कुल पेज दृश्य

सोमवार, 5 सितंबर 2016

एस धम्‍मो सनंतनो--(प्रवचन--11)

तथाता में है क्रांति—(प्रवचन—ग्‍याहरवां)

 सारसूत्र:

 फन्दनं चपलं चितं दूरक्‍खं दुन्‍निवारयं।
उजुं करोति मेधावी व उसुकारो व तेजनं।।29।।

वारिजो' व क्ले कित्तो ओकमोकत-उव्भतो।
परिफन्दतिदं चित्तं मारधेथ्यं पहातवे।।30।।

दुन्‍निग्‍गहस्‍स लहुनो यत्थकाम निपातिनो।
चित्‍तस्‍स दमथो साधु चितं दन्‍तं सुखावहं।।31।।


दूरड्गम एकचरं असरीरं गुहासयं।
ये चित्तं सज्जमेस्सन्ति मोक्खन्ति मारबन्‍धना।।32।।

अनवट्ठित चित्तस्स सद्धम्मं अविजानतो।
परिप्लवपसादस्स पज्जा न परिपूरति।।33।।


      जीवन दो भांति जीया जा सकता है-एक मालिक की तरह, एक गुलाम की तरह। और गुलाम की तरह जो जीवन है, वह नाममात्र को ही जीवन है। उसे जीवन कहना भी गलत है। बस दिखाई पड़ता हे जीवन जैसा, आभास होता है जीवन जैसा। जैसे एक सपना देखा हो। आशा में ही होता है गुलाम का जीवन। मिलेगा, मिलता कभी नहीं। आ रहा है, आता कभी नहीं। गुलाम का जीवन बस जाता है, आता कभी नहीं।
      गुलाम के जीवन का शास्त्र समझ लेना जरूरी है। क्योंकि जो उसे न समझ पाया, वह मालिक के जीवन को निर्मित न कर पाएगा। दोनों के शास्त्र अलग हैं। दोनों की व्यवस्थाएं अलग हैं। गुलाम के जीवन के शास्त्र का नाम ही संसार है। मालिक और मालकियत के जीवन का नाम ही धर्म है। एस धम्मो सनंतनो। वही सनातन धर्म का सूत्र है।
      मालिक से अर्थ है, ऐसे जीना जैसे जीवन अभी और यहीं है। कल पर छोड़कर नहीं, आशा में नहीं, यथार्थ में। मालिक के जीवन का अर्थ है, मन गुलाम हो, चेतना मालिक हो। होश मालिक हो, वृत्तियां मालिक न हों। विचारों का उपयोग किया जाए, विचार तुम्हारा उपयोग न कर लें। विचारों को तुम काम में लगा सको, विचार तुम्हें काम में न लगा दें। लगाम हाथ में हो जीवन की। और जहां तुम जीवन को ले जाना चाहो, वहीं जीवन जाए। तुम्हें मन के पीछे घसिटना न पड़े।
      गुलाम का जीवन बेहोश जीवन है। जैसे सारथी नशे में हो, लगाम ढीली पड़ी हो, घोड़ों की जहा मर्जी हो रथ को ले जाएं। ऊबड़-खाबड़ में गिराएं, कष्ट में डालें, मार्ग से भटकाएं, लेकिन सारथी बेहोश हो।
      गीता में कृष्ण सारथी हैं। अर्थ है कि जब चैतन्य हो जाए सारथी, तुम्हारे भीतर जो श्रेष्ठतम है जब उसके हाथ में लगाम आ जाए। बहुत बार अजीब सा लगता है कृष्ण को सारथी देखकर। अर्जुन ना-कुछ है अभी, वह रथ में बैठा है। कृष्ण सब कुछ है, वे सारथी बने हैं। पर प्रतीक बड़ा मधुर है। प्रतीक यही है कि तुम्हारे भीतर जो ना-कुछ है वह सारथी न रह जाए; तुम्हारे भीतर जो सब कुछ है वही सारथी
      तुम्‍हारी हालत उलटी है। तुम्हारी गीता उलटी है। अर्जुन सारथी बना बैठा है। कृष्ण रथ में बैठे हैं। ऐसे ऊपर से लगता है-मालकियत, क्योंकि कृष्ण रथ में बैठे हैं और अर्जुन सारथी है। ऊपर से लगता है, तुम मालिक हो। ऊपर से लगता है, तुम्हारी गीता ही सही है। लेकिन फिर से सोचना, व्यास की गीता ही सही है। अर्जुन रथ में होना चाहिए। कृष्ण सारथी होने चाहिए। मन रथ में बिठा दो, हर्जा नहीं है। लेकिन ध्यान सारथी बने, तो एक मालकियत पैदा होती है।
      इसलिए हमने इस देश में संन्यासी को स्वामी कहा है। स्वामी का अर्थ है,जिसने अपनी गीता को ठीक कर लिया। अर्जुन रथ में बैठ गया, कृष्ण सारथी हो गए, वही संन्यासी है। वही स्वामी है।
      और स्वामी होना ही एकमात्र जीवन है। तब तुम जीते ही नहीं, तुम जीवन हो जाते हो। तुम महाजीवन हो जाते हो। सब बदल जाता है। कल तक जहा कांटे थे, वहां फूल खिल जाते हैं। और कल तक जो भटकाता था, वही तुम्हारा अनुचर हो जाता है। कल तक जो इंद्रियां केवल दुख में ले गई थीं, वे तुम्हें महासुख में पहुंचाने लगती हैं। क्योंकि जिन इंद्रियों से तुमने संसार को पहचाना है, वे ही इंद्रियां तुम्हें परमात्मा के दर्शन दिलाने लगेंगी। उनको ही झलक मिलेगी।
      यही आंखें -ध्यान रखना, फिर से दोहराता हूं-यही आंखें उसे देखने लगेंगी। और इन्हीं आंखों ने पर्दा किया था। इन्हीं आंखों के कारण वह दिखाई न पड़ता था। इन आंखों को फोड़ मत लेना, जैसा कि बहुत से नासमझ तुम्हें समझाते रहे हैं। ये आंखें बड़े काम में आने को हैं, सिर्फ भीतर का इंतजाम बदलना है। जो मालिक है असली में, उसे मालिक घोषित करना है। बस उतनी घोषणा काफी है। जो गुलाम है उसे गुलाम घोषित करना है।
      तुम्हारे भीतर गुलाम मालिक बनकर बैठ गया है, और मालिक को अपनी मालकियत भूल गई है। इसलिए आंखों से पदार्थ दिखाई पड़ता है, परमात्मा नहीं। कानों से शब्द सुनाई पड़ता है, निःशब्द नहीं। हाथों से केवल वही छुआ जा सकता है जो रूप है, आकार है, निराकार का स्पर्श नहीं होता। मैं तुमसे कहता हूं जैसे ही तुम्हारे भीतर का इंतजाम बदलेगा-मालिक अपनी जगह लेगा, गुलाम अपनी जगह लेगा, चीजें व्यवस्थित होंगी, तुम्हारा शास्त्र शीर्षासन न करेगा, ठीक जैसा होना चाहिए वैसा हो जाएगा-तत्क्षण तुम पाओगे इन्हीं आंखों से निराकार की झलक मिलने लगी, पदार्थ से परमात्मा झांकने लगा।
      पदार्थ सिर्फ घूंघट है। वही प्रेमी वहा छिपा है। और इन्हीं कानों से तुम्हें शून्य का स्वर सुनाई पड़ने लगेगा। यही कान ओंकार के नाद को भी ग्रहण कर लेते हैं। कान की भूल नहीं है। आंख की भूल नहीं है। इंद्रियों ने नहीं भटकाया है, सारथी बेहोश है। घोड़ों ने नहीं भटकाया है। घोड़े भी क्या भटकाके? और घोड़ों को जिम्मेवारी सौंपते तुम्हें शर्म भी नहीं आती।
      और तुम्हारे साधु-संन्यासी तुमसे कहे जाते हैं, घोड़ों ने भटकाया है। घोड़े क्या भटकाके? और जिसको घोड़े भटका देते हों, वह पहुंच न पाएगा। जो घोड़ों को भी न सम्हाल सका, वह क्या सम्हालेगा? वह पहुंचने योग्य ही न था। उसकी कोई पात्रता ही न थी, जिसको घोड़ों ने भटका दिया।
      नहीं, भटके तुम हो। लगाम तुम्हारी ढीली है। घोड़े तो बस घोड़े हैं। उनके पास कोई होश तो नहीं। जब तुम बेहोश हो, तो घोड़ों से होश की अपेक्षा रखते हो! जब तुम्हारा चैतन्य सोया हुआ है, तो इंद्रियों से तुम चैतन्य की अपेक्षा रखते हो! इंद्रियां
तो तुम जैसे हो वैसी ही हो जाती हैं। इंद्रियां अनुचर हैं। जीवन का इंतजाम बदलना ही साधना है। और यही इंतजाम का आधार है कि मन मालिक न रह जाए, ध्यान मालिक बने।
      इसी रफ्तारे-आवारा से भटकेगा यहां कब तक
      अमीरे-कारवां बन जा गुबारे-कारवां कब तक
      कब तक गुजरते हुए कारवां की धूल, पीछे उड़ती धूल, कब तक ऐसे भीड़ के पीछे उड़ती धूल का अनुगमन करता रहेगा? कब तक ऐसे चलेगा मन के पीछे, शरीर के पीछे, इंद्रियों के पीछे 2 कब तक क्षुद्र का अनुसरण होगा? अमीरे-कारवां बन जा-अब वक्त आ गया कि मालिक बन जा, इस कारवां का पथ-प्रदर्शक बन जा, सारथी बन जा। बहुत दिन अर्जुन रह लिए, कृष्ण बनने का समय आ गया।
      कृष्ण और अर्जुन दो नहीं हैं। एक ही व्यक्ति को जमाने के दो ढंग हैं। एक ही चेतना के दो ढंग हैं, दो रूप हैं। रथ तो वही रहेगा, कुछ भी न बदलेगा, कृष्ण को भीतर बिठा दो, अर्जुन को सारथी बना दो, सब डगमगा जाएगा। कुछ तुमने जोड़ा नहीं, कुछ घटाया नहीं।
      बुद्ध ने कुछ जोड़ा थोड़े ही है। उतना ही है बुद्ध के पास जितना तुम्हारे पास है। रत्तीभर ज्यादा नहीं। कुछ घटाया थोड़े ही है। रत्तीभर कम नहीं। न कुछ छोड़ा है, न कुछ जोड़ा है, व्यवस्था बदली है। वीणा के तार अलग पड़े थे, वीणा पर कस दिए हैं। या वीणा के तार ढीले थे, उन्हें कस दिया है। जो जहा होना चाहिए था, वहा रख दिया है। जो जहां नहीं होना चाहिए था, वहां से बदल दिया है। सब वही है बुद्ध में, जो तुममें है। अंतर क्या है? संयोजन अलग है। और संयोजन के बदलते ही सब बदल जाता है-सब। तुम भरोसा भी नहीं कर सकते कि तुम्हारा ही संयोजन बदलकर बुद्धत्व पैदा हो जाता है; कि तुम्हीं अर्जुन, तुम्हीं कृष्ण। अभी तुम भरोसा भी कैसे करो?
