किसी
ने पूछा है कि
मैं कहता हूं:
शास्त्र-ग्रंथ
और धर्म-मंदिर
व्यर्थ हैं।
यह कैसे? शास्त्र-ग्रंथों
से तो तत्व का
ज्ञान मिलता है
और मंदिर की
भगवान की
मूर्ति देख कर
सम्यक दर्शन
की प्राप्ति
होती है।
संभवतः
मैंने जो इतनी
बातें कहीं, जिन्होंने
भी पूछा है
उन्हें सुनाई
नहीं पड़ी होंगी।
मैंने
यह कहा कि
पदार्थ का
ज्ञान बाहर से
मिल सकता है, क्योंकि
पदार्थ बाहर
है। जो बाहर
है उसका ज्ञान
बाहर से मिल
सकता है। कोई
आत्म-ज्ञान से
गणित और
इंजीनियरिंग
और
केमिस्ट्री
और फिजिक्स
का ज्ञान नहीं
हो जाएगा और न
ही भूगोल के
रहस्यों का
पता चल जाएगा।
जो बाहर है
उसे बाहर खोजना
होगा।
विज्ञान
उस काम को
करता है, इसलिए
विज्ञान के
शास्त्र होते
हैं। विज्ञान
एक शास्त्र
है। विज्ञान
के शास्त्र
होते हैं, बिना
शास्त्रों के
विज्ञान का
कोई ज्ञान नहीं
हो सकता।
केमिस्ट्री
सीखनी हो, फिजिक्स या गणित
सीखना हो, तो
शास्त्र से
सीखना पड़ेगा।
क्योंकि
विज्ञान के
विषय भी बाहर
हैं और उसका
ज्ञान भी बाहर
है।
इसलिए
अगर मैं ठीक
से कहूं तो
विज्ञान के
ज्ञान को मैं
ज्ञान ही नहीं
कहता हूं, वह इनफार्मेशन
है; वह
सूचना है, नॉलेज
नहीं है।
विज्ञान इनफार्मेशन
है, सूचनाएं
है। सूचनाएं
बाहर से मिल
सकती हैं।
धर्म
सूचना नहीं है, अनुभव है, अनुभूति है।
अनुभूति बाहर
से नहीं मिल
सकती। कोई
प्रेम के
संबंध में
कितने ही
शास्त्र पढ़े,
क्या प्रेम
का उसे ज्ञान
हो जाएगा? क्या
यह संभव है कि
प्रेम का उसे
ज्ञान हो जाए?
सौंदर्य के
संबंध में कोई
कितने ही
शास्त्र पढ़े,
क्या उसे
सौंदर्य का
ज्ञान हो
जाएगा? नहीं,
संभावना
इसी बात की है
कि सौंदर्य का
जो थोड़ा सा
बोध भी होगा, शास्त्र
पढ़ने पर वह भी
नष्ट हो
जाएगा। प्रेम
की अगर थोड़ी
सी कोई किरण
दिखाई भी पड़ती
होगी, तो
शब्दों में वह
भी भटक जाएगी।
रवींद्रनाथ
ने अपना एक
संस्मरण लिखा
है। लिखा है
कि मैं क्रोशे
के एक ग्रंथ
को पढ़ता था, एस्थेटिक्स पर, सौंदर्यशास्त्र
पर। अदभुत
ग्रंथ है।
सौंदर्य क्या
है, इसी पर
सारी चर्चा और
विचार है। रात
देर तक वे पढ़ते
रहे, पढ़ते
रहे, फिर
थक गए। और
उन्हें ऐसा
अनुभव हुआ कि
शास्त्र जब
नहीं पढ़ा था, यह
सौंदर्यशास्त्र,
तो
थोड़ा-बहुत
सौंदर्य का
पता भी था, अब
तो वह भी गड़बड़
हो गया। अब तो
कोई पूछे
सौंदर्य क्या
है, तो
कठिन हो गई
बात।
जी ई मूर नाम के
एक विचारक ने
एक किताब लिखी
है नीतिशास्त्र
पर। दो-ढाई सौ
पृष्ठों की
किताब पढ़ने के
बाद यह बताना कठिन
है कि शुभ
क्या है? गुड क्या है? नीति
क्या है? सब
गड़बड़ा
जाता है।
रवींद्रनाथ
तो हैरान हो
गए, उन्होंने
दीया बुझा
दिया, शास्त्र
बंद किया। थक
गए थे, खिड़की
पर जाकर खड़े
हो गए। ऊपर
चांद था, आकाश
में थोड़ी सी
बदलियां तैर
रही थीं। वे
हैरान हुए कि
मैं कैसा पागल
हूं, सौंदर्य
बाहर खड़ा है
द्वार के और
मैं शास्त्र पढ़
रहा हूं! और
जितनी देर मैं
शास्त्र में
अटका रहा, उतनी
देर बाहर जो
सौंदर्य था
उससे वंचित हो
गया।
जीवन
की जो
अनुभूतियां
हैं उन्हें
बाहर से पाने
का उपाय नहीं
है, उन्हें
भीतर से जगाना
पड़ता है। भीतर
से वे जगें,
यह दृष्टि
में आ जाए, इसलिए
मैंने कहा कि
शास्त्र
आत्म-ज्ञान को
या सत्य के
ज्ञान को नहीं
दे सकते हैं।
और अगर किसी
को यह भ्रम हो
कि वे देते
हैं, तो
जितने पंडित
हुए हैं, जो
शास्त्रों की
बाल की खाल
निकालते रहते
हैं, उन
सबको
आत्म-ज्ञान
कभी का
प्राप्त हो
गया होगा। तब
तो फिर बड़ी
आसान बात है।
विद्यालय हैं,
सिखाया
जाता है
धर्मशास्त्र,
लोग सीख
लेते हैं, आत्म-ज्ञानी
हो जाएंगे।
आखिर शास्त्र
तो सभी पढ़
सकते हैं, कठिनाई
क्या है? फिर
आत्म-ज्ञान हो
क्यों नहीं
जाता? शास्त्र
तो सभी पढ़ते
हैं, फिर
आत्म-ज्ञान
क्यों नहीं हो
जाता?
बड़ा
मजा यह
है--शास्त्र
पढ़ने के कारण
उन्हें झूठे
ज्ञान का बोध
हो जाता है, जिसका मैंने
पहले दिन आपसे
विचार किया।
वह झूठा ज्ञान
उनके
वास्तविक
ज्ञान की
प्यास में बाधा
हो जाता है।
और फिर इन
शास्त्रों
में कौन सत्य
है, यह आप
कैसे जानते
हैं?
मुसलमान
घर में पैदा
हुए हैं तो
मुसलमान शास्त्र
सत्य है और
जैन घर में
पैदा हुए हैं
तो जैनशास्त्र
और हिंदू घर
में पैदा हुए
हैं तो हिंदूशास्त्र।
पैदा होना ही
सच्चे होने का
सुबूत है! और
पैदा होने से
क्या फर्क
पड़ता है? एक
जैन बच्चे को
मुसलमान के घर
में रखो, एक
मुसलमान
बच्चे को ईसाई
के घर में रखो,
वह ईसाई हो
जाएगा, मुसलमान
घर में बच्चा
मुसलमान हो
जाएगा, जैन
घर में बच्चा
जैन हो जाएगा।
यह तो प्रोपेगेंडा
है जन्म के
बाद, यह तो
प्रचार है
बच्चे के
आसपास कि यही
शास्त्र सत्य
है, तो वह
वही दोहराने
लगता है बड़े
होकर कि यही
शास्त्र सत्य
है।
यह
बुद्धि का
लक्षण थोड़े ही
है, यह तो
अबुद्धि का
लक्षण है। यह
तो कोई भी चीज
बार-बार
दोहराई जाए तो
उसे सत्य
मालूम होने
लगती है।
अडोल्फ
हिटलर ने अपनी
आत्मकथा में
लिखा है कि किसी
भी असत्य को
बार-बार दोहराया
जाए, वह थोड़े
दिनों में
सत्य हो जाता
है। और यह ठीक
लिखा है। सत्य
होने का और
मतलब ही क्या
है आमतौर से? किसी बात को
खूब प्रचारित
किया जाए, खूब
प्रचारित
किया जाए, तो
सत्य मालूम
होने लगती है।
लेकिन
यह कोई सत्य
थोड़े ही है।
सत्य का
प्रचार से तो
पता ही नहीं
चल सकता।
बल्कि सब
प्रचार जब मन
से हटा दिए
जाएं, सब
पक्षपात छोड़
दिए जाएं...
शास्त्र
क्या हैं? पक्षपात
हैं। जैन का
अपना पक्षपात
है, हिंदू
का अपना, मुसलमान
का अपना। सबकी
अपनी प्रिज्युडिस
है, वही
उनका शास्त्र
है। उसी को
पकड़े बैठे हैं,
उसी को...
