को इमं पठविं विजेस्सति
यमलोकज्च
इमं सदेवकं।
को धम्मपद
सुदेसितं
कुसलो पुप्फमिव
पचेस्सति।।39।।
सेखो पठविं
विजेस्सति
यमलोकज्च
इमं सदेवकं।
सेखो धम्मपद
सुदेसित कुसलो
पुप्फमिव
पचेस्सतिा।।40।।
फेणूपमं कायमिमं
विदित्वा
मरीचिधम्मं
अभिसम्बुधाना।
छेत्वान मारस्स
पुपुप्फ
अदस्सनं
मच्चुराजस्स
गच्छे।।41।।
पुप्फ हेव
पचिनतं व्यासत्तमनसं
नरं।
सुत्तं गामं
महोघोव मच्चु
आदाय
गच्छति।।42।।
यथापि भमरो
पुप्फं वण्णगन्धं
उहेठयं।
चलने
को चल रहा हूं
पर इसकी खबर
नहीं
मैं हूं
सफर में या
मेरी मंजिल
सफर में है
जीवन
यदि चलने से
ही पूरा हो
जाता, तो
सभी मंजिल पर
पहुंच गए होते।
क्योंकि चलते
तो सभी हैं। चलते
ही नहीं, दौड़ते
हैं। सारा
जीवन चुका
डालते हैं उसी
दौड़ में, पर
पहुंचता कभी
कोई एकाध
है-करोड़ों में,
सदियों में।
यह चलना
कैसा, जो
पहुंचाता
नहीं? यह
जीना कैसा, जिससे जीवन
का स्वाद आता
नहीं? यह
होने का कैसा
ढंग है? न
होने के बराबर।
भटकना कहो इसे,
चलना कहना
ठीक नहीं। जब
पहुंचना ही न
होता हो, तो
चलना कहना
उचित नहीं है।
मार्ग वही है
जो मंजिल पर
पहुंचा दे। चलने
से ही कोई
मार्ग नहीं
होता, मंजिल
पर पहुंचने से
मार्ग होता है।
पहुंचते
केवल वे ही
हैं, जो
जागकर चलते
हैं। चलने में
जिन्होंने
जागने का गुण
भी जोड़ लिया, उनका भटकाव
बंद हो जाता
है। और बड़े
आश्चर्य की
बात तो यही है
कि जिन्होंने
जागने को जोड़
दिया चलने में,
उन्हें
चलना भी नहीं
पड़ता और पहुंच
जाते हैं। क्योंकि
जागना ही
मंजिल है।
तो दो
ढंग से जी
सकते हो तुम। एक
तो चलने का ही
जीवन है, चलते रहने
का। केवल थकान
लगती है हाथ। राह
की धूल लगती
है हाथ। आदमी
गिर जाता है
आखिर में-कब्र
में, मुंह
के बल। उसे ही
मंजिल मान लो,
तब बात और!
एक और
ढंग है चलने
का-होशपूर्वक, जागकर। पैरों
का उतना सवाल
नहीं है जितना
आंखों का सवाल
है। शक्ति का
उतना सवाल
नहीं है जितना
शाति का सवाल
है। नशे-नशे
में, सोए-सोए
कितना ही चलो,
पहुंचोगे
नहीं।
यह चलना
तो कोल्हू के
बैल जैसा है। आंखें
बंद हैं कोल्हू
के बैल की, चलता चला
जाता है। एक
ही लकीर पर
वर्तुलाकार
घूमता रहता है।
अपने जीवन को
थोड़ा विचारों,
कहीं
तुम्हारा
जीवन भी तो
वर्तुलाकार
नहीं घूम रहा
है? जो कल
किया था वही
आज कर रहे हो। जो
आज कर रहे हो
वही कल भी
करोगे। कहीं
तो तोड़ो इस
वर्तुल को। कभी
तो बाहर आओ इस
घेरे के।
यह
पुनरुक्ति
जीवन नहीं है।
यह केवल
आहिस्ता-आहिस्ता
मरने का नाम
है। जीवन तो
प्रतिपल नया
है। मौत
पुनरुक्ति है।
इसे तुम
परिभाषा समझो।
अगर तुम वही
दोहरा रहे हो, जो तुम
पहले भी करते
रहे हो, तो
तुम जी नहीं रहे
हो। तुम जीने
का सिर्फ
बहाना कर रहे
हो। सिर्फ
थोथी
मुद्राएं हैं,
जीवन नहीं। तुम
जीने का नाटक
कर रहे हो। जीना
इतना सस्ता
नहीं है। रोज
सुबह उठते हो,
फिर वही
शुरू हो जाता
है। रोज सांझ
सोते हो, फिर
वही अंत हो
जाता है।
कहीं
से तोड़ो इस
परिधि को। और
इस परिधि को
तोड़ने का एक
ही उपाय है, जो
बुद्धपुरुषों
ने कहा है-आंख
खोलो। कोल्हू
का बैल चल
पाता है एक ही
चक्कर में, क्योंकि
उसकी आंखें बंद
कर दी गई हैं। उसे
दिखाई नहीं
पड़ता। तुम्हारी
आंखें भी बंद
हैं।
चलने को
चल रहा हूं पर
इसकी खबर नहीं
मैं हूं
सफर में या
मेरी मंजिल
सफर में है
इतना भी
पता नहीं है
कि यह जिंदगी
ही मंजिल है, या यह
जिंदगी कहीं
पहुंचाती है। यह
बस होना काफी
है, या इस
होने से और एक
बड़े होने का
द्वार खुलने को
है। मैं
पर्याप्त हूं
या केवल एक
शुरुआत हूं। मैं
अंत हूं? या
प्रारंभ हूं। मैं
बीज हूं या
वृक्ष हूं। तुम
जो हो, अगर
वह पर्याप्त
होता तो तुम
आनंदित होते। क्योंकि
जहा भी
पर्याप्त हो
जाता है, वहीं
संतोष, परितृप्ति
आ जाती है। जहां
पर्याप्त हुए,
वहीं
परितोष आ जाता
है।
तुम
पर्याप्त तो
नहीं हो, यह तुम्हारी
बेचैनी कहे
देती है। तुम्हारी
आंख की उदासी
कहे जाती है। तुम्हारे
प्राणों का
दुख भरा स्वर
गुनगुनाए जाता
है-तुम
पर्याप्त
नहीं हो। कुछ
खो रहा है। कुछ
चूका जा रहा
है। कुछ होना
चाहिए जो नहीं
है। उसकी
रिक्त जगह तुम
अनुभव करते हो।
वही तो जीवन
का संताप है। तो
फिर ऐसे ही
अगर रहे और
इसी को
दोहराते रहे,
तब तो वह रिक्त
जगह कभी भी न
भरेगी। तुम्हारा
घर खाली रह
जाएगा। जिसकी
तुम
प्रतीक्षा
करते हो, वह
कभी आएगा नहीं।
जागकर देखना
जरूरी है।
असली
सवाल, कहां
जा रहे हो, यह
नहीं है। असली
सवाल, किस
मार्ग से जा
रहे हो, यह
भी नहीं है। असली
सवाल यही है
कि जो जा रहा
है, वह कौन
है? जिसने
अपने को
पहचाना, उसके
कदम ठीक पड़ने
लगे। अपनी
पहचान से ही
ठीक कदमों का
जन्म होता है।
जिसने अपने को
न पहचाना, वह
कितने ही
शास्त्र और
कितने ही
नक्शे और
कितने ही
सिद्धात लेकर
चलता रहे, उसके
पैर गलत ही
पड़ते रहेंगे। वह
तो एक ऐसा
शराबी है, जो
नक्शे लेकर चल
रहा है। शराबी
के खुद के पैर
ही ठीक नहीं
पड़ रहे हैं। शराबी
के हाथ नक्शे
का क्या उपयोग
है?
तुम्हारे
हाथ में
शास्त्रों का
कोई उपयोग नहीं।
तुम्हारे साथ
शास्त्र भी
कंपेगा, डगमगाएगा। शास्त्र
तुम्हें न
ठहरा पाएगा, तुम्हारे
कारण शास्त्र
भी डगमगाएगा। तुम
ठहर जाओ, शास्त्र
की जरूरत ही
नहीं। तुम्हारे
ठहरने से ही
शास्त्र का
जन्म होता है,
दृष्टि
उपलब्ध होती
है, दर्शन
होता है। बुद्ध
के ये सारे
वचन सब तरफ से
एक ही दिशा की
तरफ इंगित
करते हैं कि
जागो! प्रमाद
में मत डूबे
रहो, अप्रमाद
तुम्हारे
जीवन का आधार
बने, आधारशिला
बने।
पूछते
हैं बुद्ध, 'कौन इस
पृथ्वी और
देवताओं सहित
इस यमलोक को
जीतेगा? कौन?
कौन कुशल
पुरुष फूल की
भांति
सुदर्शित
धर्मपथ को
चुनेगा? कौन?'
तुम तो
कैसे चुनोगे, जैसे तुम
हो। चुनना तो
तुम भी चाहते
हो। काटो से
कौन बचना नहीं
चाहता? फूलों
को कौन आलिंगन
नहीं कर लेना
चाहता? सुख
की आकांक्षा
किसकी नहीं है?
दुख से दूर
हटने का भाव
किसके मन में
नहीं उठता? लेकिन बुद्ध
पूछते हैं, कौन जीतेगा?