      पहले शराब जीस्त थी अब जीस्त है शराब
      इतना ही फर्क है। पहले शराब जीस्त थी-पहले नशा ही जिंदगी थी। अब जीस्त है शराब-अब जिंदगी ही नशा है। पहले नशा जिंदगी थी, पहले शराब जिंदगी थी, अब जिंदगी शराब है।
      कोई पिला रहा है पिए जा रहा हूं मैं
      बस इतना ही फर्क है। पहले तुम पी रहे थे, कोई पिला न रहा था। और तब शराब जिंदगी मालूम होती थी, बेहोशी जिंदगी मालूम होती थी। अब, अब जिंदगी ही शराब है। अब जीवन का उत्सव है, आनंद है, और अब तुम नहीं पी रहे हो- कोई पिला रहा है पिए जा रहा हूं मैं
      संयोजन बदला कि अहंकार गया। कृष्ण रथ में बैठ जाएं, अर्जुन सारथी बन जाए, अहंकार परिणाम होगा। अर्जुन रथ में बैठे, कृष्ण सारथी बनें, निरअहंकार
परिणाम होगा। सारा गीता का संदेश इतना सा ही है कि अर्जुन, तू स्वयं को छोड़ दे, निरअहंकार हो जा। तू मत पी अपने हाथ से!
      कोई पिला रहा है पिए जा रहा हूं मैं
      परमात्मा जो करता है करने दे, तू निमित्त हो जा। जो निमित्त हो गया, वह मालिक हो गया। क्योंकि जो निमित्त हो गया, वह मालिक के साथ एक हो गया।
      बुद्ध के ये सूत्र बहुत गलत तरह से समझे गए हैं, इसे पहले कह दूं। क्योंकि जितने महासूत्र हैं, आदमी उनको गलत ही समझ सकता है। आदमी के भीतर प्रविष्ट होते ही किरणें भी अंधकार हो जाती हैं। आदमी के भीतर प्रविष्ट होते ही सुगंध दुर्गंध हो जाती है। आदमी के भीतर समझ के हीरे भी नासमझी के कंकड़-पत्थर होकर रह जाते हैं। बुद्ध ने ये सूत्र दिए हैं बड़े बहुमूल्य, लेकिन बुद्ध के पीछे चलने वालों ने उन्हें गलत ढंग से पकड़ा है। जैसा कि सभी के पीछे चलने वालों ने गलत ढंग से पकड़ा है। कुछ बात ऐसी बारीक है, और कुछ बात ऐसी भिन्न है आदमी से कि आदमी के हाथ में पड़ते ही भूल हो जाती है।
      'चित्त क्षणिक है, चंचल है। इसे रोक रखना कठिन है। इसका निवारण कठिन है। ऐसे चित्त को मेधावी पुरुष उसी प्रकार ऋजु, सरल, सीधा बनाता है, जिस प्रकार वाणकार वाण को।'
      इन सूत्रों से लोगों ने समझा कि चित्त को दबाना है, कि चित्त को मिटाना है, कि चित्त से लड़ना है। बुद्ध केवल चित्त का स्वभाव समझा रहे हैं। बुद्ध कह रहे हैं, चित्त क्षणिक है, चंचल है। लड़ने की कोई बात नहीं कर रहे हैं। इतना ही कह रहे हैं कि चित्त का स्वभाव ऐसा है। तथ्य की घोषणा कर रहे हैं।
लेकिन तुम्हारे मन में जैसे ही कभी कोई तुमसे कहता है चित्त क्षणिक है, जीवन क्षणभंगुर है, तुम तत्क्षण-क्षणभंगुरता को तो नहीं समझते-शाश्वत की खोज में लग जाते हो। वहीं भूल हो जाती है। और तुम्हारे महात्मागण जब भी तुमसे कहते हैं जीवन क्षणभंगुर, चित्त क्षणिक, तुम तत्क्षण सोचने लगते हो कैसे उसे पाएं जो अक्षणिक है, जो शाश्वत है, सनातन है। बस वहीं भूल हो जाती है! शाश्वत को पाना नहीं है, क्षणिक को समझ लेना है।
      जापान में एक बहुत बड़ा झेन कवि हुआ बासो। उसकी एक छोटी सी कविता है, एक हाइकू है। जिसका अर्थ बड़ा अदभुत है। हाइकू है कि जिन्होंने जाना, वह वे ही लोग हैं जिन्होंने इंद्रधनुष को देखकर तत्क्षण न कहा कि जीवन क्षणभंगुर है, जिन्होंने पानी के बबूले को टूटते देखकर तत्क्षण न कहा कि जीवन क्षणभंगुर है। जिन्होंने ओस की बूंद को बिखरते या वाष्पीभूत होते देखकर तत्क्षण न कहा कि हम उदास हो गए, जीवन क्षणभंगुर है, उन्होंने ही जाना।
      यह बड़ी अजीब बात है। बुद्ध के बड़े विपरीत लगती है। बासो बुद्ध का भक्त है। पर बासो समझा।
      जैसे ही तुमसे कोई कहता है जीवन क्षणभंगुर है और तुम छोड़ने को राजी हो जाते हो, तो तुम जीवन को छोड़ने को राजी नहीं होते, तुम क्षणभंगुरता को छोड़ने को राजी होते हो। तुम्हारी वासना नही मिटती, तुम्हारी वासना और बढ़ गई। तुम सनातन चाहते हो, शाश्वत चाहते हो। तुम कंकड़-पत्थर रखे थे, किसी ने कहा ये कंकड़-पत्थर हैं-तुम अब तक हीरे समझे थे इसलिए पकड़े थे-किसी ने कहा कंकड़-पत्थर हैं, तुम छोड़ने को राजी हो गए, क्योंकि अब असली हीरों की तलाश करनी है। हीरों का मौह नहीं गया। पहले इन्हें हीरा समझा था तो इन्हें पकड़ा था। अब कोई और हीरे हैं तो उन्हें पकड़ेंगे। लेकिन तुम वही के वही हो।
      बुद्ध जब कहते हैं, मन क्षणिक है, चंचल है, जीवन क्षणभंगुर है, तो वे सिर्फ तथ्य की घोषणा करते हैं। वे सिर्फ इतना ही कहते हैं, ऐसा है। इससे तुम वासना मत निकाल लेना, इससे तुम साधना मत निकाल लेना, इससे तुम अभिलाषा मत जगा लेना, इससे तुम आशा को पैदा मत कर लेना, इससे तुम भविष्य के सपने मत देखने लगना। और मजा यह है कि जो तथ्य को देख लेता है, वह शाश्वत को उपलब्ध हो जाता है। जैसे ही तुम्हें यह दिखाई पड़ गया कि मन क्षणिक है, कुछ करना थोड़े ही पड़ता है शाश्वत को पाने के लिए। मन क्षणिक है, ऐसे बोध में मन शांत हो जाता है।
      इसे जरा थोड़ा गौर से समझना।
      ऐसे बोध में कि मन क्षणिक है, पानी का बबूला है, अभी है अभी न रहा, भोर की तरैया है, डूबी-डूबी, अब डूबी तब डूबी, कुछ करना थोड़े ही पड़ता है। ऐसे बोध में तुम जाग जाते हो, गेस्टॉल्ट बदल जाता है। जीवन की पूरी देखने की व्यवस्था बदल जाती है। क्षणभंगुर के साथ जो तुमने आशा के सेतु बांध रखे थे, वे टूट जाते है।
      शाश्वत को खोजना नहीं है, क्षणभंगुर से जागना है। जागते ही जो शेष रह जाता है, वही शाश्वत है। शाश्वत को कोई कभी पाने थोड़े ही जाता है। क्योंकि शाश्वत का तो अर्थ ही है कि जिसे कभी खोया नहीं। जो खो जाए वह क्या खाक शाश्वत है! हो, क्षणभंगुर में उलझ गए हैं, बस उलझाव चला जाए, शाश्वत मिला ही है।
      लेकिन तुम क्या करते हो? तुम क्षणभंगुर के उलझाव को शाश्वत का उलझाव बना लेते हो। तुम संसार की तरफ दौड़ते थे, किसी ने चेताया; चेते तो तुम नहीं, क्योंकि चेताने वाला कह रहा था : दौडों मत-तुम संसार की तरफ दौड़ते थे, बुद्ध राह पर मिल गए, उन्होंने कहा, कहा दौड़े जा रहे हो, वहा कुछ भी नहीं है-वे इतना ही चाहते थे कि तुम रुक जाओ, दौड़ो मत। तुमने उनकी बात सुन ली, लेकिन तुम्हारी वासना ने उनकी बात का अर्थ बदल लिया। तुमने कहा, ठीक है। यहां अगर कुछ भी नहीं है, तो हम मोक्ष की तरफ दौड़ेंगे। लेकिन दौड़ेंगे हम जरूर।
      दौड़ संसार है। रुक जाते तो मोक्ष मिल जाता। संसार की तरफ न दौड़े, मोक्ष
की तरफ दौड़ने लगे। क्षणभंगुर को न पकड़ा तो शाश्वत को पकड़ने लगे। धन न खोजा तो धर्म को खोजने लगे। लेकिन खोज जारी रही। खोज के साथ तुम जारी रहे, खोज के साथ अहंकार जारी रहा; खोज के साथ तुम्हारी तंद्रा जारी रही, तुम्हारी नींद जारी रही। दिशाएं बदल गयीं, पागलपन न बदला। पागल पूरब दौड़े कि पश्चिम, कोई फर्क पड़ता है? पागल दक्षिण दौड़े कि उत्तर, कोई फर्क पड़ता है? दौड़ है पागलपन।
      ये तथ्य हैं। और इसलिए झेन में-जो बुद्ध-धर्म का सारभूत है-ऐसे उल्लेख हैं हजारों कि बुद्ध के वचन को पढ़ते-पढ़ते, सुनते-सुनते अनेक लोग समाधि को उपलब्ध हो गए हैं। दूसरे धर्मों के लोग यह बात समझ नहीं पाते हैं, कि यह कैसे होगा? सिर्फ सुनते-सुनते?
      बुद्ध का सर्वश्रेष्ठ शास्त्र है-भारत से संस्कृत के रूप खो गए हैं, चीनी और तिब्बती से उसका फिर से पुनआविष्कार हुआ-दि डायमंड सूत्र। बुद्ध उस सूत्र में सैकड़ों बार यह कहते हैं कि जिसने इस सूत्र की चार पंक्तियां भी समझ ली, वह मुका हो गया। सैकड़ों बार-एक-दो बार नहीं-करीब-करीब हर पृष्ठ पर कहते हैं। कभी-कभी हैरानी होती है कि वे इतना क्यों इस पर जोर दे रहे हैं। बहुत बार उन्होंने उस सूत्र में कहा है। जिससे वे बोल रहे हैं, जिस भिक्षु से वे बात कर रहे हैं, उससे वे कहते हैं, सुन, गंगा के किनारे जितने रेत के कण हैं, अगर प्रत्येक रेत का कण एक-एक गंगा हो जाए-तो उन सारी गंगा के किनारे कितने रेत के कण होंगे? वह भिक्षु कहता है, अनंत-अनंत होंगे, हिसाब लगाना मुश्किल है। बुद्ध कहते हैं, अगर कोई व्यक्ति उतना अनंत-अनंत पुण्य करे तो कितना पुण्य होगा? वह भिक्षु कहता है, बहुत-बहुत पुण्य होगा, उसका हिसाब तो बहुत मुश्किल है। बुद्ध कहते हैं, लेकिन जो इस शास्त्र की चार पंक्तियां भी समझ ले, उसके पुण्य के मुकाबले कुछ भी नहीं।
      जो भी पड़ेगा वह थोड़ा हैरान होगा कि चार पंक्तियां? पूरा शास्त्र आधा घंटे में पढ़ लो, इससे बड़ा नहीं है। चार पंक्तियां जो पढ़ ले? बुद्ध क्या कह रहे हैं? बुद्ध ने एक नवीन दर्शन दिया है, वह है तथ्य को देख लेने का। बुद्ध यह कह रहे हैं, जो चार पंक्तियां भी पढ़ ले, जो मैं कह रहा हूं उसके तथ्य को चार पंक्तियों में भी देख ले, फिर कुछ करने को शेष नहीं रह जाता; बात हो गई। सत्य को सत्य की तरह देख लिया, असत्य को असत्य की तरह देख लिया, बात हो गई। फिर पूछते हो तुम क्या करें, तो मतलब हुआ कि समझे नहीं। समझ लिया तो करने को कुछ बचता नहीं है। क्योंकि करना ही नासमझी है।
      वही अर्जुन पूछे चला जाता है कृष्ण से कि अगर मैं ऐसा करूं तो क्या होगा? अगर वैसा करूं तो क्या होगा? और कृष्ण कहते हैं, तू करने की बात ही छोड़ दे, तू करने की बात उस पर छोड़ दे। तू कर ही मत, तेरे करने से सभी गड़बड़ होगा।
एस - तू उसे करने दे।
      पहले शराब जीस्त थी अब जीस्त है शराब
      कोई पिला रहा है पिए जा रहा हूं मैं
      बुद्ध कहते हैं, जान लिया, समझ लिया, हो गया। करने की बात ही नासमझी से उठती है। क्योंकि तुम बोध हो, चैतन्य हो। चित्त क्षणिक है, चंचल है, यह कोई सिद्धात नहीं, यह केवल सत्य की उदघोषणा है। इसे सुनो, कुछ करना नहीं है। इसे पहचानो, कुछ साधना नहीं है।
      'चित्त क्षणिक है, चंचल है। इसे रोक रखना कठिन है। इसका निवारण कठिन है। ऐसे चित्त को मेधावी पुरुष उसी प्रकार ऋजु, सरल, सीधा बनाता है जिस प्रकार वाणकार वाण को।
      अगर वाण तिरछा हो, आडू। हो, तो निशाने पर नहीं पहुंचता। सीधा चाहिए, ऋजु चाहिए, सरल चाहिए, फिर पहुंच जाता है। तुम्हारा मन तिरछा है या सीधा? तुम्हारा मन जटिल है या सरल? तुम्हारा मन तुम्हारा मन है। तुम वाणकार हो, तुम्हारा मन तुम्हारे हाथ का वाण है। लेकिन तुमने कभी खयाल किया कि तुम उसे जटिल किए चले जाते हो, तुम उसे उलझाए चले जाते हो।
      सीधे-सरल का क्या अर्थ है? सीधे-सरल का अर्थ है, जैसा मन हो उसे वैसा ही देख लेना। तत्क्षण मन सरल हो जाता है। यही है मन का दर्शन। कहो ध्यान, कहो अप्रमाद; या कोई और नाम दो। मन को, उसको जैसा है वैसा ही देख लेने से तत्क्षण सरल हो जाता है।
      समझो कि तुम चोर हो, या झूठ बोलने वाले हो। अब एक झूठ बोलने वाला आदमी है, वह मेरे पास आता है, वह कहता है कि मुझे सत्य बोलने की कला सिखा दें। ऐसे ही उलझा है, झूठ से उलझा है, अब एक और सत्य की झंझट भी लेना चाहता है। अब झूठ बोलने वाले आदमी को सच बोलने की कला कैसे सिखाई जाए? क्योंकि उस कला को सीखने में भी वह झूठ बोलेगा।
      एक क्रोधी आदमी है, वह कहता है, मुझे अक्रोध सीखना है। अब क्रोधी आदमी को अक्रोध कैसे सिखाया जाए? अगर उससे कहो घर में शात होकर बैठ जाना, तो वह बैठेगा कैसे? क्रोध ही उबलेगा। और अक्सर ऐसे क्रोधी अगर पूजा-पाठ, प्रार्थना करने लगते हैं, तो घरभर की मुसीबत आ जाती है। इससे तो बेहतर था कि वे नहीं करते थे। क्योंकि बच्चा अगर जरा शोरगुल कर दे तो उनका क्रोध उबल पड़ता है, कि ध्यान में बाधा पड़ गई। या अगर पत्नी के हाथ से बर्तन गिर जाए तो उनका धर्म, ध्यान नष्ट हो गया। क्रोध उनका जाएगा कैसे? वे ध्यान के आधार पर भी क्रोध करेंगे।
      हिंसक है कोई, पूछता है, अहिंसक होना है। हिंसक चित्त कैसे अहिंसक होगा? वैसे ही जटिल था, अहिंसा और उपद्रव खड़ा कर देगी। तो वह तरकीबें खोज लेगा अहिंसक दिखने की, लेकिन हिंसक ही रहेगा। और पहले कम से कम हिंसा दिखाई पड़ती थी, अहिंसा में अगर ढक गई तो फिर कभी भी दिखाई न पड़ेगी। कामवासना से भरा हुआ आदमी, वह कहता है, ब्रह्मचर्य साधना है। तुम अपने विपरीत जाने की चेष्टा करोगे, जटिल हो जाओगे।
      बुद्ध क्या कहते हैं? बुद्ध कहते हैं, क्रोधी हो तो क्रोध के तथ्य को जानो, अक्रोधी होने की चेष्टा मत करना। क्रोधी हो, क्रोध को स्वीकार करो। कह दो सारे जगत को कि मैं क्रोधी हूं। और उसे छिपाए मत फिरो, क्योंकि छिपाने से कहीं रोग मिटा है! खोल दो उसे, शायद बह जाए। शायद नहीं, बह ही जाता है। अगर हिंसक हो तो स्वीकार कर लो कि मैं हिंसक हूं। और अपने हिंसक होने की दीनता को अस्वीकार मत करो। कहीं अहिंसक होने की चेष्टा में यही तो नहीं कर रहे हो कि हिंसक होने को कैसे स्वीकार करें, तो अहिंसा से ढांक लें। घाव है तो फूल ऊपर से चिपका दें, गंदगी है तो इत्र छिड़क दें, कहीं ऐसा तो नहीं है? ऐसा ही है।
      इसलिए तुम पाओगे कि कामुक ब्रह्मचारी हो जाते हैं। और उनके ब्रह्मचर्य से सिवाय कामवासना की दुर्गंध के कुछ भी नहीं उठता। क्रोधी शात होकर बैठने लगते हैं। लेकिन उनकी शाति में तुम पाओगे कि ज्वालामुखी उबल रहा है क्रोध का। संसारी संन्यासी हो जाते हैं और उनके संन्यास में सिवाय संसार के और कुछ भी नहीं है। मगर तुम भी धोखे में आ जाते हो। क्योंकि ऊपर से वे वेश बदल लेते हैं। ऊपर से उलटा कर लेते हैं। भीतर लोभ है, ऊपर से दान करने लगते हैं।
      लेकिन ध्यान रखना, लोभी जब दान करता है तब भी लोभ के लिए ही करता है। होगा लोभ परलोक का कि स्वर्ग में भंजा लेंगे। लिख दी हुंडी। हुंडिया निकाल रहा है। वह स्वर्ग में भंजाएगा। वह सोच रहा है, क्या-क्या स्वर्ग में पाना है इसके बदले में? और ऐसे लोभियों को धर्म में उत्सुक करने के लिए पंडित और पुरोहित मिल जाते हैं। वे कहते हैं, यहां एक दोगे, करोड़ गुना पाओगे। थोड़ा हिसाब भी तो रखो। सौदा कर रहे हो? यह सौदा भी बिलकुल बेईमानी का है। गंगा के किनारे पंडे बैठे हैं, वे कहते हैं, एक पैसा यहां दान दो, करोड़ गुना पाओगे। यह कोई सौदा हुआ? यह तो जुए से भी ज्यादा झूठा मालूम पड़ता है। एक पैसा देने से कैसे करोड़ गुना पाओगे? करोड़ गुने की आशा दी जा रही है, क्योंकि तुमसे एक पैसा भी छूटेगा नहीं सिवाय इसके। तुम्हारे लोभ को उकसाया जा रहा है। लोभी दान करता है, मंदिर बनवाता है, धर्मशाला बनवाता है। लेकिन यह सब लोभ का ही फैलाव है।
      दान तो तभी संभव है जब लोभ मिट जाए। लोभ के रहते दान कैसे संभव है? ब्रह्मचर्य तो तभी संभव है जब वासना खो जाए। वासना के रहते ब्रह्मचर्य कैसे संभव है? ध्यान तो तभी संभव है जब मन चला जाए। मन के रहते ध्यान कैसे संभव है? अगर मन के रहते ध्यान करोगे, तो मन से ही ध्यान करोगे। मन का ध्यान कैसे ध्यान होगा? मन का अभाव ध्यान है।
      इसलिए बुद्ध ने एक अभिनव-शास्त्र जगत को दिया-सिर्फ जागकर तथ्यों को देखने का। बुद्ध ने नहीं सिखाया कि तुम विपरीत करने लगो। बुद्ध ने इतना ही सिखाया कि तुम जो हो उसे सरल कर लो, सीधा कर लो। उसके सीधे होने में ही हल है। तुम क्रोधी हो, क्रोध को जानो, छिपाओ मत। ढांको मत, मुस्कुराओ मत।
      जीवन को झूठ से छिपाओ मत, प्रगट करो। और तुम चकित हो जाओगे! अगर तुम अपने क्रोध को स्वीकार कर लो, अपनी घृणा को, ईर्ष्या को, द्वेष को, जलन को स्वीकार कर लो, तुम सरल होने लगोगे। तुम पाओगे, एक साधुता उतरने लगी। अहंकार अपने आप गिरने लगा। क्योंकि अहंकार तभी तक रह सकता है जब तक तुम धोखा दो। अहंकार धोखे का सार है। या सब धोखों का निचोड़ है। जितने तुमने धोखे दिए उतना ही बड़ा अहंकार है। क्योंकि तुमने बड़ी चालबाजी की, और तुमने दुनिया को धोखे में डाल दिया, तुम बड़े अकड़े हुए हो। लेकिन तुम उघाड़ दो सब।
      जिसको जीसस ने कन्‍फेशन कहा है-स्वीकार कर लो। और जीसस ने जिसको कहा है कि जिसने स्वीकार कर लिया वह मुका हो गया, उसको ही बुद्ध ने कहा है-बुद्ध कन्‍फेशन शब्द का उपयोग नहीं कर सकते। क्योंकि परमात्मा की कोई जगह नहीं है बुद्ध के विचार में। किसके सामने करना है स्वीकार? अपने ही सामने स्वीकार कर लेना है। तथ्य की स्वीकृति में तथ्य से मुक्‍ति। है। तथ्य की स्वीकृति में तथ्य के पार जाना है।
      इस बहुमूल्य सूत्र का थोड़ा सा जीवन में उपयोग करोगे, तुम चकित हो जाओगे; तुम्हारे हाथ में कीमिया लग गई, एक कुंजी लग गई। तुम जो हो उसे स्वीकार कर लो। चोर हो चोर। झूठे हो झूठे। बेईमान हो बेईमान। क्या करोगे तुम? उस स्वीकृति में तुम पाआगे कि अचानक तुम जो थे वह बदलने लगा। वह नहीं बदलता था, क्योंकि तुम छिपाते थे। जैसे घाव को खोल दो खुली रोशनी में, सूरज की किरणें पड़े, ताजी हवाएं छुए, घाव भरने लगता है। ऐसे ही ये भीतर के घाव हैं। इन्हें तुम जगत के सामने खोल दो, ये भरने लगते हैं।
      इस स्थिति को बुद्ध कहते हैं-मेधावी पुरुष, बुद्धिमान व्यक्ति, जिसको थोड़ी भी अकल है। बाकी ये जो उलटे काम कर रहे हैं-क्रोधी अक्रोधी बनने की, हिंसक अहिंसक बनने की-ये मूढ़ हैं। ये मेधावी नहीं हैं। ये समय गंवा रहे हैं। ये कभी कुछ न बन पाएंगे। ये मूल ही चूक गए। यह पहले कदम पर ही भूल हो गई।
      'मेधावी पुरुष उसी प्रकार ऋजु, सरल, सीधा बना लेता है अपने चित्त को, जिस प्रकार बाणकर वाण को।'
      जिसकी तुम आकांक्षा करोगे, उससे ही तुम वंचित रहोगे। एस धम्मो सनंतनो। जिसको तुम स्वीकार कर लोगे, उससे ही तुम मुक्त हो जाओगे। जिसको तुम मांगोगे नहीं, वह तुम्हारे पीछे आने लगता है। और जिसको तुम मांगते हो, वह दूर हटता चला जाता है। तुम्हारी मांग हटाती है दूर।
      है हुसूले-आरजू का राज तकें-आरजू
      मैंने दुनिया छोड़ दी तो मिल गई दुनिया मुझे
      जीवन में सफलता का राज, आकांक्षा की सफलता का राज यही है, कि आकांक्षा छोड़ दी।
      है हुसूले-आरजू का राज तर्के-आरजू
      मैंने दुनिया छोड़ दी तो मिल गई दुनिया मुझे
      तुमने अगर अक्रोध को पाने की दौड़ छोड़ दी, तुम क्रोध को स्वीकार कर लिए-था, करोगे क्या, छिपाओगे कहां? किससे छिपाना है? छिपाकर ले जाओगे कहां? अपने ही भीतर और समा जाएगा, और जड़ें गहरी हो जाएंगी। हिंसक थे, हिंसा स्वीकार कर ली! और तुम अचानक हैरान होओगे? हिंसा गई और अहिंसा उपलब्ध हो गई।
      जिसको भी पाने की तुम दौड़ करोगे वही न मिलेगा। अहिंसक होना चाहोगे, अहिंसक न हो पाओगे। शात होना चाहोगे, शात न हो पाओगे। संन्यासी होना चाहोगे, संन्यासी न हो पाओगे। जो होना है, वह चाह से नहीं होता। चाह से चीजें दूर हटती जाती हैं। चाह बाधा है। तुम जो हो बस उसी के साथ राजी हो जाओ, तुम तथ्य से जरा भी न हटो, तुम भविष्य में जाओ ही मत, तुम वर्तमान को स्वीकार कर लो-मैंने दुनिया छोड़ दी तो मिल गई दुनिया मुझे।
      भागती फिरती थी दुनिया जब तलब करते थे हम
      जब हमें नफरत हुई वह बेकरार आने को है
      तुम जिसके पीछे जाओगे, तुम्हारे पीछे जाने से ही तुम उसे अपने पीछे नहीं आने देते। तुम पीछे जाना बंद करो, तुम खड़े हो जाओ। और जो तुमने चाहा था, जो तुमने मांगा था, वह बरस जाएगा। लेकिन वह बरसता तभी है जब तुम्हारे भीतर भिखारी का पात्र नहीं रह जाता। मांगने वाले का पात्र नहीं रह जाता। जब तुम सम्राट की तरह खड़े होते हो। इसको ही मैं मालिक होना कहता हूं। तुम जो भी हो, वही होकर तुम मालिक हो सकते हो। तुमने कुछ और होना चाहा तो तुम कैसे मालिक हो सकते हो? तब तो मांग रहेगी और तुम भिखारी रहोगे।
      आज, अभी, इसी क्षण तुम मालिक हो सकते हो। मांग छोड़ते ही आदमी मालिक हो जाता है। और थोड़े ही मालिक होने का कोई उपाय है! तुम अगर मुझसे पूछो, कैसे? फिर तुम चूके। क्योंकि तुमने फिर मल के लिए रास्ता बनाया। तुमने कहा कि ठीक कहते हैं, मालिक तो मैं भी होना चाहता हूं।
मैं तुमसे कहता हूं तुम हो सकते हो इसी क्षण। तुम हो, आंखभर खोलने की बात है। तुम कहते हो कि होना तो मैं भी चाहता हूं। जो तथ्य है, तुम उसे चाह बनाते हो। चाह बनाकर तुम तथ्य को दूर हटाते हो। फिर तथ्य जितना दूर हटता जाता है, उतनी तुम ज्यादा चाह करते हो। जितनी ज्यादा तुम चाह करते हो, उतना तथ्य और दूर हट जाता है। क्योंकि चाह से तथ्य का कोई संबंध कैसे जुड़ेगा? तथ्य तो है। और चाह कहती है, होना चाहिए। इन दोनों में कहीं मेल नहीं होता।
      बुद्ध का शास्त्र है कि तुम तथ्य को देखो। और जो है, उससे रत्तीभर यहां-वहां हटने की कोशिश मत करना। यही कृष्णमूर्ति का पूरा सार-संचय है, कि तुम जो हो उससे रत्तीभर यहां-वहां हटने की कोशिश मत करना। हो, वही हो। उससे भिन्न जाने की चेष्टा की कि भटके। उससे विपरीत जाने की चेष्टा की कि फिर तो तुमने अनंत दूरी पर कर दी मंजिल। स्वीकार में, तथाता में क्रांति है।
      'जिस प्रकार जलाशय से निकालकर जमीन पर फेंक दी गई मछली तड़फड़ाती है, उसी प्रकार यह चित्त मार के फंदे से निकलने के लिए तड़फड़ाता है।'
      यह उनकी उस दिन की भाषा है। इसको आज की भाषा में रखना पड़ेगा।
      'जिस प्रकार जलाशय से निकालकर जमीन पर फेंक दी गई मछली तड़फड़ाती है।'
      जलाशय यानी तथ्य, जो है। जो मछली का जीवन है, उससे निकालकर उसे तट पर फेंक दिया।
      और जैसे मछली तड़फड़ाती है, उसी प्रकार यह चित्त मार के फंदे से निकलने के लिए तड़फड़ाता है।
      मार का फंदा क्या है? आकांक्षा का। मार का फंदा क्या है प आशा का। मार का फंदा क्या है? कुछ होने की आकांक्षा और दौड़।
      जीसस के जीवन में उल्लेख है कि जब चालीस दिन के ध्यान के बाद वे परम स्थिति के करीब पहुंचने लगे, तो शैतान प्रगट हुआ। वह शैतान कोई और नहीं है, वह तुम्हारा मन है। जो मरते वक्त ऐसे ही भभककर जलता है जैसे बुझते वक्त दिया आखिरी लपट लेता है। मन का अर्थ है, वही जो अब तक तुमसे कहता था, कुछ होना है कुछ होना है। जो तुम्हें दौड़ाए रखता था। ध्यान की आखिरी घड़ी आने लगी जीसस की, मन मौजूद हुआ। जीसस की भाषा में शैतान, बुद्ध की भाषा में मार। मन ने कहा, तुम्हें जो बनना हो मैं बना दूं। जीसस से कहा, तुम्हें जो बनना हो मैं बना दूं। सारे संसार का सम्राट बना दूं। तीनों लोकों का सम्राट बना दूं। तुम बोलो, तुम्हें जो बनना हो मैं तुम्हें बना दूं। जीसस मुस्कुराए और उन्होंने कहा, तू पीछे हट। शैतान, पीछे हट! क्या मतलब है जीसस का? जीसस यह कह रहे हैं, अब तू और चकमे मत दे बनाने के, बनने के। अब तो जो मैं हूं पर्याप्त है। तू पीछे हट। तू मुझे राह दे।
      बुद्ध जब परम घड़ी के करीब पहुंचने लगे तो वही घटना है। मार मौजूद हुआ। मार यानी मन। और मन ने कहा, अभी मत छोड़ो आशा। क्योंकि उस सांझ.. बुद्ध संसार से तो छ: साल पहले मुक्त हो गए थे, छ: साल से वे मोक्ष की तलाश में लगे थे, और छ: साल में थक गए। क्योंकि तलाश से कभी कुछ मिला ही नहीं है। बुद्ध
को नहीं मिला, तुम्हें कैसे मिलेगा? तलाश तो भटकने का उपाय है, पहुंचने का नहीं। उस दिन वे थक गए तलाश से भी, मोक्ष भी व्यर्थ मालूम पड़ा। संसार तो व्यर्थ था, आज मोक्ष भी व्यर्थ हो गया। उन्होंने सांझ, जिस वृक्ष के नीचे थोड़ी देर बाद वे बुद्धत्व को उपलब्ध हुए, अपना सिर टेक दिया और उन्होंने कहा, अब कुछ पाना नहीं है। मार उपस्थित हुआ, उसने कहा, इतनी जल्दी आशा मत छोड़ो। अभी बहुत कुछ किया जा सकता है। अभी तुमने सब नहीं कर लिया है। अभी बहुत साधन शेष हैं। मैं तुम्हें बताता हूं।
      लेकिन बुद्ध ने उसकी एक न सुनी। वे लेटे ही रहे। वे विश्राम में ही रहे। मार उन्हें पुन: न खींच पाया दौड़ में। मार ने सब तरह से चेष्टा की कि अभी मोक्ष को पाने का यह उपाय हो सकता है। सत्य को पाने का यह उपाय हो सकता है। वे उपेक्षा से देखते रहे।
      जीसस ने तो इतना भी कहा था शैतान से, हट पीछे, बुद्ध ने उतना भी न कहा। क्योंकि हट पीछे में भी जीसस थोड़े तो हार गए। बुद्ध ने इतना भी न कहा। बौद्धशास्त्र कहते हैं, बुद्ध सुनते रहे उपेक्षा से। इतना भी रस न लिया कि इनकार भी करें। इनकार में भी रस तो होता ही है। स्वीकार भी रस है, इनकार भी रस है। बुद्ध ने जीसस से भी बड़ी प्रौढ़ता का प्रदर्शन किया। उससे भी बड़ी प्रौढ़ता का सबूत दिया। बुद्ध सुनते रहे। मार थोड़ी-बहुत देर चेष्टा किया, बड़ा उदास हुआ। यह आदमी कुछ बोलता ही नहीं। यह इतना भी नहीं कहता कि हट यहां से, मुझे डुबाने की कोशिश मत कर। अब मुझे और मत भटका। इतना भी बुद्ध कहते तो भी थोड़ा चेष्टा करने की जरूरत थी। लेकिन इतना भी न कहा।
      कहते हैं, मार उस रात विदा हो गया। इस आदमी से सब संबंध छूट गए। यही घड़ी है समाधि की। जब तुम मन के विपरीत भी नहीं। जब तुम मन से यह भी नहीं कहते, तू जा। तुम मन से यह भी नहीं कहते कि अब बंद भी हो, अब विचार न कर, अब मुझे शात होने दे, इतना भी नहीं कहते, तभी तुम शात हो जाते हो। क्योंकि मन फिर तुम्हारे ऊपर कोई कब्जा नहीं रख सकता। इतना भी बल मन का न रहा कि वह तुम्हें अशात कर सके। इतना भी बल मन का न रहा कि वह तुम्हारे ध्यान में बाधा डाल सके। तुम मन के पार हो गए। उसी रात, सुबह भोर के तारे के साथ, आखिरी तारा डूबता था और बुद्ध परम प्रज्ञा को उपलब्ध हुए।
      जिस प्रकार जलाशय से निकालकर जमीन पर फेंक दी गई मछली तड़फड़ाती है, ऐसे ही तुम तड़फड़ा रहे हो, चित्त तड़फड़ा रहा है। क्योंकि तथ्य और सत्य के जलाशय के बाहर आशा के तट पर पड़े हो। कुछ होना है, ऐसा भूत सवार है। जो हो, उसके अतिरिक्त हो कैसे सकोगे कुछ? जो हो, वही हो सकते हो। उसके बाहर, उसके पार कुछ भी नहीं है। लेकिन मन पर एक भूत सवार है, कुछ होना है। गरीब हैं तो अमीर होना है। बीमार हैं तो स्वस्थ होना है। शरीरधारी हैं तो अशरीरधारी होना है। जमीन पर हैं तो स्वर्ग में होना है। संसार में हैं तो मोक्ष में होना है। कुछ होना है। बिकमिंग। 'है' से संबंध नहीं है, होने से संबंध है।
      होना ही मार है। होना ही शैतान है। और होने के तट पर मछली जैसा तुम तड़फड़ाते हो। लेकिन तट छोड़ते नहीं। जितने तड़फड़ाते हो उतना सोचते हो, तड़फड़ाहट इसीलिए है कि अब तक हो नहीं पाया, जब हो जाऊंगा, तड़फड़ाहट मिट जाएगी। और दौड़ में लगते हो। तर्क की भ्रांति तुम्हें और तट की तरफ सरकाए ले जाती है। जब कि पास ही सागर है तथ्य का। उसमें उतरते ही मछली राजी हो जाती। उसमें उतरते ही मछली की सब बेचैनी खो जाती। इतने ही करीब, जैसे तट पर तड़फती मछली है, उससे भी ज्यादा करीब तुम्हारा सागर है।
      'जिस प्रकार जलाशय से निकालकर जमीन पर फेंक दी गई मछली तड़फड़ाती है, उसी प्रकार यह चित्त मार के फंदे से निकलने के लिए तड़फड़ाता है।
लेकिन हर तड़फड़ाहट इसे फंदे में उलझाए चली जाती है। क्योंकि तड़फड़ाहट में भी यह मार की भाषा का ही उपयोग करता है, समइा का नहीं। वहां भी वासना का ही उपयोग करता है। दुकान पर बैठे लोग दुखी हैं-जो पाना था नहीं मिला। मंदिर में बैठे लोग दुखी हैं-जो पाना था नहीं मिला।
      जीसस के जीवन में उल्लेख है, वे एक गांव से गुजरे। उन्होंने कुछ लोगों को छाती पीटते रोते देखा। पूछा कि क्या मामला है? किसलिए रो रहे हो? कौन सी दुर्घटना घट गई? उन्होंने कहा, कोई दुर्घटना नहीं घटी, हम नर्क के भय से घबड़ा रहे हैं।
कहां है नर्क? मगर मन ने नर्क के भय खड़े कर दिए हैं, उनसे घबड़ा रहे हैं। जीसस थोड़े आगे गए, उन्होंने कुछ और लोग देखे जो बड़े उदास बैठे थे, जैसा मंदिरों में लोग बैठे रहते हैं। बड़े गंभीर। जीसस ने पूछा, क्या हुआ तुम्हें? कौन सी मुसीबत आई? कितने लंबे चेहरे बना लिए हैं? क्या हो गया? उन्होंने कहा, कुछ भी नहीं, हम स्वर्ग की चिंता में चिंतातुर हैं-स्वर्ग मिलेगा या नहीं?
      जीसस और आगे बढ़े। उन्हें एक वृक्ष के नीचे कुछ लोग बड़े प्रमुदित, बड़े शात, बड़े आनंदित बैठे मिले। उन्होंने कहा, तुम्हारे जीवन में कौन सी रसधार आ गई? तुम इतने शात, इतने प्रसन्न, इतने प्रफुल्लित क्यों हो? उन्होंने कहा, हमने स्वर्ग और नर्क का खयाल छोड़ दिया।
      स्वर्ग है सुख, जो तुम पाना चाहते हो। नर्क है दुख, जिससे तुम बचना चाहते हो। दोनों भविष्य हैं। दोनों कामना में हैं। दोनों मार के फंदे हैं। जब तुम दोनों को ही छोड़ देते हो, अभी और यहीं जिसे मोक्ष कहो, निर्वाण कहो, वह उपलब्ध हो जाता है।
      निर्वाण तुम्हारा स्वभाव है। तुम जो हो उसमें ही तुम उसे पाओगे। होने की दौड़ में तुम उससे चूकते चले जाओगे।
      सुलगन। और जीना यह कोई जीने में जीना है
      लगा दे आग अपने दिल में दीवाने धुआ कब तक
      यह जो होने की आकांक्षा है, इससे आग नहीं पैदा होती, सिर्फ धुआ ही धुआ पैदा होता है। बुद्ध का वचन है कि वासना से भरा चित्त गीली लकड़ी की भांति है। उसमें आग लगाओ तो लपट नहीं निकलती, धुआ ही धुआ निकलता है। लकड़ी जब सूखी होती है तब उससे लपट निकलती है। जब तक वासना है तुम्हारी समझ में, तुम्हारे जीवन में आग न होगी। तुम्हारे जीवन में रोशनी और प्रकाश न होगा। धुआ ही धुआ होगा। अपने ही धुएं से तुम्हारी आंखें खराब हुई जा रही हैं। अपने ही धुएं से तुम देखने में असमर्थ हुए जा रहे हो, अंधे हुए जा रहे हो। अपने ही धुएं से तुम्हारी आंखें आंसुओ से भरी हैं, और जीवन का सत्य तुम्हें दिखाई नहीं पड़ता है।
      सुलगना और जीना यह कोई जीने में जीना है
      लगा दे आग अपने दिल में दीवाने धुआ कब तक
      लेकिन धुआ तब तक उठेगा ही जब तक कोई भी वासना का गीलापन तुम में रह गया है। लकड़ी जब तक गीली है, धुआ उठेगा। लकड़ी से धुआ नहीं उठता। गीलेपन से धुआ उठता है। लकड़ी में छिपे जल से धुआ उठता है। तुमसे धुआ नहीं उठ रहा है। तुम्हारे भीतर जो वासना की आर्द्रता है, गीलापन है, उससे धुआ उठ रहा है।
      त्यागी बुद्ध ने उसको कहा है जो सूखी लकड़ी की भाति है। जिसने वासना का सारा खयाल छोड़ दिया।
      'जिसका निग्रह करना बहुत कठिन है और जो बहुत तरल है, हल्के- स्वभाव का है और जो जहा चाहे वहा झट चला जाता है, ऐसे चित्त का दमन करना श्रेष्ठ है। दमन किया हुआ चित्त सुखदायक होता है।'
      दमन शब्द को ठीक से समझ लेना। उस दिन इसके अर्थ बहुत अलग थे जब बुद्ध ने इसका उपयोग किया था। अब अर्थ बहुत अलग हैं। फ्रायड के बाद दमन शब्द के अर्थ बिलकुल दूसरे हो गए हैं। भाषा वही नहीं रह जाती, रोज बदल जाती है। भाषा तो प्रयोग पर निर्भर करती है।
      बुद्ध के समय में, पतंजलि के समय में दमन का अर्थ बड़ा और था। दमन का अर्थ था, मन में, जीवन में, तुम्हारे अंतर्तम में, अगर तुम क्रोध कर रहे हो या तुम अशात हो, बेचैन हो, तो तुम एक विशिष्ट मात्रा की ऊर्जा नष्ट कर रहे हो। स्वभावत: जब तुम क्रोध करोगे, थकोगे; क्योंकि ऊर्जा नष्ट होगी; जब तुम कामवासना से भरोगे, तब भी ऊर्जा नष्ट होगी। जब तुम उदास होओगे, दुखी होओगे, तब भी ऊर्जा नाश होगी।
      एक बड़ी हैरानी की बात है कि सिर्फ शाति के क्षणों में ऊर्जा नष्ट नहीं होती, और आनंद के क्षणों में ऊर्जा बढ़ती है। नष्ट होना तो दूर, विकसित होती है। प्रमुदित
होती है। इसलिए बुद्ध कहते हैं, अप्रमाद में प्रमुदित होओ। दुख में घटती है। शाति में थिर रहती है। आनंद में बढ़ती है। और जब भी तुम कोई नकारात्मक, निषेधात्मक भाव में उलझते हो तब तुम्हारी ऊर्जा व्यर्थ जा रही है। तुममें छेद हो जाते हैं। जैसे घड़े में छेद हों और तुम उसमें पानी भरकर रख रहे हो; वह बहा जा रहा है!
बुद्ध या पतंजलि जब कहते हैं दमन-चित्त का दमन-तो वे यह नहीं कहते हैं कि चित्त में क्रोध को दबाना है। वे यह कहते हैं कि चित्त में जिन छिद्रों से ऊर्जा बहती है उन छिद्रों को बंद करना है। और जो ऊर्जा क्रोध में संलग्न होती है, उस ऊर्जा को जीवन की विधायक दिशाओं में संलग्न करना है।
इसे कभी खयाल कर के देखो। तुम्हारे मन में क्रोध उठा है। किसी ने गाली दे दी, या किसी ने अपमान कर दिया, या घर में किसी ने तुम्हारी कोई बहुमूल्य चीज तोड़ दी और तुम क्रोधित हो गए हो। एक काम करो। जाकर, घर के बाहर बगीचे में कुदाली लेकर एक दो फिट का गड्डा खोद डालो। और रू- बड़े हैरान होओगे कि गड्डा खोदते-खोदते क्रोध तिरोहित हो गया। क्या हुआ? जो क्रोध तुम्हारे हाथों में आ गया था, जो किसी को मारने को उत्सुक हो गया था, वह ऊर्जा उपयोग कर ली गई। या घर के दौड़कर तीन चक्कर लगा आओ। और तुम पाओगे कि लौटकर तुम हल्के हो गए। वह जो क्रोध उठा था, जा चुका।
यह तो क्रोध का रूपांतरण हुआ। इसको ही बुद्ध और महावीर और पतंजलि ने दमन कहा है। फ्रायड ने दमन कहा है-तुम्हारे भीतर क्रोध उठा, उसको भीतर दबा लो, प्रगट मत करो। तो खतरनाक है। तो बहुत खतरनाक है। उससे तो बेहतर है तुम प्रगट कर दो। क्योंकि क्रोध अगर भीतर रह जाएगा, नासूर बनेगा। नासूर अगर सम्हालते रहे, सम्हालते रहे, सेते रहे, तो आज नहीं कल कैंसर हो जाएगा।
जितनी मनुष्यता सभ्य होती चली जाती है, उतनी खतरनाक बीमारियों का फैलाव बढ़ता जाता है। कैंसर बड़ी नई बीमारी है। वह बहुत सभ्य आदमी को ही हो सकती है। जंगलों में रहने वाले लोगों को नहीं होती। आयुर्वेद में तो कुछ रोगों को राजरोग कहा गया है-वे सिर्फ राजाओं को ही होते थे। क्षयरोग को राजरोग कहा है। वह हर किसी को नहीं होता था। उसके लिए बहुत सभ्यता का तल चाहिए, बहुत सुसंस्कारित जीवन चाहिए, जहा तुम अपने भावावेशों को सुगमता से प्रगट न कर सको, जहां तुम्हें झूठे भाव प्रगट करने पड़े; जहां रोने की हालत हो वहां मुस्कुराना पड़े, और जहा गर्दन मिटा देने की, तोड़ देने की इच्छा हो रही थी, वहां धन्यवाद देना पड़े। तो तुम्हारे भीतर ये दबे हुए भाव धीरे-धीरे घाव बन जाएंगे।
फ्रायड का कहना बिलकुल सच है कि दमन खतरनाक है। लेकिन बुद्ध, महावीर और पतंजलि जिसको दमन कहते हैं, वह खतरनाक नहीं है। वे किसी और ही बात को दमन कहते हैं। वे कहते हैं दमन रूपांतरण को। निषेध को विधेयक में बदल देने को वे दमन कहते हैं। और उसी मन को वे कहते है सुख उपलब्ध होगा।

तथाता मे है क्रांति 'दमन किया हुआ चित्त सुखदायक होता है।
वह लक्षण है। जिसको फ्रायड दमन कहता है, वह चित्त तो बड़ा दुखदायी हो जाता है, वह तो बड़े ही दुख से भर जाता है। १
'दमन किया हुआ चित्त सुखदायक होता है।
तो ध्यान रखना, फ्रायड के अर्थों में दमन से बचना और बुद्ध के अर्थों में दमन को करना। क्रोध उठे तो तुम्हारे भीतर एक ऊर्जा उठी है, उसका कुछ उपयोग करो अन्यथा वह घातक हो जाएगी। अगर तुम दूसरे के ऊपर क्रोध को फेंकोगे तो दूसरे को नुकसान होगा; और क्रोध और क्रोध लाता है। वैर से वैर मिटता नहीं। उसका कोई अंत नहीं है। वह सिलसिला अंतहीन है। अगर तुम क्रोध को भीतर दबाओगे तो तुम्हारे भीतर घाव हो जाएगा, वह घाव भी खतरनाक है। वह तुम्हें रुग्ण कर देगा। तुम्हारे जीवन की खुशी खो जाएगी।
तो न तो दूसरे पर क्रोध फेंको, न अपने भीतर क्रोध को दबाओ, क्रोध को रूपांतरित करो। घृणा उठे, क्रोध उठे, ईर्ष्या उठे, इन शक्तियों का सदुपयोग करो। मार्ग के पत्थर भी, बुद्धिमान व्यक्ति मार्ग की सीढ़ियां बना लेते हैं। और तब तुम बड़े सुख को उपलब्ध होओगे। दो कारण से। एक तो क्रोध करके जो दुख उत्पन्न होता, वह नहीं होगा। क्योंकि तुमने किसी को गाली दे दी इससे कुछ सिलसिला अंत नहीं हो गया। वह दूसरा आदमी फिर गाली देने की प्रतीक्षा करेगा। अब उसके ऊपर क्रोध घिरा है, वह भी तो क्रोध करेगा। अगर तुमने क्रोध को दबा लिया तो तुम्हारे भीतर के स्रोत विषाक्त हो जाते हैं। क्रोध जहर है। तुम्हारे जीवन का सुख धीरे-धीरे समाप्त हो जाता है। तुम फिर प्रसन्न नहीं हो सकते। प्रसन्नता खो ही जाती है। तुम हसोगे भी तो झूठ। ओंठों पर रहेगी हंसी; तुम्हारे प्राण तक उसका कंपन न पहुंचेगा। तुम्हारे हृदय से न उठेगी। तुम्हारी आंखें कुछ और कहेंगी, तुम्हारे ओंठ कुछ और कहेंगे। तुम धीरे-धीरे टुकड़े-टुकड़े में टूट जाओगे।
तो न तो दूसरे पर क्रोध करने से तुम सुखी हो सकते हो, क्योंकि कोई दूसरे को दुखी करके कब सुखी हो पाया! और न तुम अपने भीतर क्रोध को दबाकर सुखी हो सकते हो, क्योंकि वह क्रोध उबलने के लिए तैयार होगा, इकट्ठा होगा। और रोज-रोज तुम क्रोध को इकट्ठा करते चले जाओगे, भीतर भयंकर उत्पात हो जाएगा। किसी भी दिन तुमसे पागलपन प्रगट हो सकता है। किसी भी दिन तुम विक्षिप्त हो सकते हो। एक सीमा तक तुम बैठे रहोगे अपने ज्वालामुखी पर, लेकिन विस्फोट किसी न किसी दिन होगा। दोनों ही खतरनाक हैं।
रूपातरण चाहिए। क्रोध की ऊर्जा को विधेय में लगा दो। कुछ न करते बन सके, दौड़ आओ। क्रोध उठा है, नाच लो। तुम थोड़ा प्रयोग करके देखो। जब क्रोध उठे तो नाचकर देखो। जब क्रोध उठे तो एक गीत गाकर देखो। जब क्रोध उठे तो घूमने निकल जाओ। जब क्रोध उठे तो किसी काम में लग जाओ, खाली मत बैठो। क्योंकि जो ऊर्जा है उसका उपयोग कर लो। और तुम पाओगे कि जल्दी ही तुम्हें एक सूत्र मिल गया, एक कुंजी मिल गई-कि जीवन के सभी निषेधात्मक भाव उपयोग किए जा सकते हैं। राह के पत्थर सीढ़ियां बन सकते हैं।
      ज़मीनों-आसमां से तंग है तो छोड़ दे उनको
      मगर पहले नए पैदा जमीन-आसमां कर ले
      ध्यान रखना, जो गलत है उसे छोड़ने से पहले सही को पैदा कर लेना जरूरी है। नहीं तो गलत की जो ऊर्जा मुक्त होगी, वह कहां जाएगी?
      तुम मेरे पास आते हो कि क्रोध हमें छोड़ना है। लेकिन क्रोध में बहुत ऊर्जा सन्निविष्ट है। तुमने बहुत सी शक्ति क्रोध में लगाई है, काफी इन्वेस्ट किया है क्रोध में। अगर आज क्रोध एकदम बंद हो जाएगा तो तुम्हारी ऊर्जा जो क्रोध से मुक्त होगी, उसका तुम क्या करोगे? वह तुम्हारे ऊपर बोझिल हो जाएगी। वह भार हो जाएगी। तुम्हारी छाती पर पत्थर हो जाएगी।
      जमीन-आसमां से तंग है तो छोड़ दे उनको
      और जिस चीज से भी तंग हो, उसे छोड़ना ही है। लेकिन एक बात ध्यान रखनी है-
      मगर पहले नए पैदा जमीन-आसमां कर ले
      अगर ये जमीन और आसमां छोड़ने हैं तो दूसरे जमीन और आसमां भीतर पैदा कर ले, फिर इनको छोड़ देना। पैदा करना पहले जरूरी है। गलत को छोड़ने से ज्यादा, अंधेरे से लड़ने की बजाय, रोशनी को जला लेना जरूरी है।
      गलत से मत लड़ो, ठीक में जागो। सम्यक को उठाओ। ताकि तुम्हारी ऊर्जा जो गलत से मुक्त हो, वह सम्यक की धारा में प्रवाहित हो जाए। अन्यथा उसकी बाढ़ तुम्हें डुबा देगी। उसकी बाढ़ के लिए तुम पहले से नहरें बना लो। ताकि उनको तुम अपने जीवन के खेतों तक पहुंचा सको; ताकि तुम्हारे दबे बीज अंकुरित हो सकें; ताकि तुम जीवन की फसल काट सको।
      'दूरगामी, अकेला विचरने वाला, अशरीरी, सूक्ष्म और गूढ रहस्य, इस चित्त को जो संयम करते हैं, वे ही मार के बंधन से मुक्त होते हैं।'
      बंधन से मुका होने की उतनी चेष्टा मत करना, जितना संयम। संयम शब्द भी समझने जैसा है। इसका अर्थ कंट्रोल नहीं होता, नियंत्रण नहीं होता। संयम का अर्थ होता है, संतुलन।
      यह शब्द विकृत हो गया है। गलत लोगों ने बहुत दिन तक इसकी गलत व्याख्या की है। तुम जो आदमी नियंत्रण करता है उसको संयमी कहते हो। मैं उसे संयमी कहता हूं जो संतुलन करता है। इन दोनों में बड़ा फर्क है। नियंत्रण करने वाला दमन करता है, फ्रायड के अर्थों में। संतुलन करने वाला दमन करता है, बुद्ध के अर्थों में। संतुलन करने वाले को नियंत्रण नहीं करना पड़ता। नियंत्रण तो उसी को करना
पड़ता है जिसके जीवन में संतुलन नहीं है। जिसके जीवन में डर है, कि अगर उसने संतुलन न रखा, नियंत्रण न रखा, तो चीजें हाथ के बाहर हो जाएंगी। जो डरा-डरा जीता है।
      तुम्हारे साधु-संन्यासी ऐसे ही जी रहे हैं-डरे-डरे, कंपे-कंपे, पूरे वक्त घबड़ाए हुए कि कहीं कोई भूल न हो जाए। यह तो भूल से बहुत ज्यादा संबंध हो गया। यह तो भूल से बड़ा भय हो गया। कहीं भूल न हो जाए!
      जीवन की दिशा ठीक करने की तरफ होनी चाहिए, भूल से बचने की तरफ नहीं। ध्यान रखना, जो आदमी भूल से ही बच रहा है वह कहीं भी न पहुंच पाएगा। क्योंकि यह जो भूल से बहुत डर गया है, वह चल ही न सकेगा। उसे डर ही लगा रहेगा, कही भूल न हो जाए। कहीं ऐसा न हो कि प्रेम में ईर्ष्या पैदा हो जाए तो वह प्रेम ही न करेगा; क्योंकि ईर्ष्या का भय है। किसी से संबंध न बनाएगा कि कहीं संबंध में कहीं शत्रुता न आ जाए। शत्रुता का भय है; तो मित्रता से वंचित रह जाएगा। और अगर तुम शत्रु न भी बनाए और मित्र भी न बना सके, तो तुम्हारा जीवन एक रेगिस्तान होगा। तुम ईर्ष्या से बच गए, लेकिन साथ ही साथ प्रेम भी न कर पाए, तो तुम्हारा जीवन एक सूखा, रसहीन मरुस्थल होगा, जिसमें कोई मरूद्यान भी न होगा, जिसमें छाया की कोई जगह न होगी।
      ईर्ष्या से बचना है, प्रेम से नहीं बच जाना है। इसलिए ध्यान प्रेम पर रखना। ईर्ष्या से मत डरे रहना, भूल से मत डरना। दुनिया में एक ही भूल है, और वह भूल से डरना है। क्योंकि वैसा आदमी फिर चल ही नहीं पाता, उठ ही नहीं पाता। वह घबड़ाकर बैठ जाता है। तो नियंत्रण तो कर लेता है, लेकिन जीवन के सत्य को उपलब्ध नहीं हो पाता। मुर्दा हो जाता है। महाजीवन को उपलब्ध नहीं होता। संसार से तुम भाग सकते हो, लेकिन वह भागना अगर नियंत्रण का है तो तुम सांसारिक से भी नीचे उतर जाओगे। तुम्हारे जीवन में मरघट की शाति होगी, शिवालय की नहीं। तुम्हारे जीवन में रिक्तता का शून्य होगा, ध्यान का नहीं।
      और खालीपन में और ध्यान में बड़ा फर्क है। मन की अनुपस्थिति में, एबसेन्स ऑफ माइंड में, और मन के अनुपस्थित हो जाने में बड़ा फर्क है।
      तो अगर तुम पीछे सिकुड़ गए, डर गए, तो यह हो सकता है कि तुम्हारे जीवन में गलतियां न हों, लेकिन ठीक होना भी बंद हो जाएगा। यह बड़ा महंगा सौदा हुआ। गलतियों के पीछे ठीक को गंवा दिया। यह तो ऐसा हुआ, जैसे सोने में कहीं कड़ा-कर्कट न हो इस डर से सोने को भी फेंक दिया। कूड़ा-कर्कट फेंकना जरूरी है, सोने को शुद्ध करना जरूरी है। लेकिन कूड़े-कर्कट का भय बहुत न समा जाए। संयम का अर्थ है, जीवन संतुलित हो। संतुलन का अर्थ है, जीवन बोधपूर्वक हो, अप्रमाद का हो। तुम एक-एक कदम होशपूर्वक उठाओ, गिरने का डर मत रखो। गिरना भी पड़े तो घबड़ाने की बात नहीं है। सम्हलने की क्षमता पैदा करो। गिर पड़ो तो उठने की क्षमता पैदा करो। भूल हो जाए तो ठीक करने का बोध पैदा करो। लेकिन चलने से मत डर जाना। किनारे उतरकर बैठ मत जाना कि रास्ते पर कांटे भी हैं, भूलें भी हैं, लुटेरे भी हैं-लूट लिए जाएंगे, भटक जाएंगे, इससे तो चलना ही ठीक नहीं।
      भारत में यही हुआ। बहुत से लोग रास्ते के किनारे उतरकर बैठ गए; भारत मर गया। धार्मिक नहीं हुआ, सिर्फ मुर्दा हो गया। इससे तो पश्चिम के लोग बेहतर हैं। भूलें उन्होंने बहुत कीं-भूलों से भी क्या डरना! लेकिन जिंदा हैं। और जिंदा हैं तो कभी ठीक भी कर सकते हैं। मुर्दा हो जाना धार्मिक हो जाना नहीं है। धार्मिक हो जाना सोने से कचरे को जला डालना है। लेकिन कचरे के साथ, कचरे के डर से, सोने को फेंक देना नहीं।
      तो पश्चिम के धार्मिक होने की संभावना है। लेकिन पूरब बिलकुल ही जड़ हो गया है। सत्य के साथ भी हमने सौभाग्य नहीं उपलब्ध किया। सत्य हमें बहुत बार उपलब्ध हुआ, बहुत बुद्धों से हमें उपलब्ध हुआ, लेकिन हमने सत्य के जो अर्थ निकाले उन्होंने हमें संकुचित कर दिया, उन्होंने हमें दायरे बना दिए-मुक्त नहीं किया, असीमा नहीं दी। असीम की हमने बात की उपनिषदों से लेकर आज तक, लेकिन हर चीज ने सीमा दे दी।
      संयम को नियंत्रण मत समझना। संयम को होश समझना।
      'जिसका चित्त अस्थिर है, जो सद्धर्म को नहीं जानता है और जिसकी श्रद्धा डावाडोल है, उसकी प्रज्ञा परिपूर्ण नहीं हो सकती।'
      अब मुझको है करार तो सबको करार है
      दिल क्या ठहर गया कि जमाना ठहर गया
      अब मुझे चैन मिल गई, तो सबको चैन मिल गई।
      तुम्हारा संसार तुम्हारा ही प्रक्षेपण है। अगर तुम बेचैन हो, तो सारा संसार तुम्हें चारों तरफ बेचैन मालूम पड़ता है। अगर तुमने शराब पी ली है और तुम्हारे पैर डगमगाते हैं, तो तुम्हें रास्ते के किनारे खड़े मकान भी डगमगाते दिखाई पड़ते हैं। रास्ते पर जो भी तुम्हें दिखाई पड़ता है, वह डगमगाता दिखाई पड़ता है। जिसका चित्त अस्थिर है, वह जिस संसार में जीएगा वह क्षणभंगुर होगा, चंचल होगा। संसार चंचल नहीं है। तुम्हारे मन के डांवाडोल होने के कारण सब डांवाडोल दिखाई पड़ता है।
      अब मुझको है करार तो सबको करार है
      दिल क्या ठहर गया कि जमाना ठहर गया
      तुम ठहरे कि सब ठहर गया। तुम रुके कि सब रुक गया। तुम चले कि सब चल पड़ता है। तुम्हारा संसार तुम्हारा ही फैलाव है। तुम ही हो तुम्हारे संसार। जिसका चित्त अस्थिर है, उसका सब अस्थिर होगा। जब भीतर की ज्योति ही डगमगा रही है तो तुम्हें सब डगमगाता दिखाई पड़ेगा।
      कभी तुमने खयाल किया, घर में दीया जल रहा हो और उसकी ज्योति डगमगाती हो, तो सब तरफ छायाएं डगमगाती हैं, दीवाल पर बनते हुए बिंब डगमगाते हैं, सब चीजें डगमगाती हैं। छाया ठहर जाएगी, अगर ज्योति ठहर जाए। और छाया को ठहराने की कोशिश में मत लग जाना। छाया को कोई नहीं ठहरा सकता। तुम कृपा करके ज्योति को ही ठहराना।
      लोग संसार से मुक्त होने में लग जाते हैं। कहते हैं, क्षणभंगुर है, चंचल है, आज है कल नहीं रहेगा। यह सब तुम्हारे भीतर के कारण है। तुम्हारा मन डांवाडोल है। इसलिए सारा संसार डांवाडोल है। तुम ठहरे कि सब ठहरा। तुम ठहरे कि जमाना ठहर गया।
      'जो सद्धर्म को नहीं जानता है, जिसकी श्रद्धा डावाडोल है।
अब यह बड़े मजे की बात है। बुद्ध कह रहे हैं, जो सद्धर्म को नहीं जानता उसकी ही श्रद्धा डांवाडोल है। सारे धर्मों ने श्रद्धा को पहले रखा है, बुद्ध ने ज्ञान को पहले रखा है। वे कहते हैं, सद्धर्म को जानोगे तो श्रद्धा ठहरेगी। और धर्मों ने कहा है, श्रद्धा करोगे तो सद्धर्म को जानोगे। और धर्मों ने कहा है, मानोगे तो जानोगे। बुद्ध ने कहा है, जानोगे नहीं तो मानोगे कैसे? जानोगे, तो ही मानोगे।
      बुद्ध की बात इस सदी के लिए बहुत काम की हो सकती है। यह सदी बड़ी संदेह से भरी है। इसलिए श्रद्धा की तो बात ही करनी फिजूल है। जो कर सकता है, उससे कहने की कोई जरूरत नहीं। जो नहीं कर सकते, उनसे कहना बार-बार कि श्रद्धा करो, व्यर्थ है। वे नहीं कर सकते, वे क्या करें? तुम श्रद्धा की बात करो तो उस पर भी उन्हें शक आता है। शक आ गया तो आ गया। हटाने का उपाय नहीं। और शक आ चुका है। यह सदी संदेह की सदी है।
      इसलिए बुद्ध का नाम इस सदी में जितना मूल्यवान मालूम होता है, किसी का भी नहीं। उसका कारण यही है। जीसस या कृष्ण बहुत दूर मालूम पड़ते हैं। क्योंकि श्रद्धा से शुरुआत है। श्रद्धा ही नहीं जमती, तो शुरुआत ही नहीं होती। पहला कदम ही नहीं उठता। बुद्ध कहते हैं, श्रद्धा की फिकर छोड़ो, जान लो सद्धर्म को, तथ्य को; और जानने का उपाय है-थिर हो जाओ। बुद्ध ने यह कहा है कि ध्यान के लिए श्रद्धा आवश्यक नहीं है। ध्यान तो वैज्ञानिक प्रक्रिया है। इसलिए तुम ईश्वर को मानते हो, नहीं मानते हो, कुछ प्रयोजन नहीं। बुद्ध कहते हैं, तुम ध्यान कर सकते हो।
      ध्यान तुम करोगे, तुम भीतर थिर होने लगोगे; उस थिरता के लिए किसी ईश्वर का आकाश में होना आवश्यक ही नहीं है। ईश्वर ने संसार बनाया या नही बनाया, इससे उस ध्यान के थिर होने का कोई लेना-देना नहीं है। ध्यान का थिर होना तो वैसे ही है जैसे आक्सीजन और हाइड्रोजन को मिलाओ और पानी बन जाए। तो कोई वैज्ञानिक यह नहीं कहता कि पहले ईश्वर को मानो तब पानी बनेगा। ध्यान तो एक वैज्ञानिक प्रयोग है। तुम भीतर थिर होने की कला को सीख जाओ, सद्धर्म से परिचय होगा, परिचय से श्रद्धा होगी।
      इसलिए बुद्ध जितने करीब हैं इस सदी के और कोई भी नहीं है। क्योंकि यह सदी संदेह की है; और बुद्ध ने श्रद्धा पर जोर नहीं दिया, बोध पर जोर दिया है। 'जो सद्धर्म को नहीं जानता और जिसकी श्रद्धा डावाडोल है', होगी ही.? 'उसकी प्रज्ञा परिपूर्ण नहीं हो सकती।
      बुद्ध शर्तें नहीं दे रहे हैं, बुद्ध केवल तथ्य दे रहे हैं। बुद्ध कहते हैं, ये तथ्य हैं। सद्धर्म का बोध हो, श्रद्धा होगी। श्रद्धा हो, परिपूर्णता होगी। प्रज्ञा परिपूर्ण होगी। ऐसा न हो, तो प्रज्ञा परिपूर्ण न होगी। और जब तक प्रज्ञा परिपूर्ण न हो, जब तक तुम्हारा जानना परिपूर्ण न हो, तुम्हारा जीवन परिपूर्ण नहीं हो सकता।
जानने में ही छिपे हैं सारे स्रोत। क्योंकि मूलत: तुम ज्ञान हो। ज्ञान की शक्ति हो। मूलत: तुम बोध हो। इसी से तो हमने बुद्ध को बुद्ध कहा। बोध के कारण। नाम तो उनका गौतम सिद्धार्थ था। लेकिन जब वे परम प्रज्ञा को और बोध को उपलब्ध हुए, तो हमने उन्हें बुद्ध कहा। तुम्हारे भीतर भी बोध उतना ही छिपा है जितना उनके भीतर था। वह जग जाए तो तुम्हारे भीतर भी बुद्धत्व का आविर्भाव होगा। और जब तक यह न हो, तब तक चैन मत लेना। तब तक सब चैन झूठी है। सांत्वना मत कर लेना। तब तक सांत्वना संतोष नहीं है। तब तक तुम मार्ग में ही रुक गए। मंजिल के पहले ही किसी पड़ाव को मंजिल समझ लिया।
      'जिसका चित्त अस्थिर है, जो सद्धर्म को नहीं जानता और जिसकी श्रद्धा डांवाडोल है, उसकी प्रज्ञा परिपूर्ण नहीं हो सकती।
और प्रज्ञा परिपूर्ण न हो, तो तुम अपूर्ण रहोगे। और तुम अपूर्ण रहो, तो अशांति रहेगी। और तुम अशात रहो, तो दो ही उपाय हैं। एक, कि तुम शाति को खोजने निकलो। और दो, कि तुम अशांति को समझो।
      अशांति को समझना बुद्ध का उपाय है। जिसने अशांति को समझ लिया, वह शात हो जाता है। और जो शाति की तलाश में निकल गया, वह और नई-नई अशांतियां मोल ले लेता है।
      जीवन को जीने के दो ढंग हैं। एक मालिक का और एक गुलाम का। गुलाम का ढंग भी कोई ढंग है! जीना हो तो मालिक होकर ही जीना। अन्यथा इस जीवन से मर जाना बेहतर है। कम से कम मर जाना सच तो होगा। यह जीवन तो बिलकुल झूठा है। सपना है। गुलाम के ढंग से तुमने जीकर देख लिया, कुछ पाया नही। यद्यपि पाने ही पाने की तलाश रही। अब मालिक के ढंग से जीना देख लो। बस शास्त्र बदलना होगा, सूत्र बदलना होगा। इतना ही फर्क करना होगा। अब तक कल के लिए जीते थे, अब आज ही जीयो। अब तक कुछ होने के लिए जीते थे, अब जो हो वैसे ही जीयो। अब तक मूर्च्छा में जीते थे, अब जागकर जीयो, होश से जीयो।
      और ध्यान रखना, प्रत्येक कदम होश का बुद्धत्व को करीब लाता है। प्रत्येक कदम होश का तुम्हारे भीतर बुद्धत्व के झरनों को सक्रिय करता है। मेघ किसी भी क्षण बरस सकता है। तुम जरा संयोजन बदलो, और सब तुम्हारे पास है, कुछ जोड़ना नहीं है। और कुछ तुम्हारे पास ऐसा नहीं है जिसे हटाना है। वीणा के तार ढीले हैं, टूटे हैं, जोड़ना है, व्यवस्थित कर देना है। अंगुलियां भी तुम्हारे पास हैं, वीणा भी तुम्हारे पास है। सिर्फ अंगुलियों का वीणा पर, वीणा के तारों पर खेलने का संयोजन करना है। किसी भी क्षण संयम बैठ जाएगा, संगीत उत्पन्न हो सकता है।

आज इतना ही।





1 टिप्पणी: