पहला
प्रश्न:
दुनिया
के ज्यादातर धर्मगुरुओं
ने अपने
स्त्री-पुरुष
संन्यासियों
को हो सके उतनी
दूरी रखने के
नियम दिए; पर आप हमेशा
दोनों के
प्रेम पर ही
जोर देते हैं।
क्या आप प्रेम
का कुछ विधायक
उपयोग करना
चाहते हैं? या उसकी
निरर्थकता का
हमें अनुभव
कराना चाहते
हैं?
प्रेम
को समझना
जरूरी है।
जीवन
की ऊर्जा या
तो प्रेम बनती
है, या भय बन
जाती है।
दुनिया के धर्मगुरुओं
ने आदमी को भय
के माध्यम से
परमात्मा की
तरफ लाने की
चेष्टा की है।
पर भय से भी
कहीं कोई आना
हुआ है? भय
से भी कहीं
कोई संबंध बनता
है? भय से
घृणा हो सकती
है, भय से
प्रतिरोध हो
सकता है; लेकिन
भय से मुक्ति
नहीं हो सकती।
भय तो जहर है, फिर
परमात्मा का
ही क्यों न
हो।
और
इसीलिए
दुनिया में
धर्मगुरु तो
बहुत हुए, लेकिन धर्म
नहीं आ पाया।
इसका कारण यही
नहीं है कि
लोग धार्मिक
नहीं होना चाहते।
धर्मगुरुओं
ने जो मार्ग
बताया, वह
मार्ग ही
धार्मिक होने
का नहीं है।
आश्चर्य है कि
इक्के-दुक्के
लोग धार्मिक
हो गए; कैसे
धर्मगुरुओं
से बच गए, यह
आश्चर्य है!
कोई बुद्ध, कोई
क्राइस्ट धर्मगुरुओं
से बचकर भी
धार्मिक हो
गया। अन्यथा धर्मगुरुओं
के माध्यम से
सारी दुनिया
अधार्मिक बनी
रही है।
भय
अधर्म है। और
धर्मगुरु ने सिखाया कि
इस संसार से
घृणा करो, और परमात्मा
से भय करो।
मेरे देखे
दोनों बातें
ही खतरनाक
हैं। दोनों ही
तुम्हारे
जीवन को विकृत
कर देंगी।
मैं तुमसे
कहता हूं, इस
संसार से भी
प्रेम करो, और उस
परमात्मा से
भी प्रेम करो।
और मेरे कहने
के पीछे कारण
हैं। क्योंकि
जो इस संसार
को प्रेम न कर
सकेगा, वह
इस संसार के
बनाने वाले को
भी प्रेम न कर
सकेगा। जिसने
इस संसार को
इनकार किया, उसने इस
संसार के पीछे
छिपे हाथों को
भी इनकार कर दिया।
तुम यह न कह सकोगे
कि हे
परमात्मा, हम
तुझे तो प्रेम
करते हैं, लेकिन
तेरी बनायी
दुनिया को
घृणा करते
हैं। यह क्या
ढंग हुआ! क्या
तुम यह कह सकोगे
किसी कवि से
कि तेरी कविताओं
को तो हम नफरत
करते हैं और
तुझे प्रेम
करते हैं? किसी
चित्रकार से
कह सकोगे
कि तेरे चित्रों
को तो हम मिटा
डालना चाहते
हैं, तेरी
हम पूजा करना
चाहते हैं?
सृष्टि
का प्रेम ही
तो स्रष्टा के
प्रेम में रूपांतरित
होगा। और
दृश्य के साथ
जो प्रेम है वही
तो अदृश्य में
ले जाएगा।
प्रेम सीढ़ी है। सीढ़ी पर
रुकना मत। सीढ़ी
बड़ी दूरगामी
है। तुमने धन
का प्रेम जाना
है, धर्म का
प्रेम भी
जानो। तुमने
शरीर को प्रेम
किया है; और
थोड़े गहरे, और थोड़े
गहरे उतरो--और
तुम पाओगे
कि शरीर में
ही छिपी हुई
आत्मा की
झलकें मिलने लगीं।
तुमने
व्यक्तियों
को प्रेम किया
है; थोड़ा
और गहरे जाओ, और
व्यक्तियों
में छिपे हुए
तुम समष्टि को
पाओगे।
तुमने अभी रूप
को पहचाना है;
अरूप भी
वहीं छिपा है,
पास ही खड़ा
है, ज्यादा
दूर नहीं है।
रूप के भीतर
ही छिपा है। रूप
अरूप का ही एक
ढंग है। आकार
निराकार की ही
एक तरंग है।
लहर सागर ही
है। लहर में
सागर ही लहराया
है।
लहर को
सागर से भिन्न
मत मान लेना।
संसार को परमात्मा
से भिन्न मत
मान लेना।
जैसे नर्तक को
नृत्य से अलग
नहीं किया जा
सकता, वैसे
ही स्रष्टा को
सृष्टि से अलग
नहीं किया जा
सकता।
धर्मगुरुओं
ने तुम्हें भय
सिखाया, क्योंकि भय
के आधार पर ही
तुम्हारा
शोषण हो सकता
है। धर्मगुरुओं
ने तुम्हें
संसार की घृणा
सिखायी, क्योंकि उस
घृणा में
डालकर ही वे
तुम्हें बेचैनी
में डाल सकते
हैं। वह घृणा
पूरी तो नहीं
हो पाएगी, तुम
अपराध से भर जाओगे।
क्योंकि जो
अस्वाभाविक
है, वह
किया नहीं जा
सकता। और जब
भी तुम
अस्वाभाविक
को करने की
चेष्टा करोगे,
तभी तुम पाओगे
तुम्हारे
भीतर
अपराध-भाव पैदा
होता है। नहीं
होता, तो
अपराध-भाव
पैदा होता
है--न मालूम
कितने जन्मों
के पापों के
कारण, दुष्कर्मों के कारण, जो
होना चाहिए वह
नहीं हो रहा
है।
मैं तुमसे सहज
होने को कहता
हूं। मैं तुमसे
स्वाभाविक
होने को कहता
हूं। मैं तुमसे
सर्व-स्वीकार
को कहता हूं।
इसलिए
प्रेम के
विरोध में
नहीं हूं मैं।
प्रेम को उसकी
पूरी गहराई
में जानने के
पक्ष में हूं।
यद्यपि तुम
जिसे प्रेम
कहते हो, वह
प्रेम भी नहीं
है। तुम जिसे
प्रेम कहते हो
वह कैसे प्रेम
होगा? अभी
तुम ही नहीं
हो, अभी तो
प्रेम करने
वाला ही मौजूद
नहीं है--तुम जो
करोगे वह
कैसे
वास्तविक
होगा? तुम
ही झूठ हो, तो
तुम्हारा
प्रेम तो झूठ
होने ही वाला
है। तुम ही
घृणा से भरे
हो, तो तुमसे
प्रेम कैसे
निकल आएगा? तुम्हारे
भीतर हिंसा ही
हिंसा है, क्रोध
ही क्रोध है,र् ईष्या है, द्वेष है--तुमसे
प्रेम कैसे
निकल आएगा? प्रेम को तुमसे
ही निकलना है,
तुम्हारे
भीतर होना
चाहिए।
इसलिए
मैं कहता हूं
कि प्रेम जिसे
तुम कहते हो
वह प्रेम नहीं
है। लेकिन उस
प्रेम के ही
सूत्र को पकड़कर
अगर तुम
धीरे-धीरे
प्रयोग करोगे, तो जो आज
पतले महीन
धागे की तरह
हाथ में है, कल वही बड़ी
धारा बन
जाएगा।
एक बड़ी
प्राचीन कथा
है। एक सम्राट
अपने वजीर पर
नाराज हो गया।
उसने उसे एक
मीनार पर बंद
करवा दिया।
वहां से भागने
का कोई उपाय न
था। अगर वह कूदे
भी तो प्राण
निकल जाएं।
बड़ी ऊंची
मीनार थी। उसकी
पत्नी बड़ी
चिंतित थी, कैसे उसे
बचाया जाए? वह एक फकीर
के पास गयी।
फकीर ने कहा
कि जिस तरह हम
बचे, उसी
तरह वह भी बच
सकता है।
पत्नी ने पूछा
कि आप भी कभी
किसी मीनार पर
कैद थे? उसने
कहा कि मीनार
पर तो नहीं, लेकिन कैद
थे। और हम जिस
तरह बचे, वही
रास्ता उसके
काम भी आ
जाएगा। तुम
ऐसा करो...।
उस
फकीर ने अपने बगीचे में
जाकर एक छोटा
सा कीड़ा उसे पकड़कर दे
दिया। कीड़े की
मूंछों
पर शहद लगा दी
और कीड़े की
पूंछ में एक
पतला महीन
रेशम का धागा
बांध दिया।
पत्नी
ने कहा, आप
यह क्या कर
रहे हैं? इससे
क्या होगा?
उसने
कहा, तुम फिकर
मत करो। ऐसे
ही हम बचे।
इसे तुम छोड़ दो
मीनार पर। यह
ऊपर की तरफ
बढ़ना शुरू हो
जाएगा।
क्योंकि वह जो
मधु की गंध आ
रही है--मूंछों
पर लगी मधु की
गंध--वह उसकी
तलाश में
जाएगा। और गंध
आगे बढ़ती
जाएगी
जैसे-जैसे
कीड़ा आगे बढ़ेगा,
तलाश उसे
करनी ही
पड़ेगी। और
उसके पीछे
बंधा हुआ धागा
तेरे पति तक
पहुंच जाएगा।
पर
पत्नी ने कहा, इस पतले
धागे से क्या
होगा?
फकीर
ने कहा, घबड़ा
मत। पतला धागा
जब ऊपर पहुंच
जाए, तो
पतले धागे में
थोड़ा मजबूत
धागा बांधना।
फिर मजबूत
धागे में थोड़ी
रस्सी
बांधना। फिर
रस्सी में
मोटी रस्सी
बांधना। उस
मोटी रस्सी से
तेरा पति उतर
आएगा।
उस
छोटे से कीड़े
ने पति को
मुक्ति दिलवा
दी। एक बड़ा
महीन धागा!
लेकिन उस धागे
के सहारे और
मोटे धागे पकड़
में आते चले
गए।
तुम्हारा
प्रेम अभी बड़ा
महीन धागा है, बहुत कचरे-कूड़े से
भरा है। इसलिए
जब धर्मगुरु
तुम्हें
समझाते हैं कि
तुम्हारा
प्रेम पाप है,
तो तुम्हें
भी समझ में आ
जाता है; क्योंकि
वह कूड़ा-कर्कट
तो बहुत है, हीरा तो
कहीं दब गया
है। इसलिए तो
धर्मगुरु
प्रभावी हो
जाते हैं, क्योंकि
तुम्हें भी
उनकी बात तर्कयुक्त
लगती है कि
तुम्हारे
प्रेम ने
सिवाय आसक्ति
के, राग के,
दुख के, पीड़ा
के, और
क्या दिया!
