पहला
प्रश्न:
आपने
स्त्री के लिए
प्रेम और
पुरुष के लिए
ध्यान का
मार्ग बताया।
मेरी तकलीफ यह
है कि न प्रेम
में पूरा डूब
पाती हूं, न ध्यान में
गहराई आती है।
कृपया बताएं
मेरे लिए
मार्ग क्या है?
धर्म
ज्योति ने
पूछा है।
धर्मगुरुओं
का डाला हुआ
जहर बाधा बन
रहा है। उस
जहर से जब तक
छुटकारा न हो, प्रेम तो
असंभव है।
क्योंकि
प्रेम की सदा
से निंदा की
गयी है। प्रेम
को सदा बंधन
कहा गया है।
और चूंकि
प्रेम की
निंदा की गयी
है और प्रेम को
बंधन कहा गया
है, इसलिए
स्त्री भी सदा
अपमानित की
गयी है। जब तक
प्रेम
स्वीकार न
होगा तब तक
स्त्री भी
सम्मानित
नहीं हो सकती,
क्योंकि
स्त्री का
स्वभाव प्रेम
है।
और बड़े आश्चर्य
की बात यह है
कि स्त्रियां
जितनी धर्मगुरुओं
से प्रभावित
होती हैं उतना
कोई भी नहीं
होता। और उनकी
जड़ पर ही वे
कुठाराघात
किए चले जाते
हैं।
लेकिन
एक बार
तुम्हारे मन
में जहर फैल
जाए, और ऐसा
खयाल आ जाए कि
प्रेम बंधन है,
तो तुमने
पुरुष की भाषा
सीख ली। और
हृदय तुम्हारा
स्त्री का है।
तब तुम अड़चन
में पड़ो, स्वाभाविक
है। पुरुष के
लिए सही है
यही बात कि
प्रेम बंधन
है। स्त्री के
लिए प्रेम
मुक्ति है। और
जो पुरुष के
लिए जहर है, वह स्त्री
के लिए अमृत
है। और स्त्री
का तो अब तक
कोई धर्म
पृथ्वी पर
पैदा नहीं हुआ,
और
स्त्रियों का
तो कोई
तीर्थंकर
नहीं हुआ, और
कोई अवतार
नहीं हुआ; इसलिए
स्त्री के
हृदय की बात
को किसी ने
प्रगट भी नहीं
किया।
सारे
धर्म पुरुषों
के हैं। और
स्वभावतः
पुरुष ने अपने
दृष्टिकोण को
रखा है। वह
पुरुष के लिए
बिलकुल सही
है। पुरुष
जैसे ही प्रेम
में पड़ता है
वैसे ही बंधन
खड़े हो जाते
हैं। क्योंकि पुरुष
का अहंकार
प्रेम में
बंधन देखता
है। पूरा डूब
तो नहीं पाता--डूब
जाए तो प्रेम
मुक्ति हो जाए, तो प्रेम
मोक्ष हो
जाए--डूब तो
नहीं पाता, मजबूरी में,
बेबसी में
झुकता है, लेकिन
भीतर अहंकार
पीड़ा पाता है।
और सदा लगता है,
यह तो कारागृह
हो गया। इससे
कैसे छूटूं?
स्त्री
के लिए प्रेम
बंधन नहीं
मालूम होता, क्योंकि
स्त्री पूरी
ही झुक जाती
है। समर्पण
उसका स्वभाव
है। कोई
अहंकार पीछे
नहीं बचता, तो बंधेगा
कौन? जो
बंध सकता था
वह तो प्रेम
में गिर ही
गया। पुरुष
कभी झुक नहीं
पाता, इसलिए
बंधा हुआ
मालूम पड़ता
है। मिट जाए
तो बंधने को
ही कोई नहीं
बचता, प्रेम
बांधेगा
क्या? और
जब बंधने को
कोई नहीं बचता,
तो प्रेम
मुक्त करता है,
प्रेम
परम-स्वातंत्र्य
हो जाता है, लेकिन
समर्पण के
बाद।
पुरुष
की अड़चन है, संकल्प तो
कर सकता है, समर्पण नहीं
कर सकता।
स्त्री की
अड़चन है, समर्पण
तो कर सकती है,
संकल्प
नहीं कर सकती।
मगर इसको अड़चन
बनाने की जरूरत
नहीं है। जो
जहां है वहीं
से मार्ग
खोजना चाहिए।
दूसरे की भाषा
मत सीखना, अन्यथा
अड़चन होगी।
धर्म
ज्योति के साथ
यही हुआ है।
महात्माओं के सत्संग
में रही है।
महात्माओं ने
पूरे मन को विकृत
कर दिया है।
उन्होंने जो
भी सिखाया
है, वह पीछा
नहीं छोड़ रहा
है। मेरी बात
भी सुन रही है;
लेकिन
महात्मा बीच
में खड़े हैं, वे मेरी बात
को भीतर
प्रवेश नहीं
होने देते। उनका
संस्कार
पुराना है। और
ऐसा भी नहीं
है कि एक जन्म
का हो--बहुत
जन्मों का हो
सकता है। और जब
तक ये
महात्माओं की
भीड़ विदा न
होगी, तब
तक प्रेम तो
संभव नहीं हो
पाएगा।
और
प्रेम भी कहीं
चुल्लू-चुल्लू
किया जाता है, थोड़ा-थोड़ा
किया जाता है?
प्रेम तो
बाढ़ है। प्रेम
तो कोई
हिसाब-किताब
नहीं रखता।
वहां कोई गणित
नहीं है।
प्रेम तो तुम
पूरे डूब जाओ
तो ही है, नहीं
तो नहीं है।
लेकिन प्रेम
शब्द में ही
घबड़ाहट मालूम
होती है।
सदियों-सदियों
के संस्कार हैं।
तो जब
मैं तुमसे
प्रेम की बात
करता हूं, तब भी तुम
समझते हो, ऐसा
नहीं है। तब
भी बात तुम तक
पहुंच जाती है,
ऐसा नहीं
है। पुरुषों
तक न पहुंचे, कोई अड़चन
नहीं।
क्योंकि
ध्यान से उनके
लिए सुविधा
है। प्रेम से
ज्यादा
सुविधा है
उनके लिए ध्यान
के द्वारा।
भक्ति पुरुषों
को जमती ही
नहीं। प्रेम
के साथ तालमेल
नहीं बैठता।
और कभी अगर अपवादरूप
कोई पुरुष
भक्त हो गया
हो, तो अपवादरूप
ही कोई स्त्री
ध्यानी हुई
है। लेकिन
उससे नियम
निर्मित नहीं
होता।
पुरुष
ध्यान से
जाएगा। ध्यान
है परम
संकल्प। ध्यान
का अर्थ समझ
लो। ध्यान का
अर्थ है, अकेले
हो जाने की
क्षमता।
दूसरे पर कोई
निर्भरता न रह
जाए। दूसरे का
खयाल भी
विस्मृत हो जाए।
सभी खयाल
दूसरे के हैं।
खयाल मात्र पर
का है। जब पर
का कोई विचार
न रह जाए, तो
स्व शेष रह
जाता है। और
उस स्व के शेष
रह जाने में
स्व भी मिट
जाता है; क्योंकि
स्व अकेला नहीं
रह सकता, वह
पर के साथ ही
रह सकता है।
जिस नदी का एक
किनारा खो गया,
उसका दूसरा
भी खो जाएगा।
दोनों किनारे
साथ-साथ हैं।
अगर सिक्के
का एक पहलू खो
गया, तो
दूसरा पहलू
अपने आप नष्ट
हो जाएगा।
दोनों पहलू
साथ-साथ हैं।
जिस दिन
अंधकार खो
जाएगा, उसी
दिन प्रकाश भी
खो जाएगा।
ऐसा मत
सोचना कि जिस
दिन अंधकार खो
जाएगा उस दिन
प्रकाश ही
प्रकाश बचेगा।
इस भूल में मत
पड़ना।
क्योंकि वे
दोनों एक ही सिक्के के
दो पहलू हैं।
जिस दिन मौत
समाप्त हो
जाएगी, उसी
दिन जीवन भी
समाप्त हो
जाएगा। ऐसा मत
सोचना कि जब
मौत समाप्त हो
जाएगी तो जीवन
अमर हो जाएगा।
इस भूल में
पड़ना ही मत।
मौत और जीवन
एक ही घटना के
दो हिस्से
हैं--अन्योन्याश्रित
हैं। एक-दूसरे
पर निर्भर
हैं। तो जब पर
बिलकुल छूट
जाता है, तो
स्वयं की उस
निजता में
अंततः स्वयं
का होना भी
मिट जाता है।
शून्य रह जाता
है। ध्यान की
यही अवस्था है,
उसको हमने
समाधि कहा है।
दो
शब्द बनाने
चाहिए।
ध्यान-समाधि
और प्रेम-समाधि।
समाधि तो
दोनों में एक
ही है, लेकिन
दोनों के
मार्ग बड़े अलग
हैं। पुरुष को
जो समाधि
उपलब्ध होती
है, जो
बुद्ध को
उपलब्ध हुई, वह है
ध्यान-समाधि।
पर को छोड़ा,
स्व छूट गया,
समाधि
उपलब्ध हुई।
मीरा
को जो समाधि
उपलब्ध हुई, वह है
प्रेम-समाधि।
पर को नहीं छोड़ा,
स्वयं को
समर्पित
किया। इतना
समर्पित किया
कि स्व न बचा, पर ही बचा।
और जब पर
अकेला बचा तो
पर भी मिट गया;
समाधि
उपलब्ध हो
गयी। जहां दो
मिट जाते हैं
वहां समाधि।
लेकिन मीरा
की समाधि
प्रेम से आयी।
बुद्ध की
समाधि ध्यान
से आयी।
समाधि तो एक
है, लेकिन
मार्ग बड़ा
अलग-अलग है।
बुद्ध
की बात सुन-सुनकर
प्रेम से
आस्था उठ गयी।
पुरुष की उठ
जाए, कोई
हर्जा नहीं, लाभपूर्ण है। लेकिन
स्त्री की उठ
जाए तो खतरा
है। क्योंकि
पुरुष के
स्वभाव के तो
अनुकूल है
ध्यान का
मार्ग, स्त्री
के स्वभाव के
अनुकूल नहीं
है। और
स्त्री-पुरुष
विपरीत हैं।
इसीलिए तो
उनमें इतना
आकर्षण है। वे
ऋण और धन
विद्युत की
तरह हैं। दिन
और रात की तरह
हैं। जीवन और
मृत्यु की तरह
हैं। विपरीत
हैं। और
इसीलिए तो
इतना आकर्षण
है। विपरीत
में ही आकर्षण
होता है। समान
में तो
विकर्षण हो
जाता है। समान
से तो ऊब हो
जाती है।
विपरीत में
खोज और
जिज्ञासा
जारी रहती है।
अच्छा
है कि पुरुष
और स्त्री
विपरीत हैं, अन्यथा
संसार में सब
रस खो जाए।
स्त्री और पुरुष
जितने विपरीत
हों उतना ही
सुखद है।
जितना उनके
बीच फासला हो,
जितनी
दोनों के बीच
दूरी हो, और
दोनों जितने
एक-दूसरे से
भिन्न हों, उतना ही
उनके बीच
संबंध की
गरिमा
निर्मित होगी,
संबंध के
शिखर निर्मित
होंगे।
मनुष्य
ने अपने अतीत
में स्त्री और
पुरुष को जितना
भिन्न बन सके
बनाने की
कोशिश की थी।
इसलिए प्रेम
की बड़ी अनूठी
घटनाएं घटीं।
पश्चिम में
आधुनिक युग
में स्त्री और
पुरुष को पास
लाने की चेष्टा
की गयी है, प्रेम
समाप्त हुआ जा
रहा है।
क्योंकि
स्त्री-पुरुष
करीब-करीब
समान मालूम
होने लगे हैं।
स्त्री-पुरुष
समान होने
चाहिए न्याय
की दृष्टि में,
समान नहीं
होने चाहिए
स्वभाव की
दृष्टि से। बड़े
असमान हैं।
बड़े भिन्न
हैं।
असमान
का यह अर्थ
नहीं है कि
स्त्री पुरुष
