सारसूत्र:
दीघा
जागरतो रत्ति
दीघं संतस्स
योजना।
दीखे
बालानं
संसारो
सद्धम्मे अविजानतं।।54।।
चरं
वे
नाधिगच्छेथ्व
सेथ्यं
सादिसमत्तनो।
एकचरियं
दत्हं कयिरा
नत्थि बाले
सहायता।।55।।
पुत्तामत्थि
धनम्मत्थि इति
बालो विहज्जति।
अत्ता
अत्तनो नत्थि
कुतो पुत्तो
कुत्तो धनं।।56।।
के
बालो मज्जति
बाल्यं
पंडितो वापि
तेन सो।
संसार
बडा है, विशाल
है। लंबी है
यात्रा उसकी।
लेकिन संसार
के करण संसार
बड़ा नहीं हैं; संसार बड़ा
है, क्योंकि
तुम बेहोश हो।
तुम्हारी
बेहोशी में ही
संसार का विस्तार
है। तुम्हारी
बेखुदी में ही
संसार की
विराटता है। जैसे
ही तुम जागे, वैसे ही
संसार छोटा
हुआ। इधर तुम
जागे, उधर
संसार खोना
शुरू हुआ। जिस
दिन परिपूर्ण
रूप से कोई
जागता है, संसार
शून्य हो जाता
है।
इसलिए
ज्ञानियों ने
संसार को माया
कहा। माया
अर्थात लगता
है कि है, और
फिर भी नहीं
है। तुम्हारे
सोने में ही
जिसका होना है।
माया अर्थात
तुम्हारे
सोने में ही
जिसका होना है,
तुम्हारे
जागने में
जिसकी मृत्यु
है।
माया
अर्थात
स्वप्न। रात
सोए तो स्वप्न
का विस्तार है।
रात सोए तो
स्वप्न में
सचाई है। रात
सोए तो स्वप्न
में यथार्थ है।
आंख खुली, सब
सचाई गई, सब
यथार्थ मिटा। स्वप्न
की राख भी
नहीं बचती
सुबह। भोर जब आंख
खुलती है तो
स्वप्नों का
सारा लोक
शून्य हो जाता
है।
ऐसा
ही संसार है। जब
तक तुम सोए हो, अंतर
की ज्योति
नहीं जगी, तभी
तक है; तुम्हारे
न होने में है।
तुम हुए कि
मिटा।
तो
संसार को
गालिया मत
देना। संसार
की निंदा भी
मत करना। उससे
कुछ भी न होगा।
संसार को छोड़कर
भी मत
भाग जाना; उससे
भी कुछ न होगा।
कुछ करना हो
तो जागना। कुछ
वस्तुत: ही
करना चाहते हो
तो होश को
लाना, बेहोशी
तोड़ना। इधर
होश आया, उधर
संसार गया। छोड़ना
भी नहीं पड़ता,
छूट जाता है।
छूट जाता है, कहना भी
शायद ठीक नहीं,
पाया ही
नहीं जाता।
जागकर
जो नहीं पाया
जाता, वही
संसार है। और
जागकर जो पाया
जाता है, वही
सत्य है।
शराब
पी ली तुमने—पैर
डगमगाने लगे, लेकिन
लगता ऐसा है, जैसे सारा
संसार डगमगा
रहा है। शराब
पी ली तुमने—जो
नहीं है, दिखाई
पड़ने लगता है।
जो है, अदृश्य
हो जाता है। शराब
पी ली तुमने—एक
पर्दा आंख पर
पड़ गया 1 एक
तंद्रा छा गई
भीतर के आकाश
पर। बदलिया
घिर गयीं
बेहोशी की। छिप
गया सूरज होश
का। भीतर
अंधकार हुआ, बाहर सब
रूपांतरित हो
जाता है।
अकबर
एक राह से
गुजरता था। एक
शराबी ने बड़ी
गालियां दीं
मकान पर चढ़कर।
नाराज हुआ
अकबर। पकड़वा
बुलाया शराबी
को। रातभर कैद
में रखा। सुबह
दरबार में
बुलाया। वह
शराबी झुक—झुककर
चरण छूने लगा।
उसने कहा, क्षमा
करें। वे
गालियां
मैंने न दी
थीं।
अकबर
ने कहा, मैं
खुद मौजूद था।
मैं खुद राह
से गुजरता था।
गालियां
मैंने खुद
सुनी हैं। किसी
और गवाह की
जरूरत नहीं।
उस
शराबी ने कहा, उससे
मैं इंकार
नहीं करता कि
आपने सुनी हैं।
आपने जरूर
सुनी होंगी, लेकिन मैंने
नहीं दीं। मैं
शराब पीए था। मैं
होश में न था। अब
बेहोशी के लिए
मुझे तो
कसूरवार न
ठहराओगे! शराब
से निकली
होंगी, मुझसे
नहीं निकलीं। जब
से होश आया है,
तब से पछता
रहा हूं।
तुमने जो
कुछ किया है, बेहोशी में
किया है। जब
होश आएगा, पछताओगे।
तुमने जो
बसाया है, बेहोशी
में बसाया है।
जब होश आएगा
तब तुम पाओगे,
रेत पर बनाए
महल। इंद्रधनुषों
के साथ जीने
की आशा रखी। कामनाओं
के सेतु फैलाए,
कि शायद उन
से सत्य तक
पहुंचने का
कोई उपाय हो जाए।
तुम्हारी
तंद्रा में ही
तुम्हारे
सारे संसार का
विस्तार है।
बुद्ध
का पहला सूत्र
है:
'जागने
वाले की रात
लंबी होती है।
थके हुए के
लिए यात्रा
लंबी होती है,
योजन लंबा
होता है, कोस
लंबा होता है।
वैसे ही
सदधर्म को न
जानने वाले
मूढ़ों के लिए संसार
बडा होता है।'
अल्वर्ट
आइंस्टीन ने
इस सदी में
विज्ञान को एक
सिद्धात दिया
सापेक्षवाद
का। बुद्ध
पुरुषों ने उस
सिद्धात को
अंतरात्मा के
जगत में
सदियों पहले
दिया था।
आइंस्टीन
से कोई पूछता
था कि
तुम्हारा यह
सापेक्षता का
सिद्धात आखिर
है क्या? इतनी
चर्चा है, नोबल
पुरस्कार
मिला है, जगह—जगह
शब्द सुना
जाता है, लेकिन
इसका अर्थ
क्या है? तो
आइंस्टीन
कहता था, मुश्किल
है तुम्हें
समझाना। कहते
हैं कि
मुश्किल से
बारह लोग थे
जमीन पर, जो
उस सिद्धात को
ठीक से समझते
थे। सिद्धात
थोड़ा जटिल है।
और जटिल ही
होता तो भी
इतनी कठिनाई न
थी, थोड़ा
तर्कातीत है। थोड़ा
बुद्धि की
सीमाओं के उस
पार चला जाता
है, जहां
पकड़ नहीं
बैठती, जहा
मुट्ठी नहीं बंधती,
जहा धागे
हाथ से छूट
जाते हैं; जहा
विचार छोटा पड़
जाता है।
पर
आइंस्टीन ने
धीरे—धीरे एक
उदाहरण खोज
लिया था। साधारण
आदमी को
समझाने के लिए
वह कहता था कि
तुम्हारा
दुश्मन
तुम्हारे घर
आकर बैठ जाए
घड़ीभर बैठे तो
ऐसा लगता है
कि वर्षों बीत
गए। और
तुम्हारी प्रेयसी
घर आ जाए, तो
घंटों बीत
जाएं तो ऐसा
लगता है पलभर
भी नहीं बीता।
समय
का माप कहीं
तुम्हारे मन
में है। समय
का माप
सापेक्ष है, तुम्हारे
मन पर निर्भर
है। जब तुम
खुश होते हो, समय जल्दी
जाता है। जब
तुम दुखी होते
हो, समय
धीरे—धीरे
रेंगता है, सरकता है, लंगड़ाता है।
समय तो वही है,
घड़ी की चाल
वैसी ही है, तुम्हारे
सुख—दुख से
नहीं बदलती, लेकिन
तुम्हारा
अंतर— भाव समय
के प्रति
रूपांतरित हो
जाता है। जिंदगी
खुशी की हो, जल्दी बीत
जाती है। जिंदगी
दुख की हो, बड़ी
लंबी मालूम
होती है, बीतती
ही मालूम नहीं
होती।
घर
में कोई
प्रियजन मरने
को पड़ा हो
बिस्तर पर, रात
तुम्हें
जागना पड़े, तो ऐसा
लगेगा, अंतहीन
है, कयामत
की रात है, समाप्त
ही नहीं होती
मालूम होती। सुबह
होगी या न
होगी, संदेह
हो जाता है, कि कहीं ऐसा
तो न हो कि अब
सूरज उगे ही न!
मृत्यु पास हो
तो समय बहुत
लंबा हो जाता है।
तुमने भी
अनुभव किया
होगा कि समय
का बोध तुम्हारे
मन पर निर्भर
है।
यात्रा
का लंबा होना
या छोटा होना, कोस
की दूरी भी
तुम्हारे मन
पर निर्भर है।
कोस तो उतना
ही है। दो
पत्थर लगे हैं
कोस के, उनके
बीच में फासला
उतना ही है। लेकिन
तुम प्रेयसी
से मिलने जाते
हो तो
तुम्हारे
पैरों में एक
गुनगुनाहट
होती है। तुम्हारे
भीतर अर बजते
हैं। तो कोस
ऐसे बीत जाता
है, पता ही
नहीं चलता। और
अगर तुम कोई
दुखद समाचार
सुनने जा रहे
हो, कोई
पीड़ाजनक घटना
का साक्षात
करने जा रहे
हो, तो कोस
बड़ा लंबा हो
जाता है।
एक
तो कोस है
बाहर और एक
कोस का मापदंड
है भीतर। बाहर
का कोस असली
बात नहीं है, असली
बात तो भीतर
का कोस है। असली
बात तो भीतर
का समय है।
इसीलिए
ठीक इसी
दुनिया में जो
आनंद से जीने
का ढंग जानते
हैं,
उनकी
जिंदगी की
यात्रा और ही
होती है। और
जिन्होंने
दुख से जीने
की आदत बना ली
है, उनकी जीवन—यात्रा
स्याह रात हो
जाती है, अंधेरी
रात हो जाती
है।
तुम
पर निर्भर है।
तुम अपने
चारों तरफ जो
अनुभव कर रहे
हो,
वह तुम पर
निर्भर है। वस्तुत:
तुम ही उसके
स्रष्टा हो। तुमने
जो जिंदगी पाई
है, वैसी
जिंदगी पाने
का तुमने उपाय
किया है—जानकर
या अनजाने में।
तुमने जो
मांगा था, वही
मिला है। तुमने
जो चाहा था, वही हुआ है। अगर
अंधेरी रात ने
तुम्हें घेरा
है, तो
तुम्हारे
जीने का ढंग
ऐसा है, जिसमें
अंधेरा बड़ा हो
जाता है। अगर
तुम्हें
प्रकाश ने, रोशनी ने
घेरा है, अगर
तुम्हारी
जिंदगी में
नृत्य है और
गीत है, तो
तुम्हारे जीने
के ढंग पर
निर्भर है।
इसी
जमीन पर बुद्ध
पुरुष चलते
हैं,
कोस मिट
जाते हैं, समय
शून्य हो जाता
है। इसी जमीन
पर बुद्ध
पुरुष चलते
हैं, संसार
कहीं राह में
आता ही नहीं।
इसी
जमीन पर तुम
चलते हो, तुम
मंदिर में भी
पहुंच जाओ तो
दुकान में ही
पहुंचते हो। मंदिरों
का सवाल नहीं,
तुम्हारा
सवाल है। अंततः
तुम्हीं
निर्णायक हो। तुम्हारी
जिंदगी तुमसे
निकलती है। जैसे
वृक्ष से
पत्ते निकलते
हैं, ऐसे
ही तुम्हारी
जिंदगी तुमसे
निकलती है।
यह
सूत्र
बहुमूल्य है।
दीघा
जागरतो रत्ति
'वह
जो जागता है, उसकी रात
लंबी हो जाती
है।'
दीव
संतस्स योजनं
और
लंबे हो जाते
हैं कोस थके—मांदे
व्यक्ति के, थके—हारे
व्यक्ति के।’
मैंने
सुना है, अमरीका
का एक बहुत
बड़ा विचारक, अपनी
वृद्धावस्था
में दुबारा
पेरिस देखने आया
अपनी पत्नी के
साथ। तीस साल
पहले भी वे आए
थे अपनी
सुहागरात
मनाने। फिर तीस
साल बाद जब
अवकाशप्राप्त
हो गया वह, नौकरी
से छुटकारा
हुआ, तो
फिर मन में
लगी रह गई थी, फिर पेरिस
देखने आया।
पेरिस
देखा, लेकिन
कुछ बात जंची
नहीं। वह जो
तीस साल पहले
पेरिस देखा था,
वह जो आभा
पेरिस को घेरे
थी तीस साल
पहले, वह
कहीं खो गई
मालूम पड़ती थी।
धूल जम गई थी। वह
स्वच्छता न थी,
वह सौंदर्य
न था, वह
पुलक न थी। पेरिस
बड़ा उदास लगा।
पेरिस थोड़ा
रोता हुआ लगा।
आंखें आंसुओ
से भरी थीं
पेरिस की। वह
थोड़ा हैरान
हुआ। उसने
अपनी पत्नी से
कहा, क्या
हुआ पेरिस को?
यह वह बात न
रही, जो
हमने तीस साल
पहले देखी थी।
वे रंगीनियां
कहां! वह
सौंदर्य कहां!
वह चहल—पहल
नहीं है। लोग
थके—हारे
दिखाई पड़ते
हैं। सब कुछ
एक अर्थ में
वैसा ही है, लेकिन धूल
जम गई मालूम
पड़ती है।
पत्नी
ने कहा, क्षमा
करें, हम
बूढ़े हो गए
हैं। पेरिस तो
वही है। तब हम
जवान थे, हममें
पुलक थी, हम
नाचते हुए आए
थे, सुहागरात
मनाने आए थे। तो
सारे पेरिस
में हमारी
सुहागरात फैल
गई थी। अब हम
थके—मांदे
जिंदगी से ऊबे
हुए मरने के
लिए तैयार—तो
हमारी मौत
पेरिस पर फैल
गई है। पेरिस
तो वही है।
उन
जोड़ों को
देखें, जो
सुहागरात
मनाने आए हैं।
उनके पैरों
में अपनी
स्मृतियों की पगध्वनियां
सुनाई पड़
सकेंगी। उनकी
आंखों से
झांकें, जो
सुहागरात
मनाने आए हैं;
उन्हें
पेरिस अभी
रंगा—रंग है। अभी
पेरिस किसी
अनूठी रोशनी
और आभा से भरा
है। अपनी आंखें
से मत
देखें, तीस
साल पहले
लौटें। तीस
साल पहले की
स्मृति को फिर
से जगाएं।
ठीक
कहा उस पत्नी ने।
पेरिस तो सदा
वही है, आदमी
बदल जाते हैं।
संसार तो वही
है। तुम्हारी
बदलाहट—और
संसार बदल
जाता है। संसार
तुम पर निर्भर
है। संसार
तुम्हारा
दृष्टिकोण है।
बुद्ध
यह सूत्र
क्यों कहते
हैं?
क्या
प्रयोजन है? प्रयोजन है
यह बताने का
कि तुम यह मत
सोचना कि संसार
ने तुम्हें
बांधा। तुम यह
मत सोचना कि
संसार ने
तुम्हें दुखी
किया। तुम यह
मत सोचना कि
संसार बहुत
बड़ा है, कैसे
पार पा सकूंगा?
लोग कहते
हैं, भवसागर
है, कैसे
पार पाएंगे?
बुद्ध
कहते हैं, यह
मत सोचना। संसार
अगर बड़ा है तो
तुम्हारे ही
कारण। संसार छोटा
हो जाता है, तुम्हारे ही
कारण। भवसागर
बन जाता है, अगर तुम सोए
हो। सिकुड़कर
दीन—हीन जल की
ग्रीष्म ऋतु
की रेखा रह
जाती है, अगर
तुम जागे हो। सोए
हो तो भवसागर
है, पार
करना मुश्किल।
तुम्हारी
तृष्णाएं ही
डुबाती हैं, संसार
नहीं।
तुम्हारे
तृष्णाओं के
तूफान ही
डुबाते हैं, संसार
नहीं।
तृष्णाएं
गयीं, होश आया,
संसार
सिकुड़ा। ऐसी
जलधार हो जाती
है, जैसे
गर्मी के
दिनों में सूख
गई नदी की
रेखा। ऐसे ही
उतर जाओ, नाव
की भी जरूरत
नहीं पड़ती। ऐसे
ही पैदल पार
कर जाओ, पंजा
ही मुश्किल से
डूबता है। और
अगर जरा ठीक
से खोजो, और
भी अगर होश से भर
जाओ, तो
जलधार बिलकुल
ही सूख जाती
है। नदी की
रेत ही रह
जाती है।
संसार
का संसार होना
तुम्हारी
कामना में छिपा
है। संसार
तुम्हारा
प्रक्षेपण है।
इसलिए संसार
को दोष मत
देना; न संसार
के ऊपर
उत्तरदायित्व
थोपना। स्मरण
करना इस बात
का:
'जागने
वाले को रात
लंबी होती है।’
रात
वही है, लेकिन
तुम जब सोए थे
तो रात छोटी
थी। तुम्हें
पता ही न था, रात कब गुजर
गई। तो
तुम्हारे
मनोभावों पर
निर्भर है रात
का लंबा या
छोटा होना।
'थके
हुए के लिए
योजन लंबा
होता है।’
तुम्हारी
थकान से कोस
बड़े हो जाते
हैं। निराशा
से कोस बड़े हो
जाते हैं। फिर
आशा जग जाए, फिर
कोस छोटे हो
जाते हैं; फिर
आशा का एक नया
पल्लव फूट। पड़े,
फिर यात्रा
छोटी हो जाती
है।
'वैसे
ही सदधर्म को
न जानने वाले
मूढ़ों के लिए संसार
बड़ा होता है।’
सदधर्म
क्या है? उसे
जानना क्या है?
बुद्ध
की धर्म की
परिभाषा समझ लेनी
चाहिए। हिंदू
धर्म को बुद्ध
धर्म नहीं
कहते हैं; न
यहूदी धर्म को
बुद्ध धर्म
कहते हैं। धर्मों
को बुद्ध धर्म
कहते ही नहीं।
मजहब से बुद्ध
के धर्म का
कोई लेना—देना
नहीं।
धर्म
से बुद्ध का
अर्थ है जीवन
का शाश्वत
नियम, जीवन का
सनातन नियम। इससे
हिंदू
मुसलमान, ईसाई
का कुछ लेना—देना
नहीं। इससे
मजहबों के
झगड़े का कोई
संबंध नहीं है।
यह तो जीवन की
बुनियाद में
जो नियम काम
कर रहा है, एस
धम्मो सनंतनो;
वह जो
शाश्वत नियम
है, बुद्ध
उसकी ही बात
करते हैं।
और
जब बुद्ध कहते
हैं. धर्म की
शरण जाओ, तो वे
यह नहीं कहते
कि किसी धर्म
की शरण जाओ। बुद्ध
कहते हैं, धर्म
को खोजो कि
जीवन का
शाश्वत नियम
क्या है’ उस
नियम की शरण
जाओ। उस नियम
से विपरीत मत
चलो, अन्यथा
तुम दुख पाओगे।
ऐसा नहीं है
कि कोई
परमात्मा
कहीं बैठा है
और तुम जब—जब
भूल करते हो
तब—तब तुम्हें
दुख देता है; और जब—जब तुम
पाप करते हो
तब—तब तुम्हें
दंड देता है। कहीं
कोई परमात्मा
नहीं है। बुद्ध
के लिए संसार
एक नियम है। अस्तित्व
एक नियम है। तुम
जब उससे
विपरीत जाते
हो, विपरीत
जाने के कारण
कष्ट पाते हो।
गुरुत्वाकर्षण
है जमीन में। तुम
शराब पीकर
उलटे—सीधे
डावाडोल चलो, गिर
पड़ो, घुटना
फूट जाए, हड्डी
टूट जाए, तो
कुछ ऐसा नहीं
है कि
परमात्मा ने
शराब पीने का
दंड दिया। बुद्ध
के लिए ये
बातें बचकानी
हैं। बुद्ध
कहते हैं, परमात्मा
कहा बैठा है
किसी को शराब
पीने के लिए
दंड देने को, शराबी खुद
ही डगमगाया। शराब
ने ही दंड
दिया। शराब ही
दंड बन गई।
गुरुत्वाकर्षण
का नियम—कि
तुम अगर
डावाडोल हुए
उलटे—सीधे
गिरे, हड्डी—पसली
टूट जाएगी। सम्हलकर
चलो। गुरुत्वाकर्षण
का नियम काम
कर रहा है, उससे
विपरीत मत चलो।
उसके साथ हो
लो। उसके हाथ
में हाथ डाल
लो, फिर
तुम्हारी
हड्डियां न
टूटेंगी। फिर
तुम गिरोगे न।
गुरुत्वाकर्षण
का नियम ही
तुम्हें
सम्हाल लेगा।
ऐसा
समझो कि जो
नियम के साथ
चलते हैं, उनको
नियम सम्हाल
लेता है। और
जो नियम के
विपरीत जाते
हैं, वे
अपने ही हाथ
से गिर पड़ते
हैं।
जीवन
का कौन सा
नियम शाश्वत
है?
