कोई जरूरत ही नहीं रह जाती।
      सिद्ध का अर्थ क्या होता है? सिद्ध का अर्थ इतना ही होता है कि जो बीज की तरह था तुम्हारे भीतर, वह वृक्ष की तरह हो गया फूल लग गए। सिद्ध का इतना ही अर्थ है, जो तुम होने को हुए थे हो गए। जो तुम्हारी नियति थी, परिपूर्ण हुई।
      गंगा जहां सागर में गिरती है, वहा सिद्ध हो जाती है।
      बीज जहां फूल बन जाता है, वहां सिद्ध हो जाता है।
      सिद्ध का अर्थ है कि अब और कुछ करने को न रहा, अब कुछ पाने को न रहा, अब कहीं जाने को न रहा। अब कोई मंजिल न रही। अब तुम्हीं मंजिल हो। अब कोई मंदिर—मस्जिद न रहा, कोई तीर्थ न रहा। कोई यात्रा न रही। अब तुम्हीं मंदिर हो, तुम्हीं मस्जिद हो। प्रारंभ अंत पर आ गया। जो यात्री चला था, वह पहुंच गया।
      तब भुलाने की कोई जरूरत नहीं रह जाती। क्योंकि होना इतना आनंदपूर्ण है क्या तुमने कभी खयाल किया, तुम जब भी सुखी होते हो, तब तुम अपने को भुलाना नहीं चाहते। जब दुखी होते हो, तभी भुलाना चाहते हो। सुखी आदमी शराब न पीएगा। क्यों पीएगा? कोई सुख को भुलाना चाहता है? कोई सुख को डुबाना चाहता है? कोई सुख को गंवाना चाहता है? सुखी आदमी शराब न पीएगा। दुखी आदमी पीता है। दुख को भुलाना पड़ता है, इसलिए। दुख को भुलाना ही पड़ेगा, अन्यथा झेलना मुश्किल हो जाता है। भुला— भुलाकर झेल लेते हैं। भुला— भुलाकर चल लेते हैं, किसी तरह खींच लेते हैं बोझ को।
      जब तुम्हारा आपरेशन किया जाता है, तो बेहोशी की दवा देनी पड़ती है। इतनी पीड़ा होगी कि बिना बेहोशी के तुम न उसे झेल पाओगे। लेकिन जब तुम किसी उत्सव में होते हो, आनंद में होते हो, तब तो कोई जरूरत नहीं है।
      एक मित्र मेरे पास आते थे। उन्होंने मुझसे कहा कि मैं आपके पास आते डरता हूं। मन तो बहुत होता है आने का। ध्यान भी करना चाहता हूं। लेकिन एक अड़चन मन में बनी रहती है। और वह यह कि आज नहीं कल आपको पता चल जाएगा कि मैं शराब पीता हूं। और तब आप जरूर कहोगे कि शराब पीना छोड़ो। यह मुझसे न हो सकेगा। यह मैं कर चुका बहुत बार। हार चुका बहुत बार। अब तो मैंने आशा ही छोड़ दी। अब तो यह जीवनभर की संगी—साथिनी है। यह मुझसे न हो सकेगा। और आज नहीं कल आपको पता चल जाएगा। और फिर आप कहोगे कि ध्यान करना है तो पहले इसे छोड़ दो।
      मैंने कहा कि तब तुम मुझे समझे ही नहीं। मैं तो तुमसे इतना ही कहता हूं कि तुमने चूंकि ध्यान नहीं किया, इसीलिए पी रहे हो। ध्यान महा—शक्तिशाली है। अगर ध्यान करने के लिए शराब छोड़नी पड़े तो शराब ज्यादा शक्तिशाली है। नहीं, मैं तो तुमसे कहता हूं? तुम ध्यान करो। जिस दिन ध्यान होगा, उस दिन सोच लेंगे।
      उन्होंने कहा, तो यह कोई शर्त नहीं है? यह कोई प्राथमिक जरूरत नहीं है? आप क्या कहते हैं? सभी शास्त्र यही कहते हैं, पहले आचरण ठीक हो, फिर ध्यान।
      मैंने कहा, मेरा शास्त्र यही कहता है, ध्यान ठीक हो जाए तो आचरण अपने से ठीक हो जाता है। प्रार्थना जम जाए तो प्रेम अपने से जम जाता है। थोड़ी सी सुगंध अपनी आने लगे, तो कौन उसे भुलाना चाहता है? मैंने कहा, तुम फिक्र न करो, तुम पीए जाओ। उन्होंने कहा, तो बनेगी यह दोस्ती।
      पर उन्होंने बड़ी संलग्नता से, बड़ी तल्लीनता से ध्यान किया। वे आदमी साहसी थे। उन्होंने बड़ी मेहनत. अपना सारा सब कुछ लगाकर ध्यान किया। जैसे उन्होंने शराब पर सब गंवा दिया था, ऐसे ध्यान पर भी गंवा दिया।
      जुआरियों से मेरी बनती है, दुकानदारों से नहीं। व्यवसायी से मेरा तालमेल नहीं बैठता। हिसाबी—किताबी से बड़ी अड़चन हो जाती है। क्योंकि ये बातें ही हिसाब—किताब की नहीं हैं। और जब मैंने उनसे कह दिया कि तुम निर्भय रहो। मैं अपने मुंह से तुमसे कभी न कहूंगा कि शराब छोड़ो। तुम पीयो। मेरा जोर ध्यान करने पर है। शराब से मुझे क्या लेना—देना?
      मैंने अपना वचन निभाया तो उन्होंने भी अपना वचन निभाया। उन्होंने ध्यान बड़ी ताकत से किया। लेकिन सालभर बाद वह मुझसे आकर कहने लगे कि धोखा दिया। शराब तो गई! पीना मुश्किल होता जा रहा है। रोज—रोज मुश्किल होता जा रहा है।
मैंने कहा, मुझसे बात ही नहीं करना शराब की। वह हमने पहले ही तय कर लिया था कि हम बात न करेंगे। वह तुम जानो। अब तुम्हारी मर्जी। अगर ध्यान चुनना हो तो ध्यान चुन लो, शराब चुननी हो शराब चुन लो। चुनाव की अब सुविधा है। अब दोनों सामने खड़े हैं। अब दोनों रसों का स्वाद मिला। अब चुन लो। अब तुम जानो। अब मुझसे मत बात करो। मेरा काम ध्यान का था, वह पूरा हो गया। उन्होंने कहा, अब तो असंभव है लौटना पीछे। और अब तो सोच भी नहीं सकता कि ध्यान को छोडूंगा। अब तो अगर शराब जाएगी तो जाएगी।
      और शराब गई! शराब को जाना ही पड़ेगा। जब बड़ी शराब आ गई, कौन टुच्ची बातों से उलझता है? जब विराट मिलने लगे तो कौन ठीकरे पकड़ता है? तुम धन को पकड़ते हो, क्योंकि तुम्हें असली धन की अभी कोई खबर नहीं। मैं तुमसे धन छोड़ने को नहीं कहता, असली धन खोजने को कहता हूं। तुम पकड़े रहो धन को, इससे कुछ बनता—बिगड़ता नहीं है। यह इतना बेकार है, इससे कुछ बनता नहीं, बिगड़ेगा कैसे? तुम पीते रहो शराब, इससे कुछ बनता—बिगड़ता नहीं है। इससे बनता ही नहीं तो बिगड़ेगा कैसे?
      इस बात को ध्यान रखना कि जिस चीज से कुछ बनता है, उससे कुछ बिगड़ता है। ही, गलत ध्यान करोगे तो बिगड़ेगा। ठीक ध्यान करोगे तो बनेगा। सपना अच्छा देखो कि बुरा, क्या फर्क पड़ता है? सपने से कुछ बनता—बिगड़ता नहीं। तुम सपने में साधु हो जाओ तो क्या फायदा? और तुम सपने में हत्यारे हो जाओ तो क्या हानि?
सुबह जब हाथ—मुंह धोकर फिर से सोचोगे, हसोगे। सब बराबर! सपने का साधु और सपने का हत्यारा बराबर।
      लेकिन जागने में गलत करो, तो कुछ बिगड़ता है। जागने में ठीक करो, तो कुछ बनता है। जिससे बनता है, उससे बिगड़ता भी है। जिससे लाभ होता है, उससे हानि भी होती है।
      जब तक भीतर की नगद, तुम्हारी ही अंतरात्मा में ढली शराब तुम्हें उपलब्ध नहीं है, तब तक पीयो। तब तक भिखारी की तरह मधुशालाओं के द्वारों पर खड़े रहो। लेकिन ध्यान रखना, ऐसे तुम एक विराट अवसर गंवा रहे हो। किसी दिन रोओगे। कहीं ऐसा न हो कि जब तुम्हें सुध आए, तब समय हाथ में न रह जाए।
      कहीं ऐसा न हो कि जब मौत द्वार पर दस्तक दे—दे तब तुम रोओ! उसके पहले ही जाग आ जाए, तो सौभाग्य! आ सकती है। नहीं तो मेरे पास ही क्यों आते? खोज चल रही है। डगमगाते हैं पैर, माना। सम्हल जाएंगे। थोड़े अभ्यास की बात है। फिर—फिर लौट जाते हो पुराने ढांचों—ढर्रों में, माना। लंबी आदत है, स्वाभाविक है। लेकिन क्षणभर को भी बाहर निकल आते हो, यह भी क्या कम है?
      एक किरण भी तुम्हारे भीतर उतर आती है परलोक की, काफी है। जन्मों—जन्मों के अंधेरे को मिटा लेंगे। अंधेरे की मैं बात नहीं करता। बस, एक किरण काफी है। सूरज तक पहुंच जाएंगे। एक किरण के धागे को पकड़ लिया।
      बहुत धागे तुम्हें दे रहा हूं। एक नहीं पकड़ते, दूसरा देता हूं। दूसरा नहीं पकड़ते, तीसरा देता हूं। कोई न कोई तो पकड़ में आ ही जाएगा। पकड़ में तुम्हारे नहीं आता, इससे मुझे कुछ परेशानी नहीं है। तुम पकड़ने की चेष्टा करते हो, यही क्या कम है? छूट जाता है, इस पर मैं ध्यान ही नहीं देता। तुमने पकड़ने के लिए हाथ बढ़ाया था, यही काफी है। कभी न कभी पकड़ में आ ही जाएगा। चेष्टा जारी रहे, साधना जारी रहे, सिद्धत्व भी दूर नहीं है।

