इध सोचति पेच्च
सोचति पापकारी उभयत्थ सोचति।
सो सोचति सो विहग्भ्ति
दिस्वा कम्मकिलिट्ठमत्तनो।।13।।
इध मोदति पेच्च
मोदति कतपुग्भे उभयत्थ मोदति।
सो मोदति सो पमोदति दिस्वा कम्मविसुद्धिमत्तनो।।14।।
इध तप्पति पेच्च तप्पति
पापकारी उभयत्थ तप्पति।
पापं मे कतन्ति
तप्पति भीय्यो तप्पति दुग्गतिङ्गतो।।15।।
बहुम्पि चे सहितं
भासमानो
न तक्करो होति नरो
पमत्तो।
गोपो' व गावो गणयं
परेसं न भागवा सामग्भ्स्स
होति।।16।।
अप्पम्पि चे सहितं
भासमानो धम्मस्स होति अनुधम्मचारी।
रागग्च दोसग्च पहाय मोहं
सम्मप्पजानो
सुविमुत्तचित्तो।
जिंदगी
क्या किसी
मुफलिस की कबा
है जिसमें
हर घड़ी
दर्द के पैबंद
लगे जाते हैं
जिंदगी
क्या किसी
भिखारी का
लबादा है, जिसमें
हर घड़ी
दर्द के नए-नए थेगड़े लगे
जाते हैं? जिंदगी
ने तो चाहा था
कि तुम सम्राट
बनो।
जिंदगी
भिखारी का
लबादा नहीं
है। लेकिन जिंदगी
भिखारी का
लबादा हो गयी
है। तुमने उसे
भिखारी का
लबादा बना
दिया है।
जिंदगी
सम्राट पैदा
करती है, और
आदमी भिखारी
हो जाता है।
सभी सम्राट की
तरह पैदा होते
हैं, और
मरते भिखारी
की तरह हैं।
हर बच्चा
संसार में एक
नया
साम्राज्य
लाता है। और
हर बूढ़ा एक
दुख की गाथा
अपने साथ लिए
विदा हो जाता
है। जिंदगी का
कुल जोड़ दुख
हो जाता है।
जिंदगी
की भूल नहीं
है। जीने
के ढंग में
भूल है। जीने
का ढंग न आया।
गलत ढंग से
जीए। तो जहां
स्वर्ण बरस
सकता था, वहां
हाथ में केवल
राख लगी। जहां
फूल खिल सकते
थे, वहां
केवल कांटे
मिले। और जहां
परमात्मा के मंदिर
के द्वार खुल
जाते, वहां
केवल नर्क
निर्मित हुआ।
तुम्हारी
जिंदगी
तुम्हारे हाथ
में है। जिंदगी
कोई निर्मित
घटना नहीं है, अर्जित
करनी होती है।
जिंदगी मिलती
नहीं, बनानी
होती है।
मिलती तो है
कोरी स्लेट, कोरा कागज।
क्या तुम उस
पर लिखते हो, वह तुम्हारे
हाथ में है।
तुम दुख की
गाथा लिख सकते
हो। तुम आनंद
का गीत लिख
सकते हो।
नहीं, यह
बात गलत है--
जिंदगी
क्या किसी
मुफलिस की कबा
है जिसमें
हर घड़ी
दर्द के पैबंद
लगे जाते हैं
यह बात
गलत है।
लेकिन
यह बात अगर
आदमी को देखें
तो बिलकुल सही
मालूम होती
है। कभी कोई
बुद्ध, कोई
महावीर, कोई
कबीर और ढंग
से जीता है और
सारी जिंदगी
आनंद का एक
उत्सव हो जाती
है। कबीर ने
कहा है, खूब
जतन से ओढ़ी
कबीरा, ज्यों की
त्यों धरि
दीन्हीं चदरिया।
जतन--खूब जतन
से। कितने होश
से तुम जीवन
को जीते हो, कितने जतन
से, उस पर
ही निर्भर
करेगा। अगर
दुखी हो, तो
ध्यान रखना, जतन से नहीं
जी रहे हो।
दुख बढ़ता जाता
है, तो
ध्यान रखना, गलत दिशा
पकड़ ली है।
किसी और को
दोष मत देना।
क्योंकि किसी
और को दोष
देकर कोई कभी
बदल न पाया।
किसी और को
दोष मत देना, क्योंकि
किसी और को
दोष देने का
अर्थ, जीवन
का रूपांतरण
फिर कभी भी न
हो पाएगा। अगर
आंख में आंसू
हों तो कारण
अपने हृदय में
खोजना।
कौन रोता है
किसी और की
खातिर ऐ दोस्त
सबको
अपनी ही किसी
बात पे
रोना आया
अगर ओठों
पर
मुस्कुराहट
हो,
तो भी कारण
भीतर है।
आंखों में
आंसू हों, तो
भी कारण भीतर
है। जिसने
देखा कि कारण
बाहर है, वही
अधार्मिक है।
जिसने यह बात
समझ ली कि
मेरी जिंदगी
में जो भी घट
रहा है वह
मेरा ही कृत्य
है, वह
मेरे ही होश
और जतन या
बेहोशी और
गैर-जतन का परिणाम
है, वह
व्यक्ति
धार्मिक हो
गया। फिर दुख
ज्यादा देर
तुम्हारे पास
न रह सकेगा।
फिर तुम अचानक
पाओगे एक
क्रांति शुरू
हुई। कल तक जो
एक मुफलिस की कबा थी, एक
भिखारी का
वस्त्र थी, वही एक
सम्राट का
स्वर्णिम
वस्त्र बनने
लगी। कल तक
जहां सिवाय कंकड़-पत्थर
के कुछ भी न
मिला था, वहीं
हीरे-जवाहरात उपलब्ध
होने लगे।
जहां
से तुम गुजरे
हो वहीं से
बुद्ध भी
गुजरते हैं।
पर देखने की आंख
अलग- अलग है।
होश का ढंग
अलग-अलग है।
दो तरह
से आदमी जी
सकता है। एक
ढंग है ऐसे जीने
का कि जैसे
कोई नींद में
जीता हो, मूर्च्छित
जीता हो, चला
जाता हो भीड़
में धक्के
खाते; न तो
पता हो कहां
जा रहा है, न
पता हो क्यों
जा रहा है, न
पता हो कि मैं
कौन हूं; भीड़
में धक्के खा
रहा हो और चला
जा रहा हो।
रुकना
मुश्किल हो, इसलिए चला
जा रहा हो।
रुककर भी क्या
करेंगे, रुककर
भी क्या होगा,
इसलिए चला
जा रहा हो।
कुछ करने को
नहीं है, इसलिए
कुछ किए जा रहा
हो। एक तो
जिंदगी ऐसी है
बेहोश।
और एक
जिंदगी होश की
है कि
प्रत्येक
कृत्य सुनियोजित
है,
और
प्रत्येक
कृत्य
सुविचारित है,
और
प्रत्येक
कृत्य के पीछे
एक जागरण
है--जानते हुए
किया गया है, अनजाने नहीं
किया गया; अचेतन
से नहीं निकला
है, अंधेरे
से नहीं आया
है, भीतर के
होश से पैदा
हुआ है।
मूर्च्छा
से हुआ कृत्य
पाप है।
बेहोशी से पैदा
हुआ कृत्य पाप
है। फिर चाहे
संसार उसे
पुण्य ही
क्यों न कहे!
क्योंकि
कृत्य कहां से
पैदा होता है
इससे उसका
स्वभाव
निर्मित होता
है। लोग क्या
कहते हैं, यह
बात
अर्थपूर्ण
नहीं है।
राह पर
तुमने एक
भिखारी को दान
दे दिया। लोग
तो कहेंगे
पुण्य किया।
लेकिन अगर दान
मूर्च्छा से
निकला है, होश
से नहीं निकला,
तो पुण्य
नहीं है, पाप
है। तुमने दान
अगर इसलिए दे
दिया है कि चार
लोग वहां
देखते थे और
प्रशंसा होगी,
दान किसी
करुणा से नहीं
आया है बल्कि
अहंकार से आया
है, तो पाप
हो गया। तुमने
अगर इसलिए दे
दिया है कि देने
की आदत हो गयी
है, इनकार
करते नहीं बनता;
देने में
प्रतिष्ठा जुड़ गयी है,
इनकार करते
नहीं बनता,
लोग जानते
हैं कि तुम
दाता हो; मूर्च्छा
से हाथ खीसे
में चला गया
और तुमने दे
दिया; न तो
देखी उस आदमी
की पीड़ा, न
देखा उस आदमी
के मांगने का
प्रयोजन; जैसे
शराब में मस्त
कोई जाता हो
बेहोश और दान दे
दिया हो--सुबह
याद भी न
रही--तो पुण्य
नहीं हुआ।
कृत्य
का गुण तय
होता है
तुम्हारे
भीतर कहां से
कृत्य आया।
अगर होश में
आया हो, तो
उठना-बैठना भी
पुण्य हो जाता
है। और अगर बेहोशी
में आया हो, तो
प्रार्थना और
पूजा भी पाप
हो जाती है।
मूल उदगम
असली सवाल है।
कहां से आ रहा
है कृत्य। जो
कृत्य
मूर्च्छित, वही पाप। जो
कृत्य जाग्रत,
वही पुण्य।
बुद्ध
कहते हैं, 'इस
लोक में शोक
करता है, और
परलोक में भी;
पापी दोनों
जगह शोक करता
है। वह अपने
मैले कर्मों
को देखकर शोक
करता है, वह
अपने मैले
कर्मों को
देखकर पीड़ित
होता है।'
इस लोक
में भी, परलोक
में भी।
पापी
के जीवन को हम
थोड़ा समझें, क्योंकि
वही अधिकांश
में हमारा
जीवन है। पाप का
अर्थ है, मूर्च्छा।
तो जब
मूर्च्छा में
तुम कुछ करते
हो, उस घड़ी
मूर्च्छा के
कारण कुछ भी
उपलब्ध नहीं
होता।
मूर्च्छित को
कैसे कुछ
उपलब्ध होगा?