कौन उपलब्ध
होगा फूलों से
भरे धर्मपथ को
'तुम जैसे
हो वैसे न हो
सकोगे। तुम
सोए हो। तुम्हें
खबर ही नहीं, तुम कौन हो। फूल
और कांटे का
भेद तो तुम
कैसे करोगे? सार-असार को
तुम कैसे अलग
करोगे? सार्थक-व्यर्थ
को तुम कैसे
छांटोगे? तुम
सोए हो। तुम्हारे
स्वप्नों
में अगर तुमने
फूल और काटे
अलग भी कर लिए,
तो जागकर
तुम पाओगे
दोनों खो गए। सपने
के फूल और
सपने के काटो
में कोई फर्क
नहीं।
इसलिए
असली सवाल
तुम्हारे
जागने का है। उसके
बाद ही निर्णय
हो सकेगा। नींद
में तुम मंदिर
जाओ कि मस्जिद, सब बेकार।
कुरान पढ़ो कि
वेद, सब
व्यर्थ। नींद
में तुम
बुद्धपुरुषों
को सुनते रहो,
कुछ हल न
होगा। तुम्हें
जागना पड़ेगा। क्योंकि
जागकर ही तुम
सुनोगे तभी
तुम समझ सकोगे।
सुन लेना
समझने के लिए
काफी नहीं है।
नींद अगर भीतर
घिरी हो, तो
तुम्हारे कान
सुनते भी
रहेंगे और तुम
यह मानते भी
रहोगे कि मैं
सुन रहा हूं? फिर भी
तुमने कुछ
सुना 'नहीं।
तुम बहरे के
बहरे रह गए। अंधे
के अंधे रहे। तुम्हारे
जीवन में कोई
क्रांति उससे
पैदा न हो
सकेगी।
'कौन इस
पृथ्वी और
देवताओं सहित
इस यमलोक को
जीतेगा? कौन
कुशल पुरुष
फूल की भांति
सुदर्शित
धर्मपथ को
चुनेगा?
'शिष्य--शैक्ष-इस
पृथ्वी और
देवताओं सहित
इस यमलोक को जीतेगा।
कुशल शैक्ष--कुशल
शिष्य--फूल की
भांति
सुदर्शित
धर्मपथ को
चुनेगा। '
शिष्य
को समझना होगा।
बुद्ध का जोर
शिष्य पर उतना
ही है, जितना
नानक का था। इसलिए
नानक का पूरा धर्म
ही सिक्ख धर्म
कहलाया--शिष्य
का धर्म। सिक्ख
यानी शिष्य। सारा
धर्म ही सीखने
की कला है। तुम
सोचते भी हो
बहुत बार कि
तुम सीखने को
तैयार हो, लेकिन
मुश्किल से कभी
मुझे कोई
व्यक्ति
मिलता है जो
सीखने को तैयार
है। क्योंकि
सीखने की
शर्तें ही
पूरी नहीं हो
पातीं।
सीखने
की पहली शर्त
तो यह समझना
है कि तुम जानते
नहीं हो। अगर
तुम्हें जरा
सी भी भ्रांति
है कि तुम
जानते ही हो, तो तुम
सीखोगे कैसे?
सीखने के
लिए जानना
जरूरी है कि
मैं अज्ञानी
हूं। ज्ञान को
निमंत्रण
देने के लिए
यह बुनियादी
शर्त है। इसके
पहले कि तुम
पुकारो ज्ञान
को, इसके
पहले कि तुम
अपना द्वार
खोलो उसके लिए,
तुम्हें
बड़ी गहन
विनम्रता में
यह स्वीकार कर
लेना होगा कि
मैं नहीं
जानता हूं।
इसलिए
पंडित शिष्य
नहीं हो पाते।
और दुनिया
जितनी ही
जानकार होती
जाती है उतना ही
शिष्यत्व
खोता चला जाता
है। पंडित जान
ही नहीं सकता।
यह बडी
विरोधाभासी
बात मालूम
पड़ती है। क्योंकि
हम तो सोचते
हैं, पंडित
जानता है। पंडित
अकेला है जो
नहीं जान सकता।
अज्ञानी जान
ले भला, पंडित
के जानने का कोई
उपाय नहीं। क्योंकि
पंडित तो
मानकर बैठा है
कि मैं जानता ही
हूं। उसे वेद
कंठस्थ हैं। उसे
उपनिषदों के
वचन याद हैं। उसे
बुद्धपुरुषों
की गाथाएं
शब्दशः स्मरण
मैं हैं। उसकी
स्मृति भरी-- पूरी
है। और उसे
भरोसा है कि
मैं जानता हूं।
वह कभी भी जान
न पाएगा। क्योंकि
जगह चाहिए। तुम
पहले से भरे
हो। खाली होना
जरूरी है।
कौन है
शिष्य? जिसे यह बात
समझ में आ गई
कि अब तक
मैंने कुछ जाना.
नहीं। तुम्हें
भी कभी-- कभी यह
बात समझ में
आती है, लेकिन
तुम्हें इस
तरह समझ में
आती है कि सब न
जाना हो, थोड़ा
तो मैंने जाना
है। वहीं धोखा
हो जाता है। एक
बात तुम्हें
कह दूं? या
तो जानना पूरा
होता है, या
बिलकुल नहीं
होता। थोड़ा--थोड़ा
नहीं होता। या
तो तुम जीते
हो, या
मरते हो। या
तो मरे, या
जिंदा। तुम
ऐसा नहीं होते
कि थोड़े--थोड़े
जिंदा। या तो
तुम जागे, या
सोए। थोड़े-थोड़े
जागे, थोड़े--थोड़े
सोए, ऐसा
होता ही नहीं।
अगर तुम थोड़े
भी जागे हो, तो तुम पूरे
जागे हो। जागने
के खंड नहीं
किए जा सकते। ज्ञान
के खंड नहीं
किए जा सकते।
यही
पांड़त्य और
बुद्धत्व का
फर्क है। पांडित्य
के खंड किए जा
सकते हैं। तुमने
पहली परीक्षा
पास कर ली, दूसरी कर
ली, तीसरी
कर ली, बड़े
पंडित होते
चले गए। एक
शास्त्र जाना,
दूसरा जाना,
तीसरा जाना,
मात्रा
बढ़ती चली गई। पांडित्य
मात्रा में है,
क्वांटिटी
में है। बुद्धत्व
क्वालिटी में
है। मात्रा
में नहीं, गुण
में। बुद्धत्व
होने का एक
ढंग है। मात्र
जानकारी की
संख्या नहीं
है, जागने
की एक
प्रक्रिया।
इसे
थोड़ा सोचो। सुबह
जब तुम जाग
जाते हो, क्या तुम यह
कह सकते हो कि
अभी मैं थोड़ा-
थोड़ा जागा हूं?
कौन कहेगा?
इतना जानने
के लिए भी कि
मैं थोड़ा-
थोड़ा जागा हूं
पूरा जागना
जरूरी है। जागने
की मात्राएं
नहीं होतीं। रात
जब तुम सो
जाते हो, क्या
तुम कह सकते
हो कि मैं थोड़ा-थोड़ा
सोया हूं? कौन
कहेगा? जब
तुम सो गए तो
सो गए। कौन
कहेगा कि मैं
थोड़ा-थोड़ा
सोया हूं? अगर
तुम कहने को
अभी भी मौजूद
हो, तो तुम
सोए नहीं, तुम
जागे हो।
न तो
जागना बांटा
जा सकता है, न सोना
बांटा जा सकता
है। न जीवन
बांटा जा सकता,
न मौत बांटी
जा सकती। पांडित्य
बांटा जा सकता
है। जो बांटा
जा सकता है, उसे तुम ज्ञान मत
समझना। जो
नहीं बांटा जा
सकता, जो
उतरता है पूरा
उतरता है, नहीं
उतरता बिलकुल
नहीं उतरता, उसे ही तुम ज्ञान समझना।
मेरे
पास लौग आते
हैं, उनको
अगर मैं कहता
हूं कि पहले
तुम यह जानने
का भाव छोड़ दो।
वे कहते हैं
कि इसीलिए तो
हम आपके पास
आए हैं। जो
थोड़ा-बहुत
जानते हैं, उससे कुछ
सार नहीं हुआ;
और जानने की
इच्छा है। उनको
वह जो खयाल है
थोड़ा-बहुत
जानने का, वही
बाधा बनेगा। वह
उन्हें शिष्य
न बनने देगा। वे
विद्यार्थी
बन जाएंगे, शिष्य न बन
सकेंगे।
विद्यार्थी
वह है जो थोड़ा
जानता है, थोड़ा और
जानने को
उत्सुक है। विद्यार्थी
यानी जिज्ञासु।
जानकारी की
खोज में निकला।
शिष्य
विद्यार्थी
नहीं है, सत्यार्थी
है।
शिष्य
जानकारी की
खोज में नहीं
निकला है, जानने की
कला की खोज
में निकला है।
शिष्य का
ध्यान जो
जाना-जाना है उस
पर नहीं है, जो जानेगा
उस पर है। विद्यार्थी
आब्जेक्टिव
है। बाहर उसकी
नजर है। शिष्य
सब्जेक्टिव
है। भीतर उसकी
नजर है। वह यह
कह रहा है कि
पहले तो मैं
जाग जाऊं, फिर
जानना तो गौण
बात है। जाग
गया तो जहां
मेरी नजर
पड़ेगी, वहीं
ज्ञान पैदा
हो जाएगा। जहा
देखूंगा, वहीं
झरने उपलब्ध
हो जाएंगे
ज्ञान के। पर
मेरे भीतर
जागना हो जाए।
विद्यार्थी
सोया है और
संग्रह कर रहा
है। सोए लोग
ही संग्रह
करते हैं, जागो ने
संग्रह नहीं
किया। न धन का,
न ज्ञान का,
न यश का, न
पद का। सोया
आदमी संग्रह
करता है। सोया
आदमी मात्रा
की भाषा में सोचता
है।
कौन
जीतेगा? बड़ा अजीब
उत्तर देते
हैं बुद्ध, शिष्य
जीतेगा। कोई
योद्धा नहीं। और
शिष्य के होने
की पहली शर्त
यह है कि
जिसने अपनी
हार स्वीकार
कर ली हो। जिसने
यह कहा हो कि
मैं अब तक जान
नहीं पाया। चला
बहुत, पहुंचा
नहीं। सोचा
बहुत, समझा
नहीं। सुना
बहुत, सुन
नहीं पाया। देखा
बहुत, भ्रांति
रही, क्योंकि
देखने वाला
सोया था। जो
हार गया है
आकर, जिसने
गुरु के चरणों
में सिर रख
दिया और कहा कि
मैं कुछ भी
नहीं जानता
हूं जिसने
अपने सिर के
साथ अपनी
जानकारी भी सब
गुरु के चरणों
पर रख दी, वही
सीखने को कुशल
हुआ, सीखने
में सफल हुआ। सीखने
की क्षमता उसे
उपलब्ध हुई। जिसने
जाना कि मैं
नहीं जानता
हूं र वही
शिष्य है। कठिन
है। क्योंकि
अहंकार कहता
है कि मैं और
नहीं जानता!