से नीची है, या पुरुष
स्त्री से
ऊंचा है।
असमान का अर्थ
है कि दोनों
बड़े भिन्न हैं,
जैसे रात और
दिन, रोशनी
और अंधेरा।
इतना ही फासला
है। कानून उनको
समान माने, लेकिन
मनोविज्ञान
उन्हें समान
नहीं कह सकता।
और अगर समान
बनाने की
चेष्टा की गयी,
तो जितने
स्त्री-पुरुष
समान होते
जाएंगे उतना
ही स्त्री
पुरुष जैसी हो
जाएगी, पुरुष
स्त्री जैसा
हो जाएगा; उन
दोनों के बीच
का आकर्षण खो
जाएगा। उन
दोनों के बीच
जो एक मधुर
तनाव
है--प्रेम भी
है और संघर्ष
भी है, मधुर
तनाव है; लगाव
भी है और
विरोध भी है; कभी फूल भी
खिलते हैं, कभी कांटे
भी चुभ
जाते हैं; पास
भी आते हैं, दूर भी हटते
हैं; निमंत्रण
भी है, अस्वीकार
भी है--उन
दोनों के बीच
यह जो बड़ा खेल चलता
है जीवन का, यह जो सारी
लीला है जीवन
की, वह
मधुर है। वह
शुभ है, सुंदर
है। और उस
सबका आधार यह
है कि स्त्री
समर्पण करने
में कुशल है।
स्त्री हारकर
जीतती है।
उसके जीतने का
ढंग वही है।
वह चरणों में
रख देती है
अपने को और
सिरताज हो
जाती है। वह
अपने को खो
देती है और
पुरुष के रोएं-रोएं
में समा जाती
है।
इसी से
पुरुष घबड़ाता
है। क्योंकि
पुरुष जानता
है, उसका
समर्पण
खतरनाक है।
उसके समर्पण
में ही बंधन पैदा
हो जाता है।
पुरुष अपने को
बंधा अनुभव करता
है। क्योंकि
उसका अहंकार
है। वह
स्वाभाविक है
कि वह अपने को बचाए, लड़े, संघर्ष
करे। उसकी
यात्रा अलग
है। पुरुष
बहिर्मुखी है,
स्त्री
अंतर्मुखी
है। पुरुष और
स्त्री जब एक-दूसरे
को प्रेम भी
कर रहे हों, तो पुरुष
आंख खोलकर
प्रेम करता है,
स्त्री आंख
बंद करके।
जब भी
स्त्री भाव
में होती है, आंख बंद कर
लेती है।
क्योंकि जब भी
भाव में होती
है तब वह
अंतर्मुखी हो
जाती है। वह
प्रेम भी जिस
व्यक्ति को
करती है, उसको
भी जब ठीक से
देखना चाहती
है तो आंख बंद
कर लेती है।
यह भी कोई
देखने का ढंग
हुआ! मगर यही
स्त्री का ढंग
है। क्योंकि ऐसे
आंख बंद करके
ही वह उस
चिन्मय को देख
पाती है; आंख
खोलकर तो मृण्मय
दिखायी
पड़ता है। और
स्त्री जब भी
किसी को प्रेम
करती है तो
परमात्मा से
कम नहीं
मानती। आंख
बंद करके परमात्मा
दिखायी
पड़ता है। आंख खोलो तो
मिट्टी की देह
है।
लेकिन
पुरुष का रस
भीतर में कम
है, बाहर में
ज्यादा है।
पुरुष आंख
खोलकर प्रेम करना
चाहता है।
प्रेम के क्षण
में भी चाहता
है कि रोशनी
हो, ताकि
वह स्त्री की
देह को ठीक से
देख सके। तो पुरुषों
ने तो
स्त्रियों की
नग्न मूर्तियां
बहुत बनायी
हैं, स्त्रियों
ने पुरुषों की
एक भी नग्न
मूर्ति नहीं बनायी। और
पुरुषों ने तो
स्त्रियों के
नाम पर कितना
अश्लील पोर्नोग्रेफी,
और साहित्य,
और चित्र, और पेंटिंग्स
की हैं।
स्त्रियों ने
एक भी नहीं
की। क्योंकि
पुरुष का रस
देह में है, रूप में है, रंग में है, बहिर में है।
स्त्रियों
को तो भरोसा
ही नहीं आता
कि शरीर के
चित्रण में
इतनी
उत्सुकता
क्यों है? क्योंकि
स्त्री को तो
शरीर के पार
के देखने की
सुविधा है।
उसके पास एक
झरोखा है, जहां
से वह देह को
भूल जाती है
और परमात्मा
को देख लेती
है। पुरुषों
ने नहीं
समझाया है
स्त्री को कि
पति परमात्मा
है। यह
स्त्रियों की
प्रतीति है; कि जिसको भी
उन्होंने
प्रेम किया
उसमें परमात्मा
देखा। जहां
प्रेम की छाया
पड़ी, वहीं
परमात्मा
प्रगट होता
है। जहां
प्रेम की भनक आयी, वहीं
परमात्मा के
आने का
प्रारंभ हो
जाता है। प्रेम
की पगध्वनि
में परमात्मा
की पगध्वनि
अपने आप सुनायी
पड़ने
लगती है।
लेकिन
पुरुष बंधा
अनुभव करता
है। उसकी
यात्रा बहिर्यात्रा
है। उसे चांदत्तारों
पर जाना है।
उसे दूर को
जीतना है। उसे
संसार को विजय
करना है। ऐसे
अगर घर में
बंध जाएगा तो
फिर यह दूर की
यात्रा का क्या
होगा? बाजार
में कौन जीतेगा?
दिल्ली में
कौन विराजमान
होगा? कहां
जाएगा? कौन
भागेगा? इस आपाधापी
को कौन करेगा?
तो
जैसे ही जितना
ही
महत्वाकांक्षी
पुरुष हो, उतना ही
स्त्री से बचेगा।
महत्वाकांक्षी
राजनीतिज्ञ
हो, स्त्री
से बचेगा।
क्योंकि अगर
स्त्री ने
बांध लिया, तो स्त्री
काफी संसार
है। फिर उसके
पार संसार बचता
नहीं।
वैज्ञानिक
महत्वाकांक्षी
हो, अन्वेषण
में लगा हो, स्त्री से बचेगा।
ध्यान करने
वाला ध्यानी
हो, स्त्री
से बचेगा।
क्योंकि
स्त्री इस
पूरी तरह घेर
लेती है कि फिर
कुछ और करने
की सुविधा
नहीं रह जाती।
ध्यान न करने
देगी, शास्त्र
न पढ़ने देगी, चुनाव न
लड़ने देगी, धन न कमाने
देगी।
क्योंकि
चारों तरफ से
घेर लेगी।
स्त्री
तुम्हारे
चारों तरफ
प्रेम का एक
घर बनाती है।
उसमें
तुम्हें लगता
है कि तुम घुटे-घुटे
अनुभव करते हो,
क्योंकि
तुम्हारी
महत्वाकांक्षा
मरती है।
वही
पुरुष स्त्री
के प्रेम के
लिए राजी हो
सकता है जो अहंकार
को छोड़ने को
राजी हो। यह
पुरुष के लिए
बहुत कठिन है।
इसका एक ही
उपाय है उसके
लिए, ध्यान; कि वह गहरे
ध्यान में उतरे।
तो
मेरे देखने
में ऐसा है कि
अगर पुरुष
गहरे ध्यान
में उतर जाए, तो ही प्रेम
के योग्य हो
पाता है। और
स्त्री अगर
प्रेम में उतर
जाए, तो ही
ध्यान के
योग्य हो पाती
है।
स्त्री
सीधे ध्यान न
कर सकेगी।
तुम उसे लाख समझाओ कि
चुप होकर शांत
बैठ जाओ, वह कहेगी, लेकिन
किसके लिए? किसको याद करें? किसका स्मरण करें?
किसकी प्रतिमा सजाएं?
किसका रूप देखें
भीतर?
मंदिरों
में जो प्रतिमाएं
हैं वे सभी
स्त्रियों ने
रखी हैं।
परमात्मा के
नाम के जितने
गीत हैं वे सब
स्त्रियों ने गाए हैं।
भजन है, कीर्तन
है, उसका
अनूठा रस
स्त्रियों ने
लिया है। और
पुरुष और
स्त्री के बीच
बड़ी बेबूझ
पहेली है। वे
एक-दूसरे को
समझ नहीं पाते
हैं। समझें
भी कैसे? तुम
जिस स्त्री के
साथ जीवनभर
रहे हो, या
जिस पुरुष के
साथ जीवनभर
रहे हो, उसको
भी समझ नहीं
पाते।
क्योंकि भाषा
अलग है, यात्रा
अलग है; दोनों
के सोचने का, होने का ढंग
अलग है।
जिस
दिन दुनिया
में ठीक-ठीक
समझ आएगी उस
दिन स्त्री का
मनोविज्ञान
अलग होना
चाहिए, पुरुष
का
मनोविज्ञान
अलग। उन दोनों
के मन अलग हैं।
इसलिए सिर्फ
मनोविज्ञान
कहने से कुछ
भी न होगा।
मनोविज्ञान
से क्या पता
चलता है? किसका
मनोविज्ञान? स्त्री का
या पुरुष का? स्त्री के
मन का ढांचा
ही अलग है।
पुरुष के मन का
ढांचा अलग है।
इसलिए
पुरुष महावीर
और बुद्ध बन
जाता है।
महावीर को
हमने नाम दिया
है--जिन। जिसने
जीत लिया।
बुद्ध को हमने
नाम
दिया--बुद्ध।
जो जाग गया।
लेकिन मीरा
से पूछो, जीता? मीरा कहेगी, हारे। कृष्ण
को, और
जीतने की बात
ही बेहूदी
है! परमात्मा
को जीतने की
बात ही बेहूदी
है! जीतने की
भाषा में ही
आक्रमण और
हिंसा है।
अब
थोड़ा समझो।
महावीर
जैसे अहिंसक
को भी हमने
जिन कहा है।
लेकिन जिन
शब्द में ही
हिंसा
है--जीता, विजय।
वह भाषा ही
क्षत्रिय की
है। वह भाषा
पुरुष की है।
अब महावीर
जैसे परम
ध्यान को
उपलब्ध हुए, ज्ञान को
उपलब्ध हुए, लेकिन भाषा
तो पुरुष की
ही रहेगी।
मीरा
से पूछो, जीता? मीरा कहेगी, तुम समझे ही
नहीं; प्रेम
में कहीं कोई
जीतता है? हारते
हैं। मगर हार
ही वहां जीत
है। मीरा
से पूछो, जागी? मीरा कहेगी, जागना वहां
कहां है? वहां
तो खोना है; वहां तो
मिटना है।
वहां तो
बेहोशी ही होश
है।
अब
इसको थोड़ा समझ
लेना। मीरा
के लिए बेहोश
हो जाना होश
है, और हार
जाना जीत जाना
है।
महावीर
और मीरा
को मिला दो, इनके बीच
बड़ी कठिनाई
खड़ी हो जाएगी।
इनके बीच चर्चा
न चल सकेगी।
इनकी
भाषा अलग
होगी। जैसे
दोनों दो अलग भाषाएं
बोलते हों। एक
जर्मन बोल रहा
हो और एक
जापानी, और
कहीं कोई
तालमेल न
बैठता हो। बैठेगा
नहीं।
पुरुष
के लिए स्त्री
पहेली रही है।
स्त्री के लिए
पुरुष पहेली
है। स्त्री
सोच ही नहीं
पाती कि तुम
किसलिए चांद
पर जा रहे हो? घर काफी
नहीं? वही
तो यशोधरा
ने बुद्ध से
पूछा, जब
वे लौटकर
आए, कि जो
तुमने वहां
पाया वह यहां
नहीं मिल सकता
था? ऐसा
जंगल भागने
की क्या पड़ी
थी? यह घर
क्या बुरा था?