जब तक
आप किसी धारणा
को सत्य के
संबंध में पकड़
कर बैठ जाते
हैं तो फिर
सत्य को कैसे जानिएगा? सत्य को
जानने के लिए
सब धारणाएं
छोड़ कर, मन
को निष्पक्ष,
खाली और
शांत करके
जाना होगा, तब तो सत्य
जाना जा सकता
है। जो जैसा
है वह जाना जा
सकता है, अगर
हम अपनी कोई
धारणा वहां न
ले जाएं।
लेकिन अगर हम अपनी
कोई धारणा ले
जाएं, तो
मनुष्य की मन
की कल्पना की
शक्ति बहुत
प्रखर है, वह
जो भी कल्पना
करे उसी को
देख सकता है, उसमें कोई
कठिनाई नहीं
है।
अगर एक
हिंदू भक्त को
एक कमरे में
बंद कर दिया जाए, तो वह रात को
कृष्ण को
देखता रहेगा।
वहीं राम का
भक्त बंद कर
दिया जाए, तो
रात को
धनुर्धारी
राम को देखता
रहेगा। वहीं
एक
क्रिश्चियन
को बंद कर
दिया जाए, तो
वह सूली पर
लटके हुए
क्राइस्ट के
दर्शन करता
रहेगा। और
तीनों में से
किसी दूसरे को
दूसरे का
भगवान बिलकुल
दिखाई नहीं
पड़ेगा उस कमरे
में। और वे
तीनों लड़ते
रहेंगे कि
हमारा सच्चा
है, क्योंकि
हमारा दिखाई
पड़ रहा है।
दूसरा भी यह कहेगा,
हमारा
सच्चा है, हमको
तो अनुभव हो
रहा है।
ये सब
कल्पनाओं के
प्रक्षेपण
हैं, ये इमेजिनेशन
हैं। ये कोई
सत्य के अनुभव
नहीं हैं। और
मनुष्य की
कल्पना अदभुत
है। कल्पना से
कुछ भी अनुभव
किया जा सकता
है, वह
सत्य नहीं
होगा। जहां
सारी कल्पना
शांत हो जाती
है और कोई
अनुभव होता है,
वही सत्य
है। बहुत सी
कल्पनाएं हम
अनुभव कर सकते
हैं। कवि हैं,
भक्त हैं, बहुत सी
कल्पनाएं हैं,
उनको अनुभव
कर लेते हैं।
वे कोई सत्य
नहीं हैं।
लेकिन उन्हें
प्रतीत होगा
कि यह सत्य
है। और वही
प्रतीति उनके
लिए खतरा हो
जाती है।
कल्पना
से बचना हो तो
सबसे पहले तो
पक्षपाती मन
नहीं चाहिए।
सारा पक्षपात
मन से छोड़
देना जरूरी
है।
यह मैं
नहीं कह रहा
हूं कि
शास्त्र
असत्य है किसी
का। मैं यह कह
रहा हूं कि
शास्त्र को
पकड़ने वाला मन
असत्य है। मैं
यह नहीं कह
रहा हूं कि
महावीर ने जो
कहा, बुद्ध ने
जो कहा, कृष्ण
ने जो कहा, क्राइस्ट
ने जो कहा, वह
असत्य है।
इससे मुझे
क्या
लेना-देना? नहीं, उनको
जो पकड़ लेता
है वह असत्य
में स्थापित
हो जाता है, वह पक्षपात
से भर जाता
है। अगर सच
में ही वही जानना
है जो महावीर
ने कहा है तो
महावीर की
वाणी से मुक्त
हो जाओ, तो
किसी दिन उसी
अनुभव की
उपलब्धि होगी
जो महावीर को
हुई थी।
महावीर कौन सा
शास्त्र लेकर
जंगल गए थे, इसकी कोई
खबर है? कौन
से शास्त्र
लेकर वे जंगल
गए थे? कौन
सी पोथियां
अपने सिर पर
ले गए थे रख कर?
या बुद्ध
कौन सा बस्ता
ले गए थे जिसमें
अपनी किताबें
साथ ले गए हों,
जब वे जंगल
गए थे? या
क्राइस्ट जब
अकेले पहाड़ पर
थे या मोहम्मद
जब अकेले पहाड़
पर थे तो कौन
सा शास्त्र ले
गए थे कुछ पता
है?
किसी
शास्त्र को
नहीं ले गए
थे। शास्त्र
तो छोड़ गए थे
पीछे। सब तरह
खाली होकर
वहां गए थे।
मन में जो और
कचरा रह गया
होगा उसको भी
वहां जाकर
खाली कर दिया
था। मन जब
बिलकुल शून्य
और शांत हो
गया था, उसमें
कोई विचार, कोई धारणा, कोई
सिद्धांत
नहीं रह गए थे,
कोई
शास्त्र नहीं
रह गया था, उस
निर्विचार, निर्विकल्प,
उस शांत
चित्त स्थिति
में सत्य को
उन्होंने जाना
था। जब भी किसी
ने सत्य को
जाना है तो सब
शब्दों से
मुक्त होकर
जाना है। और
आप कहते हैं, शास्त्र में
सत्य है। तो
उसका मतलब
क्या होगा? उसका मतलब
होगा: शब्द को
पकड़ लो, शास्त्र
को मस्तिष्क
में भर लो।
फिर तो मस्तिष्क
में कचरा
इकट्ठा हो
जाएगा, भीड़
इकट्ठी हो
जाएगी शब्दों
की, फिर
सत्य को कैसे जानिएगा?
नहीं, शास्त्र
सत्य तक कभी
किसी को ले
नहीं गए हैं। हां,
सिद्धांत
तक ले जाते
हैं, मत तक
ले जाते हैं, ओपीनियन तक ले जाते
हैं, विवाद
पर ले जाते
हैं, वाद
पर ले जाते
हैं, इज्म पर ले जाते
हैं, सत्य
पर नहीं ले
जाते। ले ही
नहीं जा सकते,
क्योंकि
सत्य है भीतर
और शास्त्र है
बाहर। बाहर से
भीतर लाना
पड़ेगा
शास्त्र को और
सत्य को लाना
है तो भीतर से
बाहर लाना
पड़ेगा।
जैसा
मैं अक्सर
कहता हूं कि
कोई चाहे तो
अपने घर में
एक हौज बना कर
पानी भर ले, तो हौज में
पानी बाहर से
लाना पड़ता है।
और कोई चाहे
तो गङ्ढा खोदे,
जमीन खोदे,
पत्थर-मिट्टी
बाहर निकाले,
फिर कुआं बन
जाता है, फिर
पानी भीतर से
आता है। हौज
का पानी पराया
पानी है।
जिंदा पानी
नहीं है, मुर्दा
पानी है, थोड़े
दिन में सड़
जाएगा। उसके
मूलस्रोत से
कोई संबंध
नहीं हैं, उधार
है, थोड़े
दिन में उस पर
मच्छर और कीड़े
इकट्ठे होंगे
और गंदगी हो
जाएगी।
पंडित
का मस्तिष्क
भी ऐसे ही
उधार होता है, इसीलिए तो
गंदा हो जाता
है। इसलिए
दुनिया में पंडितों
ने जितने
उपद्रव किए
हैं, बड़े
से बड़े पापियों
ने नहीं किए
हैं और न
करवाए हैं। यह
कौन लड़ाता
है मस्जिद और
मंदिर को? यह
कौन लड़ाता
है हिंदू और
जैन को, मुसलमान
और ईसाई को, मुसलमान और
हिंदू को? कौन
लड़ाता है?
पंडित! ये
सब पंडित के
मस्तिष्क से
निकले हुए फितूर
हैं।
शैतान
ने बहुत दिन
पहले ही
पंडितों को
राजी कर लिया
है। और उसने
बड़ी होशियारी
की, अपने
पंडितों को
भगवान का
पुजारी बना
दिया है।
इसलिए मामला
बहुत आसानी से
चल रहा है
शैतान का, क्योंकि
पहचान में ही
नहीं आता।
मंदिर तो भगवान
का है, पुजारी
शैतान के हैं।
और जब तक
दुनिया
पुजारियों से
मुक्त नहीं
होगी, दुनिया
में धर्म नहीं
हो सकता।
क्योंकि पुजारी
धर्म की हत्या
करते रहे हैं।
वे शास्त्र के
तो समर्थक हैं,
सत्य के वे
समर्थक नहीं
हैं। क्योंकि
सत्य आएगा तो
न मंदिर टिक
सकते हैं, न
मस्जिद, न
यह पूजा, न
यह धंधा, न
यह सब पाखंड, यह कुछ भी
नहीं टिक सकता,
दुनिया
बहुत और तरह
की होगी।
इसलिए वे
कहेंगे कि
शास्त्र में
सब कुछ है, शास्त्र
ही सत्य है।
और फिर इसको
प्रचारित
करते हैं, प्रचारित
करते हैं, तो
छोटे-छोटे
बच्चों के
मस्तिष्क में बिठाल
देते हैं, वे
भी उसको
दोहराने लगते
हैं।
दोहराना
जो है एक तरह
की कंडीशनिंग
है। छोटे से
बच्चे को कुछ
भी सिखाइए, तो वह सीख
जाता है। सीख
जाता है, उसी
को दोहराने
लगता है। उसको
सिखा दीजिए कि
ईश्वर है, तो
वह कहने लगता
है ईश्वर है।
उसको सिखा
दीजिए कि
ईश्वर नहीं है,
तो वह कहने
लगता है ईश्वर
नहीं है।
लेकिन यह कोई
ज्ञान है? वहां
रूस में वे
सिखाते हैं कि
कोई ईश्वर
नहीं है, कोई
आत्मा नहीं।
वहां के बच्चे
यही कहते हैं
कि कोई आत्मा
नहीं, कोई
ईश्वर नहीं।
उनको ज्ञान हो
गया?
आपको
ज्ञान हो गया
है? आपको
सिखाया गया
है: ईश्वर है, आत्मा है, फलां है, ढिकां
है। आप भी
उसको ही
दोहराए चले जा
रहे हैं। दोहराने
वाली बुद्धि
कोई प्रतिभा
नहीं है, जड़ता
का लक्षण है, ईडियाटिक है।
दोहराने वाली
बुद्धि, जो
सिखा दिया
उसको दोहराए
चले जा रहे
हैं। इनकार
करिए उससे, तो कुछ खोज
होगी। उसको
अस्वीकार
करिए कि मैं क्यों
दोहराऊं?
मैं कोई
मशीन हूं जो
दूसरों को दोहराऊं?
जो मुझे
सिखा दिया गया
उसको मैं रिपीट
करता रहूं? मैं उसको
इनकार करता
हूं। मैं अपनी
खोज करूंगा।
मैं अपने जीवन
को लेकर आया हूं,
तो मैं अपने
जीवन के अर्थ
खोजूंगा। कौन
मुझे सिखाने
को है? किसको
हक है इस बात
को सिखाने का?
लेकिन
हम सिखा देते
हैं। सीख लेता
है मन और दोहराने
लगता है। बड़ी
खूबियां हैं, तरकीबें
हैं। जब हम
कुछ बात सिखा
देते हैं तो वह
स्मृति में
बैठ जाती है, मेमोरी का हिस्सा
हो जाती है।
फिर जब जिंदगी
में प्रश्न
आते हैं तो मेमोरी
से उत्तर आ
जाते हैं, हम
समझते हैं कि
ये उत्तर असली
हैं।
ये
उत्तर नकली
हैं!
