कुल पेज दृश्य

शुक्रवार, 9 सितंबर 2016

गीता दर्शन--( प्रवचन--005)


अर्जुन का पलायन-- अहंकार की ही—(प्रवचन—पांचवां)
अध्याय १-२
दूसरी अति

अहो बत महत्पापं कर्तुंव्यवसिता वयम्।
यद्राज्यसुखलोभेन हन्तुं स्वजनमुद्यताः।। ४५।।

अहो! शोक है कि हम लोग (बुद्धिमान होकर भी) महान पाप करने को तैयार हुए हैं, जो कि राज्य और सुख के लोभ से अपने कुल को मारने के लिए उद्यत हुए हैं।
यदि मामप्रतीकारमशस्त्रं शस्त्रपाणयः।
धार्तराष्ट्रा रणे हन्युस्तन्मे क्षेमतरं भवेत्।। ४६।।
यदि मुझ शस्त्ररहित, न सामना करने वाले को, शस्त्रधारी धृतराष्ट्र के पुत्र रण में मारें, तो वह मरना भी मेरे लिए
अति कल्याणकारक होगा।

संजय उवाच
एवमुक्त्वार्जुनः संख्ये रथोपस्थ उपाविशत्।
विसृज्य सशरं चापं शोकसंविग्नमानसः।। ४७।।
संजय बोले कि रणभूमि में शोक से उद्विग्न मन वाला अर्जुन इस प्रकार कहकर बाण सहित धनुष को त्यागकर
रथ के पिछले भाग में बैठ गया।


अथ द्वितीयोऽध्यायः

संजय उवाच
तं तथा कृपयाविष्टमश्रुपूर्णाकुलेक्षणम्।
विषीदन्तमिदं वाक्यमुवाच मधुसूदनः।। १।।
संजय ने कहा: पूर्वोक्त प्रकार से दया से भरकर और आंसुओं से पूर्ण तथा व्याकुल नेत्रों वाले शोकयुक्त उस अर्जुन के प्रति भगवान मधुसूदन ने यह वचन कहा।
श्रीभगवानुवाच
कुतस्त्वा कश्मलमिदं विषमे समुपस्थितम्।
अनार्यजुष्टमस्वर्ग्यमकीर्तिकरमर्जुन।। २।।
हे अर्जुन, तुमको इस विषम स्थल में यह अज्ञान किस हेतु से प्राप्त हुआ, क्योंकि यह न तो श्रेष्ठ पुरुषों से आचरण किया गया है, न स्वर्ग को देने वाला है,
न कीर्ति को करने वाला है।
क्लैब्यं मा स्म गमः पार्थ नैतत्त्वय्युपपद्यते।
क्षुद्रं हृदयदौर्बल्यं त्यक्त्वोत्तिष्ठ परंतप।। ३।।
इसलिए हे अर्जुन, नपुंसकता को मत प्राप्त हो। यह तेरे लिए योग्य नहीं है। हे परंतप, तुच्छ हृदय की दुर्बलता को त्यागकर युद्ध के लिए खड़ा हो।


संजय ने अर्जुन के लिए, दया से भरा हुआ, दया के आंसू आंख में लिए, ऐसा कहा है। दया को थोड़ा समझ लेना जरूरी है। संजय ने नहीं कहा, करुणा से भरा हुआ; कहा है, दया से भरा हुआ।
साधारणतः शब्दकोश में दया और करुणा पर्यायवाची दिखाई पड़ते हैं। साधारणतः हम भी उन दोनों शब्दों का एक-सा प्रयोग करते हुए दिखाई पड़ते हैं। उससे बड़ी भ्रांति पैदा होती है। दया का अर्थ है, परिस्थितिजन्य; और करुणा का अर्थ है, मनःस्थितिजन्य। उनमें बुनियादी फर्क है।
करुणा का अर्थ है, जिसके हृदय में करुणा है। बाहर की परिस्थिति से उसका कोई संबंध नहीं है। करुणावान व्यक्ति अकेले में बैठा हो, तो भी उसके हृदय से करुणा बहती रहेगी। जैसे निर्जन में फूल खिला हो, तो भी सुगंध उड़ती रहेगी। राह पर निकलने वालों से कोई संबंध नहीं है। राह से कोई निकलता है या नहीं निकलता है, फूल की सुगंध को इससे कुछ लेना-देना नहीं है। नहीं कोई निकलता, तो निर्जन पर भी फूल की सुगंध उड़ती है। कोई निकलता है तो उसे सुगंध मिल जाती है, यह दूसरी बात है; फूल उसके लिए सुगंधित नहीं होता है।
करुणा व्यक्ति की अंतस चेतना का स्रोत है। वहां सुगंध की भांति करुणा उठती है। इसलिए बुद्ध को या महावीर को दयावान कहना गलत है, वे करुणावान हैं, महाकारुणिक हैं।
अर्जुन को संजय कहता है, दया से भरा हुआ। दया सिर्फ उनमें पैदा होती है, जिनमें करुणा नहीं होती। दया सिर्फ उनमें पैदा होती है, जिनके भीतर हृदय में करुणा नहीं होती। दया परिस्थिति के दबाव से पैदा होती है। करुणा हृदय के विकास से पैदा होती है। राह पर एक भिखारी को देखकर जो आपके भीतर पैदा होता है, वह दया है; वह करुणा नहीं है।
और तब एक बात और समझ लेनी चाहिए कि दया अहंकार को भरती है और करुणा अहंकार को विगलित करती है। करुणा सिर्फ उसमें ही पैदा होती है, जिसमें अहंकार न हो। दया भी अहंकार को ही परिपुष्ट करने का माध्यम है। अच्छा माध्यम है, सज्जनों का माध्यम है, लेकिन माध्यम अहंकार को ही पुष्ट करने का है।
जब आप किसी को दान देते हैं, तब आपके भीतर जो रस उपलब्ध होता है--देने वाले का, देने वाले की स्थिति में होने का--भिखारी को देखकर जो दया पैदा होती है; उस क्षण में अगर भीतर खोजेंगे, तो अहंकार का स्वर भी बजता होता है। करुणावान चाहेगा, पृथ्वी पर कोई भिखारी न रहे; दयावान चाहेगा, भिखारी रहे। अन्यथा दयावान को बड़ी कठिनाई होगी। दया पर खड़े हुए समाज भिखारी को नष्ट नहीं करते, पोषित करते हैं। करुणा पर कोई समाज खड़ा होगा, तो भिखारी को बरदाश्त नहीं कर सकेगा। नहीं होना चाहिए।
अर्जुन के मन में जो हुआ है, वह दया है। करुणा होती तो क्रांति हो जाती। इसे इसलिए ठीक से समझ लेना जरूरी है कि कृष्ण जो उत्तर दे रहे हैं, वह ध्यान में रखने योग्य है। तत्काल कृष्ण उससे जो कह रहे हैं, वह सिर्फ उसके अहंकार की बात कह रहे हैं। वह उससे कह रहे हैं, अनार्यों के योग्य। वह दूसरा सूत्र बताता है कि कृष्ण ने पकड़ी है बात।
अहंकार का स्वर बज रहा है उसमें। वह कह रहा है, मुझे दया आती है। ऐसा कृत्य मैं कैसे कर सकता हूं? कृत्य बुरा है, ऐसा नहीं। ऐसा कृत्य मैं कैसे कर सकता हूं? इतना बुरा मैं कहां हूं! इससे तो उचित होगा, कृष्ण से वह कहता है कि वे सब धृतराष्ट्र के पुत्र मुझे मार डालें। वह ठीक होगा, बजाय इसके कि इतने कुकृत्य को करने को मैं तत्पर होऊं।
अहंकार अपने स्वयं की बलि भी दे सकता है। अहंकार जो आखिरी कृत्य कर सकता है, वह शहीदी है; वह मार्टर भी हो सकता है। और अक्सर अहंकार शहीद होता है, लेकिन शहीद होने से और मजबूत होता है।
अर्जुन कह रहा है कि इससे तो बेहतर है कि मैं मर जाऊं। मैं, अर्जुन, ऐसी स्थिति में कुकृत्य नहीं कर सकूंगा। दया आती है मुझे, यह सब क्या करने को लोग इकट्ठे हुए हैं! आश्चर्य होता है मुझे।
उसकी बात से ऐसा लगता है कि इस युद्ध के बनने में वह बिलकुल साथी-सहयोगी नहीं है। उसने कोआप्ट नहीं किया है। यह युद्ध जैसे आकस्मिक उसके सामने खड़ा हो गया है। उसे जैसे इसका कुछ पता ही नहीं है। यह जो परिस्थिति बनी है, इसमें वह जैसे पार्टिसिपेंट, भागीदार नहीं है। इस तरह दूर खड़े होकर बात कर रहा है, कि दया आती है मुझे। आंख में आंसू भर गए हैं उसके। नहीं, ऐसा मैं न कर सकूंगा। इससे तो बेहतर है कि मैं ही मर जाऊं, वही श्रेयस्कर है...।
इस स्वर को कृष्ण ने पकड़ा है। इसलिए मैंने कहा कि कृष्ण इस पृथ्वी पर पहले मनोवैज्ञानिक हैं। क्योंकि दूसरा सूत्र कृष्ण का सिर्फ अर्जुन के अहंकार को और बढ़ावा देने वाला सूत्र है।
दूसरे सूत्र में कहते हैं, कैसे अनार्यों जैसी तू बात करता है? आर्य का अर्थ है श्रेष्ठजन, अनार्य का अर्थ है निकृष्टजन। आर्य का अर्थ है अहंकारीजन, अनार्य का अर्थ है दीन-हीन। तू कैसी अनार्यों जैसी बात करता है!
अब सोचने जैसा है कि दया की बात अनार्यों जैसी बात है! आंख में दया से भरे हुए आंसू अनार्यों जैसी बात है! और कृष्ण कहते हैं, इस पृथ्वी पर अपयश का कारण बनेगा और परलोक में भी अकल्याणकारी है। दया!
शायद ही कभी आपको खयाल आया हो कि संजय कहता है, दया से भरा अर्जुन, आंखों में आंसू लिए; और कृष्ण जो कहते हैं, उसमें तालमेल नहीं दिखाई पड़ता। क्योंकि दया को हमने कभी ठीक से नहीं समझा कि दया भी अहंकार का भूषण है। दया भी अहंकार का कृत्य है। वह भी ईगो-एक्ट है--अच्छे आदमी का। क्रूरता बुरे आदमी का ईगो-एक्ट है।
ध्यान रहे, अहंकार अच्छाइयों से भी अपने को भरता है, बुराइयों से भी अपने को भरता है। और अक्सर तो ऐसा होता है कि जब अच्छाइयों से अहंकार को भरने की सुविधा नहीं मिलती, तभी वह बुराइयों से अपने को भरता है।
इसलिए जिन्हें हम सज्जन कहते हैं और जिन्हें हम दुर्जन कहते हैं, उनमें बहुत मौलिक भेद नहीं होता, ओरिजनल भेद नहीं होता। सज्जन और दुर्जन, एक ही अहंकार की धुरी पर खड़े होते हैं। फर्क इतना ही होता है कि दुर्जन अपने अहंकार को भरने के लिए दूसरों को चोट पहुंचा सकता है। सज्जन अपने अहंकार को भरने के लिए स्वयं को चोट पहुंचा सकता है। चोट पहुंचाने में फर्क नहीं होता।
अर्जुन कह रहा है, इनको मैं मारूं, इससे तो बेहतर है मैं मर जाऊं। दुर्जन--अगर हम मनोविज्ञान की भाषा में बोलें तो-- सैडिस्ट होता है। और सज्जन जब अहंकार को भरता है, तो मैसोचिस्ट होता है। मैसोच एक आदमी हुआ, जो अपने को ही मारता था।
सभी स्वयं को पीड़ा देने वाले लोग जल्दी सज्जन हो सकते हैं। अगर मैं आपको भूखा मारूं, तो दुर्जन हो जाऊंगा। कानून, अदालत मुझे पकड़ेंगे। लेकिन मैं खुद ही अनशन करूं, तो कोई कानून, अदालत मुझे पकड़ेगा नहीं; आप ही मेरा जुलूस निकालेंगे।
लेकिन भूखा मारना आपको अगर बुरा है, तो मुझको भूखा मारना कैसे ठीक हो जाएगा? सिर्फ इसलिए कि यह शरीर मेरे जिम्मे पड़ गया है और वह शरीर आपके जिम्मे पड़ गया है! तो आपके शरीर को अगर कोड़े मारूं और आपको अगर नंगा खड़ा करूं और कांटों पर लिटा दूं, तो अपराध हो जाएगा। और खुद नंगा हो जाऊं और कांटों पर लेट जाऊं, तो तपश्चर्या हो जाएगी! सिर्फ रुख बदलने से, सिर्फ तीर उस तरफ से हटकर इस तरफ आ जाए, तो धर्म हो जाएगा!
अर्जुन कह रहा है, इन्हें मारने की बजाय तो मैं मर जाऊं। वह बात वही कह रहा है; मरने-मारने की ही कह रहा है। उसमें कोई बहुत फर्क नहीं है। हां, तीर का रुख बदल रहा है।
और ध्यान रहे, दूसरे को मारने में कभी इतने अहंकार की तृप्ति नहीं होती, जितना स्वयं को मारने में होती है। क्योंकि दूसरा मरते वक्त भी मुंह पर थूककर मर सकता है। लेकिन खुद आदमी जब अपने को मारता है, तो बिलकुल निहत्था, बिना उत्तर के मरता है। दूसरे को मारना कभी पूरा नहीं होता। दूसरा मरकर भी बच जाता है। उसकी आंखें कहती हैं कि मार डाला भला, लेकिन हार नहीं गया वह! लेकिन खुद को मारते वक्त तो कोई उपाय ही नहीं। हराने का मजा पूरा आ जाता है।
अर्जुन दया की बात करता हो और कृष्ण उससे कहते हैं कि अर्जुन, तेरे योग्य नहीं हैं ऐसी बातें, अपयश फैलेगा--तो वे सिर्फ उसके अहंकार को फुसला रहे हैं, परसुएड कर रहे हैं।
दूसरा सूत्र कृष्ण का, बताता है कि पकड़ी है उन्होंने नस। वे ठीक जगह छू रहे हैं उसे। क्योंकि उसे यह समझाना कि दया ठीक नहीं, व्यर्थ है। उसे यह भी समझाना कि दया और करुणा में फासला है, अभी व्यर्थ है। अभी तो उसकी रग अहंकार है। अभी अहंकार सैडिज्म से मैसोचिज्म की तरफ जा रहा है। अभी वह दूसरे को दुख देने की जगह, अपने को दुख देने के लिए तत्पर हो रहा है।
इस स्थिति में वे दूसरे सूत्र में उससे कहते हैं कि तू क्या कह रहा है! आर्य होकर, सभ्य, सुसंस्कृत होकर, कुलीन होकर, कैसी अकुलीनों जैसी बात कर रहा है! भागने की बात कर रहा है युद्ध से? कातरता तेरे मन को पकड़ती है? वे चोट कर रहे हैं उसके अहंकार को।
बहुत बार गीता को पढ़ने वाले लोग ऐसी बारीक और नाजुक जगहों पर बुनियादी भूल कर जाते हैं। क्या कृष्ण यह कह रहे हैं कि अहंकारी हो? नहीं, कृष्ण सिर्फ यह देख रहे हैं कि जो दया उठ रही है, वह अगर अहंकार से उठ रही है, तो अहंकार को फुलाने से तत्काल विदा हो जाएगी।
इसलिए कहते हैं, कातरपन की बातें कर रहा है! कायरता की बातें कर रहा है! सख्त से सख्त शब्दों का वे उपयोग करेंगे।
यहां अर्जुन से वे जो कह रहे हैं पूरे वक्त, उसमें क्या प्रतिक्रिया पैदा होती है, उसके लिए कह रहे हैं। मनोविश्लेषण शुरू होता है। कृष्ण अर्जुन को साइकोएनालिसिस में ले जाते हैं। लेट गया अर्जुन कोच पर अब कृष्ण की। अब वे जो भी पूछ रहे हैं, उसको जगाकर पूरा देखना चाहेंगे कि वह है कहां! कितने गहरे पानी में है!
अब आगे से कृष्ण यहां साइकोएनालिस्ट, मनोविश्लेषक हैं। और अर्जुन सिर्फ पेशेंट है, सिर्फ बीमार है। और उसे सब तरफ से उकसाकर देखना और जगाना जरूरी है। पहली चोट वे उसके अहंकार पर करते हैं।
और स्वभावतः, मनुष्य की गहरी से गहरी और पहली बीमारी अहंकार है। और जहां अहंकार है, वहां दया झूठी है। और जहां अहंकार है, वहां अहिंसा झूठी है। और जहां अहंकार है, वहां शांति झूठी है। और जहां अहंकार है, वहां कल्याण और मंगल और लोकहित की बातें झूठी हैं। क्योंकि जहां अहंकार है, वहां ये सारी की सारी चीजें सिर्फ अहंकार के आभूषण के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं हैं।


