सुभानुपस्सिं विहरन्तं इन्द्रियेसु
असंवुतं।
भोजनम्हि अमत्तग्भु
कुसीतं हीनवीरियं।
तं
वे पसहति
मारो वातो
रुक्खं' व दुब्बलं।।7।।
असुभानुपस्सिं विहरन्तं इन्द्रियेसु
सुसंवुतं।
भोजनम्हि
च मत्तग्भु
सद्धं आरद्धवीरियं।
तं
वे नप्पसहति
मारो वातो
सेलं' व पब्बतं।।8।।
असारे सारमतिनो
सारे चासारदस्सिनो।
ते सारं नाधिगच्छन्ति
मिच्छासङ्कप्पगोचरा।।9।।
सारंग्च सारतो भ्त्वा
असारग्च असारतो।
यथागारं दुच्छन्नं
वुट्टी समतिविज्झति।
एवं
अभावितं चित्तं रागो समतिविज्झति।।11।।
यथागारं सुच्छन्नं
वुट्टी न समतिविज्झति।
एवं
सुभावितं
चित्तं रागो न समतिविज्झति।।12।।
गौतम
बुद्ध
दार्शनिक
नहीं हैं। मेटाफिजिक्स
और परलोक के
प्रश्नों में
उनकी जरा भी--जरा
भी--रुचि नहीं
है। उनकी रुचि
है मनुष्य के
मनोविज्ञान
में। उनकी
रुचि है
मनुष्य के रोग
में और मनुष्य
के उपचार में।
बुद्ध ने जगत
को एक उपचार
का शास्त्र
दिया है। वे
मनुष्य जाति के
पहले
मनोवैज्ञानिक
हैं।
इसलिए
बुद्ध को
समझने में
ध्यान रखना, सिद्धांत या
सिद्धांतों
के आसपास
तर्कों का जाल
उन्होंने जरा
भी खड़ा नहीं
किया है।
उन्हें कुछ
सिद्ध नहीं
करना है। न तो
परमात्मा को
सिद्ध करना है,
न परलोक को
सिद्ध करना
है। उन्हें तो
आविष्कृत
करना है, निदान
करना है।
मनुष्य का रोग
कहां है? मनुष्य
का रोग क्या
है? मनुष्य
दुखी क्यों है?
यही बुद्ध
का मौलिक
प्रश्न है।
परमात्मा
है या नहीं; संसार किसने
बनाया, नहीं
बनाया; आत्मा
मरने के बाद
बचती है या
नहीं; निर्गुण
है परमात्मा
या सगुण--इस
तरह की बातों
को उन्होंने
व्यर्थ कहा
है। और इस तरह
की बातों को
उन्होंने
आदमी की
चालाकी कहा
है। ये जीवन
के असली सवाल
से बचने के
उपाय हैं। ये
कोई सवाल नहीं
हैं। इनके हल
होने से कुछ
हल नहीं होता।
नास्तिक
मानता है
ईश्वर नहीं है, तो भी वैसे
ही जीता है।
आस्तिक मानता
है ईश्वर है, तो भी उसके
जीवन में कोई
भेद नहीं। अगर
नास्तिक और
आस्तिक के
जीवन को देखो
तो तुम एक सा पाओगे। तो
फिर उनके
विचारों का
क्या परिणाम
है?
परलोक
है या नहीं, इससे तुम
नहीं बदलते।
और बुद्ध कहते
हैं, जब तक
तुम न बदल जाओ,
तब तक समय
व्यर्थ ही
गंवाया।
बुद्ध की
उत्सुकता
तुम्हारी
आंतरिक
क्रांति में
है। बुद्ध बार-बार
कहते थे, कि
मनुष्य की दशा
उस आदमी जैसी
है जो एक
अनजानी राह से
गुजरता था और
एक तीर आकर
उसकी छाती में
लग गया। वह
गिर पड़ा है।
लोग आ गए हैं।
लोग उसका तीर
निकालना
चाहते हैं।
लेकिन वह कहता
है, ठहरो! पहले मुझे
यह पता चल जाए
कि तीर किसने
मारा। ठहरो,
पहले मुझे
यह पता चल जाए
कि तीर उसने
क्यों मारा। ठहरो, मुझे
यह पता चल जाए
कि तीर
आकस्मिक रूप
से लगा है या
सकारण। ठहरो,
मुझे यह पता
चल जाए कि तीर विषबुझा
है, या बिन-विषबुझा।
बुद्ध
ने कहा, वह
आदमी
दार्शनिक रहा
होगा। वह बड़े
ऊंचे सवाल उठा
रहा है। लेकिन
जो लोग इकट्ठे
थे उन्होंने कहा,
यह सवाल तुम
पीछे पूछ
लेना। पहले
तीर निकाल
लेने दो, अन्यथा
पूछने वाला
मरने के करीब
है। उत्तर भी मिल
जाएंगे तो हम किसे
देंगे? और
अभी इन
प्रश्नों की
कोई आत्यंतिकता
नहीं है। अभी
तीर खींच लेने
दो। तीर छाती
में लगा है, खतरा है।
तुम ज्यादा
देर न बच सकोगे।
बुद्ध
कहते, ऐसी
ही दशा में
मैं तुम्हें
पाता हूं। और
तुम पूछते हो
कि संसार
किसने बनाया?
पहले इसका
पता चल जाए, तब करेंगे
ध्यान। क्यों
बनाया? पहले
इसका पता चल
जाए, तब बदलेंगे
जीवन को। क्या
कारण है
परमात्मा का
संसार बनाने
में? क्यों
यह लीला उसने रची? जब
तक इसका पता न
चल जाए, तब
तक हम मंदिर
में प्रवेश न
करेंगे।
बुद्ध
कहते हैं, जीवन का तीर
छाती में चुभा
है। पल-पल मर
रहे हो। किसी
भी क्षण डूब जाओगे। ये
उत्तर, ये
प्रश्न, सब
व्यर्थ हैं।
अभी तो एक ही
बात पूछो
कि कैसे यह
तीर निकल आए।
इसलिए
बुद्ध की
बातें शायद
उतनी गहरी न
मालूम पड़ें
जितनी कपिल और
कणाद की; कांट और हीगल
की; प्लेटो और अरस्तू
की। लेकिन
ज्यादा
यथार्थ हैं।
ज्यादा
वास्तविक
हैं। और गहराई
का करोगे
क्या, अगर
गहराई झूठी हो
और शब्दों की
हो? असली
सवाल यथार्थ
को समझना है।
बुद्ध
पहले मनुष्य
हैं जिन्होंने
परमात्मा के
बिना ध्यान
करने की विधि
दी। जिन्होंने
परमात्मा की
मान्यता को
ध्यान के लिए
आवश्यक न
माना। और न
केवल
परमात्मा की
बल्कि आत्मा
की धारणा को
भी ध्यान के
लिए आवश्यक न
माना। उन्होंने
कहा, ध्यान तो
स्वास्थ्य
है। तुम
स्वस्थ हो
सकते हो। फिर
शेष तुम खोज
लेना। मैं
तुम्हें रोग
से मुक्त करने
आया हूं।
इसलिए
बुद्ध को तुम
एक
मनस-चिकित्सक
की भांति
देखना। वे
धर्मगुरु
नहीं हैं।
धर्मगुरु मान
लेने से बड़ी
भ्रांति हो
गयी। तो लोग
उन्हें दूसरे धर्मगुरुओं
के साथ गिन
देते हैं। वे
धर्मगुरु जरा
भी नहीं हैं।
कहीं
परमात्मा की
धारणा के बिना
कोई धर्म हो
सकता है? कहीं
आत्मा की धारणा
के बिना कोई
धर्म हो सकता
है? तत्व
की तो कोई
बुद्ध ने बात
ही नहीं की।
तथ्य की बात
की। उन जैसा यथार्थवादी
खोजना
मुश्किल है।
और उन्होंने
मनुष्य की असली
तकलीफ को पकड़ा
और कहा यह
तकलीफ सुलझ
सकती है।
उन्होंने
चार
आर्य-सत्यों
की घोषणा की:
कि मनुष्य
दुखी है। इसमें
किसको
संदेह होगा? इसका कौन
विरोध करेगा?
मनुष्य
दुखी है।
मनुष्य के दुख
का कारण है।
ठीक बुद्ध
वैसा ही बोलते
हैं जैसे
वैज्ञानिक बोलता
है। दुख का
कारण है।
क्योंकि
अकारण कैसे दुख
होगा? पैर
में पीड़ा हो, तो कांटा
लगा होगा। सिर
दुखता हो, तो
कारण होगा।
पीड़ा है तो
अकारण कैसे
होगी? पीड़ा
का कारण है।
तो
बुद्ध ने कहा
है पहला
आर्य-सत्य कि
मनुष्य दुख
में है। दूसरा
आर्य-सत्य कि
दुख का कारण है।
और तीसरा
आर्य-सत्य कि
दुख के कारण
को मिटाया जा
सकता है। और
चौथा
आर्य-सत्य कि
एक ऐसी भी दशा
है जब दुख
नहीं रह जाता।
बुद्ध
ने यह भी नहीं
कहा कि वहां
आनंद होगा।
क्योंकि वह
कहते हैं, व्यर्थ की
बातों को
क्यों करना? इतना ही कहा,
वहां दुख
नहीं होगा।
आनंद को तुम समझोगे
कैसे? आनंद
तुमने जाना
नहीं। वह शब्द
थोथा है, अर्थहीन
है। तुम उसमें
जो अर्थ भी डालोगे,
वह वही होगा
जो तुमने जाना
है। तुम अपने
सुख को ही
आनंद समझोगे।
उसको थोड़ा बड़ा
कर लोगे--करोड़
गुना कर लोगे--लेकिन
वह मात्रा का
भेद होगा, गुण
का न होगा। और
आनंद
गुणात्मक रूप
से भिन्न है।
वह तुम्हारा
सुख बिलकुल
नहीं है। वह
तुम्हारा दुख
भी नहीं है, सुख भी नहीं
है।
तो
बुद्ध ने कहा, उसकी बात
कैसे करें? उसकी बात ही
करनी उचित
नहीं। इतना ही
कहा कि दुख-निरोध
हो जाएगा।
तुमने जिसे
दुख की तरह
जाना है, वह
वहां नहीं
होगा। बीमारी
नहीं होगी।
स्वास्थ्य
क्या होगा, वह तुम
स्वयं स्वाद
ले लेना और
जान लेना। और जिन्होंने
भी स्वाद लिया,
उन्होंने
कहा नहीं। गूंगे
का गुड़ है।
ये जो
बुद्ध के वचन
हैं, उनके
मनोविज्ञान
की आधारशिलाएं
हैं--
'विषय-रस
में शुभ देखते
हुए विहार
करने वाले, इंद्रियों
में असंयत, भोजन में
मात्रा न
जानने वाले, आलसी और
अनुद्यमी
पुरुष को मार
वैसे ही गिरा
देता है जैसे
आंधी दुर्बल
वृक्ष को।'
विषय-रस
में शुभ देखते
हुए जो जीता
है, वह
निरंतर दुख
में गिरता है।
इस बात को
विस्तार से
समझ लेना
जरूरी है।
क्योंकि
समस्त योग और
समस्त
अध्यात्म इसी
बात की समझ पर
खड़ा होता है।
विषय में रस
मालूम होता
है। रस विषय
में है या
मनुष्य की
अपनी धारणा
में?
कभी
कुत्ते को
देखा, सूखी हड्डी को
चूसता है और
रस पाता है।
सोचता है, सूखी
हड्डी से लहू
निकल रहा है।
लहू निकलता
नहीं। सूखी
हड्डी में
कहां लहू? लेकिन
सूखी
हड्डी मुंह
में चबाता है
तो उसके मुंह
से ही लहू
बहने लगता है।
सूखी
हड्डी गड़ती
है, चोट
करती है मुंह
में, लहू
निकल आता है।
उस लहू को वह पीता
है, और
सोचता है, हड्डी
से रस मिल रहा
है।
लेकिन
कुत्ते को समझाओ, समझेगा न। उसने कभी
भीतर प्रवेश
करके देखा
नहीं कि सूखी
हड्डी से कैसा
रस निकलेगा!
सूखी
हड्डी रसहीन
है। और अगर रस
निकल रहा है
तो कहीं मुझसे
ही निकलता
होगा।
मैंने
सुना है कि एक
सर्दी की सुबह
एक कुत्ता एक
वृक्ष के नीचे
धूप ले रहा है
और विश्राम कर
रहा है। उसी
वृक्ष के ऊपर
जगह बनाए बैठी
है एक बिल्ली, वह भी सुबह
की झपकी ले
रही है। उसको
नींद में बड़े
प्रसन्न होते
देखकर कुत्ते
ने पूछा कि
मामला क्या है?
तू बड़ी
आनंदित मालूम
होती है। उस
बिल्ली ने कहा
कि मैंने एक
सपना देखा, बड़ा अनूठा
सपना, कि
वर्षा हो रही
है, पानी
नहीं गिर रहा,
चूहे गिर
रहे हैं।
कुत्ते ने कहा,
नासमझ
बिल्ली! नासमझ
कहीं की, मूढ़! न
शास्त्र का
ज्ञान, न
पुराण पढ़े,
न इतिहास का
पता!
शास्त्रों
में कभी भी
ऐसा उल्लेख
नहीं है। हां,
कई दफा
वर्षा हुई है,
सूखी हड्डियां
जरूर बरसी हैं,
चूहे कभी
नहीं।
लेकिन
वह कुत्तों का
शास्त्र है।
बिल्ली के शास्त्रों
में चूहों के बरसने का
ही उल्लेख है।
कुत्ते को सूखी
हड्डी में रस
है। इसलिए
उसके पुराण सूखी
हड्डियों के
पास निर्मित
होंगे।
बिल्ली को चूहे
में रस है। तो
निश्चित ही
चूहे में कुछ
ऐसा नहीं है
जिसके कारण
बिल्ली को रस
है। बिल्ली
में ही कुछ
ऐसा है, जो
चूहे में रस
है। कुत्ते
में ही कुछ
ऐसा है, जो
हड्डी में रस
है।
हमारी
वृत्ति में
कहीं रस का
कारण है, विषय-वस्तु
में नहीं। यह
पहला
विश्लेषण है।
मैं पढ़ रहा था, दूसरे
महायुद्ध में
एक घटना घटी।
बर्मा के
जंगलों में
सिपाहियों का
एक जत्था, सैनिकों
का एक जत्था
जूझ रहा है
युद्ध में। महीनों
हो गए। उन
युवकों ने
स्त्री की शकल
नहीं देखी। और
एक दिन दोपहर
को एक तोता उड़ा
जोर से कहता
हुआ कि बड़ी
सुंदर युवती
है, अत्यंत
सुंदर युवती
है। सैनिकों ने
अपनी बंदूकें
रख दीं।
बहुत दिन हुए
स्त्री नहीं
देखी। और तोता
कह रहा है तो
वे सब तोते का
पीछा करते हुए
भागे कि
कहां जा रहा
है। और वे जब
पहुंचे, परेशान,
झाड़ियों को पार करके,
तो वहां कोई
स्त्री न थी।
एक मादा तोता,
जिसकी वह
तोता खबर कर
रहा था।
उन्होंने
अपना सिर पीट
लिया कि कहां
इस नासमझ की
बातों में पड़े!
लेकिन
तोते का रस
मादा तोते में
है। तुम्हें कोई
रस नहीं मालूम
होता मादा
तोते में।
मादा तोते में
कोई रस है भी
नहीं। वह तो
नर तोते की
धारणा में है।
पुरुष को
स्त्री में रस
मालूम होता
है। स्त्री को
पुरुष में रस
मालूम होता
है। वह रस
बाहर नहीं है, वह तुम्हारी
भावदशा
में है। वह तुममें
है। बुखार के
बाद
स्वादिष्ट से
स्वादिष्ट भोजन
में स्वाद
नहीं मालूम
होता।
तुम्हारी जीभ ही
बदल गयी है।
तुम्हारी जीभ
में स्वाद
लेने की जो
क्षमता है, वही नहीं
रही है। भोजन
में थोड़े ही
स्वाद होता
है। स्वाद
तुम्हारी जीभ
की क्षमता है।
जब तुम स्वस्थ
होते हो, स्वाद
होता है। जब
अस्वस्थ होते
हो, स्वाद
खो जाता है।
जीवन
का जो रस है, वह वस्तु
में और विषय
में नहीं है, वह स्वयं तुममें
है। और जब तक
तुम उसे विषय
में देखोगे,
तब तक तुम
गलत मार्ग पर
भटकते रहोगे,
क्योंकि
तुम विषय का
पीछा करोगे।
जब तुम देखोगे
कि वह रस मुझमें
ही है, वह
मैंने ही डाला
है वस्तु में,
वह मैंने ही
प्रक्षेपित
किया है, वह
रस मैंने ही
आरोपित किया
है, उसी
दिन तुम्हारे
जीवन में
क्रांति शुरू
हो जाएगी। तब
रस को खोजना
हो तो अपने
भीतर गहरे जाओ।
अब बाहर जाने
की कोई जरूरत
न रही।
दुनिया
में दो ही तरह
की यात्राएं
हैं। एक बाहर
की यात्रा है।
अधिक लोग उसी
यात्रा पर
जाते हैं, क्योंकि
उनको दिखता है
कि रस बाहर
है। हड्डियों
में रस मालूम
होता है। फिर
कुछ लोग जाग
जाते हैं। और
उन्हें दिखायी
पड़ता है, बाहर
तो रस नहीं है,
रस मैं ही
डालता हूं।
मैं ही डालता
हूं और मैं ही
अपने को भरमा
लेता हूं। रस मुझमें
है। तो फिर वे अंतर्यात्रा
पर जाते हैं।
उस अंतर्यात्रा
को ही बुद्ध
ने योग कहा
है।
'विषय-रस
में शुभ देखते
हुए विहार
करने वाले, इंद्रियों
में असंयत...।'
और जब
तुम विषय-रस
में देखोगे
रस, विषय में देखोगे रस,
तब
तुम्हारी इंद्रियां
अपने आप असंयत
हो जाएंगी।
क्योंकि मन
चाहता है, भोग
लो जितना
ज्यादा भोग सको। कुछ
चूक न जाए।
समय भागा जाता
है। जीवन चुका
जाता है। मौत
करीब आती चली
जाती है। कुछ
छूट न जाए।
कुछ ऐसा न रह
जाए कि मन में
पछतावा रहे कि
भोग न पाए। तो
भोग लो, ज्यादा
से ज्यादा भोग
लो। उस ज्यादा
की दौड़ से
असंयम पैदा
होता है।
आंख थक
जाती है, तो
भी तुम रूप को
देखे चले जाते
हो। जीभ थक
जाती है, तो
भी तुम भोजन
किए चले जाते
हो। पेट और
लेने को तैयार
नहीं है, फिर
भी तुम भरे
चले जाते हो।
तब रस तो दूर
रहा, विरस
पैदा होता है।
ज्यादा खाने
से कोई आनंदित
नहीं होता, पीड़ित होता
है। ज्यादा
देखने से
आंखें सौंदर्य
से नहीं भरतीं,
सिर्फ थक
जाती हैं, धूमिल
हो जाती हैं।
ज्यादा दौड़ने
से, धन-वस्तुएं
इकट्ठी करने
से भीतर एक
तरह की
रिक्तता बढ़ती जाती
है, कुछ
भराव नहीं
आता। लेकिन
मरते दम तक, आखिरी क्षण
तक आदमी भोग
लेना चाहता
है। मैंने सुना
है--
गो
हाथ को जुंबिश
नहीं आंखों
में तो दम है
रहने
दे अभी
सागर-ओ-मीना
मेरे आगे
मर
रहे हो, हाथ
नहीं हिल
सकता--
गो
हाथ को जुंबिश
नहीं आंखों
में तो दम है
अभी
देख तो सकता
हूं। इसलिए
शराब की
प्याली तुम
मेरे सामने से
मत हटाओ।
हाथ बढ़ाकर
पी भी नहीं
सकता।
रहने
दे अभी
सागर-ओ-मीना
मेरे आगे
पर
देख तो सकता
हूं।
मरते
दम तक, जब तक
आखिरी श्वास
चलती है, तब
तक भोग का रस
बना रहता है।
वह छूटता ही
नहीं। जवानी
चली जाती है, बुढ़ापा घेर लेता है,
लेकिन मन
जवान ही बना
रहता है। मन
उन्हीं तरंगों
से भरा रहता
है, जो
जवानी में तो
संगत भी हो
सकती
थीं--तूफान था।
अब तो तूफान
भी जा चुका, तूफान के
चिह्न रह गए
हैं रेत के तट
पर बने, याददाश्त
रह गयी है।
लेकिन
याददाश्त भी
भरमाती है, सपने बनाती
है। मन में तो
व्यक्ति जवान
ही बना रहता
है। मौत आ
जाती है, लेकिन
भीतर आदमी
जीवन के रस
में ही डूबा
रहता है। तब
दुख न हो तो
क्या हो?
दुख का
अर्थ है, जहां
नहीं था वहां
खोजा। दुख का
और क्या अर्थ है?
रेत से तेल
निकालने की
चेष्टा की।
आकाश-कुसुम तोड़ने
चाहे, जो
थे ही नहीं।
खरगोश के सींग
खोजे, जो
थे ही नहीं।
दुख का इतना
ही अर्थ है, जो नहीं हो
सकता था उसकी
कामना की। फिर
हाथ खाली रह
जाते हैं, मन
बुझा-बुझा। सब
तरफ विफलता का
ढेर लग जाता है।
और वही ढेर
तुम्हारी
कब्र बन जाता
है।
जब तक
विषय में रस
है और ऐसा दिखायी
पड़ता है कि
वहां सुख है; जब तक आंख
भीतर नहीं मुड़ी
और यह नहीं दिखायी
पड़ा कि सुख
मैंने डाला है,
वह मेरी
दृष्टि है, मैं जहां डालूं
वहां सुख होगा;
और जब मुझे
यह समझ में आ
जाए कि सुख मुझमें
ही है--तो फिर
डालने का सवाल
क्या--मैं
अपने में डूब
जाऊं तो महासुख
होगा, आनंद
होगा। जब तक
वैसी घड़ी
नहीं घटती, तब तक इंद्रियां
असंयत होंगी।
जब दृष्टि ही
भ्रांत है तो
संयम नहीं हो
सकता।
संयम
तो संतुलित
दृष्टि का
परिणाम है।
संयम तो सम्यक
दृष्टि का
परिणाम है।
सम्यक का अर्थ
है, जहां है
वहां दिखायी
पड़े, जहां
नहीं है वहां दिखायी न
पड़े। तो फिर
खोज सार्थक हो
जाती है। तो
उपलब्धि होती
है, तो
सिद्धि होती
है, तो
जीवन में सुख
के फूल लगते
हैं, तो
आनंद का अहोभाव
पैदा होता है।
'विषय-रस
में सुख देखते
हुए विहार
करने वाले, इंद्रियों
में असंयत, भोजन में
मात्रा न
जानने वाले, आलसी और
अनुद्यमी
पुरुष को मार
वैसे ही गिरा
देता है जैसे
आंधी दुर्बल
वृक्ष को।'
मार
बुद्ध का शब्द
है, कामवासना के देवता के
लिए। यह शब्द
बड़ा अच्छा है।
यह राम का
बिलकुल उलटा
है। अगर राम
को उलटा करके
लिखें तो म, फिर बड़े अ की
मात्रा, और
फिर र। ठीक
उलटा हो जाए
तो मार हो
जाता है। मार
बुद्ध का शब्द
है, कामवासना के देवता के
लिए। और दो ही चित्तदशाएं
हैं। या तो
मार से
प्रभावित, या
राम से
आंदोलित। या
तो तुम भीतर
की तरफ चलो,
तब तुम राम
की तरफ चले; या तुम बाहर
की तरफ चलो,
तब तुम मार
की तरफ चले।
'मार
उस व्यक्ति को
वैसे ही गिरा
देता है जैसे आंधी
दुर्बल वृक्ष
को।'
कामवासना
का देवता
शक्तिशाली
नहीं है, तुम
दुर्बल हो। इस
बात को ठीक से
स्मरण रखो।
कामवासना
का देवता
शक्तिशाली
नहीं है। और
अगर तुम गिर गए
हो, तो
उसकी शक्ति के
कारण नहीं
गिरे हो। तुम
गिरे हो अपनी
दुर्बलता के
कारण। जैसे कि
कोई सूखा जड़
से टूटा वृक्ष,
दुर्बल हुआ,
दीन-जर्जर हुआ,
वृद्ध हुआ,
आंधी में
गिर जाता है।
आंधी न भी आती
तो भी गिरता।
आंधी तो बहाना
है। आंधी तो
मन समझाने
की बात है।
क्योंकि ऐसे
ही गिर गए
बिना किसी के गिराए, तो
चित्त को और
भी पीड़ा होगी।
न भी आंधी आती
तो वृक्ष
गिरता ही।
अपनी ही
दुर्बलता
गिराती है।
दूसरे की सबलता
का सवाल नहीं
है। क्योंकि
वस्तुतः वहां
कोई वासना का
देवता खड़ा
नहीं है, जो
तुम्हें गिरा
रहा है। तुम
ही गिरते हो।
अपनी
दुर्बलता से
गिरते हो।
और
आदमी दुर्बल
कैसे हो जाता
है? जो जहां
नहीं है वहां
खोजने से
धीरे-धीरे
अपने पर आस्था
खो जाती है।
व्यर्थ में
सार्थक को
खोजने से और न
पाने से
आत्मविश्वास डिग जाता
है। पैर लड़खड़ा
जाते हैं। और जीवनभर
असफलता हाथ
लगती हो तो
स्वाभाविक है
कि भरोसा नष्ट
हो जाए। और
आदमी डरने
लगे, कंपने लगे। पैर
उठाए उसके
पहले ही जानने
लगेगा कि
मंजिल तो
मिलनी नहीं है,
यात्रा
व्यर्थ है, क्योंकि हजारों
बार यात्रा की
है और कभी कुछ
हाथ लेकर लौटा
नहीं। हाथ
खाली के खाली
रहे।
'आलसी
और
अनुद्यमी...।'
आलस्य
असंयत जीवन का
परिणाम है।
जितना ही इंद्रियां
असंयत होंगी
और जितना ही वस्तुओं
में, विषयों
में रस होगा, उतना ही
स्वभावतः
आलस्य पैदा
होगा।
आलस्य
इस बात की खबर
है कि
तुम्हारी
जीवन-ऊर्जा एक
संगीत में बंधी
हुई नहीं है।
आलस्य इस बात
की खबर है कि तुम्हारी
जीवन-ऊर्जा
अपने भीतर ही संघर्षरत
है। तुम एक
गहरे युद्ध
में हो। तुम
अपने से ही लड़
रहे हो। अपना
ही घात कर रहे
हो।
उद्यम
बुद्ध उसी को
कहते हैं जब
तुम्हारी जीवन-ऊर्जा
एक संगीत में
प्रवाहित
होती है।
तुम्हारे सब
स्वर एक लय
में बद्ध हो
जाते हैं। तुम
एक पुंजीभूत
शक्ति हो जाते
हो। तब
तुम्हारे
भीतर बड़ी
ताजगी है, बड़े जीवन का
उद्दाम वेग
है। तब
तुम्हारे
भीतर जीवन की
चुनौती लेने
की सामर्थ्य
है। तब तुम जीवंत
हो। अन्यथा
मरने के पहले
ही लोग मर
जाते हैं। मौत
तो बहुत बाद
में मारती है,
तुम्हारी
नासमझी बहुत
पहले ही मार
डालती है।
'विषय-रस
में अशुभ
देखते हुए
विहार करने
वाले, इंद्रियों
में संयत, भोजन
में मात्रा
जानने वाले, श्रद्धावान
और उद्यमी
पुरुष को मार
वैसे ही नहीं
डिगाता जैसे
आंधी शैल
पर्वत को।'
आंधी
आती है, जाती
है। कोई
हिमालय उससे डिगता
नहीं। पर
तुम्हारे
भीतर हिमालय
की शांत, संयत
दशा होनी
चाहिए।
हिमालय एक
प्रतीक है। बहुमूल्य
शैल-शिखर।
अर्थ केवल
इतना है कि
तुम जब भीतर
अडिग हो, जब
तुम्हें कुछ
भी डिगाता
नहीं, जब
तुम ऐसे स्थिर
हो जैसे
शैल-शिखर--आंधी
आती है, चली
जाती है; तुम
वैसे ही खड़े
रहते हो जैसे
पहले थे--तब तो
ऐसा होगा कि
आंधी तुम्हें
और स्वच्छ कर
जाएगी। गिराना
तो दूर, तुम्हारी
धूल-झंखाड़
झाड़ जाएगी।
तुम्हें और
नया कर जाएगी,
ताजा कर
जाएगी।
इसे
ऐसा समझो
कि तुम राह से
गुजरते हो। एक
सुंदर युवती
पास से गुजर
गयी। इस सुंदर
युवती में जीवन
की एक धारा, एक तरंग
तुम्हारे पास
से गुजरी। अगर
तुम्हारी ऐसी
भ्रांत चित्त
की दशा है कि
रस विषय में है,
तो तुम कंप जाओगे। तो
यह स्त्री का
गुजर जाना या
पुरुष का गुजर
जाना, तुम्हें
ऐसे कंपा
जाएगा जैसे कि
कोई सूखे,
मरते हुए
वृक्ष को आंधी
कंपा जाए।
गिरने-गिरने
को हो जाए, या
गिर ही जाए।
तब तुम पाओगे
कि यह घटना दुर्भाग्यपूर्ण
हो गयी। लेकिन
अगर तुम संयत
हो, अगर
तुम शांत हो, अगर तुम मौन
हो और अडिग हो,
अगर ध्यान
की तुम्हारे
जीवन में थोड़ी
सी भी किरण उतरी
है, अगर
तुमने थोड़ा सा
भी जाना है कि
चैतन्य का
शांत हो जाना
क्या है, तुमने
अगर अपने भीतर
बैठने और खड़े
होने की कला
थोड़ी सी भी सीखी
है, और उस घड़ी में--जब
एक सुंदर
युवती पास से निकली या
एक सुंदर युवक
पास से
निकला--अगर
तुम अपने भीतर
ध्यान में खड़े
रहे, तो
तुम पाओगे
कि उस स्त्री
का सौंदर्य, वह जीवन की
धारा तुम्हें
निखार गयी, तुम्हें
ताजा कर गयी, तुम्हें
प्रफुल्लित
कर गयी। जैसे
आंधी निकल गयी
हो और वृक्ष
पर जमी हुई
धूल वर्षों की
झड़ गयी
हो। वृक्ष और
ताजा हो गया।
जीवन
को देखने के
ढंग पर सब कुछ
निर्भर है। अगर
तुम्हारे
देखने का ढंग
गलत है, तो
जीवन
तुम्हारे साथ
जो भी करेगा
वह गलत होगा।
तुम्हारा
देखने का ढंग
सही है, तो
जीवन तो यही
है, कोई और
दूसरा जीवन
नहीं है, लेकिन
तब तुम्हारे
साथ जो भी
होगा वही ठीक
होगा।
बुद्ध
भी इसी पृथ्वी
से गुजरते हैं, तुम भी इसी
पृथ्वी से
गुजरते हो।
यही चांदत्तारे
हैं। यही आकाश
है। यही फूल
हैं। लेकिन एक
के जीवन में
रोज पवित्रता
बढ़ती चली जाती
है। एक रोज-रोज
निर्दोष होता
चला जाता है।
निखरता चला जाता
है। और दूसरा
रोज-रोज दबता
चला जाता है, बोझिल होता
जाता है, धूल
से भरता जाता
है, अपवित्र
होता जाता है,
गंदा होता
जाता है।
मृत्यु जब
बुद्ध को लेने
आएगी तो वहां
तो पाएगी
मंदिर की
पवित्रता, वहां
तो पाएगी
मंदिर की धूप,
मंदिर के
फूल। वहां तो
पाएगी एक कुंवारापन,
जिसको कुछ
भी विकृत न कर
पाया।
जैसा
कबीर ने कहा
है, ज्यों की
त्यों धरि
दीन्हीं चदरिया।
तो बुद्ध तो
चादर को वैसा
का वैसा रख
देंगे।
मुझे
तो लगता है कि
कबीर ने जो
कहा, वह थोड़ा अंडरस्टेटमेंट
है। वह
अतिशयोक्ति
तो है ही नहीं,
सत्य को भी
बहुत धीमे
स्वर में कहा
है। क्योंकि
मेरी दृष्टि
ऐसी है कि जब
बुद्ध चादर को
लौटाएंगे
तो वह और भी
पवित्र होगी।
उससे भी
ज्यादा पवित्र
होगी जैसी
उन्होंने पायी
थी। होनी ही
चाहिए।
क्योंकि जैसे
अपवित्रता बढ़ती
है और
विकासमान है,
वैसे ही
पवित्रता भी
बढ़ती है और
विकासमान है। जो
पवित्रता
बुद्ध को बीज
की तरह मिली
थी, बुद्ध
उसे एक बड़े
वृक्ष की तरह लौटाएंगे।
जीसस
एक कहानी कहते
थे, कि एक बाप
चिंतित था।
तीन उसके बेटे
थे और बड़ा
उसके पास धन, बड़ी समृद्धि
थी। कुछ तय न
कर पाता था, किस बेटे को
मालिक बनाए।
तो उसने एक
तरकीब की।
उसने तीनों
बेटों को
बुलाया और
तीनों बेटों को
समान मात्रा
में फूलों के
बीज दिए और
कहा कि मैं
तीर्थयात्रा
को जा रहा हूं,
इनको तुम सम्हालकर
रखना। जब मैं
वापस आऊं, तो
मुझे वापस
लौटा देना। और
ध्यान रहे, इस पर बहुत
कुछ निर्भर
है। इसलिए
लापरवाही मत करना।
ये बीज ही
नहीं हैं, तुम्हारा
भविष्य!
बाप
तीन वर्ष बाद
वापस लौटा।
बड़े बेटे ने
सोचा कि इन
बीज को कहां सम्हालकर
रखेंगे? सड़ जाएंगे। और
कुछ कम-बढ़ हो
गया, झंझट
होगी; और
बाप कह गया है,
तुम्हारा
भविष्य! तो
उसने सोचा, यही उचित
होगा कि इनको
बाजार में बेच
दिया जाए।
पैसे को सम्हालकर
रखना आसान
होगा। फिर जब
बाप लौटेगा,
फिर बाजार
से खरीदकर
बीज उसको लौटा
देंगे। यह बात
ठीक गणित की
थी।
दूसरे
बेटे ने सोचा
कि कैसे सम्हाला
जाए? बीज कहीं
खो न जाएं, कुछ
कमी न हो जाए, सड़ न
जाएं, कुछ
गड़बड़ न हो
जाए। और फिर
जो बीज दिए
हैं, कहीं
बाप उन्हीं की
जिद्द न
करे, तो
बेचना तो उचित
नहीं है। और
जब उसने कहा, भविष्य इन
पर निर्भर है;
तो उसने एक तिजोड़ी
में सब बीजों
को बंद करके, ताला लगाकर
चाबी सम्हालकर
रख ली।
तीसरे
बेटे ने बीजों
को जाकर बो
दिया बगीचे
में। क्योंकि
बीज कहीं तिजोड़ी
में सम्हाले
जाते हैं? और बाप ने जो
अमानत दी है, वह कोई
बाजार में
बेचने की बात
है? फिर खरीदकर
भी लौटा देंगे,
तो वे वही
बीज तो न
होंगे। और बीज
तो विकासमान है।
उसको सम्हालकर
रखने में तो
या तो वह सड़ेगा,
खराब होगा।
और एक बीज तो
करोड़ बीज हो
सकता है। जब
पिता लौटेंगे,
तब तक और
बहुत बीज लग
जाएंगे।
तीन
वर्ष बाद जब
पिता लौटा तो
उसने बड़े बेटे
को कहा। वह
भागा बाजार की
तरफ। उसने कहा, रुकिए, अभी
लाता हूं। वह
बाजार से बीज
खरीद लाया, ठीक उसी
मात्रा में
थे। लेकिन बाप
ने कहा, ये
मेरे बीज नहीं
हैं। जो मैंने
दिए थे वे तूने
कहीं गंवा
दिए। ये कोई
और बीज होंगे।
लेकिन जो
मैंने
तुम्हें सम्हालने
को दिए थे वे
कहां हैं?
दूसरे
बेटे को कहा।
उसने तिजोड़ी
सामने लाकर
खोल दी। वहां
से सिर्फ
दुर्गंध उठी।
क्योंकि सब बीज
सड़ गए थे।
राख थी वहां
अब। बाप ने
कहा, मैंने
तुम्हें बीज
दिए थे और तुम
राख लौटाते हो!
तो बेटे ने
कहा, ये
वही बीज हैं।
बाप ने कहा, ये वही नहीं
हैं। दूसरे ने
तो कम से कम
बीज लौटाए
हैं--दूसरे
बीज हैं, तुम्हारे
तो बीज भी
नहीं हैं। यह
तो राख है। मैंने
तुम्हें बीज
दिए थे। बीज
का मतलब होता
है, जो
अंकुरित हो
सके। क्या यह
राख अंकुरित
हो सकेगी?
क्या इसमें
फूल लग सकेंगे?
तीसरे
बेटे को पूछा।
बेटे ने कहा, आप मकान के
पीछे आएं, क्योंकि
बीज वहां हैं
जहां उन्हें
होना चाहिए।
पीछे करोड़ों
फूल खिले
थे। और बेटे
ने कहा, अभी
जल्दी फसल आने
के करीब है, हम बीज आपके
लौटा देंगे।
लेकिन हम उतने
ही लौटाने
में असमर्थ
हैं जितने
आपने दिए थे।
करोड़ गुना हो
गए। और उतने
ही क्या
लौटाना!
क्योंकि बीज का
अर्थ ही होता
है, जो बढ़
रहा है, जो प्रतिपल
विकासमान है।
उसको उतना ही
कैसे लौटाया
जा सकता है? उसको उतना
ही लौटाने
का तो पहला
उपाय है जो
बड़े भाई ने
किया। बेच
दिया बाजार
में, दूसरे
खरीद लाया। और
वही बीज भी
मैं आपको नहीं
लौटा सकता हूं,
उनकी संतान
लौटा सकता
हूं। चूंकि
वही बीज तो सड़
जाते। उनके लौटाने का
तो ढंग वही है
जो मेरे दूसरे
भाई ने किया; जिसने आपको
राख दी। लेकिन
जिन बीजों से
सुगंध उठ सकती
है उनको
दुर्गंध की
शकल में
लौटाना मुझे न
भाया। ये
आपके बीज हैं,
आप सम्हाल
लें। ये सारे
फूल आपके हैं।
थोड़े से बीज
करोड़ गुना हो
गए थे।
नहीं, कबीर ने जो
कहा है वह
अतिशयोक्ति
नहीं, उन्होंने
सत्य को बड़े
धीमे स्वर में
कहा है, ज्यों
की त्यों धरि
दीन्हीं चदरिया। बुद्धों
ने चदरिया
को और भी निखारकर
लौटाया है। जो
बीज थे उसको
फूल की तरह
लौटाया है।
पवित्रता
बढ़ती है प्रतिपल,
जैसे
अपवित्रता
बढ़ती है। तुम
जिसे सम्हालोगे
वही बढ़ने लगता
है। जीवन में
कोई चीज रुकी
हुई नहीं है, सभी चीजें
गतिमान हैं।
जीवन एक
प्रवाह है। या
तो पीछे की तरफ
जाओ, या
आगे की तरफ
जाओ, रुकने
का कोई उपाय
नहीं है। जो
जरा भी रुका, वह भटका।
ये पंक्तियां
ध्यान से सुनो--
जुस्तजु-ए-मंजिल
में इक जरा जो
दम लेने
काफिले
ठहरते हैं राह
भूल जाते हैं
जरा
दम लेने!
जुस्तजु-ए-मंजिल
में इक जरा जो
दम लेने
इस
जिंदगी की राह
पर, यात्रा
पर जरा दम
लेने को भी जो
ठहरते हैं।
काफिले
ठहरते हैं राह
भूल जाते हैं
जो
रुका, वह
भूला। जो जरा
ठहरा, वह
भटका।
क्योंकि जो
आगे न गया, वह
पीछे गया। जो
बढ़ा नहीं, वह
गिरा। जो चला
नहीं, वह
पीछे सरका।
क्योंकि जीवन
गति है, यहां
ठहराव नहीं
है। एडिंग्टन
का बहुत
प्रसिद्ध वचन
है कि मनुष्य
की भाषा में
रेस्ट
शब्द--ठहराव--सबसे
झूठा शब्द है।
क्योंकि ऐसी
कोई घटना कहीं
नहीं। कोई चीज
ठहरी हुई
नहीं है।
तुम
यहां बैठे हो, ठहरे हुए नहीं
हो। तुम लगते
हो बैठे हो।
चल रहे हो। प्रतिपल
बढ़ रहे हो।
रात सो रहे हो,
तब भी ठहरे
हुए नहीं हो।
बिस्तर पर भी
हजारों प्रक्रियाएं
चल रही हैं।
तुम्हारा
जीवन गतिमान
है। रात भी
नदी बह रही है,
सुबह भी नदी
बह रही है, दिन
भी नदी बह रही
है। अंधेरा हो
कि उजाला, आकाश
में बादल घिरे
हों कि आकाश
खुला हो, नदी
बह रही है।
वैज्ञानिक
कहते हैं कि
रात सोते समय
भी तुम्हारा
मस्तिष्क
पूरा काम कर
रहा है। सीना
पूरा काम कर
रहा है। श्वास
चल रही है।
शरीर में खून
शुद्ध किया जा
रहा है। भोजन पचाया जा
रहा है। तुम
बू?ढ़े हो रहे हो, जवान हो रहे
हो। कुछ घट
रहा है। रुकाव
जैसी कोई चीज
नहीं है। पत्थर
भी ठहरा हुआ
नहीं है।
क्योंकि
पत्थर भी रेत
होने के
रास्ते पर आगे
बढ़ा जा रहा
है। आज पत्थर
है, कल रेत
हो जाएगा। कुछ
भी ठहरा हुआ
नहीं है। ठहराव
झूठ है। ठहराव
भ्रांति है।
गति सत्य है।
बुद्ध
ने तो गति को
इतने आत्यंतिक
ऊंचाई पर
उठाया कि
बुद्ध ने कहा
कि जहां भी तुम्हें
कोई चीज ठहरी
हुई मालूम पड़े, वहीं समझ
लेना झूठ है।
इसलिए
बुद्ध ने
परमात्मा
शब्द का उपयोग
नहीं किया।
क्योंकि
परमात्मा
शब्द में ही
ठहराव मालूम
होता है।
परमात्मा का
मतलब है, जो हो
चुका और अब
नहीं हो सकता।
जिसमें कोई
गति नहीं।
परमात्मा में
गति कैसे होगी?
क्योंकि
गति तो अपूर्ण
में होती है।
पूर्ण में कैसी
गति? वह तो
है ही वही जो
होना चाहिए।
अब उसमें कुछ
और हो नहीं
सकता।
परमात्मा
बूढ़ा नहीं हो
रहा, ज्यादा
ज्ञानी नहीं
हो रहा, अज्ञानी
नहीं हो रहा, पवित्र नहीं
हो रहा, अपवित्र
नहीं हो रहा।
बुद्ध
ने कहा, ऐसी
कोई चीज है ही
नहीं। बुद्ध
ने कहा, 'है'
शब्द झूठ है;
'होना' शब्द
सत्य है। जब
तुम कहते हो, पहाड़ है, तो
बुद्ध कहते
हैं, ऐसा
मत कहो, पहाड़ है।
ऐसा कहो, पहाड़ हो रहा
है। बुद्ध के
प्रभाव में जो
भाषाएं
विकसित हुईं,
जैसे बर्मी,
जो कि
बुद्ध-धर्म के
पहुंचने के
बाद भाषा बनी,
तो वहां 'है' जैसा
कोई शब्द नहीं
है बर्मी भाषा
में। जब पहली
दफा बाइबिल
का अनुवाद
किया बर्मी
भाषा में तो
बड़ी कठिनाई आयी। 'गॉड इज',
इसको कैसे
अनुवाद करो? 'ईश्वर है'--इसके लिए
कोई ठीक-ठीक
रूपांतरण
बर्मी भाषा
में नहीं
होता। और जब
रूपांतरण करो
तो उसका मतलब
होता है--'गॉड इज
बिकमिंग'--ईश्वर हो
रहा है।
क्योंकि वह
बुद्ध के
प्रभाव में
भाषा बनी है।
बुद्ध ने कहा,
हर चीज हो
रही है। तुम
जवान हो, ऐसा
कहना ठीक नहीं
है। जवान हो
रहे हो। बूढ़े
हो, ऐसा
कहना भी ठीक
नहीं है। बूढ़े
हो रहे हो।
जीवन है, ऐसा
कहना ठीक
नहीं। जीवन हो
रहा है।
मृत्यु है, ऐसा कहना भी
ठीक नहीं।
मृत्यु हो रही
है। जगत में
क्रियाएं हैं,
घटनाएं
नहीं।
इसलिए
बुद्ध ने कहा, कोई
परमात्मा
नहीं है। और
बुद्ध ने कहा,
कोई आत्मा
भी नहीं है।
क्योंकि ये तो
थिर चीजें
मालूम पड़ती
हैं। आत्मा, जैसे कोई
ठहरा हुआ
पत्थर भीतर
रखा है। बुद्ध
ने कहा, ऐसा
कुछ भी नहीं
है। चीजें
हो रही हैं।
बुद्ध
ने जो प्रतीक
लिया है जीवन
को समझाने
के लिए, वह
है दीए की
ज्योति। सांझ
को तुम दीया
जलाते हो। रातभर
दीया जलता है,
अंधेरे से लड़ता है।
सुबह तुम दीया
बुझाते हो।
क्या तुम वही
ज्योति
बुझाते हो जो
तुमने रात जलायी
थी? वही
ज्योति तो तुम
कैसे बुझाओगे?
वह ज्योति
तो करोड़ बार बुझ चुकी।
ज्योति तो प्रतिपल
बुझ रही
है, धुआं
होती जा रही
है। नयी
ज्योति उसकी
जगह आती जा
रही है। रात
तुमने जो ज्योति
जलायी थी
वह सुबह तुम
उसे थोड़े ही बुझाओगे।
उसी की शृंखला
को बुझाओगे,
उसी को
नहीं। वह तो
जा रही है, भागी
जा रही है, तिरोहित
हुई जा रही है
आकाश में। नयी
ज्योति प्रतिपल
उसकी जगह आ
रही है।
तो
बुद्ध ने कहा, तुम्हारे
भीतर कोई
आत्मा है ऐसा
नहीं, चित्त
का प्रवाह है।
एक चित्त जा
रहा है, दूसरा
आ रहा है।
जैसे दीए
की ज्योति आ
रही है। तुम
वही न मरोगे
जो तुम पैदा
हुए थे। जो
पैदा हुआ था, वह तो कभी का
मर चुका। जो मरेगा वह
उसी संतति में
होगा, उसी
शृंखला में
होगा, लेकिन
वही नहीं।
यह
बुद्ध की
धारणा बड़ी अनूठी
है। लेकिन
बुद्ध ने जीवन
को पहली दफा
जीवंत करके
देखा। और जीवन
को क्रिया में
देखा, गति
में देखा। और
जो भी आलस्य
में पड़ा है, जो रुक गया
है, ठहर
गया है, जो
नदी न रहा और
सरोवर बन गया,
वह सड़ेगा।
'विषय-रस
में अशुभ
देखते हुए
विहार करने
वाले, इंद्रियों
में संयत, भोजन
में मात्रा जानने
वाले, श्रद्धावान
और उद्यमी
पुरुष को मार
वैसे ही नहीं
डिगाता जैसे
आंधी
शैल-पर्वत को।'
तुम्हारी
निर्बलता और
दुर्बलता का
सवाल है। जब
तुम हारते हो, अपनी
दुर्बलता से
हारते हो। जब
तुम जीतते हो,
अपनी सबलता
से जीतते हो।
वहां कोई
तुम्हें हराने
को बैठा नहीं
है। इस बात को
खयाल में ले
लो। शैतान है
नहीं, मार
है नहीं।
तुम्हारी
दुर्बलता का
ही नाम है। जब
तुम दुर्बल हो,
तब शैतान
है। जब तुम
सबल हो, तब
शैतान नहीं
है। तुम्हारा
भय ही भूत है।
तुम्हारी
कमजोरी ही
तुम्हारी हार
है।
इसलिए
यह जो हम
बहाने खोज
लेते हैं अपना
उत्तरदायित्व
किसी के कंधे
पर डाले देने
का, कि शैतान
ने भटका दिया,
कि क्या
करें मजबूरी
है, पाप ने
पकड़ लिया। कोई
पाप है कहीं
जो तुम्हें पकड़
रहा है? तुमने
भला पाप को पकड़ा
हो, पाप
तुम्हें कैसे पकड़ेगा?
तो मार
तो केवल एक
काल्पनिक
शब्द है। इस
बात की खबर
देने के लिए
कि तुम जितने
कमजोर होते हो
उतना ही
तुम्हारी कमजोरी
के कारण, तुम्हारी
कमजोरी से ही
आविर्भूत
होता है तुम्हारा
शत्रु। तुम
जितने सबल
होते हो, उतना
ही शत्रु
विसर्जित हो
जाता है।
सबल
होने की कला
योग है। कैसे
तुम अपने भीतर
संयत हो जाओ।
तो हर चीज
सम्यक होनी
चाहिए। इंद्रियों
का उपयोग संयम
से भरा होना
चाहिए। बुद्ध
अपने भिक्षुओं
को कहते थे, जब तुम राह
पर चलो, चार कदम आगे
से ज्यादा मत देखो। कोई
जरूरत नहीं
है। चार कदम
आगे देखना
पर्याप्त है।
उतना संयम है।
लेकिन
तुम भी चलते
हो रास्ते पर।
जिस दीवाल पर लिखे हुए
इश्तहार को
तुम हजार बार पढ़ चुके हो, उसको आज फिर पढ़कर आए
हो। वह चाहे हिमकल्याण
तेल हो, या
बंदर छाप काला
दंतमंजन
हो, उसको
तुम कितनी बार
पढ़ चुके
हो। उसे तुम
क्यों बार-बार
पढ़ रहे हो?
तुम
उसे पढ़ो
न--बुद्ध की
तरह अगर तुम
चार कदम नीचे
देखकर चलो--तो
दीवालें अपने
आप साफ हो
जाएं। लोग
लिखना बंद कर
दें। तुम पढ़ते
हो, इसलिए वे
लिखते हैं।
तुम जब तक
पढ़ते रहोगे
तब तक वे
लिखते
रहेंगे।
क्योंकि
बार-बार पढ़कर
तुम्हारे मन
में एक
सम्मोहन पैदा
होता है। बंदर
छाप काला दंतमंजन,
बंदर छाप
काला दंतमंजन...।
जब तुम दुकान
पर दंतमंजन
खरीदने जाओगे,
तुम्हें याद
ही न पड़ेगा
तुम्हारे
मुंह से कब
निकल
गया--बंदर छाप
काला दंतमंजन।
तुम
सोचते हो सोच-विचारकर
खरीद रहे हो।
वह बार-बार की
पुनरुक्ति ने
तुम्हें
सम्मोहित
किया। बार-बार
की पुनरुक्ति
ने तुम्हारे
मन पर संस्कार
छोड़ दिए। तुम
उन्हीं को दोहराए
चले जा रहे
हो। इसलिए तो विज्ञापन
का इतना भारी
उपयोग है। लोग
चीजें
बाद में बनाते
हैं, विज्ञापन
पहले चला देते
हैं।
अमरीका
में तो
दोत्तीन साल
बाद प्रोडक्शन
शुरू होगा उस
चीज का, उत्पत्ति
शुरू होगी, तीन साल
पहले
विज्ञापन
शुरू हो जाता
है। क्योंकि
बाजार पहले
बनाना पड़ता
है। मांग पहले
पैदा करनी
पड़ती है। और
जब मांग पैदा
हो जाती है, तो ही बाजार
में सामान
लाने की कोई
जरूरत है। और
आदमी ऐसा पागल
है कि किसी भी
चीज के लिए
उसको तुम
खरीदने के लिए
राजी कर सकते
हो, सिर्फ
दीवालों पर, अखबारों में, रेडियो
पर, टेलीविजन पर दोहराने
की जरूरत है।
कुछ भी दोहराओ,
आदमी तैयार
हो जाएगा
खरीदने को।
क्योंकि उसे लगेगा कि
पता नहीं कौन
सा सुख मैं
चूका जा रहा
हूं, जो इस
चीज से मिलने
वाला है।
सुख की
भ्रांति दो, सुख की आशा बंधाओ और
कोई भी चीज
बेची जा सकती
है। आदमी से
ज्यादा मूढ़
कोई और दूसरा
जानवर पृथ्वी
पर नहीं है।
तुम किसी भैंस
को भी राजी
नहीं कर सकते।
वह अपनी प्रकृति
से जीती है।
जो घास खाना
है, वही
खाती है। तुम
कितना ही
विज्ञापन करो,
तुम कितना
ही बैंड-बाजा बजाओ, वह
बिलकुल फिकर न
करेगी। लेकिन
आदमी, तत्क्षण!
क्योंकि आदमी
अपनी प्रकृति
भूल गया है।
तो ऐसी चीजें
खा रहा है जिनमें
कुछ, कोई
भी पौष्टिकता
नहीं है।
लेकिन
विज्ञापन चला
रहा है उन
चीजों को, तो
वह खाएगा।
धीरे-धीरे
सभी चीजें
अपनी
पौष्टिकता
खोती जा रही
हैं। क्योंकि
यह सवाल ही
नहीं है कि
उनमें जीवनदायीत्तत्व
होने चाहिए।
रंग अच्छा
होना चाहिए, गंध अच्छी
होनी चाहिए।
अब रंग और गंध
से कोई
पौष्टिकता का
संबंध नहीं
है। रंग और गंध
तो ऊपर से
डाली जा सकती
हैं। डाली जा
रही हैं। भोजन
रंगीन दिखना
चाहिए, सुगंध
अच्छी आनी
चाहिए; फिर
उससे खून बनता
है या नहीं, यह सवाल
नहीं है। फिर
उससे हड्डी बनती है या
नहीं, यह
सवाल नहीं है।
तुम किसी
जानवर को धोखा
नहीं दे सकते।
वह जानता है
कि क्या उसके
जीवन में
उपयोगी है।
लेकिन आदमी को
धोखा दिया जा
सकता है। दिया
जा रहा है। हर
चीज के लिए
तुम उसे राजी
कर सकते हो, ठीक
विज्ञापन की
जरूरत है।
बुद्ध
कहते थे, चार
कदम से आगे
देखना ही मत।
क्योंकि उतना
चलने के लिए
पर्याप्त है।
इसको वह संयम
कहते हैं।
बुद्ध कहते, जो सुनने
योग्य नहीं है,
उसे सुनना
मत। जो छूने
योग्य नहीं है,
उसे छूना
मत। जितना
जीवन में
जरूरी है, आवश्यक
है, उससे
पार मत जाना।
और तुम अचानक पाओगे, तुम्हारे
जीवन में
शांति की
वर्षा होने
लगी। अशांत
तुम इसलिए हो
कि जो गैर-जरूरी
है उसके पीछे
पड़े हो। जो
मिल जाए तो कुछ
न होगा, और
न मिले तो
प्राण खाए
जा रहा है।
गैर-जरूरी वही
है जिसके
मिलने से कुछ
भी न मिलेगा,
लेकिन जब तक
नहीं मिला है
तब तक रात की
नींद हराम हो
गयी है। तब तक
सो नहीं सकते,
शांति से
बैठ नहीं सकते,
क्योंकि मन
में एक ही
उथल-पुथल चल
रही है कि घर
में दो कार
होनी चाहिए।
एक कार गरीब
आदमी के घर
में होती है।
दो कार होनी
चाहिए।
पहले
अमरीका में वे
विज्ञापन
करते थे कि कम
से कम घर में
एक कार होनी
ही चाहिए। अब
इतनी कारें तो
घरों-घरों में
हो गयी
हैं--एक-एक कार
तो हर घर में
है। तब
उन्होंने
दूसरा
विज्ञापन
शुरू किया कि
एक कार तो
गरीब घर में
होती है। अगर
तुम सफल हो, तो कम से कम
दो कार घर में
होनी चाहिए।
अब दो कार घर
में होनी
चाहिए! चाहे
एक में भी
बैठने वाले
पर्याप्त न
हों। लेकिन दो
कार घर में
होनी ही
चाहिए। नहीं
तो वह
प्रतिष्ठा का सवाल
है। अब कार
कोई बैठने के
लिए नहीं खरीदता
अमरीका में, वह
प्रतिष्ठा की
बात है, वह प्रेस्टिज,
पावर। उससे
शक्ति का पता
चलता है कि
तुम कितने शक्तिशाली
हो।
अब
उन्होंने
वहां प्रचार
करना शुरू
किया है कि
अगर तुम सफल
हो गए हो, तो
एक घर पहाड़ पर,
एक घर
समुद्र के तट
पर और एक घर
शहर में, कम
से कम तीन घर
तो होने ही
चाहिए। आदमी
एक ही घर में
रह सकता है!
तुम्हारे पास
कितने कपड़े हैं?
तुमने
कितने इकट्ठे
कर रखे हैं? कितने कपड़े
तुम एक बार
में पहन सकते
हो? कितने
जूते के अंबार
लगा रखे हैं
तुमने?
मैं
घरों में
ठहरता रहा
हूं। कभी-कभी
दंग होता हूं।
भगवान की
मूर्ति के लिए
जगह नहीं है, जूतों के
लिए अलमारियां
लगा रखी हैं।
एक जूता तुम
पहनते हो।
इतने जूते
अनिवार्य
नहीं हैं। जरा
भी आवश्यक
नहीं हैं।
व्यर्थ इनको
झाड़ना-पोंछना
पड़ता है। तुम
नाहक चमार बन
गए हो। सुबह
से इनको
नाहक पोंछो,
झाड़ो, तैयार करके रखो, एक
तुम पहनोगे।
लेकिन कोई
तुम्हें समझा
रहा है कहीं
से, कि ऐसा
होना चाहिए।
तुम
अगर अपने जीवन
की फेहरिश्त
बनाओ कि
तुमने कितना
गैर-जरूरी
इकट्ठा कर
लिया है, तो
तुम नब्बे
प्रतिशत
गैर-जरूरी पाओगे।
और उस नब्बे
प्रतिशत के
लिए तुमने
कितना श्रम
उठाया! कितनी
चिंता ली!
कितने
व्याकुल हुए!
कितना व्यर्थ
जीवन गंवाया!
और अगर तुमसे
कोई कहे ध्यान,
इबादत, प्रार्थना,
तुम कहते हो
समय कहां है? समय है
नहीं। समय
होगा भी कैसे!
क्योंकि
व्यर्थ के लिए
इतना समय दिया
जा रहा है।
बुद्ध
ने कहा है, जिस व्यक्ति
को भी यह समझ
में आ गया कि
विषयों में रस
नहीं है, वह
संयत होने
लगता है, अपने
आप संयत होने
लगता है। तब
उसका जीवन वासनाग्रस्त
नहीं होता।
आवश्यकता से
निश्चित ही
मर्यादित
होता है, लेकिन
वासना से
ग्रस्त नहीं
होता।
आवश्यकता की
सीमा है।
वासना की कोई
सीमा नहीं।
वासना है एक
तरह की विक्षिप्तता।
आवश्यकता
जीवन की जरूरत
है। भोजन
चाहिए, कपड़ा चाहिए, छप्पर
चाहिए। एक
आवश्यकता है,
उतनी पूरी
होनी चाहिए।
और हर आदमी
उसे पूरी कर
लेता है। उसके
कारण कोई
चिंता नहीं है
तुम्हारे
भीतर। चिंता
तुम्हारे
भीतर उन चीजों
के कारण है जो
आवश्यक नहीं
हैं। उन्हीं
का तुम्हें
रोग खाए
जा रहा है।
'विषय-रस
में अशुभ
देखते हुए
विहार करने
वाले, इंद्रियों
में संयत, भोजन
में मात्रा
जानने वाले, श्रद्धावान
और उद्यमी
पुरुष को मार
वैसे ही नहीं
डिगाता जैसे
आंधी
शैल-पर्वत को।'
बुद्ध
के संघ में
बहुत समय तक
बुद्ध ने
स्त्रियों को
दीक्षा न दी।
बहुत आग्रह
करने पर, और
एक बड़ी अनूठी
महिला कृशा
गौतमी के
अत्यंत
निवेदन करने
पर बुद्ध ने
स्वीकार
किया। लेकिन
तब उन्होंने
कुछ नियम बनाए।
जब वे नियम
बनाते थे, तो
उन्होंने भिक्षुओं
से कई सवाल
पूछे, नियम
बनाने के
निमित्त। और
आनंद ने बहुत
से प्रश्न उठाए
नियमों के
संबंध में, ताकि सब
नियम
विस्तारपूर्ण
हो जाएं। तो
आनंद ने पूछा
कि कोई भिक्षु
अगर किसी
स्त्री को मार्ग
पर मिले, या
भिक्षुणी को
मार्ग पर मिले,
तो क्या
व्यवहार होना
चाहिए? तो
बुद्ध ने कहा,
भिक्षुणी, चाहे भिक्षु
उम्र में उससे
छोटा भी हो, तो भी उसे प्रणाम
करे। यह बात
जरा बुद्ध के
मुंह में जमती
नहीं। महावीर
ने भी यही
नियम
बनाया--कि
भिक्षुणी, साध्वी,
चाहे सत्तर
साल की हो, चाहे
दीक्षा लिए
हुए उसे पचास
साल हो गए हों,
और अभी कल
के दीक्षित
साधु के सामने
भी आ जाए तो
झुककर
नमस्कार करे।
साधु को ऊपर
बिठाए, स्वयं
नीचे बैठे। यह
बात महावीर के
मुंह में भी जमती
नहीं।
क्योंकि
दोनों
स्वतंत्रता
के बड़े, समानता
के बड़े
परिपोषक थे।
जैन और
बौद्ध दोनों
परेशान रहे
हैं कि कैसे
इन बातों को
छिपाया जाए।
वे उनकी चर्चा
नहीं उठाते।
लेकिन मैं
इसमें बड़ा
गहरा कारण
देखता हूं।
क्योंकि बुद्ध
और महावीर जब
ऐसी बात कहते
हैं तो बड़े
अर्थ हैं
उनके। एक
मनुष्य के मन
की बड़ी गहरी
बात बुद्ध ने पकड़ी। अगर
कोई स्त्री
पुरुष को
सम्मान दे, तो फिर
पुरुष की
वासना उसके
प्रति बहनी
मुश्किल हो
जाती है, कठिन
हो जाती है।
अगर कोई
स्त्री
तुम्हारे पैर
छू ले, तो
फिर वासना
असंभव हो जाती
है--उसने
द्वार बंद कर
दिया।
क्योंकि
पुरुष वासना
में उसी
स्त्री के प्रति
झुक सकता है
जिसने उसे
सम्मान न दिया
हो, जिसने
उसे आदर न
दिया हो।
क्योंकि
वासना में झुकने
का मतलब है
पुरुष खुद
अपनी ही आंखों
में अपने से
नीचे गिरता
है। इसलिए
वेश्या के साथ
तुम जितने
वासना का
संबंध बना
सकते हो किसी
और के साथ
नहीं बना
सकते।
क्योंकि उसके
सामने नीचे
गिरने में कोई
डर नहीं है।
उसने कभी तुम्हें
कोई आदर दिया
नहीं।
बुद्ध
और महावीर ने, दोनों ने
पुरुष के
अहंकार को पकड़
लिया ठीक जगह,
कि उसका
अहंकार ही अगर
रुक जाए तो ही
रुक सकेगा, अन्यथा
वासना का
प्रवाह हो
जाएगा। अगर
कोई स्त्री
तुम्हें बहुत
सम्मान से चरण
छू ले, तो
उसने तुम्हें
इतना सम्मान
दिया कि अब
तुम्हें इस
सम्मान की
रक्षा करनी
पड़ेगी। अब
तुम्हें ऐसा
व्यवहार करना पड़ेगा
जिसमें उसका
दिया गया
सम्मान खंडित
न हो। अब तुम
वासना के तल
पर नीचे न उतर सकोगे।
उसने रास्ता
रोक दिया।
आनंद
ने पूछा कि
अगर कोई ऐसी घड़ी आ जाए
कि स्त्री और
पुरुष साथ-साथ
हों, भिक्षु-भिक्षुणी
साथ-साथ हों, तो एक-दूसरे
का स्पर्श? तो बुद्ध ने
कहा, नहीं।
पुरुष स्त्री
को न छुए।
स्त्री पुरुष
को न छुए।
आनंद ने कहा, और अगर कोई
ऐसी मजबूरी आ
जाए कि
भिक्षुणी
बीमार हो, या
भिक्षु बीमार
हो और सेवा
करनी पड़े? तो
बुद्ध ने कहा,
वैसी दशा
में छुए, लेकिन होश
रखे।
पहले
तो देखे न।
अगर देखना पड़े, तो छुए
न। अगर छूना
पड़े तो
मूर्च्छा में
न रहे, होश
रखे। भीतर
जागा रहे।
क्योंकि
मनुष्य के मन
की जो वासनाएं
हैं उनकी आदत
तो बड़ी
प्राचीन है, और होश बड़ा
नया है। ध्यान
तो अभी साधा
है, साधना
शुरू किया है,
और वासना
बड़ी प्राचीन
है।
जन्मों-जन्मों
की है। उसके
संस्कार बड़े
गहरे हैं। और
जरा सी भी भूल-चूक
हुई, जरा
सा भी मन
मूर्च्छित
हुआ कि वासना
के मार्ग से
जीवन बहना
शुरू हो जाता
है, एक
क्षण में। इधर
तुम भूले,
उधर वासना
का प्रवाह
शुरू हुआ। अगर
जागे ही रहो,
अगर भीतर
होश को रखो,
तो ही संभव
है कि
धीरे-धीरे
पुरानी
परिपाटी टूटे,
पुरानी लीक मिटे, नया
रास्ता बने।
मार के साथ
संबंध पुराने
हैं। राम के
साथ संबंध बनाने
हैं।
'जो
असार को सार
समझते हैं और
सार को असार, वे मिथ्या
संकल्प के
भाजन लोग सार
को प्राप्त नहीं
होते।'
अगर
तुमने सार को
असार समझा है, असार को सार
समझा है; अगर
ऐसी विपरीत
तुम्हारी
बुद्धि है, तो फिर तुम
कैसे सार को
प्राप्त हो सकोगे? तुम
तो फिर असार
को सार समझकर
खोजते रहोगे।
इसलिए
तो एक बहुत
मजे की घटना
जीवन में घटती
है। वह घटना
यह है कि जब तक
तुम्हें धन
नहीं मिलता तब
तक पता नहीं
चलता कि धन
असार है। जब
मिलता है तब
पता चलता है।
ठीक भी है।
क्योंकि जब तक
मिला नहीं तब
तक पता कैसे
चले? तब तक तो
तुम्हें सार दिखायी
पड़ता है। जब
मिल जाता है, तब बड़ी
मुश्किल खड़ी
होती है।
क्योंकि
जिसको सार मानकर
इतने दिन खोजा,
इतना श्रम
उठाया, इतनी
स्पर्धा की, इतने जूझे,
इतना जीवन
गंवाया, वह
जब मिलता है, तब अचानक
तुम हैरान हो
जाते हो कि
सार तो कहीं भी
नहीं है। फिर
भला तुम
दूसरों से न कहो।
क्योंकि अब
दूसरों से कहकर
और फजीहत क्या
करवानी
है! और दूसरे हंसेंगे।
लेकिन
तुम्हें समझ
में आ जाता
है।
इस
संसार में
जिनको तुम सफल
कहते हो, उनको
जितनी अपनी
असफलता दिखायी
पड़ती है उतनी
किसी को भी दिखायी
नहीं पड़ती।
जिनको तुम
अमीर कहते हो,
उनको जितनी
अपनी गरीबी का
पता चलता है
उतना किसी को
भी नहीं चलता।
जिनको तुम
पंडित कहते हो,
उनको जितने
अपने अज्ञान
का बोध होता
है, किसी
को भी नहीं
होता। कहें
भले न। कहने
के लिए हिम्मत
चाहिए। कहने
के लिए बड़ा
दुस्साहस चाहिए।
क्योंकि कहने
का मतलब यह
होगा कि मैं
अपने पूरे
जीवन को
व्यर्थ घोषित
करता हूं, कि
अब तक मैंने
जो खोजा, जो
मैंने श्रम
उठाया, वह
दो कौड़ी
का साबित हुआ।
मैं गलती में
था। बड़ा
मुश्किल होता
है यह मानना
कि मैं गलती
में था। और
सफलता के शिखर
पर मानना तो
अहंकार के
बिलकुल प्रतिकूल
हो जाता है।
लेकिन
यही कथा है।
असफल
ही सोचता है
कि सार होगा
धन में, सार
होगा पद में।
जो पद पर हैं, जो धन पर हैं,
वे नहीं
सोचते। सोच ही
नहीं सकते।
भले दिखावा करते
हों, लेकिन
भीतर से भवन
गिर गया है।
ऊपर से
साज-सजावट
बनाए रखते हों,
नींव खिसक
गयी है। अगर तुममें
थोड़ी भी समझ
हो और गहरे
देखने की
क्षमता हो, तो हर सफल
आदमी में तुम
असफलता को पाओगे।
और हर आदमी की
यश-कीर्ति में
तुम बड़ा
संतप्त हृदय पाओगे, रोता हुआ हृदय पाओगे।
मुस्कुराहटों
में अगर झांकने
की क्षमता आ
जाए, तो
तुम छिपे हुए
आंसू देख पाओगे।
'जो
असार को सार
समझते हैं और
सार को असार, वे मिथ्या
संकल्प के
भाजन लोग सार
को प्राप्त
नहीं होते।'
होंगे
भी कैसे!
'जो
सार को सार
जानते हैं और
असार को असार,
वे सम्यक
संकल्प के
भाजन लोग सार
को प्राप्त होते
हैं।'
सार
क्या है, इसे
जान लेना आधा
पा लेना है।
क्या है सार? अब तक
जिंदगी में
तुमने जो खोजा
है, उसमें
से तुम्हें क्या
ऐसा लगता है
जिसे सार कहा
जा सके? धन
खोज लिया; कल
तुम मरोगे,
वह पड़ा रह
जाएगा। जो साथ
न जा सके वह
सार कैसे होगा?
प्रशंसा पा
ली, लोगों
ने तालियां
बजायीं
और गजरे पहना
दिए। गजरे क्षणभर
बाद कुम्हला
जाएंगे, तालियों की आवाज हो
भी न पाएगी और
खो जाएगी। और
सारी दुनिया
भी ताली बजाए,
तो भी सार
क्या होगा? मिलेगा क्या? उससे
तुम्हें कौन
सी जीवन-संपदा
उपलब्ध होगी?
और फिर
भरोसा कहां है?
जो आज ताली
बजाते हैं, वे कल गाली
देने लगते
हैं।
असल
में जिसने भी
ताली बजायी, वह गाली
देगा ही। वह
बदला लेगा। जब
ताली बजायी
थी तो वह कोई प्रसन्नता
में नहीं बजा
रहा था। लोग
दूसरों से
अपने लिए ताली
बजवाना चाहते
हैं, तब
प्रसन्न होते
हैं। तुम भी
जब कोई ताली
तुम्हारे लिए
बजाता है तब
तुम प्रसन्न
होते हो। जब
तुम्हें बजानी
पड़ती है, तुम
मजबूरी में
बजाते हो।
शायद इस आशा
में बजाते हो
कि हम दूसरों
के लिए बजाएंगे,
तो दूसरे
हमारे लिए बजाएंगे।
चलो अभी
हम तुम्हारे
लिए बजाए
देते हैं, कल
तुम हमारे लिए
बजा देना। ऐसा
पारस्परिक लेन-देन
चलता है। हम
तुम्हारी
प्रशंसा कर
देते हैं, तुम
हमारी कर
देना। लेकिन
कौन किसी
दूसरे के सुख
के लिए चेष्टा
कर रहा है? लोग
अपने सुख की
चेष्टा कर रहे
हैं।
इसलिए
जो आदमी भी
तुम्हारी
प्रशंसा
करेगा, वह
कभी न कभी
बदला लेगा।
उसके भीतर
कांटा गड़ता
ही रहेगा कि
प्रशंसा करनी
पड़ी। देखेंगे
किसी उचित समय
पर, जब
हमारा हाथ ऊपर
होगा और
तुम्हारा
नीचे होगा।
यहां कौन अपना
है? इस
जिंदगी का कुल
हिसाब इतना है--
कुछ
हसीं
ख्वाब और कुछ
आंसू
उम्र
भर की यही
कमाई है
कुछ
सुंदर सपने और
कुछ आंसू, उम्रभर की
यही कमाई है।
सपने देखते रहो, सपनों
को संजोते
रहो और
टूटे सपनों के
लिए रोते रहो। इधर
टूटे सपने
इकट्ठे होते
जाते हैं, तुम
नए सपने देखते
रहो।
अतीत
तुम्हारा
आंसू बनता
जाता है, भविष्य
हसीन ख्वाब।
बस, इन
दोनों के बीच
में तुम जीते
हो। कल जो बीत
गया कुछ भी
पाया नहीं, रेगिस्तान
हो गया। आने
वाले कल में
तुम मरूद्यान
बसाए हो, वह भी कल
बीता जाता है।
वह भी आज हो
गया, वह भी
कल हो
जाएगा--वह भी
जा रहा है।
मरते वक्त तुम
पाओगे, पूरा जीवन
एक रेगिस्तान
की यात्रा
थी--लंबी, थकान
भरी, धूल-धवांस
भरी। हार, संताप,
चिंता सब था,
लेकिन और
कुछ हाथ न
लगा। धूल हाथ
लगी।
कुछ
अपना नहीं हो
पाता। और जो
अपना नहीं है, वह सार नहीं
हो सकता। सार
तो वही है जो
तुम्हारा हो
जाए, तुम्हारे
भीतर हो जाए, और कभी तुमसे
अलग न हो। जो
तुम्हारी
सत्ता बन जाए,
तुम्हारा
अस्तित्व बन
जाए। सार की
हमारी परिभाषा
यही है। असार
वही है, जो तुमसे
बाहर रहे। आज
तुम्हारा है,
कल पराया हो
जाए। हो ही
जाएगा। कल
किसी और का था।
कोई घर यहां
मकान नहीं है।
सभी सराय हैं।
कल कोई और
ठहरा था, आज
तुम ठहरे
हो, कल कोई
और ठहर जाएगा।
दुनिया
का एतबार करें
भी तो क्या
करें
आंसू
तो अपनी आंख
का अपना हुआ
नहीं
अपनी
आंख का आंसू
भी यहां अपना
नहीं होता, और अपना
क्या हो सकता
है? जिनको
हम अपना कहते
हैं वे भी
अपने नहीं
हैं। अपने
अतिरिक्त
अपना यहां कुछ
भी नहीं।
स्वयं के अतिरिक्त
और कोई
संपत्ति नहीं
है।
इसलिए
जिसने जीवन को
स्वयं की खोज
में लगाया है; उसने ही सार
की खोज में
लगाया है। और
जो और कुछ भी
खोज रहा हो
स्वयं को छोड़कर,
वह चाहे
सारी पृथ्वी
की संपदा पा
ले, सारा
साम्राज्य पा
ले, आखिर
में पाएगा हाथ
खाली हैं।
हृदय एक रोता
हुआ भिखारी का
पात्र है, जिसमें
कुछ भी न पड़ा।
और जीवन ऐसे
ही गया।
जो
जितनी जल्दी
जाग जाए उतना
समझदार है।
बुद्धि की और
प्रतिभा की
यही कसौटी है
कि कितनी जल्दी
तुम जागे। और
थोड़े ही कोई बुद्धिमाप
है। पश्चिम
में बुद्धिमाप
को नापने का
ढंग है वह
बहुत सस्ता
है। हमने पूरब
में एक अलग
ढंग निकाला
था। हम आदमी
की प्रतिभा इस
बात से मापते
थे कि कितनी
जल्दी उसने
पहचाना कि
असार असार
है और सार सार
है। कितनी
जल्दी? जो
जितनी जल्दी
पहचान लिया, उतना ही
प्रतिभाशाली
है। जो मरते
दम तक नहीं पहचान
पाता, जो
आखिरी घड़ी
आ जाती है और
कहे चला जाता
है--
गो हाथ
को जुंबिश
नहीं आंखों
में तो दम है
रहने
दे अभी
सागर-ओ-मीना
मेरे आगे
वह
प्रतिभाहीन
है। वह मूढ़
है। उसमें कोई
समझ नहीं है।
वह कितना ही
समझदार हो
दुनिया की नजरों
में, वह अपने
ही भीतर अनुभव
करेगा कि उस
समझदारी से
उसने दूसरों
को धोखा भले
दिया हो, अस्तित्व
को धोखा नहीं
दे पाया।
अस्तित्व के सामने
तो वह नंगा
भिखारी ही
रहेगा।
'जो
सार को सार
जानते हैं और
असार को असार,
वे ही सम्यक
संकल्प के
भाजन लोग सार
को प्राप्त
होते हैं।'
पहचान, पाने का
पहला कदम है।
हीरा हीरा
समझ में आ जाए
तो खोज शुरू
होती है।
पत्थर पत्थर
समझ में आ जाए,
तो छोड़ना
शुरू हो गया, छूट ही गया।
ठीक को पहचान
लेना, महावीर
ने सम्यक
ज्ञान कहा है।
शंकर ने विवेक
कहा है। सम्यक
दृष्टि। ठीक
से देख लेना, क्या अपना
हो सकता है।
अपने
अतिरिक्त और
कुछ अपना नहीं
हो सकता है।
इसलिए वही
खोजने योग्य है।
जीसस
ने कहा है, तुम सारे
संसार को पा
लो और खुद को
गंवा दो, तो
तुमने कुछ भी
नहीं पाया। और
तुम खुद को पा
लो और सारा
संसार गंवा दो,
तो तुमने
कुछ भी नहीं
गंवाया। जो
अपना नहीं था,
वह अपना था
ही नहीं। जो
अपना था, वही
अपना है।
'जिस
तरह ठीक
प्रकार से न छाए हुए घर
में वर्षा का
पानी घुस जाता
है, उसी
प्रकार
ध्यान-भावना
से रहित चित्त
में राग घुस
जाता है।'
'जिस
प्रकार ठीक से
छाए हुए
घर में वर्षा
का पानी नहीं
घुस पाता है, उसी प्रकार
ध्यान-भावना
से युक्त
चित्त में राग
नहीं घुस पाता
है।'
राग को
तुम छोड़ न पाओगे।
ध्यान को
जगाना पड़ेगा।
इतनी पहचान
पहले तुम्हें
आ जाए कि क्या
व्यर्थ है और
क्या सार्थक
है, फिर तुम
ध्यान को जगाओ।
फिर राग को
छोड़ने में मत
लग जाना।
क्योंकि वह
भूल बहुतों ने
की है। राग को पकड़ो, तो
भी राग से उलझे
रहोगे; राग को छोड़ो,
तो भी राग
से उलझे रहोगे।
असली सवाल राग
का नहीं है।
तो
बुद्ध बड़ा ठीक
उदाहरण दे रहे
हैं। सीधा, सरल; कि
ठीक से घर के
छप्पर पर
इंतजाम न किया
गया हो, खपड़ेल ठीक से न
छायी हो, तो
वर्षा का पानी
घुस जाता है।
फिर ठीक से
आच्छादित हो
घर, खपड़ेल ठीक से
साज-संवार कर
रखी गयी हो, वर्षा का
पानी नहीं घुस
पाता। ध्यान
से छायी हुई
आत्मा में राग
प्रवेश नहीं
करता। राग घुस
रहा है तो
इसका इतना ही
संकेत समझना
कि आत्मा पर
ठीक से छावन
नहीं की गयी
है, ध्यान
का छप्पर छेद
वाला है।
इसलिए
राग को छोड़ने
की फिक्र मत
करना। वह तो ऐसा
ही होगा कि
ठीक से घर
छाया हुआ नहीं
है, वर्षा आ
गयी, आषाढ़ के
मेघ घिर
गए, पानी बरसने लगा
और तुम घर का
पानी उलीचने
में लगे हो।
तुम उलीचते रहो पानी, इससे कोई
फर्क न पड़ेगा।
क्योंकि घर का
छप्पर नए पानी
को लिए आ रहा
है। राग को उलीचने
से कुछ भी न
होगा। छप्पर
को ठीक से छा
लेना जरूरी
है।
इसलिए
समस्त प्रज्ञावान
पुरुषों का जोर
ध्यान पर है।
और जो महात्मा
तुम्हें साधारणतया
समझाते हैं कि
राग छोड़ो, गलत समझाते
हैं। वे तुमसे
कह रहे हैं, पानी उलीचो।
नाव में छेद
है, वे
कहते हैं, पानी
उलीचो।
पर तुम पानी
उलीचते रहो,
नाव का छेद
नया पानी भीतर
ला रहा है।
पानी तो उलीचो
जरूर, पहले
छेद को बंद
करो। फिर पानी
को उलीचने
में कोई
कठिनाई न
होगी। छप्पर
को छा दो, फिर जो थोड़ा-
बहुत पानी बचा
रह गया है, उसे
बाहर कर देने
में क्या अड़चन
होने वाली है?
ध्यान जो
साध लेता है, उसका राग
अपने आप मिट
जाता है। राग
से जो लड़ता
है, उसका
राग तो मिटता
ही नहीं, ध्यान
भी सधना
मुश्किल हो
जाता है।
मेरे
पास रोज लोग
आते हैं। वे
कहते हैं, किसी तरह
क्रोध चला
जाए। मैं उनसे
कहता हूं, तुम
क्रोध की फिकर
मत करो, तुम
ध्यान करो। वे
कहते हैं, ध्यान
से क्या होगा?
आप तो हमें
क्रोध छोड़ने
की तरकीब बता
दें। ऐसे लोग
भी आ जाते हैं,
वे कहते हैं,
हमें ध्यान-व्यान से
कुछ लेना-देना
नहीं; हमारा
तो मन अशांत
है, यह भर
शांत हो जाए।
अब वे क्या कह
रहे हैं, उन्हें
पता नहीं!
अभी
चार दिन पहले
एक वृद्ध
सज्जन ने कहा
कि मुझे कुछ
नहीं चाहिए।
बस मेरे मन
में चिंता
सवार रहती है, सो नहीं
सकता ठीक से, कंपता रहता
हूं, डरता
रहता हूं, बस
यह मेरा मिट
जाए। न मुझे
मोक्ष चाहिए,
न मुझे
आत्मा के
ज्ञान का कुछ
लेना-देना है,
न मुझे
भगवान का कोई
प्रयोजन है, बस मेरी
चिंता मिट
जाए। अब यह
आदमी यह कह
रहा है कि यह
जो वर्षा का
पानी घर में
भर गया है, यह
भर न भरे।
मुझे खप्पर छाने नहीं;
मुझे मोक्ष,
परमात्मा, आत्मा से
कुछ लेना-देना
नहीं।
अब कुछ
भी नहीं किया
जा सकता।
क्योंकि यह
समझ ही नहीं
रहा है कि
बीमारी कहां
है।
धन
छोड़ने में मत
लगना, ध्यान
को पाने में
लगना।
क्योंकि
छोड़ने में जो
शक्ति लगाओगे
उतनी ही शक्ति
से ध्यान पाया
जा सकता है।
मुफ्त तो
छोड़ना भी नहीं
होता, उसमें
भी ताकत लगानी
पड़ती है। वह
ताकत व्यर्थ
गंवा रहे हो
तुम। पहला काम
है, घर के
छप्पर को ठीक
से छा लो।
जीवन
का एक आधारभूत
नियम, एक
सारभूत नियम
कि गलत को
छोड़ने में मत
लगना, ठीक
को पाने में
लगना। अंधेरे
को हटाने में
मत लगना, दीए को
जलाने में
लगना। एस धम्मो सनंतनो।
यही सनातन
धर्म है।
आज
इतना ही।
thank you guruji
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