दूसरा प्रश्न:

     
      कल आपने कहा कि कवि और शायर भी कभी—कभी ज्ञान की बातें करते हैं। लेकिन यदि वे शराब न पीते, बेहोशी में न पड़े होते तो सिद्ध हो जाते। तो क्या शराब पीते हुए भी व्यक्ति सिद्ध नहीं हो सकता?

राब पीते ही सभी व्‍यक्‍ति सिद्ध होते है। ऐसे ही सिद्ध होते हैं। सिद्ध होकर शराब छूट जाती है।
      तुम जिसको शराब कहते हो, उसको ही शराब नहीं कह रहा हूं मैं तो पूरे संसार को शराब कह रहा हूं। वह सब नशा है। जरा धन की दौड़ में पड़े आदमी को देखो, उसकी आंखें  में तुम एक मस्ती पाओगे। रुपए की खनकार सुनकर उसे ऐसा नशा छा जाता है, जो कि बोतलें भी पी जाओ, खाली कर जाओ तो नहीं छाता। धन की दौड़ में पड़े आदमी को जरा गौर से देखो, कैसा मोहाविष्ट! कैसा मस्त! जैसे मंजिल बस आने के करीब है। परमात्मा से मिलन होने जा रहा है।
      पदाकांक्षी को देखो, पदलोलुप को देखो, राजनेता को देखो, कैसा मस्त! जमीन पर पैर नहीं पड़ते। शराबी भी थोड़ा सम्हलकर चलते हैं। अहंकार की शराब जो पी रहे हैं, उनके पैर तो आसमान पर पड़ते हैं। सारा संसार, वासना मात्र बेहोशी है। तो अगर कोई कहता हो, यह सारी वासना छोड़ोगे तब तुम सिद्ध बनोगे, तब तुम छोडोगे कैसे? यह तो बात ऐसे हुई कि तुम चिकित्सक के पास गए, और उसने कहा, सारी बीमारियां छोड़ोगे तभी मेरी औषधि मैं तुम्हें दूंगा। पर तब औषधि की जरूरत क्या रह जाएगी?
      नहीं, तुम बीमार हो यह माना, इससे कोई कठिनाई नहीं। तुम स्वस्थ होना चाहते हो, बस इतनी शर्त पूरी हो जाए। तुम स्वस्थ होना चाहते हो। तुम्हारे भीतर कोई बीमारी के पार उठने की चेष्टा में संलग्न हो गया है। तुम्हारे भीतर कोई सीढ़ियां चढ़ने की तैयारी कर रहा है—पार जाना चाहता है इस अस्वास्थ्य से, इस वासना से, तृष्णा से, इस बेहोशी से। माना कि तुम गिर—गिर जाते हो, कीचड़ में फिर—फिर पड़ जाते हो, सब ठीक! इसमें कोई हर्जा नहीं है। लेकिन फिर तुम उठने की कोशिश करते हो।
      कभी छोटे बच्चे को चलने की कला सीखते देखा? कितनी बार गिरता है? कितनी बार घुटने टूट जाते हैं, लहूलुहान हो जाता है। चमड़ी छिल जाती है। फिर—फिर उठकर खड़ा हो जाता है। एक दिन खड़ा हो जाता है। एक दिन चलना सीख जाता है।
      अगर हम यह शर्त रखें कि जब तुम सब गिरना छोड़ दोगे, डांवाडोल होना छोड़ दोगे, तभी कुछ हो पाएगा, तब तो हम बच्चे की सारी आशा छीन लें। नहीं, गिरने में भी चलने का ही उपक्रम है। गिर—गिरकर उठने में भी चेष्टा चल रही है, साधना चल रही है। हम बच्चे को कहेंगे, बेफिक्र रहो। गिरने पर ज्यादा ध्यान मत दो। वह भी चलने के मार्ग पर एक पड़ाव है।
      भटकने पर बहुत ज्यादा परेशान मत हो जाओ। भटकना भी पहुंचने का हिस्सा है। संसार भी परमात्मा के मार्ग पर पड़ता है। गिरो! पड़े ही मत रहो, उठने की चेष्टा जारी रहे। तो एक दिन उठना हो जाएगा। जिसके भीतर उठने की चेष्टा शुरू हो गई, पहला कदम उठ गया। और एक छोटे से कदम से हजारों मील की यात्रा पूरी हो जाती है।
      लाओत्सु ने कहा है, एक कदम तुम उठाओ। दो कदम एक साथ कोई उठाता भी तो नहीं। एक—एक कदम उठा—उठाकर हजारों मील की यात्रा पूरी हो जाती है।
      तुम बेहोश हो माना, लेकिन इतने बेहोश भी नहीं कि तुम्हें पता न हो कि तुम बेहोश हो। बस, वहीं सारी संभावना है। वहीं असली सूत्र छिपा है। फिर से मुझे दोहराने दो। तुम बेहोश हो माना, लेकिन इतने बेहोश भी नहीं कि तुम्हें पता न हो कि तुम बेहोश हो। बस, उसी पता में, उसी छोटे से बीज में सब छिपा है। ठीक भूमि मिलेगी, बीज अंकुरित हो जाएगा।
      परेशानी तो उनके लिए है, जिन्हें यह भी पता नहीं। उन्हीं को बुद्ध ने मूढ़ कहा है। मूढ़ मूर्ख का नाम नहीं है। मूढ़ और मूर्खता में फर्क है। मूर्ख तो वह है, जिसे पता नहीं है। यह कोई बड़ी बीमारी नहीं है। मूढ़ वह है, जिसे पता भी नहीं और जो मानता है कि उसे पता है। मूढ़ वह है, जो कीचड़ में पड़ा है; और सोचता है, स्वर्ग में है। मूर्ख वह है, जो कीचड़ में पड़ा है, जानता है कि कीचड़ में पड़ा हूं।
      इन दोनों के बीच में विश है, समझदार है, जो कीचड़ में पड़ा है, जानता है कि कीचड़ में पड़ा है; और चेष्टा कर रहा है उठने की, कि उठ जाए। गिर—गिर पड़ता है। स्वाभाविक है। सीखना पड़ेगा। लेकिन चेष्टा जारी रहती है। फिर—फिर लौट आता है। भटक—भटक जाता है, फिर मंदिर को तलाश लेता है। लौट—लौटकर उस सूत्र को पकड़ने की कोशिश करता है।
      वह सूत्र है, बोध का। ध्यान कहो, प्रार्थना कहो, मगर सार बोध है। इसलिए तो हमने जब सिद्धार्थ गौतम शान को उपलब्ध हुए तो उन्हें बुद्ध कहा—बोध के सूत्र को उपलब्ध हो गए। जाग गए।
      बेहोश भी पहुंच जाएंगे। अगर बेहोश न पहुंचते होते तो फिर तो कोई भी न पहुंचता। क्योंकि बुद्ध भी एक दिन बेहोश थे। उसी बेहोशी से बुद्धत्व उठा। इसलिए बेहोशी को तुम बुद्धत्व की दुश्मनी मत समझ लेना। बेहोशी बुद्धत्व का अवसर है। जैसे कीचड़ से कमल उगता है, ऐसे बेहोशी से बुद्धत्व उगता है। यद्यपि कमल दूर चला जाता है कीचड़ से, लेकिन आता कीचड़ से है। रस कीचड़ से पाता है। रस को रूपातरित कर लेता है।
      तुम भोजन करते हो, भोजन करके तुम्हारे भीतर कामवासना बनती है। इसलिए तो साधु—संन्यासी उपवास करने लगते हैं। घबड़ा जाते हैं भोजन से। क्योंकि जितना भोजन लेते हैं, उतनी वासना उभार लेती है।
      बुद्ध पुरुष भी भोजन लेते हैं, लेकिन उसी भोजन से अब वासना नहीं बनती; करुणा बनती है। अब कीचड़ कमल बनने लगी।
      तुम रात सोते हो, साधु—संन्यासी डरते हैं रात सोने से। क्योंकि दिनभर तो किसी तरह सम्हाला, नींद में कैसे सम्हालेंगे? कामवासना नींद में घेर लगी। तो नींद से डरने लगते हैं। बुद्ध पुरुष के लिए दिन हो कि रात, सब बराबर है। जिसने जागना सीख लिया, वह रात भी जागा रहता है। नींद रहती है शरीर में, स्वयं में नहीं। शरीर कीचड़ है, स्वयं कमल। शरीर से बहुत पार उठ जाता है, लेकिन कीचड़ से रसधार जुड़ी रहती है। कीचड़ से रस लेता है, लेकिन रस को रूपांतरित करता है।
      सभी कुछ बोध बनने लगता है बुद्ध पुरुष में। तुममें सभी कुछ बेहोशी बन जाता है। धन मिले तो तुम बेहोश हो जाते हो, पद मिले तो बेहोश हो जाते हो। तुम्हें जो कुछ भी मिलता है, वह बेहोशी में रूपातरित होता है। तुम्हारे भीतर की पूरी की पूरी व्यवस्था, तुम्हारा यंत्र, हर चीज से बेहोशी निकालता है। तुम अगर भागकर त्यागी भी हो जाओ तो तुम्हारे त्याग में भी बेहोशी होगी।