जैसे एक
आदमी बेहोशी
में बगीचे
से गुजर जाए।
फूल सुगंध बांटते
रहेंगे, पर
उसे न मिलेगी।
सूरज की
किरणें नाचती रहेंगी, पर वह नाच
उसके लिए हुआ
न हुआ बराबर
है। बगीचे
की सुगंध, बगीचे
की ठंडी हवा
उसे घेरेगी,
उसे छुएगी,
लेकिन वह
होश में नहीं
है। वर्तमान
में जो नहीं
है, वह
उत्सव से
वंचित रह
जाएगा। और जो
होश में नहीं
है, वह
वर्तमान में
नहीं हो सकता।
वर्तमान में
होना और होश
में होना एक
ही बात को
कहने के दो
ढंग हैं।
तो
पापी कभी जी
ही नहीं पाता।
केवल जीने
की योजना
बनाता है। या
जो जीवन उसने
कभी नहीं जीया
उसकी स्मृति
को संजोता
है,
या जो जीवन
वह कभी नहीं जीएगा, उसकी
कल्पना करता
है, सपने
निर्मित करता
है। लेकिन
जीता कभी
नहीं। क्योंकि
जीना तो अभी
और यहीं है।
तो पापी जीवन
से ही वंचित
रह जाता है।
ध्यान
रखना, बुद्ध
यह नहीं कह
रहे हैं--जैसा
कि साधारण
धर्मगुरु
कहते हैं--कि
पापी दुख पाता
है; क्योंकि
उसने पाप किया,
परमात्मा
उसे पाप का फल
देगा। बुद्ध
की परमात्मा
को बीच में
लाने की
प्रवृत्ति
नहीं है। बुद्ध
तो यह कह रहे
हैं कि पापी
इस लोक में भी
और उस लोक में
भी सुख से
वंचित रह जाता
है। और सुख से
वंचित रह जाना
दुख है। आनंद
से वंचित रह
जाना पीड़ा है।
महोत्सव से
वंचित रह जाना
महानर्क
में पड़ जाना
है। कोई नर्क
में डालता
नहीं, न ही
कोई दंड दे
रहा है, न
ही कोई
तुम्हारे
कृत्यों का
लेखा-जोखा रख
रहा है, लेकिन
पापी के जीने
का ढंग ऐसा है
कि वह चूक
जाता है। और
जो इस लोक में
चूक जाता है
वह परलोक में
भी चूकेगा।
क्योंकि चूकने
की आदत मजबूत
हो जाती है।
तुम
थोड़ा खयाल
करो। तुम कभी
वर्तमान में
होते हो? भोजन
कर रहे होते
हो, लेकिन
मन कहीं और।
प्रार्थना कर
रहे होते हो, लेकिन मन
कहीं और। सिर
झुक रहा होता
है मंदिर में,
लेकिन तुम
वहां नहीं।
अगर कभी
परमात्मा आए
भी तुम्हें
खोजते हुए, तो तुम घर पर
न मिलोगे।
तुम घर पर कभी
हो ही नहीं।
अगर वह
तुम्हारी प्रार्थना
सुन ले--और मैं
जानता हूं
बहुत बार उसने
तुम्हारी
प्रार्थना
सुनी है, हर
बार सुनी
है--लेकिन जब
भी वह आता है तुम्हें
घर नहीं पाता।
तुम कहीं और
हो। तुम्हें
खुद ही पता
नहीं कि तुम
कहां हो।
तुम्हारा कोई
पता-ठिकाना
नहीं है, तुम्हें
खोजे भी तो
कहां खोजे? तुम ऐसे ही
हो जैसे किसी
मेहमान को
निमंत्रण दे
आए हो, और
जब मेहमान घर
आता है तो
तुम्हें घर
पाता ही नहीं।
मेजबान कभी घर
मिलता ही
नहीं। जीवन को
तुम खोजते हो,
जीवन
तुम्हें खोज
रहा है।
इस बात
को थोड़ा ठीक
से समझ लो।
तुम
जीवन को खोज
रहे हो, जीवन
तुम्हें खोज
रहा है। और
तुम जीवन को
खोजने में ही
गंवा रहे हो।
खोजने की
जरूरत नहीं है,
जीवन मिला
ही हुआ है।
उसने सब तरफ
से तुम्हें घेरा
है। वही सब
तरफ से बरस
रहा है। रोएं-रोएं
में, श्वास-श्वास
में जीवन की
ही पुलक है, जीवन का ही
नृत्य है।
कहां तुम
खोजने जा रहे
हो? जहां
भी जाओगे,
गलत जाओगे।
जाना गलत है।
होना सही है।
जाने में ही
तो तुम
वर्तमान से
चूक जाते हो।
तुम कहते हो
कल, कल सुख
पाएंगे। न तो बीते कल
मिला, न
आने वाले कल
मिलने वाला है,
क्योंकि कल
कभी आता नहीं।
आता हुआ लगता
है। सदा आता
है--लगता है
आया, आया, आता कभी
नहीं। जो आता
है, वह आज
है। जो आता है,
वह अभी है।
इस क्षण को
तुम कल के लिए
मत स्थगित कर
देना। जिसने
आज को जीने
के लिए कल पर छोड़ा, वही
पापी है। तब
फिर ऐसा मन
अतीत की स्मृतियां
करता है।
और बड़े
मजे की बात यह
है कि तुम जिन
बातों की स्मृतियां
करते हो, उन
बातों में भी
तुम मौजूद न
थे। वह भी
तुम्हारा
खयाल है।
क्योंकि जब वे
बातें घट रही
थीं, तब
तुम कहीं और
थे।
मेरे
एक मित्र के
साथ मैं ताजमहल
गया था।
तीन-चार घंटे
हम वहां थे।
पूरे चांद की
रात थी। लेकिन
वे ताजमहल
को न देख पाए, क्योंकि
उनको फोटो
लेने थे।
मैंने उनको
कहा भी कि
फोटो तो
तुम्हारे
घर-गांव में
ही मिलते थे, बिकते थे।
इतनी दूर आने
की जरूरत न
थी। और जो फोटो
बाजार में
मिलते हैं वे
ज्यादा बेहतर फोटोग्राफरों
ने लिए हैं।
तुम सिक्खड़
हो। तुम्हारे फोटोग्राफ
का मतलब भी
क्या! पर वे बोले
कि नहीं, घर
चलकर शांति से
देखेंगे।
ताजमहल
सामने है, वे
चित्र ले रहे
हैं! वे घर
चलकर शांति से
देखेंगे!
और तब वे
सोचेंगे, कैसा
प्यारा ताजमहल!
और वह कभी
उन्होंने
देखा नहीं। वह
कैमरे ने
देखा होगा। वे
तो वहां थे ही
नहीं। वे एलबम
बना रहे हैं।
तुम
कभी खयाल किए
कि तुम पीछे
लौट-लौटकर
देखते हो, बचपन
कितना प्यारा
था! पर बचपन
में तुम वहां
थे? कि ताजमहल
के फोटो लिए!
कोई भी बच्चा
वहां नहीं है।
वह जवानी के
सपने देख रहा
है। वह बड़े होने
की कामना कर
रहा है। वह
जल्दी-जल्दी
बड़ा हो जाना
चाहता है।
क्योंकि उसे
लगता है, बड़े
बड़ा आनंद लूट
रहे हैं। बड़ों
के पास शक्ति है,
सामर्थ्य
है। मेरे पास
कुछ भी नहीं।
वह जल्दी में
है। वह जल्दी
बड़ा होना चाह
रहा है।
छोटे
बच्चे खड़े हो
जाते हैं कुर्सियों
पर,
अपने बाप से
कहते हैं, हम
तुमसे
बड़े हैं। वह
बड़े होने की
कामना उनमें
गहरी हो गयी
है। छोटे
बच्चे सिगरेट
पीने लगते हैं,
सिर्फ
इसलिए कि सिगरेट
बड़े का प्रतीक
है। बड़े पी
रहे हैं उसको।
वह ताकतवर
आदमी का सिंबल
है, उसका
प्रतीक है।
बच्चे सिगरेट
पीने लगते हैं,
क्योंकि
उससे अकड़
मालूम होती है
कि वे भी बड़े
हो गए।
मैं एक
गांव में ठहरा
हुआ था।
सुबह-सुबह
घूमने गया था।
एक छोटे बच्चे
को मैंने आते
देखा। इतनी
सुबह, और
बच्चा इतना
छोटा--छह-सात
साल से ज्यादा
का न रहा
होगा--और उसका
ढंग ऐसा कि
मैं भी देखता
रह गया। हाथ
में एक छड़ी
लिए था, बड़े-बूढ़े
की तरह चल रहा
था, और
उसने छोटी सी मूंछ भी
लगा रखी थी।
जब मैंने उसे
गौर से देखा
तो वह भागकर
एक वृक्ष के
पीछे छिप
गया। मैं उसके
पीछे गया। तो
वह अपने घर
में चला गया।
मैं उसके पीछे
उसके घर
पहुंचा। उसने
जल्दी से अपनी
मूंछ निकालकर
खीसे में रख
ली।
मैंने पूछा
कि मामला क्या
है?
