राजनीति
से छुटकारा—(प्रवचन—पंद्रहवां)
मेरे
प्रिय आत्मन्!
शिविर
का अंतिम दिन
है और इसलिए
यहां से विदा होने
के पूर्व कुछ
थोड़ी सी जरूरी
बातें आपसे कह
देनी आवश्यक
हैं। लेकिन
इसके पहले कि
मैं उन्हें
कहूं, एक-दो
प्रश्न और, जो
महत्वपूर्ण
हैं और छूट गए
हैं, उनकी
भी चर्चा कर
लेनी उचित
होगी। फिर भी
कुछ प्रश्न
छूट जाएंगे, तो मैं
निवेदन
करूंगा कि जिन
प्रश्नों के
उत्तर दिए गए
हैं, जिनकी
चर्चा की गई, यदि उनको
ठीक से सुना
गया होगा, तो
जो प्रश्न छूट
जाएं उनका भी
विचार आपके
भीतर पैदा हो
सकता है।
बहुत
से प्रश्न
समान हैं, थोड़ा-बहुत
भेद है, और
जो-जो उनमें
प्रतिनिधित्व
करने वाले
प्रश्न थे
उनको चुन कर
मैंने अपने
विचार आपसे
कहे।
सबसे
पहले एक सबसे
फिजूल प्रश्न
है उसको ले लूं, ताकि उससे
छुटकारा हो
जाए। वह तीन
दिन से मैं उसे
फेंक देता हूं,
वह फिर कोई
लिख कर भेज
देता है। फिर
उसे अलग कर देता
हूं, फिर
भेज देता है।
फिर जब ऐसा लगा होगा कि मैं फेंकता ही रहूंगा तो फिर मुझसे आज दो-चार लोग आकर निवेदन भी कर गए हैं कि उसका तो उत्तर मुझे देना ही है। तो उसकी ही सबसे पहले--ताकि उससे निपटारा भी हो जाए, उस झंझट से छुट्टी भी हो और फिर हम और कुछ जो जरूरी बातें हैं वे कर सकें। वैसे मैं फिजूल कह रहा हूं, वैसे कई को लगेगा कि बहुत सार्थक है। मुश्किल से कोई होगा जिसको फिजूल लगेगा। क्योंकि हमारे मस्तिष्क जिस भांति काम करते हैं, उन्होंने बहुत सी निरर्थक बातों को बहुत सार्थक और बहुत सी सार्थक बातों को बिलकुल निरर्थक समझ रखा है।
फिर जब ऐसा लगा होगा कि मैं फेंकता ही रहूंगा तो फिर मुझसे आज दो-चार लोग आकर निवेदन भी कर गए हैं कि उसका तो उत्तर मुझे देना ही है। तो उसकी ही सबसे पहले--ताकि उससे निपटारा भी हो जाए, उस झंझट से छुट्टी भी हो और फिर हम और कुछ जो जरूरी बातें हैं वे कर सकें। वैसे मैं फिजूल कह रहा हूं, वैसे कई को लगेगा कि बहुत सार्थक है। मुश्किल से कोई होगा जिसको फिजूल लगेगा। क्योंकि हमारे मस्तिष्क जिस भांति काम करते हैं, उन्होंने बहुत सी निरर्थक बातों को बहुत सार्थक और बहुत सी सार्थक बातों को बिलकुल निरर्थक समझ रखा है।
पूछा
है कि राजनीति
के संबंध में
मेरे क्या विचार
हैं?
उसे
मैं टालता रहा, क्योंकि सच
में तो मैं
राजनीति कुछ
जानता नहीं
हूं तो विचार
क्या होंगे!
कोई संबंध
मेरा नहीं है।
लेकिन आप सबका
संबंध है, इसलिए
सोचता हूं कि
विचार कर लेना
उस पर भी उपयोगी
होगा। चूंकि
कुछ जानता
नहीं हूं
इसलिए बहुत तो
नहीं कह सकता,
एक छोटी सी
कहानी कहता
हूं। और उसी
कहानी से आप
समझने की
कोशिश करना कि
मेरे क्या
विचार हो सकते
हैं। वह कहानी
भी कल किसी ने
मेरे पास भेज
दी है, उसी
के आधार पर
कहता हूं। वह
प्रश्न भी
किसी का है, वह कहानी भी
किसी ने भेजी
है। हालांकि
कहानी ठीक
वैसी नहीं बची
है जैसी
उन्होंने
भेजी है।
कहानी में
बहुत फर्क
करने पड़े हैं
और तब वह आपके
काम की हो पा
रही है।
एक
अमावस की रात
में, घनी अंधेरी रात
में एक उल्लू
एक दरख्त पर
बैठा हुआ था।
अंधेरी रात थी,
दो छछूंदर
दरख्त के नीचे
किसी पोल में
रहते होंगे, वे
निकले--डरे
हुए से, कोई
उन्हें देख न
ले, कोई
पकड़ न ले। तभी
उल्लू ने ऊपर
से कहा, हू!
छछूंदरों
ने समझा कि यह
उल्लू क्या
अंग्रेजी
बोलता है! हालांकि
कोई भी उल्लू
देशी भाषा
बोलना पसंद नहीं
करते हैं।
इसलिए शक में
कोई आश्चर्य
नहीं था। छछूंदरों
ने भी बहुत से
अखबार देखे और
पढ़े-सुने थे, इसलिए
थोड़ी-बहुत
अंग्रेजी वे
भी समझने लगे
थे। उन्होंने
समझा कि यह
पूछ रहा
है--कौन? हू?
उन्होंने
समझा कि यह
पूछ रहा
है--कौन? छछूंदर तो वैसे ही
डरे हुए थे
निकलते वक्त,
तो
उन्होंने
देखा कि
अंधेरे में भी
कौन देख रहा
है और किसने
पूछा--कौन? तो
उन्होंने
पूछा, क्या
आप हमको देख
रहे हैं?
उल्लू
ने फिर कहा, हू! लेकिन छछूंदरों
ने समझा कि यू!
यानी
उन्होंने कहा
कि तुम! अरे हम
तुम्हें
भलीभांति
पहचानते हैं। छछूंदर तो
बहुत घबड़ा गए,
उन्होंने
कहा, क्या
आपको अंधेरे
में दिखाई
पड़ता है? अंधेरे
में तो किसी
को दिखाई नहीं
पड़ता। सतयुग
में ऐसा होता
था कि कुछ
लोगों को
अंधेरे में दिखाई
पड़ता था।
सर्वज्ञ होते
थे, त्रिकालज्ञ
होते थे, अंधेरे
में देखने
वाले लोग होते
थे। अब यहां कलियुग
में कहां कि
अंधेरे में
किसी को दिखाई
पड़ता हो।
उल्लू
ने फिर कहा, हू! छछूंदरों
ने समझा कि वह
कह रहा है टू।
वे दो ही छछूंदर
थे, वे तो
घबड़ा गए। कहा
कि निश्चित ही
कोई सतयुगी
पुरुष, शायद
धर्म की हानि
हो गई है, इस
कारण अवतार
लेकर मौजूद
हुए हैं।
उन्होंने साष्टांग
दंडवत किया और
कहा, कितना
अच्छा न हो कि
आप सब राज्य
का कारोबार
सम्हाल लें।
यहां तो सब
गड़बड़ हुआ जा
रहा है। सब
राज्य का
कारोबार आप
सम्हाल लें तो
कितना अच्छा न
हो। वे गए और
उन्होंने
अपने राज्य के
एक मंत्री को
जाकर निवेदन
किया कि अब
राज्य के नेता
के लिए किसी
को खोजने की
जरूरत नहीं।
एक ऐसे प्रज्ञाशील
व्यक्तित्व
को हम खोज कर आ
गए हैं, जो
न केवल
अंग्रेजी
बोलना जानता
है, बल्कि
अच्छी
अंग्रेजी
बोलना जानता
है। और अगर
भारत के बाहर
जाए तो बहुत
से
विश्वविद्यालय
उसको डॉक्ट्रेट
देंगे। इसमें
कोई शक-शुबहा
नहीं। और भी
बड़े आश्चर्य
की बात है, उसे
अंधेरे में
दिखाई पड़ता
है। और जिसको
अंधेरे में
दिखाई पड़ता है
उसके हाथ में
अगर मुल्क हो,
तो सब ठीक
अपने आप हो
जाएगा।
अंधेरे में
दिखाई पड़ना!
मंत्री
अभी-अभी चुना
गया एक गधा
था। ऐसा नहीं था
कि उस राज्य
में और लोग
नहीं थे, लेकिन
गधों के
अतिरिक्त कोई
मंत्री बनने
को राजी नहीं
हो रहा था। वह
अभी नया-नया
चुना गया था।
पढ़ा-लिखा तो
नहीं था। इससे
बहुत
प्रभावित हुआ
कि अंग्रेजी
भी बोलते हैं!
और अंधेरे में
भी देखते हैं!
तब तो जरूर
मैं चलूं, उनकी
परीक्षा कर
लूं। और अगर
यह बात सच है
तो क्यों न
उन्हें
राष्ट्रपति
बना दिया जाए!
वह
गया। और अपने
दो-चार साथी
मंत्रियों को
भी ले गया।
उसी वक्त वे
गए। राज्य के
लिए नेता की
जरूरत थी।
उन्होंने
जाकर पूछा, कुछ प्रश्न
पूछे। और
प्रश्न पूछने
में उनको वैसे
ही दिक्कत हो
गई जैसे
मंत्रियों को
किसी का
इंटरव्यू
लेते वक्त
होती है कि
क्या पूछें? उत्तर देने
वाले की
दिक्कत तो दूर
है, पूछने
वाले की भी
दिक्कत होती
है कि क्या
पूछें? तो
उन्होंने
जाकर पूछा, क्या आप बता
सकते हैं
हमारे पास
कितने छछूंदर
बैठे हैं? उल्लू
ने कहा, हू! छछूंदरों
ने कहा, देखो,
कहा न उसने टू। गधे ने
कहा कि उत्तर
तो बिलकुल साफ
दिया। अंधेरे
में इसको दो छछूंदर
दिखाई पड़ रहे
हैं! गधे ने
पूछा, हमारे
कितने कान हैं?