      मैं एक जैन मुनि से मिलने गया। बहुत वर्ष हुए। जब मैं गया तो वे एक छोटी सी कहानी अपने शिष्यों को कह रहे थे। कहानी सुनकर वाह—वाह हो गई। उन्होंने मेरी तरफ भी देखा, कहा, आपको कैसी लगी? मैंने कहा कि मैं कुछ न कहूं तो अच्छा है।
      पहले मैं तुम्हें कहानी सुना दूं। कहानी ऐसी है कि तुम्‍हारे मन में भी वाह—वाह उठ आएगी। कहानी थी, एक बूढ़ी महिला ने जो एक बहुत बड़े धनपति की मां थी, अपने बेटे से कहा कि तुम सदा लाखों की बात करते हो, लेकिन मैंने कभी लाख रूपए का ढेर लगा नहीं देखा। की हो गई हूं यह बात कई दफा खयाल में आती है कि लाख का चबूतरा बनाएं, लाख रुपयों का ढेर लगाकर, तो कितना बड़ा होगा!
      बेटे ने कहा, क्या फिक्र की बात है? कभी भी कहा होता। उसने लाकर लाख रूपए, सिक्के सामने रखकर एक चबूतरा बनवा दिया। उसकी मां ने कहा कि तुम हैरान मत होना, मेरे मन में सदा इच्छा रही है कि इस पर बैठूं! तो वह उस पर बैठ गई। अब जब मां बैठ गई लाख रुपयों पर, तो उनको वापस क्या तिजोड़ी में ले जाना, ऐसा सोचकर बेटे से उनको दान करना चाहा। मां के चरण पड़ गए, उसकी इच्‍छा थी, उनको दान कर दें। तो एक ब्राह्मण को बुलाया। जब दान करने लगा तो थोड़ा सा अहंभाव आया, और उसने कहा कि दातार तो तुमने बहुत देखे होंगे, लेकिन मुझ सा दाता देखा? लाख रुपए का ढेर लगाकर दे रहा हूं।
      उन जैन मुनि ने कहा कि वह ब्राह्मण बड़ी त्यागी वृत्ति का, बड़ा विनम्र व्यक्ति था। उसका स्वाभिमान जागा। उसने अपनी जेब से एक रुपया निकालकर उस लाख रुपए के ढेर पर फेंक दिया और कहा कि तुमने भी बहुत से ब्राह्मण देखे होंगे, मुझ सा ब्राह्मण देखा कि लाख तो छोड़ता ही हूं एक रुपया और डाल देता हूं सम्हालों अपने रुपए।
जैन मुनि ने पूछा, आप क्या कहते हैं?
      मैंने कहा, दोनों एक ही तरह के लोग थे, कुछ फर्क नहीं। दोनों अहंकारी थे। आप दूसरे की प्रशंसा कर रहे हैं। आपके मन में बड़ा अहोभाव मालूम पड़ता है कि दूसरे ने गजब कर दिया। पहले को अभिमान जगा तो उसको आप अहंकार कहते है। दूसरे को भी अभिमान जगा, उसको आप स्वाभिमान कहते हैं। दोनों अभिमान हुई। अगर पहला गलत था, दूसरा भी सही नहीं है। पहला अहंकार भोगी का होगा, दूसरा अहंकार त्यागी का है। पहला अहंकार धनी का होगा, दूसरा अहंकार दरिद्र ' हा है। लेकिन दोनों अहंकार हैं। चूंकि आपने भी अपने को त्यागी मान रखा है, दूसरे के अहंकार से आपको भी रस मिल रहा है। और यहां जो आपके पास लोग बैठे मग हैं, इनकी भी त्याग की यही धारणा है।
      तुम अगर त्याग भी करोगे तो उससे भी अहंकार ही बनेगा। भोग की तो छोड़ो बात, त्याग भी करते हो तो उसका भी जो रस मिलता है, उससे भी अहंकार बनता है। असली सवाल त्याग और भोग नहीं, असली सवाल तुम्हारे भीतर की कीमिया, अल्केमी बदलने का है। तुम्हारे भीतर जो यंत्र बैठा हुआ है, जो हर चीज को अहंकार में बदल देता है, वासना में बदल देता है, बेहोशी में बदल देता है, उसको तोड़ना है।
      ध्यान उसका ही प्रयोग है। वह तुम्हारे भीतर के पूरे यंत्र को बदल देता है। कल भी तुम उसी मिट्टी में रहोगे, जिसमें पहले थे। लेकिन अब उसी मिट्टी से कमल।  निकलेगा। तुम उसी संसार में खड़े रहोगे जहां कल खड़े थे। लेकिन अब तुम संसार। होते हुए भी संसार में न रहोगे। संसार में तुम रहोगे, संसार तुममें न होगा। बीच में खड़े भी तुम पार होओगे। अतिक्रमण हो जाएगा। बोध का यही अर्थ है।
      तो मैंने निश्चित कल कहा कि कवि और शायर कभी—कभी बड़ी ज्ञान की बातें करते हैं। निश्चित ही। बड़ी ऊंचाइयां छू लेते हैं। लेकिन वे ऊंचाइयां ऐसे ही हैं, जैसे। किसी ने स्वप्‍न देखा—हिमालय का। उज्ज्वल सूर्य की किरणों से स्वर्णमंडित शिखर देखे, लेकिन स्वप्न में देखे। यह एक बात है। और किसी ने साक्षात किया उन शिखरों का——स्वप्न मे नहीं, जागते हुए। यह बिलकुल दूसरी बात है।
      कवि तुम्हारे जैसा ही आदमी है। तुममें और उसमें थोड़ा सा फर्क है। वह इतना ही फर्क है कि वह स्वप्न—द्रष्टा है। वह दूर के सपने देखना जानता है। वह सपने देखने में तुमसे ज्यादा कुशल है। तुम सपने भी देखते हो तो भी दूर के नहीं देखते।
      मैंने सुना है कि एक शिष्य ने अपने गुरु को आकर कहा, कि बड़ा रस आया। समाधि लग गई। ध्यान कर रहा था बैठा गुरु के सामने। गुरु ने कहा, कैसी समाधि! क्‍योंकि अचानक तूने सिसकारा लिया और आंख खोल दी। उसने कहा कि अब मैं आपको पूरी बात कह दूं। आज ध्यान दाल—बाटी बनाने पर लगाया। खूब लगा। बिलकुल लीन हो गए। ऐसा कभी न लगा था। मगर जरा दाल में मिर्च ज्यादा पड़ गए। तो सिसकारा निकल गया। फिर लगाऊंगा। जरा चूक हो गई।
      गुरु ने कहा, ध्यान ही करना था, सपना ही देखना था, तो मोक्ष का देखता,  परमात्मा का देखता। नासमझ। दाल—बाटी बनाई? दाल—बाटी ही बनानी थी तो कम री कम खीर, हलवा, कुछ ढंग की चीजें बनाता। उसमें भी ज्यादा मिर्चें डाल लीं! सपना देखना भी तुझे नहीं आता, ध्यान करना तो कैसे आएगा? सपने में भी वही भूल कर ली जो जिंदगी में कर ली, मिर्चें ज्यादा डाल लीं।
      अपने ही डाले मिर्चों से जले जाते हो, अपने ही डाले मिर्चों से नर्क पाते हो, मगर डाले चले जाते हो।
      कवि ऐसा व्यक्ति है, तुम मिर्चें डाल रहे हो अपने सपनों में, वह थोड़े खीर, हलवा—उस तरह के सपने देख रहा है। तुमसे बेहतर हैं उसके सपने। वह तुमसे ज्यादा तरल है और दूर की कौड़ी लाने में कुशल है। कभी—कभी उसके सपनों में बड़ी दूर के प्रतिबिंब बन जाते हैं। जैसे चांद उगा हो आकाश में और झील में उसका प्रतिबिंब बनता है। वह प्रतिबिंब असली नहीं है। एक कंकड़ फेंक दो झील में, प्रतिबिंब खंड—खंड हो जाएगा। एक छोटा सा कंकड़ तोड़ देगा उस चांद को।
      फिर किसी ने चांद देखा—ऋषि और कवि का यही फर्क है। ऋषि चांद देखता है, कवि चांद का प्रतिबिंब देखता है। ऋषि जब गाता है तो वह चांद की प्रशंसा में गाता है। कवि जब गाता है तो वह चांद के प्रतिबिंब की प्रशंसा में गाता है।
      लेकिन यह हो सकता है कि ऋषि की बात तुम्हें बेबूझं हो जाए। क्योंकि तुमने सत्य कभी देखा नहीं। लेकिन कवि की बात तुम्हें थोड़ी— थोड़ी समझ में आती है, क्योंकि सपने तुमने भी देखे हैं। उतने अच्छे न देखे होंगे। तुम उतने कुशल नहीं हो। तुम्हारे सपने साधारण हैं। तुम्हारे सपनों में सिसकारा निकल जाता है। लेकिन फिर भी सपने तुमने देखे हैं। सपनों की भाषा तुम जानते हो। इसलिए कवि की बात तुम्हें जल्दी समझ में आ जाती है, ऋषि की बात जरा मुश्किल है।