तुम्हारे
प्रेम ने
तुम्हारे जीवन
को कारागृह
के अतिरिक्त
और क्या दिया!
तुम्हें भी
समझ में आ
जाती है बात
कि यह प्रेम
ही बंधन है।
लेकिन
मैं तुमसे
कहता हूं कि
जिस कूड़ा-कर्कट
को तुम प्रेम
समझ रहे हो, उसी को
धर्मगुरु भी
प्रेम कहकर
निंदा कर रहा
है। लेकिन
तुम्हारे कूड़ा-कर्कट
में एक पतला
सा धागा भी
पड़ा है, जिसे
शायद तुम भी
भूल गए हो। उस
धागे को मुक्त
कर लेना है।
क्योंकि उसी
धागे के
माध्यम से तुम
कारागृह
के बाहर जा सकोगे।
ध्यान
रखना, इस
सत्य को बहुत
खयाल में रख
लेना कि जो बांधता
है उसी से
मुक्ति भी हो
सकती है।
जंजीर बांधती
है तो जंजीर
से ही मुक्ति
होगी। कांटा गड़ जाता है,
पीड़ा देता
है, तो
दूसरे कांटे
से उस कांटे को
निकाल लेना
पड़ता है। जिस
रास्ते से तुम
मेरे पास तक
आए हो, उसी
रास्ते से
वापस अपने घर जाओगे, सिर्फ
रुख बदल जाएगा,
दिशा बदल
जाएगी। आते
वक्त मेरी तरफ
चेहरा था, जाते
वक्त मेरी तरफ
पीठ होगी।
रास्ता वही
होगा, तुम
वही होओगे।
प्रेम के ही
माध्यम से तुम
संसार तक आए
हो, प्रेम
के ही माध्यम
से परमात्मा
तक पहुंचोगे;
रुख बदल
जाएगा, दिशा
बदल जाएगी।
सितारों
के आगे जहां
और भी हैं
अभी
इश्क के इम्तिहां
और भी हैं
जिसे
तुमने प्रेम
समझा, वह
अंत नहीं है।
अभी
इश्क के इम्तिहां
और भी हैं
अभी
प्रेम की और
भी मंजिलें
हैं, और प्रेम
के अभी और भी
इम्तिहान हैं,
परीक्षाएं हैं। और
प्रेम की
आखिरी
परीक्षा
परमात्मा है।
ध्यान
रखना, जो
तुम्हें फैलाए
वही तुम्हें
परमात्मा तक
ले जाएगा।
प्रेम फैलाता
है, भय सिकुड़ाता
है।
संसार
से डरो मत, परमात्मा से
भरो।
जितने ज्यादा
तुम परमात्मा
से भर जाओगे,
तुम पाओगे,
तुम संसार
से मुक्त हो
गए। संसार
तुम्हें पकड़े
हुए मालूम
पड़ता है, क्योंकि
तुम्हारे हाथ
में कुछ और
नहीं है। आदमी
के पास कुछ न
हो तो कंकड़-पत्थर
भी इकट्ठे कर
लेता है। हीरे
की खदान न हो
तो आदमी
पत्थरों को ही
इकट्ठे करता
चला जाता है।
मैं तुमसे
कहता हूं, हीरे
की खदान पास
ही है। मैं तुमसे
कंकड़-पत्थर
छोड़ने को नहीं
कहता। मैं तुमसे
त्याग की बात
ही नहीं करता।
जीवन महाभोग
है। जीवन
उत्सव है।
मैं तुमसे यही
कहता हूं कि
जब विराट
तुम्हारे
भीतर उतरेगा, क्षुद्र
अपने आप बह
जाएगा। तुम
विराट का भरोसा
करो, क्षुद्र
का भय नहीं।
तुम विराट को
निमंत्रण दो,
क्षुद्र को हटाओ मत।
ध्यान रखो,
क्षुद्र से लड़ोगे, क्षुद्र
हो जाओगे।
क्षुद्र का
बहुत चिंतन करोगे--कैसे
इसे छोड़ें,
कैसे इससे
मुक्त
हों--उतने ही बंधते चले जाओगे।
क्षुद्र का
चिंतन भी क्या
करना, मनन
भी क्या करना!
क्षुद्र बांधेगा
भी क्या! उसकी
सामर्थ्य भी
क्या है! कूड़ा-कर्कट
को कोई छोड़ने
जाता है, त्यागने
जाता है? हीरों
को खोजने चलो।
धर्मगुरुओं
ने
निषेधात्मक
धर्म दिया है; मैं तुम्हें
विधेय दे रहा
हूं। मैं तुमसे
कहता हूं, छोड़ना
जरूरी नहीं है,
पाना जरूरी
है। और जिसने
पा लिया, उसने
छोड़ा। तेन त्यक्तेन
भुंजीथाः।
जब तुम्हें
बड़ा धन मिलता
है तो छोटा धन
अपने आप छूट
जाता है। फिर
छोड़ने की पीड़ा
भी नहीं होती।
त्याग भी
मालूम नहीं
पड़ता, क्योंकि
त्याग भी पीड़ा
है। और उस
त्याग का क्या
मजा जिसमें
पीड़ा हो? वह
त्याग सच्चा
भी नहीं है, जिसमें पीछे
थोड़ा दंश छूट
जाए।
जीवन
ऐसा सहज होना
चाहिए कि तुम
रोज-रोज
परमात्मा में
आगे बढ़ते जाओ, रोज-रोज
संसार तुमसे
अपने आप पीछे
हटता जाए; तुम्हें
संसार को
धकाना न पड़े, तुम्हें
संसार से लड़ना
न पड़े।
दो ही
उपाय हैं: या
तो संसार से
घृणा करो, या परमात्मा
से प्रेम करो।
घृणा करनी
तुम्हें भी आसान
है, क्योंकि
घृणा में तुम
भी निष्णात
हो। इसलिए धर्मगुरुओं
की बात
तुम्हें जम
गयी। तुमने
कहा, यह तो
ठीक है, घृणा
तो हम कर सकते
हैं। जब मैं तुमसे
प्रेम की बात
कहता हूं तो
तुम घबड़ाते
हो, क्योंकि
प्रेम का
तुम्हें खुद
भी भरोसा नहीं
है कि तुम कर
सकते हो। पर
मैं तुमसे
कहता हूं, कर
सकते हो। माना
कि तुम्हारा
प्रेम बड़ी
गंदगी में दबा
पड़ा है, पर
है, मौजूद
है। और घबड़ाओ
मत, कूड़े-कर्कट से, मिट्टी से, कीचड़ से कमल
निकल आता है।
कीचड़ में कमल
छिपा है। थोड़ी
खोज की जरूरत
है। और फिर
कमल और कीचड़ का
क्या तुम
संबंध जोड़ पाओगे!
कहां कमल, कहां
कीचड़!
धर्मगुरु
तुमसे कह
रहे हैं, कीचड़
छोड़ो।
उनकी बात
तुम्हें भी जंचती है
कि इस कीचड़ को
घर में क्या
रखना, छोड़ो। मैं तुमसे
कहता हूं, इस
कीचड़ में कमल
छिपा है। छोड़ो
मत, उपयोग
कर लो। उपयोग
में ही छूट
जाएगा। जब कमल
मिल जाएगा तो
कीचड़ छूट ही
गयी। लेकिन ऐसा
न हो कहीं कि
कीचड़ को
फेंकने में
कमल भी फिंक
जाए।
अगर
तुम्हारे
जीवन से प्रेम
का स्वर चला
गया तो तुम
संसार को
कितना ही घृणा
कर लो, तुम
परमात्मा को न
पा सकोगे।
क्योंकि
संसार को घृणा
करने से वह
नहीं मिलता है,
उसे ही
प्रेम करने से
मिलता है।
घृणा तो नकारात्मक
है। यह तो ऐसे
है जैसे कोई
अंधेरे को
धक्का दे-देकर
बाहर निकाल
रहा हो। प्रेम
तो विधायक है,
दीया जलाने
जैसा है।
तुम धर्मगुरुओं
से राजी हो गए, क्योंकि
तुम्हें भी
लगा कि यही
आसान है। लेकिन
तुम अपने त्यागियों
को, अपने तपस्वियों
को गौर से देखो,
जरा उनकी
आंखों में झांको,
उनके आसपास
की हवा को परखो--तुम
पाओगे
उन्होंने छोड़
तो दिया है
कुछ, यह
बात पक्की है;
लेकिन पाया
कुछ भी नहीं।
सिर्फ छोड़ने
से ही थोड़े ही
मिलने का कोई
सबूत मिलता
है। जाओ, अपने
संन्यासियों
के अंतर्तम
में झांको,
वहां
तुम्हें सूना
घर मिलेगा।
तुमसे भी
ज्यादा सूना।
क्योंकि
तुम्हारे घर
में कम से कम अंधेरा
तो है; तुम्हारे
घर में कम से
कम कूड़ा-कर्कट,
कीचड़ तो
है--वह भी
उन्होंने
फेंक दी। कमल
तो खिला नहीं;
क्योंकि
कीचड़ को फेंककर
कहीं कोई कमल
खिला है!
