अभाव का
बोध—(प्रवचन—तैहरवां)
मेरे
प्रिय आत्मन्!
बीते
दो दिनों में
सुबह की
चर्चाओं में
दो बिंदुओं
पर हमने विचार
किया: अज्ञान
का बोध और
रहस्य का बोध।
अज्ञान
का बोध न हो तो
ज्ञान ही बाधा
बन जाता है और
रहस्य का बोध
न हो तो
व्यक्ति अपने
में ही सीमित
हो जाता है।
और जो विराट
ब्रह्म
विस्तीर्ण है
चारों ओर, उससे उसके
संपर्क-सूत्र
शिथिल हो जाते
हैं, उससे
उसकी जड़ें टूट
जाती हैं। और
जो व्यक्ति अपने
में ही
केंद्रित हो
जाता है वह
स्वभावतः पीड़ा
और दुख में पड़
जाता है और
चिंता में पड़
जाता है।
इन दो
तत्वों के
संबंध में
विचार किया।
मनुष्य
सर्वसत्ता से
इन दो दीवालों
के कारण टूटा
है। टूट की
वजह से उसके
भीतर कौन सी
घटना घटी है
और वह घटना
कैसे
विसर्जित
होगी, उसकी
चर्चा मैं आज
करना चाहता
हूं। क्यों
मनुष्य अपने
को ज्ञान से
भरना चाहता है?
क्यों
मनुष्य
प्रकृति के
रहस्य से दूर
हट गया और टूट
गया? कोई
सुनिश्चित
कारण पीछे
होंगे। अकारण
यह नहीं हुआ
है। उन कारणों
पर थोड़ा सा
विचार करेंगे,
और कैसे
वापस मनुष्य
अपने थोथे
अहंकार से मुक्त
हो सकता है और
जीवन से
संबंधित, उसका
भी।
मनुष्य
के जीवन में, चाहे वह
ज्ञान का
संग्रह करता
हो, चाहे
धन का संग्रह
करता हो, चाहे
यश का संग्रह
करता हो, एक
बात बहुत
स्पष्ट रूप से
समझ लेने जैसी
है कि मनुष्य
जीवन भर
संग्रह करता
है, इकट्ठा
करता है। यह
दूसरी बात है
कि वह क्या इकट्ठा
करता है।
दिशाएं अलग
होंगी। कोई धन
इकट्ठा करता
होगा, कोई
यश इकट्ठा
करता होगा, कोई ज्ञान
इकट्ठा करता
होगा, कोई
कला और कौशल
इकट्ठा करता
होगा, लेकिन
एक बात
केंद्रीय है
कि मनुष्य
जीवन भर इकट्ठा
करता है, संग्रह
करता है।
संग्रह
क्यों करता है? क्यों यह
प्रगाढ़ वेग है
भीतर कि मैं
इकट्ठा करूं?
संग्रह
करूं? क्यों?
अगर इसे न
समझा जा सके
तो जीवन में
कोई आधारभूत
परिवर्तन
संभव नहीं है।
क्योंकि यह हो
सकता है कि एक
संग्रह को वह
छोड़ दे, तो
वह दूसरा
संग्रह शुरू
कर देगा, क्योंकि
संग्रह का मूल
वेग उसकी
दृष्टि में नहीं
है। अगर वह धन
छोड़ना शुरू कर
दे तो छोड़ सकता
है, तो वह
त्याग इकट्ठा
करना शुरू कर
देगा। त्याग भी
इकट्ठा किया जाता
है।
यह
आश्चर्यजनक
है! क्योंकि
हम कहेंगे कि
त्याग कैसे
इकट्ठा किया
जाता है? धन
तो समझ में
आता है इकट्ठा
हो सकता है, लेकिन त्याग?
त्याग भी
इकट्ठा हो
सकता है। उसका
भी हिसाब होता
है कि मैंने
कितने उपवास
किए, उसकी
भी गणना होती
है। मैंने
कितना तप किया,
मैंने
कितनी
प्रार्थना की,
मैंने
कितना कष्ट
सहा--मैंने
कितना त्याग
किया। जहां
गणित है, वहां
संग्रह है।
जहां कैलकुलेशन
है, वहां
संग्रह है। यह
सबका हिसाब है
कि मैंने कितना
किया। मेरे
पास कितना धन
है, इसका
भी हिसाब होता
है। मेरे पास
कितना त्याग है,
इसका भी
हिसाब होता
है। मैं बड़ा
त्यागी हूं या
छोटा त्यागी हूं,
इसका भी
हिसाब होता
है।
यह जो
मनुष्य का मन
है, अगर बिना
संग्रह की मूल
प्रवृत्ति को
समझे, छोड़ने
लगे, तो
बड़ी विरोधी
घटना घटती
है--वह छोड़ने
का भी संग्रह
करने लगता है,
छोड़ने का भी
हिसाब रखने
लगता है। वह
भी उसकी संपत्ति
बनने लगती है,
त्याग भी
संपत्ति बन
जाती है।
ज्ञान
तो स्पष्टतः
संगृहीत होता
है। लेकिन क्यों
हम संग्रह
करना चाहते
हैं? मेरे
देखे--और आप भी
विचार करेंगे
तो यह समझ में
आएगा--मनुष्य
के भीतर कोई
अनिवार्य
शून्यता है; मनुष्य के
भीतर एंप्टीनेस
है, कोई
खालीपन है, कोई अभाव है;
मनुष्य के
भीतर कुछ
बिलकुल रिक्त
है। उस रिक्त
से घबड़ाहट है,
भय है। वह
जो शून्य है
भीतर उससे डर
मालूम होता
है। उसको हम
भरना चाहते
हैं। उसको हम
किसी न किसी
रूप से भर
देना चाहते
हैं। उसके
भीतर कुछ
संगृहीत कर
लेना चाहते
हैं, ताकि
शून्य से छुटकारा
हो जाए, ताकि
रिक्त भीतर जो
खाली जगह है
वह भर जाए।
शून्य
का भय है जो
मनुष्य को
संग्रह में ले
जाता है।
ना-कुछ, नथिंगनेस का भय है, भीतर
तो कुछ भी
नहीं है, एकदम
शून्य है
वहां। है कुछ?
वहां तो
टोटल नथिंगनेस
है, वहां
तो एकदम
सन्नाटा है और
शून्य है और
सब रिक्त है, वहां तो
एकदम अभाव है।
उस अभाव से
घबड़ाहट होती
है, उस
अभाव से भय
होता है, उस
भय से आदमी
भागता है।
विपरीत दिशा
में भागता है।
भीतर सब खाली
है तो बाहर सब
भांति भर जाए,
इसकी
चेष्टा में लग
जाता है।
संग्रह की
वृत्ति भीतर
के अभाव से
पलायन है, एस्केप
है। वह जो
भीतर सब
खाली-खाली है
उससे डर लगता
है। लेकिन
खाली होने से
डर क्यों लगता
है? यह भय
क्या है? अगर
आप नोबडी
हैं, ना-कुछ
हैं, तो भय
क्या है?
जरूर
कोई भय होगा।
हर आदमी समबडी
होना चाहता है, कोई नोबडी
होने को राजी
नहीं, ना-कुछ
होने को कोई
तैयार नहीं।
प्रत्येक व्यक्ति
कुछ होना
चाहता है। वह
कह सके कि मैं
कुछ हूं। सारी
राजनीति इससे
पैदा होती है
कि मैं कह
सकूं कि मैं
कुछ हूं। धन
की दौड़ इससे
पैदा होती है,
ताकि मैं कह
सकूं कि मैं
कुछ हूं। मैं
कुछ हूं! त्याग
की दौड़ इसलिए
पैदा हो सकती
है कि मैं कह सकूं
कि मैं कुछ
हूं। ज्ञान
इसलिए इकट्ठा
होता है, ताकि
मैं कह सकूं
कि मैं कुछ
हूं। संन्यास
तक इसलिए लिया
जा सकता है, ताकि मैं कह
सकूं कि मैं
कुछ हूं। तुम
कुछ भी नहीं
और मैं कुछ
हूं! लेकिन यह
क्यों? यह
मैं क्यों
कहना चाहता
हूं? यह
क्यों मेरे
भीतर खयाल
उठता है कि
मैं कुछ हूं? यह दौड़ कहां
से पैदा होती
है?
भीतर
मैं ना-कुछ
हूं, भीतर मैं
कुछ भी नहीं
हूं। देखें, खोजें--भीतर
आप क्या हैं? भीतर तो कोई
भी कुछ नहीं
है। भीतर तो
कोई विशेषण
नहीं है, कोई
विशेषता नहीं
है। भीतर तो
एक सन्नाटा है
और खालीपन है।
खालीपन से
घबड़ाहट लगती
है। भागते हैं
उसको भरने को,
कुछ संग्रह
करते हैं।
ज्ञान इकट्ठा
करते हैं, धन
इकट्ठा करते
हैं, यश
इकट्ठा करते
हैं। और जितना
भागते हैं
उतना ही, जितना
इकट्ठा करने
लगते हैं उतनी
ही कठिनाई बढ़ती
चली जाती है।
क्योंकि लाख
उपाय करें, भीतर वह जो ओरिजिनल एंप्टीनेस
है, वह जो
मौलिक और प्रकृतिगत
अभाव है, उसे
भरा नहीं जा
सकता है, वह
हमारा स्वभाव
है, उसे
भरने का कोई
उपाय नहीं, कोई मार्ग
नहीं।
अभाव
जो है वह
हमारा स्वभाव
है। भीतर जो
बिलकुल रिक्त
है स्थान, वही हमारा
स्वभाव है।
इसलिए उसे हम
कितने ही भरने
की कोशिश करें,
उसे भरा
नहीं जा सकता।
और इसीलिए तो
बाद में सब
कुछ भर कर भी
पता चलता है कि
हम खाली हैं।
तब पीड़ा बहुत
बढ़ जाती है।
जीवन व्यर्थ
गया दौड़ में, संग्रह में,
और संग्रह
से कुछ भरा
नहीं। संग्रह
एक तरफ पड़ा
रहता है, भीतर
का खालीपन
दूसरी तरफ खड़ा
रहता है।
दोनों का कहीं
कोई मेल नहीं
होता।
असल
में क्यों
भागने की
वृत्ति होती
है उस अभाव से? अभाव से
इसलिए भागने
की वृत्ति
होती है कि उस अभाव
में व्यक्ति
नहीं टिक सकता
है, उस
अभाव में
व्यक्ति तो
मिट जाएगा, अहंकार मिट
जाएगा, मैं
मिट जाएगा। और
मैं से बड़ा
लगाव है, मैं
को बचा लेना
चाहते हैं, उसे मरने
नहीं देना
चाहते हैं। डर
है कि कहीं
मैं मिट न
जाऊं। वह जो
भीतर अभाव है
उसमें मौत
मालूम होती
है। अगर वहां
गए तो मिटे, वहां तो मैं
नहीं बचेगा।
मैं जो
राजनीतिज्ञ हूं,
मैं जो राजा
हूं, मैं
जो
राष्ट्रपति
हूं, मैं
जो फलां हूं, ढिकां हूं, वह
नहीं वहां
बचेगा। वहां
तो सन्नाटा है
और खाली शून्य
है। उस शून्य
में मैं नहीं बचूंगा, तो मैं अपने
को बचाने की
कोशिश में लगा
हूं। इस बचाने
की कोशिश से
सारी दौड़ पैदा
होती है जीवन
की। और दौड़ का
अंतिम फल
असफलता हो
सकती है।
कितना
ही हम दौड़ें, जो हमारे
भीतर है उससे
दौड़ कर हम
जाएंगे कहां?
उससे भाग कर
हम जाएंगे
कहां? वह
हमेशा हमारे
साथ है। हम
जहां भी
जाएंगे वह हमारे
साथ है।
एक
आदमी चपरासी
है और वह
राष्ट्रपति
हो जाए, भीतर
जो खालीपन
चपरासी होते
वक्त था वही
राष्ट्रपति
के साथ भी
रहेगा।
कुर्सी बड़ी हो
जाएगी, आकाश
में बैठने
लगेगा, लेकिन
भीतर जो
खालीपन था वह
उसके साथ
रहेगा। तब वह
पाएगा कि
राष्ट्रपति
होने से भी
कुछ नहीं होता,
अब मुझे तो
सारी दुनिया
को, सारी
दुनिया का
प्रमुख हो
जाना चाहिए।
कोई राष्ट्रसंघ
बने, उसका
मैं प्रमुख हो
जाऊं। सारे
दुनिया के राज्य
इकट्ठे हो
जाएं, उसका
मैं प्रमुख हो
जाऊं। वह वहां
भी पहुंच कर
पाएगा कि नहीं,
यह कुछ नहीं
होता, वह
भीतर का
खालीपन साथ
चला जाता है।
कितना
ही हम इकट्ठा
करें, आखिर
में पाया जाता
है कि भीतर हम
पहले खाली थे,
अब भी हम
खाली हैं। तब
घबड़ाहट पैदा
होती है, तब
फ्रस्ट्रेशन
पैदा होता है,
चिंता पैदा
होती है, अशांति
पैदा होती है
कि यह क्या
हुआ? भराव
तो आया नहीं, गङ्ढा खाली
था और गङ्ढा
खाली है। क्या
हो?
जीवन
का सारा दुख
इसलिए है कि
भरने के सब
प्रयास अंततः
असफल हो जाते
हैं। किसी के
प्रेम से अपने
को भरते हैं, किसी की
मैत्री से
भरते हैं, किसी
परिवार से
अपने को भरते
हैं, लेकिन
आखिर में कोई
भराव नहीं
आता। और तब हम
गुस्से में उन
पर चिल्लाते
हैं जिनसे
हमने प्रेम
किया और भराव
नहीं आया। तब
हम उन पर
नाराज होते
हैं कि तुमने
जरूर कुछ गड़बड़
की है।
लेकिन
गड़बड़ उनकी
नहीं है, कसूर
किसी और का
नहीं है, भीतर
कुछ ऐसा शून्य
है कि वह भरा
ही नहीं जा सकता।
इसलिए प्रेम
जिसको करते
हैं उस पर बाद
में नाराज
होते हैं, क्रोध
करते हैं, और
यह सोचते हैं
कि उससे हमने
प्रेम किया, उसने प्रेम
नहीं दिया, इसलिए भीतर
दुख हो रहा
है। दुख इसलिए
नहीं हो रहा।
उसने प्रेम
दिया हो तो भी
कोई फर्क नहीं
पड़ता, उसका
प्रेम भीतर के
खालीपन को
जाकर भर नहीं
सकता है। वह
खालीपन वहीं का
वहीं पड़ा
रहेगा। तब हम
नाराज होते
हैं कि शायद
मेरे पास कम
रुपये हैं
इसलिए नहीं भर
पा रहा हूं, जिनके पास
ज्यादा रुपये
हैं उनका भर
गया होगा। तो
हम ज्यादा
रुपये की दौड़
में लगते हैं।
उतने रुपये
मिल जाते हैं,
फिर भी हम
पाते हैं कि
नहीं भरा। वह
खाली है और
खाली है। और
दौड़ चलती रहती
है और आदमी
भीतर खाली बना
रहता है।
इस
अनिवार्य
सत्य को, इस
तथ्य को बहुत
स्पष्ट रूप से
देखना जरूरी
है कि किसी भी
भांति भीतर के
खालीपन को न
कभी भरा जा
सका है और न
भरा जा सकता
है। हजारों
लोग दौड़े हैं,
हम कोई नये
लोग नहीं हैं
जो दौड़ रहे
हैं, हमसे
पहले
करोड़ों-अरबों
लोग दौड़े हैं
और उन्होंने
भरने की कोशिश
की है और असफल
हुए हैं। और अंतिम
कथा असफलता की
है। हम भी दौड़
रहे हैं। दौड़
वही है
पुरानी। आदमी
बदलते जाते
हैं, दौड़
वही है। भरने
की दौड़ है।
भीतर एक भय है
कि अगर मैंने
अपने को किसी
चीज से नहीं
भरा तो मैं तो
ना-कुछ हो
जाऊंगा।
लेकिन
क्या कोई कभी
अपने को भर
सका है? क्या
मनुष्य-जाति
के अनुभव में
यह घटना कभी
घटी है कि
किसी ने अपने
को भरा हो?
एक बार
ऐसा हुआ...किसी
पुराण में यह
लिखा हुआ नहीं
है, पता नहीं पुराणकार
कैसे चूक गए
इस घटना को
लिखने
से...लेकिन एक
बार ऐसा हुआ
कि सारी
मनुष्य-जाति
से भगवान बहुत
परेशान हो गया
उनकी दौड़ को
देख कर, उसने
सुबह-सुबह ही
घोषणा की कि
आज मैं
तुम्हारे सब
दुखों का अंत
कर दूंगा।
सांझ तक जिसका
जो दुख हो वह
अपनी एक-एक गठरियों
में उसको बांध
ले। जिसका जो
दुख हो! कोई
दुख छोड़ने का
कारण नहीं, कोई चिंता, सब उसमें
बांध ले और
रात सूरज ढलने
के बाद गांव
के बाहर जाकर
उस गठरी को
फेंक आए।
जो-जो दुख उसमें
बांध लिए
जाएंगे वे
समाप्त हो
जाएंगे। और
लौटते वक्त
सूरज उगने
के पहले उसी
गठरी में
जो-जो सुख उसे
चाहिए हों
उनको बांध ले
और वापस लौट
आए। घर पहुंचते
ही वे सुख
उसको उपलब्ध
हो जाएंगे।
कल्पना से ही
बांधना था, एक-एक दुख को
रखते जाना था
गठरी में, फिर
गठरी बांध कर
ले जाना था।
बाहर झड़ा
कर गठरी को
फिर वैसे ही
कल्पना से सुख
रख कर वापस
लौट आना था।
शाम से
ही लोग लग गए।
दिन में कई को
तो विश्वास
हुआ, किसी को
अविश्वास हुआ,
लेकिन सांझ
होते-होते
सबको विश्वास
आ गया। मरते-मरते
सभी आदमी
धार्मिक हो
जाते हैं, विश्वासी
हो जाते हैं।
जिंदगी में जब
जरा सुबह-सुबह
जोश था, किसी
ने कहा कि
अफवाह है, किसी
ने कहा कि पता
नहीं यह सच है
कि झूठ है, किसी
ने कहा कि हम
तो ईश्वर को
मानते नहीं।
लेकिन सुख को
तो सभी मानते
हैं। इसलिए
सांझ होते-होते
सभी को लगा कि
कहीं ऐसा न हो
कि हम चूक जाएं।
सांझ अंतिम
घोषणा हुई कि
यह पहला ही
मौका है
मनुष्य-जाति
के लिए और
अंतिम भी, जो
चूका वह सदा
को चूक जाएगा,
इसलिए सारे
लोग दुख बांध
लें।
आखिर-आखिर
पूरी मनुष्य-जाति
ने सांझ
होते-होते
सबने अपने दुख
बांध लिए। कोई
दुख छोड़ा
नहीं। कौन
छोड़ता!
सारे
दुख बांध कर
लोग निकले।
गांव का गरीब
से गरीब आदमी
भी उतनी ही
बड़ी गठरी लिए
हुए था जितना
गांव का राजा
भी। तब लोग
बड़े हैरान
हुए! यह क्या
मामला है? गरीब सोचता
था, दरिद्र
सोचता था, दुख
मेरे पास हैं,
पीड़ाएं
मेरे पास हैं।
लेकिन गांव का
राजा भी जब
अपने सिर पर
गठरी लेकर
निकला और सारे
लोग चौंक कर
देखने लगे--गठरियां
करीब-करीब सभी
की बराबर थीं।
किसी की गठरी
छोटी-बड़ी नहीं
थी, तो वे
बहुत हैरान
हुए! उनको एक चौंकने की
बात अनुभव हुई
कि यह तो बड़ी चौंकाने
वाली बात हो
गई! हम झोपड़े
में थे इसलिए
दुख में थे।
यह महल में था,
यह आदमी
कैसे दुख में
था?
यह जान
कर आप हैरान
होंगे, अज्ञान
में दुख की
गठरी सबके ऊपर
बराबर है। और
यह असंभव है
कि किसी के
ऊपर छोटी हो
और किसी के
ऊपर ज्यादा
हो। यह असंभव
है। सबके ऊपर गठरी
बराबर है।
लेकिन अपनी
गठरी दिखाई
पड़ती है, दूसरे
की गठरी दिखाई
नहीं पड़ती।
इसलिए लगता है
कि मैं ही बोझ
से दबा जा रहा
हूं और मरा जा
रहा हूं, बाकी
सब लोग कितनी
मौज में और
आनंद में हैं।
और हर आदमी से
पूछ लें, यही
कहेगा कि मैं
ही मरा जा रहा
हूं, बाकी
दुनिया कितने
आनंद में है।
मुझे न मालूम क्या
हो गया है!
मेरे भाग्य
खराब, मेरे
कर्म खराब, मेरे पिछले
जन्म खराब।
फिर वह एक्सप्लेनेशंस
खोजता है। और
कोई न कोई
नासमझ मिल
जाते हैं समझाने
वाले कि तुम
इसलिए दुखी हो
कि तुमने पीछे
कुछ गड़बड़ किया,
उसके पीछे
कुछ किया।
यानी यह बताने
वाले लोग मिल
जाते हैं कि
जरूर
तुम्हारी
गठरी बड़ी है
और दूसरों की
छोटी है।
लेकिन मैं
आपसे निवेदन
करता हूं, किसी
की गठरी छोटी
और किसी की
बड़ी नहीं, अज्ञान
में सबके ऊपर
बराबर गठरियां
हैं। हो ही
नहीं सकता कि
छोटी-बड़ी हों।
क्योंकि
अज्ञान बराबर
है, अज्ञान
छोटा और बड़ा
नहीं होता।
अज्ञान होता है
तो पूरा होता
है, नहीं
होता है तो
पूरा नहीं
होता। छोटा और
बड़ा अज्ञान
जैसी कोई चीज
नहीं होती कि
एक आदमी कम अज्ञानी
और दूसरा आदमी
ज्यादा
अज्ञानी, यह
सब मूढ़ता है।
अज्ञान ऐसा
खंड-खंड नहीं
होता कि छोटा
अज्ञान, ज्यादा
अज्ञान, ये
बड़े अज्ञानी,
वे और बड़े
अज्ञानी, ऐसा
नहीं है।
अज्ञान में जो
है वह एक से ही
अज्ञान में
है। अज्ञान के
खंड और टुकड़े
नहीं होते।
और न
ज्ञान के खंड
और टुकड़े होते
हैं। तो कोई छोटे
ज्ञानी और बड़े
ज्ञानी भी
दुनिया में नहीं
होते, कि
महावीर छोटे
ज्ञानी कि
बुद्ध बड़े
ज्ञानी। ऐसे
बेवकूफ भी हैं
जो इसका हिसाब
लगाते हैं। ऐसी
किताबें मेरे
सामने भेजी
गईं जिनमें
हिसाब लगाया
गया है कि
सबसे ऊपर कौन
पहुंचा। फिर उसके
बाद कौन, फिर
उसके बाद कौन,
फिर उसके
बाद कौन।
ज्ञान में भी
खंड नहीं होते,
अज्ञान में
भी खंड नहीं
होते। या तो
अज्ञान, या
ज्ञान। और
जहां अज्ञान
है वहां दुख
का बोझ समान
है। और जहां
ज्ञान है वहां
आनंद की स्फुरणा
समान है। वहां
भी कोई फर्क
नहीं।
उस दिन
सुबह लोग
चौंके और
घबड़ाए जब देखा
कि गठरियां
बराबर हैं। यह
पहला ही मौका
था कि दूसरों
की गठरियां
भी दिखाई
पड़ीं। अपनी
गठरी का तो
हमेशा बोझ था।
पूरा गांव, पूरी
मनुष्य-जाति
का ही मामला
था। सब लोग
जाने लगे। तभी
एक गांव में
यह अफवाह भी
उड़ी कि एक बूढ़ा
फकीर नहीं जा
रहा है। वह एक
ही आदमी था
पूरी मनुष्य-जाति
में। दिमाग
खराब रहा होगा
उसका। राजा भी
जा रहा है, दरिद्र
से दरिद्र जा
रहा है, धनी
से धनी जा रहा
है, तो
क्या पागल हो
गया! वह गांव
के बाहर रहता
था। जाती हुई
मनुष्य-जाति
के हर आदमी ने
उससे कहा, पागल
हुए हो! अभी भी
वक्त है, जितना
भी थोड़ा-बहुत
बांध सको
बांधो और आ
जाओ, बाद
में पछताओगे।
अगर झूठ भी हुई
अफवाह तो
हर्जा क्या है?