      कवि तुम्हारे और ऋषि के बीच में खड़ा है। तुम जैसा है, लेकिन बिलकुल तुम जैसा नहीं, तुमसे ज्यादा सृजनात्मक है। तुमसे ज्यादा कल्पना का धनी है। उसकी कल्पना ज्यादा प्रखर है। तुम भी एक डबरे हो पानी के, वह भी पानी का डबरा है। तुम पानी के ऐसे डबरे हो, इतनी मिट्टी घुली है कि प्रतिबिंब भी नहीं बनता। उसके पानी के डबरे की मिट्टी नीचे बैठ गई है। प्रतिबिंब बनता है, साफ—सुथरा बनता है। इतना ही नहीं, वह प्रतिबिंब को पकड़ लेता है चित्रों में, कविताओं में, मूर्तियों में, ढाल देता है बाहर।
      इसलिए तो इतना प्रभाव है काव्य का, चित्रों का, मूर्तियों का। जो तुमसे नहीं हो पाता, वह तुम्हारे लिए कर देता है। जो तुम नहीं गा पाते, वह गा देता है। तुम गाना चाहते थे, लेकिन तुम उतने अच्छे शब्द न खोज पाए। जब तुम किसी कवि को सुनते हो, तुम्हें ऐसा लगता है कि ठीक यही मैं कहना चाहता था। मैं न कह पाया, इसने कह दिया। तुमसे जो वाह—वाह निकल जाती है, तुम जो तालियां पीट देते हो, वह इसीलिए कि जहां तुम हार गए थे, वहा यह आदमी जीत गया। इसने बात जमा दी। ठीक वैसी ही कह दी, जैसी तुम चाहते थे कि कहो।
      ऋषि की बात दूर पड़ जाती है; बहुत दूर पड़ जाती है। तुम सुन भी लेते हो तो भी सुन नहीं पाते। समझते से भी लगते हो और समझ में आती सी भी नहीं लगती।
ऐसा लगता है कुछ समझे भी, कुछ नहीं भी समझे। कुछ धुंधला—धुंधला रह जाता है। अब यह बड़े मजे की बात है। कवि की बात धुंधली है, वह तुम्हें साफ समझ में आ जाती है। ऋषि की बात बिलकुल साफ है, वह तुम्हें धुंधली मालूम पड़ती है। क्‍योंकि भाषा का भेद है। ऋषि किसी और ही लोक की बात कर रहा है।
      लाओ उसे भी रख दें उठाकर शबे—विसाल
      हायल जो एक खलीफ सा पर्दा नजर का है
      ऋषि और कवि में इतना ही फर्क है। ऋषि की अपनी कोई नजर नहीं है। उसके पास अपना कोई दृष्टिकोण नहीं है। झीना सा पर्दा भी नहीं है उसके पास अपने मत का। उसके पास अपना कोई मन नहीं है। झीना सा पर्दा भी नहीं है उसके पास मन का। उसने अपने को पोंछ दिया बिलकुल। सत्य—सत्य की तरह ही प्रगट होता है। कवि अपने मन के झीने पर्दे से सत्य को देखता है। वह झीना पर्दा उस सत्य पर हावी हे। जाता है।
      लाओ उसे भी रख दें उठाकर शबे—विसाल
      इस मिलन की रात में, अब उसे भी उठाकर अलग रख दें।
      हायल जो एक खलीफ सा पर्दा नजर का है
      एक जो झीना सा पर्दा बीच में है, उसे भी हटा दें। जिस दिन कवि उसे हटा देता है,  उसी दिन ऋषि हो जाता है।
      सभी ऋषि कवि हैं, लेकिन सभी कवि ऋषि नहीं हैं। चाहे ऋषियों ने वक्तव्य गद्य में दिया हो, चाहे पद्य में; वे सभी कवि हैं। चाहे उन्होंने अपनी वाणी को संगीत ले छंदों में बांधा हो, न बांधा हो; लेकिन जब भी कोई ऋषि बोलता है तो उसका शब्द—शब्द छंदबद्ध है। यह छंदबद्धता भाषा की नहीं है, अंतर—अनुभव की है।
      जब ऋषि बोलता है तो बोलता नहीं, वह भी गाता है। चाहे तुम्हारे गाने के ढांचे में उसका गाना बैठता हो न बैठता हो, चाहे वह तुम्हारे मात्राओं और छंद के नियम। मानता हो न मानता हो, तुम्हारी व्याकरण और भाषा के सूत्र उपयोग करता हो न करता हो। लेकिन जब भी कोई ऋषि बोलता है, गाता है; बोलता नही। जब चलता है, चलता नहीं, नाचता है। तुम्हें दिखाई पड़ता हो न पड़ता हो, क्योंकि तुम्हारी आंख पर अभी मन का पर्दा है।
      कवि अगर मन को हटा दे—मन को हटाने का अर्थ है, विचार को हटा दे। विचार को हटाने का अर्थ है, ध्यान के माध्यम से सत्य को देखे, विचार के माध्यम से नहीं। बस, ऋषि हो गया। कभी—कभी छलांग लगा लेता है, कभी—कभी एक झलक उसे मिल जाती है पार की। लेकिन बस, वह झलक है।
      ऋषि वहा जीता है, जिसकी झलक कवि को मिलती है कभी—कभी। ऋषि उस  मंदिर में निवास करता है, जिसके शिखर कभी—कभी कवि के स्वप्‍नों में झलक जाते है'। ऋषि की वह अवस्था है। काव्य कवि के जीवन का एक छोटा सा खंड है। ऋषि के जीवन की अवस्था है कविता।
      इसलिए तुम अगर किसी कवि की कविताओं को बहुत प्रेम करो तो भूलकर भी कवि को मिलने मत जाना। नहीं तो खंडित हो जाएगा तुम्हारा प्रेम। क्योंकि कवि को तुम साधारण आदमी पाओगे। शायद साधारण से भी ज्यादा गिरा हुआ पाओ। कविता और बात है 1 वह तो कुछ क्षण थे अनूठे, जो उसके जीवन में उतरे। उनको गाकर वह चुक गया। वह फिर साधारण आदमी हो जाता है। कभी—कभी तुमसे भी गिरा हुआ तुम उसे पाओगे।
      इसलिए अच्छा हो, कविता को जान लेना, प्रेम कर लेना, कवि को खोजने मत जाना। वह कहीं किसी पान की दुकान पर बीड़ी पीता मिल जाएगा; कि किसी भजिए की दुकान के सामने खड़ा हुआ भजिया खा रहा होगा। तुम सोच ही न पाओगे। या किसी नाली में पड़ा होगा शराब पीकर।
      तुमने जो सुगंध उसके गीत में पाई थी, तुम उसमें न पाओगे। वह उसके जीवन की गंध नहीं है। उतर आई थी, झलकी थी। ऐसा समझो किं अंधेरी रात में बिजली चमक गई और एक झलक दिख गई। यह एक बात है। और दिन की सूरज की रोशनी में चलना बिलकुल दूसरी बात है। उसने बांध लिया उसको अपने शब्दों में। बांधने के बाद वह भी वहीं खड़ा हो जाता है, जहा तुम खड़े हो। बांधने के बाद वह भी साधारण हो जाता है। एक स्पर्श हुआ था।
      इसलिए तो कवि कहते हैं कि जो हमने लिखा, जो हमने गाया, वह हमने गाया यह पक्का नहीं है। जैसे कोई और हममें गा गया। वह बात इतनी फासले की है कि उनको खुद ही लगती है कि कोई और हममें गा गया। जैसे कोई और हममें उतर आया, अवतरित हुआ।
      कोई नहीं उतर आया, उन्होंने ही एक छलांग ली थी; लेकिन छलांग थी। जैसे जमीन पर तुम खड़े हो और छलांग ले लो, तो एक क्षण को तुम जमीन से उठ जाते हो, फिर वापस जमीन पर आ आते हो। यह एक बात है। और तुम्हें पंख लग जाएं, तब बात और है। ऋषि उड़ता है आकाश में, कवि छलांग लेते हैं। फिर—फिर लौट आते हैं। फिर उसी भूमि पर खड़े हो जाते हैं।
      अक्सर तो यह होता है कि छलता लेने वाला खड़ा भी नहीं हो पाता; बैठ जाता है। थकाती है छलांग। इसलिए अक्सर कवि तुमसे भी नीचा हो जाता है लौटकर। तुमसे ऊंचा हो लेता है छलांग में, तुमसे नीचा हो जाता है लौटकर। शिखर छू लेता है छलता में, गिर जाता है खाई में लौटकर। कवि को चुकाना पड़ता है खाई में गिरकर वह मूल्य, जो उसने छलांग लेकर शिखर छूने में पाया। हर चीज की कीमत चुकानी पड़ती है।
      ऋषि शिखर पर रहता है। ऐसा कहना भी ठीक नहीं, ऋषि शिखर हो जाता है। रहने में भी थोड़ी दूरी है। रहने में भी डर है, कभी गिर जाए। रहने में भी डर है, कभी
लौट आए। रहने मे भी डर है, कभी संसार फिर बुला ले। नहीं, शिखर हो जाता है। कवियों को परमात्मा कभी—कभी, स्वप्न में संदेश देता है। ऋषि परमात्मा हो जाते है: अहं ब्रह्मास्मि! अनलहक! वे उस सत्य के साथ एक हो जाते हैं।

