-ओशो
(ओशो
द्वारा भगवान
बुद्ध की
सुललित वाणी
धम्मपद पर
दिए गए दस
अमृत
प्रवचनों का
संकलन)
जो
गीत तुम्हारे
भीतर अनगाया
पडा है। उसे
गाओ। जो वीणा
तुम्हारे
भीतर सोई हुई
पड़ी है छेड़ो
उसके तारों
को। जो नाच
तुम्हारे
भीतर तैयार हो
रहा है, उसे तुम बोझ
की तरह मत
ढोओ। उसे
प्रगट हो जाने
दो। प्रत्येक
व्यक्ति
अपने भीतर
बुद्धत्व को
लेकर चल रहा
है। जब तक वह
फूल न खिले,तब तक
बेचैनी रहेगी, संताप
रहेगा। वह फूल
खिल जाए,
निर्वाण है।
सच्चिदानंद
है, मोक्ष
है।
..... ...... ......
.......
गीता में
कृष्ण सारथी
हैं। अर्थ है
कि जब चैतन्य
हो जाए सारथी, तुम्हारे
भीतर जो
श्रेष्ठतम है
जब उसके हाथ में
लगाम आ जाए।
बहुत बार अजीब
सा लगता है
कृष्ण को
सारथी देखकर।
अर्जुन ना-कुछ
है अभी, वह रथ
में बैठा है।
कृष्ण सब कुछ
है, वे सारथी
बने हैं। पर
प्रतीक बड़ा मधुर
है। प्रतीक
यही है कि
तुम्हारे
भीतर जो ना-कुछ
है वह सारथी न
रह जाए; तुम्हारे
भीतर जो सब
कुछ है वही
सारथी
तुम्हारी
हालत उलटी है।
तुम्हारी
गीता उलटी है।
अर्जुन सारथी
बना बैठा है।
कृष्ण रथ में
बैठे हैं। ऐसे
ऊपर से लगता
है-मालकियत, क्योंकि
कृष्ण रथ में
बैठे हैं और
अर्जुन सारथी
है। ऊपर से
लगता है, तुम
मालिक हो। ऊपर
से लगता है, तुम्हारी
गीता ही सही
है। लेकिन फिर
से सोचना, व्यास
की गीता ही
सही है।
अर्जुन रथ में
होना चाहिए।
कृष्ण सारथी
होने चाहिए।
मन रथ में बिठा
दो, हर्जा नहीं
है। लेकिन
ध्यान सारथी
बने, तो एक मालकियत
पैदा होती है।
ओशो
एस
धम्मो
सनंतनो-(भाग-2)
thank you guruji
जवाब देंहटाएं