अकंप
चैतन्य ही
ध्यान—(प्रवचन—चौथा)
पहला
प्रश्न:
बुद्ध
ने मन को
जानने-समझने
पर ही सारा
जोर दिया लगता
है। क्या मन
से मनुष्य का
निर्माण होता
है? आत्मा-परमात्मा
की सारी बातें
क्या व्यर्थ हैं?
बातें
व्यर्थ हैं।
अनुभव व्यर्थ
नहीं। आत्मा, परमात्मा, मोक्ष शब्द
की भांति, विचार
की भांति दो कौड़ी के
हैं। अनुभव की
भांति उनके
अतिरिक्त और
कोई जीवन
नहीं। बुद्ध
ने मोक्ष को
व्यर्थ नहीं
कहा है, मोक्ष
की बातचीत को
व्यर्थ कहा
है। परमात्मा को
व्यर्थ नहीं
कहा है। लेकिन
परमात्मा के
संबंध में
सिद्धांतों
का जाल, शास्त्रों
का जाल, उसको
व्यर्थ कहा
है।
मनुष्य
इतना धोखेबाज
है कि वह अपनी
ही बातों से
स्वयं को धोखा
देने में
समर्थ हो जाता
है। ईश्वर की
बहुत चर्चा
करते-करते
तुम्हें लगता
है ईश्वर को
जान लिया।
इतना जान लिया
ईश्वर के संबंध
में, कि लगता है
ईश्वर को जान
लिया। लेकिन
ईश्वर के
संबंध में
जानना ईश्वर
को जानना नहीं
है। यह तो ऐसा
ही है जैसे
कोई प्यासा
पानी के संबंध
में सुनते-सुनते
सोच ले कि
पानी को जान
लिया। और
प्यास तो बुझेगी
नहीं। पानी की
चर्चा से कहीं
प्यास बुझी
है! परमात्मा
की चर्चा से
भी प्यास न बुझेगी।
और जिनकी बुझ
जाए, समझना
कि प्यास लगी
ही न थी।
तो
बुद्ध कहते
हैं कि अगर
जानना ही हो
तो परमात्मा
के संबंध में
मत सोचो, अपने संबंध
में सोचो।
क्योंकि
मूलतः तुम बदल
जाओ, तुम्हारी
आंख बदल जाए, तुम्हारे
देखने का ढंग
बदले, तुम्हारे
बंद झरोखे खुलें,
तुम्हारा
अंतर्तम
अंधेरे से भरा
है रोशन हो, तो तुम
परमात्मा को
जान लोगे।
फिर बात थोड़े
ही करनी
पड़ेगी।
ज्ञान
मौन है। वह
गहन चुप्पी
है। फिर तुमसे
कोई पूछेगा
तो तुम मुस्कुराओगे।
फिर तुमसे
कोई पूछेगा
तो तुम चुप रह जाओगे।
ऐसा नहीं कि
तुम्हें
मालूम नहीं है, वरन अब तुम्हें
मालूम है, कहो
कैसे? गूंगे केरी सरकरा।
कहना भी चाहोगे,
जबान न हिलेगी।
बोलना चाहोगे,
चुप्पी पकड़ लेगी।
इतना बड़ा जाना
है कि शब्दों
में समाता
नहीं। पहले
शब्दों की बात
बड़ी आसान थी।
जाना ही नहीं
था कुछ, तो
पता ही नहीं
था कि तुम
क्या कह रहे
हो। जब तुम
ईश्वर शब्द का
उपयोग करते हो
तो तुम कितने
महत्तम शब्द
का प्रयोग कर
रहे हो, इसका
कुछ पता न था।
ईश्वर शब्द
कोरा था, खाली
था। अब अनुभव
हुआ। महाकाश
समा गया उस
छोटे से शब्द
में। अब उस
छोटे से शब्द
को मुंह से
निकालना झूठा
करना है। अब
कहना नहीं है।
अब तुम्हारा
पूरा जीवन कहेगा,
तुम न कहोगे।
इसलिए
बुद्ध ने कहा, बात मत करो।
चर्चा की बात
नहीं है। पीना
पड़ेगा।
जीना पड़ेगा।
अनुभव करना
होगा। जो
जानते नहीं, उनकी बात
व्यर्थ है। जो
जानते हैं, वे उसकी बात
नहीं करते।
ऐसा नहीं कि
वे बात नहीं
करते। बुद्ध
ने बहुत बात
की है। लेकिन
परमात्मा के
संबंध में न
की। मनुष्य के
संबंध में की।
मनुष्य
बीमारी है।
परमात्मा
स्वास्थ्य है।
बीमारी को ठीक
पहचान लो, कारण
खोज लो, निदान
करो, चिकित्सा
हो जाने दो; जो शेष बचेगा
बीमारी के चले
जाने
पर--मनुष्य के
तिरोहित हो जाने
पर तुम्हारे
भीतर जो शेष
रह जाएगा--वही परमात्मा
है। तुम जब तक
हो तब तक
परमात्मा नहीं
है, तुम
लाख सिर पटको,
तुम लाख
शब्दों का
संयोजन जमाओ,
तुम लाख
भरोसा करो।
तुम्हारा
भरोसा
तुम्हारा ही
होगा।
इसे
थोड़ा समझना।
तुम
कहते हो, मैं
श्रद्धा करता
हूं। लेकिन
मैं की कहीं
कोई श्रद्धा
होती है! मैं
तो मूलतः अश्रद्धालु
है। मैं संदेह
है। उचित होगा
कहना कि जब तक
तुम हो तब तक
श्रद्धा नहीं
है। जब तुम न रहोगे, एक
गहन सन्नाटा छा जाएगा, तुम्हारी
कोई सीमा पता
न लगेगी, तुम ऐसे चुप
हो जाओगे
जैसे कि कभी बोले ही
नहीं, जैसे
पत्ता भी नहीं
खड़का, ऐसा
गहन सन्नाटा
तुम्हारे
भीतर छा
जाएगा; तुम
नहीं रहोगे,
तब तुम
अचानक पाओगे,
श्रद्धा के
कमल खिले।
श्रद्धा के
साज पर गीत
उठा। श्रद्धा नाची
तुम्हारे
भीतर।
तुम्हारी
मौजूदगी बाधा
है।
तो
बुद्ध कहते
हैं, तुम्हारी
चर्चा का सवाल
नहीं है, तुम्हारे
चुप हो जाने
का सवाल है।
इसलिए बुद्ध
मन की बात करते
हैं। मन
बीमारी है, ध्यान औषधि
है, परमात्मा
उपलब्धि है।
उपलब्धि की
क्या बात करनी।
मन की बीमारी
को ध्यान की
औषधि से मिटा
देना, परमात्मा
मिला ही हुआ
है। बात की तो,
न की तो, कोई
अंतर नहीं
पड़ता। जो नहीं
जानते, वे
बात करें तो
भी क्या बात
करेंगे? और
जो जानते हैं,
वे बात करना
भी चाहें तो
कैसे करेंगे?
ऐसा नहीं कि
बुद्ध को बात
करना नहीं
आता। उन जैसा
कुशल बात करने
वाला कभी हुआ
है? शब्दों
से वे खेल
सकते हैं।
कुशल हैं।
लेकिन उनका अंतरबोध
उन्हें रोकता
है।
पंडित बोले चले
जाते हैं।
उन्हें पता
नहीं, क्या
कह रहे हैं। बुद्धपुरुष
चुप हो जाते
हैं, क्योंकि
उन्हें पता
है। इतने पवित्रतम
को कहा कैसे
जा सकता है? ओठों पर लाकर
झूठा हो
जाएगा। शब्द
बड़े छोटे हैं।
विराट को समाएंगे,
समाएगा नहीं। ऐसे
ही जैसे कोई
मुट्ठी में
आकाश को बांधने
चला हो।
मुट्ठी तो बंध
जाएगी, आकाश
बाहर हो
जाएगा। ऐसे ही
शब्द तो बंध
जाते हैं, परमात्मा
बाहर छूट जाता
है। परमात्मा
शब्द परमात्मा
नहीं है। और
तुम जो
परमात्मा की रटन लगाए
रखते हो उससे
परमात्मा का
कुछ लेना-देना
नहीं है। वह
तुम्हारे मन
की ही बीमारी
है।
हमको
मालूम है
जन्नत की
हकीकत लेकिन
दिल
के बहलाने को
गालिब ये खयाल
अच्छा है
तुम्हें
अच्छी तरह पता
है। तुम्हारा
स्वर्ग, तुम्हारा
मोक्ष, तुम्हारा
परमात्मा, इसकी
हकीकत
तुम्हें
अच्छी तरह
मालूम है। यह
तुम्हारा
परमात्मा कुछ
भी नहीं है।
सुनी हुई बातचीत
है। उड़ी
हुई अफवाह है।
दूसरों से सुन
लिया, गुन
लिया, शास्त्रों
से पढ़ लिया
है। शब्द घुस
गया है मन में,
संस्कार बन
गया है।
हमको
मालूम है
जन्नत की
हकीकत लेकिन
और तुम
भी जानते हो
कि तुम्हारे
स्वर्ग का क्या
अर्थ है।
तुम्हारे ही
सपने का
विस्तार है। तुम्हें
पता है कि
तुम्हारा
परमात्मा
क्या है। वह
तुम्हारी ही आकांक्षाओं
का पहरेदार
है। तुम्हें
पता है कि
तुमने ये शब्द, ये सिद्धांत
क्यों पकड़ रखे
हैं। क्योंकि
तुम भयभीत हो,
अकेले हो, डरते हो, सहारा
चाहिए। झूठा
ही सही।
हमको
मालूम है
जन्नत की
हकीकत लेकिन
दिल के
बहलाने को
गालिब ये खयाल
अच्छा है
लेकिन
इस अकेले में
दिल को बहला
लेते हैं, किसी से भर
लेते हैं।
तुम्हारा
परमात्मा सच
नहीं है। क्योंकि
तुम अभी बहुत
सच हो। तुम
अभी जरूरत से
ज्यादा
यथार्थ हो।
तुम उसे जगह न दोगे। तुम
ही तो बाधा
बने हो।
तुम्हारे
अतिरिक्त तुम्हारे
और परमात्मा
के बीच और कोई
भी नहीं खड़ा
है।
इसलिए
बुद्ध कहते
हैं, मन को समझो।
मन यानी तुम।
मन यानी
मनुष्य। और
जहां मन चला
गया, वहां
ध्यान। और
जहां ध्यान, वहां
परमात्मा।
तुम्हारे
होने के दो
ढंग हैं। एक
मन और एक ध्यान।
तुमने कभी
खयाल किया, जब तुम
बीमार होते हो,
तब भी तुम
ही होते हो।
और जब तुम
स्वस्थ होते हो,
तब भी तुम
ही होते हो।
तो बीमारी और
स्वास्थ्य
तुम्हारे दो
होने के ढंग
हैं। बीमारी
बेचैनी है।
बीमारी एक
पीड़ा है। बीमारी
एक दुख है, दर्द
है।
स्वास्थ्य एक
शांति है।
जैसे भटका-भूला
घर लौट आया।
जैसे थके-मांदे
को वृक्ष की
छाया मिली।
स्वास्थ्य
सुख है। वह भी
तुम्हारे
होने का ढंग
है।
तो एक
तो तुम्हारे
होने का ढंग
मनुष्य है। वह
यानी बीमारी, मन। और एक
तुम्हारे
होने का ढंग
ध्यान है, स्वास्थ्य
है, परमात्मा
है। तुम ही जब
स्वस्थ होते
हो, परमात्मा
हो जाते हो। तुम्हीं
जब बीमार होते
हो, आदमी
हो जाते हो।
लहर
शांत है। पूरा
चांद आकाश में
है। झील पर कोई
लहरें
नहीं उठतीं।
दर्पण बन गयी
है झील, चांद
पूरा का पूरा दिखायी
पड़ता है। फिर
हवा का एक
झोंका। लहर उठ
गयी। झील कंप
गयी, दर्पण
खंडित हो गया।
चांद
हजार-हजार टुकड़ों
में टूट गया।
झील वही है।
चांद वही है।
लेकिन कंपती
हुई झील बीमार
झील है। तुम
वही हो। परमात्मा
वही है। सत्य
वही है। सिर्फ
तुम कंप रहे
हो। यह कंपते
हुए चैतन्य का
नाम मन है। और
अकंप चैतन्य
का नाम ध्यान
है। जब झील
चुप हो जाती
है, लहर
नहीं उठतीं,
तुम शांत
होते हो।
ऐसा
थोड़े ही है कि
शांत अवस्था
में परमात्मा
से मिलन होता
है। यह तो मन
की ही बातचीत
है। यह तुम
साथ मत ले
जाना।
इसलिए
बुद्ध कहते
हैं, इस चर्चा
को मत चलाओ।
इससे कुछ लाभ
तो होता नहीं,
हानि बहुत
हो जाती है।
इससे किसी की
कुछ समझ में
तो आता नहीं, नासमझी बहुत
बढ़ जाती है।
यह बात ही मत चलाओ। बस
इतना ही कहो
संक्षिप्त
में, कि
कैसे यह मन
शांत हो जाए।
कैसे ये लहरें
सो जाएं। कैसे
झील स्वस्थ हो
जाए। कैसे
प्रतिबिंब बन
सके परमात्मा
का उसमें।
प्रतिबिंब, यह भी सब
बातचीत है।
लेकिन कठिनाई
यह है कि किसी
भी तरह से उस
तरफ इशारा करो,
शब्द को
लाना पड़े। मगर
असलियत यह है
कि जब झील पूरी
शांत होती है
तो चांद ही हो
जाती है। अब इसे
कैसे कहो?
जब तुम पूरे
शांत होते हो
तो परमात्मा
से मिलना नहीं
होता, तुम
परमात्मा हो
जाते हो।
अशांति में
तुम मनुष्य
समझते हो अपने
को, परमात्मा
नहीं समझ
पाते। कैसे समझोगे? इतनी पीड़ा
में, और
तुम परमात्मा!
इतनी दीनता
में, और
तुम परमात्मा!
मनुष्य दीन
है। अपने को ईश्वर
कैसे मानेगा।
ईश्वर तो तभी
मान सकता है
जब जीवन में
परम ऐश्वर्य
प्रगट हो। जब
भीतर वैभव
उठे। और जब
भीतर ऐसी घड़ी
आए कि लगे कि
सब कुछ
तुम्हारा है।
सब तुम हो। चांदत्तारे
तुम्हारे
भीतर घूमते
हैं। और
तुम्हारे ही
हाथ के इशारे
से जगत चलता
है। तुम इस
जगत की प्राण-प्रतिष्ठा
हो। तुम इसके
केंद्र पर हो।
तुम ऐसे ही
अजनबी नहीं
हो। तुम कोई
बिन बुलाए
मेहमान नहीं
हो। तुम घर के
मालिक हो। तुम
मेहमान नहीं
हो, मेजबान
हो।
झेन
फकीर कहते हैं
कि मनुष्य की
दो अवस्थाएं
हैं। एक, कि
वह अपने को
अतिथि समझे, गेस्ट। और एक, कि
अपने को होस्ट
समझे, मेजबान।
और इतना ही
फर्क है। अभी
दुनिया में तुम
ऐसे हो जैसे
जबर्दस्ती
हो। अभी तुम
ऐसे हो जैसे बुलाए न गए
थे और आ गए हो।
अभी तुम ऐसे
हो जैसे एक
दुश्मन हो। लड़
रहे हो। फिर
एक होने का
ढंग है शांत। तुम
लड़ नहीं रहे
हो। तुम
मेहमान भी
नहीं हो, तुम
स्वयं मेजबान
हो। तुम्हें
किसी ने
बुलाया नहीं,
तुम मालिक
हो। तब
तुम्हारे
भीतर ऐश्वर्य
प्रगट हुआ।
परमात्मा
प्रगट हुआ।
बुद्ध
कहते हैं, तुम्हारा
ईश्वर तो ऐसा
है जैसे अफवाहें
सुनी हों।
हस्ती
का शोर तो है
मगर एतबार
क्या
झूठी
खबर किसी की उड़ायी हुई
सी है
सुनते
तो बहुत हैं
परमात्मा की
बात।
हस्ती
का शोर तो है
मगर एतबार
क्या
भरोसा
कैसे आए? श्रद्धा
कैसे हो?
झूठी
खबर किसी की उड़ायी हुई
सी है
यह
परमात्मा एक
झूठी खबर
मालूम पड़ता है, जो किसी ने उड़ा दी और
चल पड़ी। और एक
से दूसरे के
हाथ में चली
जाती है। एक पीढ़ी
दूसरी पीढ़ी
को दे जाती है।
इस पर भरोसा
कैसे आए, एतबार
कैसे हो?
तो
बुद्ध कहते
हैं, इस बात
में ही मत पड़ो।
परमात्मा पर
एतबार नहीं
लाना है।
परमात्मा पर
भरोसा नहीं
लाना है। लाओगे
भी कैसे? जिसे
कभी जाना नहीं,
जिसे कभी
देखा नहीं, जिसे कभी
सुना नहीं, जिसे कभी
पहचाना नहीं,
जिसका कोई
संस्पर्श न
हुआ, जो
हृदय में कभी विराजा
नहीं, जिसकी
छाया कभी
तुम्हारे
जीवन पर न पड़ी,
उसका भरोसा
कैसे करोगे?
झूठी
खबर किसी की उड़ायी हुई
सी है
लाख
चेष्टा करके
भी तो श्रद्धा
जमेगी न।
जमा भी लो
किसी तरह, उखड़ी- उखड़ी रहेगी। और
नीचे आधार तो
नहीं होगा।
बेबुनियाद
होगी। इस
बेबुनियाद
श्रद्धा पर जीकर क्या
तुम धार्मिक
हो जाओगे,
आस्तिक हो जाओगे?
अगर
ऐसा ही होता होता तो
सारी पृथ्वी
आस्तिक है। हर
आदमी आस्तिक
है। कोई ईसाई
है, कोई
हिंदू है, कोई
मुसलमान है, कोई जैन है।
पृथ्वी पर
नास्तिक तो
बड़े थोड़े हैं।
और जो नास्तिक
हैं, अगर
उनको भी तुम
गौर से देखो,
तुम उनको भी
आस्तिक ही पाओगे।
बाइबिल
को न मानते
हों, कुरान
को न मानते
हों, गीता
को न मानते
हों, तो
दास कैपिटल--माक्र्स
की किताब--को
मानते हैं।
कृष्ण को न
पूजते हों, महावीर को न
पूजते हों, तो लेनिन को
पूजते हैं।
अगर बाइबिल
की किताब दबाकर
न चलते हों, तो चेयरमैन
माओ की
लाल किताब को
दबाकर चलते
हैं। फर्क
क्या पड़ेगा?
महावीर हों
कि माओ, और मोहम्मद
हों कि माक्र्स,
क्या फर्क
पड़ता है?
नास्तिक
भी जिनको तुम
कहते हो, वे
भी आस्था ही
रखते हैं, झूठी।
वे भी आस्तिक
ही हैं।
विपरीत खड़े
होंगे, पीठ
किए होंगे, लेकिन उनकी
भी श्रद्धा
कहीं है। पर
वह श्रद्धा भी
बस थोथी
है। अनुभव के
अतिरिक्त
आधार कहीं और
है नहीं।
तो
बुद्ध ने कहा, अनुभव पर रखो
आधार।
तत्व-चर्चा मत
छेड़ो। जब
कि तत्व को
जानने का उपाय
है तो व्यर्थ
की बकवास
क्यों? जब
हम जान सकते
हैं, आंख
हमारे पास है,
आंख खुलते
ही सूरज के
दर्शन हो
जाएंगे, तो
आंख बंद किए
सूरज के संबंध
में चर्चा
क्यों? और
आंख बंद रहे
तो सूरज के
संबंध में लाख
चर्चा चले, सदा लगता ही
रहेगा--
झूठी
खबर किसी की उड़ायी हुई
सी है
आंख
खुले तो सूरज
सत्य है। फिर
सारी दुनिया
भी कहती हो कि
सूरज नहीं है, तो भी अंतर
नहीं पड़ता।
सत्य
अनुभव में आ
जाए तो
स्वयंसिद्ध
है। फिर सारी
दुनिया इनकार
कर दे, तो भी
कोई अंतर नहीं
पड़ता। फिर
तुम्हें कोई डगमगा
नहीं सकता। जो
अपने भीतर
स्वयं थिर हो
गया, उसे
कभी कोई नहीं डगमगा
पाया है। और
तुम अपने भीतर
थिर नहीं हो।
तुम्हारी
थिरता झूठी
है। सम्हाली
हुई है।
बुद्ध
ने अनुभव दिया, सिद्धांत
नहीं। बुद्ध
ने सत्य देना
चाहा, शास्त्र
नहीं। बुद्ध
ने निःशब्द
प्रतीति दी है,
सिद्धांतों
का जाल नहीं।
और उसका एक ही
मार्ग है कि
तुम्हारे मन
को तुम्हारे
सामने पूरा का
पूरा
विश्लिष्ट
करके रख दिया
जाए। अपने मन
को तुम पहचान
लो, अपनी
बीमारी को जान
लो, औषधि
है। ठीक निदान
हो जाए, ठीक
औषधि मिल जाए,
तुम वही हो
जाते हो जिसकी
सदियों से
चर्चा करते
रहे हो।
बुद्ध
दार्शनिक
नहीं हैं।
बुद्ध
वैज्ञानिक हैं।
दूसरा
प्रश्न:
बुद्ध
ने अपने
संन्यासियों
को आहार-विहार, चर्या और
आचरण के
सूक्ष्म एवं
सविस्तार
नियम दिए। जैसे
चार हाथ तक ही
आगे देखना, भिक्षु-भिक्षुणी
का आपस में
व्यवहार किस
ढंग का हो, क्या
खाना, क्या
पहनना, कहां
जाना, कहां
न जाना, आदि।
आप अपने
संन्यासियों
के लिए ऐसा
कुछ क्यों
निश्चित नहीं
करते?
बुद्ध
ने नियम दिए।
नियम देने पड़ते
हैं, क्योंकि
तुम्हारे पास
होश नहीं है।
अगर होश हो तो
नियम व्यर्थ
हो जाते हैं।
और बुद्ध ने
भी सारे
नियमों के
पीछे होश पर
ही आग्रह
किया।
आनंद
पूछता है, कोई स्त्री दिखायी पड़
जाए तो क्या
करें? तो
बुद्ध ने कहा,
नीचे
देखना। देखना
ही मत। और
आनंद पूछता है,
और अगर ऐसी
स्थिति आ जाए
कि देखना ही
पड़े, तो
क्या करना? तो बुद्ध ने
कहा, देखना,
मगर छूना
मत। और आनंद
ने कहा, अगर
ऐसी घड़ी आ
जाए कि छूना
ही पड़े, तो
क्या करें? तो बुद्ध ने
कहा, होश
रखना।
तो
आखिर में तो
होश ही है।
देखना मत, छूना मत, ऊपर-ऊपर
हैं। अंतिम घड़ी में तो
होश ही है।
आनंद ने ठीक
किया कि वह
पूछता ही गया।
बुद्ध का असली
अनुशासन क्या
है फिर? 'देखना
नहीं!' तब
तो अंधे देखते
नहीं, अंधे
परमज्ञान
को उपलब्ध हो
जाएंगे? 'छूना मत!' हाथ
कटवा डालो।
तो क्या लूले-लंगड़े परमज्ञान
को उपलब्ध हो
जाएंगे?
नहीं, अंतिम सूत्र
तो बुद्ध ने
होश का ही
दिया। और अगर
होश न हो और तुम
आंख भी झुका
लो तो क्या
फर्क पड़ेगा?
आंख बंद में
भी तो स्त्री दिखायी
पड़ती चली जाती
है। रात सपने
में दिखायी
पड़ती है, तब
क्या करोगे?
आंख तो बंद
ही है। अब
सपने में तो
कुछ उपाय नहीं
और आंख बंद
करने का। आंख
के भीतर ही चल
रही है। फिर
क्या करोगे?
आनंद की जगह
अगर मैं होता
तो मैं पूछता,
सपने की फिर?
सपने में
स्त्री दिख
जाए, फिर
क्या करना? और ऐसे यह भी
बड़ा सपना है।
बुद्ध समझते
हैं। सपने में
स्त्री दिख
जाए, फिर
क्या करना? फिर कैसे
आंख झुकाओगे?
आंख झुकी
ही हुई है।
आंख तो बंद ही
है, अब और
तो कोई बंद
करने का उपाय
नहीं।
लेकिन
बुद्ध की बात
साफ है। बुद्ध
ने जो बात कही, उससे सब कोटियों
के लिए कह दी।
जो अत्यंत जड़बुद्धि
हैं, उनसे
कहा, आंख
झुका लेना। यह
जड़बुद्धियों
के लिए हुआ।
जो इतने जड़बुद्धि
नहीं हैं, उनसे
कहा, देख
भी लेना, तो
छूना मत। तो
हैं ये भी जड़बुद्धि।
अंतिम सूत्र
असली सूत्र
है। क्योंकि
उसके पार फिर
कुछ नहीं। वह
आखिरी
अनुशासन है:
स्मरण रखना, होश रखना।
मैंने
दो सूत्र छोड़
दिए। क्योंकि
दो हजार, ढाई
हजार साल का
अनुभव कहता है,
उनसे कुछ फल
न हुआ। मैं
बुद्ध से ढाई
हजार साल बाद
हूं, तो
ढाई हजार साल
का कुछ अनुभव
भी साथ है।
ढाई हजार साल
में जो घटा वह
साफ है। क्या
हुआ? जो
ऊपर के नियम
थे, वे तो
टूट गए। और जो
ऊपर के नियमों
में उलझे,
वे व्यर्थ
ही परेशान हुए
और नष्ट हो
गए। जिन्होंने
आखिरी सूत्र पकड़ा, वही
बचे।
अब मैं
तुम्हें
उदाहरण दूं कि
कैसे घटना
घटती है।
एक
गांव में
बुद्ध ठहरे।
एक भिक्षु
भिक्षा का
पात्र लेकर
लौट रहा था वापस।
एक चील के
मुंह से मांस
का टुकड़ा
छूट गया। वह भिक्षापात्र
में गिर गया टुकड़ा
मांस का। अब
बड़ी कठिनाई
खड़ी हो गयी।
क्योंकि बुद्ध
कहते हैं कि
मांस खाना
नहीं। और
बुद्ध ने यह
भी कहा है कि भिक्षापात्र
में जो भी डाल
दिया जाए, उसे
अस्वीकार
नहीं करना। अब
क्या करना? बड़ी दुविधा
खड़ी हो गयी।
भिक्षु
आया। उसने
बुद्ध से पूछा, अब क्या
करें? दो
नियमों में
विरोध हो गया।
आप कहते हैं, जो भी भिक्षापात्र
में कोई डाल
दे उसे इनकार
नहीं करना।
यह
इसलिए कहना
पड़ा कि भिक्षु
बड़े कुशल हो
जाते हैं। जैन
मुनियों को देखो, वे
इशारा कर देते
हैं कि क्या डालो।
इशारा कर दिया
कि यह मत डालो।
मुंह से न बोलेंगे,
हाथ से
इशारा कर
देंगे।
क्योंकि
बोलने के लिए महावीर
ने मना किया
है, मांगना
मत! तो वे
इशारा कर देते
हैं कि यह डाल
दो, थोड़ा
और ज्यादा डाल
दो। मगर मुंह
से नहीं बोलते।
आखिर बेईमान
आदमी के लिए
नियम क्या
करेंगे? कितने
कानून हैं
दुनिया में।
लेकिन चोर
हमेशा कानून
में से रास्ता
निकाल लेता
है। आखिर वकील
किसलिए हैं? वे रास्ता
निकालने के
लिए हैं। वह
चोर को बताने
के लिए कि बनाने
दो नियम उनको।
हम बैठे हैं।
तुम घबड़ाते
क्यों हो? आदमी
के मन में
तर्क है, वह
वकील है। वह
रास्ता खोज
लेता है।
वह
भिक्षु आया।
उसने कहा कि
यह क्या मामला, अब क्या
करना? आपने
कहा भिक्षापात्र
में जो भी डाल
दिया जाए...।
यह
बुद्ध ने
इसलिए कहा कि
नहीं तो लोग मांगते
हैं। और बुद्ध
का भिक्षु
भिखारी हो जाए, भद्दा है।
भिक्षु
भिखारी नहीं
है। वह कोई
मांग नहीं रहा
है। दे दो तो
भला, न दो
तो भला। वह
आशीर्वाद ही
देगा। और अगर
वह मांगने लगे,
तो फिर बोझ
हो जाता है।
किसी गरीब के
घर के सामने
खड़ा हो जाए, और खीर
मांगने लगे, और गरीब न दे
सके तो पीड़ा
होती है। और
दे तो कठिनाई
हो जाती है।
रूखा-सूखा जो
गरीब दे दे,
वही ले
लेना। न दे, तो मन में
कुछ बुराई मत
लाना, विरोध
मत लाना।
इसलिए कहा था।
बुद्ध को पता
भी न था कि
जिंदगी ऐसी है
कि अब चील
कहीं मांस का टुकड़ा
गिरा दे।
अपवाद है। कोई
रोज चील मांस
का टुकड़ा गिराएगी
भी नहीं।
लेकिन
अब उस बौद्ध
भिक्षु ने
पूछा, अब
क्या करें? और आप कहते
हैं, मांस
खाना नहीं। अब
इन दोनों में
विरोध हो गया।
नियमों
में हमेशा
विरोध हो
जाएगा।
क्योंकि जिंदगी
जटिल है।
जिंदगी
तुम्हारे
नियम मानकर
थोड़े ही चलती
है। भिक्षु
मानता होगा
नियम, चील
थोड़े ही मानती
है। चील थोड़े
ही कोई बौद्ध भिक्षु
है कि बुद्ध
के वचन सुनती
है! चील अपनी मौज
में होगी, छोड़
गयी। और चील
को कोई पता भी
नहीं है कि
भिक्षु के
पात्र में गिर
जाएगा।
भिक्षु के
पात्र में
गिराया भी
नहीं है।
जीवन
में संयोग
होते हैं।
सिद्धांत नहीं
चलते, टूट
जाते हैं।
संयोग रोज बदल
जाते हैं।
सिद्धांत
अधूरे पड़ जाते
हैं।
सिद्धांत तो
ऐसे ही हैं
जैसे छोटे
बच्चे के लिए पैंट-कमीज
बनाया। वह
बच्चा बड़ा हो
गया, अब वह पैंट-कमीज
छोटा पड़ गया।
अब दो ही उपाय
हैं। या तो पैंट-कमीज
बड़ा करो, और
या फिर बच्चे
को दबा-दबा कर
छोटा रखो।
तो पैंट-कमीज
बड़ा करने में
कठिनाई मालूम
होती है। कौन
करे बड़ा? बुद्ध
तो जा चुके।
तो जो वह नियम
दे गए हैं उसको
रहने दो, चाहे
आदमी को ही
छोटा रहना पड़े
तो हर्जा
नहीं। लेकिन
नियम तो नहीं
बदला जा सकता।
कौन बदलेगा
नियम? और
एक बार बदलने
की सुविधा दो
तो फिर कहां रोकोगे?
बुद्ध
ने सोचा।
बुद्ध अक्सर
सोचते नहीं।
ऐसा उन्होंने
आंख बंद कर
ली। उन्होंने
बहुत सोचा कि
यह मामला तो
जटिल है। फिर
उन्होंने
सोचा, अगर
मैं कहूं कि
तुम चुनाव कर
सकते हो पात्र
में से, जो
योग्य न हो वह
छोड़ दिए, तो
वह जानते हैं
कि यह तो खतरा
हो जाएगा। तो
लोग जो नहीं
खाना-पीना है
वह फेंक देंगे
और जो
खाना-पीना है
वह खा-पी
लेंगे। और
चुनाव भिक्षु
को नहीं करना
चाहिए। जो मिल
गया भाग्य में,
वही ठीक है।
फिर अगर यह
कहूं कि जो
मिल जाए वह खा
लेना, तो
अब इस मांस के
टुकड़े का क्या
करना? फिर
बुद्ध को खयाल
आया कि चीलें
कोई रोज तो गिराएंगी
नहीं। अब शायद
कभी भी न
गिरे। हो गया
एक दफे, यह संयोग
था। इस एक
संयोग के लिए
नियम बनाना ठीक
नहीं। तो
बुद्ध ने कहा
कि कोई फिकर न
करो, जो
पात्र में गिर
जाए वह खा
लेना। अगर
मांस गिर गया
तो वह
तुम्हारे
भाग्य का
हिस्सा है।
बुद्ध
ने सोचा था, चीलें रोज
मांस न गिराएंगी।
लेकिन अब
बौद्ध भिक्षुओं
के पात्र में
रोज मांस
गिरता है।
जापान, चीन,
बर्मा--रोज।
अब श्रावक
गिराते हैं।
और चूंकि एक
दफा बुद्ध ने
आज्ञा दे दी
थी कि जो
पात्र में गिर
जाए वह खा
लेना, अब
श्रावक मांस
डालते हैं, मछली डालते
हैं, और
भिक्षु खाता
है। क्योंकि
नियम है।
इसलिए दुनिया
के बड़े से बड़े
अहिंसक
विचारक बुद्ध
की परंपरा में
मांसाहार
प्रचलित हो
गया। चील ने शुरू
करवा दिया।
अंततः
तो होश ही काम
आएगा। बाकी
कोई नियम काम न
आएंगे। इसलिए
मैंने सारी
विस्तार की
बातें छोड़ दी
हैं। क्योंकि मैं
जानता हूं, अगर तुम्हें
तोड़ना ही है
तो तुम तरकीब
निकाल लोगे।
तो तोड़ने का
भी तुमको
कष्ट क्यों
देना। और
तोड़ने से जो
अपराध का भाव
पैदा होता है,
वह क्यों
पैदा करना।
मैं
तुम्हें कोई
नियम ही नहीं
देता। ताकि
तुम तोड़ ही न सको। मैं
तुम्हें
सिर्फ होश
देता हूं। सम्हाल
सको तो
ठीक, न सम्हाल
सको तो भी
ठीक है। लेकिन
बेईमानी पैदा
न होगी, पाखंड
पैदा न होगा।
मुझे
रोकेगा
तू ऐ नाखुदा
क्या गर्क
होने से
कि
जिनको डूबना
है डूब जाते
हैं सफीनों
में
मांझी
से कह रहा है
कवि कि तू
मुझे बचा न
सकेगा डूबने
से। क्योंकि--
कि
जिनको डूबना है
डूब जाते हैं सफीनों
में
नाव
में ही डूब
जाते हैं। तू बचाएगा
कैसे? अगर
नदी में डूबने
का सवाल होता
तो तू बचा लेता।
लेकिन जिनको
डूबना ही है, वे नाव में
ही डूब जाते
हैं। फिर तू
क्या करेगा?
मुझे
रोकेगा
तू ऐ नाखुदा
क्या गर्क
होने से
कि
जिनको डूबना
है डूब जाते हैं
सफीनों
में
सारे
धर्म सफीनों
में डूब गए।
नाव में डूबे।
नियम बनाया, उसी में डूबे।
अब यह बहुत हो
चुका। मैं
तुम्हें नाव
ही नहीं देता।
अगर डूबना ही
हो तो नदी में
ही डूबना। नाव
में क्या
डूबना! कहने
को तो रहेगा
कि नदी में डूबे।
यह भी क्या
बात हुई कि
नाव में डूबे।
नाव तो बचाने
को होती है।
जो नाव में
डूबते हैं, उन्हीं को
हम पाखंडी
कहते हैं।
तो मैं
तुमसे
कहता हूं, कम से कम एक
बात साफ रखना।
या तो होश
सम्हालना, तो
तुम धार्मिक।
होश न सम्हाल
सको, तो
तुम
अधार्मिक।
मैं दोनों के
बीच में कोई
जगह नहीं छोड़
रहा हूं।
पाखंडी के लिए
जगह नहीं छोड़
रहा हूं
पाखंडी
कौन है? वह
आदमी पाखंडी
है, जो है
तो अधार्मिक,
लेकिन
धार्मिक
नियमों को पालकर
चलता है। रोज
मंदिर जाता
है। अधार्मिक
कैसे कहोगे?
यद्यपि
मंदिर में कभी
उसने
प्रार्थना
नहीं की।
क्योंकि जिसे
प्रार्थना
करनी आती हो
वह घर ही
मंदिर हो जाता
है उसका। उसे
मंदिर जाने की
कोई जरूरत नहीं
रह जाती। वह
नियम से भोजन
करता है। रात
भोजन नहीं
करता, दिन
भोजन करता है।
लेकिन इससे
उसकी हिंसा
नहीं जाती।
शायद हिंसा और
बढ़ जाती है।
मनोवैज्ञानिक
कहते हैं कि
मांसाहारी
व्यक्ति कम
क्रोधी होते
हैं। शिकारी
को तुम अक्सर
कम क्रोधी पाओगे।
क्योंकि उसकी
हिंसा निकल
जाती है। मार
लेता है जाकर
जंगल में सिंह
को। अब जिसने
सिंह को मार
लिया, वह
तुम्हें
मारने को
उत्सुक भी
नहीं होता। तुम्हें
मारना भी
क्या! अब कोई
बैठे हैं
दुकान पर ही
माला जप रहे
हैं, वह
कभी कहीं गए
नहीं, किसी
को मारा नहीं,
कोई झगड़ा-झांसा
लिया नहीं, वह तैयार
बैठे हैं। वह
चींटी पर भी
टूट पड़ें, सिंह
की तो बात दूर!
बहाना भर
चाहिए उनको।
उनकी हिंसा का
निकास नहीं हो
पाया।
नियम
देने का एक ही
परिणाम हुआ है
संसार में, और वह यह है
कि लोग नियम
को पूरा कर
लेते हैं और होश
को गंवा देते
हैं।
जीसस
के जीवन में
उल्लेख है, एक आदमी आया--निकोडेमस।
वह बहुत धनी
आदमी था। उसने
जीसस से
कहा कि मुझे
भी बताएं कि
मेरे जीवन में
क्रांति कैसे
हो और मैं
परमात्मा को
कैसे पाऊं।
तो जीसस
ने कहा कि जो
नियम मूसा ने
दिए हैं--दस
नियम, दस आज्ञाएं--उनका
पालन करो। तुम
पढ़े-लिखे हो, तुम्हें पता
है। उसने कहा
कि मैं उनका
अक्षरशः पालन
करता हूं, फिर
भी जीवन में
कोई क्रांति
नहीं हुई। न
मैं चोरी
करता। न मैं
किसी स्त्री
की तरफ बुरे
भाव से देखता।
दान देता हूं,
प्रार्थना
करता हूं, पूजा
करता हूं।
जैसा धार्मिक
जीवन होना चाहिए,
निभाता
हूं। लेकिन
कोई क्रांति
नहीं होती।
तो जीसस
ने कहा, ठीक
है। तब तुम एक
काम करो।
तुम्हारे पास
जो भी है, तुम
जाओ घर, उसे
बांट आओ
और मेरे पीछे चलो।
उस
आदमी ने कहा, यह जरा
मुश्किल है।
तुम्हारे
पीछे चलना, और सब बांट
कर? वह
आदमी उदास हो
गया। वह बड़ा
धनी था। उसने
कहा कि नहीं; कोई ऐसी बात बताओ जो
मैं कर सकूं।
जीसस
ने कहा, जो
तुम कर सकते
हो उससे तुम बदलोगे न।
क्योंकि वह तो
तुम कर ही रहे
हो। अब मैं तुमसे
वह कहता हूं, जो तुम कर
नहीं सकते।
अगर किया, तो
बदल जाओगे।
अगर नहीं किया,
तो तुम जैसे
हो वैसे हो।
जाओ सब बांट
दो। उसने कहा,
मेरे पास
बहुत धन है।
इतने कठोर मत
हों। और अभी
बहुत काम उलझे
हैं, मैं
एकदम आपके
पीछे आ नहीं
सकता। जीसस
ने अपने
शिष्यों की
तरफ देखा और
वह प्रसिद्ध वचन
कहा, जो
तुमने बहुत
बार सुना होगा,
कि सुई के
छेद से ऊंट
निकल जाए
लेकिन धनी
आदमी स्वर्ग
के राज्य में
प्रवेश न कर
सकेगा।
धनी
नियम तो पाल
लेता है, लेकिन
धार्मिक नहीं
हो पाता। धनी
को सुविधा है
नियम पालने
की। वह रोज
दिन में तीन दफे मंदिर
जा सकता है, या पांच दफे
नमाज पढ़
सकता है। गरीब
तो पांच दफे
नमाज भी नहीं पढ़ सकता।
फुर्सत कहां
है? समय
कहां? मंदिर
कैसे जाए? दफ्तर
जाए, फैक्ट्री जाए, खेत
पर जाए कि
मंदिर जाए।
रोज गीता नहीं
पढ़ सकता।
समय कहां? भजन
नहीं कर सकता,
क्योंकि
पेट में भूख
है। धनी तो
भजन कर सकता है,
पूजा कर
सकता है। खुद
न भी करने की
इच्छा हो तो नौकर
रख सकता है।
मजदूर रख सकता
है पूजा करने को।
नौकर-चाकर रखे
हैं लोगों ने,
उनको
पुजारी कहते
हैं। उनसे
कहते हैं, तुम
पूजा कर दो।
उनको तनख्वाह
मिलती है।
पूजा का फल
मालिक को
मिलता है।
नौकर रख ले
सकते हो।
कितनी
बेहूदगी की
बात है। प्रेम
और पूजा के लिए
भी नौकर! उसे
भी तुम दूसरे
से करवा लेते
हो पैसे के बल
पर। तो अगर
तुमने एक
पुजारी को सौ
रुपया महीना
दिया, और
उसने रोज आकर
तीन दफा भगवान
की पूजा की, तो अगर ठीक
से समझो
तो हिसाब ऐसा
है कि तुमने
भगवान को सौ
रुपए दिए। और
क्या दिया? तुम्हारे
पास थे, तुम
दे सकते थे।
और शायद यह सौ
रुपए देकर तुम
करोड़ों
पाने की
आकांक्षा कर
रहे हो। यह भी
शायद रिश्वत
है।
नियम
तो पूरे किए
जा सकते हैं।
नियम के पूरे
करने से कोई
धार्मिक नहीं
होता। पाखंडी
हो जाता है, हिपोक्रेट हो जाता है।
इसलिए
मैंने कोई
नियम तुम्हें
नहीं दिए। या
तो तुम
धार्मिक होओ, या
अधार्मिक।
बीच की मैंने
तुम्हें
सुविधा नहीं
दी है। इसलिए
मैं तुम्हें
वही आखिरी बात
कहता हूं जो बुद्ध
ने आनंद को
कही, होश
साधना। आंख
बंद करना, न
करना; क्या
फर्क पड़ता है।
मेरी दृष्टि
में ऐसा है कि
अगर तुमने होश
साधा--आंख
खुली रखो,
स्त्री को छुओ, धन कमाओ, मकान
में रहो, बाजार में बैठो, कोई
अंतर नहीं
पड़ता। होश न
सधा--आंख बंद
रखी, जंगल
में भाग गए, धन न छुआ, नंगे
खड़े हो गए, सब
त्याग दिया, तो भी कोई
फर्क नहीं
पड़ता। होश से
ही क्रांति होती
है।
इसलिए
होश अकेला
नियम है, एकमात्र
नियम। एस धम्मो सनंतनो।
यही एकमात्र
सनातन नियम
है। यही
एकमात्र सनातन
धर्म है कि
तुम जागकर
जीना, और
मैं तुमसे
कुछ भी नहीं
मांगता।
विस्तार की
बातों में तो
तुम बहुत बार
धोखा दे गए
हो। मैं
तुम्हें विस्तार
का मौका ही
नहीं देता। बस
एक छोटा सा
शब्द देता
हूं: अवेयरनेस,
होश। ताकि
तुम साफ रहो।
सधे तो
साफ रहो, न सधे तो
साफ रहो।
दोनों के बीच
में धोखा देने
की सुविधा
नहीं देता।
इसलिए
मैंने कोई
नियम नहीं
दिए। तुम यह
मत समझना कि
मैंने नियम
नहीं दिए।
नियम दिया है।
नियम नहीं दिए
हैं। और नियम
काफी है।
कहावत है, सौ सुनार की
एक लुहार की।
मेरा नियम
लुहार वाला
है। डिटेल्स
और विस्तार की
बातों में मैं
नहीं पड़ा हूं।
क्योंकि तुम
उनमें काफी
कुशल हो गए
हो।
मेरे
पास लोग आते
हैं, वे कहते
हैं, ध्यान
तो ठीक, लेकिन
कुछ और बताएं
कि हम क्या
करें, क्या
खाएं, क्या
पीएं, क्या
पहनें, कब सोएं,
कब जागें?
ये व्यर्थ
की बातें तुम्हीं
सोच लेना। तुम
सिर्फ ध्यान
करो। अगर
तुम्हारा मन
शांत और जागरूक
होता जाए, तो
तुम खुद ही पाओगे
कि और नियम
अपने आप उसके
पीछे आने लगे।
होशपूर्ण
व्यक्ति अपने
आप शराब न पीएगा।
क्योंकि शराब
तो होश के
विपरीत है। वह
तो होश को
नष्ट कर देगी।
उसे नियम देने
की जरूरत नहीं
कि शराब मत पीयो।
होशपूर्ण
व्यक्ति
अपने-आप
मांसाहार छोड़
देगा।
क्योंकि
जिसको जरा सा
भी होश आया
उसे इतना न दिखायी
पड़ेगा कि
दूसरे का जीवन
लेना सिर्फ
पेट भरने के
लिए! अगर इतना
भी न दिखायी
पड़े होश में
तो वह होश दो कौड़ी का
है। उसका क्या
मूल्य है? होशपूर्ण व्यक्ति
क्या चोरी
करेगा? किसी
की जेब काटेगा?
होशपूर्ण व्यक्ति को अणुव्रत
देने की जरूरत
नहीं है कि
चोरी मत करो, हिंसा मत
करो, बेईमानी
मत करो। ये
विस्तार की
बातें तो इसीलिए
देनी पड़ती हैं
कि होश नहीं
है, होश खो
गया है। और ये
सब तुम पूरी
कर सकते हो। इनमें
कुछ अड़चन नहीं
है। तुम दान
कर सकते हो, ईमानदारी कर
सकते हो, सेवा
कर सकते हो, बस एक चीज
में अड़चन आती
है--तुम होश
नहीं साध सकते।
और अगर
मैं तुम्हें
एक हजार एक
विस्तार की
बातें दे दूं, तो तुम कहोगे,
एक हजार एक
में से एक
हजार का तो हम
पालन कर रहे हैं,
अगर एक
ध्यान का नहीं
भी कर रहे, तो
क्या हर्जा है?
मैं
तुम्हें एक ही
देता हूं, ताकि
जीवन-स्थिति
साफ रहे।
पाखंड के पैदा
होने का उपाय
न हो। मैं
तुम्हें नियम
नहीं देता, ताकि तुम
नियम तोड़ न सको।
मैं तुम्हें
नियम नहीं
देता, ताकि
तुम नियम पालकर
धोखा न दे सको।
मैं तुम्हें
नियम नहीं
देता, सिर्फ
एक सूत्र देता
हूं। शास्त्र
नहीं देता, सिर्फ सूत्र
देता
हूं--होश।
महावीर
से किसी ने
पूछा है, साधु
कौन, असाधु
कौन? तो
महावीर ने वह
नहीं कहा जो
जैन-मुनि कह
रहे हैं--कि जो
दिन को भोजन
करे वह साधु, जो रात को
भोजन करे वह
असाधु; जो
पानी छानकर
पीए वह साधु, जो पानी छानकर
न पीए वह
असाधु। नहीं,
महावीर ने
विस्तार की
बातें न कहीं।
महावीर ने एक
लुहार की बात
कही। महावीर
ने कहा, असुत्ता मुनिः सुत्ता अमुनिः।
जो सोया-सोया
जी रहा है, वह
असाधु; जो
जागा-जागा जी
रहा है--असुत्ता--वह
साधु, वह
मुनि।
यही
मैं तुमसे
कहता हूं। यही
बुद्ध ने भी
कहा है। लेकिन
पच्चीस सौ
वर्ष का अनुभव
मेरे पास है
जो उनके पास
नहीं था। अगर
आज बुद्ध हों
तो वे यह नहीं कहेंगे कि
पहले देखना मत, छूना मत। आज
वे पहले ही कह
देंगे: आनंद, अब व्यर्थ
की बकवास में
न जा--तू इतने
प्रश्न पूछे,
फिर मैं
असली बात
कहूं--पहले ही
कहे देता हूं,
होश रखना।
तीसरा
प्रश्न:
बुद्ध
कहते हैं, अल्पतम पर, अत्यंत
जरूरी पर ही जीयो। आप
कहते हैं, कंजूसी
से, कुनकुने मत जीयो,
अतिरेक में जीयो। हम
दोनों के बीच
कैसा तालमेल बिठाएं?
तालमेल
बिठाने
को कहा किसने? बुद्ध ठीक लगें, बुद्ध
की बात मान
लो। मैं ठीक लगूं, मेरी
बात मान लो।
तालमेल बिठाने
को कहा किसने?
एलोपैथी,
होमियोपैथी में तालमेल
बिठालना भी
मत। तालमेल की
चिंता बड़ी
गहरी है
तुम्हारे मन
में, कि
किसी तरह
तालमेल बिठा
लें। तुम्हें
लेना-देना
क्या है
तालमेल से? जो दवा
तुम्हारे काम
पड़ जाए, उसे
स्वीकार कर
लेना।
तुम्हें कोई
सारी दुनिया
की पैथीज
में तालमेल
थोड़े ही
बिठालना है।
बुद्ध
ने कहा है, जीयो न्यूनतम पर,
यह एक छोर।
क्योंकि छोर
से ही छलांग
लगती है। किसी
चीज के मध्य
से न कूद सकोगे,
छोर पर आना पड़ेगा।
अगर इस छत से
कूदना है, तो
कहीं भी छोर
पर आना पड़ेगा,
वहां से
छलांग लगेगी।
हर चीज के दो
छोर हैं।
बुद्ध
ने कहा, अल्पतम,
न्यूनतम, कम से कम पर आ
जाओ, वहां
से छलांग लग
जाएगी। मैं
कहता हूं, अतिरेक।
अंतिम पर आ
जाओ, वहां
से छलांग लग
जाएगी। बुद्ध
कहते हैं, दीन,
दरिद्र, भिक्षु
हो जाओ। मैं
कहता हूं, सम्राट
बन जाओ। मगर
दोनों छोर
हैं। बुद्ध
कहते हैं, इधर
हट आओ।
मैं कहता हूं,
उधर बढ़ जाओ।
तालमेल
मत बिठालना।
नहीं तो तुम
बीच में खड़े हो
जाओगे।
तुम कहोगे, अब यह भी
कहते हैं कि
बिलकुल छोड़
दो। मैं कहता हूं,
कुछ छोड़ने
की जरूरत
नहीं। तुम कहोगे,
आधा पकड़ो,
आधा छोड़ो।
इधर बीच में
खड़े हो जाओ।
यह समन्वय, यह तालमेल
तुम्हें मार डालेगा।
कोई जरूरत
नहीं है
तालमेल बिठालने
की। बुद्ध
परिपूर्ण
हैं। मेरी बात
जोड़ने से
कुछ फायदा न
होगा, नुकसान
होगा।
प्रत्येक
व्यवस्था
पूरी है।
बुद्ध ने जो
दिया है, वह
पूरी
व्यवस्था है।
उसमें
रत्तीभर कमी
नहीं है। वह
यंत्र अपने आप
में परिपूर्ण
है। मेरी
बातों को
उसमें मत जोड़
देना। मैं
तुम्हें जो दे
रहा हूं, वह
परिपूर्ण है।
उसमें बुद्ध
को कुछ जोड़ने
की जरूरत नहीं
है।
दुनिया
के सारे धर्म
अपने आप में
पूरी इकाई हैं।
और झंझट तब
खड़ी होती है, जब तुम्हें
कोई समझाने
वाला मिल जाता
है और कहने
लगता है, अल्लाह
ईश्वर तेरे
नाम, सबको सनमति दे
भगवान। तब
तालमेल शुरू
हुआ। उपद्रव
शुरू हुआ।
अल्लाह
पर्याप्त है।
उसमें राम को जोड़ने की
कोई भी जरूरत
नहीं। राम
पर्याप्त
हैं। उसमें
अल्लाह को जोड़ने
की कोई जरूरत
नहीं।
और
महात्मा
गांधी भी जोड़
न पाए, कहते
रहे। जुड़
सकता नहीं।
मरते वक्त जब
गोली लगी, तो
अल्लाह न
निकला, राम
निकला। उस
वक्त दोनों
निकल जाते, अल्लाहराम! वह नहीं
हुआ। वे जुड़ते
नहीं। वे इकाइयां
अलग-अलग हैं।
मरते वक्त जब
गोली लगी, तब
वह भूल गए, अल्लाह
ईश्वर तेरे
नाम। तब राम
ही निकला। वही
निकट था।
अल्लाह तो
राजनीति थी।
राम हृदय था। अल्लाह
तो जिन्ना
को समझाने
को कहे जाते
थे। भीतर तो
राम की ही
गूंज थी। और जिन्ना को
यह चालबाजी दिखायी
पड़ती थी, इसलिए
उसको कुछ असर
न पड़ा।
मेरे
पास तुम
तालमेल बिठालने
की बात ही छोड़
दो। मैं कोई समन्वयवादी
नहीं हूं। मैं
कोई सारे
धर्मों की खिचड़ी
नहीं बनाना
चाहता हूं।
प्रत्येक
धर्म का भोजन
अपने आप में
परिपूर्ण है।
वह तुम्हें
पूरी तृप्ति
देगा। जब मैं
बुद्ध पर बोल
रहा हूं, या
जब मैं ईसा पर
बोलता हूं, या महावीर
पर बोलता हूं,
तो मेरा
प्रयोजन यह
नहीं कि तुम
इन सबको जोड़ लो।
इन पर मैं
अलग-अलग बोल
रहा हूं
इसीलिए, ताकि
हो सकता है
किसी को बुद्ध
की बात ठीक पड़
जाए, किसी
को महावीर की
ठीक पड़ जाए, किसी को
कृष्ण की ठीक
पड़ जाए। जिसको
जहां से ठीक
पड़ जाए।
रास्ते थोड़े
ही गिनने हैं।
गुठलियों
का थोड़े ही
हिसाब रखना
है। आम खाने
हैं। तो तुम
तालमेल बिठाओगे
किसलिए?
तुम्हें
बुद्ध की बात
जमती है, फिक्र
छोड़ो
मेरी। कुछ
लेना-देना
नहीं मुझसे
फिर। फिर तुम
उसी मार्ग पर
चले जाओ। वहीं
से तुम्हें
परमात्मा मिल
जाएगा। वह
रास्ता
परिपूर्ण है।
उसमें
रत्तीभर जोड़ना
नहीं है।
अगर
तुम्हें
बुद्ध की बात
नहीं जमती, मेरी बात
जमती है, तो
भूल जाओ सब बुद्धों
को। क्योंकि
उनकी
याददाश्त भी
बाधा बनेगी।
और मन
का एक बड़े से
बड़ा उपद्रव
यही है कि वह
कभी किसी एक
दिशा के प्रति
पूरा समर्पित
नहीं होता। एक
कदम बाएं जाते
हो, एक कदम
दाएं जाते हो,
कभी आगे
जाते, कभी
पीछे जाते।
जिंदगी के
आखिर में पाओगे,
वहीं
खड़े-खड़े
घिसटते रहे हो
जहां पैदा हुए
थे।
गति
ऐसे नहीं होती।
गति तो एक
दिशा में होती
है। चुन
लिया पश्चिम, तो पश्चिम
सही। फिर भूल
जाओ बाकी तीन दिशाएं
हैं भी। माना
कि हैं। और
कुछ लोग उन
दिशाओं में भी
चल रहे हैं, वह भी माना।
लेकिन वे दिशाएं
तुमने छोड़ दीं।
तुम अब पश्चिम
जा रहे हो, तो
तुम पश्चिम ही
जाओ। ऐसा न हो
कि एक हाथ
पूरब जा रहा
है, एक
पश्चिम जा रहा
है। एक टांग
दक्षिण जा रही
है।
तालमेल
तो न बैठेगा, उस तालमेल
की चेष्टा में
तुम बुरी तरह
खंडित हो जाओगे।
और यही गति
मनुष्य की हो
गयी है। आज से
पहले, जब
दुनिया इतनी
एक-दूसरे के
करीब न थी, और
जमीन एक छोटा
सा गांव नहीं
हो गयी थी, और
जब एक धर्म से
दूसरा धर्म
परिचित नहीं
था, तब
बहुत लोगों ने
परमज्ञान
को पाया।
जैसे-जैसे
जमीन सिकुड़ी
और छोटी हुई, और एक-दूसरे
के धर्म से
लोग परिचित
हुए, वैसे
ही धार्मिकता
कम हो गयी।
उसका कारण यह
है कि सभी के
मन में सभी दिशाएं
समा गयीं।
कुरान भी पढ़ते
हो तुम, गीता
भी पढ़ते हो। न
तो गीता में
डूब पाते, न
कुरान में डूब
पाते। जब
कुरान पढ़ते हो
तब गीता की
याद आती है, जब गीता
पढ़ते हो तब
कुरान की याद
आती है। और तालमेल
बिठालने
में लगे रहते
हो।
नहीं, दुनिया का
प्रत्येक
धर्म अपने आप
में समग्र है।
न उसमें कुछ
घटाना है, न
उसमें कुछ जोड़ना
है। वह पूरी
व्यवस्था है।
तुम्हें जंच
जाए, उसमें
उतर जाना है।
और बाकी सबको
भूल जाना है।
यही तो अर्थ
है गुरु चुनने
का कि तुमने
देख लिया, पहचान
लिया; खोजा,
सोचा, चिंतन
किया, मनन
किया, पाया
कि किसी से
मेरा तालमेल
बैठता है।
दो व्यवस्थाओं
में तालमेल
नहीं बिठालना
है। तुममें
और किसी
व्यवस्था में
तालमेल बैठ
जाए इसकी समझ
पैदा करनी है
कि हां, इस
आदमी से मन
भाता है, रस
लगता है। और
हर आदमी को
अलग-अलग रस लगेगा।
अब मीरा
को तुम बुद्ध
में लगाना
चाहो तो न लगा सकोगे। और
अगर तुम सफल
हो जाओ, तो मीरा का दुर्भाग्य
होगा; वह
भटक जाएगी।
उसे तो कृष्ण
से ही लग सकता
था। नाच उसके रोएं-रोएं
में समाया
था। बुद्ध उस
नाच को मुक्त
नहीं कर सकते
थे। बुद्ध की
व्यवस्था में
नाच की सुविधा
नहीं है। वह
उनके लिए है, जो नाच
छोड़ने में रस
रखते हैं। वह
उनके लिए है, जो गति
छोड़ने में रस
रखते हैं। मीरा
को न जमती
बात। बुद्ध की
कोई बांसुरी
ही नहीं है।
बुद्ध के पास
नाचने में बात
बे-मौजूं होती।
बुद्ध
की मूर्ति के
पास नाचोगे
तो तुम्हें भी
अजीब सा लगेगा, असंगत लगेगा।
यह मूर्ति
नाचने के लिए
नहीं है। इस
मूर्ति के पास
तो चुप होकर
बैठ जाना है।
इसके पास तो
पत्थर हो जाना
है। इसके पास
तो ऐसे अकंप
हो जाना है कि
पता ही न चले
कि तुम आदमी
हो कि संगमरमर
हो। तो ही तुम
बुद्ध के
रास्ते पर जा सकोगे।
अगर
नाचने की थोड़ी
भी भावदशा
हो तो कृष्ण
को देखना। फिर
वहां
मोर-मुकुट वाले
कृष्ण से कुछ
बात बन सकती
है। वह आदमी इसीलिए
है। उनकी
बांसुरी फिर
तुम्हारे
भीतर छिपे नाच
को मुक्त कर
देगी। और
मुक्ति का कोई
अर्थ नहीं
होता। मुक्ति
का यही अर्थ
होता है, तुम्हारे
भीतर जो छिपा
है वह प्रकट
हो जाए, खिल
जाए। अगर तुम
एक कमल अपने
भीतर छिपाए
हो, तो वह
खिल जाए
हजार-हजार पखुड़ियों
में, उसकी
सुगंध लुट
जाए हवाओं
में। अगर तुम
नाच छिपाए
हो तो नाच
प्रकट हो जाए।
अगर कोई गीत अनगाया
पड़ा है तो गा
दिया जाए। अगर
कोई मौन सधने
को बैठा है, तो सध
जाए।
तुम्हारी जो
नियति है वह
पूरी-पूरी
उपलब्ध हो
जाए।
हर
आदमी की
अलग-अलग नियति
है। हर आदमी
का अलग-अलग
ढंग है। हर
आदमी अनूठा है, बेजोड़ है। इसलिए
तुम्हें अपना
तालमेल किससे
बैठ सकता
है--किस गुरु
से, किस शास्ता
से, किसका अनुशासन
तुम्हें
मौजूं आता है।
और अगर तुम इसमें
जरा भी
भूल-चूक किए
तो बड़ी उलझन
में पड़ जाओगे।
तुम एक खिचड़ी
बन जाओगे।
तुम्हारे
भीतर बहुत सी चीजें
होंगी, लेकिन
सब खंड-खंड
होंगी। और
तुम्हारे
भीतर एक प्रतिमा
निर्मित न हो
पाएगी।
तुम
थोड़ा सोचो, बुद्ध की
गर्दन हो, कृष्ण
के पैर हों, महावीर का
हृदय हो, जीसस के
हाथ हों, मोहम्मद की वाणी हो, सब गड़बड़ हो
जाएगा, तुम
पागल हो जाओगे।
एकदम पागल हो जाओगे।
तुम मुक्त तो
न हो पाओगे,
विक्षिप्त
हो जाओगे।
इसलिए
दुनिया के
सारे धर्मों
ने एक बात पर
जोर दिया है
कि अगर यह बात
ठीक लगती है, तो बस पूरा
समर्पण
चाहिए। ठीक
नहीं लगती है,
कहीं और खोज
लो। असली सवाल
पूरा समर्पण
है। जहां भी
जाओ, पूरा
समर्पण कर दो।
मेरे
पास लोग आते
हैं, वे कहते हैं,
हम तो सभी गुरुओं के
पास जाते हैं।
सभी गुरु समान
हैं। बड़ी ज्ञान
की बातें कर
रहे हैं वे, कि जो आप
कहते हैं वही
तो वे भी कहते
हैं। न वे मुझे
समझते हैं, न वे किसी और
को समझते हैं
कुछ।
उन्होंने अभी समझा
ही नहीं। यह
तो अंतिम बात
है।
मंजिल
पर सभी गुरु
एक हैं, मार्गों
पर एक नहीं
हैं। और जिसको
चलना है, उसको
मंजिल का सवाल
नहीं है, मार्ग
का सवाल है।
अंत में
पहुंचकर एक
हैं। कृष्ण की
बांसुरी का
गीत भी वहीं
पहुंचा देगा,
जहां बुद्ध
का मौन पहुंचाता
है। लेकिन यह
मंजिल की बात
है। तुम वहां
नहीं हो। भूलकर
वहां अपने को
समझ मत लेना।
जहां नहीं हो,
वहां समझने
से कुछ लाभ
नहीं। जहां हो,
तुम जहां
खड़े हो, वहां
से रास्ता
चाहिए, मंजिल
नहीं। वहां तो
अल्लाह अलग है,
राम अलग है।
हां, मंजिल पर जो
पहुंच गए हैं
वहां सब एक
है। लेकिन
वहां कोई भजन
थोड़े ही कर
रहा है, अल्लाह
ईश्वर तेरे
नाम। मंजिल पर
तो सब खो गया।
वहां अल्लाह
भी खो गए हैं, राम भी खो
गए। जब अल्लाह
ही मिल गया, राम ही मिल
गया, तो
फिर न राम बचे
न अल्लाह बचे।
वहां तो सब
शास्त्र खो
जाते हैं।
लेकिन वह
उपलब्धि की
बात है।
तालमेल
तुम बिठालना
मत। मेरी तो
दृष्टि यही है
कि तुम भरपूर जीओ। तुम ऐसे
जीओ जैसे
बाढ़ आयी
नदी होती है।
तुम जीवन को
उसकी त्वरा
में जीओ।
तुम ऐसे जीओ
जैसे किसी ने
मशाल को दोनों
तरफ से जलाया
हो। तुम जीने
में कंजूसी मत
करो।
मैं तुमसे
त्याग को नहीं
कहता। मैं तुमसे
कहता हूं, तुम भोग में
इतने गहरे उतरो
कि भोग का
अनुभव ही
त्याग बन जाए।
तेन त्यक्तेन
भुंजीथाः।
तुम ऐसा भोगो
कि तुम जान लो
कि भोग व्यर्थ
है। और भोग
छोड़ना न पड़े।
तुम्हारा
ज्ञान ही भोग
का छूटना हो
जाए। तुम जीवन
से भागो
मत, भगोड़े मत बनो।
तुम जीवन में
जमकर खड़े हो
जाओ, ताकि
जीवन से आंखें
मिल जाएं और
तुम जीवन को पूरी
तरह देख ही लो
कि यह सपना
है। फिर सपने
को छोड़ना थोड़े
ही पड़ता है, सपना तो छूट
ही गया। जो
व्यर्थ है, दिखायी पड़ते ही
कि व्यर्थ है,
गया। छोड़ने
का अगर फिर भी
सवाल रहे, तो
समझना अभी
व्यर्थता दिखायी
नहीं पड़ी। अभी
थोड़ी
सार्थकता दिखायी
पड़ती है।
इसलिए छोड़ने
का सवाल है।
सार्थक को छोड़ना
पड़ता है।
व्यर्थ छूट
जाता है।
तो मैं
तुमसे
कहता हूं, जीवन को
उसकी
परिपूर्णता
में जानो। तुम
बहुत बार अनेक
लोगों के
प्रभाव में आ
गए हो, और
कच्चे ही जीवन
को छोड़कर
भाग गए हो। यह
कोई पहला मौका
नहीं है।
क्योंकि जमीन
पर तुम नए
नहीं हो। बड़े
प्राचीन हो।
बहुत बार बहुत
बुद्धों
के प्रभाव में
तुम आ गए हो।
जो बुद्ध को
घटा था वह तो
परिपूर्ण
जीवन से घटा
था। यह थोड़ा समझो।
बुद्ध
तो सम्राट थे।
सुंदरतम
स्त्रियां
उनके पास थीं।
और अगर उतनी
सुंदर स्त्रियों
के बीच उन्हें
दिखायी
पड़ गया कि
सौंदर्य सब
सपना है, तो
कुछ आश्चर्य
नहीं। अब एक
भिखारी है, जिसने
स्त्रियों को
केवल दूर से
देखा है। जिसे
कोई स्त्री
उपलब्ध नहीं
हुई। या
उपलब्ध भी हुई
हो तो एक
साधारण सी
स्त्री
उपलब्ध हुई है,
जिसमें
स्त्री होना
नाममात्र को
है, जिससे
उसके सपने
नहीं भरे; न
हृदय भरा, न
प्राण तृप्त
हुए, न भोग
गहरा गया।
आकांक्षा
घूमती रही, भटकती रही
सब तरफ।
हजार-हजार
चेहरे
आकांक्षा में
उभरते रहे, सपनों में
जगते रहे।
अब यह
बुद्ध की
बातें सुन ले
यह आदमी। तो
बुद्ध
प्रभावी हैं, इसमें कोई
शक-शुबहा नहीं
है। उस ज्ञान
की अवस्था में
आदमी में एक
जादू हो जाता
है। वह जिसकी तरफ
देख ले, वही
खिंचा चला आता
है। वह जिसको
छू दे, उसी
के भीतर एक
नया आयाम खुल
जाता है।
तुमने
बुद्ध को सुन
लिया, और
बुद्ध ने कहा
कि सब व्यर्थ
है। बुद्ध यह जानकर कह
रहे हैं, धन
उन्होंने
जाना है कि
व्यर्थ है।
तुमने केवल धन
की कामना की
है, जाना-वाना
नहीं कि
व्यर्थ है।
जानने के लिए
तो होना पहले
चाहिए। वह है
ही नहीं
तुम्हारे
पास। भिक्षापात्र
लिए खड़े हो।
सम्राट थे
बुद्ध। वे छोड़कर
रास्ते पर आ
गए। तुम
रास्ते पर ही
थे, और
तुमने बुद्ध
की वाणी सुन
ली, और तुम
प्रभावित हो
गए, तुम
मुश्किल में पड़ोगे।
क्योंकि
तुम्हारा
त्याग बुद्ध
का त्याग नहीं
हो सकता।
तुम्हारे
त्याग में भोग
छिपा ही
रहेगा। तब
क्या होगा? तब यह होगा
कि तुम त्याग
भी करोगे
और सोचोगे,
त्याग के
बाद स्वर्ग
मिलने वाला
है। स्वर्ग में
भोगेंगे अप्सराएं,
महल।
तुम्हारे
ऋषि-मुनि यही
कर रहे हैं।
इंद्र अगर उनसे
डर जाता है तो
अकारण नहीं।
क्योंकि वे
मुक्त होने की
इच्छा नहीं रखे
हुए हैं, वे
इंद्र के
सिंहासन पर
बैठने की
इच्छा लिए बैठे
हैं। इंद्र का
सिंहासन
डोलने लगता है
पुराणों में,
वह तो
प्रतीक है। वह
यह बता रहा है
कि ऋषि-मुनि वस्तुतः
ऋषि-मुनि नहीं
हैं। वे भी
आकांक्षा कर
रहे हैं स्वर्ग
में सिंहासन
की। और जहां
आकांक्षा है,
वहां
प्रतिस्पर्धा
है। और जो
पहले से
सिंहासन पर
बैठा है वह
जरूर घबड़ाएगा।
अब तुम अगर
राष्ट्रपति
होना चाहो तो
राष्ट्रपति घबड़ाएगा, कि ये आने
लगे सज्जन, डरो!
अब तुम अगर अप्सराओं
की कामना करने
लगे कि उर्वशी
को भोगना है, तो इंद्र घबड़ाएगा।
उसकी उर्वशी
छीनने की
चिंता में तुम
लगे हो। वह
तुम्हें डंवाएगा,
डिगाएगा,
आएगा।
पुराण
की कथाएं
अर्थपूर्ण
हैं। वे इतना
ही कह रही हैं
कि ऋषि अभी
ऋषि नहीं।
अन्यथा इंद्र
को क्या
प्रतिस्पर्धा
उससे होती? यह मुक्त
होना ही नहीं
चाहता था। यह
तो त्याग का
सौदा कर रहा
है। यह जो
संसार में
नहीं पा सका, संसार छोड़कर
पाने की कोशिश
कर रहा है। पर
इसकी
आकांक्षा तो
वही की वही
है।
वासना
बिना पके नहीं
मरती। और जब पककर मरती
है तभी मरती
है। फिर पीछे
दाग भी नहीं
छोड़ जाती। तब
तुम ऐसे
निर्दोष
निकलते हो, ऐसे ताजे, जैसे सुबह-सुबह
अभी-अभी खिला
हुआ फूल हो।
तो मैं
तुमसे
कहता हूं, भागना मत।
जीवन को जानना
है, जीना
है। मैं कोई चार्वाकवादी
नहीं हूं। मैं
यह नहीं कह
रहा हूं कि
जीवन के पार
कुछ भी नहीं
है। मैं कह
रहा हूं, जीवन
के पार कुछ है,
लेकिन जीवन
तो पार करो
पहले। जीवन के
पार जो है वह
तभी दिखायी
पड़ेगा जब
जीवन से पार
हो जाओगे।
आधे से भाग गए,
सीमा तक न
पहुंचे और भाग
गए, तो तुम
जीवन में ही
भटकते रहोगे।
सीमा के पार
ही अतिक्रमण
संभव है
तो
मेरी दृष्टि
भोग के माध्यम
से त्याग तक
जाने की है।
और दूसरा कोई
माध्यम इतना
कारगर नहीं
है। इसलिए बुद्ध
तो होते हैं, लेकिन कितने
लोग उनके पीछे
बुद्धत्व को
उपलब्ध हो
पाते हैं? ना
के बराबर।
क्योंकि दिशाएं
बड़ी
भिन्न-भिन्न
हैं। बुद्ध तो
महल छोड़कर
भिखारी होते
हैं। और दूसरा
आदमी भिखारी
ही था और
बुद्ध के पीछे
हो लेता है।
उन दोनों के
अनुभव अलग
हैं। बुद्ध के
त्याग में तो
भोग का अनुभव
छिपा है।
भिखारी के त्याग
में कुछ भी
नहीं, भिक्षापात्र छोड़ रहा है।
उसके पास कुछ
त्याग को था
भी नहीं। उसका
त्याग धोखा
है।
तो मैं
तुमसे
अतिरेक में जीने को
कहता हूं।
जीवन है जब तक
उसे पूरा-पूरा
जी लो। जीते
ही तुम उससे
मुक्त हो जाओगे।
तर्के-मय
ही इसे समझना
शेख
इतनी
पी है कि पी
नहीं जाती
तर्के-मय
ही इसे समझना
शेख
ऐ
धर्मगुरु, इसको तू
शराब का त्याग
ही समझ।
इतनी
पी है कि पी
नहीं जाती
अब
इतनी पी ली है
कि अब पीने का
कोई उपाय न
रहा। जीवन को
इतना पी डालो
कि पीने का
फिर कोई उपाय
ही न रह जाए।
पीकर ही तुम
मुक्त होओ।
लेकिन अगर
तुम्हें
बुद्ध की बात
ठीक जमती हो, तो मजे से उस
मार्ग पर चले
जाओ। लेकिन
ध्यान रखना
अपना, कि
क्या
तुम्हारे पास
बुद्ध जैसा
जीवन का अनुभव
है? भोग का
ऐसा गहन अनुभव
है?
तुम्हें
पता है बुद्ध
के जीवन की
कहानी?
ज्योतिषियों
ने कहा कि यह छोड़कर
संन्यासी हो
जाएगा। तो बाप
चिंतित हुआ। शुद्धोदन
ने बड़े-बड़े ज्ञानियों
से सलाह ली कि
क्या करें?
निश्चित
ही वे ज्ञानी भगोड़े
होंगे।
शास्त्रों
में यह कहा
नहीं है, यह
मेरी दृष्टि
है। वे ज्ञानी
भगोड़े
होंगे, क्योंकि
अक्सर ज्ञानी भगोड़े
होते हैं।
त्यागी
महात्माओं को बुला लिया
होगा। उनसे
पूछा। वे कोई
सम्राट न थे, जिन्होंने संसार जानकर
छोड़ा था।
उन्होंने
जीवन को बेबसी
में छोड़ा
होगा, असहाय
अवस्था में छोड़ा
होगा। पा नहीं
सके इसलिए छोड़ा
होगा। अंगूर
खट्टे थे, पहुंच
नहीं सके, इसलिए।
पहुंच जाते तो
उन्होंने भी
बड़ी चेष्टा की
थी!
उन्होंने
सलाह दी कि आप
ऐसा करो, सब
भोगों का
इंतजाम कर दो।
भोग में डूब
जाएगा, संन्यासी
अपने आप न
होगा।
इससे
मैं कहता हूं
कि वे त्यागी
रहे होंगे। अगर
बुद्ध के बाप
ने मुझसे पूछा
होता तो मैं
कहता कि भोग
से इसको दूर रखो।
स्त्रियों को
पास मत आने
दो। हां, फिल्म
दिखानी
हो दिखा
दो। पर्दे
पर दिखायी
पड़े, छू न
सके स्त्री
को। क्योंकि पर्दे से
सपना नहीं
मिटता, बनता है। स्त्री
को पास मत आने
देना। इसको
सुख-सुविधा
में मत डालो।
गिट्टियां
तुड़वाओ, सड़क पिटवाओ,
मेहनत-मजदूरी
करवाओ, इसको महल
में मत टिकने
दो। इसकी महल
की आकांक्षा
कभी न मरेगी।
क्योंकि
जिसको जाना
नहीं, उसकी
आकांक्षा
होती है, मरती
नहीं। यह कभी
संन्यासी न
होगा।
लेकिन
त्यागी
महात्माओं ने
कहा...उन्होंने
बेचारों ने
अपने अनुभव से
कहा। जो
उन्हें नहीं मिला
था, उन्होंने
सोचा, अगर
हमको
मिलता--सुंदर
स्त्रियां मिलतीं, महल मिलते--तो
हम संन्यासी
होते? उनका
तर्क साफ है।
संन्यासी वे
इसलिए हुए कि
न सुंदर
स्त्रियां मिलीं, न
महल मिले। वही
इसके लिए भी
जमा दो, यह
भटक जाएगा उसी
में। यह अपना
अनुभव वे बता
रहे हैं, कि
हम भी भटक
जाएं अगर
इंतजाम अभी
कोई कर दे। भीतर
तो वही चाह
रही होगी।
मुझे पता नहीं
कौन लोग थे वे?
उनके नाम का
भी कोई उल्लेख
नहीं, लेकिन
बात जाहिर है
कि वे आदमी
बीच से भाग गए
होंगे, जीवन
का अनुभव न
रहा होगा।
बुद्ध
के बाप ने
उनकी मान ली, लड़का खोया।
बना दिए महल
चार। हर मौसम
के लिए अलग।
जितनी राज्य
में सुंदर युवतियां
थीं, सब
इकट्ठी कर दीं।
बुद्ध लड़कियों
के बीच ही बड़े
हुए। लेकिन ऊब
गए। सुंदरतम
स्त्रियां
उनके पास थीं।
उन्होंने
सारे सपने तोड़
दिए।
सुंदरतम
स्त्री भी
तुम्हारे पास
हो, दो दिन से
ज्यादा थोड़े
ही सुंदर
मालूम पड़ती है।
दो दिन के बाद
सब स्त्रियां
साधारण हो
जाती हैं।
स्त्री का
सौंदर्य बच
सकता है, अगर
तुम्हें दूर
रखा जाए। वह
कामना में है,
अनुभव में
नहीं। कितनी
ही सुंदर
स्त्री हो, क्या करोगे!
दो दिन के बाद
साधारण हो
जाती है। कोई
पति अपनी
पत्नी को
देखता है? कितनी
ही सुंदर हो, और कभी-कभी
हैरान भी होता
है कि दूसरे
क्यों रास्ते
पर रुक-रुककर
मेरी स्त्री
को देखने लगते
हैं। क्योंकि
उसे तो कुछ
नहीं दिखायी
पड़ता। दूसरों
को दिखायी
पड़ता है।
दूसरे की
पत्नी सदा ही
सुंदर मालूम पड़ती
है। और
कभी-कभी ऐसा
हो जाता है कि
तुम्हारी
सुंदर पत्नी
तुम्हें
सुंदर नहीं
मालूम पड़ती, घर की
नौकरानी
साधारण
तुम्हें
सुंदर मालूम पड़ने लगती
है। क्योंकि
उसमें फासला
है।
दूर रखो, चीजें सुंदर रहती
हैं। दूर के
ढोल सुहावने!
पास आते ही
सपने टूट जाते
हैं। यथार्थ
खुल जाता है।
बुद्ध उन सारी
सुंदर
स्त्रियों को
देखकर ऊब गए।
परेशान हो गए।
भागने का
मन होने लगा।
एक रात उठे, तो देखा
सारी सुंदर
स्त्रियां
उनके आसपास
पड़ी हैं। किसी
के मुंह से
लार बह रही है,
किसी की आंख
में कीचड़ जमा
है, किसी
का मुंह खुला
है और घर्राटा
निकल रहा है, वे एकदम भागे
वहां से।
उन्होंने कहा
कि इनके पीछे
मैं दीवाना
हुआ हूं!
कोई भी
ऋषि-मुनि हो
जाए ऐसी
अवस्था में!
धन था, स्त्रियां
थीं, वैभव
था, ऊब गए। दिखायी पड़
गया, इसमें
कुछ भी नहीं
है। एक बात
साफ हो गयी कि
रोज मौत करीब
आ रही है। और
यह सब व्यर्थ
है। सत्य को
खोजना जरूरी
है। अमृत को
खोजना जरूरी
है।
तो
बुद्ध तो इस
कारण
संन्यासी
हुए। वे तो
मेरे ही
संन्यासी
हैं। लेकिन
बुद्ध से प्रभावित
होकर जो
संन्यासी हुए, वे मेरे
संन्यासी
नहीं हैं।
उन्होंने
बुद्ध की रौनक
देखी, चमक
देखी, प्रतिभा
देखी, बुद्ध
की शांति देखी;र् ईष्या जगी,
लोभ जगा, मन में उनके
भी हुआ--ऐसे ही
शांत हम भी हो
जाएं। लेकिन
उन्हें पता
नहीं, इस
शांति के पीछे
बड़ा गहरा
अनुभव है भोग
का। एक बड़ा
रेगिस्तान
पार कर के आए
हैं वे। एक
बड़ा अनुभव का
विस्तार है
पीछे। और तुम
जल्दबाजी
नहीं कर सकते।
तुम, अगर तुम ठीक समझो तो जो
मैं तुमसे
कह रहा हूं वह
वही है जो
बुद्ध के जीवन
का सार है।
मैं तुमसे
वह नहीं कह
रहा हूं जो
बुद्ध कहते
हैं। मैं तुमसे
वह कह रहा हूं
जो बुद्ध हैं।
इसलिए
मैं कहता हूं, भागो मत। जहां हो,
जो क्षण
मिला है, उसे
इतनी त्वरा से
भोग लो कि तुम
उसके आर-पार देखने
में समर्थ हो
जाओ। जीवन
पारदर्शी हो
जाए। बस वहीं
से संन्यास की
सुवास उठनी
शुरू होती है।
और तब भागने
की भी कोई
जरूरत नहीं
है।
रवींद्रनाथ
का एक गीत है, जिसमें
बुद्ध वापस
लौटते हैं, और यशोधरा
उनसे पूछती है
कि मैं सिर्फ
एक ही सवाल तुमसे
पूछने को रुकी
हूं। बारह
वर्ष
तुम्हारी
प्रतीक्षा की
है, बस एक
सवाल के लिए, कि तुमने जो
जंगल में भागकर
पाया, क्या
तुम अब कह
सकते हो कि
यहीं रहते तो
नहीं मिल सकता
था? अब तो
तुम्हें मिल
गया। अब मुझे
एक ही सवाल तुमसे
पूछना है कि
जो तुमने वहां
पाया, क्या
वह यहीं नहीं
मिल सकता था? और रवींद्रनाथ
ने कविता में
बुद्ध को मौन
रखा है। कुछ कहलवाया
नहीं। कहें भी
क्या? बात
तो ठीक ही यशोधरा
कह रही है, वह
यहां भी मिल
सकता था।
सत्य
सब जगह है।
समझ चाहिए। और
समझ अनुभव का
सार है। इसलिए
मैं तुम्हें
अनुभव से
तोड़ना नहीं
चाहता। चाहता
हूं कि तुम
जितनी जल्दी
अनुभव में उतर
जाओ, जितने
गहरे उतर जाओ,
उतनी ही
जल्दी
अतिक्रमण का
क्षण करीब आ
जाए। संन्यास
बहुत पास है।
संसार का
अनुभव
तुम्हारा
पूरा होना
चाहिए।
संन्यास
संसार के
विपरीत नहीं
है। संन्यास
संसार के पार
है। विपरीत
नहीं, आगे।
जहां संसार
समाप्त होता
है, जहां
संसार का मील
का पत्थर आता
है, जहां
लिखा है--यहां
समाप्त होती
है सीमा--वहीं संन्यास
शुरू होता है।
लेकिन संसार
पूरा करना ही
होगा। अगर अभी
पूरा न करोगे,
फिर लौटकर
आओगे।
बुद्ध
को भी शायद
तुमने सुना
हो। पच्चीस सौ
साल हो गए।
तुम पच्चीस
बार लौट चुके।
तुम मुझे भी
सुन रहे हो।
अगर मेरी बात
तुमने न गुनी, तुम फिर-फिर लौटकर आओगे।
परमात्मा
तुम्हें वापस
इस स्कूल में
भेजता ही
रहेगा, जब
तक तुम उत्तीर्ण
ही न हो जाओ।
इसलिए मैं
कहता हूं, जल्दी
करो। भागने
की नहीं, भोगने
की। जागने
की। अनुभव को
निरीक्षण
करने की। अगर
ठीक से अनुभव
किया जाए तो
किसी अनुभव को
दोहराने की जरूरत
नहीं। एक ही
बार अगर पूरे
मन से जागकर
कोई अनुभव कर
लिया जाए, तुम
उससे मुक्त हो
जाओगे।
क्योंकि फिर
पुनरुक्ति तो
वही-वही है।
आखिरी
प्रश्न:
बुद्ध
ने स्त्रियों
को संन्यास
देने से टालना
चाहा। शंकर भी
स्त्रियों को
संन्यास देने
के पक्ष में
नहीं थे।
संन्यास जीवन
की स्त्रियों
से ऐसी क्या
विपरीतता है? क्या
स्त्रियों से
उसका कोई
तालमेल नहीं
है, या कम
है? क्या
उन्हें
संन्यास लेने
की जरूरत
पुरुषों की
अपेक्षा कम है?
पुरुष
और स्त्री का
मार्ग मूलतः
अलग-अलग है। पुरुष
का मार्ग
ध्यान का है; स्त्री का
मार्ग प्रेम
का। पुरुष का
मार्ग ज्ञान
का है; स्त्री
का मार्ग
भक्ति का। उन
दोनों की
जीवन-चित्तदशा
बड़ी भिन्न है,
बड़ी विपरीत
है। पुरुष को
प्रेम लगता है
बंधन; स्त्री
को प्रेम लगता
है मुक्ति।
इसलिए पुरुष
प्रेम भी करता
है तो भी
भागा-भागा, डरा-डरा कि
कहीं बंध न
जाएं। और
स्त्री जब प्रेम
करती है तो
पूरा का पूरा
बंध जाना
चाहती है, क्योंकि
बंधन में ही
उसने मुक्ति
जानी है। तो
पुरुष की भाषा
जो है वह
है--कैसे
छुटकारा हो? कैसे संसार
से मुक्ति
मिले? और
स्त्री की जो
खोज है वह
है--कैसे वह
डूब जाए पूरी-पूरी,
कुछ भी पीछे
न बचे?
तो
संन्यास
मूलतः पुरुषगत
है। इसलिए
बुद्ध भी झिझके।
स्त्रियां
प्रभाव में आ
गयीं--स्त्रियां
जल्दी प्रभाव
में आती हैं, क्योंकि
उनके पास
ज्यादा
संवेदनशील
हृदय है--वे
मांगने लगीं
कि हमें भी
संन्यास दो।
बुद्ध डरे।
महावीर ने तो
उनसे साफ कहा
कि दे भी दूं, तो भी
तुम्हारी
मुक्ति इस
जन्म में नहीं
होगी, जब
तक तुम पुरुष
न हो जाओ।
पुरुष-पर्याय
से ही मुक्ति
होगी।
कारण
साफ है। महावीर
का मार्ग
भक्ति का नहीं
है, और बुद्ध
का मार्ग भी
भक्ति का नहीं
है। इसलिए
अड़चन है।
स्त्री के लिए
उनके मार्ग पर
कोई सुविधा
नहीं है। और
स्त्री जब भी
मुक्ति को
उपलब्ध हुई है
तो वह मीरा
की तरह नाचकर,
प्रेम में
परिपूर्ण डूबकर
मुक्त हुई है।
संसार से भागकर
नहीं, संबंध
से छूटकर
नहीं, संबंध
में पूरी तरह डूबकर। वह
इतनी डूब गयी
कि मिट गयी।
मिटने
के दो उपाय
हैं। या तो
तुम भीतर की
तरफ जाओ, अपने
केंद्र की तरफ
जाओ, और उस
जगह पहुंच जाओ
जहां तुम ही
बचे। जहां तुम
ही बचे और कोई
न बचा, वहां
तुम भी मिट जाओगे,
क्योंकि
मैं के बचने
के लिए तू की
जरूरत है। तू
के बिना मैं नहीं
बच सकता। अगर
तू बिलकुल छूट
गया--यही संन्यास
है, बुद्ध
का, महावीर
का; मेरा
नहीं।
बुद्ध-महावीर
का यही
संन्यास है कि
अगर तू बिलकुल
मिट जाए
तुम्हारे
चित्त से तो
मैं अपने आप
गिर जाएगा; क्योंकि वे
एक ही सिक्के
के दो पहलू
हैं। तू के
बिना मैं का
कोई अर्थ नहीं
रह जाता; मैं
गिर जाएगा, तुम शून्य
को उपलब्ध हो जाओगे।
स्त्री
का मार्ग
दूसरा है। वह
कहती है, मैं
को इतना गिराओ
कि तू ही बचे, प्रेमी ही
बचे, प्रीतम
ही बचे। और जब
मैं बिलकुल
गिर जाएगा और
तू ही बचेगा,
तो तू भी
मिट जाएगा; क्योंकि तू
भी अकेला नहीं
बच सकता।
मंजिल पर तो
दोनों पहुंच
जाते
हैं--शून्य की,
या पूर्ण
की--मगर राह
अलग है।
स्त्री मैं को
खोकर पहुंचती
है। पुरुष तू
को खोकर
पहुंचता है। पहुंचते
दोनों वहां
हैं जहां न
मैं बचता है, न तू बचता
है।
जिसने
दिल को खोया
उसी को कुछ
मिला
फायदा
देखा इसी
नुकसान में
यह
स्त्री की बात
है--
जिसने
दिल को खोया
उसी को कुछ
मिला
फायदा
देखा इसी
नुकसान में
इसलिए
बुद्ध-महावीर
शंकित थे, संदिग्ध
थे--स्त्री को
लाना? और
उनका डर
स्वाभाविक
था। क्योंकि
स्त्री आयी
कि प्रेम आया।
और प्रेम आया
कि उनके पुरुष
भिक्षु
मुश्किल में
पड़े। वह डर
उनका स्वाभाविक
था। वह डर यह
था कि अगर
स्त्री को
मार्ग मिला और
स्त्री संघ
में सम्मिलित
हुई, तो वे
जो पुरुष
भिक्षु हैं, वे आज नहीं
कल स्त्री के
प्रेम के जाल
में गिरने
शुरू हो
जाएंगे। और
वही हुआ भी।
बुद्ध ने कहा
था कि अगर स्त्रियों
को मैं दीक्षा
न देता तो
पांच हजार साल
मेरा धर्म
चलता, अब
पांच सौ साल
चलेगा। पांच
सौ साल भी
मुश्किल से
चला। चलना
कहना ठीक नहीं
है, लंगड़ाया,
घिसटा। और जल्दी
ही पुरुष अपने
ध्यान को भूल
गए।
पुरुष
को उसके ध्यान
से डिगाना
आसान है। स्त्री
को उसके प्रेम
से डिगाना
मुश्किल है।
अगर
तुम मुझसे
पूछते हो, तो मैं यह
कहता हूं कि
बुद्ध और
महावीर ने यह
स्वीकार कर
लिया कि
स्त्री
बलशाली है, पुरुष कमजोर
है। अगर
स्त्री को
दिया मार्ग अंदर
आने का, तो
उन्हें अपने
पुरुष
संन्यासियों
पर भरोसा नहीं--वे
खो जाएंगे।
स्त्री का
प्रेम प्रगाढ़
है। वह डुबा लेगी
उनको। उनका
ध्यान-व्यान
ज्यादा देर न
चलेगा। जल्दी
ही उनके ध्यान
में प्रेम की
तरंगें उठने लगेंगी।
स्त्री
बलशाली है।
होना भी
चाहिए। वह
प्रकृति के
ज्यादा
अनुकूल है।
पुरुष जरा दूर
निकल गया है
प्रकृति
से--अपने
अहंकार में।
स्त्री अपने
प्रेम में अभी
भी पास है।
इसलिए स्त्री
को हम प्रकृति
कहते हैं।
पुरुष को
पुरुष, स्त्री
को प्रकृति।
प्रकृति का डर
था महावीर और
बुद्ध दोनों
को। उनके
संन्यासियों
का डांवाडोल
हो जाना
निश्चित था।
लेकिन
मैं भयभीत
नहीं हूं; क्योंकि मैं
कहता हूं, स्त्रियां
प्रेम के मार्ग
से जाएं। और
जिनका ध्यान डगमगा जाए,
अच्छा ही है
कि डगमगा
जाए; क्योंकि
ऐसा ध्यान भी
दो कौड़ी
का जो डगमगा
जाता हो। वह डगमगा ही
जाए वही
अच्छा। जब
डूबना ही है
तो नौका में क्या
डूबना, नदी
में ही डूब
जाना। मैं
मानता हूं कि
प्रेम स्त्री
का तुम्हें
घेरे और
तुम्हारा
ध्यान न डगमगाए,
तो कसौटी पर
उतरा सही। और
जो प्रेम से न डगमगाए
ध्यान, वही
ध्यान समाधि
तक ले जाएगा।
जो प्रेम से डगमगा जाए,
उसे अभी
समाधि वगैरह
तक जाने का
उपाय नहीं। वह
भाग आया होगा,
प्रेम से
बचकर, प्रेम
की पीड़ा से
बचकर--प्रेम
से डरकर
भाग आया होगा।
इसलिए
मेरे लिए कोई
अड़चन नहीं है।
मैंने पहला
संन्यास स्त्री
को ही दिया।
ये महावीर और
बुद्ध को कहने
को कि सुनो, तुम घबड़ाते
थे, हम
पुरुष को पीछे
देंगे।
पुरुष
ध्यान करे, स्त्री
प्रेम
करे--क्या
अड़चन है? स्त्री
तुम्हारे पास
प्रेम का पूरा
माहौल बना दे,
वातावरण
बना दे, तो
भी तुम्हारे
ध्यान की लौ
अडिग रह सकती
है; कोई
प्रयोजन नहीं
है कंपने
का। सच तो यह
है कि जब
प्रेम की हवा
तुम्हारे चारों
तरफ हो, तो
ध्यान और गहरा
हो जाना
चाहिए। लेकिन
अगर तुम
अधकचरे भाग आए
संसार से, तो
डगमगाओगे।
तो उनके लिए
मेरे पास कोई
जगह नहीं।
उनको मैं कहता
हूं, तुम
वापस जाओ।
प्रेम
को मैं कसौटी
बनाता हूं
ध्यान की, और ध्यान को
मैं कसौटी
बनाता हूं
प्रेम की। पुरुष
अगर ध्यान में
हो, तो
स्त्री कितना
ही प्रेम करे,
पुरुष डगमगाएगा
नहीं। उसके निष्कंप
ध्यान से ही
करुणा उतरेगी
स्त्री की तरफ,
वासना
नहीं। और वही
करुणा तृप्त
करती है।
वासना किसी
स्त्री को कभी
तृप्त नहीं
करती।
इसलिए
तो कितनी ही
वासना मिल जाए, स्त्री
बेचैन बनी
रहती है। कुछ
खोया-खोया लगता
है।
मेरा
जानना है कि
स्त्री को जब
तक परमात्मा
ही प्रेमी की
तरह न मिले, तब तक
तृप्ति नहीं
होती। और जब
तुम किसी
ध्यानी व्यक्ति
के प्रेम में
पड़ जाओ तो
परमात्मा मिल
गया।
तो
ध्यान प्रेम
को बढ़ाएगा।
क्योंकि
ध्यान
तुम्हारे
प्रेमी को
दिव्य बना
देता है। और
प्रेम ध्यान
को बढ़ाएगा, क्योंकि
प्रेम जो
तुम्हारे
चारों तरफ एक
परिवेश
निर्मित करता
है, उस
परिवेश में ही
ध्यान का
अंकुरण हो
सकता है।
इसलिए
मैं ध्यान और
प्रेम में कोई
विरोध नहीं देखता।
ध्यान और
प्रेम में एक
गहरा समन्वय
देखता हूं।
होना ही
चाहिए। जब
स्त्री और
पुरुष में
इतना गहरा
संबंध है, तो ध्यान और
प्रेम में भी
इतना ही गहरा
संबंध होना
चाहिए। और जब
स्त्री और
पुरुष से
मिलकर एक जीवन
पैदा होता है,
एक बच्चा
पैदा होता है,
तो मेरी समझ
है कि ध्यान
और प्रेम के
मिलने से ही पुनर्जीवन
उपलब्ध होता
है, तुम्हारा
नव-जन्म होता
है।
आज
इतना ही।
THANK YOU GURUJI
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