एक जगह
मैं गया, वहां
बच्चों को वे
धर्म-शिक्षा
देते हैं, तो
उन्होंने
सिखा दिया है
कि आत्मा है, ईश्वर है।
मैंने उनसे
पूछा, ईश्वर
है?
उन्होंने
सबने हाथ
हिलाया कि हां, ईश्वर है।
कहां
है?
उन्होंने
कहा, ऊपर है।
आत्मा
है?
उन्होंने
कहा, है।
मैंने
पूछा, कहां
है?
उन्होंने
कहा कि यहां
भीतर है।
तो
मैंने एक
बच्चे से पूछा, हृदय कहां
है?
उसने
कहा, यह तो
हमें बताया
नहीं। यह तो
हमें बताया ही
नहीं गया, यह
तो हमारा पाठ
ही नहीं है।
यह
बच्चे को सिखा
दिया--आत्मा
कहां है। सीख
गया बच्चा।
रोज-रोज दोहराया, परीक्षा दिलवाई,
पुरस्कार
दिए, मिठाई
खिलाई, वह
सीखता गया। वह
सीख गया। जब
बूढ़ा हो जाएगा
तब तक भी इसी
सिखावन को
दोहराता
रहेगा। जब भी
जिंदगी में
सवाल
उठेगा--आत्मा
है? उसका
हाथ मशीन की
तरह इधर चला
जाएगा और
कहेगा, हां,
यहां आत्मा
है। यह
मूर्खता हो गई,
यह तो जड़ता
हो गई।
पावलफ
हुआ एक बहुत
बड़ा
वैज्ञानिक, उसने कंडीशनिंग
पर बहुत से
प्रयोग किए।
कैसे चित्त
संस्कारित हो
जाता है और सब
गड़बड़ हो जाता
है।
कुत्ते
को वह रोटी
खिलाता था। तो
रोटी रखते से
ही कुत्ता लार
टपकाने
लगता था। तो
वह रोटी देने
के साथ-साथ
रोज घंटी भी
बजाता था।
रोटी देता, कुत्ते को
रोटी रखता, तो कुत्ते
की लार टपकने
लगती, साथ
में घंटी भी
बजती। पंद्रह
दिन तक यही
क्रम था: घंटी
बजती, रोटी
देता। सोलहवें
दिन रोटी तो
नहीं दी, घंटी
बजाई। लेकिन
घंटी बजते से
ही कुत्ते की
जीभ से लार टपकने
लगी।
अब
घंटी से लार
का कोई संबंध
नहीं है। घंटी
से लार का कोई
भी संबंध नहीं
है। किसी
कुत्ते के सामने
घंटी बजाइए
तो क्या लार टपकेगी? नहीं टपकेगी।
लेकिन उसको
सिखा दिया गया।
पंद्रह दिन
में रोटी के
साथ लार टपकती
थी, रोटी
के साथ घंटी
बजती थी, तीनों
चीजें
संयुक्त हो
गईं। सोलहवें
दिन घंटी बजाई,
तो रोटी तो
वहां नहीं थी,
लेकिन लार टपकने
लगी। यह
शिक्षा हुई।
सब शिक्षा इसी
तरह की है। अब
यह कुत्ता
धोखे में पड़
गया। अब इसको
समझ में नहीं
पड़ रहा कि यह
लार क्यों टपक
रही है? लेकिन
लार टपकने
लगी।
आप जब
मंदिर के
सामने से
निकलते हैं और
ऐसा हाथ जोड़
लेते हैं, तो आपको पता
नहीं, यह
भी लार टपकने
से भिन्न नहीं
है। घंटी पर
लार टपक रही
है। यह आपको
सिखा दिया गया
है कि यह
मंदिर है, यहां
भगवानजी
रहते हैं--बचपन
से ही--इधर हाथ
जोड़ो! पिता ने
भी जोड़ा, मां
ने भी जोड़ा।
आपको भी लगा
कि जब मां-बाप,
चूंकि बड़े
मालूम होते
हैं छोटे से
बच्चे को कि
बहुत महान हैं,
बहुत
ज्ञानी हैं, बहुत समझदार,
बड़े
शक्तिशाली, क्योंकि
उसके कान
उमेठते हैं, चांटा मारते
हैं। उनको बड़े
शक्तिशाली
मानता है वह।
जब ये हाथ जोड़
रहे हैं, वह
भी हाथ जोड़ता
है। नहीं जोड़ता
तो एक चांटा
भी पड़ता है, शिक्षा भी
पड़ती है। जोड़ता
है तो तारीफ
होती है कि
बच्चा हमारा
बहुत अच्छा है,
अभी से बड़ा
धार्मिक है, मंदिर जाता
है, प्रशंसा
होती है। बस
लार के साथ
घंटी जुड़ने लगी।
वह बड़ा हो
जाएगा, मंदिर
के सामने से
निकलेगा, हाथ
जुड़ जाएंगे।
यह कुछ
भी नहीं है।
यह सिखा दिया
गया स्मृति को, इससे जड़ता
पैदा हो गई, इससे कोई
बोध पैदा नहीं
हुआ। जिस दिन
होश आ जाए, उसे
इस तरह की सब कंडीशनिंग
से इनकार कर
देना चाहिए।
मुझे
एक सज्जन
मिले। वे बोले, मैं क्या
करूं, मैं
नहीं भी जोड़ना
चाहूं तो
मंदिर के
सामने से अगर
बिना जोड़े
निकल जाऊं तो
मुझे डर लगता
है कि कोई
हानि न हो जाए!
तो ऐसा हो
जाता है कि
मैं...
मेरी
बात उन्होंने
एक दिन मान ली
और मंदिर से बिना
हाथ जोड़े निकल
गए होंगे। शाम
को ही आए, बोले,
मैं तो बहुत
घबड़ा रहा हूं
कि पता नहीं
क्या होगा, क्या नहीं
होगा! आज मैं
बिना ही हाथ
जोड़े निकल गया।
तो
मैंने कहा, इससे तो
बेहतर था तुम
जोड़ ही लेते।
अब यह तो और ज्यादा
परेशानी हो
गई। इसका मतलब
तुम दिन भर हाथ
जोड़ते रहे।
यह
जड़ता हो गई।
अब चित्त भय
खाने लगा कि
कहीं नहीं जोड़े
तो भगवान
नाराज न हो
जाएं। जब
भगवान खुश होते
हैं तो नाराज
भी होते ही
होंगे। जब
स्तुति से
प्रसन्न होते
हैं तो निंदा
से नाराज भी होते
होंगे। तो
घबड़ाहट आदमी
को स्वाभाविक
है। ये सब
भगवान भूत की
तरह आदमी के
पीछे पड़े हुए
हैं भय के
कारण। यह कोई
आपकी अनुभूति
नहीं है, यह
आपकी कोई समझ
नहीं है, यह
कोई अंडरस्टैंडिंग
नहीं है, यह
आपने कहीं
जाना नहीं है।
बस ये तो भय की
वजह से आपके
पीछे लग गए
हैं और आपका
पीछा कर रहे
हैं। वैसे ही
आदमी के पीछे
बहुत भूत लगे
हैं और भगवान
लगे हुए हैं।
कई तरह की
मुसीबतें
उसके पीछे लगी
हैं, वह
उनको पाले हुए
है, पाले
हुए है...और फिर
शांत होना
चाहता है, फिर
सत्य को जानना
चाहता है।
कैसे होगा यह?
इतने भयभीत
लोग कुछ भी
नहीं जान
सकते। थोड़ी सी
फियरलेसनेस
चाहिए, थोड़ा
साहस चाहिए।
थोड़ा तोड़ना
चाहिए, देखना
चाहिए कि जड़ता
क्या है? मगर
नहीं, दिखाई
नहीं पड़ता।
अभी
उसमें लिखा है
कि मूर्ति के
दर्शन करने से
भगवान का
सम्यक ज्ञान
हो जाता है।
हुआ? मूर्तियां
तो बहुत हैं।
हुआ दर्शन
करने से सम्यक
ज्ञान?
और यह
भगवान की ही
मूर्ति है, यह कैसे पता
चल गया? क्योंकि
वही मूर्ति, एक दूसरा
आपका पड़ोसी है
वह कहता है, भगवान-वगवान
की नहीं है।
उसको तो लगता
है कि इसको
तोड़ दें तो
धर्म होता है।
तो फिर? उसी
मूर्ति को एक
आदमी तोड़ दे
तो वह सोचता
है कि जन्नत
मिलेगी, स्वर्ग
मिलेगा। और एक
आदमी उसी के
दर्शन किए खड़ा
है और सोच रहा
है कि सम्यक
ज्ञान हो
जाएगा इनके
दर्शन से। और
कारीगर जिसने
मूर्ति बनाई
है, वह
जानता है कि
पत्थर है और
हमने खोदा है
और पैसे लिए
हैं। लेकिन
आपको खयाल
नहीं आ सकता
है, क्योंकि
वर्षों की
शिक्षा है
पीछे इस बात
की कि ये
भगवान हैं।
कौन अब इसमें
झंझट करे! जो
इसको कहेगा कि
मुझे शक होता
है, वही
नासमझ समझा
जाएगा।
एक दफा
ऐसा हुआ कि एक
राजा के दरबार
में एक बहुत
खुशामदी आदमी
था, बहुत स्तुतिकार
था। और सभी राजाओं
के दरबारों
में रहे हैं।
तो वह कुछ भी
राजा को समझाता
रहता था और
पैसे लेता
रहता था। एक
दिन उसने कहा
कि महाराज, आपके पास जो
ये वस्त्र हैं,
ये आप जैसे
सम्राट के
योग्य नहीं।
मैं इंद्र की
पोशाक आपके
लिए ला सकता
हूं।
तो
राजा ने कहा, यह तो
बिलकुल ही ठीक
है। कितना
खर्च होगा?
उसने
कहा कि पांच
हजार रुपये तो
खर्च होगा। पांच
हजार रुपये
लाने ले जाने
में, क्योंकि
दो लोक तक
जाना।
तो कौन
जाएगा?