अगर शांत ही
होना था तो
जितनी सुविधा
यहां थी, इतनी
वहां जंगल में
तो नहीं थी।
तुमने कहा होता,
हम तुम्हें
बाधा न देते।
हम तुम्हें
एकांत में छोड़
देते। हम सारी
सुविधा कर
देते कि
तुम्हें जरा
भी बाधा न
पड़े। लेकिन
बुद्ध को अगर यशोधरा
ऐसा इंतजाम कर
देती कि जरा
भी बाधा न पड़े--यशोधरा
अपनी छाया भी
न डालती बुद्ध
पर--तो भी
बुद्ध बंधे-बंधे
अनुभव करते।
क्योंकि वे
अनजाने तार यशोधरा के
चारों तरफ फैलते
जाते, और
भी ज्यादा फैल
जाते। वह छाया
की तरह चारों तरफ
अपना जाल बुन
देती। घबड़ाकर
भाग गए।
जो भी
कभी भागा है
जंगल की तरफ, प्रेम से घबड़ाकर
भागा है। और
क्या घबड़ाहट
है? कहीं
प्रेम बांध न
ले। कहीं
प्रेम आसक्ति
न बन जाए।
कहीं प्रेम
राग न हो जाए।
स्त्रियों को जंगल
की तरफ भागते
नहीं देखा
गया। क्योंकि
स्त्री को समझ
में ही नहीं
आता, भागना
कहां है? डूबना
है। डूबना
यहीं हो सकता
है। और स्त्री
ने बहुत चिंता
नहीं की
परमात्मा की
जो आकाश में है,
उसने तो उसी
परमात्मा की
चिंता की जो
निकट और पास
है।
स्त्री
को रस नहीं
मालूम होता कि
चीन में
क्या हो रहा
है? उसका रस
होता है, पड़ोसी
के घर में
क्या हो रहा
है? पास।
तुम्हें कई
दफा लगता भी
है--पति को--कि
ये भी क्या फिजूल
की बातों में
पड़ी है कि
पड़ोसी की
पत्नी किसी के
साथ चली गयी, कि पड़ोसी के
घर बच्चा पैदा
हुआ, कि
पड़ोसी नयी
कार खरीद
लाया--ये भी
क्या फिजूल की
बातें हैं? वियतनाम है, इजराइल है, बड़े
सवाल दुनिया
के सामने हैं।
तू नासमझ!
पड़ोसी के घर
बच्चा हुआ, यह भी कोई
बात है? लाखों
लोग मर रहे
हैं युद्ध
में। इस एक
बच्चे के होने
से क्या होता
है?
स्त्री
को समझ में
नहीं आता कि
पड़ोसी के घर
बच्चा पैदा
होता है, इतनी
बड़ी घटना घटती
है--एक नया
जीवन अवतीर्ण
हुआ; कि
पड़ोसी की
पत्नी किसी के
साथ चली
गयी--एक नए
प्रेम का
आविर्भाव हुआ;
तुम्हें
इसका कुछ रस
ही नहीं है! इजराइल
से लेना-देना
क्या है? इजराइल
से फासला इतना
है कि स्त्री
के मन पर उसका
कोई अंकुरण
नहीं होता, कोई छाप
नहीं पड़ती।
दूरी इतनी है।
स्त्री
परमात्मा जो
बहुत दूर है
आकाश में उसमें
उत्सुक नहीं
है। परमात्मा
जो बहुत पास
है, बेटे में
है, पति
में है, परिवार
में है, पड़ोसी
में है, उसमें
उसका रस है।
क्योंकि दूर
जाने में उसकी
आकांक्षा
नहीं है। यहीं
डूब जाना है।
और
जिसे डूबना है, वह कहीं भी
डूब सकता है।
लेकिन जिसे
जीतना है, वह
हर कहीं नहीं
जीत सकता।
जीतने के लिए
तो इंतजाम
करना पड़ेगा
युद्ध का।
जीतने के लिए
तो संघर्ष की
व्यवस्था
करनी पड़ेगी।
हारने के लिए
थोड़े ही कोई
व्यवस्था
करनी पड़ती है।
जीतने के लिए
व्यवस्था करनी
पड़ती है, हारना
तो कभी भी हो
सकता
है--निहत्थे।
उसके लिए कोई
शस्त्रों का
थोड़े ही आयोजन
करना पड़ेगा।
सेनाएं
थोड़े ही
इकट्ठी करनी पड़ेंगी।
हारना तो अभी
हो सकता है, जैसे हो तुम
वैसे ही।
लेकिन जीतने
के लिए तो बड़ा
उपाय करना
पड़ता है। फिर
भी पक्का नहीं
है कि जीत पाओगे।
तो
महावीर के
जीवन में बड़ा
आयोजन है। वह
विजय की
यात्रा है। मीरा के
जीवन में कोई
भी आयोजन नहीं
है। वह जहां
थी वहीं नाचने
लगी। वह जहां
थी वहीं
दीवानी हो
गयी। महावीर
को होश साधना
है, मीरा को बेहोशी
साधनी है।
तो यह
धर्म ज्योति
की तकलीफ मैं
समझता हूं। साधुओं ने बिगाड़ा।
और वे महात्मा
अभी भी इसके
चित्त पर भारी
हैं। यह मेरे
पास भी आ गयी
है तो भी आ नहीं
पायी।
संस्कार इसके
वही जड़ता
के हैं। इसलिए
प्रेम
मुश्किल है।
और ध्यान तो
स्त्री को
मुश्किल होता
ही है। जब
प्रेम ही न हो
पाएगा, तो
ध्यान तो हो
ही न सकेगा।
प्रेम से ही
ध्यान की तरफ
जाने का
रास्ता है।
बेहोशी से ही
होश सधेगा;
हार से ही
विजय मिलेगी।
तो
जितनी जल्दी
हो सके उतनी
जल्दी जो जहर
के संस्कार दिए
गए हैं उनको
छोड़ दो। उनको हटाओ। इन
संस्कारों के
कारण तुम ठीक
से स्त्री ही न
हो पाओगी।
तुम्हारा
हृदय
प्रमुदित न
होगा, तुम
खिल न पाओगी।
ध्यान रखो,
अगर प्रेम
ही न सधा, तो
ध्यान तो कैसे
सधेगा? प्रेम को ही
साध लो, तो
ध्यान भी सध
जाएगा। प्रेम
की ही अन्यतम
गहराई में
ध्यान का फूल खिलेगा।
वही स्त्री के
लिए मार्ग है।
हां, कुछ कभी-कभी
अपवाद-स्वरूप
कुछ
स्त्रियों ने
ध्यान भी साधा
है। लेकिन
अपवाद को मैं
नियम नहीं
बनाता।
कश्मीर
में एक स्त्री
हुई लल्लाह।
उसकी महावीर
से बैठ जाती
बात। वह
महावीर जैसी
ही नग्न रही।
कोई दूसरी
स्त्री पूरी
पृथ्वी पर
नहीं रही।
जैसे महावीर
नग्न रहे ऐसे
ही लल्लाह
भी नग्न रही।
अकेली ही
स्त्री है वह
पूरे मनुष्य-जाति
के इतिहास में
जो जंगल की
तरफ भागी और
नग्न हो गयी।
कश्मीर में
उसका बड़ा आदर
है। कश्मीरी
कहते हैं, हम दो ही
शब्द जानते
हैं--अल्लाह
और लल्लाह।
मगर लल्लाह
स्त्रियों की
प्रतिनिधि
नहीं है। वह
अपवाद है।
ऐसे ही
चैतन्य हुए
पुरुषों में।
वे अपवाद हैं।
वे पुरुषों के
प्रतीक नहीं
हैं। प्रतीक
तो महावीर ही
हैं। चैतन्य नाचे
स्त्रियों
जैसे।
भक्ति-विभोर!
ठीक है। लेकिन
उनसे नियम
नहीं बनते।
और हमेशा
ध्यान रखना, नियम से
चलने की कोशिश
करना। और जो
अपवाद है वह
पूछने न आएगा।
जो नियम है
वही पूछने आया
है। अपवाद जो
है, वह तो
पूछता ही
नहीं।
अपवाद
अगर धर्म
ज्योति होती
तो ध्यान सधने
लगता। अपवाद
नहीं है। है
तो स्त्री।
गलत बातों के
प्रभाव में पड़
गयी। पुरुषों
का जहर सिर पर
हावी हो गया
है। अब वह
बाधा डाल रहा
है, वह प्रेम
नहीं करने
देता। और
जितना यह
ध्यान करने की
कोशिश करती है
वह झूठी है।
यह कोशिश सिर्फ
प्रेम से बचने
के लिए करती
है। इसकी जो
ध्यान की
कोशिश चल रही
है वह सिर्फ
इसीलिए ताकि
प्रेम में न
उलझना पड़े। और
प्रेम तो पाप
है। प्रेम तो
झंझट है। उससे
बचना है। तो
ध्यान करना
है। और मैं तुमसे
कह रहा हूं कि
प्रेम से ही
ध्यान होगा।
और तुम प्रेम
से बचने को
ध्यान करने चलोगी, कठिनाई
हो जाएगी। अधर
में अटक जाओगी।
त्रिशंकु की
दशा हो जाएगी।
और देर
नहीं लगती, अगर समझ में
बात आ जाए तो
एक क्षण में छोड़ा जा
सकता है सब
कचरा।
क्योंकि कचरा कचरा ही है,
वह कभी
स्वभाव नहीं बनता।
भीतर तो
स्वच्छ
स्त्री मौजूद
है। महात्मा उसे
बिगाड़
नहीं सकते।
महात्माओं की
बातचीत
ऊपर-ऊपर के पत्ते
हैं। नीचे तो
धारा बह रही
है स्त्रैण
स्वभाव की।
जरा पत्तों को
हटा दो और
भीतर की नदी
प्रगट हो
जाएगी। लाख
पत्ते दबा लें
नदी को...यहां पूना की
नदी दब जाती
है बिलकुल
पत्तों में, फिर दिखायी
ही नहीं पड़ती,
लेकिन तो भी
भीतर है।
पत्ते लाख दबा
दें, तो भी
जरा सा हटाओ
और नदी प्रगट
हो जाती है।
मैंने
पूछा था कि है मंजिले-मकसूद
कहां
खिज्र
ने राह बतायी
मुझे मयखाने
की
मैंने
पूछा था कि
जीवन का
लक्ष्य--मंजिले-मकसूद--कहां
है? और मेरे
गुरु ने मुझे
राह बतायी
मयखाने
की। उसने कहा,
बेहोशी में,
प्रेम में।
मैंने
पूछा था कि है मंजिले-मकसूद
कहां
खिज्र
ने राह बतायी
मुझे मयखाने
की
स्त्री
के लिए वही
राह है--मयखाने
की, बेहोशी
की, खोने की; लीन
हो जाने की, तल्लीन हो
जाने की; अपने
को इस तरह
मिटा देने की
कि भीतर कोई
बचे ही न।
जिससे प्रेम
किया है वही
बच रहे।
प्रेमी बचे, प्रेयसी खो
जाए; परमात्मा
बचे, भक्त
खो जाए। और तब
अचानक भगवान भी
खो जाता है।
जब भक्त ही खो
गया, तो
भगवान कहां
रहेगा? भक्त
की आंखों में
ही भगवान है।
भक्त के होने में
ही भगवान है।
जब भक्त ही खो
गया तो भगवान
कहां रह जाएगा?