तीसरा प्रश्न :

      सामान्य जीवन का विकास द्वंद्वात्मक, डायेलेक्टिकल है। क्या आत्मिक जागरण भी द्वंद्वात्मक है?

     
      हीं—जहां तक द्वंद्व है, वहां तक आत्मा नहीं। जहा तक द्वंद्व है, जहां तक दो हैं, वहां तक तुम नहीं। जहा तक संघर्ष है, वहां तक संसार है।
आध्यात्मिक जागरण है साक्षीभाव।
       संसार का विकास द्वंद्वात्मक है। यहां हर चीज विपरीत से जुड़ी है। दिन है तो रात है। सुबह हुई तो सांझ होगी। चाहे तुम कितना ही भुलाओ, समझाओ अपने को, कि अब कभी साझ न होगी। इस पागलपन में मत पड़ना। सुबह हुई तो सांझ हो गई।  सुबह सांझ को ले आई। तुम्हें देखने में बारह घंटे की देर लगेगी। वह देखने की देरी है। जन्म हुआ तो मौत हो गई। सत्तर साल लगेंगे तुम्हें पहचानने को। वह पहचानने की देरी है। सुबह में सांझ आ गई। विपरीत आ गया। प्रकाश में अंधेरा आ गया। खुशी में दुख आ गया। इधर नाचे नहीं कि वहां चिंता तुम्हारी प्रतीक्षा कर रही है। इधर तुम मुस्कुराए नहीं कि वहां आंसू तैयार होने लगे। तुम्हारी मुस्कुराहट आंसू ले ही आई।
      जिस दिन तुम इन दोनों के साक्षी हो जाओगे, कि तुम देखोगे, यह रही। मुस्‍कुराहट, ये रहे आलू न अपने को मुस्कुराहट से जोड़ोगे, न आंसुओ से; तीसरे हो जाओगे, दूर खड़े होकर देखने लगोगे; उस दिन आत्मिक जागरण हुआ। तब दो—दो नहीं रह जाते। आंसुओ में मुस्कुराहट दिखाई पड़ जाती है, मुस्कुराहट में आंसू दिखाई पड़ जाते हैं। द्वंद्व गया। तुमने निर्द्वंद्व को पा लिया।
      नई सुबह पर नजर है मगर आह यह भी डर है
      यह सहर भी रफ्ता—रफ्ता कहीं शाम तक न पहुंचे
      नई सुबह पर नजर है मगर आह यह भी डर है
      यह सहर भी रफ्ता—रफ्ता कहीं शाम तक न पहुंचे
      पहुंचेगी ही। यह सुबह भी सांझ होगी। सभी सुबह सांझ होगी। धन में निर्धनता छिपी आ गई। इसलिए तो धनी को तुम इतना डरा हुआ पाते हो। निर्धनता का भय धन के साथ ही आ जाता है। प्रेम में घृणा का बीजारोपण हो जाता है। इसलिए तो
तुम प्रेमियों को सदा संदिग्ध पाते हो कि प्रेम है भी? इसलिए तो तुम प्रेमियों को सदा लड़ते पाते हो, क्योंकि घृणा लड़ाती है।
      शत्रु किसी को बनाना हो तो पहले मित्र बनाना जरूरी है। क्योंकि मित्रता के बिना शत्रुता कैसे होगी? मित्रता में पहला कदम शत्रुता का उठ जाता है। अगर चलते ही रहे ठीक—ठीक, तो शत्रुता आ ही जाएगी।
      चारा नहीं कोई जलते रहने के सिवा
      सांचे में फना के ढलते रहने के सिवा
      ऐ शमा तेरी हयातेफानी क्या है
      झोंका खाने संभलते रहने के सिवा
      जिसको तुम जिंदगी कहते हो, बस जैसे दीए की ज्योति झोंका खाती रहे—इस तरफ से उस तरफ, उस तरफ से इस तरफ।
      झोंका खाने संभलते रहने के सिवा
      ऐ शमा तेरी हयातेफानी क्या है
      होना और न होना, इन दोनों के बीच जीवन डावाडोल रहता है। जिसे तुमने जीवन कहा है, वह एक कंपन है होने और न होने के बीच। लेकिन तुम्हारे भीतर जागने की क्षमता है, और तुम होने न होने दोनों के साक्षी हो सकते हो। वही साक्षीभाव आध्यात्मिक सूत्र है। वहीं से द्वार खुलता है आत्मा का।
      इसलिए जब दुख आए तो घबड़ाना मत। यह मत समझ लेना कि यह सुबह आई तो अब सांझ न होगी; या साझ आई तो सुबह न होगी। जब दुख आए तो जानना की सुख आ रहा है और तुम निश्चित बने रहना। तुम्हें चिंता न पकड़े। यही साधना है। दुख आए तो तुम जानना कि सुख आता ही होगा, कहीं पीछे छिपा होगा। क्यू में खड़ा होगा। जब सुख आए तो जानना कि कहीं दुख पीछे खड़ा होगा, आता ही होगा।
      तो जब सुख आए तो बहुत उमंग से मत भर जाना। जब सुख आए तो इठला मत जाना। जब सुख आए तो अकड़कर मत चलने लगना। और जब दुख आए तो व्यथित मत होना। चिंतित मत होना। दोनों को साथ—साथ देख लेना। जिसे यह कला आ गई उसे सब आ गया। क्योंकि इन दोनों को साथ—साथ देखकर तुम पाओगे कि न तो कुछ चिंता योग्य है, और न कुछ सौभाग्य, न कुछ दुर्भाग्य। न कुछ वरदान है, न कुछ अभिशाप।
      तुम दोनों से पार होने लगोगे। तुम दोनों में शात होने लगोगे। तुम दोनों में सम्हले रहने लगोगे। तुम दोनों के बीच संतुलन को कायम कर लोगे। तुम दोनों के साक्षी हो जाओगे।
साक्षीभाव अध्यात्म है।