उसने
कहा, इसकी आप
फिक्र न करें,
मैंने एक
आदमी खोज लिया
है जो जाता है
चमत्कार के बल
से। तो पांच
हजार आने-जाने
का खर्च होगा,
पांच हजार
वस्त्रों के
दाम हो
जाएंगे।
राजा
ने कहा, ये
दस हजार रुपये
लो। क्योंकि
मैं इतना छोटा
सम्राट तो
नहीं कि
साधारण कपड़े पहनूं, मुझे
इंद्र की
पोशाक चाहिए।
और
दरबारियों ने
कहा कि यह
बिलकुल निपट गंवारी की
बात है, यह
कभी सुना नहीं
गया, इंद्र
की पोशाक!
लेकिन अब क्या
कहते, ठीक
है, अब अगर
यह आदमी कहता
है तो। उसने
कहा, पंद्रह
दिन बाद मैं
हाजिर हो
जाऊंगा।
पंद्रह दिन
बाद वह आया और
बोला, बहुत
मुश्किल है, वहां भी
रिश्वत चलने
लगी। वे पांच
हजार में देने
को राजी नहीं
होते। दस हजार
लग जाएंगे।
और खबर
तो पहुंच ही
गई होगी
रिश्वत की, वे कोई
नासमझ तो नहीं
हैं देवता, कि इधर आदमी
इतना मजा कर
रहा है और वे
वहां नासमझी
करते रहें, वे भी
रिश्वत लेने
लगे होंगे। तो
राजा को भी जंचा
कि गलती तो
कुछ है नहीं, जब यहां
रिश्वत चलती
है तो वहां भी
चलती होगी। तो
उसने पांच
हजार और दिए।
कितने दिन
लगेंगे?
उसने
कहा, और
पंद्रह दिन लग
जाएंगे।
दरबारी
तो समझते ही
थे कि यह धोखा
देगा। यह फिर
गड़बड़ कर रहा
है। पता नहीं
बाद में कहने
लगे कि वह
आदमी लौटा ही
नहीं, मर
गया या क्या
हुआ। लेकिन अब
क्या कह सकते
थे?
लेकिन
पंद्रह दिन
बाद हैरान हुए, जब वह पेटी
ही लेकर आ गया
तो सब हैरान
हुए। जब वह
पेटी ही लेकर
दरबार में आ
गया तो सब
हैरान हुए कि
यह तो ले ही
आया। उसने आकर
ताला खोला और
उसने कहा कि
एक शर्त फकीर
ने बतलाई
है इस पोशाक
के साथ।
क्योंकि यह
देवलोक की
पोशाक है, यह
पृथ्वी पर सभी
को दिखाई नहीं
पड़ेगी, यह
सिर्फ उन
लोगों को ही
दिखाई पड़ेगी
जो अपने ही
बाप से पैदा
हुए हों।
क्योंकि यह तो
देवलोक की
पोशाक है, सबको
दिखाई नहीं पड़
सकती है।
राजा
ने कहा, यह
तो बात ठीक ही
है, देवलोक
की पोशाक!
पार्थिव जगत!
सबको कैसे
दिखाई पड़ेगी
यह? ये तो
अदृश्य
वस्त्र हैं!
लेकिन हां, उनको दिखाई
पड़ेगी जो अपने
ही बाप से
पैदा हुए हैं।
राजा
से उसने कहा
कि अब मैं
निकालता हूं
वस्त्र, आप
अपने वस्त्र निकालें।
राजा
ने अपना कोट
निकाला, उसने
वहां से ऐसे
हाथ किया और
कहा, यह
कोट लीजिए।
वह
किसी को दिखाई
तो पड़ा नहीं।
कुछ था भी
नहीं तो दिखाई
क्या पड़ता।
राजा ने भी
कहा कि अगर मैं
यह कहूं कि
मुझे दिखाई
नहीं पड़ता तो
व्यर्थ ही
गड़बड़ हो जाएगी, लोग समझेंगे
कि इनके बाप
गड़बड़ रहे।
दरबारियों ने
भी कहा कि अब
कौन इस झंझट
में पड़े। किसी
को दिखाई नहीं
पड़ रहा, लेकिन
सब कहने लगे
कि वाह-वाह, कितना सुंदर
कोट है!
राजा
ने पहना, वह
डरा बहुत, क्योंकि
कोट उतर गया
उसका, वह उघाड़ा हो
गया, और
कोट जो पहना
वह तो दिखाई
पड़ता नहीं था।
लेकिन जब सब
दरबारी कहने
लगे कि बहुत
सुंदर, अदभुत,
ऐसा तो कभी
देखा नहीं! तो
उसने भी सोचा
कि अब मैं ही
गलती क्यों
करूं खुद कह
कर। जब इन सबको
दिखाई पड़ रहा
है तो जरूर
मेरे बाप में
कुछ गलती, गड़बड़
रही है, नहीं
तो इन सबको
कैसे...
बाकी
ने भी यही
सोचा।
स्वाभाविक था, सीधा लाजिकल
है, सीधा
तर्क है। सबको
यह लगा कि जब
सबको दिखाई पड़
रहा है तो मैं
व्यर्थ ही झंझट
में पड़ जाऊं
और अपनी
बदनामी करवाऊं,
क्या फायदा!
मुझे तो दिखाई
नहीं पड़ रहा, लेकिन कहूं
कैसे?
उसने
धीरे-धीरे
वस्त्र सब उतरवा
लिए, राजा
बिलकुल नंगा
हो गया और
एक-एक झूठे
वस्त्र दे दिए,
वे राजा ने
पहन लिए। अब
उसे बड़ी
घबड़ाहट हुई। सारे
गांव में खबर
पहुंच गई कि राजा
नंगा हो गया
है, लेकिन
दरबारी सब
कहते हैं कि
कपड़े पहने हुए
है।
राजा
का जुलूस
निकला। अब
सड़कों पर भीड़
है, लोग खड़े
हैं, देख
रहे हैं कि
राजा नंगा है,
लेकिन कौन
कहे? यह
कौन कहे कि यह
नंगा है, क्योंकि
जो यह कहे वह
फजीहत में पड़
जाए, वह
मुसीबत में पड़
जाए। सब लोग
कहने लगें:
वाह! तुम्हारे
पिता जरूर
तुम्हारे
पिता नहीं रहे,
गड़बड़ है कुछ
मामला। पूरी
बस्ती में घूम
आया। एक छोटा
सा बच्चा बीच
में आया और वह
बोला कि मैं बड़ा
हैरान हूं, यह राजा तो
बिलकुल नंगा
है!
लोगों
ने कहा कि चुप, यह कहना मत।
वह
लड़का बोला, लेकिन हद्द
हो गई, ये
सब लोग देख
रहे हैं राजा
नंगा है!
उसने
कहा, दुनिया
देख रही हो, तू मत बोल, उसके बाप ने
कहा। तुझे
बोलने की
जरूरत नहीं है,
तू शांत रह।
यह कथा
हंसने जैसी
नहीं है, करीब-करीब
जिंदगी में
ऐसा ही हो गया
है, धर्म
का मामला
करीब-करीब ऐसा
ही हो गया है।
पत्थर की
मूर्तियां
रखी हैं कि ये
भगवान हैं। और
सब कह रहे हैं
कि हां। अगर
कोई बच्चा कभी
कहे तो उसको
हम डांट
देंगे--चुप! तू
झंझट में
क्यों पड़ता है?
फिर ये
रामचंद्रजी
खड़े हुए हैं, ये कृष्णजी
खड़े हुए हैं, ये क्राइस्ट
खड़े हुए हैं।
ये सब
मूर्तियां बनी
हैं, बच्चों
के खिलौने
लगाए हुए हैं,
गुड्डा-गुड्डी
बनाए हुए हैं,
और भगवान
हैं और इनको
देखने से
ज्ञान हो
जाएगा! तो
दुनिया में अब
तक सबको ज्ञान
हो गया होता।
आंखें
होते हुए अंधे
हम बने हुए
हैं। आंखें होते
हुए देखने की
हमारी इच्छा
नहीं है। इतने
भय से डर गए
हैं। इतना भय
है कि हम
क्यों? जरूर
हम ही गड़बड़
होंगे अगर हम
कुछ कहेंगे।
लेकिन
मैं आपसे
निवेदन करता
हूं, जो
विचारशील है
वह अनिवार्य
रूप से
विद्रोही होगा।
जिसके भीतर
विचार है वह
कहेगा कि नहीं,
मुझे तो
पत्थर दिखाई
पड़ता है, भगवान
दिखाई नहीं
पड़ते। क्षमा
करें, मुझे
वस्त्र नहीं
दिखाई पड़ते, मुझे तो
राजा नंगे
दिखाई पड़ते
हैं। और जब तक
इतना साहस न
हो कि भीड़ ने
जो प्रचारित
किया है और
भीड़ जिस धारा
में बही जा
रही है उससे
आप अलग खड़े न
हो सकें, तब
तक सत्य के
जगत में आपका
कोई संबंध
नहीं हो सकता।
अगर
भीड़ का ही
संबंध सत्य से
होता तो
दुनिया अब तक कितनी
सुंदर और
अच्छी नहीं हो
गई होती! भीड़
गलत है, समाज
गलत है।
व्यक्तियों
ने तो सत्य
जाना है, अब
तक समाज ने
कोई सत्य नहीं
जाना। समाज
बुनियादी रूप
से गलत आधारों
पर दौड़ रहा
है। कभी इक्के-दुक्के
व्यक्ति जरूर
सत्य को
उपलब्ध होते
हैं। लेकिन वे
वे ही लोग
होते हैं जो
राजपथ को छोड़
देते हैं और
पगडंडी पर
चलते हैं। जो
राजपथ से हट
जाते हैं और
कहते हैं, भीड़
जहां जा रही
है वहां नहीं,
हम कुछ अपना
रास्ता
खोजेंगे। वे
ही लोग जान पाते
हैं, वे ही
लोग पहचान
पाते हैं।
लेकिन
जो भीड़ से
प्रभावित है
और भीड़ के साथ
बहा जाता है, वह कहीं भी
नहीं
पहुंचेगा। बस
उसको एक ही
आश्वासन है कि
सभी लोग वहां
जा रहे हैं
इसलिए मैं भी
जा रहा हूं।
तो जब सभी जा
रहे हैं तो
ठीक ही जा रहे
होंगे, तो
मैं क्यों
गलती करूं? मैं क्यों
गड़बड़ करूं?
