पहला
प्रश्न:
जीवन
विरोधाभासी
है,
असंगतियों से
भरा है, तो
फिर तर्क, बुद्धि,
व्यवस्था
और अनुशासन का
मार्ग बुद्ध
ने क्यों
बताया?
प्रश्न
जीवन का नहीं
है। प्रश्न
तुम्हारे मन
का है। जीवन
को मोक्ष की
तरफ नहीं जाना
है। जीवन तो
मोक्ष है। जीवन
नहीं भटका है, जीवन
नहीं भूला है।
जीवन तो वहीं
है जहां होना
चाहिए। तुम
भटके हो, तुम
भूले हो। तुम्हारा
मन तर्क की
उलझन में है। और
यात्रा
तुम्हारे मन
से शुरू होगी।
कहां जाना है,
यह सवाल
नहीं है। कहां
से शुरू करना
है, यही सवाल
है।
मंजिल
की बात बुद्ध
ने नहीं की। मंजिल
की बात तुम
समझ भी कैसे
पाओगे? उसका तो
स्वाद ही समझा
सकेगा। उसमें
तो डूबोगे, तो ही जान
पाओगे। बुद्ध
ने मार्ग की
बात कही है। बुद्ध
ने तुम जहां
खड़े हो, तुम्हारा
पहला कदम जहां
पड़ेगा, उसकी
बात कही है। इसलिए
बुद्ध बुद्धि,
विचार, अनुशासन,
व्यवस्था
की बात नही कि
उन्हें पता
नहीं है कि
जीवन कोई
व्यवस्था
नहीं मानता।जीवन कोई रेल की पटरियों पर दौड़ती हुई गाड़ी नहीं है। जीवन परम स्वतंत्रता है। जीवन के ऊपर कोई नियम नहीं है, कोई मर्यादा नहीं है। जीवन अमर्याद है। वहां न कुछ शुभ है, न अशुभ। जीवन में सर्वस्वीकार है। वहां अंधेरा भी और उजेला भी एक साथ स्वीकार है।
मनुष्य
के मन का सवाल
है। मनुष्य का
मन
विरोधाभासी
बात को समझ ही
नहीं पाता। और
जिसको तुम समझ
न पाओगे, उसे तुम
जीवन में कैसे
उतारोगे? जिसे
तुम समझ न
पाओगे, उससे
तुम दूर ही रह
जाओगे।
तो
बुद्ध ने वही
कहा जो तुम
समझ सकते हो। बुद्ध
ने सत्य नहीं
कहा, बुद्ध
ने वही कहा जो
तुम समझ सकते
हो। फिर
जैसे-जैसे
तुम्हारी समझ
बढ़ेगी
वैसे-वैसे बुद्ध
तुमसे वह भी
कहेंगे जो तुम
नहीं समझ सकते।
बुद्ध
एक दिन गुजरते
हैं एक राह से
जंगल की। पतझड़
के दिन हैं। सारा
वन सूखे
पत्तों से भरा
है। और आनंद
ने बुद्ध से
पूछा है कि
क्या आपने हमें
सब बातें बता
दीं जो आप
जानते हैं न
क्या आपने
अपना पूरा
सत्य हमारे
सामने स्पष्ट
किया है? बुद्ध ने
सूखे पत्तों
से अपनी
मुट्ठी भर ली
और कहा, आनंद!
मैंने तुमसे
उतना ही कहा
है जितने सूखे
पत्ते मेरी
मुट्ठी में हैं।
और उतना अनकहा
छोड़ दिया है
जितने सूखे
पत्ते इस वन
में हैं। वही
कहा है जो तुम
समझ सको। फिर
जैसे
तुम्हारी समझ
बढ़ेगी
वैसे-वैसे वह
भी कहा जा
सकेगा जो पहले
समझा नहीं जा
सकता था।
बुद्ध
कदम-कदम बढ़े। आहिस्ता-आहिस्ता।
तुम्हारी
सामर्थ्य
देखकर बढ़े हैं।
बुद्ध ने
तुम्हारी
बूंद को सागर
में डालना चाहा
है।
ऐसे भी
फकीर हुए हैं
जिन्होंने
सागर को बूंद
में डाल दिया
है। पर वह काम
बुद्ध ने नहीं
किया। उन्होंने
बूंद को सागर
में डाला है। सागर
को बूंद में
डालने से बूंद
बहुत घबड़ा जाती
है। उसके लिए
बहुत बड़ा दिल
चाहिए। उसके
लिए बड़ी
हिम्मत चाहिए।
उसके लिए
दुस्साहस
चाहिए। उसके
लिए मरने की
तैयारी चाहिए।
बुद्ध ने
तुम्हें
रफ्ता-रफ्ता
राजी किया है।
एक-एक कदम
तुम्हें करीब
लाए हैं। इसलिए
बुद्ध के
विचार में एक
अनुशासन है।
ऐसा
अनुशासन तुम कबीर
में न पाओगे। कबीर
उलटबांसी
बोलते हैं। कबीर
तुम्हारी
फिकर नहीं
करते। कबीर
वहां से बोलते
हैं जहां वे
स्वयं हैं, जहां मेघ
घिरे हैं
अदृश्य के, और अमृत की
वर्षा हो रही
है। जहा बिन
घन परत
फुहार-जहा मेघ
भी नहीं हैं
और जहा अमृत
की वर्षा हो
रही है। बेबूझ
बोलते हैं।
तो कबीर
को तो वे बहुत
थोड़े से लोग
समझ पाएंगे, जो उनके
साथ खतरा लेने
को राजी हैं। कबीर
ने कहा है, जो
घर बारै आपना
चलै हमारे संग।
जिसकी तैयारी
हो घर में आग
लगा देने की, वह हमारे
साथ हो ले। किस
घर की बात कर
रहे हैं? वह
तुम्हारा मन
का घर, तुम्हारी
बुद्धि की
व्यवस्था, तुम्हारा
तर्क, तुम्हारी
समझ; जो उस
घर को जलाने
को तैयार हो, कबीर कहते
हैं, वह
हमारे साथ हो
ले।
बुद्ध
कहते हैं, घर को
जलाने की भी
जरूरत नहीं है।
एक-एक कदम सही,
इंच-इंच सही,
धीरे- धीरे
सही, बुद्ध
तुम्हें
फुसलाते हैं। इसलिए
बुद्ध वहीं से
शुरू करते हैं
जहां तुम हो। उन्होंने
उतना ही कहा
है जो कोई भी
तर्कनिष्ठ व्यक्ति
समझने में
समर्थ हो
जाएगा। इसलिए
बुद्ध का इतना
प्रभाव पड़ा
सारे जगत पर। बुद्ध
जैसा प्रभाव
किसी का भी
नहीं पड़ा।
अगर
दुनिया में
मुसलमान हैं, तो
मोहम्मद के
प्रभाव की वजह
से कम, मुसलमानों
की जबर्दस्ती
की वजह से
ज्यादा। अगर
दुनिया में
ईसाई हैं, तो
ईसा के प्रभाव
से कम, ईसाइयों
की
व्यापारी-कुशलता
के कारण
ज्यादा। लेकिन
अगर दुनिया
में बौद्ध हैं,
तो सिर्फ
बुद्ध के कारण।
न तो कोई
जबर्दस्ती की
गई है किसी को
बदलने की, न
कोई प्रलोभन
दिया गया है। लेकिन
बुद्ध की बात
मौजूं पड़ी। जिसके
पास भी थोड़ी
समझ थी, उसको
भी बुद्ध में
रस आया।
थोड़ा
सोचो, बुद्ध
ईश्वर की बात
नहीं करते। क्योंकि
जो भी
सोच-विचार
करता है, उसे
ईश्वर की बात
में संदेह
पैदा होता है।
बुद्ध ने वह
बात ही नहीं
की। छोड़ो। उसको
अनिवार्य न माना।
बुद्ध आत्मा
तक की बात
नहीं करते
क्योंकि जो बहुत
सोच-विचार
करता है, वह
कहता है, यह
मैं मान नही
सकता कि शरीर
के बाद बचूंगा।
कौन बचेगा? यह सब शरीर
का ही खेल है, आज है, कल
समाप्त हो
जाएगा। किसी
ने कभी मरकर
लौटकर कहा कि
मैं बचा हूं? कभी किसी ने
खबर की? ये
सब यहीं की
बातें हैं। मन
को बहलाने के
खयाल हैं।
बुद्ध
ने आत्मा की
भी बात नहीं
कही। बुद्ध ने
कहा यह भी
जाने दो। क्योंकि
ये बातें ऐसी
हैं कि प्रमाण
देने का तो
कोई उपाय नहीं।
तुम जब जानोगे, तभी
जानोगे; उसके
पहले जनाने की
कोई सुविधा
नहीं। और अगर
तुम तर्कनिष्ठ
हो, बहुत
विचारशील हो,
तो तुम
मानने को राजी
न होओगे। और
बुद्ध कहते
हैं, कोई
ऐसी बात तुमसे
कहना जिसे तुम
इनकार करो, तुम्हारे
मार्ग पर बाधा
बन जाएगी। वह
इनकार ही
तुम्हारे लिए
रोक लेगा। बुद्ध
कहते हैं, यह
भी जाने दो।
बुद्ध
कहते हैं कि
हम इतना ही कहते
हैं कि जीवन
में दुख है, इसे तो
इनकार न करोगे?
इसे तो
इनकार करना
मुश्किल है। जिसने
थोड़ा भी
सोचा-विचारा
है, वह तो
कभी इनकार
नहीं कर सकता।
इसे तो वही
इनकार कर सकता
है, जिसने
सोचा-विचारा
ही न हो। लेकिन
जिसने
सोचा-विचारा
ही न हो वह भी
कैसे इनकार
करेगा, क्योंकि
इनकार के लिए
सोचना-विचारना
जरूरी है। जिसके
मन में जरा सी
भी प्रतिभा है,
थोड़ी सी भी
किरण है, जिसने
जीवन के संबंध
में जरा सा भी
चिंतन-मनन किया
है, वह भी
देख लेगा। अंधा
भी देख लेगा। जड़
से जड़ बुद्धि
को भी यह बात
समझ में आ
जाएगी, जीवन
में दुख है। आंसुओ
के सिवाय पाया
भी क्या? इसे
बुद्ध को
सिद्ध न करना
पड़ेगा, तुम्हारा
जीवन ही सिद्ध
कर रहा है। तुम्हारी
कथा ही बता
रही है। तुम्हारी
भीगी आंखें कह
रही हैं। तुम्हारे
कंपते पैर कह
रहे हैं। तो
बुद्ध ने कहा,
जीवन में
दुख है। यह
कोई
आध्यात्मिक
सत्य नहीं है,
यह तो जीवन का
तथ्य है। इसे
कौन, कब
इनकार कर पाया?
और बुद्ध ने
कहा, दुख
है, तो
अकारण तो कुछ
भी नहीं होता,
दुख के कारण
होंगे। और
बुद्ध ने कहा,
दुख से तो
मुक्त होना
चाहते हो कि
नहीं होना चाहते!
ईश्वर को नहीं
पाना चाहते, समझ में आता
है। कुछ
सिरफिरों को
छोड़कर कौन
ईश्वर को पाना
चाहता है? कुछ
पागलों को
छोड़कर कौन
आत्मा की
फिक्र कर रहा
है। समझदार
आदमी ऐसे
उपद्रवों में
नहीं पड़ते। ऐसी
झंझटें मोल
नहीं लेते। जिंदगी
की झंझटें
काफी हैं। अब
आत्मा और
परमात्मा और
मोक्ष, इन
उलझनों में
कौन पड़े?
बुद्ध
ने ये बातें
ही नहीं कहीं।
तुम इनकार कर
सको, ऐसी
बात बुद्ध ने
कही ही नहीं। इसका
उन्होंने बड़ा
संयम रखा। उन
जैसा संयमी
बोलने वाला
नहीं हुआ है। उन्होंने
एक शब्द न कहा
जिसमें तुम कह
सको, नहीं।
उन्होंने
तुम्हें
नास्तिक होने
की सुविधा न दी।
इसे
थोड़ा समझना। लोगों
ने बुद्ध को
नास्तिक कहा
है, और
मैं तुमसे
कहता हूं कि
बुद्ध अकेले
आदमी हैं पृथ्वी
पर जिन्होंने
तुम्हें
नास्तिक होने की
सुविधा नहीं
दी। जिन्होंने
तुमसे कहा
ईश्वर है, उन्होंने
तुम्हें
इनकार करने को
मजबूर करवा दिया।
कहां है ईश्वर?
जिन्होंने
तुमसे कहा
आत्मा है, उन्होंने
तुम्हारे
भीतर संदेह पैदा
किया। बुद्ध
ने वही कहा
जिस पर तुम
संदेह न कर
सकोगे। बुद्ध
ने आस्तिकता
दी। न नहीं
कहने की
सुविधा छोड़ी,
न का उपाय न
रखा।
बुद्ध
बड़े कुशल हैं।
उनकी कुशलता
को जब समझोगे
तो चकित हो
जाओगे, कि जिसको
तुमने
नास्तिक समझा
है उससे बड़ा
आस्तिक
पृथ्वी पर
दूसरा नहीं
हुआ। और जितने
लोगों को
परमात्मा की
तरफ बुद्ध ले
गए, कोई भी
नहीं ले जा
सका। और
परमात्मा की
बात भी न की, हद की
कुशलता है। चर्चा
भी न चलाई। चर्चा
तुम्हारी की,
पहुंचाया
परमात्मा तक। बात
तुम्हारी
उठाई, समझा-समझाया
तुम्हें, सुलझाव
में परमात्मा
मिला। सुलझाया
तुम्हें, सुलझाव
में परमात्मा
मिला। दुख
काटा
तुम्हारा, जो
शेष बचा वही
आनंद है। बंधन
दिखाए, मोक्ष
की बात न उठाई।
कारागृह
में जो बंद है
जन्मों-जन्मों
से उससे मोक्ष
की बात करके
क्यों.. क्यों
उसे शर्मिंदा
करते हो? और जो
कारागृह में
बहुत दिनों तक
बंद रह गया है,
उसे मोक्ष
का खयाल भी
नहीं रहा। उसे
अपने पंख भी
भूल गए हैं। आज
तुम उसे अचानक
आकाश में छोड़
भी दो तो उड़ भी
न सकेगा। क्योंकि
उड़ने के लिए
पहले उड़ने का
भरोसा चाहिए। तड़फड़ाकर
गिर जाएगा।
तुमने
कभी देखा। तोते
को बहुत दिन
तक रख लो
पिंजड़े में, फिर किसी
दिन खुला द्वार
पाकर भाग भी
जाए, तो उड़
नहीं पाता। पंख
वही हैं, उड़ने
का भरोसा खो
गया। हिम्मत
खो गई। यह याद
ही न रही कि हम
भी कभी आकाश
में उड़ते थे, कि हमने भी
कभी पंख फैलाए
थे, और
हमने भी कभी
दूर की यात्रा
की थी। वह
बातें सपना हो
गयीं। आज
पक्का नहीं
रहा ऐसा हुआ
था, कि
सिर्फ सपने
में देखा है। वह
बातें अफवाह
जैसी हो गयीं।
और इतने दिन
तक कारागृह
में रहने के
बाद कारागृह
की आदत हो
जाती है। तो
तोता तो थोड़े
ही दिन रहा है,
तुम तो
जन्मों-जन्मों
रहे हो।
बुद्ध
ने कहा, तुमसे मोक्ष
की बात करके
तुम्हें
शर्मिंदा करें!
तुमसे मोक्ष की
बात करके
तुम्हें
इनकार करने को
मजबूर करें!
क्योंकि
ध्यान रखना, जो
व्यक्ति बहुत
दिन कारागृह
में रह गया है
वह यह कहना
शुरू कर देता
है कि कहीं
कोई मुक्ति है
ही नहीं। यह
उसकी
आत्मरक्षा है।
वह यह कह रहा
है कि अगर
मोक्ष है तो
फिर मैं यहां
क्या कर रहा
हूं मैं
नपुंसक यहां
क्यों पड़ा हूं?
अगर मोक्ष
है तो मैं
मुका क्यों
नहीं हुआ हूं?
फिर सारी
जिम्मेवारी
अपने पर आ
जाती है।
लोग
ईश्वर को
इसलिए थोड़े ही
इनकार करते
हैं कि ईश्वर
नहीं है। या
कि उन्हें पता
है कि ईश्वर
नहीं है। ईश्वर
को इनकार करते
हैं, क्योंकि
अगर ईश्वर है
तो हम क्या कर
रहे हैं! तो
हमारा सारा
जीवन व्यर्थ
है। लोग मोक्ष
को इसलिए
इनकार करते
हैं कि अगर
मोक्ष है तो
हम तो केवल
अपने बंधनों
का ही इंतजाम किए
चले जा रहे
हैं। तो हम
मूढ़ हैं। अगर
मोक्ष है, तो
जिनको तुम सांसारिक
रूप से समझदार
कहते हो उनसे
ज्यादा मूढ़
कोई भी नहीं।
तो आदमी
को अपनी रक्षा
तो करनी पड़ती
है। सबसे
अच्छी रक्षा
का उपाय है कि
तुम कह दो, कहो है
आकाश? कहां
है मोक्ष? हम
भी उड़ना जानते
हैं, मगर
आकाश ही नहीं
है। हम भी
परमात्मा को
पा लेते-कोई
बुद्धों ने ही
पाया ऐसा
नहीं-हम कुछ
कमजोर नहीं
हैं, हममें
भी बल है, हमने
भी पा लिया
होता, लेकिन
हो तभी न? है
ही नहीं। ऐसा
कहकर तुम अपनी
आत्मरक्षा कर
लेते हो। तब
तुम अपने
कारागृह को घर
समझ लेते हो।
जिस
कारागृह में
बहुत दिन रहे
हो, उसे
कारागृह कहने
की हिम्मत भी
जुटानी मूश्किल
हो जाती है। क्योंकि
फिर उसमें
रहोगे कैसे? अगर ईश्वर
है, तो
संसार में
बेचैनी हो
जाएगी खड़ी। अगर
मोक्ष है, तो
तुम्हारा घर
तुम्हें
काटने लगेगा,
कारागृह हो
जाएगा। तुम्हारे
राग, आसक्ति
के संबंध जहर
मालूम होने
लगेंगे। उचित
यही है कि तुम
कह दो कि नहीं,
न कोई मोक्ष
है, न कोई
परमात्मा है,
यह सब जालसाजों
की बकवास है। कुछ
सिरफिरों की
बातचीत है। या
कुछ चालबाजों
की
अटकलबाजिया
है। इस तरह
तुम अपनी
रक्षा कर लेते
हो।
बुद्ध
ने तुम्हें यह
मौका न दिया। बुद्ध
ने किसी को
नास्तिक होने
का मौका न
दिया। बुद्ध
के पास
नास्तिक आए और
आस्तिक हो गए।
क्योंकि
बुद्ध ने कहा, दुखी हो। इसको
कौन इनकार
करेगा? इसे
तुम कैसे
इनकार करोगे?
यह
तुम्हारे
जीवन का सत्य
है। और क्या
तुम कहीं ऐसा
आदमी पा सकते
हो जो दुख से
मुका न होना
चाहता हो? मोक्ष
न चाहता हो, लेकिन दुख
से मुका तो
सभी कोई होना
चाहते हैं। , पीड़ा है, बुद्ध
ने कहा, काटा
छिदा है। बुद्ध
ने कहा, मैं
चिकित्सक हूं,
मैं कोई दार्शनिक
नहीं। लाओ मैं
तुम्हारा
काटा निकाल
दूं। कैसे
इनकार करोगे
इस आदमी को? यह शिक्षक
की घोषणा ही
नहीं कर रहा
है कि मैं शिक्षक
हूं, या
गुरु हूं। यह
तो इतना ही कह
रहा है, सिर्फ
एक चिकित्सक
हूं।
और इस
आदमी को देखकर
लोगों को
भरोसा आया। क्योंकि
इस आदमी के
जीवन में दुख
का कोई काटा नहीं
है। इस आदमी
के जीवन में
ऐसी परमशांति
है, ऐसी
विश्रांति
है-सब लहरें
खो गई हैं
पीड़ा की, एक
अपूर्व उत्सव
नित-नूतन, प्रतिपल
नया, अभी-अभी
ताजा और जन्मा
इस आदमी के
पास अनुभव होता
है। इस आदमी
के पास एक हवा
है, जिस
हवा में आकर
यह दो बातें
कर रहा है -
अपनी हवा से
खबर दे रहा है
कि आनंद संभव
है, और
तुम्हारे दुख
की तरफ इशारा
कर रहा है कि
तुम दुखी हो। दुख
के कारण हैं। दुख
के कारण को
मिटाने का
उपाय है।
तो
बुद्ध का सारा
चिंतन दुख पर
खड़ा है। दुख
है, क्यू
के कारण हैं, दुख के कारण
को मिटाने के
साधन हैं, और
दुख से मुक्त
होने की
संभावना है। इस
संभावना के वे
स्वयं प्रतीक
हैं। जिस
स्वास्थ्य को
वे तुम्हारे
भीतर लाना चाहते
हैं, उस
स्वास्थ्य को
वे तुम्हारे
सामने मौजूद
खड़ा किए हैं। तुम
बुद्ध से यह न
कह सकोगे कि
चिकित्सक, पहले
अपनी
चिकित्सा कर। बुद्ध
को देखते ही
यह तो सवाल ही
न उठेगा। और
तुम बुद्ध से
यह भी न कह
सकोगे कि मैं
दुखी नहीं हूं।
किस मुंह से
कहोगे? और
कहकर तुम क्या
पाओगे? सिर्फ
गवांओगे।
इसलिए
बुद्ध ने
तुम्हें
देखकर
व्यवस्था दी। और
बुद्ध यह जानते
हैं कि जिस
दिन तुम्हारा
दुख न होगा, जिस दिन
तुम्हारी
पीड़ा गिर
जाएगी, तुम्हारी
आंख के अंधकार
का पर्दा
कटेगा, तुम
जागोगे, उस
दिन तुम देख
लोगे-मोक्ष है।
जो दिखाया जा
सकता हो, और
जो दिखाने के
अतिरिक्त और
किसी तरह
समझाया न जा
सकता हो, उसे
दिखाना ही
चाहिए। उसकी
बात करनी
खतरनाक है। क्योंकि
अक्सर लोग
बातों में खो
जाते हैं।
कितने
लोग बात के ही
धार्मिक हैं। बातचीत
ही करते रहते
हैं। ईश्वर
चर्चा का एक
विषय है। अनुभव
का एक आयाम
नहीं, जीवन
को बदलने की
एक आग नहीं, सिद्धातों
की राख है। शास्त्रों
में लोग उलझे
रहते हैं, बाल
की खाल
निकालते रहते
हैं, उससे
भी अहंकार को
बड़ा रस आता है।
बुद्ध ने
शास्त्रों को
इनकार कर दिया।
बुद्ध ने कहा,
यह पीछे तुम
खोज कर लेना। अभी
तो उठो, अभी
तो अपने जीवन
के दुख को काट
लो। बुद्ध ने
यह कहा हफीज
के शब्दों
में-
उठो
सनमकदे वालो
तलाश लाजिम है
इधर ही
लौट पड़ेंगे
अगर खुदा न
मिला
उठो
मंदिरों वालो, जो तुम
बैठ गए हो
मंदिरों और
मस्जिदों में,
सनमकदे
वालों! तलाश
लाजिम है।
इधर ही
लौट पड़ेंगे
अगर खुदा न
मिला
थोड़ा
दुख को मिटाने
की कोशिश कर
लो। अगर न
मिटा, तो
यह दुख तो है
ही, फिर
लौट पड़ेंगे। थोड़ा
कारागृह के
बाहर आओ, घबड़ाओ
मत, अगर
खुला आकाश न
मिला, इधर
ही लौट पड़ेंगे।
बुद्ध
ने जिज्ञासा
दी, आस्था
नहीं। बुद्ध
ने इंक्वायरी
दी, अन्वेषण
दिया, आस्था
नहीं। बुद्ध
ने इतना ही
कहा, ऐसे
मत बैठे रहो। ऐसे
बैठे तो कुछ न
होगा। बैठे-बैठे
तो कुछ न होगा।
खोज लाजिम है।
तुम दुखी हो, क्योंकि
तुमने जीवन की
सारी
संभावनाएं
नहीं खोजी। तुम
दुखी हो, क्योंकि
तुमने जन्म के
साथ ही समझ
लिया कि जीवन
मिल गया। जन्म
के साथ तो
केवल संभावना
मिलती है जीवन
की, जीवन
नहीं मिलता। बम
के बाद जीवन
खोजना पड़ता है।
जो खोजता है
उसे मिलता है।
और जन्म के
बाद जो
बैठा-बैठा
सोचता है कि
मिल गया जीवन,
यही जीवन है,
पैदा हो गए
यही जीवन है, वह चूक जाता
है।
तो
बुद्ध ने यह
नहीं कहा कि
मैं तुमसे
कहता हूं कि
यह मोक्ष, यह स्वातंत्रय,
यह आकाश, यह परमात्मा
मिल ही जाएगा;
यह मैं
तुमसे नहीं
कहता। मैं
इतना ही कहता हूं--
उठो
सनमकदे वालो
तलाश लाजिम है
खोज
जरूरी है।
इधर ही
लौट पड़ेंगे
अगर खुद न
मिला
और
घबड़ाहट क्या
है? यह
घर तो फिर भी
रहेगा। तुम्हारे
मन की धारणाओं
में फिर लौट
आना, अगर
निर्धारणा का
कोई आकाश न
मिले। लौट आना
विचारों में,
अगर ध्यान
की कोई झलक न
मिले। अगर शात
होने की कोई
सुविधा-सुराग
न मिले, फिर
अशात हो जाना।
कौन सी अड़चन
है? अशात
होकर बहुत दिन
देख लिया है। अशांति
से कोई शाति
तो मिली नहीं।
बुद्ध कहते
हैं, मैं
भी तुम्हें एक
झरोखे की खबर
देता हूं, थोड़ा
इधर भी झांक
लो-तलाश लाजिम
है।
बुद्ध
ने खोज दी, श्रद्धा
नहीं। इसे
थोड़ा समझो। बुद्ध
ने तुम्हें
तुम्हारे
जीवन पर संदेह
दिया, परमात्मा
के जीवन पर
श्रद्धा नहीं।
यह दोनों एक
ही बात हैं। अपने
पर संदेह हो
जाए, तो
परमात्मा पर
श्रद्धा आ ही
जाती है। परमात्मा
पर श्रद्धा आ
जाए, तो
अपने पर संदेह
हो ही जाता है।
तुम्हें अगर
अपने अहंकार
पर बहुत भरोसा
है, तो
परमात्मा पर
श्रद्धा न
होगी। तुम अगर
अपने को बहुत
समझदार समझ
बैठे हो, तो
फिर तुम्हें
किसी मोक्ष, किसी आत्मा
में भरोसा
नहीं आ सकता। तुमने
फिर अपने ज्ञान को
आखिरी सीमा
समझ ली। फिर
विस्तार की
जगह और सुविधा
न रही। और
ज्यादा जानने
को तुम मान ही
नहीं सकते, क्योंकि तुम
यह नहीं मान
सकते कि ऐसा
भी कुछ है जो
तुम नहीं
जानते हो। जिसने
अपने पर ऐसा
अंधा भरोसा कर
लिया, वही
तो परमात्मा
पर भरोसा नहीं
कर पाता। जिसने
इस तथाकथित
जीवन को जीवन
समझ लिया, वही
तो महाजीवन की
तरफ जाने में असमर्थ
हो जाता है, पंगु हो
जाता है।
तो दो
उपाय हैं। बुद्ध
को छोड़कर
बाकी
बुद्धपुरुषों
ने परमात्मा
की तरफ श्रद्धा
जगाई। बुद्ध
ने तुम्हारे
जीवन के प्रति
संदेह जगाया। बात
वही है। किसी
ने कहा गिलास
आधा भरा है। किसी
ने कहा गिलास
आधा खाली है।
बुद्ध
ने कहा गिलास
आधा खाली है। क्योंकि
तुम खाली हो, भरे को
तुम अभी समझ न
पाओगे। और आधा
गिलास खाली है
यह समझ में आ
जाए, तो
जल्दी ही तुम
आधा भरा गिलास
है उसके करीब
पहुंचने
लगोगे। तुमसे
यह कहना कि
आधा गिलास भरा
है, गलत
होगा, क्योंकि
तुम खाली में
जी रहे हो। नकार
का तुम्हें
पता है, रिक्तता
का तुम्हें
पता है, पूर्णता
का तुम्हें
कोई पता नहीं।
इसलिए बुद्ध
ने शून्य को
अपना शास्त्र
बना लिया।
बुद्ध
ने तुम्हें
देखा, तुम्हारी
बीमारी को
देखा, तुम्हारी
नब्ज पर निदान
किया। इसलिए
बुद्ध से
ज्यादा
प्रभावी कोई
भी नहीं हो
सकता। क्योंकि
मनुष्य के मन
में बुद्ध को
समझने में कोई
अड़चन न आई।
बुद्ध
बहुत सीधे-साफ
हैं। ऐसा नहीं
कि जिंदगी में
जटिलता नहीं
है, जिंदगी
बड़ी जटिल है। लेकिन
बुद्ध बड़े
सीधे-साफ हैं।
ऐसा समझो कि
अगर तुम कबीर
से पूछो, या
महावीर से
पूछो, या
कृष्ण से पूछो,
तो वे बात
वहां की करते
हैं-इतने दूर
की, कि
तुम्हारी आंखों
में पास ही
नहीं दिखाई
पड़ता, उतना
दूर तुम्हें
कैसे दिखाई
पड़ेगा! तो एक
ही उपाय है, या तो तुम
इनकार कर दो, जो कि
ज्यादा
ईमानदार है। इसलिए
नास्तिक
ज्यादा
ईमानदार होते
हैं बजाय
आस्तिकों के। और
या तुम्हें
दिखाई नहीं
पड़ता, लेकिन
तुम स्वीकार
कर लो, क्योंकि
जब महावीर को
दिखाई पड़ता है,
तो होगा ही।
तो तुम भी ही
में ही भरने
लगो। और तुम
कहो कि ही, मुझे
भी दिखाई पड़
रहा है।
इसलिए
जिनको तुम
आस्तिक कहते
हो, वे
बेईमान होते
हैं। नास्तिक
कम से कम सचाई
तो स्वीकार
करता है, कि
मुझे नहीं
दिखाई पड़ रहा
है। हालांकि
वह कहता गलत
ढंग से है। वह
कहता है, ईश्वर
नहीं है। उसे
कहना चाहिए, मुझे दिखाई
नहीं पड़ रहा। क्योंकि
तुम्हें
दिखाई न पड़ता
हो इसलिए जरूरी
नहीं है कि न
हो। बहुत सी
चीजें
तुम्हें
दिखाई नहीं
पड़ती हैं, और
हैं। बहुत सी
चीजें आज नहीं
दिखाई पड़ती, कल दिखाई पड़
जाएंगी। और
बहुत सी चीजें
दिखाई आज पड़
सकती हैं, लेकिन
तुम्हारी आंख
बंद है।
नास्तिक
के कहने में
गलती हो सकती
है, लेकिन
ईमानदारी में
चूक नहीं है। नास्तिक
यही कहना
चाहता है कि
मुझे दिखाई
नही पड़ता। लेकिन
वह कहता है
नहीं, ईश्वर
नहीं है। उसके
कहने का ढंग
अलग है। बात
वह सही ही
कहना चाहता है।
आस्तिक बड़ी
झूठी अवस्था
में जीता है। आस्तिक
को दिखाई नहीं
पड़ता, वह
यह भी नहीं
कहता कि मुझे
दिखाई नहीं
पड़ता। वह यह
भी नहीं कहता
कि ईश्वर नहीं
है। जो नहीं
दिखाई पड़ता
उसे स्वीकार
कर लेता है, किसी और के
भरोसे पर। और
तब यात्रा बंद
हो जाती है। क्योंकि
जो तुमने जाना
नहीं और मान
लिया, तुम
उसे खोजोगे
क्यों?
इसलिए
बुद्ध ने कहा, तलाश
लाजिम है। खोज
जरूरी है। ईश्वर
है या नहीं, यह फिक्र
छोड़ो। लेकिन
ऐसे बैठे-बैठे
जीवन का ढंग
दुखपूर्ण है। निराशा
से भरा है, मूर्च्छित
है। जागो। और
बुद्ध ने
करोड़ों-करोड़ों
लोगों को
परमात्मा तक
पहुंचा दिया।
इसलिए
मैं कहता हूं
इस सदी में
बुद्ध की भाषा
बड़ी समसामयिक
है। कटेंप्रेरी
है। क्योंकि
यह सदी बड़ी
ईमानदार सदी
है। इतनी
ईमानदार सदी
पहले कभी हुई
नहीं। तुम्हें
यह सुनकर थोड़ी
परेशानी होगी, तुम थोड़ा
चौंकोगे। क्योंकि
तुम कहोगे, यह सदी और
ईमानदार! सब
तरह के बेईमान
दिखाई पड़ रहे
हैं। लेकिन
मैं तुमसे फिर
कहता हूं कि
इस सदी से ज्यादा
ईमानदार सदी
कभी नहीं हुई।
आदमी अब वही
मानेगा, जो
जानेगा।
अब तुम
यह न कह सकोगे
कि हमारे कहे
से मान लो। अब
तुम यह न कह सकोगे
कि हम बुजुर्ग
हैं, और
हम बड़े अनुभवी
हैं, और
हमने बाल ऐसे
धूप में नहीं
पकाए हैं, हम
कहते हैं
इसलिए मान लो।
अब तुम्हारी
इस तरह की
बातें कोई भी
न मानेगा। अब
तो लोग कहते
हैं नगद
स्वीकार
करेंगे, उधार
नहीं। अब तो
हम जानेंगे
तभी स्वीकार
करेंगे। ठीक
है, तुमने
जान लिया होगा।
लेकिन
तुम्हारा
जानना
तुम्हारा है,
हमारा नहीं।
हम भटकेंगे
अंधेरे में
भला, लेकिन
हम उस प्रकाश
को न मानेंगे
जो हमने देखा
नहीं।
इसलिए
मैं कहता हूं
यह सदी बड़ी
ईमानदार है। ईमानदार
होने के कारण
नास्तिक है, अधार्मिक
है। पुरानी
सदियां
बेईमान थीं। लोग
उन मंदिरों
में झुके, जिनका
उन्हें कोई
अनुभव न था। उनका
झुकना
औपचारिक रहा
होगा। सर झुक
गया होगा, हृदय
न झुका होगा। और
असली सवाल वही
है कि हृदय
झुके। वे
ईश्वर को
मानकर झुक गए
होंगे। लेकिन
जिस ईश्वर को
जाना नहीं है
उसके सामने झुकोगे
कैसे? कवायद
हो जाएगी, शरीर
झुक जाएगा, तुम कैसे
झुकोगे? उन्होंने
उस झुकने में
से भी अकड़
निकाल ली होगी।
वे और अहंकारी
होकर घर आ गए
होंगे, कि
मैं रोज पूजा
करता हूं? प्रार्थना
करता हूं रोज
माला फेरता
हूं।
माला
फेरने वालों
को तुम जानते
ही हो। उन
जैसे अहंकारी
तुम कहीं न
पाओगे। उनका
अहंकार बड़ा
धार्मिक
अहंकार है। उनके
अहंकार पर
राम-नाम की
चदरिया है। उनका
अहंकार बड़ा
पवित्र मालूम
होता है, शुद्ध, नहाया
हुआ। पर है तो
अहंकार ही। और
जहर जितना
शुद्ध होता है
उतना ही
खतरनाक हो
जाता है।
नहीं, इस सदी ने
साफ कर लिया
है कि अब हम
वही मानेंगे जो
हम जानते हैं।
'यह सदी
विज्ञान की है।
तथ्य स्वीकार
किए जाते हैं,
सिद्धात
नहीं। और तथ्य
भी अंधी आंखों
से स्वीकार
नहीं किए जाते
हैं। सब तरफ
से खोजबीन कर
ली जाती है, जब असिद्ध
करने का कोई
उपाय नहीं रह
जाता, तभी
कोई चीज
स्वीकार की
जाती है।
इसलिए
ऐसा घटता है-बर्ट्रेड
रसल जैसा
व्यक्ति जो
नास्तिक है, इसलिए
जीसस को
श्रद्धा नहीं
दे सकता, हालांकि
ईसाई घर में
पैदा हुआ है, सारे
संस्कार ईसाई
के हैं। लेकिन
बर्ट्रेड रसल
ने एक किताब
लिखी है-व्हाय
आई एम नाट ए
क्रिश्चियन-मैं
ईसाई क्यों
नहीं हूं? ईसा
पर बड़े शक
उठाए हैं।
शक उठाए
जा सकते हैं। क्योंकि
ईसा की
व्यवस्था में
कोई तर्क नहीं
है। ईसा कवि
हैं। कहानियां
कहने में कुशल
हैं। विरोधाभासी
हैं। उनके
शब्द
पहेलियां हैं।
ही, जो
खोज करेगा वह
उन पहेलियों
के आखिरी राज
को खोल लेगा। लेकिन
वह तो बड़ी खोज
की बात है। और
उस खोज में जीवन
लग जाते हैं। लेकिन
जो पहेली को
सीधा-सीधा
देखेगा, वह
इनकार कर देगा।
रसल ने
जीसस को इनकार
कर दिया। लेकिन
रसल ने कहा कि
मैं नास्तिक
हूं, मगर
बुद्ध को
इनकार नहीं कर
सकता। बुद्ध
को इनकार कैसे
करोगे? यही
तो मैं कह रहा
हूं! रसल के मन
में भी बुद्ध
के प्रति वैसी
ही श्रद्धा है,
जैसी किसी
भक्त के मन
में हो। इनकार
करने की जगह
नहीं छोड़ी इस
आदमी ने। इस
आदमी ने ऐसी
बात ही नहीं
कही जो तर्क
की कसौटी पर
खरी न उतरती
हो।
बुद्ध
वैज्ञानिक
द्रष्टा हैं। बुद्ध
को इस भांति
समझोगे तो
तुम्हारे लिए
बड़े कारगर हो
सकते हैं। हालांकि
ध्यान रखना, जैसे-जैसे
गहरे उतरोगे
पानी में, जैसे-जैसे
बुद्ध के
फुसलावे में आ
जाओगे, वैसे-वैसे
तुम पाओगे कि
जितना तर्क
पहले दिखाई
पड़ता था वह
पीछे नहीं है।
मगर तब कौन
चिंता करता है,
अपना ही
अनुभव शुरू हो
जाता है। फिर
कौन प्रमाण
मांगता है? प्रमाण तो हम
तभी मांगते
हैं, जब
अपना अनुभव
नहीं होता। जब
अपना ही अनुभव
हो जाता है...।
मैं
तुम्हें तर्क
देता हूं और
तर्क से इतना
ही तुम्हें
राजी कर लेता
हूं कि तुम
मेरी खिड़की पर
आकर खड़े हो
जाओ, बस। फिर
तो खिड़की से
खुला आकाश
तुम्हीं को
दिखाई पड़ जाता
है। फिर तुम
मुझसे नहीं
पूछते कि आप
प्रमाण दें
आकाश के होने
का। अब प्रमाण
देने का
प्रश्न ही
नहीं उठता
है-न तुम मलते
हो, न मैं
देता हूं।
और तुम
मुझे धन्यवाद
भी दोगे कि
भला किया कि पहले
मुझे तर्क से
समझाकर खिड़की
तक ले आए। क्योंकि
अगर तर्क से न
समझाया होता
तो मैं खिड़की
तक आने को भी
राजी नहीं
होता। मैं एक
कदम न चलता। अगर
तुमने पहले ही
इस आकाश की
बात की होती
जो मेरे लिए
अनजाना है, अपरिचित
है, तो मैं
हिला ही न
होता अपनी जगह
से। तुमने भला
किया आकाश की
बात न की, खिड़की
की बात की; असीम
की बात न की, सीमा की बात
की। तुमने भला
किया आनंद की
बात न की, दुख-निरोध
की बात की। तुमने
भला किया
ध्यान की बात
न की, विचार
से मुक्त होने
की बात की। तुमने
भला किया
श्रद्धा न
मांगी, वह
मैं दे न सकता,
तुमने मेरे
संदेह का ही
उपयोग कर लिया।
तुमने काटे से
काटा निकाल
दिया। भला
किया।
इसलिए
बुद्ध के
प्रति
कृतज्ञता
अनुभव होगी। यद्यपि
बुद्ध ने
तुम्हें धोखा
दिया। जीसस
तुम्हें इतना
धोखा नहीं दे
रहे हैं। वे
बात वही कह
रहे हैं जो है।
जैसा आखिर में
तुम पाओगे, जीसस ने
पहले ही कह
दिया।
बुद्ध
कुछ और कह रहे
हैं। तुम्हें
देखकर कह रहे
हैं। जैसा नहीं
है वैसा कह
रहे हैं। लेकिन
तुम अनुगृहीत
अनुभव करोगे
कि कृपा की, करुणा की
कि इतना धोखा
दिया; अन्यथा
मैं खिड़की पर
न आता।
तुम
चकित होओगे
अगर मैं तुमसे
कहूं? झेन
फकीरों ने कहा
भी है, झेन
फकीर लिंची ने
कहा है, बुद्ध
से ज्यादा झूठ
बोलने वाला
आदमी नहीं हुआ।
लिंची रोज
पूजा करता है
बुद्ध की, सुबह
से फूल चढ़ाता
है, आंसू
बहाता है, लेकिन
कहता है, बुद्ध
से झूठ बोलने
वाला आदमी
नहीं। लिंची
ने एक बार
अपने शिष्यों
से कहा कि ये
बुद्ध के
शास्त्रों को
आग लगा दो, ये
सब सरासर झूठ
हैं। किसी ने
पूछा, लेकिन
तुम रोज आंसू
बहाते हो, रोज
सुबह फूल
चढ़ाते हो, और
हमने तुम्हें
घंटों बुद्ध
की प्रतिमा के
सामने
भाव-विभोर
देखा है। इन
दोनों को हम
कैसे जोड़े? ये दोनों
बातें बड़ी
असंगत हैं। लिंची
ने कहा, उनकी
करुणा के कारण
वे झूठ बोले। उनके
झूठ के कारण
मैं वहा तक
पहुंचा जहा सच
का दर्शन हुआ।
बुद्ध अगर सच
ही बोलते तो
मैं पहुंच न
पाता।
सभी
ज्ञानी बहुत
उपाय करते हैं
तुम्हें पहुंचाने
के। वे सभी
उपाय सही नहीं
है। जैसे तुम
घर में बैठे
हो, तुम
कभी बाहर नहीं
गए, मैंने
बाहर जाकर
देखा कि बड़े
फूल खिले हैं,
पक्षियों
के अनूठे
गीतों का
राज्य है, सूरज
निकला है, खुला
मुक्त। असीम
आकाश है, सब
तरफ रोशनी है,
और तुम
अंधेरे में
दबे बैठे हो, और सर्दी
में ठिठुर रहे
हो; लेकिन
तुम कभी बाहर
नहीं गए, अब
मैं तुम्हें
कैसे बाहर ले
जाऊं? तुमसे
कैसे कहूं? तुम्हें
कैसे खबर दूं
बाहर के सूरज
की? क्योंकि
तुम्हारी
भाषा में सूरज
के लिए कोई
पर्यायवाची
नहीं है। तुम्हें
कैसे बताऊं
फूलों के बाबत?
क्योंकि
तुम्हारी
भाषा में
फूलों के लिए
कोई शब्द नहीं
है। रंग तुमने
जाने ही नहीं,
रंगों का उत्सव
तुम कैसे
सुनोगे-समझोगे?
तुमने
सिर्फ दीवाल
देखी है। उस
दीवाल को
तुमने अपनी
जिंदगी समझी
है। तुमसे
कैसे कहूं कि
ऐसा भी आकाश
है, जिसकी
कोई सीमा नहीं?
तुम कहोगे,
हो चुकी
बातें, लनतरानी
है।
तुमने
कहानी सुनी है
कि एक मेंढक सागर
से आ गया था और
एक कुएं में उतर
गया था। कुएं
के मेंढक ने
पूछा, मित्र
कहां से आते
हो? उसने
कहा, सागर
से आता हूं। कुएं
के मित्र ने
पूछा, सागर
कितना बड़ा है?
क्योंकि उस
कुएं के मेंढक
ने कुएं से
बडी कोई चीज
कभी देखी न थी।
उसी में पैदा
हुआ था, उसी
में बड़ा हुआ
था। कभी कुएं
की दीवालों को
पार करके बाहर
गया भी न था। दीवालें
बड़ी भी थीं। और
पार इससे बड़ा
कुछ हो भी
सकता है, इसे
मानने का कोई
कारण भी न था। कभी
बाहर से भी
कोई मेंढक न
आया था, जिसने
खबर दी हो। सागर
के मेंढक ने
कहा, बहुत
बड़ा है। लेकिन
बहुत से कहीं
पता चलता है!
कुएं के मेंढक
को बहुत बड़े
का क्या मतलब?
कुएं का
मेंढक! आधे
कुएं में
छलांग लगाई
उसने और कहा, इतना बड़ा। आधा
कुआं, इतना
बड़ा। उसने कहा
कि नहीं-नहीं,
बहुत बड़ा है।
तो उसने पूरी
छलांग लगाई। कहा,
इतना बड़ा? लेकिन अब
उसे संदेह
पैदा होने लगा
1 सागर के मेंढक
ने कहा, भाई!
बहुत बड़ा है।
उसे
भरोसा तो नहीं
आया। लेकिन
फिर भी उसने
एक और आखिरी
कोशिश की। उसने
पूरा चक्कर
कुएं का दौड़कर
लगाया। कहा, इतना बड़ा?
सागर के
मेंढक ने कहा,
मैं तुमसे
कैसे कहूं? बहुत बड़ा है।
इस कुएं से
उसका कोई
पैमाना नहीं। उसका
कोई नाप-जोख
नहीं हो सकता।
तो कुएं के
मेंढक ने कहा,
झूठ की भी
एक सीमा होती
है। किसी और
को धोखा देना।
हम ऐसे नासमझ
नहीं हैं। तुम
किसको मूढ़
बनाने चले हो?
अपनी राह लो।
इस कुएं से
बड़ी चीज न कभी
सुनी गई, न
देखी गई। अपने
मां-बाप से, अपने पुरखों
से भी मैंने
इससे बड़ी चीज
की कोई बात
नहीं सुनी। वे
तो बड़े अनुभवी
थे, मैं
नया हो सकता
हूं। हम
दर-पीढ़ी इस
कुएं में रहे
हैं।
अगर मैं
तुमसे बाहर की
बात आकर कहूं
तुम्हारे अंधकार-कक्ष
में, तुम
भरोसा न करोगे।
इसीलिए तो
नास्तिकता
पैदा होती है।
जब भी कोई
परमात्मा में
जाकर लौटता है,
और तुम्हें
खबर देता है, और वह इतना
लड़खड़ा गया
होता है अनुभव
से-वह इतना
अवाक और
आश्चर्यचकित
होकर लौटता है
कि उसकी भाषा
के पैर डगमगा
जाते हैं। अनुभव
इतना बड़ा और
शब्द इतने
छोटे, शब्दों
में अनुभव
समाता नहीं। वह
बोलता है, और
बोलने की
व्यर्थता
दिखाई पड़ती है।
वह हिचकिचाता
है। वह कहता
भी है, और
कहते डरता भी
है, कि जो
भी कहेगा गलत
होगा, और
जो भी कहेगा
वह सत्य के
अनुकूल न होगा।
क्योंकि भाषा
तुम्हारी, अनुभव
बाहर का। भाषा
दीवालों की, अनुभव असीम
का।
तो मैं
क्या करूं
तुम्हारे
कमरे में आकर? लिंची
ठीक कहता है, बुद्ध झूठ
बोले। बुद्ध
ने चर्चा नहीं
की फूलों की, बुद्ध ने
चर्चा नहीं की
पक्षियों के
गीत की, बुद्ध
ने चर्चा नहीं
की झरनों के
कलकल नाद की; बुद्ध ने
सूरज की रोशनी
की और किरणों
के विराट जाल
की कोई बात
नहीं की। नहीं
कि उनको पता
नहीं था। उनसे
ज्यादा किसको
पता था? उन्होंने
बात कुछ और की।
उन्होंने बात
की तुम्हारी
दीवालों की, उन्होंने
बात की
तुम्हारे
अंधकार की, उन्होंने
बात की
तुम्हारी
पीड़ा की, तुम्हारे
दुख की; उन्होंने
पहचाना कि
तुम्हें बाहर
ले जाने का
क्या उपाय हो
सकता है।
बाहर के
दृश्य
तुम्हें
आकर्षित न कर
सकेंगे। क्योंकि
आकर्षण तभी
होता है जब
थोड़ा अनुभव हो।
थोड़ा भी स्वाद
लग जाए मिठास
का, तो
फिर तुम मिठाई
के लिए आतुर
हो जाते हो। लेकिन
नमक ही नमक
जीवन में जाना
हो, कड़वाहट
ही कड़वाहट
भोगी हो, मिठास
का सपना भी न
आया हो कभी, क्योंकि
सपना भी उसी का
आता है जिसका
जीवन में थोड़ा
अनुभव हो, सपने
भी जीवन का ही
प्रतिफलन
होते हैं!
तो
बुद्ध ने
तुमसे क्या
कहा? बुद्ध
ने कहा कि
भागो, इस
मकान में आग
लगी है। आग
लगी न थी। लिंची
ठीक कहता है, बुद्ध झूठ
बोले।
मगर
लिंची रोज
उनको धन्यवाद
भी देता है कि
तुम्हारी
अनुकंपा कि
तुम झूठ बोले, नहीं तो
मैं भागता ही
न। घर में आग
लगी है! बुद्ध
ने तुम्हें
भयभीत कर दिया।
तुम्हारे दुख
के चित्र
उभारे, तुम्हारे
छुपे दुख को
बाहर निकला। तुमने
जो दबा रखा है अपने
भीतर अंधकार,
उसको प्रगट
किया। तुम्हारे
दुख को इतना
उभारा कि तुम
घबड़ा गए, तुम
भयभीत हो गए। और
जब बुद्ध ने
कहा, इस घर
में आग लगी है,
तो तुम
घबड़ाहट में
भाग खड़े हुए। तुम
भूल ही गए
इनकार करना कि
बाहर तो है ही
नहीं, जाएं
कहा? जब घर
में आग लगी हो
तो कौन सोच-विचार
की स्थिति में
रह जाता है? भाग खड़े हुए।
अमरीका
में एक
मनोवैज्ञानिक
प्रयोग कर रहा
था। एक सिनेमागृह
में जब लोग
आधा घंटा तक
पिक्चर
देखने में
तल्लीन हो
चुके थे अचानक
एक आदमी जोर
से
चिल्लाया-आग!
आग!! उस आदमी को
बिठा रखा था एक
मनोवैज्ञानिक
ने। भगदड़ शुरू
हो गई। मैनेजर
चिल्ला रहा है
कि कहीं कोई
आग नहीं है, लेकिन
कोई सुनने को
राजी नहीं। जब
एक दफा भय पकड़
ले!
लोगों
ने दरवाजे तोड़
डाले, कुर्सियां
तोड़ डालीं, भीड़-भड़क्कम
हो गई। एक-दूसरे
के ऊपर भाग
खड़े हुए। बच्चे
गिर गए, दब
गए। बामुश्किल
कब्जा पाया जा
सका। जब लोग
बाहर आ गए, तभी
उनको भरोसा
आया कि किसी
ने मजाक कर दी।
लेकिन एक
मनोवैज्ञानिक
प्रयोग कर रहा
था कि लोग
शब्दों से
कितने
प्रभावित हो
जाते हैं। आग!
बस काफी है। फिर
तुम यह भी
नहीं देखते कि
आग है भी, या
नहीं।
बुद्ध
ने तुम्हारे
दुख को उभारा।
बुद्ध
चिल्लाए, आग! तुम भाग
खड़े हुए। उसी 'भागदौड़ में
तुममें से कुछ
बाहर निकल गए।
लिंची उन्हीं
में से है, जो
बाहर निकल गया।
अब वह कहता है,
खूब झूठ
बोले! कहीं आग
न लगी थी। कहीं
धुआ भी न था, आग तो दूर। मगर
उसी भय में
बाहर आ गए। इसलिए
चरणों में सिर
रखता है न तुम
चिल्लाते, न
हम बाहर आते।
मैं भी
तुमसे न मालूम
कितने-कितने
ढंग के झूठ बोले
जाता हूं। जानता
हूं सौभाग्यशाली
होंगे तुममें
वे, जो
किसी दिन उन
झूठों को
पहचान लेंगे। लेकिन
वे तुम तभी
पहचान पाओगे
जब तुम बाहर
निकल चुके
होओगे। तब तुम
नाराज न होओगे।
तुम अनुगृहीत
होओगे।
बुद्ध
ने तुम्हारी
भाषा बोली। तुम्हें
जगाना है, तुम्हारी
भाषा बोलनी ही
जरूरी है। बुद्ध
अपनी भाषा
तुमसे नहीं
बोले। ही, बुद्ध
के पास कोई
बुद्धपुरुष
होता तो उससे वे
अपनी भाषा
बोलते।
एक सुबह
वे फूल लेकर
आए हैं। ऐसा
कभी न हुआ था। कभी
वे कुछ लेकर न
आए थे। और वे बैठ
गए हैं बोलने
के लिए, भीड़ सुनने
को आतुर है। और
वे फूल को
देखे चले जाते
हैं। धीरे-धीरे
भीड़ बेचैन
होने लगी, क्योंकि
लोग सुनने को
आए थे, और
बुद्ध उस दिन
दिखा रहे थे। जो
लोग सुनने को
आए हैं वे
देखने को राजी
नहीं होते।
यह बड़े
मजे की बात है।
तुम अगर हीरे की
बाबत सुनने आए
हो, और
मैं हीरा लेकर
भी बैठ जाऊं
तो भी तुम
बेचैन हो
जाओगे। क्योंकि
तुम सुनने आए
थे। तुम कानों
का भरोसा करने
आए थे। मैंने
तुम्हारी आंखों
को पुकारा, तुम्हारी आंखें
बंद हैं। हीरे
की बात करूं, तुम सुन
लोगे। हीरा
दिखाऊं, तुम्हें
दिखाई ही न
पड़ेगा। बुद्ध
फूल लिए बैठे
रहे। उस दिन
बुद्ध ने एक
परम उपदेश
दिया, जैसा
उन्होंने कभी
न दिया था। उस
दिन बुद्ध ने
अपना
बुद्धत्व
सामने रख दिया।
मगर देखने
वाला चाहिए। सुनने
वाले थे। आंख
के अंधे थे, कान के कुशल
थे।
तुम्हारे
सब शास्त्र
कान से आए है। सत्य
आंख से आता है।
सत्य
प्रत्यक्ष है।
सुनी हुई बात
नहीं। सत्य
कोई श्रुति
नहीं है, न कोई
स्मृति है। सत्य
दर्शन है।
उस दिन
बुद्ध बैठे
रहे। लोग परेशान होने
लगे। बुद्धत्व
सामने हो, लोग परेशान होने
लगे! अंधे रहे
होंगे। घड़ी पर
घड़ी बीतने लगी।
और लोग सोचने
लगे होंगे अब
घर जाने की, कि यह मामला
क्या है? और
कोई कह भी न
सका। बुद्ध से
कहो भी क्या, कि आप यह
क्या कर रहे
हैं? बैठे
क्यों हैं? बोलो कुछ। बोलो
तो हम सुनें। शब्दों
तब हमारी
पहुंच है। किसी
को यह न दिखाई
पड़ा कि यह
आदमी क्या
दिखा रहा है।
फूल को
बुद्ध देखते
रहे। परमशून्य।
एक विचार की
तरंग भीतर
नहीं। मौजूद, और मौजूद
नहीं। उपस्थित
और अनुपस्थित।
विचार का कण
भी नहीं। परम
ध्यान की
अवस्था। समाधि
साकार। और हाथ
में खिला फूल।
प्रतीक पूरा
था। ऐसी (
समाधि साकार
हो, तो ऐसा
जीवन का फूल
खिल जाता है। कुछ
और कहने को न
था। अब और कहने
को बचता भी
क्या है? पर
आंख के अंधे!
तुम्हीं
सोचो। आज मैं
बोलता न और
फूल लेकर आकर
बैठ गया होता!
तुम इधर-उधर
देखने लगते। तुम
लक्ष्मी की
तरफ देखते कि
मामला क्या है? दिमाग
खराब हो गया? तुम उठने की
तैयारी करने
लगते। तुम
एक-दूसरे की
तरफ देखते कि
अब क्या करना
है?
जब ऐसी
बेचैनी की लहर
सब तरफ फैलने
लगी-उतने चैन
के सामने भी
लोग बेचैन हो
गए, उतनी
शाति के सामने
भी लोग अशात
हो गए-तब एक बुद्ध
का शिष्य
महाकाश्यप..
इसके पहले
उसका नाम भी
किसी ने न
सुना था। क्योंकि
आंख वालों का
अंधों से मेल
नहीं होता। इसका
नाम भी पहले
किसी ने नहीं
सुना था, यह
पहले मौके पर
इसका नाम पता
चला। जब लोगों
को इतना बेचैन
देखा तो वह
खिलखिलाकर हंसने
लगा। उस
सन्नाटे में
उसकी
खिलखिलाहट ने
और लोगों को
चौंका दिया कि
यहां एक ही
पागल नहीं
है-यह बुद्ध
तो, दिमाग
खराब मालूम
होता है, एक
यह भी आदमी
पागल है। यह
कोई हंसने का
वक्त है? यह
बुद्ध को क्या
हो गया है? और
यह महाकाश्यप
क्यों हंसता
है?
और
बुद्ध ने आंख
उठाई और
महाकाश्यप को
इशारा किया, और फूल
उसे भेंट कर
दिया। और भीड़
से यह कहा, जो
मैं शब्दों से
तुम्हें दे
सकता था, तुम्हें
दिया। जो
शब्दों से
नहीं दिया जा
सकता, वह
महाकाश्यप को
देता हूं। एक
यही समझ पाया।
तुम सुनने
वाले थे, यह
एक देखने वाला
था।
यही कथा
झेन के जन्म
की कथा है। झेन
शब्द आता है
ध्यान से। जापान
में झेन हो
गया, चीन
में चान हो
गया, लेकिन
मूलरूप है
ध्यान। बुद्ध
ने उस दिन
ध्यान दे दिया।
झेन फकीर कहते
हैं-ट्रांसमिशन
आउटसाइड स्क्रिप्चर्स।
शास्त्रों के
बाहर दान। शास्त्रों
से नहीं दिया,
उस दिन शब्द
से नहीं दिया।
महाकाश्यप को
सीधा-सीधा दे
दिया। शब्द
में डालकर न
दिया। जैसे
जलता हुआ
अंगारा बिना
राख के दे
दिया। महाकाश्यप
चुप ही रहा। चुप्पी
में बात कह दी
गई। जो बुद्ध
ने कहा था, कि
मुट्ठी भर
सूखे पत्ते, ऐसा ही
मैंने तुमसे
जो कहा है, वह
इतना ही है। और
जो कहने को है,
वह इतना है
जितना इस
विराट जंगल
में सूखे पत्तों
के ढेर।
लेकिन
मैं तुमसे
कहता हूं र उस
दिन उस फूल
में पूरा जंगल
दे दिया। उस
दिन कुछ बचाया
नहीं। उस दिन
सब दे दिया। उस
दिन बुद्ध उडेल
गए। उस दिन
महाकाश्यप का
पात्र पूरा भर
गया। तब से
झेन में यह
व्यवस्था रही
है कि गुरु
उसी को अपना
अधिकारी
नियुक्त करता
है, जो
मौन में लेने
को राजी हो
जाता है। जो
शब्द की जिद
करता है, वह
सुनता है, ठीक
है। साधता है,
ठीक है। लेकिन
वह खोजता उसे
है अपने
उत्तराधिकारी
की तरह, जो
शून्य में और
मौन में लेने
को राजी हो
जाता है। जैसे
बुद्ध ने उस
दिन
महाकाश्यप को
फूल दिया। ऐसे
ही शून्य में,
ऐसे ही मौन
में।
तो ऐसा
नहीं है कि
बुद्ध ने जो
कहा है वही सब
है। वह तो
शुरुआत है, वह तो
बारहखड़ी है। उसका
सहारा लेकर
आगे बढ़ जाना। वह
तो ऐसा ही है
जैसे हम स्कूल
में बच्चों को
सिखाते हैं ग
गणेश का-या अब
सिखाते हैं ग
गधा का। क्योंकि
अब धार्मिक
बात तो सिखाई
नहीं जा सकती,
राज्य
धर्मनिरपेक्ष
'है, तो
गणेश की जगह
गधा। गणेश
लिखो तो
मुसलमान
नाराज हो जाएं,
कि जैन
नाराज हो जाएं।
गधा सिस्यूलर
है, धर्मनिरपेक्ष
है। वह सभी का
है। ग गणेश का।
न तो ग गणेश का
है, न ग गधे
का है। ग-ग का
है। लेकिन
बच्चे को
सिखाते हैं। फिर
ऐसा थोड़े ही
है कि वह सदा
याद रखता है
कि जब भी तुम
कुछ पढ़ो तब
बार-बार जब भी ग
आ जाए, तो
कहो ग गणेश का।
तो पढ़ ही न
पाओगे। पढ़ना
ही मुश्किल हो
जाएगा। जो
साधन था वही
बाधक हो जाएगा।
जो कहा
है, वह
तो ऐसा ही है-ग
गणेश का। वह
तो पहली कक्षा
के
विद्यार्थी
की बात है। लेकिन
बुद्ध ने पहली
कक्षा की बात
कही, क्योंकि
तुम वहीं खड़े
हो। उन्होंने
विश्वविद्यालय
के आखिरी छोर
की बात नहीं
कही। वहां तुम
कभी पहुंचोगे,
तब देखा
जाएगा। और वहा
पहुंच गए जब
तुम, तो
कहने की जरूरत
नहीं रह जाती,
तुम खुद ही
देखने में
समर्थ हो जाते
हो।
शुरुआत
है शून्य से, अंत है
देखने से। शुरुआत
है संदेह से, अंत है
श्रद्धा पर। संदेह
को कैसे
श्रद्धा तक पहुंचाया
जाए, नास्तिकता
को कैसे
आस्तिकता तक
पहुंचाया जाए,
नहीं को
कैसे ही में
बदला जाए यही
बुद्ध की कीमिया
है, यही
बुद्ध- धर्म
है। एस धम्मो
सनंतनो।
दूसरा
प्रश्न
कल
आपने कहा कि
मोक्ष, बुद्धत्व की
आकांक्षा भी
वासना का ही
एक रूप है। और
फिर कहा, जब
तक बुद्धत्व
प्राप्त न हो
जाए तब तक चैन
से मत बैठना। इस
विरोधाभास को
समझाएं।
मोक्ष की, बुद्धत्व
की आकांक्षा
भी बुद्धत्व
में बाधा है। फिर
मैंने तुमसे
कहा, जब तक
मोक्ष उपलब्ध
न हो जाए तब तक
तृप्त होकर मत
बैठ जाना। तब
तक अभीप्सा
करना, तब
तक आकांक्षा
करना। स्वभावत:
विरोधाभास
दिखाई पड़ता है।
लेकिन मैं यही
कह रहा हूं कि
जब तक आकांक्षारहितता
उपलब्ध न हो
जाए तब तक आकांक्षारहितता
की आकांक्षा
करते रहना। यह
विरोधाभास
दिखाई पड़ता है,
क्योंकि
मैं दो तलों
को जोड़ने की
कोशिश कर रहा
हूं। तुम जहां
हो उसको, और
तुम जहा होने
चाहिए उसको
जोड़ने की
कोशिश कर रहा
हूं। इसलिए
विरोधाभास।
जैसे
कोई बच्चा
पैदा हो, अभी जन्मा
है, और
हमें उसे मौत
की खबर देनी
हो। यद्यपि जो
जन्म गया वह
मरने लगा, लेकिन
बच्चे को
मृत्यु की बात
समझांनी बड़ी
कठिन हो जाएगी।
मृत्यु की बात
विरोधाभासी
मालूम पड़ेगी। अभी
तो जन्म ही
हुआ है, और
यह मौत की
क्या बात है? और जन्म के
साथ मौत को
कैसे जोड़ो? बच्चे को
विरोधाभासी
लगेगी, लेकिन
विरोधाभासी
है नहीं। क्योंकि
जन्म के साथ
ही मौत की
यात्रा शुरू
हो गई। जो
जन्मा, वह
मरने लगा।
जितने
जल्दी मौत
समझाई जा सके
उतना ही अच्छा
है। ताकि जन्म
व्यर्थ न चला
जाए। अगर जन्म
के साथ ही मौत
की समझ आ जाए
तो जन्म और मृत्यु
के
बीच
में बुद्धत्व
उपलब्ध हो
जाता है। तो
आदमी जाग जाता
है जन्म और
मृत्यु दोनों
से। जिस जन्म
की मृत्यु
होनी है, उन दोनों के
बीच जीवन तो
नहीं हो सकता
आभास होगा। तो
जब जन्म की मृत्यु
ही हो जानी है,
तो इस जीवन
का क्या भरोसा?
तो फिर हम
किसी और जीवन
की खोज
करें-किसी और
जीवन की, जहां
न जन्म हो, न
मृत्यु।
समझें
इस प्रश्न को
अब।
यदि मैं
तुमसे कहूं
आकांक्षा न
करो, तो
तुम यात्रा ही
शुरू न करोगे,
जन्म ही न
होगा। अगर मैं
तुमसे यह न कहूं
कि आकांक्षा
भी छूट जानी
चाहिए, तो
तुम कभी
पहुंचोगे
नहीं। मोक्ष
की आकांक्षा
मोक्ष की
यात्रा का
पहला कदम है। और
मोक्ष की आकांक्षा
का त्याग
मोक्ष की
यात्रा का
अंतिम कदम है।
दोनों मुझे
तुमसे कहने
होंगे।
दुनिया
में दो तरह के
लोग हैं। एक
हैं, जो
कहते हैं, जब
आकांक्षा से
बाधा ही पड़ती
है तो क्या
मोक्ष की आकांक्षा
करना! फिर हम
जैसे हैं वैसे
ही भले हैं। इससे
यह मत समझ
लेना कि
उन्होंने
संसार की आकांक्षाएं
छोड़ दीं। उन्होंने
सिर्फ मोक्ष
की आकांक्षा न
की। उन्होंने
अपने को धोखा
दे लिया। संसार
की आकांक्षाए
तो वे किए ही
चले जाएंगे। क्योंकि
संसार की
आकांक्षाएं
तो तभी छूटती
हैं जब कोई
मोक्ष की आकांक्षा
करता है। जब
कोई मोक्ष की
आकांक्षा पर
सब दाव पर
लगाता है, पूरा
दिल दाव पर
लगाता है, तब
संसार की आकांक्षाएं
छूटती हैं। तब
संसार की आकांक्षाओं
में जो ऊर्जा
संलग्न थी वह
मुक्त होती है,
मोक्ष की
तरफ लगती है। लेकिन
जो मोक्ष की
तरफ की
आकांक्षा किए
चला जाता है, वह भी भटक
जाता है। क्योंकि
अंततः वह आकांक्षा
भी बाधा बन
जाएगी। एक दिन
उसे भी छोड़ना
है।
ऐसा
समझो, रात
हम दीया जलाते
हैं। दीए की
बाती और तेल, दीया जलना
शुरू होता है।
तो दीए की
बाती पहले तो
तेल को जलाती
है। फिर जब
तेल जल जाता
है, तो दीए
की बाती अपने
को जला लेती
है। सुबह न
तेल बचता है, न बाती बचती
है। तब समझो
कि सुबह हुई। फिर
भोर हुई।
तो पहले
तो संसार की आकांक्षाओं
का तुम तेल की
तरह उपयोग करो, और मोक्ष
की आकांक्षा
का बाती की
तरह। तो संसार
की सारी
आकांक्षाओं
को जला दो
मोक्ष की बाती
को जलाने में।
तेल का उपयोग
कर लो, ईंधन
का उपयोग कर
लो। सारी आकांक्षाएं
इकट्ठी कर लो
संसार की, और
मोक्ष की एक
आकांक्षा पर
समर्पित कर दो।
झोंक दो सब। मगर
ध्यान रखना, जिस दिन सब
तेल चुक जाएगा,
उस दिन यह
बाती भी जल
जानी चाहिए। नहीं
तो सुबह न
होगी। यह बाती
कहीं बाधा न
बन जाए।
तो एक
तो सांसारिक
लोग हैं, जो कभी
मोक्ष की आकांक्षा
ही नहीं करते।
फिर दूसरे
मंदिरों, मस्जिदों
में बैठे हुए
धार्मिक लोग
हैं, जिन्होंने
संसार की
आकांक्षा छोड़
दी और परमात्मा
की आकांक्षा
पकड़ ली। अब उस
आकांक्षा को
नहीं छोड़ पा
रहे हैं। ऐसा
समझो कि कुछ
तो ऐसे लोग
हैं जो
सीढ़ियों पर पैर
ही नहीं रखते
ऊपर जाने की
यात्रा ही
शुरू नहीं
होती। और कुछ
ऐसे हैं जो
सीढ़ियों को
पकड़कर बैठ गए
हैं। सीढ़ियां
नहीं छोड़ते। जो
सीढ़ियों के
नीचे रह गया, वह भी ऊपर न
पहुंच पाया, और जो
सीढ़ियों पर रह
गया, वह भी
ऊपर न पहुंच
पाया। मैं
तुमसे कहता
हूं? सीढ़ियां
पकड़ो भी, छोड़ो
भी।
मैंने
सुना है, एक
तीर्थयात्रियों
की ट्रेन
हरिद्वार जा
रही थी। अमृतसर
पर गाड़ी खड़ी
थी। और एक
आदमी को लोग
जबर्दस्ती
घसीटकर गाड़ी
में रखना चाह
रहे थे। लेकिन
वह कह रहा था
कि भाई, इससे
उतरना तो नहीं
पड़ेगा? उन्होंने
कहा, उतरना
तो पड़ेगा। जब
हरिद्वार
पहुंच जाएगी,
तो उतरना
पड़ेगा। तो उस
आदमी ने
कहा-वह बड़ा
तार्किक आदमी
था-उसने कहा, जब उतरना ही
है तो चढ़ना
क्या? यह
तो विरोधाभासी
है। चढ़ों भी, फिर उतरो भी।
लेना-देना
क्या है? हम
चढ़ते ही नहीं।
गाड़ी छूटने के
करीब हो गई है,
सीटी
बजनेलगी है, और भाग-दौड़
मच रही है।
आखिर
उसके साथियों
ने-जो उसके
यात्री-दल के
साथी
थे-उन्होंने
उसको पकड़ा और
वह चिल्लाता
ही जा रहा है
कि जब उतरना
है तो चढ़ना
क्या, मगर
उन्होंने कहा
कि अब इसकी
सुनें! समझाने
का समय भी
नहीं, उसको
चढ़ा दिया। फिर
वही झंझट
हरिद्वार के
स्टेशन पर मची।
वह कहे कि
उतरेंगे नहीं।
क्योंकि जब चढ़
ही गए तो चढ़ गए।
अब उतर नहीं
सकते। वह आदमी
तार्किक था। वह
यह कह रहा है
कि
विरोधाभासी
काम मैं नहीं
कर सकता हूं। वह
किसी
विश्वविद्यालय
में तर्क का
प्रोफेसर
होगा!
जब मैं
तुमसे कहता
हूं, संसार
की आकांक्षा
छोड़ो-अमृतसर
की स्टेशन पर;
फिर तुमसे
कहता हूं? अब
जिस ट्रेन में
चढ़ गए वह भी
छोड़ो-हरिद्वार
पर। परमात्मा
का घर आ गया, हरिद्वार आ
गया, उसका
द्वार आ गया, अब यह ट्रेन
छोड़ो। तुम्हें
उस आदमी पर
हंसी आती है। लेकिन
अगर तुम अपने
भीतर खोजोगे,
तुम उसी
आदमी को छिपा
हुआ पाओगे।
लूटे
मजे उसी ने
तेरे इंतजार
के
जो
हद्दे-इंतजार
के आगे निकल
गया
विरोधाभास
है!
लूटे
मजे उसी ने
तेरे इंतजार
के
जो
हद्दे-इंतजार
के आगे निकल
गया
इंतजार
का मजा ही तब
है, जब
इंतजार भी न
रह जाए। याद
तभी पूरी आती
है, जब याद
भी नहीं आती।
इसे
थोड़ा कठिन
होगा समझना। क्योंकि
जब तक याद आती
है, उसका
मतलब अभी याद
पूरी आई नहीं।
बीच-बीच में
भूल- भूल जाती
होगी, तभी
तो याद आती
है। जिसकी
याद पूरी आ गई, उसकी फिर
याद आने की
जगह कहां रही!
फिर भूलेंगेकहां?
याद कैसे
आएगी? याद
तभी तक आती है
जब भूलना जारी
रहता है। जब
भूलना ही मिट
गया तो याद
कैसी! भूलना
मिट जाने के
साथ याद भी खो
जाती है।
हद्दे-इंतजार--अब
सीमा पार हो
गई। लेकिन तभी
याद का मजा है
जब याद भी
नहीं आती। अब
एक ही हो गए
उससे। अब याद करने
के लिए भी
फासला और दूरी
न रही। किसकी
याद करे और
कौन करे? किसको
पुकारे और कौन
पुकारे? जिसे
चाहा था, जिसकी
चाहत थी, वह
जो प्रेमी था
और जो प्रेयसी
थी, वे
दोनों एक हो
गए। अपनी ही
कोई कैसे याद
करे!
लूटे
मजे उसी ने
तेरे इंतजार
के
जो
हद्दे-इंतजार
के आगे निकल
गया
और धर्म
की सारी भाषा
विरोधाभासी
है। होगी ही। क्योंकि
धर्म यात्रा
का प्रारंभ भी
है और अंत भी। वह
जन्म भी है और
मृत्यु भी। और
वह दोनों के
पार भी है। इसलिए
जल्दी
विरोधाभासों
में मत उलझ
जाना। और उनको
हल करने की
कोशिश मत करना, समझने की
कोशिश करना। तब
तुम पाओगे, दोनों की
जरूरत है। जो
सीढ़ी चढ़ाती है,
वही रोक भी
लेती है। अगर
तुमने बहुत
विरोधाभास
देखे तो तुम
मुश्किल में
पड़ोगे। क्योंकि
तुम एक तो कर
लोगे, फिर
दूसरा करने
में अटकोगे। तुमने
अगर यह कहा,
तुमने
अगर यह सुन
लिया कि
परमात्मा याद
करने से मिलता
है, और तुम
याद ही करते
रहे, और
तुम कभी
हद्दे-इंतजार
के आगे न गए, तो कभी
परमात्मा न
मिलेगा। राम-राम
जपते रहोगे, तोता-रटंत
रहेगी। कंठ
में रहेगा, हृदय तक न
जाएगा। क्योंकि
जो हृदय में
चला गया, उसकी
कहीं याद करनी
पड़ती है? याद
होती रहती है,
करनी नहीं
पड़ती। होती
रहती है कहना
भी ठीक नहीं, क्योंकि दो
याद के बीच भी
खाली जगह कहां?
सातत्य बना
रहता है। तब
हद्दे-इंतजार।
और ऐसी
घड़ी जब घटती
है, तो
ऐसा नहीं है
कि जब तुम
विरोधाभास की
सीमा के पार
निकलते हो, और जब तुम
पैराडाक्स और
विरोधाभास का
अतिक्रमण
करते हो, तो
ऐसा नहीं है
कि तुम ही परम
आनंद को
उपलब्ध होते
हो, तुम्हारे
साथ सारा
अस्तित्व
उत्सव मनाता
है। क्योंकि
तुम्हारे साथ
सारा
अस्तित्व भी
अतिक्रमण
करता है। एक
सीमा और पार
हुई।
जब
अपने नक्श पर
इंसान फतह
पाता है
जो गीत
गाती है फितरत
किसी को क्या
मालूम
जो गीत
गाती है फितरत
किसी को क्या
मालूम-जब सारी
प्रकृति गीत
गाती है, जब सारा
अस्तित्व
तुम्हारे
उत्सव में
सम्मिलित हो
जाता है!
क्योंकि
तुम अलग- थलग
नहीं हो, तुममें
अस्तित्व ने
कुछ दांव पर
लगाया है, तुम
अस्तित्व के
दाव हो, पासे
हो, परमात्मा
ने तुम्हारे
ऊपर बड़ा दाव
लगाया है,
और बड़ी
आशा रखी है। जिस
दिन तुम
उपलब्ध होते
हो, तुम
ही नहीं नाचते,
परमात्मा
भी नाचता है। तुम
ही अकेले नाचे
तो क्या नाच!
परमात्मा भी खुश
होता है। सारा
अस्तित्व खुश
होता है। एक
फतह और मिली। एक
विजय-यात्रा
का चरण और
पूरा हुआ।
जब
अपने नक्स पर
इंसान फतह
पाता है
जो गीत
गाती है फितरत
किसी को क्या
मालूम
वह बड़ा
चुप है गीत। इसलिए
किसी को क्या
मालूम! वह बड़ा
मौन है। वह
उन्हीं को
दिखाई पड़ता है
जिन्हें
अदृश्य दिखाई
पड़ने लगा। वह
उन्हीं को
सुनाई पड़ता है
जो सन्नाटे को
भी सुन लेते
हैं। वह
उन्हीं को
स्पर्श हो
पाता है जो
अरूप का भी स्पर्श
कर लेते हैं, निराकार
से जिनकी
चर्चा होने
लगी।
जो गीत
गाती है फितरत
किसी को क्या
मालूम
तीसरा
प्रश्न:
आकांक्षा
मिटकर
अभीप्सा बन
जाती है। अभीप्सा
की समाप्ति पर
क्या कुछ बचता
है? स्पष्ट
करें।
आकांक्षा
यानी संसार की
आकांक्षाएं।
आकांक्षा
यानी
आकांक्षाएं।
एक नहीं, अनेक।
संसार अर्थात
अनेक। जब
आकांक्षा
मिटकर अभीप्सा
बनती है—अभीप्सा
यानी
आकांक्षा,
आकांक्षाएं
नहीं। एक ही
आकांक्षा का
नाम अभीप्सा,
अनेक की
अभीप्सा का
नाम आकांक्षा।
जब सारी आकांक्षाओं
की किरणें
इकट्ठी हो
जाती हैं और
एक सत्य पर, परमात्मा पर,
या मोक्ष पर,
या स्वयं पर,
निर्वाण पर,
कैवल्य पर
केंद्रित हो
जाती हैं, तो
अभीप्सा। आकांक्षा
और आकांक्षाओं
का जाल जब
संग्रहीभूत
हो जाता है, तो अभीप्सा
पैदा होती है।
किरणें जब
इकट्ठी हो
जाती हैं, तो
आग पैदा होती
है। किरणें
अनेक, आग
एक।
यहां तक
तो समझ में
बात आ जाती है
कि आदमी धन को
चाहता है, पद को
चाहता है, पत्नी
को चाहता है, बेटे को
चाहता है, भाई
को चाहता है, जीवन चाहता
है, लंबी
उम्र चाहता है।
यह सब चाहत, ये सब
चाहतें
इकट्ठी हो
जाती हैं और
आदमी सिर्फ
परमात्मा को
चाहता है-यहां
तक भी समझ में
आ जाता है। क्योंकि
बहुत आकांक्षाएं
जिसने की हैं
वह इसकी भी
कल्पना तो कम
से कम कर ही
सकता है कि
सभी आकांक्षाएं
इकट्ठी हो
गयीं, सभी
छोटे नदी-नाले
गिर गए एक ही
गंगा में और
गंगा बहने लगी
सागर की तरफ। लेकिन
जब आकांक्षा
के बाद
अभीप्सा भी खो
जाती है तब
क्या बचता है?
नदी-नाले खो
जाते हैं गंगा
में; फिर
जब गंगा खो
जाती है सागर
में, तो
क्या बचता है?
सागर बचता
है। गंगा नहीं
बचती।
अब इसे
तुम समझो।
पहले
तुम्हारी आकांक्षाएं
खो जाएंगी, तुम
बचोगे। फिर
तुम भी खो
जाओगे, परमात्मा
बचेगा। जब तक
तुम
आकांक्षाओं
में भटके हुए
हो, तब तक
तुम तीन-तेरह
हो, टुकड़े-टुकड़े
हो। जब
तुम्हारी
सारी आकांक्षाएं
अभीप्सा बन
जाएंगी, तुम
एक हो जाओगे, तुम योग को
उपलब्ध हो
जाओगे। योग
यानी जुड़
जाओगे।
सासांरिक
आदमी खंड-खंड
है, एक
भीड़ है। एक
मजमा है। धार्मिक
आदमी भीड़ नहीं
है, एक एकांत
है। धार्मिक
आदमी इकट्ठा
है। योग को
उपलब्ध हुआ है।
सारी आकांक्षाएं
सिकोड़ लीं
उसने। लेकिन
अभी है। अभी
होना भर मात्र
बाधा बची। अभी
तुम
हो-अभीप्सा
में-और
परमात्मा है। यद्यपि
तुम एक हो गए
हो, लेकिन
परमात्मा अभी
दूसरा है, पराया
है।
इसे
थोड़ा समझो।
सांसारिक
आदमी भीड़ है। अनेक
है। धार्मिक
आदमी एक हो गया, इकट्ठा
हो गया। इंटीग्रेटेड,
योगस्थ। लेकिन
अभी परमात्मा
बाकी है। तो
द्वैत बचा। सांसारिक
आदमी अनेकत्व
में जीता है, धार्मिक
आदमी द्वैत
में। भक्त बचा,
भगवान बचा। खोजी
बचा, सत्य
बचा। सागर बचा,
गंगा बची। अब
भक्त को अपने
को भी डुबा
देना है, ताकि
भगवान ही बचे,
ताकि सागर
ही बचे। गंगा
को अपने को भी
खोना है। अनेक
से एक, फिर
एक से शून्य, तब कौन
बचेगा? तब
सागर बचता है,
जो सदा से
था। तुम नहीं
थे तब भी था। वही
बचेगा। जहा से
तुम आए थे, वहीं
तुम लौट जाओगे।
जो तुम्हारे
होने के पहले
था, वही
तुम्हारे बाद
बचेगा।
मरने के
बाद आए हैं ऐ
राहबर जहां
मेरा
कयास है कि
चले थे यहीं
से हम
वर्तुल
पूरा हो जाता
है। जन्म के
पहले तुम जहां
थे, मरने
के बाद वहीं
पहुंच जाते हो।
थोड़ा सोचो; गंगा सागर
में गिरती है,
गंगा सागर
से ही आई
थी-सूरज की
किरणों पर चढ़ा
था सागर का जल,
सीढ़ियां
बनाई थीं सूरज
की किरणों की,
फिर बादल
घनीभूत हुए थे
आकाश में, फिर
बादल बरसे थे
हिमालय पर, बरसे थे
मैदानों में,
हजारों
नदी-नालों में
बहे थे गंगा
की तरफ-गंगोत्री
से बही थी
गंगा, मेघ
से आई थी, मेघ
सागर से आए थे;
फिर चली
वापस, फिर
सागर में खो
जाएगी।
मरने
के बाद आए हैं ऐ
राहबर जहां
मेरा
कयास है कि
चले थे यहीं
से हम
वही
बचेगा, जो तुम्हारे
होने के पहले
था। उसे सत्य
कहो...। तुम एक
लहर हो। सागर
तुम्हारे
पहले भी था। लहर
खो जाएगी, सो
जाएगी, सागर
फिर भी होगा। और
ध्यान रखना, सागर बिना
लहरों के हो
सकता है, लहर
बिना सागर के
नहीं हो सकती।
कभी सागर में
लहरें होती
हैं, कभी
नहीं भी होतीं।
जब लहरें होती
हैं, उसको हम
सृष्टि कहते
हैं। जब लहरें
नहीं होतीं
उसको हम प्रलय
कहते हैं। अगर
सारी लहरों को
सोचें, तो
सृष्टि और
प्रलय। अगर
एक-एक लहर का
हिसाब करें, तो जन्म और
मृत्यु। जब
लहर नहीं होती,
तो मृत्यु। जब
लहर होती है, तो जन्म। लेकिन
जब लहर मिट
जाती है तब
क्या सच में
ही मिट जाती
है? यही
सवाल है गहरा।
लहर सच में
मिट जाती है? आकार मिटता
होगा, जो
लहर में था। जो
लहर में
वस्तुत: था, वह तो कैसे
मिटेगा? जो
था, वह तो
नहीं मिटता, वह तो सागर
में फिर भी होता
है। बड़ा होकर
होता है, विराट
होकर होता है।
तुम
रहोगे, तुम जैसे
नहीं। तुम
रहोगे, बूंद
जैसे नहीं। तुम
रहोगे, सीमित
नहीं। पता-ठिकाना
न रहेगा, नाम-रूप
न रहेगा। लेकिन
जो भी
तुम्हारे
भीतर घनीभूत
है इस क्षण, वह बचेगा, विराट होकर
बचेगा। तुम
मिटोगे, लेकिन
मिटना मौत
नहीं है। तुम
मिटोगे, मिटना
ही होना है।
आखिरी
प्रश्न
पिछले
एक
प्रश्नोत्तर
में आपने
समर्पण और भक्ति
में भीतर होश, बाहर
बेहोशी कही है,
और ध्यानी
और ज्ञानी को
भीतर से
बेहोशी और बाहर
से होश कहा है।
यह ध्यानी को
किस तरह की
भीतर की
बेहोशी होती है?
और बाहर फिर
वह किस चीज का
होश रखता है, किस तरह से
होश रखता है, जब कि भीतर
बेहोशी रहती
है? क्या
मेरे सुनने या
समझने में
कहीं गलती हो
रही है? कृपया
फिर से ठीक से
समझाकर कहें।
नहीं--सुनने
में कोई गलती
नहीं हुई। समझने
में गलती हो
रही है। क्योंकि
समझ विरोधाभास
को नहीं समझ
पाती। सुन तो
लोगे; कितनी
ही
विरोधाभासी
बात कहूं सुन
तो लोगे। और
यह भी समझ
लोगे कि
विरोधाभासी
है, और यह
भी समझ लोगे
कि सुन लिया, लेकिन फिर
भी समझ न
पाओगे। क्योंकि
जिसको तुम समझ
कहते हो वह
विरोधाभास को
समझ ही नहीं
सकती। इसीलिए
तो विरोधाभास
कहती है। मैं
फिर से दोहरा
देता हूं बात
बड़ी सीधी है। जटिल
मालूम होती है,
क्योंकि
बुद्धि
सीधी-सीधी बात
को नहीं पकड़
पाती।
एक तो
है भक्त, प्रेमी। वह
नाचता है। तुम
उसकी बेहोशी
को-जब मैं
कहता हूं
बेहोशी, तो
मेरा मतलब है
उसकी
मस्ती-तुम
उसके जाम को छलकते
बाहर से भी
देख लेते हो। मदिरा
बही जा रही है।
मीरा के नाच
में, चैतन्य
के भजन में, कुछ भीतर
जाकर खोजना न
होगा। उसकी
मस्ती बाहर है।
मौजे-दरिया, लहरों में
है। फूलों में
है। अंधे को
भी समझ आ
जाएगी। बहरे
को भी सुनाई
पड़ जाएगी। नाचती
हुई है, गीत
गाती हुई है। अभिव्यक्त
है। यह जो
मस्ती है, यह
मस्ती तभी
संभव है जब
भीतर होश हो। नहीं
तो यह मस्ती
पागलपन हो
जाएगी।
पागल और
भक्त में फर्क
क्या है? यही। पागल
भी कभी नाचता
है, मुस्कुराता
है, गीता
गाता है, लेकिन
तुम पहचान
लोगे। उसकी आंखों
में जरा झांक
कर
देखना-उसमें
बेहोशी तो है,
लेकिन भीतर
होश का दीया
नहीं। भक्त
बेहोश भी है
और होश का
दीया भी
सम्हाले है। नाचता
भी है, लेकिन
दीए की लौ
नहीं कंपती
भीतर। बाहर
नाच चलता है, भीतर सब
ठहरा है-अकंप।
तभी तो पागल
और परमात्मा
के दीवाने का
फर्क है।
तो
तुम्हें
कभी-कभी
परमात्मा का
दीवाना भी पागल
लगेगा, क्योंकि
पागल और
परमात्मा के
दीवाने में
बाहर तो एक ही
जैसी घटना
घटती है। और
कभी-कभी पागल
भी तुम्हें
परमात्मा का
दीवाना लगेगा।
लेकिन
इसका मतलब यही
हुआ कि तुम
जरा भीतर न गए, बाहर से
ही बाहर लौट
आए। बाहर-बाहर
देखकर लौट आए।
जरा भीतर उतरो।
जरा दों-चार
सीढ़ियां भीतर
जाओ। जरा पागल
के नाच में और
दीवाने-परमात्मा
की मस्ती के
नाच में जरा
गौर करो। स्वाद
भिन्न है, रंग-ढंग
बड़ा भिन्न है।
अलग-अलग अंदाज
हैं। लेकिन
थोड़ा गौर से
देखोगे तो। ऐसे
ही राह से
चलते हुए
देखकर गुजर गए
तो भ्रांति हो
सकती है। ऊपर
से दोनों एक जैसे
लगते हैं। पागल
सिर्फ पागल है।
बेहोश है। भक्त
सिर्फ बेहोश
नहीं है। बेहोश
भी है, और
कुछ होश भी है।
बेहोशी के
भीतर होश का
दीया जल रहा
है। यही
विरोधाभास
समझ में नहीं
आता।
फिर एक
और विरोधाभास, तो चीजें
और जटिल हो
जाती हैं।
यह तो
भक्त हुआ, फिर
ध्यानी हैं। यह
तो मीरा हुई, फिर बुद्ध
हैं। बुद्ध के
बाहर तो कंपन
भी न मिलेगा। वे
मौजे-दरिया
नहीं हैं, शात
झील हैं। वे
फूल के रंग
जैसे बाहर
दिखाई पड़ते
हैं, ऐसे
नहीं हैं। वे
ऐसे हैं जैसे
बीज में फूल
छिपा हो। इंतजार-हजार
रंग भीतर
दबाकर बैठे
हैं। स्वर हैं
बहुत, लेकिन
ऐसे जैसे वीणा
में सोए स्वप्त
सूर, किसी
ने छेड़े न हों।
तो बाहर
बिलकुल
सन्नाटा है।
तुम
बुद्ध के बाहर
होश पाओगे, मीरा के
बाहर तुम
मस्ती पाओगे। बुद्ध
के बाहर तुम
परम होश पाओगे।
वहा जरा भी
कंपन न होगा। और
जैसे मीरा के
बेहोशी। में
भीतर होश है, ऐसा ही
बुद्ध के बाहर
के होश में
भीतर बेहोशी
होगी, क्योंकि
दोनों साथ
होने ही चाहिए,
तभी
परिपूर्णता
होती है। अगर
सिर्फ बाहर का
होश ही हो और
भीतर बेहोशी न
हो, तो यह
तो तुम साधारण
त्यागी-विरक्त
में पा लोगे। इसके
लिए बुद्ध तक
जाने की जरूरत
नहीं। यही तो
बुद्धों में
और बुद्धों का
अनुसरण करने
वालों। फर्क
है। बुद्ध में
और पाखंडी में
यही फर्क है।
मीरा
और पागल में
जैसे फर्क है, बुद्ध और
पाखंडी में
वैसे फर्क है।
पाखंडी को
देखकर अगर
ऊपर-ऊपर से आ
गए तो धोखा हो
जाएगा। बगुले
को देखा है
खड़ा? कैसा
बुद्ध जैसा
खड़ा रहता है। इसीलिए
तो बगुला भगत
शब्द हो गया। कैसा
भगत मालूम
पड़ता है! एक
टांग पर खड़ा
रहता है। कौन
योगी इतनी देर
इस तरह खड़ा
रहता है?
लेकिन नजर
मछली पर टिकी
रहती है।
तो
तुम्हें ऐसे
लोग मिल
जाएंगे-काफी
है उनकी संख्या-क्योंकि
सरल है बगुला
बन जाना, बहुत
आसान है। लेकिन
उनकी नजर मछली
पर लगी रहेगी।
योगी बैठा हो
भला आंख बंद
किए, हो
सकता है नजर
तुम्हारी जेब
पर लगी हो। बाहर
से तो कोई भी
साध ले सकता
है आसन, प्राणायाम,
नियम, मर्यादा।
सवाल है भीतर
का। यह निष्कंपता
बाहर की ही तो
नहीं है, अन्यथा
सर्कस की है।
यह
निष्कंपता
अगर बाहर ही
बाहर है, और भीतर कंपन
चल रहा है, और
भीतर आपाधापी
मची है, और
भीतर चिंतन और
विचार चल रहा
है, और
वासनाएं दौड़
रही हैं, और
भीतर कोई
परमात्मा को
पा लेने की
मस्ती नहीं बज
रही है, और
भीतर कोई गीत
की गुनगुन
नहीं है, भीतर
कोई नाच नहीं
चल रहा है…..।
ऐसा
समझो बुद्ध और
मीरा बिलकुल
एक जैसे हैं। फर्क
इतना ही है कि
जो मीरा के
बाहर है, वह बुद्ध के
भीतर है। जो
मीरा के भीतर
है, वह
बुद्ध के बाहर
है। एक सिक्का
सीधा रखा है, एक सिक्का
उलटा रखा है। सिक्के
दोनों एक हैं।
जो भीतर जाएगा
वही पहचान
पाएगा। और
इसलिए मैं
कहता हूं कि
मुझे दोनों
रास्ते स्वीकार
हैं।
तुम
अगर बुद्ध के
अनुयायियों
से मीरा की
बात कहोगे, वे
कहेंगे, कहा
की अज्ञानी
स्त्री की बात
उठाते हो? जैनों
से जाकर कहो, महावीर के
अनुयायियों
से कहो मीरा
बात, वे
कहेंगे कि
आसक्ति, राग?
कृष्ण का भी
हुआ तो क्या!
मोह? कहीं
बुद्धपुरुष
नाचते हैं? यह तो
सांसारिकों
की बात है। और
कहीं
बुद्धपुरुष
ऐसा रोते हैं,
याद करते
हैं, ऐसा
इंतजार करते
हैं? कहीं
बुद्धपुरुष
ऐसा कहते हैं
कि सेज सजाकर
रखी है, तुम
कब आओगे? न,
जैन कहेंगे,
यह तो
अज्ञानी है
मीरा।
जैन तो
कृष्ण को भी
ज्ञानी नहीं
मान सकते। वह
बांसुरी बाधा
डालती है। ज्ञानी
के ओंठों पर
बांसुरी
जंचती नहीं। करके
देख लो कोशिश, किसी
जैन-मंदिर में
जाकर महावीर
के मुंह पर बांसुरी
रख आओ, वे
पुलिस में
रिपोर्ट कर
देंगे
तुम्हारी, कि
तुमने हमारे
भगवान बिगाड़
दिए। यह
दुष्कर्म
होगा वहां। यह
दुर्घटना
मानी जाएगी!
यहां तुम
बांसुरी
जैन-मंदिर में
लेकर आए कैसे?
और महावीर
के ओंठ पर
रखने की
हिम्मत कैसे
की?
अनुयायियों
के साथ बड़ा
खतरा है। वे
ऐसे ही हो
जाते हैं जैसे
घोड़ों की आंखों
पर पट्टियां
बंधी होती
हैं-बस एक तरफ
दिखाई पड़ता है।
तले में जुते
घोड़े देखे? बस वैसे
ही अनुयायी
होते हैं। बस
एक तरफ दिखाई
पड़ता है। जीवन
का विस्तार खो
जाता है। संप्रदाय
का यही अर्थ
है।
धर्म
तो बहुआयामी
है। संप्रदाय
एक आयामी है, वन
डायमेंशनल है।
बस उन्होंने
बुद्ध को देखा,
समझा कि बात
खतम हो गई। बुद्ध
बहुत खूब हैं,
लेकिन
बुद्ध होने के
और भी बहुत
ढंग हैं। जिंदगी
बड़ी अनंत
आयामी है। परमात्मा
किसी पर चूक
नहीं जाता। हजार-हजार
रंगों में, हजार-हजार
फूलों में, हजार-हजार
ढंगों में
अस्तित्व
खिलता है और
नाचता है।
मगर दो
बड़े बुनियादी
ढंग हैं। एक
ध्यान का, और एक
प्रेम का। मीरा
प्रेम से
पहुंची। जो
प्रेम से
पहुंचेगा, उसकी
मस्ती बाहर
नाचती हुई
होगी, और
भीतर ध्यान
होगा। भीतर
मौन होगा, सन्नाटा
होगा। मीरा को
भीतर काटोगे,
तो तुम
बुद्ध को
पाओगे वहां। और
मैं तुमसे
कहता हूं अगर
बुद्ध की भी
तुम खोजबीन
करो और भीतर
उतर जाओ, तो
तुम वहा मीरा
को नाचता हुआ
पाओगे। इसके
अतिरिक्त हो
नहीं सकता। क्योंकि
जब तक ध्यान
मस्ती न बने, और जब तक
मस्ती ध्यान न
बने, तब तक
अधूरा रह जाता
है सब।
इसलिए
कभी यह मत
सोचना कि जिस
ढंग से तुमने
पाया, वही
एक ढंग है। और
कभी दूसरे के
ढंग को नकार
से मत देखना। और
कभी दूसरे के
ढंग को निंदा
से मत देखना, क्योंकि वह
अहंकार की चालबाजियां
हैं। सदा
ध्यान रखना, हजार-हजार
ढंग से पाया
जा सकता है। बहुत
हैं रास्ते
उसके। बहुत
हैं द्वार
उसके मंदिर के।
तुम जिस द्वार
से आए, भला।
और भी द्वार
हैं। और दो
प्रमुख-द्वार
हैं। होने ही
चाहिए। क्योंकि
स्त्री और
पुरुष दो
व्यक्तित्व
के मूल ढंग
हैं।
स्त्री
यानी प्रेम। पुरुष
यानी ध्यान। पुरुष
अकेला होकर
उसे पाता है। स्त्री
उसके साथ होकर
उसे पाती है। पुरुष
सब भांति अपने
को शून्य करके
उसे पाता है। स्त्री
सब भांति अपने
को उससे भरकर
पाती है। मगर
जब मैं स्त्री
और पुरुष कह
रहा हूं तो
मेरा मतलब
शारीरिक नहीं
है। बहुत
पुरुष हैं
जिनके पास
प्रेम का हृदय
है, वे
प्रेम से ही
पाएंगे। बहुत
स्त्रिया हैं
जिनके पास
ध्यान की
क्षमता है, वे ध्यान से
पाएंगी।
मगर यह
बात तुम सदा
ही ध्यान रखना
कि जो तुम बाहर
पाओगे, उससे विपरीत
तुम भीतर
पाओगे। क्योंकि
विपरीत से
जुड़कर ही सत्य
निर्मित होता
है। सत्य
विरोधाभासी
है। सत्य
पैराडाक्स है।
आज
इतना ही।
thank you guruji
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