चौथा प्रश्‍न:

     
      आप तो कहते है कि बुद्ध पुरुष के संसर्ग से पशु, पक्षी ओर पेड़—पौधे भी वही नहीं रह जाते जो वे थे। फिर मूढ़ मनुष्य क्या पेड़—पौधों से भी गया बीता है?

      निश्‍चित ही। कोई पेडू—पौधा मुढ़ नहीं है। पेड़—पौधे की वह क्षमता नहीं। मूढ़ होने के लिए मनुष्य होना जरूरी है। कोई पेड़—पौधा बुद्ध भी नहीं है। वह भी उसकी क्षमता नहीं है। तुम किसी पेडू को पापी नहीं कह सकते, पुण्यात्मा नहीं कह सकते। न कोई पेडू पुण्यात्मा है, न पापी है। उसके लिए मनुष्य होना जरूरी मनुष्य उठे तो परमात्मा हो सकता है, गिरे तो शैतान हो सकता है। न तो पेड़ —पौधे उठकर परमात्मा हो सकते हैं, और न गिरकर शैतान हो सकते हैं। पेड़—पौधे। थिर हैं। यही तो उनकी जड़ता है, स्वतंत्रता नहीं है। इस किनारे से उस किनारे जाने की, उस किनारे से इस किनारे आने की स्वतंत्रता नहीं है, बंधे हैं।
      गौर से देखो, चट्टान पड़ी है। पेड़—पौधे से भी ज्यादा परतंत्र है। एक फूल भी तो नहीं खिला सकती। एक पत्ता भी तो नहीं निकलता। जैसी है बस, पड़ा है।
      फिर वृक्ष हैं—थोड़ी स्वतंत्रता आई। फूल खिलते हैं, फल लगते हैं, जीवन की कुछ धार है। आकाश की तरफ उठने की अभिलाषा है। सूरज की खोज शुरू हो गई। वही सूरज की खोज तो तुम में आकर परमात्मा की खोज बन जाएगी—रोशनी की खोज।
      इसलिए अफ्रीका के जंगलों में वृक्ष सैकड़ों फीट ऊपर उठ जाते हैं। क्योंकि घने जंगल हैं। सूरज को अगर पाना है तो बहुत लंबा उठना पड़ेगा। जितना घना जंगल होगा, वृक्ष उतने लंबे जाएंगे। उन्हीं वृक्षों को तुम खुले मैदान में लगा दो, उतने लंबे न जाएंगे, ठिगने रह जाएंगे। जरूरत ही न रही, प्रतिस्पर्धा न रही, संघर्ष न रहा। सूरज ऐसे ही सस्ते मिल गया। दाम न चुकाने पड़े। कौन जाए फिर इतना ऊंचा?
      तो पेडू—पौधे के पास एक स्वतंत्रता है। घने जंगल में हो तो ऊंचा जाता है। घने जंगल में न हो तो ठिगना रह जाता है। खोज करता है, लेकिन जड़ जमीन से बंधी है। हट नहीं पाती। एक जगह गड़ा हुआ है। मजबूर है।
      फिर पशु—पक्षी हैं, पेडू—पौधे से ज्यादा स्वतंत्र हैं। जड़ नहीं हैं, कहीं बंधे हुए नहीं हैं, मुक्त हैं। चल—फिर सकते हैं। कम से कम पृथ्वी पर कहीं भी यात्रा कर सकते हैं। सर्दी आ जाए तो धूप में बैठ सकते हैं। धूप बढ़ जाए तो छाया खोज सकते है। वृक्ष खड़ा है, हट नहीं सकता। धूप आए सर्दी आए, सहना पड़ेगा। स्वतंत्रता ज्‍यादा नहीं है।
      फिर आदमी है; उसकी स्वतंत्रता और भी बड़ी है। उससे बड़ी कोई स्वतंत्रता नहीं है। वही उसकी गरिमा है, वही उसका दुर्भाग्य भी। क्योंकि जब उठने की क्षमता आती है तो गिरने की क्षमता साथ ही आ जाती है—उसी अनुपात में। बुद्ध हो सकते हो, चंगेजखान भी हो सकते हो। दोनों संभावनाएं एक साथ खुल जाती हैं। स्वाभाविक है। जो चढ़ेगा वही गिर सकता है। जो चढ़ नहीं सकता, वह गिर भी नहीं सकता। इसलिए मूढ़ तो सिर्फ आदमी हो सकते हैं।
      मुढ़ होने का क्या अर्थ है? मूढ़ होने का अर्थ है, कि तुमने जिद कर ली कि हम गिरने के लिए ही अपनी स्वतंत्रता का उपयोग करेंगे, चढ़ने के लिए नहीं। मूढ़ होने का इतना ही अर्थ है कि हमारी जिद है कि हम गिरने में ही अपनी स्वतंत्रता का उपयोग करेंगे। खयाल करो, कुछ लोग हैं, जो अपनी क्षमता का उपयोग कुछ बनाने के लिए करते हैं। कुछ लोग हैं, जो अपनी क्षमता का उपयोग कुछ तोड़ने के लिए करते हैं। कोई है जो मूर्ति बनाता है, और कोई है जो जाकर मूर्ति तोड़ आता है।
      जीसस की एक बहुत अदभुत मूर्ति दो वर्ष पहले रोम में तोड़ी गई। माइकल एंजलो की मूर्ति थी बनाई हुई। जीसस सूली से उतारे गए हैं और मरियम की गोद में उनका सिर है, मां की गोद में सिर है। कहते हैं, इससे ज्यादा सुंदर मूर्ति पृथ्वी पर दूसरी नहीं थी। वर्षों अथक श्रम करके माइकल एंजलो ने बनाई थी। इसका मूल्य, इसकी कीमत जानी नहीं जा सकती। इतनी जीवंत कोई मूर्ति न थी। संगमरमर पर इससे ज्यादा गहरा कभी कोई प्रयोग न हुआ था। और एक आदमी ने जाकर उसको हथौड़े से तोड़ दी। पकड़ा गया, पूछा गया, तो उसने कहा कि यह मुझे सदा से खलती थी। मैं भी चाहता हूं कि मेरा नाम भी इतिहास में अमर हो जाए। माइकल एंजलो ने बनाई, मैने तोड़ी।