तो
जाइए, बहे
जाइए। इस सारी
दुनिया का, समाज का, भीड़
का जो सागर है,
इसमें बहे
जाइए। इसमें
आप मिटेंगे, कहीं पहुंच
नहीं सकते
हैं।
धर्म
वैयक्तिक खोज
है, सामूहिक
उपक्रम नहीं।
समूह के साथ
बहे जाने का
नाम धर्म नहीं
है, व्यक्तिगत
खोज है धर्म, निजी खोज है
धर्म। और बड़े
साहस की और
बड़े अभय की
जरूरत है।
नहीं तो यह
नहीं हो सकता।
तो थोड़ा
आंख खोल कर
विचार करिए तो
आपको दिखाई
पड़ेगा कि यह
सब प्रचार है।
मगर हम देखते
भी नहीं। हम यह
भी नहीं देखते
कि यह
प्रचार...हजारों
तरह के प्रचार
हैं दुनिया
में, फिर भी
हमको दिखाई
नहीं पड़ता कि
जो जिस प्रचार
के चक्कर में
है वह उसको
सत्य मानता
है। दूसरा
दूसरे प्रोपेगेंडा
के चक्कर में
है तो उसको
सत्य मानता
है। कोई लक्स
टायलेट
को सत्य मानता
है कि उसी से
सुंदर होते
हैं, कोई
हमाम साबुन को
सत्य मानता है
कि उसी से सुंदर
होते हैं, कोई
तीसरे साबुन
को सत्य मानता
है।
कोई एक
मूर्ति को
भगवान मानता
है, कोई
दूसरी मूर्ति
को, कोई
तीसरी। यह सब
प्रचार है और प्रोपेगेंडा
है। इसमें कोई
खोज नहीं है, कोई इंक्वायरी
नहीं है हमारे
मन के भीतर कि
हम खोजने गए
हों।
आपने
खोज की है कि
जैन धर्म जो
कहता है वह
सत्य है?
नहीं, खोज नहीं
की। आपके पिता
कहते थे, आपके
गुरु कहते थे,
आपके साधु
कहते थे, इसलिए
आप भी कहते
हैं। आपकी कोई
व्यक्तिगत खोज
है? आपने
कोई अपने
व्यक्तिगत
रूप से कोई
अनुसंधान
किया? कहीं
आप गए? नहीं,
आप उधारी पर
बैठे हुए हैं।
तो फिर कोई भी
मूढ़ताएं समझाई
जा सकती हैं
और चलाई
जा सकती हैं।
दुनिया
में जिस दिन
लोग इन
मूढ़ताओं के
प्रति सचेत
होंगे, दुनिया
में एक ही
धर्म बचेगा, बहुत धर्म
नहीं बच सकते
हैं। बहुत
धर्मों की कोई
वजह नहीं है, कोई जरूरत
नहीं है। बहुत
धर्म इसीलिए
हैं कि हम
प्रचार से
पीड़ित हैं और
प्रचार की जकड़
में हैं, इसलिए
बहुत धर्म
हैं। गणित एक
है, फिजिक्स एक है।...
मनुष्य
की सृष्टि जहां
नहीं है, मनुष्य
से पूर्व जो
मौजूद है और
मनुष्य के बाद
भी जो मौजूद
रहेगा, मेरे
जन्म के पहले
जो था और मेरी
मृत्यु के बाद
भी जो रहेगा, उसको जिस
दिन मैं जानूंगा
और खोजूंगा, उस दिन तो
धर्म का और
सत्य का अनुभव
होगा। जो मैंने
ही बना लिया
है, उससे
धर्म के और
सत्य के अनुभव
का कोई संबंध
नहीं। और जब
तक निर्णायक
रूप से इन
संबंधों के
संबंध में
हमारी मनःस्थिति
स्पष्ट नहीं
होगी तब तक
दुनिया में धर्म
नहीं हो सकता।
हां, धर्म बने
रहेंगे बहुत
प्रकार के और
बहुत तरह की
बीमारियां
फैलाते
रहेंगे, मनुष्य
को मनुष्य से तोड़ते
रहेंगे।
विश्वास
मनुष्यों को तोड़ता है।
शास्त्र
मनुष्यों को तोड़ते हैं
और लड़ाते
हैं। हालांकि
वे प्रेम की
बातें भला
करते हों, इससे
कोई फर्क नहीं
पड़ता।
भीतर
है कुछ, उस
पर आग्रह है, उस पर जोर है,
इसलिए
मैंने कहा। यह
मैं नहीं कह
रहा हूं कि उन
शास्त्रों
में जो कहा है,
जिस दिन आप
अनुभव को
उपलब्ध होंगे,
उस दिन
पाएंगे कि वे
शास्त्र गलत
हैं। नहीं, जिस दिन आप
अनुभव को
उपलब्ध होंगे,
आप पाएंगे
कि उनमें जो
कहा है वह भी
सत्य है। लेकिन
जिस दिन आप
अपने सत्य को
जान लेंगे उसी
दिन तो उनके
सत्य को भी
परख पाएंगे, उस दिन आपको
दिखाई पड़ेगा।
महावीर
ने कहा है, आत्मा सत्य
है, आत्मा
धर्म है, आत्मा
को ही पा लेना
सब कुछ है। और
बुद्ध ने कहा
है, आत्मा
को मानना
अज्ञान है, आत्मा को
मानना अधर्म
है, अनात्मा
को पा लेना सब
कुछ है। अब ये
दोनों बिलकुल
विरोधी बातें
हैं अगर
शास्त्र पढ़ेंगे
तो। तो एक
बौद्ध है, वह
कहेगा कि ये
जैन अज्ञान
में हैं। और
एक जैन है, वह
बौद्धों
से कहेगा, ये
अज्ञान में
कहते हैं कि
अनात्मा सत्य
है, आत्मा
का न होना
सत्य है।
बुद्ध
कहते हैं
आत्मा को
मानने से बड़ा
अज्ञान नहीं
है और महावीर
कहते हैं
आत्मा को
जानने से बड़ा
ज्ञान नहीं
है। तो अब तो
दो शास्त्र हो
गए, दो
सिद्धांत हो
गए, दो वाद
हो गए, ये लड़ेंगे।
लेकिन
जो जान लेगा
वह हैरान होकर
पाएगा कि बुद्ध
जिसको
अनात्मा कहते
हैं, महावीर
उसी को आत्मा
कहते हैं और
उन दोनों में
कोई भी फर्क
नहीं है। वे
दोनों विरोधी
शब्द एक ही
तरफ इशारा
करते हैं।
जैसे कि हम एक
गिलास में
पानी भर कर रख
दें आधा
गिलास। और एक
आदमी कहे, गिलास
आधा खाली है।
और एक आदमी
कहे, गिलास
आधा भरा है।
और शास्त्र बन
जाएं दो और लड़ाई
शुरू हो जाए।
और एक कहे कि
आधा खाली होना
ही सत्य है।
और एक कहे कि
आधा भरा होना
ही सत्य है।
और दूसरा गलत
है, क्योंकि
दूसरा बिलकुल
विरोधी शब्द
उपयोग कर रहा
है। लेकिन जो
जाने और गिलास
को पहचाने और
देखे, वह
कहेगा कि ठीक
है, समझ
गया।
सत्य सत्य है, शास्त्र
सत्य नहीं है।
बहुत रूपों
में कहा जा सकता
है, बहुत
शब्द दिए जा
सकते हैं, क्योंकि
रूप और शब्द
हमारी सूझ और
समझ के परिणाम
हैं, सत्य
की अनुभूति के
अनिवार्य
हिस्से नहीं
हैं।
हिंदुस्तान
में हम और
शब्द देते हैं,
चीन में और
शब्द देते हैं,
जेरुसलम में और शब्द
देते हैं।
जिसको महावीर
ने मोक्ष कहा,
बुद्ध ने
निर्वाण कहा,
उसको
क्राइस्ट
कैसे मोक्ष कह
सकते थे? मोक्ष
जैसी उनकी
भाषा में कोई
चीज नहीं, निर्वाण
जैसी कोई
कल्पना नहीं
उनकी कौम के
पास।
उन्होंने कहा,
किंगडम ऑफ गॉड, ईश्वर
का राज्य।
हमारे
लिए गड़बड़ हो
गया। क्योंकि
जैनी कहेगा, ईश्वर तो है
ही नहीं, ईश्वर
का राज्य क्या
होगा? तो
यह किंगडम
ऑफ गॉड तो
गड़बड़ बात है।
लेकिन
जो मतलब मोक्ष
का है, जो
मतलब निर्वाण
का है, वही
मतलब किंगडम
ऑफ गॉड का है।
उसमें कोई
फर्क नहीं है।
जहां मनुष्य
का सब राज्य
समाप्त हो
जाता है, वहां
जो शेष रह गया
उसको कहते हैं
किंगडम
ऑफ गॉड। जहां
मनुष्य के
निर्माण का
सारा राज्य
समाप्त हो
जाता है, वहां
जो शेष है, वहां
जो अनंत और
अनादि शेष है,
उसको वे कह
रहे हैं किंगडम
ऑफ गॉड। लेकिन
उनके पास
यहूदी टर्मिनालॉजी
थी, उनके
पास यहूदी
शब्द थे।
मजबूरी थी, इसमें कोई
कठिनाई भी
नहीं थी, तो
उन्होंने
उनका उपयोग
किया।
दुनिया
में शब्दों का
झगड़ा है। और
शास्त्रों में
शब्द हैं और
अज्ञानी
शास्त्र को पकड़ेगा तो
शब्दों से जकड़
जाएगा। इसलिए
मैं कहता हूं:
सत्य को जानो, शास्त्र
सत्य हो
जाएंगे; लेकिन
शास्त्र को
पकड़ लो, जीवन
पूरा का पूरा
असत्य हो
जाएगा।
शास्त्र को
जिसने पकड़ा
उसका जीवन
गया। सत्य तो
मिलेगा ही
नहीं, शास्त्र
को भी नहीं
जान पाएगा।
लेकिन जिसने सत्य
को खोजा वह
सत्य को तो
पाएगा ही, साथ
ही साथ
शास्त्रों
में जो है
उसको भी जान लेगा।
सोचने
की और विचारने
की कोशिश करना
कि मैं जो कह
रहा हूं वह
क्या है?