पूरा न जानता
होऊं, थोड़ा
तो जानता हूं।
सब न जान लिया
हो, पर
बहुत जान लिया
है।
बुद्ध
के पास एक
महापंडित आया, सारिपुत्र।
वह बड़ा ज्ञानी
था। उसे सारे
वेद कंठस्थ थे।
उसके खुद पांच
हजार शिष्य
थे-शिष्य नहीं,
विद्यार्थी
कहने चाहिए। लेकिन
वह समझता था
कि शिष्य हैं,
क्योंकि वह
समझता था मैं
ज्ञानी हूं।
जब वह
बुद्ध के पास
आया और उसने
बहुत से सवाल
उठाए, तो
बुद्ध ने कहा,
ये सब सवाल
पांडित्य के
हैं। ये सवाल
शास्त्रों से
पैदा हुए हैं।
ये तेरे भीतर
नहीं पैदा हो
रहे हैं, सारिपुत्र!
ये सवाल तेरे
नहीं हैं, ये
सवाल उधार हैं।
तूने किताबें
पढ़ी हैं। किताबों
से सवाल पैदा
हो गए हैं। अगर
ये किताबें
तूने न पढ़ी
होतीं, तो
ये सवाल पैदा
न होते। अगर
तूने दूसरी
किताबें पढ़ी
होतीं, तो
दूसरे सवाल
पैदा होते। ये
सवाल तेरी
जिंदगी के
भीतर से नहीं
आते, ये
तेरे अंतस्तल
से नहीं उठे, ये
अस्तित्वगत
नहीं हैं, बौद्धिक
हैं।
सारिपुत्र
अगर सिर्फ
पंडित ही होता, तो नाराज
होकर चला गया
होता। उसने आंखें
झुकायीं, उसने
सोचा। उसने
देखा कि बुद्ध
जो कह रहे हैं
उसमें तथ्य कितना
है? और तथ्य
पाया। उसने
सिर उनके
चरणों में रख
दिया। उसने
कहा कि मैं
अपने सवाल
वापस ले लेता
हूं। ठीक कहते
हैं आप, ये
सवाल मेरे
नहीं हैं। अब
तक मैं इन्हें
अपना मानता
रहा। और जब
सवाल ही अपना
न हो, तो
जवाब अपना
कैसे मिलेगा?
जब सवाल ही
अभी अपने
अंतरतम से
नहीं उठा है, तो जवाब
अंतरतम तक
कैसे जाएगा?
एक तो
जिज्ञासा है
जो बुद्धि की
खुजलाहट जैसी है, कुतूहल
जैसी है। पूछ
लिया, चलते-चलते।
कोई जीवन दाव
पर नहीं लगा
है। और एक
जिज्ञासा है
जिसको हमने
मुमुक्षा कहा
है। जीवन दाव
पर लगा है। यह
कोई सवाल ऐसा
ही नहीं है, कि
चलते-चलते पूछ
लिया। इसके
उत्तर पर
निर्भर करेगा
जीवन का सारा
ढंग। इसके
उत्तर पर
निर्भर करेगा
कि मैं जीऊं
या मरूं? इसके
उत्तर पर
निर्भर करेगा
कि जीवन जीने
योग्य है या
व्यर्थ है? जहां सब दाव
पर लगा है।
सारिपुत्र
ने कहा, अब मैं तभी
पूछूंगा जब
मेरे अंतरतम
का प्रश्न आएगा।
मुझे
शास्त्रों से
मुक्त करें, भगवान!
बुद्ध ने कहा,
तू समझ गया,
तू मुक्त हो
गया। शास्त्र
थोड़े ही तुझे
पकड़े हुए हैं,
तूने ही
पकड़ा था। तू
समझ गया, तूने
छोड़ दिया। सारिपुत्र
को बुद्ध ने
शिष्य की तरह
स्वीकार कर
लिया।
कहते
हैं, सारिपुत्र
ने फिर कभी
सवाल न पूछे, वर्षों तक। और
बुद्ध ने एक
दिन
सारिपुत्र को
पूछा कि तू पूछता
नहीं। तू जब
आया था, बड़े
सवाल लेकर आया
था। वह सवाल
तो तुझसे छीन
लिए गए थे। तूने
कहा था, अब
जब मेरा सवाल
उठेगा, तब
पूछूंगा। तूने
पूछा नहीं। सारिपुत्र
ने कहा, अचंभा
है। पराए सवाल
थे, बहुत
थे। उत्तर भी
बहुत मिल गए
थे, फिर भी
उत्तर मिलता
नहीं था। क्योंकि
अपना सवाल न
था। प्राणों
की कोई हूक न
थी, कोई
प्यास न थी। जैसे
बिन प्यासे
आदमी को पानी
पिलाए जाओ। उलटी
हो सकती है, तृप्ति थोड़े
ही होगी। फिर
उनको छोड़ दिया
तो बड़ी हैरानी
हुई। प्रश्न
उठा ही नहीं
और उत्तर मिल
गया।
जिसने
अपने भीतर
उतरने की थोड़ी
सी भी शुरुआत
की, उसके
प्रश्न खोते
चले जाते हैं।
अंतरतम में
खड़े होकर, जहा
से प्रश्न
उठना चाहिए
वहीं से जवाब
उठ आता है। हर
अस्तित्वगत
प्रश्न अपना
उत्तर अपने
भीतर लिए है। प्रश्न
तो बीज है। उसी
बीज से फूटता
है अंकुर, उत्तर
प्रगट हो जाते
हैं। तुम्हें
तुम्हारे
जीवन की
समस्या मालूम
पड़ती है
समस्या की तरह,
क्योंकि वह
समस्या भी
तुमने उधार ही
बना ली है। किसी
और ने तुमसे
कह दिया है। और
किसी और की
मानकर तुम चल
भी पड़े हो। किसी
और ने तुम्हें
समझा दिया है
कि तुम बहुत प्यासे
हो, पानी
को खोजो।
मेरे
पास लोग आते
हैं, वे
कहते हैं, ईश्वर
को खोजना है। मैं
उनकी तरफ
देखता हूं
-किसलिए खोजना
है? ईश्वर
ने तुम्हारा
क्या बिगाड़ा
है? जरूरी
खोजना है? निश्चित
ही खोजना है? जीवन को
दांव पर लगाने
की तैयारी है?
वे कहते हैं,
नही, ऐसा
कुछ नहीं। अगर
मिल जाए! वैसे
तो हमें पक्का
भी नहीं कि है भी
या नहीं। मैं
उनसे पूछता
हूं? तुम्हें
ठीक-ठीक पक्का
है कि तुम
खोजने ही निकले
हो? वे
कहते हैं, वह
भी कुछ साफ
नहीं, धुंधला-धुंधला
है। किसलिए
खोज रहे हो
ईश्वर को? सुन
लिया है शब्द।
शब्द पकड़ गया
मन में। कोई
और लोग भी खोज
रहे हैं, तुम
भी खोजने निकल
पड़े हो।
नहीं, ऐसे खोज
नहीं होती
सत्य की। शिष्य
होने से खोज
होती है। पहले
तो उधार ज्ञान
छोड़ देना
जरूरी है। उधार
जान छोड़ते ही
तुम ऐसे शात
और पवित्र हो
जाते हो, क्वांरापन
उतर आता है, सारी गंदगी
हट जाती है।
'कौन
जीतेगा? कौन
कुशल पुरुष
फूल की भांति
सुदर्शित
धर्मपथ को
चुनेगा? 'शिष्य
इस पृथ्वी और
देवताओं सहित
इस यमलोक को जीतेगा।
'
मृत्यु
को भी जीत
लेगा। लेकिन
जीतने की कला
है, जानने
की भ्रांति को
छोड़ देना। पांडित्य
को छोड़ते ही
जीवन अपने रंग
खोलने शुरू कर
देता है। पांडित्य
जैसे आंखों से
बंधे पत्थर
हैं, जिनकी
वजह से पलकें
खुल नहीं
पातीं, बोझिल
हो गई हैं। पांडित्य
के हटते ही
तुम फिर छोटे
बच्चे की भांति
हो जाते हो।
शिष्य
यानी फिर से
तुम्हारा
बालपन लौटा। जैसे
छोटा बच्चा
देखता है जगत
को, बिना
जानकारी के। गुलाब
के फूल को
छोटा बच्चा भी
देखता है, तुम
भी देखते हो। तुम
जब देखते हो
तब तुम्हारे
भीतर एक शब्द
बनता है-गुलाब
का फूल। या एक
शब्द बनता है
कि-हा, सुंदर
है। या तुलना
उठती है
कि-पहले देखे
थे फूल, उतना
ही सुंदर है, ज्यादा है, या कम है। बात
खतम हो जाती
है। थोड़े से
शब्दों का
भीतर शोरगुल
होता है, और
उन शब्दों के
शोरगुल में
जीवित फूल खो
जाता है।
एक छोटा
बच्चा भी
गुलाब के फूल
को देखता है। अभी
उसे पता ही
नहीं कि यह
गुलाब है, कि कमल है,
कि चमेली, कि जूही। अभी
नाम उसे याद
नहीं। अभी ज्ञान की उस पर
कृपा नहीं हुई।
अभी शिक्षकों
ने उसे बिगाड़ा
नहीं। अभी
सौभाग्यशाली
है, शिक्षा
का जहर उस पर
गिरा नहीं। अभी
वह सिर्फ
देखता है। अभी
तुलना भी नहीं
उठती। क्योंकि
तुलना के लिए
भी नाम सीख
लेना जरूरी है।
अतीत में भी
उसने फूल देखे
होंगे, उनको
फूल भी नहीं
कह सकता। रंगों
का एक जागता
हुआ अनुभव था।
रंग भी नहीं
कह सकता। शब्द
तो उसके पास
नहीं हैं। सीधा
फूल को देखता
है, बीच
में कोई दीवाल
खड़ी नहीं होती,
कोई शब्द
जाल नहीं बनता,
कोई तुलना
नहीं उठती। सीधे
फूल से हृदय
से हृदय का
मिलन होता है।
फूल के साथ एक
तादात्म्य
बनता है। फूल
में डूबता है,
फूल उसमें
डूबता है। छोटा
बच्चा एक
डुबकी लगा
लेता है फूल
के अस्तित्व
में। फूल अपने
सारे सौंदर्य
को उसके चारों
तरफ बिखरा
देता है। अपनी
सारी सुगंध
लुटा देता है।
छोटे बच्चे का
जो अनुभव है
गुलाब के फूल
के पास, वह
तुम लाख तरसो,
तब तक
तुम्हें न हो
सकेगा जब तक
तुम फिर से
बच्चे न हो
जाओ।
जीसस ने
कहा है, मेरे प्रभु
के राज्य के
वे ही अधिकारी
होंगे जो छोटे
बच्चों की
भाति हैं। छोटे-छोटे
बच्चों की
भांति सरल हैं।
शिष्य
का यही अर्थ
है कि जो फिर
से सीखने को
तैयार है। जो
कहता है, अब तक जो
सीखा था, बेकार
पाया। अब मैं
फिर से द्वार
पर खड़ा हूं
अपने हृदय की झोली
को भरने को। अब
कूड़ा-करकट से
नहीं भरना है।
अब जानकारी से
नहीं 'भरना
है। अब होश को
मांगने आया
हूं।
विद्यार्थी
ज्ञान मांगने
आता है, शिष्य होश
मांगने आता है।
विद्यार्थी
कहता है, और
जानकारी
चाहिए। शिष्य
कहता है, जानकारी
को क्या
करेंगे, अभी
जानने वाला ही
मौजूद नहीं, जानने वाला
चाहिए।
'कुशल शिष्य
फूल की भांति
सुदर्शित
धर्मपथ को चुनेगा।
और
जिसने जीवन का
थोड़ा सा भी
स्वाद लेना
शुरू कर दिया, जिसके
भीतर होश की
किरण पैदा हुई,
होश का
चिराग जला, अब उसे
दिखाई पड़ने
लगेगा-कहो कांटे
है, कहां
फूल है।
तुम्हें
लोग समझाते
हैं, बुरा
काम मत करो। तुम्हें
लोग समझाते
हैं, पाप
मत करो। तुम्हें
लोग समझाते
हैं, अनीति
मत करो, बेईमानी
मत करो, झूठ
मत बोलो। मैं
तुम्हें नहीं
समझाता। मैं
तुम्हें
समझाता हूं र
चिराग को जलाओ।
अन्यथा
पहचानेगा कौन
कि क्या अनीति
है, क्या
नीति है? कौन
जानेगा-कहां
काटे हैं, कहां
फूल है ' तुम
अभी मौजूद ही
नहीं हो। रास्ता
कहां है, भटकाव
कहां है, तुम
कैसे जानोगे?