काम ही
राम बनता
है। संभोग की
ही यात्रा
विपरीत हो
जाती है तो समाधि
बन जाती है।
वह जो नीचे की
तरफ जा रहा है
वह काम है।
वही ऊर्जा जब
ऊपर की तरफ
जाने लगती है
तो राम हो
जाती है। पर
राम और काम एक
ही ऊर्जा की दो
भिन्न दिशाएं
हैं। जिसने
काम को काट
डाला, उसने
राम की
संभावना मिटा
दी।
प्रेम
पर भरोसा करो।
भरोसे पर
प्रेम करो। और
जल्दी मत करना
छोड़ने की।
छोड़ने की भी
क्या जल्दी
है! जब मिल
जाएगा, छोड़
देंगे। मैं तुमसे
कहता हूं पाने
की फिकर करो।
सारी दृष्टि
खोज में लगाओ।
आशिकी
से मिलेगा
ऐ जाहिद
बंदगी
से खुदा नहीं
मिलता
गहन
प्रेम से, आशिकी से।
तुम्हारी
बंदगी झूठी है,
अगर उसमें
गहन प्रेम नहीं
है। तुम कितना
ही झुको, कितनी ही
इबादत और
प्रार्थना
करो, कितने
ही मंदिरों की
घंटियां बजाओ और
पूजा के थाल सजाओ--यह
बंदगी झूठी है,
जब तक इसके
भीतर आशिकी का
स्वर न बजता
हो, जब तक
परमात्मा
तुम्हारा
प्रेमी न हो
जाए, तुम्हारी
प्रेयसी न हो
जाए, जब तक
ऐसा आत्मीय
निकट का संबंध
न हो जाए।
लेकिन, चूंकि तुम
प्रेम से
परेशान हो, चूंकि तुम
प्रेम करना
सीख नहीं पाए,
चूंकि तुम
नाचना नहीं
जानते, तुम
कहते हो आंगन टेढ़ा है।
आंगन की कोई
फिकर करता है
जिसको नाचना
आता हो? आंगन
की वही फिकर
करता है जिसे
नाचना न आया।
संसार से
भागते वही हैं,
जो नाच न
सके। जिसे
नाचना आता है,
टेढ़ा आंगन भी
पर्याप्त है।
असली
बात जीवन की
कला को सीखने
की है।
मैं
तुम्हें
तोड़ना नहीं
चाहता, तुम्हें
जोड़ना
चाहता हूं।
अगर तुम ठीक
से समझो, तो मैं
तुम्हें जो दे
रहा हूं वही
योग है। योग यानी
जोड़। प्रेम
एकमात्र योग
है, क्योंकि
वही जोड़ता
है। और तो सब चीजें तोड़
देती हैं।
परमात्मा
से हम दूर हो
गए हैं, टूट
गए हैं, पास
आना है; दूर
चले गए हैं घर
से, लौटना
है। घृणा, विरोध,
त्याग, निषेध--इनसे
तुम कैसे
पहुंच पाओगे?
और इनसे तुम
अगर पहुंच भी
गए तो तुम
इनसे ही भरे रहोगे, तुम
परमात्मा को
भी पहचान न पाओगे।
अगर तुम आज
जैसे हो, ऐसे
ही परमात्मा
के सामने
पहुंच जाओ, तुम पहचान न पाओगे। पहचानोगे
तो तुम्हीं?
तुमने जो भी
जाना है, उसमें
कहीं भी तो
परमात्मा की
झलक तुम्हें
मिली नहीं, परमात्मा का
कोई परिचय
नहीं।
इसलिए
मैं तुमसे
कहता हूं, प्रेम परमात्मा
से पहला परिचय
है। तुम जिसके
भी प्रेम में
पड़ जाओगे
उसी में
तुम्हें
परमात्मा की
थोड़ी सी झलक
मिलनी शुरू हो
जाएगी। जहां
तुम्हें
प्रेम किसी के
प्रति हुआ, वहीं
तुम्हें
रूपांतरण दिखायी
पड़ेगा।
अब जिस
व्यक्ति के
प्रति
तुम्हारा
प्रेम हो गया
है, वह
साधारण नहीं रह
गया, असाधारण
हो गया।
तुम्हारा
प्रेम उसके
भीतर कहीं न
कहीं
परमात्मा को
खोजने लगेगा।
प्रेम
परमात्मा को
खोज ही लेता
है, क्योंकि
बिना
परमात्मा के
प्रेम हो ही
नहीं सकता।
तुम्हें उस
व्यक्ति की बुराइयां दिखायी पड़नी बंद
हो जाती हैं, जिसको तुम
प्रेम करते
हो। और जिसे
तुम घृणा करते
हो, उसकी
सिर्फ बुराइयां
दिखायी
पड़ती हैं।
जिसको तुम
घृणा करते हो,
उसमें
शैतान दिखायी
पड़ने ही लगेगा। और
जिसको तुम
प्रेम करते हो
उसमें
परमात्मा दिखायी
पड़ने ही लगेगा।
उसकी भलाई ही
भलाई दिखती
है। वह बुरा
भी करे तो भी
भला मालूम
होता है।
उसमें सुगंध
ही सुगंध
मालूम पड़ती
है। मंदिर
बनना शुरू हो
गया। यही तो
पहचान होगी।
यहीं से परिचय
बनेगा। यह
परिचय अगर पास
में रहा, तो
किसी दिन तुम
परमात्मा के
सामने खड़े होओगे
तो पहचान पाओगे।
अगर यह परिचय
तुम्हारे पास
नहीं है, जैसा
कि तुम्हारे
तथाकथित त्यागियों
के पास नहीं
है, इनके
सामने भी
परमात्मा खड़ा
रहे तो इन्हें
शैतान ही दिखायी
पड़ेगा।
राबिया
एक सूफी फकीर
औरत हुई।
कुरान में एक
वचन है कि शैतान
को घृणा करो, उसने काट
दिया। अब
कुरान में कोई
संशोधन करना बड़ा
खतरनाक मामला
है। और कोई
दूसरा
बरदाश्त भी कर
ले, मुसलमान
बरदाश्त भी
नहीं कर सकते।
अगर कोई वेद
में सुधार कर
दे तो हिंदू
बहुत फिक्र न
करेंगे। अगर
कोई गीता में
भी दो-चार पंक्तियां
इधर-उधर कर दे
तो कहेंगे,
उसकी मौज है,
क्या करना!
लेकिन
मुसलमान
बरदाश्त न
करेंगे।
एक
दूसरा फकीर राबिया के
घर मेहमान था।
उसने सुबह ही
कुरान उठाकर
पढ़ी, देखा
कि लकीरें कटी
हुई हैं।
कुरान में, और तरमीम, सुधार! वह
घबड़ा गया।
उसने कहा, यह
किसने पाप
किया? यह
तो आखिरी वचन
है परमात्मा
का, इसके
आगे अब कोई
सुधार नहीं हो
सकता। जो कहना
था वह कह दिया
गया है। जो
नहीं कहना था
वह नहीं कहा
गया है।
आखिरी! मोहम्मद
के बाद अब कोई
पैगंबर होने
को नहीं है।
यह किसने नासमझी
की है? वह
बड़ा क्रोधित
हो गया।
राबिया
ने कहा, नाराज
मत हो। किसी
और ने नहीं की,
मैंने ही की
है।
वह तो
विश्वास भी न
कर सका। उसने
कहा कि तुझ जैसी
भक्त, और तूने यह
किया!
उसने
कहा, मैं क्या
करूं? मेरी
मजबूरी है। जब
से परमात्मा
से प्रेम लगा,
जब से आशिकी
बनी, तब से
अब कोई शैतान दिखायी
नहीं पड़ता। अब
तो शैतान भी
मेरे सामने
खड़ा हो तो
मुझे
परमात्मा ही दिखायी पड़ेगा।
इसलिए शैतान
को घृणा करो, अब इस वाक्य
का क्या अर्थ
रहा? इसको
मैंने काट
दिया, मेरे
काम का नहीं
है। जब तक शैतान
दिखायी
पड़ता था तब तक
काम का हो भी
सकता था, अब
किस काम का है?
प्रेम
की पहचान बढ़ती
जाए तो
धीरे-धीरे तुम
पाओगे कि
इसी संसार में
रंग-ढंग बदलने
लगे जीवन के। पक्षी
वही हैं, लेकिन
गीत के अर्थ
बदल गए। अब पक्षियों
की गुनगुनाहट
नहीं है, वेदों
का उच्चार है।
फूल अब भी वही
हैं, लेकिन
रंग बदल गए; अब सिर्फ
फूल नहीं हैं,
अब
परमात्मा की
खबर हैं। झरने
अब भी बहेंगे
और कलकल
नाद करेंगे, लेकिन अब ये
परमात्मा के
पैरों के बजते
हुए पायल हैं।
सब बदल गया।
प्रेम जिसने
किया उसने संसार
को रूपांतरित
कर लिया।
तुम्हारी
दृष्टि में
तुम्हारा
संसार है। और
ध्यान रखना, अगर प्रेम
पर कहीं
भूल-चूक हो
गयी--और प्रेम
पहला कदम है
परमात्मा की
तरफ, अगर
वहीं भूल-चूक
हो गयी--तो तुम
कितना ही चलो,
पहुंच न पाओगे।
सिर्फ
एक कदम उठा था
गलत राहे-शौक
में
प्रेम
के रास्ते पर
सिर्फ एक गलत
कदम उठा।
मंजिल
तमाम उम्र मुझे
ढूंढ़ती
रही
फिर
मेरा ढूंढ़ना
तो ठीक ही है, फिर मंजिल
भी मुझे ढूंढ़ती
रही तमाम उम्र,
तो भी मुझे
पा न सकी।
सिर्फ
एक कदम उठा था
गलत राहे-शौक
में
मंजिल
तमाम उम्र
मुझे ढूंढ़ती
रही
प्रेम
के संबंध में
बहुत-बहुत होश
रखना। वहीं भूल
हो गयी तो
परमात्मा से
तुम सदा के
लिए चूके।
उसे सुधारोगे
तभी परमात्मा
की तरफ बढ़ पाओगे।
प्रेम के बिना
न कोई
प्रार्थना है, न कोई
परमात्मा है।
इसलिए
मैं तुम्हें
सिर्फ एक ही
सूत्र देता हूं, कि तुम अबाध
प्रेम करो, कि तुम बेशर्त
प्रेम करो, कि तुम
जितने गहरे
प्रेम में उतर
सको उतने
गहरे उतरो।
ध्यान व्यर्थ
पर मत दो, प्रेम
में जो सार्थक
स्वर हो उसको
मुक्त कर लो।
प्रेम में जो
हीरा हो उसे
निकाल लो, मिट्टी
को पड़ा रह
जाने दो।
प्रेम में जो
कमल हो उसे
जगा लो, कीचड़
को पड़ा रह
जाने दो।
और जिस
दिन कमल जग
आएगा कीचड़ से, तुम कीचड़ के
प्रति भी
धन्यवाद
अनुभव करोगे,
क्योंकि
उसके बिना कमल
न हो सकता। और
जिस दिन तुम
कीचड़ को भी
धन्यवाद दे सको, उसी
दिन मैं
तुम्हें
कहूंगा तुम
धार्मिक हो। जिस
दिन संसार के
प्रति भी तुम
सिर झुका सको
अनुग्रह के
भाव
से...क्योंकि
इस संसार में
अगर न घूमे
होते, न भटके
होते, तो
परमात्मा से
मिलने का कोई
उपाय न था। यह
भटकाव भी उसी
की यात्रा का
पड़ाव है।
दूसरा
प्रश्न:
ध्यान
और प्रेम के
दो मार्ग आपने
कहे हैं, पर होश, अवेयरनेस का तत्व
दोनों मार्ग
पर किस प्रकार
संबंधित है, कृपा कर इसे समझाएं।
होश तो
दोनों
मार्गों पर
होगा ही, लेकिन
होश की
परिभाषा
दोनों मार्गों
पर अलग-अलग
होगी। होश तो
होगा, लेकिन
होश का स्वाद
दोनों
मार्गों पर
बड़ा अलग-अलग
होगा। स्वाद
अलग होगा।
प्रेम
के मार्ग पर
होश बेहोशी
जैसा होगा।
ध्यान के
मार्ग पर
बेहोशी होश
जैसी होगी। यह
थोड़ा समझने
में कठिन होगा, जटिल होगा।
प्रेम
में एक मस्ती
आती है, जैसे
कोई शराब में
डूबा हो। सारी
दुनिया को लगता
है वह बेहोश
है--वह जो
प्रेम का
दीवाना है; लेकिन भीतर
उसके होश का
दीया जलता है।
जितनी गहरी
बेहोशी
दुनिया को
लगती है, उतना
ही भीतर का
दीया सजग होकर
जलने लगता है।
रामकृष्ण
के जीवन में
ऐसा बहुत बार
हुआ। वे प्रेम
के पथिक थे और
कभी-कभी उनकी
समाधि लग जाती
तो छह घंटे, बारह घंटे, अठारह घंटे,
कभी-कभी छह
दिन, सात
दिन, दस
दिन, वे
बिलकुल बेहोश
पड़े रहते।
हाथ-पैर ऐसे
अकड़ जाते जैसे
मुर्दे के हों,
सिर्फ
श्वास
धीमी-धीमी
चलती रहती।
उनके प्रेमी
और भक्त बड़े
परेशान हो
जाते, कि
वे अब लौटेंगे
या नहीं। और
प्रेमी और
भक्त भी समझते
कि यह तो बड़ी
बेहोशी है।
लेकिन रामकृष्ण
को जैसे ही
होश
आता--भक्तों
की दृष्टि में, आसपास की
भीड़ की दृष्टि
में--जैसे ही
उन्हें होश
आता, वे
फिर चिल्लाते
कि मां, यह
बेहोशी मुझे
नहीं चाहिए।
जिसको भक्त
कहते बेहोशी,
उसको वे
कहते होश। और
जिसको भक्त
कहते होश, वे
उस होश में
आते ही
चिल्लाते कि
मां, यह
बेहोशी मुझे
नहीं चाहिए।
अब क्यों वापस
इस बेहोशी में
भेजती है! जब
ऐसा होश सध
गया था तो
वापस वहीं बुला
ले। बाहर से
शरीर मुर्दे
की तरह हो
जाता था, और
भीतर कोई
ज्योति जलती
थी।
प्रेम
के मार्ग पर
बाहर से जो
बेहोशी दिखायी
पड़ेगी वह भीतर
होश है। बड़ी
प्रसिद्ध पंक्तियां
हैं--
मेरी निगाह
में वो
रिंद ही नहीं साकी
जो हुशियारी
और मस्ती में इम्तियाज
करे
वह
पीने वाला ही
नहीं है, जो
अभी होश और
बेहोशी में
फर्क करे।
मेरी
निगाह में वो
रिंद ही नहीं साकी
उसने
अभी पीना ही
नहीं जाना, वह पियक्कड़
नहीं है, वह
अभी मतवाला
नहीं है, अभी
मधुशाला को
पहचाना ही
नहीं।
जो हुशियारी
और मस्ती में इम्तियाज
करे
जो होश
में और बेहोशी
में फर्क करे, उसने अभी
पीना ही नहीं
सीखा।
प्रेम
के रास्ते पर
होश और बेहोशी
एक हो जाते हैं।
यही ध्यान के
रास्ते पर भी
घटता है, लेकिन
स्वाद अलग है।
महावीर बैठे
हैं या बुद्ध
बैठे हैं, तुम
उन्हें
परिपूर्ण होश
में पाओगे,
लेकिन भीतर
उनके ऐसा नशा
बह रहा है
जैसा नशा इस
जमीन पर
कभी-कभी बहता
है। भीतर
उन्हें वह परम
मधुशाला
उपलब्ध हो गयी
है। भीतर
वर्षा हो रही
है मधु की।
भीतर आनंद में
सराबोर हैं।
बाहर से
बिलकुल होश
सधा है, भीतर
डूबे
हैं। ठीक उलटा
मालूम होगा।
बुद्ध बाहर से
होशपूर्ण
मालूम होते
हैं, भीतर डूबे हैं।
चैतन्य, मीरा, रामकृष्ण बाहर से
बेहोश मालूम
होते हैं, भीतर
होश में हैं।
ध्यान
के मार्ग से
जो चलेगा, होश बाहर
होगा, भीतर
बेहोशी होगी।
प्रेम के
मार्ग से जो
चलेगा, बेहोशी
बाहर होगी, होश भीतर
होगा। पर
दोनों साथ-साथ
हैं।
होश की
आखिरी जो घड़ी
है, वह
बेहोशी की भी
आखिरी घड़ी
है। क्यों? क्योंकि
जहां पता चलता
है मैं कौन
हूं, वहीं
तो 'मैं' मिट जाता
है। जहां 'मैं'
मिटता है, वहीं तो पता
चलता है कि
मैं कौन हूं।
शून्य जहां हम
हो जाते हैं
वहीं तो पूर्ण
का पदार्पण होता
है। और जहां
पूर्ण आता है
वहां सब शून्य
हो जाता है।
उस अंतिम घड़ी
में, उस
आखिरी शिखर पर,
उस गौरीशंकर
पर सब भेद, सब
द्वैत गिर
जाता है। सब
द्वंद्व
विलीन हो जाते
हैं। वहां न
होश होश
है, न
बेहोशी बेहोशी
है।
ठीक
कहा है यह--
मेरी
निगाह में वो
रिंद ही नहीं साकी
जो हुशियारी
और मस्ती में इम्तियाज
करे
अगर
तुम बुद्ध के
सामने रामकृष्ण
को रखोगे
तो वे पहचान
लेंगे। अगर
तुम रामकृष्ण
को बुद्ध को पहचानने
को कहोगे, रामकृष्ण भी पहचान
लेंगे।
ऐसा ही
समझो कि
तुम्हारे हाथ
में एक सिक्का
है, किसी ने
सीधा रखा है
हाथ में, किसी
ने उलटा रखा
है--इससे क्या
फर्क पड़ता है?
सिक्का
दोनों के हाथ
में है, दोनों
बाजार में
जाएंगे, सिक्के
का बराबर
मूल्य मिल
जाएगा। कोई यह
थोड़े ही पूछेगा
कि सिक्के
का सिर ऊपर की
तरफ है कि
नीचे की तरफ
है। सिक्का सिक्का
है।
प्रेम
की दुनिया में
बेहोशी बाहर
होगी, होश
भीतर होगा।
ध्यान की
दुनिया में
होश बाहर होगा,
बेहोशी
भीतर होगी। और
दोनों समान
होंगी। दोनों
का बराबर बल
होगा। तराजू
के दोनों पलड़े
समान होंगे।
जहां
बेहोश और होश
दोनों मिल
जाते हैं, वहीं वह परम
घटना घटती है,
जिसे हम
निर्वाण कहें,
मोक्ष कहें,
ब्रह्मोपलब्धि कहें। फिर
सब भेद नामों
के हैं, शब्दों
के हैं।
तीसरा
प्रश्न:
तुम
न जाने किस
जहां में खो
गए
हम
तेरी दुनिया
में तनहा हो
गए
तुम
न जाने किस
जहां में खो
गए
मौत
भी आती नहीं
सांस
भी जाती नहीं
दिल
को ये क्या हो
गया
कोई
अब भाता नहीं
लूट
कर मेरा जहां
छुप
गए हो तुम
कहां
तुम
कहां, तुम
कहां, तुम
कहां...
तुम
न जाने किस
जहां में खो
गए
तरु ने
पूछा है।
प्रेम खोने का
रास्ता है! और
वही प्रेम
परमात्मा तक
ले जाएगा, जो खोना सिखाए।
वही प्रेमी
तुम्हें
परमात्मा तक
ले जा सकेगा, जो खुद भी
धीरे-धीरे
खोता जाए और
तुम्हें भी खोने के
लिए राजी करता
जाए।
प्रेम
के मार्ग पर
मिट जाना ही
पाना है। कठिन
होता है
मिटना। पीड़ा
होती है। बचा
लेने का मन होता
है। लेकिन
जिसने बचाया
उसने गंवाया।
जो मरने को
राजी है, वही
प्रेम को जान
पाया। प्रेम
मृत्यु है, और बड़ी
मृत्यु है; साधारण
मृत्यु नहीं
है जो रोज
घटती है। वह
मर जाना भी
कोई मर जाना
है! क्योंकि
तुम तो मरते ही
नहीं, शरीर
बदल जाता है।
लेकिन प्रेम
में तुम्हें मरना
पड़ता है, शरीर
वही रहा आता
है। इसलिए
प्रेम बड़ी
मृत्यु है, महामृत्यु है।
इतने
से काम न
चलेगा--'मौत
भी आती नहीं, सांस भी
जाती नहीं।' सांस भी चली
जाए, मौत
भी आ जाए, तो
भी काम न
चलेगा। जब
प्रेम में
मरने की घड़ी
आती है तो
आदमी सोचता है,
इससे तो
बेहतर यह होता
कि शरीर ही मर
जाता, श्वास
ही चली जाती।
वह भी कम
खतरनाक मालूम
पड़ता है।
यही तो
अड़चन है प्रेम
की--तपश्चर्या
यही है--कि
प्रेम भीतर से
मार डालेगा।
वह जो भीतर
मैं है, वह
जब चला जाएगा,
फिर श्वास
भी आती रहेगी
तो भी कोई
अंतर नहीं पड़ेगा।
तुम न बचे।
मेरे
साथ जो चलने
को राजी हुए
हैं, वे मिटने
को ही राजी
हुए हैं। तो
ही मेरे साथ
चलना हो सकता
है। और
स्वाभाविक है
कि अगर मैं
तुम्हें राजी
करना चाहूं मिटने के
लिए, तो
मैं तुमसे
दूर होता जाऊं
और खोता चला
जाऊं। तुम
मुझे खोजते
हुए आगे बढ़ते
चले आओ और
एक दिन तुम पाओ,
कि मैं भी
खो गया हूं और
मुझे खोजने
में तुम भी खो
गए हो।
'तुम
न जाने किस जहां
में खो गए।'
यही तो
प्रेम की मंजिलें
हैं, यही तो
उसके आगे के
इम्तिहान
हैं।
सितारों
के आगे जहां
और भी हैं
अभी
इश्क के इम्तिहां
और भी हैं
आखिरी
प्रेम का
इम्तिहान यही
है कि वहां
प्रेमी खो
जाता है। और
जिस दिन खोता
है उसी दिन
पाता है, सब
मिल गया।
इसलिए प्रेम
की भाषा गणित
की भाषा नहीं
है। प्रेम की
भाषा हिसाब की
भाषा नहीं है।
प्रेम की भाषा
तो पागलपन की
भाषा है, दीवानगी
की भाषा है, मतवालेपन की भाषा है।
तो तरु
से मैं कहूंगा, बजाय यह
सोचने के कि 'तुम न जाने
किस जहां में
खो गए'; बजाय
यह सोचने के
कि 'मौत भी
आती नहीं, सांस
भी जाती नहीं,
दिल को यह
क्या हो गया'; सोचो--
आरजू
तेरी बरकरार
रहे
दिल
का क्या है
रहा न रहा
सब खो
जाए, तो भी जो
अमृत है वह तो
नहीं खो जाता
है। वही खोता
है जो खो जा
सकता है। और
जो खो जा सकता
है, वह
जितनी जल्दी
खो जाए उतना
अच्छा है।
क्योंकि
जितनी देर उलझे
रहे उतनी ही
मुसीबत! जितनी
देर उलझे
रहे उतना ही
समय गंवाया।
जितनी जल्दी
जागे उतना
अच्छा। जितनी
देर सोए उतनी
ही रात, उतना
ही व्यर्थ।
ध्यान
रहे कि मिटने
की जितनी
तैयारी
होगी--और
मिटना पीड़ापूर्ण
है, इसे जानकर--उतनी
ही जल्दी पीड़ा
की रात का अंत
आ जाता है। जब
तक तुम नहीं मिटे हो
तभी तक पीड़ा
मालूम होती
है--क्योंकि
मिटना है...मिटना
है...मिटते
जाना है।
जल्दी करो, मिट जाओ।
स्वीकार कर लो
मृत्यु को। वह
भीतर जो एक लड़ाई
चलती है बचने
की, वह छोड़
दो। फिर पीड़ा
भी समाप्त हो
गयी। छोड़ते
ही संघर्ष, पीड़ा समाप्त
हो जाती है।
लेकिन संकल्प
आदमी का
जन्मों-जन्मों
का कमाया
हुआ है, और
समर्पण कठिन
होता है।
समर्पण भी हम
करते हैं तो
रत्ती-रत्ती
करते हैं।
रामकृष्ण
के पास एक दिन
एक आदमी आया
और उसने आकर
हजार सोने की अशर्फियां
उनके सामने
डाल दीं।
उसने कहा, आप स्वीकार
कर लें, बस
मैं आपके
चरणों में
रखना चाहता
हूं। रामकृष्ण
ने कहा, इनका
क्या करूंगा?
अब इनकी
हिफाजत कौन
करेगा? तू
एक काम कर, बांध
पोटली वापस, और जाकर
गंगा में डुबा
दे। हमने
स्वीकार कर लिया।
अब ये अशर्फियां
हमारी हैं।
हमारी तरफ से
तू गंगा में
फेंक आ, इतना
और कर। इतनी
दूर तू लाया, इतना हमारे
लिए कर दे।
उस
आदमी को जंची
नहीं बात।
उसने कहा, यह भी कोई
बात हुई? मगर
अब रामकृष्ण
को इनकार भी न
कर सका। बांधी
पोटली बेमन
से। बड़ी देर
हो गयी, लौटा
नहीं। तो रामकृष्ण
ने कहा, क्या
हुआ उस आदमी
का? देखो कहीं डूब तो
नहीं गया।
कहीं ऐसा न
किया हो कि पोटली
तो रख दी हो
किनारे और खुद
डूब मरा हो!
क्योंकि लोग
धन को बचा
लेते हैं, खुद
को मिटा देते
हैं। देखो,
क्या हुआ उस
बेचारे का? लोग गए तो
देखा कि वह
एक-एक अशर्फी
को बजा रहा था
पत्थर पर, गिन-गिन
कर फेंक रहा
था। और बड़ी
भीड़ इकट्ठी कर
ली थी उसने।
लोगों ने कहा,
तुम यह क्या
कर रहे हो? परमहंसदेव ने बुलाया
है।
उसने
कहा, भई, आता
हूं, अब
जरा पूरा गिन
कर...! जब वह लौटकर
आया तो रामकृष्ण
ने कहा, पागल!
इकट्ठा करते
वक्त गिनते
हैं, तब तो
समझ में आता
है। फेंकते
वक्त क्या
गिनना! जब
फेंक ही रहे
हैं, फिर
क्या गिनना!
तो पोटली
इकट्ठी डुबा
देता। मगर तू छोड़ते
वक्त भी गिनता
रहा।
अगर गिन-गिन कर छोड़ोगे तो
पीड़ा की रात
बहुत लंबी हो
जाएगी। जब
छोड़ना ही है
तो बिन गिने
छोड़ दो। अगर छोड़ते न बनता हो तो
प्रेम की फिकर
न करो, फिर
ध्यान का
मार्ग है। फिर
कोई जरूरत
नहीं है। तब
ध्यान ठीक है।
ध्यान ज्यादा गणितपूर्ण
है, तकनीक
है। उसमें तुम
बचोगे और
काम जारी
रहेगा। वह भी
तुम्हें मिटा
देगा, लेकिन
धीरे-धीरे मिटाएगा।
प्रेम
छलांग है।
ध्यान में तो
धीरे-धीरे
व्यवस्था जमायी
जा सकती है, प्रेम में
कोई व्यवस्था
नहीं जमायी
जा सकती। होता
है तो पूरा, नहीं होता
है तो नहीं। सोचो मत।
प्रेम के
रास्ते पर तो
पागल होने की
हिम्मत चाहिए
ही। और अगर
बहुत
सोच-विचार
किया, और
बहुत हिसाब से
चले, तो न
केवल देर हो
जाएगी, बल्कि
अगर हिसाब की
आदत हो गयी तो
किसी दिन परमात्मा
सामने भी खड़ा
हो जाए, तो
तुम अपने
हिसाब में
तल्लीन रहोगे,
तुम उसे देख
न पाओगे।
रामतीर्थ
कहते थे कि एक
प्रेमी दूर
देश गया। उसकी
प्रेयसी राह
देखती है, राह देखती
है, फिर वह
लौटा नहीं। हर
बार पत्र आता
है कि अब आऊंगा,
अब आऊंगा,
लेकिन देर
होती चली गयी।
एक दिन
प्रेमी पत्र
लिख रहा है
सांझ को--और
प्रेमी जैसा
लंबे पत्र
लिखते
हैं--लिखते ही
जा रहा है।
उसने आंख उठाकर
देखा ही नहीं
कि सामने कौन
खड़ा है।
प्रेयसी यह
देखकर कि यह
लौट नहीं रहा
है, उसे
खोजती हुई
उसके गांव आ
गयी। वह द्वार
पर खड़ी है
आकर। लेकिन वह
पत्र लिखने
में तल्लीन है।
वह इतना
तल्लीन है कि
जिसके लिए
पत्र लिख रहा
है वह सामने
खड़ी है, लेकिन
वह उसे देख
नहीं पाया। और
प्रेयसी ने यह
सोचकर कि
वह इतना
तल्लीन है, बाधा देना
ठीक नहीं, उसको
काम पूरा कर
लेने दो, वह
चुपचाप खड़ी
रही।
जब
उसने पत्र
पूरा किया और
आंख उठायी
तो उसे भरोसा
न आया। वह
घबड़ा गया।
यहां कहां प्रेयसी
हो सकती है
उसकी? समझा
होगा कोई भूत-प्रेत
है, या कौन
है? उसने
अपनी आंखें मलीं।
उसकी प्रेयसी
ने कहा, आंखें
मत मलो, मैं बिलकुल
वास्तविक
हूं। और मैं
बड़ी देर से खड़ी
हूं, लेकिन
तुम पत्र
लिखने में
तल्लीन थे।
तुम जिसे पत्र
लिख रहे थे वह
सामने खड़ा है।
लेकिन तुम इतने
तल्लीन थे कि
मैंने बाधा
देनी ठीक न समझी।
कई बार
हम हिसाब
लगाने में
तल्लीन रहते
हैं और
परमात्मा
द्वार पर खड़ा
होता है। शायद
सदा ही ऐसा
है। हम उसी की
तरफ जाने का
हिसाब बिठाते
होते हैं, वह सामने ही
खड़ा होता है।
कुछ
इतने दिए हसरते-दीदार
ने धोखे
वो
सामने बैठे
हैं यकीं
हमको नहीं है
बहुत
बार ऐसा हो
जाता है, कि
तुम कल्पना कर
लेते हो अपने
प्रेमी की, और फिर पाते
हो कल्पना ही
थी। सपना देख
लेते हो, फिर
जागकर
पाते हो सपना
ही था।
कुछ
इतने दिए हसरते-दीदार
ने धोखे
कुछ
अपनी ही
कल्पना से
इतने बार
दर्शन कर लिए परमात्मा
के, और हर बार
पाया कि धोखा
है।
कुछ
इतने दिए हसरते-दीदार
ने धोखे
वो
सामने बैठे
हैं यकीं
हमको नहीं है
और अब
सामने
परमात्मा
बैठा हो तो भी
यकीन नहीं
आता। पता नहीं
कहीं फिर
हमारी ही
कल्पना धोखा न
दे रही हो; कहीं फिर
हमने ही न सोच
लिया हो; कहीं
फिर हमने ही
यह मूर्ति न
बना ली हो।
मिटने
की तैयारी करो, कल्पनाएं सजाने की
नहीं। प्रेमी
को देखने की
फिकर छोड़ो,
अपने को
मिटाने की
फिकर करो।
तुम्हारे मिटने
में ही उसका
दर्शन है।
प्रेमी
की कला मरने
की कला है।
ध्यानी की कला
जागने की
कला है। मगर
दोनों एक ही
जगह ले आते
हैं।
चौथा
प्रश्न:
मीरा
का मार्ग था
प्रेम का, पर कृष्ण और मीरा के
बीच अंतर था
पांच हजार साल
का। फिर यह
प्रेम किस
प्रकार बन सका?
कृपया समझाएं।
प्रेम
के लिए न तो
समय का कोई
अंतर है और न
स्थान का।
प्रेम
एकमात्र कीमिया
है, जो समय को
और स्थान को
मिटा देती है।
जिससे तुम्हें
प्रेम नहीं है
वह तुम्हारे
पास बैठा रहे,
शरीर से
शरीर छूता हो,
तो भी तुम
हजारों मील के
फासले पर हो।
और जिससे
तुम्हारा
प्रेम है वह
दूर चांदत्तारों
पर बैठा हो, तो भी सदा
तुम्हारे पास
बैठा है।
प्रेम
एकमात्र जीवन
का अनुभव है
जहां टाइम और स्पेस, समय और
स्थान दोनों
व्यर्थ हो
जाते हैं।
प्रेम एकमात्र
ऐसा अनुभव है
जो स्थान की
दूरी में भरोसा
नहीं करता और
न काल की दूरी
में भरोसा
करता है, जो
दोनों को मिटा
देता है।
परमात्मा
की परिभाषा
में कहा जाता
है कि वह काल
और स्थान के
पार है, कालातीत।
जीसस ने
कहा है कि
प्रेम
परमात्मा
है--इसी कारण।
क्योंकि
मनुष्य के
अनुभव में
अकेला प्रेम
ही है जो
कालातीत और स्थानातीत
है। उससे ही
परमात्मा का
जोड़ बैठ सकता
है।
इससे
कोई अंतर नहीं
पड़ता कि कृष्ण
पांच हजार साल
पहले थे।
प्रेमी
अंतराल को
मिटा देता है।
प्रेम की
तीव्रता पर
निर्भर करता
है। मीरा
के लिए कृष्ण
समसामयिक थे।
किसी और को न दिखायी पड़ते हों, मीरा को दिखायी
पड़ते थे।
किसी और को
समझ में न आते
हों, मीरा उनके सामने
ही नाच रही
थी। मीरा
उनकी
भाव-भंगिमा पर
नाच रही थी। मीरा को
उनका
इशारा-इशारा
साफ था।
यह
थोड़ा हमें
जटिल मालूम पड़ेगा, क्योंकि
हमारा भरोसा
शरीर में है।
शरीर तो मौजूद
नहीं था।
बुद्ध
ने स्वयं कहा
है कि जो मुझे
प्रेम करेंगे
और जो मेरी
बात को समझेंगे, कितना ही
समय बीत जाए, मैं उन्हें
उपलब्ध
रहूंगा। और जिन्होंने
बुद्ध को
प्रेम नहीं
किया, वे
बुद्ध के
सामने बैठे
रहे हों तो भी
उपलब्ध नहीं
थे।
शरीर
समय और
क्षेत्र से
घिरा है। लेकिन
तुम्हारे
भीतर जो
चैतन्य है, समय और
क्षेत्र का उस
पर कोई संबंध
नहीं है। वह
बाहर है। वह
अतिक्रमण कर
गया है। वह
दोनों के अतीत
है।
जिस
कृष्ण को मीरा
प्रेम कर रही
थी, वे कृष्ण
देहधारी
कृष्ण नहीं
थे। वह देह तो
पांच हजार साल
पहले जा चुकी।
वह तो धूल धूल
में मिल चुकी।
इसलिए जानकार
कहते हैं कि मीरा का
प्रेम राधा के
प्रेम से भी
बड़ा है। होना
भी चाहिए। अगर
राधा प्रसन्न
थी कृष्ण को
सामने पाकर,
तो यह तो
कोई बड़ी बात न
थी। लेकिन मीरा
ने पांच हजार
साल बाद भी
सामने पाया, यह बड़ी बात
थी। जिन गोपियों
ने कृष्ण को
मौजूदगी में पाया
और प्रेम
किया--प्रेम
करने योग्य थे
वे, उनकी
तरफ प्रेम सहज
ही बह जाता, वैसा
उत्सवपूर्ण
व्यक्तित्व
पृथ्वी पर मुश्किल
से होता है--तो
कोई भी प्रेम
में पड़ जाता। लेकिन
कृष्ण गोकुल छोड़कर चले
गए द्वारका, तो बिलखने
लगीं गोपियां,
रोने लगीं, पीड़ित होने लगीं।
गोकुल और
द्वारका के
बीच का फासला
भी वह प्रेम
पूरा न कर
पाया। वह
फासला बहुत
बड़ा न था।
स्थान की ही
दूरी थी, समय
की तो कम से कम
दूरी न थी।
मीरा
को स्थान की
भी दूरी थी, समय की भी
दूरी थी; पर
उसने दोनों का
उल्लंघन कर
लिया, वह
दोनों के पार
हो गयी।
प्रेम
के हिसाब में मीरा बेजोड़
है। एक क्षण
उसे शक न आया, एक क्षण उसे
संदेह न हुआ, एक क्षण को
उसने ऐसा
व्यवहार न
किया कि कृष्ण
पता नहीं, हों
या न हों।
वैसी आस्था, वैसी अनन्य
श्रद्धा: फिर
समय की कोई
दूरी दूरी
नहीं रह जाती।
दूरी रही ही
नहीं।
आत्मा
सदा है। जिन्होंने
प्रेम का झरोखा
देख लिया, उन्हें वह
सदा जो आत्मा
है, उपलब्ध
हो जाती है।
जो अमृत को
उपलब्ध हुए
व्यक्ति
हैं--कृष्ण
हों, कि
बुद्ध हों, कि क्राइस्ट
हों--जो भी
उन्हें प्रेम
करेंगे, जब
भी उन्हें
प्रेम करेंगे,
तभी उनके
निकट आ
जाएंगे। वे तो
सदा उपलब्ध
हैं, जब भी
तुम प्रेम करोगे,
तुम्हारी
आंख खुल जाती
है।
इस
चिंता में मत पड़ो कि
कैसे मीरा
पांच हजार साल
के बाद प्रेम
कर पायी।
प्रेम को क्या
लेना-देना है
सालों से?
रामकृष्ण
मरते थे।
उन्हें गले का
कैंसर हुआ था।
डाक्टर ने कह
दिया कि अब
आखिरी घड़ी
आ गयी। तो
शारदा उनकी
पत्नी रोने
लगी। रामकृष्ण
ने कहा, रुक,
रो मत।
क्योंकि जो मरेगा वह
तो मरा ही हुआ
था, और जो
जिंदा था वह
कभी नहीं मरेगा।
और ध्यान रख, चूड़ियां मत तोड़ना।
शारदा
अकेली स्त्री
है पूरे भारत
के इतिहास में, पति के मरने
पर जिसने चूड़ियां
नहीं तोड़ीं।
क्योंकि रामकृष्ण
ने कहा, चूड़ियां मत तोड़ना। तूने मुझे
चाहा था कि इस
देह को? तूने किसको
प्रेम किया था?
मुझे या इस
देह को? अगर
इस देह को
किया था तो
तेरी मर्जी, फिर तू चूड़ियां
तोड़ लेना। और
अगर मुझे
प्रेम किया था
तो मैं नहीं
मर रहा हूं।
मैं रहूंगा।
मैं उपलब्ध
रहूंगा। और
शारदा ने चूड़ियां
नहीं तोड़ीं।
शारदा की आंख
से आंसू की एक
बूंद नहीं
गिरी। लोग तो
समझे कि उसे
इतना भारी
धक्का लगा है
कि वह विक्षिप्त
हो गयी है।
लोगों को तो
उसकी बात विक्षिप्तता
ही जैसी लगी।
लेकिन उसने सब
काम वैसे ही
जारी रखा जैसे
रामकृष्ण
जिंदा हों।
रोज सुबह वह
उन्हें
बिस्तर से आकर
उठाती कि अब उठो परमहंसदेव,
भक्त आ गए
हैं--जैसा रोज
उठाती थी, भक्त
आ जाते थे, और
उनको उठाती थी
आकर। मसहरी
खोलकर खड़ी हो
जाती--जैसे
सदा खड़ी होती
थी। ठीक जब वे
भोजन करते थे
तब वह थाली
लगाकर आ जाती
थी, बाहर
आकर भक्तों के
बीच कहती कि
अब चलो, परमहंसदेव! लोग हंसते,
और लोग रोते
भी कि बेचारी!
इसका दिमाग
खराब हो गया! किसको
कहती है? थाली
लगाकर बैठती,
पंखा झलती।
वहां कोई भी न
था।
अगर
प्रेम की आंख
न हो तो वहां
कोई भी न था, और अगर
प्रेम की आंख
हो तो वहां सब
था। प्रेमी इसीलिए
तो पागल दिखायी
पड़ता है, क्योंकि
उसे कुछ ऐसी चीजें दिखायी
पड़ने
लगती हैं जो अप्रेमी
को दिखायी
नहीं पड़तीं।
और प्रेमी
अंधा मालूम
पड़ता है, बड़े
मजे की बात
है। प्रेमी के
पास ही आंख
होती है, लेकिन
प्रेमी आंख
वालों को अंधा
दिखायी
पड़ता है।
क्योंकि उसे
कुछ चीजें
दिखायी
पड़ती हैं जो
तुम्हें दिखायी
नहीं पड़तीं।
तुम्हें लगता
है, पागल
है, अंधा
है।
शारदा
सधवा ही रही।
प्रेम की एक
बड़ी ऊंची मंजिल
उसने पायी।
रामकृष्ण
उसके लिए कभी
नहीं मरे।
प्रेम मृत्यु
को जानता ही
नहीं। लेकिन
प्रेम की
मृत्यु में जो
मरा हो पहले, वही फिर
प्रेम के अमृत
को जान पाता
है। प्रेम स्वयं
मृत्यु है, इसलिए फिर
किसी और
मृत्यु को
प्रेम क्या जानेगा!
नहीं, समय का और
स्थान का कोई
अंतर नहीं है।
प्रेम सब
फासले मिटा
देता है। एक
ही फासला है, और वह
अप्रेम का है।
एक ही दूरी है,
वह अप्रेम
की है। जब तक
तुम्हारे
जीवन में अप्रेम
है तब तक तुम
सभी से दूर
हो। जिस दिन
तुम्हारे जीवन
में प्रेम जागेगा,
प्रेम का
झरना फूटेगा,
तुम सभी के
पास हो जाओगे।
और तुमने एक
के साथ भी अगर
प्रेम का नाता
जोड़ लिया, तो
तुम पाओगे
कि तुम्हें
प्रेम का
स्वाद मिल
गया। फिर एक से
क्या जोड़ना!
फिर सभी से
जोड़ लेना। फिर
सर्व से जोड़ा
जा सकता है।
प्रेम तो पाठ
है प्रार्थना
का।
सितारों
के आगे जहां
और भी हैं
अभी
इश्क के इम्तिहां
और भी हैं
प्रेम
तो पाठ है
प्रार्थना
का। वह तो बारहखड़ी
है। फिर बड़े
इम्तिहान
हैं। आखिरी
इम्तिहान तो
वही है जहां
इस सारे
अस्तित्व के
प्रति तुम्हारा
प्रेम हो जाता
है, सर्व
तुम्हारा
प्रेमी हो
जाता है। किसी
एक को प्रेम
करना ऐसे ही
है जैसे खिड़की
से संसार के
सौंदर्य को
झांकना। फिर
खिड़की से
जिसने झांककर
देख लिया, वह
खिड़की पर ही
क्यों रुकेगा;
फिर बाहर का
निमंत्रण मिल
गया, फिर चांदत्तारे
बुला रहे
हैं; फिर
वह बाहर आ
जाता है खुले
आकाश के नीचे।
प्रेम का पाठ
सीखा, खिड़की
के पास से।
इसलिए खिड़की
के प्रति सदा
ही कृतज्ञता
का बोध रहेगा,
भाव रहेगा।
गुरु
के पास
परमात्मा का
पाठ सीखा जाता
है। प्रेमी के
पास प्रेम का
पाठ सीखा जाता
है। अनुग्रह
रहेगा उसका, सदा-सदा के
लिए। लेकिन
जल्दी ही उससे
पार होना है, और विराट
चारों तरफ घिरा
हुआ है। क्या
खिड़की से
देखना आकाश को,
जब पूरा
आकाश मिलने को
संभव है, उपलब्ध
है!
पांचवां
प्रश्न:
बुद्ध
ने कहा है, ध्यान का
सतत अभ्यास
करने वाले धीर
पुरुष अनुत्तर
योगक्षेम रूप
निर्वाण को
प्राप्त होते हैं।
क्या निर्वाण
के भी प्रकार
हैं?
निर्वाण
के तो कोई
प्रकार नहीं
हैं। जैसे फल
जब पक
जाता है तो एक
क्षण में गिर
जाता है, गिरने
में कोई
प्रकार नहीं
है। लेकिन फल
के पकने की
बहुत सीढ़ियां
हैं। अधपका फल
है--अभी गिरा
नहीं। कच्चा
फल है--अभी
गिरना बहुत
दूर, गिरने
की यात्रा पर
है। गिरेगा
तो फल एक क्षण
में। पक
गया, क्षण
भी नहीं लगेगा।
फिर गिरने में
सीढ़ियां नहीं
हैं; गिर
तो एकदम
जाएगा। लेकिन
गिरने के पहले
बहुत सी
सीढ़ियां हैं।
कच्चा
फल भी वृक्ष
से लगा है, अधपका फल भी
वृक्ष से लगा
है--अगर हम
वृक्ष से लगे
होने को ध्यान
में रखें तो
दोनों में कोई
भी फर्क नहीं
है। फर्क इतना
ही है कि
अधपका फल पकने
के करीब आ रहा
है, कच्चा
फल बहुत दूर
है। मगर दोनों
वृक्ष से लगे
हैं। निर्वाण
तो एक ही क्षण
में घट जाता
है। लेकिन एक
व्यक्ति है
जिसने कभी
ध्यान नहीं
किया, कभी
प्रेम नहीं
किया--कच्चा
फल है। वह भी
अभी संसार में
है। फिर किसी
ने प्रेम किया,
किसी ने
ध्यान
किया--वह भी
अभी टूट नहीं
गया है, अभी
वह भी पक
कर गिर नहीं
गया है, वह
भी संसार में
है। अगर संसार
में ही होने
को देखें, तो
दोनों संसार
में हैं।
लेकिन अगर उस
भविष्य की
घटना को हम
खयाल में रखें
तो एक कुछ कदम
आगे बढ़ा है
गिरने के करीब,
और दूसरा अभी
बहुत दूर खड़ा
है। एक कच्चा
फल है, एक
अधपका फल है।
बौद्धों
के विचार में
ध्यान की तीन अवस्थाएं
हैं। पहली
अवस्था में
शून्यता
उत्पन्न होती है।
काम कुछ भी
करते रहो, भीतर एक शून्यभाव
छाया रहता है।
जापान में उसे
वे कहते हैं, झिन्माई--पहली
अवस्था।
कभी-कभी खुद को
भी पता नहीं
चलती वह
अवस्था; क्योंकि
बड़ी महीन और
सूक्ष्म है, और अचेतन तल
पर होती है।
ध्यान करने
वाले व्यक्ति
को अक्सर हो
जाती है झिन्माई।
मतलब उसका
इतना है कि
वैसा व्यक्ति
बाहर काम भी
करता रहता है,
लेकिन बाहर
उसका रस नहीं
रह जाता।
बोलता है, उठता
है, बैठता
है, दुकान
करता है, लेकिन
रस उसका बाहर
खो गया होता
है। बस कर रहा होता
है, किसी
तरह कर रहा
होता है।
कर्तव्य
निभाता है। सारा
रस भीतर चला
गया है, और
भीतर एक शून्य
का अनुभव होने
लगा है, जैसे
कुछ भी नहीं
है; एक
शांति गहन
होने लगी है।
यह पहली
अवस्था है।
दूसरी
अवस्था को झेन
में सतोरी
कहते हैं।
दूसरी अवस्था
तब है जब यह
शून्य कभी-कभी
इतना प्रगाढ़
हो जाता है कि
इस शून्य का
बोध होता है, जागरण होता
है। अचानक एक
क्षण को जैसे
बिजली कौंध
जाए, ऐसा
भीतर शून्य
कौंध जाता है।
मगर ऐसी कौंध
कौंधती है, समाप्त हो
जाती है।
बिजली कौंधी,
थोड़ी देर को
रोशनी हो गयी--क्षणभर
को--फिर रोशनी
खो गयी, फिर
अंधेरा हो
गया।
सतोरी
कई घट सकती
हैं।
फिर
तीसरी अवस्था
समाधि की है।
समाधि ऐसी अवस्था
है, बिजली
जैसी नहीं, सूरज के उगने
जैसी। उग
गया तो उग
गया। फिर ऐसा
नहीं कि फिर
बुझा, फिर
उगा, फिर
डूबा--ऐसा नहीं
है। उग
गया।
समाधि
अंतिम अवस्था
है। फल पक
गया। समाधि उस
क्षण का नाम
है जो निर्वाण
के एक क्षण
पहले की है: फल पक गया, बस अब टूटा, अब टूटा। और
तब फल टूट
गया। फल का
टूट जाना निर्वाण
है।
लेकिन
इस निर्वाण तक
पहुंचने में
पहले ध्यान या
प्रेम के
माध्यम से एक
शून्यता साधी
जाएगी; एक
भीतर ठहरना आ
जाएगा; बाहर
से हटना हो
जाएगा; ऊर्जा
भीतर की तरफ
बहने लगेगी;
बाहर एक तरह
की अनासक्ति छा जाएगी; करने को सब
किया जाएगा
लेकिन करने
में कोई रस न
रह जाएगा; हो
जाए तो ठीक, न हो जाए तो
ठीक; सफलता
हो कि असफलता,
सुख मिले कि
दुख--बराबर
होगा; व्यक्ति
ऐसे जीएगा
जैसे नाटक में
अभिनेता; अभिनय
करेगा बस।
यह
संन्यास का
पहला कदम है:
अभिनेता हो
जाना। करते सब
वही हैं जैसा
कल भी करते थे, लेकिन अब
ऐसा करते हैं
जैसा अपना कोई
लेना-देना
नहीं है।
जरूरत है, कर
रहे हैं। कल
करते थे किसी
गहरी आसक्ति
और लगाव से, अब करते हैं
केवल कर्तव्य
से।
फिर
दूसरी अवस्था
है, जब
कभी-कभी झलकें
मिलेंगी।
अचानक द्वार
खुल जाएगा।
अचानक तुम
रूपांतरित हो जाओगे; एक
तल से दूसरे
तल पर पहुंच जाओगे। वह दिखायी पड़ेगा दूर
का शिखर--बादल
हट गए हैं और गौरीशंकर
का उत्तुंग
शिखर दिखायी
पड़ गया है; बादल
हट गए हैं और
चांद दिखायी
पड़ गया है; फिर
बादल घिर
गए हैं। ऐसा
कई बार होगा।
झेन
फकीर रिंझाई
के संबंध में
कहा जाता है
कि उसे अट्ठारह
सौ सतोरी
अनुभव हुईं
समाधि के
पहले। अट्ठारह
सौ भी सिर्फ
प्रतीक हैं, अट्ठारह हजार भी हो
सकती हैं। तो
कितनी ही बार
झलक हो सकती
है। लेकिन झलक
सिर्फ खबर है
इस बात की कि मैं
करीब आ रहा
हूं, करीब
आ रहा हूं; लेकिन
अभी आ नहीं
गया हूं।
मंजिल दिखायी
पड़ने लगी
है। फिर कई
बार खो भी
जाती है मंजिल,
क्योंकि मन
के भावावेग
बदलते रहते
हैं। कभी
ध्यान सध
जाता है किसी
दिन, मन
प्रफुल्ल
होता है, शांत
होता है, आनंदित
होता है। सध
जाता है किसी
दिन। किसी दिन
नहीं सधता, चूक जाता है,
बड़ी दूरी हो
जाती है। ऐसा
कई बार पास
आना और कई बार
दूर होना हो
जाता है।
लेकिन, जिसको झलकें
मिलने लगीं,
जरा-जरा
स्वाद आने लगा,
वह अब भटक
नहीं सकता। अब
एक बात तो
पक्की हो गयी
कि जिसकी तलाश
है, वह है; जिसको खोजते
थे, वह
कल्पना नहीं
है; जिसकी
तरफ चले थे, वह चाहे
मिले न
जन्मों-जन्मों
तक भी अब, लेकिन
है। श्रद्धा
का आविर्भाव
होता है। और जैसे
ही श्रद्धा का
आविर्भाव
होता है, सतोरी
धीरे-धीरे
समाधि बनने
लगती है।
श्रद्धा और सतोरी का जुड़ जाना
समाधि है। एक
बात तो पक्की
हो गयी, बिजली
चमक गयी
अंधेरी रात
में, दिखायी पड़ गया कि
रास्ता है, और दूर
मंदिर के कलश
भी दिखायी
पड़ गए। फिर
बिजली खो गयी,
अंधेरा फिर
हो गया; लेकिन
अब एक बात
पक्की है कि
मंदिर है।
उसके स्वर्ण-कलश
दिखायी
पड़ गए। एक बात
पक्की है कि
रास्ता है।
फिर टटोल रहे
हैं अंधेरे
में, मिले
न मिले; कभी
मिल भी जाए, कभी फिर भटक
जाए--लेकिन
रास्ता है, मंदिर है।
अब चाहे
जन्म-जन्म लग
जाएं, लेकिन
हम व्यर्थ ही
नहीं खोज रहे
हैं। सत्य है।
परमात्मा है।
आत्मा है।
निर्वाण है।
और
जैसे ही यह
अनुभव होने
लगता है कि है, वैसे-वैसे कदमों का
बल बढ़ जाता है;
खोज की
त्वरा बढ़ जाती
है; सब कुछ
दांव पर लगा
देने की
हिम्मत आ जाती
है।
फिर
तुम मंदिर के
द्वार पर
पहुंच गए।
सूरज उग
गया। अब तुम
द्वार पर खड़े
हो। सब
सीढ़ियां पूरी
हो गयीं। यह
समाधि की
अवस्था
है--प्रवेश के
एक क्षण पहले।
इसके बाद
निर्वाण है।
इसके बाद फल
गिर जाता है।
तुम प्रविष्ट
हो गए।
द्वार
पर भी कोई रुक
सकता है।
द्वार पर
रुकने का कारण
वासना नहीं
होती, द्वार
पर रुकने का
कारण करुणा हो
सकती है।
बुद्ध
के जीवन में
उल्लेख है।
निर्वाण के
द्वार पर वे आ
गए हैं। द्वार
खोल दिया गया।
लेकिन वे पीठ
फेर कर खड़े हो
गए हैं। कहानी
है, पर बड़ी
मधुर है, और
बुद्धत्व के
संबंध में बड़ी
सूचक है।
द्वारपाल ने
कहा, आप
भीतर आएं। हम
कितने युगों
से आपकी
प्रतीक्षा
करते हैं।
कितने युगों
से आपका
निरीक्षण करते
हैं कि प्रति
कदम आप आते जा
रहे हैं करीब।
बुद्ध ने कहा,
लेकिन मेरे
पीछे बहुत लोग
हैं। अगर मैं
खो गया शून्य
में, तो
उनके लिए मैं
कोई सहारा न
दे सकूंगा।
मुझे यहीं
रुकने दो। मैं
चाहूंगा
कि सब मुझसे
पहले प्रवेश
हो जाएं
निर्वाण में,
फिर अंतिम
मैं रहूं।
ऐसा
होता है, ऐसा
नहीं है। ऐसा
हो नहीं सकता।
लेकिन यह महाकरुणा
का प्रतीक है।
कल मैं एक
कहानी पढ़
रहा था एक
यहूदी फकीर की,
जो इससे भी
मीठी है।
झूसिया
नाम का हसीद
फकीर मरा। वह
स्वर्ग के
द्वार पर खड़ा
है, निर्वाण
के द्वार पर।
वह भीतर नहीं
जाता। वह कहता
है, भीतर
जाकर भी क्या
करेंगे! जो
पाना था वह पा
लिया। और फिर
अभी बहुत लोग
हैं जिनको
मेरी जरूरत
है। स्वयं
परमात्मा
चिंतित हो गया
है। कोई
रास्ता नहीं
है झूसिया
को समझाने
का कि तुम
भीतर आ जाओ।
परमात्मा
सिंहासन पर बैठा
है। द्वार से झूसिया
देख रहा है।
परमात्मा
कहता है, भीतर
आ जाओ। झूसिया
कहता है, क्या
करेंगे? देख
लिया, पा
लिया। अभी
दूसरों को
सहायता देनी
है। जो मिला
है उसे बांटना
है। मुझे यहीं
रुकने दें।
मुझ पर दया
करें। द्वार
बंद कर लें।
कोई
रास्ता न
देखकर, परमात्मा
यहूदियों
की किताब 'तोरा'
अपने हाथ
में रखे है, उसने किताब
छोड़ दी। वह
किताब जमीन पर
गिरी। पुरानी आदतवश झूसिया
भागा; क्योंकि
'तोरा' गिर
जाए तो उसे
उठाना चाहिए।
वह किताब
उठाने गया, दरवाजा बंद
कर दिया गया।
तब से वह बाहर
नहीं निकल
पाया।
परमात्मा को
तरकीब लगानी
पड़ी--'तोरा'
गिराना
पड़ा।
कहानी
बड़ी मीठी है। झूसिया
वहीं रुक जाना
चाहता
था--समाधि पर; निर्वाण तक
नहीं जाना
चाहता था।
लेकिन कोई
उपाय करना ही पड़ेगा, समाधि
पर कोई रुक
नहीं सकता। फल
जब पक गया
तो गिरेगा
ही। फल कितना
ही चाहे, पर
अब रुकने का
कोई उपाय न
रहा। पक
जाना गिर जाना
है। समाधिस्थ
हो जाना
निर्वाण हो
जाना है।
पर
निर्वाण के
पहले ये तीन
घटनाएं घटती
हैं। पहले एक सातत्य बनता है
भीतर अचेतन मन
में; फिर चेतन
में झलकें आनी
शुरू होती हैं;
फिर कोई
द्वार पर खड़ा
हो जाता है; फिर सब खो
जाता है। फिर
न जानने वाला
बचता, न
जाना जाने
वाला बचता; न ज्ञाता, न ज्ञेय; न
भक्त, न
भगवान; फिर
वही रह जाता
है जो है। कृष्णमूर्ति
जिसे कहते हैं,
दैट व्हिच इज। वही रह
जाता है जो
है। निःशब्द!
अनिर्वचनीय! वही
मंजिल है। वही
पाना है।
पाने
के दो उपाय
मैंने तुमसे
कहे: या तो
प्रेम से।
संभव हो सके, तो प्रेम का
रास्ता बड़ा
हरा-भरा है, वहां
इंद्रधनुष
हैं और फूल
खिलते हैं और
झरनों में
कल-कल नाद है, और गीत का
गुंजार है, और नृत्य भी
है। अगर नहीं,
तो ध्यान का
मार्ग है।
ध्यान का
मार्ग थोड़ा मरुस्थल
जैसा है। उसका
अपना सौंदर्य
है। उसकी अपनी
स्वच्छता है।
उसका अपना
विस्तार है।
लेकिन थोड़ा
रूखा-सूखा है।
वहां काव्य
नहीं है, हरियाली
नहीं है, मरूद्यान नहीं है। पर
प्रत्येक को
अपने को ध्यान
में रखना है
कि उसको कौन
सी बात ठीक
पड़ेगी।
स्त्रैण
चित्त प्रेम
के मार्ग से
जा सकेगा। और
कई पुरुषों के
पास स्त्रैण
चित्त है; वे भी प्रेम
से ही जा
सकेंगे।
पुरुष चित्त
ध्यान से जा
सकेगा। और कई
स्त्रियों के
पास पुरुष
चित्त है; वे
भी ध्यान से
ही जा सकेंगी।
इसलिए शरीर से
स्त्री और
पुरुष होने पर
ध्यान मत
देना। अपने
चित्त को पहचानने
की फिकर करना।
कहीं ऐसा न हो
कि तुम जा
सकते थे प्रेम
से और ध्यान
की कोशिश करो,
तो फिर तुम
सफल न हो पाओगे।
तुम्हारे
स्वभाव के
विपरीत कुछ भी
सफल नहीं हो
सकता।
इसलिए
मार्ग पर
साधकों के लिए
सबसे बड़ी जो
बात है, वह
यही जान लेना
है कि उनका
क्या प्रकार
है। और इसलिए
गुरु
अनिवार्य हो
जाता है, क्योंकि
तुम कैसे पहचानो
कि क्या
तुम्हारा
प्रकार है? अपने से
इतनी दूरी
नहीं कि अपना
निरीक्षण कर सको। कोई
चाहिए, जो
रास्ते से
गुजर चुका हो।
कोई चाहिए, जो तुम्हें
दूर से खड़े
होकर देख सके
और पहचान सके,
और तुमसे
कह सके कि
तुम्हारा
प्रकार क्या
है। क्योंकि सबसे
बड़ी बात वहीं
घटती है। अगर
प्रकार ठीक तालमेल
खा गया, तो
जो जन्मों में
नहीं घटता वह
क्षणों में घट
जाता है। और
अगर तुम
प्रकार के
विपरीत
चेष्टा करते
रहे, तो जो
क्षणों में घट
सकता था वह
जन्मों में भी
नहीं घटता है।
मेरे
अनुभव में, मेरे देखने
में, तुम
अपने पापों या
कर्मों के
कारण इतने
नहीं भटकते हो,
जितना गलत
विधि चुनने
के कारण भटकते
हो। अनुकूल को
चुन लेना
बड़ा आवश्यक
है। प्रतिकूल
को चुनना ऐसा
ही है जैसे
कोई गुलाब का
फूल कमल होने
की कोशिश कर
रहा हो। वह
कमल तो हो ही न
पाएगा, गुलाब
भी न हो पाएगा,
क्योंकि
कोशिश में सब
ऊर्जा व्यर्थ
हो जाएगी।
गुलाब का फूल
गुलाब ही हो
सकता है। कमल
का फूल कमल ही
हो सकता है।
मगर न
तो कमल का
सवाल है न
गुलाब का, असली सवाल
खिल जाने का
है। प्रेम से खिलो कि
ध्यान से खिलो,
कोई फर्क
नहीं पड़ता।
आखिरी हिसाब
में खिल गए, बंद-बंद न मर
गए। बंद-बंद
मरे तो वापस
आना पड़ेगा,
खिलकर मरे तो
वापसी नहीं
है। जो खिलकर
गया, वह
सदा के लिए
गया। वह फिर
स्वीकार हो
गया।
इसलिए
तो हम
परमात्मा के
चरणों में
जाकर फूल चढ़ाते
हैं। वह सिर्फ
प्रतीक है कि
उसके चरणों
में केवल वे
ही स्वीकार
होंगे जो फूल
की तरह खिलकर
जाते हैं। जो
बीज की तरह ही
हैं उनको तो
वापस आना पड़ेगा।
निर्वाण
का अर्थ है, खिल जाना।
जो भीतर था, वह प्रगट हो
गया; जो
अनभिव्यक्त
था, वह
अभिव्यक्त हो
गया; जो
गीत अनगाया
पड़ा था, वह गा लिया
गया; जो
नाच अननाचा
पड़ा था, वह
नाच लिया गया।
जिस
दिन भी
तुम्हारी
नियति पूरी हो
जाती है, तुम
सौरभ से भर
जाते हो, तुम्हारी
पखुड़ियां
खिल जाती
हैं--उसी दिन
तुम स्वीकार
हो जाते हो।
तुमने अर्जित
कर लिया
मोक्ष। तुमने कमा लिया
मोक्ष।
अस्तित्व
अपनी बांहें फैलाकर
तुम्हारा
स्वागत करता
है।
सारा
अस्तित्व
उत्सव मनाता
है जिस दिन एक
व्यक्ति भी
बुद्धत्व को
उपलब्ध होता
है। क्योंकि
सारा
अस्तित्व
सदियों तक
प्रतीक्षा
करता है, तब
कहीं करोड़ों
लोगों में से
कोई एक पहुंच
पाता है। और
सभी पहुंचने
के हकदार थे।
सभी पहुंचने को
ही हैं। सभी
को पहुंचना ही
चाहिए।
दुर्भाग्य है
कि लोग न
मालूम दूसरे
कामों में उलझ
जाते हैं, व्यर्थ
के कामों में
उलझ जाते हैं;
सार को नहीं
पहचान पाते, असार को
नहीं पहचान
पाते।
बुद्ध
कहते हैं, जिसने सार
को सार की तरह
जान लिया, असार
को असार की
तरह जान लिया--वही,
वही उपलब्ध
हो पाता है।
आज
इतना ही।
thank you guruji
जवाब देंहटाएं