अर्जुन उवाच
कथं भीष्ममहं संख्ये द्रोणं च मधुसूदन।
ईषुभिः प्रति योत्स्यामि पूजार्हावरिसूदन।। ४।।
तब अर्जुन बोला, हे मधुसूदन, मैं रणभूमि में भीष्म पितामह और द्रोणाचार्य के प्रति किस प्रकार बाणों को करके युद्ध करूंगा, क्योंकि हे अरिसूदन, वे दोनों ही पूजनीय हैं।


लेकिन अर्जुन नहीं पकड़ पाता। वह फिर वही दोहराता है दूसरे कोण से। वह कहता है, मैं द्रोण और भीष्म से कैसे युद्ध करूंगा, वे मेरे पूज्य हैं। बात फिर भी वह विनम्रता की बोलता है।
लेकिन अहंकार अक्सर विनम्रता की भाषा बोलता है। और अक्सर विनम्र लोगों में सबसे गहन अहंकारी पाए जाते हैं। असल में विनम्रता डिफेंसिव ईगोइज्म है, वह सुरक्षा करता हुआ अहंकार है। आक्रामक अहंकार मुश्किल में पड़ सकता है। विनम्र अहंकार पहले से ही सुरक्षित है, वह इंश्योर्ड है।
इसलिए जब कोई कहता है, मैं तो कुछ भी नहीं हूं, आपके चरणों की धूल हूं, तब जरा उसकी आंखों में देखना। तब उसकी आंखें कुछ और ही कहती हुई मालूम पड़ेंगी। उसके शब्द कुछ और कहते मालूम पड़ेंगे।
कृष्ण ने अर्जुन की रग पर हाथ रखा है, लेकिन अर्जुन नहीं समझ पा रहा है। वह दूसरे कोने से फिर बात शुरू करता है। वह कहता है, द्रोण को, जो मेरे गुरु हैं; भीष्म को, जो मेरे परम आदरणीय हैं, पूज्य हैं--उन पर मैं कैसे आक्रमण करूंगा!
यहां ध्यान में रखने जैसी बात है, यहां भीष्म और द्रोण गौण हैं। अर्जुन कह रहा है, मैं कैसे आक्रमण करूंगा? इतना बुरा मैं नहीं कि द्रोण पर और बाण खींचूं! कि भीष्म की और छाती छेदूं! नहीं, यह मुझसे न हो सकेगा। यहां वह कह तो यही रहा है कि वे पूज्य हैं, यह मैं कैसे करूंगा? लेकिन गहरे में खोजें और देखें तो पता चलेगा, वह यह कह रहा है कि यह मेरी जो इमेज है, मेरी जो प्रतिमा है, मेरी ही आंखों में जो मैं हूं, उसके लिए यह असंभव है। इससे तो बेहतर है मधुसूदन कि मैं ही मर जाऊं। इससे तो अच्छा है, प्रतिमा बचे, शरीर खो जाए; अहंकार बचे, मैं खो जाऊं। वह जो इमेज है मेरी, वह जो सेल्फ इमेज है उसकी...।
हर आदमी की अपनी-अपनी एक प्रतिमा है। जब आप किसी पर क्रोध कर लेते हैं और बाद में पछताते हैं और क्षमा मांगते हैं, तो इस भ्रांति में मत पड़ना कि आप क्षमा मांग रहे हैं और पछता रहे हैं। असल में आप अपने सेल्फ इमेज को वापस निर्मित कर रहे हैं। आप जब किसी पर क्रोध करते हैं, तो आपने निरंतर अपने को अच्छा आदमी समझा है, वह प्रतिमा आप अपने ही हाथ से खंडित कर लेते हैं। क्रोध के बाद पता चलता है कि वह अच्छा आदमी, जो मैं अपने को अब तक समझता था, क्या मैं नहीं हूं! अहंकार कहता है, नहीं, आदमी तो मैं अच्छा ही हूं। यह क्रोध जो हो गया है, यह बीच में आ गई भूल-चूक है। इंस्पाइट आफ मी, मेरे बावजूद हो गया है। यह कोई मैंने नहीं किया है, हो गया, परिस्थितिजन्य है। पछताते हैं, क्षमा मांग लेते हैं।
अगर सच में ही क्रोध के लिए पछताए हैं, तो दुबारा क्रोध फिर जीवन में नहीं आना चाहिए। नहीं, लेकिन कल फिर क्रोध आता है।
नहीं, क्रोध से कोई अड़चन न थी। अड़चन हुई थी कोई और बात से। यह कभी सोचा ही नहीं था कि मैं और क्रोध कर सकता हूं! तो जब पछता लेते हैं, तब आपकी अच्छी प्रतिमा, आपका अहंकार फिर सिंहासन पर विराजमान हो जाता है।
वह कहता है, देखो माफी मांग ली, क्षमा मांग ली। विनम्र आदमी हूं। समय ने, परिस्थिति ने, अवसर ने, मूड नहीं था, भूखा था, दफ्तर से नाराज लौटा था, असफल था, कुछ काम में गड़बड़ हो गई थी--परिस्थितिजन्य था। मेरे भीतर से नहीं आया था क्रोध। मैंने तो क्षमा मांग ली है। जैसे ही होश आया, जैसे ही मैं लौटा, मैंने क्षमा मांग ली है। आप अपनी प्रतिमा को फिर सजा-संवारकर, फिर गहने-आभूषण पहनाकर सिंहासन पर विराजमान कर दिए। क्रोध के पहले भी यह प्रतिमा सिंहासन पर बैठी थी, क्रोध में नीचे लुढ़क गई थी; फिर बिठा दिया। अब आप फिर पूर्ववत पुरानी जगह आ गए, कल फिर क्रोध करेंगे। पूर्ववत अपनी जगह आ गए। क्रोध के पहले भी यहीं थे, क्रोध के बाद भी यहीं आ गए। जो पश्चात्ताप है, वह इस प्रतिमा की पुनर्स्थापना है।
लेकिन ऐसा लगता है, क्षमा मांगता आदमी बड़ा विनम्र है। सब दिखावे सच नहीं हैं। सच बहुत गहरे हैं और अक्सर उलटे हैं। वह आदमी आपसे क्षमा नहीं मांग रहा है। वह आदमी अपने ही सामने निंदित हो गया है। उस निंदा को झाड़ रहा है, पोंछ रहा है, बुहार रहा है। वह फिर साफ-सुथरा, स्नान करके फिर खड़ा हो रहा है।
यह जो अर्जुन कह रहा है कि पूज्य हैं उस तरफ, उन्हें मैं कैसे मारूं? एम्फेसिस यहां उनके पूज्य होने पर नहीं है। एम्फेसिस यहां अर्जुन के मैं पर है कि मैं कैसे मारूं? नहीं-नहीं, यह अपने मैं की प्रतिमा खंडित करने से, कि लोक-लोकांतर में लोग कहें कि अपने ही गुरु पर आक्रमण किया, कि अपने ही पूज्यों को मारा, इससे तो बेहतर है मधुसूदन कि मैं ही मर जाऊं। लेकिन लोग कहें कि मर गया अर्जुन, लेकिन पूज्यों पर हाथ न उठाया। मर गया, मिट गया, लेकिन गुरु पर हाथ न उठाया।
उसके मैं को पकड़ लेने की जरूरत है। अभी उसकी पकड़ में नहीं है। किसी की पकड़ में नहीं होता है। जिसका मैं अपनी ही पकड़ में आ जाए, वह मैं के बाहर हो जाता है। हम अपने मैं को बचा-बचाकर जीते हैं। वह दूसरी-दूसरी बातें करता जाएगा। वह सब्स्टीटयूट खोजता चला जाएगा। कभी कहेगा यह, कभी कहेगा वह। सिर्फ उस बिंदु को छोड़ता जाएगा, जो है। कृष्ण ने छूना चाहा था, वह उस बात को छोड़ गया है। अनार्य-आर्य की बात वह नहीं उठाता। कातरता की बात वह नहीं उठाता। लोक में यश, परलोक में भटकाव, उसकी बात वह नहीं उठाता; वह दूसरी बात उठाता है। जैसे उसने कृष्ण को सुना ही नहीं। उसके वचन कह रहे हैं कि बीच में जो कृष्ण ने बोला है, अर्जुन ने नहीं सुना।
सभी बातें जो बोली जाती हैं, हम सुनते नहीं। हम वही सुन लेते हैं, जो हम सुनना चाहते हैं। सभी जो दिखाई पड़ता है, वह हम देखते नहीं। हम वही देख लेते हैं, जो हम देखना चाहते हैं। सभी जो हम पढ़ते हैं, वह पढ़ा नहीं जाता; हम वही पढ़ लेते हैं, जो हम पढ़ना चाहते हैं। हमारा देखना, सुनना, पढ़ना, सब सिलेक्टिव है; उसमें चुनाव है। हम पूरे वक्त वह छांट रहे हैं, जो हम नहीं देखना चाहते।