भक्त भी खो
जाता है, भगवान
भी खो जाता है,
तब जो रह
जाता है, वही
है।
दूसरा
प्रश्न:
बुद्ध
की मनोचिकित्सा
और आज की
पश्चिमी मनोचिकित्सा
में क्या भेद
है? आज का
मनोविज्ञान
क्या कभी धर्म
की खोज में पहुंच
पाएगा?
बड़ा
भेद है। और
बुनियादी भेद
है।
पश्चिम
का
मनोविज्ञान--कहें
आज का
मनोविज्ञान, क्योंकि
पश्चिम का जो
है वह आज का है,
इस सदी का
है, आधुनिक
है--आधुनिक
मनोविज्ञान
मन की दृष्टि
से जो रुग्ण
लोग हैं उनकी
चिकित्सा
करता है। जो
सामान्य नहीं
हैं, अस्वस्थ
हैं, उनकी
चिकित्सा
करता है।
बुद्ध का
मनोविज्ञान
उनकी
चिकित्सा
करता है जो
सामान्य हैं
और स्वस्थ
हैं।
कोई
आदमी पागल हो
गया, उसकी
चिकित्सा
करता है
आधुनिक
मनोविज्ञान। कोई
आदमी जब तक
पागल न हो जाए
तब तक आधुनिक
मनोविज्ञान
से उसका कोई
लेना-देना
नहीं है। वह
बीमार को ठीक
करने का उपाय
है। लेकिन
बुद्ध के पास
वे लोग जाते
हैं जो पागल
नहीं हैं, वरन
अगर हम ठीक से समझें तो
होश में भर गए
हैं और अब
पागल नहीं
रहना चाहते, पागल नहीं
होना चाहते।
सामान्य हैं,
स्वस्थ
हैं। साधारण
लोग भी उनकी
दृष्टि से ज्यादा
पागल हैं।
जिनको जीवन का
होश आ गया है, जिन्होंने जीवन की समझ
पा ली है, अब
वे बुद्ध से
कहते हैं, अकेले
स्वस्थ होने
से क्या होगा,
सत्य भी
चाहिए।
स्वस्थ होना
काफी नहीं है।
सत्य के बिना
स्वास्थ्य का
भी क्या
करेंगे? तो
स्वस्थ को और
परम
स्वास्थ्य की
तरफ ले जाने
की व्यवस्था
है।
अगर
तुम डांवाडोल
हो गए हो
सामान्य जीवन
में, ठीक से
दुकान नहीं कर
पाते, ठीक
से दफ्तर नहीं
जा पाते, स्मृति
कमजोर हो जाती
है, चूक
जाते हो, इस
तरह की बातें
अगर तुम्हारे
जीवन में हैं,
तो आधुनिक
मनोविज्ञान
सहयोगी है।
लेकिन सब ठीक
चल रहा है, कोई
गड़बड़ नहीं है;
और जब सब
ठीक चलता है
और कोई गड़बड़
नहीं मालूम होती,
तभी अचानक
तुम्हें पता
चलता है, ये
सब ठीक भी
चलता रहा तो
मौत में
समाप्त हो जाएगा।
ये सब ठीक भी
चलता रहा तो
जाऊंगा कहां,
पहुंचूंगा कहां? ये
सब ठीक भी है
तो भी मौत आ
रही है। ये सब
ठीक भी है तो
भी मैं मरा जा
रहा हूं, मिटा
जा रहा हूं।
ये सब ठीक भी
है, तो भी
व्यर्थ और
असार है।
जिस
दिन तुम्हें
सब ठीक होते
हुए भी असार
का बोध होता
है, उस दिन
तुम बुद्धपुरुषों
के पास जाते
हो पूछने, कि
ऐसे सब ठीक
है--धन है, पत्नी
है, बच्चा
है, मकान
है, सब ठीक
है--कहीं कोई
अड़चन नहीं है,
सुविधा से
जी रहा हूं, और सुविधा
से ही मर भी
जाऊंगा, लेकिन
क्या सुविधा
से जीना और
सुविधा से मर
जाना ही मंजिले-मकसूद
है? क्या
यही लक्ष्य है
जीवन का? इतना
काफी है क्या
कि सुविधा से
जी लूं और
सुविधा से मर
जाऊं? सुविधा
काफी है? तब
बुद्ध के
मनोविज्ञान
की शुरुआत
होती है। जिसको
यह दिखायी
पड़ने
लगा--सुविधा
सार नहीं है, सामान्य हो
जाना कुछ भी
मूल्य नहीं
रखता, स्वस्थ
हो जाने में
भी कुछ नहीं
है जब तक सत्य न
मिल जाए।
जीसस
के जीवन में
उल्लेख है कि
वे एक गांव
में आए और
उन्होंने एक
आदमी को शराब
पीए रास्ते के
किनारे नाली
में पड़े गालियां
बकते देखा। तो
वे उसके पास
आए, करुणा से
उसे हिलाया
और उठाया, और
कहा कि तू
अपना जीवन
शराब पी-पीकर
क्यों बर्बाद
कर रहा है? नाली
में पड़ा है।
उस आदमी ने
आंखें खोलीं,
जीसस को देखकर
उसे होश आया।
और उसने कहा
कि मेरे प्रभु!
मैं तो रुग्ण
था, खाट भी
नहीं छोड़ सकता
था, तुम्हीं ने छूकर
मुझे ठीक किया
था। अब मैं
ठीक हो गया, अब इस
स्वास्थ्य का
क्या करूं? मुझे तो बस
शराब पीने के
सिवाय कुछ
सूझता नहीं।
मैंने तो कभी
पी भी न थी।
मैं तो खाट पर
पड़ा था, इस
शराबघर तक भी
नहीं आ सकता
था। तुम्हारी
ही कृपा से!
जीसस
सोचने लगे कि
मेरी कृपा का
यह परिणाम हुआ
है। वे उदास
आगे बढ़े।
उन्होंने एक
आदमी को एक
वेश्या के
पीछे भागते
देखा। उसे पकड़ा
और कहा कि
आंखें इसलिए
नहीं
परमात्मा ने
दी हैं। यह
क्यों वासना के
पीछे भागा जा
रहा है? किस
पागलपन में
दौड़ रहा है? उस आदमी ने
गौर से रुककर
देखा, उसने
कहा, मेरे
प्रभु--वह पैर
पर गिर
पड़ा--मैं तो
अंधा था, तुमने
ही छूकर
मेरी आंखें
ठीक की थीं।
अब इन आंखों
का मैं क्या
करूं? मैं
तो किसी
वेश्या के
पीछे न भागा
था। मुझे तो
रूप का पता ही
न था, मैं
तो जन्मांध
था। तुम्हारी
ही कृपा है कि
तुमने आंखें दीं। अब इन
आंखों का क्या
करूं?
जीसस
बहुत उदास हो
गए। और वे
गांव के बाहर
निकल आए। और
बड़े चिंतन में
पड़ गए कि मेरी
कृपा के ये
परिणाम!
उन्होंने
एक आदमी को
फांसी लगाते
देखा अपने को।
रस्सी बांध
रहा था वृक्ष
से। वह भागे
गए और कहा कि
मेरे भाई, रुक! यह तू
क्या कर रहा
है? उसने
कहा, अब मत रोको, बहुत
हो गया। मैं
मर गया था, तुम्हीं ने मुझे
जिंदा किया
था। अब जिंदगी
का क्या करूं?
यह
तुम्हारी ही
कृपा का कष्ट
मैं भोग रहा
हूं। अब बहुत
हो गया, अब
मत रोकना और
मर जाऊं तो
मुझे जिलाना
मत। तुम कहां
से आ गए और! मैं
किसी तरह तो
इंतजाम करके
अपने मरने की
व्यवस्था कर
रहा हूं। पहले
भी मर चुका
था।
जिसको
तुम
स्वास्थ्य
कहते हो उसका
परिणाम क्या
है? गंवाओगे उसे कहीं
जिंदगी के
रास्ते पर।
किसी नाली में
पड़ोगे।
जिसे तुम
आंखों की
ज्योति कहते
हो, उसका करोगे
क्या? कहीं
रूप में भरमाओगे।
और जिसे तुम
जीवन कहते हो,
उसका भी
क्या उपयोग है
सिवाय
आत्महत्या के?
कोई
धीरे-धीरे
करता है, कोई
जल्दी करता
है। कोई एक ही
छलांग में कर
लेता है, कोई
आत्महत्या
करने में
सत्तर साल
लगाता है। इससे
कोई फर्क नहीं
पड़ता। इससे
कुछ यह पता
नहीं चलता कि तुममें और
उस आत्महत्या
करने वाले
आदमी में कोई
फर्क है। वह
जरा हिम्मतवर
रहा होगा, एक
झटके में करना
चाहता था; तुम
कमजोर हो, धीरे-धीरे
करते हो।
रोज-रोज मरते
हो। तुम कर क्या
रहे हो यहां
पृथ्वी पर, सिवाय मरने
के?
बुद्ध
का मनोविज्ञान
वहां से शुरू
होता है जहां
तुम्हारे पास
सब है, और
प्रतीति होती
है कि कुछ भी
नहीं है। आज
का मनोविज्ञान
दीन और रुग्ण
के लिए है।
बुद्ध का मनोविज्ञान
सम्राट और
समर्थ के लिए
है। जिसके पास
सब है और
अनुभव में आया,
कुछ भी नहीं
है, हाथ
खाली हैं। ऐसे
हाथ भरे हैं
हीरे-जवाहरातों
से, मगर
हीरे-जवाहरात
व्यर्थ हैं।
जिसको भरी जिंदगी
के बीच जिंदगी
उजाड़
मालूम पड़ी, संपत्ति के
बीच विपत्ति दिखायी
पड़ी, स्वास्थ्य
के बीच सिवाय
रोगों के घर
के और कुछ भी न
मालूम पड़ा, और जिंदगी
केवल मौत की
तरफ यात्रा
मालूम पड़ी, वह बुद्ध के
पास जाता है।
बुद्ध
का
मनोविज्ञान
परम जीवन का
मनोविज्ञान
है। उस जीवन
का जिसका फिर
कोई अंत नहीं।
शाश्वत का, सनातन का। एस धम्मो
सनंतनो।
वे उस धर्म और
नियम की बात
करते हैं
जिससे सनातन
उपलब्ध हो जाए,
शाश्वत
उपलब्ध हो
जाए।
पश्चिम
का
मनोविज्ञान
धीरे-धीरे
बुद्ध के मनोविज्ञान
के करीब सरक
रहा है। सरकना
ही पड़ेगा।
देखो, पश्चिम के चिकित्साशास्त्र
का नाम है, मेडिकल साइंस।
उसका मतलब
होता है, औषधि-विज्ञान।
पूरब में हमने
जो
औषधि-विज्ञान
बनाया, उसको
नाम दिया है, आयुर्वेद।
औषधि का नाम
नहीं दिया, आयु का
विज्ञान। और
विज्ञान भी नहीं,
वेद!
विधायक। औषधि
तो नकारात्मक
है। बीमारी हो
तो औषधि का
उपयोग है।
बीमारी न भी
हो तो भी आयुर्वेद
का उपयोग है।
क्योंकि वह
केवल जीवन का विज्ञान
है। वह सिर्फ
बीमारी की
फिकर नहीं करता
कि बीमारी हो
तो औषधि देकर
मिटा दो।
बीमारी न भी
हो, तो
जीवन को कैसे गुणनफल
करो, जीवन
को कैसे बढ़ाओ!
पूरब
और पश्चिम की
दृष्टि में यह
फर्क है। पश्चिम
फिकर करता है
कांटा निकाल
लेने की। पूरब
फिकर करता है
फूल को भी रख
देने की।
पश्चिम फिकर
करता है दुख
निकाल लो, पूरब फिकर
करता है आनंद
को जन्माओ।
दुख को निकाल
लेना काफी
नहीं है। दुख
भी न हो जीवन
में तो भी
जरूरी थोड़े ही
है कि आनंद हो।
कितने
लोग हैं जिनके
जीवन में दुख
नहीं है; लेकिन
इससे क्या
आनंद होता है?
बल्कि
सच्चाई यह है
कि जिनके जीवन
में दुख नहीं
है उनको ही
पता चलता है
कि जीवन
बिलकुल व्यर्थ
है। जिनके
जीवन में दुख
है उनको तो
अभी आशा लगी रहती
है कि कुछ
उपाय करेंगे,
दुख मिटाएंगे,
कल सब ठीक
हो जाएगा।
जिनके जीवन
में दुख नहीं रहा,
वे एकदम चौंककर
पूछते हैं, अब क्या
करें? दुख
भी नहीं
रहा--जिसको
मिटाते वह भी
नहीं रहा--मिटाने
की दौड़ भी
समाप्त हो गयी,
कोई कष्ट
नहीं है; लेकिन
आनंद भी नहीं
है। उनका जीवन
बड़ी उदासी से,
बड़ी ऊब से
भर जाता है।
जीवन राख-राख
हो जाता है।
उसमें से सारी
आशा और आनंद
का अंगार बुझ
जाता है।
तुम
चकित होओगे
देखकर कि
भिखारी के कदमों
में भी
तुम्हें गति
मालूम होती
है--हो सकती है--क्योंकि
उसको कहीं
पहुंचना है, कुछ दुख
मिटाना है, कुछ तकलीफ
ठीक करनी है; सम्राट के
पैर बिलकुल ही
बोझिल हो जाते
हैं। न कहीं
पहुंचने को, न कुछ पाने
को; जो
पहुंचना था
पहुंच चुके, जो पाना था
पा लिया, अब?
अब एक इतना
बड़ा प्रश्न बनकर खड़ा
हो जाता है।
अब सिर्फ घसिटते
हैं। अब सिर्फ
मौत की राह
देख रहे हैं
कि कब आए, कब
छुटकारा दिला
दे।
दुख का
न हो जाना
आनंद नहीं है।
दुख का न हो
जाना आनंद के
होने के लिए
जरूरी शर्त हो
सकती है, आवश्यक
हो सकता है, पर्याप्त
नहीं है।
तो
पश्चिम का
मनोविज्ञान
भी धीरे-धीरे
सरक रहा है। फ्रायड ने
जहां
मनोविज्ञान
को छोड़ा
था उससे बहुत
आगे जा चुका
पश्चिम में भी
मनोविज्ञान।
नए मानवतावादी
विचारक पैदा
हुए हैं--अब्राहम, मैसलो और दूसरे--जिन्होंने
अब
मनोविज्ञान
को नयी दिशाएं
देनी शुरू की
हैं। वे दिशाएं
ये हैं कि अब
इस बात की
हमें फिकर
नहीं है कि आदमी
सिर्फ स्वस्थ
हो। स्वस्थ से
ज्यादा हो, आनंदित हो।
इतना काफी
नहीं है कि
बीमारी न हो, इतने से
क्या होगा? उत्सव हो।
तुम चल सको,
तुम्हारे
पैर स्वस्थ
हों, इतना
काफी नहीं है।
तुम नाच भी सको।
चलना एक बात
है।
एक
आदमी है, पैर
ठीक नहीं है, चल नहीं
सकता; पक्षाघात है, लकवा
लग गया है।
लकवा मिटाना
जरूरी है।
लकवा मिट जाए
तो चल सकेगा, लकवा मिट
जाए तो नाच भी
सकेगा, लेकिन
लकवा मिट जाने
से कोई नाचने
नहीं लगता है।
लकवा मिट जाना
नाचने के लिए
जरूरी शर्त है,
काफी नहीं
है। कितने लोग
हैं जिनको
लकवा नहीं है,
लेकिन वे
नाचते दिखायी
नहीं पड़ते।
नाचने के लिए
भीतर कुछ
संपदा का
अनुभव चाहिए।
नाचने के लिए
भीतर कोई किरण
उतरे, कोई
गीत उतरे,
कोई धुन उतरे,
जीवन को कोई
सुराग मिले
रहस्य का, झलक
मिले
परमात्मा की,
तो कोई नाच
सकता है।
धीरे-धीरे
पश्चिम का
मनोविज्ञान
सरक रहा है। सरकना
ही पड़ेगा।
क्योंकि
बीमार तो बहुत
थोड़े लोग हैं।
बहुत लोग
स्वस्थ हैं, और फिर भी
उनके जीवन में
कोई आनंद नहीं
है, उनकी
भी चिंता करनी
पड़ेगी। लंगड़े-लूलों
को ही ठीक
नहीं करना है,
नहीं तो काम
बड़ा आसान था।
जो लंगड़े-लूले
नहीं हैं, उनको
नाच भी देना
है। और काम
बड़ा कठिन है।
लेकिन, जब पहला कदम
उठ जाए तो
दूसरा कदम भी
उठना शुरू हो
जाता है। पहला
कदम है, कोई
आदमी नया
बगीचा लगाता
है तो घास-पात
को उखाड़ता
है; व्यर्थ
के पौधे, झाड़ी-झंखाड़ को अलग करता
है, जमीन
खोदकर बदलता
है, जड़ें निकालकर
फेंकता है। यह
जरूरी है।
लेकिन बस इतने
पर ही रुक जाए
तो फूल नहीं आ
जाते। फिर बीज
बोने पड़ते
हैं, फिर
पानी सींचना
पड़ता है, फिर
रखवाली करनी
पड़ती है। फिर
हजार बाधाएं
हैं, उनसे लड़ना पड़ता
है। तो एक
आदमी को जीवन
में सुविधा
मिल जाए, स्वास्थ्य
मिल जाए, रहने
का अच्छा मकान
मिल जाए; रोटी,
रोजी, मकान
का इंतजाम हो
जाए; इतने
से तो केवल बगीचे
की तैयारी हुई
थी। अभी बीज
नहीं बोए
गए थे। इतनेभर
से जो राजी हो
गया वह नासमझ
है। वह असार
से राजी हो गया।
उसने नकार को
सब समझ लिया।
वह औषधि से
राजी हो गया।
उतना काफी
नहीं है।
चिकित्साशास्त्र
का जिनका गहरा
अनुभव है, वे कहते हैं
कि कई बार दो
मरीज एक ही
बीमारी के मरीज
होते हैं, एक
ही अवस्था के
होते हैं, और
एक पर दवा काम
कर जाती है और
दूसरे पर काम
नहीं करती। तो
इसका बड़ा
चिंतन चलता है
कि ऐसा क्यों
होता है? खोज-बीन
से पाया गया
कि जिस आदमी
पर दवा काम कर जाती
है वह आदमी
जीना चाहता है,
जीने की
आकांक्षा है,
जीवेषणा है, औषधि
काम कर जाती
है। वह जो
दूसरा आदमी है
जिस पर औषधि काम
नहीं
करती--वही
बीमारी है, वही अवस्था
है--वह जीना
नहीं चाहता।
वह उदास हो
गया है, वह
थक गया है, उसने
आशा छोड़ दी; फिर औषधि
काम नहीं
करती।
मेरे
देखे, जो
लोग मन से
रुग्ण हैं, वे वे ही
लोग हैं जिनको
जीवन में सुख
का कोई सुराग
नहीं मिला, और उन्होंने
आशा छोड़ दी।
वे हताश हो गए
हैं। उनको तुम
खींचतान कर
खड़ा भी कर दो
तो भी नचा
न सकोगे।
खींचतान कर
खड़ा किया जा
सकता है, धक्का-मुक्की
देकर चलाया भी
जा सकता है। बैसाखियां
भी दी जा सकती
हैं और किसी
तरह उनमें गति
लायी जा
सकती है।
लेकिन नाच बैसाखियों
से नहीं आता।
और न धक्का देकर
कोई नाच ला
सकता है। नाच
तो उनके अंतरगृह
में उतरे,
कोई द्वार
खुले, कोई
झरोखा खुले, भीतर नयी
रोशनी आए, नयी हवा
आए, परमात्मा
उनके भीतर
पुनर्जन्म ले,
तभी।
पूरब
में हमने आनंद
का विज्ञान
निर्मित किया है।
पश्चिम का
विज्ञान केवल
दुख से कैसे
छुटकारा हो।
इसलिए पश्चिम
में दुख से
छुटकारा हो भी
गया और लोग बड़े
बेचैन हो गए
हैं। सुख आता दिखायी
नहीं पड़ता।
इसीलिए
पश्चिम का
मनोविज्ञान
एक-एक कदम आगे
बढ़ रहा है। और
आज नहीं कल बुद्धों
के
मनोविज्ञान
से उसका संबंध
जुड़
जाएगा।
तीसरा
प्रश्न:
आप
कहते हैं, जीओ
अभी और यहीं।
पर स्वयं को
देखकर हमें
अभी और यहीं जीने जैसा
नहीं लगता।
वर्तमान में जीने की
बजाय भविष्य
की कल्पना में
जीना ज्यादा
सुखद लगता है।
तो क्या करें?
तो जीओ, वैसे ही जीओ।
अनुभव बताएगा
कि जो सुखद
लगता था वह
सुखद था नहीं।
प्रश्न से
इतना ही पता
चलता है कि प्रौढ़
नहीं हो, कच्चे
हो अभी। अभी
जीवन ने पकाया
नहीं। अभी मिट्टी
के कच्चे घड़े
हो; वर्षा
आएगी, बह जाओगे।
अभी जीवन की
आग ने पकाया
नहीं।
क्योंकि जीवन
की आग जिसको
भी पका देती
है उसको यह
साफ हो जाता
है। क्या साफ
हो जाता है? एक बात ही
साफ हो जाती
है कि भविष्य
में सुख देखने
का अर्थ ही
यही है कि
वर्तमान में
दुख है। इसलिए
भविष्य के
सपने सुखद
मालूम होते
हैं।
थोड़ा सोचो! जो
आदमी दिनभर
भूखा रहा है, वह रात सपने
देखता है भोजन
के। लेकिन
जिसने भरपेट
भोजन किया है,
वह भी कहीं
रात सपने
देखता है भोजन
के? देखे
तो पागल है।
जो तुम्हें
मिला है उसके
तुम सपने नहीं
देखते। जो
तुम्हें नहीं
मिला है उसके
ही सपने देखते
हो। वर्तमान
तुम्हारा दुख
से भरा है।
इसको भुलाने
को, अपने
मन को समझाने
को, रिझाने को, राहत
के लिए, सांत्वना
के लिए तुम
अपनी आंखें
भविष्य में टटोलते
हो। कोई सपना,
कल सब ठीक
हो जाएगा। उस
कल की आशा में,
भरोसे में
आज के दुख को
झेल लेते हो।
मंजिल की आशा
में रास्ते का
कष्ट कष्ट
नहीं मालूम
पड़ता।
पहुंचने के ही
करीब हैं, हालांकि
वह कभी आता
नहीं।
आज
जिसको तुम आज
कह रहे हो यह
भी तो कल कल
था। इस आज के
लिए भी तुमने
सपने देखे थे, वे पूरे
नहीं हुए। ऐसा
ही पिछले कल
भी हुआ था, और
पिछले कल भी
हुआ था। और
यही आगे भी
होगा। अगर
तुम्हारा आज
सुखपूर्ण
नहीं है, तो
दुखपूर्ण आज
से सुखपूर्ण
कल कैसे निकलेगा?
थोड़ा सोचो!
आज
कहीं आकाश से
थोड़े ही आया
है। तुम्हारे
भीतर से आया
है। तुम्हारा
आज अलग है, मेरा आज अलग
है। कैलेंडर
के धोखे में
मत पड़ना। कैलेंडर
पर तो
तुम्हारा भी
आज वही नाम
रखता है, मेरा
आज भी वही नाम
रखता है।
लेकिन यहां
तुम जितने लोग
बैठे हो इतने
ही आज हैं।
पूरी पृथ्वी
पर जितने लोग
हैं इतने आज
हैं। और अगर
तुम पशु-पक्षियों
और पौधों को
भी गिनो, तो उतनी ही
संख्या है। कैलेंडर बिलकुल
झूठ है। उससे
ऐसा लगता है, एक ही दिन है
सबका। रविवार,
तो सभी का
रविवार।
जरूरी नहीं
है। किसी की
जिंदगी में
सूरज उगा हो
तो रविवार, और किसी की
जिंदगी में
अंधेरा हो तो
कैसा रविवार!
आज
कहीं आकाश से
नहीं उतरता
है। समय कहीं
बाहर से नहीं
आता है। समय
तुम्हारे
भीतर से पैदा
होता है। तुम
ही आज को जीकर
कल को पैदा करोगे।
तुम्हारे ही
गर्भ में
निर्मित होता
है कल। कल
निर्मित हो
रहा है आज।
और
इसीलिए मैं
कहता हूं, आज और अभी जी
लो। और इतने
आनंद से जीओ,
ऐसे भरपूर जीओ कि जो
तुम्हारे
गर्भ में
निर्मित हो
रहा है वह भी
रूपांतरित हो
जाए, वह
तुम्हारे
आनंद को पकड़
ले। अगर आज
तुम दुख में
जी रहे हो, और
कल की आशा कर
रहे हो सुख की,
आशा से पैदा
नहीं होगा कल,
कल तो तुमसे
पैदा होगा।
तुम जैसे जी
रहे हो उससे
पैदा होगा।
तुम्हारे
अस्तित्व से
पैदा होगा, तुम्हारे
सपनों से
नहीं।
समझो
एक मां बीमार
है और उसके
गर्भ में एक
बेटा है; और
रुग्ण है, और
शरीर
जराजीर्ण है।
बेटा तो इस
जराजीर्ण, रुग्ण
शरीर से पैदा
होगा। मां
चाहे सपने
कितने ही
देखती हो कि
बेटा बड़ा
स्वस्थ होगा,
महावीर
जैसा स्वस्थ
होगा, इससे
कुछ हल नहीं
होने वाला। इस
सपने से बेटा पैदा
नहीं होने वाला।
बेटा तो सचाई
से पैदा होगा।
तुम्हारा कल
तुम्हारे
सपने से पैदा
नहीं होगा, तुम्हारे आज
की असलियत से
पैदा होगा, हकीकत से
पैदा होगा।
तुम आज
क्या हो। अगर
तुम नाच रहे
हो, तो तुमने
आने वाले कल
के लिए नाच दे
दिया। अगर तुम
प्रमुदित हो,
प्रफुल्लित
हो, तो कल
का फूल खिलने
ही लगा।
क्योंकि जिस
फूल को कल
खिलना है, उसकी
कली आज ही
तैयार हो रही
है। प्रतिपल
तुम अगला पल
पैदा कर रहे
हो।
प्रतिक्षण
अगला क्षण
तुम्हारे
भीतर निर्मित
हो रहा है, तैयार
हो रहा है।
तुम स्रष्टा
हो। तुम अपने
समय को खुद
पैदा करते हो।
इसलिए
मैं तो कहता हूं, आज जीओ।
लेकिन
तुम्हें लगता
है वर्तमान जीने जैसा
नहीं लगता।
अगर वर्तमान जीने जैसा
नहीं लगता, तो कल भी तो
वर्तमान होकर
ही आएगा। फिर
वह भी जीने
जैसा नहीं लगेगा।
परसों भी
वर्तमान होकर
ही आएगा, वह
भी जीने
जैसा नहीं लगेगा।
तो इसी को तो
मैं आत्मघात
करना कहता
हूं। तब तो
आत्महत्या कर
रहे हो, जी
नहीं रहे हो।
जीने
का कोई और
उपाय नहीं है।
आज ही है, और
आज ही जीना
है। जीने
जैसा लगे या न
लगे, इससे
कोई फर्क नहीं
पड़ता। जीने
का और कोई ढंग
है ही नहीं।
जीना तो यहीं
होगा। कल के भुलावे
में मत पड़ो।
कल के भुलावों
ने बहुतों को डुबाया
है।
आज जीओ।
यह क्षण खाली
न चला जाए। यह
क्षण अवसर है।
इसे तुम ऐसे
ही मत गंवा
देना। कुछ बना
लो इसका। कुछ
रस ले लो
इसमें। कुछ
भोग लो इसे।
कुछ पहचान लो
इसे। इसका
स्वाद उतर
जाने दो
तुम्हारे प्राणों
में। यह ऐसा
ही न चला जाए।
क्योंकि अगर समय
ऐसा ही जाता है
तो समय को ऐसे
ही चले जाने
देने की आदत
मजबूत होती
चली जाती है।
फिर धीरे-धीरे
समय को गंवाना
तुम्हारी
प्रकृति हो
जाती है। भोगो
इसे। चूसो
इस क्षण को, निचोड़ लो इसको
पूरा, इसका
रस जरा भी छूट
न जाए। यही
परमात्मा के
प्रति
धन्यवाद है।
क्योंकि उसने
तुम्हें अवसर दिया,
जीवन दिया,
और तुमने
ऐसे ही गंवा
दिया।
परमात्मा तुमसे
यह न पूछेगा...।
यहूदियों
की किताब है--तालमुद।
बड़ी अनूठी
किताब है।
दुनिया में
कोई
धर्मशास्त्र
वैसा नहीं। तालमुद
कहती है कि
परमात्मा तुमसे
यह न पूछेगा
कि तुमने
कौन-कौन सी गलतियां
कीं। गलतियों
का वह हिसाब
रखता ही नहीं, बड़ा दिल है।
परमात्मा तुमसे
पूछेगा, तुम्हें
इतने सुख के
अवसर दिए
तुमने भोगे
क्यों नहीं? गलतियों की कौन फिकर
रखता है? भूल-चूक
का कौन हिसाब
रखता है? वह
तुमसे पूछेगा, इतने अवसर
दिए सुख के, तुमने भोगे
क्यों नहीं? तालमुद कहती है, एक
ही पाप है जीवन
में, और वह
है जीवन के
अवसरों को
बिना भोगे
गुजर जाने
देना। जब तुम
आनंदित हो
सकते थे, आनंदित
न हुए। जब गीत गा सकते थे,
गीत न गाया।
सदा कल पर
टालते रहे, स्थगित करते
रहे।
स्थगित
करने वाला
आदमी जीएगा
कब? कैसे जीएगा?
स्थगित
करना ही
तुम्हारे
जीवन की शैली
हो जाती है।
बच्चे थे तब
जवानी पर छोड़ा,
जवान हो तब बुढ़ापे पर छोड़ोगे।
और बुढ़ापे
में लोग हैं, वे अगले जनम
पर छोड़ रहे
हैं। वे कह
रहे हैं, परलोक
में देखेंगे।
यही
लोक है
एकमात्र। और
यही क्षण है।
सत्य का यही
क्षण है। बाकी
सब झूठ है। मन
का जाल है। लेकिन
अगर तुम्हें
अच्छा लगता है, तुम्हारी
मर्जी।
तुम्हें
अच्छा लगता हो,
तो मैं कौन
हूं बाधा देने
वाला? तुम
सपने देखो।
कभी न कभी तुम जागोगे, तब रोओगे,
पछताओगे। तब तुम पछताओगे
कि इतना समय
यूं ही
गंवाया। और
ध्यान रखना जीवन
में जितना दुख
भर लोगे, जितने आंसू
घने कर लोगे,
जितना पछतावा
हो जाएगा, उतना
ही कठिन हो
जाता है रोकना
फिर दुख को, आंसुओं को।
कभी
तुमने खयाल
किया, हंसी
तो एकदम रुक
जाती है, रोना
एकदम नहीं
रुकता। तुम
हंस रहे हो, एकदम रुक
सकते हो। रोना
एकदम नहीं
रुकता।
थमते
थमते थमेंगे
आंसू
रोना
है कुछ हंसी
नहीं है
दुख
ऐसा सराबोर कर
लेता है, दुख
ऐसी गहराइयों
तक प्रविष्ट
हो जाता है, तुम्हारी
जड़ों तक
समाविष्ट हो
जाता है कि
फिर तुम उसे
रोकना भी चाहो
तो कैसे रोको?
थमते
थमते थमेंगे
आंसू
रोना
है कुछ हंसी
नहीं है
यह कोई
मजाक नहीं है
कि रो लिए और
रोक लिए। यह कोई
हंसी नहीं है
कि हंस लिए और
रोक लिए। हंसी
तो तुम्हारी
ऊपर-ऊपर होती
है, रुक जाती
है। रोना बहुत
गहरे चला जाता
है। रोना
तुम्हारे
जीवन में सब
तरफ भर जाता
है, और
रोज-रोज अगर
तुम रोने
को इस तरह
सम्हालते गए,
और जीने
को कल पर
टालते गए; तुमने
कहा हंसेंगे
कल, रोएंगे आज...और तुम जो
दलील दे रहे
हो वह दलील यह
है कि अपना
वर्तमान तो
सुखद मालूम नहीं
पड़ता, इसलिए
सुखद सपने देखेंगे।
सुखद वर्तमान
क्यों नहीं है,
यह पूछो।
इसीलिए नहीं
है कि कल भी
तुमने सपने
देखे थे आज
के। और कल का
दिन गंवा दिया
जिसमें आज
सुखद हो सकता
था, जिसमें
आज की आधारशिला
रखी जा सकती
थी। कल तुमने
गंवा दिया, इसीलिए आज
दुखद है। और
तुम यही दलील
दे रहे हो कि
हम आज को भी गंवाएंगे,
क्योंकि कल
का सपना अच्छा
मालूम पड़ता
है।
तुम्हारी
मर्जी। गणित
साफ है। फिर
मुझसे मत कहना
कि हमें किसी
ने चेताया
नहीं।
तुम्हें यह
मौका न मिलेगा
कहने का, यह
ध्यान रखना, कि हमें
किसी ने चेताया
नहीं। दूसरों
को तो यह भी
सुविधा है
कहने की कि
उन्हें किसी
ने चेताया
नहीं। लेकिन
मैं तुम्हें
रोज चेता रहा
हूं।
चौथा
प्रश्न:
पिछले
जन्म के
संस्कार इस
जन्म में आदत
बन जाते हैं।
इस जन्म की
आदतें अगले
जन्म में फिर
संस्कार बन जाएंगी।
फिर अंत कहां
है?
अंत है
इस बात में, इस सत्य को
जान लेने में
कि तुम
संस्कार नहीं हो,
तुम आदत
नहीं हो। अंत
है इस सत्य के
प्रति जाग जाने
में कि तुम
पृथक हो। अंत
है होश में।
अंत है साक्षी
भाव में।
निश्चित
ही तुमने कल
भी क्रोध किया
था, परसों भी
क्रोध किया था,
आदत बन गयी।
आज किसी ने
जरा सा उकसा
दिया, अंगारा
तो था ही
भीतर--रोज-रोज सम्हाला
था--हो गया।
राख भी जमी थी
तो बस ऊपर जरा
सी पर्त
थी। किसी ने
फूंक मार दी, पर्त झर गयी, अंगारा
बाहर आ गया, तुम क्रोध
से भर गए। आज
तुम क्रोध करोगे,
कल के लिए
फिर और तैयारी
हो गयी।
ऐसे
रोज-रोज तुम
अभ्यास बनाते जाओगे।
संस्कार गहन
होता जाएगा।
और जितना
संस्कार गहन
हो जाएगा, उतने ही तुम यंत्रवत
हो जाओगे।
कोई भी
तुम्हारी बटन
दबा दे, तो
क्रोध करवा
दे। कोई भी
तुम्हारी बटन
दबा दे, तो
तुम प्रसन्न
हो जाओ। कोई
भी झुककर
नमस्कार कर ले,
तुम्हारी
प्रशंसा कर दे,
तो तुम
गदगद! कोई जरा
गाली दे दे,
तो तुम
जार-जार! तुम यंत्रवत
हो जाओगे।
और बटनें
लोगों को पता
हो जाती हैं।
सबको पता हैं
एक-दूसरे की बटनें।
कहां से दबा
दो कि सब ठीक
हो जाता है।
कहां से दबा
दो कि सब गड़बड़
हो जाता है।
तुम मशीन हो
क्या? या
मनुष्य हो!
मनुष्य
होने का इतना
ही अर्थ है कि
कोई तुम्हारी
क्रोध की बटन दबाए चला
जाए, लेकिन
तुम कहते हो
नहीं करना है,
तो बटन दबती
रहती है, वह
आदमी थक जाता
है, लेकिन
तुम क्रोध
नहीं करते।
तुम कहते हो
मैं अपना
मालिक हूं। जब
करना चाहूंगा
करूंगा, जब
न करना चाहूंगा
नहीं करूंगा।
प्रतिक्रिया
और क्रिया में
यही फर्क है।
प्रतिक्रिया
में दूसरा
मालिक है, तुम
नहीं। और
क्रिया में
तुम मालिक हो,
दूसरा
नहीं।
और बड़े
मजे की बात है, प्रतिक्रिया
बांधती
है, क्रिया
मुक्त करती
है। जो अपने
कर्म का मालिक
है, उसके
कर्म का कोई
संस्कार नहीं बनता। और
जो अपने कर्म
का मालिक नहीं
है, जो
प्रतिकर्म
करता है--रिएक्ट
होता है
सिर्फ--उस
आदमी के जीवन
में बंधन बनते
चले जाते हैं।
रोज-रोज जाल
मजबूत होता
चला जाता है।
आखिर में तुम
पाते हो, तुम
तो बचे ही
नहीं, आदतों
का एक
ढेर--मुर्दा
ढेर--जिसमें
से जीवन कभी
का उड़ चुका।
पक्षी तो जा
चुका है जीवन
का बहुत पहले,
कटघरा छूट गया है, पिंजड़ा छूट गया है।
जागो, इसके पहले
कि देर हो
जाए। और आदतों
से मुक्त होना
शुरू करो। मैं
तुमसे यह
नहीं कह रहा
कि बुरी आदतों
से मुक्त हो
जाओ और भली
आदतें बना लो।
तुम्हारे महात्मागण
तुमसे
यही कह रहे हैं।
वे तुमसे
कहते हैं, बुरी
आदतें छोड़ो,
अच्छी बनाओ।
मैं तुमसे
कहता हूं, आदत
छोड़ो।
बुरी और अच्छी
आदत से कोई
फर्क नहीं
पड़ता। लोहे का
हो पिंजड़ा
कि सोने का, क्या फर्क
पड़ता है?
एक
आदमी को सिगरेट
पीने की आदत
है, सारी
दुनिया बुरा
कहती है।
दूसरे को माला
फेरने की आदत
है, सारी
दुनिया अच्छा
कहती है। जो सिगरेट
पीता है वह
अगर न पीए तो
मुसीबत मालूम
होती है, जो
माला फेरता है
अगर न फेरने
दो तो मुसीबत
मालूम होती
है। दोनों
गुलाम हैं। एक
को उठते ही से सिगरेट
चाहिए, दूसरे
को उठते ही से
माला चाहिए।
माला वाले को
माला न मिले
तो माला की
तलफ लगती है। सिगरेट
वाले को सिगरेट
न मिले तो सिगरेट
की तलफ लगती
है। ऐसे
बुनियाद में
बहुत फासला नहीं
है। सिगरेट
भी एक तरह का
माला फेरना
है। धुआं भीतर
ले गए, बाहर
ले गए, भीतर
ले गए, बाहर
ले गए--मनके फिरा
रहे हैं। बाहर,
भीतर। धुएं
की माला है।
जरा सूक्ष्म
है। कोई अपना कंकड़-पत्थर
की फेर रहा
है। जरा स्थूल
है।
असली
सवाल आदत से
मुक्त होने का
है।
मैं यह
नहीं कह रहा
हूं कि माला
मत फेरो।
मैं यह भी
नहीं कह रहा
हूं कि सिगरेट
पीओ। मैं
यह कह रहा हूं
कि तुम मालिक रहो। कोई
आदत ऐसी न हो
जाए कि मालिक
बन जाए। कोई
आदत। मंदिर
जाने की आदत
भी मालिक न हो
जाए। ध्यान करने
की आदत भी
मालिक न हो
जाए। मालिक
तुम ही रहो।
मालकियत
बचाकर आदत का
उपयोग कर लेना, यही साधना
है। मालकियत
खो दी, और
आदत सवार हो
गयी, तो
तुम यंत्रवत
हो गए। तब
तुम्हारा
जीवन
मूर्च्छित
है। ऐसे लोग
हैं, जो
मेरे पास आकर
कहते हैं कि
अगर पूजा न
करें रोज, तो
बेचैनी लगती
है। वे सोचते
हैं कि बड़ा
धार्मिक, बड़ी
धार्मिक घटना
घट गयी उनके
जीवन में। मैं
उनसे पूछता
हूं, पूजा
करने से कुछ
आनंद मिलता है?
वे कहते हैं,
आनंद तो कुछ
नहीं मिलता, लेकिन न
करें तो
बेचैनी लगती
है।
यही तो
सिगरेट
पीने वाला
कहता है। वह
कहता है
कि--उससे पूछो, कुछ आनंद
मिलता है--वह
कहता है, आनंद!
क्या रखा है!
आनंद तो कुछ
नहीं मिलता, कभी-कभी
खांसी जरूर
आती है; आनंद
तो कुछ भी
नहीं मिलता, लेकिन न पीओ
तो बेचैनी
मालूम होती
है।
इसे
तुम थोड़ा सोचो।
इसी को मैं
यंत्र हो जाना
कहता हूं, कि जिससे
कुछ भी नहीं
मिलता है उससे
भी न करने पर
बेचैनी मालूम
होती है।
उपलब्ध कुछ भी
नहीं होता है,
पाने को कुछ
भी नहीं है, लेकिन छोड़ने
में मुसीबत
है। क्योंकि
आदत ने पकड़ा
है अब। आदत
इतना ही कर
सकती है--करो, तो कुछ न
मिले; न
करो, तो
कुछ खोता
मालूम पड़े।
अब यह
बड़े मजे की
बात है, जिस
चीज को करने
से कुछ नहीं
मिलता, उसको
न करने से खोएगा
कैसे? कुछ
खोता नहीं, सिर्फ
पुरानी आदत, पुरानी
लकीरों पर न
चलने से अड़चन
मालूम होती है।
मैं एक
बहुत बड़े वकील
को जानता था।
उनकी आदत थी
कि जब भी वे
अदालत में खड़े
होते, पैरवी
करते--बड़े
वकील थे, अंतर्राष्ट्रीय
ख्याति के थे,
और लंदन
और पेकिंग
और दिल्ली तीन
जगह उनके
दफ्तर थे--तो
उनकी आदत थी
कि वे अपने
कोट का बटन घुमाने
लगते थे, जब
अटक जाते। सभी
की होती है।
कोई अपना सिर खुजलाने
लगता है, कोई
कुछ करने लगता
है। उस आदत का
भी वैसा ही उपयोग
है जैसे बटन दबाने का।
तो अगर जब भी
उनके विचार
उलझ जाते, या
कोई उत्तर न
सूझता, तो
वे कोट का बटन घुमाने
लगते। घुमाने
से कुछ मिलता
था यह तो
पक्का पता
नहीं, क्योंकि
कोट का बटन घुमाने
से क्या मिलेगा?
और जिसकी
बुद्धि उलझी
हुई हो, समझ
में न आ रहा हो,
वह कोई कोट
के बटन घुमाने
से कुछ बात
समझ में आ
जाएगी? लेकिन
विरोधियों
को यह बात दिखायी
पड़ गयी कि वे
जब भी उलझ
जाते हैं तो
बटन घुमाते हैं।
एक बड़ा
मुकदमा था। एक
बड़ी स्टेट का
मुकदमा था प्रीवी
कौंसिल में।
लाखों का
मामला था। तो
विरोधी वकील
ने उनके शोफर
को मिला
लिया--कुछ पैसे
दिए--और कहा कि
तू इतना करना, उनके कोट के
ऊपर का बटन
तोड़ देना। तो
वे जब अदालत
में अपना कोट
लेकर हाथ में
रखकर आए तो वह
बटन नदारद था।
तो उस वक्त तो
उन्होंने
देखा भी नहीं,
कोट डाल
लिया। जब वे
पैरवी करने
लगे और वक्त आया,
हाथ कोट के
बटन पर गया, बस, सब
गड़बड़ हो गया!
जैसे
मस्तिष्क ने
साथ छोड़ दिया,
कुछ सूझ-बूझ
ही न रही, चक्कर
सा मालूम हुआ।
बैठ गए। पहला
मुकदमा हारे
वे।
वे
मुझसे कहते थे
कि उस बटन से
मुझे मिला तो
कभी कुछ नहीं, लेकिन
गंवाया मैंने
बहुत। उस बटन
के घुमाने
से कुछ मुझे
सूझ-बूझ आती
थी ऐसा भी
नहीं था, लेकिन
बटन न पाकर
बस, मैं
समझ ही न पाया
कि अब क्या
करूं? हाथ
से जैसे कोई
हथियार छूट
गया। भरोसा
किए बैठे थे, और वक्त पर
जिस पर भरोसा
था वह दगा दे
गया।
जिनको
तुम आदतें
कहते हो, बुरी
हों या भली, इससे कोई
भेद नहीं पड़ता,
सब आदतें, मालिक हो
जाएं तो बुरी
हैं। तुम
मालिक रहो
तो कोई आदत
बुरी नहीं।
गुलामी बुरी
है, मालकियत भली है।
मेरी परिभाषा
यही है।
संस्कार बन
रहे हैं प्रतिपल।
आदतें
निर्मित हो
रही हैं। तुम
जरा दूर खड़े रहो, तुम
अपनी मालकियत
मत खोओ।
निश्चित
जीवन में
आदतों की
जरूरत है। अगर
आदतें न हों
तो जीवन बहुत
कठिन हो जाएगा।
आदतें जीवन को
सुगम बनाती
हैं। तुम टाइपिंग
सीखते हो, या कार
चलाना सीखते
हो, अगर
आदत न बने और
रोज-रोज फिर
वहीं खड़े हो
जाओ जहां पहले
दिन खड़े हुए
थे; फिर
देखने लगो
कि अब टाइप
करने का फिर
मौका आया अब
फिर सीखो,
या कार
चलाने की फिर
नौबत आ गयी अब
फिर से सीखो,
तो जिंदगी
बहुत असंभव हो
जाए। तुम कार
चलाना एक बार
सीख लेते हो, आदत बन गयी।
फिर हाथ ही
काम किए चले
जाते हैं, फिर
तुम्हें
ध्यान भी देने
की जरूरत नहीं
होती। ठीक-ठीक
ड्राइवर गीत
भी गुनगुना
लेता है, बात
भी कर लेता है,
रेडियो भी
सुन लेता है।
और कुछ तो
ड्राइवर ऐसे
हैं कि झपकी
भी ले लेते
हैं और गाड़ी
चलती रहती है।
जीवन
में आदत की
जरूरत है। बस
ध्यान इतना ही
रखना जरूरी है
कि आदत मालिक
न हो जाए।
मालिक तुम बने
रहो तो
संसार में कुछ
भी बुरा नहीं
है।
स्वामित्व
तुम्हारा हो, तो संसार
में सभी कुछ
अच्छा है।
स्वामित्व खो जाए,
तुम गुलाम
हो जाओ, तो
वह गुलामी
चाहे कितनी ही
कीमती हो, खतरनाक
है।
हीरे-जवाहरात
लगे हों सीखचों
पर, जंजीरों पर, तो भी
उनको आभूषण मत
समझ लेना। वे
खतरनाक हैं।
वह महंगा सौदा
है।
अपने
को गंवाकर
इस जगत में कमाने
जैसा कुछ भी
नहीं है।
हां, अपने को
बचाकर जितना
खेल खेलना हो
खेल ले सकते
हो। जब
परमात्मा ही
लीला कर रहा
है, तो तुम
क्यों परेशान
हो? लेकिन
परमात्मा
मालिक है और
जब तुम भी
अपनी आदतों और
संस्कारों के
मालिक हो जाओगे
तब तुम भी
अपने छोटे से
संसार में
परमात्मा हो
जाते हो।
बुद्ध
ने इसी को होश
कहा है, कि
सब करना लेकिन
होशपूर्वक
करना। कदम भी
उठाना तो होशपूर्वक
उठाना। उठना,
बैठना, लेटना--होशपूर्वक।
कोई भी चीज
बेहोशी में मत
करना। अगर तुम
होश को साधते रहो तो आदत
तो बनती रहेगी, आदत
का तुम उपयोग
करते रहोगे,
लेकिन आदत
के पीछे होश
की धारा भी बह
रही है। चैतन्य
का दीया भी जल
रहा है। वह भी
निर्मित हो
रहा है, उसकी
भी सघनता बढ़
रही है। उसका
भी प्रकाश गहन
होता जा रहा
है।
जीवन
में सिर्फ
आदतें ही
आदतें रह जाएं
तो आत्मा खो
जाती है।
आदतों के पीछे
तुम भी रहो--अलग, पृथक। और
इतनी तुममें
मालकियत
हो कि किसी
आदत को अगर
तुम छोड़ना
चाहो तो इसी क्षण
छोड़ दो, लौटकर दुबारा
सोचने की
जरूरत भी न
पड़े।
मैंने
सुना है कि जब
पहली दफा
उत्तर ध्रुव
पर यात्री
पहुंचे, तो
वे एक बड़ी
मुसीबत में
पड़े। तीन
महीने का भोजन
था, वह चुक
गया। और कोई
पंद्रह-बीस
दिन उन्हें
भूखे उपवास
में गुजारने
पड़े। कभी मछली
पकड़ लेते तो
ठीक, कभी न
पकड़ पाते तो
मुश्किल।
जहाज उलझ गया,
बर्फ में फंस गया।
लेकिन उन यात्रियों
का जो कैप्टन
था उसको सबसे
ज्यादा जो
मुसीबत आयी
वह भोजन की
नहीं थी। लोग
बिना भोजन के
रहने को तैयार
थे--यात्रियों
का दल--सिगरेट
की सबसे
ज्यादा
मुसीबत खड़ी
हुई। सिगरेट
खतम हो गयी।
तो लोगों ने
जहाज की रस्सियां
काट-काटकर
पीना शुरू कर
दिया। कैप्टन घबड़ाया।
उसने कहा कि
अगर बीस दिन
यह सिलसिला
रहा तो फिर हम
कभी वापस न
पहुंच पाएंगे!
तुम रस्सियां
ही काटे
डाल रहे हो, तो यह जहाज
आगे कैसे बढ़ेगा?
ये पाल गिर
जाएंगे। मगर
लोग इतने
दीवाने सिगरेट
पीने के लिए
कि कैप्टन करे
भी क्या? एक
आदमी, बाकी
सब सिगरेट
पीने वाले, उनका करो भी
क्या? वे
रात को चोरी
से काट लें, इधर-उधर से
काट लें।
जब यह
जहाज लौटकर
किसी तरह आया
और इसकी अखबारों
में खबर छपी, तो एक आदमी
ने अमरीका
में--वह अखबार
पढ़ते वक्त अपनी
सिगरेट
भी पी रहा था, अखबार भी पढ़
रहा था--उसे
अचानक यह बात
अजीब सी लगी
कि लोग गंदी
रस्सियां
काट-काटकर पी
गए। वह भी चेन स्मोकर
था। उसने
सोचा--हाथ में सिगरेट
थी--उसने सोचा
कि क्या यही
गति मेरी होती
अगर मैं भी
उनके साथ होता?
क्या मैं भी
रस्सियां
काटकर पी जाता?
एक क्षण उसे
खयाल आया, उसने
सिगरेट
ऐश-ट्रे पर रख
दी, और
उसने कहा, अब
इसको तभी उठाऊंगा
जब मेरी ऐसी
दशा आ जाए कि
मुझे लगे अब
मैं गंदी रस्सियां
भी पी सकता
हूं, नहीं
तो नहीं उठाऊंगा।
बीस
साल बीत गए।
वह सिगरेट
अपनी टेबल
पर ही रखे
रहा। लोग उससे
पूछते भी कि
यह आधी जली सिगरेट
यहां क्यों
रखी है? वह
कहता कि इसको
मुझे उठाना है
किसी दिन, लेकिन
उसी दिन उठाऊंगा
जिस दिन मेरी पीड?ा
ऐसी हो जाएगी
कि आदत बड़ी और
मैं छोटा हो
जाऊंगा।
लेकिन मैं
प्रतीक्षा कर
रहा हूं। वह घड़ी आती
नहीं। बीस साल
बीत गए। मैंने
बीस साल से सिगरेट
नहीं पी है, और याद भी
नहीं आयी
है। मैं याद
करने की कोशिश
कर रहा हूं कि
कभी भी आ जाए, क्योंकि मैं
जानना चाहता
हूं किस
मुसीबत में जहाज
के लोगों को रस्सियां पीनी पड़ी
होंगी। लेकिन
वह कभी न आयी।
उसने
अपना संस्मरण
लिखा है। मैं
संस्मरण पढ़
रहा था। उसने
संस्मरण में
लिखा है कि
मैं समझ ही
नहीं पाता कि
क्या बात हो
गयी? क्योंकि
पहले भी मैंने
कई बार सिगरेट
छोड़ना चाही थी,
लेकिन नहीं
छोड़ सका था।
कई बार छोड़ी
भी थी, तो
दिन-दो दिन के
बाद फिर पीने
लगा था। लेकिन
क्या हुआ? अब
तो मैंने छोड़ा
भी नहीं था।
सिर्फ
प्रतीक्षा कर
रहा हूं कि जब
भी आदत पकड़ लेगी
और झकझोर डालेगी
तो पीयूंगा।
लेकिन मैं
सिर्फ यह
जानना चाहता
हूं कि मैं भी
उस जहाज में
अगर होता तो
क्या मैंने रस्सियां
पी होतीं?
बीस साल से
आदत आयी
नहीं। मेरी
समझ में नहीं
आता कि हुआ
क्या!
उसकी
समझ में नहीं
आ रहा है, क्योंकि
उसे ध्यान का
कुछ पता नहीं
है। होश का कुछ
पता नहीं है।
इसने छोड़ी
नहीं है सिगरेट,
छूट गयी होश
के कारण।
क्योंकि वह एक
ही होश साधे
हुए है कि जब
इतने जोर से
तलफ पकड़ेगी
कि मैं रस्सियां
पी लेता, तभी
पीयूंगा।
लेकिन उस होश
के कारण तलफ
नहीं पकड़ती।
होश हो तो तलफ पकड़ती ही
नहीं। अब उसे
कोई होश को
जानने वाला
मिले तो उसे
उत्तर मिले।
लेकिन अनजाने
उसने होश साध
लिया है।
तुमसे
मैं कहता हूं, जो-जो आदत
तुम्हें पकड़े
हो, जबर्दस्ती
पकड़े हो, उसके प्रति
होश साधना।
मैं तुमसे
नहीं कहता, सिगरेट पीना छोड़ो।
मैं कहता हूं,
होशपूर्वक पीयो।
मैं तो यहां
आश्रम में एक
कमरा बनवाने
जा रहा हूं, जहां होशपूर्वक
सिगरेट
पीने वालों को
सुविधा होगी,
कि वे जाकर
वहां सिगरेट
जरूर पीएं,
लेकिन
जितनी देर पीएं
उतनी देर
ध्यान रखें।
एक क्षण को भी
बेहोशी में न पीएं, बस।
फिर अगर पीना
हो तो मजे से पीएं, कोई
हर्जा नहीं।
लेकिन
मैं जानता हूं, अगर होश सध
जाए तो ऐसी
मूढ़ता कौन
करेगा? ऐसी
मूढ़ता तो
बेहोशी में ही
होती है।
तो मैं
तुमसे
कुछ भी छोड़ने
को नहीं कहता।
क्योंकि मैं
जानता हूं, छोड़ने से
कभी कोई छोड़
नहीं पाया।
मैं तुमसे
केवल होश साधने
को कहता हूं; क्योंकि मैं
जानता हूं, होश साधने
से जो भी
व्यर्थ है
अपने आप छूट
जाता है, और
जो सार्थक है
बच रहता है।
होश
आध्यात्मिक
जीवन की आखिरी
कीमिया
है, अल्केमी है। वह
रसायन है।
उसके
अतिरिक्त सब
विस्तार की
बातें हैं।
आज
इतना ही।
thank you guruji
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