जीवन का कौन
सा नियम सबसे
गहरा है? तुम्हारे
भीतर जो चैतन्य
है, सभी
कुछ उस चैतन्य
के प्रति
सापेक्ष है। सभी
कुछ उसी
चैतन्य से
निर्भर होता
है। सभी कुछ
तुम्हारी
दृष्टि का खेल
है। यह नियम
सबसे ज्यादा
गहरा है।
राह
से तुम चलते
हो,
कंकड़ पड़ा
दिखाई पड़ जाता
है। सूरज की
सुबह की रोशनी
में ऐसे चमकता
है, जैसे
हीरा हो। दौड़कर
तुम उठा लेते
हो। कंकड़ ने
नहीं दौड़ाया,
हीरा भी
नहीं दौड़ा
सकता; तुम्हारी
वासना फैली। तुम्हारी
वासना ने धोखा
खाया। तुम्हारी
वासना रंगीन
पत्थर पर टिक
गई। तुम्हारे
भीतर
सुगबुगाहट
उठी। तुम्हारे
भीतर वासना
में पल्लव आए,
सपने जगे, कि हीरा!
लाखों—करोड़ों
का क्षणभर में
हिसाब हो गया।
दौड़ पड़े। पता
भी न चला, कब
दौड़े।
हीरे
ने नहीं
दौड़ाया। हीरा
तो वहा है ही
नहीं, दौड़ाएगा
क्या! पास
पहुंचे, हाथ
में उठाया, सूरज की
रोशनी का जाल
टूट गया। पाया
कंकड़ है, वापस
फेंक दिया। शिथिल
अपने रास्ते
पर चल पड़े। उदास
हो गए। विषाद
हुआ, हार
हुई, अपेक्षा
टूटी। कंकड़ ने
दुख दिया? कंकड़
बेचारा क्या
दुख देगा!
कंकड़ को तो
पता ही न चला
कि तुम क्यों
दौड़े? तुम
क्यों पास आए?
तुम क्यों
प्रफुल्लित
दिखाई पड़े? तुम क्यों
अचानक उदास
हुए? कंकड़
को कुछ पता ही
न चला। सब खेल
तुम्हारा था। दौड़े
वासना से भरे,
ठिठके, झुके,
उदास हुए, फिर अपनी
राह पर चल पड़े।
भर्तृहरि
ने घुर छोड़ा। देख
लिया सब। खूब
देखकर छोड़ा। बहुत
कम लोग इतने
पककर छोड़े
संसार को, जैसा
भर्तृहरि ने
छोड़ा। अनूठा
आदमी रहा होगा
भर्तृहरि। खूब
भोगा। ठीक—ठीक
उपनिषद के
सूत्र को पूरा
किया : तेन
त्यक्तेन
भुजीथा:। खूब
भोगा। एक—एक
बूंद निचोड़ ली
संसार की। लेकिन
तब पाया कि
कुछ भी नहीं
है; अपने
ही सपने हैं, शून्य में
भटकना है।
भोगने
के दिनों में
श्रृंगार पर
अनूठा शास्त्र
लिखा, श्रृंगार—शतक।
कोई मुकाबला
नहीं। बहुत
लोगों ने
श्रृंगार की
बातें लिखी
हैं, पर
भर्तृहरि जैसा
स्वाद किसी ने
श्रृंगार का
कभी लिया ही
नहीं। भोग के
अनुभव से
श्रृंगार के
शास्त्र का
जन्म हुआ। यह
कोई कोरे
विचारक की
बकवास न थी, एक
अनुभोक्ता की
अनुभव—सिद्ध
वाणी थी। श्रृंगार—शतक
बहुमूल्य है। संसार
का सब सार
उसमें है।
लेकिन
फिर आखिर में
पाया, वह भी
व्यर्थ हुआ। छोड़कर
जंगल
चले गए। फिर
वैराग्य—शतक
लिखा, फिर
वैराग्य का
शास्त्र लिखा।
उसका भी कोई
मुकाबला नहीं
है। भोग को
जाना तो भोग
की पूरी बात
की, फिर
वैराग्य को
जाना तो
वैराग्य की
पूरी बात की।
जंगल
में एक दिन
बैठे हैं। अचानक
आवाज आई। दो
घुड़सवार
भागते हुए चले
आ रहे हैं
दोनों दिशाओं
से। चट्टान पर
बैठे हैं, छोटी
सी पगडंडी है।
घोड़ों की आवाज
से आंख खुल गई।
आंख बंद किए
बैठे थे। आंख
खुली तो सूरज
की रोशनी में
सामने ही पड़ा
एक बहुमूल्य
हीरा देखा। बहुत
हीरे देखे थे,
बहुत हीरों
के मालिक रहे
थे, पर ऐसा
हीरा खुद भी
नहीं देखा था।
एक क्षण में
छलांग लग गई। एक
क्षण में मन
ने वासना जगा
ली। एक क्षण
में मन भूल
गया वैराग्य। एक
क्षण में मन
भूल गया वे
सारे अनुभव
विषाद के। वह
सारा अनुभव
भोग का। वह
तिक्तता, वह
कडुवाहट, वह
तल्खी जो मन
में छूट गई थी
भोग से! सब भूल
गया। एक क्षण
में वासना उठ
गई। एक क्षण
को ऐसा लगा कि
उठे—उठे—और
उसी क्षण खयाल
भी आ गया, अरे
पागल! सब छोड़कर
आया, व्यर्थता
जानकर आया, फिर भी कुछ
शेष बचा मालूम
पड़ता है। अभी
भी उठाने का
मन है?
बैठ
गए। किसी को
भी पता न चला। कानों—कान
खबर न हुई। यह
तो भीतर की
बात थी। कोई
बाहर से देखता
भी होता तो
पता न चलता। क्योंकि
यह तो भीतर ही
वासना उठी, भीतर
ही बैठ गई। संसार
उठा और गया। एक
क्रांति घट गई।
एक इंकलाब हो
गया।
और
तभी वे दोनों
घुड़सवार आकर
खड़े हो गए। दोनों
ने अपनी
तलवारें हीरे
के पास रोक
दीं। और दोनों
ने कहा, पहले
मेरी नजर पड़ी
है। कोई
निर्णय तो हो
न सकता था। तलवारें
खिंच गयीं। क्षणभर
में दो लाशें
पड़ी थीं—तड़फती!
लहूलुहान!
हीरा अपनी जगह
पड़ा था। सूरज
की किरणें अब
भी चमकती थीं।
हीरे को तो
पता भी न चला
होगा कि क्या—क्या
हो गया!
सब
कुछ हो गया
वहा। एक आदमी
का संसार उठा
और वैराग्य हो
गया। एक आदमी
का संसार उठा
और मौत हो गई। दो
आदमी अभी—अभी
जीवित थे, अभी—अभी
श्वास चलती थी,
खो गई। प्राण
गंवा दिए
पत्थर पर। और
एक आदमी वहीं
बैठा जीवन के
सारे अनुभवों
से गुजर गया—भोग
के और वैराग्य
के; और
सबके पार हो
गया, साक्षीभाव
जग गया।
भर्तृहरि
ने आंख बंद कर
ली। वे फिर
ध्यान में डूब
गए।
जीवन
का सबसे गहरा
सत्य क्या है? तुम्हारा
चैतन्य। सारा
खेल वहां है। सारे
खेल की जड़ें
वहां हैं। सारे
संसार के
सूत्र वहां
हैं।
तो
बुद्ध कहते
हैं,’
जिसने
सदधर्म को न
जाना उन को के
लिए संसार बहुत
बड़ा है। भवसागर
अपार है। पार
करना असंभव है।’
बुद्ध
कहते हैं, नावें
मत खोजो। नावों
की कोई जरूरत
नहीं है। जागो!
सदधर्म में
जागो। भवसागर
सिकुड़ जाता है।
पैदल ही उतर
जाते हैं।
तुम्हें
अपना पता हो
जाए तो तुम
इतने बड़े हो कि
संसार बिलकुल
छोटा हो जाता
है। तुम्हारी
तुलना में ही संसार
का बड़ा होना
या छोटा होना
है। तुम्हारी
अपेक्षा में। तुम
बड़े छोटे हो
गए हो। तुम्हारे
छोटे होने के
कारण संसार
बड़ा दिखाई पड़ता
है। जागो, तो
तुम पाओ कि
तुम विराट हो।
तुम पाओ कि
तुम विशाल हो।
तुम पाओ कि
तुम अनंत और
असीम हो। संसार
छोटा हो जाता
है।
जिसने
अपने भीतर को
जाना, बाहर का
सब सिकुड़ जाता
है। और जो
बाहर— बाहर ही
भटका, भीतर
सिकुड़ता जाता
है। और यह जो
बाहर की तरफ
जीने वाला
आदमी है, यह
जिंदगी तो
गवाता ही है, मरने के
आखिरी क्षण तक
भी इसे होश
नहीं आता। मौत
भी इसे जगा
नहीं पाती। मौत
भी तुम्हें
सावधान नहीं
कर पाती। मौत
भी तुम्हें
होश नहीं दे
पाती। और क्या
चाहते हो? जीवन
में सोए रहते
हो, समझ
में आता है; लेकिन मौत
का खयाल भी
तुम्हें
तिलमिलाता
नहीं? मौत
भी द्वार पर आ
जाती है तो भी
आदमी बाहर की
ही दौड़ में
लगा रहता है। सोचता
ही रहता है।
काबा
की तरफ दूर से
सिजदा कर लूं
या
दहर का आखिरी
नजारा कर लूं
मरते
वक्त भी, मरण—शथ्या
पर भी आदमी के
मन में यही
सवाल उठते रहते
हैं——
काबा
की तरफ दूर से
सिजदा कर लूं
या
दहर का आखिरी
नजारा कर लूं
मंदिर
को प्रणाम कर
लूं या इतनी
देर संसार को और
एक बार देख
लूं!
या
दहर का आखिरी
नजारा कर लूं
कुछ
देर की मेहमान
है जाती
दुनिया
एक
और गुनाह कर
लूं कि तोबा
कर लूं
जा
रही है दुनिया।
कुछ
देर की मेहमान
है जाती
दुनिया
जरा
और थोड़ा समय
हाथ में है।
एक
और गुनाह कर
लूं कि तोबा
कर लूं
पश्चात्ताप
में गवाऊं यह
समय कि एक पाप
और कर लूं!
यह
तुम्हारी कथा
है। यह
तुम्हारे मन
की कथा है। यही
तुम्हारी कथा
है,
यही
तुम्हारी
व्यथा भी। मरते
दम तक भी आदमी
भीतर देखने से
डरता है। सोचता
है, थोड़ा
समय और! थोड़ा
और रस ले लूं। थोड़ा
और दौड़ लूं।
इतना
दौड़कर भी
तुम्हें समझ
नहीं आती कि
कहीं पहुंचे नहीं।
इतने भटककर भी
तुम्हें खयाल
नहीं आता कि
बाहर सिवाय
भटकाव के कोई
मंजिल नहीं है।
जिन्हें
खयाल आ जाता
है,
मौत तक नहीं
रुकते। जिन्हें
खयाल आ जाता
है, जिस
क्षण खयाल आ
जाता है, उसी
क्षण उनके लिए
मौत घट गई। और
उसी दिन एक नए
जीवन का
आविर्भाव
होता है, एक
पुनर्जन्म
होता है। वह
पुनर्जन्म ही
सदधर्म है। उस
दिन से ही
भीतर की
यात्रा शुरू
होती है। उस
दिन से चेतना
के विस्तार
में जाना शुरू
होता है।
'विचरण
करते हुए अपने
से श्रेष्ठ या
अपने समान कोई
साथी न मिले
तो दृढ़ता के
साथ अकेला ही
विचरण करे। मूढ़
का साथ अच्छा
नहीं है।
'विचरण
करते हुए.......।
जिन्होंने
सदधर्म का
सूत्र पकड़ा, जो
अपने भीतर की
यात्रा पर चले,
उन्हें कुछ
बातें याद
रखनी जरूरी
हैं। पहली
'विचरण
करते हुए अपने
से श्रेष्ठ या
अपने समान कोई
साथी न मिले
तो दृढ़ता के
साथ अकेला ही
विचरण करे। मूढ़
का साथ अच्छा नहीं
है।'
क्यों? जिन्हें
भीतर जाना हो,
उन्हें
किसी ऐसे
व्यक्ति का
साथ नहीं
पकड़ना चाहिए,
जो अभी बाहर
जा रहा हो। क्योंकि
उसके कारण
तुम्हारे
जीवन में
द्वंद्व और
बेचैनी और
अड़चन आएगी। ऐसे
किसी व्यक्ति
का साथ नहीं
पकड़ना चाहिए
जो अभी भी
प्रायश्चित्त
करने को तैयार
नहीं, अभी
भी पाप की
योजना बना रहा
है। एक और गुनाह
कर
लूं कि तोबा
कर लूं
जो
अभी सोच रहा
है—
काबा
की तरफ दूर से
सिजदा कर लूं
या
दहर का आखिरी
नजारा कर लूं
उसके
साथ तुम्हारा
होना खतरे से
खाली नहीं। क्योंकि
उसके साथ होने
का एक ही
मार्ग है, या
तो वह तुम्हारे
साथ भीतर जाए,
या तुम उसके
साथ बाहर जाओ।
और बाहर जाने
वाले लोग बड़े
जिद्दी हैं। बाहर
जाने वाले लोग
बड़े हठी हैं। बाहर
जाने वाले लोग
चट्टानों की
तरह कड़े हैं। और
तुम अभी नए—नए
भीतर की तरफ
चले हो। तुम
अभी नए—नए
अंकुर हो, और
बाहर जाने
वाला कड़ी
चट्टान है।
यह
संग—साथ ठीक
नहीं। यह
खतरनाक है। डर
यही है कि
तुम्हारा
अंकुर टूट जाए
चट्टान न टूटे।
डर यही है कि
तुम तो उसे
भीतर न ले जा
पाओ,
वही
तुम्हें बाहर
ले जाए।
तो
बुद्ध कहते
हैं,
संग ही करना
हो तो सत्संग
करना। अगर
धर्म की
यात्रा पर जाना
हो तो उनके
साथ होना, जो
धर्म की
यात्रा पर कम
से कम
तुम्हारे
जितने तो भीतर
हों ही। अगर
कोई आगे गया
मिल जाए तो
सौभाग्य!
लेकिन अपने से
ज्यादा मूढ़
व्यक्तियों
का साथ मत
करना। मूढ़ता
बड़ी वजनी है, तुम्हें
डुबा लेगी। तुम
उसे उबारने के
खयाल में मत
पड़ना। तुम उसे
उबार सकोगे
तभी, जब
तुम अपने
केंद्र पर
पहुंच गए; जब
तुम्हारी
यात्रा सफल
हुई; जब
तुम्हारे
भीतर कोई
संदेह न रहा।
शुरू—शुरू
में तो बड़े
संदेह होते
हैं,
जो
स्वाभाविक है।
जो आदमी भी
भीतर की तरफ
जाना शुरू
करता है, हजार
संदेह पकड़ते
हैं। क्योंकि
सारा संसार
बाहर जा रहा
है। तुम अकेले
निकलते हो एक
पगडंडी पर। राजपथ
से उतरते हो। हजार
डर घेर लेते
हैं। अंधेरा
मार्ग! मील के
कोई निशान—नहीं।
नक्शा कोई साथ
नहीं। पहुंचोगे
या भटकोगे?
राजपथ
पर पहुंचो या
न पहुंचो, नक्शा
साफ है। मील
के किनारे
पत्थर के
निशान लगे हैं।
हर मील पर
हिसाब है। कहीं
पहुंचता नहीं
यह रास्ता, लेकिन
बिलकुल साफ—सुथरा
है, कंटकाकीर्ण
नहीं है। और
फिर हजारों—करोड़ों
की भीड़ है। उस
भीड़ में भरोसा
रहता है। इतने
लोग जाते हैं
तो ठीक ही
जाते होंगे। इतने
लोग भूल तो न
करेंगे!
यही
तो तर्क हैं
तुम्हारे। भीड़
का तर्क है। वह
तर्क यह है कि
इतने लोग भूल
तो न करेंगे। इतने
लोग नासमझ तो
न होंगे। एक
तुम्हीं
समझदार हो, करोड़ों—करोड़ों
जन, जो
राजपथ पर चल
रहे हैं और
सदा से चल रहे
हैं, जिनकी
भीड़ कभी चुकती
नहीं, एक
गिरता है तो
दूसरा आ जाता
है और
सम्मिलित हो
जाता है, भीड़
बढ़ती ही चली
जाती है, जरूर
कहीं जाते
होंगे, अन्यथा
इतने लोगों को
कौन धोखे में
रखेगा?
अकेला
आदमी जब चलना
शुरू करता है
तो पैर डगमगाते
हैं। संदेह, शंकाओं
का तूफान उठ
आता है। आंधियां
घेर लेती हैं
अकेले आदमी को।
वह जो भीड़ का
संग—साथ था, वह जो भीड़ का
आसरा था, सुरक्षा
थी, सांत्वना
थी, राहत
थी, साया
था, सब छूट
जाता है। अकेले
हैं। अकेले
तुम्हारे
भीतर जो—जो
दबा रखा था
तुमने, सब
प्रकट होने
लगता है। पत्ते
हिलते हैं तो
भय लगता है। हवा
चलती है तो भय
लगता है। भीड़
में भरोसा था।
इतने लोग साथ
थे, भय
कैसा!
तुमने
देखा? रास्ता
निर्जन हो तो
डर लगता है। भीड़—भाड़
हो तो डर नहीं
लगता। हालांकि
लुटेरे सब भीड़—भाड़
में हैं। निर्जन
में लुटेरा भी
नहीं। रोशनी
हो तो डर नहीं
लगता, अंधेरे
में डर लगता
है। क्यों? अंधेरे में
तुम एकदम
अकेले हो जाते
हो। कोई दूसरा
हो भी तो
दिखाई नहीं
पड़ता। तुम
बिलकुल अकेले
हो जाते हो।
मैं
एक घर में मेहमान
था। उस घर में
एक छोटा बच्चा
था। वह बड़ा
भयभीत था भूत—प्रेतों
से। तो घर के
लोग उसे मेरे
पास ले आए। उन्होंने
कहा,
कुछ इसको
समझाएं। इसको
न मालूम कहां
से यह भय पकड़
गया है। तो घर
का जो पाखाना
था, वह आंगन
के पार था। वहा
इसको अगर जाना
पड़ता है तो
किसी को साथ
ले जाना पड़ता
है रात। वह
बाहर खड़ा रहे
तो ही यह अंदर
रहता है, नहीं
तो यह बाहर
निकल आता है।
तो
मैंने उसको
कहा कि अगर
तुझे अंधेरे
से डर लगता है, तो
दिन में तो डर
नहीं लगता; उसने कहा, दिन में
बिलकुल नहीं
लगता। तो
मैंने कहा, तू लालटेन
लेकर चला जाया
कर।
उसने
कहा,
क्षमा करिए!
अंधेरे में तो
किसी तरह मैं
उन भूत—प्रेतों
से बचकर निकल
भी आता हूं। और
लालटेन में तो
वे मुझे देख
ही लेंगे।
मुझे
उसकी बात जंची।
अंधेरे में तो
किसी तरह धोखा—धड़ी
देकर, यहां—वहां
से भागकर वह
निकल ही आता
है। लालटेन
में तो और
मुसीबत हो जाएगी।
खयाल करना, उजाले में
ज्यादा डर हो
सकता है, क्योंकि
दूसरा भी
तुम्हें देख
रहा है। अंधेरे
में क्या डर
है र न तुम
दूसरे को
देखते हो, न
दूसरा
तुम्हें
देखता है।
उस
भयभीत बच्चे
का तर्क
महत्वपूर्ण
है। लेकिन
अंधेरे में डर
लगता है। डर
का कारण यह
नहीं है कि
कोई तुम्हें
नुकसान
पहुंचा देगा। डर
का कारण
बुनियादी यही
है कि तुम
अकेले हो गए। जहां
भी तुम अकेले
हो जाते हो, वहां
घबड़ाहट पकड़ने
लगती है। तुम्हारे
सब सोए भय
उठने लगते हैं,
जो दूसरों
की मौजूदगी
में दबे रहते
हैं। दूसरों
की मौजूदगी
में आदमी अपनी
दृढ़ता बनाए रखता
है। एकांत में
सब भय उभरने
लगते हैं।
तो
भीड़ से हटकर
चलना कठिन है।
मन होगा कि
किसी का साथ
पकड़ लें। बुद्ध
कहते हैं, साथ
पकड़ना ही हो
तो या तो अपने
से श्रेष्ठ का
पकड़ना जो
तुमसे आगे गया
हो जो तुमसे
ज्यादा भीतर
गया हो, कि
उसके साथ उसकी
लहर पर सवार
होकर तुम भी
भीतर की
यात्रा पर
पहुंचने में
सुगमता पाओ। अगर
यह न हो, अगर
कोई सदगुरु न
मिले, आगे
गया हुआ
व्यक्ति न
मिले, तो
कम से कम ऐसे
का साथ पकड़ना,
जो कम से कम
उतना तो जा ही
रहा हो, जितना
तुम गए हो। अगर
आगे ले जाने
में साथी न
बने, तो कम
से कम पीछे ले
जाने का कारण
न बने। और अगर
यह भी न हो सके—क्योंकि
यह भी बहुत
मुश्किल है—तो
अकेले ही
विचरना। मूढ़
का साथ अच्छा
नहीं।
और
एक बात स्मरण
रखना, अकेले
ही तुम आए हो, अकेले ही
तुम जाओगे। सब
संग—साथ मन को
समझाने की
बातें हैं। इसलिए
अकेले होने की
कला तो सीखनी
ही पड़ेगी।
और
यह भी खयाल
रखने की बात
है कि जितना
आदमी अपने भीतर
गया होगा, उसके
साथ तुम उतना
ही साथ भी
पाओगे और अपने
को अकेला भी
पाओगे। भीड़
पैदा होती है
बहिर्मुखी
व्यक्तियों
से। अंतर्मुखी
व्यक्तियों
से भीड़ पैदा
नहीं होती। यह
बड़ा चमत्कार
है।
अगर
एक कमरे में
दस अंतर्मुखी
व्यक्ति बैठे
हों,
तो दस
व्यक्ति नहीं
बैठे हैं;
बाल—लक्षण
एक—एक व्यक्ति
बैठा है। अंतर्मुखी
व्यक्ति अपने
भीतर हैं, बाहर
कोई सेतु नहीं
बनाते। अगर दस
बहिर्मुखी
व्यक्ति बैठे
हों तो दस नहीं
बैठे हैं, भीड़
दस हजार की है।
क्योंकि
प्रत्येक
व्यक्ति बाकी
दस से जुड़ रहा
है। और हजार
तरह के संबंध
पैदा हो रहे
हैं। अंतर्मुखी
व्यक्ति अगर
साथ भी होते
हैं तो एक—दूसरे
को अकेला
छोड़ते हैं।
जिसके
साथ होकर भी
तुम अकेले रह
सको,
वही साथ
करने योग्य है।
जिसके साथ
होकर भी
तुम्हारा
अकेलापन
दूषित न हो, जिसके साथ
होकर भी
तुम्हारे
अकेलेपन का
व्यभिचार न हो,
तुम्हारा
कुंआरापन
कायम रहे; तुम्हारी
तन्हाई, तुम्हारा
स्वात शुद्ध
रहे; जो
अकारण
तुम्हारी
तन्हाई में
प्रवेश न करे,
जो
तुम्हारी
सीमाओं का आदर
करे; जो
तुम्हारे एकांत
को व्यर्थ ही
नष्ट— भ्रष्ट
न करे, जो
आक्रामक न हो;
तुम जब
बुलाओ तो पास
आए, उतना
ही पास आए
जितना तुम
बुलाओ; तुम
जब अपने भीतर
जाओ तो
तुम्हें
अकेला छोड़ दे।
बुद्ध
ने भिक्षुओं
का बड़ा संघ
खड़ा किया। बुद्ध
के भिक्षुओं
के संघ की
परिभाषा यही
है : ऐसे लोगों
का संग—साथ, जो
संग होते भी
संग नहीं होते;
जिनका
अकेलापन कायम
रहता है। क्योंकि
अंतर्मुखी
व्यक्ति जो
अपने भीतर जा
रहे हैं, वे
दूसरे से
संबंध नहीं
बनाते।
दस
हजार भिक्षु
बुद्ध के साथ
चलते थे। बड़ी
भीड़ थी। एक
पूरा गांव था।
लेकिन ऐसा
सन्नाटा छाया
रहता था, जैसे
बुद्ध अकेले
चलते हों। दस
हजार लोग चलते
थे, अकेले—अकेले
चलते थे। दस
हजार लोग साथ—साथ
नहीं चलते थे।
अपने—अपने
भीतर जा रहे
हैं। अपनी—अपनी
मस्ती में हैं।
दूसरे से सेतु
नहीं बनाते
हैं। दूसरे से
संबंध
नाममात्र का
है। इतना ही
संबंध है कि
दोनों ही एक
ही अंतर्यात्रा
पर जा रहे हैं।
लेकिन
अंतर्यात्रा
का मार्ग
राजपथ जैसा
नहीं है, पगडंडियों
जैसा है। और
हर व्यक्ति को
अपने भीतर की
पगडंडी अपनी
ही खोजनी पड़ती
है।
यह
हुजूमे—गम
है महदूदे—हुदूदे—जिंदगी
आदमी
आया है तनहा
और तनहा जाएगा
जिंदगी
तो दुखों की
एक भीड़ है; दुखों
का एक समूह है।
और जितने तुम
समूह में
बंधते हो, उतने
तुम इस दुखों
के समूह में
ही बंधते हो। और
एक बात भूलती
चली जाती है
कि तुम अकेले
आए हो और
अकेले जाओगे।
काश!
तुम अकेलेपन
को यहां भी
पवित्र रख सको, तो
तुम संन्यस्त
हो। संन्यासी
वह नहीं है, जो जंगल के
स्वात में चला
गया। संन्यासी
वह है, जिसने
भीड़ में अपने
एकांत को पा
लिया। जो साथ
होकर भी साथ
नहीं। जो साथ
होकर भी दूर—दूर
है। जो पास
होकर भी दूर—दूर
है। वह अपने
में है, तुम
अपने में हो। तो
ऐसे मित्र
खोजना, जो
तुम्हें बाहर
न खींचें।
इसलिए
बुद्ध कहते
हैं,
'मूढ़ का साथ
अच्छा नहीं। '
मूढ़
का मतलब ही है, बाहर
जाता हुआ आदमी।
अमूढ़ का अर्थ
है, भीतर
जाता हुआ आदमी।
मूढ़ का अर्थ
है, वस्तुओं
के प्रति जाता
हुआ आदमी। अमूढ़
का अर्थ है, चैतन्य के
प्रति जाता
हुआ आदमी। मूढ़ता
का अर्थ है, मूर्च्छा। अमूढ़ता
का अर्थ है, अमूर्च्छा,
जागरण, अवेयरनेस।
पुत्र
मेरे हैं, धन
मेरा है, इस
प्रकार मूढ़ चिंतारत
होता है। परंतु
मनुष्य जब
अपना आप नहीं
है, तब
पुत्र और धन
अपने कैसे
होंगे?
अता
ही अत्तनो
नत्थि।
'अपने
भी हम अपने
नहीं हैं।
कुतो
पुतो कुतो धनी
'तो
धन और पुत्र
तो हमारे कैसे
होंगे,
हम
ही अपने नहीं
हैं। हम ही
अपने से पराए
हैं। इसे थोड़ा
समझें।
मूढ़
का अर्थ है, जो
कहता है, पुत्र
मेरे हैं, धन
मेरा है। वस्तुओं
की तरफ, संबंधों
की तरफ
तृष्णातुर
भागती चेतना
का नाम मूढ़ता
है। वस्तुएं
मेरी हैं। जो
अपने होने के
बोध को
वस्तुओं के
संग्रह से बढ़ाता
है। इतनी
वस्तुएं मेरी
हैं, इतना
बड़ा राज्य
मेरा है, इतना
धन मेरे पास
है, इतने
मेरे पुत्र
हैं, इतने
मेरे संबंधी
हैं, इतने
मेरे मित्र
हैं—जो इस
भाति अपने को
फैलाता है।
यह
फैलाव ही
संसार है। जितनी
बड़ी यह फैलाव
की व्यवस्था
हो जाती है, उतना
ही जो अकड़कर
चलता है कि
मैं बड़ा हूं। वस्तुओं
के सहारे जो
बड़ा होने की
सोच रहा है। सीढ़ियों
पर चढ़कर जो
सोचता है, हम
ऊंचे हो
जाएंगे। काश,
बात इतनी
आसान होती!
तुमने
छोटे बच्चों
को देखा होगा।
बाप बैठा हो
तो कुर्सी के
पास स्टूल
रखकर खड़े हो
जाते हैं। वे
कहते हैं, देखो,
मैं तुमसे
बड़ा हूं।
सीढ़ियों
पर चढ़कर जो
सोचता हो कि
हम ऊंचे हो जाएंगे।
सीढ़ियों पर चढ़कर
शरीर ऊपर
पहुंच जाएगा, लेकिन
तुम्हारी
ऊंचाई तो भीतर
की वही की वही
रहेगी। तुम जो
थे, वही के
वही रहोगे। क्या
फर्क पड़ेगा?
आदमी
को चांद पर
पहुँचा दो, आदमी—आदमी
ही रहेगा। यही
बीमारियां!
यही उपद्रव!
आदमी को चांद
पर बसा दो; आदमी
ऐसे ही युद्ध
करेगा, ऐसी
ही हिंसा! यही
खून और खराबी!
यही उत्पात!
कोई फर्क न
पड़ेगा। चांद
की ऊंचाई से
आदमी में थोड़े
ही ऊंचाई आती है!
आदमी
तो एक ही
ऊंचाई से ऊंचा
होता है—वह
चैतन्य की
ऊंचाई है; वह
चैतन्य का
ऊर्ध्वगमन है।
सीढ़ियां चढ़ने
से नहीं, आत्मा
चढ़ने से। बाहर
के सोपानों पर
यात्रा करने
से नहीं, भीतर
के सोपानों पर
यात्रा करने
से।
एक
तो गौरीशंकर
बाहर है, उस पर
तुम चढ़ जाना। तेनसिह
चढ़ा, और
चढ़े लोग, हिलेरी
चढ़ा। इससे कोई
मनुष्यता की
ऊंचाई थोड़े ही
आ जाती है! एक
गौरीशंकर
भीतर है। उसको
ही हम समाधि
का शिखर कहते
हैं। उसी को
हमने कैलाश
कहा है। उसी
शिखर पर शिव
का निवास है। उसी
शिखर पर
बुद्धों का
वास है।
कहना
चाहिए, तुम्हारी
प्रबुद्धता
में, तुम्हारे
रोज—रोज जागने
में एक घड़ी
ऐसी आती है कि
तुम्हारे भीतर
कोई भी सोया
हुआ कण नहीं
रह जाता। सब
जाग गया होता
है। सब रोशन!
एक भी कोना
तुम्हारे
अंतर का अंधकार
में भरा नहीं
रह जाता, दबा
नहीं रह जाता।
भीतर बस रोशनी
ही रोशनी हो
जाती है। तुम
नहाए हुए—भीतर
की सूरज की
रोशनी में!
तुम अपने शिखर
पर प्रतिष्ठित!
तुम कैलाश को
उपलब्ध!
सहस्रार
कहा है
योगियों ने
उसे। तुम्हारी
आखिरी ऊंचाई
चैतन्य की। कहो
परमात्मा, समाधि,
संबोधि, निर्वाण,
मोक्ष। अंतर
नहीं पड़ता
शब्दों से। लेकिन
भीतर की कुछ
सीढ़ियां चढ़नी
हैं।
मूढ़
वही है, जो
बाहर की
सीढ़ियां चढ़
रहा है; और
बाहर की
सीढ़ियों पर
भरोसा कर रहा
है; और
सोचता है, सीढ़ियों
पर चढ़कर मैं
चढ़ जाऊंगा। बाहर
धन इकट्ठा
करता है और
सोचता है, इससे
मेरी
निर्धनता मिट
जाएगी। निर्धनता
मिटती है जरूर,
पर भीतर का
धन खोजना पड़ता
है। भीतर है
निर्धनता, तो
भीतर के धन से
ही मिटेगी। बाहर
के धन से भीतर
की निर्धनता
कैसे मिटेगी?
साम्राज्य
बड़ा होता
जाएगा। तुम तो
जैसे थे, वैसे
ही रहोगे। भय
है कि कहीं और
न सिकुड़ जाओ। क्योंकि
साम्राज्य
बढ़ाने में
तुम्हें आत्मा
गंवानी पड़ेगी।
साम्राज्य
बड़ा करना हो
तो तुम्हें
चुकाना पड़ेगा
मूल्य अपनी
आत्मा के
कतरों से। तोड़—तोड़कर,
बाट—बांटकर
अपने को
मिटाना पड़ेगा।
'पुत्र
मेरे हैं, धन
मेरा है, इस
प्रकार मूढ़ चिंतारत
होता है।'
मूढ़
की सारी चिंता
यही है। अगर
मूढ़ की खोपड़ी
में उतरो तो
धन,
पद, पुत्र,
इनके
अतिरिक्त तुम
कुछ भी न
पाओगे। तुम
ऐसा कूड़ा—करकट
पाओगे कि मूढ़
की खोपड़ी, जैसे
म्युनिसपल का
कचरा—घर हो, जिसमें
जन्मों से कोई
सफाई नहीं हुई
है। वह तो
अच्छा है कि
खोपड़ी में
परमात्मा ने
खिड़कियां नहीं
बनायीं। नहीं
तो कोई
तुम्हारी
खोपड़ी में
झांक ले तो सब
रहस्य खुल
जाए!
तो
ऊपर हम
मुस्कुराए
चले जाते हैं।
ऊपर से हम
अपने को सुंदर
बना लेते हैं, मुस्कुराहटों
में ढांक लेते
हैं, फूलों
में सजा लेते
हैं।
इससे
क्या फायदा
रंगीन लबादों
के तले
रूह
जलती रहे, घुलती
रहे, पजमुर्दा
रहे
ओंठ
हंसते हों
दिखावे के
तबस्तुम के
लिए
दिल
गमे—जीस्त से
बोझिल रहे, आजुर्दा
रहे
इससे
क्या फायदा
रंगीन लबादों
के तले
खूब
रंगीन कपड़ों
में हम अपने
को छिपा लेते
हैं। शायद
दूसरों को
धोखा भी हो
जाता हो रंगीन
लबादों के
कारण, मखमली
लिबास के कारण।
इन रंग—बिरंगे
इंद्रधनुषी
वस्त्रों के
कारण शायद दूसरों
को धोखा भी हो
जाता हो—लेकिन
नहीं, दूसरों
को भी न होता
होगा। क्योंकि
वे भी तो यही
कर रहे हैं। उन्हें
भी तो
तुम्हारा
गणित मालूम है।
उनका भी तो
यही गणित है।
इससे
क्या फायदा
रंगीन लबादों
के तले
रूह
जलती रहे
किसे
धोखा दे रहे
हो,
धन इकट्ठा
होता जाता है,
भीतर
निर्धनता
खलती है, सालती
है। तुमने
अमीर आदमियों
में थोड़ा
झांककर देखा '
उनकी जलती
रूह देखी; तुम
वहां भीतर
छिपे हुए
भिखारी पाओगे।
भिखारियों— से
भी बदतर
भिखारी पाओगे।
क्योंकि भिखारी
की भिक्षा तो
उसके पात्र के
भर जाने से
पूरी हो जाती
है। फिर फिक्र
छोड़ देता है। फिर
रात पैर
फैलाकर सो
जाता है वृक्ष
के तले। अमीर
का भिखमंगापन
रात भी जारी
रहता है। उसके
सपनों में भी
छाया रहता है।
उसके सपनों
में भी वही धन
की दौड़ जारी
रहती है। भिक्षा—पात्र
हाथ में रहता
है। भिखारी के
भिक्षा—पात्र
की तो सीमा है।
कल की तो
चिंता नहीं। आज
रोटी मिल गई, बहुत! धनी के
भिक्षा—पात्र
कभी नहीं भरते।
इससे
क्या फायदा
रंगीन लबादों
के तले
रूह
जलती रहे, घुलती
रहे, पजमुर्दा
रहे
मुर्झाई
आत्मा को लेकर
अगर तुमने
बहुत फूल भी
अपने
चारों तरफ सजा
लिए
और
आत्मा
मुर्झाती गई, इससे
क्या फायदा!
ओंठ
हंसते हों
दिखावे के
तबस्सुम के
लिए
और
सिर्फ इसलिए
हंसते हों कि
लोगों को
तुम्हारी
मुस्कुराहट
का खयाल बना
रहे और भीतर आंसू
दबे हों—इससे
क्या फायदा!
ओंठ
हंसते हों
दिखावे के
तबस्सुम के
लिए
दिल
गमे—जीस्त से
बोझिल रहे..?
और
जिंदगी और
हृदय सिर्फ
दुख में दबा
रहे—आजुर्दा
रहे,
दुखी रहे। भीतर
नर्क हो और
बाहर तुमने
झूठे किस्से
और कहानियां
अपने संबंध
में फैला रखे
हों। नहीं, इससे कुछ भी
फायदा नहीं।
'पुत्र
मेरे हैं, धन
मेरा है, इस
प्रकार मूढ़ चिंतारत
होता है।'
ऐसे
वह लबादों के
संबंध में ही
सोचता रहता है।
रूह जलती रहती
है,
आत्मा सड़ती
रहती है। भीतर
नासूर बनते
जाते हैं। भीतर
आंसू इकट्ठे
होते जाते हैं।
और ऊपर से वह
झूठी
मुस्कुराहटों
का अभ्यास करता
चला जाता है। किसे
तुम धोखा देते
हो? तुम
अपनी ही जिंदगी
के साथ बड़ा
खेल करते हो!
किसी और को यह
धोखा नहीं, यह आत्मघात
है। यह
आत्महत्या है।
'परंतु
मनुष्य जब
अपना आप नहीं
है, तब
पुत्र और धन
अपने कैसे
होंगे'
अपने
आप भी! तुम
थोड़ा सोचो, अपने
नहीं हो। मौत
आ जाएगी, क्या
करोगे? मौत
ले जाएगी, क्या
करोगे? अपने
आप भी तो हम
अपने मालिक
नहीं!
लाई
हयात आए कजा
ले चली चले
जन्म
हो गया, ठीक। मौत
आ गई, ठीक। अपने
भी तो हम
मालिक नहीं
हैं। इस
स्थिति में
तुम और किसके
मालिक होने के
पागलपन में
पड़े हो? पति
सोचता है, पत्नी
का मालिक है। पति
शब्द का मतलब
ही मालिक होता
है। अपने तुम
मालिक नहीं, किसके पति
होने के
पागलपन में
पड़े हो?
कल
एक मित्र ने
संन्यास लिया
और पूछा कि
मैं संन्यासियों
को स्वामी
क्यों कहता
हूं?
याद
दिलाने को कि
जब तक तुम
अपने स्वामी
नहीं, तब तक
किसी और चीज
के स्वामी
होने के
पागलपन में मत
पड़ना।
दुनिया
में दो ही तरह
के लोग हैं। एक, जो
अपने मालिक
हैं—संन्यस्त।
जो अपनी
मालकियत की
खोज में हैं
कम से कम—संन्यस्त।
जिन्हें कम से
वाम यह समझ
में आ गया कि
और कोई मालकियत
काम की नहीं। सब
मालकियत धोखे
की है। चीखते
रहो, चिल्लाते
रहो, मेरा
मकान है; मकान
यहीं पड़ा रह
जाता है, तुम
चले जाते हो।
सब
ठाठ पड़ा रह
जाएगा
जब
लाद चलेगा
बंजारा
जो
तुम्हारा
नहीं है, वह
तुम्हारे साथ
न जा सकेगा। वही
तुम्हारे साथ
जाएगा, जौ
तुम्हारा है। उसको
ही खोज लो, जिसके
तुम वस्तुत:
मालिक हो। उसी
को बुद्ध
सदधर्म कहते
हैं। वही जीवन
का परम अनुभव खोज
लो, जो
तुम्हारा है
और बस
तुम्हारा है;
और सदा
तुम्हारा
होगा।
'मनुष्य जब
अपना आप नहीं
है...।'
अता ही
अत्तनो नत्थि।
अपने ही
अपने नहीं हैं
हम। अब किसके
और दावेदार
बनें?
छू
दूसरों पर
दावे करता है।
जिसे मूढ़ता
तोड़नी हो, उसे
एक ही दावा
खोजना चाहिए—अपने
पर।
हर
नफस है निशात
से लबरेज
तर्क
जिस दिन से
इख्तियार में
है
हर नफस है
निशात से
लबरेज
हर श्वास
सुख—चैन से भर
गई है।
हर नफस है
निशात से
लबरेज
तर्क जिस
दिन से
इख्तियार में
है
जिस दिन से
भोग की
व्यर्थता
दिखी, त्याग
की सार्थकता
समझ में आई; जिस दिन से
त्याग की
सार्थकता समझ
में आई, उसी
दिन से श्वास
एक सुख—चैन से
भर गई है।
मुझे तो याद
नहीं है कोई
खुशी ऐसी
शरीक जिसमें
किसी तरह का
मलाल न था
जिंदगी
तुम्हें जो
खुशियां देती
है, अगर
गौर से देखोगे,
तुम ऐसी कोई
खुशी न पाओगे,
जिसमें
किसी तरह का
दुख सम्मिलित
न हो।
मुझे तो याद
नहीं है कोई
खुशी ऐसी
शरीक जिसमें
किसी तरह का
मलाल न था
और ऐसी खुशी
भी क्या खुशी,
जिसमें दुख
सम्मिलित हो!
ऐसा अमृत क्या
अमृत, जिसमें
जहर सम्मिलित
हो! ऐसी
जिंदगी भी
क्या जिंदगी,
जिसमें मौत
सम्मिलित हो!
पर
एक ऐसी खुशी
है,
जो बुद्ध
पुरुषों ने
जानी, जहां
श्वास—श्वास
एक परम आनंद
से भर जाती है,
एक निगूढ़
आनंद से भर
जाती है। लेकिन
वह तभी, जब
त्याग का अर्थ
समझ में आ जाए।
भोगी है, वह
इकट्ठा करने
में लगा है। त्यागी
वह है, जिसे
यह समझ में आ
गया कि अपने
ही होना है; अपनी ही
मालकियत
खोजनी है। दूसरे
की मालकियत की
खोज भोग है। अपनी
मालकियत की
खोज त्याग है।
'पुत्र मेरे
हैं, धन
मेरा है, इस
प्रकार मूढ़ चिंतारत
होता है। परंतु
मनुष्य जब
अपना आप नहीं,
तब पुत्र और
धन अपने कैसे
होंगे?'
उस आदमी का
साथ मत करना, जो करना है; उससे बचना। मूढ़ता
छूत की बीमारी
है। भाग खड़े
होना मूढ़ से। अकेले
होना बेहतर। बुद्ध
कहते हैं, अकेले
होना बेहतर ' अकेले ही चल
लेना। छू का
संग—साथ मत
खोजना; अन्यथा
गर्दन में
चट्टान की तरह
पड़ जाती है मूढ़ता।
अपनी ही मूढ़ता
डुबाने को
काफी है और
दूसरे की मूढ़ता
का संग—साथ मत
कर लेना।
ठीक
उलटी घटना
घटती है, जब
तुम किसी ऐसे
साथी को खोज
लेते हो, जो
मुढ़ नहीं है।
उसका संग—साथ
नाव जैसा हो
जाता है। उसके
सहारे तुम दूर
तक पार हो
सकते हो।
'जो
मूढ़ अपनी
मूढ़ता को
समझता है, वह
इस कारण ही
पंडित है।'
पंडित
की बड़ी सीधी
व्याख्या
बुद्ध कर रहे हैं—
'जो
मूढ़ अपनी
मूढ़ता को
समझता है, वह
इस कारण ही
पंडित है।'
जिसने
जान लिया कि
मैं मूढ़ हूं
उसके पांडित्य
का प्रारंभ
हुआ। जिसने
जाना कि मैं
अज्ञानी हूं
जान की पहली
किरण फूटी। जिसने
समझा कि मैं
अंधकार में
हूं प्रकाश की
तरफ उसकी
अभीप्सा की
यात्रा शुरू
हुई। जिसने
जाना कि मैं
बीमार हूं वह
औषधि की तलाश में
निकल ही जाएगा।
प्यास
को पहचान लिया, सरोवर
को खोजने से
कैसे बचोगे? हां, खतरा
तो तब है, जब
तुम प्यास को
प्यास ही नहीं
जानते, फिर
तो सरोवर का
कोई सवाल ही
नहीं। सरोवर
शायद आंख के
सामने भी हो
तो भी चूक
जाओगे।
मूढ़ों
की खूबी है कि
वे अपने को
पंडित समझते हैं।
हजारों लोगों
के निकट, हजारों
लोगों के जीवन
में झांकने का
मुझे मौका
मिला। इनमें
मैंने
पंडितों से
ज्यादा मूढ़
दूसरे व्यक्ति
नहीं देखे। पंडित
कभी—कभी मेरे
पास आ जाते
हैं—मैंने
इंतजाम किए
हैं कि वे न आ
पाएं—फिर भी
कभी रास्ता
खोज लेते हैं।
पंडित जब भी
मेरे पास आ
जाते हैं तो
मुझे बड़ी हैरानी
होती है कि
उनका क्या
करो! उनको कोई
साथ नहीं दिया
जा सकता।
दो
दिन पहले ही
एक पंडित का
आगमन हुआ। उन्होंने
कहा,
मैं आपके
पास इसलिए आया
हूं कि आपका
कहने का ढंग
मुझे बहुत
पसंद है। मैंने
उनसे कहा, मैं
जो कहता हूं
उसकी बात करो।
कहने के ढंग
का क्या
प्रयोजन!
असत्य को भी
ढंग से कहा जा
सकता है। असत्य
को कहना हो तो
ढंग से ही
कहना पड़ता है।
कहने के ढंग
से कोई बात सच
नहीं हो जाती।
कहने के ढंग
की फिक्र छोड़ो।
तुम तो मुझे
यह कहो, जो
मैं कहता हूं।
तो उन्होंने
कहा, जो आप
कहते हैं, वह
तो मैं भी
कहता हूं। कहने
के ढंग का ही
फर्क है।
अब
इस आदमी की
कोई सहायता
नहीं की जा
सकती। यह आदमी
सहायता की
जरूरत में है, मगर
इसको खयाल है
कि यह जानता
है।
वे
कहने लगे, मैं
खुद ही समझाता
हूं लोगों को
आत्म—ज्ञान। मैं
खुद ही
व्याख्यान
देता हूं। और
भारत में ही
नहीं, भारत
के बाहर भी हो
आया हूं।
फिर
मैंने पूछा कि
फिर तुम यहां
किसलिए आए हो?
कि
नहीं, आपके
पास आया हूं
कि ध्यान सीख
लूं।
ये
पंडित की
मुसीबतें हैं, तुमसे
कह रहा हूं।
ध्यान
का क्या करोगे? आत्म—ज्ञान जब तुम
लोगों को ही
समझाते हो तो
तुम्हें तो हो
ही गया होगा। अब
ध्यान का क्या
करना है?
तब
उन्हें थोड़ी
बेचैनी हुई।
ध्यान
का क्या करना
है?
जब आत्म—ज्ञान
तुम्हें हो
गया तो बात ही
खतम हो गई। अब
औषधि की तलाश
किसलिए कर रहे
हो? बीमारी
से तो छुटकारा
हो चुका। तुम
तो दूसरों को
भी बीमारी से
छुटकारे की
राह बता रहे
हो!
तब
उस आदमी के
चेहरे पर
परेशानियां आ
गयीं। वह
ध्यान तो
समझना चाहता
है,
क्योंकि
आत्म—ज्ञान तो
हुआ नहीं। जल
तो पाना चाहता
है, लेकिन
यह भी स्वीकार
नहीं करने को
तैयार है कि
प्यासा है। क्योंकि
वह अहंकार को
चोट लगती है।
तो
मैंने कहा, तब
आना जब तुम
स्वीकार कर लो
कि प्यास है। क्योंकि
यह पानी
उन्हीं के लिए
है जिनको प्यास
हो। तभी आना, जब समझ में आ
जाए कि
तुम्हें अभी
समझ में नहीं आया
है। अन्यथा
मेरे पास आने
का प्रयोजन
क्या है?
पंडित
को साथ देना, सहारा
देना बड़ा
मुश्किल है। वह
अपनी सुरक्षा
किए बैठा है।
'जो
मूढ़ अपनी
मूढ़ता को
समझता है, वह
इस कारण ही
पंडित है। और
जो मूढ़ अपने
को पंडित
समझता है, वही
यथार्थ में
मूढ़ है।
जानने
वालों ने अपने
को जानने वाला
नहीं समझा है।
जितना जाना, उतना
ही पाया कि
कितना कम जानते
हैं। जितनी आंख
खुली, उतना
ही— पाया कि
सत्य इतना
विराट है कि
हम जान—जानकर
भी उसे चुका
कहो पाएंगे!
अपनी प्यास
बुझा ली, एक
बात, इससे
कोई पूरा सागर
थोड़े ही पी गए
हैं! अपनी प्यास
तो एक चुल्लूभर
पानी में बुझ
जाती है। वह
चुल्लूभर
पानी सरोवर
थोड़े ही है।
सत्य
सरोवर जैसा है, अनंत
सरोवर जैसा है।
हमारी प्यास
तो थोड़े में
बुझ जाती है। हमारी
प्यास ही
कितनी बड़ी है.
हमारी प्यास
हमसे बडी तो
नहीं है। प्यास
बुझ जाने का
यह अर्थ नहीं
है कि हमने सत्य
को जान लिया। सत्य
की झलक ही
प्यास को बुझा
देती है। सत्य
का पास आना ही प्यास
को बुझा देता
है। लेकिन
इससे हमने
सत्य को जान
लिया, ऐसा
थोड़े ही!
सुकरात
ने कहा है, जब
मैंने जाना तो
पाया कि मैं
कुछ भी नहीं
जानता हूं। जब
तक मैं सोचता
था, मैं
कुछ जानता हूं?
तब तक मैंने
कुछ भी न जाना
था।
यूनान
में देल्फी का
मंदिर है। और
देल्फी के मंदिर
की देवी
घोषणाएं करती
थी—कोई वर्ष
में कुछ विशेष
दिनों पर। लोग
पूछते थे, देवी
से उत्तर आते
थे। किसी ने
यह भी पूछ
लिया भीड़ में
कि इस समय
यूनान में
सबसे ज्यादा
ज्ञानी पुरुष
कौन है? तो
देवी ने कहा
कि सुकरात।
लोग
गए और
उन्होंने
सुकरात से कहा।
सुकरात ने कहा, कहीं
कुछ भूल हो गई
है। अगर तुम
कुछ वर्षों
पहले ऐसी खबर
लेकर आए होते
तो मैंने भी
स्वीकृति दी
होती। लेकिन
अब नहीं दे
सकता। अब मैं
थोड़ा— थोड़ा
जानने लगा हूं।
मैं तुमसे
कहता हूं कि
मुझसे बड़ा
अज्ञानी कोई भी
नहीं है। तुम
जाओ; देवी
को कहो कि
सुधार कर ले। घोषणा
में कहीं कुछ
भूल हो गई है।
वे
गए वापस। उन्होंने
देवी को कहा
कि कुछ भूल हो
गई है। क्योंकि
सुकरात खुद
इनकार करता है।
तो हम किसकी
मानें? तुम्हारी
मानें या उसकी
मानें? वह
खुद ही कहता
है, मैं
कोई शानी नहीं;
मैं
अज्ञानी हूं। मुझसे
बड़ा अज्ञानी
कोई भी नहीं।
देवी
ने कहा, इसीलिए
तो उसे इतनी
कहा। मेरे
वक्तव्य में
और सुकरात के
वक्तव्य में कोई
विरोध नहीं। इसीलिए
तो उसे ज्ञानी
कहा कि उससे
बड़ा ज्ञानी अब
कोई भी नहीं
है, क्योंकि
उसे अपने
अज्ञान का पता
हो गया है।
अज्ञान
का पता अहंकार
का अंत है। अहंकार
के लिए सहारा
चाहिए धन का, पद
का, त्याग
का, ज्ञान
का। ज्ञान
आखिरी सहारा
है। जब सब
सहारे छूट
जाते हैं, तब
भी ज्ञान का
टेका लगा रहता
है। आखिरी
सहारा जब
गिरता है—ज्ञान
का भी, तो
अहंकार
विसर्जित हो
जाता है। उसी
क्षण तुम नहीं
रहते, बूंद
सागर हो जाती
है। बुद्ध ठीक
कहते हैं, 'जो
मूढ़ अपनी
मूढ़ता को
समझता है, वह
इस कारण ही
पंडित है। और
जो मूढ़ अपने
को पंडित
समझता है, वही
यथार्थ में
मूढ़ है।
जैसे—जैसे
तुम जागोगे, वैसे—वैसे
तुम पाओगे, कुछ भी तो
पता नहीं। तुम
एक छोटे बालक
की भांति हो
जाओगे।
जीसस
ने कहा है, जो
छोटे बच्चों
की भांति
होंगे, वे
ही परमात्मा
के राज्य में
प्रवेश पा
सकेंगे।
छोटे
बच्चों की
भांति? छोटे
बच्चों —की
भांति का अर्थ
है, जिनको
ज्ञान की कोई
भी अकड़ न होगी।
जिनको जानने
का कोई भी
खयाल न होगा। जो
अपनी नासमझी
में निर्दोष
होंगे।
मैं
बेकरार, मंजिले—मकसूद
बेनिशां
रस्ते
की इंतिहा न
ठिकाना मुकाम
का
जब
तुम जागोगे तो
पाओगे, मैं
बेकरार! बड़ी
अभीप्सा है
किसी को पाने
की। किसको
पाने की—उसका
भी कुछ पता
नहीं। मंजिले—मकसूद
बेनिशां—लक्ष्य
का कोई पता
नहीं। रास्ते
पर कोई निशान
नहीं है, कहो
जा रहा हूं। रस्ते
की इंतिहा—रास्ता
कहो अंत होगा,
इसका भी कोई
पता नहीं। न
ठिकाना मुकाम
का—रास्ते में
कभी ऐसी भी
कोई जगह आएगी,
जहा मुकाम
होगा, जहां
मंजिल होगी, इसका भी कोई
पता नहीं।
में
बेकरार, मंजिले—मकसूद
बेनिशां
रस्ते
की इंतिहा न
ठिकाना मुकाम
का
ऐसी
घड़ी में तुम
ठिठककर खड़े हो
जाओगे। ऐसी
घड़ी में तुम
शुद्ध
अभीप्सा हो
जाओगे। ऐसी
घड़ी में बस
प्यास जलती
होगी—एक दीए
की तरह। न
कहीं जाना, क्योंकि
जाओ कहो? न
कुछ जानना, क्योंकि
जानो क्या? ऐसी जगह
जाकर चैतन्य
ठिठक जाता है।
इस ठिठकी
अवस्था में, इस अवाक हो
जाने में ही
ज्ञान की पहली
किरण उतरती है।
जल्दी
करो अज्ञान को
स्वीकार कर
लेने की। जल्दी
करो ज्ञान से
छुटकारा पाने
की। और जब मैं
यह कह रहा हूं
तो मैं यह
नहीं कह रहा हूं
कि तुम ऊपर से
थोप लेना अपने
को,
कि कहने
लगना कि मैं
अज्ञानी हूं
और भीतर—भीतर
सोचना कि यही
तो ज्ञानी का
लक्षण है।
यह
ज्ञानी का
लक्षण है, लेकिन
ज्ञानी को
इसका पता नहीं
होता। तुम तो
समग्र भाव से
बाहर—भीतर, पोर—पोर
तुम्हारी
निर्दोष
स्वीकार कर ले
कि मुझे कुछ
भी पता नहीं—कहां
से आता? कहां
जाता? कौन
हूं? क्या
हूं? कुछ
भी पता नहीं।
ऐसी
बेपता हालत
में क्या
करोगे? ठिठककर
खड़े हो जाओगे।
चैतन्य अकंप
हो जाएगा। तुम
एक छोटे बच्चे
की भांति हो
जाओगे। पुन:
तुम्हारा
बचपन आएगा—दूसरा
बचपन!
इस
दूसरे बचपन
में ही ऋषियों
का जन्म होता
है। इस दूसरे
बचपन में ही
ज्ञान का पहला
आविर्भाव होता
है,
पहला
सूत्रपात
होता है।
ज्ञान, ज्ञान
के संग्रह का
नाम नहीं; ज्ञान,
अज्ञान में
उतरी किरण है।
अज्ञान के
स्वीकार—भाव
में उतरी किरण
है। अज्ञान की
शून्यता में
भर गया पूर्ण
है।
तुम
अपने घड़े को
खाली करो। तुम
बहुत भरे हो। तुम
जरूरत से
ज्यादा भरे हो।
व्यर्थ की
चीजों से भरे
हो,
लेकिन
जरूरत से
ज्यादा भरे हो।
तुम्हारे चैतन्य
के घड़े में
जरा भी जगह
नहीं है। उलटा
दो इसे। खाली
हो जाओ।
इस
सूत्र को
ध्यान से
जोड़ने की
कोशिश करो। ध्यान
का अर्थ है, उलीचना,
खाली होना। ध्यान
तुम्हारे
भीतर जो कूड़ा—करकट
भरा है, जिसको
तुम ज्ञान
कहते हो, उससे
तुम्हें उलीच
देगा, खाली
कर देगा। ध्यान
तुम्हारे घड़े
को खाली कर
देगा ज्ञान से।
ध्यान
तुम्हें
जगाएगा
तुम्हारे
अज्ञान के प्रति।
यह पहली घटना
होगी।
और
जिस दिन घड़ा
खाली हो जाएगा, उसी
दिन तुम पाओगे,
उसी खाली
घड़े में उतरने
लगा कुछ
अलौकिक। उतरने
लगा कोई पार
से। आने लगी
दूर की आवाज। बरसने
लगे मेघ। उसी
क्षण आकाश
पृथ्वी से
मिलता है; उसी
क्षण
परमात्मा
आत्मा से। वही
क्षण संबोधि
का क्षण है।
तो
ध्यान दो काम
करता है। इधर
तुम्हें खाली
करता है
तथाकथित
ज्ञान से; उधर
तुम्हें
तैयार करता है
वास्तविक
ज्ञान के लिए।
आज
इतना ही।
thank you guruji
जवाब देंहटाएं