तू कर क्या
रहा है? उसके
पास कोई उत्तर
नहीं है। शायद
उसे भी पता नहीं
है। बड़े होने
का ढोंग कर
रहा है। बड़ा
होने की
आकांक्षा जग
गयी है। छोटे
होने में पीड़ा
है। सभी बड़े
होना चाहते
हैं।
यही
बच्चा कल बड़ा
होकर बचपन की
बातें करेगा, कि
बचपन स्वर्ग
था। उस स्वर्ग
के केवल चित्र
लिए हैं, वह
स्वर्ग कभी जीया
नहीं। बूढ़े हो
जाओगे तब
तुम जवानी के
चित्रों का एलबम देखोगे।
वह जवानी भी
तुमने कभी जी
नहीं। जब वहां
थे, तब
वहां थे नहीं।
यही रोग पाप
है।
तुमसे
बहुत और व्याख्याएं
लोगों ने कही
हैं पाप की।
शायद किसी ने तुमसे यह
व्याख्या न
कही हो। लोगों
ने कहा है, बुरा
करना पाप है।
मैं नहीं
कहता।
क्योंकि मैं
मानता हूं, बुरा करना
तुम्हारे गलत
होने से पैदा
होता है।
इसलिए वह गौण
है। गलत होना
पाप है, गलत
करना नहीं। और
जो ठीक हो गया,
उसके जीवन
से पाप विदा
हो जाते हैं।
इसलिए
असली सवाल ठीक
करने का नहीं
है,
असली सवाल
ठीक होने का
है। इस भेद को
ध्यान में रख
लेना।
क्योंकि यह
भेद बुनियादी
है। अगर तुम
गलत को ठीक
करने में लग
गए तो तुम
जन्मों-जन्मों
तक गलत को ठीक
करते रहोगे,
गलत ठीक न
होगा; क्योंकि
तुम गलत हो, वहां से और गल्तियां
पैदा होती रहेंगी।
यह तो
ऐसा ही है
जैसे एक शराबी
आदमी है, वह
शराब पीना तो
बंद नहीं करता,
सम्हलकर चलने की
कोशिश करता
है। सभी शराबी
करते हैं। तुमने
अगर कभी शराब
पी है तो
तुम्हें पता
होगा, जितने
शराबी सम्हलकर
चलते हैं कोई
नहीं चलता।
हालांकि वे
गिरते हैं।
मगर सम्हलकर
वे बहुत चलने
की कोशिश करते
हैं। जिसने
शराब नहीं पी
है, वह सम्हलकर
चलने की कोशिश
ही क्यों
करेगा? वह सम्हलकर
चलता ही है।
इसकी कोशिश
थोड़े ही करनी
होती है। जो
होश में है
उससे पुण्य
होता ही है, पुण्य करना
थोड़े ही होता
है। किया
पुण्य भी दो कौड़ी का हो
जाता है। करने
में ही तो
अहंकार समा
जाता है।
जो होश
में है उससे
पुण्य ऐसे ही
होता है जैसे, बुद्ध
कहते हैं, गाड़ी
के पीछे चाक
चले आते हैं, आदमी के
पीछे छाया चली
आती है। जो
गलत है, बेहोश
है, उससे
पाप भी ऐसे ही
होता है जैसे
गाड़ी के पीछे चाक
चले आते हैं।
गाड़ी गुजरती
है तो चाक के
निशान रास्ते
पर बन जाते
हैं। वह अपने
आप हो जाते
हैं। तुम
निशानों को पोंछने
में मत लग
जाना, क्योंकि
गाड़ी चलती ही
जा रही है।
तुम निशान पोंछते
जाओगे, गाड़ी नए
रास्ते पर नए
निशान बनाती
चली जाएगी। तुम
छाया से मत
लड़ने लगना, क्योंकि जब
तक तुम्हीं
नहीं खो गए हो,
छाया कैसे
खो जाएगी? जब
तुम्हीं
खो जाओगे,
तभी छाया खो
जाएगी।
बड़ी
पुरानी कथाएं
हैं,
जिनमें यह कहा है कि
ज्ञान को
उपलब्ध
व्यक्ति की
छाया नहीं बनती।
उसका यह मतलब
नहीं है कि वह
धूप में चलता
है तो उसकी
छाया नहीं बनती।
इसका मतलब यही
है कि ज्ञान
को उपलब्ध व्यक्ति
का कोई कृत्य
नहीं रह जाता।
सिर्फ अस्तित्व
रह जाता है।
वह होता है।
और उसका होना इतना
महिमावान
हो जाता है कि
उसकी कोई रेखा
नहीं छूटती।
पुण्य की रेखा
भी नहीं
छूटती।
क्योंकि
जिसकी भी रेखा
छूट जाए वही
पाप हो गया।
कृत्य बनता
ही नहीं। कर्म
होता ही नहीं।
इसी को कृष्ण
ने गीता में
कहा है कि जब
तुम फलाकांक्षा
छोड़ दोगे,
तो
तुम्हारा
कर्म अकर्म हो
जाता है। जैसे
हुआ ही नहीं।
जैसे पानी पर
किसी ने लकीर खींची, खिंच
भी न पायी
और मिट गयी।
पाप का
अर्थ है, इस
ढंग से जीना
कि जहां तुम
हो वहां तुम
नहीं हो। कहीं
और...कहीं और...सदा
कहीं और...।
बूढ़े हो जाओगे
तब जवानी की सोचोगे।
जवान हो गए तब
बचपन की सोचोगे।
जब तुम मरने
की घड़ी से घिरोगे, मृत्यु की
शय्या पर, तब
तुम्हें जीवन
की याद आएगी।
यह बात विरोधाभासी
लगती है, मगर
बड़ी सच है।
बहुत लोग मरकर
ही पाते हैं, कि जिंदा
थे। जिंदगी
में उनको कभी
इसका पता न
चला। मरे तभी
उनको अनुभव हुआ--अरे!
जिंदा थे।
बहुत लोग जब चीजें हाथ
से छूट जाती
हैं तभी होश
से भरते हैं
कि अरे! हाथ
में थी और चली
गयी। यह बड़ी
आश्चर्य की बात
है! और जब तक
हाथ में नहीं
आती है कोई
चीज तब तक भी
वे कामना करते
हैं; और जब
हाथ से छूट
जाती है तब भी
याद करते हैं;
और जब हाथ
में होती है
तब उनके जैसे
जीवन के द्वार
बंद हो जाते
हैं। यही पाप
है।
बुद्ध
कहते हैं, 'इस
लोक में भी
शोक करता है
और परलोक में
भी। पापी
दोनों जगह शोक
करता है।'
वह
यहां भी चूक
रहा है, वहां
भी चूकेगा।
क्योंकि चूकने
का अभ्यास
निरंतर गहन
होता जा रहा
है। तुम यह मत
सोचना कि
तुम्हें
स्वर्ग मिल
सकता है। मिल
सकता होता तो
अभी मिल सकता
था। तुम यह मत
सोचना कि स्वर्ग
कल मिलेगा,
और मरने के
बाद मिलेगा।
क्योंकि
स्वर्ग तो
चारों तरफ
मौजूद है--अभी और
यहीं। इसी
क्षण स्वर्ग
बरसा है
तुम्हारे
चारों तरफ।
तुम्हें
चारों तरफ से
घेरा है स्वर्ग
ने, पर तुम
मौजूद नहीं
हो। और तुम
अगर आज मौजूद
नहीं हो, तो
कल मरने के
बाद तुम कैसे
मौजूद हो सकोगे?
मौजूद होने
का कोई अभ्यास
ही नहीं है।
मरने के बाद
भी तुम वही होओगे
जो तुम हो।
इसी को
तो हम कहते
हैं,
बार-बार जन्म
लोगे।
बार-बार जन्म
लेने का अर्थ
है, तुम
फिर-फिर वही
हो जाओगे
जो तुम थे।
तुम दोहराओगे।
तुम
पुनरुक्ति करोगे।
तुम्हारे
जीवन में
क्रांति न
होगी, पुनरुक्ति
होगी।
तुम्हारा
जीवन रोज-रोज
नए का
आविर्भाव न
होगा, केवल
पुरानी राख का
जमता जाना।
तुम्हारा जीवन
अंगार की तरह
न होगा, तुम्हारा
जीवन राख के
ढेर की तरह
होगा। तुम वही-वही
करते रहोगे
जो तुमने पहले
भी किया है, और भी पहले
किया है।
तुम
अगर आज अचानक
तुम्हारी आंख
पर पट्टी बांध
दी जाए और
तुम्हें
स्वर्ग में ले
जाकर छोड़ दिया
जाए,
क्या तुम
सोचते हो तुम
सुखी हो जाओगे?
इसे थोड़ा
विचारना। तुम
स्वर्ग में भी
सुखी न हो सकोगे।
तुम वहां भी नर्क खोज लोगे।
क्योंकि
तुम्हें आता
ही नहीं उस
बात को देखना
जो मौजूद हो।
अन्यथा तुम
स्वर्ग में छोड़े ही गए
हो। यह मैं
कोई कल्पना
नहीं कर रहा
हूं, तुम
स्वर्ग में छोड़े ही गए
हो। और आंख पर
पट्टी भी नहीं
बांधी
हुई है।
फिर से
एक बार सूरज
को देखो।
फिर से एक बार
फूलों को देखो।
फिर से एक बार पक्षियों
के गीत सुनो, जैसे
कभी न सुने
हों। फिर से
एक बार नए और
ताजे होकर
जिंदगी से संपर्क
साधो।
फिर से एक बार
अभी और यहीं
उत्सव में डूब
जाओ। अचानक
तुम पाओगे,
स्वर्ग था।
चूकते हम
इसलिए न थे कि
स्वर्ग दूर
था। चूकते हम
इसलिए थे कि
स्वर्ग में थे,
लेकिन
वर्तमान में
होने की कला न
आती थी।
'इस
लोक में भी
शोक करता है
और परलोक में
भी; पापी
दोनों जगह शोक
करता है। वह
अपने मैले कर्मों
को देखकर शोक
करता है, पीड़ित
होता है।'
अतीत
को याद करता
है तो सिवाय
मैले कर्मों
के कुछ दिखायी
नहीं पड़ता है।
सोया हुआ आदमी
मैले कर्म ही
कर सकता है।
उसकी पूरी कथा, उसका
पूरा इतिहास
मैले कर्मों
का होता है।
जैसे किसी ने
नींद में
चित्र बनाया
हो। देखता है,
कुछ समझ में
नहीं आता। एक बेबूझ
पहेली मालूम
पड़ती है, स्याही
के धब्बे
मालूम पड़ते
हैं। रंग
बेतरतीब हैं।
कुछ समझ में
नहीं आता।
जैसे किसी
पागल ने बनाया
हो। यद्यपि
पागल मिल
जाएंगे उसकी
प्रशंसा करने
को भी।
क्योंकि दूसरे
भी इतने सोए
हुए हैं।
तुम्हारे
जीवन की प्रशंसा
करने वाले लोग
मिल जाएंगे, क्योंकि वे
भी तुम जैसे हैं।
मैंने
सुना है कि पिकासो
के चित्रों की
एक प्रदर्शनी
पेरिस में
हुई। एक चित्र
के पास बड़ी
भीड़ थी। और
लोग बड़ी
प्रशंसा कर
रहे थे। और तब पिकासो
आया और उसने
आकर चित्र को
सीधा टांगा, वह
गलती से उलटा टंगा था।
लोग उसकी
प्रशंसा कर
रहे थे। उनमें
से किसी को यह
भी पता न चला
कि वह उलटा टंगा
है। पिकासो
के चित्र उलटे
या सीधे, फर्क
करना मुश्किल
है। पिकासो
भी कैसे करता
था, यह भी
मुश्किल है।
जैसे किसी
पागल ने रंग
डाले हों।
कहा
जाता है, एक दफे एक
अमरीकी करोड़पति
ने पिकासो
से दो चित्र मांगे।
कितना ही
मूल्य देने को
वह तैयार था।
उसने नया भवन
बनाया था, दो
चित्रों की
जरूरत थी। पिकासो
के पास एक ही
चित्र तैयार
था। वह भीतर
गया, उसने
कैंची से उसके
दो टुकड़े कर
दिए। उसने लाकर
दोनों चित्र
दे दिए, और
दो चित्र के
दाम ले लिए।
पक्का
करना मुश्किल
है। पिकासो
चार भी कर
देता तो भी
पता नहीं
चलता।
पिकासो के
चित्रों में
मनुष्य की
पूरी
विक्षिप्तता प्रगट
हुई है। और
अगर उसके
चित्रों का
इतना समादर
हुआ,
तो उसका कुल
कारण इतना था
कि मनुष्य के
मन की जैसी
दशा है, उसका
ठीक-ठीक
चित्रण उसके
चित्रों में
हो गया है। पिकासो
के चित्रों को
अगर थोड़ी देर
गौर से देखते रहो तो तुम
परेशान होने लगोगे। और
थोड़ी देर गौर
से देखो, तो तुम
घबड़ाने लगोगे।
अगर तुम देखते
ही रहो रातभर
टकटकी लगाकर,
सुबह तक
पागल हो जाओगे।
जैसे किसी ने
बेहोशी में, विक्षिप्तता
में रंग फेंक
दिए हैं।
लेकिन यही
तुम्हारी
जिंदगी है।
बुद्ध
कहते हैं, 'पापी
अपने मैले
कर्मों को
देखकर शोक
करता है।'
देखता
है पीछे तो
सिवाय अंधेरे
के कुछ भी दिखायी
नहीं पड़ता।
अंधेरे में
अपनी ही
विक्षिप्त आवाजें और
चीत्कार सुनायी
पड़ते
हैं। अंधेरे
में अपने ही
पैरों के
पदचिह्न बने दिखायी पड़ते हैं।
उनसे ऐसा नहीं
लगता कि कोई नाचा हो, उनसे
ऐसा लगता है
जैसे जंजीरों
में बंधा हुआ
कोई कैदी
गुजरा हो। उन
कृत्यों को
देखकर ऐसा
नहीं लगता कि
किसी जीवन में
फूल खिले
हों। उन्हें
देखकर ऐसे ही
लगता है कि
कोई जीवन अनखिला
ही डूब गया
है। उन्हें
देखकर ऐसा
लगता है कि सुबह
हुई ही नहीं
और सांझ हो
गयी है। सूरज
निकला ही नहीं
और डूब गया; कली खिली
ही नहीं और मुर्झा
गयी। शोक होता
है पीछे
देखकर। और आगे
की आशा बांधे
रखता है पापी।
परलोक
पापी की आशा
है। कोई परलोक
नहीं है। जो है, अभी
है, यहां
है। सब अभी है,
यहां है।
कोई परलोक
नहीं है।
परलोक पापी की
आशा है; भविष्य
पापी की
कल्पना है।
वर्तमान
पुण्यात्मा
का जीवन है।
भविष्य पापी
की आकांक्षा
है। भविष्य की
आकांक्षा तभी
पैदा होती है
जब वर्तमान
बांझ होता है।
जब वर्तमान
में कुछ भी
नहीं होता, तो आदमी आगे
की अपेक्षा
करता है।
क्योंकि बिना
आशा के फिर जीएगा
कैसे! अभी तो
कुछ भी नहीं
है।
अगर
तुम आज ही
अपने को देखो, तो
आत्महत्या
करने का मन
होगा, कुछ
भी तो नहीं
है। तुम कहते
हो कोई फिकर
नहीं। आज तक
कुछ भी नहीं
हुआ, कल
होगा। हिम्मत
बढ़ती है। सिर
फिर खड़ा हो
जाता है, पैर
फिर मजबूत हो
जाते हैं। आज
तक सब व्यर्थ
हुआ, कोई
चिंता की बात
नहीं, कल आ
रहा है। कल के
साथ सारी आशाएं
फलीभूत होंगी;
सब बीज
अंकुरित
होंगे; सब कलियां खिलेंगी।
कल आ रहा है।
और कल कभी आता
नहीं। और रोज
कल को तुम आगे सरकाए चले
जाते हो। ऐसे
ही एक दिन तुम
मर जाते हो।
परलोक
पापी की आशा
है। यह सुनकर
तुम्हें
हैरानी होगी।
पुण्यात्मा
परलोक की बात
ही नहीं करता।
पुण्यात्मा
कहता है, यहीं
है, अभी
है।
पुण्यात्मा
यह नहीं कहता
कि परमात्मा
आकाश में बैठा
है।
पुण्यात्मा
कहता है, परमात्मा
ने सब तरफ से
घेरा है, श्वास-श्वास
में वही भीतर
जा रहा है, वही
बाहर जा रहा
है। पापी कहता
है, परमात्मा
आकाश में बैठा
है। पुण्यात्मा
तुममें झांकता है
और परमात्मा
को पाता है।
पापी चारों
तरफ देखता है,
कहीं कोई
परमात्मा
नहीं दिखायी
पड़ता। सब तरफ
दुश्मन दिखायी
पड़ते
हैं। वह
कल्पना करता
है परमात्मा
की, वह
आकाश में बैठा
है। क्योंकि
इतने दुश्मनों
के बीच जीना
मुश्किल है, कोई सहारा
चाहिए। कल्पना
में सहारे
खोजता है
पापी। सत्य
में उसके लिए
कोई सहारा
नहीं है, क्योंकि
सत्य में होने
का उसे ढंग ही
न आया। उतना
जतन न आया।
बस इसी
धुन में रहा
मर के मिलेगी
जन्नत
तुझको ऐ
शेख न जीने
का करीना
आया
उसे जीने
का करीना
न आया; ढंग न
आया; जीने की शैली न आयी। वह
इसी आशा में
रहा कि मरेंगे,
तब जन्नत, तब स्वर्ग
होगा। जिसने
स्वर्ग को
यहां न पाया, वह कहीं भी न
पा सकेगा।
जिसने यहां
खोया, वह
सब जगह खो
देगा।
'इस
लोक में और
परलोक में भी
पापी शोक करता
है।'
'इस
लोक में मुदित
होता है, और
परलोक में भी;
पुण्यात्मा
दोनों लोक में
मुदित होता
है।'
ये
बुद्ध के वचन
बड़े प्यारे
हैं। इस लोक
में मुदित
होता है, खिलता
है, नाचता
है, आनंदित
होता है।
'इस
लोक में मुदित
होता है, और
परलोक में भी।'
क्योंकि
परलोक इसी लोक
का विस्तार
है। परलोक इसी
लोक की संतान
है। परलोक इसी
लोक से आता है, निकलता
है, पैदा
होता है। जैसे
बीज से अंकुर
निकलता है।
जैसे मां के
गर्भ से बेटा
पैदा होता है,
ऐसे ही
वर्तमान से
भविष्य पैदा
होता है। इसी
लोक से, इसी
क्षण से आने
वाला क्षण आ
रहा है। इसी
क्षण में छिपा
है। जैसे बीज
में वृक्ष
छिपा है, ऐसा
वर्तमान में
भविष्य छिपा
है। इस लोक में
परलोक छिपा
है। पदार्थ
में परमात्मा
छिपा है।
'इस
लोक में मुदित
होता है, परलोक
में मुदित
होता है; पुण्यात्मा
दोनों लोक में
मुदित होता
है।'
क्यों? जिसे
यहां मुदित
होना आ गया, उसे सब जगह
मुदित होना आ
गया। असली
सवाल लोक का
नहीं है, असली
सवाल
प्रमुदित
होने की कला
का है। जिसे
हंसना आ गया; जिसे नाचना
आ गया; जिसने
जीवन की धुन
को पकड़ लिया; और जो जीवन
के गीत में
तालबद्ध होना
सीख गया; जो
जीवन के साथ
छंद का अनुभव
करने लगा; जिसके
पैर जीवन के
नाच के साथ पड़ने
लगे; जीवन
की बांसुरी ने
जिसके हृदय को
छू लिया; वह
सभी जगह प्रमुदित
होता है। तुम
उसे नर्क
में न डाल सकोगे।
शास्त्र
कहते हैं, पुण्यात्मा
स्वर्ग जाता
है, पापी नर्क जाता
है। बात
बिलकुल भिन्न
है। पापी कहीं
और जा नहीं
सकता। ऐसा
नहीं कि नर्क
भेजा जाता है।
कहीं भी भेजो,
पापी नर्क
पाता है। ऐसा
नहीं कि
पुण्यात्मा
को स्वर्ग भेजा
जाता है। कौन
बैठा है सब
हिसाब करने
को! कौन इस सब
व्यवस्था को
बिठाता रहेगा!
किसको
पड़ी है!
पुण्यात्मा
को कहीं भी भेजो,
वह स्वर्ग
पहुंच जाता
है।
मैं एक
कहानी पढ़ता
था। यूरोप का
एक बहुत बड़ा विचारक
हुआ,
एडमंड बर्क।
वह रोज सुनने
जाता था एक
पादरी को।
पादरी ने एक
दिन चर्च
में कहा कि जो
लोग
पुण्यात्मा
हैं और
परमात्मा में
भरोसा करते
हैं, वे
स्वर्ग जाते
हैं। एडमंड
बर्क खड़ा
हो गया। उसने
कहा, मुझे
एक बात पूछनी
है। आपने दो
बातें कहीं, कि जो लोग
पुण्यात्मा
हैं, और परमात्मा
में भरोसा
करते हैं, वे
स्वर्ग जाते
हैं। मैं
पूछता हूं कि
जो लोग पुण्यात्मा
हैं और
परमात्मा में
भरोसा नहीं करते,
वे कहां
जाते हैं? और
मैं यह भी
पूछना चाहता
हूं कि जो
परमात्मा में
भरोसा करते
हैं और
पुण्यात्मा
नहीं हैं, वे
कहां जाते हैं?
एडमंड बर्क की
जिज्ञासा
एकदम
प्रामाणिक
थी। पादरी भी ठगा सा रह
गया। अब क्या
कहे?
उसे बड़ी
उलझन हो गयी।
अगर वह कहे कि
जो लोग पुण्यात्मा
हैं और
परमात्मा में
भरोसा नहीं
करते, वे
भी स्वर्ग
जाते हैं; तो
स्वभावतः बर्क
कहेगा, फिर
परमात्मा में
भरोसे की
जरूरत क्या है?
पुण्य ही काफी
है। और अगर
मैं कहूं कि
जो लोग
पुण्यात्मा हैं
और परमात्मा
में भरोसा
नहीं करते, वे स्वर्ग
नहीं जाते; तो बर्क कहेगा, तो
फिर पुण्य की
झंझट में पड़ने
की क्या जरूरत?
परमात्मा
में भरोसा
काफी है।
पादरी ने कहा,
मुझे तुमने
उलझन में डाल
दिया। थोड़ा
मुझे सोचने का
समय दो; कल।
रातभर
पादरी सो न
सका। आदमी
निष्ठावान
रहा होगा। चालाक
नहीं, बुद्धिमान
रहा होगा।
बहुत सोचा, लेकिन उलझन
न हल हुई।
सुबह-सुबह, भोर
होते-होते, रातभर का जागा
सोचता-सोचता
नींद लग गयी।
नींद में उसने
एक सपना देखा
कि वह एक
ट्रेन में
बैठा है। उसने
लोगों से पूछा,
यह ट्रेन
कहां जा रही
है? उन्होंने
कहा, यह
स्वर्ग जा रही
है। उसने कहा,
चलो अच्छा हुआ!
यही तो मुझे
पूछना था। यह
अच्छा ही हुआ,
आंख से ही
देख लूंगा। तो
उसने सोच रखे
नाम मन में--जैसे
सुकरात; परमात्मा
में भरोसा
नहीं करता था,
आदमी
पुण्यात्मा
था। जैसे
बुद्ध; इससे
और पुण्य की
साकार
प्रतिमा कहां पाओगे? लेकिन
आदमी
परमात्मा में
भरोसा नहीं
करता था। तो
उसने कहा, ठीक
है, अगर ये
बुद्ध और ये सुकरात
स्वर्ग में
मिल गए तो
उत्तर साफ हो
जाता है, कि
परमात्मा में
भरोसे की
जरूरत नहीं।
अगर ये स्वर्ग
में न मिले, तो भी उत्तर
साफ हो जाता
है कि पुण्य
से कुछ भी न
होगा, असली
चीज परमात्मा
में भरोसा है।
स्वर्ग
के स्टेशन पर
उतरा, बड़ी
हैरानी हुई।
स्टेशन बड़ा
उदास था। जैसे
कई जमानों
की धूल जमी हो,
किसी ने साफ
न की हो। थोड़ा
हैरान हुआ।
जाकर गौर से
देखा तख्ती पर,
तो स्वर्ग
ही लिखा है।
गांव में प्रविष्ट
हुआ, बड़ी बेरौनक थी
बस्ती। कहीं
फूल खिलते न
मालूम पड़ते
थे। और किसी
घर से वीणा के
स्वर न उठते
थे। कहीं कोई
नाचता न मिला।
मिले भी
ऐसे--धर्मगुरु,
पादरी, मुनि;
मगर कोई
रौनक न मिली।
ऐसे जैसे
मुर्दे चल रहे
हों। कहीं कोई
महोत्सव न
मिला। जिंदगी
ऐसी लगी जैसे
एक बोझ हो
वहां। उसने
पूछा कई से कि सुकरात, गौतम बुद्ध?
लोगों ने
कहा, नाम सुने
नहीं। यहां
नहीं हैं।
दूसरी जगह, नर्क में खोजो।
भागा
स्टेशन आया।
पूछा कि नर्क
की गाड़ी? भाग्य
से खड़ी थी, जा
ही रही थी। वह
बैठ गया। नर्क
पहुंचा तो बड़ा
हैरान होने
लगा। जैसे
किसी महोत्सव
में प्रवेश हो
रहा हो। बड़ा
स्वच्छ था स्टेशन।
जीवन मालूम
पड़ता था। फूल खिले थे, गीत बजते थे,
लोग चलते थे
तो उनके पैरों
में गति थी, रौनक थी, रंग-बिरंगापन
था, जीवन
का इंद्रधनुष
जैसे खिला था।
वह बड़ा हैरान
हुआ कि यह तो
कुछ गड़बड़ है।
नाम में, तख्ती
में कुछ भूल-चूक
हो गयी। इसको
स्वर्ग होना
चाहिए। उसने पूछा
कि सुकरात
और बुद्ध? उन्होंने
कहा कि हां, वे यहां
हैं। और नाम
में कोई गलती
नहीं हुई है।
उनके आने से
ही यह नर्क
स्वर्ग हो
गया।
नींद
खुल गयी उसकी।
घबड़ाहट में
नींद खुल गयी
कि यह क्या
मामला है? सपना
तो खो गया। जब वह
सुबह चर्च
गया, उसने
कहा कि भई, मैं
कुछ और न कह सकूंगा,
लेकिन रात
एक सपना आया
है वह मैं
दोहरा देता हूं
उत्तर में।
सपने में मुझे
ऐसा दिखायी
पड़ा; कहां
तक सही है, कहां
तक झूठ है, कुछ
कह नहीं सकता।
मेरी कोई
सामर्थ्य भी
नहीं इसका
निर्णय लेने
की। इतना मुझे
दिखायी
पड़ा और वह यह
कि जहां भी
पुण्यात्मा
पुरुष पहुंच
जाते हैं, वहीं
स्वर्ग है।
जहां पापी
पहुंच जाते
हैं, वहीं नर्क है।
पापी नर्क
जाते हैं, ऐसा
नहीं। पापी
अपना नर्क
अपने साथ लेकर
चलते हैं। और
पुण्यात्मा
स्वर्ग जाते
हैं, ऐसा
नहीं।
पुण्यात्मा
अपना स्वर्ग
अपने साथ लेकर
चलते हैं। तुम
उन्हें कहीं
भी फेंक दो।
और
मुझे भी बात जंचती है।
सपना नहीं, सच
मालूम होती
है। बुद्ध को
तुम नर्क
में भी डाल दो
तो तुम नर्क
में न डाल सकोगे।
यह असंभावना
है। बुद्ध
वहां स्वर्ग
खड़ा कर लेंगे।
बुद्ध अपना
स्वर्ग अपने
साथ लेकर चलते
हैं, वह बुद्ध
के जीवन की
हवा है। वह
उनके आसपास
चलता हुआ मौसम
है। उसको तुम
उनसे छीन न सकोगे।
नर्क बदल
जाएगा, बुद्ध
न बदलेंगे।
तुम बुद्ध को
दुखी नहीं कर
सकते, तो
तुम नर्क
में कैसे डाल
सकते हो? तुम
तुम्हारे
तथाकथित धर्मगुरुओं
को सुखी नहीं
कर सकते, तुम
स्वर्ग कैसे
भेज सकते हो?
बस
इसी धुन में
रहा मर के मिलेगी
जन्नत
तुझको ऐ
शेख न जीने
का करीना
आया
हे
धर्मगुरु, तुझे
जीने का करीना न
आया। तू इसी
आशा में रहा
कि मरकर मिलेगा
स्वर्ग।
जिसने जीते जी
स्वर्ग न पाया,
वह मरकर
कैसे पा लेगा?
जब जीते जी
चूक गए तो
मुर्दा होकर
कैसे पा लोगे?
स्वर्ग तो
होता है तो
जीवन से जुड़ता
है, मौत से
नहीं। स्वर्ग
होता है तो
जीवन से निकलता
है। मौत से
कैसे निकलेगा?
स्वर्ग
मरघटों में
नहीं है।
स्वर्ग वहां
है जहां जीवन
नाचता है
हजार-हजार
रंगों में।
स्वर्ग वहां
है जहां जीवन
की धुन बज रही
है हजार-हजार
स्वरों में।
स्वर्ग वहां
है जहां तुम
जितने गहरे
जीवंत हो जाते
हो।
स्वर्ग
सिकुड़ना
नहीं है, फैलाव
है। इसलिए
हिंदुओं ने
अपने परम सत्य
को ब्रह्म कहा
है। ब्रह्म का
अर्थ होता है,
विस्तीर्ण।
ब्रह्म का
अर्थ है, जो
फैलता ही
गया है। जिसकी
कोई सीमा नहीं
आती।
तुमने
कभी खयाल किया, दुख
सिकुड़ता
है, आनंद फैलता है।
दुख का स्वभाव
है सिकुड़ना।
जब तुम दुखी
होते हो, तब
तुम चाहते हो
द्वार-दरवाजे
बंद करके बैठ
जाओ। कोई
मिलने न आए, किसी से बात
न करनी पड़े, बाजार न
जाना पड़े। तब
तुम अपने को
बंद कर लेना चाहते
हो। सिकुड़कर
पड़ जाना चाहते
हो बिस्तर में।
अगर बहुत ही
दुखी हो जाता
है आदमी, तो
मरने की
चेष्टा करने
लगता है। कब्र
में समा जाना
चाहता है, ताकि
फिर कभी कोई
दुबारा न
मिले। अकेला
हो जाऊं।
इसलिए दुखी
आदमी आत्मघात
कर लेता है।
लेकिन जब सुख
भरता है, जब
महासुख
उतरता है, जब
तुम नाचते
होते हो, तब
तुमसे
कोई कहे घर
में बैठो;
तुम कहोगे,
नहीं, अभी
तो जाना है, अभी तो
बांटना है, अभी तो
फैलना है।
तुमने
देखा, महावीर
और बुद्ध जब
दुखी थे, जंगल
भाग गए। लेकिन
जब आनंदित हुए,
जब उतरा
अमृत उनके
जीवन में, लौट
आए वापस बस्ती
में। इस पर
किसी ने कभी
कोई सोचा नहीं,
कि जब वे
दुखी थे तब
जंगल भाग गए
थे--अकेले
में। उसकी बड़ी
कथाएं
शास्त्रों
में हैं, कि
उन्होंने सब
छोड़ दिया और
जंगल चले गए।
लेकिन इस
संबंध में
शास्त्र कुछ
भी नहीं कहते
कि एक दिन
उन्होंने
जंगल छोड़ दिया
और बस्ती में
वापस आ गए।
वह
दूसरी घटना और
भी
महत्वपूर्ण
है। क्योंकि जब
आनंद उनके
जीवन में उतरा
तो बांटने का
भाव भी आया।
आनंद के साथ
आती है करुणा।
आनंद के साथ
आती है एक
अभीप्सा कि बांटो, लुटो।
जो मिला है, उसे दूसरों
को दे दो।
क्योंकि आनंद
का एक स्वभाव
है: बांटो,
बढ़ता है; न बांटो,
घटता है। लुटाओ, बढ़ता
है; छिपाओ,
मरता है।
ब्रह्म
हमने नाम दिया
है परम सत्य
को।
सच्चिदानंद
कहा है, और
ब्रह्म कहा
है। ब्रह्म का
अर्थ है, जो
विस्तीर्ण
होता चला गया।
जो कहीं सिकुड़ता
ही नहीं, जो
फैलता ही
चला जाता है।
विस्तार
जिसका स्वभाव
है। जीवन जब
तुम्हारा
खिलता है, तो
फूल की तरह फैलता
है, सुगंध
लुटती है। जब
तुम मुर्झाते
हो दुख में, तो बंद हो
जाते हो, सिकुड़
जाते हो, जड़
हो जाते हो।
प्रवाह रुक
जाता है।
इसे
ध्यान रखना--
'इस
लोक में मुदित
होता है।'
मुदित
शब्द बड़ा
महत्वपूर्ण
है। यह फूल की
दुनिया से आया
हुआ शब्द
है--प्रमुदित।
मुदित का अर्थ
होता
है--खिलना, फूलना,
फैलना।
'इस
लोक में मुदित
होता है।'
मुदित
शब्द की ध्वनि
भी खिलाने
वाली है।
'और
परलोक में भी।'
क्योंकि
परलोक कहीं और
थोड़े ही है।
इसी लोक से
निकलता है।
इसी लोक की
शृंखला है।
इसी लोक का अगला
कदम है।
तुम्हारा
आध्यात्मिक
जीवन तुम्हारे
सांसारिक
जीवन का ही
अगला कदम है।
तुम्हारा
मंदिर
तुम्हारे घर
का ही अगला कदम
है। घर के
खिलाफ जो
मंदिर है, वह
मंदिर मंदिर
नहीं है।
संसार के
खिलाफ जो
अध्यात्म है,
वह
अध्यात्म
नहीं। आज के
खिलाफ जो कल
है, वह
झूठा है। इस
लोक के खिलाफ
जो परलोक है, वह परलोक
सिर्फ
तुम्हारी आकांक्षाओं
में, सपनों
में होगा, सत्य
में नहीं है।
क्योंकि सत्य
में तो सब जुड़ा
है। तुम्हारा
घर और मंदिर
एक ही
जीवन-यात्रा के
दो पड़ाव हैं।
संसार और
परमात्मा एक
ही यात्रा के
दो कदम हैं।
'इस
लोक में मुदित
होता है, और
परलोक में भी;
पुण्यात्मा
दोनों लोक में
मुदित होता
है। वह अपने कर्मों
की विशुद्धि
को देखकर
मुदित होता है,
प्रमुदित
होता है।'
और जब
तुम लौटकर
पीछे देखते
हो--अगर
तुम्हारे
जीवन के ढंग
में रोशनी रही
हो,
अगर जतनपूर्वक
तुम जीए हो, अगर होशपूर्वक
तुमने कदम
उठाए हैं--तो
तुम जब लौटकर
देखते हो, तो
एक प्रकाश से
भरी यात्रा, हर कदम पर
हीरे जड़े!
और तुम्हारे कदमों में
शराबी की
डगमगाहट नहीं दिखायी
पड़ती, होश
की थिरता
मालूम होती; और यात्रा
सिर्फ यात्रा
नहीं मालूम
होती, तीर्थयात्रा
मालूम होती
है।
लौटकर भी
पुण्यात्मा
प्रमुदित
होता है। पीछे
भी स्वर्ग था, आगे
भी स्वर्ग है,
क्योंकि
अभी स्वर्ग है।
जिसका स्वर्ग
अभी है, उसके
दोनों तरफ
स्वर्ग फैल
जाता है। और
जिसका स्वर्ग
अभी नहीं है, उसके दोनों
तरफ नर्क
फैल जाता है।
इस क्षण में
सब कुछ निर्भर
है। यह क्षण
निर्णायक है।
'इस
लोक में
संतप्त होता
है, और
परलोक में भी;
पापी दोनों
लोक में
संतप्त होता
है। मैंने पाप
किया, कह-कहकर
संतप्त होता
है। दुर्गति
को प्राप्त कर
वह फिर संतप्त
होता है।'
'भले
ही कोई बहुत
सी संहिता
कंठस्थ कर ले,
लेकिन प्रमादवश
उसका आचरण न
करे तो वह
दूसरों की गौएं
गिनने वाले
ग्वाले के
समान है, और
वह श्रामण्य
का अधिकारी
नहीं होता।'
भले ही
कोई पूरा वेद
कंठस्थ कर ले, संहिता
कंठस्थ कर ले,
लेकिन उसका
आचरण न करे; कितना ही
ज्ञानी हो जाए,
लेकिन
ज्ञान उसका
जीवन न बने, तो वह पाप
में ही जीएगा।
जानने से
पुण्य का कोई
संबंध नहीं
है। जीने
से संबंध है।
खुश्क
बातों में
कहां ऐ शेख कैफे-जिंदगी
वो तो
पीकर ही मिलेगा
जो मजा पीने
में है
पीने
के संबंध में
कितनी ही
बातें याद कर
लो,
शराब के सब फार्मूले
कंठस्थ कर लो,
परमात्मा
के संबंध में
जो कहा गया है
याद कर लो, कितनी
ही संहिता
कंठस्थ कर
लो--वह तो पीकर
ही मिलेगा
जो मजा पीने
में है।
खुश्क
बातों में
कहां...
वो तो
पीकर ही मिलेगा
जो मजा पीने
में है
तो
बुद्ध कहते
हैं कि जब तक
जो तुमने जाना
वह तुम्हारा
जीवन न हो, जब
तक तुम्हारे जीने और
तुम्हारे
जानने में
अंतर होगा, तब तक तुम भटकोगे।
जब तुम्हारा
जानना ही जीवन
होगा, और
तुम्हारा
जीना ही जानना
होगा; जब
तुम्हारे
होने में और
तुम्हारे बोध
में कोई अंतर
न रह जाएगा; जब संहिता
कंठ में न
होगी, हृदय
में होगी; जब
वेद केवल
मस्तिष्क की
खुजलाहट न
होगी, हृदय
का भाव बनेगा;
तब चाहे
शब्द भूल जाएं,
सिद्धांत
विस्मृत हो
जाएं, लेकिन
तुम
जीते-जागते
प्रमाण होओगे,
तुम
सिद्धांत होओगे।
तुम्हारे पास
चाहे ईश्वर को
प्रमाणित
करने का कोई
तर्क न हो, लेकिन
तुम्हीं
तर्क हो गए होओगे।
तुम्हारी
मौजूदगी
प्रमाण बनेगी।
इसीलिए
तो बुद्ध
ईश्वर की बात
नहीं करते। वे
स्वयं ईश्वर
के प्रमाण
हैं। उन्हें
देखकर जिसको
भरोसा न आया, उसे
तर्क देकर भी
भरोसा कैसे दिलाया जा
सकेगा?
एक
युवक ने बुद्ध
से पूछा है एक
दिन कि मुझे
आनंद, निर्वाण,
मोक्ष, इन
पर कोई भरोसा
नहीं आता। आप
कृपा करें और
मुझे समझाएं।
बुद्ध ने कहा,
मुझे देखो;
और अगर मुझे
देखकर भरोसा न
आया, तो
मेरे कहने से
कैसे भरोसा आ
जाएगा? मैं
यहां मौजूद
हूं प्रमाण की
तरह। और अगर
तुम मुझे नहीं
देख पाते, तो
तुम मुझे सुन
कैसे पाओगे?
जिसने मुझे
देखा, उसे
सुनने की
जरूरत न रही।
और जिसने
सुनने का ही
ध्यान रखा, वह मुझे देख
न पाएगा।
'भले
ही कोई बहुत
सी संहिता
कंठस्थ कर ले,
लेकिन प्रमादवश
उसका आचरण न
करे।'
जानना
तो बड़ा सरल
है। क्योंकि
जानने से
अहंकार को बड़ी
तृप्ति मिलती
है। मैं जानने
वाला हो गया; मुझे
चारों वेद याद
हैं; दूसरे
अज्ञानी हैं,
मैं ज्ञाता
हूं--जानने
में एक अकड़ है,
एक अहंकार
है, प्रमाद
है।
इसलिए
तुम पंडित को
बड़ा अकड़ा हुआ पाओगे।
अकड़ कोढ़ी
है,
नपुंसक है।
भीतर कुछ भी
नहीं है, लेकिन
पंडित को तुम
बड़ा अकड़ा पाओगे।
वह सब तरफ कहे
बिना कहे
घोषणा करता है
कि मैं जानता
हूं। जानने से
तो अहंकार
कटता नहीं, बढ़ता है। जीने
से गिर जाता
है।
जो
परमात्मा के
रास्ते पर या
सत्य के
रास्ते पर एक
कदम भी चलेगा, वह
झुकने लगेगा। जो
शास्त्र के
रास्ते पर लाख
कदम भी चले, झुकना तो
दूर रहा और भी
अकड़ जाएगा।
शास्त्र खोपड़ी
को और भी भर
देते हैं, मिटाते
नहीं।
शास्त्र हृदय
से और दूर कर
देते हैं, पास
नहीं लाते।
शास्त्रों
में सत्य नहीं
मिलता किसी
को।
शास्त्रों से
तो और अहंकार
मजबूत हो जाता
है।
'भले
ही कोई बहुत
सी संहिता
कंठस्थ कर ले,
लेकिन प्रमादवश
उसका आचरण न
करे तो वह
दूसरों की गौएं
गिनने वाले
ग्वाले के
समान है।'
बड़ा
प्यारा
प्रतीक है।
जैसे ग्वाला
तुम्हारे गांवभर
की गउओं
को इकट्ठा
करके जंगल ले
जाता है, दिनभर चराता है, गिनती रखता
है, लौटा
लाता है; कहता
है, पांच
सौ गौएं चराकर
लौटा। एक गऊ
तुम्हारी
नहीं है
उसमें! सब
दूसरों की
हैं। वेद कितने
ही सुंदर हों,
दूसरे की गौएं हैं।
उपनिषद कितने
ही सुंदर हों,
दूसरे की गौएं हैं।
तुम्हारा
क्या है? ग्वाले
ही बने रहोगे?
मालिक कब बनोगे?
शब्द
सीख लेने से
आदमी ग्वाला
ही रह जाता
है। और गौएं
कितनी ही हों, अपनी
एक भी नहीं।
सब उधार, सब
दूसरों की, लेकिन
ग्वालों में
भी अकड़ होती
है। अगर एक
ग्वाला सौ गौएं
रखता है और
दूसरा ग्वाला
पांच सौ, तो
पांच सौ वाला
ज्यादा अकड़ा
रहता है। वह
कहता है, तू
है क्या मेरे
सामने? सौ गौएं
चराता है, मैं
पांच सौ चराता
हूं।
मगर गौएं
सब दूसरों की
हैं,
सौ हों कि
पांच सौ हों।
तुम चतुर्वेदी
हो, कि
त्रिवेदी, कि
द्विवेदी,
इससे क्या
फर्क पड़ता है?
गौएं सब दूसरों
की हैं। अपनी
कोई एक भी गाय
हो तो ही जीवन
को पुष्ट करती
है; तो ही
उसका दूध
तुम्हें मिल
सकता है; तो
ही तुम उसके
मालिक हो। वह दुबली-पतली
हो, दीन-दरिद्र
हो, अपनी
हो, तो भी
किसी की
स्वस्थ स्वीडन
से आयी
गाय के
मुकाबले भी
बेहतर है।
पीने
वाले एक ही दो
हों तो हों
मुफ्त
सारा मयकदा
बदनाम है
ज्ञानी
बहुत दिखायी
पड़ते
हैं।
पीने
वाले एक ही दो
हों तो हों
वेद के
जानने वाले, उपनिषद,
कुरान के
जानने वाले
बहुत हैं।
पीने
वाले एक ही दो
हों तो हों
मुफ्त
सारा मयकदा
बदनाम है
शराबघर
में जितनों को
तुम बैठे
देखते हो सबको
पीने वाले मत
समझ लेना।
उनमें से कई
तो पानी ही पी
रहे हैं, और
नाटक कर रहे
हैं। नाटक कर
रहे हैं कि
गहरे नशे में
हैं। और पानी
पीकर सिर हिलाने
से कुछ भी
नहीं होता।
ज्ञान
के मयखाने
में,
सत्य की
शराब जहां
बिकती है, मिलती
है, वहां
पीने वाले
बहुत मुश्किल
से कभी एक दो मिलेंगे।
क्योंकि पीने
वाले को मिटना
पड़ता है। वह
रास्ता
खतरनाक है।
जोखिम का है, जुआरी का
है।
तो
बहुत से तो
केवल पीने का
बहाना करते
हैं,
डगमगाकर चलते हैं, नाटक करते
हैं। पंडितों
को गौर से
देखना। शराब कभी
पी ही नहीं; शराब का
शास्त्र
कंठस्थ किया
है। और उसी से
मतवाले होकर
चल रहे हैं।
बातचीत सुनी
है, नशा छा
गया है। इस
नशे की
भ्रांति में
मत पड़ना।
'जो
दूसरों की गौएं
गिनने वाले
ग्वाले के
समान है, वह
श्रामण्य
का अधिकारी
नहीं हो सकता।'
इस
शब्द को थोड़ा
समझ लेना
जरूरी है।
भारत के पास
दो शब्द
हैं--ब्राह्मण
और श्रमण। कभी
ब्राह्मण
शब्द बड़ा
अनूठा था।
उसका अर्थ था, जिसने
ब्रह्म को
जाना। लेकिन
फिर शब्द गिरा,
पतित हुआ।
फिर उसका अर्थ
इतना ही हो
गया कि जो शास्त्रों
का जानकार है,
ब्राह्मण-कुल
में पैदा हुआ
है। ब्रह्म के
जानने से उसका
कोई संबंध न
रहा। वह शब्द
पतित हो गया।
उसका अर्थ खो
गया।
उद्दालक ने
अपने बेटे श्वेतकेतु
को कहा है कि
ध्यान रख, हमारे
घर में बस
कहलाने वाले
ब्राह्मण
पैदा नहीं
हुए। हमारे घर
में सच में ही
ब्राह्मण पैदा
हुए हैं। तो
तू याद रखना, कहीं तू यह
मत समझ लेना
कि तू
ब्राह्मण-कुल
में पैदा हुआ,
इसलिए
ब्राह्मण हो
गया।
ब्राह्मण
होना पड़ेगा।
ब्राह्मण-कुल
में पैदा होने
से कोई
ब्राह्मण
होता है!
ब्रह्म को
जानने से कोई
ब्राह्मण होता
है। ब्रह्म के
कुल में जब तक
तुम पैदा न हो जाओ,
जब तक
ब्रह्म ही
तुम्हारा कुल
न हो जाए, जब
तक ब्रह्म की
कोख से ही तुम
पुनरुज्जीवित
न होओ, पुनर्जन्म
न लो, तब तक
ब्राह्मण के
घर में पैदा
होने से कोई
ब्राह्मण
नहीं होता।
लेकिन
यह हो गया था।
सभी शब्दों के
साथ ऐसा ही होता
है। तो बुद्ध
और महावीर को
एक नया शब्द
खोजना पड़ा। वह
शब्द है, श्रमण।
वह ब्राह्मण
के विपरीत है।
श्रमण का अर्थ
होता है, जिसने
श्रम करके
अर्जन किया है
ज्ञान को। उधार
नहीं लिया। जो
ऐसे ब्राह्मण
के घर में
पैदा होकर वेद
कंठस्थ नहीं
कर लिया है, बल्कि जिसने
वेद को जीया
और जाना है।
श्रम
से आया है
श्रमण। श्रमण
का अर्थ होता
है,
जिसने
अर्जित किया
है ज्ञान।
उधार, बासा,
चुराया
नहीं। किसी और
की जूठन
इकट्ठी नहीं
कर ली है। वह
चाहे जूठन फिर
ऋषियों
की ही क्यों न
हो, इससे
क्या फर्क
पड़ता है। जूठन
जूठन है।
जिसने अपने
जीवन-सत्य को
स्वयं ही
पहचाना है, साक्षात्कार
किया है, श्रम
से जिसने
अर्जित किया
है, वह
श्रमण।
तो
बुद्ध कहते
हैं,
'जो दूसरों
की गौएं
गिनने वाले
ग्वाले के
समान है, वह
श्रामण्य
का अधिकारी
नहीं होता।'
वह भला
ब्राह्मण
अपने को कहता
रहे,
लेकिन
श्रमण हम उसको
न कहेंगे।
फिर
श्रमण की भी
वही दुर्गति
हो गयी। सभी
शब्दों की वही
गति हो जाती
है। अब
जैन-मंदिरों
में,
बौद्ध-विहारों
में श्रमण
बैठे हैं; वे
वैसे ही हो गए
जैसे
ब्राह्मण थे।
उन्होंने कुछ
जाना नहीं है,
बुद्ध के
शब्द कंठस्थ
कर लिए, महावीर
की वाणी
कंठस्थ कर ली।
खुद कोई अनुभव
नहीं है। कोई
एक किरण भी
नहीं उतरी
अनुभव की।
शब्दों का
अंधेरा है; अनुभव की एक
किरण नहीं।
शास्त्रों की
बड़ी भीड़ है, बोझ है, लेकिन
शून्य का एक
भी स्वर नहीं।
तो दब गए हैं शास्त्रों
से, लेकिन
शून्य की
मुक्ति
उन्हें
उपलब्ध नहीं हुई।
जो 'ब्राह्मण'
की दुर्गति
हुई थी वही अब 'श्रमण' की
हो गयी। सभी
शब्दों की हो
जाती है।
क्योंकि
जल्दी ही आदमी
को यह समझ में
आ जाता
है--मुफ्त
ज्ञान, चुराया
ज्ञान इकट्ठा
कर लेना सस्ता
है। उसमें
दांव पर कुछ
भी नहीं लगाना
पड़ता। कूड़ा-करकट
कहीं से भी
इकट्ठा कर
लाए। लेकिन
अगर ज्ञान
स्वयं पाना हो,
तो अपने को
गंवाना पड़ता
है। जो अपने
को खोने
को राजी है, वही सत्य को
पाने का
अधिकारी होता
है, वही श्रामण्य
का अधिकारी
होता है, वही
ब्राह्मण
कहलाने का
हकदार होता
है।
'भले
ही किसी को
थोड़ी सी ही
संहिता
कंठस्थ हो, लेकिन धर्म
का आचरण हो, राग, द्वेष
और मोह को छोड़कर
सम्यक ज्ञान
और विमुक्त
चित्त वाला हो,
तथा इस लोक
और परलोक में
किसी भी चीज
के प्रति निरभिलाष
हो, तो वह श्रामण्य
का अधिकारी
होता है।'
लुफ्ते-मय तुझसे
क्या कहूं जाहिद
हाय
कमबख्त तूने
पी ही नहीं
वह जो
शराब का मजा
है--लुफ्ते-मय--क्या
कहूं जाहिद!
हाय
कमबख्त तूने
पी ही नहीं
इतना
ही फर्क है
जानने और जीने
में। कितनी ही
हम ब्रह्म की
चर्चा करें, अगर
तुमने भी थोड़ा
स्वाद नहीं
लिया, बात जमेगी
नहीं। कितने
ही हम ब्रह्म
के चित्र
तुम्हारे सामने
उभारना चाहें,
लेकिन अगर
थोड़ी सी
तुम्हारे
भीतर भी किरण
नहीं उतरी,
अगर थोड़ी
सुगबुगाहट
तुम्हारे
भीतर के बीज
ने अनुभव नहीं
की, अगर
थोड़ा
तुम्हारा बीज
भी नहीं टूटा,
तो तुम समझ
न पाओगे।
तुम सुन लोगे,
लेकिन
भरोसा न कर पाओगे।
भरोसा
तो तभी आता है
जब तुम्हारा
अनुभव भी गवाही
बने।
तुम्हारा
अनुभव भी कहे
कि हां, ठीक
है। तुम्हारा
अनुभव कहे, विचार नहीं।
तर्क से तो
मैं तुम्हें
समझा दूं; लेकिन
तर्क से कहीं
प्यास बुझी
है! शब्द से तो
मैं तुम्हें
भरोसा दिला
दूं; लेकिन
शब्दों के
भरोसों से
कहीं पेट भरा
है! शास्त्र
कितना ही
ब्रह्म की
चर्चा करते
रहें, लेकिन
तुम्हें किसी
दिन पीनी
पड़ेगी यह शराब,
तुम्हें भी
डोलना पड़ेगा
उस नशे में, तुम्हें भी
होश-हवास खोकर,
लोक-लाज खोकर--मीरा ने
कहा, सब
लोक लाज खोयी--तुम्हें
भी पग घुंघरू
बांध नाचना पड़ेगा, मतवाला
होना पड़ेगा,
तो ही उस
मदिरा का
स्वाद
तुम्हें
आएगा। आचरण पर
जोर इसीलिए
है।
भले ही
किसी को थोड़ी
सी ही संहिता
कंठस्थ हो, या
न हो; वेद
सुना हो, न
सुना हो; लेकिन
धर्म का जीवन
हो, होशपूर्ण जीवन हो, आनंदपूर्ण
जीवन हो, उत्सवपूर्ण
जीवन हो, प्रमुदित
जीवन हो।
'राग, द्वेष और
मोह को छोड़कर...।'
क्योंकि
उनसे ही दर्द
के पैबंद लगे
जाते हैं; वे
जो रोग, द्वेष
और मोह हैं, उनसे ही
तुम्हारे
लबादे पर दर्द
के पैबंद लगे जाते
हैं।
'तथा
इस लोक और
परलोक में
किसी भी चीज
के प्रति निरभिलाष
हो...।'
क्योंकि
जिसकी आशा आगे
भागी जा रही
है,
वह यहां इसी
क्षण मौजूद
जीवन से
अपरिचित रह जाएगा।
वह कभी परिचित
न हो पाएगा।
जीवन यहां, तुम कहीं
और। तो बुद्ध
ने कहा है, इतनी
सी भी अभिलाषा
न रह
जाए--परलोक
पाने की, स्वर्ग
पाने की।
परमात्मा को
पाने की भी
अभिलाषा न रह
जाए।
इसीलिए, बुद्ध
जानते हुए कि
परमात्मा है
और चुप रहे। क्योंकि
शब्द निकाला
मुंह से कि
तुम्हारी वासना
उसे पकड़ती
है। जानते हुए
कि मोक्ष है, बुद्ध चुप
रहे। नहीं कि
उन्हें कहना
नहीं आता था।
ऐसा भी नहीं
कि बेजुबां
थे। चुप रहे, क्योंकि तुमसे
कुछ भी कहो,
तुम
तत्क्षण उसे
अपनी वासना का
विषय बना लेते
हो। अगर मैं
ईश्वर के तुमसे
गुणगान करूं,
तुम्हारा
मन कहता है तो
फिर ईश्वर को
पाना है; चाहे
कुछ भी हो जाए
ईश्वर को पाकर
रहेंगे। तुम
पूछने आ जाते
हो, क्या
करें जिससे
ईश्वर मिल जाए?
ईश्वर
भी तुम्हारी
वासना बन जाता
है। जब कि लाख
तुम्हें
समझाया जा रहा
है कि जब तुम निर्वासना
हो जाओगे
तब ईश्वर अपने
आप आ जाता है, तुम्हें
उसे खोजने
जाना नहीं
पड़ता। मोक्ष
का अर्थ है, जब तुममें
कोई अभिलाषा न
रहेगी।
और तुम मोक्ष
की ही अभिलाषा
करने लगते हो।
तो तुमने तो
जड़ ही काट दी।
बुद्ध
कहते हैं, जो
निरभिलाष
हो।
बाकी
अभी है तर्केत्तमन्ना
की आरजू
क्योंकर
कहूं कि कोई
तमन्ना नहीं
मुझे
अमीर
के ये शब्द
हैं। बड़े
महत्वपूर्ण।
बाकी
अभी है तर्केत्तमन्ना
की आरजू
अभी
इच्छा एक है
बाकी, कि सब इच्छाएं
छूट जाएं--तर्केत्तमन्ना
की आरजू--सब तमन्नाएं
मिट जाएं, यह
एक तमन्ना अभी
बाकी है।
क्योंकर
कहूं कि कोई
तमन्ना नहीं
मुझे
इसलिए
अभी कैसे कह
सकता हूं कि
मेरी अब कोई
वासना नहीं।
एक वासना अभी
मेरी शेष है।
अमीर ने जरूर
बुद्ध को
समझकर यह कहा
होगा।
इतनी
भी वासना न रह
जाए तो ही कोई निर्वासना
को उपलब्ध
होता है। कोई
भी वासना न रह
जाए--परमात्मा
की,
मोक्ष की, निर्वाण की,
आत्मा की, ज्ञान की, ध्यान
की--कोई वासना
न रह जाए।
क्यों? क्योंकि
वासना का
स्वभाव ही
तुम्हें जीवन
से वंचित
करवाना है।
वासना का अर्थ
है, चुकाना;
जो यहां था,
उससे हटा
देना। वासना
का अर्थ है, तुम्हें
गैर-मौजूद
करना, तुम्हें
कहीं और ले
जाना।
और
जीवन यहां था।
जब जीवन
तुम्हारे
द्वार पर दस्तक
दे रहा था, तब
वासना
तुम्हें किन्हीं
और ध्वनियों
को सुनने को
उत्प्रेरित
करती है। वह
जो द्वार पर
दस्तक पड़ती है
वह तुम चूक
जाते हो।
वासना के
शोरगुल में वह
जो धीमी सी
आवाज प्रतिपल
तुम्हारे
भीतर से उठ
रही
है--तुम्हारे
परमात्मा की
आवाज, तुम्हारी
आवाज--वह
वासना के
शोरगुल में सुनायी
नहीं पड़ती।
कभी वासना
बाजार की होती
है, संसार
की; कभी
परमात्मा की,
निर्वाण की;
कभी धन की; कभी धर्म की;
इससे कोई
फर्क नहीं
पड़ता।
धर्म
की वासना उतनी
ही वासना है
जितनी धन की। मोक्ष
की कामना उतनी
ही कामना है
जितनी कोई और
कामना। कामना कामना में
कोई भी भेद
नहीं है।
क्योंकि
कामना का मूल
स्वभाव, जो
मौजूद है उससे
तुम्हें
चुकाना है। और
निर्वासना
का अर्थ है, जो मौजूद है
उसमें होना। जो
अभी है, जो
यहां है, उसके
साथ तालमेल बिठा लेना,
उसके साथ स्वरबद्ध
हो जाना, छंदबद्ध हो जाना।
इस
क्षण के पार
तुम न जाओ, परमात्मा
तुम्हें मिल
जाएगा। तुम
उसकी फिकर छोड़ो,
वह मिला ही
हुआ है। तुम
इस क्षण में
डूब जाओ, मोक्ष
तुम्हारे घर आ
जाएगा। वह सदा
से आया ही हुआ
था। तुम्हीं
अपने घर न थे।
भले ही
किसी को थोड़ी
सी भी संहिता
कंठस्थ न हो, लेकिन
धर्म उसके
जीवन में हो, होशपूर्ण जीवन हो
उसका--जाग्रत--तो
वेद जानने की
जरूरत नहीं।
क्योंकि तुम
स्वयं वेद हो
जाते हो। तुम
जो बोलोगे,
होगा वेद।
तुम जो कहोगे,
होगा
उपनिषद। उठोगे,
पैदा हो जाएंगी
भगवदगीताएं।
बैठोगे, कुरान जन्म
जाएंगे।
क्योंकि
तुम्हारे
भीतर परमात्मा
छिपा है। किन्हीं
ऋषियों
ने उसका ठेका
नहीं लिया है।
तुम ऋषि होने
की क्षमता
लेकर पैदा हुए
हो। अगर तुम न
हो पाए, तो
तुम्हारे
अतिरिक्त कोई
और जिम्मेवार
नहीं।
तुम
बीज लेकर आए हो
बुद्धत्व का।
ठीक भूमि न दो, ठीक
अवसर न दो, बीज
बीज रह
जाए, और
फूल न खिल पाएं,
तो किसी और
को जिम्मेवार
मत ठहराना।
तुम्हारे
अतिरिक्त न
तुम्हारा कोई
मित्र है, और
न कोई शत्रु।
तुम्हारे
अतिरिक्त न
तुम्हें कोई
मिटा सकता है,
न कोई बना।
तुम्हारे
अतिरिक्त न
कोई दुख है, न कोई सुख।
तुम ही नर्क
हो तुम्हारे,
तुम्हीं स्वर्ग।
ऐसा बोध
तुम्हारे
भीतर जन्मे
तो श्रामण्य
का अधिकार
मिलता है।
आज
इतना ही।
thank you guruji
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