      हिटलर ने इतने लोग मारे। यह तोड़ने में रस है, बनाने में नहीं। मूढ़ता का अर्थ है, हमने जिद्द कर ली कि हम नीचे जाने में ही स्वतंत्रता का उपयोग करेंगे। तब तुम्हें कोई ऊपर नहीं उठा सकता। अगर तुमने ही तय कर लिया कि हम नीचे जाने में ही अपनी स्वतंत्रता का उपयोग करेंगे, तो तुम नर्क तक उतर सकते हो।
आदमी एक सीढ़ी है। उसका एक पहला पायदान नर्क में टिका है। उसका आखिरी पायदान स्वर्ग में टिका है। यह तुम पर निर्भर है।
      मैंने एक बड़ी प्राचीन कहानी सुनी है। एक मनोवैज्ञानिक और चित्रकार अपने जीवन के अंतिम दिनों में एक चित्र बनाना चाहता था, जिसमें सबसे ज्यादा निम्न आदमी की तस्वीर हो। उसने बनाया। एक कारागृह में एक आदमी ने सात हत्याएं की थीं, उसका जाकर उसने चित्र बनाया। जब वह चित्र बना रहा था, तब वह कुछ—कुछ हैरान हुआ। यह चेहरा कुछ पहचाना लगता था। जब वह चित्र बनाता रहा, बनाता रहा, तो यह उसको और भी ज्यादा साफ होने लगा। जैसे—जैसे नक्श उसने उभारे, वैसे—वैसे उसे यह चेहरा परिचित लगने लगा।
      अंततः एक दिन उससे न रहा गया। उसने पूछा कि क्या मैंने तुम्हें कभी देखा है? वह आदमी एकदम रोने लगा। उसकी आंख से आंसू झर—झर गिरने लगे। उसने ,6हा, तुम रोते क्यों हो? मैंने तुम्हारा कोई घाव छू दिया? उस आदमी ने कहा कि मैं सूर रहा था कि आज नहीं कल शायद तुम पूछोगे। बीस वर्ष पहले तुम ने मेरा चित्र बनाया था। तब उस चित्रकार को याद आई कि बीस वर्ष पहले उसने एक चित्र 'बनाया था। तब इस तलाश में था वह कि दुनिया में जो श्रेष्ठतम और सरलतम और प तले से भोला, भोला—भाला चेहरा हो, उसका चित्र बनाना है। और इसी आदमी ला चित्र बीस साल पहले बनाया था। और बीस साल बाद वह दुनिया के सब से नर आदमी का चित्र बनाने निकला। संयोग की बात, वही आदमी! वह आदमी रोए। तो क्या करे?
      दोनों चित्र सब के भीतर हैं। तुम्हारे भीतर भी दोनों चित्र हैं। तुम पर निर्भर है, क्‍या तुम उभारोगे। अगर विकृत को, विध्वंस को उभारने की चेष्टा रही तो मूढ़ता है। बागर तुमने अपने भीतर श्रेष्ठ को, सत्य को, सुंदर को उभारना चाहा तो तुम विश हा। दोनों तुम कर सकते हो। दोनों रास्ते खुले हैं। किसी ने कहीं कोई तुम्हें अवरोध नहीं दिया है। तुम्हारी स्वतंत्रता परम है।
      ध्यान रखना, अगर विध्वंस को चुना, मूढ़ता को चुना तो पछताते हुए मरोगे। सारा जीवन जब व्यर्थ जाता है तो पछतावा स्वाभाविक है। अधिक लोग मरते समय मौत के कारण नहीं रोते। मेरा तो जानना यही है कि मौत के कारण कोई भी नहीं रोता। रोते हैं इसलिए कि जीवन व्यर्थ गया और मौत आ गई। जिनके जीवन में। सार्थकता आई, वे हंसते हुए विदा होते हैं। उनके लिए मौत एक पूर्णाहुति है। उनके लिए मौत जीवन का चरम शिखर है। वह जीवन के छंद की आखिरी ऊंचाई है। वह जीवन के गीत की आखिरी कड़ी है।
      मेरी तखईल का शीराजा—ए—बरहम है वही
      मेरे बुझते हुए एहसास का आलम है वही
      वही बेजान इरादे वही बेरंग सवाल
      वही बेरूह कशमकश वही बेचैन खयाल
      कहीं ऐसा न हो कि मरते वक्त वही बेजान इरादे, वही बेरंग सवाल तुम्हें घेरे रहे। कहीं ऐसा न हो, वही बेरूह कशमकश, वही बेचैन खयाल तुम्हारी अंतरात्मा को घेरे रहें। कहीं ऐसा न हो—
      मेरी तखईल का शीराजा—ए—बरहम है वही
      कहीं तुम ऐसा न पाओ कि तुम वही के वही हो। जैसे आए थे, वैसे ही जा रहे हो। कुछ कमाया नहीं, कुछ निखरा नहीं। कुछ हो न सके।
      मेरे बुझते हुए एहसास का आलम है वही
      कहीं बुझते क्षणों में जब दीए की आखिरी लौ बुझने लगे तो ऐसा न लगे कि मैं
वही का वही रह गया। जीवन में कोई गति न हुई, कोई विकास न हुआ। जीवन उठा नहीं, पंख न लगे।
      अगर मूढ़ ले तो यही तुम्हारे प्राणों की दशा होगी। अगर थोड़ा सा जीवन में समझ का उपयोग किया तो तुम मृत्यु को भी महोत्सव की तरह पाओगे। तुम्हारे ओंठों पर एक छंद होगा तृप्ति का, तुम्हारे प्राणों में एक सुगंध होगी पहुंच जाने की। तुम्हारे चारों तरफ एक हवा होगी, एक आभा—मंडल होगा कि तुम स्वीकृत हो गए। अस्तित्व ने तुम्हें मान्यता दे दी। यही सिद्ध होने का अर्थ है।

आखिरी सवाल:

      आप कहते हैं, प्रत्येक व्यक्ति अनूठा और अद्वितीय है; और यह भी कहते हैं कि व्यक्ति समष्टि से अविच्छिन्न है, दर असल व्यष्टि ही है। क्या इस वक्तव्य पर कुछ प्रकाश डालने की कृपा करेंगे।

   दो शब्द ठीक से समझ लो : समाज और समष्टि।
      समाज का अर्थ है, आदमियों ने अपनी मूढ़ता, अपने अज्ञान, अपने अहंकार में जो ताना—बाना बुना है। आदमियों की जो भीड़ है, भीड़ का जो मन है, सभी आदमियों के अज्ञान का जो जोड़ है, अहंकार का जो जोड़ है, वह समाज है।
समष्टि से अर्थ है, परमात्मा, अस्तित्व। उसमें आदमी का ही सवाल नहीं है, वृक्ष भी सम्मिलित हैं, चट्टानें भी, चांद—तारे भी! सब कुछ सम्मिलित है। समष्टि की अर्थ है, जो है—सारा का सारा। अगर तुम जो है, उसके साथ एक हो जाओ, तो उसी को बुद्ध धर्म कहते हैं, धम्म कहते हैं। अगर जो है, यह जो सारा अस्तित्व है, इसके साथ तुम्हारा संघर्ष छूट जाए, तुम इसके साथ एक हो जाओ और तल्लीन, डूबे हुए, इसकी मस्ती में मस्त, इसको तुम पी लो, तो तुम परम शांति को, परम आनंद को उपलब्ध हो जाओगे।
      दूसरी एक भीड़ आदमियों की है। वह एक दूसरा गिरोह है, जिसने सारे अस्तित्व की फिक्र छोड़ दी है और अपने ही नियम बना लिए हैं। आदमियों की भीड़ ने अपना ही शास्त्र बना लिया है। अपनी ही रीति—रिवाज, परंपरा बना ली है। वह अज्ञानियों का अस्तित्व के ऊपर जबर्दस्ती आरोपण है।
      तो जब मैं कहता हूं व्यक्ति अनूठा है, तो मैं यह कह रहा हूं कि एक व्यक्ति जैसा दूसरा व्यक्ति नहीं है समाज में 1 प्रत्येक व्यक्ति अनूठा है। और प्रत्येक व्यक्ति को अनूठे होने की हिम्मत रखनी चाहिए। इतना साहस रखना चाहिए कि भीड़ तुम्हें
डुबा न दे। नहीं तो तुम अपनी आत्मा को कभी खोज ही न पाओगे। समाज से मुका होने की हिम्मत चाहिए। क्योंकि समाज निम्नतम तल पर जीता है, क्योंकि वह सब का जोड़ है। मूढों की बड़ी संख्या है। वे भी उसमें जुड़े हैं। उनकी ही भीड़ है। उनका ही बहुमत है। वे भी उसमें जुड़े हैं। इसलिए अगर तुम भीड़ के साथ खड़े हो तो तुम्हें निम्‍नतम के साथ खड़ा रहना पड़ेगा। अगर तुम भीड़ की मानकर चलते हो तो तुम पाओगे कि तुम अपने श्रेष्ठतम की पुकार को नहीं सुन सकते फिर। तुम्हें निकृष्ट की पुकार ही सुननी पड़ेगी।
      अद्वितीय होने का अर्थ इतना ही है कि तुम यह जानना कि तुम भीड़ के एक अंग नहीं हो। भीड़ में जीना भला, लेकिन भीड़ से अपनी दूरी भी बनाए रखना, फासला पी बनाए रखना। भीड़ तुम्हें डुबा न ले। तुम अपने अनूठेपन को कायम रखना। लेकिन अगर इतनी ही बात होती तो यह अनूठापन अहंकार बन जाता। भीड़ से तो अलग करना और समष्टि में डुबाना। समाज से तो मुक्त होना और समष्टि मे डूबना।
      वो अपने हर कदम पर है कामयाबे—मंजिल
      आजाद हो चुका जो तकलीदे—कारवां सै
      यह जो यात्री—दल है, इसके साथ चलने से जो मुक्त हो चुका, उसकी मंजिल उसके हर कदम पर उसके साथ है। इसके साथ ही अगर तुम्हें चलने की जिद है तो तुम कहीं न पहुंच पाओगे। यह भीड़ कहीं पहुंचती नहीं मालूम होती। यह चलती ही रहती है। लोग बदलते जाते हैं, भीड़ चलती रहती है। तुम नहीं थे, कोई और चल रहा था। एक हटता है, दस आ जाते हैं। भीड़ चलती जाती है।
      यह भीड़ कभी नहीं पहुंचती। व्यक्ति पहुंचे हैं, भीड़ कभी नहीं पहुंची। तुमने कभी सुना, कोई भीड़ बुद्धत्व को उपलब्ध हो गई है? कोई भीड़ बुद्ध बन गई हो, मोहम्मद बन गई हो, कबीर, नानक बन गई हो?
      जब कोई बनता है, तो व्यक्ति। यह भीड़ तो कभी नहीं कुछ बनती। यह कभी नहीं कहीं पहुंचती। इसकी मंजिल आती ही नहीं। यह यात्री—दल, यात्री—दल ही है। बस, यह यात्रा ही करता है।
      इससे थोड़ा मुक्त होना जरूरी है। इसकी चाल में चाल लगाए रखना ठीक नहीं। इसका यह अर्थ नहीं है कि तुम इससे व्यर्थ, नाहक उलझने लगो, लड़ने—झगड़ने लगो। क्योंकि अगर लड़ना—झगड़ना शुरू किया तो भी तुम भीड़ में ही उलझे रहोगे। इसलिए मैं तुम्हें कोई झंझट लेने के लिए नहीं कह रहा हूं कि भीड़ पूरब जाती हो तो तुम पश्चिम जाओ; कि भीड़ पैर के बल चलती हो तो तुम शीर्षासन लगाओ; कि 'पीड़ जो करती हो, उससे तुम उलटा करो। क्योंकि उलटा करने में भी तुम भीड़ से ही बंधे रहोगे।
      तुम भीड़ की फिक्र ही छोड़ दो। तुम भीड़ के प्रति धीरे—धीरे तटस्थ, उदास हो
जाओ, उदासीन हो जाओ। भीड़ ठीक है। उसे जो करना हो, करने दो। उनकी मौज। अगर उन्होंने यही तय किया है तो वे यही करें। तुम भीड़ से अकारण संघर्ष में भी मत पड़ो। अन्यथा वह भी तुम्हें अटकाएगा। क्योंकि जिनसे लड़ना हो उनके पास रहना पड़ता है। दोस्ती करो तो फंसे, दुश्मनी करो तो फंसे।
      न दोस्ती करना, न दुश्मनी। किसी को पता ही न चले। तो तुम भीड़ में खड़े—खड़े भीड़ के बाहर हो जाते हो। चुपचाप भीड़ से अपने को अलग कर लेना। तुम समष्टि के साथ अपना संबंध जोड़ो। तुम समग्र के साथ अपना संबंध जोड़ो। विराट के साथ! उसके नियम का पालन करो।
      तब तुम हैरान होओगे, कि भीड़ गलत ही सिखाती है, गलत ही करवाती है। भीड़ के सभी सूत्र अहंकार के हैं। भीड़ अगर तुम से कहती है कि विनम्र भी बनो, तो इसीलिए कहती है ताकि तुम्हारी इज्जत हो। तुमसे कहती है विनम्र बनो, ताकि लोग तुम्हारा आदर करें। यह बड़े मजे की बात है। विनम्रता भी सिखाती है तो आदर पाने के लिए। वह तो अहंकार की तलाश है। अगर तुमसे कहती है कि धन का त्याग करो, तो भी इसीलिए कि त्याग का बड़ा सम्मान है। त्याग की बड़ी संपदा है।
      अगर भीड़ तुम्हें कुछ भी सिखाती है तो गलत कारणों के लिए सिखाती है। अगर ठीक भी सिखाती है तो भी गलत कारणों के लिए सिखाती है। इसलिए भीड़ से धीरे—धीरे हटो। विनम्रता सीखो जरूर, लेकिन समाज के जूठे कुएं से मत पीना वह पानी। वहां जहर घोला हुआ है। समष्टि का शुद्ध जल उपलब्ध है, वहा से पीना। वहां सीखना विनम्रता; तब उसमें जहर न होगा। वहां सीखना त्याग; तब उसमें जहर न होगा।
      और तब तुम बड़े हैरान होओगे। चीजें बड़ी सरल हैं। उन्हें नाहक कठिन बना दिया है। क्योंकि भीड़ कठिनाई में रस लेती है। जब तक कोई चीज कठिन न हो, भीड़ को रस ही नहीं आता। क्योंकि कठिन हो तभी अहंकार को चुनौती मिलती है। जीवन सरल है। जीवन बिलकुल सादा है। जीवन में जरा भी उलझाव नहीं है। एकदम सहज है, सरल है, सुगम है।
      मगर तुम समष्टि की तरफ ध्यान दो। चांद—तारों पर नजर रखो। आदमी की तरफ थोड़ी पीठ करो। झरनों और सागरों की आवाज सुनो। आदमी की तरफ कान जरा बहरे करो। आदमी के रचे शास्त्रों में बहुत मत उलझो। जब परमात्मा का शास्त्र ही चारों तरफ मौजूद है, उसे ही पढ़ो। जल्दी ही तुम पाओगे कि तुम उस सूत्र को पकड़ने लगे, जिसको बुद्ध सनातन धर्म कहते हैं, एस धम्मो सनंतनो।
      प्रकृति के साथ सत्संग करो। झरनों के पास बैठो। फूलों से थोड़ी दोस्ती करो। आकाश में थोड़ा झांको। तो आकाश तुममें भी झांकेगा। फूलों से जरा निकटता बढ़ाओ। तुम्हारे भीतर के फूल भी खिलने लगेंगे। जितने तुम स्वभाव को और समष्टि को खोजने लगोगे, उतना स्वभाव और समष्टि तुम्हें खोजने लगेगी।
      यह सारी सृष्टि परमात्मा का मंदिर है। आदमी के बनाए मंदिरों में बहुत पूजा कर चुके। उन्होंने सिर्फ तुम्हें लड़ाया, झगड़ाया, बांटा, काटा। मंदिर मस्जिद से लड़ता रहा, मस्जिद मंदिर से लड़ती रही। बहुत हुआ, अब तुम ऐसे मंदिर को खोजो,। जिसका किसी और मंदिर से कोई झगड़ा न हो। यह विराट उसका ही मंदिर है। यह आकाश उस मंदिर का चंदोवा है। और परमात्मा सब जगह प्रतिष्ठित है। कोई अलग मै मूर्ति बनाने की जरूरत नहीं है।
      ये सभी मूर्तियां उसी अमूर्त की हैं।

      और ये सभी रूप उसी अरूप के हैं।

      और ये सभी नाम उसी अनाम के हैं।


आज इतना ही।




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