मूर्ति
तो छूट जाएगी
जो भगवान को
खोजेगा, क्योंकि
वह पत्थर को
मूर्ति नहीं
मान सकता। लेकिन
जिस दिन भगवान
को खोज लेगा, भगवान के
सिवाय कुछ भी
शेष नहीं रह
जाएगा, पत्थर
में भी वही
होगा। मूर्ति
को जिसने पकड़ा
वह तो पत्थर
पर अटक जाएगा,
लेकिन
जिसने सब छोड़ा
और भगवान को
खोजा, पत्थर
भी एक दिन
भगवान हो
जाएगा। कोई
फिर फर्क नहीं
रह जाएगा। अभी
तो फर्क है।
अभी जो पत्थर सीढ़ी
का है उसको तो
नमस्कार नहीं
करते हैं; लेकिन
जो पत्थर
मूर्ति का है
उसको नमस्कार
करते हैं। और
कल हट जाए
मूर्ति वहां
से तो वह भी पत्थर
हो जाएगी और
सीढ़ी पर लगा
दी जाएगी।
लेकिन जिसको
भगवान का
अनुभव होगा
उसके लिए सभी
पत्थरों में
वही हो जाएगा।
एक
फकीर हुआ। एक
नास्तिक था उस
गांव में।
उसको बहुत
लोगों ने
समझाया, वह
नहीं समझा। तो
उन्होंने कहा
कि पास के
गांव में एक
फकीर है, तुम
वहां जाओ। वही
तुम्हें समझा
सकता है, अब
और तुम्हें
कोई नहीं समझा
सकता।
उस
नास्तिक ने
कहा कि ठीक है, वहां भी मैं
जाता हूं।
नास्तिक बड़े
गुरूर से भरा
हुआ था, उसके
पास दलीलें
थीं। और
नास्तिक के
पास हमेशा
दलीलें रही
हैं, दलीलों
में कमी नहीं
है। वह दलीलें
लेकर गया। पहुंचा,
सुबह कोई आठ
बजते थे, जाकर
मंदिर में गया
जहां वह फकीर
रहता था, साधु
रहता था। देख
कर हैरान हो
गया, शंकर
का मंदिर था
और वह जो साधु
नाम के सज्जन
थे, शंकर
की पिंडी पर
पैर रखे हुए
विश्राम कर
रहे थे, सो
रहे थे। उसे
तो बहुत
हैरानी हो गई,
उसने कहा कि
नास्तिक तो
मैं जरूर हूं,
लेकिन अभी
पैर मैं भी
शंकर की पिंडी
को नहीं लगा
सकता। पता
नहीं कौन सी
झंझट खड़ी हो
जाए? पता
नहीं ये शंकर
इसका क्या
बदला लें? हों
ही कहीं, क्या
पता? दलीलें
तो ठीक हैं, लेकिन अगर
कहीं हुए तो
वे तो मुसीबत
बाद में डालेंगे,
तो पैर तो
मैं भी नहीं
लगा सकता।
लेकिन यह साधु
अजीब है! और यह
मुझे क्या
समझाएगा, यह
तो परम
नास्तिक
मालूम होता
है। और यह भी
कैसा साधु है,
ब्रह्ममुहूर्त
कब का निकल गया
और यह अभी आठ
बज रहे हैं और
सो रहा है? क्योंकि
साधु तो
ब्रह्ममुहूर्त
में उठते हैं!
इसलिए
साधु होना
बहुत आसान है।
ब्रह्ममुहूर्त
में उठिए, साधु हो गए।
यह तो सीधा सा
गणित है, इसमें
कठिनाई क्या?
वह
बहुत हैरान
हुआ। लेकिन
बैठ गया। बोला, इसके पास
भेजा है! लेकिन
थोड़ी देर बाद
वह साधु उठा
तो उसने पूछा
कि महाराज, मैंने तो
सुना था कि
साधु
ब्रह्ममुहूर्त
में उठते हैं
और आप अभी सो
रहे हैं और
सूरज आकाश में
खूब चढ़ चुका!
वह
साधु हंसने
लगा और बोला, हमने भी
बहुत खोजा कि
ब्रह्ममुहूर्त
कौन सा है, इसका
पता चल जाए।
फिर हमको यही
पता चला कि जब
हमारी नींद
खुल जाए, ब्रह्म
का जब जागरण
हो जाए, वही
ब्रह्ममुहूर्त
है। तो जब हम
उठते हैं उसी को
ब्रह्ममुहूर्त
मान लेते हैं।
और तो हमारी समझ
में नहीं आया
कि
ब्रह्ममुहूर्त
कौन सा है? बहुत
खोजा, लेकिन
कुछ पक्का पता
नहीं चला। फिर
हमने यही सोचा
कि भीतर तो
ब्रह्म है, जब वह खुलती
है उनकी नींद
तो समझो
ब्रह्ममुहूर्त
है। और नींद
खुल रही है तो
वह मुहूर्त
ब्रह्म। तो जब
हमारी नींद
खुलती है तब
हम ब्रह्ममुहूर्त
मानते हैं।
उसने
कहा कि ठीक
है। अब इनसे
क्या बकवास की
जाए! कहा, और
यह क्या कर
रहे हैं कि आप
भगवान की
मूर्ति पर पैर
रखे हुए हैं?
उसने
कहा कि पहले
हम भी ऐसा ही
सोचते थे।
लेकिन जब
भगवान को जाना
तो मुसीबत हो
गई कि अब पैर कहां
रखें? कहीं
भी पैर रखें
वहीं भगवान
है। कहीं भी
पैर रखें वहीं
भगवान है, तो
कहीं तो
रखेंगे ही! तो
यह बताने को
लोगों को कि
जहां भी पैर
रखें वहीं
भगवान है, इसलिए
जहां-जहां लोग
भगवान मानते
हैं वहीं-वहीं
हम पैर रखते
हैं, ताकि
लोगों को पता
चल जाए कि
कहीं भी पैर
रखो वहीं
भगवान है।
वह
बोला कि ठीक
है, अब आपसे
तो कोई रास्ता
न रहा, बाकी
हम तो हैं
नास्तिक और हम
विवाद करने आए
थे।
उसने
कहा, फिर भी
रुको, कुछ
खाना-वाना हम
बनाएंगे तो
तुम खाकर ही
जाना, अब आ
गए हो।
तो वह
गांव से
भिक्षा मांग
कर लाया और
उसने बाटियां
बनाईं।
और जब वह बाटियां
बना रहा था, एक कुत्ता
उसकी बाटी
लेकर भाग गया।
तो वह घी की
हंडी लेकर
उसके पीछे
भागा। वह
नास्तिक हैरान
हुआ कि दिखता
है यह दुष्ट
उसकी बाटी
छुड़ा कर
लौटेगा। तो वह
नास्तिक भी
पीछे गया।
लेकिन उसने
कुत्ते को आखिर
जाकर पकड़ ही
लिया उस फकीर
ने और उससे
कहा कि देखो
राम, बिना
घी की बाटी न
तो हमको पसंद
है और हम
सोचते हैं
तुमको भी पसंद
न होगी, इसलिए
पहले इस बाटी
को घी में
डुबा लेने दो
और फिर खाना।
उस कुत्ते से
कहा, देखो
राम, हमको
बिना घी की
बाटी पसंद
नहीं तो तुमको
भी न होगी। तो
कृपा करके
इतना करो। तो
उसने उस कुत्ते
के मुंह से
बाटी निकाली,
अपने घी के
बर्तन में
उसको डुबाई, वापस कुत्ते
के मुंह में
लगाई और कहा, राम, अब
जाओ।
उस
नास्तिक ने उसके
पैर छुए और
कहा, मैं जाता
हूं, अब
मुझे कुछ
सीखना नहीं
आपसे।
क्योंकि मैं
तो हैरान हो
गया, भगवान
की मूर्ति पर
पैर टेकते हो
और कुत्ते से
राम कहते हो!
जो
जानता है वह
यही करेगा।
क्योंकि जिसे
दिखाई पड़ेगा
परमात्मा, उसे फिर
कुत्ते में भी
दिखाई पड़ेगा,
पत्थर में
भी, मकान
में भी, सब
तरफ वही दिखाई
पड़ेगा, उसके
अतिरिक्त कुछ
दिखाई नहीं पड़
सकता है। लेकिन
आपको दिखाई
पड़ता है मंदिर
में, तो
जरूर गड़बड़ है।
आपको दिखाई
पड़ता है
मूर्ति में, तो जरूर
गड़बड़ है।
मूर्ति में तो
भगवान नहीं है,
लेकिन जिस
दिन भगवान का
अनुभव होगा उस
दिन मूर्ति भी
भगवान के बाहर
नहीं रहेगी।
वह तो समष्टि
का अनुभव है।
लेकिन इन क्षुद्रताओं
में जो उलझ
जाता है वह
समष्टि तक
नहीं उठ पाता है,
नहीं उठ
सकता है।
क्षुद्रताएं
छोड़ें, जागें
विराट के
प्रति, जागें
विराट के
प्रति, असीम
के प्रति, तब
तो धर्म का
अनुभव होगा, तब तो भगवान
की या सत्य
की--या कोई भी
नाम दे
दें--उसकी
प्रतीति
होगी।
एक
और छोटा सा
प्रश्न है और
बहुत बढ़िया
है: एक उलझन है
कि मेरे मन
में चोरी करने
का भाव हो उठता
है, खर्च की
कमी रहती है
इसलिए मुझसे
चोरी हो जाती
है। इस बात का
कृपया उपाय बतलाएं कि
इस चोरी से कैसे
मुक्त हुआ जाए?
बड़ी
ईमानदारी की
बात पूछी है, इसलिए बहुत
अच्छी है।
क्योंकि लोग
भगवान की बातें
पूछते हैं, पुनर्जन्म
की बातें
पूछते हैं। यह
तो कोई पूछता
ही नहीं कि
मैं चोर हूं।
जो आदमी यह
पूछता है उसकी
जिंदगी में
कुछ हो सकता
है। उसकी
जिंदगी का
प्रश्न सच्चा
है और सीधा
है। उसे कोई
चीज खटक रही
है जिंदगी में,
वह उस पर
विचार कर रहा
है। लेकिन
दूसरे लोग तो विचार
कर रहे
हैं--आत्मा
अमर है या
नहीं? और
भगवान है तो
किस शास्त्र
में है?