तुम अगर
दूसरों की
मानकर चलते भी
रहे तो तुम ऐसे
ही होओगे, जैसे
अंधा अंधों को
चलाता रहे। न
उन्हें पता है,
न उनके आगे
जो अंधे खड़े
हैं उन्हें
पता है। अंधों
की एक कतार
लगी है। वेद
और शास्त्रों
के ज्ञाताओं
की कतार लगी
है। और अंधे एक
-दूसरे को
पकड़े हुए चले
जा रहे हैं।
किस बात
को तुम कहते
हो नीति? किस बात को
तुम कहते हो
धर्म? कैसे
तुम जानते हो?
तुम्हारे
पास कसौटी
क्या है? तुम
कैसे पहचानते
हो क्या सोना
है क्या पीतल
है? दोनों
पीले दिखाई
पड़ते हैं। है।,
दूसरे कहते
हैं यह सोना
है, तो मान
लेते हो। दूसरों
की कब तक
मानते रहोगे?
दूसरों की
मान-मानकर ही
तो ऐसी गति
हुई द्वै ऐसी
दुर्गति हुई
है।
धर्म
कहता है, दूसरों की
नहीं माननी है,
अपने भीतर
उसको जगाना है,
जिसके
द्वारा जानना
शुरू हो जाता
है और मानने की
कोई जरूरत
नहीं रह जाती।
चिराग जलाओ, ताकि
तुम्हें खुद
ही दिखाई पड़ने
लगे-कहां गलत है,
कहा सही है।
मैंने
सुना है, दो युवक एक
फकीर के पास आए।
उनमें से एक
बहुत दुखी था।
बड़ा बेचैन था।
दूसरा ऐसा कुछ
खास बेचैन
नहीं था, प्रतीत
होता था मित्र
के साथ न 'ना
आया है। पहले
ने कहा, हम
बड़े परेशान हैं। हमसे
बड़े भयंकर पाप
हो गए हे, उनसे
छुटकारे का और
प्रायश्चित्त
का कोई मार्ग
बताओ। उस फकीर
ने पहले से पूछा
कि तू अपने
पापों के
संबंध में कुछ
बोल। तो उसने
कहा, ज्यादा
मैंने पाप
नहीं किए, मगर
एक बहुत जघन्य
अपराध किया है।
और उसका बोझ
मेरी छाती पर
एक चट्टान की
तरह रखा है। दया
करो, किसी
तरह यह बोझ
मेरा उतर जाए।
मैं पछता , हा
हूं, भूल
हो गई। लेकिन
अब क्या करूं,
जो हो गया
हो गया। वह
रोने लगा, आंख
से उसकी आंसू
गिरने लगे।
उस फकीर
ने कहा दूसरे
से कि तेरा
क्या पाप है? दूसरे ने
मुस्कुराते
हुए कहा, ऐसा
कुछ खास नहीं।
कोई बड़े पाप
मैंने नहीं
किए हैं। ऐसे
ही छोटे-छोटे,
जिनका कोई
हिसाब भी नहीं,
और कोई उनसे
मैं दबा भी
नहीं जा रहा
हूं। मित्र
आता था, इसलिए
मैं भी साथ
चला आया। और
अगर इसके बड़ों
से छुटकारा
मिल सकता है, तो मेरे
छोटे-छोटे
पापों का भी
आशीर्वाद दो
कि छुटकारा हो
जाए।
उस फकीर
ने कहा, ऐसा करो, तुम
दोनों बाहर
जाओ। और उस
पहले युवक से
कहा कि तू
अपने पाप की
दृष्टि से
उतने ही वजन
का एक पत्थर
उठा ला। और
दूसरे से कहा
कि तू भी, तूने
जो छोटे-छोटे
पाप किए हैं
कंकड़-पत्थर
उसी हिसाब की
संख्या से भर
ला। पहला तो
एक बड़ी चट्टान
उठाकर लाया। पसीने
से तरबतर हो
गया, उसे
लाना भी
मुश्किल था, हांफने लगा।
दूसरा झोली भर
लाया, छोटे-छोटे
कंकड़-पत्थर बीनकर।
जब वे
अंदर आ गए, उस फकीर
ने कहा, अब
तुम एक काम
करो। जिस जगह
से तुम यह बडा
पत्थर उठा लाए
हो, वहीं
रख आओ। और उस
दूसरे से भी
कहा कि तू ये
जो छोटे-छोटे
कंकड़-पत्थर
बीन लाया, जहा-जहां
से उठाए हैं
वहीं-वहीं
वापस रख आ।
उसने
कहा, यह
तो झंझट हो गई।
जिसने बड़ा पाप
किया है यह तो
खैर रख आएगा, मैं कहां
रखने जाऊंगा?
अब तो याद
भी करना
मुश्किल है कि
कौन सा पत्थर मैंने
कहो से उठाया
था। सैकड़ों
कंकड़-पत्थर
बीन लाया हूं।
उस फकीर
ने कहा, पाप बड़ा भी
हो, लेकिन
अगर उसकी पीड़ा
हो, तो
प्रायश्चित्त
का उपाय है। पाप
छोटा भी हो और
उसकी पीड़ा न
हो, तो
प्रायश्चित्त
का उपाय नहीं
है। और जो
तुम्हारे
पत्थर के
संबंध में
तुम्हारी स्थिति
है, वही
तुम्हारे
पापों के
संबंध में भी
स्थिति है। जिसका
दीया जला हुआ
है, वह न तो
बड़े करता है, न छोटे करता
है। जिनके दीए
अभी जले हुए
नहीं हैं, वे
बड़े करने से
भला डरते हों,
छोटे-छोटे
तो मजे से
करते रहते हैं।
छोटे-छोटे का
तो पता ही
कहां चलता है!
तुमने
किसी आदमी से
जरा सा झूठ
बोल दिया, कई बार तो
तुम ऐसे झूठ
बोलते हो कि
तुम्हें पता
ही नहीं चलता
कि तुमने झूठ
भी बोला। कई
बार तो
तुम्हें फिर
जीवन में कभी
याद भी नहीं
आता उसका। लेकिन
वह सब इकट्ठा
होता चला जाता
है। छोटे-छोटे
पत्थर इकट्ठे
होकर भी
बड़ी-बड़ी चट्टानों
से ज्यादा
बोझिल हो सकते
हैं।
असली
सवाल छोटे और
बड़े का नहीं
है। और
जिन्होंने
जागकर देखा है, उनका तो
कहना यह है कि
पाप छोटे-बड़े
होते ही नहीं।
पाप यानी पाप।
छोटा-बड़ा कैसे?
एक आदमी ने
दो पैसे की
चोरी की। क्या
छोटा पाप है? और एक आदमी
ने दो लाख की
चोरी की। क्या
बड़ा पाप है?
थोड़ा
सोचो। चोरी-चोरी
है। दो पैसे
की भी उतनी ही
चोरी है, जितनी दो
लाख की। चोर
होना बराबर है।
दो लाख से
ज्यादा का
नहीं होता, दो पैसे से
कम का नहीं
होता। चोर
होने की
भावदशा बस
काफी है। इससे
कोई अंतर नहीं
पड़ता। दो लाख
और दो पैसे का
भेद बाजार में
है। लेकिन दो
लाख और दो
पैसे की चोरी
का भेद धर्म
में नहीं हो
सकता। चोरी
यानी चोरी। लेकिन
यह तो उसे
दिखाई पड़ेगा
जिसका भीतर का
दीया जल रहा
है। फिर पाप-पाप
है। बड़ा-छोटा
नहीं है। पुण्य-पुण्य
है। छोटा-बड़ा
नहीं है।
लेकिन
जब तक तुम
दूसरों के
पीछे चल रहे
हो, जब
तक तुम
जानकारी को ही
जीवन मानकर चल
रहे हो, और
पांडित्य से
तुम्हारे
जीवन को
मार्गदर्शन
मिलता है, तब
तक तुम ऐसे ही
भटकते रहोगे।
शिष्य
वही है जिसने
अपने को जगाने
की तैयारी
शुरू की। शिष्य
वही है जिसके
लिए पांडित्य
व्यर्थ दिखाई
पड़ गया और अब
जो बुद्धत्व को
खोजने निकला
है। और जैसे
ही तुम्हारे
जीवन में यह
क्रांति घटित
होती है, शिष्यत्व की
संभावना बढ़ती
है, बड़े
अंतर पड़ने
शुरू हो जाते
हैं। तब तुम
और ही ढंग से
सुनते हो। तब
तुम और ही ढंग
से उठते हो। तब
तुम और ही ढंग
से सोचते हो। तब
जीवन की सारी
प्रक्रियाओं
का एक ही
केंद्र हो
जाता है कि
कैसे जागू? कैसे यह
नींद टूटे? कैसे यह
कटघरा
पुनरुक्ति का
मिटे और मैं
बाहर आ जाऊं? तब तुम्हारा
सारा उपक्रम
एक ही दिशा
में समर्पित
हो जाता है।
शिष्य
का जीवन एक
समर्पित जीवन
है। उसके जीवन
में एक ही
अभीप्सा है, सब
द्वारों से वह
एक ही उपलब्धि
के लिए चेष्टा
करता है, द्वार
खटखटाता है कि
मैं कैसे जाग
जाऊं? और
जिसके जीवन
में ऐसी
अभीप्सा पैदा
हो जाती है कि
मैं कैसे जाग
जाऊं, उसे
कौन रोक सकेगा
जागने से? उसे
कोई शक्ति रोक
नहीं सकती। वह
जाग ही जाएगा।
आज चाहे जागने
की आकांक्षा
बड़ी मद्धिम
मालूम पड़ती हो,
लेकिन
बूंद-बूंद
गिरकर जैसे
चट्टान टूट
जाती है, ऐसी
बूंद-बूंद आकांक्षा
जागने की
तंद्रा को तोड़
देती है। तंद्रा
कितनी ही
प्राचीन हो और
कितनी ही मजबूत
हो, इससे
कोई भेद नहीं
पड़ता।
'इस शरीर को
फेन के समान
जान; इसकी
मरीचिका के
समान प्रकृति
को पहचान; मार
के पुष्प-जाल
को काट; यमराज
की दृष्टि से
बचकर आगे बढ़।
'तुम
जहा बैठे हो
वहां कुछ पाया
तो नहीं, फिर
किसकी
प्रतीक्षा कर
रहे हो? तुम
जहा बैठे हो
वहा कुछ भी तो
अनुभव नहीं
हुआ, अब
तुम राह क्या
देख रहे हो? न कोई वादा न
कोई यकीं न
कोई उम्मीद
मगर
हमें तो तेरा
इंतजार करना
था
न तो
किसी ने कोई
वादा किया है
वहां मिलने का, न
तुम्हें यकीन
है कि कोई मिलने
वाला है, न
तुम्हें कोई
उम्मीद है, क्योंकि
जीवनभर वहीं
बैठ-बैठकर तुम
थक। गए हो--नाउम्मीद
हो गए
हो-लेकिन फिर
भी इंतजार किए
जा रहे हो। कितनी
बार तुमने
क्रोध किया है,
कितनी बार
लोभ किया है, कितनी बार
मोह किया है, कितनी बार
राग किया है, पाया कुछ? गांठ
गठियाया कुछ?
मुट्ठी
बांधे बैठे हो,
मुट्ठी के
भीतर कोई
संपदा इकट्ठी
हुई?
न कोई
वादा न कोई
यकीं न कोई
उम्मीद
मगर
हमें तो तेरा
इंतजार करना
था
कैसी
जिद पकड़कर बैठ
गए हो इंतजार
करने की। किस
का इंतजार कर
रहे हो? इस राह से
कोई गुजरता ही
नहीं। तुम जिस
राह पर बैठे
हो, वह
किसी की भी
रहगुजर नहीं।
बुद्ध
कहते हैं, 'इस जीवन
की मृग-मरीचिका
के समान
प्रकृति को
पहचान।
'प्यासे को
मरुस्थल में
भी पानी दिखाई
पड़ जाता है। वह
मृग-मरीचिका
है। है नहीं
वहां कहीं
पानी। प्यास
की कल्पना से
ही दिखाई पड़
जाता है। प्यास
बहुत सघन हो, तो जहां
नहीं है वहां
भी तुम आरोपित
कर लेते हो।
तुमने
भी इसे अनुभव
किया होगा। तुम्हारे
भीतर जो' चीजें बहुत
ज्यादा सघन
होकर पीड़ा दे
रही है, जिसे
तुम खोज रहे
हो, वह
दिखाई पड़ने
लगती है। कभी
तुम किसी की
राह देख रहे
हो घर के अंदर
बैठे, कोई
प्रियजन आ रहा
है, कोई
मित्र आ रहा
है, प्रेयसी
या प्रेमी आ
रहा है, पत्ता
भी खड़कता है
तो ऐसा लगता
है कि उसके
पैर की आवाज
सुनाई पड़ गई। फिर
उठकर देखते हो।
पोस्टमैन
द्वार पर आकर
खड़ा हो जाता
है, तो
समझते हो कि
प्रेमी आ गया।
प्रसन्न होकर,
धड़कती छाती
से द्वार
खोलते हो। कोई
नहीं भी आता, न पत्ता
खड़कता है, न
पोस्टमैन आता
है, न
द्वार से कोई
निकलता है, तो तुम
कल्पना करने
लगते हो कि
शायद आवाज
सुनी, शायद
किसी ने द्वार
खटखटाया, या
कोई पगध्वनि
सुनाई पड़ी
सीढ़ियों पर
चढ़ती हुई। भागकर
पहुंचते हो, कोई भी नहीं
है।
न कोई
वादा न कोई
यकीं न कोई
उम्मीद
मगर तुम
कल्पना किए
चले जाते हो। मृग-मरीचिका
का अर्थ है, जहां नहीं
है वहां देख
लेना। और जो
व्यक्ति वहां
देख रहा हो
जहा नहीं है, वह वहां
देखने से
वंचित रह
जाएगा जहा है।
तो
मृग-मरीचिका
जीवन के
आत्यंतिक
सत्य को देखने
में बाधा बन
जाती है। तुम
दौड़ते रहते हो
उस तरफ जहां
नहीं है। और
तुम उस तरफ
देखते ही नहीं
लौटकर जहां है।
जिसे
तुम खोज रहे
हो, वह
तुम्हारे
भीतर छुपा है।
जिसे तुम पाने
निकले हो, उसे
तुमने कभी
खोया ही नहीं।
उसे तुम लेकर
ही आए थे। परमात्मा
किसी को
दरिद्र भेजता
ही नहीं। सम्राट
के अलावा वह
किसी को कुछ
और बनाता ही नहीं।
फिर भिखमंगे
तुम बन जाते
हो, वह
तुम्हारी ही कुशलता
है। वह
तुम्हारी ही
कला है। तुम्हारी
मौज। परमात्मा
तुम्हें इतनी
स्वतंत्रता
देता है कि
तुम अगर
भिखमंगे भी
होना चाहो तो
उसमें भी बाधा
नही डालता।
'इस शरीर को
फेन के समान
जान।
शिष्य
को कह रहे हैं
यह बात बुद्ध, विद्यार्थी
को नहीं। विद्यार्थी
से बुद्धों का
होई मिलना ही
नहीं होता। केवल
शिष्यों से। जो
वस्तुत: आतुर
हैं, और
जिनका 'यवन
एक लपट बन गई
है-एक खोज, और
जो सब कुर्बान
करने को राजी
हैं। जिन्हें
जीवन में ऐसी
कोई बात दिखाई
ही नहीं पड़ती
जिसके लिए
रुके रहने की
कोई जरूरत हो।
जो अशात की
तरफ जाने को
तत्पर हैं। जो
ज्ञान को
छोड़कर
अज्ञान को
स्वीकार किए
हैं, केवल
वे ही ज्ञात
से मुक्त होते
हैं और अज्ञात
में उनका
प्रवेश होता
है। उनसे ही
बुद्ध कह रहे
हैं-
'इस शरीर को
फेन के समान
जान। '
समुद्र
के तट पर
तुमने फेन को
इकट्ठे होते
देखा है। कितना
सुंदर मालूम
होता है! दूर
से अगर देखा
हो तो बड़ा
आकर्षक लगता
है। कभी सूर्य
की किरणें
उससे गुजरती
हों तो इंद्रधनुष
फैल जाते हैं
फेन में। पास
आओ, पानी
के बबूले हैं।
वह शुभ्रता, वह चांद
जैसी सफेदी, या चमेली के
फूल जैसी जो
बाढ़ आ गई थी, वह कुछ भी
नहीं मालूम
पड़ती। फिर हाथ
में, मुट्ठी
में फेन को
लेकर देखा है?
बबूले भी खो
जाते हैं।
जिंदगी
आदमी की बस
ऐसी ही है। फेन
की भाति। दूर
से देखोगे, बड़ी
सुंदर; पास
आओगे, सब
खो जाता है। दूर-दूर
रहोगे, बड़े
सुंदर
इंद्रधनुष
दिखाई पड़ते
रहेंगे; पास
आओगे, हाथ
में कुछ भी
नहीं आता।
सुनते
हैं चमन को
माली ने फूलों
का कफन पहनाया
हैं
दूर से
फूल दिखाई
पड़ते हैं, पास आओ
कफन हो जाता
है। जिसको तुम
जिंदगी कहते
हो, दूर से
जिंदगी मालूम
होती है, पास
आओ मौत हो
जाती है।
सुनते
हैं चमन को
माली ने फूलों
का कफन पहनाया
है
चारों
तरफ जहां-जहा
तुम्हें फूल
दिखाई पड़े, जरा गौर
से पास जाना, हर फूल है। छिपा
हुआ कांटा तुम
पाओगे। हर फूल
चुभेगा। हां,
दूर से ही
देखते रहो तो
भ्रांति बनी
रहती है। पास
जाने से
भ्रांतियां
टूट जाती हैं।
दूर के ढोल
सुहावने
मालूम होते है।
दूर से सभी
चीजें सुंदर
मालूम होती
हैं।
तुमने
कभी खयाल किया, दिन में
चीजें उतनी
सुंदर नहीं
मालूम पड़ती जितनी
रात की चांदनी
में मालूम
पड़ती हैं। चांदनी
एक तिलिस्म
फैला देती है,
क्योंकि
चांदनी। एक
धुंधलका दे
देती है। वैसे
ही आंखें नहीं
हैं, वैसे
ही अंधापन है,
चांदनी और
पुराखों को
धुएं से भर
देती है। जो
चीजें दिन में
साधारण दिखाई
पड़ती हैं, वे
भी रात भर सुंदर
होकर दिखाई
पड़ने लगती हैं।
जितना
तुम्हारी आंखों
में धुंध होता
है, उतना
हो जीवन का
फेन बहुमूल्य
मालूम होने
लगता है। हीरे-जवाहरात
दिखाई पड़ने लगते
हैं।
लो आओ
मैं बताऊं
तिलिस्मे-जहां
का राज
जो
कुछ है सब
खयाल की मुट्ठी
में बंद है
जितने
दूर रहो, उतना ही
वस्तुओं से
संपर्क नहीं
होता, सिर्फ
खयालों से
संपर्क होता
है। जितने पास
आओ, जीवन
का यथार्थ
दिखाई पड़ता है,
खयाल टूटने
लगते हैं। और
जिसने भी जीवन
का यथार्थ
देखा, वह
घबड़ा गया। वह
भयभीत हो गया।
क्योंकि वहां
जीवन के घर में
छिपी मौत पाई,
फूल में
छिपे काटे पाए।
सुंदर सपनों
के पीछे सिवाय
पत्थरों के
कुछ भी नहीं
था। पानी की
झाग थी, कि
मरुस्थल में
देखे गए जल के
झरने थे। दूर
से बड़े मनमोहक
थे, पास
आकर थे ही
नहीं।
और यह
सभी को अनुभव
होता है, लेकिन फिर
भी तुम न
मालूम किसका
इंतजार कर रहे
हो? न किसी
ने वादा किया
है, न
तुम्हें
भरोसा है कि
कोई आएगा, उम्मीद
भी नहीं
है-मगर शायद
तुम सोचते हो,
और करें भी
क्या? अगर
इंतजार न करें,
तो और करें
भी क्या न
बुद्धपुरुष
तुम्हें
बुलाते हैं कि
तुम गलत राह
पर बैठे हो और
जिसकी तुम
प्रतीक्षा
करते हो वह
वहा से गुजरता
ही नहीं। और
भी राहें हैं।
प्रतीक्षा
करने के लिए
और भी
प्रतीक्षालय
हैं। अगर
प्रतीक्षा ही
करनी है तो
थोड़ा भीतर की
तरफ चलो। जितने
तुम बाहर गए
हो उतने ही
तुम ने झाग और
फेन के
बुलबुले पाए
हैं। थोड़े
भीतर की तरफ
आओ और तुम
पाओगे उतना ही
यथार्थ प्रगट
होने लगा। जितने
तुम भीतर आओगे
उतना सत्य, जितने
तुम बाहर
जाओगे उतना
असत्य। जिस
दिन तुम
बिलकुल अपने
केंद्र पर खड़े
हो जाओगे, उस
दिन सत्य अपने
पूरे राज खोल
देता है। उस
दिन सारे
पर्दे, सारे
घूंघट उठ जाते
हैं।
'इस शरीर को
फेन के समान
जान; और
इसकी मरीचिका के
समान प्रकृति
को पहचान; ‘मार
के पुष्पजाल
को काट। '
बुद्ध
कहते हैं, वासना ने
बड़े फूलों का
जाल फैलाया है।
'मार के पुष्पजाल
को काट। '
सुनते
हैं चमन को
माली ने फूलों
का कफन पहनाया
है
मार का
पुष्पजाल। उन
फूलों के पीछे
कुछ भी नहीं
है। धोखे की
टट्टी है। पीछे
कुछ भी नहीं
है। सारा
सौंदर्य
पर्दे में है।
खाली घूंघट है, भीतर कोई
चेहरा नहीं है।
लेकिन घूंघट
को जब तक तुम
खोलोगे न और
भीतर की रिक्तता
का पता न
चलेगा, तब
तक तुम जागोगे
न। कई बार
तुमने घूंघट
भी खोल लिए
हैं। एक घूंघट
के भीतर तुमने
कोई न पाया, तो भी तुम्हें
समझ नहीं आती।
तब तुम दूसरा
घूंघट खोलने
में लग जाते
हो। एक मुट्ठी
झाग-झाग सिद्ध
हो गई तो मन
कहे चला जाता
है, सारी
ही झाग थोड़ी
झाग होगी। एक
घूंघट व्यर्थ
हुआ, दूसरे
घूंघट में खोज
लेंगे। ऐसा
जन्मों अजन्मों
से घूंघट
उठाने का कम
चल रहा है। किसी
घूंघट में कभी
किसी को नहीं
पाया। सब
घूंघट खाली थे।
तुमने
कभी किसी में
किसी को पाया? पति में
कुछ पाया? पत्नी
में कुछ पाया?
मित्र
में कुछ पाया? सगे-साथी
में कुछ पाया?
या सिर्फ
घूंघट था। नहीं
मिलता है, कोई
नहीं मिलता है
वहां, लेकिन
मन की आशा
कहती है, यहां
नहीं मिला तो
कहीं और मिल
जाएगा। इस
झरने में पानी
सिद्ध नहीं
हुआ, फिर
दूर और झरना
दिखाई पड़ने
लगता है। तुम
कब जागोगे इस
सत्य से कि
झरने तुम
कल्पित करते
हो, कहीं
कोई नहीं है!
तुम्हारे
अतिरिक्त सब
अयथार्थ है। तुम्हारे
अतिरिक्त सब
माया है।
'यमराज की
दृष्टि से
बचकर आगे बढ़ो।'
अगर
जीवन को सचमुच
पाना है तो
मौत से,. जहां-जहां
मौत हो
वहा-वहां जीवन
नहीं है, इसको
तुम समझ लो। जहां-जहां
परिवर्तन हो,
वहां
शाश्वत नहीं
है। और
जहां-जहां
क्षणभंगुर हो
वहां सनातन
नहीं है। और
जहां-जहा
चीजें बदलती
हों, वहां
समय को मत
गंवाना। उसको
खोजो जो कभी
नहीं बदलता है।
उस न बदलने को
खोज लेने की
कला का नाम
धर्म है। एस
धम्मो सनंतनो।
'विषयरूपी
फूलों को
चुनने वाले, मोहित मन
वाले पुरुष को
मृत्यु उसी
तरह उठा ले
जाती है, जिस
तरह सोए हुए
गांव को बढ़ी
हुई बाढ़।
जैसे
सोए हुए गांव
में अचानक नदी
में बाढ़ आ जाए
और लोग
सोए-सोए ही बह
जाते हैं, ऐसे ही
विषयरूपी
फूलों को
चुनने वाले, मोहित मन
वाले पुरुष को
मृत्यु उठा ले
जाती है। सोए
ही सोए बाढ़ आ
जाती है और
जिंदगी विदा
हो जाती है। तुम
सपने ही देखते
रहते हो और
बाढ़ आ जाती है।
सारी
कामवासना
स्वज देखने के
अतिरिक्त और कुछ
भी नहीं है।
ये ऐश
के बंदे सोते
रहे फिर जागे
भी तो क्या जागे
सूरज का
उभरना याद रहा
और दिन का
ढलना भूल गए
एक तो
जागते ही नहीं, सोए ही
रहकर बिता
देते हैं। और
अगर कभी कोई
सोचता भी है
कि जाग गया, तो सोचता ही
है कि जाग गया।
वह भी जागना
जैसे सपने में
ही जागना है।
सूरज का
उभरना याद रहा
और दिन का
ढलना भूल गए
तो लोग
अपने जन्मदिन
को याद रखते
हैं। मृत्युदिन
की कौन चर्चा
करता है? लोग जीवन पर
नजर रखते हैं।
मौत! मौत की
बात ही करनी
बेहूदी मालूम
पड़ती है। अगर
किसी से पूछो
कि कब मरोगे, तो वह नाराज
हो जाता है। मरोगे
कि नहीं? तो
वह फिर दुबारा
तुम्हें कभी
मिलेगा ही
नहीं। वह
तुम्हें
दुश्मन समझ
लेगा। पूछा
कुछ गलत न था। जो
होने ही वाला
था वही पूछा
था। लेकिन मौत
की लोग बात भी
नहीं करना
चाहते। बात से
भी भय लगता है।
फिर भी मौत तो
है। उस तथ्य
को इनकार न कर
सकोगे। किसी
भांति उस तथ्य
को स्वीकार
करो तो शायद
इस जीवन से
जागने की
क्षमता आ जाए।
जिसने
भी मृत्यु को
स्वीकार किया
वह देखेगा, मृत्यु
कभी आती है
ऐसा थोड़े ही, रोज हम मर
रहे हैं। अभी
आती है। अभी आ
रही है, अभी
घट रही है। ऐसा
थोड़े ही कि
कभी सत्तर साल
के बाद घटेगी।
रोज-रोज घटती
है, सत्तर
साल में पूरी
हो जाती है। जन्म
के साथ ही मौत
का सिलसिला
शुरू होता है,
मरने के साथ
पूरा होता है।
लंबी
प्रक्रिया है।
मृत्यु कोई
घटना नहीं है,
प्रक्रिया
है। पूरे जीवन
पर फैली है। जैसे
झील पर लहरें
फैली हों, ऐसे
जीवन पर मौत
फैली है। अगर
तुम मौत को
छिपाते हो, ढांकते हो, बचते हो, तो
तुम जीवन के
सत्य को न देख
पाओगे। जिसे
तुम जीवन कहते
हो इस जीवन का
सत्य तो मृत्यु
है।
सूरज का
उभरना याद रहा
और दिन का
ढलना भूल गए
सूरज उग
चुका है, ढलने में
ज्यादा देर न
लगेगी। जो उग
चुका, वह
ढल ही चुका। जो
उग गया है, वह
ढलने के मार्ग
पर है। सुबह
का सूरज सांझ
का सूरज बनने
की चेष्टा में
संलग्न है। सांझ
दूर नहीं है, अगर सुबह हो
गई। जब सुबह
ही हो गई, तो
सांझ कितनी
दूर हो सकती
है! जिसको तुम
भर जवानी कहते
हो, वह
केवल आधे दिन
का पूरा हो
जाना है-आधी
सांझ का आ
जाना है। जवानी
आधी मौत है। लेकिन
कौन याद रखता
है? जो याद
रख सके, वही
शिष्य है।
मौत ही
इंसान की
दुश्मन नहीं
जिंदगी
भी जान लेकर
जाएगी
मौत ही
इंसान की
दुश्मन नहीं, जिंदगी
भी जान लेकर
जाएगी-मौत को
दुश्मन मत समझना।
जिसे तुम
जिंदगी कहते
हो वह मौत ही
है, वह भी
जान लेकर जाएगी।
'फूलों
को चुनने वाले,
मोहित मन
वाले पुरुष को
मृत्यु उसी
तरह उठा ले
जाती है, जिस
तरह सोए हुए
गांव को बढ़ी
हुई बाढ़।
तू हविश
में दुनिया की
जिंदगी मिटा
बैठा
भूल हो
गई गाफिल
जिंदगी ही
दुनिया थी
तू हविश
में दुनिया की
जिंदगी मिटा
बैठा-दुनिया
को पाने की
चेष्टा में वह
जो
जीवन
था उसे तूने
मिटा दिया। और
दुनिया को
पाने की
चेष्टा को ही
तूने जिंदगी
समझी। वह
जिंदगी न थी। भूल
हो गई
गाफिल-सोए हुए
आदमी, भूल
हो गई। जिंदगी
ही दुनिया थी।
इसे
थोड़ा समझ लो। जिसे
तुम दुनिया
कहते हो, तुम्हारे
बाहर जो फैलाव
है, उसे जिंदगी
मत समझ लेना। अगर
उस बाहर की
दुनिया को ही
इकट्ठा करने
में लगे रहे, तो असली
जिंदगी गंवा
दोगे। पीछे
पछताओगे। समय
बीत जाएगा और
रोओगे। फिर
शायद कुछ कर
भी न सकोगे। अभी
कुछ किया जा
सकता है। मरते
क्षण में शायद
अधिकतम लोगों
को यह समझ आती
है-
तू हविश
में दुनिया की
जिंदगी गंवा
बैठा
मरते
वक्त अधिक
लोगों को यह
खयाल आना शुरू
हो जाता है-
भूल हो
गई गाफिल
जिंदगी ही
दुनिया थी
लेकिन
तब समय नहीं
बचता। मरते-मरते
दिखाई पड़ना
शुरू होता है
कि महल
केवल
शिष्य जीतेगा
जो बनाए, धन जो
इकट्ठा किया,
साम्राज्य
जो फैलाया-
भूल हो
गई गाफिल
जिंदगी ही
दुनिया थी
भीतर की
जिंदगी को जान
लेते तो
दुनिया को पा
लेते। बाहर की
दुनिया को
पाने में लग
गए, भीतर
की जिंदगी
गंवा दी। बाहर
और भीतर में
उतना ही फर्क
है, जितना
सत्य में और
स्वप्न में। बाहर
है स्वप्न का
जाल, भीतर
है साक्षी का
निवास। जो
दिखाई पड़ता है
उस पर ध्यान
मत दो, जो
देखता है उस
पर ध्यान दो। जो
भोगा जाता है
उस पर ध्यान
मत दो, जो
भोगता है उस
पर ध्यान दो। आंख
की फिकर मत
करो, आंख
के पीछे जो
खड़ा देखता है
उसकी फिकर करो।
कान की फिकर
मत करो, कान
के पीछे खड़ा
जो सुनता है
उसकी फिकर करो।
न जन्म की
चिंता करो न
मृत्यु की, चिंता करो
उसकी जो जन्म
में आता है और
मृत्यु में
जाता है। जो
जन्म के भी
पहले है और
मृत्यु के भी
बाद है। मरते
क्षण में यह
याद भी आए तो
फिर क्या
करोगे? जिनको
पहले याद आ
जाती है वे
कुछ कर लेते
हैं।
हिचकियों
पर हो रहा है
जिंदगी का राग
खत्म
झटके
देकर तार तोड़े
जा रहे हैं
मरते
क्षण में तो
फिर ऐसा ही
लगेगा
कि
जिसको जिंदगी
समझी-
हिचकियों
पर हो रहा है
जिंदगी
का राग खत्म
वे सारे
स्वप्न, वे सारे गीत,
वह सारा
संगीत, हिचकियों
में बदल जाता
है। हिचकियां
ही हाथ में रह
जाती हैं।
हिचकियों
पर हो रहा है
जिंदगी का राग
खत्म
झटके
देकर तार तोड़े
जा रहे हैं
इसके
पहले कि सब
कुछ हिचकियों
में बदल जाए, और इसके
पहले कि
तुम्हारा साज
तोड़ा जाए, भीतर
के गीत को गा
लो। इसके पहले
कि मौत शरीर
को छीने, तुम
उसे जान लो
जिसे मौत छीन
न सकेगी। इसके
पहले कि बाहर
का जगत खो जाए,
तुम भीतर के
जगत में पैर
जमा लो। अन्यथा
तुम सोए हुए
गांव की तरह
हो, बढ़ी
हुई नदी की
बाढ़ तुम्हें
सोया-सोया बहा
ले जाएगी।
'जैसे भ्रमर
फूल के वर्ण
और गंध को
हानि पहुंचाए
बिना रस को
लेकर चल देता
है, वैसे
ही मुनि गांव
में भिक्षाटन
करे।'
जीवन के
गांव की बात
है। बुद्ध कह
रहे हैं, जैसे भ्रमर
फूल के वर्ण
और गंध को
हानि पहुंचाए
बिना रस को
लेकर चल देता
है, ऐसे ही
तुम इस जिंदगी
में रहो। जीवन
जो रस दे सके, ले लो। मगर
रस केवल वे ही
ले पाते हैं
जो जाग्रत हैं।
शेष तो उन
भौंरों की तरह
हैं, जो रस लेने
में इस तरह
डूब जाते हैं
कि उड़ना ही
भूल जाते है। सांझ
जब कमल की
पखुडियां बंद
होने लगती हैं
तब वे उसी में
बंद हो जाते
हैं। उनके लिए
कमल भी
कारागृह हो
जाते हैं।
जैसे
भ्रमर फूल के
वर्ण और गंध
को बिना हानि
पहुंचाए रस
लेकर चुपचाप
चल
देता है, ऐसे जिंदगी को
बिना कोई हानि
पहुंचाए-यही
अहिंसा का
सूत्र है। अहिंसा
का सूत्र इतना
ही है कि रस
लेने के तुम हकदार
हो, लेकिन
किसी को हानि
पहुंचाने के
नहीं। फूल को
तोड़कर भी भोगा
जा सकता है। वह
भी कोई भोगना
हुआ! भौंरा
आता है फूल पर
चुपचाप, गुनगुनाता
है गीत, रिझा
लेता है फूल
को, रस ले
लेता है, उड़
जाता है। तोड़ता
नहीं, मिटाता
नहीं। भौरे की
तरह मुका, भ्रमर
की तरह मुक्त,
बुद्ध कहते
हैं, जीवन
के गांव में
तुम जीओ जरूर,
लेकिन
आबद्ध मत हो
जाना, बंद
मत हो जाना। हमारी
हालत तो बड़ी
उलटी है, इससे
ठीक उलटी। बुद्ध
कहते हैं, दुनिया
में रहना, लेकिन
दुनिया के मत
हो जाना। बुद्ध
कहते हैं, दुनिया
में रहना, लेकिन
दुनिया
तुममें न रहे।
हमारी हालत
इससे ठीक उलटी
है।
बाद
मरने के भी
दिल लाखों तरह
के गम में है
बाद
मरने के भी
दिल लाखों तरह
के गम में है
हम नहीं
दुनिया में
लेकिन एक
दुनिया हम में
है
मर भी
जाएं हम तो भी
गम नहीं मरते।
कब्र में भी
तुम पड़े
रहोगे-
हम नहीं
दुनिया में
लेकिन एक
दुनिया हम में
है
तब भी
तुम सपने
देखोगे। तब भी
तुम उसी
दुनिया के
सपने देखोगे
जिससे तुमने
कुछ कभी पाया
नहीं। तुम्हारी
आंखें फिर भी
उसी अंधेरे
में खोई
रहेंगी, जहां कभी
रोशनी की किरण
न मिली।
तो एक
तो है ढंग
सांसारिक व्यक्ति
का, वह
मर भी जाए, तो
भी दुनिया
उसके भीतर से
नहीं हटती। और
एक है
संन्यासी का
ढंग, वह
जीता भी है, तो भी
दुनिया उसके
भीतर नहीं
होती।
यह जीवन
के विराट नगर
के संबंध में
भी सही है, और यही
बुद्ध ने अपने
भिक्षुओं के
लिए कहा कि
गांव-गांव जब
तुम भीख भी
मांगने
जाओ-भिक्षाटन
भी करो-तो
चुपचाप माग
लेना, ऐसे
ही जैसे भौंरा
फूलों से मांग
लेता है, और
विदा हो जाना।
ले लेना, जो
मिलता हो। धन्यवाद
दे देना, जहां
से मिले। अनुग्रहपूर्वक
स्वीकार कर
लेना। न मिले,
तो दुखी मत
होना। क्योंकि
मिलना चाहिए,
ऐसी कोई
शर्त कहां? मिल जाए, धन्यभाग!
न मिले, संतोष!
और जो न मिलने
में संतुष्ट
है, उसे
मिल ही जाता
है। लेकिन
हमारी स्थिति
ऐसी है कि मिल
जाने पर भी संतोष
नहीं है। तो
मिलकर भी नहीं
मिल पाता। हम
दरिद्र के
दरिद्र ही रह
जाते हैं।
जीवन से
बहुत कुछ पाया
जा सकता है। सपने
से भी सीखा जा
सकता है। और
मृग-मरीचिकाएं
भी बुद्धत्व
का आधार बन
जाती हैं। भ्रम
से भी जागने
की कला उपलब्ध
हो जाती है।
'जैसे भ्रमर
फूल के वर्ण
और गंध को
हानि पहुंचाए
बिना रस को
लेकर चल देता
है, वैसे
ही मुनि गाव
में भिक्षाटन
करे।'
न तो
संसार का सवाल
है। न संसार
को छोड़ने का
सवाल है। क्योंकि
जो तुम्हारा
है ही नहीं
उसे तुम
छोड़ोगे कैसे? इतना भर
जानने की बात
है कि हम यहां
मेहमान से
ज्यादा नहीं। जब
तुम किसी के
घर मेहमान
होते हो, जाते
वक्त तुम ऐसा
थोड़े ही कहते
हो कि अब सारा
घर तुम्हारे
लिए छोड़े जाते
हैं, त्याग
किए जाते है।।
मेहमान का
यहां कुछ है
ही नहीं। जितनी
देर घर में
ठहरने का
सौभाग्य मिल
गया, धन्यवाद!
अपना कुछ है
नहीं, छोड़ेंगे
क्या?
इसलिए
त्यागी वही है
जिसने यह जान
लिया कि हमारा
कुछ भी नहीं
है। वह नहीं, जिसने
छोड़ा। क्योंकि
जिसने छोड़ा, उसे तो अभी
भी खयाल है कि
अपना था, छोड़ा।
अपना हो तो ही
छोड़ा जा सकता
है। अपना हो
ही न, तो
छोड़ना कैसा? इसलिए मैं
तुमसे कहता
हूं छोड़ने की
भ्रांति में
मत पड़ना, क्योंकि
वह पकड़ने की
ही भ्रांति का
हिस्सा है। तुम
तो पकड़ने की
भ्रांति को ही
समझ लेना। अपना
कुछ भी नहीं। अभी
नहीं थे तुम, अभी हो, अभी
फिर नहीं हो
जाओगे। घड़ीभर
का सपना है। आंख
झपक गई, एक
सपना देखा। आंख
खुल गई, सपना
खो गया। इस
संसार को भीतर
घर मत बनाने
देना। तुम
संसार में
रहना, लेकिन
संसार तुम में
न रह पाए।। गुजरना
पानी से, लेकिन
पैर भीगें
नहीं। जीना, लेकिन भौरे
की तरह-किसी
को हानि न
पहुंचे।
'जैसे भ्रमर
फूल के वर्ण
और गंध को
हानि पहुंचाए
बिना रस को
लेकर चल देता
है।
क्या रस
है? किस
रस की बात कर
रहे हैं बुद्ध?
समझा दूं
क्योंकि डर है
कि तुम कुछ
गलत न समझ लो। बुद्ध
किस रस की बात
कर रहे हैं? किस भौरे की
बात कर रहे
हैं? तुम
जिन्हें सुख
कहते हो उनकी
बात नहीं कर
रहे हैं। बुद्ध
तो इस जीवन का
एक ही रस
जानते हैं, वह है
बुद्धत्व। वह
है इस जीवन से
जागने की कला
सीख कर चल
देना। वही रस
है। क्योंकि
जिसने वह जान
लिया उसके लिए
महारस के द्वार
खुल गए।
तो जीवन
के हर फूल से
और जीवन की हर
घटना से-जन्म हो
कि मृत्यु-और
जीवन की हर
प्रक्रिया से
तुम एक ही रस
को खोजते रहना
और चुनते रहना
: हर अवस्था
तुम्हें
जगाने का कारण
बन जाए, निमित्त बन
जाए। घर हो कि
गृहस्थी, बाजार
हो कि दुकान, कोई भी चीज
तुम्हें
सुलाने का
बहाना न बने, जगाने का
बहाना मन जाए,
तो तुमने रस
ले लिया। मरने
के पहले अगर
तुमने इतना
जान लिया कि
तुम
अमृतपुत्र हो,
तो तुमने रस
ले लिया। मौत के
पहले अगर
तुमने
जीवन-असली जीवन
को, महाजीवन
को-जान लिया, तो तुमने रस
ले लिया। तो
तुम यूं ही न भटके।
तो तुमने ऐसे
ही गर्द-गुबार
न खाई। तो
रास्ते पर तुम
चले ही नहीं, पहुंचे। पहुचे
भी।
तब, तब तुम
अचानक हैरान
होओगे, चकित
होओगे, कि
जिसे तुम
खोजते। 'हरते
थे वह
तुम्हारे
भीतर था। वह
परमात्मा का
राज्य
तुम्हारे
हृदय के ही राज्य
का दूसरा नाम
है। मोक्ष
तुम्हारे
भीतर छिपी
स्वतंत्रता
का ही नाम है। और
क्या है
स्वतंत्रता? तुम दुनिया
में रहो, दुनिया
तुममें न हो। वह
निर्वाण
तुम्हारे
अहंकार के बुझ
जाने का ही
नाम है। जब
तुम्हारे
अहंकार का
टिमटिमाता
दीया बुझ जाता
है, तो ऐसा
नहीं कि
अंधकार हो
जाता है। उस
टिमटिमाते
दीए के बुझते
ही महासूर्यों
का प्रकाश
तुम्हें
उपलब्ध हो
जाता है।
रवींद्रनाथ
ने लिखा है कि
जब वे
गीतांजलि लिख रहे
थे, तो
पद्यमा नदी पर
एक बजरे में
निवास करते थे।
रात गीत की
धुन में
खोए-कोई गीत
उतर रहा था, उतरे चला जा
रहा था-वे एक
टिमटिमाती
मोमबत्ती को
जलाकर बजरे
में और देर तक
गीत की कड़ियों
को लिखते रहे।
कोई आधी रात
फूंक मारकर
मोमबत्ती
बुझाई, हैरान
हो गए। पूरे
चांद की रात
थी यह भूल ही
गए थे। यद्यपि
वे जो लिख रहे
थे वह पूरे
याद का ही गीत था।
जैसे ही
मोमबत्ती
बुझी कि बजरे
की उस छोटी सी कोठरी
में सब तरफ से
चांद की
किरणें भीतर आ
गयीं। रंध्र-रंध्र
से। वह. छोटी
सी मोमबत्ती
की रोशनी चांद
की किरणों को
बाहर रोके हुए
थी।
तुमने
कभी खयाल किया, कमरे में
दीया जलता हो
तो चांद भीतर
नहीं आता। फिर
दीया फूंक
मारकर बुझा
दिया, चांद
बरस पड़ा भीतर,
बाढ़ की तरह
सब तरफ से आ
गया।
रवींद्रनाथ
उस रात नाचे। और
उन्होंने
अपनी डायरी
में लिखा कि
आज एक अपूर्व
अनुभव हुआ। कहीं
ऐसा ही तो
नहीं है कि जब
तक यह अहंकार
का दीया भीतर
जलता रहता है, परमात्मा
का चांद भीतर
नहीं आ पाता।
यही
बुद्ध ने कहा
है कि अहंकार
के दीए को
फूंक मारकर
बुझा दो। दीए
के बुझाने का
ही नाम निर्वाण
है। इधर तुम
बुझे, उधर
सब तरफ से
परमात्मा, सत्य-या
जो भी नाम
दो-भीतर
प्रविष्ट हो
जाता है।
तो एक
तो जीवन को
जीने का ढंग
है, जैसा
तुम जी रहे हो।
एक बुद्धों का
ढंग भी है। चुनाव
तुम्हारे हाथ
में है। तुम
बुद्धों की
भांति भी जी
सकते हो-कोई
तुम्हें रोक
नहीं रहा है
सिवाय
तुम्हारे। और
तुम दीन-हीन
भिखमंगों की
भांति भी जी
सकते हो-जैसा
तुम जी रहे
हो-कोई
तुम्हें
जबर्दस्ती जिला
नहीं रहा। तुमने
ही न मालूम
किस बेहोशी और
नासमझी में इस
तरह की
जीवन-शैली को
चुन लिया है। तुम्हारे
अतिरिक्त कोई
जिम्मेवार
नहीं है। एक
झटके में तुम
तोड़ दे सकते
हो, क्योंकि
सब बनाया
तुम्हारा ही
खेल है। ये सब
जो घर तुमने
बना लिए हैं
अपने चारों
तरफ, जिनमें
तुम खुद ही
कैद हो गए हो।
मैं एक
घर में मेहमान
था। सामने एक
मकान बन रहा
था और एक छोटा
लड़का वहां मकान
के सामने पड़ी
हुई रेत और
ईंटों के बीच
में खेल रहा
था। उसने
धीरे-धीरे-मैं
देखता रहा
बाहर बैठा हुआ, मैं देख
रहा था-उसने
धीरे-धीरे
अपने चारों
तरफ ईंटें लगा
लीं और ईंटों
को जमाता गया
ऊपर। फिर वह
घबड़ाया जब
उसके गले तक
ईंटें आ गयीं,
क्योंकि वह
खुद कैद हो
गया। तब वह
चिल्लाया कि
बचाओ!
मैं उसे
देख रहा था, और मुझे
लगा, यही
आदमी की
अवस्था है। तुम
ही अपने चारों
तरफ ईंटें जमा
लेते हो, जिसको
तुम जिंदगी
कहते हो। फिर
एक दिन तुम
पाते हो कि
गले तक डूब गए।
तब चिल्लाते
हो कि बचाओ।
तुमने
ही रखी हैं
ईंटें, चिल्लाने की
कोई जरूरत
नहीं। जिस ढंग
से रखी हैं
उसी ढंग से गिरा
दो। तुमने ही
रखी हैं, तुम
ही उठा सकते
हो। कारागृह
तुम्हारा ही
बनाया हुआ है,
किसी और ने
तुम्हें
कारागृह में
बंद नहीं किया
है। खेल-खेल
में बना लिया
है। खेल-खेल
में ही आदमी
बंद हो जाता
है। जंजीरों
में उलझ जाता
है।
चलने को
चल रहा हूं पर
इसकी खबर नहीं
मैं हूं
सफर में या
मेरी मंजिल
सफर में है
अब ऐसे
मत चलो। अब
जरा जागकर
चलना हो जाए। अब
जरा होश से
चलो। अब जरा
देखकर चलो। जितने
जागोगे, उतना पाओगे
मंजिल करीब। जिस
दिन पूरे
जागोगे, उस
दिन पाओगे
मंजिल सदा
भीतर थी।
आज
इतना ही।
thank you guruji
जवाब देंहटाएं