एक नया मनोविज्ञान है, गेस्टाल्ट। यह जो अर्जुन ने उत्तर दिया वापस, यह गेस्टाल्ट का अदभुत प्रमाण है। गेस्टाल्ट मनोवैज्ञानिक कहते हैं, आकाश में बादल घिरे हों, तो हर आदमी उनमें अलग-अलग चीजें देखता है। डरा हुआ आदमी भूत-प्रेत देख लेता है, धार्मिक आदमी भगवान की प्रतिमा देख लेता है, फिल्मी दिमाग का आदमी अभिनेता-अभिनेत्रियां देख लेता है। वह एक ही बादल आकाश में है, अपना-अपना देखना हो जाता है।
प्रत्येक आदमी अपनी ही निर्मित दुनिया में जीता है। और हम अपनी दुनिया में...इसलिए इस पृथ्वी पर एक दुनिया की भ्रांति में मत रहना आप। इस दुनिया में जितने आदमी हैं, कम से कम उतनी दुनियाएं हैं। अगर साढ़े तीन अरब आदमी हैं आज पृथ्वी पर, तो पृथ्वी पर साढ़े तीन अरब दुनियाएं हैं। और एक आदमी भी पूरी जिंदगी एक दुनिया में रहता हो, ऐसा मत सोच लेना। उसकी दुनिया भी रोज बदलती चली जाती है।
पर्ल बक ने एक किताब अपनी आत्मकथा की लिखी है, तो नाम दिया है, माई सेवरल वर्ल्ड्स, मेरे अनेक संसार।
अब एक आदमी के अनेक संसार कैसे होंगे? रोज बदल रहा है। और प्रत्येक व्यक्ति अपनी दुनिया के आस पास बाड़े, दरवाजे, संतरी, पहरेदार खड़े रखता है। और वह कहता है, इन-इन को भीतर आने देना, इन-इन को बाहर से ही कह देना कि घर पर नहीं हैं। यह हम लोगों के साथ ही नहीं करते, सूचनाओं के साथ भी करते हैं।
अब अर्जुन ने बिलकुल नहीं सुना है; कृष्ण ने जो कहा, वह बिलकुल नहीं सुना है। वह जो उत्तर दे रहा है, वह बताता है कि वह इररेलेवेंट है, उसकी कोई संगति नहीं है।
हम भी नहीं सुनते। दो आदमी बात करते हैं, अगर आप चुपचाप साक्षी बनकर खड़े हो जाएं तो बड़े हैरान होंगे। लेकिन साक्षी बनकर खड़ा होना मुश्किल है। क्योंकि पता नहीं चलेगा और आप भी तीसरे आदमी भागीदार हो जाएंगे बातचीत में। अगर आप दो आदमियों की साक्षी बनकर बात सुनें तो बहुत हैरान होंगे कि ये एक-दूसरे से बात कर रहे हैं या अपने-अपने से बात कर रहे हैं! एक आदमी जो कह रहा है, दूसरा जो कहता है उससे उसका कोई भी संबंध नहीं है।
जुंग ने एक संस्मरण लिखा है कि दो पागल प्रोफेसर उसके पागलखाने में भर्ती हुए इलाज के लिए। ऐसे भी प्रोफेसरों के पागल होने की संभावना ज्यादा है। या यह भी हो सकता है कि पागल आदमी प्रोफेसर होने को उत्सुक रहते हैं। वे दोनों पागल हो गए हैं। साधारण पागल नहीं हैं। साधारण पागल डर जाता है, भयभीत हो जाता है। प्रोफेसर पागल हैं। पागल होकर वे और भी बुद्धिमान हो गए हैं। जब तक जागे रहते हैं, घनघोर चर्चा चलती रहती है। जुंग खिड़की से छिपकर सुनता है कि उनमें क्या बात होती है!
बातें बड़ी अदभुत होती हैं, बड़ी गहराई की होती हैं। दोनों इन्फार्म्ड हैं; उन दोनों ने बहुत पढ़ा-लिखा, सुना-समझा है। कम उनकी जानकारी नहीं है, शायद वही उनके पागलपन का कारण है। जानकारी ज्यादा हो और ज्ञान कम हो, तो भी आदमी पागल हो सकता है। और ज्ञान तो होता नहीं, जानकारी ही ज्यादा हो जाती है, फिर वह बोझ हो जाती है।
चकित है जुंग, उनकी जानकारी देखकर। वे जिन विषयों पर चर्चा करते हैं, वे बड़े गहरे और नाजुक हैं। लेकिन इससे भी चकित ज्यादा दूसरी बात पर है, और वह यह कि जो एक बोलता है, उसका दूसरे से कोई संबंध ही नहीं होता। लेकिन यह तो पागल के लिए बिलकुल स्वाभाविक है। इससे भी ज्यादा चकित इस बात पर है कि जब एक बोलता है तो दूसरा चुप रहता है। और ऐसा लगता है कि सुन रहा है। और जैसे ही वह बंद करता है कि दूसरा जो बोलता है तो उसे सुनकर लगता है कि उसने उसे बिलकुल नहीं सुना। क्योंकि अगर वह आकाश की बात कर रहा था, तो वह पाताल की शुरू करता है। उसमें कोई संबंध ही नहीं होता।
तब वह अंदर गया और उसने जाकर पूछा कि और सब तो मेरी समझ में आ गया; आप गहरी बातें कर रहे हैं, वह समझ में आ गया। समझ में यह नहीं आ रहा है कि जब एक बोलता है, तो दूसरा चुप क्यों हो जाता है! तो वे दोनों हंसने लगे और उन्होंने कहा कि क्या तुम हमें पागल समझते हो?
इस दुनिया में पागल भर अपने को कभी पागल नहीं समझते। और जो आदमी अपने को पागल समझता हो, समझना चाहिए, वह पागल होने के ऊपर उठने लगा।
क्या तुम हमें पागल समझते हो? उन दोनों ने कहा। नहीं, जुंग ने कहा, ऐसी भूल मैं कैसे कर सकता हूं! पागल बिलकुल आपको नहीं समझता हूं। पर यही मैं पूछ रहा हूं कि जब एक बोलता है, तो दूसरा चुप क्यों रह जाता है! तो उन्होंने कहा, क्या तुम समझते हो कि हमें कनवर्सेशन का नियम भी मालूम नहीं, बातचीत करने की व्यवस्था भी मालूम नहीं? हमें मालूम है कि जब एक बोले तो दूसरे को चुप रहना चाहिए। जुंग ने कहा, जब तुम्हें इतना मालूम है, तो मैं यह और पूछना चाहता हूं कि जो एक बोलता है, उससे दूसरे के बोलने का कभी कोई संबंध ही नहीं होता! दोनों फिर हंसने लगे। उन्होंने कहा, खैर, हम तो पागल समझे जाते हैं, लेकिन इस जमीन पर जहां भी लोग बोलते हैं दो, उनकी बातों में कोई संबंध होता है? जुंग घबड़ाकर वापस लौट आया। उसने अपने संस्मरण में लिखा है कि उस दिन से मैं भी सोचता हूं जब किसी से बात करता हूं--संबंध है!
थोड़ा संबंध हम बना लेते हैं। जब आपसे मैं बात कर रहा हूं, अगर हम पागल नहीं हैं--जिसकी कि संभावना बहुत कम है--तो जब आप बोल रहे हैं, तब मैं अपने भीतर बोले चला जाता हूं। जैसे ही आप चुप होते हैं, मैं बोलना शुरू करता हूं। मैं जो बोलना शुरू करता हूं, उसका संबंध मेरे भीतर जो मैं बोल रहा था, उससे होता है; आपसे नहीं होता। हां, इतना संबंध हो सकता है जैसा खूंटी और कोट का होता है, कि आपकी बात में से कोई एक बात पकड़ लूं, खूंटी बना लूं, और मेरे भीतर जो चल रहा था, उसको उस पर टांग दूं। बस, इतना ही संबंध होता है।
अर्जुन और कृष्ण की चर्चा में यह मौका बार-बार आएगा, इसलिए मैंने इसे ठीक से आपसे कह देना चाहा। अर्जुन ने बिलकुल नहीं सुना कि कृष्ण ने क्या कहा है। नहीं कहा होता, ऐसी ही स्थिति है। वह अपने भीतर की ही सुने चला जा रहा है। वह कह रहा है, ये पूज्य, ये द्रोण, ये भीष्म...। वह यह सोच रहा होगा भीतर। इधर कृष्ण क्या बोल रहे हैं, वे जो बोल रहे हैं, वह परिधि के बाहर हो रहा है। उसके भीतर जो चल रहा है, वह यह चल रहा है। वह कृष्ण से कहता है कि मधुसूदन, ये पूज्य, ये प्रिय; इन्हें मैं मार सकता हूं? मैं अर्जुन। इसे ध्यान रखना। उसने कृष्ण की बात नहीं सुनी।

