दलीलों के पीछे छिपाममत्व और हिंसा—
अध्याय (1—2) ओशो—प्रवचन—चौथा
प्रश्न :
भगवान श्री, आज सुबह आपने
बताया कि गीता अध्यात्म—शास्त्र नहीं है, मानस—शास्त्र है। मगर
आपने यह भी बताया कि राम में रावण का अंश होता है और रावण में राम का होता है। वैसे
ही गीता में भी क्या ऐसा नहीं हो सकता कि शास्त्र में भी अध्यात्म का कुछ अंश आ गया
हो?
मैं अध्यात्म को ऐसी अनुभूति
कहता हूं, जो अभिव्यक्त नहीं हो सकती। इशारे दिए जा सकते हैं, लेकिन
इशारे अभिव्यक्तिया नहीं हैं। चांद को अंगुली से बताया जा सकता है, लेकिन अंगुली चांद नहीं है।
गीता को जब मैंने कहा कि मनोविज्ञान है, तो मेरा अर्थ
ऐसा नहीं है, जैसे कि फ्रायड का मनोविज्ञान है। फ्रायड का मनोविज्ञान
मन पर समाप्त हो जाता है; उसका कोई इशारा मन के पार नहीं है।
मन ही इति है, उसके आगे और कोई अस्तित्व नहीं है। गीता ऐसा मनोविज्ञान
है, जो इशारा आगे के लिए करता है। लेकिन इशारा आगे की स्थिति
नहीं है।
गीता तो मनोविज्ञान ही है, लेकिन आत्मा
की तरफ, अध्यात्म की तरफ, परम अस्तित्व
की तरफ, उस मनोविज्ञान से इशारे गए हैं। लेकिन अध्यात्म नहीं
है। मील का पत्थर है; तीर का निज्ञान बना है; मंजिल की तरफ इशारा है। लेकिन मील का पत्थर मील का पत्थर ही है, वह मंजिल नहीं है।
कोई भी शास्त्र अध्यात्म नहीं हैं। हा, ऐसे शास्त्र
हैं, जो अध्यात्म की तरफ इशारे हैं। लेकिन सब इशारे मनोवैज्ञानिक
हैं। इशारे अध्यात्म नहीं हैं। अध्यात्म तो वह है जो इशारे को पाकर उपलब्ध होगा। और
वैसे अध्यात्म की कोई अभिव्यक्ति संभव नहीं है; आशिक भी संभव
नहीं है। उसका प्रतिफलन भी संभव नहीं है। उसके कारण हैं। संक्षिप्त में दो—तीन कारण
खयाल में ले लेने जरूरी हैं।
एक तो जब अध्यात्म का अनुभव होता है, तो कोई विचार
चित्त में नहीं होता। और जिस अनुभव में विचार मौजूद न हो, उस
अनुभव को विचार प्रकट कैसे करे! विचार प्रकट कर सकता है उस अनुभव को, जिसमें वह मौजूद रहा हो, गवाह रहा हो। लेकिन जिस अनुभव
में वह मौजूद ही न रहा हो, उसको विचार प्रकट नहीं कर पाता। अध्यात्म
का अनुभव निर्विचार अनुभव है। विचार मौजूद नहीं होता, इसलिए विचार
कोई खबर नहीं ला पाता।
इसलिए तो उपनिषद कह—कहकर थक जाते हैं, नेति—नेति।
कहते हैं, यह भी नहीं, वह भी नहीं। पूछें
कि क्या है? तो कहते हैं, यह भी नहीं है,
वह भी नहीं है। जो भी मनुष्य कह सकता है, वह कुछ
भी नहीं है। फिर क्या है वह अनुभव, जो सब कहने के बाहर शेष रह
जाता है?
बुद्ध तो ग्यारह प्रश्नों को पूछने की मनाही
ही कर दिए थे,
कि इनको पूछना ही मत। क्योंकि इनको तुम पूछोगे तो खतरे हैं। अगर मै उत्तर
न दूं तो कठोर मालूम पडूंगा तुम्हारे प्रति, और अगर उत्तर दूं
तो सत्य के साथ अन्याय होगा, क्योंकि इन प्रश्नों का उत्तर नहीं
दिया जा सकता। इसलिए पूछना ही मत, मुझे मुश्किल में मत डालना।
तो जिस गांव में बुद्ध जाते, खबर कर दी जाती कि ये ग्यारह सवाल
कोई भी न पूछे। वे ग्यारह सवाल अध्यात्म के सवाल हैं।
लाओत्से पर जब लोगों ने जोर डाला कि वह अपने
अनुभव लिख दे,
तो उसने कहा, मुझे मुश्किल में मत डालो। क्योंकि
जो मैं लिखूंगा, वह मेरा अनुभव नहीं होगा। और जो मेरा अनुभव है,
जो मैं लिखना चाहता हूं? उसे लिखने का कोई उपाय
नहीं है। फिर भी दबाव में, मित्रों के आग्रह में, प्रियजनों के दबाव में—नहीं माने लोग, तो उसने अपनी किताब
लिखी। लेकिन किताब के पहले ही लिखा कि जो कहा जा सकता है, वह
सत्य नहीं है। और सत्य वही है, जो नहीं कहा जा सकता है। इस शर्त
को ध्यान में रखकर मेरी किताब पढ़ना।
दुनिया में जिनका भी आध्यात्मिक अनुभव है, उनका यह भी
अनुभव है कि वह प्रकट करने जैसा नहीं है। वह प्रक्ट नहीं हो सकता। निरंतर फकीर उसे
गूंगे का गुड़ कहते रहे हैं। ऐसा नहीं कि गूंगा नहीं जान लेता है कि गुड़ का स्वाद कैसा
है, बिलकुल जान लेता है। लेकिन गूंगा उस स्वाद को कह नहीं पाता।
आप सोचते होंगे, आप कह पाते हैं, तो बड़ी
गलती में हैं। आप भी गुड़ के स्वाद को अब तक कह नहीं पाए। गूंगा ही नहीं कह पाया,
बोलने वाले भी नहीं कह पाए। और अगर मैं जिद्द करूं कि समझाइए कैसा होता
है स्वाद, तो ज्यादा से ज्यादा गुड़ आप मेरे हाथ में दे सकते हैं
कि चखिए। इसके अतिरिक्त और कोई उपाय नहीं है। लेकिन गुड़ तो हाथ में दिया जा सकता है,
अध्यात्म हाथ में भी नहीं दिया जा सकता कि चखिए।
दुनिया का कोई शास्त्र आध्यात्मिक नहीं है। हां, दुनिया में
ऐसे शास्त्र हैं, जिनके इशारे अध्यात्म की तरफ हैं। गीता भी उनमें
से एक है। लेकिन वे इशारे मन के भीतर हैं। मन के पार दिखाने वाले हैं, लेकिन मन के भीतर हैं। और उनका विज्ञान तो मनोविज्ञान है; उनका आधार तो मनोविज्ञान है। शास्त्र की ऊंची से ऊंची ऊंचाई मनस है। शब्द
की ऊंची से ऊंची संभावना मनस है। अभिव्यक्ति की आखिरी सीमा मनस है। जहां तक मन है,
वहां तक प्रकट हो सकता है। जहां मन नहीं है, वहां
सब अप्रकट रह जाता है।
तो
जब मैंने गीता को मनोविज्ञान कहा, तो मेरा अर्थ नहीं है कि वाटसन के मनोविज्ञान
जैसा मनोविज्ञान, कोई बिहेवियरिज्म, कोई
व्यवहारवाद। या पावलोव का विज्ञान, कोई कंडीशंड रिफ्लेक्स।
ये सारे के सारे मनोविज्ञान अपने में बंद हैं और मन के आगे किसी सत्ता को स्वीकार
करने को राजी नहीं हैं। कुछ तो मन की भी सत्ता स्वीकार करने को राजी नहीं हैं। वे
तो कहते हैं, मन सिर्फ शरीर का ही हिस्सा है। मन यानी
मस्तिष्क। मन कहीं कुछ और नहीं है। यह हड्डी—मास—पेशी, इन
सबका ही विकसित हिस्सा है। मन भी शरीर से अलग कुछ नहीं है।
गीता
ऐसा मनोविज्ञान नहीं है। गीता ऐसा मनोविज्ञान है, जो मन के पार इशारा करता
है। लेकिन है मनोविज्ञान ही। अध्यात्म—शास्त्र उसे मैं नहीं कहूंगा। और इसलिए नहीं
कि कोई और अध्यात्म—शास्त्र है। कहीं कोई शास्त्र अध्यात्म का नहीं है। अध्यात्म
की घोषणा ही यही है कि शास्त्र में संभव नहीं है मेरा होना, शब्द
में मैं नहीं समाऊंगा, कोई बुद्धि की सीमा—रेखा में नहीं मुझे
बांधा जा सकता। जो सब सीमाओं का अतिक्रमण कर जाता है, और सब
शब्दों को व्यर्थ कर जाता है, और सब अभिव्यक्तियों को शून्य
कर जाता है—वैसी जो अनुभूति है, उसका नाम अध्यात्म है।
प्रश्न
:
भगवान
श्री,
कहीं ऐसा मनु—वचन है कि जहां आततायी को मारने के लिए उन्होंने
निर्देश दिया है, आततायिनम् आयन्तं अन्यादेवडविचारत:।
शास्त्राज्ञा तो है ऐसी और अर्जुन यह भी जानता है कि दुर्योधन आदि सब आततायी हैं,
और तब भी उनको मारने से उसका जी हिचकिचाता है। तो इसका कारण क्या है?
एक
तो मनु जो कहते हैं,
वह सिर्फ सामाजिक नीति है, सोशल इथिक्स है।
मनु जो कहते हैं, वह केवल सामाजिक चितना है, सोशल कोड है। मनु का वचन अध्यात्म नहीं है। मनु का वचन तो मनस भी नहीं है,
मनोविज्ञान भी नहीं है। मनु का वचन तो सामाजिक रीति—व्यवहार की
व्यवस्था है। इसलिए मनु को जोडना हो अगर, तो उसे जोडना पड़ेगा
मार्क्स से, उसे जोड़ना पड़ेगा दुर्खीम से, इस तरह के लोगों के साथ। मनु का कोई बहुत गहरा सवाल नहीं है।
मनु
सामाजिक व्यवस्थापक हैं। और समाज की कोई भी व्यवस्था चरम नहीं है। समाज की सभी
व्यवस्थाएं सामयिक हैं। जो व्यक्ति भी थोड़ा चिंतन करेगा, उसका
चिंतन निरंतर समाज की व्यवस्था के ऊपर चला जाएगा। क्योंकि समाज की व्यवस्था अंतिम
व्यक्ति को ध्यान में रखकर बनाई गई होती है।
जैसे
कहा जाता है कि योग्य शिक्षक वही है, जो अपनी कक्षा में अंतिम
विद्यार्थी को ध्यान में रखकर बोलता हो। निश्चित ही योग्य शिक्षक वही है, जो कक्षा में अंतिम व्यक्ति को ध्यान में रखकर बोलता हो। लेकिन तब जो
कक्षा में प्रथम व्यक्ति है, उसके लिए शिक्षक तत्काल बेकार
हो जाता है।
समाज
की व्यवस्था में तो अंतिम व्यक्ति को ध्यान में रखा जाता है और जड़ नियम स्थापित
किए जाते हैं। अर्जुन साधारण व्यक्ति नहीं है, मीडियाकर माइंड नहीं है, अर्जुन चिंतनशील है, मेधावी है, असाधारण प्रतिभाशाली है, जिंदगी उसके लिए सोच —विचार
बन जाती है।
अब
मनु कहते हैं कि जो आततायी है, उसे तो मार देने में कोई बुराई नहीं है।
विचारशील को इतना आसान नहीं है मामला। कौन आततायी है? और
आततायी हो भी, तब भी मारना उचित है या नहीं उचित है? फिर आततायी अपना है, मनु को उसका खयाल भी नहीं है।
आततायी में मानकर चला गया है कि वह दुश्मन है। यहां आततायी अपना है। और एक व्यक्ति
नहीं है, लाखों व्यक्ति हैं। और उन लाखों से लाखों तरह के
निकट संबंध हैं।
इसलिए
अर्जुन की स्थिति बहुत भिन्न है। वह साधारण आततायी की, हमलावर की,
और जिसके ऊपर हमला हुआ है, उसकी नहीं है। वही
तो वह चिंतन कर रहा है, वही तो वह कह रहा है कि अगर इन सब को
मारकर राज्य को भी पा लें, तो क्या यह सौदा उचित है? वह वही पूछ रहा है। इन सबको मारकर राज्य को पा लेना, क्या सौदा उचित है? क्या इतनी कीमत पर राज्य को ले
लेना कुछ सार्थकता रखता है? वह यही पूछ रहा है।
यह
जो अर्जुन की मनोदशा है,
मनु के जो नियम हैं, उन नियमों से बहुत ऊपर
चिंतन की है।
असल
में नियम तो सदा जड़ होते हैं। जड़ नियम कामचलाऊ होते हैं और विशेष संकट की
स्थितियों में अर्थहीन हो जाते हैं। और अर्जुन की संकट की स्थिति बहुत विशेष है।
विशेषता तीन प्रकार की है। एक तो यह है कि यह तय करना बहुत मुश्किल है कि आततायी
कौन है?
