पहला
प्रश्न:
भगवान, एक ही आरजू
है कि इस खोपड़ी
से कैसे
मुक्ति हो जाए?
आपकी शरण
आया हूं।
पूछा
है चिन्मय ने।
खोपड़ी
से मुक्त होने
का खयाल भी खोपड़ी
का ही है।
मुक्त होने की
जब तक
आकांक्षा है, तब तक
मुक्ति संभव
नहीं।
क्योंकि
आकांक्षा मात्र
ही, आकांक्षा
की अभीप्सा मन
का ही जाल और
खेल है। मन
संसार ही नहीं
बनाता, मन
मोक्ष भी
बनाता है। और
जिसने यह जान
लिया वही
मुक्त हो गया।
साधारणतः
ऐसा लगता है, मन ने बनाया
है संसार, तो
हम मन से
मुक्त हो जाएं
तो मुक्त हो
जाएंगे। वहीं
भूल हो गयी।
वहीं मन ने
फिर धोखा
दिया। फिर मन
ने चाल चली।
फिर मन ने जाल
फेंका। फिर
तुम उलझे।
फिर नया संसार
बना। मोक्ष भी
संसार बन जाता
है।
संसार
का अर्थ क्या
है? जो उलझा
ले। संसार का
अर्थ क्या है?
जो अपेक्षा
बन जाए, वासना
बन जाए। संसार
का अर्थ क्या
है? जो
तुम्हारा
भविष्य बन
जाए। जिसके
सहारे और जिसके
आसरे और जिसकी
आशा में तुम जीने लगो,
वही संसार
है। दुकान पर
बैठे हो, इससे
संसार में हो;
मंदिर में
बैठ जाओगे,
संसार के
बाहर हो जाओगे--इतनी
सस्ती बातों
में मत पड़
जाना।
काश, इतना आसान होता! तब तो कुछ उलझन न थी। दुकान में संसार नहीं है, और न मंदिर में संसार से मुक्ति है। अपेक्षा में, आकांक्षा में, आशा में संसार है; सपने में संसार है। तो तुम मोक्ष का सपना देखो, तो भी संसार में हो।
काश, इतना आसान होता! तब तो कुछ उलझन न थी। दुकान में संसार नहीं है, और न मंदिर में संसार से मुक्ति है। अपेक्षा में, आकांक्षा में, आशा में संसार है; सपने में संसार है। तो तुम मोक्ष का सपना देखो, तो भी संसार में हो।
संसार
के बाहर वही
है जो अभी और
यहीं है। लेकिन
इसका तो अर्थ
यह हुआ कि
मोक्ष की
आकांक्षा भी छोड़
देनी पड़ेगी।
अन्यथा, मोक्ष
के बहाने भी, मोक्ष की
वासना से भी
तुम नए-नए
संसार बनाते चले
जाओगे।
समझना
काफी है, छूटना
नहीं है।
छूटना किससे
है? किसी
ने बांधा होता
तो छूटते।
किसी ने बांधा
भी नहीं है।
बंधन कहां है?
बंधन से छूटने
की जल्दी मत
करो। क्योंकि
यह भी हो सकता
है, बंधन
हो ही न! तब तुम छूटने की
कोशिश से बंध जाओगे। और
अगर बंधन नहीं
है, तो छूटोगे
कैसे?
बंधन
से छूटने
की कोशिश मत
करो, बंधन को
जानने की
कोशिश करो कि
बंधन कहां है! पूछो।
जिज्ञासा
करो। वासना मत
करो।
विपरीत
की वासना भी
वासना है। तुम
कुएं से बचते
हो, खाई में
गिर जाते हो।
इससे क्या
फर्क पड़ेगा
कि तुमने
गिरने का ढंग
बदल लिया? तुम
बाएं गिरे कि
दाएं गिरे, इससे क्या
भेद पड़ता है?
जिज्ञासा
करो कि बंधन
कहां है? बंधन
क्या है? बंधन
को भर आंख देखो।
इसी को बुद्ध
ध्यान कहते
हैं, अप्रमाद
कहते हैं, कि
बंधन को भर
आंख देखो।
तुम्हारे
देखने-देखने
में तुम पाओगे,
बंधन पिघला,
बंधन गया।
क्योंकि बंधन
तुम्हारी
मूर्च्छा है।
अगर तुम जागकर
देखोगे, कैसे टिकेगा?
बंधन
वस्तुतः होता
तो मुक्ति का
कोई उपाय न था।
बंधन केवल
खयाल है। बात
में से बात
निकल आयी
है। कहीं कुछ
है नहीं।
एक
युवक भिक्षु नागार्जुन
के पास आया और
उसने कहा कि
मुझे मुक्त
होना है। और
उसने कहा कि
जीवन लगा देने
की मेरी तैयारी
है। मैं मरने
को तैयार हूं, लेकिन
मुक्ति मुझे
चाहिए। कोई भी
कीमत हो, चुकाने
को राजी हूं।
अपनी
तरफ से तो वह बड़ी
समझदारी की
बातें कह रहा
था।
चिन्मय
ने भी यही
पूछा है आगे
प्रश्न में:
सरफरोशी
की तमन्ना अब
हमारे दिल में
है
देखना
है जोर कितना
बाजू-ए-कातिल
में है
उसने
भी यही कहा
होगा नागार्जुन
को कि मरने की
तैयारी है; अब तुम्हारे
हाथ में सब
बात है। मुझसे
न कह सकोगे
कि मैंने कुछ
कमी की प्रयास
में। मैं सब
करने को तैयार
हूं। अपनी तरफ
से वह ईमानदार
था। उसकी ईमानदारी
पर शक भी क्या
करें! मरने को
तैयार था--और
क्या आदमी से
मांग सकते हो?
लेकिन
ईमानदारी
कितनी ही हो, भ्रांत थी।
नागार्जुन
ने कहा, ठहर।
एक छोटा सा
प्रयोग कर।
फिर, अभी
इतनी जल्दी
नहीं है
मरने-मारने
की। यह भाषा ही
नासमझी की है।
यहां
मरना-मारना
कैसा? तू
एक तीन दिन
छोटा सा
प्रयोग कर, फिर देखेंगे।
और उससे कहा
कि तू चला जा
सामने की गुफा
में, अंदर
बैठ जा, और
एक ही बात पर
चित्त को
एकाग्र कर कि
तू एक भैंस हो
गया है। भैंस
सामने खड़ी थी,
इसलिए नागार्जुन
को खयाल आ गया
कि 'तू एक
भैंस हो गया
है।' यह
सामने भैंस
खड़ी है। उस
युवक ने कहा
जरा चिंतित
होकर कि इससे
मुक्ति का
क्या संबंध? नागार्जुन ने कहा, वह
हम तीन दिन
बाद सोचेंगे।
बस तू तीन दिन
बिना खाए-पीए,
बिना सोए, एक ही बात
सोचता रह कि
तू भैंस हो
गया है। तीन
दिन बाद मैं
हाजिर हो जाऊंगा
तेरे पास। अगर
तू इसमें सफल
हो गया, तो
मुक्ति
बिलकुल आसान
है। फिर मरने
की कोई जरूरत
नहीं।
उस
युवक ने सब
दांव पर लगा
दिया। वह तीन
दिन न भोजन
किया, न
सोया। तीन दिन
अहर्निश उसने
एक ही बात सोची
कि मैं भैंस
हूं। अब तीन
दिन अगर कोई
सोचता रहे
भैंस है--वह
भैंस हो गया!
हो गया, नहीं
कि हो गया; उसे
प्रतीत होने
लगा कि हो
गया। एक
प्रतीति पैदा
हुई। एक भ्रमजाल
खड़ा हुआ।
जब
तीसरे दिन
सुबह उसने आंख
खोलकर देखा तो
वह घबड़ाया--वह
भैंस हो गया
था! और भी घबड़ाया, क्योंकि अब
बाहर कैसे निकलेगा!
गुफा का द्वार
छोटा था। आए
तब तो आदमी थे;
अब भैंस थे,
उसके बड़े
सींग थे। उसने
कोशिश भी की
तो सींग अटक
गए। चिल्लाना
चाहा तो आवाज
तो न निकली,
भैंस का
स्वर निकला।
जब स्वर निकला
तो नागार्जुन
भागा हुआ
पहुंचा। देखा,
युवक है।
कहीं कोई सींग
नहीं हैं। मगर
सींग अटक रहे
हैं। कहीं कोई
सींग नहीं
हैं। वह आदमी
जैसा आदमी है।
जैसा आया था
वैसा ही है।
लेकिन तीन दिन
का आत्मसम्मोहन,
तीन दिन का
सतत सुझाव!
तीन बार भी
सुझाव दो तो परिणाम
हो जाते हैं, तीन दिन में
तो करोड़ों
बार उसने
सुझाव दिए
होंगे। फिर
बिना खाए,
बिना सोए!
जब तुम
तीन दिन तक
नहीं सोते तो
तुम्हारी
सपना देखने की
शक्ति इकट्ठी
हो जाती है।
तीन दिन तक
सपना ही नहीं
देखा! जैसे
भूख इकट्ठी
होती है तीन दिन
तक खाना न
खाने से, ऐसा
तीन दिन तक
सपना न देखने
से सपना देखने
की शक्ति
इकट्ठी हो
जाती है। वह
तीन दिन की
सपना देखने की
शक्ति, तीन
दिन की भूख...!
भूख
में भी जितना
शरीर कमजोर हो
जाता है, उतना
मन मजबूत हो
जाता है। भूख
से शरीर तो
कमजोर होता है,
मन मजबूत
होता है।
इसलिए तो बहुत
से धर्म उपवास
करने लगे और
बहुत से
धर्मों ने
रात्रि-जागरण
किया। अगर रातभर
जागते रहो
तो परमात्मा
जल्दी दिखायी
पड़ता है। सपना
इकट्ठा हो
जाता है।
अभी इस
पर तो
वैज्ञानिक
शोध भी हुई
है। और वैज्ञानिक
भी इस बात पर
राजी हो गए
हैं कि अगर
तुम बहुत दिन
तक सपना न देखो
तो हैलूसिनेशन्स
पैदा होने
लगते हैं। फिर
तुम जागते में
सपना देखने लगोगे।
आंख खुली रहेगी
और सपना देखोगे।
सपना एक जरूरत
है। सपना
तुम्हारे मन
का निकास है, रेचन है।
तीन
दिन तक जागता
रहा। सपने की
शक्ति इकट्ठी
हो गयी। तीन
दिन भूखा रहा, शरीर कमजोर
हो गया।
यह
तुमने कभी
खयाल किया!
बुखार में जब
शरीर कमजोर हो
जाए तो तुम
ऐसी कल्पनाएं
देखने लगते हो
जो तुम स्वस्थ
हालत में कभी
न देखोगे।
खाट उड़ी
जा रही है! तुम
जानते हो कि
कहीं उड़ी
नहीं जा रही।
अपनी खाट पर
लेटे हो, मगर
शक होने लगता
है। क्या, हो
क्या गया है
तुम्हें? शरीर
कमजोर है।
जब
शरीर स्वस्थ
होता है तो मन
पर नियंत्रण
रखता है। जब
शरीर कमजोर हो
जाता है तो मन
बिलकुल मुक्त
हो जाता है।
और मन तो सपना
देखने की
शक्ति का ही
नाम है। तो
बीमारी में
लोगों को
भूत-प्रेत दिखायी
पड़ने
लगते हैं।
स्त्रियों को
ज्यादा दिखायी
पड़ते हैं
पुरुषों की
बजाय। बच्चों
को ज्यादा दिखायी
पड़ते हैं प्रौढ़ों
की बजाय।
जहां-जहां मन
कोमल है और
शरीर से ज्यादा
मजबूत है, वहीं-वहीं
सपना आसान हो
जाता है।
तीन
दिन का उपवास, तीन दिन की
अनिद्रा, और
फिर तीन दिन
सतत एक ही
मंत्र--यही तो मंत्रयोग
है। तुम बैठे
अगर राम-राम, राम-राम
कहते रहो
कई दिनों तक, पागल हो ही जाओगे। एक
सीमा है झेलने
की। वह तीन
दिन तक कहता
रहा: मैं भैंस
हूं, मैं भैंस
हूं, मैं
भैंस हूं। हो
गया। मंत्रशक्ति
काम कर गयी।
लोग मुझसे
पूछते हैं मंत्रशक्ति?