प्रश्न: भगवान श्री, आपने बताया कि प्रोफेसर पागल होते हैं। तो आप पहले दर्शनशास्त्र के प्राध्यापक थे, अब आप आचार्य बन गए हैं। तो हमको आप उपलब्ध हुए हैं, यह हमारा सौभाग्य है। आपने अभी एक बात बताई ईगो के बारे में। तो एक प्रश्न यह उठता है कि ईगो के बिना तो प्रोजेक्शन होता ही नहीं। और साइकोलाजिस्ट जो हैं--आप तो आत्म-संश्लेषक हैं--मगर साइकोलाजिस्ट तो यह कहते हैं कि ईगो फुलफिलमेंट के बिना व्यक्तित्व का पूर्णतया विकास नहीं होता। और आप अहं-शून्यता की बात करते हैं, तो क्या ईगो को एनाइलेट करने का आप सूचन दे रहे हैं?


एक तो मैंने कहा कि प्रोफेसर के पागल होने की संभावना ज्यादा होती है। पागल हो ही जाता है, ऐसा नहीं कहा। और दूसरा यह भी नहीं कहा है कि सभी पागल प्रोफेसर होते हैं। ऐसा भी नहीं कहा है; संभावना ज्यादा होती है। असल में जहां भी तथाकथित ज्ञान का भार ज्यादा हो, बर्डन हो, वहीं चित्त विक्षिप्त हो सकता है। ज्ञान तो चित्त को मुक्त करता है, ज्ञान का भार विक्षिप्त करता है। और ज्ञान, जो मुक्त करता है, वह स्वयं से आता है। और ज्ञान, जो विक्षिप्त कर देता है, वह स्वयं से कभी नहीं आता, वह सदा पर से आता है।
दूसरी बात पूछी है कि मनोवैज्ञानिक तो अहंकार को विकसित करने की बात करते हैं। मैं तो अहंकार को शून्य करने की बात करता हूं। मनोवैज्ञानिक निश्चित ही अहंकार को विकसित करने की बात करेंगे। सभी मनोवैज्ञानिक नहीं; बुद्ध नहीं करेंगे, कृष्ण नहीं करेंगे, महावीर नहीं करेंगे। फ्रायड करेगा, एरिक्सन करेगा। करेगा, उसका कारण है। क्योंकि फ्रायड या एरिक्सन के लिए अहंकार से ऊपर कोई और सत्य नहीं है। तो जो आखिरी सत्य है, उसको विकसित किया जाना चाहिए। महावीर, बुद्ध या कृष्ण के लिए अहंकार आखिरी सत्य नहीं है, केवल बीच की सीढ़ी है। निरहंकार आखिरी सत्य है। अहंकार नहीं, ब्रह्म आखिरी सत्य है। अहंकार सिर्फ सीढ़ी है।
इसलिए बुद्ध या महावीर या कृष्ण कहेंगे, अहंकार को विकसित भी करो और विसर्जित भी करो। सीढ़ी पर चढ़ो भी और सीढ़ी को छोड़ो भी। आओ भी उस पर, जाओ भी उस पर से। उठो भी उस तक, पार भी हो जाओ। चूंकि मन के पार भी सत्ता है, इसलिए मन का जो आखिरी सत्य है--अहंकार--वह पार की सत्ता के लिए छोड़ने का पहला कदम होगा। अगर मैं अपने घर से आपके घर में आना चाहूं, तो मेरे घर की आखिरी दीवार छोड़ना ही आपके घर में प्रवेश का पहला कदम होगा। मन की आखिरी सीमा अहंकार है। अहंकार से ऊपर मन नहीं जा सकता।
चूंकि पश्चिम का मनोविज्ञान मन को आखिरी सत्य समझ रहा है, इसलिए अहंकार के विकास की बात उचित है। उचित कह रहा हूं, सत्य नहीं। सीमा के भीतर बिलकुल ठीक है बात। लेकिन जिस दिन पश्चिम के मनस-शास्त्र को एहसास होगा, और एहसास होना शुरू हो गया है। जुंग के साथ दीवार टूटनी शुरू हो गई है। और अनुभव होने लगा है कि अहंकार के पार भी कुछ है।
लेकिन अभी भी अहंकार के पार का जो अनुभव हो रहा है पश्चिम के मनोविज्ञान को, वह अहंकार के नीचे हो रहा है--बिलो ईगो; बियांड ईगो नहीं हो रहा है। अहंकार के पार भी कुछ है--मतलब अचेतन, चेतन से भी नीचे--अति चेतन नहीं, सुपर कांशस नहीं, चेतन के भी आगे नहीं। लेकिन यह बड़ी शुभ घड़ी है। अहंकार के पार तो कम से कम कुछ है, नीचे ही सही। और अगर नीचे है तो ऊपर होने की बाधा कम हो जाती है। और अगर हम अहंकार के पार नीचे भी कुछ स्वीकार करते हैं, तो आज नहीं कल ऊपर भी स्वीकार करने की सुविधा बनती है।
मनोविज्ञान तो कहेगा, अहंकार को ठीक से इंटिग्रेटेड, क्रिस्टलाइज्ड, अहंकार को ठीक शुद्ध, साफ, संश्लिष्ट हो जाना चाहिए। यही इंडिविजुएशन है, यही व्यक्तित्व है। कृष्ण नहीं कहेंगे। कृष्ण कहेंगे, उसके आगे एक कदम और है। संश्लिष्ट, एकाग्र हुए अहंकार को किसी दिन समर्पित हो जाना चाहिए, सरेंडर्ड हो जाना चाहिए। वह आखिरी कदम है अहंकार की तरफ से। लेकिन ब्रह्म की तरफ वह पहला कदम है।
निश्चित ही बूंद अपने को खो दे सागर में, तो सागर हो सकती है। और अहंकार अपने को खो दे सागर में, तो ब्रह्म हो सकता है। लेकिन खोने के पहले होना तो चाहिए, बूंद भी होनी तो चाहिए। अगर बूंद ही न हो, भाप हो, तो सागर में खोना मुश्किल है। अगर कोई भाप की बूंद उड़ रही हो, तो उससे हम पहले कहेंगे, बूंद बन जाओ। फिर बूंद बन जाने पर कहेंगे कि जाओ, सागर में कूद जाओ। क्योंकि भाप सीधी सागर में नहीं कूद सकती, कितना ही उपाय करे, आकाश की तरफ उड़ेगी, सागर में कूद नहीं सकती। बूंद कूद सकती है।
तो पश्चिम का मनोविज्ञान बूंद बनाने तक है, कृष्ण का मनोविज्ञान सागर बनाने तक है। लेकिन पश्चिम के मनोविज्ञान से गुजरना पड़ेगा। जो अभी भाप हैं, उनको फ्रायड और जुंग के पास से गुजरना पड़ेगा, तभी वे कृष्ण के पास पहुंच सकते हैं। लेकिन बहुत से भाप के कण सीधे ही कृष्ण तक पहुंचना चाहते हैं, वे मुश्किल में पड़ जाते हैं। बीच में फ्रायड है ही, उससे बचा नहीं जा सकता। अंत वह नहीं है, लेकिन प्रारंभ वह जरूर है।
कृष्ण का मनोविज्ञान चरम मनोविज्ञान है, दि सुप्रीम। जहां से मन समाप्त होता है, वहां है वह। वह लास्ट बैरियर पर है। और फ्रायड और एडलर मन की पहली सीमा की चर्चा कर रहे हैं। यह अगर खयाल में रहे, तो कठिनाई नहीं होगी।
मैं भी कहूंगा, अहंकार को संश्लिष्ट करें, ताकि एक दिन समर्पित कर सकें। क्योंकि समर्पित वही कर सकेगा जो संश्लिष्ट है। जिसके अपने ही अहंकार के पच्चीस खंड हैं, जो स्किजोफ्रैनिक है, जिसके भीतर एक मैं भी नहीं है, कई मैं हैं--वह समर्पण करने कैसे जाएगा? एक मैं को समर्पण करेगा, दूसरा कहेगा, रहने दो, वापस आ जाओ।
हम अभी ऐसे ही हैं। मनोविज्ञान की समस्त खोजें कहती हैं, हम पोलीसाइकिक हैं। हमारे भीतर एक मैं भी नहीं है, बहुत मैं हैं, अनेक मैं हैं। रात एक मैं कहता है कि सुबह पांच बजे उठेंगे, कसम खा लेता है। सुबह पांच बजे दूसरा मैं कहता है, सर्दी बहुत है। छोड़ो, कहां की बातों में पड़े हो! फिर कल देखेंगे। करवट लेकर सो जाता है। सुबह सात बजे तीसरा मैं कहता है कि बड़ी भूल की। शाम को तय किया था, पांच बजे सुबह बदले क्यों? बड़ा पश्चात्ताप करता है। आप एक ही आदमी पांच बजे तय किए थे, तो सुबह किस आदमी ने आपसे कहा कि सो जाओ! आपके भीतर ही कोई बोल रहा है, बाहर कोई नहीं बोल रहा है। और जब सो ही गए थे पांच बजे, तो सुबह सात बजे पश्चात्ताप क्यों कर रहे हैं? आप ही सोए थे, किसी ने कहा नहीं था। अब यह पश्चात्ताप कौन कर रहा है?
सामान्यतः हमें खयाल आता है कि मैं एक मैं हूं, इससे बड़ा कनफ्यूजन पैदा होता है। हमारे भीतर बहुत मैं हैं। एक मैं कह देता है उठेंगे, दूसरा मैं कहता है नहीं उठते, तीसरा मैं कहता है पश्चात्ताप करेंगे। चौथा मैं सब भूल जाता है, कोई याद ही नहीं रखता इन सब बातों की। और ऐसे ही जिंदगी चलती चली जाती है।
मनोविज्ञान कहता है, पहले मैं को एक करो।
एक मैं हो तो समर्पण हो सकता है। पच्चीस स्वर हों तो समर्पण कैसे होगा! इसलिए भगवान के सामने एक मैं तो झुक जाता है चरणों में, दूसरा मैं अकड़कर खड़ा रहता है, वहीं मंदिर में। एक मैं तो चरणों में सिर रखे पड़ा रहता है, दूसरा देखता रहता है कि मंदिर में कोई देखने वाला आया कि नहीं आया। एक ही आदमी खड़ा है, पर दो मैं हैं। एक वहां चरणों में सिर रखे है, दूसरा झांककर देख रहा है कि लोग देख रहे हैं कि नहीं देख रहे हैं! अब समर्पण कर रहे हो, तो लोगों से, देखने वालों से क्या लेना-देना है! एक मैं नीचे चरणों में पड़ा है, दूसरा मैं कह रहा है, कहां के खेल में पड़े हो! सब बेकार है। कहीं कोई भगवान नहीं है। एक मैं इधर भगवान के चरण पकड़े हुए है, दूसरा मैं दुकान पर बैठा हुआ काम में लगा है।
मैं संश्लिष्ट होना चाहिए, तभी समर्पण हो सकता है। इसलिए मैं इनमें विरोध नहीं देखता। मैं इनमें विकास देखता हूं। फ्रायड अंत नहीं है, लेकिन महत्वपूर्ण है और मैं संश्लिष्ट करने में उपयोगी है। कृष्ण अंत हैं। वहां एक सीमा पर जाकर मैं को समर्पित भी कर देना है।


गुरूनहत्वा हि महानुभावान्
श्रेयो भोक्तुं भैक्ष्यमपीह लोके।
हत्वार्थकामांस्तु गुरुनिहैव
भुग्जीय भोगान्रुधिरप्रदिग्धान्।। ५।।
महानुभाव गुरुजनों को न मारकर, इस लोक में भिक्षा का अन्न भी भोगना कल्याणकारक समझता हूं,
क्योंकि गुरुजनों को मारकर भी इस लोक में रुधिर से सने हुए अर्थ और कामरूप भोगों को ही तो भोगूंगा।
न चैतद्विद्मः कतरन्नो गरीयो
यद्वा जयेम यदि वा नो जयेयुः।
यानेव हत्वा न जिजीविषाम-
स्तेऽवस्थिताः प्रमुखे धार्तराष्ट्राः।। ६।।
हम लोग यह भी नहीं जानते कि हमारे लिए क्या करना श्रेष्ठ है, अथवा यह भी नहीं जानते कि हम जीतेंगे या हमको वे जीतेंगे। और जिनको मारकर जीना भी नहीं चाहते, वे ही धृतराष्ट्र के पुत्र हमारे सामने खड़े हैं।
कार्पण्यदोषोपहतस्वभावः
पृच्छामि त्वां धर्मसंमूढचेताः।
यच्छे्रयः स्यान्निश्चितं ब्रूहि तन्मे
शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम्।। ७।।
इसलिए कायरतारूप दोष करके उपहत हुए स्वभाव वाला और धर्म के विषय में मोहितचित्त हुआ मैं आपको पूछता हूं, जो कुछ निश्चय किया हुआ कल्याणकारक साधन हो, वह मेरे लिए कहिए, क्योंकि मैं आपका शिष्य हूं, इसलिए आपके शरण हुए मेरे को शिक्षा दीजिए।


अर्जुन अपनी ही बात कहे चला जाता है। पूछता मालूम पड़ता है कृष्ण से, लेकिन वस्तुतः कृष्ण को ही धर्म क्या है, बताए चला जाता है। पूछ रहा है कि अविद्या से मेरा मन भर गया है। क्या उचित है, क्या अनुचित है, उसका मेरा बोध खो गया है। लेकिन साथ ही कहे चला जा रहा है कि अपनों को मारकर तो जो अन्न भी खाऊंगा, वह रक्त से भरा हुआ होगा। अपनों को मारकर सम्राट बन जाने से तो बेहतर है कि मैं सड़क का भिखारी हो जाऊं। निर्णय दिए चला जा रहा है। निर्णय दिए चला जा रहा है और कह रहा है, अविद्या से मेरा मन भर गया है। दोनों बातों में कोई संगति नहीं है। अविद्या से मन भर गया है, तो अर्जुन के पास कहने को कुछ भी नहीं होना चाहिए। इतना ही काफी है कि अविद्या से मेरा मन भर गया है; मुझे मार्ग बताएं। मैं नहीं जानता, क्या ठीक है, क्या गलत है। नहीं, लेकिन साथ ही वह कहता है कि यह ठीक है और यह गलत है।
चित्त हमारा कितना ही कहे कि अविद्या से भर गया, अहंकार मानने को राजी नहीं होता। अहंकार कहता है, मैं और अविद्या से भर गया! मुझे पता है कि धर्म क्या है और अधर्म क्या है।
दूसरी बात यह भी देख लेने जैसी है कि अहंकार जहां भी होता है, वहां सदा अतियों का चुनाव करता है, एक्सट्रीम इज़ दि च्वाइस। एक अति से ठीक दूसरी अति को चुनता है। अहंकार कभी मध्य में खड़ा नहीं होता; खड़ा नहीं हो सकता; क्योंकि ठीक मध्य में अहंकार की मृत्यु है। तो वह कहता है, सम्राट होने से तो भिखारी होना बेहतर है। दो आखिरी पोलेरिटी चुनता है। वह कहता है, सम्राट होने से तो भिखारी होना बेहतर है। अर्जुन या तो सम्राट हो सकता है या भिखारी हो सकता है, बीच में कहीं नहीं हो सकता। या तो उस छोर पर नंबर एक या इस छोर पर नंबर एक; लेकिन नंबर एक ही हो सकता है।
यह थोड़ा ध्यान रखने जैसा है। बर्नार्ड शा ने कभी कहा कि अगर मुझे स्वर्ग भी मिले और नंबर दो होना पड़े, तो मैं इनकार करता हूं। मैं नर्क में ही रहना पसंद कर लूंगा, लेकिन नंबर एक होना चाहिए। नंबर एक होना चाहिए, नर्क भी पसंद कर लूंगा। नंबर दो भी अगर हो जाता हूं, तो स्वर्ग मुझे नहीं चाहिए। क्या मजा होगा उस स्वर्ग में जिसमें नंबर दो हो गए! नर्क में भी मजा हो सकता है, अगर नंबर एक...। इसलिए नंबर एक होने वाले लोग अगर सब नर्क में इकट्ठे हो जाते हों तो बहुत हैरानी नहीं है। दिल्ली से नर्क का रास्ता एकदम करीब है। दिल्ली से गए कि नर्क में गए। वहां बीच में गैप भी नहीं है। वह जो नंबर एक होने के लिए पीड़ित है, अगर उससे सम्राट होना छूटता हो तो वह तत्काल जो दूसरा विकल्प है, वह भिखारी होने का है।
यह विकल्प भी देखना जरूरी है; क्योंकि यह विकल्प सिर्फ अहंकार ही चुनता है। यह विकल्प--एक्सट्रीम, अति का विकल्प--सदा अहंकार ही चुनता है। क्योंकि अहंकार को इससे मतलब नहीं है कि सम्राट बनो कि भिखारी बनो; मतलब इससे है कि नंबर एक!
अर्जुन कह रहा है कि इससे तो बेहतर है कि मैं भिखारी ही हो जाऊं, सड़क पर भीख मांगूं। ऊपर से दिखाई पड़ता है कि बड़ी विनम्रता की बात कह रहा है। सम्राट होना छोड़कर भीख मांगने की बात कह रहा है। लेकिन भीतर से बहुत फर्क नहीं है। भीतर बात वही है। भीतर बात वही है, अति पर होने की बात अहंकार की इच्छा है। आखिरी पोल पर, ध्रुव पर खड़े होने की इच्छा अहंकार की इच्छा है। या तो इस कोने या उस कोने, मध्य उसके लिए नहीं है।
बुद्ध के मनोविज्ञान का नाम मध्यमार्ग है, दि मिडल वे। और जब बुद्ध से किसी ने पूछा कि आप अपने मार्ग को मज्झिम निकाय--बीच का मार्ग--क्यों कहते हैं? तो बुद्ध ने कहा, जो दो अतियों के बिलकुल बीच में खड़ा हो जाए, वही केवल अहंकार से मुक्त हो सकता है, अन्यथा मुक्त नहीं हो सकता।
एक छोटी-सी घटना बुद्ध के जीवन के साथ जुड़ी है। एक गांव में बुद्ध आए हैं। सम्राट दीक्षित होने आ गया। और उस सम्राट ने कहा कि मुझे भी दीक्षा दे दें। बुद्ध के भिक्षुओं ने बुद्ध के कान में कहा, सावधानी से देना इसे आप। क्योंकि हमने जो इसके संबंध में सुना है, वह बिलकुल विपरीत है। यह आदमी कभी रथ से नीचे नंगे पैर भी नहीं चला है। यह आदमी अपने महल में, जो भी संभव है, सारे भोग के साधनों में डूबा पड़ा है। यह अपनी सीढ़ियां भी चढ़ता है तो सीढ़ियों के किनारे रेलिंग की जगह नंगी स्त्रियों को खड़ा रखता है, उनके कंधों पर हाथ रखकर चढ़ता है। जरा इससे सावधान रहना। शराब और स्त्री के अतिरिक्त इसकी जिंदगी में कभी कुछ नहीं आया है। और यह आज अचानक भिक्षु होने और त्यागी बनने, तपश्चर्या का व्रत लेने आया है। यह आदमी बीच में धोखा न दे जाए।
बुद्ध ने कहा, जहां तक मैं आदमियों को जानता हूं, यह आदमी धोखा न देगा। यह एक अति से ऊब गया, अब दूसरी अति पर जा रहा है। एक एक्सट्रीम से ऊब गया और अब दूसरे एक्सट्रीम पर जा रहा है। पर उन्होंने कहा, हमें संदेह होता है, क्योंकि यह कल तक बिलकुल और था। बुद्ध ने कहा, मुझे संदेह नहीं होता है। इस तरह के लोग अक्सर ही अतियों में चुनाव करते हैं। भय मत करो। उन्होंने कहा, हमें नहीं लगता है कि यह भीख मांग सकेगा, सड़क पर नंगे पैर चल सकेगा, धूप-छांव सह सकेगा, हमें नहीं दिखाई पड़ता। बुद्ध ने कहा, यह तुम से ज्यादा सह सकेगा। हंसे वे सब। उन्होंने कहा कि इस मामले में कम से कम बुद्ध निश्चित ही गलत हो जाने वाले हैं।
लेकिन नहीं, बुद्ध गलत नहीं हुए। दूसरे ही दिन से देखा गया कि भिक्षु अगर रास्ते पर चलते, तो रास्ते के नीचे चलता वह सम्राट जहां कांटे होते। और भिक्षु अगर वृक्ष की छाया में बैठते, तो वह सम्राट धूप में खड़ा रहता। और भिक्षु अगर दिन में एक बार भोजन करते, तो वह सम्राट दो दिन में एक बार भोजन करता।
छह महीने में वह सूखकर काला पड़ गया। अति सुंदर उसकी काया थी। भूख से हड्डियां उसकी बाहर निकल आईं। पैरों में घाव बन गए। बुद्ध ने अपने भिक्षुओं से पूछा कि कहो, तुम कहते थे कि यह आदमी भरोसे का नहीं, और मैंने तुमसे कहा था कि यह आदमी बहुत भरोसे का है, यह आदमी तुमसे आगे तपश्चर्या कर लेगा। पर, वे भिक्षु कहने लगे, हम हैरान हैं कि आप कैसे पहचाने!
बुद्ध ने कहा, अहंकार सदा एक अति से दूसरी अति चुन लेता है। बीच में नहीं रुक सकता। यह सम्राटों में सम्राट था, यह भिक्षुओं में भिक्षु है। यह सम्राटों में नंबर एक सम्राट था। इसने सारी सुंदर स्त्रियां राज्य की इकट्ठी कर रखी थीं। इसने सारे हीरे-जवाहरात अपने महल के रास्तों पर जड़ रखे थे। अब यह भिक्षुओं में साधारण भिक्षु नहीं है। यह भिक्षुओं में असाधारण भिक्षु है। तुम चलते हो सीधे रास्ते पर, यह चलता है तिरछे रास्ते पर। तुम कांटे बचाकर चलते हो, यह कांटे देखकर चलता है कि कहां-कहां हैं। तुम छाया में बैठते हो, यह धूप में खड़ा होता है। यह नंबर एक रहेगा, यह कहीं भी रहे। यह नंबर एक होना नहीं छोड़ सकता; यह तुम्हें मात करके रहेगा। इसने सम्राटों को मात किया, तुम भिखारियों को कैसे मात नहीं करेगा! अहंकार अति चुनता है।
अर्जुन कह रहा है कि छोड़ दूं सब साम्राज्य, कुछ अर्थ नहीं। भिक्षा मांग लेंगे। मांग सकता है, बिलकुल मांग सकता है। अहंकार की वहां भी तृप्ति हो सकती है। मध्य में नहीं रुक सकता। अति से अति पर जा सकता है। अति से अति पर जाने में कोई रूपांतरण, कोई ट्रांसफार्मेशन नहीं है।
फिर बुद्ध एक दिन उस सम्राट के पास गए सांझ को। रुग्ण, बीमार, वह राह के किनारे पड़ा था। बुद्ध ने उससे कहा, मैं एक बात पूछने आया हूं। मैंने सुना है कि तुम जब सम्राट थे, तो वीणा बजाने में बहुत कुशल थे। मैं तुमसे पूछने आया हूं कि वीणा के तार अगर बहुत कसे हों, तो संगीत पैदा होता है? उसने कहा, कैसे पैदा होगा! तार टूट जाते हैं। और बुद्ध ने कहा, बहुत ढीले हों तार, तब संगीत पैदा होता है? उस सम्राट ने कहा कि नहीं, बहुत ढीले हों तो टंकार ही पैदा नहीं होती संगीत कैसे पैदा होगा? बुद्ध ने कहा, अब मैं जाऊं। एक बात और तुमसे कह जाऊं कि जो वीणा के तारों का नियम है--न बहुत ढीले, न बहुत कसे; अर्थात न कसे न ढीले, बीच में कहीं; जहां न तो कहा जा सके कि तार कसे हैं, न कहा जा सके कि तार ढीले हैं--ठीक मध्य में जब तार होते हैं, तभी संगीत पैदा होता है। जीवन की वीणा का भी नियम यही है।
काश! अर्जुन बीच की बात करता, तो कृष्ण कहते, जाओ, बात समाप्त हो गई, कोई अर्थ न रहा। लेकिन वह बीच की बात नहीं कर रहा है। वह एक अति से दूसरी अति की बात कर रहा है। दूसरी अति पर अहंकार फिर अपने को भर लेता है।


प्रश्न: भगवान श्री, यहां पर एक मुद्दे का प्रश्न आ गया है श्रोतागणों से। पूछते हैं कि कोर्ट में सब से पहले गीता पर क्यों हाथ रखवाते हैं? कोर्ट में रामायण या उपनिषद क्यों नहीं रखते? क्या गीता में एक श्रद्धा है या सिर्फ अंधश्रद्धा है?


पूछा है कि अदालत में शपथ लेते वक्त गीता पर हाथ क्यों रखवाते हैं? रामायण पर क्यों नहीं रखवा लेते? उपनिषद पर क्यों नहीं रखवा लेते? बड़ा कारण है। पता नहीं अदालत को पता है या नहीं, लेकिन कारण है; कारण बड़ा है।
राम, कितने ही बड़े हों, लेकिन इस मुल्क के चित्त में वे पूर्ण अवतार की तरह नहीं हैं; अंश है उनका अवतार। उपनिषद के ऋषि कितने ही बड़े ज्ञानी हों, लेकिन अवतार नहीं हैं। कृष्ण पूर्ण अवतार हैं। परमात्मा अगर पूरा पृथ्वी पर उतरे, तो करीब-करीब कृष्ण जैसा होगा। इसलिए कृष्ण इस मुल्क के अधिकतम मन को छू पाए हैं; बहुत कारणों से। एक तो पूर्ण अवतार का अर्थ होता है, मल्टी डायमेंशनल, बहुआयामी; जो मनुष्य के समस्त व्यक्तित्व को स्पर्श करता हो। राम वन डायमेंशनल हैं।
हर्बर्ट मारक्यूस ने एक किताब लिखी है, वन डायमेंशनल मैन, एक आयामी मनुष्य। राम वन डायमेंशनल हैं, एक आयामी हैं, एकसुरे हैं, एक ही स्वर है उनमें। स्वभावतः एक ही स्वर का आदमी सिर्फ उस एकसुरे आदमियों के लिए प्रीतिकर हो सकता है, सबके लिए प्रीतिकर नहीं हो सकता। महावीर और बुद्ध सभी एकसुरे हैं। एक ही स्वर है उनका। इसलिए समस्त मनुष्यों के लिए महावीर और बुद्ध प्रीतिकर नहीं हो सकते। हां, मनुष्यों का एक वर्ग होगा, जो बुद्ध के लिए दीवाना हो जाए, जो महावीर के लिए पागल हो जाए। लेकिन एक वर्ग ही होगा, सभी मनुष्य नहीं हो सकते।
लेकिन कृष्ण मल्टी डायमेंशनल हैं। ऐसा आदमी जमीन पर खोजना कठिन है, जो कृष्ण में प्रेम करने योग्य तत्व न पा ले। चोर भी कृष्ण को प्रेम कर सकता है। नाचने वाला भी प्रेम कर सकता है। साधु भी प्रेम कर सकता है; असाधु भी प्रेम कर सकता है। युद्ध के क्षेत्र में लड़ने वाला भी प्रेम कर सकता है; गोपियों के साथ नृत्य करने वाला भी प्रेम कर सकता है। कृष्ण एक आर्केस्ट्रा हैं। बहुत वाद्य हैं; सब बज रहे हैं। जिसे जो वाद्य पसंद हो, वह अपने वाद्य को तो प्रेम कर ही सकता है। और इसलिए पूरे कृष्ण को प्रेम करने वाले आदमी पैदा नहीं हो सके। जिन्होंने भी प्रेम किया है, उन्होंने कृष्ण में चुनाव किया है।
सूरदास तो बालकृष्ण को प्रेम करते हैं, गोपियों से वे बहुत डरते हैं। इसलिए बालकृष्ण को प्रेम करते हैं। क्योंकि बालकृष्ण उन्हें जमते हैं कि बिलकुल ठीक हैं। ठीक है कि बालक है; तो चलेगा। जवान कृष्ण से सूरदास को डर लगता है, क्योंकि जवान सूरदास से सूरदास को डर लगा है। तो अपना चुनाव है उनका। वह अपना चुनाव कर लेंगे।
अब अगर केशवदास को कृष्ण को प्रेम करना है, तो बालकृष्ण की वह फिक्र ही छोड़ देंगे। वह तो जवान कृष्ण को--जो कि चांद की छाया में नाच रहा है; जिसके कोई नीति-नियम नहीं हैं; जिसकी कोई मर्यादा नहीं, जो अमर्याद है, जिसको कोई बंधन नहीं पकड़ते; जो एकदम अराजक है--तो केशवदास तो उस युवा कृष्ण को चुन लेंगे; बालकृष्ण की फिक्र छोड़ देंगे।
अब तक कृष्ण को पूरा प्रेम करने वाला आदमी नहीं हुआ। क्योंकि पूरे कृष्ण को प्रेम करना तभी संभव है, जब वह आदमी भी मल्टी डायमेंशनल हो। हम आमतौर से एक आयामी होते हैं। एक हमारा ट्रैक होता है व्यक्तित्व का, एक रेल की पटरी होती है, उस पटरी पर हम चलते हैं।
मगर कृष्ण में हमें अपनी पटरी के योग्य मिल जाएगा। इसलिए कृष्ण इस मुल्क के हर तरह के आदमी के लिए प्रीतिकर हैं। बुरे से बुरे आदमी के लिए प्रीतिकर हो सकते हैं।
ध्यान रहे, अदालत में अच्छे आदमियों को तो कभी-कभी जाना पड़ता है--यानी जब बुरे आदमी उनको ले जाते हैं, तब जाना पड़ता है--अदालत आमतौर से बुरे आदमियों की जगह है। बुरा आदमी अगर राम को प्रेम करता होता, तो अदालत में आता ही नहीं। जो अदालत में आ गया है, राम की कसम खिलाना नासमझी है उसको। कृष्ण की कसम खिलाई जा सकती है। अदालत में आकर भी आदमी कृष्ण को प्रेम करता हुआ हो सकता है। बुरे आदमी के लिए भी कृष्ण खुले हैं। इन बुरे आदमियों के लिए भी उनके मकान का एक दरवाजा है, जो खुला है।
राम वगैरह के मंदिर में इकहरे दरवाजे हैं; कृष्ण के मंदिर में बहुत दरवाजे हैं। वहां शराबी भी जाए, तो उसके लिए भी एक दरवाजा है। असल में कृष्ण से बड़ी छाती का आदमी खोजना बहुत मुश्किल है। इसलिए मैं नहीं कहता कि अदालत को पता होगा--यह मुझे पता नहीं--लेकिन जाने-अनजाने, कृष्ण का रेंज व्यक्तियों को छूने का सर्वाधिक है। अधिकतम व्यक्ति उनसे स्पर्शित हो सकते हैं। ऐसा कोई भी व्यक्ति नहीं है, जिससे कृष्ण आलिंगन करने से इनकार करें; कहें कि तू हमारे लिए नहीं, हट! सबके लिए हैं। इसलिए सर्वाधिक के लिए होने से संभावना है।
और पूछा है कि क्या सिर्फ अंधविश्वास है?
नहीं, सिर्फ अंधविश्वास नहीं है। इस जगत में सत्य से भी बड़ा सत्य प्रेम है। और जिसके प्रति प्रेम है, उसके प्रति असत्य होना मुश्किल है। असल में जिसके प्रति प्रेम है, हम उसी के प्रति सत्य हो पाते हैं। जिंदगी में हम सत्य वहीं हो पाते हैं, जहां हमारा प्रेम है। और अगर प्रेमी के पास भी आप सत्य न हो पाते हों, तो समझना कि प्रेम का धोखा है।
अगर एक पति अपनी पत्नी से भी कुछ छिपाता हो और सत्य न हो पाता हो; एक पत्नी अपने पति से भी कुछ छिपाती हो और सत्य न हो पाती हो--कोई बड़ी बात नहीं, छोटी-मोटी बात भी छिपाती हो; अगर उसे क्रोध आ रहा हो और क्रोध को भी छिपाती हो--तो भी प्रेम की कमी है; तो भी प्रेम नहीं है। प्रेम अपने को पूरा नग्न उघाड़ देता है--सब तरह से, सब परतों पर।
अंधविश्वास कारण नहीं है। प्रेम की रग को पकड़ना जरूरी है, तो ही सत्य बुलवाया जा सकता है। यह भी मैं नहीं जानता कि अदालत को पता है या नहीं। क्योंकि अदालत को प्रेम का कुछ पता होगा, इसमें जरा संदेह है। लेकिन इतना तो मनस-शास्त्र कहता है कि अगर हम प्रेम की रग को पकड़ लें, तो आदमी के सत्य बोलने की सर्वाधिक संभावना है। बोलेगा कि नहीं, यह दूसरी बात है। लेकिन अधिकतम संभावना वहीं है, जहां प्रेम की रग को हम पकड़ लेते हैं। और जहां प्रेम नहीं है, वहां अधिकतम असत्य की संभावना है; क्योंकि सत्य का कोई कारण नहीं रह जाता है।


न हि प्रपश्यामि ममापनुद्याद्
यच्छोकमुच्छोषणमिन्द्रियाणाम्।
अवाप्य भूमावसपत्नमृद्धं
राज्यं सुराणामपि चाधिपत्यम्।। ८।।
क्योंकि भूमि में निष्कंटक धनधान्य संपन्न राज्य को और देवताओं के स्वामीपन को प्राप्त होकर भी मैं उस उपाय को नहीं देखता हूं जो कि मेरी इंद्रियों के सुखाने वाले
शोक को दूर कर सके।
संजय उवाच
एवमुक्त्वा हृषीकेशं गुडाकेशः परंतप।
न योत्स्य इति गोविन्दमुक्त्वा तूष्णीं बभूव ह।। ९।।
तमुवाच हृषीकेशः प्रहसन्निव भारत।
सेनयोरुभयोर्मध्ये विषीदन्तमिदं वचः।। १०।।
संजय बोले: हे राजन, निद्रा को जीतने वाला अर्जुन अंतर्यामी भगवान श्री कृष्ण के प्रति इस प्रकार कहकर
फिर (श्री गोविंद को) युद्ध नहीं करूंगा,
ऐसे स्पष्ट कहकर चुप हो गया।
उसके उपरांत हे भरतवंशी धृतराष्ट्र, अंतर्यामी श्री कृष्ण ने दोनों सेनाओं के बीच में उस शोकयुक्त अर्जुन को
हंसते हुए से यह वचन कहा।


अर्जुन अति अनिश्चय की स्थिति में है। संजय कहता है, फिर भी ऐसा कहकर कि मैं युद्ध नहीं करूंगा, अर्जुन रथ में बैठ गया है। अति अनिश्चय की स्थिति में ऐसा निश्चयात्मक भाव कि मैं युद्ध नहीं करूंगा, सोचने जैसा है। इतना डिसीसिव वक्तव्य, इतना निर्णायक वक्तव्य कि मैं युद्ध नहीं करूंगा और इतनी अनिश्चय की स्थिति कि क्या ठीक है, क्या गलत है; इतनी अनिश्चय की स्थिति कि मन अविद्या से भरा है मेरा, मुझे प्रकाशित करो। लेकिन मुझे प्रकाशित करो, यह कहता हुआ भी वह निर्णय तो अपना ही ले लेता है। वह कहता है, मैं युद्ध नहीं करूंगा।
इसके जरा भीतर प्रवेश करना जरूरी होगा। अक्सर जब आप बहुत निश्चय की बात बोलते हैं, तब आपके भीतर अनिश्चय गहरा होता है। एक आदमी कहता है कि मैं दृढ़ निश्चय करता हूं। जब ऐसा कोई आदमी कहे, तो समझना कि उसके भीतर अनिश्चय बहुत ज्यादा है, नहीं तो दृढ़ निश्चय की जरूरत नहीं पड़ेगी। जब एक आदमी कहे, मेरा ईश्वर पर पक्का भरोसा है, तो समझना कि भरोसा भीतर बिलकुल नहीं है। नहीं तो पक्के भरोसे का लेबल लगाने की जरूरत नहीं पड़ेगी। जब एक आदमी बार-बार कहे कि मैं सत्य ही बोलता हूं, तब समझना कि भीतर असत्य की बहुत संभावना है। अन्यथा ऐसे बोलने की जरूरत नहीं पड़ेगी।
हम अपने भीतर जो डांवाडोलपन है, उसे निश्चयात्मक वक्तव्यों को ऊपर से थोपकर मिटाने की कोशिश में रत होते हैं। हम सभी, हम सभी जो भीतर बिलकुल निश्चित नहीं है, उसको भी बाहर चेहरे पर निश्चित करके देख लेना चाहते हैं।
अब यह अर्जुन बड़े मजे की बात कह रहा है। वह कह रहा है, मैं युद्ध नहीं करूंगा। उसने तो आखिरी निर्णय ले लिया, उसने निष्पत्ति ले ली। उसने तो कनक्लूडिंग बात कह दी। अब कृष्ण के लिए छोड़ा क्या है? अगर युद्ध नहीं करूंगा, तो अब कृष्ण से पूछने को क्या बचा है? सलाह क्या लेनी है?
इसलिए दूसरी बात जो संजय कह रहा है, वह बड़ी मजेदार है। वह कह रहा है, कृष्ण ने हंसते हुए...।
वह हंसी किस बात पर है? हंसने का क्या कारण है? अर्जुन हंसी योग्य है? इतनी दुख और पीड़ा में पड़ा हुआ, इतने संकट में, इतनी क्राइसिस में--और कृष्ण हंसते हैं! लेकिन अब तक नहीं हंसे थे। पहली दफे कृष्ण हंसते हैं उसके वक्तव्य को सुनकर।
उस हंसी का कारण है। कि वे देखते हैं, इतना अनिश्चित आदमी इतने निश्चय वक्तव्य दे रहा है कि युद्ध नहीं करूंगा! धोखा किसको दे रहा है? उसके धोखे पर, उसके सेल्फ डिसेप्शन पर, उसकी आत्मवंचना पर कृष्ण को हंसी आ जाती है। जो जानता है, उसे आएगी। देख रहे हैं कि नीचे तो दरारें ही दरारें हैं उसके मन में। देख रहे हैं कि नीचे तो कटा-कटा मन है उसका, टूटा-टूटा मन है। देख रहे हैं कि नीचे कुछ भी तय नहीं है और ऊपर से वह कहता है कि मैं युद्ध नहीं करूंगा। यह वह अपने को धोखा दे रहा है।
हम सब देते हैं। और जब भी हम बहुत निश्चय की भाषा बोलते हैं, तब भीतर अनिश्चय को छिपाते हैं। जब हम बहुत प्रेम की भाषा बोलते हैं, तो भीतर घृणा को छिपाते हैं। और जब हम बहुत आस्तिकता की भाषा बोलते हैं, तो भीतर नास्तिकता को छिपाते हैं। आदमी उलटा जीता है। ऊपर जो दिखाई पड़ता है, ठीक उससे उलटा भीतर होता है।
इसलिए कृष्ण की हंसी बिलकुल मौजूं है, ठीक वक्त पर है। असामयिक नहीं है, लगेगी असामयिक। अच्छा नहीं लगता यह। बड़ी कठोर बात मालूम पड़ती है कि कृष्ण हंसें। इतने दुख, इतने संकट में पड़ा हुआ अर्जुन, उस पर हंसें! लेकिन हंसी का कारण है। देख रहे हैं उसको कि कैसा दोहरा काम अर्जुन कर रहा है। एक तरफ कुछ कह रहा है, दूसरी तरफ ठीक उलटा वक्तव्य दे रहा है।
दो-सुरे आदमी के वक्तव्य में, दोहरे आदमी के वक्तव्य में हमेशा अंतर्विरोध होता है। अंतर्विरोध बहुत साफ है। यानी वह ऐसा काम कर रहा है, कि एक हाथ से ईंट रख रहा है मकान की और दूसरे हाथ से खींच रहा है; एक हाथ से दीवार उठाता है, दूसरे हाथ से खींचता है; दिनभर मकान बनाता है, रात गिरा लेता है। यह जो दोहरा काम वह कर रहा है, इसलिए कृष्ण हंस रहे हैं। यह हंसी उसके व्यक्तित्व के इस दोहरेपन पर, इस स्किजोफ्रेनिक, बंटे हुए पन पर हंसी के सिवाय और क्या हो सकता है!
मगर कृष्ण की हंसी में काफी इशारा है। लेकिन मैं नहीं समझता कि अर्जुन ने वह हंसी देखी होगी। और मैं नहीं समझता कि अर्जुन ने वह हंसी सुनी होगी।
आखिरी सूत्र और पढ़ लें।


श्री भगवानुवाच
अशोच्यानन्वशोचस्त्वं प्रज्ञावादांश्च भाषसे।
गतासूनगतासूंश्च नानुशोचन्ति पण्डिताः।। ११।।
श्री कृष्ण बोले: हे अर्जुन, तू न शोक करने योग्यों के लिए शोक करता है, और पंडितों के से वचनों को कहता है, परंतु पंडितजन, जिनके प्राण चले गए हैं, उनके लिए और जिनके प्राण नहीं गए हैं, उनके लिए भी नहीं शोक करते हैं।


हंसकर जो कृष्ण ने कहा है, वह और भी कठोर है। वे अर्जुन को कहते हैं कि तुम शास्त्र की भाषा बोल रहे हो, लेकिन पंडित नहीं हो, मूढ़ हो, मूर्ख हो। क्योंकि शास्त्र की भाषा बोलते हुए भी तुम जो निष्पत्तियां निकाल रहे हो, वे तुम्हारी अपनी हैं। शास्त्र की भाषा बोल रहा है--क्या-क्या अधर्म हो जाएगा, क्या-क्या अशुभ हो जाएगा, क्या-क्या बुरा हो जाएगा--पूरी शास्त्र की भाषा अर्जुन बोल रहा है। लेकिन शास्त्र की भाषा पर अपने को थोप रहा है। जो निष्कर्ष लेना चाहता है, वह उसके भीतर लिया हुआ है। शास्त्र से केवल गवाही और समर्थन खोज रहा है।
मूर्ख और पंडित में एक ही फर्क है। मूर्ख भी शास्त्र की भाषा बोल सकता है, अक्सर बोलता है; कुशलता से बोल सकता है। क्योंकि मूर्ख होने और शास्त्र की भाषा बोलने में कोई विरोध नहीं है। लेकिन मूर्ख शास्त्र से वही अर्थ निकाल लेता है, जो निकालना चाहता है। शास्त्र से मूर्ख को कोई प्रयोजन नहीं है; प्रयोजन अपने से है। शास्त्र को भी वह अपने साथ खड़ा कर लेता है गवाही की तरह।
सिमन वेल ने कहीं एक वाक्य लिखा है; लिखा है कि कुछ लोग हैं जो सत्य को भी अपने पक्ष में खड़ा करना चाहते हैं, और कुछ लोग हैं जो सत्य के पक्ष में स्वयं खड़े होना चाहते हैं। बस, दो ही तरह के लोग हैं। कुछ लोग हैं जो धर्म को अपनी पीठ के पीछे खड़ा करना चाहते हैं, शास्त्र को अपने पीछे खड़ा करना चाहते हैं; और कुछ लोग हैं जो धर्म के साथ खड़े होने का साहस रखते हैं।
लेकिन धर्म के साथ खड़ा होना बड़ा क्रांतिकारी कदम है; क्योंकि धर्म मिटा डालेगा, आपको तो बचने नहीं देगा। लेकिन धर्म को अपने पक्ष में खड़ा कर लेना बहुत कनफर्मिस्ट, बहुत सरल, बड़ा रूढ़िग्रस्त कदम है; क्योंकि उससे आप अपने को बचाने के लिए सुविधा और सिक्योरिटी खोजते हैं।
अर्जुन पंडित की भाषा बोल रहा है, पंडित जैसी बातें बोल रहा है। लेकिन अर्जुन को ज्ञान से, प्रज्ञा से कोई लेना-देना नहीं है। अपने पक्ष में सारे शास्त्रों को खड़ा करना चाहता है।
और जो व्यक्ति शास्त्र को अपने पक्ष में खड़ा कर लेना चाहता है, स्वभावतः अपने को शास्त्र के ऊपर रख लेता है। और अपने को शास्त्र के ऊपर रख लेने से ज्यादा खतरनाक और कुछ भी नहीं हो सकता है। क्योंकि उसने यह तो मान ही लिया कि वह ठीक है; उसमें गलती होने की तो उसे अब कोई संभावना न रही। उसने अपने ठीक होने का तो अंतिम निर्णय ले लिया। अब वह शास्त्रों में भी अपने को खोज लेता है।
ईसाई फकीर एक बात कहा करते हैं कि शैतान भी शास्त्र से हवाले दे देता है; अक्सर देता है। कोई कठिनाई नहीं है शास्त्र से हवाले दे देने में। आसान है बात। अर्जुन भी वैसे ही शास्त्र के हवाले दे रहा है।
और बड़े मजे की बात यह है कि किस आदमी के सामने शास्त्र के हवाले दे रहा है! जब शास्त्र मूर्तिमंत सामने खड़ा हो, तब शास्त्र के हवाले सिर्फ नासमझ दे सकता है। किस आदमी के सामने ज्ञान की बातें बोल रहा है! जब ज्ञान सामने खड़ा हो, तब ज्ञान की उधार बातें सिर्फ नासमझ बोल सकता है। कृष्ण का हंसना उचित है। और कृष्ण का यह कहना भी उचित है कि अर्जुन तू पंडित की भाषा बोलता है, लेकिन निपट गंवारी का काम कर रहा है। किसके सामने?
सुना है मैंने कि बोधिधर्म के पास एक आदमी गया बुद्ध की एक किताब लेकर, और बोधिधर्म से बोला कि इस किताब के संबंध में मुझे कुछ समझाओ। बोधिधर्म ने कहा कि यदि तू समझता है कि बुद्ध की किताब मैं समझा सकूंगा, तो किताब को फेंक, मुझसे ही समझ ले। और अगर तू समझता है कि बुद्ध की किताब बोधिधर्म नहीं समझा सकेगा, तो मुझे फेंक, किताब को ही समझ ले।
कृष्ण की हंसी बहुत उचित है। किनके हवाले दे रहा है? और बड़े मजे की बात है, पूरे समय कह रहा है, भगवन्! कह रहा है, भगवान! हे भगवान! हे मधुसूदन! और शास्त्र के हवाले दे रहा है।
भगवान के सामने भी कुछ नासमझ शास्त्र लेकर पहुंच जाते हैं; उनकी नासमझी का कोई अंत नहीं है। अगर कभी भगवान भी उन्हें मिल जाए, तो उसके सामने भी वे गीता के उद्धरण देंगे कि गीता में ऐसा लिखा है। तो भगवान को हंसना ही पड़ेगा कि कम से कम अब तो गीता छोड़ो। लेकिन वे नहीं छोड़ेंगे।
वह अर्जुन, जो आम पंडित की नासमझी है, वही कर रहा है। और कृष्ण सीधे और साफ कह रहे हैं। इतनी सीधी और साफ बात कम कही गई है, बहुत कम कही गई है। कृष्ण कह सकते हैं, कहने का कारण है। लेकिन अर्जुन इसे भी सुनेगा या नहीं, यह कहना मुश्किल है! अर्जुन करीब-करीब पूरी गीता में, बहुत समय तक, अंधे और बहरे का ही प्रदर्शन करता है। अन्यथा शायद गीता की जरूरत ही नहीं थी। अगर वह एक बार गौर से आंख खोलकर कृष्ण को देख लेता, तो ही बात समाप्त हो गई थी। लेकिन वह भगवान भी कहे चला जाता है और उनकी तरफ ध्यान भी नहीं दे रहा है!
जब खुद भगवान ही सारथी हैं--अगर सच में वह जानता है कि वे भगवान हैं--तो जब वे सारथी बनकर ही रथ पर बैठ गए हों और लगाम उनके ही हाथ में हो, तब वह व्यर्थ अपने सिर पर वजन क्यों ले रहा है सोचने का! अगर वे भगवान ही हैं, ऐसा वह जानता है, तो अब और पूछने की क्या गुंजाइश है? हाथ में लगाम उनके है, छोड़ दे बात! लेकिन वह कहता है भगवान, जानता अभी नहीं है।
हम भी भगवान कहे चले जाते हैं, जानते नहीं हैं। मंदिर में एक आदमी भगवान के सामने खड़े होकर कहता है कि नौकरी नहीं लग रही, नौकरी लगवा दें भगवान। अगर भगवान को जानता ही है, तो इतना तो जानना ही चाहिए कि नौकरी नहीं लग रही, इसका उन्हें पता होगा। यह कृपा करके इन्फर्मेशन मत दें। और अगर इतना भी उनको पता नहीं है, तो ऐसे भगवान के सामने हाथ जोड़कर भी कुछ होने वाला नहीं है। जो आम भक्त भगवान के सामने कर रहा है, कह रहा है, भगवान! और शक उसे इतना भी है कि अब यह लड़के को नौकरी नहीं लग रही है...!
जीसस सूली पर आखिरी क्षण में, जब हाथ में उनके खीले ठोंक दिए गए, तो उनके मुंह से एक आवाज निकल गई जोर से कि हे भगवान, यह क्या दिखला रहा है! यह क्या करवा रहा है! एक क्षण को जीसस के मुंह से निकल गया, यह क्या करवा रहा है!
मतलब क्या हुआ? शिकायत हो गई। मतलब क्या हुआ? मतलब यह हुआ कि जीसस कुछ और देखना चाहते थे और कुछ और हो रहा है। मतलब यह हुआ कि समर्पण नहीं है; मतलब यह हुआ कि भगवान के हाथों में लगाम नहीं है; मतलब यह हुआ कि इस क्षण में जीसस भगवान से ज्यादा बुद्धिमान अपने को समझ रहे हैं!
तत्काल जीसस को खयाल आ गया। अर्जुन को बहुत मुश्किल से खयाल आता है; जीसस को तत्काल खयाल आ गया। जैसे ही उनके मुंह से यह आवाज निकली कि हे भगवान, यह क्या दिखला रहा है! दूसरा वाक्य उन्होंने कहा, क्षमा कर। जो तेरी मर्जी--दाई विल बी डन--तेरी ही इच्छा पूरी हो। यह मैं क्या कह दिया--क्या दिखला रहा है! शक पैदा हो गया।
मेरे हिसाब में तो इस एक वचन को बोलते वक्त जीसस मरियम के बेटे जीसस थे और दूसरे वचन को बोलते वक्त वे क्राइस्ट हो गए। इस बीच में क्रांति घटित हो गई। एक क्षण पहले तक वे सिर्फ मरियम के बेटे जीसस थे, जिसने कहा, यह क्या दिखला रहा है! शिकायत मौजूद थी। आस्तिक के मन में शिकायत नहीं हो सकती। दूसरे क्षण में ही तत्काल उनके मुंह से निकला, क्षमा कर; तेरी इच्छा पूरी हो। जो तू कर रहा है, वही ठीक है; उससे अन्यथा ठीक होने का कोई सवाल ही नहीं है।
बस, वे क्राइस्ट हो गए। दूसरे ही क्षण वे मरियम के साधारण बेटे न रहे; वे परमात्मा के पुत्र हो गए।
अर्जुन कहे तो चला जा रहा है, भगवान, भगवान! लेकिन वह संबोधन है; वैसे ही जैसे सभी संबोधन झूठे होते हैं, औपचारिक होते हैं। अभी भगवान उसे दिखाई नहीं पड़ रहा है। दिखाई तो उसे यही पड़ रहा है कि अपना सखा है कृष्ण। आ गया है साथ, सारथी का काम कर रहा है। साथ है, इसलिए पूछ लेते हैं। बाकी भगवान की जो अनुभूति है, वह अगर उसे हो जाए तो पूछने को क्या बचता है! उसे कहना चाहिए कि लगाम तुम्हारे हाथ में है, जो मर्जी। दाई विल बी डन, अपनी इच्छा पूरी करो।
इसलिए उसके भगवान का संबोधन अभी सार्थक नहीं है। क्योंकि वह संबोधनों के बाद भी निर्णय खुद ले रहा है। वह कह रहा है, मैं युद्ध नहीं करूंगा। कह रहा है, भगवान! कह रहा है, मैं युद्ध नहीं करूंगा। इस पर कृष्ण हंसें और कहें कि तू बड़ी विरोधी बातें बोल रहा है, तो उचित ही है।
शेष संध्या बात करेंगे।


कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें