सारसूत्र:
न हि
पापं कतं कम्मं
सज्जु खीरं व
मुच्चति।
उहंत
बालमन्वेति
भस्माच्छन्नो
व पावक ।।65।।
यावदेव
अनत्थाय ज्जतं
बालस्स
जायति।
हन्ति
बालस्स कुक्कंसं
मुदमस्त
विपातयं
।।66।।
असंत
भावनमिच्छेय्य
पुरक्रवारं
च भिक्खुसु।
आवसेसु
च इस्सरियं
पूजा पर
कुलेसु चे
।।67।।
ममेव
कतमज्जयन्तु
गिही पूब्बजिता
उभो।
ममेवातिवसा
अस्सू किच्चकिश्चेसु
किस्मिचि।
इति
बालस्स संकल्पो
इच्छा मानो च
बड्ढ़ति
।।68।।
अज्जा
हि लाभूपनिसा
अज्ज निब्बानगामिनी।
एवमेतं
अभिज्जाये
भिक्खु
बुद्धस्स
सावको।
ज्ञान की
खोज तो सभी
करते हैं, लेकिन
ज्ञान तक
पहुंच केवल वे
ही पाते हैं, जो छूता के
गणित को ठीक
से समझ लेते
हैं। असली
सवाल सत्य को
पाने का नहीं
है, क्योंकि
सत्य वही है, जो मिला ही
हुआ है। असली
सवाल सूरज की
तलाश का नहीं
है; क्योंकि
सूरज वही है, जो उगा ही
हुआ है। असली
सवाल है कि
तुमने कैसे
सत्य से अपने
को दूर किया।
असली सवाल है
कि तुमने कैसे
सत्य की तरफ
पीठ की। असली
सवाल है कि
तुमने कैसे आंखें
बंद कीं, वि
सूरज मौजूद है
और तुम अंधेरे
में हो गए।
सत्य
की खोज
नकारात्मक है।
मार्ग से
बाधाएं हटानी
हैं। झरना
बहने को
प्रतिपल
तैयार है, झरने
पर रखी चट्टान
अलग करनी है।
इसलिए जो झरने
की खोज में
जाएगा, वह
झरने को नहीं
पा सकेगा। जो
चट्टान की खोज
करेगा ठीक से—कहा
है, क्या
है—और चट्टान
को हटाने में
सफल हो जाएगा,
वह झरने को
पा लेगा।
तुम
जहा हो, तुम
जैसे हो, सत्य
में ही खड़े हो।
सत्य
तुम्हारा
स्वभाव है। हर
सांस में वही
आता है, हर
सांस में वही
जाता है। यह
कहना उचित
नहीं है कि
तुम श्वास
लेते हो, यही
कहना ज्यादा
उचित है कि
सत्य ने
तुममें श्वास
ली है। यह
कहना ठीक नहीं
कि परमात्मा
तुम्हारे
भीतर है, यही
कहना ज्यादा
ठीक है कि तुम
परमात्मा के
भीतर हो। उसी
ने तुम्हारे
हृदय में धड़कन
ली है। वही
तुम्हारे रगो
में खून बनकर
बहा है। वही
है तुम्हारी
देह, वही
है तुम्हारा
मन, वही है
तुम्हारे
चैतन्य का
आकाश। उसे
खोया कभी नहीं
है; भूल गए
हैं, विस्मरण
किया है। अगर
खो दिया हो, तो खोजना
असंभव है। अगर
विस्मरण किया
है, तो
स्मरण लाया जा
सकता है। वह
तुम्हारी
जबान पर ही
रखा है। जरा
से पुकारने की
बात है।
इसलिए
तो नाम—स्मरण
का इतना मूल्य
हो गया। जरा
सा उसका नाम
याद करना है; भूला
तो कभी नहीं
है। झीना सा
पर्दा है
विस्मृति का,
हटाते ही
मिल जाएगा।
इसलिए बुद्ध
पुरुषों ने
सत्य को कैसे
पाया जाए, यह
नहीं कहा; इतना
ही कहा कि
असत्य को
तुमने कैसे
पकड़ा है। इतना
तुम्हें समझ में
आ जाए; तुम
असत्य छोड़ दो।
सत्य मिला हुआ
है।
इसलिए
मूढ़ता के गणित
को समझ लेना
जरूरी है, क्योंकि
वही चट्टान है।
तुमने ठीक से
मूढ़ता का
विश्लेषण कर
लिया तो कुछ
और करने को
शेष नहीं रह
जाता। मूढ़ता
की पहली तो
बुनियाद यह है
कि मूढ़ता कभी स्वीकार
नहीं करती कि
मैं मूढ़ हूं।
वहीं से छूता
का भवन खड़ा
होता है।
मूढ़ता हजार
उपाय करती है
सिद्ध करने की
कि मैं मूढ़
नहीं हूं।
तुमने भी यही
किया है। सभी
ने यही किया
है।
इसलिए
पहला सूत्र तो
समझ लो कि
तुम्हें
जागना है इस
संबंध में।
तुममें मूढ़ता
अगर है तो उसे
स्वीकार करना
है। उसकी
स्वीकृति में
ही उसके आधे
प्राण निकल जाते
हैं। आधार अलग
हो गया। भवन
डगमगा जाता है।
पैर ही टूट
जाते हैं।
मूढ़ता लंगड़ी
हो जाती है।
मूढ़ता चलती है
सत्य के ज्ञान
के उधार पैरों
से। —उसके पास
अपने कोई पैर
नहीं। इसलिए
मूढ़ आदमी सदा
चेष्टा में
लगा रहता है सिद्ध
करने की, कि
मैं मूढ़ नहीं
हूं। उस
चेष्टा में वह
अपनी बीमारी
को बचाता है।
थोड़ा
सोचो, तुम
बीमार हो और
अगर तुम यह
चेष्टा करते
रहो कि मैं
बीमार नहीं
हूं और तुम
चिकित्सक को
यह कहो कि
बीमार हूं ही
नहीं, तो
फिर तुम्हारी
चिकित्सा न हो
सकेगी। फिर
इलाज खोजा न
जा सकेगा। फिर
तो तुमने अपनी
बीमारी को ही
अपनी आत्मा बना
लिया। पहली तो
बात है : निदान;
ठीक से
पहचान कि
बीमारी—बीमारी
है।
यह
स्वीकार करने
में अहंकार को
बड़ी पीड़ा होती
है कि मैं मूढ़
हूं। किसी को
मूढ़ कहकर
देखो! कोई
धन्यवाद न
देगा, गालियां
बरसाने लगेगा।
हम सुरक्षा कर
रहे हैं उसकी,
जो हमारी
मौत है। हम
उसे हजार—हजार
उपायों से बचा
रहे हैं, जो
गले में फांसी
है।
मूढ़
बड़े तर्क करता
है अपने को
बचाने के लिए।
कु यह कह सकता
है कि ईश्वर
नहीं है और
तर्क खोज सकता
है। ज्यादा से
ज्यादा इतना
ही कहो कि
मुझे पता नहीं
है। समझदारी
की पहली
यात्रा शुरू
हो गई। इतना
ही कहो, मुझे
पता नहीं है।
और इतना ही
पता हो जाए तो
काफी हुआ।
ईश्वर नहीं है,
इसे तुम
कैसे कहोगे? किस आधार पर
कहोगे? लेकिन
मूढ़ कहता है, ईश्वर नहीं
है। असल में
वह ईश्वर की
चुनौती से डरा
हुआ है। अगर
ईश्वर है तो
खोजना पड़ेगा।
अगर ईश्वर है
तो मुझे मिटना
पड़ेगा। अगर
ईश्वर है तो
मैं न हो
सकूंगा।
फ्रेडरिक
नीत्शे ने
अपने एक पत्र
में लिखा है कि
या तो ईश्वर
हो सकता है, या
मैं हो सकता
हूं; तो
यही उचित है
कि ईश्वर न हो।
मैं तो हूं।
इतना तो साफ
है, पक्का है,
मैं हूं।
ईश्वर नहीं
होगा। एक
म्यान में दो
तलवारें न रह
सकेंगी, ऐसा
लिखा है फ्रेडरिक
नीत्शे ने।
मैं और ईश्वर
एक साथ कैसे
हो सकेंगे इस
अस्तित्व में?
अगर ईश्वर
होगा तो मैं मिटा।
इसलिए
मूढ़ अपने
अहंकार को
बचाने के लिए
ईश्वर नहीं है, ऐसा
कहेगा। कहना
था इतना ही, मुझे पता
नहीं है। इतना
अनंत विस्तार
है, कहां
छिपा हो ईश्वर, मुझे पता
नहीं।
एक
तरह के मूढ़
कहेंगे कि
ईश्वर नहीं है।
दूसरे तरह के
मूढ़ कहेंगे कि
ईश्वर है।
उन्हें भी पता
नहीं है।
जितनी मूढ़ता
इस बात में है
कि ईश्वर नहीं
है,
उतनी ही
पढ़ता दूसरी
बात में भी है
कि ईश्वर है।
तुम्हें पता
कहा? काश!
इतना ही
तुम्हें पता
हो जाता, तो
फिर तो कुछ और
करने को न बचा
था। पता नहीं
है और तुम
कहते हो, ईश्वर
है! यह भी
विपरीत
रास्ते से—जो
नहीं है
तुम्हारे पास,
जो ज्ञान
तुम्हारे पास
नहीं है, उसको
मान लेने की
तरकीब हुई।
एक
नास्तिक का
ढंग हुआ मूढ़ता
को बचाने का; एक
आस्तिक का ढंग
हुआ मूढ़ता को
बचाने का।
नास्तिक ही
मूढ़ होते तो
कोई बड़ा खतरा
न था, नास्तिक
बहुत थोड़े हैं।
आस्तिक उतने
ही मूढ़ हैं।
तो तुमने कैसे
मूढ़ता को
बचाया है, इसे
समझना। इतना
ही कहो कि
मुझे पता नहीं
है, है
ईश्वर या नहीं,
कौन जाने?
वेद
के ऋषियों ने
कहा है, हमें
पता नहीं, किसने
जगत बनाया!
जिसने बनाया
होगा, उसे
ही पता हो। और
कौन जाने, उसे
भी पता है या
नहीं! बड़े
अनूठे लोग रहे
होंगे। हमें
पता नहीं है
कि कैसे यह
जगत बना; कैसे
यह आविर्भाव
हुआ; कैसे
शून्य आकाश से
इतने रंग—बिरंगे
रूप निकले, कैसे यह
अभिव्यक्ति
का फैलाव हुआ!
हमें पता नहीं
है। जिसने
बनाया होगा
उसे ही पता
होगा। और कौन
जाने, उसे
भी पता न हो!
इतनी
हिम्मत की बात
वेद के
अतिरिक्त
किसी शास्त्र
में नहीं है—कौन
जाने उसे भी
पता न हो!
क्योंकि यह
कहना—थोड़ा
समझना, बारीक
है—यह कहना कि
उसे पता है, परोक्ष में
यह कहना है कि
हमें पता है।
कौन कह रहा है,
उसे पता है?
वह स्वयं तो
नहीं कह रहा
है। मैं कहता
हूं कि ईश्वर
ने 'दुनिया
को बनाया। और
उसको पता है
कि दुनिया के
बनाने का कारण
क्या है, क्यों
बनाया। लेकिन
यह कह तो मैं
ही रहा हूं।
यह वक्तव्य तो
मेरा ही है।
यह ईश्वर भी
मेरा, यह
ईश्वर की
स्रष्टा की
तरह की धारणा
भी मेरी, और
इस ईश्वर को
पता है, यह
भी मेरा ही
ज्ञान हुआ।
उपनिषद, वेद
के ऋषि ने
अदभुत बात कही,
कौन जाने, उसे भी पता
है या नहीं!
अहंकार को खड़े
होने की जगह न
छोड़ी। न ईश्वर
को इंकार करके
बचा पाओगे—क्योंकि
वेद का ऋषि यह
नहीं कहता कि
ईश्वर नहीं है,
इतना ही
कहता है, मुझे
पता नहीं है।
वेद का ऋषि यह
भी नहीं कहता
कि ईश्वर को
पता नहीं है; इतना ही
कहता है, कौन
जाने, उसे
पता हो न हो, वही जाने। न
तो ईश्वर के
इंकार में
अहंकार को
बचाया और न
ईश्वर के
स्वीकार में
अहंकार को
बचाया।
जरा
सोचो, जरा
ध्यान करो; तब तुम
पाओगे कि ऐसी
घड़ी में तुम
मिटने लगे; धुएं की तरह
बिखरने लगे।
जब कुछ भी पता
न हो तो तुम
बचोगे कैसे? तुम्हारा
होना ज्ञान की
आडू में बचता
है। मैं जानता
हूं यही मै के
बचने की राह
है। तो कोई
मानकर बचता है,
कोई आस्तिक
होकर बचता है,
कोई
नास्तिक होकर
बच जाता है।
लेकिन तुम जब
तक हो, तब
तक चट्टान पड़ी
है।
फिर
तुम कितनी
सुरक्षा करते
हो! अगर तुम
आस्तिक हो और
कोई कहे ईश्वर
नहीं है, तो
मरने—मारने को
उतारू हो जाते
हो। तुम सोचते
हो, ईश्वर
को बचा रहे हो!
ईश्वर को
तुम्हारे
बचाव की जरूरत
है? तुम
अपनी मूढ़ता को
बचा रहे हो।
मरने—मारने को
तैयार हो। तुम
अपनी मूढ़ता को
बचा रहे हो।
अगर
कोई कहेगा, ईश्वर
नहीं है; तो
तुम कहोगे, कौन जाने!
शायद ऐसा ही
हो। मुझे पता
नहीं है। मैं
कैसे खंडन
करूं? मैं
कैसे मंडन करूं?
मैं हूं कौन?
मेरी
सामर्थ्य
क्या है? अपनी
वास्तविक
स्थिति को इस
भाति देख लेना
कि उसमें कोई भी
झूठ का सहारा
न रहे, किसी
भी झूठी धारणा
का आसरा न रहे—तो
तुम पाओगे
मूढ़ता को बचने
की जगह न बची।
यह चट्टान साफ
हो जाएगी। इसे
हटाना कठिन न
होगा। अभी तो
कोई दूसरा भी
इसे हटाने आए
तो तुम हटाने
नहीं देते।
मूढ़ता
बड़ी मुखर है
और बड़ी
तर्कनिष्ठ है।
मूढ़ता का अपना
दर्शन है, अपने
फलसफा हैं। और
इस तरह की
तरकीबें
मूढ़ता निकाल
लेती है, वे
इतनी कुशल हैं
कि कुशल से
कुशल आदमी भी
धोखे में आ
जाए।
समझ
तो ली है
दुनिया की
हकीकत
मगर
अब अपना दिल
बहला रहा हूं
जिसने
दुनिया की
हकीकत समझ ली
हो,
वह दिल
बहलाएगा?
समझ
तो ली है
दुनिया की
हकीकत
संसार
का सत्य जान
लिया; फिर कोई
दिल बहलाएगा?
मगर
अब अपना दिल
बहला रहा हूं
यह
बात तो ऐसे ही
हुई कि जाग तो
गए,
पहचान तो
लिया कि सपना—सपना
है, लेकिन
अभी भी देखे
जा रहा हूं।
यह कैसे संभव
है? जाग तो
गए, पहचान
गए कि हाथ में
कंकड़—पत्थर
हैं, हीरे—जवाहरात
नहीं, अब
भी मुट्ठी
बांधे हैं।
मगर
अब अपना दिल
बहला रहा हूं
कौन
बहलाएगा दिल? नहीं,
पहली बात
झूठ होगी।
लेकिन यह भी
मानने का गन
नहीं होता कि
मैंने संसार
की असलियत को
नहीं जान लिया
है। लोग कहे
चले जाते हैं
कि सब जान
लिया। कुछ सार
नहीं संसार
में। फिर
क्यों, फिर
कैसे उलझे हो?
फिर कहा
उलझे हो? नहीं,
तुम यह भी
नहीं मानना
चाहते कि हमें
पता नहीं है।
समझ तो ली है दुनिया
की हकीकत
मगर
अब अपना दिल
बहला रहा हूं
ऐसे
धोखे मत देना।
न समझी हो तो
समझना कि नहीं
समझी है। समझी
हो तो फिर कोई
दिल नहीं
बहलाता। जब
समझ में आ जाए
बात,
जब समझ ही आ
जाए तो जिसे
तुम दिल कहते
हो और दिल का
बहलाना कहते हो,
वे बचते ही
नहीं। वे तुम्हारी
नासमझी में ही
बचते हैं।
तुम्हारे
अंधेरे साए
में ही बचते
हैं। जब सत्य
का प्र काश
तुम्हें घेर
लेता है तो तुम्हारे
आसपास कोई
अंधेरा नहीं
टिक सकता।
खयाल
रखना, ये
बातें किसी और
के लिए नहीं
हैं; तुम्हारे
लिए हैं—सीधी
तुम्हारे लिए।
गौर से देखना
कि तुमने अपनी
मूढ़ता को किस
ढंग से बचाया
है। हर आदमी
के ढंग अलग
हैं।
रंगे—निशात
देख मगर
मुतमइन न हो
शायद
कि यह भी हो
कोई सूरत मलाल
की
बड़ी
रंगरेलियां
चल रही हैं।
रंगे—निशात
देख मगर
मुतमइन न हो
आश्वस्त
मत हो जा।
थोड़ा विचार कर, थोड़ा
होशपूर्वक
देख।
शायद
कि यह भी हो
कोई सूरत मलाल
की
शायद
यह भी दुख को
छिपाने का कोई
ढंग हो। शायद
यहां भी कोई दुःख
छिपा हो।
जल्दी से धोखे
में मत आ जा।
फूल देखकर
जल्दी मत करना, शायद
कोई कांटा
छिपा हो। हर
फूल में काटे
छिपे हैं; और
हर खुशी में आंसुओ
का वास है; और
हर दिन के
पीछे रात दबी
है; और जहा—जहां
तुमने सुख
जाने हैं, वहां—वहा
हमेशा दुख पाए
हैं। जहां
सुख खयाल में
आया, जान
ही लेना—
शायद
कि यह भी हो
कोई सूरत मलाल
की
गुलशन
बहार पर है हंसों
ऐं गुलो हंसों
जब
तक खबर न हो
तुम्हें अपने
मलाल की
हंस
लो। वसंत आया
है,
फूल खिले
हैं। फूलों!
हंस लो; जब
तक तुम्हें
पता न हो, कि
जल्दी ही पतझड़
आता है; जल्दी
ही सूख जाओगे।
खयाल
रखना, अगर दुःख—दुख
जैसे ही आते, तो कौन इतनी
मूढ़ होता जो
दुखी होता? अगर काटे
कांटे की तरह
ही सीधे आ
जाते और फूलों
की ओट में न
आते, तो
कौन इतना पागल
होता जो कीटों
से चुभता? अगर
अंधेरे सीधे—सीधे
आते, रोशनियों
में पीछे छिपे
न आते, तो
कौन पागल होता
जो अंधेरे को
अपने भीतर वास
देता, जगह
देता, स्थान
देता?
नहीं, नर्क
के दरवाजों पर
स्वर्ग का
नामपट लगा है।
लोग तो स्वर्ग
में ही जाते
हैं, पहुच
जाते हैं नर्क
में यह बात और!
नामपटों से धोखे
में मत आ जाना।
जिनको तुमने
ईश्वर के
मंदिर समझा है,
बहुत
संभावना है
शैतान की
दुकानें हों।
और जिनको
तुमने
रंगरेलियां
समझा है, उत्सव
समझा है, हो
सकता है, सिर्फ
अपने को
भुलाने के
इंतजाम हों।
विस्मरण करने
की चेष्टाएं
हों।
यह
दुखी आदमी
हजार उपाय
करता है कि
दुख की याद न
आए। और जिसे
दुख की याद न
आई,
वह कभी सत्य
की खोज पर
निकला है? वह
निकलेगा ही
क्यों? बुद्ध
सत्य की खोज
पर निकले, क्योंकि
दिखाई पड़ा, जीवन दुख है;
क्योंकि
दिखाई पड़ा, जीवन के
पीछे मौत चली
आती है। जीवन
धोखा न दे
पाया। जीवन के
आवरण में मौत
को पहचान लिया।
जरा
गौर से अपने
चारों तरफ
देखना; जिनको
तुम जिंदा
कहते हो, उन
सबके भीतर मौत
के अस्थिपंजर
दबे हैं। हर
जगह से मौत ने
झांका है, लेकिन
उसने बड़े
रंगीन चेहरे
बनाए हैं।
काटे गुलाबों
में ढंके हैं।
यही तो अड़चन
है। अन्यथा
कोई भी क्यों
इतनी देर तक
अंधेरे में रुकता?
कोई भी
क्यों इतने
दिन तक अज्ञान
में भटकता? 'जैसे
ताजा दूध
शीघ्र ही नहीं
जम जाता है—कहा
है बुद्ध ने—वैसे
ही पाप—कर्म
शीघ्र ही अपना
फल नहीं लाता।
राख से ढंकी
आग के समान
जलाता हुआ वह
मूढ़ का पीछा
करता है।'
ताजा
दूध शीघ्र ही
नहीं जम जाता, थोड़ा
समय लेता है।
वैसे ही पाप—कर्म
शीघ्र ही अपना
फल नहीं लाता,
थोड़ा समय
लेता है; पकता
है।
तो
जब तुम करते
हो,
तुम किसी और
आशा से करते
हो। आशा में
ही सारा भ्रम—जाल
है। तुम जब
बीज बोते हो, तुम सोचते
हो, आम के
बो रहे हो; और
जब फल आते हैं
तब कडुवे
सिद्ध होते
हैं। और मूढ़ता
यही है कि तुम
फलों और बीजों
को जोड़ नहीं
पाते। तुम यह
देख ही नहीं
पाते कि दोनों
में कोई संबंध
है।
अफ्रीका
में आदिम
जातिया हैं।
इस सदी के
पहले तक उनको
यह पता ही
नहीं था कि बच्चे
संभोग से पैदा
होते हैं। यह
पता नहीं था, क्योंकि
बच्चे के पैदा
होने में नौ
महीने लगते
हैं। फिर हर
बार संभोग
करने से बच्चे
पैदा भी नहीं होते।
पता भी कैसे
चले? फासला
काफी बडा है।
तो वे—उनको
खयाल ही नहीं
था यह कि
संभोग से
बच्चे पैदा
होते हैं।
उनको खयाल था
कि बच्चे तो
भगवान की कृपा
से पैदा होते
हैं। देवी—देवताओं
का हाथ है
इसमें।
हजारों साल तक
बच्चे पैदा
होते रहे और
उन्हें यह पता
भी न चला कि
इसका कोई
संबंध संभोग
से है। बीज
बोने में और
फसल के आने
में नौ महीने
का फासला है।
इससे
भी बड़े फासले
हैं जिंदगी
में। आज तुम
कुछ करते हो, कभी—कभी
वर्षों लग
जाते हैं। काम
तो शुरू हो
जाता है, सिलसिला
तो आज ही शुरू
हो जाता है, लेकिन गर्भ
पकता है, बड़ा
होता है, जन्म
लेते—लेते कई
महीने लग जाते
हैं।
'जैसे
ताजा दूध
शीघ्र ही नहीं
जम जाता, वैसे
ही पाप—कर्म
शीघ्र ही अपना
फल नहीं लाता।
राख से ढंकी
आग के समान
जलाता हुआ वह
मूढ़ का पीछा
करता है। ' राख
समझकर अंगारों
को तुमने ढोया
है। भीतर
अंगारे हैं।
राख भी बुझा
हुआ अंगारा है।
जहां—जहां राख
हो, थोड़ा
सम्हलना।
तुम्हारे
जीवन का सारा
दुख, तुम्हारा
ही बोया हुआ
है। आज तुम
काट रहे हो।
दूसरों को तुम
दोष देते हो।
समझो; कोई
गाली देता है,
तुम
अपमानित होते
हो, लेकिन
गाली किसी को
अपमानित नहीं
कर सकती। गाली
में वह ताकत
नहीं है।
अपमानित तो
तुम होते हो
क्योंकि
तुमने अहंकार
के बीज बोए।
तुमने अपने को
कुछ समझा। तुम
अकड़कर रहे।
फिर किसी ने
गाली दी, गाली
तुम्हारे
अहंकार के बीज
को फोड़ देती
है।
जैसे
बीज पड़ा हो भूमि
में,
वर्षा आ जाए
और चटक जाए, अंकुरित हो
जाए। खाली
भूमि में तो
वर्षा बीज को
नहीं तोड़ सकती।
बीज चाहिए।
जहां नहीं
होगा बीज, वर्षा
हो जाएगी, बह
जाएगी। भूमि
वैसी की वैसी
रह जाएगी।
तुम
अहंकार को
पाले हो—हम
रोज पाल रहे
हैं। उसको हम
बड़ा सजा—संवार
कर रखते हैं।
जितना तुमने
सजा—संवारकर
अपने अहंकार
को रखा है, उतनी
ही गाली
तुम्हें चोट
दे जाएगी।
तुम्हारी
सजावट पर
निर्भर है कि
गाली कितनी चोट
देगी! राम
गाली देने
वाले को दोषी
मत मानना। खोज
करना अपने
भीतर, गाली
छू गई क्यों? गाली आर—पार
भी जा सकती थी
तुम्हें बिना
छुए। अगर
तुम्हारे
भीतर कोई अहंकार
का पर्दा न
होता तो गाली
आती और चली जाती।
एक कोरी आवाज
थी, शून्य
में गूंजती और
खो जाती। तुम
सुन लेते, तुम
समझ लेते, लेकिन
कोई
प्रतिक्रिया
न होती। जैसे
कोई खाली कुएं
में, सूखे
कुएं में
बाल्टी डाले,
खाली की
खाली
खड़खड़ाएगी और
लौट आएगी। जल
भरकर न आएगा।
जल है ही नहीं
तो भरकर कैसे
आएगा?
जब
कोई गाली देता
है तुम्हें तो
बाल्टी डालता है
तुम्हारे
कुएं में। अगर
भीतर अहंकार न
हो,
खड़खड़ाएगी, आवाज होगी, लौट आएगी।
शायद गाली
देने वाले को
भी बोध आए
तुम्हें शात
और निर्विकार
देखकर। शायद
वह भी
रूपांतरित हो।
पछताएगा तो जरूर।
आंखें उसकी
गीली तो हो
आएंगी। आदमी
है, पत्थर
तो नहीं है।
कितना ही कठोर
हो, आदमी
है, पत्थर
तो नहीं है।
सोचेगा, ठिठक
जाएगा। क्या
हुआ? अपनी
गाली की
प्रतिध्वनि
ही उसके पास
आएगी। खुद की
गाली वापस लौट
आएगी, चुभेगी।
जब तुम भीतर
गाली को पकड़
लेते हो, लौटती
नहीं, चुभती
भी नहीं।
पछतावे का
मौका भी तुम
छीन लेते हो
उस आदमी सै। और
तुम सोचते हो,
उसने
तुम्हें दुखी
किया। कोई
तुम्हें दुखी
नहीं कर सकता।
तुम दुखी होने
की तैयारी
करते थे।
'जैसे
ताजा दूध
शीघ्र नहीं जम
जाता...।
तुम्हारी
तैयारी वक्त
लेती है।
अहंकार भी
बचपन में बचपन
होता है, जवानी
में जवान हो
जाता है, बुढ़ापे
में बिलकुल पक
जाता है।
बच्चे को
फिक्र नहीं है।
तुम गाली भी
दे दो, सुन
लेता है, खेलता
हुआ चला जाता
है। तुम कहते
हो, अबोध
है। अबोध नहीं,
अभी अहंकार
नहीं है इतना
मजबूत कि गाली
चोट करे। जवान
उलझ जाएगा; मरने—मारने
को उतारू हो
जाएगा।
अहंकार भी
जवान हो गया।
दूध जम गया! और
को के अहंकार
का तो तुम कुछ
कहना ही मत।
इसलिए
तो के आदमियों
के साथ रहना
मुश्किल हो जाता
है। खुद के
बेटे अपने बाप
के साथ रहने
में मुश्किल
अनुभव करने
लगते हैं।
बूढ़ों के
अहंकार बड़े
मजबूत हो जाते
हैं।
जिंदगीभर की
कमाई वही है।
जिंदगीभर दूध
को जमाया है।
जिंदगीभर सब
तरह से यही
कोशिश की है, कि
मैं कुछ हूं।
के बड़े दूभर
हो जाते हैं, बोझिल हो
जाते हैं। तुम
सभी को बूढ़ों
के पास होने
का अनुभव होगा।
रस्सी जल भी
गई है, लेकिन
अकड़ बनी रह
जाती है। मौत
करीब आती है, मरने के
करीब पहुंच
रहे हैं, सब
खो जाएगा, लेकिन
जैसे दीया
बुझने के पहले
भभक उठता है, ऐसे ही मरने
के पहले
अहंकार बड़ा
मजबूत हो जाता
है।
ध्यान
रखना, अगर सोए—सोए
जीए तो वही
तुम्हारे
भीतर भी हो
रहा है। उस
प्रक्रिया से
बच न सकोगे।
थोड़े जागने की
जरूरत है।
थोड़े देखने की
जरूरत है।
एक
सूत्र को तो
तुम जितना
अपनी स्मृति
में पिरो लो, उतना
ही भला है : कि
अगर दुखी होते
हो तो कारण तुम
हो; अगर
सुखी होते हो
तो कारण तुम
हो। कारण
बाहर
मत खोजना।
मूढ़ता
बाहर कारण
खोजती है और
भटक जाती है।
ज्ञान
भीतर कारण खोजता
है और सम्हल
जाता है।
सब
तुम्हारे
भीतर है—सुख
भी,
दुख भी, सुख
और दुख के पार
जाना भी।
'मूढ़
का जितना भी
ज्ञान होता है,
वह उसके ही
अनर्थ के लिए
होता है। वह
मूढ़ के
मस्तिष्क को
नीचे गिराकर
उसके शुक्लांश
(शुभ ) को नष्ट
कर देता है।
ऐसा
नहीं है कि छू
के पास ज्ञान
नहीं होता। यह
बड़े मजे की
बात है। तुम
सोचते हो, मूड
वह, जिसके
पास ज्ञान
नहीं; नहीं।
मूढ़ों में बड़े
पंडित
तुम्हें मिल
जाएंगे।
मूढ़ता भीतर रह
जाती है, पांडित्य
ऊपर से आवरण
बन जाता है।
और मूढ़ता
शोभायमान हो
जाती है। और
मूढ़ता में
इत्र छिड़क दिए,
सुगंध भी
आने लगी। और
मूढ़ता पर सोने
मढ़ दिए, हीरे—जवाहरात
जड़ दिए। मूढ़ता
भी पांडित्य
से अपना
श्रृंगार
करती है।
बुद्ध
कहते हैं, 'मूढ़
का जितना भी
ज्ञान होता
है...। '
नहीं
होता, ऐसा
नहीं; लेकिन
एक बात तुम
उसमें पाओगे,
उसका ज्ञान
उसके ही अनर्थ
के लिए होता
है। उसके हाथ
की तलवार उसको
ही जख्म
पहुंचाती है।
जिस ज्ञान से
नौका बन सकती
थी, जीवन
के सागर के
पार हुआ जा
सकता था, वही
ज्ञान गले में
लटकी हुई
चट्टान हो
जाता है। वही
ज्ञान उसे
डुबाता है।
अगर छू के हाथ
में शास्त्र
लग जाए, तो
वह मूढ़ के हाथ
में लगी तलवार
है। मूढ़ के
हाथ में
शस्त्र लगे तो,
शास्त्र
लगे तो, आत्मघाती
है। अपना ही
अहित कर लेगा।
अब
तुम थोड़ा सोचो, तुम्हारे
पास जो भी
तुमने ज्ञान
संचित कर लिया
है, उसका
तुमने क्या
उपयोग किया है?
उससे तुमने
अपनी मूढ़ता को
बचाने का
उपयोग किया है
या मिटाने का
उपयोग किया है?
उस प्रकाश में
तुमने अपने
अंधेरे को
जलाया है या
बचाया है?
अगर
तुमने ज्ञान
का सम्यक
उपयोग किया तो
तुम अपने
अज्ञान को
स्वीकार
करोगे। अगर
तुमने ज्ञान
का दुरुपयोग
किया तो तुम
अपने अज्ञान
को छिपा लोगे
और अपने ज्ञान
की घोषणा
करोगे। और एक
बार तुम्हें
यह वहम सवार
हो जाए कि
तुमने जान
लिया, तो तुम
जानने की
दुनिया से
हजारों कोसों
दूर पड़ गए।
उस
शाम से डरो जो
सितारों की
छांव में
आती
है एक हसीन
अंधेरा लिए
हुए
तुम्हारी
नजर सितारों
पर रहे,
कहीं
धोखा न हो जाए!
उस
शाम से डरो जो
सितारों की
छाव में
एक
घना अंधेरा भी
आ रहा है।
सितारों पर आख
रही,
धोखा खा
जाओगे। आती है
एक हसीन
अंधेरा लिए
हुए
एक
बड़ा प्यारा
अंधेरा लेकर आ
जाती है। तुम
सितारों में
उलझे रहते हो, अँधेरा
तुम्हें
चारों तरफ से
घेर लेता है।
डरो
उन शास्त्रों
से,
जिनके
शब्दों के
पीछे, हसीन
अंधेरों के
पीछे—बड़े
सुंदर हैं वे
शब्द—मूढ़ता
शरण पा लेती
है।
उपनिषद
में कथा है:
उद्दालक का बेटा
श्वेतकेतु
ज्ञान लेकर घर
लौटा, विश्वविद्यालय
से घर आया।
बाप ने देखा, दूर गांव के
पगडंडी से आता।
सुबह सूरज उगा
है। लेकिन बाप
बड़ा दुखी हुआ।
क्योंकि बाप
ने सोचा था, विनम्र होकर
लौटेगा; वह
बड़ा अकड़ा हुआ
आ रहा है। अकड़
तो हजारों कोस
दूर तक खबर
भेज देती है।
अकड़ तो अपने
चारों तरफ
तरंगें उठा
देती है। वह
ऐसा नहीं आ
रहा है कि
जानकर आ रहा
हो। ऐसा आ रहा
है कि मूढ़ता
तो भीतर है, ऊपर—ऊपर
ज्ञान को
संगृहीत कर
लाया है।
पंडित होकर आ
रहा है, शानी
होकर नहीं आ
रहा। विद्वान
होकर आ रहा है,
प्रज्ञावान
होकर नहीं आ
रहा है। कोई
समझ की ज्योति
नहीं जली है, अंधेरे
शास्त्रों का
बोझ लेकर आ
रहा है। बाप
दुखी हो गया।
बेटा आया।
उद्दालक ने
पूछा कि क्या—क्या
तू सीखकर आया?
उसने
कहा,
सब सीखकर
आया हूं। कुछ
छोड़ा नहीं।
यही तो मूढ़ता
का वक्तव्य है।
उसने गिनती
करा दी, कितने
शास्त्र
सीखकर आया है।
सब वेद कंठस्थ
कर लिए हैं।
सब उपनिषद जान
लिए हैं।
इतिहास, भूगोल,
पुराण, काव्य,
तर्क, दर्शन,
धर्म, सब
जानकर आया हूं।
कुछ छोडा नहीं।
सब परीक्षाएं
पूरी करके आया
हूं। स्वर्ण—पदक
लेकर आया हूं।
बाप
ने कहा, लेकिन
तूने वह एक
जाना, जिसे
जानने से सब
जान लिया जाता
है? उसने
कहा, कैसा
एक? किसकी
बात कर रहे
हैं? बाप
ने कहा, तूने
स्वयं को जाना,
जिसे जानने
से सब जान
लिया जाता है?
श्वेतकेतु
उदास हो गया।
उसने कहा, उस
एक की तो कोई
चर्चा वहां न
हुई।
तो
बाप ने कहा, तुझे
फिर जाना
पड़ेगा।
क्योंकि
हमारे कुल में
हम सिर्फ जन्म
से ही ब्राह्मण
नहीं होते रहे
हैं, हम
जानकर
ब्राह्मण
होते रहे। यह
हमारी कुल की
परंपरा है।
मेरे बाप ने
भी मुझे ऐसे
ही वापस लौटा
दिया था। एक
दिन ऐसे ही
अकड़कर मैं भी
घर आया था; सोचकर
कि सब जानकर आ
रहा हूं। झुका
था बाप के
चरणों में, लेकिन झुका
नहीं था। भीतर
तो यही खयाल
था कि बाप से
भी ज्यादा
जानता हूं।
लेकिन मेरे
पिता उदास हो
गए थे और
उन्होंने कहा
था, वापस
जा। उस एक को
जाना, जिसे
जानने से सब
जान लिया जाता
है? उन्होंने
मुझसे कहा था,
हमारे कुल
में हम जन्म
से ही
ब्राह्मण
नहीं होते रहे
हैं, ब्रह्म
को जानकर
ब्राह्मण
होते रहे हैं।
तुझे वापस
जाना होगा
श्वेतकेतु।
श्वेतकेतु
को वापस जाना
पड़ा। तभी लौट
सका घर, जब उस
एक को जानकर
आया। लेकिन तब
और ही ढंग से
आया। तब बात
ही बदल गई। तब
ऐसे आया, जैसे
शून्य आता है।
तब ऐसे आया, कि पैरों की
पदचाप भी न हो।
तब ऐसे आया, जैसे
विनम्रता
आखिरी
गहराइयां
छूती हो।
मिटकर आया। और
जो मिटकर आया,
वही होकर
आया। अपने को
खोकर आया।
शास्त्र
का बोझ नहीं
था अब, सत्य की
निर्भार दशा
थी। विचारों
की भीड़ न थी अब,
ध्यान की
ज्योति थी।
भीतर एक विराट
शून्य था।
भीतर एक मंदिर
बनाकर आया। एक
पूजागृह का
भीतर जन्म हुआ।
'मूढ़
का जितना भी ज्ञान
होता है, वह
उसके ही अनर्थ
के लिए होता
है। '
मूढ़
जो भी सीख
लेता है, उस
सीख से
रूपांतरित
नहीं होता, बदलता नहीं
अपने को; उस
सीख से अपने
पुराने ढंग को
और मजबूत कर
लेता है। इससे
तो न जानता तो
ही बेहतर था।
कम से कम
अज्ञान की
लोचपूर्णता
तो होती! अब ज्ञान की अकड़
भी आ गई और
ज्ञान भी हाथ
न आया। जानने
का भ्रम आ गया,
जाना कुछ भी
नहीं।
मूढ़
का सब जानना
उधार है। और
जब तक जीवंत
बोध न हो, जब तक
तुम्हें ही
स्वाद न लग
जाए सत्य का, तब तक मत
समझना कि जाना।
तब तक जानना
कि यात्रा अभी
और करनी है; अभी मंजिल
आई नहीं।
कैसे
मूढ़ अनर्थ
करता है अपना
ही अपने ही ज्ञान
से?
मेरे
पास बहुत लोग
आ जाते हैं; उपनिषद
के वचन
दोहराते हैं,
गीता
कंठस्थ है।
उनसे कुछ भी
कहो, वे
कहते हैं, हमें
मालूम है। मैं
उनसे पूछता
हूं र फिर आए
क्यों हो? जब
तुम्हें
मालूम ही है
तो तुम व्यर्थ
परेशान क्यों
हुए हो? क्या
कारण है यहां
आने का?
कहते
हैं,
नहीं, मन
हो गया, जिज्ञासा
वश चले आए।
ध्यान सीखना
है।
मैं
कहता हूं
तुम्हें
उपनिषद के वचन
मालूम हैं। ये
वचन बिना
ध्यान के तो
आते ही नहीं।
इनका तो जन्म
ही ध्यान में
होता है। ये
किताब से नहीं
आते।
काश, किताब
से आते होते
तो कितनी सरल
हो गई होती बात!
जिंदगी में
फिर उलझाव
क्या था? किताब
से अगर
परमात्मा
मिलता होता तो
और क्या आसान
होता! ध्यान
से आते हैं।
तो
मैं उनसे कहता
हूं अगर ध्यान
सीखना है, तो
कृपा करके इन
वचनों को हटाओ।
खाली करो जगह।
ये वचन ध्यान
न होने देंगे।
यह खयाल कि
तुम जानते ही
हो, जानने
की यात्रा पर
तुम्हें चलने
ही न देगा।
जिसको खयाल है,
वह पहुंच ही
गया, अब
चलेगा क्यों?
तर्क
करते हैं वे, दलीलें
देते हैं कि
शास्त्र तो
मार्गदर्शक
है; और
शास्त्र तो
सहारा है। तो
मैं उनसे कहता
हूं जिंदगीभर
इस सहारे को तुम
कपडे रहे, अब
तक पहुंचे
नहीं; कब
जागोगे? अब
और कितनी देर
दोगे परीक्षा
के लिए? अभी
तक परीक्षा
नहीं हो गई?
मगर
बड़ा कठिन है
यह मानना कि
मैं अज्ञानी
हूं। बड़ा कठिन
है। और बिना
यह माने तो
कोई ध्यान के
जगत में
प्रवेश कर
नहीं सकता।
'मूढ़
का जितना भी
ज्ञान है वह
उसके ही अनर्थ
के लिए हो
जाता है। वह
मूढ़ के
मस्तिष्क को
नीचे कर उसके
शुक्लांश को
नाश कर देता
है। '
जैसे
रात है और दिन
है,
ऐसे ही
तुम्हारे
भीतर भी दो
पहलू हैं, एक
शुभ का है, एक
अशुभ का है।
वह जो अशुभ का
पहलू है, वह
उधार से जीता
है। उसकी अपनी
कोई संपदा
नहीं है।
शैतान
उधार से जीता
है। इसको समझ
लेना; इसका
अर्थ यह होता
है कि शैतान
तुम्हें यह
धोखा देकर
जीता है कि वह
भगवान है। झूठ
तुम अगर किसी
से बोलो तो
तुम तभी बोल
सकते हो, जब
तुम यह उसे
आश्वासन दो कि
यह सच है; जब
तुम कसम खाओ
कि यह सच है।
झूठ सच का
धोखा देकर ही
चल सकता है, और कोई उपाय
नहीं है। और
उतना ही चल
सकता है, जितनी
देर तक दूसरे
को उसके सच
होने का भ्रम
बना रहे। जैसे
ही पता चला कि
झूठ है, वहीं
गिर जाता है।
फिर वहां से एक
इंच आगे नहीं
जा सकता।
अगर
दुनिया में
सभी लोग झूठ
बोलने वाले
हों और यह
स्वीकृत सत्य
हो जाए कि बस
झूठ ही जीवन
का व्यवहार है, तो
झूठ मर जाएगा।
झूठ चल ही न
सकेगा। कोई
मानेगा ही
नहीं। झूठ चल
सकता है, सत्य
का आभास दे तो।
ध्यान
रखना, वह
तुम्हारे
भीतर जो अंधेरा
कोना है, वह
तुम्हें
प्रकाश का
आभास दे तो ही
बचा रह सकता
है; अन्यथा
मिट जाएगा।
तुम उसे कभी
का उठाकर फेंक
दोगे। गले में
चट्टान
लटकाकर तुम
तभी तक चल
सकते हो, जब
तक तुम्हें
खयाल हो कि यह
चट्टान नहीं,
कोहिनूर है।
जंजीरें तुम
तभी तक पहने
रह सकते हो, जब तक तुम्हें
खयाल हो, ये
जंजीरें नहीं,
आभूषण हैं।
कारागृह में
तुम तभी तक रह
सकते हो, जब
तक तुम्हें
पता हो कि यह
घर है, अपना
घर है। संसार
तभी तक
तुम्हें पकड़े
रख सकता है, जब तक
तुम्हें खयाल
है कि संसार
सत्य है, संसार
परमात्मा है।
मुझे
मालूम है
अंजाम रुदाद—मुहब्बत
का
मगर
कुछ और थोड़ी
देर सई—ए—रागांग
कर लूं
मालूम
है,
जिसे तुम
प्रेम कहते हो,
उसका अंत।
मालूम है उस
प्रेम—कथा का
अंत। सिवाय
नर्कों के और
कहीं ले नहीं
गई। फिर भी
तुम्हारा
अंधेरा कोना
कहे जाता है—
मगर
कुछ और थोड़ी
देर सई—ए—रागांग
कर लूं
यह
व्यर्थ कोशिश
थोड़ी देर और
कर लूं।
अब
यह जरा सोचने
की बात है। जब
तुम्हें पता
चल गया कि यह
व्यर्थ कोशिश
है,
तो तुम थोड़ी
देर और करोगे?
नहीं, तुम्हें
पता ही न चला
होगा। यह उधार
है खयाल कि यह
कोशिश व्यर्थ
है। तुम्हें
तो यही खयाल
है कि इस
कोशिश में
सार्थकता है।
अभी भी सफलता
मिल सकती है।
अभी भी आशा की
किरण शेष है।
एक
बहुत बड़े
मनीषी हैं, ख्यातिलब्ध
हैं, देश
के कोने—कोने
में उनका नाम
है, हजारों
लोग उन्हें
मानते हैं। वे
मुझे मिलने आए
थे। तो
उन्होंने कहा,
हमें सब पता
है कि क्रोध
बुरा है, मगर
फिर भी क्रोध
होता है। हमें
पता है कि राग
बुरा है, फिर
भी राग होता
है। हमें पता
है कि लोभ
बुरा है, लेकिन
फिर भी लोभ
होता है। अब
क्या करें?
मैंने
उनसे कहा, पहले
तो आप यह
स्वीकार करो
कि पता नहीं
है। कहीं ऐसा
हुआ है कि पता
हो, आग
जलाती है, और
आदमी हाथ डाल
दे? कभी
ऐसा हुआ है? होता तो
उलटा है। दूध
के जले छाछ भी
फूंक—फूंककर
पीने लगते हैं।
कौन डालता है
हाथ जब पता हो
कि आग जलाती
है? नहीं, पता न होगा।
वे
बोले कि नहीं, पता
है। अब यह भी
क्या आप कह
रहे हैं? जिंदगीभर
यही तो मैं
औरों को भी
समझाता रहा हूं
और मुझे पता न
होगा?
मैंने
कहा,
औरों को
समझाया होगा;
और औरों ने
तुम्हें
समझाया होगा,
लेकिन पता
नहीं है। किसी
ने तुम्हारे
कान में कह दी
होगी यह बात; और तुम
दूसरों के कान
में कहे जा
रहे हो। जिनको
तुमने समझा
दिया है, वे
भी समझ रहे
होंगे कि समझ
गए। और उनकी
भी अड़चन यही
होगी कि क्या
करें? पता तो
है क्रोध करना
बुरा है, लेकिन
क्रोध होता है।
ऐसा
ज्ञान नपुंसक
है। ऐसे ज्ञान
का क्या मतलब? क्या
मूल्य? तुम्हें
पता है कि
दीवाल है और
फिर भी तुम
निकलने की
कोशिश करते हो,
व्यर्थ
कोशिश करते
हो! आख वाला
कभी करता नहीं।
तुम कहो कि आख
भी मेरी
दुरुस्त है, और मुझे पता
भी है कि यह
दीवाल है, फिर
भी क्या करूं?
कुछ रास्ता
बताएं; कैसे
रोकूं अपने को
इसमें से न
निकलने से? सिर टकराता
है। जिसको पता
होता है, वह
दरवाजे से
निकलता है।
जिसको पता
नहीं होता, वह दीवाल से
निकलने की
कोशिश करता है।
न तो उसे पता
है, न उसके
पास आख है।
लेकिन
मूढ़ता उधारी
पर जीती है।
सुन लिया है।
शास्त्रों के
वचन सुन लिए
हैं और उन्हीं
को मान लिया
ज्ञान। तर्क
से समझ में भी
आ गया होगा।
ऐसे ही, जैसे
कोई
पाकशास्त्र
पढ़ ले और सब
कुछ समझ ले भोजन
के संबंधों
में; भूख
तो न मिटेगी।
भूख अपनी जगह
रहेगी। और वह
कहे, मुझे
भोजन के संबंध
में सब पता है।
अब यह भूख
क्यों लगे
जाती है? अब
यह भूख रुकती
क्यों नहीं है?
पाकशास्त्र
जानने से भूख
के मिटने का
क्या लेना—देना!
भोजन चाहिए।
और भोजन भी
तुम्हें करना
चाहिए; बुद्धों
ने किया हो, इससे क्या
होगा? उनकी
भूख मिटी होगी।
कृष्ण ने किया
होगा, मोहम्मद
ने किया होगा,
उनकी भूख
मिटी होगी।
सौभाग्यशाली
थे वे कि पाक
शास्त्रों
में न उलझे।
अपना भोजन बना
लिया। तुम
नासमझ हो। तुम
शास्त्र को ढो
रहे हो। तुम
शब्दों पर बैठ
गए हो 1 तुमने
शब्द तोतों की
तरह कंठस्थ कर
लिए हैं; उनको
तुम दोहराए
जाते हो।
दोहराते—दोहराते
तुम्हें यह भ्रम
हो गया है कि
तुम्हें
मालूम है।
बहुत बार झूठ
को मत दोहराना;
क्योंकि
खतरा यह है कि
बहुत बार दोहराकर
झूठ भी सत्य
जैसा मालूम
होने लगता है।
एडोल्फ
हिटलर ने अपनी
आत्मकथा में
लिखा है कि सच
और झूठ में
मैंने इतना ही
फर्क जाना कि
जो झूठ बहुत
बार दोहराए
जाते हैं, वे
सच हो जाते
हैं। ज्यादा
फर्क नहीं है।
और वह ठीक कह
रहा है। उसने
अनेक झूठ खुद
दोहराए
जिंदगीभर। और
भरोसा दिला
दिया एक बडी
समझदार जाति
को, जर्मन
जाति को भरोसा
दिला दिया कि
वह ठीक कह रहा
है।
पहले
लोग हंसे।
पहले लोगों ने
मजाक बनाया।
लेकिन वह
दोहराए चला
गया;
उसने कोई
फिक्र ही न की।
उसने बड़े
आत्मविश्वास
से दोहराया।
उसने घूंसे
उठा—उठाकर
दोहराया।
धीरे—धीरे जब
कोई आदमी इतने
बल से दोहराता
है, दूसरे
लोग भी
दोहराने लगे।
पूरी कौम को
भरोसा आ गया।
बड़ी
मूढ़तापूर्ण
बातों पर
भरोसा आ गया।
सारी दुनिया
को युद्ध की
आग में झोंक
दिया इस आदमी
ने। और मजा यह
है कि उसको
खुद भी पहले
भरोसा न था, लेकिन जेब
दूसरों को
भरोसा आ गया
तो उनकी आंखों
में भरोसे की
चमक देखकर
उसको भी भरोसा
आने लगा। सभी
राजनीतिज्ञ
जब यात्रा
शुरू करते हैं
तो बड़े डगमगाए
होते हैं। खुद
ही भरोसा नहीं
होता है। फिर
धीरे—धीरे
जैसे लोगों को,
भीड़ को
भरोसा आता है,
उनको भी
भरोसा आने
लगता है। एक—दूसरे
के बीच, एक
झूठ दोहर—दोहर
कर सच्ची हो
जाती है।
तुम
जरा खयाल करना, कितने
झूठ पर तुमने
भरोसा कर लिया
है। तुम पैदा
हुए, तब
तुम्हें पता न
था कि ईश्वर
है या नहीं।
हिंदू घर में
पैदा हुए तो
हिंदू
संस्कार; मुसलमान
घर में पैदा
हुए तो
मुसलमान
संस्कार। जो
तुम्हारे पास
दोहराया गया,
वह तुम्हें
कंठस्थ हो गया।
अब तुम उसी को
दोहराए जा रहे
हो। तुम
ग्रामोफोन के
रिकार्ड हो या
आदमी? तुम
अभी भी अपने
को हिंदू और
मुसलमान कहे
जा रहे हो? थोड़ा
बचकर चलो।
थोड़ा सम्हलकर
चलो। किसने
तुमसे कह दिया
ईश्वर है? किसने
तुम्हें समझा
दिया ईश्वर
नहीं है? किसने
तुम्हें
जिंदगी के ढंग
दे दिए? किसने
तुम्हें आचरण
के रंग दे दिए?
किसी और ने!
तुम आत्मा हो,
तुम चैतन्य
हो, या
मिट्टी के
लोंदे हो; कि
दूसरों ने
तुम्हें ढंग
दे दिए, रूप
दे दिए, आकार
दे दिए!
गोबर—गणेश
होने से न
चलेगा। आत्मा
का जन्म तभी
होता है, जब
तुम नगद पर
जीना शुरू
करते हो और
उधार को छोड़ते
हो।
'मूढ़
का जितना भी
ज्ञान होता है,
वह उसके ही
अनर्थ के लिए
होता है। वह
मूढ़ के
मस्तिष्क को
नीचे गिरा
देता है; उसके
शुक्लांश का
नाश कर देता
है।'
और
धीरे—धीरे वह
अंधेरे को ही
रोशनी समझने
लगता है। धीरे—धीरे
झूठों को सच
मान लेता है।
सत्य की
धारणाओं को, सत्य
का अनुभव समझ
लेता है।
शास्त्रों की
पुनरुक्ति को
समाधि मान
लेता है। फिर
भटक गया। फिर
बहुत कठिन है
उसका लौटकर
आना। उसका
ज्ञान ही उसके
लिए अहितकर हो
गया।
'झूठा
बड़प्पन मिले,
भिक्षुओं
में अगुआ होऊं,
मठों का
अधिपति बनूं
गृहस्थ
परिवारों में
पूजा जाऊं, गृही और
भिक्खु दोनों
ही मेरे किए
हुए को प्रमाण
मानें, और कार्यक्रमों
में सब मेरे
ही अधीन चलें,
इस प्रकार
मूढ़ का संकल्प
इच्छा और
अभिमान को बढ़ाता
है। '
भिक्षुओं
से बुद्ध बोले
हैं ये वचन।
बुद्ध ने धीरे—धीरे
भिक्षुओं से
ही बात की।
जैसा कि मैं
चाहता हूं कि
धीरे—धीरे
संन्यासियों
से ही बात
करूं।
क्योंकि जो
बदलने को
तैयार हो, उससे
ही बात करने
का कुछ मजा है।
जो सिर्फ
सुनने को चला
आया हो, कुतूहल
से चला आया हो,
या बहुत—बहुत
जिज्ञासा से
चला आया हो, उससे बात
करना समय का
गंवाना है। और
समय का गंवाना
ही नहीं, खतरा
भी है।
क्योंकि वह
मूढ़ कहीं इन
बातों को
पकड़कर, याददाश्त
में भरकर यह न
समझ बैठे कि
जान गया।
अन्यथा लाभ तो
कुछ भी न हुआ, हानि बड़ी हो
गई।
बुद्ध
ने सिर्फ
भिक्षुओं से
बात की है।
भिक्षु का
अर्थ है, जिसने
जीवन को दांव
पर लगाने की
तैयारी दिखाई है;
जो
जिज्ञासा से
नहीं, मुमुक्षा
से आया है; जो
कहता है, बदलने
को तैयार हूं।
देख लिए जीवन
के सपने; तोड़ने
को तैयार हूं।
एक बात पहचान
में आ गई कि
जैसा मैं हूं
र गलत हूं।
ठीक होने के
लिए जो भी
करना हो, वह
करने की मेरी
तैयारी है।
दुनिया
हंसे, कोई बात
नहीं। दुनिया
जिसे लाभ कहती
है, हाथ से
छूट जाए, कोई
बात नहीं।
दुनिया जिसे
संपदा और
सफलता कहती है,
देख लिया। न
वहा संपदा है,
न वहा सफलता
है। हाथ खाली
लेकर आया हूं।
अब जहां संपदा
हो, उसकी
तलाश पर जाने
को तैयार हूं।
मार्ग कठिन हो,
हो। यात्रा
लंबी हो, हो।
ऐसे
यात्रियों का
दल—उनसे ही
कुछ बात करने
का मजा है।
कुछ बात कहने
की बात है।
'झूठा
बड़प्पन मिले...।
'
पर
उनमें भी लोग
ऐसे आ जाते
हैं। भिक्षु
भी हो जाते
हैं,
संन्यस्त
भी हो जाते
हैं, और
फिर भी पुरानी
आदतों से बाज
नहीं आते। गलत
कारण से भी
तुम संन्यासी
हो सकते हो।
अगर यह भी
अहंकार ही हो,
अगर तुम
इसलिए
संन्यस्त हो
जाओ कि
संन्यासी होने
से भी अहंकार
की तृप्ति
होती है, कि
मैं कोई
साधारण आदमी न
रहा। मैं कोई
साधारण
गृहस्थ नहीं
हूं घर—गृहस्थी
वाला नहीं हूं
संन्यासी हूं।
अगर यह भी
तुम्हारे
भीतर अभियान
को जन्माता हो
तो चूक हो गई।
अहंकार ही घर
है; और
अहंकार में जो
रहता है, वही
गृहस्थ है।
अहंकार के जो
पार हुआ वही
संन्यस्त है।
फिर वह चाहे
घर में भी रहे
तो कोई फर्क
नहीं पड़ता।
'झूठा
बड़प्पन मिले,
भिक्षुओं
में अगुआ
होऊं...। '
संन्यासी
होकर भी
प्रतियोगिता, प्रतिस्पर्धा!
संन्यासी
होकर भी दौड़
वही कि आगे
खड़ा हो जाऊं, दूसरों को
पीछे कर दूं।
वहा भी अहंकार
और ईर्ष्या—चूक
हो गई फिर। और
निश्चित ही, जिसे आगे
खड़ा होना हो, वह शांत
नहीं हो सकता।
जिसे आगे खड़ा
होना हो, वह
उपद्रव से
मुक्त नहीं हो
सकता। वस्तुत:
आगे खड़े होने
के लिए
उपद्रवी होना
जरूरी है।
मैं
एक गांव में
मेहमान था।
पंद्रह अगस्त
का दिन था। और
स्कूल के
बच्चे गांव
में जुलूस
लेकर निकले थे, उनकी
कतार बनाई गई
थी। छोटा
बच्चा आगे, उससे फिर
बड़ा, उससे
फिर बड़ा, ऐसा
सिलसिले से वे
खड़े थे। कतार
तो बिलकुल ठीक
थी, सिर्फ
एक लड़का, जो
सबके आगे खड़ा
था और झंडा
लिए था, वह
इस श्रृंखला
के बाहर था।
तो
मैंने पूछा एक
लड़के को कि इस
लड़के को श्रृंखला
में क्यों खड़ा
नहीं किया गया? क्या
यह तुम्हारा
अगुआ है? उसने
कहा, अगुआ
नहीं है, लेकिन
इसको कहीं और
खड़ा करो तो
लोगों को
चिउटियां
लेता है।
इसलिए इसको
झंडा देकर आगे
खड़ा करना पड़ा।
तुम्हारे
सब राजनेता बस
ऐसे ही हैं, चिउटियां!
उनको कहीं
भीतर खड़ा करो
मत, झंझट
का काम है।
उनको आगे रखना
पड़ता है।
हालांकि वे
झंडा लिए हैं,
वे अकड़े हुए
हैं। मगर कुल
कारण उनके आगे
होने का यह है
कि वे उपद्रवी
हैं। आगे होना
हो तो उपद्रव
से मुक्त होने
का उपाय नहीं
है; उपद्रवी
होना पड़ेगा।
अहंकार
सब तरह की
झंझटों में
जीता है।
झंझटें उसका
भोजन है।
शांति में मर
जाता है।
शांति उसकी
मौत है।
निरुपद्रवी
अगर तुम हो
जाओ तो अहंकार
को खड़े होने
की जगह नहीं
रह जाती।
मैं
ऐ सीमाब सूरज
बन के चमका
हूं अंधेरों
में
न
होने से मेरे
महसूस दुनिया
में कमी होगी
किसी
के न होने से
दुनिया में
कोई कमी महसूस
नहीं होती।
सिकंदर आते
हैं और चले
जाते हैं; दुनिया
अपनी राह पर
चलती रहती है।
किसी के न
होने से कमी
महसूस नहीं
होती। लेकिन
अहंकार इसी
भाषा में
सोचता है कि
मैं बड़ा
अनिवार्य दूँ
अपरिहार्य
हूं। मेरे
बिना दुनिया
कैसे चलेगी? चांद—तारों
का क्या होगा?
ध्यान
रखना, तुम न थे,
तब भी
दुनिया चली
जाती थी। तुम
न होओगे, तब
भी चली जाएगी।
यह जो थोड़ी
देर का
तुम्हारा
होना है, इसे
उपद्रव मत
बनाओ। इस थोड़ी
देर के होने
को ऐसा शात कर
लो कि यह करीब—करीब
न होने जैसा
हो जाए। तुम न
थे, फिर
तुम न हो
जाओगे। यह बीच
की जो थोड़ी
देर के लिए
उथल—पुथल है, इसको भी ऐसी
शाति से गुजार
दो, जैसे
कि न होना था
पहले, न
होना अब भी है,
न होना आगे
भी होगा; तो
तुम अपने
स्वभाव का
अनुभव कर लोगे।
यह
जो थोड़ी देर
के लिए आख
खुली है जीवन
में,
इससे तुम
अपने न होने
को पहचान लो।
न होने की सतत
धार तुम्हारे
भीतर बह रही
है। कल तुम न
थे, कल फिर
तुम न हो
जाओगे। यह जो
आज की थोड़ी
घड़ी तुम्हें
होने की मिली
है, इसमें पहचान
लो कि नीचे
सतत धार न
होने की अभी
भी बह रही है।
वह न होना ही
स्वयं को
जानना है। वह
न होना ही
परमात्मा को
पहचान लेना है।
बुद्ध ने उसे
निर्वाण कहा
है।
'झूठा
बड़प्पन मिले,
भिक्षुओं
में अगुआ होऊं,
मठों का
अधिपति बनूं
गृहस्थ
परिवारों में
पूजा जाऊं, गृही और
भिक्खु मेरे
किए हुए को
प्रमाण मानें,
कार्याकार्य
में सब मेरे
अधीन चलें, इस प्रकार
मूढ़ का संकल्प
इच्छा और
अभिमान ही बढ़ाता
है। मूढ़ अगर
संन्यास भी ले—ले
तो संन्यास भी
उसकी मूढ़ता
में ही एक
आभूषण हो जाता
है। मूढ़ अगर
प्रार्थना भी
करे, तो
प्रार्थना भी
अहंकार को ही
सजाने वाली बन
जाती है। मूढ़
अगर मंदिर भी
जाता है तो
देखता हुआ
जाता है, कि
लोगों ने देख
लिया कि नहीं!
मूढ़ अगर मंदिर
में पूजा भी
करता है तो
बड़े शोरगुल से
करता है, ताकि
सारे गांव को
पता चल जाए कि
मैं कोई
साधारण आदमी
नहीं हूं, पूजा
करने वाला हूं
प्रार्थना
करने वाला हूं।
अन्यथा
प्रार्थना को
जोर—जोर से
करने की कोई
बात नहीं।
परमात्मा तो
तुम्हारे
हृदय की
भावदशा को भी
समझ लेता है।
चिल्लाते
किसलिए हो? शोरगुल
किसलिए मचाते
हो? जो
तुम्हारे
भीतर उठा, उठने
के पहले भी
परमात्मा की
समझ में आ
जाता है।
तुमने
कहानी सुनी है?
एक
बूढ़ी औरत बड़ा
बोझ लिए सिर
पर जाती है।
एक घुड़सवार
पास से निकला।
तो उस की औरत
ने कहा कि
बेटा, बोझ बड़ा
है, इसे तू
ले—ले; और
आगे चार मील
बाद, चुंगी
पर दे जाना।
मैं जब वहा
पहुंचूंगी तो
ले लूंगी।
घुड़सवार
अकड़ा—घुड़सवार!
उसने कहा, क्या
समझा है तूने?
मैं तेरा
कोई गुलाम हूं?
कोई नौकर—चाकर
हूं? ढो
अपना बोझ। यह
गंदी गठरी मैं
कहा ले जाऊंगा?
एड़ मारी, आगे बढ़ गया।
लेकिन कोई दो
फर्लांग गया
होगा, उसे
खयाल आया कि
गठरी लेकर चल
ही देते।
चुंगी—चौकी
वाले को क्या
पता? नाहक
गठरी गंवाई।
पता नहीं क्या
हो! लौटकर आया,
कहा : मां, भूल हो गई।
तू निश्चित की
है और बोझ
ज्यादा है। दे—दे,
चुंगी—चौकी
पर दे जाऊंगा।
उस बूढ़ी ने
कहा : बेटा अब
तू चिंता मत
कर। जो तुझसे
कह गया, वह
मुझसे भी कह
गया है। तू अपनी
राह ले, अब
मैं ढो लूंगी।
तुम्हारे
हृदय में जो
उठती है बात, तुम्हारे
जानने के पहले
भी परमात्मा
तक पहुंच जाती
है। क्योंकि
तुम अपने हृदय
से बहुत दूर
हो, परमात्मा
तुम्हारे
हृदय में
विराजमान है।
प्रार्थना को
चिल्ला—चिल्लाकर
करने की कोई
बात नहीं।
कहने की बात
ही नहीं है
कुछ। कहने को
क्या है? परमात्मा
के सामने सिर
झुकाकर बैठ
जाना है।
असहाय होकर, प्यासे होकर,
उसके हाथों
में अपने को
छोड़ देना है।
नहीं, लेकिन
जब तक
रथयात्रा न
निकले, शोभायात्रा
न हो, तब तक
उपवास करने
में मजा नहीं
आता। और जब तक
प्रार्थना के
लिए सत्कार—अभिनंदन
न मिले तब तक
कौन
प्रार्थना
करने को राजी
होता है?
मैंने
सुना है, इंग्लैड
की महारानी एक
चर्च में आने
को थी। एक
धनपति ने चर्च
के पादरी को
फोन किया कि
मैंने सुना है
कि आने वाले
रविवार को
महारानी स्वयं
चर्च में आने
वाली हैं।
क्या यह सच है?
अगर यह सच
हो तो मेरे
लिए भी प्रथम
पंक्ति में स्थान
बनाकर रखा जाए।
चर्च के पादरी
ने कहा, राजा—रानियों
का क्या भरोसा?
एक बात
पक्की है कि
परमात्मा
आएगा। रानी—राजा
का क्या भरोसा?
आएं, न
आएं; एक
बात पक्की है
कि परमात्मा
आएगा। पहले भी
आता रहा है, अब भी आता रहेगा।
अगर तुम्हारी
उत्सुकता
परमात्मा में
हो तो पहली
पंक्ति में
स्थान बनाकर
रखेंगे। उस
आदमी ने कहा
कि ठीक है, फिर
कोई बात नहीं।
परमात्मा में
किसकी
उत्सुकता है?
लेकिन रानी
देख ले कि
प्रथम पंक्ति
में बैठे हैं
चर्च में।
वैसी
एक कहानी
मैंने और सुनी
है कि स्वीडन
का सम्राट एक
बार एक चर्च
में गया। तो
वहां बड़ी भीड़
थी प्रार्थना
करने वालों की।
खचाखच भरा था
चर्च। इंचभर
जगह न थी। वह
बड़ा प्रसन्न
हुआ। उसने
पुरोहित को
कहा कि मैं
खुश हूं कि
लोग इतने
धार्मिक हैं।
उसने कहा, महानुभाव,
भूल में
पड़ते हैं। यह
चर्च सदा खाली
रहता है। ये
आज क्यों यहां
आए हैं, मुझे
पता नहीं।
आपकी वजह से
आए होंगे, परमात्मा
के कारण नहीं
आए। और ये
इतने जोर—जोर
से जो
प्रार्थनाएं
चल रही हैं, ये आपको
सुनाने को चल
रही होंगी। इन
प्रार्थनाओं
के पीछे
राजनीति होगी,
धर्म नहीं
है।
मूढ़
अगर संन्यस्त
भी हो जाए, तो
गलत ही कारणों
से होता है।
मूढ़ अगर व्रत
भी ले तो गलत
कारणों से ही
लेता है। और
मूढ़ों को
समझाने वाले
जो लोग हैं, वे भी इस राज
को समझते हैं।
वे उनकी मूढ़ता
को ही
प्रोत्साहन
देते हैं।
अणुव्रत
ले लो तो बड़ा
आदर—सत्कार
होता है।
ब्रह्मचर्य
का व्रत ले लो
तो तालियां
पिट जाती हैं।
वे तालियां
पीटने वाले भी
जानते हैं कि
तालियां
पीटना
तुम्हारे लिए
ज्यादा
मूल्यवान है ब्रह्मचर्य
से। ये तालियां
याद रहेंगी।
फिर तुम ड़रोगे
कि समाज ने
इतना सम्मान
दिया, अब अगर
व्रत तोड़े तो
सम्मान छिन न
जाए। इसलिए
तुम्हारा
समाज साधु—संन्यासियों
को इतना
सम्मान देता
है। सम्मान का
कारण यह है कि
वे सम्मान के
कारण ही साधु—संन्यासी
हैं। अगर
सम्मान गया, साधु—संन्यास
भी गया। तुम
उनके अहंकार
की पूजा कर
रहे हो, ताकि
अब वे
संन्यासी हो
गए हैं तो बने
रहें। वे हुए
भी इसीलिए हैं;
वे बने भी
इसीलिए हैं।
थोड़ा सोचो, भारत में
कोई एक करोड़
साधु—संन्यासी
हैं, एक
करोड़ साधु—संन्यासी
अगर सच में
हों तो इस
मुल्क के
भाग्य में और
क्या कमी रह
जाए? लेकिन
उनके होने से
कुछ होता नहीं
है, सिर्फ
थोड़ा उपद्रव
होता है।
रहिए
अब ऐसी जगह
चलकर जहा कोई
न हो
हमसुखन
कोई न हो और
हमजबां कोई न
हो
ऐसी
जगह तो खोजनी
मुश्किल है।
जहां भी जाओगे, जहां
तुम जा सकते
हो,
वहां
दूसरे भी जा
सकते हैं। ऐसी
जगह खोजनी तो
मुश्किल है।
तुम आदमी हो, तुम
पहुंच गए, तो
दूसरा आदमी भी
पहुंच सकता है।
रहिए
अब ऐसी जगह
चलकर जहां कोई
न हो
ऐसी
जगह बाहर तो
नहीं खोजी जा
सकती, बस भीतर
खोजी जा सकती
है। हमसुखन
कोई न हो और
हमजबा कोई न
हो
न
तो कोई बातचीत
करने को हो, न
कोई अपनी जबान
समझता हो। कहो
जाओगे? बाहर
जाने का उपाय
नहीं। बस, भीतर
एकांत खोजा जा
सकता है।
मूढ़
अगर एकांत भी
खोजता है तो बाहर
खोजता है।
समझदार अगर
एकांत खोजता
है तो भीतर
खोजता है।
बाहर तो संसार
है। जहां भी
जाओ,
कहीं भी जाओ,
चांद—तारों
पर चले जाओ, संसार ही
होगा। तुम
जहां होओगे, वहां संसार
होगा। भीतर
चलो! क्योंकि
जैसे—जैसे तुम
भीतर जाओगे, तुम मिटने
लगते हो।
इसलिए तो लोग
भीतर जाने में
डरते हैं।
ध्यान
मौत है। मौन
मौत है। वहा
सीमाएं
बिखरने लगती
हैं। जैसे—जैसे
तुम भीतर जाते
हो,
जहां भाषा
नहीं पहुंचती—हमसुखन
कोई नहीं
हमजबां कोई
नहीं। जैसे ही
भाषा नहीं, वहां खुद को
भी बोल नहीं
सकते कुछ। खुद
से भी बोल
नहीं सकते कुछ।
जहा सब चुप है,
जहां
चुप्पी का
संसार है, वहीं
तुम्हारा
एकांत है।
मूढ़
एकांत खोजे तो
जंगल जाता है; समझदार
एकांत खोजे तो
स्वयं में
जाता है। मूढ़
अगर त्याग करे
तो वस्तुओं का
त्याग करता है;
समझदार अगर
त्याग करे तो
परिग्रह का
त्याग करता है,
वस्तुओं का
नहीं; पकड़
का त्याग करता
है। छू अगर
गृहस्थी छोड़े,
घर छोड़े, तो मिट्टी
का घर छोड़ता
है। समझदार
अगर घर छोड़ता
है तो घर
बनाने की आकांक्षा
छोड़ता है।
असुरक्षा को
स्वीकार करता
है, सुरक्षा
के उपद्रव छोड़
देता है।
'लाभ
का रास्ता
दूसरा है और
निर्वाण का
रास्ता दूसरा
है।'
यह
वचन बड़ा अदभुत
है।
बुद्ध
कहते हैं, 'लाभ
का रास्ता
दूसरा है, निर्वाण
का रास्ता
दूसरा है। '
मूढ़
हमेशा लाभ का
ही हिसाब रखता
है। निर्वाण
की दिशा में
भी जाता है तो
भी। मेरे पास
लोग आते हैं; वे
कहते हैं, ध्यान
करेंगे तो लाभ
क्या होगा? कौन कहे
इनसे? लाभ
ही तो ध्यान
नहीं होने दे
रहा है। लाभ
ने ही तो मारा।
लाभ ने ही तो
पागल बनाया है,
विक्षिप्त
किया है। और
अब यहां भी
आते हो तो
पूछते हो कि
ध्यान करेंगे
तो लाभ क्या
होगा? संन्यास
लेंगे तो लाभ
क्या होगा? लाभ की
दृष्टि ही तो
रोग है; उसे
यहां भी ले
आते हो? तुम
बिना लाभ के
कुछ कर ही नहीं
सकते! तुम यह
पूछते हो कि
परमात्मा को
क्यों खोजें?
लाभ क्या
होगा? धन
की भाषा पीछा
नहीं छोड़ती।
लोभ की भाषा
पीछा नहीं
छोड़ती।
अगर
नहीं है यह
दस्ते—हविश की
कमजोरी
तो
फिर दराजिए—दस्ते—दुआ
को क्या कहिए
पहले
तुम संसार में
भीख मलते रहते
हो. लाभ—लाभ।
फिर तुम मंदिर
भी जाते हो तो
परमात्मा के
सामने हाथ
फैलाते हो।
मांग जारी
रहती है।
अगर
नहीं है यह
दस्ते—हविश की
कमजोरी
वह
जो नमाज के
बाद,
प्रार्थना
के बाद हाथ
फैलाए जाते
हैं, वे भी
तो तृष्णा की
ही कमजोरी है।
वह भी तो मांग
है, वह भी
तो लोभ है। तो
तुमने संसार
कहां छोड़ा? तुम
परमात्मा के
पास भी संसार
ही ले आए।
समझो; संसार
का अर्थ है :
मांगने की
वृत्ति।
संसार का अर्थ
है : संग्रह की
वृत्ति।
संसार का अर्थ
है लोभ की
वृत्ति।
संसार का अर्थ
है : तुम अलोभ
में नहीं जी
सकते। तुम
जीवन के
सौंदर्य को, जीवन के
सत्य को, जीवन
के शुभ को परम
मूल्य की तरह
स्वीकार नहीं
कर सकते। तुम
उसका भी मूल्य
चाहते हो। तुम
कहते हो, अगर
पुण्य करूंगा
तो स्वर्ग में
क्या—क्या
मिलेगा? तुम्हारे
शास्त्र सब
बताते हैं, क्या—क्या
मिलेगा; लोभियों
ने सुने, लोभियों
ने लिखे। तुम
पूछते हो, तीर्थ—यात्रा
को जाएंगे तो
लाभ क्या—क्या
होगा? तुम्हारे
शास्त्र
बताते हैं!
लोभियों ने
सुने, लोभियों
ने लिखे। और इससे
लोभ है।
मैं
एक कुंभ के
मेले में
प्रयाग में था, बैठा
था तट के
किनारे। एक
पंडा अपने
शिष्यों को
समझा रहा था
कि एक पैसा
यहां दोगे तो
एक करोड़ गुना वहां
पाओगे। एक
करोड़ गुना!
कुछ थोड़ा
हिसाब भी तो
रखो। संसार
में भी सीमाएं
हैं लोभ की।
यह तो लाटरी
बड़ी हो गई। एक
पैसे से, एक
करोड गुना? जुआ खिलाने
वाले लोग भी
इतना आश्वासन
नहीं देते।
मगर स्वर्ग के
आश्वासन चल
सकते हैं, क्योंकि
कोई कभी देखकर
आया नहीं। कोई
लौटकर कभी
कहता नहीं कि
पाया कि पैसा
भी गंवाया; कि हाथ में
जो था, वह
भी गया।
लेकिन
कितना लोभ तुम
दे रहे हो!
इसके पीछे अर्थ
क्या है? इसका
अर्थ यह है कि
जो लोग इकट्ठे
हैं, उन्हें
परमात्मा से
कुछ लेना—देना
नहीं। वे एक
पैसे को करोड़
गुना करने की
तरकीब खोजने आए
हैं। वही
संसार में
करते थे; फिर
चोरी और क्या
थी? डाका
और क्या था? शोषण और
क्या था? फिर
दुकानदार को
गाली क्यों दे
रहे हो? फिर
धन इकट्ठे
करने वाले की
निंदा क्यों
कर रहे हो? फिर
यही तो यहां
भी जारी है।
तो
सारे धर्म एक—दूसरे
से बढ़—चढ़कर
लाटरी बताते
हैं। वे कहते
हैं कि अगर
हमारे रास्ते
पर चले, अगर
यह लाटरी की
टिकट खरीदी, तो एक पैसे
का करोड़गुना
क्या, दस
करोड़गुना
मिलेगा! लफ्फाजी
है। कोई हर्जा
तो है ही नहीं
कहने में। एक
करोड़ क्यों, दस करोड़ कहो।
अरब—खरब कहो।
जहां तक
संख्या जाती
हो, शंख—महाशंख
कहो; कोई
रुकावट नहीं
है। कोई
प्रमाण नहीं
है।
सूरत
में
मुसलमानों का
एक छोटा सा
समाज है। उनका
गुरु चिट्ठी
लिखकर देता है
कि इस आदमी ने
इतना दान किया, लिख
दिया भगवान के
नाम। और जब वह
आदमी मरेगा तो
वह चिट्ठी
उसकी छाती पर
रखकर कब्र में
दबा देते हैं।
उस
समाज का एक
आदमी मुझे मिलने
आया। तो मैं
सूरत में था, उसने
कहा, आपका
इस संबंध में
क्या कहना है?
मैंने कहा,
तुम जाकर
जरा एकाध कब
खोलकर तो देखो,
चिट्ठी
वहीं की वहीं
पाओगे। वह
बोला कि यह भी
ठीक आपने कहा।
यह मुझे खयाल
ही न आया।
चिट्ठियां
भगवान के नाम
लिखकर दी जा
रही हैं, कि
इस आदमी ने
इतना—इतना
किया, इसका
खयाल रखना।
स्वर्ग में
जरा जगह निकट
देना। 'लाभ का
रास्ता दूसरा,
निर्वाण का
रास्ता दूसरा
है। बुद्ध का
श्रावक
भिक्षु इसे
ठीक से
पहचानकर सत्कार
का कभी
अभिनंदन न करे
और विवेक (एकांतवास
) को बढ़ाता जाए।
वह
भी है दस्ते—हविश
दस्ते—दुआ जिसको
कहें
इन्फिआल
अपनी खुदी का
है खुदा जिसको
कहें
वह
भी वासना ही
है,
जिसे हम
प्रार्थना
कहते हैं। और
जिसको हम
परमात्मा
कहते हैं, वह
परमात्मा
नहीं, हमारे
पापों का
पश्चात्ताप
है।
तुम
घबड़ा गए हो
अपने पापों से, तो
तुमने
परमात्मा खड़ा
कर लिया है।
तुम्हारा
परमात्मा, तुम्हारे
पापों का
पश्चात्ताप
है; यह
असली
परमात्मा
नहीं। यह
तुमने अपने
पापों की वजह
से ईजाद किया
है। क्योंकि
इतने कर चुके,
अब कोई
चाहिए, जो
क्षमा करे। अब
तुमसे तो न
होगा। अब तुम
क्या करोगे? अब तो तुम
इतना कर चुके—इतने
जन्मों—जन्मों
की श्रृंखला,
इतने पाप
कर्म—अब कोई
चाहिए
महाकरुणावान।
तो बैठे हो
मंदिर में, कहते हो, हे
पतित—पावन!
पतित होने का
धंधा तुमने
किया, पावन
होने का धंधा
तुम करो। अब
तुम कह रहे हो
कि मैंने तो
करके दिखा दिए
पाप, अब
तुम करुणा
करके दिखाओ।
यह
तुम्हारे
पापों का ही
पश्चात्ताप
है। इसे थोड़ा
समझना; अगर
तुम्हारे
जीवन में पाप
न हो तो
परमात्मा की
जरूरत भी क्या?
तुम्हारे
जीवन में अगर
पाप न हो, तो
प्रार्थना की
जरूरत क्या? तब तुम्हारा
जीवन ही
प्रार्थना
होगी।
प्रार्थना की
अलग से कोई
जरूरत न रह
जाएगी।
तुम्हारी
श्वास—श्वास
में प्रार्थना
की गंध होगी।
तुम्हारे
उठने—बैठने
में
प्रार्थना का
राग होगा, रंग
होगा।
तुम्हारे
होने में
प्रार्थना
खिलेगी।
प्रार्थना की
अलग से जरूरत
क्या? पाप
किया है तो
जरूरत है।
परमात्मा को
अलग से याद
करने की जरूरत
क्या? उसकी
याद तुम्हारे
श्वास—श्वास
में रम जाएगी।
लेकिन अभी तुम
जिसे
परमात्मा
कहते हो, वह
सिर्फ
पश्चात्ताप
है।
वह
भी है दस्ते—हविश
दस्ते—दुआ
जिसको कहें
वह
भी तृष्णा का
ही हाथ है, जो
प्रार्थना के
बाद परमात्मा
के सामने फैलता
है।
दस्ते
दुआ जिसको
कहें
इन्फिआल
अपनी खुदी का
है खुदा जिसको
कहें
वह अपने
अहंकार का ही
पश्चात्ताप
है,
जिसको तुम
खुदा कहते हो,
वह अपनी ही
खुदी का
पश्चात्ताप
है। बहुत
अहंकार को
मजबूत कर लिया
है, अब कोई
चाहिए, जिसके
सामने समर्पण
करें। और असली
परमात्मा तब
प्रगट होता है,
जब
तुम्हारी लोभ
की यह दृष्टि,
तुम्हारा
हिसाब—किताब
गिर जाता है।
'लाभ
का रास्ता
दूसरा है और
निर्वाण का
रास्ता दूसरा
है। '
निर्वाण
का क्या है
रास्ता फिर?
पक्षी
गीत गा रहे
हैं। पूछो, लाभ
क्या है? किसलिए
गा रहे हैं? न अखबारों
में कोई खबर
छपेगी, न
भारत—रत्न और
पद्य—विभूषण
के कोई खिताब
मिलेंगे, न
कोई
विश्वविद्यालय
उपाधियां
देंगे, न
बैंकों में
हिसाब बढ़ेगा।
पूछो, पक्षी
गीत क्यों गा
रहे हैं? पूछो,
फूल खिले
क्यों हैं? कोई उत्तर न
आएगा।
फूल
खिले हैं, खिलने
के लिए। पक्षी
गीत गा रहे
हैं, गीत
गाने के लिए।
गीत गाना इतना
अपरिसीम आनंद
है, अपने
आप में अंत है;
साध्य है, साधन नहीं।
फूल का खिलना
परिसमाप्ति
है, आखिरी
मंजिल है; उसके
पार और कुछ भी
नहीं।
लोभ
का रास्ता
हमेशा हर चीज
को साधन बना
लेता है।
निर्वाण का
रास्ता
प्रत्येक चीज
को साध्य मानता
है। कोई चीज
किसी और का
साधन नहीं है।
तुम
तो हर चीज को
साधन बना लेते
हो। मां अगर
बेटे को प्रेम
भी कर रही है
तो आशाएं बाध
रही है—बड़ा
होगा, धन
कमाएगा। बस, चूक गए तुम
वहीं। बेटे के
प्रति प्रेम,
निर्वाण का
रास्ता भी हो
सकता था।
पत्नी
पति को प्रेम
कर रही है, कभी—कभी
अतिशय प्रेम
करने लगती है
तो पति डर
जाता है। जरूर
जेब में हाथ
डालेगी।
अन्यथा कोई
फिक्र नहीं
करता एक—दूसरे
की। जब कुछ
काम लेना हो, नए गहने
बनवाने हों, नई साड़ियां
खरीदनी हों, तब पति के
प्रति पत्नी
अतिशय प्रेम
से भर आती है।
प्रेम भी साधन
हो गया, निर्वाण
न रहा। लोभ ने
सभी चीजों को
विकृत किया।
लोभ ने सभी के
प्रति
व्यभिचार किया।
जीवन को एक और
भी ढंग है
देखने का, जहां
प्रत्येक चीज
अपना लक्ष्य
है, कहीं
और पार लक्ष्य
नहीं है। जहां
यही क्षण
गंतव्य है, और कहीं
गंतव्य नहीं।
प्रेम—प्रेम
के लिए ध्यान—ध्यान
के लिए।
तुम
तो अहिंसक
बनते हो, ब्रह्मचर्य
लेते हो, वह
भी साधन है
स्वर्ग जाने का।
तुम तो किसी
की सेवा भी
करते हो तो
उसमें भी नजर
तुम्हारी
रहती है कि
परमात्मा देख
रहा है कि
नहीं। कितनी
सेवा की है, हिसाब लिख
लिया गया कि
नहीं।
लोभ
का रास्ता और, निर्वाण
का रास्ता और।
निर्वाण के
रास्ते का
अर्थ ही यही
है कि तुम्हारे
जीवन की
प्रत्येक घड़ी
साध्य हो जाए
ब्रह्मचर्य
के लिए।
ब्रह्मचर्य
का आनंद इतना
है कि अब तुम
और स्वर्ग
मांगते हो? साफ है कि
तुम्हें
ब्रह्मचर्य
का आनंद नहीं
मिला; इसलिए
तुम उसका फल
चाहते हो।
नहीं तो
ब्रह्मचर्य
व्यर्थ की मेहनत
हो गई, व्यर्थ
की परेशानी
हुई।
तुमने
उपवास किया, अब
तुम कहते हो, स्वर्ग में
जगह चाहिए।
उपवास का अपना
ही आनंद है।
अगर ठीक से
किया, अगर
जाना कि कैसे
करें, तो
उपवास का परम
आनंद है। वह
उपवास में ही
मिल जाएगा। वह
शांति, वह
सरलता, जो
उपवास की
घड़ियों में
घटती है; वह
निर्भार हो
जाना, पंख
लग जाना, जो
उपवास की
घड़ियों में
घटते हैं; एक
भीतर
स्वच्छता का
अनुभव, एक
ताजगी का भर
जाना, वह जो
उपवास में
उतरता है, अपने—आप
में परिपूर्ण
है। कहीं और
जाने की जरूरत
नहीं। कुछ और
मांगने का
सवाल नहीं।
जिसने उपवास
किया, उसने
पा लिया।
प्रार्थना
का मजा
प्रार्थना
में परिपूर्ण
है। फिर तुम जब
हाथ फैलाते हो
मांगने के लिए, तो
इतना ही बताते
हो कि
प्रार्थना
झूठ थी।
तुम्हें
प्रार्थना
में कुछ न
मिला, अब
तुम और हाथ
फैलाते हो? प्रार्थना
भी मतलब से
करते हो? प्रार्थना
भी तरकीब थी
परमात्मा को
फुसलाने की? प्रार्थना
भी जैसे
खुशामद थी!
संस्कृत
में तो प्रार्थना
को स्तुति ही
कहते हैं—खुशामद; कि
तुम महान हो, बड़े हो, ऐसे
हो, वैसे
हो—मतलब की
बातें हैं। जब
काम पड़ा, कह
लीं; जब
काम न रहा, कौन
करता है याद!
तो
दुख में खुदा
याद आ जाता है।
पीड़ा में
परमात्मा की
बातें होने
लगती हैं। सुख
में सब भूल
जाते हैं।
स्तुति शब्द
ही गंदा है—खुशामद!
कुछ पाने की
इच्छा! तो
परमात्मा को
तुम फुसला रहे
हो बड़ा—बड़ा
कहकर। तुम
उसके अहंकार
को फुला रहे
हो। तुम उससे
कह रहे हो, देखो,
इतना बड़ा
कहा, अब
सिद्ध करना कि
हो इतने बड़े।
तो प्रार्थना
जब पूरी कर
दोगे तो सिद्ध
हो जाएगा कि
जरूर बड़े हो; फिर और बड़ा
कहेंगे। तुम
खेल किससे खेल
रहे हो? तुम
अपनी मूढ़ता
परमात्मा के
भीतर भी डाल
रहे हो।
तुमसे
इसी तरह काम
चलता है।
तुमसे जब किसी
को काम लेना
होता है तो वह
कहता है, अहा!
तुम जैसा कोई
आदमी नहीं; महात्मा हो।
सब बातें करके
वह कहता है, एक पांच
रुपया उधार
चाहिए। अब तुम
जरा मुश्किल
में पड़ते हो; क्योंकि
इसने महात्मा
भी कहा, अब
इज्जत का भी
सवाल है। अब
पांच रुपए के
पीछे कोई
महात्मापन
खोता है? अब
दे ही दो; ज्यादा
से ज्यादा ले
ही जाएगा।
उसने भी
इसीलिए कहा।
दे दोगे तो वह
भी
मुस्कुराएगा
सीढ़ियां
उतरकर कि खूब
बनाया। मतलब
था।
तुम
अहंकार की
भाषा समझते हो
तो तुम सोचते
हो,
परमात्मा
भी अहंकार की
ही भाषा
समझेगा।
निर्वाण का
रास्ता नहीं
है, लोभ का
रास्ता है।
प्रार्थना
तो इतनी सुंदर
है अपने में, इतनी
पूरी है अपने
में, परिपूर्ण
है; उससे
ज्यादा और
पूर्णता कुछ
हो नहीं सकती।
जो नाच लिया
प्रार्थना
में, जो
गीत गा लिया, उस पर वर्षा
हो गई अमृत की।
वह भर गया; उसकी
झोली भरी है।
झोली फैलाने
की जरूरत नहीं
है।
प्रार्थना के
बाद
प्रार्थना का
फल नहीं है, प्रार्थना
में है; प्रार्थना
में
अंतर्निहित
है। इसलिए तो
भक्ति—सूत्र
में नारद ने
कहा, भक्ति
अपना फल है; साधन नहीं, साध्य है।
लेकिन
तुम अगर लोभ
से भरे रहे तो
तुम प्रार्थना
भी कर लोगे, वर्षा
हो भी जाएगी
और तुम अछूते
रह जाओगे।
परमात्मा
द्वार पर भी आ
जाएगा, तुम्हारी
नजर उसकी जेब
पर ही लगी
रहेगी। तुम
परमात्मा के
हृदय में
प्रवेश न पा
सकोगे।
किरन
आफताब की
दस्ते—दर पे
तपिश छिड़क के
चली गई
सूरज
की किरण
तुम्हारे
द्वार पर भी
आएगी, अपनी
ऊष्मा, अपनी
गर्मी छिड़क कर
चली भी जाएगी।
किरन
आफताब की
दस्ते—दर पे
तपिश छिड़क के
चली गई
मगर
एक जईए मनफइल
जो बुझा रहा
सो बुझा रहा
लेकिन
तुम बुझे के
बुझे रहे। तुम
अपने अहंकार
में,
अपने संकोच
में, अपने
लोभ में दबे
रहे, सो
दबे रहे। किरण
आई भी और गई भी।
सारी
बदलाहट लोभ से
निर्वाण के
रास्ते पर है।
उससे बड़ा और
कोई इंकलाब
नहीं, कोई और
बड़ी क्रांति
नहीं, महाक्रांति
है। बस, एक
ही क्रांति है
इस संसार में—लोभ
से निर्वाण के
रास्ते पर
बदलाहट।
पूछो
मत जीवन में
कि किसलिए है? जीयो।
और प्रत्येक
क्षण को अपनी
मंजिल हो जाने
दो; फिर
किरणों का राज
खुल जाएगा; फिर फूलों
की गंध
तुम्हारी तरफ
उठने लगेगी; फिर तुम
जीवन को एक और
ही नई आख से
देखोगे। सब
कुछ था, लेकिन
तुम्हारी लोभ
की नजर के
कारण तुम अंधे
थे। सब कुछ
मिला ही हुआ
था। कुछ कमी न
थी। कभी भी
कमी न थी। अभी
भी कमी नहीं
है। कभी भी
कमी न होगी।
सिर्फ तुम
अपनी लोभ की
आख के कारण
अंधे थे।
कभी
राह मैंने
बदली तो जमीं
का रक्स बदला
कभी
सांस ली ठहरकर
तो ठहर गया
जमाना
तुम्हारे
ऊपर सब निर्भर
है। तुम्हारे
देखने के ढंग
पर सब निर्भर
है।
संसार
का अर्थ है, लोभ
की दृष्टि से
देखा गया
परमात्मा; तब
संसार दिखाई
पड़ता है।
परमात्मा का
अर्थ है, निर्वाण
की दृष्टि से
देखा गया
संसार; तब
परमात्मा
दिखाई पड़ता है।
वही है। संसार
और परमात्मा
दो नहीं हैं।
झेन
फकीरों में
वचन है कि
संसार और
निर्वाण एक
हैं। बड़ी उलटी
बात मालूम
पड़ती है, लेकिन
बात जरा भी
उलटी नहीं है।
सत्य तो एक ही
है, देखने
के ढंग दो हैं।
देखने के ढंग
पर सब निर्भर
है।
ऐसा
हुआ कि मैं
अपने एक मित्र
के साथ एक
बगीचे की बेंच
पर बैठा था।
विश्वविद्यालय
में जब पढ़ता
था तब की बात
है। सांझ का
वक्त था, धुंधलका
उतर आया था।
और दूर से एक
लड़की आती हुई
मालूम पड़ी। उस
मित्र ने उस
लड़की की तरफ
कुछ वासना—भरी
बातें कहीं।
जैसे—जैसे
लड़की करीब आने
लगी, वह
थोड़ा बेचैन
हुआ। मैंने
पूछा कि मामला
क्या है? तुम
थोड़े लड़खड़ा
गए! उसने कहा
कि थोड़ा रुके;
मुझे डर है
कि कहीं यह
मेरी बहन न हो।
और
जब वह और करीब
आई और बिजली
के खंभे के
नीचे आ गई—वह
उसकी बहन ही
थी।
मैंने
पूछा, अब क्या
हुआ? यह
लड़की वही है; जरा धुंधलके
में थी, वासना
जगी। पहचान न
पाए, वासना
जगी। अब पास आ
गई, अब
थोड़ा खोजो
अपने भीतर, कहीं वासना
है? वह
कहने लगा, सिवाय
पश्चात्ताप
के और कुछ भी
नहीं। दुखी
हूं कि ऐसी
बात मैंने कही,
कि ऐसे शब्द
मेरे मुंह से
निकले। मैंने
उससे कहा कि
जरा खयाल रखना,
सारी बात
दृष्टि की है।
अब यह भी हो
सकता है कि और
पास आकर पता
चले, तुम्हारी
बहन नहीं; फिर
नजर बदल जाएगी;
फिर नजर बदल
जाएगी, फिर
वासना जगह कर
लेगी।
सत्य
तो एक ही है।
जब तुम लोभ की
नजर से देखते
हो,
संसार बन
जाता है। जब तुम
निर्वाण की
नजर से देखते
हो, परमात्मा
बन जाता है।
कभी
राह मैंने
बदली तो जमीं
का रक्स बदला
कभी
सांस ली ठहरकर
तो ठहर गया
जमाना
यह
जो तुम्हें
इतनी चहल—पहल
दुनिया में
दिखाई पड़ती है, यह
जो इतना
उपद्रव दिखाई
पड़ता है, यह
भी इसलिए
दिखाई पड़ता है
कि तुम भीतर
उपद्रव में हो।
अगर वहा सब
शात हो जाए
तुम अचानक
पाओगे कि सब तरफ
शाति ही शांति
है। जो भीतर
शांत हुआ, उसने
सब तरफ शाति
पाई। जो भीतर
चुप हुआ, उसने
सब तरफ चुप्पी
पाई। जो भीतर
आनंदित हुआ, उसने सब तरफ
आनंद पाया।
यह
दुख की रात
तुम्हारे
भीतर का ही
फैलाव है। यह
नर्क तुमने ही
बोया है; तुम्हारी
ही दृष्टि का
फल है। इसको
बदलना नहीं है,
अपनी
दृष्टि को बदल
लेना है।
दृष्टि के
बदलते ही
सृष्टि बदल
जाती है।
रूहे—मुतरिब
में नए राग ने
अंगड़ाई ली
साज
महरूम था जिस
धुन पे वह धुन
जाग पड़ी
पर्दा—ए—साज
से तूफाने—सदा
फूट पड़ा
रक्स
की ताल में इक
आलमे—नौ झूम
उठा
जैसे
वीणा रखी है, अनछुयी,
और तुमने
अंगुलियों से
इशारा किया—सोया
हुआ राग फूट
पड़ा; ऐसे
ही तुम्हारी
दृष्टि के
बदलते ही कुछ
सोया हुआ राग
फूट पड़ता है।
तुम्हारी
सांस के ठहरते
ही, तुम्हारे
थोड़े शात होते
ही, तुम्हारे
थोड़े
ध्यानस्थ
होते ही, सारा
जगत एक दूसरा
ही रहस्य हो
जाता है।
रूहे—मुतरिब
में नए राग ने
अंगड़ाई ली
साज
महरूम था जिस
धुन पे वह धुन
जाग पड़ी
अभी
तक तुम ऐसे हो, जैसे
सितार सोया हो;
किसी ने
छेड़ा न हो; अभी
तक तुम ऐसे हो,
जैसे रात हो
और सुबह न हुई
हो।
पर्दा—ए—साज
से तूफाने—सदा
फूट पड़ा
रक्स
की ताल में इक
आलमे—नौ झूम
उठा
इधर
भीतर तुम नाचे
कि सारा संसार
तुम्हारे चारों
तरफ नाचने
लगता है। इधर
तुम कृष्ण हुए
कि उधर रास
सजा।
आज
की सुबह मेरे
कैफ का अंदाज
न कर
दिले—वीरा
में अजब
अंजुमन आराई
है
और
तब तुम कह
सकोगे कि
हिसाब मत लगाओ।
यह जो सुबह आई, यह
जो राग नया
फूटा, अब
अंदाज मत
लगाओ! मेरी
मस्ती का कोई
अंदाज नही लग
सकता।
आज
की सुबह मेरे
कैफ का अंदाज
न कर
दिले—वीरा
में अजब
अंजुमन आराई
है
सूखे
रेगिस्तान
में हृदय के
वसंत का आगमन
हुआ है।
धर्म
इस वसंत की
खोज है।
निर्वाण की
दृष्टि उसे
पाने का सूत्र
है।
आज
इतना ही।
thank you guruji
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