उनको मैं यह
कहानी कह देता
हूं। यह मंत्रशक्ति
है।
नागार्जुन
द्वार पर खड़ा हंसने
लगा। वह युवक
बहुत शघमदा
भी हुआ और
उसने कहा, लेकिन आप हंसें,
यह बात जंचती
नहीं।
तुम्हारे ही बताए उपाय
को मानकर
मैं फंस
गया हूं। अब
मुझे निकालो।
सींग बड़े हैं,
द्वार से
निकलते नहीं बनता। और
मैं भूखा भी
हूं। नींद भी सता रही
है।
नागार्जुन
उसके पास गया, उसे जोर से हिलाया। हिलाया तो
थोड़ा वह
तंद्रा से
जागा। जागा तो
उसने देखा, सींग भी
नदारद हैं, भैंस भी कहीं
नहीं है। वह
भी हंसने
लगा। नागार्जुन
ने कहा: बस यही
मुक्ति का
सूत्र है।
संसार तेरा
बनाया हुआ है,
कल्पित है।
संसार
को छोड़ना नहीं
है, जागकर देखना है।
इसलिए जिन्होंने
तुमसे
कहा कि संसार छोड़ो, उन्होंने
तुम्हें
मोक्ष में
उलझा दिया।
मैं तुम्हें
संसार छोड़ने
को इसीलिए
नहीं कह रहा
हूं। छोड़ने की
बात ही भ्रांत
है। जो है ही
नहीं उसे छोड़ोगे
कैसे? छोड़ोगे तो भूल में पड़ोगे। जो
नहीं है उसे
देख लेना, जान
लेना कि वह
नहीं है, मुक्त
हो जाना है।
इसलिए
बुद्ध ने कहा:
असत्य को
असत्य की तरह
देख लेना
मोक्ष है।
असार को असार
की तरह देख
लेना मोक्ष
है। सारा राज
देख लेने में
है।
यह तो पूछो ही मत
कि खोपड़ी
से कैसे
मुक्ति हो
जाए। यह कौन
है जो पूछ रहा
है? यह खोपड़ी
ही है जो पूछ
रही है। अगर
इस खोपड़ी
की बात मानकर
चले, तो
इससे तुम कभी
मुक्त न हो पाओगे।
जागकर देखो, कौन
पूछता है? गौर
से सुनो, कौन प्रश्न
उठाता है? यह
कौन है जो
मुक्त होना
चाहता है? क्यों
मुक्त होना
चाहता है? बंधन
कहां है?
और
जिसने भी जागकर
देखा, वह हंसने लगा;
क्योंकि
बंधन उसने कभी
पाए नहीं। जागने
में कोई बंधन
नहीं है।
इसलिए बुद्ध
चिल्ला-चिल्लाकर
कहते हैं, प्रमाद
में मत जीयो।
अप्रमाद! जागो!
होश में आ जाओ!
और तुम कहीं
भी गए नहीं
हो। तुम वहीं
हो जहां
तुम्हें होना
चाहिए। भैंस
तुम कभी हुए
नहीं हो। तुम
वही हो जो तुम
हो। तुम परमात्मा
हो। इससे तुम
रत्तीभर
यहां-वहां न
हो सकते हो, न होने का
कोई उपाय है।
हां, तुम भ्रांति
में रह सकते
हो। तुम अपने
को जो चाहे
समझ लो। मन
शक्तिशाली
है। तुम जो चाहोगे
वही बन जाओगे।
और जिस दिन भी
तुम देखना चाहोगे,
उस दिन तुम
दृष्टि बन जाओगे।
दृष्टि
मुक्ति है।
समझे
थे तुझसे
दूर निकल
जाएंगे कहीं
समझे
थे तुझसे
दूर निकल
जाएंगे कहीं
देखा
तो हर मुकाम
तेरी रहगुजर
में है
कहां जाओगे दूर निकलकर
परमात्मा से? कहीं भी जाओगे,
पाओगे उसके ही
रास्ते में
तुम्हारा
मुकाम है।
समझे
थे तुझसे
दूर निकल
जाएंगे कहीं
देखा
तो हर मुकाम
तेरी रहगुजर
में है
हर
मुकाम उसी का
है। हर पल उसी
का है।
अस्तित्व से
दूर जाने का
उपाय कहां है? कैसे जाओगे
दूर? हां, सोच सकते हो,
विचार कर
सकते हो कि
दूर निकल गए।
और जब दूर निकलने
का खयाल आ
जाएगा तो तुम चिल्लाओगे,
पूछोगे,
पास कैसे आ
जाएं? अब
जो तुम्हें
पास आने का
रास्ता बता
देगा, वह
तुम्हें भटका
देगा।
क्योंकि दूर
अगर निकले
होते, तो
पास भी आ सकते
थे। दूर कभी
निकले ही नहीं,
इसको ही
जानना है।
तो अगर
सार मैं तुमसे
कहूं: बंधन की
तरफ आंख करो।
जहां-जहां
बंधन दिखता हो, वहीं-वहीं
ध्यान को लगाओ।
बंधन ध्यान का
विषय बन जाए।
और तुम पाओगे,
तुम्हारे
ध्यान की
ज्योति
जैसे-जैसे सघन
होती है, वैसे-वैसे
बंधन तरल होकर
बिखर
जाता है। जिस
दिन ध्यान की
ज्योति
परिपूर्ण सघन
हो जाती है, अचानक तुम
पाते हो कि
बंधन गया।
सपना था, टूट
गया। नींद का
खयाल था, मिट
गया।
बिखरा
ध्यान हो, तो खोपड़ी
है। इकट्ठा
ध्यान हो, खोपड़ी
गयी। विचार
ध्यान के
टुकड़े हैं। छितर गया
ध्यान, जैसे
दर्पण को किसी
ने पटक दिया, खंड-खंड हो
गया। इकट्ठा
जमा लो; बस
उतना ही राज
है। इसलिए
ध्यान को
चिंतन, मनन,
विमर्श बनाओ।
खोपड़ी से
मुक्त हो जाने
की बात मत पूछो।
खोपड़ी
में कुछ भी
बुरा नहीं है;
वहां भी
परमात्मा ही
विराजमान है।
वह भी उसी का
मंदिर है। वह
भी उसकी ही रहगुजर
है। वहां से
वही गुजरता
है।
अगर तुम
गलत न समझो
तो मैं तुमसे
कहूंगा, विचार
भी उसी के हैं,
निर्विचार भी उसी का
है। तनाव भी
उसी का है, और
शांति भी उसी
की है। संसार
भी उसी का है
और मोक्ष भी
उसी का है।
इसलिए झेन फकीरों
ने एक बड़ी अनूठी
बात कही है, जिसको
सदियों तक लोग
सोचते रहे हैं
और समझ नहीं पाते
हैं। झेन फकीरों ने
कहा है: संसार
और मोक्ष एक
ही चीज के दो
नाम हैं। ठीक
से न देखा तो
संसार, ठीक
से देख लिया
तो मोक्ष।
लेकिन सत्य एक
ही है।
गैर-ठीक
से देखने का
ढंग क्या है? आंख
बचा-बचाकर
चलते हो। भीतर
कामवासना
है, तुम
उसे देखते
नहीं।
तुम्हारे न
देखने में ही
वह बड़ी होती
चली जाती
है--भैंस के
सींग बड़े होते
चले जाते हैं।
भीतर क्रोध है,
तुम उसकी
तरफ पीठ कर
लेते हो डर के
मारे कि कहीं
आ ही न जाए, ऊपर
न आ जाए, किसी
को पता न चल
जाए!
भीतर-भीतर
क्रोध की जड़ें
फैलती जाती
हैं।
तुम्हारा
पूरा
व्यक्तित्व विषाद,
दुख, उदासी,
भय और क्रोध
के जहर से भर
जाता है। और
जितना ही यह
बढ़ने लगता है,
उतने ही तुम
डरने
लगते हो।
जितने तुम डरने
लगते हो, उतना
ही तुम देखते
नहीं; तुम
आंख बचाने
लगते हो। तुम
अपने से आंख
बचा-बचाकर कब
तक भागोगे,
कहां भागकर
जाओगे?
तुम
अपने से आंख
बचा रहे हो, यही उलझन
है। बचाओ
मत। जो है, जैसा
है, उसे
देख लो। और
मैं तुमसे
कहता हूं, उसके
देखने में ही
मोक्ष है।
जिसने देख
लिया ठीक से
अपने को, उसने
सिवाय
परमात्मा के
और कुछ भी न
पाया।
समझे
थे तुझसे
दूर निकल
जाएंगे कहीं
देखा
तो हर मुकाम
तेरी रहगुजर
में है
दूसरा
प्रश्न:
कभी-कभी
भगवान बुद्ध
और लाओत्से
का बोध एक सा
लगता है; मगर हैं
दोनों
एक-दूसरे के
उलटे छोर पर।
मेरी अपनी
समस्या यह है
कि मेरा
स्वभाव प्रेम
से ज्यादा
ध्यान पर लगता
है, और मैं
सबसे ज्यादा लाओत्से
से प्रभावित
हूं। इसे कैसे
सुलझाऊं?
सुलझाना
क्या है? अगर
सुलझी-सुलझी
बात को उलझाना
हो, तो बात
अलग। इसमें
कहां समस्या
है?
कभी-कभी
मैं हैरान
होता हूं कि
तुम कितने
कुशल हो गए हो
समस्या बनाने
में! जहां
नहीं होती वहां
बना लेते हो!
अगर ध्यान में
मन लगता है तो
समस्या क्या
है? कौन तुमसे
कह रहा है
प्रेम में मन लगाओ? ध्यान
में मन लग गया
है, बस हो
गयी बात।
जिनका ध्यान
में न लगता हो,
वे प्रेम
में लगाएं।
लेकिन
मेरे पास लोग
आ जाते हैं, वे कहते हैं:
प्रेम में मन
लगता है, ध्यान
में नहीं
लगता। बड़ी
समस्या है!
क्या करें?
अगर
तुमने जिद्द
ही बना ली है
कि समस्या तुम
बनाए ही चले जाओगे, तुम्हारी मौज
है।
फिर से
इस प्रश्न को
गौर से सुनो, यह सभी का
प्रश्न है:
'कभी-कभी
भगवान बुद्ध
और लाओत्से
का बोध एक सा
लगता है; मगर
हैं दोनों
एक-दूसरे के
उलटे छोर पर।
मेरी अपनी
समस्या यह है
कि मेरा
स्वभाव प्रेम
से ज्यादा
ध्यान पर लगता
है।'
इसमें
समस्या कैसी
है? यह तो समाधान
है। छोड़ो
प्रेम की
बकवास।
तुम्हारे लिए
बकवास है, उसकी
तुम चिंता में
मत पड़ो।
हां, अगर
समस्या ही
बनानी हो, बिना
समस्या के
रहना ही
मुश्किल पड़ता
हो, तो बात
अलग! फिर
तुम्हारी
मर्जी!
'और
मैं सबसे
ज्यादा लाओत्से
से प्रभावित
हूं।'
इसमें
भी क्या बुराई
है? यह तो
बहुत ही बढ़िया
है। बुद्ध को
भूल ही जाओ।
लेना-देना
क्या है? लाओत्से काफी है।
तुम्हारी
हालत ऐसी है
कि तुम बाएं
रास्ते पर चलते
हो तो दायां
रास्ता
समस्या बन
जाता है, कि
दाएं पर चलते!
अगर दाएं पर
चलते हो तो
बायां समस्या
बन जाता है।
दोनों
रास्तों पर एक
साथ चलोगे
भी कैसे? तुम
अकेले हो, रास्ते
बहुत हैं।
अनेक रास्ते
हैं, अगर
सब पर चलना
चाहा तो पागल
हो जाओगे।
इतना तो होश रखो कि जो
जम जाए, उस
पर चल जाना
है।
मैं तुमसे
बुद्ध, लाओत्से,
महावीर, कृष्ण,
क्राइस्ट
की बात कर रहा
हूं, ताकि
कोई तुम्हें
जम जाए। मगर
मैं जानता हूं,
तुम खतरनाक
हो। तुम बजाय
किसी को जमाने
के, अगर
तुम कहीं
थोड़े-बहुत जमे
भी होओगे,
तो उसको भी उखाड़ डालोगे।
मैं
तुम्हें सब
रास्ते खोले
दे रहा हूं, ताकि जिससे
तुम्हारा
तालमेल बैठ
जाए, वहीं
से तुम्हारी
मंजिल आ जाए।
कोई बुद्ध ने
ठेका नहीं
लिया है कि
बुद्ध के साथ
ही जाओगे
तो ही पहुंचोगे।
लाओत्से
एकदम बढ़िया
है। रास्ता
ठीक है। तुम
चल पड़ो।
डगमगाते
क्यों हो? जहां
समस्या नहीं
है वहां तुम
समस्या कैसे
देख लेते हो? ऐसा लगता है
कि बिना
समस्या देखे
तुम जी नहीं सकते,
क्योंकि
फिर तुम करोगे
क्या?
एक
मेरे पुराने
मित्र हैं।
मेरे साथ पढ़े
भी। फिर मेरे
साथ विश्वविद्यालय
में शिक्षक भी
थे। कोई
पंद्रह साल
बाद मुझे मिलने
आए। कहने लगे, आपकी सब समस्याएं
मिट गयीं? कोई
प्रश्न न रहा?
तो फिर आप
करते क्या होओगे?
खाली आदमी जीएगा
कैसे? कुछ
तो करने को
चाहिए!
उनकी
तकलीफ मैं
समझता हूं। वे
सोच भी नहीं
सकते कि खाली
होने में भी
कोई रस हो
सकता है। खाली
होना उन्हें
घबड़ाहट देगा।
कुछ भी करने
को नहीं है।
कोई समस्या
नहीं है, कोई
प्रश्न नहीं
है। न हो, तो
आदमी बना लेता
है।
मैं तुमसे
कहता हूं, समस्याएं हैं नहीं, तुमने बनायी
हैं। इस
प्रश्न की ही
बात नहीं कर
रहा हूं; तुम्हारे
सब प्रश्नों
की बात कर रहा
हूं। यह प्रश्न
तो बहुत
सीधा-साफ है, इसलिए तुम
पकड़ में आ गए।
तुम बहुत
चालबाजी भी करते
हो। तुम ऐसे
भी प्रश्न
बनाते हो कि
कोई पकड़ नहीं
सकता।
लेकिन
मैं तुमसे
कहता हूं, सब प्रश्न
तुम्हारे
बनाए हुए हैं।
तुम चूंकि खाली
होने से डरते
हो, इसलिए
कोई न कोई
समस्या बनाए
चले जाते हो।
समस्या है, तो हल करने
की सुविधा है।
हल होगा तब
होगा! विधि खोजेंगे,
विधान खोजेंगे,
शास्त्र खोजेंगे--कुछ
व्यस्तता रहेगी!
इस
संसार में बड़ी
अजीब अवस्था
है! आदमी दुख
को भी इसीलिए
नहीं छोड़ता
कि दुख में
उलझा तो रहता
है, लगा तो
रहता है, कुछ
काम तो करता
रहता है। तुम
कहते जरूर हो
कि दुख मिट
जाए; लेकिन
तुमने सच में
कभी चाहा नहीं
कि दुख मिट जाए,
क्योंकि
फिर तुम करोगे
क्या! तुम
कहते हो
अशांति मिट
जाए, लेकिन
तुमने कभी
पूछा कि
अशांति मिट
जाएगी तो तुम करोगे
क्या! नहीं, भीतर एक
भरोसा है कि मिटने
वाली नहीं है,
इसलिए
पूछते रहो,
कोई हर्जा
नहीं है। मिटेगी
थोड़े ही!
तुम्हारे
सामने अगर
एकदम से शून्य
का द्वार खुल
जाए, तुम भाग
खड़े होओगे।
तुम फिर लौटकर
न देखोगे।
रवींद्रनाथ
का गीत है कि
जन्मों-जन्मों
तक खोजा
परमात्मा को।
जब तक न मिला, तब तक बड़ी
बेचैनी थी, और दौड़ थी, और तड़फ
थी। लोग तड़फ
का भी बड़ा मजा
लेते हैं, बड़ा
प्रदर्शन
करते हैं।
परमात्मा को
खोजने जा रहे
हैं! अहंकार
की बड़ी तृप्ति
होती है! कहीं दूर
उसकी झलक
मिलती है तो
जन्मों-जन्मों
तक यात्रा
करके वहां पहुंचते
हैं, लेकिन
तब तक वह कहीं
और जा चुका
होता है।
पर एक
दिन मुश्किल
हो गयी, उसके
द्वार पर ही
पहुंच गए!
तख्ती लगी थी।
पुराना जोश
जन्मों-जन्मों
का पाने
का--एकदम चढ़ गए सीढ़ी।
सांकल हाथ में
ले ली। तभी
समझ आयी, कि अगर वह
मिल ही गया तो
फिर क्या
करेंगे! कहीं यह
घर सच में ही
उसका हुआ!
धोखा हुआ, तब
तो कोई अड़चन
नहीं है, फिर
खोज पर निकल
जाएंगे। खोज
भरे रखती है।
अगर सच में ही
यह घर उसका
हुआ--फिर?
रवींद्रनाथ
की कविता बड़ी
महत्वपूर्ण
है। लिखा है
कि आहिस्ता से
सांकल छोड़ दी
कि कहीं बज न
जाए--भूल-चूक--कहीं
वह द्वार खोल
ही न दे! जूते उतारकर
हाथ में ले लिए
कि कहीं सीढ़ियों
से उतरते वक्त
आवाज न हो जाए!
और फिर जो
भागा हूं तो
पीछे लौटकर
नहीं देखा। अब
फिर खोजता हूं, हालांकि
मुझे उसका घर
पता है। उस
जगह को छोड़कर
सब जगह खोजता
हूं। वहां भर
नहीं जाता, क्योंकि
मुझे मालूम
है।
यह
कहीं हालत
तुम्हारी भी
तो नहीं है? जब मैं गौर
से तुम्हारे
भीतर देखता
हूं तो पाता
हूं, यही
हालत
तुम्हारी है।
तुम्हें भी
उसका घर पता
है। तुम भाग
खड़े हुए हो।
वह घर
तुम्हारे भीतर
है। वहां तुम
जाते ही नहीं,
सब जगह तुम
खोजते हो।
वहां भर जाकर
तुम ठिठकते हो,
डरते हो।
नहीं, कोई समस्या
मत बनाओ।
अगर ध्यान में
रस आ गया, तो
प्रेम अपने आप
आ जाएगा। यही
तो मैं तुमसे
कह रहा हूं कि
दो ढंग हैं।
उनको दो ढंग
भी कहना ठीक
नहीं; वे
एक ही सिक्के
के दो पहलू
हैं। ध्यान से
चलो, तो
प्रेम अपने आप
आ जाता है।
प्रेम से चलो,
तो ध्यान
अपने आप आ
जाता है। और
हर आदमी
अलग-अलग ढंग
से बना है।
मुहब्बत
के लिए कुछ
खास दिल मखसूस
होते हैं
ये वो
नग्मा है
जो हर साज पर
गाया नहीं
जाता
यह गीत
है मुहब्बत का, जो किन्हीं
साजों पर
गाया जाता है।
सभी साजों
पर नहीं गाया
जाता। लेकिन
यही बात ध्यान
के लिए भी सच
है। उसके लिए
भी कुछ खास
दिल मखसूस
होते हैं। वह
भी:
ये वो
नग्मा है
जो हर साज पर
गाया नहीं
जाता
मीरा
के साज पर
प्रेम का गीत
जमा। बुद्ध के
साज पर ध्यान
का गीत जमा।
गाया--यह असली
बात है। भरपूर
गाया।
समग्रता से
गाया। ध्यान
को गाया या
प्रेम को
गाया--ये
पंडित सोचते
रहें। गा
लिया! गीत अनगाया
न रहा! जो छिपा था
वह प्रगट हो
गया! जो बंद था
कली में वह
फूल बना! वह जो
बीज में दबा
था, चांदत्तारों से उसने बात
की! खुले आकाश
में गंध फेंकी!
दूर-दूर तक
संदेश दिए! लुट
गया! परिपूर्ण
हुआ!
गीत
तुम कौन सा गाओ, इसका बहुत
सवाल नहीं है।
और ध्यान रखना,
गीत तुम
अपना ही गा
सकोगे; दूसरे का
गीत तुम कैसे गाओगे? यही
तो मैं सतत
तुम्हारे सिर
पर हथौड़ी
की तरह चोट
मारता रहता
हूं कि गीत
तुम अपना ही गा सकोगे,
किसी और का
नहीं। उधार भी
गीत गाकर
कहीं तुम गायक
बन सकोगे?
हां, मीरा की नकल करके
अगर नाच लिए
और भीतर कोई
प्रेम का रस
जगता ही न था, तो तुम्हारा
नाच झूठा
होगा। और झूठे
नाच से तुम
सच्चे
परमात्मा तक न
पहुंच पाओगे।
नाच थोड़े ही पहुंचाता
है, नाच की
सच्चाई पहुंचाती
है।
प्रामाणिकता,
उसकी गहराई!
अगर
बुद्ध की तरह
वृक्ष के, बोधिवृक्ष
के नीचे शांत
बैठना ही
तुम्हारा स्वभाव
हो तो उससे भी
पहुंच जाओगे।
क्योंकि
बैठना थोड़े ही
पहुंचाता
है, बैठने
की सच्चाई!
झेन
फकीर कहते हैं, सिर्फ बैठना
काफी है। इससे
ज्यादा करने
की कोई जरूरत
नहीं है। जो
चुप होकर बैठ
गया, वह
पहुंच गया।
क्योंकि जाना
कहां है? अपने
ही भीतर, अपने
ही भीतर उतर
जाना है। कुछ
करने की जरूरत
नहीं है।
तुम यह
मत समझना कि मीरा नाचकर
वहां पहुंचती
है। नाचने से
उसका क्या
लेना-देना है? या बुद्ध बैठकर
पहुंचते
हैं। बैठने से
भी क्या
लेना-देना है?
कोई भी
कृत्य जो
तुम्हारी
परिपूर्णता
से आता है, वही
पहुंचा देता
है।
परिपूर्णता पहुंचाती
है।
और
ध्यान रखना
उधारी से तुम
न पहुंचोगे।
कोई प्रॉक्सी
वहां नहीं
चलती। तुम ही जाओगे तो
ही...। कोई
दूसरा
तुम्हारी जगह
हाजिरी न भरवा
सकेगा। तुम
किसी दूसरे से
न कह सकोगे।
वह कोई भारतीय
विश्वविद्यालय
की कक्षा नहीं
है कि एक
मित्र को कह
गए कि जब मेरा
नाम आए तो कह
देना। मैं खुद
ही यही करता
रहा सालों।
लेकिन उस सत्य
के जगत में
कोई प्रॉक्सी, कोई दूसरा
तुम्हारे लिए यस सर न कह
सकेगा। तुम ही
मौजूद होओगे
तो ही...।
एक
खयाल रखो
बात: अपने साज
को पहचानो।
ध्यान से मन
लग रहा है, तो तुम्हारा
साज खुद ही तुमसे
कह रहा है कि गाओ गीत
ध्यान का।
मुहब्बत
के लिए कुछ
खास दिल मखसूस
होते हैं
ये वो नग्मा
है जो हर साज
पर गाया नहीं
जाता
पर
ध्यान भी ऐसा
ही है। हर कोई
ध्यान न कर
सकेगा। मीरा
को लाख कहो
कि बैठ जा तू, वह बैठ न सकेगी।
वह बैठना दूभर
हो जाएगा।
बुद्ध को कहो:
नाचो।
थोड़ा सोचो,
उन पर कैसी
मुसीबत न आ
जाएगी! तुम
कितना ही बैंड-बाजा
बजाओ, उनके
पैर में थिरकन
भी न होगी।
तुम्हारा
बैंड-बाजा सुनकर
वे और भी आंख
बंद करके शांत
हो जाएंगे।
अलग-अलग
साज हैं।
अलग-अलग नग्मे
हैं। हर साज
का अपना नग्मा
है। अपने साज
को पहचानो, नग्मे की नकल मत
करना।
तुम्हारा साज बजने लगे!
गुलाब गुलाब
बने, कमल कमल बने।
जब वे खिल
जाएंगे, तो
दोनों ही
परमात्मा के
चरणों में
समर्पित हो
जाते हैं। एक
ही बात खयाल
रहे, इस
बात को ही मैं
आस्तिकता
कहता हूं--
जो कहोगे तुम कहेंगे हम
भी हां यूं ही
सही
आपकी
गर यूं खुशी
है मेहरबां
यूं ही सही
परमात्मा
की तरफ बस यह
एक भाव रहे कि
तुम जो कहोगे--ध्यान
तो ध्यान। साज
से पूछ लेना, वह परमात्मा
का बनाया हुआ
है।
जो कहोगे तुम कहेंगे हम
भी हां यूं ही
सही
आपकी
गर यूं खुशी
है मेहरबां
यूं ही सही
तुम
अपनी खुशी बीच
में मत डालना।
तुम यह मत कहना
कि मैं तो
प्रेम का गीत गाऊंगा।
वही
नास्तिकता
है। तुम यह मत
कहना कि मैं
तो ध्यान का
ही गीत गाऊंगा, चाहे साज पर
बैठता हो या न
बैठता हो। वही
नास्तिकता
है। जिसने
अपनी जिद्द
लानी
चाही
अस्तित्व के
विपरीत, वही
नास्तिक है।
जिसने
अस्तित्व को
हां कहा--हां, मेहरबां यूं ही
सही--बस, उसके
लिए मंदिर के
द्वार खुले
हैं।
तीसरा
प्रश्न:
हम
प्रमादी
लोगों के जीवन
में सपने ही
सपने हैं, पर सपनों का
सत्य क्या है?
क्या
प्रमाद रहते
उसे हम जान
सकते हैं?
सपने
ही सपने
हैं--यह तुमने
मुझे सुनकर
समझ लिया।
इतने जल्दी मत
मान लेना।
जानना जरूरी
है, मानना
नहीं। मैंने
कह दिया और
तुमने मान
लिया, तो
काम न चलेगा; उधार हो गयी
बात। तुम्हें
ही खोजना पड़ेगा
कि सपने हैं।
बहुत
लोग भटक जाते
हैं दूसरों की
बात मानकर।
क्योंकि मैं
लाख कहूं कि
सपना है, अगर
तुम्हें भीतर
सच ही लग रहा
है, तो तुम
मेरी मानते भी
रहोगे और
चलते भी उसी
की दिशा में रहोगे जो
तुम्हें सच लग
रहा है। यही
तो उलझन है
आदमी की।
बुद्ध
कहते हैं:
क्रोध पागलपन
है। तुमने सुन
लिया, इनकार
भी न कर सके।
और बुद्ध
बलशाली हैं।
जब वे कहते
हैं, तो
उनके कहने में
वजन है। जब वे
कहते हैं, तो
उनका पूरा
व्यक्तित्व
उसका प्रमाण
है। तुम इनकार
भी नहीं कर
सकते। बुद्ध
से तर्क भी
नहीं कर सकते।
और बहुत गहरे
में तुम्हारा
सोया हुआ
बुद्धत्व भी
भीतर से हां
भरता है कि
ठीक है। कितना
ही तुम झुठलाओ
अपने भीतर को,
वह भीतर भी
कहता है कि
ठीक है।
संगीतज्ञ
कहते हैं कि
अगर कोई बड़ा
कुशल संगीतज्ञ
वीणा बजाए, और दूसरी
वीणा कमरे में
सिर्फ रखी हो,
तो उसके तार
भी झनझनाने
लगते हैं; वे
भी जवाब देने
लगते हैं; वे
भी
प्रतिध्वनित
होने लगते
हैं। पुराने
दिनों में तो
यही कसौटी थी
संगीतज्ञ की
कि कोई अगर सच
में वीणा बजाने
में कुशल हो
गया है, तो
वह तभी कुशल
माना जाता था,
जब दूसरे
कोने में रखी
वीणा जवाब
देने लगे।
तुम्हारी
वीणा भर बजाने
का सवाल नहीं
है। अगर
तुम्हारी
वीणा सच में बज
रही है, तो
प्रतिध्वनि उठनी शुरू
हो जाएगी, शांत
कोने में बैठी
वीणा से भी।
क्योंकि वह
वीणा भी ऐसी
ही वीणा है--सोयी
है। किसी ने छेड़ा नहीं
है उसके तारों
को। लेकिन यह
आवाज छेड़
देगी।
जब
बुद्ध की बजती
वीणा के पास
तुम आते हो, या मीरा,
या चैतन्य
की नाचती हुई
अपूर्व घटना
के पास तुम
आते हो, तुम्हारे
भीतर का बुद्ध
भी संवेदित
होता है, संचालित
होता है; तुम्हारे
भीतर का बुद्ध
भी
प्रतिध्वनित
होता है। तो
तुम ही भीतर
से अनुभव करते
हो कि ठीक है।
और बुद्ध का
बल है, वह
भी कहता है:
ठीक है। लेकिन
इन दोनों के
बीच में
तुम्हारा
अपना अनुभव है,
उसकी बड़ी पर्त है।
वह तुमसे
कहे चली जाती
है कि बुद्ध
ठीक कहते हैं,
लेकिन अभी
मेरे लिए
नहीं। ठीक हैं
अंत में, पर
अभी मैं
संसारी आदमी
हूं। होगा ठीक
आखिर में, फिर
भी कौन जाने!
तुम
बीच में संदेह
भी उठाते जाते
हो। तुम तर्क
भी नहीं कर
सकते, बुद्ध
से लड़ भी नहीं
सकते और बुद्ध
को तुम स्वीकार
भी कैसे करो? इनकार भी
नहीं कर सकते,
स्वीकार
करना भी
मुश्किल
है--इन दोनों
के बीच दुविधा
में तुम्हारा
जीवन हो जाता
है। तब तुम मानते
बुद्ध की हो
और करते अपनी।
तब तुम मानते
तो यही
हो--दीवाल पर
लिख लेते हो, क्रोध पाप
है; लेकिन
तुम्हारी
जिंदगी में
क्रोध ही
क्रोध लिखा
होता है। तुम
कहते हो, यह
तो दीवाल पर
इसलिए लिखा है
ताकि याद रहे।
लेकिन जब
तुम्हें भीतर
ही याद नहीं
रहता तो दीवाल
पर लिखा हुआ
क्या याद आएगा,
क्या काम पड़ेगा? हां,
जब तुम
क्रोध न करोगे,
तब तुम पढ़
लोगे और पछता लोगे।
और जब क्रोध
आएगा, तब
तो तुम्हें
भीतर की
लिखावट भी दिखायी
नहीं पड़ती, दीवाल को
कौन देखेगा?
जीयोगे
तुम अपने ही
ढंग से, मान
लोगे
बुद्ध की।
उससे एक अड़चन
पैदा होगी, एक दुविधा, एक द्वंद्व;
तुम दोहरे
हो जाओगे,
तुम पाखंडी
हो जाओगे।
कहोगे
कुछ, करोगे कुछ। जो कहोगे
उसके विपरीत करोगे। जो करोगे
उसके विपरीत कहोगे।
इसीलिए
तो अगर किसी
से सलाह लेनी
हो तो नासमझ
से नासमझ आदमी
भी बड़ी
बुद्धिमानी
की सलाह दे
सकता है। अगर
तुम किसी
मुसीबत में हो, किसी से भी
पूछ लो जो उस
मुसीबत में
नहीं है, वह
तुम्हें ऐसी
सलाह देगा कि
बुद्ध भी
सोचें कि शायद
हमसे भी ऐसी
सलाह देते न बनती।
लेकिन जब तुम
उस आदमी को
मुसीबत में देखोगे तो
तुम पाओगे,
वह
तुम्हारे
जैसा ही
व्यवहार कर
रहा है। अपनी सलाह
अपने ही काम
नहीं आती।
कहां भूल हो
गयी है?
मेरे
पास लोग आते
हैं, वे कहते
हैं: हमें
ज्ञान तो सब
है, हमें
मालूम सब है
कि क्या ठीक
है और क्या
गलत है, लेकिन
ठीक फिर होता
क्यों नहीं?
ठीक
होने के लिए
कोरा ज्ञान
काफी नहीं है।
ठीक होने के
लिए ध्यान
जरूरी है, ज्ञान जरूरी
नहीं है।
ज्ञान के बिना
भी ठीक हो
सकता है, ज्ञान
के होते भी
ठीक न हो।
ध्यान चाहिए।
मैंने
कहा कि सपना
है तुम्हारी
जिंदगी, मेरी
बात मान मत
लेना। अन्यथा
मुझ से
तुम्हें लाभ न
हुआ, हानि
हो गयी; मैंने
तुम्हारी
जिंदगी को
बदला नहीं, पाखंडी कर
दिया। तुम रहोगे
तो अपने सपने
में ही और
कहते जाओगे,
सपना है।
तुम रहोगे
तो माया में
और माया को
गाली देते चले
जाओगे।
तुम
देख सकते हो, तुम्हारे
साधु-संन्यासियों
को मिल सकते
हो, वे वही
कर रहे हैं
जिसको गाली
दिए चले
जाएंगे।
स्वाभाविक है
यह द्वंद्व, क्योंकि जो
वे कह रहे हैं
वह शास्त्रों
से उधार है।
वह उन्होंने
स्वयं जाना
नहीं।
सुकरात
का बड़ा
प्रसिद्ध वचन
है: ज्ञान
क्रांति है। जिसने
जान लिया, वह बदल गया।
अगर जानने के
बाद भी न बदलो,
तो समझना कि
जाना ही नहीं।
यह तो प्रश्न
बिलकुल गलत है
कि हम जानते
हैं, फिर
बदलाहट क्यों
नहीं होती? यह तो असंभव
है। जिसने जान
लिया आग जलाती
है, वह आग
में हाथ न डालेगा।
और अगर डालता
हो, तो
सिर्फ एक ही
प्रमाण देता
है कि उसने
सुना होगा
किसी से कि आग
जलाती है, खुद
जाना नहीं है।
खुद तो वह यही
जानता है कि आग
बड़ी शीतल है।
और अगर
एक आग जला
देती है तो भी
नहीं सीखता, क्योंकि वह
सोचता है, जरूरी
थोड़े ही है कि
दूसरी आग भी
जलाती हो। फिर
तीसरी भी आग
है। जिंदगी
में हजार रंग
हैं आग के। एक
रंग जला देता
है, तो
दूसरा जलाएगा
यह कोई जरूरी
थोड़े ही है।
वह प्रयोग
करता चला जाता
है। और
धीरे-धीरे, धीरे-धीरे
अभ्यस्त हो
जाता है आग से
जलने का। फिर
जलने की पीड़ा
भी नहीं होती,
फिर चमड़ी
उसकी इतनी जल
चुकी होती है
कि जलने की
संवेदना भी
नहीं होती।
क्रोध
का पता भी
उन्हीं को
चलता है जो
अभी नए-नए
अभ्यास कर रहे
हैं। जो
पुराने
अभ्यासी हैं, उन्हें
क्रोध का कोई
पता ही नहीं
चलता, वे
मजे से क्रोध
में जीते हैं।
जैसे नाली का
कीड़ा नाली में
जीता है, कुछ
पता नहीं
चलता। तुम
उनसे कहो
भी कि यह
क्रोध बुरा है,
वे कहेंगे
कि हम तो बड़े
मजे में हैं।
सच तो यह है, उन्हें अगर
क्रोध करने का
मौका न मिले
तो बड़ी बेचैनी
मालूम पड़ती
है। तलफ लगती
है। अगर उन्हें
दो-चार दिन
क्रोध करने का
मौका न मिले
तो वे पागल हो
जाएंगे, वे
कुछ न कुछ
उपाय खोज
लेंगे। वे
कहीं न कहीं
कोई झंझट खड़ी
कर लेंगे। वे
किसी न किसी
से जाकर जूझ
जाएंगे, तभी
उनको थोड़ी
राहत मिलेगी।
वैज्ञानिक
कहते हैं कि
पूरी
मनुष्य-जाति
लड़ने को आतुर
है। इसलिए तो
हर दस वर्ष
में एक महायुद्ध
की जरूरत पड़
जाती है। इतना
क्रोध लोग इकट्ठा
कर लेते हैं
कि फिर
छोटे-मोटे
झगड़े से काम
नहीं चलता, पति-पत्नी
के झगड़े से हल
नहीं होता--वह
तो रोज चलता
रहता है, वह
तो अभ्यास
है--फिर कोई
महायुद्ध
चाहिए, जहां
सब लपटों में
हो जाए, जहां
विध्वंस करने
की पूरी छूट
मिल जाए, जहां
लाखों लोग
मारे जाएं। तब
कहीं दस-पंद्रह
साल के लिए
आदमी का मन
थोड़ा हलका होता
है।
तुम
सोचते हो, हिंदू-मुसलमान
इसलिए लड़ते
हैं कि उनके
धर्म अलग-अलग
हैं, तुम
गलती में हो।
तुम सोचते हो,
हिंदुस्तान-पाकिस्तान
इसलिए लड़ते
हैं कि उनकी
राजनीति
अलग-अलग है, तुम गलती
में हो। तुम
सोचते हो, रूस-अमरीका
इसलिए लड़ते
हैं कि उनका
सिद्धांत और
शास्त्र
अलग-अलग है, तुम गलती
में हो।
शास्त्र बदल
दो, सिद्धांत
बदल दो, धर्म
बदल दो--लड़ाई
जारी रही है।
हिंदू-मुसलमान
न लड़ेंगे,
तो
गुजराती-मराठी
लड़ेंगे--वे
दोनों ही
हिंदू हैं।
हिंदू-मुसलमान
न लड़ेंगे,
तो पूर्व
पाकिस्तान
पश्चिम
पाकिस्तान से लड़ेगा--वे
दोनों ही
मुसलमान हैं। जिन्ना के
भूत को भी
स्मरण नहीं
आता होगा कि
यह कैसे हो
रहा है? समझ
में नहीं आता
होगा कि यह
कैसे हो रहा
है? मुसलमान
मुसलमान
से लड़ रहे हैं! छोड़ो, पाकिस्तान
दोनों अलग हो
गए अब तो, अब
बंगला
देश में बंगला
मुसलमान ही बंगला
मुसलमान की
हत्या कर रहा
है।
आदमी
हत्या में
उत्सुक है, बाकी सब
बहाने हैं।
आदमी मारने
में उत्सुक है,
क्योंकि
आदमी जीना
नहीं जानता।
आदमी क्रोध के
लिए आतुर है, क्योंकि
आदमी प्रेम की
कला भूल गया
है। आदमी के
साज पर प्रेम
का, ध्यान
का नग्मा
बजता ही नहीं;
साज ही टूट
गया है। साज
से बस ऐसी ही आवाजें उठती
हैं--युद्ध की,
विध्वंस
की।
एक बात
खयाल रखना, पाखंडी मत
बन जाना। मैं
जो कहता हूं, उसे मान
लेने की जरूरत
नहीं है, उसे
जानने की
जरूरत है। तुम
मेरी मानकर
आचरण में मत
बदलने लगना
उसे, अन्यथा
तुम सदा के
लिए भटक जाओगे।
तुम्हारे
धर्मगुरु तुमसे
यही कहते हैं
कि सुन लिया, अब इसे आचरण
में लाओ।
मैं तुमसे
कहता हूं, सुन
लिया, अब
इसे जानो, आचरण
की बकवास मत उठाओ।
क्योंकि
जानने वाले के
लिए आचरण अपने
आप आ जाता है।
आचरण
छाया है ज्ञान
की। ज्ञान
क्रांति है।
मैं तुमसे
यह नहीं कहता
कि आचरण में लाओ। यह तो
बात ही व्यर्थ
है। मैं तुमसे
इतना ही कहता
हूं, जो तुमने
मुझसे सुना, समझ मत लेना
कि तुमने जान
लिया। मुझसे
तुमने सिर्फ
सुना, यह
एक परिकल्पना
है तुम्हारे
लिए। मैंने
तुम्हें एक
कुंजी दी खोज
के लिए, खोज
तुम्हें करनी
पड़ेगी। यह
खजाना नहीं है,
यह सिर्फ
कुंजी है। इस
कुंजी को तुम
खीसे में रखे रहो, इससे
खजाना न मिल
जाएगा; खजाना
तुम्हें
खोजना पड़ेगा।
जो मैंने कहा,
इसको तुम दिशासूचक-संकेत
समझो। यह
मील का पत्थर
है, जिस पर
तीर लगा है कि
आगे जाना है।
इस मील के पत्थर
को मंजिल मत
समझ लेना; यात्रा
करना। और मैं तुमसे
कहता हूं, यात्रा
आचरण की नहीं,
ज्ञान की; क्योंकि जब
ज्ञान आता है,
तो आचरण
अपने से आ
जाता है।
जिसने ठीक जान
लिया, वह
ठीक हो जाता
है।
सम्यक-बोध
सम्यक-जीवन की
आधारशिला
है। इसलिए
महावीर ने
कहा:
सम्यक-ज्ञान।
बुद्ध ने कहा:
सम्यक-दृष्टि।
ठीक-ठीक
दृष्टि, बस,
पर्याप्त
है; बाकी
तो सब विस्तार
की बातें हैं।
लेकिन
सस्ता मालूम
पड़ता है यह।
मैंने कहा, तुमने मान
लिया--यह
बिलकुल सरल
है। तुम्हें
कुछ करना ही न
पड़ा, तुमने
सुन लिया। तुम
तो शायद यह
समझते हो कि सुनने
में भी तुम
कुछ मुझ पर
एहसान कर रहे
हो।
मेरे
पास लोग पत्र लिखकर भेज
देते हैं कि
हम आपको इतने
दिन से सुन
रहे हैं, अभी
तक कुछ क्यों
नहीं हुआ? जैसे
मेरा कोई कसूर
है! जैसे
उन्होंने
इतने दिन से
सुना है तो
बड़ी कृपा की
है। लिखकर
भेज देते हैं
कि हम हजारों
मील से चलकर
आए हैं और अभी
तक कुछ नहीं
हुआ! तुम
हजारों मील से
चलकर आए हो, इससे तुमने
मुझ पर कोई
एहसान नहीं
किया। कुछ अभी
तक क्यों नहीं
हुआ? तुम
क्या सोचते हो,
मुझे सुनकर
ही कुछ हो
जाएगा? अगर
ऐसा होता, तो
सारी दुनिया
कभी की बदल
गयी होती।
तो
दुनिया में दो
तरह की मूढ़ताएं
हैं। एक मूढ़ता
कि लोग सोचते
हैं कि सुन
लिया, सब हो
गया। पंडित हो
जाते हैं।
दूसरी मूढ़ता,
सुन लिया, उसको आचरण
में लाने लगे।
पाखंडी हो
जाते हैं।
सुनो
और उसे जानो।
वह ठीक सूत्र
है। आचरण की
चिंता मत करो।
और सुनने को, जान लिया
ऐसा मत मानो।
तब तुम
सम्यक-मार्ग
पर हो।
तुम्हारे
सपने सपने
हैं--ऐसा मैं
कहता हूं, बुद्ध कहते
हैं। ठीक ही
कहते होंगे, ऐसा तुम समझो।
इतनी श्रद्धा रखो कि ठीक
कहते होंगे।
लेकिन खोजना
है तुम्हें। उनके
ठीक का
तुम्हें गवाह
होना है। जब
तक तुम उनके
गवाह न बन जाओ,
जब तक तुम
भी अपने जीवन
के अनुभव से न
कह सको कि
हां, ठीक, तब तक जल्दी
मत करना। और
सपने को जानने
का एक ही उपाय
है कि तुम
थोड़े जागो।
सपने में सपना
तो याद नहीं
आता। सपने में
सपना तो पहचान
नहीं आता।
सुबह जागकर
पहचान आता है
कि रात सपना
देखा। जब तुम
सपना देखते हो
तब तो सपना ही
सत्य होता है।
लोग
कहते हैं, हम कान की
सुनी नहीं
मानते, आंख
की देखी मानते
हैं। मगर आंख
की देखी का भी
कितना भरोसा
है? रोज
सपना देखते हो,
सुबह उठकर
पाते हो सब
झूठ था। न
यहां कान का
भरोसा है, न
यहां आंख का
भरोसा है।
यहां भरोसा ही
नहीं है।
इसलिए बहुत
कदम सम्हाल-सम्हालकर
चलना है। सुबह
उठकर पता
चलता है कि
सपना था, रात
पता नहीं
चलता। और हजार
बार ऐसा हो
चुका है। हर
रात सपना देखा,
हर सुबह पता
चला--फिर भी जब
तुम सांझ फिर
सो जाते हो, फिर भूल
जाते हो।
सपने
में ही जागना पड़ेगा।
सपने को देखना
पड़ेगा।
और मजा यह है
कि जो जागता
है वही देख
पाता है कि
सपना सपना
है; और साथ
में यह भी कि
जैसे ही तुम
देख पाते हो
सपना सपना
है--सपना
तिरोहित हो
जाता है। तुम
जाग गए, फिर
सपना हो कैसे
सकता है?
तो
उन्होंने ही
जाना, जो
जागे। और जिन्होंने
जाना और जागे,
उनका सपना
मिट गया। तो
जागना ही सपने
से मुक्त होने
की भी कला
है--सपने को
जानने की भी
और सपने से
मुक्त होने की
भी।
चौथा
प्रश्न:
रजनीश-ए-इश्क
ने हमें
निकम्मा कर
दिया
वरना
आदमी थे हम भी
कुछ काम के
काम के
तो रहे हो, राम के नहीं
थे। और काम की
दुनिया में जब
तक निकम्मे न
हो जाओ, तब
तक राम की
दुनिया में
गति नहीं
होती। काम की
दुनिया ही तो
संसार है। काम
की दुनिया से जागो, तो
ही राम की
दुनिया की
पात्रता
उपलब्ध होती
है। और काम की
दुनिया में
चल-चलकर किसको
क्या मिला? रहे होओगे
काम के, लेकिन
पाया क्या? अगर पा लिया
ही होता तो
मेरे पास ही
क्यों आते? तब तो मैं
तुम्हारे पास
आता।
नहीं, काम बहुत
काम का सिद्ध
नहीं हुआ।
एक
सूफी कथा है। गजनी के महमूद के
दरबार में एक
आदमी आया। वह
अपने बेटे को
साथ लाया था।
उसने बेटे को
बड़े ढंग से
बड़ा किया था, बड़े
संस्कारों
में ढाला
था, बड़ा
परिष्कृत
किया था। सदा
से उसकी यही
आकांक्षा थी
कि उसका एक
बेटा कम से कम महमूद के
दरबार में
हिस्सा हो
जाए। उसने
उसके लिए ही
उसे बड़ी मेहनत
से तैयार किया
था। उसे पक्का
भरोसा था, क्योंकि
उसने सभी परीक्षाएं
भी उत्तीर्ण
कर ली थीं और
जहां-जहां, जहां-जहां
उसे
पढ़ने-लिखने
भेजा था, गुरुओं
ने बड़े
प्रमाण-पत्र
दिए थे और
उसकी बड़ी
प्रशंसा की
थी। वह बड़ा
बुद्धिमान
युवक था।
सुंदर था, दरबार
के योग्य था।
आशा थी बाप को
कि कभी न कभी
वह बड़ा वजीर
भी हो जाएगा।
महमूद
से आकर उसने
कहा कि मेरे
पांच बेटों
में यह सबसे
ज्यादा सुंदर, सबसे ज्यादा
स्वस्थ, सबसे
ज्यादा
बुद्धिमान
है। यह आपके
दरबार में
शोभा पा सकता
है, आप इसे
एक मौका दें।
और जो भी जाना
जा सकता है, इसने जान
लिया। महमूद
ने सिर भी ऊपर
न उठाया। उसने
कहा, एक
साल बाद लाओ।
सोचा
बाप ने, शायद
अभी कुछ कमी
है, क्योंकि
सम्राट ने
चेहरा भी उठाकर
न देखा। उसे
एक साल के लिए
और अध्ययन के
लिए भेज दिया।
सालभर के
बाद जब वह और
अध्ययन करके
लौट आया--अब
अध्ययन को भी
कुछ न बचा, वह
आखिरी डिग्री
ले आया--फिर
लेकर पहुंचा। महमूद ने
उसकी तरफ देखा;
लेकिन कहा,
ठीक है, लेकिन
इसकी क्या
विशेषता है? किसलिए तुम
चाहते हो कि
यह दरबार में
रहे? तो
उसके बाप ने
कहा, इसे
मैंने सूफियों
के सत्संग में
बड़ा किया है।
सूफी-मत के
संबंध में
जितना बड़ा अब
यह जानकार है,
दूसरा
खोजना
मुश्किल है।
यह आपका सूफी
सलाहकार
होगा। रहस्य
धर्म का कोई न
कोई जानने
वाला दरबार
में होना
चाहिए, नहीं
तो दरबार की
शोभा नहीं है।
सब हैं आपके दरबार
में--बड़े कवि
हैं, बड़े
पंडित हैं, बड़े भाषाविद
हैं, कोई
सूफी नहीं। महमूद ने
कहा, ठीक
है। एक साल
बाद लाओ।
एक साल
बाद फिर लेकर
उपस्थित हुआ।
अब तो बाप भी
थोड़ा डरने
लगा कि यह तो
हर बार एक साल...!
महमूद
ने कहा कि ऐसा
करो, तुम्हारी
निष्ठा है, तुम सतत
पीछे लगे हो, इसलिए मुझे
भी लगता है
कुछ करना
जरूरी है। तुम
हार नहीं गए
हो, हताश
नहीं हो गए हो!
अब ऐसा करो--इस
युवक को उसने
कहा--कि तुम
जाओ और किसी सूफी
को अपना गुरु
मान लो, और
किसी सूफी को
खोज लो जो
तुम्हें अपना
शिष्य मानने
को तैयार हो।
तुम्हारा
गुरु मान लेना
काफी नहीं है।
कोई गुरु
तुम्हें
शिष्य भी मानने
को तैयार हो।
फिर सालभर
बाद आ जाना।
वह
युवक गया। एक
गुरु के चरणों
में बैठा। सालभर
बाद बाप उसको
लेने आया। वह
गुरु के चरणों
में बैठा था, उसने बाप की
तरफ देखा ही
नहीं। बाप ने
उसे हिलाया
कि नासमझ, क्या
कर रहा है? उठ,
साल बीत गया,
फिर दरबार
चलना है। उसने
बाप को कोई
जवाब भी न दिया।
वह अपने गुरु
के पैर दबा
रहा था, वह
पैर ही दबाता
रहा। बाप ने
कहा कि व्यर्थ
गया; काम
से गया, निकम्मा
सिद्ध हो गया।
इसीलिए हमने
तुझे पहले
किसी सूफी
फकीर के पास
नहीं भेजा था।
हम सूफी
पंडितों के
पास भेजते रहे;
यह महमूद
ने कहां की
झंझट बता दी
कि कोई गुरु
खोज, और
फिर कोई गुरु
जो तुझे शिष्य
की तरह
स्वीकार करे!
तू सुनता
क्यों नहीं? क्या तू
पागल हो गया
है, कि
बहरा हो गया
है? मगर वह
युवक चुप ही
रहा। साल बीत
गया, बाप
दुखी होकर घर
लौट गया। महमूद
ने पुछवाया
कि लड़का आया
क्यों नहीं? बाप ने कहा
कि व्यर्थ हो
गया, निकम्मा
साबित हो गया।
क्षमा करें, मेरी भूल थी,
मैंने
पत्थर को हीरा
समझा।
लेकिन महमूद ने
अपने वजीरों
से कहा कि
तैयारी की जाए, उस आश्रम
में जाना पड़ेगा।
महमूद
खुद आया।
द्वार पर खड़ा
हुआ। गुरु
लड़के को हाथ से
पकड़कर
दरवाजे पर
लाया और महमूद
से उसने कहा
कि अब
तुम्हारे यह
योग्य है; क्योंकि
पहले तो यह
तुम्हारे पास
जाता था, अब
तुम इसके पास
आए। बाप की
दृष्टि में यह
निकम्मा हो
गया, किसी
काम न रहा! अब
यह परमात्मा
की दुनिया में
काम का हो गया
है। अगर यह
राजी हो, और
तुम ले जा सको,
तो
तुम्हारा
दरबार
शोभायमान
होगा। यह
तुम्हारे
दरबार की
ज्योति हो
जाएगा। कहते
हैं, महमूद ने बहुत
हाथ-पैर जोड़े,
पर उस युवक
ने कहा कि अब
इन चरणों को छोड़कर
कहीं जाना
नहीं है।
दरबार मिल
गया!
ठीक
पूछते हो तुम
कि 'वरना
आदमी थे हम भी
कुछ काम के।'
जरूर
किसी न किसी
काम के रहे ही होओगे।
संसार में सभी
काम के आदमी
हैं! और मेरे
पास आकर तुम
मेरे प्रेम
में निकम्मे
भी हो गए हो, वह भी सच है।
लेकिन, एक
ऐसा
निकम्मापन भी
है जहां राम
में प्रवेश शुरू
होता है। और
ध्यान रखना, काम के आदमी
तो भिखारी हैं;
भिक्षापात्र ही हाथ में
रहता है, कभी
भरता नहीं।
राम के आदमी
ही भर जाते
हैं। एक तो
ऐसी घड़ी
है जब तुम
संसार के पीछे
भागते रहते हो,
दरबारों की
तलाश करते हो,
और हर जगह ठुकराए
जाते हो। फिर
एक ऐसी भी घड़ी
है कि दरबार
तुम्हारी खोज
करना शुरू
करते हैं, संसार
तुम्हारे
पीछे आता है
और तुम उन्हें
ठुकरा
देते हो।
इसको
ही मैं
संन्यास कहता
हूं। ऐसी घड़ी
को उपलब्ध हो
जाना, जब
साधारण आदमी जिन
चीजों को
मांगता है, चाहता है, वे तुम्हारे
पीछे आने लगें
और तुम्हें
उनमें कोई रस
न रह जाए।
संसार पीछे आए
और तुम लौटकर
भी न देखो!
मेरी
दृष्टि में
तभी तुम असली
काम के हुए, जब तुम राम
के हुए। लेकिन
अगर मन में
थोड़ी सी भी
दुविधा हो और
लगता हो कि यह
तो सिर्फ निकम्मे
हो गए, राम
के तो न हुए, तो लौट जाओ।
अभी कुछ बिगड़ा
नहीं है।
थोड़े-बहुत दिन
में वापस
संसार के काम
के हो जाओगे।
अभी बात
बिलकुल नहीं बिगड़ गयी
है। बिलकुल बिगड़ गयी
होती तो यह
सवाल ही तुमने
न पूछा होता।
अभी कुछ न कुछ
संसार में पैर
है। भूल गए हो,
थोड़े दिन में
वापस सीख लोगे,
पुरानी आदत
फिर से सजीव
हो जाएगी। या
तो लौट जाओ, या पूरे डूब
जाओ; बीच
में मत खड़े रहो।
इश्क
करता है तो
फिर इश्क की
तौहीन न कर
या
तो बेहोश न हो हो तो न फिर
होश में आ
या तो
डूबना है तो
पूरे ही डूब
जाओ, यह
निकम्मा होने
का जो पाठ मैं पढ़ा रहा हूं,
इसमें फिर
पूरी तरह हो
जाओ। यही तो
अकर्म है, निष्काम
है। अगर थोड़ी
भी शक-शुबहा
मन में हो, थोड़ा
भी संदेह हो, तो जितने
जल्दी भाग सको
भाग जाओ, दूर
निकल सको
निकल जाओ।
क्योंकि
ज्यादा देर
रुक गए बुरी
संगत में, तो
फिर बिलकुल
सदा के लिए
निकम्मे हो जाओगे।
अगर संसार में
थोड़ा भी रस है,
तो यह बुरी
संगत है। अगर
संसार में कोई
रस न रहा, तो
यह सत्संग है।
निकम्मे
होकर काम के
हो जाओगे।
बेहोश होकर एक
ऐसे होश को
उपलब्ध होओगे
जिसको फिर कोई
बेहोशी छू
नहीं सकती।
दीवानगी-ए-इश्क
के बाद आ ही
गया होश
और
होश भी वो
होश कि दीवाना
बना दे
और
होश भी वो
होश कि दीवाना
बना दे
पांचवां
प्रश्न:
बुद्ध
के शून्य में
आप प्रेम
क्यों कर जोड़
रहे हैं?
अकारण
नहीं। यूं ही
नहीं। जान
बूझकर।
क्योंकि
प्रेम शून्य
का फूल है।
बुद्ध
के कहने का
ढंग
नकारात्मक
है। जरूरत थी।
क्योंकि
उपनिषदों ने
विधायक की बड़ी
बात की, वेद
विधायक के गीत
गाते रहे।
विधायक की
चर्चा इतनी
हुई कि विधायक
शब्द अर्थहीन
हो गए।
जब किन्हीं
शब्दों का
बहुत उपयोग
किया जाए तो
वे व्यर्थ हो
जाते हैं।
उनकी गहनता, उनकी गहराई
नष्ट हो जाती
है। उथले ओठों
पर शब्द भी
उथले हो जाते
हैं। उपनिषद
की विधायकता,
ब्रह्म के
गीत, पंडितों
के द्वारा सब
खराब हो गए।
फिर ईश्वर की
बात करनी दो कौड़ी की
बात मालूम
होने लगी।
पंडित
गांव-गांव
गली-गली
कूचे-कूचे वही
बात कर रहा
था। किराए
के आदमी
ब्रह्मज्ञान
फैला रहे थे।
उपनिषद जूठे
हो गए थे।
बुद्ध
ने स्वाद बदला
इस देश का।
उन्होंने नकार
की भाषा दी।
और बड़ा मजा यह
है कि उस नकार
की भाषा से
उन्होंने बड़ी
भारी क्रांति
खड़ी कर दी। उस
क्रांति में
जो गुजर सके
वही साबित
उन्होंने किया
कि उन्होंने
उपनिषद समझा
था; जो न गुजर
सके उन्होंने
सिद्ध कर दिया
कि वे केवल
तोते थे।
क्योंकि
जिसने उपनिषद
को अनुभव से जाना
था, वह तो
तत्क्षण
बुद्ध को समझ
गया कि ठीक कह
रहे हैं।
क्योंकि
जिसने उपनिषद
के ब्रह्म को
जाना--वह
जानना तभी हो
सकता है जब
कोई भीतर के
शून्य से
गुजरा हो।
शून्य के
द्वार से जो न
गुजरा वह
ब्रह्म के
मंदिर में कभी
पहुंचा नहीं।
इसलिए
जो पहुंच गया
था ब्रह्म के
मंदिर में, जो सच में
ब्राह्मण हो
गया था, वह
तो बुद्ध को
तत्काल पहचान
लिया। बुद्ध
के शिष्यों
में अधिकतम
ब्राह्मण
हैं। महाकाश्यप
है जिससे झेन
का जन्म हुआ। सारिपुत्र
है। मोद्गलायन
है। सभी
ब्राह्मण हैं,
महाब्राह्मण हैं।
जिन्होंने
थोड़ा भी जाना
था, वे तो
बुद्ध के
चरणों में झुक
गए। क्योंकि
उपनिषद से तो
थोड़ा सा स्वाद
मिला था।
जीवित उपनिषद
मौजूद हुआ था,
तो
उन्होंने
उपनिषद की
फिकर छोड़ दी।
जब जिंदा उपनिषद
मौजूद हो, जब
ऋषि खुद लौट
आए हों बुद्ध
में, तो अब
कौन किताबों
की फिकर करे!
लेकिन
जो पंडित थे, कोरे पंडित
थे, पोथी-पंडित
थे, कूड़ा-कर्कट
इकट्ठा किए थे,
उपनिषद
कंठस्थ था
लेकिन उपनिषद
का कोई स्वाद न
लगा था, जिनको
उपनिषद की
शराब का कोई
अनुभव न
था--उन्होंने
कहा, यह
बुद्ध तो
दुश्मन है! हम
तो पूर्ण को
मानते हैं, यह शून्य की
बात कर रहा है!
यह तो नष्ट कर
देगा!
बुद्ध
ने शून्य की
बात करके बड़ी
गजब की कसौटी
पैदा कर दी; चुन
लिए लोग। उस
कसौटी पर जो
कस गया, वह
सही था; जो
नहीं कसा, वह
गलत था।
हिंदू-धर्म
में जो भी
श्रेष्ठ था उन
दिनों, वह
बुद्ध के पास
आ गया; कूड़ा-कर्कट रह
गया बाहर।
लेकिन
जो बात उपनिषद
के लिए हो गयी
थी, वही
बुद्ध के लिए हो
गयी एक दिन।
बुद्ध का
शून्य भी
धीरे-धीरे चर्चित
होते-होते
व्यर्थ हो
गया। उसमें से
पूर्ण का भाव
ही खो गया। वह
निपट शून्य रह
गया। वह केवल
दरवाजा रह गया,
भीतर कोई
मंदिर नहीं।
दरवाजे में से
आर-पार हो जाओ,
लेकिन कहीं
कुछ नहीं।
शून्य केवल
नकार रह गया।
बुद्ध के लिए
विधेय का
द्वार था, लेकिन
बौद्धों
के लिए केवल
नकार रह गया।
बौद्ध पंडित
पैदा हुए, उन्होंने
कहा, हम
उपनिषद से अलग
हैं। वेद के
हम विरोधी
हैं।
बुद्ध
पंडित के
विरोधी थे, वेद के
नहीं। बुद्ध
जन्मजात
ब्राह्मण के
विरोधी थे, अर्जित
ब्राह्मणत्व
के नहीं।
बुद्ध ने ब्राह्मण
की नयी
परिभाषा की थी,
ब्राह्मण
का विरोध
नहीं। बुद्ध
ने वेद को नए अर्थ
दिए थे, वेद
का विरोध
नहीं। बुद्ध
स्वयं प्रमाण
थे वेद और
उपनिषद के।
उन्होंने
पुनरुज्जीवित
किया था सब, जो-जो खो गया
था उसको फिर
नया रंग, नयी
रौनक दी थी।
संगीत वही था,
गीत नया था।
लयबद्धता वही
थी, लेकिन
शब्द बदल दिए
थे।
फिर
वही हुआ, जो
होना था। जैसे
उपनिषद पंडित
के हाथ में पड़ गया
था, ऐसे ही
बुद्ध का
शून्य भी
पंडित के हाथ
में पड़ गया।
वह शून्य कोरा
शाब्दिक था।
उस शून्य में कुछ
भी न था, कोई
गहराई न थी।
वह सिर्फ
बकवास था। वह तर्कजाल
था। बड़े तर्कजाल
पैदा हुए
बुद्ध के
पीछे।
इसलिए
मैं दोनों का
प्रयोग एक साथ
कर रहा हूं।
पूर्ण को भी
पंडित नष्ट कर
चुका, शून्य
को भी पंडित
नष्ट कर चुका।
अब तो एक ही उपाय
है कि हम
दोनों का एक
साथ उपयोग
करें। शायद
पंडित दोनों
को एक साथ न
पकड़ पाए।
क्योंकि पंडित
को लगेगा,
यह तो विरोधाभासी
है, संगति
नहीं है। मेरी
बात, पंडित
को लगेगी विरोधाभासी
है, कंट्राडिक्ट्री है, इनकंसिस्टेंट है।
क्योंकि
पंडित का अर्थ
है, तर्क।
वह कहेगा:
या तो कहो
पूर्ण, तो
पक्का कि तुम उपनिषदवादी
हो; या कहो
शून्य, तो
पक्का कि तुम बुद्धवादी
हो।
मैं कोई
वादी नहीं
हूं। मैंने तो
देखा कि शून्य
का द्वार
पूर्ण के
मंदिर में
पहुंचा देता
है। और मैंने
देखा कि पूर्ण
के मंदिर में
जिसे भी जाना
हो, वह शून्य
के द्वार के
अतिरिक्त और
कहीं से जा नहीं
सकता। तो मेरे
लिए शून्य और
पूर्ण में विरोध
नहीं है।
शून्य साधना
है, पूर्ण
साध्य है।
दोनों को मैं
एक साथ उपयोग
कर रहा हूं, ताकि पंडित
की पकड़ मुझ पर
न बैठ सके।
जहां-जहां
संगति है
वहां-वहां
पंडित पकड़ बिठा
लेता है।
सिर्फ असंगत
को पंडित नहीं
पकड़ पाता।
इसलिए
कुछ चीजें
हैं दुनिया
में जो पंडित
की पकड़ से
बाहर रह गयी
हैं--जैसे झेन
पंडित की पकड़
के बाहर रह
गया, क्योंकि
असंगत है।
पंडित लाख
उपाय करे तो
भी उसे झंझट
होती है कि
इसको बिठाए
कैसे, तर्क
में कैसे
बिठाए!
तो मैं
जो तुमसे
कह रहा हूं वह झेन है। वह
विरोधाभास है, पैराडॉक्स है, ताकि
पंडित से बच
सके। सिर्फ पैराडॉक्स
पंडित से बच
सकता है, और
कोई नहीं बच
सकता। बुद्ध
नहीं बच सके, उपनिषद नहीं
बच सके।
इसलिए
मैं बुद्ध के
शून्य की
चर्चा कर रहा
हूं और प्रेम
की भी साथ ही
साथ। तुम्हें
अड़चन होती
होगी कि बुद्ध
में कैसे
प्रेम आ रहा
है; मीरा में आना
चाहिए था! घबड़ाओ
मत, जब मीरा
की चर्चा
करूंगा, शून्य
को ले ही आऊंगा।
क्योंकि मैं
जानता हूं, विरोधाभास
ही केवल पंडित
के जाल और
पंडित की पकड़
से बच सकता है,
और कोई उपाय
नहीं है।
इसी
भांति का एक
और प्रश्न है:
बुद्ध
ने चार
आर्य-सत्य कहे
हैं--दुख है; दुख के कारण
हैं; दुख-निरोध
है; दुख-निरोध
की अवस्था है।
आपको सुनकर
लगता है कि आप
भी चार
आर्य-सत्य
कहते
हैं--आनंद है
जीवन, आनंद
का उत्सव है
जीवन; उत्सव
को साधने
के उपाय हैं; उत्सव की
संभावना है; उत्सव की
परम दशा है।
दो बुद्धपुरुषों
के
आर्य-सत्यों
में इतना
विरोधाभास
क्यों?
एक ही
बात है। बुद्ध
का ढंग नकार
है। वे कहते हैं:
दुख है, दुख
को मिटा दो।
जो बचेगा,
उसकी वे बात
नहीं करते।
मैं तुमसे
उसकी बात कर
रहा हूं जो बचेगा।
उसकी भी बात
कर रहा हूं जो बचेगा।
दुख
है--बिलकुल
ठीक है। दुख
को मिटा दो तो
जो बचेगा
वह आनंद है।
दुख के कारण
हैं--उनको हटा
दो, उन
कारणों को
गिरा दो, तो
सुख की बुनियाद
पड़ जाएगी, आनंद
की बुनियाद पड़
जाएगी।
दुख को
मिटाने के
साधन हैं, आनंद को
पाने के साधन
हैं--वे एक ही
हैं। जो दुख को
मिटाने के
साधन हैं, वही
आनंद को पाने
के साधन हैं।
जो बीमारी को
मिटाने की
औषधि है, वही
स्वास्थ्य को
पाने का उपाय
है। जो अंधेरे
को हटाने का
ढंग है, वही
प्रकाश को
पाने की
व्यवस्था है।
बुद्ध
कहते हैं:
दुख-निरोध की
अवस्था है, निर्वाण है।
पर दुख-निरोध
का उपयोग करते
हैं। ब्रह्म-उपलब्धि,
पूर्ण का
आगमन--उसका वे
उपयोग नहीं
करते। उनकी
मजबूरी थी।
पंडितों ने
खराब कर दिया
था। उन्हें
बहुत सावधान
होकर चलना
पड़ा। एक-एक
शब्द सोचकर
उपयोग करना
पड़ा। मैं
जानता हूं
उनकी अड़चन कितनी
रही होगी।
क्योंकि आनंद
से भरे हुए
व्यक्ति को, दुख है, दुख
के कारण हैं, दुख दूर
करने के उपाय
हैं, दुख-निरोध
की अवस्था
है--कैसा
मुश्किल पड़ा
होगा! आनंद से
लबालब, आनंद
की बाढ़ आयी
हो--उसको दुख
ही दुख की
चर्चा करनी
पड़ी!
उपनिषद
दुख की चर्चा
ही नहीं करते।
वे कहते हैं:
ब्रह्म है।
दुख की कोई
बात ही नहीं
करते। बुद्ध
को दुख ही दुख
की बात करनी
पड़ी। सुनकर
कई को तो लगा
कि बुद्ध दुखवादी
हैं। पश्चिम
में यही
भ्रांति फैल
गयी कि बुद्ध निराशावादी
हैं, दुख ही
दुख की बात
करते हैं।
रुग्ण हैं
थोड़े । बुद्ध से
ज्यादा
स्वस्थ आदमी
कहां हुआ!
लेकिन बुद्ध की
मजबूरी थी।
उनको निषेध का
उपयोग करना
पड़ा। क्योंकि
जैसे ही वे
विधेय का
उपयोग करते, पंडित सिर हिलाने
लगते, वे
कहते, बिलकुल
ठीक! जैसे कि
वे जानते हैं।
बुद्ध
ने जब दुख की
बात की और दुख
ही दुख की बात
की, तो पंडित
चौंका। उसने
कहा, यह
आदमी जान नहीं
सकता। यह
पंडित से बचने
की व्यवस्था
थी। यह--पंडित
को पास नहीं
आने दिया बुद्ध
ने।
पंडित
बीमारी है। वह
मंदिर में आ
जाए, मंदिर
नष्ट हो जाता
है। और वह
पूरी कोशिश
करता है आने
की, जब तक कि
द्वार पर ही
विरोधाभास न
मिल जाए।
मैं
दोनों की बात
कर रहा हूं, क्योंकि
मुझे लगता है
कि यह एक ही
बात को कहने के
दो ढंग हैं।
ये दो बातें
हैं ही नहीं।
तुम्हें दो
बातें दिखायी
पड़ती हैं, क्योंकि
तुम दुख में
खड़े हो।
तुम्हें यह दिखायी ही
नहीं पड़ता कि
दुख से आनंद
कैसे जुड़
सकता है। तुम
अंधेरे में
खड़े हो।
तुम्हें यह दिखायी ही
नहीं पड़ सकता
कि अंधेरा
केवल प्रकाश
का अभाव है।
अंधेरे से तुम
प्रकाश को जोड़
ही नहीं पाते।
कैसे जोड़ोगे?
प्रकाश कभी
तुमने देखा
नहीं। लेकिन
मैंने प्रकाश
देखा है; और
मैं तुमसे
कहता हूं कि
अंधेरे का न
हो जाना
प्रकाश है; या प्रकाश
का हो जाना
अंधेरे का न
हो जाना है। ये
दो चीजें
नहीं हैं, विरोधाभास
नहीं है।
अगर
साध्य की
पूछते हो तो
आनंद, अगर
साधन की पूछते
हो तो दुख।
अगर मंजिल की
पूछते हो तो
और बात होगी।
अगर मार्ग की
पूछते हो तो
और बात होगी।
और दोनों जरूरी
हैं। मंजिल से
भी ज्यादा
जरूरी मार्ग
की बात है।
अगर कोई मुझसे
कहे कि उपनिषद
और बुद्ध में
चुनना है तो
मैं किसको
चुनूंगा--तुम्हारे
लिए अगर चुनना
हो तो बुद्ध
को चुनूंगा,
मेरे लिए
अगर चुनना हो
तो उपनिषद को चुनूंगा।
क्योंकि मैं
जो कहना चाहता
हूं वह उपनिषद
ने कहा है।
तुम्हें जहां
पहुंचना है वह
बुद्ध के
मार्ग से ही
चलकर वहां
पहुंच सकोगे।
अगर
मंजिल पर
पहुंचने वाले
लोगों को
चुनाव करना हो
तो वह उपनिषद
को चुनेंगे, क्योंकि
उपनिषद में जो
अभिव्यक्ति
है वह मंजिल
की है। मार्ग
पर चलने वालों
को अगर चुनना
हो तो बुद्ध
ही सहारा हैं;
क्योंकि
अभी मार्ग की
कठिनाइयां
हैं। अभी स्वास्थ्य
की चर्चा और
स्वास्थ्य के
गीत तुमसे
गाए भी
क्या जाएंगे!
तुम बीमार हो!
अभी प्रकाश के
लिए तुम कैसे नाचोगे? अभी अंधेरे
के सिवाय
तुमने कुछ भी
नहीं जाना। इसलिए
बुद्ध का इतना
प्रभाव पड़ा।
किसी
ने पूछा है कि
बुद्ध के समय
में और भी बड़े
चिंतक थे, खुद जैन
तीर्थंकर
महावीर थे, प्रबुद्ध कात्यायन
था, संजय वेलट्ठीपुत्त
था, मक्खली गोशाल
था, अजित केशकंबल
था--बड़े
विचारक थे, बड़े उपलब्ध
लोग थे--इनका
प्रभाव क्यों
नहीं पड़ा?
बुद्ध
का जैसा
प्रभाव पड़ा
किसी का भी न
पड़ा। क्या मामला
था? उन सबने
उपनिषद की
भाषा बोली।
महावीर पूर्ण
की बात करते
रहे। पूर्ण की
बात पिटी-पिटायी
हो चुकी थी।
पंडित उसे
इतना दोहरा
चुका था कि उसमें
कुछ भी नया न
था। उसका कोई
प्रभाव न पड़ा।
बुद्ध
ने नकार की
बात की। पूरा
पूरब बुद्ध से
छा गया।
बुद्ध पूरब के
सूर्य हो गए।
कुल कारण इतना
था कि बुद्ध
ने कहने का एक नया
ढंग खोजा। और
बुद्ध ने जो
कहा वह मार्ग
पर चलने वाले
के लिए
उपयुक्त था।
मंजिल पर
पहुंचकर तो
तुम भी नाच लोगे, उपनिषद के
रहस्य अपने आप
खुल जाएंगे; लेकिन मंजिल
पर पहुंचोगे
कैसे?
बुद्ध
ने केवल मार्ग
की बात की। इसलिए
वे कहते हैं, दुख है--इसे
अनुभव करो।
दुख के कारण
हैं--इसे खोजो।
दुख के कारण
को मिटाने के
उपाय हैं--मैं
तुम्हें
बताता हूं। और
भरोसा रखो
कि दुख के पार
एक अवस्था है,
क्योंकि
मैं वहां
पहुंच गया
हूं--दुख-निरोध
है।
पूरा
नकार है।
बुद्ध ने अपने
को चिकित्सक
कहा है कि मैं
एक चिकित्सक
हूं, एक वैद्य
हूं। मैं कोई
विचारक नहीं
हूं। मैं केवल
बीमारी का
निदान करता
हूं, औषधि
बताता हूं।
स्वास्थ्य के
क्या गीत गाएं
तुमसे!
तुम जब स्वस्थ
हो जाओगे,
खुद ही गा
लेना।
लेकिन
मैं दोनों
बातें कर रहा
हूं; क्योंकि
बुद्ध का नकार
भी अब उतना ही
धूल से भर गया
जितना कभी
उपनिषद का
विधेय था।
बौद्ध
पंडितों ने
उसे भी खराब
कर दिया। अब
फिर से जरूरत
है कि हम उस
धूल को झाड़ें।
अगर मैं सिर्फ
विधेय की बात
करूं तो लोग समझेंगे, मैं हिंदू
हूं। मैं
हिंदू नहीं
हूं। अगर मैं
सिर्फ नकार की
बात करूं तो
लोग समझेंगे,
मैं बौद्ध
हूं। मैं
बौद्ध नहीं
हूं। मैं सिर्फ
मैं ही हूं।
इसलिए मैं
दोनों की बात
कर रहा हूं, ताकि तुम
मुझे किसी
कोटि में न रख पाओ।
और
पंडित की सबसे
बड़ी तकलीफ यही
है, तर्क की
सबसे बड़ी अड़चन
यही है कि जब
तक कोटि न बने,
तब तक उसकी
पकड़ में कोई
बात नहीं आती।
जैसे ही कोटि
बनी कि तर्क
हिसाब-किताब
जमा लेता है; फिर वह समझ
लेता है कि
बात क्या है।
फिर कोई अड़चन
नहीं रह जाती।
उसके पास सब जमे हुए लेबिल लगे
हैं, वह लेबिल
लगा देता है।
बस लेबिल
लगाने की
सुविधा मिली
बुद्धि को कि
बात गयी, खतम
हुई, समाप्त
हुई, उसके
प्राण निकल गए,
वह नपुंसक
हो गयी। जितनी
देर तक हम बचा
सकें लेबिल
लगने से अपने
को उतनी देर
तक ही हम
जीवित होते हैं,
उतनी देर तक
ही विचार में
आग होती है, फिर राख हो
जाती है।
आखिरी
प्रश्न:
आपका
बोलना खुद
किसी
शेर-ओ-शायरी
से कम नहीं, फिर उसमें
ये और
शेर-ओ-शायरी!
यह मीठा मोड़
क्यों कर आया?
कोई
रहस्य नहीं
है। बड़ी
गैर-रहस्य की
बात है। लेकिन
पूछ लिया है
इसलिए कह देना
चाहिए।
मुल्ला
नसरुद्दीन
बाहर जा रहा
था। मैंने
उससे कहा, बड़े मियां!
तुम बाहर चले,
मेरा क्या
होगा? तुम
रहते हो, तुम
रोज-रोज समझदारियां
करते हो, नासमझों को समझाने
में मैं उनका
उपयोग कर लेता
हूं। तुम
छुट्टी पर जा
रहे हो!
महावीर न हों,
मूसा न हों,
मोहम्मद न हों, मनु
न हों--मेरा
काम चल जाएगा।
मुल्ला के
बिना मेरा काम
नहीं चलता।
मुल्ला
ने कहा, घबड़ाएं मत। ये
मैंने बहुत सी
कविताएं
लिख रखी
हैं--एक पोथी; ये छोड़े
जाता हूं, जब
तक न आऊं इनसे
काम चला लेना।
तो
जब तक मुल्ला
नहीं आया तब
तक...।
आज
इतना ही।
thank you guruji
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