उसने कहा, हू! फिर
उन्होंने
समझा टू।
कहा कि इसको
क्या अंधेरे
में दिखाई
पड़ता है? और
अंग्रेजी भी
बिलकुल साफ
बोलता है! तो
उन्होंने
प्रार्थना की
कि आप कृपा
करें और
राष्ट्रपति
हो जाएं।
उल्लू तो राजी
हो गया। कौन
उल्लू राजी
नहीं हो जाएगा?
वे वापस
लौटे। कहा कि
कल दोपहर में
आपका स्वागत
होगा, ओथ सेरेमनी
हो जाएगी।
वहीं फिर आपको
शपथ-ग्रहण हो
जाएगी। कल
दोपहर आप आ
जाएं। राजभवन
आ जाएं।
वे गए
तो रास्ते में
एक लोमड़ी मिल
गई। वह पत्रकार
थी। उससे उस
मंत्री महोदय
ने कहा कि
राष्ट्रपति
तो मिल गए, अब देश का
भाग्य सुधर
जाएगा। न केवल
वे अंग्रेजी
जानते हैं
बल्कि अच्छी
तरह अंग्रेजी
जानते हैं। हो
सकता है इंग्लैंड
में ही पैदा
हुए हों। यह
भी हो सकता है
कम से कम एंग्लो
इंडियन हों।
अगर यह भी न हो
तो इतना तो तय
है कि वे किसी
साहबी खानदान
से संबंधित
हैं। और फिर
बड़ी बात यह है
कि उनको रात
में दिखाई भी
पड़ता है। और
मुल्क में
अंधेरा भारी
है, जिसको
रात में दिखाई
पड़ता है वह तो
नौका खेकर
ले जाएगा। यही
तो कठिनाई है
कि रात में
किसी को दिखाई
नहीं पड़ता और
मुल्क में घना
अंधेरा है।
लेकिन
लोमड़ी तो
पत्रकार थी, उसने जरा
तर्क उठाया।
उसने कहा, इसका
क्या पक्का
भरोसा कि
जिसको रात में
दिखाई पड़ता हो
उसको दिन में
भी दिखाई पड़ता
होगा?
लेकिन
सभी गधे हंसने
लगे, वह जो सब
मंत्रिमंडल
था वह सभी
हंसने लगा।
उसने कहा, कैसे
पागल हो! यह तो
बिलकुल इल्लाजिकल
बातें कह रहे
हो। अरे यह तो
सीधा तर्क है,
जिसको रात
तक में दिखाई
पड़ता है उसको
दिन में दिखाई
नहीं पड़ेगा? यह तो सीधे
तर्क की बात
है, सीधा
गणित है।
जिसको रात में
दिखाई पड़ता है
उसको दिन में
तो दिखाई
पड़ेगा ही!
जिसको रात तक
में दिखाई
पड़ता है! वे सब
हंसने लगे। उस
लोमड़ी की बात
तो टाल दी गई।
दूसरे
दिन उल्लू
सज-धज कर चला।
लेकिन तब
दोपहर थी, सूरज ऊपर
था। अब उसकी
बड़ी मुसीबत हो
गई। उसको दिखाई
नहीं पड़ रहा
है, वह
किसी तरह चल
रहा है। तो वह
धीरे-धीरे
चलने लगा।
क्योंकि टकराने
का डर था।
लेकिन लोगों
ने कहा कि ठीक
राष्ट्रपति
चुना, कितनी
गंभीर चाल से
चल रहा है!
कितना! जरूर
कुलीन है, किसी
अच्छे परिवार
का है। चाल
देखो कितनी
धीमी, आहिस्ता,
कितनी
गंभीर! वह
गंभीर चलता
हुआ, वह
अपना डरा हुआ
है, क्योंकि
अब उसको दिन
में दिखाई
नहीं पड़ रहा
है। बहुत
थोड़ी-थोड़ी झलक
मिल रही है।
आंखें उसकी झपी
जाती हैं।
लेकिन वह अपने
को साधे हुए
है, संयत, चाल-ढाल सब
संयत। वह वहां
पहुंचा। उन
सबने स्वागत
किया, उसको
मालाएं पहनाईं।
वह उस राज्य
का
राष्ट्रपति
हो गया।
अब वह
राष्ट्र को
आगे बढ़ाने के
लिए आगे बढ़ा।
अब दिन का
वक्त था, दोपहर
तेज थी। देर
तक धूप पड़ने
से और देर तक फूलमालाएं
और
फोटोग्राफर
और उनके फ्लैश
लाइट की
चमक, उल्लू
बड़ी दिक्कत
में पड़ गया।
उसको अब कुछ
भी नहीं सूझ
रहा था। अब वह
किसी तरह वापस
भाग कर अपने
घर पहुंचना
चाहता था कि
इस झंझट से
छूटें और अंधे
होने का पता न
चल जाए। वह
चला। तो अब जब नेता
चला तो उसके
पीछे सारे
जानवर चले, सारा
मंत्रिमंडल
चला।
अब
उल्लू को कुछ
दिखाई नहीं पड़
रहा है, वह
गङ्ढों में
गिर पड़ता है, रास्तों के
उलटे-सीधे
हिस्सों पर
पहुंच जाता है।
तो उसके पीछे उचक-उचक कर
वे जानवर भी
गिरने लगे
जिनको दिखाई
पड़ता था।
क्योंकि जहां
नेता जाता है
वहां अनुयायी
जाते हैं। और
जब उनको चोटें
लगने लगीं और
टांगें टूटने
लगीं तो उस
उल्लू ने कहा,
घबड़ाओ मत, यह तो बनते
हुए राष्ट्र
में अनेक
मुसीबतें आती
ही हैं और
अनेक चोटें
आती हैं। और
जो शहीद हो जाएंगे
वे भी न घबड़ाएं।
शहीदों की
कब्रों पर जुड़ेंगे
मेले, उनकी
चिताओं
पर मेले भरेंगे।
इसलिए बिलकुल
मत घबड़ाओ।
लेकिन
कुछ मरने लगे
पक्षी, पशु।
कुछ तो छोड़ कर
भाग गए। लेकिन
मंत्रिमंडल के
लोग कहां जाते
भाग कर? क्योंकि
जो
मंत्रिमंडल
में घुस जाए
उसके लिए बाहर
दुनिया में
फिर भागने की
कोई जगह नहीं
रह जाती। वह
तो और ऊपर ही
ऊपर जा सकता
है, पीछे
नहीं जा सकता।
तो उनको तो
राष्ट्रपति
के पीछे जाना
ही था, तो
वे तो गए।
गिरने लगे, लेकिन जहां
राष्ट्रपति
जाए वहीं उनको
जाना पड़े।
अनेक उसमें मर
गए। तो
राष्ट्रपति
ने कहा, घबड़ाओ
मत, तुम्हारी
पत्नियों को
महावीर चक्र
प्रदान करेंगे,
बड़े-बड़े
ओहदे देंगे, तुम्हारे
फोटो लगाएंगे,
देश में
तुम्हारा नाम
होगा। देश ऐसे
ही तो बनता
है। जब कोई
मरेगा नहीं, तो देश
कुर्बानी
नहीं देगा तो
बनेगा कैसे? बात तो ठीक
ही थी। और
विश्वास से
पीछा करो, क्योंकि
विश्वास
फलदायी है।
सोच-विचार की
इसमें जरूरत
नहीं है।
सोच-विचार सभी
करने लगेंगे
तो मुल्क मर
जाएगा।
सोच-विचार मुझ
पर छोड़ो।
आखिरकार
किसी तरह वे
उस रास्ते पर
पहुंच गए जो
राजपथ था, कांक्रीट का बना हुआ
बड़ा पथ था, तो
सब
मंत्रिमंडल
के लोग
प्रसन्न हुए
कि देखो आखिर,
मुसीबत
झेलीं, परेशानी
हुई, कई
योजनाएं गुजरीं,
लेकिन फिर आ
तो गए। हम आ तो
गए आखिर राजपथ
पर। जब नेता
का पीछा किया,
कुर्बानी
दी, तो
आखिर राजपथ
मिल गया, आ
गए राजपथ पर।
वह राजपथ पर
बीच में उल्लू
चलने लगा, आसपास
उसका
मंत्रिमंडल, और बाकी
जनता तो घसिट
कर पीछे रह गई
थी, अब तो
कोई साथ नहीं
था। जनता में
से तो अब कोई साथ
नहीं था।
मंत्रिमंडल
था और
राष्ट्रपति
थे और वे चले
जा रहे थे। और
तभी उधर से
जोर से एक ट्रक
कोई पचास-साठ
मील की रफ्तार
से आता हुआ, लेकिन उल्लू
को तो दिखाई
नहीं पड़ता था,
वह तो अकड़
से चला जा रहा
था, उसके
आसपास
मंत्रिमंडल
चल रहा था।
लेकिन गधों को
दिखाई पड़ता
था। गधों ने
कहा कि देखिए
तो, सामने
से ट्रक आ
रहा है! आप
डरते नहीं हैं?
बड़े निर्भय
मालूम होते
हैं! उल्लू ने
कहा, हू!
कौन डरता है!
अब जब
नेता न डरे तो
अनुयायी
क्यों डरे। और
डरे तो फिर
मंत्रिमंडल
में रहने की
गुंजाइश न रह
जाए। तो वे
बढ़ते ही गए, बढ़ते ही
गए...आखिर वह ट्रक ऊपर
ही आ गया और वह
राष्ट्रपति
और
मंत्रिमंडल, सब उसके
नीचे दब गए।
वे सब लाशें
पड़ी रह गईं।
पीछे ट्रक
पर, जहां
लिखा रहता है
हार्न प्लीज,
वहां यह
नहीं लिखा था,
वहां लिखा
था: समय, काल।
यह
छोटी सी कहानी
मैं कहता हूं।
और जिंदगी की धुरी
करीब-करीब ऐसी
मूर्खताओं
के किनारे पर
बहुत
अनेक-अनेक
सदियों से
घूमती रही है
और आज भी घूम
रही है। और
ऐसा नहीं कि
किसी एक देश
का ऐसा दुर्भाग्य
हो, सारी
दुनिया का ऐसा
दुर्भाग्य
है।
जब तक
राजनीति
सर्वोपरि है
तब तक मनुष्य
के जीवन में न
तो आनंद हो
सकता है, न
शांति हो सकती
है। क्योंकि
राजनीति
सर्वोपरि
होने का अर्थ
यह है: इस जीवन
में, इस
जगत में जो सबसे
ज्यादा एंबीशस
होंगे, सबसे
ज्यादा
महत्वाकांक्षी
होंगे, वे
सबसे ऊपर
पहुंच
जाएंगे। और जो
महत्वाकांक्षी
है उसे अपने
अतिरिक्त
किसी से कोई
मतलब नहीं
होता। वह
बातें सब करता
हो, उसे
अपने
अतिरिक्त और
कोई मतलब नहीं
होता। अगर उसे
अपने
अतिरिक्त
किसी और से
मतलब होता तो
वह
महत्वाकांक्षी
नहीं हो सकता
था। महत्वाकांक्षी
व्यक्ति
हिंसक होता
है। और महत्वाकांक्षी
व्यक्ति अंधा
होता है।
महत्वाकांक्षा
अंधा कर देती
है। वह कुछ भी
कर सकता है। और
दुनिया भर में
राजनीति इतनी
प्रभावी है, उसकी वजह से
जो जितने
ज्यादा
महत्वाकांक्षी
लोग हैं, जितने
अंधे, जितने
क्रूर और कठोर
और जितने
हिंसक, वे
सब ऊपर पहुंच
जाते हैं। और
वे जीवन को
परिचालित
करते हैं। और
उनके द्वारा
जीवन चलता है।
इसीलिए तो आए
दिन रोज युद्ध
हो जाते हैं
दुनिया में।
तीन
हजार साल में
साढ़े चार हजार
युद्ध हुए हैं
मनुष्य-जाति
के इतिहास
में! यह
घबड़ाने वाला
तथ्य नहीं
मालूम होता
आपको? यह
कितना
आश्चर्यजनक
है! तीन हजार
साल के इतिहास
में साढ़े चार
हजार लड़ाइयां!
मसलन रोज ही
लड़ाई चलती रही
है। और जिन
दिनों लड़ाई
नहीं चली है
वे दिन शांति
के दिन नहीं
रहे हैं, नई
लड़ाई की
तैयारी के दिन
रहे हैं। उस
वक्त नई लड़ाई
की तैयारी
चलती रही है।
मतलब आदमी के
इतिहास को दो
हिस्सों में
बांटा जा सकता
है--लड़ने का
समय और लड़ाई
की तैयारी
करने का समय।
शांति जैसी
चीज आज तक न
जानी गई है और
न परिचित है।
और यह कैसे
हुआ है?
राजनीति
केंद्र है, तब तक ऐसा ही
होगा! क्योंकि
जो महत्वाकांक्षी
है वह हिंसक
है, और जो
हिंसक है वह
अंततः युद्ध
में ले जाएगा।
चाहे किसी भी
मार्ग से जाए,
राजनीति की
अंतिम परिणति
युद्ध है।
राजनैतिक
दृष्टि ही
युद्ध और
हिंसा पर खड़ी
होती है। अगर
मेरे भीतर
राजनीतिज्ञ
होता है तो
मैं कोशिश
करता हूं कि
आपको पीछे हटाऊं
और मैं आगे
जाऊं। मेरे मन
में पोलिटीशियन
का अर्थ यह
नहीं है कि जो
आदमी सिर्फ
इलेक्शन लड़ता
है वह
राजनीतिज्ञ
हो गया। मेरी
दृष्टि में
राजनीतिज्ञ
से अर्थ है वह
व्यक्ति जो
दूसरों को
पीछे हटा कर
खुद आगे जाना
चाहता
है--किसी भी
दिशा में। जब
सारी दुनिया
इस भांति पोलिटिकल
माइंडेड
होगी, इस
भांति
महत्वाकांक्षी
होगी और
दूसरों को पीछे
हटा कर आगे
जाना चाहेगी,
तो दुनिया
में संघर्ष और
कलह अनिवार्य
है। व्यक्ति
यही करते हैं,
समाज यही
करते हैं, राष्ट्र
यही करते हैं,
तो फिर
युद्ध
अनिवार्य है।
धार्मिक
व्यक्ति
राजनैतिक
व्यक्ति से
ठीक दूसरे छोर
पर खड़ा होता
है। धार्मिक
व्यक्ति का
आग्रह यह है, उसकी सारी
की सारी
चिंतना और
साधना यह है
कि वह अंतिम
होने में
समर्थ हो जाए।
और राजनैतिक की
चिंतना यह है
कि वह प्रथम
होने में
समर्थ हो जाए।
क्राइस्ट
ने एक वचन कहा
है--कि धन्य
हैं वे जो अंतिम
होने को राजी
हैं।
और सच
में ही वे
धन्य हैं जो
अंतिम होने को
राजी हैं।
सुबह मैंने जो
चर्चा की है, अंतिम होने
का मेरा क्या
अर्थ है, वह
आपके खयाल में
आया होगा।
धार्मिक
व्यक्ति वह है
जो अंतिम होने
को राजी है।
और राजनैतिक चित्त
वह है जो
प्रथम होने के
सिवाय तृप्त
नहीं हो सकता।
और जब तक
दुनिया में इस
प्रथम होने की
दौड़ होगी, तब
तक जीवन में
कैसे शांति हो
सकती है?
राजनीति
एक घातक रोग
की तरह
मनुष्य-जाति
को पकड़े रही
है। और अभी भी
पकड़े हुए है, और रोज बढ़ती
जा रही है।
बहुत खतरा है।
या तो राजनीति
बचेगी या
मनुष्य-जाति
बचेगी। ये दो
विकल्प हैं।
अगर दुनिया
में राजनैतिक चित्तता
इसी तरह बढ़ती
गई तो मनुष्य
नहीं बचेगा।
मनुष्य नहीं
बच सकता है।
राजनीति का
अंतिम परिणाम
तीसरा
महायुद्ध
होगा। अंतिम
परिणाम! और वह
युद्ध होगा
विश्वयुद्ध।
वह कोई ऐसा
युद्ध नहीं होगा
कि छोटी-मोटी
लड़ाई जो हम
पहले लड़ते
रहे। वह राणाप्रताप
और शिवाजी
वाली लड़ाई
होने वाली
नहीं है--कि
निकाल ली तलवार
और खड़े हो गए।
वह अब नहीं
होने वाली है।
घोड़े-वोड़े
पर बैठ कर
बहादुरी
दिखाने का
मौका नहीं है।
वह लड़ाई तो
बहुत अदभुत
होने वाली है।
वह तो होने
वाली है टोटल
वार, वह तो
होगा समग्र युद्ध।
उसमें तो सारी
मनुष्य-जाति
नष्ट होगी।
और
राजनीतिज्ञ
सारी दुनिया
में कहते हैं, हम शांति
चाहते हैं।
बड़ी
आश्चर्य की
बात है!
राजनीतिज्ञ
शांति चाह ही
नहीं सकता।
क्योंकि जो
शांति चाहता
है उसे अंतिम
खड़े होने के
लिए राजी होना
चाहिए। जो युद्ध
चाहता है उसे
प्रथम होने की
चेष्टा करनी
चाहिए। प्रथम
होने की
चेष्टा करने
वाला कहे कि
हम शांति
चाहते हैं, तो झूठी
बातें कर रहा
है। वह वैसी
ही बातें कर रहा
है जैसे
मछलियां
पकड़ने को
कांटे पर आटा
लगा देते हैं।
आटा खिलाने की
इच्छा नहीं
होती मछलियों
को, कांटे
में फंसाने की
इच्छा होती
है। लेकिन
बिना आटे
के मछली नहीं
फंसती है।
बिना शांति की
बातें किए
युद्ध नहीं
होता है।
सारे
दुनिया के सभी
युद्ध शांति
के नाम पर लड़े
गए हैं। शांति
चाहते हैं
इसलिए युद्ध
करेंगे।
शांति के लिए
युद्ध? अब
हिंदुस्तान
में ही लोग
कहते थे कि
अहिंसा की
रक्षा के लिए
हिंसा! ऐसी
मूढ़ताएं भी
कहते वक्त कोई
संकोच नहीं
होता है।
शांति के लिए
युद्ध! सब युद्ध
अच्छे-अच्छे
नामों के लिए
लड़े गए हैं, क्योंकि आटा
लगाना पड़ता है
कांटे में तब
मछली फंसती
है। और
राजनीतिज्ञ
समझता रहा है
मनुष्य के मन
को।
अच्छे-अच्छे नारे और
पीछे युद्ध।
अच्छे-अच्छे नारे और
पीछे हिंसा।
अच्छी-अच्छी
बातें और पीछे
सब विकृति आगे
आ जाती है। अब
वह विकृति
इतनी बड़ी हो
गई है कि हो
सकता है पूरी
मनुष्य-जाति
समाप्त हो
जाए। तो क्या
अब और भी
मनुष्य-जाति
को राजनीतिज्ञ
रहने की
सुविधा है?
मेरी
दृष्टि में
नहीं।
क्योंकि राजनीति
अंतिम मृत्यु
हो जाएगी।
वक्त आ गया कि
मनुष्य का
राजनीति से
छुटकारा होना
चाहिए। उसका
चित्त
राजनैतिक
नहीं रह जाना
चाहिए। जीवन
में बड़े मूल्य
हैं! संस्कृति
के मूल्य हैं, धर्म के
मूल्य हैं, साहित्य के
मूल्य हैं, काव्य के, प्रेम के, सौंदर्य के।
सब क्षीण हो
गए हैं, सबके
ऊपर
राजनीतिज्ञ
बैठ गया है।
सब विलीन हो गया
है, सबके
केंद्र में
राजनीति हो गई
है।
यह तो
ऐसे ही हुआ है
जैसे कि किसी
व्यक्ति के व्यक्तित्व
में आत्मा तो
गौण हो जाए, हाथ-पैर
प्रमुख हो
जाएं, तो
व्यक्तित्व
कुरूप और अपंग
हो जाएगा।
मनुष्य के
जीवन में
राजनीति
केंद्रीय
नहीं हो सकती
है। नहीं उसे होना
चाहिए। धर्म
केंद्रीय
होगा, होना
चाहिए।
सौंदर्य
केंद्रीय
होना चाहिए, काव्य की
अनुभूतियां
केंद्रीय
होना चाहिए। राजनैतिकता
केंद्रीय
नहीं होना
चाहिए।
लेकिन
इस समय तो--और
इस समय क्या, हमेशा से
राजनीति
प्रमुख रही है,
केंद्रीय
रही है। क्या
यह संभव नहीं
है कि राजनीति
केंद्र से हटाई
जाए? अगर
नहीं हटाई
गई तो मनुष्य
मिटेगा। और दो
ही विकल्प
हैं--या तो
राजनीति जाए
या मनुष्य
जाएगा।
मुझे
दिखाई पड़ता
है: राजनीति
जानी चाहिए।
कैसे जाएगी? जाएगी नॉन-एंबीशस
माइंड के
पैदा होने से,
गैर-महत्वाकांक्षी
मन के पैदा
होने से राजनीति
जाएगी, नहीं
तो नहीं
जाएगी। इस
राजनीति, उस
राजनीति की
बात नहीं कह
रहा हूं कि यह
पार्टी और वह
पार्टी और यह
दल और वह दल।
नहीं, मैं
तो राजनीति की
बात कह रहा
हूं, किसी
राजनैतिक दल
की बात नहीं
कह रहा हूं।
दुनिया से राजनैतिक
चित्तता
जानी चाहिए और
दुनिया में
धार्मिक चित्तता
आनी चाहिए।
और
दोनों का
केंद्र क्या
है?
राजनैतिक
चित्तता
का केंद्र है
महत्वाकांक्षा
और धार्मिक चित्तता
का केंद्र
महत्वाकांक्षा
नहीं है।
इसी
संदर्भ में एक
प्रश्न और
पूछा है कि
अगर महत्वाकांक्षा
न हो तब तो फिर
जीवन में
विकास ही नहीं
होगा!
निश्चित
ही, अभी जिस
विकास को हम
जानते हैं वह
महत्वाकांक्षा
के ही द्वारा
होता है।
लेकिन सच में
क्या जीवन का
विकास हुआ है?
कभी यह सोचा
कि विकास हुआ
है? क्या
विकास हुआ है?
आपके पास
अच्छे कपड़े
हैं हजार साल
पहले से, इसलिए
विकास हो गया?
या कि आपके
पास बैलगाड़ियों
की जगह मोटरगाड़ियां
हैं, इसलिए
विकास हो गया?
क्या आप झोपड़ी
की जगह बड़े
मकान में रहते
हैं सीमेंट-कांक्रीट
के, इसलिए
विकास हो गया?
यह
विकास नहीं
है। मनुष्य के
हृदय में, मनुष्य की
आत्मा में कौन
सी ज्योति जली
है जिसको हम
विकास कहें? कौन सा आनंद
स्फूर्त हुआ
है जिसको हम
विकास कहें? मनुष्य के
भीतर क्या
फलित हुआ है, कौन से फूल
लगे हैं जिसको
हम विकास कहें?
कोई विकास
नहीं दिखाई
पड़ता। कोई
विकास नहीं दिखाई
पड़ता, एक
कोल्हू का बैल
चक्कर काटता
रहता है अपने
घेरे में, वैसे
ही मनुष्य की
आत्मा चक्कर
काट रही है।
हां, कोल्हू
के बैल पर कभी
रद्दी कपड़े
पड़े थे, अब
उस पर बहुत मखमली
कपड़े पड़े हैं।
लेकिन इससे
विकास नहीं हो
जाता। या
कोल्हू के बैल
पर
हीरे-जवाहरात
लगा कर हम कपड़े
टांग दें, तो
भी विकास नहीं
हो जाता।
कोल्हू का बैल
कोल्हू का बैल
है और चक्कर
काटता रहता
है। और उस
चक्कर काटने
को ही वह
सोचता है: मैं
बढ़ रहा हूं, आगे बढ़ रहा
हूं।
मनुष्य
आगे नहीं बढ़
रहा है। इधर
हजारों साल से
उसमें कोई परिलक्षण
ज्ञात नहीं
हुए जिससे वह
आगे गया हो--कि
उसकी चेतना ने
नये तल छुए
हों, कि उसकी
चेतना
ऊर्ध्वगामी
हुई हो, कि
उसकी चेतना ने
आकाश की कोई
और
अनुभूतियां
पाई हों, कि
उसकी चेतना
पृथ्वी से
मुक्त हुई हो
और ऊपर उठी हो,
कि वह
परमात्मा की
तरफ गया हो--यह
कोई विकास नहीं
हुआ है।
महत्वाकांक्षा
अगर है तो इस
तरह का विकास
हो ही नहीं
सकता। विकास
हो सकता है कि
मकान बड़े होते
चले जाएंगे।
और यह घड़ी आ
सकती है कि
मकान इतने बड़े
हो जाएं कि
आदमी को खोजना
मुश्किल हो
जाए, वह इतना
छोटा हो जाए।
और यह घड़ी आ
सकती है कि सामान
इतना ज्यादा
हो जाए कि
आदमी अपने ही
हाथ के द्वारा
बनाए गए सामान
के नीचे दबे
और मर जाए। और
यह हो सकता है
कि एक दिन हम
इतना विकास कर
लें, यह
तथाकथित
विकास, कि
हमारे पास सब
हो, सिर्फ
आदमी की आत्मा
न बचे।
एक बार
ऐसा हुआ। एक
नगर में आग लग
गई थी और एक भवन
जल रहा था
लपटों में। और
भवनपति
बाहर खड़ा था
और रो रहा था
और आंसू बह
रहे थे, और
उसकी समझ में
भी नहीं आ रहा
था कि क्या
करे, क्या
न करे! लोग जा
रहे थे और
सामान ला रहे
थे। एक संन्यासी
भी खड़ा हुआ
देख रहा था।
जब सारा सामान
बाहर आ गया, तो सामान
लाने वाले
लोगों ने पूछा,
कुछ और बच
गया हो तो
बताएं? क्योंकि
अब अंतिम बार
भीतर जाया जा
सकता है, उसके
बाद फिर आगे
संभावना नहीं
है, लपटें
बहुत बढ़ गई हैं,
यह आखिरी
मौका है कि हम
भीतर जाएं।
उस भवनपति
ने कहा, मुझे
कुछ भी सूझ
नहीं पड़ता, तुम एक दफा
और जाकर देख
लो, कुछ हो
तो ले आओ।
वे
भीतर गए, भीतर
से रोते हुए
वापस लौटे।
भीड़ लग गई, सबने
पूछा, क्या
हुआ? उनसे
कुछ कहते भी
नहीं बनता है।
वे कहने लगे, हम तो भूल में
पड़ गए। हम तो
सामान बचाने
में लग गए, मकान
मालिक का
इकलौता लड़का
भीतर सोया था,
वह जल गया
और समाप्त हो
गया। सामान
हमने बचा लिया,
सामान का
मालिक तो खत्म
हो गया।
वह
संन्यासी
वहां खड़ा था, उसने अपनी
डायरी में
लिखा: ऐसा ही
इस पूरी दुनिया
में हो रहा है
लोग सामान बचा
रहे हैं और
आदमी समाप्त
होता जा रहा
है। और इसको
हम विकास कहते
हैं!
यह
विकास नहीं
है। अगर यही
विकास है तो
परमात्मा इस
विकास से
बचाए। यह
विकास नहीं है, यह कतई
विकास नहीं
है। लेकिन
महत्वाकांक्षा
यही कर सकती
थी--सामान बढ़ा
सकती थी, शांति
नहीं बढ़ा सकती
थी; शक्ति
बढ़ा सकती थी, शांति नहीं
बढ़ा सकती थी।
महत्वाकांक्षा
दौड़ा सकती थी,
कहीं
पहुंचा नहीं
सकती थी। फिर
क्या हो? अगर
महत्वाकांक्षा
न हो तो क्या
हो?
महत्वाकांक्षा
नहीं, प्रेम
होना चाहिए।
किससे प्रेम?
अपने
व्यक्तित्व
से प्रेम, अपने
व्यक्तित्व
के भीतर जो
छिपी हुई संभावनाएं
हैं उनको
विकास करने से
प्रेम, अपने
भीतर जो बीज
की तरह पड़ा है
उसे अंकुरित करने
से प्रेम।
प्रतियोगिता
और
महत्वाकांक्षा
दूसरे की
तुलना में
सोचती है और
विकास की ठीक-ठीक
दशा दूसरे की
तुलना में
नहीं सोचती, दूसरे के कंपेरिजन
में नहीं
सोचती, अपने
विकास की, अपने
बीजों को
परिपूर्ण
विकसित करने
की भाषा में
सोचती है। इन
दोनों बातों
में फर्क है।
अगर
मैं संगीत सीख
रहा हूं, इसलिए
सीख रहा हूं
कि दूसरे जो
संगीत सीखने
वाले लोग हैं
उनसे आगे निकल
जाऊं। मुझे
संगीत से न
कोई प्रेम है,
न अपने से
कोई प्रेम है।
मुझे दूसरे संगीत
सीखने वालों
से घृणा है,र्
ईष्या है। न
तो मुझे अपने
से प्रेम है
और न मुझे
संगीत से
प्रेम है।
मुझे दूसरे
संगीत सीखने वालों
से घृणा है,र्
ईष्या है, जलन
है। उनसे मैं
आगे होना
चाहता हूं।
लेकिन क्या
यही एक दिशा
है सीखने की? और क्या ऐसा
व्यक्ति
संगीत सीख पाएगा
जिसके मन मेंर्
ईष्या है, जलन
है?
नहीं, संगीत के
लिए तो शांत
मन चाहिए, जहांर्
ईष्या न हो, जहां जलन न
हो। संगीत
नहीं सीख
पाएगा। और सीखेगा
तो वह झूठा
संगीत होगा।
उससे उसके
प्राणों में न
तो आनंद होगा,
और न उसके
प्राणों में
फूल खिलेंगे
और न शांति
आएगी।
नहीं, एक और
रास्ता भी है
कि मुझे संगीत
से प्रेम हो।
संगीतज्ञों सेर्
ईष्या और नफरत
और घृणा नहीं,
प्रतियोगिता
नहीं, प्रतिस्पर्धा
नहीं, काम्पिटीशन नहीं, वरन
मुझे संगीत से
प्रेम हो और
अपने से प्रेम
हो। और मेरे
भीतर संगीत की
जो संभावना है
वह कैसे बीज
अंकुरित होकर
पौधे बन सकें,
कैसे संगीत
के फूल मेरे
भीतर आ सकें, इस दिशा में
मेरी सारी
चेष्टा हो। यह
नॉन-काम्पिटीटिव
होगी, इसमें
कोई
प्रतियोगिता
नहीं है किसी
और से। मैं
अकेला हूं
यहां और अपनी
दिशा खोज रहा
हूं जीवन में।
किसी से
संघर्ष नहीं
है मेरा, मैं
किसी को
आगे-पीछे करने
के खयाल में
और विचार में
नहीं हूं।
जब तक
दुनिया में इस
भांति की
प्रेम पर
आधारित
जीवन-दृष्टि
नहीं होगी तब
तक दुनिया में
राजनीति से
छुटकारा नहीं
हो सकता।
राजनीति एंबीशन
का अंतिम चरम
परिणाम है।
महत्वाकांक्षा
सिखाएंगे, राजनीतिज्ञ
पैदा होगा।
महत्वाकांक्षा
सिखाएंगे,
कभी भी
अहिंसक चित्त
पैदा नहीं
होगा, हिंसक
चित्त पैदा
होगा। यह सारी
दुनिया की जो राजनीति
फलित हुई है, यह हमारी
गलत शिक्षा का
फल है जिसने
महत्वाकांक्षा
सिखाई है। गलत
सभ्यता और गलत
संस्कृति का
फल है, जो
सिखाती
है--दूसरों से
आगे बढ़ो, दूसरों
से आगे निकलो,
दूसरों से
पहले हो जाओ।
नहीं, सिखाना यह
चाहिए कि तुम
पूरे बनो, तुम
पूरे खिलो,
तुम पूरे
विकसित हो
जाओ। दूसरे से
कोई संबंध नहीं
सिखाया जाना
चाहिए। दूसरे
से कोई वास्ता
भी क्या है।
और इस दूसरे
के साथ संघर्ष
में, इस
दूसरे के साथ
प्रतियोगिता
में अक्सर यह
होता है कि जो
हम हो सकते थे
वह हम नहीं हो
पाते हैं। क्योंकि
हमें इस तरह
के ज्वर पकड़
जाते हैं जो हमारे
प्राणों की
प्रतिभा नहीं
थी, जो
हमारे
प्राणों के
भीतर की
वास्तविक पोटेंशियलिटी
नहीं थी, जिसके
बीज ही हमारे
भीतर नहीं थे
वह महत्वाकांक्षा
में हमारे
भीतर पकड़ जाते
हैं। तब
परिणाम यह
होता है कि जो
एक अदभुत बढ़ई हो
सकता था, वह
एक मूर्ख
डाक्टर होकर
बैठ जाता है।
तब परिणाम यह
होता है कि जो
एक अदभुत
डाक्टर हो
सकता था, वह
किसी अदालत
में सिर पचाता
है और वकील हो
जाता है। तब
परिणाम यह
होता है कि सब
गड़बड़ हो जाता
है। जो जहां
हो सकते थे
वहां नहीं हो
पाते और जहां
नहीं होने चाहिए
थे वहां हो
जाते हैं। और
जिंदगी सब
बोझिल और भारी
और कष्टपूर्ण
हो जाती है।
जीवन
के परम आनंद
के क्षण वे
हैं जब कोई
व्यक्ति उस
काम को खोज
लेता है जो
उसके भीतर की
संभावना है।
तब उसके
व्यक्तित्व
में एक निखार, एक प्रकाश, एक
प्रफुल्लता आ
जाती है।
अभी तो
सारी दुनिया
परेशान है और
बोझिल है, और बोर्ड है
और ऊबी
हुई है। उसका
एकमात्र कारण
है: हर आदमी
गलत जगह है।
हर आदमी गलत
जगह है, मुश्किल
से कभी कोई
आदमी ठीक जगह
हो पाता है। और
क्यों? क्योंकि
महत्वाकांक्षा
ऐसे ज्वर पैदा
कर देती है
दूसरों को देख
कर कि मैं यह
भूल ही जाता
हूं, मुझे
यह खयाल ही
नहीं आता कि
मैं क्या होने
को पैदा हुआ
था।
हर
आदमी कुछ होने
को पैदा हुआ
है। हो सकता
है वह एक बहुत
अच्छे ढंग का
बढ़ई होने को
पैदा हुआ हो, या एक बहुत
अच्छे ढंग का
चमार। लेकिन
महत्वाकांक्षा
की दुनिया
राष्ट्रपति
को आदर देती
है, चमार
को तो आदर
देती नहीं।
इसलिए सभी
राष्ट्रपति
होना चाहते
हैं, चमार
कौन होना
चाहेगा? तो
जो एक कुशल
कारीगर होने
को पैदा हुआ
था, वह
अकुशल
राजनीतिज्ञ
होकर समाप्त
हो जाता है।
नहीं, जिंदगी में
प्रत्येक
व्यक्ति के
भीतर, उसके
व्यक्तित्व
के भीतर कुछ
होने की
संभावना है।
प्रत्येक के
भीतर! और जिस
दिन भी दुनिया
में नॉन-एंबीशस
समाज, गैर-महत्वाकांक्षी
समाज के आधार
रखे जा सकेंगे,
उस दिन
दुनिया में
बहुत लोग
प्रफुल्लता
को उपलब्ध
होंगे, बहुत
लोग आनंद को
उपलब्ध होंगे,
बहुत लोग
प्रसन्नता को
उपलब्ध होंगे,
बहुत लोगों
के जीवन में
प्रसाद दिखाई
पड़ेगा। क्योंकि
वह जो काम
जिसको
लेने...जो उनके
भीतर था, जो
निकलेगा और
अभिव्यक्ति
होगी तो वे
कुछ खिलेंगे।
जैसे हर फूल
खिल जाता है
तो एक खुशी और
सुवास देने
लगता है।
लेकिन
मनुष्य-जाति
में बहुत कम
फूल खिलते हैं।
खिल ही नहीं
सकते।
महत्वाकांक्षा
ने सारी जड़ें
तोड़ डाली हैं, सारा जीवन
नष्ट कर दिया
है।
अगर आप
अपने बच्चों
को प्रेम करते
हैं तो एक कृपा
करना, उनको
महत्वाकांक्षा
मत सिखाना।
इससे बड़ी शत्रुता
और कोई नहीं
हो सकती कि
कोई मां-बाप
अपने बच्चों
को
महत्वाकांक्षा
सिखाएं।
क्योंकि
महत्वाकांक्षा
उनके जीवन को
नष्ट कर देगी,
जहर की
भांति उनके
जीवन को नष्ट
कर देगी। और यह
जहर अंतिम रूप
में राजनीति
में प्रकट हो
रहा है।
राजनीति
से
मनुष्य-जाति
का छुटकारा
चाहिए। यह
कैसे होगा?
यह
होगा धार्मिक चित्तता
जितनी विकसित
हो, तो होगा।
तो ज्यादा इस
पर और नहीं
कुछ कह
सकूंगा।
धार्मिक चित्त
कैसे विकसित
हो, उसका
तो मैंने तीन
दिन में आपसे
विचार किया है,
उन आधारों
पर धार्मिक
चित्त विकसित
हो सकता है।
एक नये
मनुष्य को
जरूर ही पैदा
होना चाहिए, क्योंकि
जीवन बहुत
बोझिल और बहुत
दुखी है। और वह
नया मनुष्य
किसी बिलकुल
नये आधारों पर
विकसित हो
सकता है। इन
पुरानी परिपाटियों
पर नहीं, इन
लीकों पर नहीं
जो अब तक चलती
रही हैं। ये
सारी लीकें
खतरनाक हैं और
टूट जानी
चाहिए, और
ये सारी कड़ियां
जला देने
योग्य हैं। और
मनुष्य का
अतीत शुभ नहीं
रहा है, सुंदर
नहीं रहा है; लेकिन उसका
भविष्य सुंदर
हो सकता है।
लेकिन
आकस्मिक रूप
से नहीं हो
जाएगा यह। यह
कोई नियति
नहीं है कि
अपने आप हो
जाएगा। यह कोई
आकाश के ऊपर
से आदेश नहीं
आएंगे कि अब
सब ठीक हो जाएगा।
हमें बहुत कुछ
बदलाहट करनी
होगी। मनुष्य
के चित्त को
जिन ईंटों
से हम बनाते
हैं वे बदलनी
होंगी।
मनुष्य को जो
हम ढांचे देते
हैं वे बदलने
होंगे। और अगर
एक सुंदर और
स्वस्थ भविष्य
लाना है तो
हमें
पूरी-पूरी
परंपराएं फिर
से विचार कर
लेनी होंगी।
उनमें बहुत
कुछ कचरा है
जो जला देने
योग्य है, बहुत कुछ
गलत है, बहुत
कुछ बीमार है,
जो नष्ट कर
देने योग्य
है। और जब तक
इतना विद्रोह
और विचार नहीं
है तब तक हम
इसी कोल्हू के
बैल की भांति
अपने बच्चों
को भी पेरेंगे,
उनके
बच्चों को वे पेरेंगे।
और दुनिया में
एक अदभुत
बीमारी, महारोग
चल रहा है
हजारों साल से,
जो शायद आगे
भी चलता
रहेगा। इसे
तोड़ने के लिए कुछ
चिंतन और विचार
आवश्यक है।
मैंने
जो कहा उस पर
विचार
करेंगे।
मानने को मैं
नहीं कहता हूं
कि मैंने जो
कहा उसे मान
लेंगे। मैंने
जो कहा उस पर
विचार करेंगे
तो शायद खयाल
में आ सकता
है। निश्चित
ही, बहुत नई
बात विचार
करते वक्त
कठिन मालूम
पड़ती है, चौंकाती
है, बंधी
परिपाटी से दूर
होने से मन को
हिलाती है।
लेकिन थोड़ा
सोचेंगे, विचार
करेंगे--एक
कारण से
सिर्फ--अगर आज
का समाज इतना
गंदा, गर्हित
और निंदित है,
तो जरूर
इसकी
बुनियादें
कहीं न कहीं
गलत होंगी।
अगर
बुनियादें
सही होतीं तो
यह समाज ऐसा
कैसे हो सकता
था! यह समाज
इतना गलत है, जरूर इसकी
बुनियादें
गलत होंगी। उन
बुनियादों पर
पुनर्विचार
करने की जरूरत
है।
छोटे
प्रश्न और ले
लेता हूं।
किसी-किसी समय
ऐसा प्रतीत
होता है कि मन
दो हैं--एक मन
कहता है कि यह
रास्ता है, दूसरा कहता
है कि वह
रास्ता है। आप
अपने विचार
प्रकट कीजिए।
मन तो
एक ही है, लेकिन
मनुष्य ने मन
को जिस भांति
विकसित किया
है वह विकास
की पद्धति गलत
होने से मन
अपने भीतर ही विभाजित
हो गया है।
मनुष्य का मन
तो वही कहता है
जो अत्यंत
प्राकृतिक है,
लेकिन
मनुष्य की
सभ्यता उस
प्रकृति पर
रोक लगाती है
और कहती है कि
यह गलत है, यह
मत करना। बचपन
से हम बच्चे
को सिखाना
शुरू करते
हैं--यह गलत है,
यह मत करना;
यह बुरा है,
यह मत करना;
यह पाप है, इससे अहित
होगा, इससे
नरक होगा, इससे
दंड मिलेगा।
तो बच्चे के
भीतर एक तो
प्रकृति है, जो कहती है
कि यह ठीक है; और एक उसको
सिखाई गई शिक्षाएं
हैं, वे
कहती हैं कि
यह ठीक नहीं
है, दूसरी
बात ठीक है।
परिणाम यह
होता है कि
हमेशा मन में
द्वंद्व खड़ा
रहता है।
हमेशा! कोई भी
बात आ जाए, मन
में द्वंद्व
खड़ा हो जाएगा।
क्योंकि
प्रकृति कुछ
और कहती है और
ये सिखाई हुई
बातें कुछ और
कहती हैं। इस
भांति मनुष्य
के भीतर
द्वंद्व बढ़ता
जाए तो मनुष्य
पागल भी हो
सकता है। पागल
इसी वजह से
होता है। इसलिए
जितनी सभ्यता
बढ़ती है, उतना
पागलपन बढ़ता
है। जितनी
सभ्यता बढ़ती
है, उतने
विक्षिप्त
लोग बढ़ते हैं।
अभी
मैं सुनता था
कि न्यूयार्क
के कुछ
हिस्सों में
तो हर एक मकान
के बाद मनोचिकित्सक
का दूसरा मकान
और तख्ती लगी
है। एक वक्त
ऐसा आएगा, वहां के एक
मनोवैज्ञानिक
ने कहा है, पचास
साल बाद न्यूयार्क
में आधे मकान
सामान्य
लोगों के, आधे
मकान मन की
चिकित्सा
करने वाले
डाक्टरों के
होंगे। कभी
ऐसा भी वक्त आ
सकता है कि
सभी मकान उनके
हों।
यदि
विकास होगा तो
ऐसा ही होगा।
सभ्यता जितनी बढ़ी
है, अगर उसकी
ठीक-ठीक गणना
स्पष्ट हो तो
आप घबड़ा जाएंगे।
जितने असभ्य
लोग हैं, उनमें
पागल होने की
संख्या उतनी
ही कम है। जितनी
असभ्य
जातियां हैं,
उनमें पागल
होने की
मात्रा बहुत
कम है। और फिर
जैसे सभ्यता
बढ़ती है, उतनी
ही पागल होने
की संख्या
बढ़ती चली जाती
है।
अमेरिका
के हिसाब से, इस समय
अमेरिका में
चालीस
प्रतिशत लोग
ठीक मानसिक
स्थिति में
नहीं हैं।
चालीस
प्रतिशत! बाकी
बीस प्रतिशत
लोग किसी भी
दिन अपने
मानसिक संतुलन
को खो सकते
हैं। साठ
प्रतिशत हुए!
शेष जो चालीस
प्रतिशत हैं,
जरूरी नहीं
है कि वे सब
स्वस्थ हों, उनमें से
बहुत से लोग
ऐसे भी हो
सकते हैं जो
डाक्टरों के
पास कभी गए
नहीं हैं।
अमेरिका इस
समय सबसे बड़ा
सभ्य मुल्क है,
अगर इसका
कोई भी कारण
पूछना चाहे तो
मैं कहूंगा, क्योंकि
पागलों की
संख्या वहां
सर्वाधिक है।
जिस दिन कोई
मुल्क पूरा का
पूरा पागल हो
जाएगा वह
सभ्यता की चरम
स्थिति होगी।
ऐसा विकास हो
रहा है। यह क्या
हो रहा है?
असभ्य
आदमी के ऊपर, प्रकृति के
ऊपर बहुत कम
नियंत्रण
होते हैं। जो
उसे ठीक-ठीक
भीतर से लगता
है वह करता
है। क्रोध आता
है तो क्रोध
करता है, गुस्सा
आता है गुस्सा
करता है, हत्या
करने का मन
होता है तो हत्या
करता है। उसे
जो ठीक लगता
है। प्रेम
होता है तो
प्रेम करता
है। उसे जो
ठीक लगता है
वह करता है, जो उसकी
प्रकृति कहती
है।
हम
कहेंगे, यह
तो बड़ी पाश्विक
स्थिति हो गई,
पशु की
स्थिति हो गई।
निश्चित
ही! यह स्थिति
शुभ नहीं है।
इस स्थिति को
बदलना जरूरी
है। तो हम
क्या करें? तो हम यह
सिखाते हैं कि
क्रोध बुरा है,
क्रोध को पी
जाओ, क्रोध
करो मत। हम
कहते हैं कि
अगर तुम्हें
किसी से प्रेम
हो जाए तो
अपने मन को
संयम में रखो,
प्रेम करो
मत। हम ये
बातें सिखाते
हैं, ताकि
आदमी पशु न रह
जाए।
पशु
होने से तो बच
जाता है, लेकिन
फिर पागल हो
जाता है। अभी
तक दो ही
विकल्प
हैं--या तो पशु
या पागल। ठीक
आदमी हम कैसे
पैदा करें? जो थोड़े बीच
में रहते हैं
वे आधे पशु
होते हैं, आधे
पागल होते हैं,
इसलिए चलते
चले जाते हैं,
उनको
ज्यादा
दिक्कत नहीं
आती। या ऊपर
से तो सभ्य
होते हैं और
भीतर से सभ्य
नहीं होते। तो
भी चल जाता
है। तो तीसरा
विकल्प है: पाखंड,
कि दिखाओ
ऊपर से कि मैं
बहुत अच्छा
आदमी हूं, भीतर
से जो प्रकृति
कहती है वह
किए चले जाओ।
तो दो मुख
पैदा हो जाते
हैं आदमी के
भीतर। भीतर कुछ
होता है, बाहर
कुछ होता है।
बाहर सभ्य और
भीतर अपने पशु
को कायम रखता है।
या तो पाखंड
पैदा होता है
और अगर जिद्दी
हो और कहे कि
मैं तो पूरी
तरह सभ्य होकर
ही रहूंगा, तो फिर पागल
होगा। और यह
अगर जिद्दी
दूसरा हो और
वह कहे कि मैं
तो कुछ भी न मानूंगा,
मुझे तो जो
सुखद लगता है
वही करूंगा, जो प्रीतिकर
लगता है वही
करूंगा, तो
वह पशु हो जाएगा।
तो अब रास्ता
क्या है इन
तीन के पीछे?
ये
तीनों ही
बातें गलत
हैं। मनुष्य
के भीतर जो-जो
वृत्तियां
हैं वे दमन से
नहीं शुभ की
तरफ ले जाती
हैं। उसकी
मैंने बात की
पीछे आपसे कि
मनुष्य की
वृत्तियों के
दमन के
दुष्परिणाम
होते हैं।
उससे वह सभ्य
होता नहीं, सिर्फ सभ्य
दिखाई पड़ता
है। और इसलिए
उसके मन में
द्वंद्व पैदा
हो जाता है।
मनुष्य
की पूरी
प्रकृति का
रूपांतरण
होना चाहिए, दमन नहीं।
बच्चे
को यह मत सिखाइए
कि तुम क्रोध
मत करना, क्रोध
बुरा है।
बच्चे को वह
मार्ग सिखाइए
जहां से उसे
शांति मिलनी
शुरू हो जाए।
अगर उसका चित्त
शांत होगा तो
वह क्रोध तो
कर ही नहीं
पाएगा। यह मत सिखाइए कि
क्रोध मत करो,
बल्कि यह सिखाइए पाजिटिवली,
उस रास्ते
पर ले जाइए
विधायक रूप से
जहां उसके
चित्त में
शांति का उदय
हो। शांति का
उदय सिखाइए,
क्रोध न
करने की बात
मत सिखाइए।
सेक्स
से बचाना है, काम से बचाना
है, तो
ब्रह्मचर्य
के थोथे उपदेश
मत सिखाइए।
उससे उसका
जीवन खतरनाक
हो जाएगा और
गलत हो जाएगा।
उसका सारा
जीवन नष्ट हो
सकता है। और
ब्रह्मचर्य
ने जिन-जिन कौमों
के मन को बहुत
ज्यादा
प्रभावित
किया है, उनका
सारा दांपत्य
जीवन नष्ट हो
गया और उनके भीतर
इतनी ज्यादा
कामुकता पैदा
हो गई जिसका
कोई हिसाब
नहीं। वे कौमें
चौबीस घंटे
सेक्स के
सिवाय कुछ भी
नहीं सोच रही
हैं। उनका
सारा चिंतन
वहीं
केंद्रित हो
गया। बातें वे
भगवान की करते
हैं, चिंतन
वे सेक्स का
करते हैं।
करेंगे ही!
क्योंकि
ब्रह्मचर्य
जीवन है और
सेक्स नरक है,
यह सिखाया
जा रहा है।
इसके
दुष्परिणाम
हुए हैं। दुष्परिणाम
हो रहे हैं, दुष्परिणाम
निरंतर होते
रहे हैं।
नहीं, सेक्स से
अगर बच्चे के
जीवन को ऊपर
ले जाना है तो
उसे प्रेम सिखाइए,
उसे
ब्रह्मचर्य
मत सिखाइए।
जितना प्रेम
विकसित होता
है, सेक्स
उतना ही विलीन
हो जाता है। और
हृदय जिस दिन
पूरी तरह
प्रेम से भर
जाता है उस
दिन कामुकता
शून्य हो जाती
है। क्योंकि
सारी की सारी
सेक्स की
शक्ति प्रेम
में परिवर्तित
होती है।
प्रेम सिखाइए--पौधों
से प्रेम सिखाइए,
पत्थरों से
प्रेम सिखाइए,
पशुओं से
प्रेम सिखाइए--बच्चे
के हृदय को
प्रेम से भरिए,
वह जिसके
पास जाए प्रेम
से भरा हुआ
जाए। उसके जीवन
में अपने आप
प्रेम के कारण
ब्रह्मचर्य चला
आएगा। वह
ब्रह्मचर्य
बहुत और बात
है जो प्रेम
से फलित होता
है। और जो
ब्रह्मचर्य
सेक्स के
दबाने से फलित
होता है वह
बिलकुल दूसरी
बात है। वह
बहुत खतरनाक
बीमारी है।
एक साध्वी
के पास मैं
था। मेरा चादर
हवा में हिला
और उनको छू
गया। तो वे
घबड़ा गईं, क्योंकि
पुरुष का चादर
साध्वी को
नहीं छूना चाहिए।
वे मुझसे
आत्मा की
बातें कर रही
थीं और मुझसे
कह रही थीं कि
शरीर तो हम
नहीं हैं, हम
तो आत्मा हैं।
तो मैंने उनसे
कहा, मैं
तो बहुत हैरान
हो गया! आप तो
कहती हैं कि
आप शरीर नहीं
हैं और चादर
मेरा किसको छू
रहा है, आपकी
आत्मा को छू
रहा है? और
मैंने कहा कि
मैं यह भी
पूछना
चाहूंगा, यह
चादर पुरुष ने
ओढ़ लिया तो यह
चादर भी पुरुष
हो गया?
यह तो
हद दर्जे की
सेक्सुअलिटी
हो गई, यह तो
हद दर्जे की
कामुकता हो गई
कि चादर भी
पुरुष हो गया,
चूंकि
पुरुष ने ओढ़
लिया! इसको
छूने से क्या
घबड़ाहट हो रही
है? घबड़ाहट
यह हो रही है
कि वह जो
सेक्स दबाया
गया है, वह
दबाया गया
सेक्स हमेशा
धक्के मार रहा
है। वह तो
पुरुष का चादर
भी छू जाए तो
भी ऊपर आ
जाएगा उठ कर।
यह
ब्रह्मचर्य नहीं
हुआ। यह तो
अत्यंत
मानसिक रूप का
व्यभिचार
हुआ। और यही
व्यभिचार चल
रहा है
ब्रह्मचर्य के
नाम से।
ब्रह्मचर्य
तो प्रेम से
फलित होता है।
जब हृदय
परिपूर्ण
प्रेम से भर
जाता है तो
ब्रह्मचर्य
अपने आप फलित
होता है।
ब्रह्मचर्य
की शिक्षा मत
दीजिए; प्रेम
सिखाइए।
और फिर देखिए
कि जीवन में
कैसा
रूपांतरण
होता है।
मेरा
कहना यह है कि
हमारी सारी
नैतिक शिक्षा
गलत होने से
मन दो हिस्सों
में टूट जाता
है। प्रकृति
कहती है सेक्स
और शिक्षा
कहती है ब्रह्मचर्य।
बस टूट हो गई, खतरा हो
गया। अब जीवन
कष्ट में
पड़ेगा, दुविधा
में पड़ेगा, खंड-खंड हो
जाएगा, कांफ्लिक्ट पैदा होगी।
और उसी में
आदमी टूटता है
और नष्ट होता
है।
मैं
कहता हूं कि
प्रकृति का तो
विरोध घातक
है। प्रकृति
का विरोध घातक
है। प्रकृति
का परिवर्तन, प्रकृति का ट्रांसफार्मेशन,
प्रकृति का
ऊर्ध्वगमन तो
सहयोगी है।
सेक्स की
दुश्मनी में
मत खड़े हो
जाइए, प्रेम
के पक्ष में
जीवन को
विकसित करिए।
जितना प्रेम
विकसित होगा,
सेक्स की
शक्ति प्रेम
में अपने आप
समाहित होती
चली जाएगी।
जिस दिन प्रेम
पूरा हृदय में
भर जाएगा, उस
दिन उस हृदय
में कामुकता
अपने आप विलीन
हो जाएगी। और
किसी भांति से
कामुकता
विलीन नहीं
होती। और सब
भांति के उपाय
असफल हुए हैं।
लेकिन
ईमानदारी से
चिंतन नहीं है, इसलिए थोथी
बातों को भी
हम दोहराए चले
जाते हैं और
उन पर कभी
विचार भी नहीं
करते। मन दो
नहीं हैं, मन
दो कर दिए गए
हैं। मन एक ही
होना चाहिए।
और एक ही होने
का यह मतलब
नहीं है कि मन
पशु हो जाए।
नहीं, मनुष्य
के भीतर जो
पशुता जैसी
मालूम होती है,
उस एक ही मन
को बिना खंडित
किए विकसित
किया जा सकता
है। और वही
पशुता जो है
ठीक-ठीक
विकसित हो तो
दिव्यता में
परिवर्तित हो
जाती है।
तो यह
मन का जो
द्वैत है यह
गलत शिक्षा, गलत
संस्कृति, गलत
सभ्यता, गलत
धर्मों की
शिक्षा का
परिणाम है। और
यह द्वैत तो
होगा।
मैं एक
घर में ठहरा
था। गृहिणी ने
मुझसे कहा, मैं अपने
पति को बहुत
प्रेम करती
हूं, अथक
प्रेम करती
हूं, उन्हें
परमात्मा ही
की तरह मानती
हूं। लेकिन फिर
भी कलह हो
जाती है, रोज
कलह हो जाती
है, छोटी-छोटी
बात पर कलह हो
जाती है। तो
हैरानी होती
है कि जिसको
मैं परमात्मा
की तरह मानती
हूं, इतना
प्रेम करती
हूं, उससे
छोटी-छोटी बात
पर कलह क्यों
हो जाती है? उसकी
छोटी-छोटी
आज्ञा मानना
भी कठिन हो
जाता है। उसकी
छोटी-छोटी
इच्छा पर
झुकना भी कठिन
हो जाता है।
मैं ही उसे
उलटे झुकाने
की कोशिश करती
हूं। तो क्या
कठिनाई है, मुझे कहें!
तो
मैंने उनसे
पूछा कि
तुम्हारा
सेक्स के प्रति
क्या
दृष्टिकोण है? बचपन से हम
बच्चों को, बच्चियों को सिखा रहे
हैं कि सेक्स
गर्हित है, नरक है, पाप
है, नरक का
द्वार है, यह
सिखा रहे हैं।
छोटी बच्चियां,
छोटे बच्चे
यह सीख रहे
हैं कि सेक्स
पाप है, सेक्स
नरक है, सेक्स
से बुरा कुछ
भी नहीं है, उसका विचार
ही आना बुरा
है, उसका
खयाल ही आना
बुरा है, इसको
हम सिखा रहे
हैं। फिर बीस
वर्ष की लड़की
हो गई इस
भांति सीखी
हुई, फिर
उसका विवाह कर
दिया। वे ही
मां-बाप
जिन्होंने
सिखाया कि
सेक्स पाप है
वे ही उसका
विवाह भी
कराए। उन्होंने
शोरगुल भी मचाया,
बैंड-बाजे
भी बजाए और
उसका विवाह भी
कर दिया। उन्हीं
मां-बापों ने,
उसी समाज ने,
जिसने
सिखाया कि
सेक्स पाप है,
उसने ही
विवाह कर
दिया। अब
द्वंद्व शुरू
होगा। जिसको
आपने कहा कि
पति हैं, इनको
परमात्मा
मानना, इनको
वह परमात्मा
कैसे मानेगी?
क्योंकि
इनसे उसका
संबंध जो होगा
वह तो सेक्स का
होगा, और
सेक्स से बड़ी
पाप जैसी कोई
चीज नहीं, तो
ये परमात्मा
कैसे हो सकते
हैं? यह
पति परमात्मा
हो कैसे सकता
है? इसका
संबंध तो
सेक्स का है।
इसलिए
पत्नी की बहुत
गहरी दृष्टि
में पति से
पतित और कोई
व्यक्ति होता
ही नहीं है।
हो भी नहीं
सकता है।
इसलिए वह एक ऐरे-गैरे
साधु-संन्यासी
के पैर छू
सकती है, पति
के नहीं। छूती
है तो परवश है,
लेकिन
जानती है भीतर
से कि कैसा
नीचा आदमी, कैसा निम्न
आदमी!
वही
पति भी जानता
है कि पत्नी
नरक का द्वार
है। ये
साधु-संन्यासी
सिखा गए हैं
कि नरक का
द्वार है, यही तो
तुमको लिए जा
रही है नरक
में।
एक
स्त्री, एक
महिला मुझसे
रास्ते में
पूछती थीं
ट्रेन में कि
मुझे यह बताइए
कि स्त्री
पर्याय से
मुक्ति कैसे
मिले?
यह बेवकूफों
ने सिखाया हुआ
है कि स्त्री
पर्याय से मोक्ष
नहीं हो सकता।
जैसे मोक्ष भी
यह देखता है--देह--और
नाप-जोख रखता
है कि कौन
पुरुष, कौन
स्त्री।
यह
पुरुषों ने
सिखाया है
स्त्रियों
को। और अगर
स्त्रियां
नरक के द्वार
हैं तो फिर
स्त्रियां तो
अब तक नरक गई
ही नहीं
होंगी।
क्योंकि उनके
लिए अगर पुरुष
द्वार न हो तो
वे नरक कैसे
जाएंगी? अगर
स्त्रियां
किताबें लिखतीं
तो वे लिखतीं:
पुरुष नरक के
द्वार हैं। वे
दोनों
एक-दूसरे को
नरक के द्वार
बने हुए हैं, क्योंकि
सेक्स की मन
में निंदा है।
सेक्स
का मन में
सम्मान होना
चाहिए, निंदा
नहीं। सेक्स
के प्रति
प्रकृतिस्थ
स्वस्थ
दृष्टिकोण
होना चाहिए।
जानना चाहिए
कि वह जीवन की
अत्यंत
अनिवार्यता
है। और जानना
चाहिए कि सारी
प्रकृति उस पर
खड़ी है, सारा
विराट सृजन उस
पर खड़ा हुआ
है। सेक्स से
बड़ी शक्ति
नहीं, सेक्स
से बड़ी फोर्स
नहीं, उसी
पर तो सारा
खेल है। फूल
इसलिए खिलते
हैं, वृक्ष
इसलिए खिलते
हैं, पक्षी
इसलिए गीत
गाते हैं, बच्चे
इसलिए पैदा
होते हैं।
सारी दुनिया
में जो भी क्रिएटिविटी
है वह सब
बुनियाद में
सेक्स से
संबंधित है। तो
उस सेक्स को
निंदित करके
तो सब गड़बड़ हो
जाएगा।
नहीं, उसकी निंदा
की जरूरत नहीं,
उसके
स्वीकार की
जरूरत है। और
स्वीकार के
द्वारा उसको
और कितना
विकसित किया
जा सकता है, इस दिशा में
परिवर्तन, ऊर्ध्वगमन
की जरूरत है।
सेक्स जरूर एक
दिन परिवर्तित
होकर
ब्रह्मचर्य
बन सकता है।
लेकिन सेक्स
के विरोध में
लड़ कर नहीं, वरन सेक्स
के प्रति
अत्यंत
सम्मान, अत्यंत
सहृदयता, अत्यंत
सहजता, अत्यंत
मैत्रीपूर्वक
उस शक्ति को
परिवर्तित
किया जा सकता
है। और मार्ग
है कि प्रेम
विकसित हो।
मार्ग है कि
प्रेम विकसित
हो, तो
सेक्स अपने आप,
अपने आप गतिमय
होता है। जैसे
कि पानी को
बहाव देना हो,
हम एक नाली
बना दें तो
पानी उससे
बहने लगता है और
नाली न हो तो
फिर पानी कहीं
भी बह जाता
है। प्रेम की
नाली अगर भीतर
चित्त में
निर्मित हो तो
सेक्स की सारी
की सारी
एनर्जी प्रेम
में
परिवर्तित
होती है और
बहती है।
लेकिन
हमारी सारी
शिक्षा भूल से
भरी है, सारी
संस्कृति भूल
से भरी है। और
इसलिए मनुष्य
का चित्त
रुग्ण से
रुग्ण होता
चला गया है।
उस पर
और ज्यादा तो
फिलहाल मैं
अभी नहीं कह
सकूंगा। इधर
कुछ मित्र
सोचते हैं कि
एक पूरा का पूरा
कैंप
ब्रह्मचर्य
पर हो। मैं भी
सोचता हूं कि
यह हो सकता है
और होना
चाहिए।
अंतिम
रूप से, अब
प्रश्न तो
नहीं लूंगा, छोटी सी
कहानी कहूंगा,
वह विदा के
समय।
एक
छोटी सी कहानी
मुझे यह कहनी
है, अभी आ रहा
था तो मुझे
खयाल आया।
एक
राजा हुआ, उसने
दूर-दूर खबर
की कि जो भी
धर्म श्रेष्ठ
होगा उसे मैं
स्वीकार
करूंगा।
अनेक-अनेक
पंडित आए, समझाते
थे कि हमारा
धर्म श्रेष्ठ
है, दूसरा
पंडित समझाता
कि हमारा धर्म
श्रेष्ठ है।
वे विवाद भी
करते, एक-दूसरे
को हराने और
पराजित करने
की कोशिश भी करते।
लेकिन राजा के
सामने कुछ
सिद्ध न हो
पाया कि कौन
धर्म चरम धर्म
है, कौन
सर्वोत्कृष्ट
धर्म है। और
जब यही सिद्ध
न हुआ तो राजा
अधर्म के जीवन
में जीता रहा।
उसने कहा, जिस
दिन
सर्वश्रेष्ठ
धर्म उपलब्ध
हो जाएगा उस
दिन मैं धर्म
का अनुसरण
करूंगा। जब तक
सर्वश्रेष्ठ
धर्म का पता
ही नहीं है तो
मैं कैसे जीवन
को छोडूं और
बदलूं! तो
जीवन तो वह
अधर्म में
जीता रहा, लेकिन
सर्वश्रेष्ठ
धर्म की खोज
में पंडितों के
विवाद सुनता
रहा। सभी
धर्मों के लोग
आए। और किसी
भी धर्म का
आदमी आया, उसने
कहा, मेरा
धर्म श्रेष्ठ
है, दूसरों
के नीचे हैं।
राजा उनकी
दलीलें सुनता;
दूसरों को
आमंत्रित
करता, उनकी
दलीलें
सुनता। ऐसे
जीवन बीता।
जीवन तो है
छोटा और
दलीलें तो हैं
बड़ी। तो
दलीलों में तो
जीवन बिलकुल
बीत ही सकता
है, कोई
कठिनाई नहीं
है।
फिर तो
राजा बूढ़ा
होने लगा और
घबड़ा गया कि
अब क्या होगा? अधर्म का
जीवन दुख देने
लगा, पीड़ा
लाने लगा।
लेकिन जब
श्रेष्ठ धर्म
ही न मिले तो
वह चले भी
कैसे धर्म की
राह पर? अंततः
एक भिखारी
उसके द्वार पर
आया और उस
भिखारी ने कहा
कि मैंने सुना
है कि तुम
पीड़ित हो और परेशान
हो। तुम्हारे
चेहरे से भी
दिखाई पड़ता
है।
उस
राजा ने कहा, मैं
सर्वश्रेष्ठ
धर्म की खोज
में हूं।
भिखारी
ने कहा, सर्वश्रेष्ठ
धर्म? क्या
बहुत धर्म
होते हैं
दुनिया में कि
उसमें कोई
श्रेष्ठ और
अश्रेष्ठ का
भी सवाल उठे? धर्म तो एक
है। कोई धर्म
बुरा और कोई
धर्म अच्छा, यह तो होता
ही नहीं, तो
सर्वश्रेष्ठ
का कोई सवाल
नहीं।
राजा
बोला, लेकिन
मेरे पास तो
जितने लोग आए
उन्होंने कहा,
हमारा धर्म
श्रेष्ठ है।
उस
फकीर ने कहा, जरूर
उन्होंने
धर्म के नाम
से, मैं
श्रेष्ठ हूं,
यही कहा
होगा। उनका
अहंकार बोला
होगा। धर्म तो
एक है, अहंकार
अनेक हैं।
राजा से उसने
कहा कि जब भी
कोई पंथ से
बोलता है या
किसी धर्म से
बोलता है, तो
समझ लेना कि
वह धर्म के
पक्ष में नहीं
बोल रहा, अपने
पक्ष में बोल
रहा है। और
जहां पक्ष है,
जहां पंथ है,
वहां धर्म
नहीं होता।
धर्म तो वहीं
होता है जहां
व्यक्ति
निष्पक्ष
होता है।
पक्षपाती मन
में धर्म नहीं
हो सकता।
राजा
प्रभावित
हुआ। उसने कहा, तो फिर तुम
मुझे बताओ मैं
क्या करूं?
उस
फकीर ने कहा
कि आओ नदी के
पार चलें, वहां मैं बताऊंगा।
वे नदी के
किनारे गए। उस
फकीर ने कहा
कि जो सर्वश्रेष्ठ
नाव हो
तुम्हारे
राजधानी की वह
बुलाओ, तो
उसमें बैठ कर
उस तरफ चलें।
राजा ने कहा, यह बिलकुल
ठीक। राजा जाए
तो
सर्वश्रेष्ठ
नाव आनी
चाहिए।
बीस-पच्चीस जो
अच्छी से
अच्छी नावें
थीं वे बुलाई
गईं। सुबह वे
गए थे, दोपहर
इसी में हो गई,
सब नावें
इकट्ठी हुईं।
अब वे घाट के
किनारे भूखे
बैठे हुए हैं।
और वह फकीर भी
अजीब था, एक-एक
नाव में दोष
निकालने लगा
कि इसमें यह
खराबी है, इसमें
यह दाग लगा
हुआ है, यह
तो आपके बैठने
योग्य नहीं
है। इसमें मैं
कैसे बैठ सकता
हूं, यह तो
बहुत छोटी है।
राजा
भी थक गया, सांझ हो गई, सूरज डूबने
लगा। राजा ने
कहा, क्या
बकवास लगा रखी
है! नाव कोई भी
काम दे सकती है।
और अगर नाव
कोई भी पसंद
नहीं पड़ती तो
नदी भी कोई
भारी नहीं, चलो हम तैर
कर ही निकल
चलें। छोटी सी
नदी है, अभी
कभी के उस तरफ
पहुंच गए
होते।
फकीर
जैसे इसकी
प्रतीक्षा
में ही था, उसने कहा, मैं इसी की
प्रतीक्षा
में था।
तुम्हें जीवन
में यह खयाल
नहीं आया कि
धर्मों की
प्रतीक्षा
क्यों कर रहे
हो, तैर कर
भी निकला जा
सकता है। और
सच तो यह है कि
धर्म की कोई
नाव नहीं
होती।
व्यक्तिगत
रूप से ही
तैरना पड़ता
है। धर्म की
कोई नाव नहीं
होती।..........
आज इतना
ही।
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