गांव के
बाहर टहलना हो
जाएगा, थोड़ा
स्वास्थ्य को
लाभ भी हो
जाएगा। इससे
हर्जा क्या हो
जाएगा? आ
जाओ, कोई
फिक्र न करो, जितना बांध
सको! वक्त
ज्यादा नहीं,
क्योंकि हम
तो दिन भर से
बांध रहे थे, तुमको वक्त
तो अब थोड़ा ही
है, सूरज
डूबने को है, लेकिन जो भी
बांध सको बांध
लो और आ जाओ।
वह
फकीर बैठा रहा
और हंसता रहा।
लोगों ने समझा
कि दिमाग खराब
है। इतनी सारी
दुनिया जो कर
रही है, यह
अकेला आदमी
छोड़ रहा है।
लोग चले गए।
समझा सकते थे,
समझाया।
कोई नाराज भी
हुआ, किसी
ने गुस्से में
भी कहा कि
गलती कर रहे हो,
बाद में
पछताओगे, फिर
मौका भी नहीं
है दूसरा
चुनाव का, चूके
तो चूके।
लेकिन वह फकीर
हंसता रहा और
बैठा रहा और
उसने कहा कि
लौटते में भी
मिलते जाना।
लोगों ने कहा
कि ठीक।
लोग
गए। बारह बजे
रात के सबने
अपनी गठरियां
खाली कर दीं।
अब दूसरी दौड़
शुरू हुई। सब
सुख बांधने
लगे। आधी रात
से सुबह तक का
वक्त था, कौन
कितना बांध ले,
कौन कितना
बांध ले! कोई
चूक न जाए, क्योंकि
चूक गया तो
हमेशा के लिए,
कोई भूल न
जाए। तो लोग
अपनी-अपनी धुन
में हैं। किसी
को किसी की
फिक्र नहीं है,
कौन क्या
बांध रहा है।
लोग अपना-अपना
बांधने में
हैं। फुर्सत
किसको कि एक
क्षण किसी से
बात कर ले! क्योंकि
उतनी देर में
न मालूम कितना
बांधने से चूक
जाए। सुबह
करीब आ रही
है। समय था
थोड़ा, सुख
थे बहुत, बहुत
मुश्किल पड़ गई,
लेकिन किसी
तरह बांधा। यह
भी डर था कि
कोई ज्यादा न
बांध ले, कोई
कम न बांध ले।
यह भी घबड़ाहट
थी बीच-बीच
में आंख उठा
कर देखते भी
जाते थे कि
दूसरों की गठरियों
का क्या हाल
है। लेकिन सब
लगे हुए थे
अपना-अपना
बांधने में।
सुबह सूरज
होते-होते वे
सब वापस लौटे,
देख कर
हैरान हो गए, किसी की
गठरी छोटी
नहीं, किसी
की बड़ी नहीं!
बहुत परेशान
हुए कि क्या
सभी लोगों ने
बराबर-बराबर
सुख बांध लिए?
असल
में, जहां
अज्ञान है
वहां समान
वासनाएं हैं,
कोई फर्क
थोड़े ही है।
समान इच्छाएं
हैं, कोई
फर्क थोड़े ही
है। समान
आकांक्षाएं
हैं, कोई
फर्क थोड़े ही
है। करीब-करीब
गठरियां
बराबर थीं।
बड़े चौंके, बड़े हैरान
हुए! सब दुखी
भी हुए कि
हमने इतनी
कोशिश की, फिर
भी ज्यादा न
बांध पाए! ये
सारे लोग उतने
ही बांध लिए, मामला क्या
है? किसी
ने किसी से
पूछा भी नहीं,
फिर भी सबने
वही बांध
लिया। लौटे, फकीर बैठा
हुआ था अपने
द्वार पर।
लौटे तो उसने
कहा कि बड़े
उदास दिखाई
पड़ते हो, लोगों
से कहा।
लोगों
ने कहा कि दौड़-धूप
में थक गए।
हम तो
सोचते थे तुम
इतनी खुशियां
लेकर आ रहे हो
तो बड़े खुश
आओगे, उसने
कहा।
कोई
खास खुशी की
बात नहीं, लोगों ने
कहा, क्योंकि
उतनी खुशियां
पड़ोसी भी ला
रहे हैं। मामला
सब खराब हो
गया।
गठरी
हमारी बड़ी
होती तो कुछ
खुशी भी हो
सकती थी। यह
तो मामला ही
गड़बड़ है। सारे
लोग उतना ही
बांधे हुए चले
आ रहे हैं।
चित्त खिन्न
हो गया है, कोई अर्थ न
रहा बांधने का,
दौड़ का।
क्योंकि खुशी
इसमें है कि
पड़ोसी छोटा पड़
जाए, खुशी
इसमें नहीं है
कि खुशी मेरे
भीतर हो। वे सब
दुखी लौट रहे
थे सुबह। एक
तो रात भर की
थकान, दिन
भर का बांधना,
फिर ढोना, फिर रात भर
का बांधना, सुबह जब हुई
तो सूरज...वे सब
थके और उदास
और रोते लौट
रहे थे।
फकीर
हंसने लगा, उसने कहा, इसीलिए तो
मैंने कहा था
कि लौटते में
मुझसे मिलते
जाना। और एकाध
दिन फिर अगर
समय मिले तो
फिर मिलने आ
जाना।
वे लोग
अपने घरों में
लौटे, कोई
खास प्रसन्न न
था। सुख आ गए
थे--छोटे झोपड़ों
की जगह बड़े
मकान बन गए, घर आए तो देख
कर चौकन्ने
हो गए, जहां
कंकड़-पत्थर
पड़े थे वहां
हीरे-जवाहरात
थे, जहां
छोटे झोपड़े थे
वहां बड़े महल
थे--लेकिन सबके
ही ऐसे हो गए
थे, इसलिए
कोई खास खुशी
भी न थी। भीतर
अपने घरों में
चले गए, उसी
तरह जिस तरह
अपने झोपड़ों
में जाते थे, कोई फर्क
नहीं पड़ा था।
क्योंकि सभी
के एक साथ बड़े
हो गए थे
इसलिए बड़े
होने का कोई
अर्थ नहीं रहा
था। अनुपात
वही था। घर
जाकर सोचा था
अब तो कोई दुख
न होगा, लेकिन
बहुत हैरान
हुए, जो-जो
सुख आए थे वे
अपने साथ नये
दुख ले आए थे
जिनकी
उन्होंने
कल्पना न की
थी।
दुख
अलग थोड़े ही
होता है सुख
से, कि आप दुख
को छोड़ आएं और
सुख को ले
आएं। वह तो सुख
की छाया है, वह तो उसके
पीछे खड़ा है, वह तो उसी
सिक्के का
दूसरा पहलू
है।
तो वे
जो-जो सुख ले
आए थे, उनके
साथ-साथ
उन्हीं सुखों
की चिंताएं और
उन्हीं सुखों
के छायारूप
दुख ले आए थे।
रात वे उतने
ही बेचैन सोए
जितने हमेशा
सोते थे।
क्योंकि दुख
अब नये थे, परेशानियां,
चिंताएं अब
नई थीं। तब तो
वे बहुत हैरान
हुए और
उन्होंने
सोचा, क्या
वह फकीर ही
आदमी ठीक किया
जो न गया और न
आया! आने-जाने
के श्रम से भी
बचा। जाते
वक्त भी हंस
रहा था, लौटते
वक्त भी हंस
रहा था।
दूसरे
दिन बहुत से
लोग उससे
मिलने गए और
कहा कि हम तो
बड़े हैरान हो
गए हैं।
उसने
कहा, तुमने
व्यर्थ ही
मेहनत की।
क्योंकि जो
आदमी दुख
छोड़ना चाहता
है और सुख
पाना चाहता है,
वह सुख तो
पा ही नहीं
सकता और दुख
को छोड़ भी
नहीं सकता। इन
दो में से जो
एक को भी बचा
लेना चाहता है,
वह दूसरे को
भी बचा लेगा।
दूसरा जाएगा
कहां? ये
दोनों तोड़े
नहीं जा सकते,
संयुक्त
हैं। और
तुम्हें कोई
खुशी मिली?
उन्होंने
कहा, खुशी तो
कुछ पता नहीं
चलती। नये दुख
आ गए हैं। नई
पीड़ाएं, नई
परेशानियां आ
गई हैं। फिर
उन्होंने
पूछा, तुम
भी हमें बताओ
कि तुमने
क्यों न बांधा?
उसने
कहा, न तो मेरे
पास चादर थी
जिसमें मैं बांधता।
पहली तो
दिक्कत यही थी
कि चादर नहीं
थी जिसमें मैं
बांधता।
फिर चादर भी
तुमसे मैं
मांग ले सकता
था, क्योंकि
तुम सभी उस
वक्त दानी हो जाते।
क्योंकि भारी
सुख आ रहे थे, तुम्हें कोई
चिंता भी नहीं
होती। एक चादर
तो कोई भी
मुझे दे देता।
लेकिन उसमें
क्या बांधता,
यह भी
दिक्कत थी।
मेरे पास दुख
भी नहीं थे
बांधने को।
फिर अगर खाली
गठरी ही लेकर
चला चलता तुम्हारे
साथ, तो
वहां से लौटते
में क्या बांधता,
मुझे कोई
सुख की
आकांक्षा
नहीं है, मैं
आनंद में
प्रतिष्ठित
हूं।
जो
आदमी आनंद में
है वह सुख
नहीं चाहता
है। जो आदमी
दुख में है
वही सुख चाहता
है। और जो दुख
में है वह
कितना ही सुख
चाहे, सुख
मिल नहीं सकता,
सुख के साथ
दुख वापस लौट
आते हैं। ऐसे
दौड़ चलती है--दुखों
को छोड़ने की, सुखों को
लाने की, संग्रह
की, गठरियां बांधने की।
दौड़ते हैं, दौड़ते हैं, दौड़ते हैं
और थकते हैं
एक दिन और
पाते हैं कि कुछ
हुआ नहीं।
किसलिए? वह
भीतर है एक
अभाव गहरा।
दुख यह नहीं
है कि बाहर
अभाव है, दुख
यह नहीं है कि
बाहर चीजें कम
हैं, दुख
यह है कि भीतर
संपूर्ण अभाव
है।
इस
तथ्य के प्रति
जागना जरूरी
है। जो मनुष्य
इस तथ्य के
प्रति जागता
है कि मैं
भीतर की एंप्टीनेस
को, खालीपन
को भरने की
कोशिश में लगा
हूं, उसे
यह सोच लेना
चाहिए कि क्या
खालीपन कभी
भरा जा सकता
है? और ऐसा
खालीपन जो
भीतर है और
भरने की ऐसी
चेष्टा जो
बाहर है! बाहर
इकट्ठा
करूंगा तो
भीतर कैसे
जाएगा? क्या
एक भी वस्तु
आज तक मनुष्य
के भीतर जा
सकी है?
मैं यह
नहीं कह रहा
हूं कि
इंजेक्शन
किसी के शरीर
में लगा दिया
और दवा भीतर
डाल दी। वह भी
भीतर नहीं है।
जहां तक वस्तु
जा सके, समझ
लेना वहां तक
भीतर नहीं आया,
वहां तक सब
बाहर है।
क्योंकि
वस्तु बाहर है,
वह जहां तक
जा सके शरीर
के भीतर, समझ
लेना वहां तक
बाहर है अभी।
मनुष्य
के भीतर कुछ
भी नहीं जा
सका है। भीतर
का अर्थ ही यह
होता है जहां
कुछ भी न जा
सके। वह एनटाइटी
जो आत्यंतिक
रूप से आंतरिक
है, उसमें
कुछ भी बाहर
से नहीं जा
सकता। वही
आत्मा है।
उसको ही भरने
की बाहर से
कोशिश असफल हो
जाती है।
फिर
क्या हो? फिर
क्या रास्ता
है? ऊब
जाते हैं लोग,
घबड़ा जाते
हैं लोग, फिर
धन छोड़ते हैं,
दुकान
छोड़ते हैं, मकान छोड़ते
हैं, साधु
हो जाते हैं, संन्यासी हो
जाते हैं।
घबड़ा गए जीवन
से, संसार
से, इसकी
निंदा करने
लगे, कंडेमनेशन करने लगे कि
यह गलत है, व्यर्थ
है, इसमें
दुख ही दुख
है। तो हम तो
अब मोक्ष की
खोज में जाते
हैं, ईश्वर
की खोज में
जाते हैं। वे
फिर ईश्वर से
और मोक्ष से
अपने को भरने
की कोशिश में
लग जाते हैं।
भराव का काम
जारी रहता है।
पहले वे धन से
भरते थे, अब
वे मोक्ष से
भरते हैं--कि
मोक्ष कैसे
मिल जाए? ईश्वर
कैसे मिल जाए?
सत्य कैसे
मिल जाए? मुक्त
कैसे हो जाऊं?
बंधन कैसे
टूट जाएं? दुख
से कैसे अलग
हो जाऊं? लेकिन
बुनियादी बात
कायम है--वे
जैसे हैं भीतर,
उसके साथ
वैसे ही होने
को अभी भी
राजी नहीं
हैं। जो भीतर
वह रिक्तता है,
जो एंप्टीनेस
है, उसके
साथ वहीं होने
को वे अभी भी
राजी नहीं हैं।
अभी भी वे
मोक्ष जाना
चाहते हैं, अभी भी वे
स्वर्ग जाना
चाहते हैं, अभी भी वे
देवता होना
चाहते हैं या
कुछ और होना
चाहते हैं।
अभी भी वे कुछ
होना चाहते
हैं। अभी बिकमिंग
जारी है। अभी
होने की दौड़
जारी है। पहले
धन चाहते थे, अब मोक्ष
चाहते हैं। धन
की चाह मोक्ष
बन गई, लेकिन
चाह मौजूद है,
डिजायर मौजूद है।
संसारी
और संन्यासी, दोनों के
भीतर चाह
मौजूद है। और
जहां चाह है वहां
संसार है, जहां
चाह है वहां
संसार है। वे
भी दौड़ते हैं,
वे भी
परेशान होते
हैं, उनको
भी कुछ मिलता
नहीं, उनको
भी कुछ मिल
सकता नहीं।
फर्क कोई भी
नहीं पड़ा है।
आप इधर धन को
खोजते थे, वे
उधर दूर के धन
को खोजने लगे
हैं। लेकिन
भीतर के धन से
न तो आप राजी
थे, न वे
राजी हैं।
मोक्ष
खोजा नहीं जा
सकता। वह आदमी
जो अपने होने
से, वह जो है,
भीतर वह जो
अभाव है, उस
अभाव के साथ
सहमत हो जाता
है, उस
अभाव में जीने
को राजी हो
जाता है, उस
अभाव को ही
होने को राजी
हो जाता है, वह आदमी उसी
क्षण मोक्ष को
उपलब्ध हो
जाता है।
लेकिन जो भी
उससे दौड़ रहा
है--चाहे वह
दौड़ कोई भी हो,
पूरब में हो
कि पश्चिम में
हो, उससे
फर्क नहीं
पड़ता--वह अपने
से भाग रहा
है।
तो मैं
आज की सुबह
आपसे अंतिम
रूप से यह
कहना चाहता
हूं कि भीतर
जो अभाव है
उससे भागें
नहीं, भागने
वाला कहीं भी
नहीं पहुंचता
है। उस अभाव में
प्रवेश करें।
भागने के लिए
बाहर जाना पड़ता
है अभाव से, प्रवेश के
लिए भीतर जाना
पड़ेगा अभाव
में। उस नथिंगनेस
में प्रवेश
करें जो भीतर
है। भागें
नहीं, उसमें
प्रवेश करें,
रुकें,
ठहरें और उसमें
जाएं। और अपने
नोबडी
होने से जो
सहमत हो जाता
है, ना-कुछ
होने से, वह
आदमी धार्मिक
है। उसके
अतिरिक्त कोई
आदमी धार्मिक
नहीं है। जो
अपने ना-कुछ
होने से सहमत
हो जाता है...।
एक
फकीर हुआ चीन
में, लाओत्से। अनेक-अनेक
लोगों ने उस
समय के राजा
से कहा कि लाओत्से
से मिलें।
बहुत-बहुत एक्सट्राआर्डिनरी,
बहुत अदभुत,
बहुत
असाधारण
व्यक्ति है।
तो राजा भी
प्रभावित हो
गया होगा। जब
अनेक-अनेक
लोगों ने कहा
तो कौन
प्रभावित
नहीं हो जाता
है? जब
बहुत-बहुत
लोगों ने कहा
तो राजा भी
प्रभावित हो
गया, वह भी
गया मिलने के
लिए। मिलने के
लिए गया तो हैरान
हुआ! लाओत्से
उस समय गङ्ढा
खोद रहा था
अपने झोपड़े के
बाहर। साधारण
आदमी था, बिलकुल
साधारण, कोई
असाधारण बात न
थी।
राजा
ने अपने
मित्रों से
कहा, यह आदमी
तो बिलकुल ही
साधारण मालूम
होता है। इसमें
तो कुछ
असाधारण नहीं
दिखाई पड़ता। न
तो इसके सिर
के आसपास
प्रकाश का गोल
घेरा है, जैसा
तीर्थंकरों,
अवतारों के
आसपास होता
है।
कभी
हुआ नहीं, लेकिन न हो
तो उनको हम
सोचेंगे कि
छोटा आदमी
होगा।
उसने
कहा, यह तो कोई
इसके आसपास
कोई प्रकाश का
वृत्त नहीं
दिखाई पड़ता, मंडल नहीं
दिखाई पड़ता।
सीधा-सादा सा
किसान दिखता
है। न इसकी
वेशभूषा में
कुछ विशेषता
है, न इसकी
देह में, शरीर
में कोई
विशेषता है।
यह बात क्या, तुम कहां ले
आए मुझे? यह
बातचीत भी बड़ी
साधारण करता
है। कह रहा है
कि अब मौसम
अच्छा आ गया, अब बीज बोने
का वक्त हो
गया। यह क्या
बातें कर रहा
है! कोई
अध्यात्म, कोई
आत्मा, कोई
ब्रह्म!
उसके
मित्रों ने
कहा, इस आदमी
की यही खूबी
है कि यह
बिलकुल
साधारण है। और
ऐसा आदमी होता
ही नहीं जमीन
पर--बिलकुल साधारण।
इसकी यही एक्सट्राआर्डिनरीनेस
है। इसकी यही
असाधारणता है
कि यह बिलकुल
साधारण आदमी
है। साधारण से
साधारण आदमी
भी साधारण नहीं
होता। यह
बिलकुल ही
साधारण है, इसमें कुछ
भी विशेषता
नहीं है।
उस
राजा ने लाओत्से
से पूछा कि
तुम साधारण
कैसे हुए?
उसने
कहा, साधारण
तो कोई हो
नहीं सकता, क्योंकि
होने की कोशिश
करेगा तो
असाधारण हो जाएगा।
यह तो बात ही
गलत पूछते हो।
अगर कोई साधारण
होना चाहेगा
तो असाधारण हो
जाएगा। अगर कोई
सिंपल
होना चाहेगा
तो कठिन हो
जाएगा। सरल
होना चाहेगा
तो कठिन हो
जाएगा, कठोर
हो जाएगा।
होने की
चेष्टा ही तो
गड़बड़ है। उसने
कहा, मैंने
तो सब होने की
चेष्टा छोड़
दी। मैं समझा कि
व्यर्थ है, जो हूं वही
ठीक है।
मिट्टी तो
मिट्टी, पत्थर
तो पत्थर, पत्ता
तो पत्ता, जो
हूं सो ठीक
है। मैंने तो
समझा कि दौड़
कर कोई कहीं
पहुंचा नहीं,
सो दौड़ छूट
गई। साधारण
मैं हुआ नहीं;
असाधारण
होने की
व्यर्थता
मुझे दिखाई
पड़ी। बस बात
खत्म हो गई।
कैसे
यह घटना घटी?
तो
उसने कहा, मैं एक जंगल
गया था, कुछ
मित्र भी मेरे
साथ थे। वहां
जाकर मैंने देखा
कि अनेक-अनेक दरख्तों
को बढ़ई काटते
हैं। मजदूर
लगे हैं, दरख्त
काटे जा
रहे हैं। बड़े
सीधे दरख्त थे
आकाश को छूने वाले,
बड़े मोटे
दरख्त थे
बिलकुल सीधे,
सुंदर, वे
सब काटे
जा रहे थे। एक
दरख्त बहुत
बड़ा था, इतना
बड़ा कि उसके
नीचे एक हजार बैलगाड़ियां
ठहर सकती थीं,
उसकी बड़ी घनी छाया
थी। तो मैंने
अपने मित्रों
से कहा कि इस दरख्त
को किसी ने
नहीं काटा, यह क्या बात
हो गई? सब
दरख्त टूटे
हैं, कटे
हैं, काटे जा रहे हैं, मजदूर लगे
हैं। इस दरख्त
को कोई क्यों
नहीं काटता?
तो
मैंने उन बढ़इयों
से जाकर पूछा
कि इस दरख्त
को क्यों नहीं
काटते हो?
उन्होंने
कहा, यह दरख्त
बिलकुल
साधारण है। यह
किसी मतलब का
ही नहीं, यह
बिलकुल यूजलेस,
वर्थलेस है। इसके पत्ते
तक जानवर नहीं
खाते, आदमी
की तो बात
दूर। इसकी
लकड़ियां सब
ऐसी टेढ़ी-मेढ़ी
हैं कि उनसे
कोई फर्नीचर
नहीं बनता, कोई
द्वार-दरवाजे
नहीं बनते। यह
ऐसा गड़बड़ दरख्त
है कि इसको
जलाओ तो इतना
धुआं फेंकता
है कि आग
निकलती नहीं,
धुआं ही
धुआं निकलता
है। यह बिलकुल
ही बेकार है, यह बिलकुल
ही साधारण है,
इसलिए इसको
कोई नहीं
काटता, सो
यह बड़ा से बड़ा
होता जा रहा
है। और ये
दरख्त जो सीधे
हैं और
जिन्होंने
आकाश छूने की
कोशिश की, इनको
काटते हैं।
इनसे खंभे
बनते हैं, इनसे
और फर्नीचर
बनता है।
तो लाओत्से
ने कहा, बस,
उसी दिन मैं
समझ गया कि
अगर बढ़ना है
तो साधारण हो
जाओ, नहीं
तो काटे
जाओगे। अगर
कुछ होना है
तो ना-कुछ हो
जाओ, वर्थलेस,
जिसका कोई
मूल्य नहीं, कोई अर्थ
नहीं, तुम्हें
लोग भूल
जाएंगे और तुम
बढ़ोगे और
तुम्हारे
भीतर कुछ होगा
विस्तार। और
तुम्हारे
नीचे हजारों बैलगाड़ियां
ठहर सकेंगी
और छाया ले सकेंगी।
उस
व्यर्थ झाड़ के
नीचे, जिसका
कोई उपयोग
नहीं, हजारों
को छाया मिलने
लगी। ये
महावीर और
बुद्ध व्यर्थ
झाड़ हैं, जिनके
नीचे हजारों
को छाया मिली
है। ये कोई एक्सट्राआर्डिनरी
लोग नहीं हैं।
ये कोई महान
लोग नहीं हैं।
अति साधारण जो
हो गए, जिन्होंने
सब महान होने
की...क्योंकि
महान होने की
कोशिश मूर्खतापूर्ण
है। बड़े होने
की चेष्टा में
छोटा आदमी
बैठा हुआ है
भीतर। जो छोटा
है वही बड़ा
होना चाहता है।
ये राजी हो गए
जो हैं उस बात
से, छोड़ दी
सारी फिक्र।
जो हैं, सहमत
हो गए। महावीर
नंगे हैं तो
नंगे से ही सहमत
हो गए। काहे को
कपड़ा ओढ़ें?
काहे को ढांकें?
सहमत हो गए
इससे कि ठीक
है, नंगा
हूं तो नंगा
ही सही। किससे
छिपाऊंगा?
अपने से तो
छिपा नहीं
सकता। कितने
ही कपड़े पहनूं,
मुझे तो पता
ही है कि नंगा
हूं। तो नंगे
होने से ही
राजी हो गए।
जो है भीतर
उससे राजी हो
गए, भीतर
के अभाव को
स्वीकार कर
लिया, तो एंबीशन
चली गई। एंबीशन
पैदा होती है,
महत्वाकांक्षा
पैदा होती है
अभाव को
स्वीकार न
करने से, अस्वीकार
करने से। फिर
हम कुछ होना
चाहते हैं, कुछ बनना
चाहते हैं। यह
जो कुछ बनने, होने की दौड़
है, वह इस
बात की सूचना
है कि भीतर हम
अभाव से राजी नहीं
होना चाहते जो
हम हैं
ना-कुछ।
तो लाओत्से
ने कहा कि उस
दिन तो मुझे
सब राज खुल
गया, तब से हम
उसी दरख्त
जैसे हो रहे।
फिर हमने सब दौड़
छोड़ दी। न
हमें मोक्ष
पाना है, न
हमको
परमात्मा
पाना है, न
हमको कुछ और
पाना है। हम
तो हो गए अति
साधारण। भूख
लगती है, खाना
खा लेते हैं; प्यास लगती
है, पानी
पी लेते हैं; नींद आ जाती
है, सो
जाते हैं; नींद
खुल जाती है, उठ जाते
हैं। यही
हमारी जिंदगी
है। अब हमें
कुछ और पाना
नहीं, कुछ
करना नहीं।
कोई हमारी
भीतर चाह नहीं
कि हम यह हो
जाएं और वह हो
जाएं, कोई बिकमिंग
नहीं। और लाओत्से
ने कहा, जिस
दिन से हमने
सब दौड़ छोड़ दी
उस दिन से हम
हैरान हो गए, जिसको पाने
के लिए दौड़ते
थे वह मिल गया
वहीं जहां हम
थे! दौड़ते थे
इसलिए खोते थे,
रुक गए
इसलिए पा लिया
है।
जो
दौड़ता है वह
खो देता है, जो रुक जाता
है वह पा लेता
है। तो अगर सच
में ही जीवन
में कुछ होना
है तो एक ही
द्वार है:
ना-कुछ हो
जाएं। यह कुछ
होने का खयाल
और पागलपन छोड़
दें, यह मैडनेस
है। अभी जमीन
पर पागलखानों
में आप
जाएं...और मुझे
याद आ गई पागलखानों
की, एक
मित्र ने मुझे
कल एक पत्र
लाकर दिया और
कहा कि
उन्होंने एक
सपना देखा कि
मैं एक
पागलखाने के
बाहर बैठा हुआ
कुछ मित्रों
को समझा रहा
हूं। मैं उनके
सपने में
मौजूद हुआ और
एक पागलखाने
के बाहर बैठा
हुआ हूं, कुछ
को समझा रहा
हूं। फिर वह
पागलखाने का
पहरेदार कुछ
प्रभावित हो
गया और उसने
कहा कि बेहतर
हो महाराज, भीतर ही आ
जाइए। तो मैं
उन सारे
मित्रों को जिनको
समझा रहा था लेकर
भीतर चला गया।
और वहां पागल
भी इकट्ठे हो गए
और उनको
समझाने लगा।
इसलिए मुझे
याद आ गया पागलखाना।
उनको सपना बड़ा
अच्छा आया। सच
तो यही है, पागलखाने
के बाहर ही
समझा रहे हैं,
बल्कि ठीक
ही समझिए
कि भीतर ही
समझा रहे हैं।
जहां
मन जो है बहुत
महत्वाकांक्षा
से भरा है
वहां आदमी
पागल है, अस्वस्थ
है। कुछ होने
चाहने की जो
दौड़ है वह अस्वस्थ
है, ज्वरग्रस्त है। वही
आदमी स्वस्थ
है जो कुछ
होना नहीं चाहता
और जिसने अपने
भीतर के
ना-कुछ होने
को स्वीकार कर
लिया। यही
ध्यान है, यही
समाधि है। इस
अभाव को, इस
नथिंगनेस
को भीतर राजी
हो जाना कि
ठीक है, मैं
नहीं कुछ हूं।
मैं कुछ भी
नहीं हूं, इस
बोध को सहजता
से उपलब्ध हो
जाना, सब
कुछ पा लेना
है।
लेकिन
इसे कैसे? क्या कोशिश करिएगा, प्रयास करिएगा,
एफर्ट करिएगा
कि मैं ना-कुछ
हो जाऊं? फिर
नहीं होगा
मामला, फिर
तो गड़बड़ हो
गया, फिर
तो आप कुछ
होने लगे।
नहीं, समझिए,
सोचिए,
देखिए कि दौड़ से
कहीं कोई
पहुंचता है? मैं कहीं
पहुंचा? इतने
दिन तो हम सब
दौड़ लिए हैं, कहीं पहुंचे?
इतना तो
हमने संग्रह
किया, कुछ
भरा? अगर
थोड़ा-बहुत भी
भर गया हो तो
विश्वास
बढ़ेगा कि और
ज्यादा
संग्रह
करेंगे तो और
भर जाएगा। अगर
बिलकुल भी न
भरा हो इतने
संग्रह से, तब तो समझ
जाइए कि जब
इतने संग्रह
से बिलकुल भी
नहीं भरा, रत्ती
भर भी, तो
फिर और कितने
ही संग्रह से
भी कैसे भरेगा?
आखिर वह तो
इसी की गणना
आगे होती चली
जाएगी।
अगर एक
तराजू पर हम
कोई वजन रखें
और तराजू जरा भी
हिल जाए, तो
भी यह विश्वास
पड़ता है कि और
वजन रखेंगे तो
एकदम तराजू
जमीन से लग
जाएगा। लेकिन
हम वजन कितना
ही रखें और तराजू
बिलकुल न हिले
और वैसा ही
बना रहे, तब
तो खयाल आना
चाहिए कि शायद
तराजू हिलने
वाला नहीं है।
तो हमने जब एक
सेर रखा और
नहीं हिला, तो दो सेर
रखा तो नहीं
हिला, तो
हजार मन
रखेंगे तो भी
कैसे हिलेगा।
क्योंकि हजार
मन दो सेर की
ही तो बढ़ी हुई
संख्या है।
एंड्रू
कारनेगी जब
मरा तो एक अरब
डालर छोड़ गया।
लेकिन वह भी
अतृप्त मरा, क्योंकि
उसकी योजना दस
की थी। वह भी
हो सकता है, वह दस भी छोड़
सकता है। उसके
बच्चों ने दस
कर ही लिए
होंगे। लेकिन
वे भी अतृप्त
मरेंगे, उनकी
योजना सौ की
हो गई होगी।
योजना
इसलिए आगे बढ़
जाती है कि
तराजू हिलता
नहीं, हम
जितना रख देते
हैं, व्यर्थ
हो जाता है।
हम सोचते हैं,
और ज्यादा
रखें। लेकिन
थोड़ी समझ हो
तो यह दिखाई
पड़ना
चाहिए--तराजू
जब इतना रखने
से हिला भी नहीं,
तो तराजू
कितना भी रखने
से हिलने वाला
नहीं है।
यह
बोध--भीतर के
अभाव का बोध
और बाहर के
भरने की कोशिश
की व्यर्थता
का बोध जिस
मनुष्य को
जितना स्पष्ट
होता चला जाता
है, उतना ही
उस मनुष्य के
जीवन में अपने
आप दौड़ क्षीण
होती चली जाती
है। तब वह
जीता है, दौड़ता
नहीं। तब वह
होता है, होने
की कोशिश नहीं
करता। तब वह न
धन चाहता है, न धर्म
चाहता है। न
वह संसार
जीतना चाहता
है, न
मोक्ष जीतना
चाहता है। वह
कुछ पाने की
उसकी इच्छा, धीरे-धीरे
जैसे-जैसे वह
समझता है कि
पाना और इच्छा
मूढ़तापूर्ण
है, अपने
आप यह अंडरस्टैंडिंग,
यह समझ, यह
अवेयरनेस, क्षीण
करती जाती है।
एक दिन वह
पाता है कि वह
खड़ा रह गया है
और वहां कोई
दौड़ नहीं, कोई
चाह नहीं, वहां
कोई होने की
इच्छा नहीं, वहां भीतर
के अभाव से वह
सहमत हो गया।
एक बार
ऐसा हुआ, एक
आदमी रात
अंधेरे में
पहाड़ से
निकलता था, पैर फिसल
गया और गिर
पड़ा। अंधेरी रात
थी, तो
उसने एक झाड़ी
को जोर से पकड़
लिया। नीचे
अंधेरा था, खड्ड था बड़ा,
डर था कि
हाथ छूटे कि
मरा! तो पकड़े
रहा, पकड़े
रहा...लेकिन
सर्द रात, अंधेरी
रात, नीचे
भयंकर खड्ड, अतल, कहां
गिरेगा, हड्डी-पसली
सब टूट जाएंगी,
सब समाप्त
हो जाएगा, मिट
जाएगा...तो
पकड़े है। लेकिन
कितनी देर पकड़ेगा!
हाथ जकड़ने
लगे सर्दी के
कारण, जड़
होने लगे। तब
उसे लगने लगा
कि आज तो सुबह
होनी कठिन है,
आज तो मरना
ही पड़ेगा!
लेकिन फिर भी
कोशिश तो करूं,
सुबह तो हो
जाए किसी तरह।
तो शायद कोई
निकले, शायद
कोई आ जाए, और
कोई बचने का
उपाय हो जाए।
सुबह हो जाए
तो कम से कम
मैं भी देख
सकूं कि मामला
क्या है? कहां
हूं? कैसे
उलझा हूं? इस
अंधकार में न
कोई दिखाई
पड़ता है।
चिल्लाया बहुत,
लेकिन वहां
कौन सुनता था!
खुद की ही
आवाजें पहाड़ी
से गूंजती थीं
और लौट आती
थीं। वहां कोई
था ही नहीं जो
सुनता।
और
करीब-करीब हम
सबकी आवाजें
पहाड़ी से
गूंजती हैं और
लौट आती हैं।
कोई सुनने
वाला नहीं
किसी की। कोई
है ही नहीं।
अंधेरा है
चारों तरफ, अटके हैं, पकड़े हैं, कहीं मर न
जाएं।
लेकिन
आधी रात
होते-होते
असंभव हो गया, हाथ जड़ हो गए,
सरकने लगे,
डाल छूटने
लगी। ताकत
इतनी देर
जितने जोर से
लगाई थी उतनी
जल्दी खत्म हो
गई। अब वह
घबड़ाया कि
मरने के सिवाय
कोई उपाय न
रहा। अब राम, कृष्ण, बुद्ध,
जिसको
मानता होगा
उसका जप करने
लगा। मुझे पता
नहीं किसको
मानता था।
जरूर किसी को
मानता ही रहा
होगा।
क्योंकि ऐसे
आदमी कहां हैं
जो किसी को न
मानते हों! जो
किसी को नहीं
मानता वही
स्वयं को जान
पाता है। तो
किसी न किसी
को मानता
होगा। तो जपने
लगा होगा मंत्रत्तंत्र,
क्योंकि
दुख में ये सब
याद आते हैं।
अब मौत करीब
थी तो वह सब
याद करने लगा
कि हे बचाओ! हे
चतुर्भुज
भगवान! या कुछ
और--कितने
मुंह वाले, हाथ वाले--अब
मुझे बचाओ! अब
मुझे सहारा
दो! चिल्लाने
लगा होगा।
लेकिन
अंधकार घुप्प, वहां कौन
सुनने को है।
आखिर हाथ उसके
छूट गए! छूटते
से समझा कि
गया! लेकिन
हैरान हो गया,
हाथ छूटते
से पाया कि वह
जमीन पर खड़ा
है! वहां कोई
गङ्ढा था ही
नहीं, वह
अंधेरे की वजह
से गङ्ढा
मालूम हो रहा
था। अंधेरे की
वजह से! वहां
कोई गङ्ढा ही
न था, वहां
तो समतल जमीन
थी। वह व्यर्थ
ही इतना कष्ट
उठाया। वह
किसी भी क्षण
छोड़ देता तो
जमीन पर खड़ा
हो जाता। और
व्यर्थ उसने
चतुर्भुज
भगवान को भी
कष्ट दिया।
कहीं सो रहे
होंगे, उनको
भी दिक्कत हुई
होगी, उनको
भी चिल्लाया,
उनको भी
परेशान किया।
नीचे जमीन थी,
वहां कोई गङ्ढ था ही
नहीं। अंधकार
के कारण गङ्ढ
दिखाई पड़ता
था। अंधेरे के
कारण भय था, भय के कारण
गङ्ढा था।
गङ्ढे में
मरने का डर था इसलिए
अटका था, जो
भी हाथ में था
उसी से अटका
था। लेकिन
ताकत क्षीण
होगी एक क्षण
और गिरना
पड़ेगा। मौत तो
हरेक को गङ्ढे
में गिरा
देगी। कितना
ही पकड़े रहें!
और जो पकड़े
रहेगा वह
व्यर्थ दुख
उठाता रहेगा।
लेकिन जब मौत
गङ्ढे में
गिरा ही देगी,
तो जो जानते
हैं वे खुद
छोड़ देते हैं
और गिर लेते
हैं। और गिरते
से ही पाते
हैं कि वहां
भूमि है।
जो
मनुष्य अपने
भीतर के अभाव
में छलांग लेने
का साहस करता
है, सोच लेता
है कि अगर
मिटना ही है
तो मृत्यु तो
मिटा ही देगी,
तो ठीक है
अपने भीतर ही
मिट जाएं, यह
भी एक सौभाग्य
होगा अपने हाथ
से मिट जाना। मौत
तो आती ही है, लेकिन वह
हमारे ऊपर आती
है, हमारा
संकल्प नहीं
होता वह, वह
हमारा कृत्य
नहीं होता। वह
हमारी इच्छा
नहीं होती, उसमें हम
नहीं होते, वह हम पर आती
है बाढ़ की तरह
और हमको
डुबाती और बहा
ले जाती है।
तो जब मौत ले
ही जाने वाली
है, तो जो
जानते हैं वे
इसके पहले कि
मौत ले जाए, खुद अपने
भीतर मौत को
वरण करने को
तैयार हो जाते
हैं। छलांग
लेते हैं भीतर
के गङ्ढ
में। और
जिन्होंने
छलांग ली वे
हैरान हो गए--वहां
अभाव नहीं है,
वहां आत्मा
है। वह अज्ञान
की वजह से, भय
की वजह से
अभाव मालूम
होता है, खड्ड
मालूम होता
है। जिस भगवान
को चिल्ला रहे
थे बचाने के
लिए, वहीं
नीचे मौजूद
था। अगर छोड़
दें तो वह
भूमि है।
परमात्मा तो
भूमि है। जब
हम सब छोड़
देते हैं तो
वही शेष रह
जाता है। जो
सब छोड़ देने
पर शेष रह
जाता है वही
आत्मा है, वही
परमात्मा है।
उसे चिल्लाने
और पुकारने की
जरूरत नहीं
है। ये बचकानी
बातों की कोई
जरूरत नहीं
है। और ऐसा
कोई सुनने
वाला कहीं
बैठा हुआ नहीं
है। अभाव में
जीने को जो
राजी हो जाता
है वह आत्मा
को उपलब्ध
होता है, वह
परमात्मा को
उपलब्ध होता
है। दो ही
दिशाएं हैं--बाहर
भरो या भीतर
खाली हो जाओ।
तो आज
सुबह की चर्चा
में मैं यह
कहना चाहता हूं:
इस शून्य को, इस अभाव के
बोध को उपलब्ध
हों। समझें, देखें, पहचानें, सोचें, विवेक का
उपयोग करें।
तो दिखाई
पड़ेगा: अभाव
से भागा नहीं
जा सकता। तो
फिर क्या
विकल्प है? विकल्प है
कि अभाव से
सहमत हो जाऊं,
ना-कुछ होने
को राजी हो
जाऊं। फिर, जो ना-कुछ
होने को कभी
भी राजी हुआ
है, वह सब
कुछ को पा
लेता है। यह
शून्यता है, यह सरलता है,
यह संन्यास
है, यह है
त्याग। भरने
की कोशिश छोड़
देना त्याग
है। यह है
संन्यास, दौड़ने
से रुक जाना
संन्यास है।
यह है धर्म, मंदिर में
जाना नहीं है,
अभाव में
जाना।
और ये
तीन सूत्र
मैंने तीन दिन
में आपसे
कहे--अज्ञान
का बोध, रहस्य
का बोध, अभाव
का बोध। अगर
इन तीन
सूत्रों पर
किसी भी जीवन
में कोई भी
दृष्टि आ जाए
तो क्रांति
सुनिश्चित
है। और उस
क्रांति के
बाद बिलकुल एक
नया मनुष्य
उसके भीतर से
जन्म ले लेगा,
एक बिलकुल
दूसरा मनुष्य,
एक बिलकुल
ही दूसरा
मनुष्य--अति
साधारण, अति
सरल। लेकिन
अति साधारण और
अति सरल से
असाधारण और न
कोई है और न हो
सकता है। और
वैसे
व्यक्तित्व
के विरोध में
कोई नहीं रह
जाएगा। उसे
काटने की, तोड़ने
की कोई जरूरत
और कारण नहीं
रह जाता। वैसे
व्यक्ति की
छाया में
अनेकों को
छाया मिलेगी और
आश्रय मिल
सकता है।
प्रत्येक
व्यक्ति अपने
भीतर बहुत बड़ी
संभावना लिए
है--बहुत बड़ी
संभावना, बहुत
बड़ा वृक्ष जो
विकसित हो
सकता है।
लेकिन महत्वाकांक्षा
उसे विकसित
नहीं होने
देती, दौड़
उसे विकसित
नहीं होने
देती। जो सब
भांति रुकता
है, उस
विकास को
उपलब्ध होता
है।
अंतिम
रूप से यह
कहता हूं: अगर
जीवन में कुछ
पाना है तो
रुक जाएं, अगर कहीं
पहुंचना है तो
ठहर जाएं। ठहर
जाना, रुक
जाना, थिर
हो जाना, भीतर
सारी चीजों का
नया उदघाटन,
नया
आविर्भाव
शुरू हो जाता
है। धार्मिक
चेतना ऐसे ही
पैदा होती है।
धार्मिक
चेतना का ऐसे ही
जन्म होता है।
हमारे
टीका लगाने
वाले और जनेऊ
पहनने वाले धार्मिक
से मेरा मतलब
नहीं है--कि एक
आदमी जनेऊ
पहने हुए है
तो धार्मिक है, एक आदमी
टीका लगाए हुए
है तो धार्मिक
है, एक
आदमी चोटी रखे
हुए है तो
धार्मिक है।
कैसी चाइल्डिश,
बचकानी
बातें हैं!
इनसे कहीं कोई
धार्मिक होता
है? नहीं, धार्मिक
होना बड़ी
क्रांति है, बहुत बड़ी रेवोल्यूशन
है, बहुत
बड़ा आमूल
परिवर्तन है व्यक्तित्व
का। वह तो सब
भांति बाहर से
मुक्त होकर
भीतर प्रवेश
है।
अगर यह
हो सके...यह हो
सकता है। अगर
यह एक व्यक्ति
के जीवन में
भी कभी हुआ है
तो हरेक के
जीवन में हो
सकता है। तो
मैं यह आशा
करता हूं कि
यह हो सकता है, यह होगा। उस
दिशा में थोड़ी
आंखें खोलनी
जरूरी हैं।
अब हम
सुबह के ध्यान
के लिए
बैठेंगे।
आज
का ध्यान कल
से और भी सरल
हो जाना
चाहिए।
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