सदा
ही मुश्किल है। हमें बहुत आसानी लगती है पीछे से तय करने में कि आततायी कौन है।
अगर कौरव जीत गए होते,
तो आपको पता चलता कि आततायी कौन है? क्योंकि
तब कथा और ढंग से लिखी गई होती, क्योंकि तब कथाकार और होते।
और कथाकार तो जो विजेता है, उसके आस—पास इकट्ठे होते हैं,
हारे हुओं के आस—पास तो इकट्ठे नहीं होते।
दूसरे
महायुद्ध में हिटलर हार गया, तो अब हम जानते हैं कि बुरा कौन था। लेकिन अगर
हिटलर जीत जाता और चर्चिल और रूजवेल्ट और स्टैलिन हारते, तो
हम बिलकुल पक्का जानते कि बुरा कोई दूसरा था। स्थितियां गुजर जाने पर पीछे से जो
हम सोच पाते हैं, वह ठीक स्थितियों के बीच में इतना तय नहीं
होता है। आमतौर से इतिहास लिखने वाला आदमी विजेताओं का इतिहास लिखता है। और आमतौर
से इतिहास विजेताओं के आस—पास क्रिस्टलाइज होता है।
तो
आज हम जानते हैं कि कौरव आततायी थे। लेकिन ठीक युद्ध के क्षण में, कौन
आततायी है, किसने बुरा किया है, यह
मामला इतना दो और दो चार जैसा साफ नहीं होता। कभी साफ नहीं होता। चीन कहे चला जाता
है कि हमला हिंदुस्तान ने उस पर किया था। हिंदुस्तान कहे चला जाता है कि चीन ने
हमला उस पर किया था। कभी यह तय नहीं होगा कि किसने हमला किया था। आज तक कभी तय
नहीं हो पाया कि कौन हमलावर है। ही, जो जीत जाता है, वह इतिहास लिख लेता है। हारा हुआ हमलावर तय हो जाता है। जो हार जाता है,
वह इतिहास नहीं लिख पाता है।
क्या
हार जाना ही हमलावर होने का सबूत है? पीछे से तय करना सदा आसान है,
क्योंकि तब रेखाएं बंध गई होती हैं। लेकिन ठीक परिस्थिति के बीच
इतना आसान नहीं है।
भूल—चूक
सदा दोनों तरफ होती है,
मात्राओं में फर्क हो सकते हैं, लेकिन इकतरफा
नहीं होती। ऐसा नहीं है कि कौरव ही एकदम जिम्मेवार हैं सारे पाप के लिए, और पांडव बिलकुल नहीं हैं। ऐसा नहीं है। मात्राओं के फर्क होते हैं। यह हो
सकता है, कौरव ज्यादा जिम्मेवार हैं। लेकिन यह भी बहुत पीछे
से जब पर्सपेक्टिव मिलता है, दूरी मिलती है, तब तय होता है।
ठीक
युद्ध के घने क्षण में अर्जुन का मन बहुत चिंतित हो उठा है। कुछ साफ नहीं है, क्या हो
रहा है, वह कहा तक ठीक हो रहा है। और फिर अगर यह भी तय हो कि
आततायी वही हैं, तो भी उस तरफ सारे प्रियजन खड़े हैं। होगा,
दुर्योधन आततायी होगा! लेकिन द्रोण? द्रोण
आततायी नहीं हैं। दुर्योधन आततायी होगा, लेकिन भीष्म?
भीष्म आततायी नहीं हैं, उनकी गोद में ये सब
बच्चे बड़े हुए हैं। दुश्मन एक नहीं है, दुश्मन एक बड़ी जमात
है। उस जमात में तय करना कठिन है। यही चिंता का कारण है।
मनु
जो नियम बना रहे हैं,
वे बहुत साधारण हैं, साधारणतया उपयोगी हैं।
लेकिन इस विशेष स्थिति में मनु काम नहीं करेंगे। कर भी सकते थे, कर सकते थे एक ही हालत में कि अर्जुन इस स्थिति को झुठलाना चाहता, तो कहता, मनु का हवाला देता, कि
ठीक है मनु ने कहा है, आततायी को मारो, मारते हैं। लेकिन वह कोई बहुत बड़ा विचारपूर्ण कदम न होता। और एक तो बात
पक्की थी कि विचारपूर्ण इसलिए भी न होता कि यह गीता आपको उपलब्ध न होती। यह गीता
उपलब्ध हो सकी है अर्जुन के मंथन से, मनन से, उसकी विचारणा से, उसकी जिज्ञासा से। चीजों को सीधा
स्वीकार कर लिया होता, तो ठीक था, युद्ध
होता, कोई जीतता, कोई हारता। युद्ध
होता है तो कोई जीतता है, कोई हारता है। कहानी बनती है,
कथा बनती है।
महाभारत
उतना महत्वपूर्ण सिद्ध नहीं हुआ है, जितनी गीता महत्वपूर्ण सिद्ध हुई
है। महाभारत तो हुआ और समाप्त हो गया। गीता का समाप्त होना मुश्किल है। महाभारत तो
एक घटना रह गई है। और समय बीतता जाता है और भूलता चला जाता है। बल्कि सच तो यह है
कि महाभारत याद ही इसलिए रह गया कि उसमें गीता भी घटी, नहीं
तो महाभारत याद रहने जैसा भी नहीं था।
हजारों
युद्ध हुए हैं। आदमी ने तीन हजार साल में चौदह हजार युद्ध किए हैं। लेकिन युद्ध, ठीक है,
एक छोटा—सा फुटनोट बन जाता है इतिहास में। लेकिन युद्ध से भी बड़ी
घटना गीता बन गई है। वह महाभारत का जो युद्ध था, उससे भी
महत्वपूर्ण घटना गीता बन गई है। आज अगर महाभारत याद है, तो
गीता के कारण याद है; गीता महाभारत के कारण याद नहीं है।
और
इसलिए यह भी आपसे कहना चाहूंगा, इस जगत में घटनाओं का मूल्य नहीं, इस जगत में विचारणाओं का मूल्य है।
इस
जगत में इवेंट्स,
घटनाएं घटती हैं और राख हो जाती हैं। और विचार शाश्वत यात्रा पर
निकल जाते हैं। घटनाएं मर जाती हैं, उन घटनाओं के बीच अगर
किसी विचार का, किसी आत्मवान विचार का जन्म हुआ, तो वह अनंत की यात्रा पर निकल जाता है।
महाभारत
महत्वपूर्ण नहीं है। न भी हुआ हो तो क्या फर्क पड़ता है! लेकिन गीता न हुई हो तो
बहुत फर्क पड़ता है। महाभारत एक छोटी—सी घटना हो गई। और जैसे समय आगे बढ़ता जाएगा, छोटी होती
जाएगी। एक परिवार के भाइयों का, चचेरे भाइयों का झगडा था। हो
गया, निपट गया। उनकी बात थी, समाप्त हो
गई। लेकिन गीता रोज—रोज महत्वपूर्ण होती चली गई है। यह हो सकी महत्वपूर्ण इसलिए कि
अर्जुन के पास मनु को मान लेने जैसी साधारण बुद्धि नहीं थी। अर्जुन के पास एक
प्रतिभा थी, जो पूछती है, जो संकट में
सवाल उठाती है।
आमतौर
से संकट में सवाल उठाना बहुत कठिन है। घर में बैठकर गीता पढना और सवाल उठाना बहुत
आसान है। अर्जुन की स्थिति में सवाल उठाना बहुत जोखम से भरा काम है। वह स्थिति
सवाल की नहीं है। वह स्थिति कोई ब्रह्म—जिज्ञासा की नहीं है, वह स्थिति
कोई गुरु—शिष्य वृक्ष के नीचे बैठकर चिंतन—मनन करें, इसकी
नहीं है। युद्ध द्वार पर खड़ा है। हुंकारे हो गई हैं, शंख बज
गए हैं और इस क्षण में उस आदमी के मन में कंपन हैं। हिम्मतवर आदमी है। कंपन को उस
युद्ध के बीच स्थल में प्रकट करता है और वहा भी सोच—विचार करता है। इतने संकट में
जो सोच—विचार करता है, वह साधारण प्रतिभा नहीं है। मनु से
काम न चलेगा, उसे कृष्ण जैसा आदमी। मनु वहा होते तो वे कहते
कि पढ़ लो मेरी मनुस्मृति, उसमें लिखा कि आततायी को मारो,
कर्तव्य स्पष्ट है।
कर्तव्य
सिर्फ नासमझों को सदा स्पष्ट रहा है, समझदारों को कभी स्पष्ट नहीं रहा।
समझदार सदा संदिग्ध रहे हैं। क्योंकि समझदार इतना सोचता है और अक्सर दोनों पहलुओं
पर सोचता है कि मुश्किल में पड़ जाता है कि कौन सही है, कौन
गलत है! गलत और सही की स्पष्टता अज्ञानियों को जितनी होती है, उतनी लोगों को नहीं होती।
अज्ञानी
के लिए सब साफ होता है,
यह गलत है, वह सही है। यह हिंदू है, वह मुसलमान है। यह अपना है, वह पराया है। लेकिन
जितना चिंतन आगे बढ़ता है, उतना ही संदेह खड़ा होता है।
कौन अपना, कौन पराया?
क्या ठीक, क्या गलत? और
इस जगत में जो भी मूल्यवान पैदा हुआ है, वह इस चिंतन की पीड़ा
के प्रसव को जिन्होंने सहा है, उनसे पैदा हुआ है। अर्जुन ने
कष्ट सहा है उस घड़ी में, उस कष्ट के परिणाम में गीता
प्रतिसंवेदित हुई है।
नहीं, मनु से
काम नहीं चल सकता। उतने जड़ नियम सड़क पर टैरफिक के नियम जैसे हैं कि बाएं चलना
चाहिए। बिलकुल ठीक है। इसमें कोई अड़चन नहीं है। उलटा कर लें कि दाएं चलना चाहिए,
तो भी कोई तकलीफ नहीं है। अमेरिका में उलटा चलते हैं, लिखा है दाएं चलना चाहिए, तो आदमी दाएं चल रहा है।
बाएं चलें, दाएं चलें, तय कर लेने से
काम चल जाता है।
लेकिन
ये कोई जीवन के परम आधार नहीं हैं। और अगर कोई आदमी सवाल उठाए कि बाएं चलने में
ऐसी कौन—सी खूबी है,
दाएं क्यों न चला जाए! तो दुनिया में कोई नहीं समझा पाएगा। यह सिर्फ
व्यवस्थागत है। और अगर कोई बहुत विचारशील आदमी हो और सवाल उठाए कि बाएं क्या है और
दाएं क्या है, तो मुश्किल खड़ी हो जाएगी। कामचलाऊ है।
मनु
की जो व्यवस्था है,
अत्यंत कामचलाऊ है। कामचलाऊ व्यवस्था के ऊपर प्रश्न उठ रहे हैं
अर्जुन के मन में। उसके प्रश्न परम हैं। वह यह पूछ रहा है कि मिल जाएगा राज्य
इतनों को मारकर, अपनों को मारकर—क्या होगा अर्थ? क्या होगा प्रयोजन? माना कि जीत जाऊंगा, क्या होगा? माना कि वे आततायी हैं, काट डालेंगे उन्हें, बदला पूरा हो जाएगा—फिर क्या
होगा? बदले का क्या अर्थ है? और न
मालूम कितने निहत्थे मर जाएंगे, न मालूम कितने निर्दोष मर
जाएंगे, जिनका कोई संबंध नहीं है, जो
युद्ध में घसीटकर ले आए गए हैं, क्योंकि उनका कहीं कोई संबंध
है—उन सबका क्या होगा?
नहीं, उसके
प्रश्न ज्यादा कीमती हैं, मनु से काम नहीं चल सकता है।
तस्मान्नार्हा वयं हन्तुं
धार्तराष्ट्रान्स्पबान्धवान्।
स्वजनं हि कथं हत्या सुखिन: स्याम
माधव ।।37।।
यद्यप्येते न पश्यन्ति लोभोयहतचेतस: ।
कुलक्षक्कृतं दोषं मित्रदोहे च यातकम्
।।38।।
इससे
हे माधव अपने बांधव धृतराष्ट्र के पुत्रों को मारने के लिए हम योग्य नहीं है, क्योंकि
अपने कुटुंब की मारकर हम कैसे सुखी होंगे? यद्यीय लोभ से
भ्रष्टचित्त हुए ये लोग कुल के नाशकृत दोष को और मित्रों के साथ विरोध करने में
पाप को नहीं देखते हैं।
कथं न ज्ञेयमस्माभिः पापादस्मान्निवर्तितुम्
।
कुलक्षयकृतं दोषं
प्रपश्यीद्भर्जनार्दन ।।39।।
कलक्षये प्रणश्यन्ति कुलधर्मा: सनातन
।
धर्म नष्टे कृत्स्नमधर्मोऽभिभवत्यत
।।40।।
परंतु
हे जनार्दन कुल के नाश करने से होते हुए दोष को जानने वाले हम लोगों को इस पाप से
हटने के लिए क्यों नहीं विचार करना चाहिए? क्योंकि कुल के नाश होने से
सनातन कुलधर्म नष्ट हो जाते हैं। धर्म के नाश होने से संपूर्ण कुल को पाय भी बहुत
दबा लेता है।
अर्जुन कह रहा है
कि वे विचारहीन हैं,
हम भी विचारहीन होकर जो करेंगे, वह कैसे शुभ
होगा! माना कि वे गलत हैं, लेकिन गलत के प्रत्युत्तर में हम
भी गलत करेंगे, तो क्या वह ठीक होगा! क्या एक गलत का
प्रत्युत्तर दूसरे गलत से दिए जाने पर सही का निर्माण करता है! वह यह पूछ रहा है
कि भूल है उनकी, तो हम भी भूल करेंगे, तो
दो भूलें मिलकर ठीक हो जाती हैं कि दुगुनी हो जाती हैं! माना कि उनका चित्त भ्रमित
हो गया है, माना कि उनकी बुद्धि नष्ट हुई है, तो क्या हम भी अपनी बुद्धि नष्ट कर लें! और जो मिलेगा, क्या वह इस योग्य है! क्या उसकी इतनी उपादेयता है! क्या उसका इतना मूल्य
है!
ध्यान
रखें, इसमें अर्जुन के मन में दोहरी बात चल रही है। एक ओर वह कह रहा है कि क्या
इसका कोई मूल्य है! इसमें दो बातें हैं। हो सकता है कोई मूल्य हो और कृष्ण उसे
मूल्य बता पाएं, तो वह लड़ने के लिए रेशनलाइज कर ले। हो सकता
है, कृष्ण समझा पाएं कि ही मूल्य है, हो
सकता है, कृष्ण समझा पाएं कि लाभ है, कल्याण
है, हो सकता है, कृष्ण समझा पाएं कि
बुराई को बुराई से काट दिया जाएगा, और तब जो शेष बचेगा वह
शुभ होगा—तो वह लड़ने के लिए अपने को तैयार कर ले। आदमी अपने को तैयार करने के लिए
बुद्धिगत कारण खोजना चाहता है।
अर्जुन
के मन में दोनों बातें हैं। वह जिस तरह से प्रश्न को मौजूद कर रहा है, वह यह है
कि या तो मुझे भाग जाने के लिए स्वीकृति दें, या तो मैं एस्केप
कर जाऊं. और या फिर मैं युद्ध में उतरूं तो मुझे प्रयोजन स्पष्ट करा दें। वह अपने
मन को साफ कर लेना चाहता है। युद्ध में उतरे, तो यह जानकर
निश्चितमना, कि जो हो रहा है, वह शुभ
हो रहा है। या फिर युद्ध से भाग जाए। ये दो विकल्प उसे दिखाई पड़ रहे हैं। वह दोनों
के लिए राजी दिखाई पड़ता है, दो में से कोई भी एक हो जाए।
इसे
थोड़ा समझ लेने जैसा है। आदमी सदा से अपने को बुद्धिमान, विचारशील,
रेशनल समझता रहा है। अरस्तु ने तो आदमी को रेशनल एनिमल ही कहा है;
कहा है कि बुद्धिमान प्राणी है। लेकिन जैसे —जैसे आदमी के संबंध में
समझ हमारी बढ़ी है, वैसे—वैसे पता चला है कि उसकी बुद्धिमानी
सिर्फ अपनी अबुद्धिमानियों को बुद्धिमानी सिद्ध करने से ज्यादा नहीं है। आदमी का
रीजन, सिर्फ उसके भीतर जो इर्रेशनल है, जो बिलकुल अबौद्धिक है, उसको जस्टिफाई करने की कोशिश
में लगा रहा है।
अगर
उसे युद्ध करना है,
तो पहले वह सिद्ध कर लेना चाहेगा कि युद्ध से मंगल होगा, कल्याण होगा, फिर युद्ध में उतर जाएगा। अगर उसे किसी
की गर्दन काटनी है, तो वह पहले सिद्ध कर लेना चाहेगा कि जिसकी
गर्दन कट रही है, उसके ही हित में यह कार्य हो रहा है,
तब फिर वह गर्दन आसानी से काट सकेगा। अगर उसे आग लगानी है तो वह तय
कर लेना चाहेगा कि इस आग लगाने से धर्म की रक्षा होगी, तो वह
आग लगाने के लिए तैयार हो जाएगा। आदमी ने, उसके भीतर जो
बिलकुल अबौद्धिक तत्व हैं, उनको भी बुद्धिमानी से सिद्ध कर
लेने की निरंतर चेष्टा की है।
अर्जुन
भी वैसी ही स्थिति में है। उसके भीतर लड़ने की तैयारी तो है, अन्यथा इस
युद्ध के मैदान तक आने की कोई जरूरत न थी। उसके मन के भीतर युद्ध का आग्रह तो है।
राज्य वह लेना चाहता है। जो हुआ है उसके साथ, उसका बदला भी
चुकाना चाहता है। इसीलिए तो युद्ध के इस आखिरी क्षण तक आ गया है। लेकिन वैसी
तैयारी नहीं है, जैसी दुर्योधन की है, जैसी
भीम की है। पूरा नहीं है। मन बंटा हुआ है, स्प्लिट है,
टूटा हुआ है। कहीं भीतर लग भी रहा है कि गलत है, व्यर्थ है, और कहीं लग भी रहा है कि करना ही पड़ेगा,
प्रतिष्ठा का, अहंकार का, कुल का, हजार बातों का सवाल है। दोनों बातें उसके
भीतर चल रही हैं। दोहरा उसका मन है, डबल बाइंड है।
और
ध्यान रहे, विचारशील आदमी में सदा ही दोहरा मन होता है। विचारहीन में दोहरा मन नहीं
होता। निर्विचार में भी दोहरा मन नहीं होता, लेकिन विचारशील
आदमी में दोहरा मन होता है। विचारशील आदमी का मतलब है, जो
अपने भीतर ही निरंतर डायलाग में और डिसकशन में लगा है, जो
अपने भीतर ही विवाद में लगा है। अपने को ही दो हिस्सों में करके, क्या ठीक, क्या ठीक नहीं, इसका
उत्तर—प्रत्युत्तर कर रहा है। विचारशील आदमी चौबीस घंटे अपने भीतर चर्चा कर रहा है
स्वयं से ही।
वह
चर्चा अर्जुन के भीतर चलती रही होगी। समझा—बुझाकर वह अपने को युद्ध के मैदान पर ले
आया है कि नहीं,
लड़ना उचित है। लेकिन युद्ध की पूरी स्थिति का उसे पता नहीं था।
पिछले
महायुद्ध में जिस आदमी ने हिरोशिमा पर एटम बम गिराया, उसे कुछ
भी पता नहीं है कि क्या होगा! उसे इतना ही पता है कि एक बटन दबा देनी है और नीचे
एटम गिर जाएगा। उसे यह भी पता नहीं है कि इस एटम से एक लाख आदमी मरेंगे। उसे कुछ
भी पता नहीं है। उसे सिर्फ एक आर्डर है, एक आता है, जो उसे पूरी करनी है। और आज्ञा यह है कि उसे जाकर हवाई जहांज से एक बटन
दबा देनी है। हिरोशिमा के ऊपर वह बटन दबाकर लौट आया।
जैसे
सारी दुनिया को पता चला,
ऐसे ही उसको भी पता चला कि एक लाख आदमी मर गए हैं। फिर उसकी नींद
हराम हो गई। फिर वह आदमी रात—दिन लाखों मुर्दे देखने लगा। उसके प्राण थरथराने लगे,
कंपने लगे। उसके हाथ—पैर में कंपन होने लगा। फिर तो अंततः उसने हमले
करने शुरू कर दिए अपने पर, नाड़ी काट डाली एक दिन, सिर पर हथौड़ी मार ली। फिर तो उसे पागलखाने में रखना पड़ा। फिर तो उसने
दूसरों पर भी हमले शुरू कर दिए। फिर तो उसे जंजीरों में रखना पड़ा। उसकी नींद
बिलकुल चली गई। और वह आदमी एक ही अपराध की ग्लानि से भर गया, गिल्ट एक ही उसको पकड़ गई कि मैंने लाख आदमी मारे हैं। लेकिन उसे कोई पता
नहीं था।
अब
जो हमारी युद्ध की व्यवस्था है, बिलकुल इनह्यूमन है। अब उसमें पता नहीं चलता,
मारने वाले को भी पता नहीं चलता कि वह लाख आदमियों की मौत का बटन
दबा रहा है। लेकिन महाभारत में स्थिति और थी, सब चीजें सामने
थीं। युद्ध सीधा मानवीय था, लूमन था। आमने—सामने सब खड़े थे।
अर्जुन देख सकता था रथ पर खड़ा होकर कि क्या होगा परिणाम! उसे दिखाई पड़ने लगा,
इनमें फलां मित्र है, वह मरेगा, उसके छोटे बच्चे हैं घर पर।
ध्यान
रहे, युद्ध अब जो है, वह इनह्युमन हो गया है, अमानवीय हो गया है। इसलिए अब बड़ा खतरा है। क्योंकि लड़ने वाले को भी साफ
पता नहीं चलता कि क्या होगा! जो हो रहा है, बिलकुल अंधेरे
में हो रहा है। और जो आदमी तय करते हैं उसको, उनके पास भी
फिगर होते हैं, आदमी नहीं होते हैं, आकड़े
होते हैं। उनके पास होता है, एक लाख आदमी मरेंगे। एक लाख
आदमी मरेरो, यह सुनकर कुछ भी पता नहीं चलता। एक लाख आदमियों
को सामने खडा करिए, खड़े हो जाइए मंच पर, देखिए कि ये एक लाख आदमी मरेंगे! तब इनकी एक लाख पत्नियां भी दिखाई पड़ती
हैं, इनके 'लाखों बच्चे भी दिएखाई पड़ते हैं। इनकी की मां भी होंगी, इनके पिता भी होंगे। इनकी न मालूम क्या—क्या जिम्मेवारियां होंगी। इन एक
लाख को मारने की जिम्मेवारी अगर हिरोशिमा पर बम डालने वाले को सामने होती, तो मैं भी सोचता हूं कि वह आदमी कहता, इससे मैं मर
जाना पसंद करूंगा, यह आज्ञा मैं नहीं मानता। उसके सामने भी
सवाल उठता, इनको मारना है, क्या नौकरी
के लिए?
अर्जुन
को सवाल उठा,
सामने था सब चित्र। उसे सब दिखाई पड़ने लगा, ये
विधवाएं रोती—बिलखती दिखाई पड़ने लगीं। इनमें न मालूम कितने उसके प्रियजन थे,
उनकी विधवाएं होंगी, उनके बच्चे तड़फेंगे,
रोके। यह सब लाशों से भर जाएगा मैदान। यह इतना साफ उसे दिखाई पड़ा कि
अपने को समझा—बुझाकर लाया था कि लड़ना उचित है, वह सब डावाडोल
हो गया। उसके दूसरे मन ने कहना शुरू किया कि यह तू क्या करने जा रहा है! यह तो पाप
होगा। इससे बड़ा पाप और क्या हो सकता है? और इसलिए कि राज्य
मिल जाए, और इसलिए कि धन मिल जाए, और
इसलिए कि थोड़ा सुख मिल जाए, इन सबको मारने की तेरी तैयारी है?
निश्चित
ही वह विचारशील आदमी रहा होगा। उसके मन ने इनकार करना शुरू कर दिया। लेकिन इनकार
में दूसरा मन भीतर बैठा हुआ है। और वह दूसरा मन भी बोल रहा है कि अगर कोई
रेशनलाइजेशन मिल जाए,
अगर मिल जाए कि नहीं, इसमें कोई हर्ज नहीं है,
यह उचित है बिलकुल, यह औचित्य मालूम पड़ जाए,
तो वह अपने को इकट्ठा कर ले, एकजुट कर ले,
युद्ध में उतर जाए। कृष्ण
से पूछते वक्त अर्जुन को भी पता नहीं है कि उत्तर क्या मिलेगा? और कृष्ण से पूछते वक्त अर्जुन को भी साफ नहीं है कि स्थिति बाद में क्या
बनेगी? कृष्ण जैसे आदमी प्रिडिक्टेबल नहीं होते। कृष्ण जैसे
आदमियों के उत्तर निश्चित नहीं होते, रेडीमेड नहीं होते।
कृष्ण जैसे आदमी के साथ पक्का नहीं है कि वे क्या कहेंगे! लेकिन अर्जुन के साथ
पक्का है कि वह दो बातें चाह रहा है। या तो यह सिद्ध हो जाए कि यह युद्ध उचित है,
नीतिसम्मत है, धार्मिक है, लाभ होगा, कल्याण होगा, श्रेयस
मिलेगा, इस लोक में, परलोक में सुख
मिलेगा, तो वह युद्ध में कूद जाएगा। और अगर यह सिद्ध हो जाए
कि नहीं हो सकता, तो युद्ध से भाग जाए। उसके सामने दो विकल्प
स्पष्ट हैं। और उन दोनों के बीच उसका मन डोल रहा है, और
दोनों के बीच उसके भीतर मन का बंटाव है। लड़ना भी चाहता है! अगर उसका मन लड़ना ही न
चाहता हो, तो कृष्ण से पूछने की कोई भी जरूरत नहीं है।
अभी
मैं एक गांव में था। एक युवक मेरे पास आए और उन्होंने मुझ से पूछा कि मैं संन्यास
लेना चाहता हूं। आपकी क्या सलाह है? मैंने कहा, जब
तक मेरी सलाह की जरूरत हो, तब तक तुम संन्यास मत लेना। क्योंकि संन्यास कोई ऐसी बात
नहीं है कि मेरी सलाह से लिया जा सके। जिस दिन तुम्हें ऐसा लगे कि सारी दुनिया भी
कहे कि संन्यास मत लो, तब भी तुम्हें लेने जैसा लगे, तभी तुम लेना। तो ही संन्यास के फूल में आनंद की सुगंध आ सकेगी, अन्यथा नहीं आ सकेगी।
वह
अर्जुन सलाह नहीं मांगता,
अगर उसको साफ एक मन हो जाता कि गलत है, चला
गया होता। उसने कृष्ण से कहा होता कि सम्हालो इस रथ को, ले
जाओ इन घोड़ों को जहां ले जाना हो, और जो करना हो करो,
मैं जाता हूं। और कृष्ण कहते कि मैं कोई सलाह देता हूं तो वह कहता
कि बिना मांगी सलाह न दुनिया में कभी मानी गई न मानी जाती है। अपनी सलाह अपने पास
रखें।
नहीं, लेकिन वह
सलाह मांग रहा है। सलाह मांग रहा है, वही बता रहा है कि उसका
दोहरा मन है। अभी उसको भी भरोसा है कि कोई सलाह मिल जाए तो युद्ध कर ले, यह भरोसा है उसके भीतर। इसलिए कृष्ण से पूछ रहा है। अगर यह भी पक्का होता
कि युद्ध करना उचित है, तब कृष्ण से कोई सलाह लेने की जरूरत
न थी, युद्ध की सब तैयारी हो गई थी।
अर्जुन
डांवाडोल है,
अर्जुन बंटा है, इसलिए वह सारे सवाल उठा रहा
है। उसके सवाल महत्वपूर्ण हैं। और जो आदमी भी थोड़ा विचार करते हैं, उन सबकी जिंदगी में ऐसे सवाल रोज ही उठते हैं—जब मन बंट जाता है, और दोहरे उत्तर एक साथ आने लगते हैं, और सब निर्णय
खो जाते हैं। अर्जुन संशय की अवस्था में है, डिसीसिवनेस खो
गई है।
जब
भी आप किसी से सलाह मांगते हैं, तब वह सदा ही इस बात की खबर होती है कि अपने पर
भरोसा खो गया है, सेल्फ कांफिडेंस खो गया है। अब अपने से कोई
आशा नहीं उत्तर की। क्योंकि अपने से दो उत्तर एक—से बलपूर्वक आ रहे हैं, एक—सी एम्फेसिस लेकर ला रहे हैं। दोनों में तय करना मुश्किल है। कभी एक ठीक,
कभी दूसरा ठीक मालूम पड़ता है। तभी आदमी सलाह मांगने जाता है। जब भी
कोई आदमी सलाह मागने जाता है, तब जानना चाहिए, वह भीतर से इतना बंट गया है कि अब उसके भीतर से उसे उत्तर नहीं मालूम पड़
रहा है। ऐसी उसकी दशा है। वह अपनी उसी दशा का वर्णन कर रहा है।
प्रश्न
:
भगवान
श्री,
आपने अभी संन्यास के बारे में कुछ कहा। तो यहां जीवन जागृति केंद्र
के बुक स्टील पर अभिनव संन्यास योजना नामक एक पुस्तिका भी बिक रही है, तो उसमें कहीं लिखा है कि आप गुरु नहीं गवाह बनते हैं, तो वह भी स्पष्ट करें। और साथ में और भी एक सवाल है। अर्जुन और कृष्ण
दोनों युद्ध में खड़े हैं, युद्धारंभ में ही गीता के अठारह
अध्याय सुनने में अर्जुन कैसे प्रवृत्त हो सकता है और कृष्ण कैसे गीता—प्रवचन
सुनाने को व्यस्त हो सकते हैं? सारी सेनाएं भी वहां मौजूद
थीं। तो क्या सब कृष्णार्जुन संवाद, प्रश्नोत्तर सुनने में
ही व्यस्त थे २ क्या वह टाइम साइकोलाजिकल टाइम था या कोई दूसरा था?
कृष्ण से इतनी लंबी
चर्चा निश्चित ही प्रश्नवाची है। निश्चय ही प्रश्न उठता है। युद्ध के मैदान पर, जहां कि
योद्धा तैयार हों लड़ने को, जूझने को, वहां
ये अठारह अध्याय, यह इतनी लंबी किताब, अगर
कृष्ण ने बिलकुल उस तरह से कही हो, जैसे कि गीता— भक्त
दोहराते हैं, तो भी काफी समय लग गया होगा। अगर बिना रुके और बिना
अर्जुन की तरफ देखे, आख बंद करके बोलते ही चले गए हों,
तब भी काफी वक्त लग जाएगा। यह कैसे संभव हुआ होगा?
दो
बातें इस संबंध में। निरंतर यह सवाल गूंजता रहा है। इसलिए कुछ लोगों ने तो यह कह
दिया कि गीता महाभारत में प्रक्षिप्त है, वह बाद में डाल दी गई है, यह हो नहीं सकता। कुछ लोगों ने कहा कि वहा संक्षिप्त में बात हुई होगी,
फिर उसको विस्तार से बाद में कवि ने फैला दिया है।
दोनों
ही बातें मेरे लिए सही नहीं हैं। मेरे लिए तो गीता घटी है, और वैसी
ही घटी है जैसी सामने है। लेकिन घटने के क्रम को थोड़ा समझना जरूरी है। यह सारी
बातचीत आमने—सामने हुई हो, यह सारी बातचीत जैसे हम और आप बोल
रहे हैं, ऐसी हुई हो, तो इसमें कृष्ण
और अर्जुन ही भागीदार न रह जाते। इसमें बहुत लोग थे, बड़ी भीड़
थी चारों तरफ। इसमें और लोग भी भागीदार हो गए होते। इसमें और लोगों ने भी सवाल
उठाए होते। इसमें और सारे लोग बिलकुल चुप ही खड़े हैं! इस तरफ भी योद्धा हैं,
उस तरफ भी योद्धा हैं। यह बात दोनों की चलती है घंटों। इसमें कोई
बोला नहीं बीच में! किसी ने इतना भी न कहा कि यह बातचीत का समय नहीं है, युद्ध का समय है, शंख बज चुके हैं, अब यह चर्चा नहीं चलनी चाहिए!
नहीं, कोई नहीं
बोला। मेरे देखे, यह चर्चा टेलीपैथिक है, यह चर्चा सीधी आमने—सामने नहीं हुई है। टेलीपैथी थोड़ी समझनी पड़े, तो खयाल में आए, अन्यथा खयाल में नहीं आ पाएगी। एक
दो—तीन उदाहरण से समझाने की कोशिश करूंगा।
एक
फकीर था अभी यूनान में जार्ज गुरजिएफ। तीन महीने के लिए रूस के एक बहुत बड़े
गणितज्ञ आस्पेंस्की और उसके तीस और शिष्यों को लेकर वह तिफलिस के एक छोटे से गांव
में जाकर बैठ गया था। इन तीस लोगों को एक बड़े बंगले में उसने कैद कर रखा था। कैद, क्योंकि
बाहर निकलने की कोई आज्ञा न थी। और इन तीस लोगों को कहा था कि कोई एक भी शब्द तीन
महीने बोलेगा नहीं। न केवल शब्द नहीं बोलेगा, इशारे से भी
नहीं बोलेगा, आख से भी नहीं बोलेगा, हाथ
से भी नहीं बोलेगा। कहा था कि ये तीस लोग जो इस मकान में रहेंगे तीन महीने,
प्रत्येक को पै रहना है, जैसे वह अकेला ही हो,
कोई दूसरा मौजूद ही नहीं है। दूसरे को रिकग्नाइज भी नहीं करना है—
आख से भी, इशारे से भी। दूसरा आस—पास से निकल जाए, तो देखना भी नहीं है। और गुरजिएफ ने कहा कि जिसको भी मैं पकड़ लूंगा जरा
—सा इशारा करते हुए भी, दूसरे को स्वीकार करते हुए भी पकड़
लूंगा कि दूसरा निकल रहा था और तुम बचकर निकले, तो भी मैं
बाहर कर दूंगा। क्योंकि तुमने दूसरे को स्वीकार कर लिया कि दूसरा यहां है, बातचीत हो गई, तुम बचकर निकले, इशारा हो गया।
पंद्रह
दिन में सत्ताइस आदमी बाहर कर दिए गए।
बड़ा
मुश्किल मामला था। जहां तीस आदमी मौजूद हों, एक कमरे में दस—दस, बारह—बारह लोग बैठे हों, वहा दूसरों को बिलकुल भूल
ही जाना कि वे हैं ही नहीं, अकेले जीने लगना, कठिन था। इतना कठिन नहीं जितना हम सोचते हैं, क्योंकि
तीन आदमी बच ही गए, तीन भी छोटी संख्या नहीं है। इतना कठिन
नहीं है, क्योंकि एक आदमी जंगल में बैठकर आख बंद करके भीड़
में हो जाता है, तो भीड़ में बैठकर अकेला क्यों नहीं हो
सकता! मन की सभी क्रियाएं रिवर्सिबल हैं। मन की सभी क्रियाएं उलटी हो सकती हैं।
अगर जंगल में बैठकर आदमी अपनी पत्नी से बातचीत कर सकता है, तो
अपनी पत्नी के पास बैठकर बिलकुल अकेला हो सकता है। इसमें कोई अड़चन नहीं है।
तीन
आदमी बच गए, उनमें गणितज्ञ आस्पेंस्की भी था। वह खुद भी एक वैज्ञानिक चिंतक था। और इधर
सौ वर्षों में गणित पर शायद सर्वाधिक गहरी किताब उसने लिखी है, टर्शियम आर्गानम। कहते हैं कि यूरोप में तीन बड़ी किताबें लिखी गई हैं अब
तक। एक अरस्तू का आर्गानम, फिर बैकन का नोवम आर्गानम,
और फिर आस्पेंस्की का टर्शियम आर्गानम। यह बड़ा वैज्ञानिक चिंतक था,
यह भी उन तीन में एक बच गया था।
तीन
महीने बीत गए। तीन महीने वह ऐसे वहा रहा, जैसे अकेला है। वे कमरों में जो
लोग थे, वे तो भूल ही गए; बाहर जो
दुनिया थी, वह भी भूल गई। और जो आदमी दूसरों को भूल जाए,
वह अपने को भी भूल जाता है, स्मरण रखें। अगर
अपने को याद रखना हो, तो दूसरी को याद रखना जरूरी है।
क्योंकि मैं और तू एक ही डंडे के दो छोर हैं। इनमें से एक गया कि दूसरा फौरन गया।
ये दोनों बचते हैं, या दोनों चले जाते हैं। कोई कहे कि मैं
मैं को बचा लूं और तू को : भूल जाऊं,
तो असंभव है। क्योंकि मैं जो है, वह तू की ही
चोट है, वह तू का ही उत्तर है। अगर तू भूल जाए तो मैं बिखर
जाता है। अगर मैं भूल जाए तो तू विदा हो जाता है। वे दो एक साथ बचते हैं, अन्यथा नहीं बचते। वे एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।
दूसरे
भूल गए, यह तो ठीक था, आस्पेंस्की खुद को भी भूल गया। फिर
बचा सिर्फ अस्तित्व। तीन महीने बाद, गुरजिएफ सामने बैठा है
और आस्पेंस्की भी सामने बैठा है। अचानक आस्पेंस्की को सुनाई पड़ा कि किसी ने बुलाया
है और कहा, आस्पेंस्की, सुनो! उसने
चौंककर चारों तरफ देखा, कौन है? लेकिन कोई
बोल नहीं रहा है। सामने गुरजिएफ बैठा है। उसने गुरजिएफ को गौर से देखा इन तीन
महीनों में। गुरजिएफ हंसने लगा। फिर भीतर से आवाज आई, पहचान
नहीं रहे हो मेरी आवाज? मैं गुरजिएफ बोल रहा हूं। सामने ओंठ
बंद हैं, वह आदमी चुप बैठा है। आस्पेंस्की बहुत हैरान हुआ।
उसने कहा कि मैं यह क्या अनुभव कर रहा हूं? वह पहली दफे तीन
महीने में बोला।
गुरजिएफ
ने कहा कि अब तुम उस जगह आ गए हो मौन की, जहां बिना शब्द के बातचीत की जा
सकती है। अब मैं तुमसे सीधे बोल सकता हूं, शब्दों की अब कोई
जरूरत नहीं है।
अभी
रूस के एक दूसरे वैज्ञानिक फयादोव ने एक हजार मील दूर बिना किसी माध्यम के संदेश
भेजने के प्रयोग में सफलता पाई है। आप भी पा सकते हैं, बहुत कठिन
मामला नहीं है। कभी एक छोटा—सा प्रयोग घर में कर लें। छोटे बच्चे को चुन लें।
अंधेरा कर।, लें कमरे में, दूसरे कोने
में उसे बैठा दें, एक कोने में आप बैठ जाएं। और उस बच्चे से
कह दें कि तू आख बंद कर ले और ध्यान मेरी तरफ रख। और सुनने की कोशिश कर कि मैं कुछ
बोल तो नहीं रहा हूं। और एक ही शब्द अपने भीतर बार—बार दोहराए चले जाएं गुलाब,
गुलाब, गुलाब। बोलें मत, भीतर दोहराए चले जाएं। घंटे, आधा घंटे में वह बच्चा
बोलने लगेगा कि आप गुलाब बोल रहे हैं। और आप भीतर ही बोलें, आप
बाहर मत बोलें।
इससे
उलटा भी हो सकता है,
लेकिन जरा देर लगेगी। अगर बच्चा वहा बैठकर अपने मन में एक शब्द सोचे
और आप पकड़ना चाहें, तो शायद दो—तीन दिन लग जाएंगे। बच्चा
जल्दी पकड़ लेगा। आदमी, जिसको हम जिंदगी कहते हैं, उसमें बिगड़ने के सिवाय और
कुछ भी नहीं करता। बूढ़े बिगड़े हुए बच्चों से अतिरिक्त और कुछ भी नहीं होते। लेकिन
बच्चा घंटे, आधा घंटे में पकड़ना शुरू कर देगा। एक ही शब्द
दोहराएं, और अगर एक पकड लिया जाए तो फिर अभ्यास से पूरा
वाक्य पकड़ा जा सकता है।
कृष्ण
और अर्जुन के लिए ध्यान में रखना जरूरी है कि यह चर्चा, बाहर हुई
चर्चा नहीं है। यह चर्चा गहरी है और यह चर्चा बिलकुल भीतरी है। इसलिए इसमें युद्ध
के आसपास खड़े लोग भी गवाह नहीं थे। और इसलिए हो सकता है यह भी कि जिन्होंने
महाभारत लिखा, उन्होंने पहले गीता उसमें न जोड़ी हो। यह हो
सकता है। यह हो सकता है कि इतिहासकार ने, जिसने लिखी है,
उसने न जोड़ी हो, लेकिन संजय सुन पा रहा है।
क्योंकि संजय, जो देख पाता है इतनी दूर, वह सुन भी पा सकता है। असल में दुनिया को संजय से पहली दफा गीता सुनने को
मिली है, कृष्ण से सुनने को पहली दफा नहीं मिली। पहली दफा
अर्जुन ने सुनी है, वह सुनना बहुत भीतरी है। उस सुनने का
बाहरी कोई प्रमाण नहीं था।
और
दूसरी बात आपसे कहना चाहूंगा कि यह टेलीपैथिक कम्युनिकेशन है। गीता एक अंतर्सवाद
है, जिसमें शब्दों का ऊपर प्रयोग नहीं हुआ है। महावीर के संबंध में कहा जाता
है कि वे कभी नहीं बोले। और जितने उनके शब्द हैं, वे
उन्होंने नहीं बोले।? पास लोग खड़े रहते थे, महावीर उनसे बोलते—ऊपर से क्योंकि हजारों लोग सुनने आए होते, उनको कुछ सुनाई पड़ता—फिर वह आदमी जोर से बोलता कि महावीर ऐसा कहते हैं।
इसलिए
महावीर की वाणी को शून्य वाणी, शब्दहीन वाणी? गया है।
उन्होंने सीधा कभी नहीं बोला। किसी से भीतर से बोला और किसी ने उसे बाहर प्रकट
किया। करीब—करीब ऐसे ही इस माइक से मैं बोल रहा हूं और आप सुन रहे हैं। माइक की एक
आदमी का भी उपयोग हो सकता है। कृष्ण और अर्जुन के बीच जो बात हुई थी, अगर संजय ने सुनी होती तो खो गई होती। बहुत—सी और बातें भी बहुत बार हैं
और खो गई हैं। महावीर के बहुत वचन उपलब्ध नहीं हैं।
बुद्ध
ने एक दिन अपने सारे भिक्षुओं को इकट्ठा किया। और हा में एक कमल का फूल लेकर वे
वहा आए। फिर बैठ गए और कमल के फूल को देखने लगे और देखते रहे। लोग हैरान हो
थोड़ी
देर में बेचैनी शुरू हो गई,
कोई खासा होगा, किसी ने करवट बदली होगी,
क्योंकि बहुत देर हो गई। वे चुप क्यों बैठे हैं! बोलें! बोलें,
बोलें। फिर आखिर आधा घंटा बीतने लगा, तो
बेचैनी बहुत बढ़ गई। किसी ने खड़े होकर कहा, आप क्या कर रहे
हैं? आपको सुनने आए हैं। आप बोलते नहीं! बुद्ध ने कहा,
मैं? रहा हूं, सुनो,
सुनो। लेकिन लोगों ने कहा, आप कुछ बोलते क्या
क्या सुनें?
तभी
एक भिक्षु, जिसका नाम था महाकाश्यप, वह हंसने लगा तो बुद्ध ने
उसे बुलाकर वह फूल दे दिया। और कहा कि सुनो, शब्द से बोला जा
सकता था, वह मैं तुमसे कह चुका, और
शब्द से नहीं बोला जा सकता था, भीतर ही बोला जा सकता था, वह मैंने महाकाश्यप से कह दिया है। अब तुम्हें पूछना हो महाकाश्यप से पूछ
लेना।
महाकाश्यप
से बुद्ध ने क्या कहा,
यह अब तक बुद्ध के भिक्षु पूछते हैं एक—दूसरे से। क्योंकि वह
महाकाश्यप से जब भी? ने पूछा, तो वह
हंसने लगा और उसने कहा, जब बुद्ध न कह सके, तो मैं क्यों उपद्रव में पडूं! उसने कहा कि कहना होता तो बुद्ध तुम से कह
देते। और जब वे भूल—चूक नहीं किए, तो मैं करने वाला नहीं
हूं।
फिर
महाकाश्यप ने किसी को फिर मौन से कहा, फिर आदमी ने भी किसी से नहीं
कहा—और ऐसे छ: आदमियों की परंपरा। और तब छठवां आदमी था बोधिधर्म, उसने पहली दफा उस बात को कहा। इस बीच कोई नौ सौ वर्ष बीत गए। बोधिधर्म ने
पहली दफे वह कहा, जो बुद्ध ने महाकाश्यप से कहा था। और उसने
क्यों कहा? क्योंकि जब बोधिधर्म ने चीन में पहली दफे जाकर
कहा कि अब मैं वह कहता हूं जो बुद्ध ने महाकाश्यप से कहा था, तो लोगों ने कहा, अब तक किसी ने नहीं कहा, तुम क्यों कहते हो! तो उसने कहा कि अब चुपचाप सुनने वाला कोई भी उपलब्ध
नहीं है। इसलिए मजबूरी है और मैं मरने के करीब हूं। वह बात खो जाएगी जो बुद्ध ने
महाकाश्यप से कही थी। अब जितनी भी गलत—सही मुझसे बन सकती है, मैं कहे देता हूं।
यह
एक घटना है। इसलिए पहली बात आपसे कहूं, गीता कृष्ण और अर्जुन के बीच
मौन—संवाद में घटी है। दूसरी बात आप से कहूं कि मौन—संवाद का टाइम—स्केल अलग है।
इसे समझना भी जरूरी होगा। नहीं तो आप कहेंगे कि मौन—संवाद में भी तो कम से कम घंटे,
डेढ़ घंटे, दो घंटे तो लगते ही। क्योंकि इससे
क्या फर्क पड़ता है कि मैं आपसे ऊपर से कहूं कि भीतर से कहूं; समय तो लगेगा! तब आपको थोड़ा समय के स्केल को, समय की
सारणी को समझना पड़ेगा।
आपको
कभी एक दफा कुर्सी पर बैठे—बैठे झपकी लग जाती है और आप एक सपना देखते हैं। और सपने
में देखते हैं कि आपकी शादी हो गई, घर बस गया, नौकरी
लग गई, मकान खरीद लिया, बच्चे हो गए,
बच्चे बड़े हो गए, शहनाई बज रही है, लड़के की शादी हो रही है। और तभी कोई आपको बगल से आपका आफिसर आकर उठाता है।
और आप घड़ी में देखते हैं, और पाते हैं कि मुश्किल से एक मिनट
बीता है झपकी लगे। तब बड़ी मुश्किल होती है कि एक मिनट में इतना लंबा उपद्रव कैसे
हुआ होगा! आधी जिंदगी लग जाती है इतना उपद्रव करने में। तीस—चालीस साल लग जाते हैं,
यह एक मिनट में कैसे हुआ? लेकिन बिलकुल हुआ।
असल
में ड्रीम—टाइम अलग है। उसका स्केल अलग है। स्वप्न की जो समय की धारणा है, बिलकुल
अलग है। इसलिए एक मिनट के सपने में जिंदगीभर के सपने देखे जा सकते हैं। एक मिनट
में पूरी जिंदगी देखी जा सकती है।
आमतौर
से लोग कहते हैं कि जब कोई नदी में डूबकर मरता है, तो आखिरी डुबकी में अपनी
पूरी जिंदगी को फिर से देख लेता है। देख सकता है, इसमें कोई
बहुत कठिनाई नहीं है। समय अलग है स्वप्न का, जागने का समय
अलग है। लेकिन जागने में भी समय का स्केल चौबीस घंटे एक—सा नहीं रहता। उसमें पूरे
वक्त बदलाहट होती रहती है, वह फ्लिकर करता है।
जैसे
जब आप दुख में होते हैं तो समय लंबा हो जाता है, और जब सुख में होते हैं तो
छोटा हो जाता है। कोई प्रियजन पास आकर बैठ जाता है, घंटा बीत
जाता है, लगता है, अभी तो आए थे,
क्षणभर हुआ है। और कोई दुश्मन आकर बैठ जाता है, और क्षणभर भी नहीं बैठता है कि ऐसा लगता है, कब जाएगा!
जिंदगी बीती जा रही है। घड़ी में तो उतना ही समय चलता है, लेकिन
आपके मन के समय की धारणा पूरे वक्त छोटी—बडी होती रहती है।
घर
में कोई मर रहा हो,
रातभर उसकी खाट के पास बैठें तो ऐसा लगेगा कि इटरनिटी हो गई,
अनंत मालूम पडता है। अनंत मालूम पड़ता है। रात खतम होती नहीं मालूम
पड़ती। कब होगी खतम! लेकिन वही कोई अपने प्रियजन के साथ नृत्य कर रहा है, और रात ऐसे भागने लगती है कि आज रात दुश्मन है और जल्दी कर रही है। और रात
जल्दी से भाग जाती है और सुबह आ जाती है। और ऐसा लगता है, सांझ
और सुबह के बीच में कोई वक्त ही नहीं था। बस, सांझ आई और
सुबह आ गई। बीच का वक्त गिर जाता है।
सुख
में समय छोटा मालूम होता है। छोटा हो जाता है, मालूम होता नहीं, हो ही जाता है। दुख में बड़ा हो जाता है। दिन में भी, जागते में भी समय पूरे वक्त बदल रहा है। और अगर कभी आनंद का अनुभव किया हो,
तो समय समाप्त हो जाता है।
जीसस
से किसी ने पूछा कि तुम्हारे प्रभु के राज्य में खास बात क्या होगी? तो जीसस
ने कहा, देयर शैल बी टाइम नो लांगर—समय नहीं होगा। खास बात
यह होगी। तो उन्होंने पूछा कि यह हमारी समझ में नहीं आता कि समय नहीं होगा,
तो फिर सब काम कैसे चलेगा!
आनंद
के क्षण में समय नहीं होता। अगर कभी ध्यान का एक क्षण भी आपके भीतर उतरा है, कभी आनंद
का एक क्षण भी आपको नचा गया है, तो उस वक्त समय नहीं होता,
समय समाप्त हो गया होता है। इस संबंध में दुनिया के वे सारे लोग
सहमत हैं—चाहे महावीर, चाहे बुद्ध, चाहे
लाओत्से, चाहे जीसस, चाहे मोहम्मद,
चाहे कोई और—वें सब राजी हैं कि वह जो क्षण है आत्म—अनुभव का,
आनंद का, ब्रह्म का, वह
टाइमलेस मोमेंट है; वह समयरहित क्षण है; वह कालातीत है।
तो
जो टेलीपैथी का समय है,
उसके स्केल अलग हैं। क्षणभर में भी यह बात हो सकती है, जिसके लिए डेढ़ घंटा लिखने में लगता।
आपने
क्षणभर में जो सपना देखा है, अगर लिखिएगा तो आपको डेढ़ घंटा लगेगा। आप कहेंगे,
बड़ी अजीब बात है। देखा क्षणभर में और लिखने में डेढ घंटा लग रहा है!
क्या कारण है? क्या वजह है?
तीसरी
बात इसलिए और आपको खयाल में दे दूं। वजह यह है कि जब आपके भीतर कोई घटना घटती है, तब वह
साइमलटेनियस घटती है, वह युगपत घटती है। जैसे मैं आपको देख
रहा हूं तो मैं आपको इकट्ठा देख रहा हूं एक ही क्षण में। लेकिन अगर आपकी गिनती
करने आऊं, तो एक—एक की गिनती करूंगा। और तब लीनियर हो जाएगा;
एक रेखा में मुझे आपकी गिनती करनी पड़ेगी; उसमें
घंटों लग जाएंगे। आपको जब देखा,तो मैंने सबको देखा आपको। वह
एक क्षण में एक साथ हो गया। लेकिन जब गिना और कहीं आपके नाम लिखूं रजिस्टर पर,
तो बहुत घंटे लग जाएंगे।
तो
जब आप सपने को देखते हैं,
तो युगपत घट जाता है। जब आप उसको लिखते हैं कागज पर, तब आप लंबाई में लिखते हैं, युगपत नहीं रह जाता।
एक—एक घटना लिखनी पड़ती है। तब वह लंबी हो जाती है, समय
ज्यादा ले लेती है।
गीता
जब लिखी गई या संजय ने जब कही धृतराष्ट्र को कि ऐसी—ऐसी बात हो रही है वहा कृष्ण
और अर्जुन के बीच,
तब उसमें वक्त लगा होगा उतना ही जितना वक्त अभी गीता पढ़ते वक्त आपको लगेगा—उतना ही। लेकिन कृष्ण और अर्जुन के
बीच समय कितना लगा, यह तब तक आपको खयाल में आना मुश्किल है,
जब तक आपको टेलीपैथी का थोड़ा—सा अनुभव न हो।
हमारे
हिसाब से समय का कोई मूल्य नहीं है वहां। इसलिए हो सकता है, किसी भी
योद्धा को पता भी न चला हो कि कृष्ण और अर्जुन के बीच क्या घटा! एक क्षण में हो
गया हो। रथ जाकर खड़ा हुआ हो, अर्जुन निढाल होकर बैठ गया हो
और एक क्षण में यह सारी बात हो गई हो, जो हुई है।
एक
छोटी—सी कहानी,
फिर हम दूसरा श्लोक लें।
सुना
है मैंने, नारद के जीवन में एक कहानी है।' यह जगत माया है,
यह जगत माया है—बड़े—बड़े ज्ञानियों से नारद ने सुना है। फिर स्वयं
भगवान से जाकर उन्होंने पूछा कि मेरी समझ में नहीं आता, जो
है, वह माया कैसे हो सकता है? जो है,
वह है! वह माया कैसे हो सकता है? उसके इलूजरी,उसे माया होने का क्या मतलब है? धूप तपती है तेज,आकाश में सूरज है, दोपहर है। भगवान ने कहा कि मुझे
बड़ी प्यास लगी है—फिर पीछे समझाऊं—थोड़ा पानी ले आ।
नारद
पानी लेने गए। गांव में प्रवेश किया। दोपहर है, लोग अपने घरों में सो रहे हैं। एक
दरवाजे पर दस्तक दी। एक युवती बाहर आई। नारद भूल गए भगवान को। कोई भी भूल जाए।
जिसको सदा याद किया जा सकता है, उसको याद करने की इतनी जल्दी
भी क्या है! भूल गए। और जब भगवान को ही भूल गए, तो उनकी
प्यास का क्या सवाल रहा! किसलिए आए थे, याद न रहा। लड़की को
देखते रहे, मोहित हो गए। निवेदन किया कि मैं विवाह का
प्रस्ताव लेकर आया हूं। पिता बाहर थे। उस लड़की ने कहा, पिता
को आ जाने दें, तब तक आप विश्राम करें।
विश्राम
किया। पिता आए। राजी हो गए। विवाह हो गया। फिर चली कहानी। बच्चे हुए, चार—छह
बच्चे पैदा हो गए। काफी वक्त लगा। पिता मर भी गया, ससुर मर
भी गए। के हो गए नारद। पत्नी भी की हो गई, बच्चों की लाइन लग
गई। बाढ़ आ गई। वर्षा के दिन हैं। गांव डूब गया। अब अपने पत्नी—बच्चों को बचाकर
किसी तरह बाढ़ पार कर रहे हैं। के हैं, शक्ति नहीं है पास।
बड़ी मुश्किल में पड़ गए हैं। पत्नी को बचाते हैं, तो बच्चे
बहे जाते हैं; बच्चों को बचाते हैं, तो
पत्नी बही जाती है। बाढ़ है तेज और सबको बचाने में सब बह जाते हैं। नारद अकेले
थके—मांदे तट पर जाकर लगते हैं। आंखें बंद हैं, आंसू बह रहे
हैं। और कोई पूछता है कि उठो, बड़ी देर लगा दी, सूरज ढलने के करीब हो गया और हम प्यासे ही बैठे हैं। पानी अब तक नहीं लाए?
नारद
ने आख खोली, देखा, भगवान खड़े हैं। उन्होंने कहा, अरे, मैं तो भूल ही गया। मगर इस बीच तो बहुत कुछ हो
गया। आप कहते हैं, अभी सिर्फ सूरज ढल रहा 'है? उन्होंने कहा, सूरज ही ढल
रहा है। चारों तरफ देखा, बाढ़ का कोई पता नहीं है। पूछा,
बच्चे—पत्नी? भगवान ने कहा, कैसे बच्चे, कैसी पत्नी? कोई
सपना तो नहीं देखते थे? भगवान ने कहा कि तुम पूछते थे कि जो
है, वह माया कैसे हो सकता है? जो है,
वह माया नहीं है। लेकिन जो है, उसे समय के
माध्यम से देखने से वह सब माया हो जाता है। और जो है, उसे
समय के अतिरिक्त, समय का अतिक्रमण करके देखने से वह सब सत्य
हो जाता है। संसार समय के माध्यम से देखा गया सत्य है। सत्य समय—शून्य माध्यम से
देखा गया संसार है।
यह
जो घटना घटी है,
यह घटना आंतरिक है और समय की परिधि के बाहर है।
अधर्माभिभवात्कृष्ण प्रदुष्यन्ति
कलीस्प्रय:।
स्त्रीषु दुष्टासु वार्ष्णेय जायते
वर्णसंकर: ।।41।।
संकरो नरकायैव कुलध्नानां कुलस्य च ।
पतन्ति यितरो ह्योषां
लुप्तपिण्डोदकक्रिया: ।।42।।
तथा हे कृष्ण पाप के अधिक बढ़ जाने से
कुल की स्त्रियां दूषित हो जाती हैं। और हे वार्ष्णेय, स्त्रियों
के दूषित होने पर वर्णसंकर उत्पन्न होता है।
और
वह वर्णसंकर कुलधातियों को और कुल को नर्क में ले जाने के लिए ही (होता) है। लोप
हुई पिंड और जल की क्रिया वाले इनके पितर लोग भी गिर जाते हैं।
दोषैरेतैः कुलध्नानां
वर्णस्थ्यंस्कारकै: ।
उत्साद्यन्तेजातिधर्मा कुलधर्माश्च
शाश्वता: ।।43।।
उत्सन्नकुलधर्माणां मनुष्याणां
जनार्दन ।
नरकेऽनियतं वासी भवतींत्यनुशुश्रुम ।।44।।
और
इन वर्णसंकरकारक दोषों से कुलघातियों के सनातन कुलधर्म और जातिधर्म नष्ट हो जाते
हैं।
हे
जनार्दन, नष्ट हुए कुलधर्म वाले मनुष्यों का अनंत काल तक नर्क में वास होता है, ऐसा हमने सुना है।
अर्जुन बहुत—बहुत
मार्गों से क्या—क्या बुरा हो जाएगा युद्ध में, उसकी खोजबीन कर रहा है। उसके मन
में बहुत—बहुत बुराइयां दिखाई पड़ रही हैं। अभी ही नहीं, आगे
भी, संतति कैसी हो जाएगी, वर्ण कैसे
विकृत हो जाएंगे, सनातन धर्म कैसे नष्ट हो जाएगा, वह सब खोज रहा है। यह बहुत अजीब—सा लगेगा कि उसे इस सब की चिंता क्यों है!
लेकिन
अगर हिरोशिमा के बाद बर्ट्रेंड रसेल और पश्चिम के समस्त युद्ध—विरोधी लोगों का
साहित्य देखें,
तो हैरान होंगे। वे भी सब यही कह रहे हैं। बच्चे विकृत हो जाएंगे,
व्यवस्था नष्ट हो जाएगी, सभ्यता नष्ट हो जाएगी,
धर्म खो जाएगा, संस्कृति खो जाएगी। जो—जो
अर्जुन को खयाल आ रहा है, वह—वह खयाल हिरोशिमा के बाद सारी
दुनिया के शांतिवादी लोगों को आ रहा है। शांतिवादी—शांतिवादी कह रहा हूं—शांतिवादी
युद्ध से क्या—क्या बुरा हो जाएगा, उसकी तलाश में लगता है।
लेकिन उसकी सारी तलाश, जैसा मैंने कहा, उसके भीतर पलायन की जो वृत्ति पैदा हो रही है, उसके
समर्थन में कारण खोजने की होती है।
हम
वही खोज लेते हैं,
जो हम करना चाहते हैं। लेकिन दिखाई ऐसा पड़ता है कि जो होना चाहिए,
वही हम कर रहे हैं। हम जो करना चाहते हैं, हम
उसकी ही दलीलें खोज लेते हैं। और जिंदगी में सब की दलीलों के लिए सुविधा है। जो
आदमी जो करना चाहता है, उसके लिए पक्ष की सारी दलीलें खोज
लेता है।
एक
आदमी ने अमेरिका में एक किताब लिखी है कि तेरह तारीख या तेरह का आंकड़ा, तेरह की
संख्या खतरनाक है। बड़ी किताब लिखी। और सब खोज लिया उसने कि तेरहवीं मंजिल पर से कौन आदमी गिरकर मरा। तो आज तो अमेरिका के कई
होटलों में तेरहवीं मंजिल ही नहीं है उस किताब के प्रभाव में, क्योंकि तेरहवीं पर कोई ठहरने को राजी नहीं है। बारहवीं के बाद सीधी
चौदहवीं मंजिल आ जाती है। तेरह तारीख को अस्पताल में जो लोग भर्ती होते हैं,
उनमें से कितने मर जाते हैं, तेरह तारीख को
कितने एक्सिडेंट होते हैं सड़क पर, तेरह तारीख को कितने लोगों
को कैंसर होता है, तेरह तारीख को कितने हवाई जहांज गिरते हैं,
तेरह तारीख को कितनी मोटरें टकराती हैं—तेरह तारीख को क्या—क्या
उपद्रव होता है, उसने सब इकट्ठा कर लिया है। बारह को भी होता
है, ग्यारह को भी होता है —उतना ही। लेकिन वह उसने छोड़ दिया
है। तेरह का सब इकट्ठा कर लिया है।
कोई
अगर ग्यारह तारीख के खिलाफ हो, तो वह ग्यारह तारीख के लिए यह सब इकट्ठा कर
लेगा। अगर कोई तेरह तारीख के पक्ष में हो, तो तेरह तारीख को
बच्चे भी पैदा होते हैं, तेरह तारीख को हवाई जहांज नहीं भी
गिरते हैं, तेरह तारीख को अच्छी घटनाएं भी घटती हैं, विवाह भी होते हैं, तेरह तारीख को मित्रता भी बनती
है, तेरह तारीख को विजय—उत्सव भी होते हैं, तेरह तारीख को भी सब अच्छा भी होता है। आदमी का चित्त उसे खोज लेता है,
जो वह, चाहता है।
अभी
वह पलायन चाहता है अर्जुन,
तो वह यह सब खोज रहा
है।
कल तक उसने यह बात नहीं कही थी कभी भी। कल तक उसे आने वाली संतति को क्या होगा, कोई मतलब
न था। युद्ध के आखिरी क्षण तक उसे कभी इन सब बातों का खयाल न आया, आज सब खयाल आ रहा है! आज उसके मन को पलायन पकड रहा है, तो वह सब दलीलें खोज रहा है।
अब
यह बड़े मजे की बात है कि कुल मामला इतना है कि वह अपनों को मारने से भयभीत हो रहा
है। लेकिन दलीलें बहुत दूसरी खोज रहा। वह सब दलीलें खोज रहा है। मामला कुल इतना है
कि वह ममत्व से पीड़ित है,
मोह से पीड़ित है, अपनों को मारने की हिम्मत
नहीं जुटा पा रहा है। इतनी—सी बात है, लेकिन इसके आस—पास वह
बड़ा जाल, फिलासफी खड़ी कर रहा है।
हम
सब करते हैं। छोटी—सी बात जो होती है, अक्सर ऐसा होता है कि वह बात हम
छोड़ ही देते हैं, जो होती है, उसके
आस—पास जो जाल हम खड़ा करते हैं, वह बहुत दूसरा होता है। एक
आदमी को किसी को मारना है, तो वह बहाने खोज लेता है। एक आदमी
को क्रोध करना है, तो वह बहाने खोज लेता है। एक आदमी को
क्रोध करना है, तो वह बहाने खोज लेता है। एक आदमी को भागना
है, तो वह बहाने खोज लेता है। आदमी को जो करना है, वह पहले आता है; और बहाने खोजना पीछे आता है।
वह
कृष्ण देख रहे हैं और हंस रहे हैं। समझ रहे हैं कि ये सब जो दलीलें वह दे रहा है; ये
चालबाजी की दलीलें हैं; ये दलीलें ' वास्तविक नहीं हैं;
ये सही नहीं हैं। यह उसकी अपनी दृष्टि नहीं है। क्योंकि उसने कभी आज
तक किसी को मारते वक्त नहीं सोचा। कोई ऐसा पहला मौका नहीं है कि वह मार रहा है। वह
निष्णात योद्धा है। मारना ही उसकी जिंदगीभर का अनुभव और कुशलता है। मारना ही उसका
बल है, तलवार ही उसका हाथ है, धनुष—बाण
ही उसकी आत्मा है। ऐसा आदमी नहीं है कि कोई तराजू पकड़े बैठा रहा हो और अचानक युद्ध
पर लाकर खड़ा कर दिया गया हो। इसलिए उसकी
बातों पर कृष्ण जरूर हंस रहे होंगे। वे जरूर देख रहे होंगे कि आदमी कितना चालाक
है!
सब
आदमी चालाक हैं। जो कारण होता है, उसे हम भुलाते हैं। और जो कारण नहीं होता है,
उसके लिए हम दलीलें इकट्ठी करते हैं। और अक्सर ऐसा होता है कि खुद
को ही दलीलें देकर हम समझा लेते हैं और
मूल कारण छूट जाता है।
लेकिन
कृष्ण चाहेंगे कि उसे मूल कारण खयाल में आ जाए। क्योंकि मूल कारण अगर खयाल में हो, तो समझ
पैदा हो सकती है। और अगर मूल कारण छिपा दिया जाए और दूसरे फाल्स रीजन्स, झूठे कारण इकट्ठे कर लिए.......।
अर्जुन
को क्या मतलब है कि आगे क्या होगा? धर्म की उसे कब चिंता थी कि धर्म
विनष्ट हो जाएगा! कब उसने फिक्र की थी कि ब्राह्मण, कि कहीं
कुल विकृत न हो जाएं? कब उसने फिक्र की थी? इन सब बातों की कोई चिंता न थी कभी। आज अचानक सब चिंताए उसके मन पर उतर आई
हैं!
यह
समझने जैसा है कि ये सारी चिंताएं क्यों उतर रही हैं, क्योंकि
वह भागना चाहता है। भागना चाहता है, तो ऐसा नहीं दिखाएगा कि
कायर है। वजह से भागेगा। रीजनेबल होगा उसका भागना। कहेगा कि इतने कारण थे, इसलिए भागता हूं। अगर बिना कारण भागेगा, तो दुनिया
हंसेगी। यहीं उसकी चालाकी है। यहीं हम सब की भी चालाकी है। हम जो भी कर रहे हैं,
उसके लिए पहले कारण का एक जाल खड़ा करेंगे। जैसे मकान को बनाते हैं,
तो एक स्ट्रक्चर खड़ा करते हैं, ऐसे हम एक जाल
खड़ा करेंगे। उस जाल से हम दिखाएंगे कि यह ठीक है। लेकिन मूल कारण बिलकुल और होगा।
अगर
कृष्ण को यह साफ दिखाई पड़ जाए कि अर्जुन जो कह रहा है, वही कारण
है, तो मैं नहीं मानता कि वे धर्म का विनाश करवाना चाहेंगे,
मैं नहीं मानता कि वे चाहेंगे कि बच्चे विकृत हो जाएं; मैं नहीं सोचता कि वे चाहेंगे कि संस्कृति, सनातन—
धर्म नष्ट हो जाए। नहीं वे चाहेंगे। लेकिन ये कारण नहीं हैं। ये फाल्स सब्स्टिटयूट्स
हैं, ये झूठे परिपूरक कारण हैं। इसलिए कृष्ण इनको गिराने की
कोशिश करेंगे, इनके। काटने की कोशिश करेंगे। वे अर्जुन को
वहा लाएंगे, जहां मूल कारण है। क्योंकि मूल कारण से लड़ा जा
सकता है, लेकिन झूठे कारणों से लड़ा नहीं जा सकता। और इसलिए
हम मूल को छिपा लेते हैं और झूठे कारणों में जीते हैं।
यह
अर्जुन की मनोदशा ठीक से पहचान लेनी जरूरी है। यह रीजन की कनिंगनेस है, यह बुद्धि
की चालाकी है। सीधा नहीं कहता कि मैं भाग जाना चाहता हूं; नहीं
होता मन अपनों को मारने का, यह तो आत्मघात है, मैं जा रहा हूं। सीधा नहीं कहता। दुनिया में कोई आदमी सीधा नहीं कहता। जो
आदमी सीधा कहता है, उसकी जिंदगी में क्राति हो जाती है,
जो इरछा—तिरछा कहता रहता है, उसकी जिंदगी में
कभी क्रांति नहीं होती। वह जिसको कहते हैं झाड़ी के आसपास पीटना, बीटिंग अराउंड दि बुश; बस, ऐसे
ही वह पीटेगा पूरे वक्त। झाड़ी बचाएगा, आसपास पिटाई करेगा।
अपने को बचाएगा और हजार—हजार कारण खोजेगा। छोटी—सी बात है सीधी उसकी, हिम्मत खो रहा है, ममत्व के साथ हिम्मत जा रही है।
उतनी सीधी बात नहीं कहेगा और सारी बातें इकट्ठी कर रहा है। उसके कारण सुनने और
समझने जैसे हैं। हमारा चित्त भी ऐसा करता है, इसलिए समझना
उपयोगी है।
प्रश्न
:
भगवान
श्री अर्जन के चित्त ने जो कछ भी कारण बताए, उसमें है कि कुलधर्म का
क्षय होने से दूषित स्त्रियों से वर्णसंकर प्रजा का जन्म होता है। जो प्रजा पिंड
और तर्पण क्रिया नहीं करती है, उससे उनके पितृगण नर्क में
जाते हैं। तो क्या पितृगण पिंडदान नहीं देने पर भूखे मरते हैं? यह क्या अर्जन के चित्त की भ्रांति ही है?
नहीं! अर्जुन के
कारण सब अत्यंत ऊपरी,
अत्यंत व्यर्थ हैं। कोई पितृगण आपके पिंड से बंधकर नहीं जीते हैं। और
अगर आपके पिंडदान से किन्हीं जा चुके पितृगणों की आगे की यात्रा बिगड़ती हो,
तब तो पिंडदान बडी खतरनाक बात है। आत्माएं अपने ही भीतर से अपनी
यात्रा पर निकलती हैं। आपने उनके पीछे क्या किया और क्या नहीं किया, इससे उनकी यात्रा का कोई भी संबंध नहीं है।
लेकिन
पुरोहितों का एक जाल है जगत में। और पुरोहितों का जाल जन्म से लेकर मृत्यु तक आदमी
को कसता है, मरने बाद भी कसता है। और बिना आदमी को भयभीत किए आदमी का शोषण नहीं किया
जा सकता। भय ही शोषण का आधार है। तो बेटे का शोषण किया जा सकता है, मरे हुए बाप के लिए भी भय दिखाकर।
अर्जुन
वह सब बातें कर रहा है। वह उसने सुनी होंगी। वह सब उसके आसपास हवा में रही होंगी।
तब थीं, तब तो आश्चर्य नहीं, अभी भी हैं। पांच हजार साल पहले
अर्जुन ने सुनी होंगी, कोई आश्चर्य की बात नहीं, अभी भी हैं। अर्जुन जो कह रहा है, उसने जो सुना होगा
हवा में, जो पुरोहित समझाते रहे होंगे आसपास, वही कह रहा है। उसे कोई मतलब नहीं है। वह तो वे सब दलीलें इकट्ठी परेड
करवा रहा है कृष्ण के सामने कि साबित हो जाए कि वह भाग रहा है, तो भागना ही धर्म है, उचित है। वह इसीलिए ये सारी
दलीलें ला रहा है। लेकिन इनमें कोई भी सत्य नहीं है। और न ही कोई वर्णसंकर से कोई
विकृति होती है।
उस
दिन खयाल था। अभी भी है। करपात्री और शंकराचार्य से पूछिए, तो यही
खयाल है। कुछ लोगों के खयाल बदलते ही नहीं, सारी दुनिया में
सब बदल जाए! कुछ लोग खयाल को ऐसा पकड़ते हैं कि खयाल के नीचे से सारी जिंदगी निकल
जाती है, लेकिन मुर्दा खयाल को पकड़े रह जाते हैं।
क्रास
ब्रीडिंग—जिसको वर्णसंकर कह रहा है अर्जुन—श्रेष्ठतम ब्रीडिंग है। क्रास ब्रीडिंग
से संभावना श्रेष्ठतर होने की है। बीज में आप पूरी तरह उपयोग कर रहे हैं। उस वक्त
आप खयाल में नहीं लाते कि अर्जुन के खिलाफ जा रहे हैं। जानवरों में उपयोग कर रहे
हैं। आदमी में अभी उपयोग नहीं कर रहे हैं। इसलिए आज आदमी की ब्रीडिंग जानवरों से
भी पिछड़ी हुई ब्रीडिंग है।
आज
हम जितने अच्छे कुत्ते पैदा कर लेते हैं कुत्तों में, उतना
अच्छा आदमी आदमी में पैदा नहीं कर पाते। आदमी की अभी भी संतति की व्यवस्था एकदम
अवैज्ञानिक है। अर्जुन के वक्त में तो रही ही होगी, आज भी
है। आज भी आदमी से श्रेष्ठतर आदमी, मन और शरीर की दृष्टि से
स्वस्थ, ज्यादा आयुष्य वाला, ज्यादा
प्रतिभाशाली पैदा हो सके, इस तरफ हमारा कोई खयाल नहीं है।
बीज की हम फिक्र करते हैं। बीज अच्छे से अच्छा होता जा रहा है—फलों का, फूलों का, गेहूं का। पशुओं में हम अच्छे से अच्छे
पशु पैदा करने की फिक्र करते हैं। आदमी में अभी भी फिक्र नहीं है।
लेकिन
पुराने वक्त में ऐसा खयाल था कि अगर दूसरी जाति से मिलना हुआ, तो जो
बच्चा पैदा होगा वह वर्णसंकर हो जाएगा। सच तो यह है कि इस जगत में जितनी भी
प्रतिभाशाली जातियां हैं, वे सब वर्णसंकर हैं। और जितनी
शुद्ध जातियां हैं, वे बिलकुल पिछड़ गई हैं। नीग्रो बिलंकुल
शुद्ध हैं; अफ्रीका के जंगलों में रहने वाले आदमी बिलकुल
शुद्ध हैं; हिंदुस्तान के आदिवासी बिलकुल शुद्ध हैं। जितनी
भी विकासमान संस्कृतियां हैं, सभ्यताएं हैं, वे सभी वर्णसंकर हैं।
असल
में, जैसे दो नदिया मिलकर ज्यादा समृद्ध हो जाती हैं, वैसे
ही जीवन की दो विभिन्न धाराएं भी मिलकर ज्यादा समृद्ध हो जाती हैं। अगर अर्जुन ठीक
है, तब तो बहन और भाई की शादी करवा देनी चाहिए, उससे बिलकुल शुद्ध बच्चे पैदा होंगे। लेकिन बहन और भाई की शादी से शुद्ध
बच्चा पैदा नहीं होता, सिर्फ रुग्ण बच्चा पैदा होता है। बहन
और भाई को हम बचाते हैं। जो बुद्धिमान हैं, वे चचेरे भाई और
बहन को भी बचाते हैं। जो उनसे भी ज्यादा बुद्धिमान हैं, वे
अपनी जाति में शादी कभी न करेंगे। जो उनसे भी ज्यादा बुद्धिमान हैं, वे अपने देश को भी बचाएंगे। और आज नहीं कल, अगर किसी
ग्रह पर, उपग्रह पर हमने कोई मनुष्य खोज लिए, तो जो बहुत बुद्धिमान हैं, वे इंटर प्लेनेटरी क्रास
ब्रीडिंग की फिक्र करेंगे।
लेकिन
वह अर्जुन तो सिर्फ परेड करवा रहा है। वह तो यह कह रहा है कि यह—यह उसने सुना है।
ऐसी—ऐसी हानि हों जाएगी,
इसलिए मुझे भागने दो। न उसे क्रास ब्रीडिंग से मतलब है, न कोई वह जानकार है। उसकी जानकारी और कुशलता इस सबकी नहीं है। ही, ये उसके सुने हुए खयाल हैं। चारों तरफ हवा में ये बातें थी।
आज
भी हैं। उस समय थीं,
तो बिलकुल स्वाभाविक लगता है। बिना चित्रों के नहीं सोच पाता। आदमी
को सोचने में चित्र बड़े क्योंकि मनुष्य की संतति का जन्म—शास्त्र बहुत विकसित नहीं
था। सहयोगी हो जाते हैं। आज बहुत विकसित है।
लेकिन
आज भी इतने विकसित संतति—शास्त्र के साथ, हमारा मस्तिष्क इतना विकसित नहीं
है कि हम उसे सह सकें या उस संबंध में सोच सकें। क्योंकि अपनी जाति में शादी करना,
बहुत दूर की अपनी बहन से ही शादी करना है। जरा फासला है, दस—पांच पीढ़ियों का फासला होगा। अपनी ही जाति में शादी करना, दस—पांच पीढ़ियों के पीछे एक ही पिता की संतति है वह। सौ पीढ़ी पीछे होगी,
बहुत दूर जाएंगे तो। लेकिन एक जाति में सब बहन— भाई ही हैं। और
ज्यादा पीछे जाएंगे तो एक महाजाति में भी सब बहन— भाई हैं।
जितने
दूर जाएं, जितना विभिन्न बीजारोपण संयुक्त हो, उतनी विभिन्न
समृद्धिया, उतने विभिन्न संस्कार, उतनी
विभिन्न जातियों के द्वारा अनुभव किया गया सारा का सारा हजारों साल का इतिहास
जेनेटिक अणु में इकट्ठा होकर उस व्यक्ति को मिल जाता है। जितने दूर से ये दो
धाराएं आएं, उतने विलक्षण व्यक्ति के पैदा होने की संभावना
है।
तो
वर्णसंकर बहुत गाली थी अर्जुन के वक्त में, हिंदुस्तान में अभी भी काशी में
गाली है। लेकिन अब सारे जगत के बुद्धिमान इस बात के लिए राजी हैं कि जितने दूर का
वर्ण हो, जितनी संकरता हो, उतने ही
श्रेष्ठतम व्यक्ति को जन्म दिया जा सकता है। लेकिन अर्जुन को इससे लेना—देना नहीं
है। अर्जुन कोई इस पर वक्तव्य नहीं दे रहा है। वह तो सिर्फ दलीलें इकट्ठी कर रहा
है।
प्रश्न
:
भगवान
श्री,
नर्क या स्वर्ग जैसे कुछ स्थान विशेष हैं क्या? ऐसा लगता है कि पाप और पुण्य एवं नर्क और स्वर्ग की कल्पना व्यक्ति को
भयभीत या प्रोत्साहित करने के हेतु की गई है। क्या आप सहमत हैं इससे?
नर्क और स्वर्ग
भौगोलिक स्थान नहीं हैं,
लेकिन मानसिक दशाएं जरूर हैं। लेकिन आदमी का चिंतन सदा ही चीजों को
चित्रों में रूपांतरित करता है। आदमी बिना चित्रों के नहीं सोच पाता। आदमी को
सोचने में चित्र बड़े सहयोगी हो जाते है।
हम
सबने देखी है, अभी भी घरों में टंगी भारत माता की फोटो। वह तो कुछ बुद्धिमान हमारे
मुल्क में पता नहीं क्यों नहीं हैं कि भारत माता की खोज पर नहीं निकलते! फोटो तो
घरों में लटकी हुई है भारत माता की। लेकिन भारत माता कहीं खोजने से मिलने वाली
नहीं है। लेकिन हजार, दो हजार साल बाद अगर कोई कहेगा कि भारत
माता नहीं थी, तो लोग कहेंगे, बिलकुल
गलत कहते हैं। देखो, गांधीजी इशारा कर रहे हैं फोटो में भारत
माता की तरफ। गांधीजी गलती कर सकते हैं? भारत माता जरूर रही
होंगी। या तो कहीं गुहा—कंदराओं में छिप गई हैं हमारे पाप की वजह से।
आदमी
जो भी समझना चाहे,
उसे चित्रों में रूपांतरित करता है। असल में जितना हम पुराने में
लौटेंगे, उतनी ही पिक्टोरियल लैंग्वेज बढती जाती है। असल में
दुनिया की पुरानी भाषाएं चित्रात्मक हैं। जैसे चीनी अभी भी चित्रों की भाषा है।
अभी भी शब्द नहीं हैं, वर्ण नहीं हैं, चित्र
हैं; चित्रों में ही सारा काम करना पडता है, इसलिए चीनी सीखना बहुत मुश्किल मामला हो जाता है। साधारण भी कोई सीखे तो
दस—पंद्रह साल तो मेहनत करनी ही पड़े। क्योंकि कम से कम दस—बीस हजार चित्र तो उसे
याद होने ही चाहिए। अब चीनी में अगर झगड़ा लिखना है, तो एक
झाडू बनाकर उसके नीचे दो औरतें बिठालनी पड़ती हैं, तब पता
चलता है कि झगडा है। बिलकुल पक्का झगड़ा तो है ही। एक झाड़ के नीचे दो औरतें! इससे
बड़ा झगड़ा और क्या हो सकता है?
सारी
दुनिया की, जितने हम पीछे लौटेंगे, उतनी चितना पिक्टोरियल होगी।
अभी भी हम सपना जब देखते हैं, तो उसमें शब्द नहीं होते,
चित्र होते हैं। क्योंकि सपना जो है, वह
प्रिमिटिव, बहुत पुराना है, नया नहीं
है। बीसवीं सदी में भी बीसवीं सदी का सपना देखना मुश्किल है। सपना तो हम देखते हैं
कोई लाख साले पुराना। उसका ढंग लाख साल पुराना होता है।
इसलिए
बच्चों की किताब में चित्र ज्यादा रखने पड़ते हैं और शब्द कम रखने पड़ते हैं।
क्योंकि बच्चा शब्दों से नहीं समझ सकेगा, चित्रों से समझेगा। अभी ग गणेश जी
का, नाहक गणेश जी को फंसाना पड़ता है। गणेश जी का कोई
लेना—देना नहीं है ग से। लेकिन बच्चा गणेश जी को समझेगा, फिर
ग को समझेगा। बच्चा प्रिमिटिव है।
तो
जितना हम पीछे लौटेंगे,
उतने सारे मानसिक —तत्व हमें भौगोलिक बनाने पड़े। स्वर्ग चित्त की एक
दशा है। जब सब सुखपूर्ण है, सब शांत है, सब फूल खिले हैं, सब संगीत से भरा है। लेकिन इसे
कैसे कहें! इसे ऊपर रखना पड़ा। नर्क है, जहां कि सब दुख है,
पीड़ा है, जलन है। नीचे रखना पडा। नीचे और ऊपर
वेल्यूज बन गईं। ऊपर वह है, जो श्रेष्ठ है, नीचे वह है, जो बुरा है, निकृष्ट
है। फिर जलन, दुख, पीड़ा, तो आग की लपटें बनानी पड़ी। स्वर्ग, तो शीतल, शांत, एयरकडीशनिग की व्यवस्था करनी पड़ी। लेकिन वे सब
चित्र हैं। लेकिन जिद पीछे पैदा होती है। जिद पुरोहित पैदा करवाता है। वह कहता है,
नहीं, चित्र नहीं हैं। ये तो स्थान हैं। अब वह
मुश्किल में पड़ेगा।
क्योंकि
जब खुश्चेव का आदमी पहली दफा अंतरिक्ष में पहुंचा, तो खुश्चेव ने रेडियो पर
कहा कि मेरे आदमी चांद का चक्कर लगा लिए हैं। कोई स्वर्ग दिखाई नहीं पड रहा है। अब
यह पुरोहित से झगड़ा है खुश्चेव का। खुश्चेव से पुरोहित को हारना पड़ेगा, क्योंकि पुरोहित दावा ही गलत कर रहा है। कहीं कोई ऊपर स्वर्ग नहीं है,
कहीं कोई नीचे नर्क नहीं है। हौ, लेकिन सुख की
अवस्था ऊपर की अवस्था है, नर्क की अवस्था दुख की अवस्था,
नीचे की अवस्था है।
और
यह नीचे—ऊपर को इतना भौगोलिक बनाने का कारण है। जब आप सुखी होंगे, तब आपको
लगेगा जैसे आप जमीन से ऊपर उठ गए हैं। और जब आप दुखी होंगे, तो
ऐसा लगेगा कि जमीन में गड़ गए हैं। वह बहुत मानसिक फीलिंग है जब आप दुखी होंगे,
तो सब तरफ ऐसा लगेगा कि अंधेरा छा गया। जब सुखी होंगे, तब सब तरफ लगेगा कि आलोक छा गया। वह फीलिंग है, भाव
है, अनुभव है भीतर। जब दुखी होंगे, तो
ऐसा लगेगा कि जैसे जल रहे हैं, जैसे कोई भीतर से आग जल रही
है। और जब आनंदित होंगे, तो भीतर फूल खिलने लगेंगे।
वे
भीतरी भाव हैं। लेकिन कवि उनको कैसे बनाए! चित्रकार उनको कैसे समझाए! धर्मगुरु
उन्हें कैसे लोगों के सामने उपस्थित करे! तो उसने बनाया उनका चित्र, तो ऊपर
गया स्वर्ग, नीचे गया नर्क। लेकिन अब वह भाषा बेमानी हो गई।
अब आदमी उस भाषा के पार चला गया, भाषा बदलनी पड़ेगी।
तो
मैं कहता हूं, ज्यॉग्राफिकल नहीं, भौगोलिक नहीं, साइकोलाजिकल हैं, स्वर्ग और नर्क हैं। और ऐसा भी
नहीं है कि आप मरकर स्वर्ग चले जाएंगे और नर्क चले जाएंगे। आप चौबीस घंटे में कई
बार स्वर्ग और नर्क में यात्रा करते रहते हैं। ऐसा नहीं है कोई कि इकट्ठा एक दफा
होलसेल, बिलकुल फुटकर है मामला, चौबीस
घंटे का काम है।
जब
आप क्रोध में होते हैं तो फौरन नर्क में होते हैं। जब आप प्रेम में होते हैं तो
स्वर्ग में उठ जाते हैं। पूरे वक्त आपका मन नीचे—ऊपर हो रहा है। पूरे वक्त आप
सीढ़ियां उतर रहे हैं अंधेरे की और आलोक की। ऐसा कोई इकट्ठा नहीं है। लेकिन जो आदमी
जिंदगीभर नर्क में ही गुजारता हो, उसकी आगे की यात्रा भी अंधेरे की तरफ ही हो रही
है।
यह
अर्जुन बेचारा सारी दुनिया को बचाने के लिए—आत्माएं स्वर्ग जाएं, इसके लिए;
उनके बेटे पिंडदान करें, इसलिए; कोई विधवा न हो जाए, इसलिए; वर्णसंकरता
न फैल जाए, विनाश न हो जाए—इतने बड़े उपद्रव के लिए..। यह
आदमी सिर्फ भागना चाहता है। इतनी—सी छोटी बात की कृष्ण आज्ञा दे दें।
लेकिन
इसमें भी वह सेंक्यान मांग रहा है; इसमें भी वह चाह रहा है कि कृष्ण
कह दें कि अर्जुन, तू बिलकुल ठीक कहता है। ताकि कल
जिम्मेवारी उसकी अपनी न रह जाए; तब वह कल कह सके कि कृष्ण! तुमने
ही मुझसे कहा था, इसलिए मैं गया था।
असल
में इतनी भी हिम्मत नहीं है उसकी कि वह रिस्पासबिलिटी अपने ऊपर ले ले, कि कह दे
कि मैं जाता हूं। क्योंकि तब उसे दूसरा मन उसका कहता है कि कायरता होगी! यह तो
उसके खून में नहीं है। यह भागना उसके वश की बात नहीं है। क्षत्रिय है, पीठ दिखाना उसकी हिम्मत के बाहर है। मर जाना बेहतर है, पीठ दिखाना बेहतर नहीं है। यह भी उसके भीतर बैठा है। इसलिए वह कहता है कि
कृष्ण अगर साक्षी दे दें, और कह दें कि ठीक है, तू उचित कहता है अर्जुन।
वह
तो क्या की जगह अगर कोई साधारण धातु का बना हुआ कोई पंडित—पुरोहित होता, तो कह
देता कि बिलकुल ठीक कहता है अर्जुन, शास्त्र में ऐसा ही तो
लिखा है, अर्जुन भाग गया होता। वह भागने का रास्ता खोज रहा
है। लेकिन उसे पता नहीं कि जिससे वह बात कर रहा है, उस आदमी
को धोखा देना मुश्किल है। वह अर्जुन को पैना, गहरे देख रहा
है। वह जानता है कि वह क्षत्रिय है और क्षत्रिय होना ही उसकी नियति है, वही उसकी डेस्टिनी है। वह ये सब बातें ऐसी कर रहा है, ब्राह्मणों जैसी। ब्राह्मण वह है नहीं। बातें ब्राह्मणों जैसी कर रहा है।
दलीलें वह ब्राह्मणों की दे रहा है। है वह ब्राह्मण नहीं, है
वह क्षत्रिय। तलवार के अतिरिक्त वह कुछ नहीं जानता। एक ही शास्त्र है उसका। असल
में अर्जुन जैसा क्षत्रिय दुनिया में खोजना मुश्किल है।
मेरे
एक मित्र जापान से आए,
तो किसी ने उन्हें एक मूर्ति भेंट कर दी। उस मूर्ति के एक हाथ में
तलवार है और तलवार की चमक है चेहरे पर। और दूसरे हाथ में एक दीया है और दीए की
ज्योति की चमक है दूसरे हिस्से पर चेहरे के! जिस तरफ दीया है, उस तरफ से मूर्ति को देखें, तो लगता है कि चेहरा
बुद्ध का है। और जिस तरफ तलवार है, उस तरफ से देखें, तो लगता है कि चेहरा अर्जुन का है।
वे
मुझसे पूछने लगे कि यह क्या मामला है? तो मैंने कहा कि अगर बुद्ध के
मुकाबले बुद्ध से ज्यादा बड़ा ब्राह्मण खोजना मुश्किल है, शुद्ध
ब्राह्मण, तो अर्जुन से बड़ा क्षत्रिय भी खोजना मुश्किल है।
और यह जो मूर्ति है जापान में, समुराई सैनिक की मूर्ति है।
समुराई के लिए नियम है कि उसके पास बुद्ध जैसी शांति और अर्जुन जैसी क्षमता चाहिए,
तभी वह सैनिक है। लड़ने की हिम्मत अर्जुन जैसी और लड़ते समय शाति
बुद्ध जैसी। बड़े इंपासिबल की मांग है, बड़े असंभव की मांग है।
लेकिन
अर्जुन के पास बुद्ध जैसा कुछ भी नहीं है। उसकी शाति सिर्फ बचाव है। उसकी शाति की
बातें सिर्फ पलायनवादी हैं। वह शांति की बातें करके भी पछताएगा। कल अर्जुन फिर
कृष्ण को पकड़ लेगा कि तुमने क्यों मुझे सहारा दिया, बदनामी हो गई! कुल की
प्रतिष्ठा चली गई! वह फिर पच्चीस दलीलें ले आएगा। जैसे अभी पच्चीस दलीलें लाया है
भागने के पक्ष में, कल पच्चीस दलीलें लाएगा और कृष्ण को
कहेगा कि तुम ही जिम्मेवार हो, तुमने ही मुझे उलझा दिया और
भगा दिया। अब सब बदनामी हो गई। अब कौन जिम्मा ले इसका?
इसलिए
कृष्य उसे इतने सस्ते में छोड़ नहीं सकते हैं। इतने सस्ते में छोड़ने की बात भी नहीं
है। वह आदमी दोहरे दिमाग में है। उसे एक दिमाग पर लाना एकदम आवश्यक है। फिर वह एक
दिमाग से जो भी करे,
कृष्ण की उसे सहमति हो सकती है।
आज
इतना ही। फिर कल सुबह।
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