पहला
प्रश्न :
होश
हो तो दूसरा
सदा
कल्याणकारी
है। क्या ऐसा
ही आप बुद्ध
पुरुष कहते
हैं?
होश हो
तो दूसरा न तो कल्याणकारी
है और न
अकल्याणकारी; होश
हो तो तुम सभी
जगह से अपने
कल्याण को
खींच लेते हो।
होश न हो तो
तुम सभी जगह
से अपने
अकल्याण को खींच
लेते हो। बोध
हो तो तुम
जहां होते हो,
वहीं
स्वर्ग
निर्मित होने
लगता है—तुम्हारे
बोध के कारण।
बोध न हो तो
तुम जहां
होओगे, वहां
नर्क की
दुर्गंध उठने
लगेगी—तुम्हारे
ही कारण।
ऐसा
समझो कि
मूर्च्छित—मूर्च्छित
जीना नर्क का
निर्माण है; जागकर
जीना स्वर्ग
का। जागते हुए
किसी ने कभी
कोई दुख नहीं
पाया। सोते
हुए कभी किसी
ने कोई सुख
नही पाया।
सोते हुए
ज्यादा से
ज्यादा सुख की
आशा हो सकती
है, सुख
कभी मिलता
नहीं। सुख की
आशा में तुम
बहुत दुख उठा
सकते हो भला, लेकिन सुख
कभी मिलता
नहीं। जागकर
जो मिलता है, उसी का नाम
सुख है।
दूसरे
से कोई संबंध
ही नहीं है।
अगर तुम ठीक
से समझो तो
दूसरा है ही
नहीं, तुम ही
हो। दूसरे के
संबंध में जो
तुम्हारी
धारणा है, वह
भी तुम्हारी
धारणा है।
दूसरे को
मित्र मान
लेते हो, मित्र
हो जाता है; शत्रु मान
लेते हो, शत्रु
हो जाता है।
तुम्हारी
मान्यता ही.।
और
अपनी
मान्यताओं को
गिरा देना, अपनी
मान्यताओं से
मुक्त। हो
जाना, संसार
से मुक्त हो
जाना है।
संसार बाहर
नहीं है, तुम्हारे
देखने के ढंग
में है।
मैंने
सुना है—
एक
दिन बैठा
समुंदर तीर पर
सुन
रहा था
बुलबुले की
मैं कथा
एक
कागज की दिखी
किश्ती तभी
थी
खड़ी जिसमें
पहाड़ों की
व्यथा
बोझ
इतना धर मुझे
अचरज हुआ
चल
रही है किस
तरह यह धार
में
हंस
कहा उसने, चलाती
चाह है
आदमी
चलता नहीं
संसार में
चाह
खींचे लिए
जाती है। तुम
दुख में हो, तुम
दुख में ही
जीते हो, चाह
कहती है, कल
सुबह सूरज
उगेगा। थोड़ी
रात और है, गुजार
दो। फिर कल
यही दोहरता है।
फिर तुम
अंधेरे में
जीते हो; चाह
कहती है, कल
सूरज उगेगा।
थोड़ी देर है, अंधेरे में
सूरज की आशा
में गुजार दो।
चाह
सपने देती है
और जीवन के
सत्य को तुम
झुठलाए चले
जाते हो।
तुम्हारे
स्वर्ग की आकांक्षा
तुम्हारे
मौजूदा नर्क
को भुलाने का
उपाय है। और
तुम्हारी आने
वाली सुबह कभी
न आएगी।
क्योंकि
तुम्हारी आने
वाली सुबह से
सत्य का कोई
संबंध नहीं है।
तुम्हारी आने
वाली सुबह में
और घनी रातों
का आना
निश्चित है, क्योंकि
चाह से भरा मन
और नए नर्क
बना लेगा।
करना
क्या है? जागकर
जो मौजूद है, उसे देखना
है। काश, तुम
मौजूद हो जाओ!
तो दुख अपने
आप विसर्जित
हो जाता है।
जो भी जागा, उसने दुख
नहीं पाया। जो
भी जागा, उसने
समझा कि दुख
मेरी ही
आकांक्षाओं
की छाया थी।
ऐसा
समझो कि तुम
धूप में खड़े
हो और
तुम्हारी छाया
बनती है; अब
तुम इस छाया
से भागते फिरो,
बच न पाओगे।
धूप में खड़े
हो, छाया
बनती ही रहेगी।
तुम किसी साए
में विश्राम
करो, छाया
खो जाएगी। तुम
किसी वृक्ष के
तले बैठ जाओ, छाया खो
जाएगी। धूप
में तो भागकर
भी भाग न सकते
थे; छाया
पीछा करेगी।
लेकिन साए में
बैठकर भी छाया
से मुक्ति हो
जाती है।
मूर्च्छा में
भाग— भागकर
तुम दुख से बच
न पाओगे, जागकर
बैठ भी जाओ तो
दुख से
छुटकारा हो
जाता है।
बुद्ध
बैठे हैं
बोधिवृक्ष के
तले;
दुख से
भागने का सवाल
ही न रहा, दुख
है ही नहीं।
उस छाया में
दुख का साया
खो गया है।
तुम भागे जा
रहे हों—धूप—ताप
से भरे, पसीने
से लथपथ, खून
को पसीना करते
हो पूरे जीवन,
हाथ में
लगता क्या है?
हाथ में आता
क्या है? आखिर
में हाथ खाली
के खाली रह
जाते है।
तुम्हारे ही
नहीं, सिकंदरों
के भी खाली के
खाली रह जाते
हैं। आखिर में
जिंदगीभर की
दौड़— धूप के
बाद मौत हाथ
लगती है।
रोज
तुम यह होते
भी देखते हो।
हर घड़ी कोई न
कोई मर रहा है।
हर घड़ी कोई न
कोई फूल
मुर्झा रहा है।
हर घड़ी कोई न
कोई वृक्ष
सूखा जा रहा
है। चारों तरफ
मौत ने तुम्हें
घेरा है।
अर्थी निकल
जाती है
तुम्हारे
सामने से, तुम
दो आंसू भी रो
लेते हो उसकी
सहानुभूति
में, पर
तुम्हें याद
नहीं आती कि
यह तुम्हारी
ही अर्थी की
खबर है। यह
मौत किसी और
की नहीं, यह
मौत तुम्हारे
ही पते पर आई
है। यह डाकिए
ने किसी और के
द्वार पर
दस्तक नहीं दी,
डाकिए ने
तुम्हारे ही
द्वार पर
दस्तक दी है।
हर
मरती हुई
अवस्था में हर
मृत्यु की
घटना में, तुम
अगर थोड़े
जागकर देखो तो
तुम पाओगे, तुम्हारे
जीवन का सार—निचोड़
क्या है? यही
कि थोड़ी देर—अबेर
मर जाओगे। यही
कि कदम चलते—चलते
रेंगते—रेंगते
मौत की मंजिल
पर पहुंच जाओगे।
यह
भी कोई
पहुंचना हुआ? यह
कोई बात हुई? यह जीवन तो
बड़ा बेसार हुआ।
यह जीवन तो
बड़ा बेरंग हुआ।
यह जीवन सच्चा
नहीं हो सकता।
इस जीवन को
कहीं तुम चूक
ही गए।
तुम्हारे पास
ठीक—ठीक को
देखने की आख
ही शायद नहीं
थी। तुमने गलत
देखा, वही
गलत तुम्हें
मृत्यु में ले
आया।
जिन्होंने
ठीक देखा, वे
अमृत में जाग
गए।
ठीक
देखने का अर्थ
है : जो मौजूद
हुए। मौजूद
होने की कला
का नाम ध्यान
है। और तुम
हजार कोशिशें
कर रहे हो, कैसे
अपने को भुला
दो। तुम्हारी
सारी चेष्टा
यही है, कैसे
अपने को भुला
दो। जितनी देर
तुमने अपने को
भुलाया, उतनी
देर ही गंवाई।
उतनी देर में
तो अमृत के
स्रोत खोजे जा
सकते थे। उतनी
देर में तो
भूमि की और
पर्तें तोड़ी
जा सकती थीं।
उतनी देर में
तो जीवन की
ऊर्जा और करीब
आ सकती थी। जल—स्रोत
करीब लाए जा
सकते थे।
लेकिन
आदमी का सारा
जाल भुलाने का
है। कभी गलत
ढंग से भुलाता
है,
कभी ठीक ढंग
से भुलाता है।
लेकिन अब
भुलाने में भी
क्या गलत और
ठीक? कभी
शराब पीकर
भुलाता है, कभी संगीत
सुनकर भुलाता
है। कभी
वेश्यालय में
भुला लेता है,
कभी मंदिर
के पूजा—पाठ
में।
यह
जो भूलने की
निरंतर
प्रक्रिया चल
रही है, इसे
तोड़ना होगा।
यह श्रृंखला
तुम्हारी
कब्र को तो
बनाएगी, तुम्हें
मिटा जाएगी।
भूलना नहीं है,
जागना है।
और
बड़े आश्चर्य
की बात है कि
अगर तुम्हें
यह खयाल आ जाए
तो दुख से
ज्यादा जगाने
वाली और क्या
सुविधा चाहते
हो?
दुख जगा
सकता है।
जिन्होंने
दुख को जागने
की कुंजी बना
ली, उन्होंने
दुख को तप कहा।
दुख का दंश ही
चला गया। दुख
की भी सीढ़ी
बना ली। दुख
पर भी चढ़ गए।
दुख पर भी
यात्रा कर ली।
दुःख की भी
सवारी हो गई।
अभी दुख तुम
पर सवार है।
तुम भूल ही गए
हो कि दुख
तुम्हारी
छाती पर बैठा
है, तुम्हारे
कंधों पर बैठा
है, तुम्हारे
सिर पर बैठा
है, तुम
उसके बोझ के
नीचे दबे जा
रहे हो।
बुद्ध
पुरुषों ने
दुख को भी
सवारी बना ली।
वे उस पर सवार
हो गए। क्या
मतलब है मेरा? मेरा
मतलब है कि
उन्होंने दुख
को जागने के
राह पर काम
में ले लिया।
और
ध्यान रखना, जब
तुम जिसे सुख
कहते हो, होता
है, तो
जागना
मुश्किल होता है।
क्योंकि सुख
में तो आदमी
सुख की शराब
में डूब जाता
है। सुख में
तो मजे से भूल
जाता है सब—अपने
को भी भूल
जाता है।
लेकिन दुख में
दुख का काटा
गड़ता है। पैर
में काटा गड़ता
हो, कैसे
भूलोगे? सिर
में दर्द हो, कैसे भूलोगे?
पीड़ा हो तो
भूलोगे कैसे?
पीड़ा हो तो
भूलने के लिए
बड़े उपाय करने
पड़ते हैं, तब
भूल पाओगे।
सुख में बिना
उपाय के भूल
जाते हो।
शायद
सुख की आकांक्षा
तुम इसीलिए
करते हो कि
बिना उपाय के
भूलने की
सुविधा मिल
जाती है। जब
तुम सुख नहीं
खोज पाते, तब
तुम विस्मरण
के दूसरे उपाय
खोजते हो।
लेकिन क्या
जिंदगी का सार—निचोड़
यही है कि तुम
अपने को भुला
दो? तो यह
तो हुए न हुए, बराबर हुआ।
जागना।
भुलाने की
चेष्टा बंद
करना। जब दुख
आए उसे देखना।
जब दुख आए तो
बैठकर उसका
निरीक्षण
करना। जब पैर
में कांटा
चुभे और पीड़ा
तुम्हारे
प्राणों में
लहराने लगे तो
भागना मत, उसका
सत्संग करना।
कहना, पीड़ा
आ गई, रुक!
हम तुझे भर आख
देख लें। उसके
चारों तरफ
परिक्रमा
करना, जैसे
मंदिर में
परिक्रमा
करते हो। उसे
हाथ में लेकर
देखना, जैसे
हीरे—जवाहरात
को देखते हो।
दुख
के पारखी बनो।
उसका
विश्लेषण करो—कैसे
आया?
कहा से आया?
क्यों आया?
और तुम दुख
का विश्लेषण
करते—करते ही
पाओगे, दुख
को देखते—देखते
ही पाओगे, एक
दूरी आ गई तुम
में और दुख
में। दुख कहीं
दूर पड़ा रह
गया—बड़े फासले
पर। अलंध्य
खाई है
तुम्हारे और
दुख के बीच
में।
चाह..
चाहत के सेतु
से जुड़े थे।
जब गौर से
देखते हो, चाहत
का सेतु गिर
जाता है।
क्योंकि जब तुम
परिपूर्ण रूप
से मौजूद होकर
देखते हो, तुम्हारे
भीतर कोई चाह
नहीं उठती।
क्योंकि जो
ऊर्जा जागरण
बनती है, वही
ऊर्जा चाह
बनती है। या
तो चाह बना लो,
या जाग बना
लो। दोनों एक
साथ नहीं होते।
चाह से भरे
आदमी में
जागरण नहीं
होता, जागरण
से भरे क्षण
में चाह नहीं होती।
ये दोनों एक
साथ होते ही
नहीं। यह जीवन
का
अंतर्निहित
विज्ञान है।
तो
जब भी तुम
जागोगे, तुम
अचानक पाओगे,
तुम चाह से
मुका हो गए।
एक क्षण को
तुम भी बुद्ध
हुए। एक क्षण
को तुमने भी
जिनत्व छुआ।
एक क्षण को
तुम भी उड़े
आकाश में। एक
क्षण को धरा
तुमसे भी छूटी।
एक क्षण को
गुरुत्वाकर्षण
का प्रभाव न
रहा। एक क्षण
को तुम पर भी
प्रसाद की
वर्षा हुई।
एक
क्षण को भी हो
जाए तो कुंजी
तो हाथ लग गई।
फिर तुम्हारे
हाथ में है।
फिर जितने पर
तौलने हों, तौलना।
फिर जितने दूर
की ऊंचाई भरनी
हो, उड़ान
भरनी हो, भरना।
एक बार
तुम्हें खयाल
में आ जाए।
अभी
तो जैसी दशा
है….।
साहित्य
कला पूजा नमाज
जंतर—मंतर
जप जोग— भोग
थे
सिर्फ बहाने
वे जिससे
आए
हमकी अपना न
ध्यान
साहित्य
भी,
कला भी,
पूजा
भी,
नमाज भी!
जंतर—मंतर
जप जोग— भोग
थे
सिर्फ बहाने
वे जिससे
आए
हमको अपना न
ध्यान
किसी
तरह अपने को
भूले रखें।
किसी तरह यह
याद न आए कि
मैं हूं। किसी
तरह व्यस्त
रहें, कहीं
उलझे रहें।
खाली होने में
डर लगता है।
खाली होने की
बजाय तुम
जिंदगी को
काटो से भरा ही
ज्यादा पसंद
करोगे। कम से
कम भरावट तो
रहती है। खाली
होने की बजाय
तुम दुखी होना
ही ज्यादा
पसंद कर रहे
हो। कम से कम
कुछ तो होता
है हाथ में—दुख
ही सही! खाली
होने की बजाय
तुम आंसू चुन
लोगे। कम से
कम आंखें भरी
तो हैं, डबडबाई
तो हैं, खाली
तो नहीं हैं।
खाली
से आदमी बहुत
डरता है। और
खाली हो जाना
परमात्मा का
घर है। इसलिए
बुद्ध ने
शून्य को
ध्यान कहा।
चाहे, ध्यान
को शून्यता
कहो, चाहे
शून्यता को
ध्यान कहो, वे एक ही
सिक्के के दो
पहलू हैं।
जागो
तो तुम बहुत
सी बातें
पाओगे। एक: कि
किसी ने
तुम्हें दुख
कभी दिया नहीं।
अचानक एक
मुक्ति का
अनुभव होगा।
किसी ने कभी
तुम्हें कोई दुख
नहीं दिया। और
किसी ने कभी
तुम्हें कोई
सुख नहीं दिया।
तुम मुक्त हो
गए। यह अपना
ही जाल था। यह
अपना ही खेल
था।
रात
के अंधेरे में
खुद ही कांटे
बो लेते थे, दिन
में उन पर
चलते थे और
तड़पते थे। सुख
की आकांक्षा
करते थे, जितनी
प्रगाढ़ करते
थे, उतने
ही पीड़ा के कांटे
गहरे हो जाते
थे। जितनी
पीड़ा गहरी
होती थी, उतनी
सुख की आकांक्षा
को और गहराना
पड़ता था।
क्योंकि इस
पीड़ा को
भुलाने के लिए
अब और भी बड़े
सुख की कल्पना,
बड़े स्वर्ग
बनाने पड़ते थे।
जिन
दिन तुम जागकर
देखोगे, यह
पूरा का पूरा
खेल ऐसा साफ
आर—पार, पारदर्शी
हो जाता है।
कुछ करना नहीं
होता। एक
मुस्कुराहट
तुम्हारे तन—प्राण
पर फैल जाती
है। तुम हंसते
हो सिर्फ; यह
जानकर कि यह
भी कैसा
पागलपन था! यह
कैसा खेल अपने
साथ खेला!
हालत
करीब—करीब
वैसी ही होती
है,
जैसी सुबह
जागकर सपने के
बाद होती है।
सपने में
कितने बेचैन
हो लिए, सपने
में कितने
दुखी हो लिए, सपने में
पाया कि पहाड़
छाती पर गिर
गया है। आख
खुलती है तो
पता चला, अपना
ही हाथ है।
जैसा
तुम्हारा
सपना है, ऐसी
ही तुम्हारी
जिंदगी है।
तुम जागे दिन
में भी सोए
हुए हो।
तुम्हारे
जागने का कोई
भरोसा नहीं है।
रात तो तुम
सोए हो पक्का,
तुम भी मान
लेते हो। जिस
दिन तुम मान
लोगे दिन में
भी कि सोए हो, उसी दिन
तुम्हारी
असली सुबह की
शुरुआत हो जाएगी।
आख खोलकर भी
तुम सपने ही
देख रहे हो।
क्योंकि
तुम्हारी आंखों
में आकांक्षाएं
भरी है।
आकाक्षाओं से
भरी आंखें
सपना ही देख
सकती हैं, सत्य
नहीं। आंखें खुली
हैं, लेकिन
तुम वह नहीं
देख रहे हो, जो है। तुम
वही देख रहे
हो, जो
होना चाहिए।
बस, इस
भेद को थोड़ा
समझ लो। जो है,
उसे देखना
है। जो होना
चाहिए, उसे
छोड़ना है। वह
है ही नहीं—होना
चाहिए। उस ना—कुछ
को छोड़ने में
तुम कितनी
अड़चन खड़ी कर
रहे हो, जो
है ही नहीं।
मैंने
सुना है, एक
गांव में
अदालत में एक
मुकदमा आया था।
दो मित्र थे
बड़े पुराने
मित्र थे, सिर—फुटव्वल
हो गई। जज ने
पूछा कि झगड़े
का कारण क्या
था? तो
दोनों थोड़े
बेचैन हुए।
फिर एक ने कहा
कि झगड़े का
कारण यह था कि
मेरे खेत में
इसने भैंसें
घुसा दीं।
खेत
कहां है? जज ने
पूछा।
उस
आदमी ने कंधे
बिचकाए।
भैंसें
कहां हैं?
वह
दूसरा आदमी
बोला कि सुनिए, पहले
पूरी बात सुन
लीजिए। हम
दोनों बैठें
थे नदी की रेत
पर—पुराने
दोस्त हैं—बातचीत
चलती थी।
मैंने इससे
कहा कि मैं
भैंसें
खरीदने की सोच
रहा हूं। यह
बोला कि मत
खरीदो; न खरीदो
तो अच्छा।
क्योंकि
मैंने ईख का
खेत लगाने की
सोची है। और
तुम भैंसें
खरीद लोगे, नाहक किसी
दिन झंझट हो
जाएगी। घुस
गयीं खेत में,
क्या करोगे?
मैं
बर्दाश्त न कर
सकूंगा। उस
दूसरे आदमी ने
कहा तो लगा
लिया तुमने
खेत! क्योंकि
भैंसें तो
मुझे खरीदनी
हैं। मत लगाओ
खेत। अब
भैंसों का
क्या भरोसा
भाई? भैंसें—भैंसें
हैं; किसी
दिन घुस भी
जाएंगी। तब
मैं कोई दिन—रात
भैंसों की
पूंछ पकड़कर तो
घूमता न
रहूंगा।
बात
बढ़ गई तो उसने
कहा,
तुमने भी
खरीद लीं
भैंसें! खेत
तो लगेगा ईख
का। यह लग गया
खेत। उसने
अपने डंडे से
रेत पर एक जगह
लकीर खींच दी और
कहा, यह
रहा खेत। और
दूसरे ने कहा
कि फिर मैंने
भी अपने डंडे
से दो भैंसें
उसमें घुसा
दीं, लकीरें
खींच दा कि ये
घुस गयीं
भैंसें। फिर
सिर—फुटव्वल
हो गई। न कोई
खेत है, न
कोई भैंस है।
तुमने
कभी गौर किया, ऐसी
कितनी सिर—फुटव्वल
तुम्हारे
भीतर नहीं
चलती है!
हंसना मत, कहानी
तुम्हारी है।
और किसी न
किसी दिन
अदालत की पकड़
में तुम आओगे।
उस अदालत को
लोग परमात्मा
कहते हैं।
किसी न किसी
दिन परमात्मा
की अदालत में
खड़े होओगे, तो तुम भी
ऐसी मुसीबत
में पड़ोगे कि
बता न पा पाओगे,
कौन से खेत
थे, कौन सी
भैंसें थीं।
सिकंदर को भी
कंधे उचकाने
पड़ेंगे।
क्योंकि सब
खेत काल्पनिक
थे और सब
भैंसें काल्पनिक
थीं। सब दोस्त
काल्पनिक थे,
सब दुश्मन
काल्पनिक थे।
कुछ हुआ न था।
आकाक्षाओं
में मुठभेड़ हो
गई थी।
वासनाएं लड़
गयीं थीं।
भविष्य की
योजनाओं में
संघर्ष हो गया
था। वर्तमान
में तो कुछ भी
न था, हाथ
तो खाली थे।
लेकिन
आदमी
आकांक्षाओं
से भरा जीता
है—तब तक, जब तक
कि थोड़ा जागकर
देखता नहीं।
थोड़ी आख के
किनारे से जरा
जागकर अपनी
जिंदगी को
देखो। थोड़ा
सही! तुम्हें
हंसी आए बिना
न रहेगी। जिंदगी
तुम्हें एक
मखौल मालूम
होगी, एक
मजाक मालूम
होगी। किसी ने
जैसे व्यंग
किया।
जागा
हुआ व्यक्ति
पहला तो अनुभव
यह करता है कि
यहां दुख और
सुख का कोई
कारण ही नहीं
है,
सब कल्पना
का जाल है। और
जैसे ही यह
समझ में आता
है, एक नया
आकाश भीतर
अपने द्वार
खोल देता है।
तो मै ही हूं; न कोई सुख है,
न कोई दुख
है। इस मैं की
प्रतीति, इस
स्वयं के बोध
में ही आनंद
है, शाति
है।
आनंद
न तो सुख है, न
दुख। आनंद
तुम्हारे सुख
का जोड़ नहीं
है। तुम आनंद
को गलत मत समझ
लेना।
तुम्हारे
सुखो का
संग्रह नहीं
है आनंद, तुम्हारे
सुखों की राशियां
नहीं है आनंद,
तुम्हारे
सुख से आनंद
का कोई संबंध
नहीं है। सुख
और दुख तो एक
ही साथ बंधे
हैं। हर सुख
के पीछे दुख
बंधा है, हर
दुख के पीछे
सुख बंधा है।
आनंद
निर्द्वंद्व
है; द्वैत
नहीं है वहा।
न कोई सुख है, न कोई दुख है।
ऐसी शाति है, जैसी तूफान
के बाद अनुभव
होती है। ऐसी
शून्यता है, जैसी मृत्यु
में अनुभव
होती है।
और
उस जागरण में
तुम्हें न तो
यह पता चलेगा
कि दूसरों ने
तुम्हारा
कल्याण किया; न
यह पता चलेगा
कि अकल्याण
किया। दूसरों
ने कुछ किया
ही नहीं। खेत
थे ही नहीं, जिसमें वे
भैंसें छोड़
देते। दूसरों
ने कुछ किया
ही नहीं। अब
और अगर तुम इस
जागरण में
गहरे जाओगे तो
पाओगे कि
दूसरा भी नहीं
है। वह भी
तुम्हारी
कल्पना का ही
हिस्सा था। वह
भी तुमने माना
था।
हम
अलग— थलग नहीं
हैं,
भिन्न—भिन्न
नहीं हैं, हम
एक ही महा
विस्तीर्ण
चेतना के भाग
हैं।
मैंने
सुना है, एक
केंचुआ कीचड़
में सरक रहा
था कि उसे
दूसरा केंचुआ
मिल गया। उसने
कहा, मैं
बड़े दिन से
तलाश में था।
अकेला—अकेला
ऊब गया हूं।
विवाह की आकांक्षा
है।
उस
दूसरे केंचुए
ने कहा, नासमझ!
मैं तेरा ही
दूसरा हिस्सा
हूं। केंचुए
के दोनों तरफ
मुंह होते हैं।
दोनों के मुंह
मिल गए थे। वह
एक ही केंचुआ
था, दो
नहीं हैं।
जब
भी तुमने किसी
से विवाह करना
चाहा, अपने से
ही करना चाहा
है। जब भी
तुमने किसी से
दोस्ती बनानी
चाही, अपने
से ही बनानी
चाही है। और
जब तुमने किसी
से शत्रुता
पाल ली हो, अपने
से ही पाल ली
है। चेतना
अदृश्य है।
लेकिन दूसरे
में हमारा ही
छोर है। हम
दूसरे के ही
छोर हैं। जीवन
गुंथा है।
जीवन एक है, बहुत नहीं
हैं, अनेक
नहीं हैं।
जागकर यह पता
चलता है।
तो
कैसा कल्याण!
कैसा अकल्याण!
कौन करेगा
कल्याण! कौन
करेगा
अकल्याण! तुम
यह मत सोचना
कि बुद्ध
पुरुष यह कहते
हैं कि होश हो
तो दूसरा सदा
कल्याणकारी
है। बुद्ध
पुरुष कहते
हैं,
होश हो तो
कल्याण ही
कल्याण है, अकल्याण
नहीं है।
तुम्हारे होश
के कारण, दूसरे
के कारण नहीं;
दूसरा तो है
ही नहीं। होश
में कहां
दूसरा? ये
सब बेहोशी की
बातें हैं।
शमा
है,
गुल भी है, बुलबुल भी, परवाना भी
रात
की रात ये सब
कुछ है, सहर
कुछ भी नहीं
बस, सब
रात की बातें
हैं, सुबह
कुछ भी नहीं।
ये बेहोशी की
बातें हैं।
शमा
है,
गुल है, बुलबुल
भी, परवाना
भी
रात
की रात ये सब
कुछ है, सहर
कुछ भी नहीं
जागृति
की सुबह में
रात के सपने
सब खो जाते हैं; उनमें
से कुछ भी बचता
नहीं। ऐसा
नहीं है कि
सुबह जागकर
तुम पाते हो
कि पचास
प्रतिशत सपना
तो झूठा था, पचास
प्रतिशत सही
था। ऐसा नहीं
है कि तुम
पाते हो दस
प्रतिशत सही
था, नब्बे
प्रतिशत झूठा
था। ऐसा भी
नहीं है कि
तुम पाते हो, कम से कम एक
प्रतिशत तो
सही था, निन्यानबे
प्रतिशत झूठा
था। सुबह तुम
पाते हो कि शत—प्रतिशत
सपना झूठा था।
सपने का अर्थ
ही यह है कि जो
शत—प्रतिशत
झूठा है।
जागकर
ऐसा नहीं लगता
कि कुछ भी जो
मूर्च्छा में
जाना था, उसमें
कुछ भी सच था; जागकर लगता
है, वह सभी
खो गया; वह
सभी झूठ था।
मूर्च्छा में
सत्य जाना ही
नहीं जा सकता—एक
प्रतिशत भी
नहीं।
आंख
बंद हो, होश
पर धुंध छाई
हो, अपना
ही पता न हो, दूसरे का
पता कहा? भीतर
जो मौजूद है, उससे ही
मिलन न हो रहा
हो; तो
बाहर जो मौजूद
है, उससे
मिलन कैसा? निकटतम जो
है, उस पर
भी हाथ नहीं
पड़ता है; तो
जो दूर फैला
है, जो दूर
अनंत तक विस्तीर्ण
है, उसको
कहां हम पकड़
पाएंगे?
कम
से कम अपने को
तो मुट्ठी में
ले लो। और जिस
दिन तुमने
अपने को
मुट्ठी में
लिया, दा
परमात्मा
मुट्ठी में आ
जाता है।
क्योंकि तुम
परमात्मा हो।
तुम उसके ही
फैलाव हो। एक
लहर भी पकड़
में आ गई तो
सागर हाथ में
आ गया।
दूसरा
प्रश्न :
नींद
में सपने नहीं
आते, पर
लगता है कि कई
दिनों से नहीं
सोई हूं। जरा
सी बाधा पर भी
शरीर जाग पड़ता
है, जैसे
कि जागी ही
होऊं। लेकिन
थकान का अनुभव
नहीं होता और
नींद का समय
सरकता मालूम
होता है।
कृपया बताएं
कि यह कैसी
स्थिति है?
शुभ है? मंगलकारी
है।
जैसे—जैसे
ध्यान की गहराई
आने लगेगी तो
रात में भी
तुम पाओगे कि
कोई तुम्हारे
भीतर जागा ही
है। ऊपर की
पर्तें सो
गयीं, भीतर
कोई कोना
प्रकाशित है,
आलोकित है।
शरीर डूब गया
अंधकार में, मन भी खो गया,
लेकिन
चैतन्य की कोई
एक किरण जलती
ही चली जाती
है। कोई भीतर
साक्षी पहरा
दिए चला जाता
है। अभी भी, सोए—सोए भी
वह साक्षी तो
मौजूद है; तुम्हें
पता हो या न हो।
सुबह कौन कहता
है कि रात
सपने देखे? किसे याद रह
जाती है सपने
की? निश्चित
ही सपने के
अलावा भी कोई
मौजूद था। दूर
किनारे खड़े
होकर देखता
होगा।
जैसे
तुम फिल्म—गृह
में जाते हो
और देखते हो
एक तस्वीरों
का जाल। पर्दे
पर कुछ भी तो
नहीं है—धूप—छाया
का खेल। तुम
देखते हो, चाहे
तुम देखने में
बिलकुल डूब ही
क्यों न जाओ—डूब
ही जाते हो, भूल ही जाते
हो, भूल ही
जाते हो कि
पर्दा कोरा है,
भूल ही जाते
हो कि सिर्फ
धूप—छाया का
खेल है, सब
धोखा है, भूल
ही जाते हो कि
माया है।
लेकिन तीन
घंटे बाद जब
उठते हो, तब
अचानक याद आ
जाती है। तब
बाहर चर्चा
करते निकलते
हो कि फिल्म
अच्छी थी, नहीं
थी। छू गई दिल
को, नहीं
छू गई। जरूर
कोई पीछे खड़ा
रहा। तुम
फिल्म भी
देखते रहे और
तुम उसे भी
देखते रहे, जो देखता था।
बड़ी
धीमी है यह
बात अभी। बड़ी मंदिम—मंदिम
है। रोशनी
बहुत प्रगाढ़
नहीं है, सूरज
जैसी नहीं है,
टिमटिमाते
छोटे से
मिट्टी के दीए
जैसी है, पर
है। और मिट्टी
का दीया सूरज
का ही अवतार
है। मिट्टी के
दीए में वही
सब कुछ है, जो
सूरज में बड़ा
होकर है।
कबीर
कहते हैं, जब
जागा तो ऐसा
लगा, जैसे
हजार—हजार
सूरज एक साथ
उतर आए।
निश्चित ही
हजार—हजार
सूरज उतर आएं
तो मिट्टी के
दीए की ज्योति
पता भी न
चलेगी। लेकिन
अभी पता चलती
है, अंधेरा
बहुत है।
सुबह
उठकर कभी तुम
कहते हो, रात
बड़ी आनंद से
बीती। सपना
आया ही नहीं।
कोई सपनों की
उधेड़—बुन न
रही। एक गहरी
शांति में सोए,
बड़ी गहरी
नींद थी। कौन
कहता है? अगर
तुम बिलकुल ही
सो गए थे तो यह
कौन याद कर रहा
है? जरूर
तुम बिलकुल
नहीं सो गए थे,
कोई तो
जागता ही रहा।
शायद तुम्हें
पता भी नहीं
कि वह कौन है, जो जागता
रहा! लेकिन
कहीं दूर
गहराई में
तुम्हारे कोई
दीया जलता ही
रहा।
वह
चौबीस घंटे जल
रहा है। वही
तुम्हारा
वास्तविक
होना है। वही
दीया जिस दिन
तुम पहचान
लोगे, उसी दिन
समाधि को
उपलब्ध हो
जाओगे। उसी
दीए की ज्योति
जिस दिन
तुम्हारी
जानी—मानी, परिचित, अपनी
हो जाएगी। है
तुम्हारी, लेकिन
तुम्हें
प्रत्यभिज्ञा
नहीं है, पहचान
नहीं है। है
तुम्हारी, लेकिन
विस्मरण हो
गया है। जैसे
कई दफा तुमने
देखा होगा, लिखते—लिखते
कलम कान पर
लगा ली और फिर
खोजने लगे।
कभी—कभी ऐसा
भी हो जाता है
कि चश्मा लगाए
हो, उसी
चश्मे से देख
रहे हो और
चश्मा खोज रहे
हो। वैसा ही
कुछ हो गया है।
याददाश्त खो
गई है।
तो
जैसे ध्यान की
थोड़ी सी झलक
आनी शुरू होगी, जैसे
ध्यान की पहली
पायल बजेगी, वैसे ही यह
अड़चन आएगी।
अड़चन लगती है
तुम्हें, क्योंकि
नया अनहोना हो
रहा है। सोओगे
और नींद मालूम
न होगी। अगर
कुछ गलत हो
रहा होगा तो
सुबह थकान
मालूम होगी; वह सबूत है।
अगर ठीक हो
रहा है तो
सुबह कोई थकान
न मालूम होगी।
शरीर का
विश्राम भी हो
जाएगा और
जागरण की एक सतत
धारा, एक
श्रृंखलाबद्ध
भाव—दशा भी
बनी रहेगी।
शुभ
है। कृष्ण ने
गीता में यही
अर्जुन को कहा
है कि जब सभी
सो जाते हैं, या
निशा सर्व
भूतानां, जब
सभी के लिए
अंधेरी रात हो
गई; तस्यां
जागर्ति
संयमी, और
तब भी संयमी
जागा रहता है।
इसका
कोई यह मतलब
नहीं है कि
संयमी बैठा
रहता है रातभर, कि
खड़ा रहता है
रातभर; पागल
हो जाएगा।
संयमी भी
विश्राम करता
है, लेकिन
संयमी का शरीर
ही विश्राम
करता है।
संयमी भीतर
साक्षी की तरह
जागा रहता है।
बुद्ध
के पास आनंद
वर्षों रहा।
एक दिन उसने
पूछा कि मैं
बड़ा चकित होता
हूं। कल तो
रातभर बैठकर
देखता रहा! कई
दफा खयाल तो
आया,
कभी रात
उठना पड़ा है
तो देखा कि आप
जिस करवट सोए
हैं, उसी
करवट सोए रहते
हैं। हाथ जहां
रखा है, वहीं
रखे रहते हैं।
जिस हाथ का
तकिया बनाया
है, उसको
बदलते भी नहीं
रातभर। पैर
जिस ढंग से
रखा है दूसरे
पैर पर, वहीं
टिका रहता है।
मामला क्या है?
क्या रातभर
इसका भी हिसाब
रखते हैं? यह
तो सोना भी
मुश्किल हो
गया।
बुद्ध
ने कहा, हिसाब
रखने की जरूरत
नहीं है; कोई
भीतर जागा ही
रहता है।
बदलने की
जरूरत क्या? एक दफा रख
दिया
सम्हालकर, रख
दिया।
'शुभ
है, मंगलदायी
है; घबड़ाना
मत। सपने धीरे—धीरे
खो ही जाएंगे।
क्योंकि जब
साक्षी जागा
रहेगा तो सपने
नहीं हो सकते।
सपना हो तो
साक्षी नहीं
हो सकता। ठीक
है। सपना तो
खो गया है, रातभर
जागरण जैसा भी
बना रहता है।
धीरे—धीरे और
प्रगाढ़ होगा;
और सघन होगा;
और त्वरा और
तीव्रता आएगी।
तलवार की धार
की तरह
साक्षीभाव बन
जाता है—प्रखर।
लेकिन
शुरू में तो
अड़चन होगी।
क्योंकि हम
सोचते हैं कि
आठ घंटे की
नींद जरूरी है—धारणा
है;
और यह क्या
हो रहा है? रातभर
जागे—जागे से
रहे। और आठ
घंटे जागे—जागे
से बने रहो तो
रात बड़ी लंबी
मालूम पड़ती है।
अंत ही होता
नहीं आता
मालूम पड़ता।
सो गए तो भूल
गए। सो गए तो
रात कब शुरू
हुई पता नहीं,
कब पूरी हुई
पता नहीं। सोए
कि सुबह होती
है। लेकिन यह
तो रातभर सुबह
बनी रही। यह
तो रातभर भीतर
कोई सुर बजता
रहा। शुरू—शुरू
में अड़चन होगी।
प्राण, पहले
तो हृदय तुमने
चुराया
छीन
ली अब नींद भी
मेरे नयन की
पंख
थकते प्राण
थकते रात थकती
खोजने
की चाह पर
थकती न मन की
छीन
ली अब नींद भी
मेरे नयन की
धैर्य
का भी तो कहीं
पर अंत है
प्रिय
और
सीमा भी कहीं
पर है सहन की
छीन
ली अब नींद भी
मेरे नयन की
शिकायत
स्वाभाविक है; घबड़ाहट
भी स्वाभाविक
है माना, लेकिन
घबड़ाकर यह जो
एक नया
सिलसिला भीतर
शुरू हो रहा
है, इसे
तोड़ मत देना।
इसे अहोभाव से
स्वीकार करना।
इसकी
शिकायत भी मत
करना।
क्योंकि इसी
की तो हम तलाश
कर रहे हैं, इसी
की खोज पर तो
निकले हैं, इसे ही तो हम
बो रहे हैं, इसे ही तो
बना रहे हैं, ताकि चौबीस
घंटे ध्यान का
सेतु एक क्षण
को भी हमसे
छूटे ना; अनुस्यूत
हो जाए। जैसे
माला में धागा
पिरोया होता
है—हर फूल के
भीतर छिपा और
दूसरे फूल में
गुजर जस्ता है।
ऐसी हर घटना—रात
हो कि दिन, भोजन
हो कि स्नान, बाजार हो कि
मकान, एकांत
हो कि भीड़, सुख
हो कि दुख, सफलता
कि असफलता, जीवन कि
मृत्यु—कोई
फर्क न पड़े।
सारे फूलों के
भीतर अनुस्यूत
धागे की तरह
ध्यान बना रहे।
इसे
हम साध ही रहे
हैं,
साधने की
आकांक्षा ही
कर रहे हैं।
लेकिन अक्सर
ऐसा होगा, जब
पहली दफा
घटनाएं घटनी
शुरू होंगी तो
बेचैनी
स्वाभाविक है।
और ऐसी ही
घड़ियों में
कल्याण मित्र
की जरूरत है
कि कोई
तुम्हें कह
सके, घबड़ाना
मत। कोई
तुम्हें ढाढ़स
बंधा सके। कोई
तुम्हें कह
सके कि अनजान
नहीं है
रास्ता, यहां
हम चले हैं।
कोई तुम्हें
बता सके कि ये
रहे हमारे भी
पद—चिह्न। कभी
हम भी यहां से
गुजरे थे।
गुजर जाओगे
तुम भी। पड़ाव
है।
जल्दी
ही पुरानी आदत
छूट जाएगी।
शरीर सोया
रहेगा, तुम
जागे रहोगे।
और यही तो भेद
खड़ा होगा, तभी
तो तुम्हें
पता चलेगा, शरीर अलग है
और तुम अलग हो।
अभी तो तुम
इतने घुले—मिले
हो, शरीर
सोता है, तुम
सो जाते हो।
अभी तो इतने
घुले—मिले हो,
भेद नहीं है,
फासला नहीं
है, अंतराल
नहीं है। धीरे—धीरे
अंतराल होगा।
और चूंकि
ध्यान का
प्रयोग कर रहे
हो, इसलिए
पहला अंतराल
नींद में
पड़ेगा; इसे
खयाल में रखना।
अलग—अलग
धर्मों ने अलग—अलग
प्रयोग किए
हैं,
इसलिए अलग—अलग
अंतराल पड़ते
हैं। चूंकि हम
यहां ध्यान पर
ही सारा जोर
दे रहे हैं, इसलिए पहला
अंतराल
तुम्हारी
नींद में
पड़ेगा।
क्योंकि
जागरण और नींद
में बड़ा विरोध
है। जब ध्यान
सधेगा, तो
शरीर तो सो
जाएगा, तुम
न सोओगे।
तत्क्षण
दिखाई पड़ेगा
कि तुम अलग हो।
इस शरीर से
तुम एक कैसे
हो सकते हो, जो सो गया और
तुम जाग रहे
हो? भिन्नता
आ गई, भेद आ
गया, सेतु
टूट गया।
जो
लोग उपवास की
साधना करते
हैं,
उनका पहला
भेद भोजन के
साथ पड़ेगा।
शरीर को भूख
लगेगी और वे
भीतर पाएंगे,
परिपूर्ण
तृप्त—संबंध
टूट गया, सेतु
गिर गया।
उन्होंने जान
लिया कि भूख
शरीर की है, उपवास
चैतन्य का है।
इसीलिए
तो उपवास शब्द
बड़ा मूल्यवान
है। उपवास का
अर्थ है अपने
निकट वास; अपने
पास आ जाना।
उसका भूखे
रहने से कोई
लेना—देना
नहीं है।
अनशन
नहीं है उपवास।
अनशन
राजनैतिक
नेता करते हैं, उपवास
का उन्हें
क्या पता? उपवास
तो बड़ा साधु
चित्त व्यक्ति
ही कर सकता है।
राजनैतिक
नेता उपवास
कहते हैं अपने
अनशन को, कहना
नहीं चाहिए।
उनका अनशन तो
हिंसात्मक है।
वह तो दूसरे
पर जबर्दस्ती
करने के लिए
करते हैं। वह
तो दूसरे को
मजबूर करने के
लिए करते हैं।
वह तो ऐसे ही
है, जैसे
किसी की छाती
पर छुरा रख
दिया। दूसरे की
छाती पर न रखा,
अपने पर रख
लिया।
स्त्रियां
सदा से यही
करती रही हैं—राजनैतिक
नेता अब—अब
सीखे हैं—अपना
ही सिर पीट
लेती हैं।
मारना पति को
था,
लेकिन उसकी
सुविधा नहीं
है, आशा भी
नहीं है, शास्त्रों
में स्वीकृति
भी नहीं है, पति
परमात्मा है!
मारना था पति
के सिर को, दीवार
से टकराना था
पति के सिर को,
वह हो नहीं
सकता; तो
स्त्रियां
सदा से करती
रही हैं। किसी
ने न कहा कि ये
सत्याग्रही
हैं। वे सदा
से रही हैं।
उन्होंने
अपना ही सिर
ठोंक लिया। पर
इतनी ठोंक—पीट
मचाई कि पति
को झुकना पड़ा।
अनशन
एक बात है; स्त्रियां
बहुत दिन से
करती रही हैं।
राजनेता अभी—अभी
सीखे हैं। वह
स्त्रैण
मनोविज्ञान
है। उपवास बडी
और बात है।
अनशन का मतलब
है, दूसरे
के साथ तुम
जबर्दस्ती
करना चाहते हो।
जिसे तुम समझा
न सके, जिसे
तुम विचार से
राजी न कर सके,
जिसे तुम
अपनी राह पर
ले जाने के
लिए हार गए; अब तुम एक
ऐसा उपाय कर
रहे हो, जो
उचित नहीं है;
जो कि बड़ी
जालसाजी का है,
जो कि बड़ी
बेईमानी का है।
अब
तुम इस तरह की
जबर्दस्ती उस
पर थोप रहे हो
कि जिसको वह
इनकार भी न कर
सके। अब तुम
उसकी बेबसी का
फायदा उठाना
चाहते हो।
उपवास
का अर्थ है
स्वयं के करीब
आना। जैसे ही
कोई व्यक्ति
उपवास में
स्वयं के करीब
आता है, एक
बात साफ हो
जाती है, भूख
शरीर की है; आत्मा का तो
सदा उपवास चल
रहा है।
बड़ी
मीठी कहानी है
कि कृष्ण के
नगर में यमुना
के पार एक
संन्यस्त
मुनि आया। बाढ़
के दिन हैं, वर्षा
के दिन हैं, और कृष्ण ने
अपनी पत्नी
रुक्मणी को
कहा कि जाकर
भोजन करवाकर
आओ मुनि को।
पर उन्होंने
कहा कि नदी
में बड़ी बाढ़
है; और उस
तरफ जाने का
कोई उपाय नहीं।
नावें तक नहीं
चल रही हैं, तो हम कैसे
जाएंगे? तो
कहानी बड़ी
मधुर है।
कृष्ण ने कहा
कि तुम जाकर
कहना कि अगर
मुनि सदा से
उपवासे रहे
हैं तो नदी
राह दे दे।
भरोसा
तो न आया, लेकिन
जब कृष्ण कहते
हैं, ठीक
ही कहते होंगे।
और मुनि सदा
के उपवासे
होंगे। तो
उन्होंने
जाकर यमुना को
कहा कि अगर
मुनि सदा के
उपवासे हैं तो
मार्ग दे दो।
कहते हैं, यमुना
ने राह दे दी।
वे उस पार
निकल गयीं।
मुनि को भोजन
करवा दिया। तब
वे बड़ी
घबडायीं। अब
लौटकर क्या
कहेंगी? क्योंकि
नदी तो फिर बह
रही है। अब तो
पुराना सूत्र
काम न आएगा न।
अब तो मुनि
भरपेट भोजन कर
चुके। रहे
होंगे जीवनभर
उपवासे, अब
तो नहीं हैं।
वे बडी बेचैनी
में पड़ गयीं, ठिठककर खड़ी
हो गयीं।
मुनि
ने पूछा, क्या
मामला है?
तो
उन्होंने कहा, हम
एक सूत्र का
उपयोग करके आए
थे, अब वह
व्यर्थ हो गया।
अब हम नहीं
जानते कि हम
राह कैसे मतों
यमुना से?
मुनि
ने कहा, वही
सूत्र काम
देगा। तुम फिर
वही कहो कि
मुनि अगर
जीवनभर के
उपवासे हैं तो
नदी राह दे पै।
उन्होंने
कहा,
लेकिन अब
हमें ही इस पर
भरोसा नहीं है।
आप भोजन अभी
हमारे सामने
किए हैं, हमारा
लाया हुआ ही
किए हैं।
मुनि
ने कहा, उससे
कोई फर्क नहीं
पड़ता। मेरे
उपवास में इस
भोजन से कोई
खंडन नहीं आता;
तुम कहो।
कहते
हैं,
उन्होंने
डरते—डरते, सकुचाते—सकुचाते
कहा। मुनि
पीछे पड़ा तो
कहना पड़ा। और
यमुना ने राह
दे दी।
कहानी
तो कहानी है, लेकिन
बड़ी सूचक है।
आत्मा सदा
उपवासी है, उसको कोई
जरूरत नहीं
भोजन की। उसके
लिए ईंधन की
कोई जरूरत
नहीं है। शरीर
को ईंधन की
जरूरत है, क्योंकि
शरीर मरण—धर्मा
है। आत्मा
अमृत है, सदा
से है, सदा
है। उसके होने
के लिए किसी
और ऊर्जा की
जरूरत नहीं है।
उसकी स्वयं की
ऊर्जा शाश्वत
है—एस धम्मो
सनंतनो। वह
सदा से है, सदा
रहेगी। वह सदा
होने का सूत्र
है। शाश्वत है
उसकी ऊर्जा।
उसके लिए रोज—रोज
ऊर्जा की
जरूरत नहीं।
शरीर के पास
अपनी कोई
ऊर्जा नहीं है—जोड़—तोड़
है, उधार
है। आत्मा के
पास अपनी
ऊर्जा है—जोड़—तोड़
नहीं है, उधार
नहीं है, अपनी
ऊर्जा है।
शरीर को भोजन
न दो तो मरने
लगेगा। भोजन
देते चले जाओ
तो जी लेगा, घसिट लेगा, उसके लिए
कोई ईंधन
चाहिए रोज—रोज।
उपवास
से करने वाला
व्यक्ति पहले
जानेगा भेद कि
शरीर को भूख
है,
शरीर की
तृप्ति है; आत्मा की
भूख ही नहीं, तृप्ति का
सवाल कैसा?
ध्यान
का प्रयोग
करने वाला
व्यक्ति
जानेगा, नींद
शरीर की है, आत्मा का
जागरण है, जागरण
उसका स्वभाव
है, नींद
उसने कभी जानी
नहीं।
अलग—अलग
धर्म इस भेद
को अलग—अलग
ढंग से
जानेंगे।
इससे कोई फर्क
नहीं पड़ता, कहां
से वे जानते
हैं। कहीं से
भी यह बात समझ
में आ जाए, कहीं
से भी हाथ इस
सूत्र पर पड़
जाए, क्रांति
घटित हो जाती
है।
मंगलदायी
है,
शुभ है।
अत्यंत गहन
कृतज्ञता से,
अत्यंत खन
धन्यवाद के
भाव से, आभार
से, चुपचाप
आगे बढ़े जाना
है।
तीसरा
प्रश्न :
आप
अक्सर कहते
हैं कि जिस
चीज से आदमी
को सुख होता
है, उससे
दुख भी; जिससे
लाभ होता है, उससे हानि
भी; तो
कृपया आप
बताएं कि यहां
सुख और दुख का,
लाभ और हानि
का अनुपात
क्या है? कहीं
पचास—पचास
प्रतिशत तो
नहीं, जो
एक— को नकारकर
आदमी के हाथ
में शून्य का
शून्य रहने
देते है?
ऐसा ही
है;
पचास—पचास
प्रतिशत ही है।
तुम लाख उपाय
करो कि सुख ही
सुख मिल जाए, असंभव है।
तुम लाख उपाय
करो कि दुख ही
दुख मिल जाए
असंभव है।
क्योंकि हर
दुख उतनी ही
मात्रा का सुख
अपने साथ ले
आता है। समझो;
किसी ने
तुम्हारी
प्रशंसा की, सुख मिला।
बस, उतने
ही सुख के साथ
तुम्हारे
भीतर अहंकार
की मात्रा बढ़
गई। अब यह
अहंकार की मात्रा
इतना ही दुख
तुम्हें
दिलवाएगी, आज
नहीं कल।
क्योंकि जरा
सी बात अब
ज्यादा चोट
करेगी। इस
आदमी ने
प्रशंसा न की
होती और कोई
आदमी गाली दे
गया होता तो
चोट इतनी न
पड़ती। इस आदमी
ने तुम्हारा
वहम बढ़ा दिया।
इसने कहा कि
तुम जैसे साधु
पुरुष संसार
में विरले हैं।
अब कोई आकर
असाधु कह गया
तो चोट अब
ज्यादा लगेगी;
ऐसी पहले न
लगती। जितनी
मात्रा में
प्रशंसा ने
सुख दिया है, उतनी ही
मात्रा चोट की
भी बढ़ जाएगी।
तुम्हें
सफलता मिल गई, अब
असफलता
ज्यादा कष्ट
देगी।
स्वभावत: तुम
जितने ऊपर चढ़
जाओगे, जब
गिरोगे तो
उतने ही नीचे
गिरोगे। और
जीवन में कोई
भी चीज घिर
नहीं रह सकती।
चढ़ोगे तो
गिरोगे। सफल
होओगे तो
हारोगे। हर
जीत हार ले
आती है; जैसे
हर दिन अपनी
रात ले आता है।
वे प्रणय—बंधन
में बंधे हैं।
हर प्रशंसा
निंदा ले आती
है।
और
इससे विपरीत
भी सही है।
अगर दुख आता
है तो —तुम्हारे
जीवन में सुख
की मात्रा
उतनी ही बढ़ा जाता
है।
थोड़ा
समझो; गरीब
आदमी जब भोजन
करता है तो
ज्यादा सुख
पाता है अमीर
की बजाय।
भिखारी को राह
पर अगर भोजन
मिल जाए तो वह
जैसी तृप्ति
अनुभव करता है,
वैसी
संपन्न आदमी
कभी अनुभव
नहीं करता।
संपन्न के
सामने थाली
लगी रखी रहती
है, उसे
भूख ही नहीं
है, तृप्ति
कैसी! भूख
तृप्ति लाती
है। भूख की
मात्रा से
तृप्ति की
मात्रा
निर्भर होती
है।
तो
कभी—कभी गरीब
आदमी रूखी—सूखी
रोटी से वैसा
सुख पाता है, जैसा
संपन्न आदमी
राजभोगों से
भी नहीं पाता।
तुमने कभी
भिखारी को
देखा? राह
पर पड़ा वृक्ष
के नीचे सो
जाता है।
रास्ता चल रहा
है, दिन की
दुपहरी है, वह मजे से सो
रहा है, घुर्रा
रहा है।
संपन्न, सुविधा—संपन्न
रात अपने
बहुमूल्य से
बहुमूल्य
शयनकक्षों
में भी करवटें
बदलते रहते
हैं। सब
सुविधा है, कोई बाधा
नहीं है, नींद
नहीं आ रही।
क्योंकि नींद
आने के लिए
श्रम जरूरी है।
श्रम लाता है
नींद। अब
दिनभर
विश्राम किया
तो नींद कैसे
आएगी? विश्राम
से थोड़े ही
नींद आती है!
जिंदगी
के तर्क बड़े
विरोधाभासी
हैं। आदमी के
तर्क और
जिंदगी के
तर्कों में
यही फर्क है।
आदमी का तर्क
यह कहता है कि
दिनभर
विश्राम का अभ्यास
किया तो रात
में नींद और
अच्छी तरह आनी
चाहिए। दिनभर
तकियों से लगे
लेटे रहे उठे—बैठे
इतना भी न
किया, नौकर—चाकरों
ने किया, बिजली
के यंत्रों ने
किया; तो
दिनभर जब इतना
अभ्यास कर रहे
हैं विश्राम का
तो रात तो बड़ी
गहन नींद आनी
चाहिए। परंतु
उनको रात नींद
आएगी ही नहीं;
जरूरत ही न
रही।
जो
आदमी गिट्टी
तोड़ रहा है, राह
के किनारे
पत्थर फोड़ रहा
है, खेत
में कुदाली
चला रहा है, पसीना—पसीना
हुआ जा रहा है,
वह रात गहरी
नींद की
तैयारी कर रहा
है। तुम कहोगे,
इसे तो नींद
आनी ही नहीं
चाहिए। दिनभर
अभ्यास कर रहा
है, इतना
उपद्रव कर रहा
है शरीर के
साथ, यह
उपद्रव, यह
बेचैनी रात
में भी फैल
जाएगी, यह
सो न सकेगा।
लेकिन यह गहरी
नींद सोएगा और
तुम न सो
सकोगे।
आदमी
के तर्क और
जिंदगी के
तर्कों में
यही भेद है।
जिंदगी विरोध
से चलती है और
अनुपात बराबर
होता है।
इसलिए अगर तुम
हिसाब लगाओ
मरने पर तो
गरीब और अमीर
बराबर सुख—दुख
का अनुपात
पाते हैं।
भिखारी और
सम्राट बराबर
सुख—दुख का
अनुपात पाते
हैं। आखिरी
हिसाब में बड़े
मजे की बात है, कोई
फर्क नहीं रह
जाता। मौत बड़ी
साम्यवादी है,
कम्युनिस्ट
है, बराबर
कर जाती है।
तुमने कितने
ही बड़े काम
किए, या
कुछ भी नहीं
किया, इससे
कोई फर्क नहीं
पड़ता। आलसी और
कर्मठ, अमीर
और गरीब, सफल
और असफल, मेधावी
और मूढ़—सब को
मौत बराबर कर
जाती है। मरते
वक्त अचानक
पता चलता है
कि सब हिसाब—किताब
बराबर हो गया।
पचास—पचास
प्रतिशत की
बात है।
हाट
मिट्टी ने
लगाकर सांस की
रात
दिन बेचा
खरीदा प्राय
को
उम्रभर
की यह मगर
सौदागिरी
बस
कफन ही दे सकी
इन्सान को
हाट
मिट्टी ने
लगाकर सांस की
रात
दिन बेचा
खरीदा प्राण
को
उम्रभर
की यह मगर
सौदागिरी
बस
कफन ही दे सकी
इन्सान को
अंत
में सम्राट हो
कि फकीर, जमीन
में बराबर जगह
मिल जाती है।
मिट्टी दोनों
को आत्मसात कर
लेती है। सारी
जिंदगी की दौड़—धूप
व्यर्थ मालूम
होती है। यह
ढंग कमाई का
नहीं मालूम
होता।
फिर
फर्क क्या कभी
भी होता है या
नहीं?
फर्क
होता है। कोई
बुद्ध पुरुष
मरता है तो
फर्क होता है।
उसने जिंदगी
में हानि—लाभ
बराबर—बराबर
हैं यह मानकर, यह
जानकर, यह
पहचान कर, हानि—लाभ
की चिंता ही
छोड़ दी। उसने
यह सौदागिरी
बंद ही कर दी।
इसके लिए वह
मौत तक न रुका
कि मौत इसे
बंद करे। मौत
के आने के
पहले उसने
द्वार—दरवाजे
बंदकर दिए इस
सौदागिरी के।
उसने पहले ही
समझ लिया कि
यह तो सब
बराबर हो जाना
है, इसमें
दौड़ना व्यर्थ
है। उसने नजर
भीतर की तरफ
फेर ली। उसने
पलकें बंद कर
लीं।
उसने
उसकी तलाश
करनी शुरू कर
दी,
जो वह है। न
लाभ, न
हानि, क्योंकि
लाभ—हानि
दोनों बाहर
हैं। लाभ भी
बाहर होता है,
हानि भी
बाहर होती है।
धन भी बाहर है,
निर्धनता
भी बाहर है।
इसलिए उसने
अपनी तलाश
करनी शुरू कर
दी कि मैं कौन
हूं जिसको लाभ
होता है, हानि
होती है? मैं
कौन हूं जो
सफल होता है, असफल होता
है? मैं
कौन हूं जो
कभी सुखी होता,
कभी दुखी
होता? अब
सुख—दुख का
हिसाब छोड़
दिया; उसने
उसकी फिक्र
लेनी शुरू कर
दी, जो मैं
हूं।
इसके
पहले कि मौत
आए स्वयं को
पहचान लेना
जरूरी है।
जिन्होंने
मौत के पहले
स्वयं को
पहचान लिया, उनकी
मौत फिर आती
ही नहीं। मौत
तो आती उसी की
है, जिसने
अपने को नहीं
पहचाना। मौत
सिर्फ
अज्ञानी की
होती है, बुद्ध
पुरुषों की
कोई मौत नहीं
होती।
क्यों? क्योंकि
तुमने जिस
हानि—लाभ की
दुनिया को
समझा है जीवन,
वह तो मौत
छीन लेगी।
तुमने जिसे
जीवन समझा है,
वह मौत छीन
लेगी। और असली
जीवन को तो
तुमने समझा ही
नहीं।
मगर
एक बात खयाल
रखना, बुद्ध
पुरुषों की
मृत्यु नहीं
होती, क्योंकि
तुम जिसे जीवन
कहते हो, उसे
वे मौत के
पहले ही छोड़
देते हैं।
इसका अर्थ हुआ
कि तुम जिसे
जीवन कहते हो,
उस अर्थ में
तो वे मरने के
पहले ही मर
जाते हैं, मृतवत
हो जाते हैं।
और यहां मृतवत
हो जाते हैं—बाहर
के जगत में, बहिर्यात्रा
पर—अंतर्यात्रा
में सूर्योदय
हो जाता है।
बाहर लगती है
सूली तो भीतर
सिंहासन मिल
जाता है।
मिट्टी
में कोई बीज
गिरा
मतलब
है इसका सीधा
सा
लो
उसकी खुल
तकदीर गई
जो
राज दिया था
दिल में रख
अब
मिली इजाजत
खोले वह
कली
कोंपल किसलय
कुसुमों की
मनचाही
भाषा बोले वह
बस
एक वक्त के
धक्के से
वह
लाचारी की
फौलादी
मजबूत
तड़क जंजीर गई
मिट्टी
में कोई बीज
गिरा
मतलब
है इसका सीधा
सा
लो
उसकी खुल
तकदीर गई
मगर
मिट्टी में जब
बीज गिरता है
तो एक अर्थ में
तो मरता है।
मिट्टी में
गिरने का अर्थ
मरना है, कब्र
का बनना है।
बीज जब गिरता
है तो मिटता
है, सड़ता
है, खोल
टूटती है। एक
तरफ से मृत्यु
घटित होती है।
और एक दिन
अचानक, जिस
दिन यह मृत्यु
पूरी होती है,
उसी दिन
अंकुरण होता
है, नवजीवन
का सूत्रपात
होता है।
लो
उसकी खुल
तकदीर गई
अब
जीवन प्रगट।
अब
मिली इजाजत
खोले वह
कली
कोंपल किसलय
कुसुमों की
मनचाही
भाषा बोले वह
बीज
तो बंद था, बोलने
की सुविधा
कहां थी? बीज
तो बंद था, गीत
के अंकुरित
होने की
सुविधा कहां
थी? बीज तो
कारागृह में
था, गहन
प्रसुप्ति
में सोया था, खुले आकाश
में उठने का
मौका कहां था?
बीज तो
पत्थर की तरह
था, फूल
कैसे खिलते
उसमें?
बीज
तो सूली पर लटका
था,
जब मृत्यु
पूरी हो गई तो
पुनर्जन्म
हुआ। क्योंकि
मरता यहां कुछ
भी नहीं।
मृत्यु संसार
जानता ही नहीं।
मृत्यु यहां
घटती ही नहीं।
यहां मृत्यु
घटती हैं केवल
झूठी
मान्यताओं की,
जो
अस्तित्व का
अंग नहीं हैं।
अस्तित्व
मृत्यु को
पहचानता ही
नहीं। जैसे
सूर्य के
प्रकाश ने
अंधेरा नहीं
जाना, ऐसे
ही अस्तित्व
की कोई
मुलाकात कभी
मृत्यु से
नहीं हुई।
यहां हम मरते
हैं, क्योंकि
हम अपने को
जानते नहीं; और जो हम
अपने को मानते
हैं, वह हम
हैं नहीं।
मृत्यु यहां
भ्रांत
धारणाओं की
होती है।
संन्यास, साधना,
साधुता, खोज
सत्य की, झूठे
जीवन से मुक्त
होने की खोज
है। जिसने जान
लिया कि यहां
लाभ—हानि
बराबर है, अब
वह इस पागलपन
में न पड़ेगा।
जिसने जान
लिया, आखिर
में हिसाब
बराबर हो जाता
है। हाथ लाई
शून्य जैसा; ऐसा जान
लिया जिसने, वह इस जीवन
से मरने को
तैयार हो जाता
है। वही संन्यास
का कदम है; वही
संन्यस्त
होने की
शुरुआत है।
संन्यास
का अर्थ है
बहिर्जीवन
में मृत्यु और
अंतर्जीवंन
में जन्म।
संन्यास का
अर्थ है : अब हम
भीतर चलेंगे।
बाहर चलकर
देखा, यह
यात्रा कहीं
पहुंचाती
नहीं; भटकाती
बहुत, चलाती
बहुत, थकाती
बहुत, आखिर
में बार—बार
कब आ जाती है।
फिर—फिर वही
गड्डा आ जाता
है। फिर—फिर
उसी गड्डे में
सोना हो जाता
है। अब हम उसे
खोजेंगे, जो
शाश्वत है।
पर
उसके लिए
मृत्यु की
तैयारी जरूरी
है। इसलिए
हमने समाधि
शब्द चुना है
इस देश में।
कब्र को भी हम
समाधि कहते
हैं और ध्यान
की परिपूर्णता
को भी समाधि
कहते हैं।
क्योंकि वह भी
कब है, वह भी
मृत्यु है।
तुम
जबर्दस्ती
मारे जाते हो,
संन्यासी
स्वेच्छा से
मर जाता है।
तुम
जबर्दस्ती
मारे जाते हो,
एक
बहुमूल्य
अवसर चूक गए।
संन्यासी
स्वेच्छा से
मर जाता है और
एक बहुमूल्य
अवसर को
उपलब्ध हो गया।
एक बात खोज ली
उसने—
मिट्टी
में कोई बीज
गिरा
मतलब
है इसका सीधा
सा
लो
उसकी खुल
तकदीर गई
मगर
जरा बीज की
तरफ से सोचो।
बीज डरता होगा, स्वाभाविक
है। भयाक्रांत
होता होगा, स्वाभाविक
है। वृक्ष से
गिरते वक्त
कितनी न पीड़ा
होती होगी, स्वाभाविक
है। कितना न
भयभीत, कंपता
होगा भीतर कि
यह क्या हुआ? मरे!
जब
मिट्टी में
गिरता होगा, मिट्टी
में दबता होगा
तो उसकी वही
दशा न हो जाती
होगी, जब
तुम मरोगे और
मिट्टी में
दबोगे तो
तुम्हारी
होगी! कैसे
चीखते—चिल्लाते
हो! कैसा
कुरूप दृश्य
उपस्थित कर देते
हो मरते वक्त!
कितनी चेष्टा
करते हो कि
किनारे से और
थोड़ी देर, और
थोड़ी देर रुके
रह जाएं; थोड़ी
देर और खूंटी
को पकड़कर रुक
जाएं। रुकने
में कोई अर्थ
भी न हो, अस्पताल
में ही बने
रहें, हाथ—पैर
बंधे रहें
यंत्रों से, ऑक्सीजन की
नली नाक में
पड़ी रहे, मगर
बने रहें।
जीवन का कोई
अर्थ न होगा; कुछ कर न
सकोगे, उठ
न सकोगे, बैठ
न सकोगे। जीवन
का मोह बड़ा
हैरान करने
वाला है।
नालियों में
पड़े रहें, सड़ते
रहें, लेकिन
मरने की
तैयारी नहीं
होती।
बीज
की तरफ से
सोचो थोड़ा; बीज
भी घबड़ाता
होगा। उसे भी
कहां पता है
कि मरने के
बाद अंकुरण
होगा? उसे
भी कहो पता है
कि इजाजत
मिलेगी कली, कोंपल, किसलय,
कुसुमों को
खोलने की? उसे
भी कहा पता है
कि यह मौत—मौत
नहीं है, एक
नई शुरुआत है।
यह मृत्यु एक
नया आमंत्रण
है फिर से
जीवन को नया
करने का। उसे
भी कहा पता है,
इस मौत के
मौन से एक गीत
उठने के करीब
है। पता हो भी
कैसे सकता है?
बीज तो
मिटेगा, तभी
यह घटेगा। बीज
तो इसे कभी
अपनी आख से
देख ही न
पाएगा।
इसलिए
जब मेरे पास
लोग आ जाते
हैं,
वे कहते हैं,
ईश्वर का
दर्शन करना है;
मैं कहता
हूं तुमसे न
हो पाएगा।
दर्शन तो होगा,
लेकिन तुम न
रहोगे। तो
इतनी तैयारी
करके आए हो कि
अपने को भी
चढ़ा देना पड़े
इस आहुति में?
इस यज्ञ में
अपनी भी आहुति
बना देनी पड़े,
तैयारी
करके आए हो? दर्शन तो
होगा, लेकिन
तुम न होओगे।
तुम्हारा
दर्शन नहीं
होने वाला है,
परमात्मा
ही परमात्मा
को देखेगा।
परमात्मा ही
अपने को
देखेगा। यह तो
होगा, लेकिन
तुम मिट जाओगे।
तुम
हो बीज; तुम्हारे
मिटे बिना कोई
रास्ता नहीं
है। इधर तुम
मिटे, उधर
परमात्मा हुआ।
तुम परमात्मा
हो ही; मिटने
की तुमने
घोषणा की कि
तुम पात्र बने।
इधर तुमने कहा
कि अब मेरे
होने की कोई
जरूरत नहीं, अब तू हो जा!
मिट्टी
में कोई बीज
गिरा
मतलब
है इसका सीधा
सा
लो
उसकी खुल
तकदीर गई
जब
तक कोई संन्यस्त
न हो जाए जीवन
से,
तब तक तकदीर
बंद है। जब तक
कोई जीवन की
इस व्यर्थता
को न समझ ले कि
यहां हानि—लाभ
बराबर—बराबर
है, कोई
उपाय नहीं है
एक प्रतिशत का
भी फर्क करने का,
तब तक आदमी
अटका ही रहता
है किनारे से।
और तब तक तुम
जो लेकर आए हो
अपने भीतर, वह सड़ता है।
तुम जो लेकर
आए हो, वह
बंद ही रह
जाता है। यही
तो पीड़ा है
आदमी की, यही
तो संताप है।
और क्या है
संताप?
तुम्हारा
दर्द क्या है? तुम्हारी
परेशानी क्या
है? इतनी
ही परेशानी है
कि तुम जो
होने को आए हो,
वह नहीं हो
पा रहे हो।
नियति खुल
नहीं पा रही
है। तुम वृक्ष
नहीं बन पा
रहे हो कि
आकाश के पक्षी
तुम्हारे ऊपर
बसेरा करें और
नीड़ बनाएं।
तुम्हारे फूल
नहीं खिल पा
रहे हैं कि
उनकी सुगंध
तुम बिखेर दो
अनंत आकाश में
और असीम में लीन
हो जाए।
तुम्हारे
जीवन की ऊर्जा
भी सूर्य की
किरणों के साथ
खेलना चाहती
है, चढ़ना
चाहती है आकाश
में; वह
नहीं हो पा
रहा है।
तुम्हारी बीन
बजना चाहती है,
यही पीड़ा है।
संसार
में एक ही
पीड़ा है और वह
पीड़ा है कि
बीज वृक्ष न
हो पाए कि तुम
जो पैदा करने
को पैदा हुए थे, वह
तुम से पैदा न
हो पाए; कि
बीज गांठ की
तरह, पत्थर
की तरह पड़ा रह
जाए।
अभिव्यक्ति न
हो सके, तुम
जिसे छुपाए हो।
मिट्टी
में कोई बीज
गिरा
मतलब
है इसका सीधा
सा
लो
उसकी खुल
तकदीर गई
जो
राज दिया था
दिल में रख
अब
मिली इजाजत
खोले वह
कली
कोंपल किसलय
कुसुमों की
मनचाही
भाषा बोले वह
बस
एक वक्त के
धक्के से
वह
लाचारी की
फौलादी
मजबूत
तड़क जंजीर गई
लेकिन
जो बीज के लिए
वक्त कर देता
है,
वह तुम्हें
स्वयं करना
पड़ेगा, वह
वक्त नहीं कर
सकेगा।
बस
एक वक्त के
धक्के से
वह
लाचारी की
फौलादी
मजबूत
तड़क जंजीर गई
जो
समय कर देता
है बीज के लिए, वह
तुम्हें
स्वयं करना
पड़ेगा।
क्योंकि बीज
तो अचेतन है; यह
जिम्मेवारी
उस पर नहीं।
हो जाए, हो
जाए; न हो, न हो। यह
जिम्मेवारी
उस पर नहीं।
उसका कोई
दायित्व नहीं।
यह
बात तुम अपने
लिए मत समझना।
यह तुम्हारे
लिए लागू न
होगी। यह
तुम्हें
स्वेच्छा से
कदम लेना
पड़ेगा। यह कोई
वक्त का धक्का
तुम्हें नहीं
गिरा देगा।
तुम गिरोगे तो
ही गिर पाओगे।
मनुष्य
चैतन्य को
उपलब्ध हो गया
है। चैतन्य के
साथ ही
स्वतंत्रता
भी मिलती है, दायित्व
भी। बड़ी
रिस्पॉन्सबिलिटी
है, बड़ा
दायित्व है।
और वह दायित्व
यह है कि अब
तुम्हारे हाथ
में है
तुम्हारी मौत,
तुम्हारा
जीवन।
तुम्हारे हाथ
में है तुम्हारा
स्वर्ग, तुम्हारा
नर्क।
तुम्हारे हाथ
में है कि तुम
क्या होओगे।
तुम्हारे हाथ
में है। तुम न
होना चाहो तो
तुम बीज की
तरह पड़े रह
जाओ।
तुम्हारी
मर्जी पर है
अब बात। अब
तुम्हारा
भाग्य किसी और
पर निर्भर
नहीं। अब
तुम्हारी
तकदीर
तुम्हारे हाथ
में है।
इतना
ही फर्क है
बीज से तुममें; अन्यथा
तुम भी बीज हो और
तुम्हारे
भीतर भी
परमात्मा तड़फ
रहा है प्रगट
होने को।
गिरो
स्वेच्छा से।
मरो
स्वेच्छा से।
मिटो
स्वेच्छा से।
तुम्हारे
मिटने में ही
तुम्हारी
नियति का सूर्योदय
है।
चौथा
प्रश्न :
आप
अपने साधकों
को सीधा—सादा
ही करने को
कहते हैं, पर
हम फिर—फिर
व्याख्या कर
लेते हैं और
अपनी
व्याख्या के
अनुसार ही
चलते हैं।
कृपा कर
समझाएं कि हम
अपनी
व्याख्या से
अपने को कैसे
बचाएं?
कुछ बुनियादी
कठिनाइयां
हैं। धीरे—धीरे
ही तुम उन
कठिनाइयों के
प्रति सजग हो
पाओगे। जल्दी
की भी नहीं जा
सकती। समय
लगता ही है।
बहुत बार तुम
व्याख्याएं
करोगे, बहुत
बार
व्याख्याओं
को करके तुम
मुझे चूकोगे,
तभी धीरे—धीरे
तुम्हें यह
होश आना शुरू
होगा कि
तुम्हारी
व्याख्याओं
के कारण तुम
मेरे पास आ ही
नहीं पा रहे
हो। तुम्हारी
व्याख्याओं
का जाल तुम्हें
घेरे हुए है।
तुम मुझे
सुनते ही नही।
तुम मेरे
शब्दों में
अपने अर्थ
निकाल लेते हो।
यह
स्वाभाविक है।
क्योंकि शब्द
तो मेरी तरफ
से आते हैं, अर्थ
तो तुम्हीं उन
में डालोगे।
मैं शब्द ही
दे सकता हूं? सुनोगे तो
तुम, गुनोगे
तो तुम, चलोगे
तो तुम। तो पहले
तो सुनते क्षण
में ही भूल हो
जाती है। धीरे—धीरे
समझ आएगी।
सुनते
समय विचारना
मत,
सिर्फ
सुनना। सुनना
बड़ी कला है; बड़ी से बड़ी
कला है। इतनी
बड़ी कि बुद्ध
पुरुषों ने
कहा है कि अगर
कोई ठीक से
सुन ले तो
मुक्ति हो
जाती है।
महावीर ने कहा
है कि तुम
श्रावक अगर
ठीक से हो जाओ—श्रावक
यानी सुनने
वाले, श्रवण
करने में कुशल—तो
तुम मुक्त हो
गए। कुछ और
करने की जरूरत
भी नहीं है, क्योंकि
मुक्त तो तुम
हो ही। किसी
बुद्ध पुरुष
से जरा सी
अपनी पहचान ले
लेनी है। किसी
बुद्ध पुरुष
के दर्पण में
जरा अपने
चेहरे को
पहचान लेना है।
विवेकानंद
एक कहानी कहते
थे: एक सिंहनी
गर्भवती थी, छलांग
लगाती थी एक
टीले से दूसरे
टीले पर कि उसका
बच्चा जन्म
गया। नीचे से भेड़ों—बकरियों
का एक झुंड जा
रहा था। वह
बच्चा उसमें
गिर गया, भेड़ों
के साथ चल पड़ा।
वह भेड़ों के
साथ ही बड़ा
हुआ। वह भूल
ही गया कि
सिंह है। कोई
उपाय भी न था
जानने का। वह
भेड़ों की तरह
ही रिरियातां,
रोता, भागता,
भेड़ों की
भीड़ में ही
घसिटता। बड़ा
हो गया, लेकिन
शाकाहारी था
तो शाकाहारी
ही रहा।
क्योंकि वे
भेड़ें तो
शाकाहारी थीं।
एक
दिन एक सिंह
ने भेड़ों के
उस झुंड पर
हमला किया। वह
सिंह बड़ा चकित
हुआ। बूढ़ा
सिंह देखकर
बड़ा हैरान हुआ
कि भेड़ें भाग रही
हैं यह तो ठीक, सदा
से भागती रही
हैं, मगर
एक सिंह का
बच्चा इनके
बीच कैसे भाग
रहा है? अब
तो वह जवान भी
हो गया था, उनसे
ऊपर भी उठ गया
था। वह अलग ही
दिखाई पड़ रहा
था। उसकी रौनक,
उसकी गरिमा
और थी। मगर वह
भी घसर—पसर
भेड़ों के साथ
भीड़ में भागा
जा रहा है। और
भेड़ें भी उससे
परेशान नहीं
हैं। नहीं तो
सिंह की
मौजूदगी—वे
अपना प्राण
छोड्कर भाग
जातीं। और वह
भी भाग रहा है
मुझे देखकर।
वह
बूढ़ा सिंह
बहुत चकित हुआ।
वह भागा, बामुश्किल
इसको पकड़ पाया।
पकड़ लिया तो
वह रिरियाने
लगा, रोने
लगा। वह कहने
लगा, मुझे
छोड़ दो, मुझे
जाने दो। मगर
उसने कहा, तू
ठहर। वह
जबर्दस्ती
उसे घसीटकर
नदी के किनारे
ले आया। वह
रोता ही रहा, घसिटता ही
रहा, लेकिन
का सिंह उसे
नदी के किनारे
ले आया। उसने
कहा, झांककर
जरा देख भी तो!
पानी
में दोनों का
प्रतिबिंब
बना। एक क्षण
में क्रांति
घटित हो गई—एक
क्षण में!
क्षण के भी
हजारवें अंश
में हो गई होगी
घटित। उस युवा
सिंह ने जब
नीचे देखा और
देखा कि दोनों
के चेहरे एक जैसे
हैं। और देखा
कि मैं भी
सिंह हूं भेड़
नहीं।
सिंहनाद निकल
गया। प्राण
कंप गए उस
पहाड़ के। जंगल
का रोआं—रोआं
सिहर उठा। उस
के सिंह ने
उसे कहा, अब तू
जा, तुझे
जहा जाना हो।
बात खतम हो गई।
गुरु
इतना ही कर
सकता है कि
तुम्हें
पकड़कर. तुम
रिरियाओगे
बहुत, पक्का
है तुम भागोगे
बहुत, पक्का
है; तुम
जिन भेड़ों के
बीच जीने के
आदी हो गए हो—भीड़
यानी भेड़—तुम
भीड़ में घुस—घुस
जाओगे वापस., तुम्हें
निकालना बड़ा
मुश्किल होगा।
लेकिन एक बार
अगर तुम किसी
के शेर के
हाथों में पड़
गए तो
तुम्हारे
उपाय कारगर
होने वाले नहीं।
वह कही न कहीं
से तुम्हें
दिखा ही देगा
कि तुम भी यही
हो।
बस, —इतनी
सी तो बात है ' तत्वमसि
श्वेतकेतु।
कुछ और कहने
को भी तो नहीं
है। ठीक से
सुन लिया, बात
हो गई।
तो
सुनते वक्त
सोचो मत।
सुनते वक्त
सिर्फ सुनो।
सुनते वक्त
गुनो भी मत; क्योंकि
गुनने में
तुम्हारे
अर्थ आ जाएंगे।
सुनते वक्त बस
सुनो; उतना
काफी है। फिर
पीछे गुन लेना।
क्योंकि अगर —ठीक
से तुमने सुन
लिया तो फिर
तुम्हारे
अर्थ तुम न रोप
पाओगे। एक बार
मेरा अर्थ
तुम्हारे
भीतर पहुंच
जाए बस, फिर
तुम न उसे बदल
पाओगे। लेकिन
तुम उसे
पहुंचने ही न
दो, मेरा
शब्द
तुम्हारे
मस्तिष्क पर
दस्तक दे और तुम
उसका अर्थ
तत्काल कर लो,
मैं जब बोल
रहा हूं र तब
तुम अगर सोचते
चलो मेरे साथ—साथ,
तो चूक हो
जाएगी।
अब
मैं देखता हूं
कई बार, नए—नए
लोग आते हैं, तो अगर
उन्हें मेरी
बात ठीक लगती
है तो वे सिर हिलाते
हैं। अगर ठीक
नहीं लगती तो
वे इनकार भी
करते जाते
हैं
कि नहीं, यह
बात जंचती
नहीं। यहां
मैं बोल रहा
हूं र वहां वे
मेरे साथ
समानांतर सोच
रहे हैं। संभव
ही नहीं है।
फिर तो हम रेल
की समानांतर
पटरियों की
तरह दौड़ते
रहें सदा, कोई
मिलन न हो
पाएगा। समानांतर
रेखाएं कहीं
नहीं मिलतीं।
तुमने
अगर सोचा—मैं
इधर बोलता चला, तुम
उधर सोचते चले—तो
तुम वही
सुनोगे, जो
तुम सदा से
सुनते रहे हो।
तुम मुझे सुन
ही न पाओगे।
इसका यह अर्थ
नहीं है कि जब
मैं बोल रहा
हूं तो, तुम
जो मैं कहता
हूं उसे
स्वीकार कर लो।
स्वीकार की तो
बात ही नहीं
है अभी।
क्योंकि
स्वीकार—अस्वीकार
दोनों सोचने
के हिस्से हैं।
मैं
तुमसे कहता
हूं, सोचो ही मत——न
स्वीकार, न
अस्वीकार; तुम
एक खुले द्वार
की तरह—जैसे
धूप भीतर आ
जाती है, ऐसा
मुझे भीतर आ
जाने दो; अभी
निर्णय मत लो।
जल्दी मत करो
कि ठीक है या
गलत, फिर
बैठकर पीछे
ठीक सोच लेना।
लगे ठीक नहीं
है, द्वार
बंद कर लेना।
मगर धूप एक
बार भीतर आ गई
तो किसने कब
द्वार बंद
किया है?
इसलिए
तुमसे मैं यह
कहता नहीं कि
मुझे स्वीकार
करो,
वह चिंता ही
नहीं है।
क्योंकि जो
मैं कह रहा
हूं र वह कोई
मंतव्य नहीं
है, कोई
विचार नहीं है,
कोई
सिद्धात नहीं
है, वह
सीधा जीवन का
तथ्य है। वह
धूप की तरह है,
अगर एक बार
तुम्हारे
द्वार खुल गए,
अगर एक बार
तुम्हारे अनजाने
मैं भीतर
प्रविष्ट हो
गया, तो
तुम फिर
दुबारा द्वार
बंद न कर
पाओगे। वह तो
हवा के एक
ताजे झोंके की
तरह है।
ही, तुम
द्वार ही न
खोलो, और
तुम भीतर की
बंद, सड़ी
दुर्गंध में
ही जीने के
आदी रहो, और
हवा के झोंके
को आने ही मत
दो, द्वार
पर खोलने के
पहले ही तुम
विचार करो कि
ठीक है या गलत,
तो अड़चन है।
क्योंकि ठीक
तो तुम्हें
दुर्गंध
मालूम होगी, जिसके तुम
आदी हो। ठीक
तो तुम्हें
वही मालूम
होगा, जिसके
साथ तुम सदा
जीए हो।
यह
बिलकुल अभिनव, यह
बिलकुल नया, यह बिलकुल
अपरिचित—
अनजाना—यह
तुम्हें ठीक
नहीं मालूम
होगा। ठोंक—पीटकर
तुम इसे अपने
को समझा भी
सकते हो, ठीक
है; तो भी
तुम्हारी
ठोंक—पीट में
गलत हो जाएगा।
यह बड़ी नाजुक
बात है।
जैसा
तुमने देखा, कांच
के बर्तनों को
भेजना हो कहीं
तो डब्बे पर
लिखते हैं, हैंडल
केयरफुली।
बड़ी नाजुक बात
है, जो मैं
तुमसे कह रहा
हूं। हैंडल
केयरफुली! जरा
हिफाजत रखना।
तुम ठोंक—पीटकर
अपने मतलब का
मत बना लेना, उसमें ही
टूट जाएगा।
तुम जल्दी मत
करना। तुम
सिर्फ मुझे
भीतर आने दो, फिर पीछे
तुम खूब सोचना—विचारना,
फिर तुम
निर्णय करना।
अगर न रखना हो
भीतर, द्वार
फिर बंदकर
लेना। धूप
द्वार बंद
करते ही विदा
हो जाएगी, उसे
अलग से
निकालने की
जरूरत भी न
रहेगी। द्वार
बंद कर लेना।
अगर स्वच्छ
हवा आ भी गई थी
भीतर तो बहुत
घबड़ाओ मत, तुम्हारी
गंदी हवा काफी
है, उसे भी
विकृत कर लेगी।
इसलिए जल्दी न
करो।
भाषा
की अड़चन है।
और अगर तुम
साथ—साथ सोचते
भी चले तो
भाषा की अड़चन
है कि जो कहना
है,
वह मैं
तुमसे कह नहीं
सकता; उसका
हजारवां
हिस्सा भी कह
पाऊं तो बहुत।
जो मुझे कहना
है, वह
सागर जैसा है;
एक बूंद भी
तुम्हारे कंठ
में डाल पाऊं
तो बहुत। जो
कहना है, वह
अनंत आकाश
जैसा है, मैं
तुम्हें थोड़ा
सा आंगन का
कोना भी दिखा
पाऊं तो बहुत।
फिर
तुम खड़े हो
वहां, सोच रहे
साथ—साथ। तो
पहले तो मैं
ही उसे पूरा
नहीं कह पाता,
क्योंकि
भाषा की अड़चन
है।
वाणी
कितनी विवश
बंधी जो
रूढ़
अर्थ के कारा
में
हर
निर्णय असहाय
बह रहा
चिर—संशय
की धारा में
सचमुच
ही पत्थर पर
जड़ है
जीवन
के विश्वासों की
पंखों
की नादानी
करते
परिभाषा
आकाशों की
शब्द
कहां परिभाषा
कर सके हैं
आकाश की!
पंखों
की नादानी
करते
परिभाषा
आकाशों की
पंख
आकाश में उड़ते
हैं माना; आकाश
को थोड़ा जानते
भी हैं ऐसा भी
माना; लेकिन
आकाश की
परिभाषा तो
पंख न कर
सकेंगे।
परिभाषा के
लिए तो पूरा
आकाश जानना
होगा।
परिभाषा के
लिए तो आकाश
की परिधि छूनी
पड़ेगी। तभी तो
परिभाषा होगी,
जब परिधि छू
ली जाएगी।
लेकिन आकाश की
कोई परिधि
नहीं है तो
परिभाषा कैसे?
शब्द
उड़ते हैं मौन
के आकाश में, लेकिन
मौन की
परिभाषा नहीं
कर सकते। इतना
ही काफी है कि
दूर गया पक्षी
आकाश की थोड़ी
सी सुवास, अपने
पंखों में ले
आए परिभाषा
नहीं। इतना ही
बहुत है कि
दूर गया पक्षी
थोड़ी सी खबर ले
आए। इतना ही
काफी है कि
दूर गया पक्षी
तुम्हारे भीतर
के पक्षी के
लिए भी थोड़ी
सी सुगबुगाहट
दे—दे; कि
तुम्हारे
भीतर का पक्षी
भी पर फैलाने
लगे। परिभाषा
संभव नहीं है।
तो
मैं जो कह रहा
हूं वह कोई
दर्शनशास्त्र
नहीं है।
तुम्हें
समझना है, ऐसा
नहीं है, तुम्हें
सुनना है, बस
ऐसा! तुम मुझे
ऐसे ही सुनो, जैसे पक्षी
के गीत को
सुनते हो।
कोयल गाती है,
क्या करते
हो तुम—अर्थ
निकालते हो? अर्थ वहा
कुछ है ही नहीं।
फूल खिलता है,
क्या करते
हो तुम—अर्थ
निकालते हो? अर्थ वहां
कुछ है ही
नहीं। विराट
की तरफ इंगित
हैं, इशारे
हैं, अर्थ
नहीं।
मैं
तुमसे जब बोल
रहा हूं तो
मेरे साथ तुम
वही व्यवहार
करो—सदव्यवहार, जो
तुम कोयल के
साथ करते हो, पानी के
झरने के साथ
करते हो। सुनो
मुझे। जरा
मुझे जगह दो—डरते—डरते
ही सही, पूरा
न सही तो न सही,
थोड़ा सा
द्वार खोलो, थोड़ी सी
रंध्र मुझे दो।
मैं
कोई खबर लाया
हूं जो दूर की
है और कुछ ऐसी
है कि
तुम्हारे पास
उसे समझने के
लिए कोई शब्द नहीं।
मेरे पास भी
उसे समझाने के
लिए कोई शब्द
नहीं हैं। यह
मैं जो बोल
रहा हूं ऐसे
ही है, जैसे
गूंगा इशारे
कर रहा हो। और
कठिनाई बढ़
जाती है, अगर
तुम भी बहरे
हो, तुम
अंधे हो तो और
कठिनाई बढ़
जाती है। मैं
गूंगा, तुम
बहरे—अंधे; और कठिनाई
बढ़ जाती है।
सभी
बुद्ध पुरुष
गूंगेपन का
अनुभव करते
हैं. चे केरी
सरकस। स्वाद
तो ले आते हैं, लेकिन
—स्वाद इतना
बड़ा है, स्वाद
इतना विराट है,
स्वाद इतना विशाल
है कि कोई
शब्द उसमें
कारगर नहीं हो
पाता। किसी
शब्द में वह
समाता नहीं।
शब्द
को डुबो—डुबोकर
उस विशालता
में तुम्हें
हम देते हैं, तुम
जल्दी करके
उसे बिगाड़ मत
लेना। नाजुक
है, हिफाजत
की जरूरत है।
सुन लो
निमंत्रण को,
जल्दी मत
करो सोचने की।
तुमसे कोई कह
भी नहीं रहा
है कि तुम कुछ
करो।
मुझसे
लोग पूछते हैं, आप
इतना बोले चले
जाते हैं!
करूं
भी क्या? तुम
जब तक न
सुनोगे, बोलना
ही पड़ेगा। यह
शिकायत मेरे
ऊपर न रहेगी, यह शिकवा मुझसे
न रहेगा कि
मैं नहीं बोला।
अगर तुम चूके
तो तुम अपने
कारण चूकोगे,
मेरे कारण
नहीं चूक सकते।
पंख
खुल जाते
स्वयं ही
शून्य
का पाकर
निमंत्रण
विस्मरण
होता सहज ही
नीड़
का आवास उस
क्षण
तुम
मेरे
निमंत्रण को
भर सुन लो।
कोई बहुत दूर
की पुकार लाया
हूं। कोई गीत
लाया हूं जो
तुमने सुना
नहीं। कोई
स्वर लाया हूं? जो
अपरिचित है।
कोई छंद, जिससे
तुम्हारी
पहचान नहीं।
सुनो!
सुनते समय
विचारो मत।
विचार बीच में
आ जाएं, हटा
दो। उनसे कहो,
क्षमा करो,
थोड़ी देर
बाद तुम आ
जाना। अगर तुम
थोड़ा भी हटा
पाए, थोड़ी
भी जगह मिली, कहीं से
थोड़ी सी भी
किरणें तुम
में प्रविष्ट
हो गयीं, वे
तुम्हें
रूपांतरित कर
देंगी।
मेरा
बहुत बड़ा जोर
इस बात पर है
कि तुम ठीक से
सुन लो। तुम
कुछ करो, इस पर
मेरा जोर ही
नहीं है।
तुम
से कुछ—कुछ
करने को भी
कहता हूं
क्योंकि
तुम्हें अगर ऐसा
लगे कि कुछ भी
करने को नहीं
है तो
तुम्हारी
बुद्धि के
बाहर हो जाती
है बात; और भी
पकड़ के बाहर
हो जाती है।
तुम सोचते हो
कुछ करने को, मैं जानता
हूं कुछ करने
को नहीं है
सिर्फ जागने
को है। और
जागना तो
सिर्फ सुनकर
भी हो सकता है।
कोई
सो रहा है, क्या
करना है इसको
जगाने के लिए?
थोड़ा हिलाएंगा,
पुकारेंगे।
पुकार रहा हूं
तुम्हें, हिला
रहा हूं
तुम्हें।
पंख
खुल जाते
स्वयं ही
शून्य
का पाकर
निमंत्रण
विस्मरण
होता सहज ही
नीड़
का आवास उस
क्षण
जैसे
ही तुम्हें
विराट आकाश का
निमंत्रण मिल जाएगा, जरा
सा तुम्हारी
खिड़की से आकाश
तुम में झांके,
पंख
फड़फड़ाने
लगेंगे। तुम
भूल ही जाओगे
उस निमंत्रण
के क्षण में
उस छोटे से घर
को, जो
तुमने बसाया।
वह नीड़ जिसको
तुमने अब तक
जीवन समझा, उस विराट के
आकर्षण में, जादू में, उस घर को तुम
भूल ही जाओगे।
तुम उड़ ही
पड़ोगे।
पंख
तुम्हारे पास
हैं। याद
तुम्हें नहीं
कि पंख
तुम्हारे पास
हैं। पंख
तुम्हारे पास
हैं,
आकाश
तुम्हारे पास
है, तुम्हें
चारों तरफ
उसने घेरा।
लेकिन पंखों
की याद नहीं
तो तुम आकाश
को कैसे जानो?
सुनो।
श्रावक बनो।
सम्यक श्रवण, राइट
लिसनिंग, महत
क्रांति है।
जाहिद
शराबे—नाब की
तासीर कुछ न
पूछ
अकसीर
है जो हलक के
नीचे उतर गई
पवित्र
शराब की बात
ही मत पूछो।
जाहिद
शराबे—नाब की
तासीर कुछ न
पूछ
पवित्र
शराब की बात
ही मत पूछो।
वही तो उड़ेल
रहा हूं।
अकसीर
है जो हलक के
नीचे उतर गई
पर
सवाल यह है कि
तुम्हारे कंठ
के नीचे उतर
जाए। तुम्हारे
हृदय में उतर
जाए। थोड़ी राह
दो। सुनो मेरी
दस्तक, थोड़ी
राह दो।
रिन्दाने—बोरिया
की है सोहबत
किसे नसीब
जाहिद
भी हम में बैठ
के इन्सान हो
गया
रिन्दाने—बोरिया
की है सोहबत
किसे नसीब
सरल—हृदय
शराबियों का
साथ किसे
मिलता? मिल
जाए तो साथ
बैठ—बैठकर ही
क्रांति घटित
हो जाती है।
इसे
हमने पूरब में
सत्संग कहा है।
सत्संग का
अर्थ है : पीए
हुओं के पास
बैठ जाना। पीए
हुओं की
मौजूदगी शराब
है। पीए हुओं
के आसपास का
आसमान शराब है।
पीए हुओं के
आसपास का
वातावरण शराब
है।
थोड़ा
तुम राह दो, ताकि
जो मैं डाल
रहा हूं उड़ेल
रहा हूं,
वह हलक के
नीचे उतर जाए।
वह तुम्हारे
जरा कंठ के
नीचे चला जाए।
खतरा
यही है कि
कहीं कंठ में
न अटक जाए।
कंठ में अटक
गया तो तुम
वही दूसरों को
समझाने लगोगे—बिना
समझे स्वयं।
कंठ में जो
अटक जाता है, वह
बाहर आने की
कोशिश करता है।
उससे वमन होता
है, उलटी
होती है। कंठ
के नीचे जो
उतर जाता है, वह तुम्हारा
मांस—मज्जा बन
जाता है, वह
तुम्हारा
जीवंत अंग हो
जाता है।
आखिरी
सवाल
प्रवचन
या दर्शन में
जो प्रश्न
पूछे जाते हैं, उनमें
से लगभग अस्सी
प्रतिशत के
बारे में मुझे
लगता है कि वे
मेरे ही हैं, पंद्रह
प्रतिशत के
लिए ईर्ष्या
होती है कि
काश वे मेरे
होते; और
शेष के लिए
संतोष होता है
कि वे मेरे
नहीं हैं। ऐसा
क्यों है?
और थोड़े
गौर से देखना, थोड़े
और जागकर
देखना तो
अस्सी
प्रतिशत पर
बात रुकेगी
नहीं। और थोड़ा
गौर से देखोगे
तो तुम पाओगे
कि पांच प्रतिशत
को, जिन्हें
तुम सोचते हो
कि मेरे नहीं
हैं, वे भी
तुम्हारे हैं।
और थोड़े गहरे
जाओगे तो
पंद्रह
प्रतिशत के
लिए जिन्हें
सुनकर
तुम्हें लगता
है ईर्ष्या
होती है कि
काश मेरे होते,
वे भी
तुम्हारे हैं।
आदमी—आदमी
में फर्क क्या
है?
ढंग अलग
होंगे पूछने
के, बाकी
प्रश्न वही
हैं। रूप—रेखा
अलग होगी, बात
अलग नहीं है।
हर आदमी
परमात्मा की
खोज में है—हर
आदमी! चाहे
उसने पूछा हो,
चाहे न पूछा
हो; चाहे
उसे खुद भी
पता हो, न
पता हो। जैसे
हर बीज वृक्ष
की तलाश है, वृक्ष होना
चाहता है; वैसे
हर आदमी
परमात्मा
होना चाहता है।
अगर
तुम मुझसे
पूछो
तुम्हारे
प्रश्नों के
बाबत, तो मैं
उनके ढंग अलग
पाता हूं रंग
अलग पाता हूं
आवरण अलग पाता
हूं। लेकिन
जैसे ही
प्रश्न के
भीतर प्रवेश
करो, वे सब
एक हैं। इसलिए
तो तुम्हारे
प्रश्न भी
सुनने की मुझे
जरूरत नहीं और
मैं जवाब दिए
चला जाता हूं।
मैं उन्हें
जानता ही हूं।
एक
आदमी में झांक
लिया तो सब
आदमियों में
झांक लिया। एक
आदमी के
प्रश्न पहचान
लिए तो सारी
आदमियत के
प्रश्न पहचान
लिए।
और
अगर थोड़े गहरे
गए तो तुम यही
न पाओगे कि
दूसरों के
द्वारा पूछे
गए
प्रश्न
तुम्हारे हैं, तुम
यह भी पाओगे
कि मेरे
द्वारा दिए गए
उत्तर भी
तुम्हारे हैं।
तू
ही है तेरा
प्रश्न और
तू
ही तेरा उत्तर
शेष
रही अब क्या
जिज्ञासा?
अधरों
से उलझा मत
भाषा
तू
ही स्वयं
पुजारी
तू
ही है प्रतिमा
का पत्थर
दुग्ध
फिरे नवनीत
ढूंढता
दुग्ध
फिरे नवनीत
ढूंढता
क्या
यह मूढ़ प्रयास
न खलता?
सागर
का प्रतिरोम
कह रहा
मंथन
कर,
मंथन कर।
नवनीत
तुममें छिपा
है।
मंथन
कर,
मंथन कर।
आज
इतना ही।
thank you guruji
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