ये सब
झूठे प्रश्न
हैं। ये
वास्तविक
प्रश्न नहीं
हैं।
वास्तविक
प्रश्न तो
जिंदगी के होते
हैं--कि मेरे
भीतर बेईमानी
है, मेरे
भीतर क्रोध है,
मुझे चोरी
हो आती है, मैं
क्या करूं?
तो
मैंने दोपहर
जो कहा है, अगर उसे
समझा होगा, तो इस
प्रश्न का
उत्तर मिल
जाना चाहिए।
चोरी
तो रहेगी। जब
तक चेतना बाहर
की तरफ गति करती
है, चोरी
रहेगी। यह मत
सोचना कि जो जेलों
में बंद हैं
वे ही चोर
हैं। जो पकड़
जाते हैं वे
बंद हैं, जो
नहीं पकड़ते
वे बाहर हैं।
इस खयाल में
मत रहना कि जो
भीतर जेल के
बंद हैं वे ही
चोर हैं। जो
पकड़ जाते हैं
वे बंद हैं
बेचारे; वे
जरा कमजोर चोर
हैं या नासमझ
चोर हैं; होशियार
नहीं हैं, बहुत
चालाक नहीं हैं।
जो चालाक हैं,
होशियार
हैं, वे
बाहर हैं। जो
उनसे भी
ज्यादा चालाक
हैं वे मजिस्ट्रेट
हैं। जो उनसे
भी ज्यादा
चालाक हैं वे
पुरोहित हैं,
जो उनसे भी
ज्यादा चालाक
हैं वे साधु
हैं। चोर सब
हैं, क्योंकि
जिसकी चेतना
बाहर की तरफ
बह रही है वह
बिना चोरी किए
बच नहीं सकता।
एक दफा
ऐसा हुआ कि
सिकंदर के पास
हिंदुस्तान से
लौटते वक्त
उसके फौजी
पड़ाव में एक
डाकू ने डाका
डाल दिया। रात
फौजें
सोई थीं, वह
सामान चुरा कर
ले गया।
सिकंदर बहुत
हैरान हुआ, उसने कहा, हद्द हो गई।
सुबह वह डाकू
पकड़ कर लाया
गया। सिकंदर
ने कहा कि तुम
कैसे बदतमीज
हो! कैसे
अनैतिक
व्यक्ति हो!
उस
डाकू ने कहा
कि नहीं, ऐसा
व्यवहार न
करें। जैसा एक
बड़ा भाई छोटे
भाई के साथ
व्यवहार करता
है वैसा
व्यवहार
करें।
सिकंदर
ने कहा, तू
मेरा छोटा भाई
कैसे?
उसने
कहा, तुम बड़े
डाकू हो, तुम्हें
दुनिया मानती
है। हम छोटे
डाकू हैं, हमें
मानती नहीं।
हम जरा कमजोर
हैं, शक्तिहीन
हैं, हम
छोटे-मोटे
डाके डालते
हैं। तुम बड़े
डाके डालते हो,
तुम बादशाह
हो। तुम भी
वही करते हो, हम भी वही
करते हैं।
आपके
बड़े से बड़े
राजा भी चोरी
करते रहे हैं।
चोरी न करें
तो राजा कैसे
हो जाएंगे? हां, उनकी
चोरी स्वीकृत
है, क्योंकि
वे बड़े चोर
हैं और ताकतवर
चोर हैं। इसलिए
वे हड़प
लेते हैं तो
उसको जीत कहा
जाता है। वे
जमीन बढ़ा लेते
हैं तो उसको
राज्य कहा
जाता है। आप
बगल वाले की
जमीन दबाएंगे
तो चोर समझे
जाएंगे; आप
बगल वाले की
जेब में हाथ
डालेंगे तो
चोर समझे
जाएंगे। और सब
राजा आपकी जेबों
में हाथ डाले
रहे, नहीं
तो उनके पास
आता कहां से? वे बड़े चोर
हैं, वे
स्वीकृत चोर
हैं, समाज
उनको मान्यता
देता है। और
क्यों? क्योंकि
समाज उनसे
डरता है। वे
जो चाहते हैं
मनवा लेते
हैं।
नेपोलियन
ने कहा है कि
जो मैं कह दूं
वही कानून है।
तो ठीक
कहा है, जो
ताकतवर कह दे
वह कानून है।
दुनिया में दो
तरह के चोर
रहे--ताकतवर
और कम ताकतवर।
कम ताकतवर सजा
भोगते हैं, ताकतवर अपनी
चोरी का पुण्य
यहीं लूटते
हैं, मजा
करते हैं। और
उन ताकतवरों
ने बड़ी
होशियारी की
बातें की हैं
कि उन्होंने
पुरोहितों को
भी मना लिया
है। क्योंकि
उनकी चोरी में
भागीदार ये भी
हैं, पुरोहित
भी उनकी चोरी
में भागीदार
हैं, तो
इनको भी मना
लिया है। इनसे
वे यह कहते
हैं कि जिनके
पास नहीं है
वे पिछले
जन्मों के पाप
का फल भोग रहे
हैं और हमारे
पास है तो हम
पिछले जन्मों
के पुण्य का
फल भोग रहे
हैं।
जब कि
असलियत यह है
कि या तो उनके
बापों के पाप
का फल है उनकी संपत्ति
या उनके और
बापों के या
उनके खुद के। बिना
पाप के
संपत्ति
इकट्ठी होनी
कठिन है, बिना
चोरी के
संपत्ति
इकट्ठी नहीं
होती। संपत्ति
मात्र चोरी
है। यह असंभव
है। लेकिन
जिनके पास
संपत्ति है वे
यह व्यवस्था
करते हैं कि
हमारी
संपत्ति खो न
जाए, चोरी
न चली जाए। तो
वे पुरोहितों
को कहते हैं, लोगों को
समझाओ कि चोरी
बहुत बुरी चीज
है, चोरी
बहुत पाप है।
ताकि जिनके
पास नहीं है
वे दूर रहें, डरे हुए
रहें। पुलिस
है, अदालत
है, सब है।
लेकिन फिर भी
डर है कि फिर
भी आदमी चोरी करने
को राजी हो
जाए। इसलिए
बचपन से उसके
भीतर कांशियंस
पैदा करता है
समाज--कि देखो,
चोरी बहुत
बुरी चीज है।
चोरी बहुत
बुरी चीज है, मतलब जिनके
पास संपत्ति
है उनसे मत
लेना।
लेकिन
उनके पास
संपत्ति कैसे
आ गई? उनके पास
संपत्ति कैसे
आ गई? उन्होंने
अपनी सुरक्षा
के लिए यह भी
व्यवस्था कर
रखी है कि
चोरी मत करना।
यह संपत्ति का
जो
केंद्रीकरण
है उसने ही
"चोरी न करना'
इसको
प्रचारित
किया हुआ है।
लेकिन
उन्होंने यह
कभी नहीं कहा
कि शोषण मत
करना। अभी तक
दुनिया के
किसी
धर्मग्रंथ
में यह नहीं
लिखा है कि शोषण
करना पाप है।
लिखा है चोरी
करना पाप है।
शोषण करना पाप
नहीं है। जब
कि शोषण के
कारण ही चोरी
पैदा होती है।
नहीं तो चोरी
पैदा क्यों
होगी? अगर
दुनिया में
शोषण नहीं
होगा, चोरी
नहीं होगी।
कनफ्यूशियस
हुआ चीन में।
उसकी अदालत
में एक मुकदमा
आया। अदालत
में मुकदमा यह
था कि एक आदमी
ने चोरी की थी।
उस पर मुकदमा
था, चोरी पकड़
गई थी, संपत्ति
भी पकड़ गई थी। कनफ्यूशियस
ने फैसला
दिया--ढाई
हजार साल पहले
फैसला दिया, अदभुत फैसला
दिया, मैं
भी उसकी जगह
होता तो वही
फैसला देता, हालांकि अभी
तक दुनिया
उससे राजी
नहीं कि उसने
ठीक
किया--उसने छह
महीने की सजा
साहूकार को दे
दी और छह
महीने की सजा
चोर को दे दी।
साहूकार
हैरान हुआ कि
तुम्हारा
दिमाग खराब है? मेरी
संपत्ति चोरी
जाए और मुझे
सजा! यह कौन से कानून
में लिखा हुआ
है?
उसने
कहा कि
तुम्हारे पास
इतनी संपत्ति
इकट्ठा होना
ही चोरी का
बुनियादी
कारण है। इस
गांव में
तुम्हारे पास
इतनी संपत्ति
इकट्ठी हो गई
है कि बाकी
लोग भी चोरी
नहीं कर रहे
हैं, यही
आश्चर्य की
बात है।
जीवन
की धारा एकदम
गलत है, एकदम
गलत है, उसमें
सब चोरी कर
रहे हैं।
इसलिए जिसको
यह खयाल आ गया
है कि मुझसे
चोरी हो रही
है, मैं
क्या करूं? उसके भीतर
एक चिंतन तो
पैदा हुआ है।
कुछ हो सकता
है। लेकिन
चोरी की बहुत
फिक्र न करें,
चोरी से तो
वह नहीं बच
सकेगा। मान्य
चोरी करेगा, अमान्य चोरी
करेगा, चोरी
से तो नहीं बच
सकेगा, जब
तक कि उसकी
चेतना-धारा
बाहर की तरफ
बहती है।
तो
मैंने दोपहर
जो बात की है
उससे इसे जोड़
लेना। चेतना
की धारा भीतर
की तरफ बहे तो
चोरी बंद होती
है। चोरी बंद
होती है। उसके
बिना चोरी बंद
नहीं हो सकती।
दुनिया में
अगर कभी भी
चोरी समाप्त
होगी तो वह
तभी जब अधिक
जीवन
अंतर्गामी
होंगे।
बहिर्गामी होंगे, चोरी बंद
नहीं हो सकती।
हां, छोटी चोरियां
पकड़ी जाती
रहेंगी, बड़ी
चोरियां
सम्मानित
होती रहेंगी।
बड़े चोर
इतिहास
बनाएंगे, छोटे
चोर
कारागृहों
में बंद
होंगे। यह
होगा, लेकिन
चोरी बंद नहीं
होगी। चाहे
समाजवाद आ जाए
तो भी चोरी
बंद नहीं
होगी। चोरी की
शक्लें बदल
जाएंगी।
शक्लें दूसरी
हो जाएंगी, लेकिन चोरी
होगी।
हिंदुस्तान
में गरीब है, अमीर है। समाजवादी
मुल्कों में
सामान्य जनता
है और सरकार
में
प्रतिष्ठित
राजनीतिज्ञ
है। वह उनका शोषण
कर रहा है, वह
उनकी चोरी कर
रहा है। सब चल
रहा है। उससे
बचा नहीं जा
सकता। जब तक
कि बहुत गहरे
अर्थों में
अधिकतम
आत्माएं
अंतर्गामी न
हों, जीवन
में चोरी
होगी। चोरी से
तभी कोई बच
सकता है जब
उसके जीवन में
अपरिग्रह
पैदा हो।
परिग्रह चोरी
है। और
अपरिग्रह तभी
पैदा होगा जब
उसे आत्मबोध
हो। इसके पीछे
एक कारण है, जब तक हमें
भीतर संपदा न
मिले तब तक हम
बाहर संपत्ति
को खोजेंगे।
वह भीतर की
संपत्ति को इस
तरह सब्स्टीटयूट
करेंगे। भीतर
तो खाली हैं, भीतर कोई
संपत्ति नहीं,
तो बाहर
संपत्ति को
इकट्ठा
करेंगे। उस
संपत्ति को
इकट्ठा करके
किसी तरह कमी
पूरी कर लेंगे।
भीतर तो खाली
हैं, भीतर
तो कोई संपदा
नहीं, तो
बाहर संपदा
इकट्ठी होती
है। जब किसी
व्यक्ति को
भीतर संपदा
मिलने लगती है
तो बाहर की संपदा
पर से अपने आप
हाथ छूट जाते
हैं। भीतर जब
संपदा मिलती
है तो कोई
पागल बाहर
संपदा इकट्ठा
करेगा।
एक
आदमी जा रहा
हो और उसके
हाथ में
कंकड़-पत्थर रखे
हों और आप
उसको बता दें
कि ये सामने
हीरे पड़े हैं, तो क्या
उसको याद भी
रहेगा कि
कंकड़-पत्थर
कहां गए?
वे
तत्क्षण
कंकड़-पत्थर
छूट जाएंगे और
हीरों पर
मुट्ठी बंध
जाएगी। उसे
त्याग नहीं
करना पड़ेगा
कंकड़-पत्थरों
का, वे छूट ही
जाएंगे।
चोरी
तभी बंद हो
सकती है जब और
गहरी संपदा
भीतर उपलब्ध
होनी शुरू हो
जाए। परिग्रह
तभी छूट सकता
है जब भीतर
आत्मिक जीवन
और आत्मिक
आनंद पर हाथ
पड़ने शुरू हो
जाएं। तो यहां
छूट जाएगा, कंकड़-पत्थरों
को कौन पकड़ेगा?
महावीर ने
कोई त्याग
करके कोई बड़ा
काम नहीं किया,
या बुद्ध ने
या किसी ने
भी। यह त्याग-व्याग
नहीं है, यह
कंकड़-पत्थर का
छूट जाना है।
भीतर कुछ मिला
है अदभुत, अब
उसके लिए हाथ
खाली चाहिए, तो बाहर सब
छूट गया।
जब तक
अपरिग्रह न
हो...परिग्रह
हो, तो फिर
परिग्रह में
तो चोरी होगी।
उसके नाम अलग
हो सकते हैं।
एक सम्मत चोरी
हो सकती है, समाज के
द्वारा
स्वीकृत; और
एक समाज के
द्वारा
अस्वीकृत
चोरी हो सकती
है। वह दूसरी
बात है, उससे
मुझे कुछ
लेना-देना
नहीं है।
लेकिन यह मैं
कहूं कि जब तक
अपरिग्रह न
भीतर हो तब तक
चोरी होगी। और
जब तक चोरी
होगी तब तक
दुनिया में
शोषण जारी रहेगा।
और जब तक शोषण
जारी रहेगा तब
तक मनुष्य के
जीवन में कोई
ऐसा समाज पैदा
नहीं हो सकता
जो सुंदर हो, स्वस्थ हो, शांत हो, सुखी
हो, समान
हो, स्वतंत्र
हो। नहीं हो
सकता। और
अपरिग्रह आता
है आत्मिक गति
से।
जितना-जितना
व्यक्ति
आत्मा में
प्रविष्ट
होता है, उतना-उतना
अपरिग्रह आता
है।
मैं
आपसे बाहर की
संपत्ति
छोड़ने को नहीं
कहता हूं, मैं आपसे
भीतर की
संपत्ति
उपलब्ध करने
को कहता हूं।
बाहर की
संपत्ति तो
जाएगी अपने आप,
उसे छोड़ने
की कोई कठिनाई
नहीं है। और
अगर बाहर
संपत्ति पर
पकड़ ढीली
हो जाए तो
दुनिया में एक
दूसरी तरह का
मानव-समाज
निर्मित हो
सकता है।
इसलिए चिंता न
करें कि चोरी
है। चिंता
करें इस बात
की कि मेरी
दिशा बाहर की
तरफ है। चोरी
तो चलने दें, वह चलेगी
इधर-उधर, उससे
कोई फर्क नहीं
पड़ता। लेकिन
भीतर जागें और
भीतर की तरफ
गति करें। और
जिस दिन भीतर
की तरफ गति हो
जाए उस दिन आप
पाएंगे कि
चोरी तो गई।
चोरी जाएगी।
एक
मित्र मेरे
पास आते थे।
वे मुझसे कहे, मैं शराब
पीता हूं। मैं
कैसे ध्यान
करूं?
मैंने
कहा, इसका
क्या संबंध, शराब पीने
से और ध्यान करने
से! खूब शराब
पीओ और ध्यान
भी करो।
वे
बोले, लेकिन
कोई भी...वे तो
थोड़े हैरान हो
गए और बोले, यह कैसे हो
सकता है कि
मैं शराब भी पीयूं और
ध्यान भी करूं?
मैंने
कहा, अगर यह
नहीं हो सकता
तब तो फिर
रास्ता ही
समाप्त हो
गया। यह तो
ऐसे ही हुआ, एक बीमार
आदमी कहे कि
मैं तो बीमार
हूं तो मैं
इलाज कैसे
करूं? मैं
तो बीमार हूं,
मैं इलाज
कैसे करूं? तो हम उससे
कहेंगे, बीमार
हो तो रहो, लेकिन
इलाज तो करो।
शराब
पीते हो, पीओ।
मेरी दृष्टि
में, मैंने
उनसे कहा, शराब
इसीलिए पीते
हो कि भीतर
शांत नहीं हो।
भीतर अशांत हो
इसलिए शराब पीते
हो, ताकि
भूल जाओ अपने
को। जब ध्यान
भीतर शांति लाएगा
तो शराब पीने
के बुनियादी
कारण टूट
जाएंगे।
आना
शुरू किया। वे
कुछ दिन ध्यान
करते थे। कोई
तीन महीने बाद
उन्होंने आकर
मुझसे कहा, आपने तो
मुझे सच में
धोखा दे दिया,
शराब तो गई।
मैंने
कहा, मुझे
उससे क्या लेना-देना,
रहे या जाए।
उससे कोई
संबंध नहीं
है।
आपकी
चोरी से कोई
संबंध नहीं
है। संबंध है
इस बात से कि
भीतर आप गति
करें, थोड़ा
ध्यान में
गहरे हों।
जाएगी, चोरी
जाएगी, शराब
जाएगी, बेईमानी
जाएगी, उसे
छोड़ना नहीं है,
वह जाएगी।
और जब जाए तभी
शुभ है। छोड़ा
हुआ झूठा होगा,
वह भीतर बनी
रहेगी, नये
रास्ते पकड़
लेगी, नये
ढंग से आने
लगेगी, अपरिचित
रास्ते पकड़
लेगी, परिचित
रास्ते छोड़
देगी। मन बहुत
होशियार है, बहुत कनिंग
है। आप एक तरफ
से छोड़ेंगे,
वह दूसरी
तरफ से शुरू
कर देगा। इससे
कोई फर्क नहीं
पड़ता है। फर्क
पड़ता है अंतर्गमन
से। और अंतर्गमन
ही केंद्रीय
तत्व है
जीवन-साधना
में।
और
प्रश्न हैं, उनकी मैं कल
बात करूंगा।
अब हम रात्रि
के ध्यान के
लिए बैठेंगे।
तो मैं समझा
तो चुका हूं, कुछ थोड़े से
नये मित्र
होंगे, उनको
दो बात कह
दूं।
रात्रि
का ध्यान सोने
के पहले करने
का ध्यान है, यहां तो हम
प्रयोग कर रहे
हैं, रात
को लौट कर
कमरे पर उसे दोहराएं।
क्योंकि यहां
तो जमीन है, कंकड़-पत्थर
हैं, लेट
भी नहीं सकते,
तकलीफ भी
है। इतने लोग
भी हैं, उनको
भूल भी नहीं
सकते। तो कमरे
पर जाकर उसे दोहराएं।
यहां तो सिर्फ
हम प्रयोग कर
रहे हैं कि
आपको खयाल में
आ जाए कि क्या
करना है। लेट
जाना है, सारे
शरीर को ढीला
छोड़ देना है।
ढीला छोड़ने के
सुझाव मैं
दूंगा, उसके
हिसाब से फिर
छोड़ते जाना
है। फिर श्वास
शांत कर लेनी
है, शांत
छोड़ देनी है, उसके भी
सुझाव दूंगा।
फिर मन शांत
होने के सुझाव
दूंगा। अंत
में कहूंगा कि
दस मिनट के
लिए सब शांत
हो गया। उस
शांति में सोए
हुए भीतर जागे
रहें, जैसा
सुबह जागे
रहते हैं उसी
भांति।
तो
बहनें यहां
ऊपर जाएं और
सारे भाई नीचे
आ जाएं।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें