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सोमवार, 5 सितंबर 2016

एस धम्‍मो सनंतनो--(प्रवचन--17)

प्रार्थना स्वयं मंजिल—(प्रवचन—सत्रहवां)

सारसूत्र:

 न परेस विलोमनि न परेस कताकतं।
अत्‍तनो वअवेक्‍खेय्य कतानि अकतानि च।।44।।

यथापि रूचिरं पुष्‍फं वण्‍णवंतं अगंधकं।
एवं सुभाषिता वाचा अफला होति अकुब्‍बतो।।45।।

यथापि रूचिरं पप्‍फं वण्‍णवंतं सगंधकं।
एवं सुभाषिता वाचा सफला होती कुब्‍बतो।।46।।

यथापि पुप्‍फरासिम्‍हा कयिरा मालागुणे बहु।
एवं जातेन मच्‍चेन कत्‍तव्‍वं कुसलं।।47।।

न पुप्‍फगंधो पटिवातमेति न चंदनं तगरं मल्‍लिका वा।
सतज्‍व गंधो पटिवातमेति सब्‍बा दिसा सप्‍पुरिसो पवाति।।48।।


दिल है कदमों पर किसी के सर झुका हो या न हो
      बंदगी तो अपनी फितरत है खुदा हो या न हो
      बुद्ध ने जगत को एक धर्म दिया, मनुष्य को एक दिशा दी, जहां प्रार्थना परमात्मा से बड़ी है, जहां मनुष्य का हृदय-पूजा-अर्चना से भरा-परमात्मा से बड़ा है। असली सवाल इसका नहीं है कि परमात्मा हो। असली सवाल इसका है कि मनुष्य का हृदय प्रार्थना से भरा हो। प्रार्थना में ही मिल जाएगा वह जिसकी तलाश है। और प्रार्थना मनुष्य का स्वभाव कैसे हो जाए!
      परमात्मा हुआ और फिर तुमने प्रार्थना की, तो प्रार्थना की ही नहीं। रिश्वत हो गई। परमात्मा हुआ और तुम झुके, तो तुम झुके ही नहीं। कोई झुकाने वाला हुआ तब झुके, तो तुम नहीं झुके। झुकाने वाले की सामर्थ्य रही होगी, शक्ति रही होगी। लेकिन कोई परमात्मा न हो और तुम झुके, तो झुकना तुम्हारा स्वभाव हो गया। बुद्ध ने धर्म को परमात्मा से मुक्त कर दिया। और धर्म से परमात्मा का संबंध न रह जाए तो धर्म अपने ऊंचे से ऊंचे शिखर को पाता है। इसलिए नहीं कि परमात्मा नहीं है, बल्कि इसलिए कि परमात्मा के बिना झुकना आ जाए तो झुकना आ गया। इसे थोड़ा समझने की फिक्र करो।
      तुम जाते हो और झुकते हो। झुकने के पहले पूछते हो, परमात्मा है? अगर है तो झुकोगे। परमात्मा के सामने झुकते हो तो इसीलिए कि कुछ लाभ, कुछ लोभ, कुछ भय, कुछ भविष्य की आकांक्षा-कोई महत्वाकांक्षा काम कर रही है। परमात्मा कुछ दे सकता है इसलिए झुकते हो। लेकिन झुकना तुम्हारी फितरत नहीं, तुम्हारा स्वभाव नहीं। बेमन से झुकते हो। अगर परमात्मा कुछ न दे सकता हो, तो तुम झुकोगे? अगर झुकने में और परमात्मा तुमसे छीन लेता हो, तो तुम झुकोगे? झुकने में हर्ग़ने हो जाती हो, तो तुम झुकोगे? झुकना स्वार्थ है। स्वार्थ से जो झुका, वह कैसा झुका? वह तो सौदा हुआ, व्यवसाय हुआ।
      ऐसे तो तुम संसार में भी झुकते हो। जिनके हाथ में ताकत है उनके चरणों में झुकते हो। जिनके पास धन है, पद है, उनके चरणों में झुकते हो। तो तुम्हारा परमात्मा शक्ति का ही विस्तार हुआ, धन और पद का ही विस्तार हुआ। इसीलिए तो लोगों ने परमात्मा को ईश्वर का नाम दिया है। ईश्वर यानी ऐश्वर्य। ऐश्वर्य के सामने झुकते हो। ईश्वर को परमपद कहा है। उससे ऊपर कोई पद नहीं। पद के सामने झुकते हो। तो यह राजनीति हुई, धर्म न हुआ। और इसके पीछे लोभ होगा, भय होगा। प्रार्थना कहां?
दिल है कदमों पर किसी के सर झुका हो या न हो
      और ध्यान रखना, जो किसी मतलब से झुकेगा, उसका सिर झुकेगा दिल नहीं, क्योंकि दिल हिसाब जानता नहीं। उसकी खोपड़ी झुकेगी, हृदय नहीं, क्योंकि हृदय
तो बिना हिसाब झुकता है। हृदय तो कभी उनके सामने झुक जाता है जिनके पास न कोई शक्ति थी, न कोई पद था, न कोई ऐश्वर्य था। हृदय तो कभी भिखारियों के सामने भी झुक जाता है। सिर नहीं झुकता भिखारियों के सामने। वह सदा सम्राटों के सामने झुकता है। हृदय तो कभी फूलों के सामने झुक जाता है। कोई शक्ति नहीं, कोई सामर्थ्य नहीं। क्षणभर हैं, फिर विदा हो जाएंगे। हृदय तो कमजोर के सामने और नाजुक के सामने भी झुक जाता है। सिर नहीं झुकता।
      सिर है मनुष्य का अहंकार। हृदय यानी मनुष्य का प्रेम।
      दिल है कदमों पर किसी के सर झुका हो या न हो
      दिल किसी के कदमों पर हो, काफी है। सर न झुका, चल जाएगा। झुक गया, ठीक। दिल के पीछे चला, ठीक। दिल की छाया बना, ठीक। दिल का साथ रहा, ठीक। न झुका, चल जाएगा। क्योंकि सिर के झुकने से कुछ भी संबंध नहीं है। तुम झुकने चाहिए। तुम्हारा वास हृदय में है-जहा तुम्हारा प्रेम है वहां। सिर झुकता है भय से। हृदय झुकता है प्रेम से। प्रेम और भय का मिलन कहीं भी नहीं होता।
      इसलिए अगर तुम भगवान के सामने झुके हो कि भय था, डरे थे, तो सिर ही झुकेगा। और अगर तुम इसलिए झुके हो कि प्रेम का पूर आया, बाढ़ आई-क्या करोगे इस बाढ़ का? कहीं तो इसे बहाना होगा। कहीं तो उलीचना होगा। कूल-किनारे तोड़कर तुम्हारी इबादत बहने लगी। तुम्हारी प्रार्थना की बाढ़ आ गई-तब तुम्हारा हृदय झुकता है।
      दिल है कदमों पर किसी के सर झुका हो या ने हो
      बंदगी तो अपनी फितरत है खुदा हो या न हो
      और फिर कौन फिक्र करता है कि परमात्मा है या नहीं। बंदगी अपनी फितरत है। फिर तो स्वभाव है प्रार्थना। बहुत कठिन है यह बात समझनी। प्रेम स्वभाव होना चाहिए। प्रेमपात्र की बात ही मत पूछो। तुम कहते हो, जब प्रेमपात्र होगा तब हम प्रेम करेंगे। अगर तुम्हारे भीतर प्रेम ही नहीं तो प्रेमपात्र के होने पर भी तुम कैसे प्रेम करोगे? जो तुम्हारे भीतर नहीं है, वह प्रेमपात्र की मौजूदगी पैदा न कर पाएगी। और जो तुम्हारे भीतर है, प्रेमपात्र न भी हो तो भी तुम उसे गवांओगे कहो, खोओगे कहां?
      इसे ऐसा समझो। जो कहता है, परमात्मा हो तो हम प्रार्थना करेंगे, वह आस्तिक नहीं, नास्तिक है। जो कहता है, प्रेम है, हम तो प्रेम करेंगे, वह आस्तिक है। वह जहा उसकी नजर पड़ेगी वहां हजार परमात्मा पैदा हो जाएंगे। प्रेम से भरी हुई आंख जहा पड़ेगी वहीं मंदिर निर्मित हो जाएंगे। जहां प्रेम से भरा हुआ हृदय धड़केगा, वहीं एक और नया काबा बन जाएगा, एक नई काशी पैदा होगी। क्योंकि जहा प्रेम है, वहां परमात्मा प्रगट हो जाता है।
प्रेम भरी आंख कण-कण में परमात्मा को देख लेती है। और तुम कहते हो, पहले परमात्मा हो तब हम प्रेम करेंगे। तो तुम्हारा प्रेम खुशामद होगी। तुम्हारा प्रेम-प्रेम न होगा, सिर का झुकना होगा-हृदय का बहना नहीं।
      असली सवाल प्रेमपात्र का नहीं है, असली सवाल प्रेमपूर्ण हृदय का है। बुद्ध ने इस बात पर बड़ा अदभुत जोर दिया। इसलिए बुद्ध ने परमात्मा की बात नहीं की। और जितने लोगों को परमात्मा का दर्शन कराया, उतना किसी दूसरे व्यक्ति ने कभी नहीं कराया। ईश्वर को चर्चा के बाहर छोड़ दिया और लाखों लोगों को ईश्वरत्व दिया। भगवान की बात ही न की और संसार में भगवत्ता की बाढ़ ला दी। इसलिए बुद्ध जैसा अदभुत पुरुष मनुष्य के इतिहास में कभी हुआ नहीं। बात ही न उठाई परमात्मा की और न मालूम कितने हृदयों को झुका दिया।
      और ध्यान रखना, बुद्ध के साथ सिर को झुकने का तो सवाल ही न रहा। न कोई भय का कारण है, न कोई परमात्मा है, न डरने की कोई वजह है। न परमात्मा से पाने का कोई लोभ है। मौज से झुकना है, आनंद से झुकना है। अपने ही अहोभाव से झुकना है, अनुग्रह से झुकना है।
जब वृक्ष लद जाता है फलों से तो झुक जाता है। इसलिए नहीं कि फलों को तोड़ने वाले पास आ रहे हैं। अपने भीतरी कारण से झुक जाता है। फल को खाने वाले पास आ रहे हैं इसलिए नहीं झुकता। अपने भीतर के ही अपूर्व बोझ से झुक जाता है। भक्त भगवान के कारण नहीं झुकता। अपने भीतर हृदय के बोझ के कारण झुक जाता है। फल पक गए, शाखाएं झुकने लगीं।
 बंदगी तो अपनी फितरत है खुदा हो या न हो
      बुद्ध का जोर प्रार्थना पर है, परमात्मा पर नहीं। और परमात्मा को काट देने से, बीच में न लेने से, बुद्ध का धर्म बहुत वैज्ञानिक हो गया। तब शुद्ध आंतरिक क्रांति की बात रह गई। ये सूत्र आंतरिक क्रांति के सूत्र हैं। समझने की कोशिश करो।
      'दूसरों के दोष पर ध्यान न दे, दूसरों के कृत्य-अकृत्य को नहीं देखे, केवल अपने कृत्य-अकृत्य का अवलोकन करे।'
      जिसकी नजर परमात्मा पर है उसकी नजर दूसरे पर है। जिसने परमात्मा को बाहर देखा, वह शैतान को भी बाहर देखेगा। इसे थोड़ा समझना। थोड़ा बारीक है। पकड़ोगे तो बहुत काम आ जाएगा सूत्र। अगर तुमने परमात्मा को बाहर देखा, तो शैतान को कहां देखोगे? उसे भी तुम बाहर देखोगे। तुम्हारे बाहर देखने का ढंग हर चीज को बाहर देखेगा। तब तुम्हारी नजर दूसरों के आचरण में अटकी रहेगी।
      इसलिए तथाकथित धार्मिक आदमी सदा दूसरों के कृत्य-अकृत्य का विचार करते रहते हैं। दूसरे की आलोचना में लीन रहते हैं। कौन ने बुरा किया, किसने भला किया। कौन मंदिर गया, कौन नहीं गया। दूसरा ही उनके चिंतन में प्रभावी रहता है। इसलिए धार्मिक जिनको तुम कहते हो, उन्हें अपने को छोड़कर सारे जगत की फिक्र बनी रहती है-कौन पाप कर रहा है, कौन पुण्य कर रहा है। कौन नर्क जाएगा, कौन स्वर्ग जाएगा।
      बुद्ध कहते हैं, तुम सिर्फ अपनी ही चिंता करना। तुम्हारे ऊपर तुम्हारे अतिरिक्त और किसी का दायित्व नहीं है। अगर तुम उत्तरदायी हो, तो सिर्फ अपने लिए। अगर अस्तित्व तुमसे पूछेगा, तो सिर्फ तुम्हारे लिए। तुम्हें जो जीवन का अवसर मिला है, उस अवसर में तुमने क्या कमाया, क्या गंवाया? तुम्हें जो जीवन के क्षण मिले, उन्हें तुमने खाली ही फेंक दिया या जीवन के अमरस से भर लिया? तुम्हारे जो कदम पड़े जीवन की राह पर, वे मंजिल की तरफ पड़े या मंजिल से दूर गए? तुमसे और कुछ भी नहीं पूछा जा सकता, तुम किसी और के लिए जिम्मेवार भी नहीं हो। अपनी ही जिम्मेवारी पर्याप्त है।
      'दूसरों के दोष पर ध्यान न दे।'
      और ध्यान रखना, जो दूसरों के दोष पर ध्यान देता है वह अपने दोषों के प्रति अंधा हो जाता है। ध्यान तुम या तो अपने दोषों की तरफ दे सकते हो, या दूसरों के दोषों की तरफ दे सकते हो, दोनों एक साथ न चलेगा। क्योंकि जिसकी नजर दूसरों के दोष देखने लगती है, वह अपनी ही नजर की ओट में पड़ जाता है। जब तुम दूसरे पर ध्यान देते हो, तो तुम अपने को भूल जाते हो। तुम छाया में पड़ जाते हो।
      और एक समझ लेने की बात है, कि जब तुम दूसरों के दोष देखोगे तो दूसरों के दोष को बड़ा करके देखने की मन की आकांक्षा होती है। इससे ज्यादा रस और कुछ भी नहीं मिलता कि दूसरे तुमसे ज्यादा पापी हैं, तुमसे ज्यादा बुरे हैं, तुमसे ज्यादा अंधकारपूर्ण हैं। इससे अहंकार को बड़ी तृप्ति मिलती है कि मैं बिलकुल ठीक हूं दूसरे गलत हैं। बिना ठीक हुए अगर तुम ठीक होने का मजा लेना चाहते हो, तो दूसरों के दोष गिनना। और जब तुम दूसरों के दोष गिनोगे तो तुम स्वभावत: उन्हें बड़ा करके गिनोगे। तुम एक यंत्र बन जाते हो, जिससे हर चीज दूसरे की बड़ी होकर दिखाई पड़ने लगती है।
      और जो दूसरे के दोष बड़े करके देखता है, वह अपने दोष या तो छोटे करके देखता है, या देखता ही नहीं। अगर तुमसे कोई भूल होती है, तो तुम कहते हो मजबूरी थी। वही भूल दूसरे से होती है तो तुम कहते हो पाप। अगर तुम भूखे थे और तुमने चोरी कर ली, तो तुम कहते हो, मैं करता क्या, भूख बड़ी थी! लेकिन दूसरा अगर भूख में चोरी कर लेता है, तो चोरी है। तो भूख का तुम्हें स्मरण भी नहीं आता।
      जो तुम करते हो, उसके लिए तुम तर्क खोज लेते हो। जो दूसरा करता है, उसके लिए तुम कभी कोई तर्क नहीं खोजते। तो धीरे-धीरे दूसरे के दोष तो बड़े होकर दिखाई पड़ने लगते हैं, और तुम्हारे दोष उनकी तुलना में छोटे होने लगते हैं। एक ऐसी घड़ी आती है दुर्भाग्य की जब दूसरे के दोष तो आकाश छूने लगते है, -गगनचुंबी हो जाते हैं-तुम्हारे दोष तिरोहित हो जाते हैं। तुम बिना अच्छे हुए अच्छे होने का मजा लेने लगते हो। यही तो तथाकथित धार्मिक की दुर्भाग्य की अवस्था है।
      जिसने दूसरों के पाप देखे, वह अपने पुण्य गिनता है। चोरी तुम हजार रुपए की करो तो तुम भुला देते हो। दान तुम एक पैसे का दो तो तुम याद रखते हो। एक पैसे का दान भी बहुत बड़ा मालूम पड़ता है। हजार रुपए की चोरी भी छोटी मालूम पड़ती है। शायद हजार रुपए की चोरी करके, तुम एक पैसे का दान देकर उसका निपटारा कर लेना चाहते हो।
      थोड़ा सोचो, धार्मिक लोगों ने कैसी-कैसी तरकीबें निकाली हैं। पाप करते हैं गंगा में स्नान कर आते हैं। अब गंगा में स्नान करने का और पाप के मिटने से क्या संबंध हो सकता है! दूर का भी कोई संबंध नहीं हो सकता। गंगा का कसूर क्या है, पाप तुमने किया! और ऐसे अगर गंगा धो-धोकर सबके पाप लेती रही, तो गंगा के लिए तो नर्क में भी जगह न मिलेगी। इतने पाप इकट्ठे हो गए होंगे! और अगर इतना ही आसान हो-पाप तुम करो, गंगा में डुबकी लगा आओ और पाप हल हो जाएं-तब तो पाप करने में बुराई ही कहा रही? सिर्फ गंगा तक आने-जाने का श्रम है। तो जो गंगा के किनारे ही रह रहे हैं, उनका तो फिर कहना ही क्या!
      तुमने तीर्थ बना लिए। तुमने छोटे-छोटे पुण्य की तरकीबें बना लीं, ताकि बड़े-बड़े पापों को तुम झुठला दो, भुला दो। छोटा-मोटा अच्छा काम कर लेते हो, अस्पताल को दान दे देते हो-दान उसी चोरी में से देते हो जिसका प्रायश्चित्त कर रहे हो-लाख की चोरी करते हो, दस रुपया दान देते हो। लेकिन लाख की चोरी को दस रुपए के दान में ढांक लेना चाहते हो! तुम किसे धोखा दे रहे हो?
      या, इतना भी नहीं करता कोई। रोज सुबह बैठकर पांच-दस मिनट माला जप लेता है। माला के गुरिए सरका लेता है, सोचता है हल हो गया। या राम-राम जप लेता है। या रामनाम छपी चदरिया ओढ़ लेता है। सोचता है मामला हल हो गया। जैसे राम पर कुछ एहसान हो गया। अब राम समझें! चदरिया ओढ़ी थी। कहने को अपने पास बात हो गई। मंदिर गए थे, हिसाब रख लिया है।
      जीवन अंधेरे से भरा रहे और प्रकाश की ज्योति भी नहीं जलती! सिर्फ अंधेरी दीवालों पर तुम प्रकाश शब्द लिख देते हो, या दीए के चित्र टल देते हो। प्यास लगी हो तो पानी शब्द से नहीं बुझती। अंधेरा हो तो दीए शब्द से नहीं मिटता।
      मंजरे-तस्वीर दर्दे-दिल मिटा सकता नहीं
      आईना पानी तो रखता है पिला सकता नहीं
      तुम अगर सिर्फ तस्वीर का अवलोकन करते रहो-
      मंजरे-तस्वीर दर्दे-दिल मिटा सकता नहीं
      तो तुम्हारे दिल की पीड़ा न मिटेगी तस्वीरों के देखने से। प्रेमी की तस्वीर लिए बैठे रहो, इससे कहीं कोई प्रेमी मिला है?
      आईना पानी तो रखता है पिला सकता नहीं
      आईने में कैसी पानी की झलक है, पर उससे तुम्हारी प्यास न बुझेगी। शास्त्र
शब्द दे सकते हैं, सत्य नहीं। अंधेरे की दीवालों पर बनाई गई दीए की तस्वीरें धोखा दे सकती हैं, रोशनी नहीं।
      और जो व्यक्ति दूसरों के दोष पर ध्यान देता है, वह अपने दोष पर तो ध्यान देता नहीं, जो छोटे-मोटे. जिनको तुम पुण्य कहते हो, जिनको पुण्य कहना फिजूल ही है। जिनको पुण्य केवल नासमझ कह सकते हैं, जो तुम्हारे पाप के ही सजावटों से ज्यादा नहीं है, पाप का ही श्रृंगार है जो, पाप के ही माथे पर लगी बिंदी है, पाप के ही हाथों में पड़ी चूड़ी है, पाप के ही पैरों में बंधे अर हैं, उन्हें तुम पुण्य कहते हो। उनका हिसाब रखते हो!
      बुद्ध ने कहा, छोड़ो यह बात। दूसरों के दोष रार ध्यान न दो। उससे तुम्हारा कोई प्रयोजन नहीं है। तुम्हारा प्रयोजन केवल तुमसे है। दूसरों के कृत्य-अकृत्य मत देखो। केवल अपने कृत्य-अकृत्य का अवलोकन करो। सिर्फ अपना ही आब्जर्वेशन, अवलोकन।
यह शब्द समझ लेने जैसा है-अवलोकन। अवलोकन बुद्ध की प्रक्रिया है जीवन के अंधकार से मुक्त होने के लिए। बुद्ध यह नहीं कहते हैं कि तुम अपने पाप को देखो और दुखी होओ, पश्चात्ताप करो कि मैं पापी हूं। और न बुद्ध कहते हैं, तम अपने पुण्य को देखो और बड़े फूले न समाओ और उछलकर चलो कि मैं बड़ा पुण्यात्मा हूं। बुद्ध कहते हैं, तुम अवलोकन करो।
      अवलोकन का अर्थ होता है, तटस्थ दर्शन। बिना किसी निर्णय के। न यह कहना कि ठीक; न यह कहना कि बुरा, न भला; न पाप, न पुण्य। तुम कोई निर्णय मत लेना। तुम कोई मूल्यांकन मत करना। तुम सिर्फ देखना। जैसे कोई आदमी रास्ते के किनारे खड़ा हो जाए, भीड़ चलती है, देखता है। अच्छे लोग निकलते हैं, बुरे लोग निकलते हैं, उसे कुछ प्रयोजन नहीं। साधु निकलते हैं, असाधु निकलते हैं, प्रयोजन नहीं। या जैसे कोई लेट गया है घास पर क्षण भर, आकाश में चलते बादलों को देखता है। उनके रूप-रंग अलग-अलग। काले बादल हैं, शुभ्र बादल हैं, कोई हिसाब नहीं रखता, चुपचाप देखता रहता है।
      अवलोकन का अर्थ है, एक वैज्ञानिक दृष्टि। तटस्थ-भाव। मात्र देखने पर 'यान रखो। जोर देखने पर है। जो तुम देख रहे हो उसके निर्णय करने पर नहीं कि वह ठीक है या गलत। तुम न्यायाधीश मत बनो। तुम तराजू लेकर तौलने मत लगो। तुम मात्र द्रष्टा रहो। जिसको उपनिषद साक्षी कहते हैं, उसी को बुद्ध अवलोकन कहते हैं। बस देखो। जैसे अपना कुछ लेना-देना नहीं। एक तटस्थ- भाव। एक फासले पर खड़े हुए चुपचाप। और एक अदभुत क्रांति घटती है। जितने तुम तटस्थ होते जाते हो, उतना ही तुम्हें पता चलता है कि तुम अपने कृत्यों से अलग हो। पाप मै भी अलग, पुण्य से भी अलग। और यह जो अलगपन है इसी का नाम मुक्ति है, मोक्ष है।
      जो पाप के साथ अपने को एक समझता है, वह भ्रांति में है। जो पुण्य के साथ अपने को एक समझता है, वह भी भ्रांति में है। उसने कृत्य के साथ अपने को एक समझ लिया। उसने अपने को कर्ता समझ लिया।
अवलोकन करने वाला इस नतीजे पर आता है कि मैं केवल द्रष्टा हूं, कर्ता नहीं। फिर पाप और पुण्य दोनों ही मिट जाते हैं। जैसे स्वप्न में किए हों कभी। जैसे किसी उपन्यास में पढ़े हों कभी। जैसे कभी अफवाह सुनी हो। स्वयं से उनका कोई संबंध नहीं रह जाता। यही शुद्ध बुद्धत्व है। कभी-कभी तुम्हें भी अचानक क्षणभर को इसकी झलक मिल जाएगी; और क्षणभर को भी बिजली कौंध जाए तो जिंदगी फिर वही नहीं होती  जो पहले थी। अवलोकन करो।
      तुम जमाने की राह से आए
      वरना सीधा था रास्ता दिल का
      दूसरों के संबंध में सोचते-विचारते, बाजार में भटकते, संसार की लंबी परिक्रमा करते अपने तक आए।
      तुम जमाने की राह से आए
      वरना सीधा था रास्ता दिल का
      अन्यथा जरा गर्दन झुकाने की बात थी। अवलोकन से तुम सीधे स्वयं में पहुंच जाओगे। हा, दूसरे के कृत्य-अकृत्य का विचार करते रहे, तो बड़ी परिक्रमा है, अनंत परिक्रमा है। अनंत जन्मों तक भी तुम यह विचार चुकता न कर पाओगे। कितने हैं दूसरे? किस-किस का हिसाब करोगे? किस-किस के लिए रोओगे, हंसोगे? किसकी प्रशंसा, किसकी निंदा करोगे? अगर ऐसे तुम चल पड़े.।
      मैंने सुना है कि एक आदमी भागा जा रहा था। राह के पास बैठे आदमी से उसने पूछा कि भाई, दिल्ली कितनी दूर है? उस आदमी ने कहा, जिस तरफ तुम जा रहे हो, बहुत दूर। क्योंकि दिल्ली तुम आठ मील पीछे छोड़ आए हो। अगर इसी रास्ते से जाने की जिद्द हो, तो सारी पृथ्वी की परिक्रमा करके जब आओगे-अगर बच गए-तो दिल्ली पहुंच जाओगे। अगर लौटने की तैयारी हो तो ज्यादा दूर नहीं है। तुम जमाने की राह से आए
      वरना सीधा था रास्ता दिल का
      दिल्ली बिलकुल पीछे है। आठ मील का फासला भी नहीं है। अवलोकन की बात है। निरीक्षण की बात है। जागृति की बात है, अप्रमाद की बात है। जरा होश साधना।
पहली बात, दूसरों का विचार मत करो। अपना ही विचार करने योग्य काफी है। आंख बंद करो, अपने ही कृत्यों को देखो। और अपने कृत्यों के भी निर्णायक मत बनो, अन्यथा अवलोकन समाप्त हो गया। तुम आसक्त हो गए। तुमने कहा यह ठीक है, तो प्रीति बनी। तुमने कहा यह ठीक नहीं, तो अप्रीति बनी। किसी कृत्य से घृणा हुई, किसी कृत्य से प्रेम -हुआ। आसक्ति-अनासक्ति, राग-द्वेष पैदा हुआ, तो कृत्य तो दूर रहे राग-द्वेष के भावजाल में तुम खो गए। बस कृत्य को देखते रहो।
      अगर घड़ीभर भी तुम रोज कृत्य का अवलोकन करते रहो, तो तुम्हें ऐसा ही अनुभव होगा जैसा आत्मा ने स्नान कर लिया। दिनभर उसकी ताजगी रहेगी। और दिनभर रह-रहकर लहरें आती रहेंगी आनंद की। रह-रहकर, रह-रहकर झोंके आ जाएंगे। पुलक आ जाएगी। एक मस्ती छा जाएगी! तुम झूम-झूम उठोगे, किसी भीतरी रस से। और यह जो भीतरी रस है, यह बुद्धि का नहीं है, हृदय का है।
      जब तुम सोचते हो और निर्णय करते हो, बुद्धि सक्रिय हो जाती है। जब तुम मात्र देखते हो, तब हृदय का फूल खिलता है। जैसे ही तुमने निर्णय लेना शुरू किया, बूद्धि बीच में आई। क्योंकि निर्णय विचार का काम है। जैसे ही तुमने तौला,
      आया। तराजू बुद्धि का प्रतीक है। तुमने नहीं तौला, बस देखते रहे, तो बुद्धि को बीच में आने की कोई जरूरत ही न रही। मात्र देखने की अवस्था में, साक्षीभाव में, बूद्धि हट जाती है। और जीवन के जो गहरे रहस्य हैं उन्हें हृदय जानता है।
      अक्ल को क्यों बताएं इश्क का राज
      गैर को सजदा नहीं करते
      और हृदय ने कोई राज प्रेम का, परमात्मा का बुद्धि को कभी बताया नहीं।
      अक्ल को क्यों बताएं इश्क का राज
      गैर को राजदां नहीं करते
      पराए को कहीं कोई भेद की बातें बताता है? बुद्धि पराई है, उधार है। हृदय तुम्हारा है।
      इसे थोड़ा समझो। जब तुम पैदा हुए, तो हृदय लेकर पैदा होते हो। बुद्धि समाज देता है, संस्कार देते हैं, शिक्षा देती है; घर, परिवार, सभ्यता देती है। तो हिंदू के पास। एक तरह की बुद्धि होती है। मुसलमान के पास दूसरे तरह की बुद्धि होती है। जैन के पास तीसरे तरह की बुद्धि होती है। क्योंकि तीनों के संस्कार अलग, शास्त्र अलग, सिद्धात अलग। लेकिन तीनों के पास दिल एक ही होता है। दिल परमात्मा का है। बुद्धियां समाजों की हैं।
      रूस में कोई पैदा होता है, तो उसके पास कम्यूनिस्ट-बुद्धि होगी। ईसाई घर में कोई पैदा होता है, तो उसके पास ईसाई-बुद्धि होगी। बुद्धि तो धूल है बाहर से इकट्ठी की हुई। जैसे हृदय के दर्पण पर धूल जम जाए। दर्पण तो तुम लेकर आते हो, धूल तुम्हें मिलती है।
      इस धूल को झाडू देना जरूरी है। समस्त धर्म की गहनतम प्रक्रिया धूल को झड़ने की प्रक्रिया है, कि दर्पण फिर स्वच्छ हो जाए, तुम फिर से बालक हो जाओ, तुम फिर हृदय में जीने लगो। तुम फिर वहां से देखने लगो जहा से तुमने पहली बार देखा था, जब तुमने आंख खोली थी। तब बीच में कोई बुद्धि न खड़ी थी। तब तुमने सिर्फ देखा था। वह था अवलोकन।
      'जैसे कोई सुंदर फूल वर्णयुक्त होकर भी निर्गंध होता है, वैसे ही आचरण न करने वाले के लिए सुभाषित वाणी निष्फल होती है।
      दूसरा सूत्र। जैसे कोई सुंदर फूल रंग-बिरंगा है बहुत, वर्णयुक्त है, लेकिन फिर भी गंधशून्य। ऐसा ही पांडित्य है। रंग बहुत हैं उसमें, सुगंध बिलकुल नहीं। जीवन में सुगंध तो आती है आचरण से। तुम जो जानते हो उससे जीवन में सुगंध नहीं आती। वह तो मौसमी फूल है। दूर से लुभावना लग सकता है। पास आने पर तुम उसे कागजी पाओगे। आदमी भला धोखे में आ जाए, मधुमक्खियां धोखे में नहीं आती। तितलियां धोखे में नहीं आती। भौरे धोखे में नहीं आते। भौरे धोखे में नहीं आते, तुम परमात्मा को कैसे धोखा दे सकोगे? तितलियां धोखे में नहीं आती, मधुमक्खियां धोखे में नहीं आती, तुम परमात्मा को कैसे धोखा दे सकोगे?
      सम्राट सोलोमन के जीवन में कथा है। एक रानी उसके प्रेम में थी और वह उसकी परीक्षा करना चाहती थी कि सच में वह इतना बुद्धिमानं है जितना लोग कहते हैं? अगर है, तो ही उससे विवाह करना है। तो वह आई। उसने कई परीक्षाएं लीं। वे परीक्षाएं बड़ी महत्वपूर्ण हैं।
      उसमें एक परीक्षा यह भी थी-वह आई एक दिन, राज दरबार में दूर खड़ी हो गई। हाथ में वह दो गुलदस्ते, फूलों के गुलदस्ते लाई थी। और उसने सोलोमन से कहा दूर से कि इनमें कौन से असली फूल हैं, बता दो। बड़ा मुश्किल था। फासला काफी था। वह उस छोर पर खड़ी थी राज दरबार के। फूल बिलकुल एक जैसे लग रहे थे।
      सोलोमन ने अपने दरबारियों को कहा कि सारी खिड़कियां और द्वार खोल दो। खिड़कियां और द्वार खोल दिए गए। न तो दरबारी समझे और न वह रानी समझी कि द्वार-दरवाजे खोलने से क्या संबंध है। रानी ने सोचा कि शायद रोशनी कम है, इसलिए रोशनी की फिकर कर रहा है, कोई हर्जा नहीं। लेकिन सोलोमन कुछ और फिकर कर रहा था। जल्दी ही उसने बता दिया कि कौन से असली फूल हैं, कौन से नकली। क्योंकि एक मधुमक्खी भीतर आ गई बगीचे से और वह जो असली फूल थे उन पर जाकर बैठ गई। न दरबारियों को पता चला, न उस रानी को पता चला।
      वह कहने लगी, कैसे आपने पहचाना? सोलोमन ने कहा, तुम मुझे धोखा दे सकती हो, लेकिन एक मधुमक्खी को नहीं।
      मधुमक्खी को धोखा देना मुश्किल है, परमात्मा को कैसे दोगे?
      बुद्ध कहते हैं, 'जैसे कोई सुंदर फूल वर्णयुक्त होकर भी निर्गंध होता है, वैसे ही आचरण न करने वाले के लिए सुभाषित वाणी निष्फल होती है। '
      तुम्हें जीवन के सत्यों का पता सोचने से न लगेगा। उन सत्यों को जीने से लगेगा। जीओगे तो ही पता चलेगा। जो ठीक लगे उसे देर मत करना। उसे कल के लिए स्थगित मत करना। जो ठीक लगे उसमें आज ही डुबकी लगाना। अगर तुम्हें अवलोकन की बात ठीक लग जाए, तो सोचते मत रहना कि कल करेंगे। ऐसे तुम्हारे जीवन में कभी सुगंध न आएगी। ऐसे यह हो सकता है कि अवलोकन के संबंध में तुम बातें करने में कुशल हो जाओ, और ध्यान के संबंध में तुम शास्त्रकार बन जाओ, लेकिन तुम्हारे जीवन में सुगंध न आएगी।
      प्रार्थना के संबंध में जान लेना प्रार्थना को जानना नहीं है। प्रार्थना को तो वही जानता है जो करता है। प्रार्थना को तो वही जानता है जो डूबता है। प्रार्थना को तो वही जानता है जो प्रार्थना में मिट जाता है, जब प्रार्थना तुम्हारा अस्तित्व बनती है।
      आचरण का अर्थ है, तुम्हारा ज्ञान  तुम्हारा अस्तित्व हो। तुम जो जानते हो, वह सिर्फ ऊपर से चिपकी हुई बात न रह जाए। उसकी जड़ें तुम्हारे जीवन में फैलें। तुम्हारे भीतर से वह बात उठे। वह तुम्हारी अपनी हो। ऊपर से इकट्ठा ज्ञान  ऐसा है जैसे तुमने भोजन तो बहुत कर लिया हो, लेकिन पचा न सके। उससे तुम बीमार पड़ोगे। उससे शरीर रुग्ण होगा। पचा हुआ भोजन जीवन देता है, ऊर्जा देता है। अनपचा भोजन जीवन को नष्ट करने लगता है। भूखे भी बच सकते हैं लोग ज्यादा देर तक, ज्यादा भोजन से जल्दी मर जाते हैं। बोझ हो जाता है पूरी व्यवस्था पर। और ज्ञान  का तो भारी बोझ है।
      तुम्हारा चैतन्य अगर दब गया है तो तुम्हारे ज्ञान के बोझ से। तुम जानते ज्यादा हो, जीए कम हो। एक असंतुलन हो गया है। बुद्ध कहते हैं, थोड़ा जानो, लेकिन उसे जीने में बदलते जाओ। थोड़ा भोजन करो, लेकिन ठीक से चबाओ, ठीक से पचाओ। रक्त, मांस-मज्जा बन जाए।
      होश के बंदे समझेंगे क्या गफलत है क्या होशियारी
      अक्ल के बदले जिस दिन दिल की ज्योति जलाकर देखेंगे
      अक्ल के बदले जिस दिन दिल की ज्योति जलाकर देखेंगे
      होश के बंदे समझेंगे क्या गफलत है क्या होशियारी
      केवल वे ही समझ पाएंगे जो बुद्धि से गहरे उतरकर हृदय का दीया जलाएंगे। हृदय के दीए से अर्थ है, जो जानते हैं उसे जीवन बना लेंगे। जो समझा है, वह समझ ही न होगी समाधि बन जाएगी। जो सुना है, वह सुना ही नहीं पी लिया है।
      'जैसे कोई सुंदर फूल वर्णयुक्त होकर भी निर्गंध होता है, वैसे ही आचरण न करने वाले के लिए सुभाषित वाणी निष्फल होती है।'
      थोड़ा जानो, जीओ ज्यादा, और तुम पहुंच जाओगे। ज्यादा तुमने जाना और जीया कुछ भी नहीं, तो तुम न पहुंच पाओगे। तब तुम दूसरों की गायों का ही हिसाब रखते रहोगे, तुम्हारी अपनी कोई गाय नहीं। तुम गायों के रखवाले ही रह जाओगे, मलिक न हो पाओगे।
      पंडित मत बनना। पापी भी पहुंच जाते हैं, पंडित नहीं पहुंचते। क्योंकि पापी भी
आज नहीं कल जग जाएगा। दुख जगाता है। पंडित एक सुख का सपना देख रहा है कि जानता है। बिना जाने।
      शास्त्र से बचना। शास्त्र जंजीर हो सकता है। सुभाषित, सुंदर वचन जहर हो सकते हैं। जिस चीज को भी तुम जीवन में रूपांतरित न कर लोगे वही जहर हो जाएगी। तुम्हारी जीवन की व्यवस्था में जो भी चीज पड़ी रह जाएगी बिना रूपातरित हुए, बिना लहू-मांस-मज्जा बने, वही तुम्हारे जीवन में जहर का काम करने लगेगी। पंडित का अस्तित्व विषाक्त हो जाता है।
      'जैसे कोई सुंदर फूल वर्णयुक्त होने के साथ-साथ सुगंधित होता है, वैसे ही आचरण करने वाले के लिए सुभाषित वाणी सफल होती है।'
      तो ध्यान इस पर हो कि मेरा आचरण क्या है? मेरा होने का ढंग क्या है? मेरे जीवन की शैली क्या है? परमात्मा को मानो या न मानो, अगर तुम्हारा आचरण ऐसा है-घर लौटने वाले का, संसार की तरफ जाने वाले का नहीं। प्रत्याहार करने वाले का, अपनी चेतना के केंद्र की तरफ आने वाले का। मारे तुम्हारा आचरण ऐसा है-व्यर्थ का कूड़ा-करकट इकट्ठा करने वाले का नहीं, सिर्फ हीरे ही चुनने वाले का। अगर तुम्हारा आचरण हंस जैसा है कि मोती चुन लेता है, कि दूध और पानी में दूध पी लेता है, पानी छोड़ देता है।
      हमने ज्ञानियों को परमहंस कहा है। तुमने कभी समझा, क्यों? दो कारणों से। एक तो हंस सार को असार से अलग कर लेता है। और दूसरा, हंस सभी दिशाओं में गतिवान है। वह जल में तैर सकता है, जमीन पर चल सकता है, आकाश में उड़ सकता है। उसके स्वातंत्र्य पर कहीं कोई सीमा नहीं है। जमीन हो तो चल लेता है। सागर हो तो तैर लेता है। आकाश हो तो उड़ लेता है। तीनों आयामों में, तीनों डायमेंशन्स में उसके लिए कहीं कोई रुकावट नहीं है। जिस दिन तुम सार और असार को पहचानने लगोगे, उस दिन तुम्हारा स्वातंत्र्य भी इतना ही अपरिसीम हो जाएगा जैसा हंस का। इसलिए हमने ज्ञानियों को परमहंस कहा है।
      न जानने से ही बंधें हो। जमीन पर ही ठीक से रहना नहीं आता, पानी पर चलने की तो बात अलग! आकाश में उड़ना तो बहुत दूर! शरीर में ही ठीक से रहना नहीं आता, मन की तो बात अलग, आत्मा की तो बात बहुत दूर!
      शरीर यानी जमीन। मन यानी जल। आत्मा यानी आकाश। इसलिए मन जल की तरह तरंगायित। शरीर थिर है पृथ्वी की तरह। सत्तर साल तक डटा रहता है। गिर जाता है उसी पृथ्वी में जिससे बनता है। मन बिलकुल पानी की तरह है। पारे की तरह कहो। छितर-छितर जाता है। आत्मा आकाश की तरह निर्मल है। कितने ही बादल घिरे, कोई बादल धुएं की एक रेखा भी पीछे नहीं छोड़ गया। कितनी ही पृथ्वियां बनीं और खो गयीं। कितने ही चांद-तारे निर्मित हुए और विलीन हो गए। आकाश कूटस्थ है, अपनी जगह, हिलता-डुलता नहीं।
      शरीर में ही रहना तुमसे नहीं हो पाता, मन की तो बात अलग। मन में जाते ही चिंता पकड़ती है। विचारों का ऊहापोह पकड़ता है। आत्मा तो फिर बहुत दूर है। क्योंकि आत्मा यानी निर्विचार ध्यान, आत्मा यानी समाधि-आकाश, मुक्त, असीम।
      परमहंस कहा है ज्ञानियों को। लेकिन ज्ञान  को आचरण में बदलने की कीमिया, बदलने का रहस्य समझ लेना चाहिए। तुम समझ भी लेते हो कभी कोई बात, स्फटिक-मणि की भांति साफ दिखाई पड़ती है कि समझ में आ गई, अगर तुम उसी क्षण उसका उपयोग करने लगो तो और निखरती जाए। तुम कहते हो, कल उपयोग कर लेंगे, परसों उपयोग कर लेंगे, अभी समझ में आ गई संभालकर रख लें।
      एक मित्र यहां सुनने आते थे। डाक्टर हैं, पढ़े-लिखे हैं। मैंने उनको देखा कि जब भी वे सुनते, तो बैठकर बस नोट ले रहे हैं। फिर मुझे मिलने आए तो मैंने पूछा कि आप क्या कर रहे हो? वे कहते हैं कि आप इतनी अदभुत बातें कह रहे हैं कि नोट कर लेना जरूरी है, पीछे काम पड़ेगी। जब मैं समझा रहा हूं तब वे समझ नहीं रहे हैं। वे कल पर टाल रहे हैं, समझ तक को कल पर टाल रहे हैं। करने की तो बात अलग! वे नोट ले रहे हैं अभी। फिर पीछे कभी जब जरूरत होगी, काम पड़ जाएगी। तुम अभी मौजूद थे, मैं अभी मौजूद था, अभी ही उतर जाने देते हृदय में। लेकिन वे सोचते हैं कि वे बड़ा कीमती काम कर रहे हैं। वे धोखा दे रहे हैं। खुद को धोखा दे रहे हैं। यह बचाव है समझने से, समझना नहीं है।
      सामने एक घटना घट सकती थी, अभी और यहीं। मैं तुम्हारी आंख में झांकने को राजी था। तुम आंख बचा लिए-नोट करने लगे। मैंने हाथ फैलाया था तुम्हें उठा लूं बाहर तुम्हारे गड्ढ़े से। तुम्हारा हाथ तुमने व्यस्त कर लिया, तुम नोट लेने लगे। मैंने तुम्हें पुकारा, तुमने पुकार न सुनी। तुमने अपनी किताब में कुछ शब्द अंकित 'कर लिए और तुम बड़े प्रसन्न हुए। तुम अभी जीवित सत्य को न समझ पाए, कल के लिए टाल दिया। करोगे कब?
      टालना मनुष्य के मन की सबसे बड़ी बीमारी है। जो समझ में आ जाए उसे उसी क्षण करना। क्योंकि करने से स्वाद आएगा। स्वाद आते से करने की और भावना जोगी। और करने से और स्वाद आएगा। अचानक एक दिन तुम पाओगे, जिसे तुमने ज्ञान की तरह सोचा था, वह ज्ञान नहीं रहा आचरण बन गया।
      'जैसे कोई सुंदर फूल वर्णयुक्त होने के साथ-साथ सुगंधित होता है, वैसे ही आचरण करने वाले के लिए सुभाषित वाणी सफल होती है।'
      और ध्यान रखना, जो भी जाना जा सकता है वह जीकर ही जाना जा सकता है। नाहक की बहस में मत पड़ना। क्योंकि बहस भी अक्सर बचने का ही उपाय है। और व्यर्थ के तर्कजाल में मत उलझना। क्योंकि तुम्हें बहुत मिल जाएंगे कहने वाले। की इसमें क्या रखा है? लेकिन गौर से देख लेना कि जो कह रहा है, उसने कुछ अनुभव लिया है?
      मेरी दीवानगी पर होश वाले बहस फरमाएं
      मगर पहले उन्हें दीवाना बनने की जरूरत है
      मेरी दीवानगी पर होश वाले बहस फरमाएं-कोई हर्जा नहीं, तर्क करें। लेकिन, पहले उन्हें दीवाना बनने की जरूरत है, उनके पास भी कुछ स्वाद हो तभी। तुम उसी की बात सुनना जिसके पास कुछ स्वाद हो। अन्यथा इस जगत में आलोचक बहुत हैं, निंदक बहुत हैं। किसी भी चीज को गलत कह देना जितना आसान है, उतनी आसान और कोई बात नहीं। ईश्वर को कह देना 'नहीं है', कितना आसान है! 'है' कहना बहुत कठिन। क्योंकि जो है कहे, उसे सिद्ध करना पड़े। जो नहीं कहे, उसे तो सिद्ध करने का सवाल ही न रहा। जब है ही नहीं तो सिद्ध क्या करना है!
      प्रेम को इनकार कर देना कितना आसान है। लेकिन प्रेम को ही करना कितना कठिन है? क्योंकि प्रेम का अर्थ होगा फिर एक आग से गुजरना। नहीं बहुत आसान है। इसलिए कायर हमेशा नहीं कह-कहकर जिंदगी चला लेते हैं। हालांकि वे दिखते बड़े बहादुर हैं। कोई आदमी कहता है, ईश्वर नहीं है। लगता है बड़ी हिम्मत का आदमी है। अपनी इतनी हिम्मत नहीं है। पर मैं तुमसे कहता हूं कायर नहीं कहकर काम चला लेते हैं। क्योंकि जिस चीज को नहीं कह दिया उसे न सिद्ध करने की जरूरत, न जीवन में उतारने की जरूरत, न दाव लगाने की जरूरत, न मार्ग चलने की जरूरत। जिसने ही कहा, वही बहादुर है, वही साहसी है।
      लेकिन ही भी नपुंसक हो सकती है, अगर तुमने सिर्फ बहाने के लिए हो कह दी हो। अगर किसी ने कहा, ईश्वर है। तुमने कहा, होगा भाई, जरूर होगा। सिर्फ झंझट छुटाने को कि इतनी भी किसको फुरसत है कि बकवास करे? इतना भी किसके पास समय है कि विवाद करे? अब कौन झंझट करे कि है या नहीं। कि बिलकुल ठीक, जरूर होगा। अगर तुमने ही भी सिर्फ बचाव के लिए कही तो तुम्हारी ही नहीं ही है। उस ही में ही नहीं, नहीं ही है।
      मेरी दीवानगी पर होश वाले बहस फरमाएं
      मगर पहले उन्हें दीवाना बनने की जरूरत है
      उसी के पास पूछना जिसके जीवन में कोई सुगंध हो और सुवास हो, और जिसके जीवन में कोई स्वाद हो। जिसके ओंठों से, जिसकी श्वासों से शराब की थोड़ी गंध आती हो, उसी से शराब की बात पूछना। जिसके आसपास थोड़ी मस्ती की हवा हो, जिसकी आंखों में खुमार हो, उसी से पूछना। हर किसी से मत पूछने बैठ जाना। और हर किसी की बात मत सुन लेना, नहीं तो जिंदगी को ऐसे ही गंवा दोगे। नासमझ बहुत हैं, कायर बहुत हैं। आलोचक बहुत हैं। उनका कोई अंत नहीं है, क्योंकि ये सब बचाव की तरकीबें हैं। जिंदगी को जानने वाले बहुत कम हैं। और तुम भी कहीं इसी भीड़ में न खो जाना। खो ही जाओगे। अगर जीवन में कोई सूत्र तुम्हारे पास आएं और तुमने उनका जल्दी उपयोग न कर लिया, वे जंग खा जाते हैं।
      सत्य बड़ी नाजुक चीज है। वह बीज की तरह है। तुम उसे हृदय में ले जाओ समस्या, तो वह अंकुरित हो जाता है। बीज को रखे रहो तिजोडियों में सम्हालकर, वह सड़ जाएगा। सारे सत्य तुम्हारे शास्त्रों की तिजोडियों में सड़ गए हैं। ऐसा नहीं है कि सत्यों की कोई कमी है। सत्य बहुत हैं। शास्त्र भरे पड़े हैं, लेकिन किसी काम के नहीं रहे। तुम्हारे जीवन के शास्त्र में जब तक कोई सत्य उतरकर खून, मांस, मज्जा न बन जाए, पच न जाए, तुम्हारे रग-रेशे में न दौड़ने लगे, तब तक किसी काम का नहीं है। इसे स्मरण रखना।
      'जैसे फूलों से मालाएं बनती हैं, वैसे ही जन्म लेकर प्राणी को बहुत पुण्य करने चाहिए।
      जीवन दो ढंग का हो सकता है। बुद्ध ने बड़ा ठीक प्रतीक चुना है। एक तो जीवन ऐसा होता है जिसको तुम ज्यादा से ज्यादा फूलों का ढेर कह सकते हो। और एक जीवन ऐसा होता है जिसे तुम फूलों की माला कह सकते हो। माला और ढेर में बड़ा फर्क है। माला में एक संयोजन है, एक तारतम्य है, एक संगीत है, एक लयबद्धता है। माला में एकजुटता है। एक श्रृंखला है, एक सिलसिला है। फूलों का एक ढेर है, उसमें कोई श्रृंखला नहीं है। उसमें कोई संगीत नहीं है। उसमें दो फूल जुड़े नहीं हैं किसी अनुस्यूत धागे से। सब फूल अलग-अलग हैं। बिखरे पड़े हैं।
      तो या तो जीवन ऐसा हो सकता है कि जीवन के सब क्षण बिखरे पड़े हैं, एक क्षण से दूसरे क्षण के भीतर दौड़ती हुई कोई जीवनधारा नहीं है, कोई धागा नहीं जो सबको जोड़ता हो। अधिक लोगों का जीवन क्षणों का ढेर है। जन्म से लेकर मृत्यु तक तुम्हें भी उतने ही क्षण मिलते हैं जितने बुद्ध को। लेकिन बुद्ध का जीवन एक माला है। हर क्षण पिरोया हुआ है। हर क्षण अपने पीछे क्षण से जुड़ा है, आगे क्षण से जुड़ा है। जन्म और मृत्यु एक श्रृंखला में बंधे हैं। एक अनुस्यूत संगीत है।
      इसे थोड़ा समझो। तुम ऐसे हो जैसे वर्णमाला के अक्षर। बुद्ध ऐसे हैं जैसे उन्हीं अक्षरों से बना एक गीत। गीत में और वर्णमाला के अक्षरों में कोई फर्क नहीं है। वही अक्षर हैं। वर्णमाला में जितना है उतना ही सभी गीतों में है। मार्क ट्वेन के जीवन में एक घटना है। उसके मित्र ने उसे निमंत्रित किया। मित्र एक बहुत बड़ा उपदेष्टा था। मार्क ट्वेन कभी उसे सुनने नहीं गया था। कुछ ईर्ष्या रही होगी मन में मार्क ट्वेन के। मार्क ट्वेन खुद बड़ा साहित्यकार था। लेकिन उपदेष्टा की बड़ी ख्याति थी।
      मित्र ने कई दफा निमंत्रित किया तो एक बार गया। सामने की ही कुर्सी पर बैठा था। उस दिन मित्र ने जो श्रेष्ठतम उसके जीवन में भाव में था, कहा। क्योंकि मार्क ट्वेन सुनने आया था। लेकिन मार्क ट्वेन के चेहरे पर कोई भावदशा नहीं बदली। यह ऐसे ही बैठा रहा अकड़ा जैसे कुछ भी नहीं हो रहा है। जैसे क्या कचरा बकवास कर रहे हो!
      मित्र भी चकित हुआ। जब दोनों लौटने लगे गाड़ी में वापस, रास्ते में उसने हिम्मत जुटाई और पूछा, तुम्हें मेरी बातें कैसी लगीं? मार्क ट्वेन ने कहा, बातें! सब उधार। मेरे पास एक किताब है जिसमें सब लिखा है। तुमने उसी को पढ़कर बोला है। उस आदमी ने कहा, चकित कर रहे हो। कोई एकाध वाक्य, कोई एकाध टुकड़ा कहीं लिखा हो सकता है, लेकिन जो मैंने बोला है, वह मैंने किसी किताब से लिया नहीं। मार्क ट्वेन ने कहा, शर्त लगाते हो! सौ-सौ डालर की शर्त लग गई। उपदेष्टा सोचता था निश्चित ही शर्त मैं जीत जाऊंगा। यह पागल किस बात की शर्त लगा रहा है। जो मैं बोला हूं, यह पूरा का पूरा एक किताब में हो ही नहीं सकता। संयोग नहीं हो सकता ऐसा।
      लेकिन उसे पता नहीं था। मार्क ट्वेन ने दूसरे दिन एक डिक्शनरी भेज दी और लिखा, इसमें सब है जो भी तुम बोले हो। एक-एक शब्द जो तुम बोले हो सब इसमें है। शब्दशः।
      पर डिक्शनरी और शेक्सपियर में कुछ फर्क है। शब्दकोश में और कालिदास में कुछ फर्क है। शब्दकोश और उपनिषद में कुछ फर्क है। क्या फर्क है? वही फर्क तुममें और बुद्ध में है। तुम केवल शब्दकोश हो। फूल की भीड़, एक ढेर। अनुपस्थित नहीं हो। जुड़े नहीं हो। तारतम्य नहीं है। सब फूल अलग-अलग पड़े हैं, माला नहीं बन पाए हैं।
      माला उसी का जीवन बनता है जो अपने जीवन को एक साधना देता है, एक अनुशासन देता है। जो अपने जीवन को होशपूर्वक एक लयबद्धता देता है। तब जीवन न केवल गद्य बन जाता है, अगर धीरे-धीरे तुम जीवन को निखारते ही जाओ, तो गद्य पद्य हो जाता है। जीवन तुम्हारा गाने लगता है, गुनगुनाने लगता है। तुम्हारे भीतर से अहर्निश संगीत की एक धारा छूटने लगती है। तुम बजने लगते हो।
      जब तक तुम बजो न, तब तक तुम परमात्मा के चरणों के योग्य न हो सकोगे। और ध्यान रखना, व्यर्थ की शिकायतें-शिकवे मत करना।
      उनसे शिकवा फजूल है सीमाब
      काबिले-इलिफात तू ही नहीं
      परमात्मा से क्या शिकायत करनी कि आनंद नहीं है जीवन में!
      काबिले-इलिफात तू ही नहीं
      परमात्मा की कृपा के योग्य तू ही नहीं। इसलिए किसी और से शिकवा मत करना।
      तुम जैसे अभी हो ऐसे ही तुम परमात्मा पर चढ़ने योग्य नहीं हो। तुम माला बनो। तुम जीवन को एक दिशा दो। तुम ऐसे ही सब दिशाओं में मत भागते फिरो पागलों की तरह। तुम एक भीड़ मत रहो। तुम्हारे भीतर एकस्वरता है। और बुद्ध इसी को पुण्य कहते हैं। तुम चकित होओगे। बुद्ध कहते हैं, जिसके जीवन में एकस्वरता है, वही पुण्यधर्मा है। पापी एक भीड़ है, पुण्यधर्मा एक माला है। पापी असंगत है। कहता कुछ है, करता कुछ है। सोचता कुछ है, होता कुछ है। पापी के भीतर एकस्वरता नहीं है। बोलता कुछ है, आंखें कुछ और कहती हैं, हाथ कुछ और करते है।
      पापी एक साथ बहुत है। पुण्यात्मा एक है। योगस्थ है। जुड़ा है, इंटीग्रेटेड है। वह जो भी करता है वह सब संयोजित है। वह सभी एक दिशा में गतिमान है। उसके पैर भी उसी तरफ जा रहे हैं जिस तरफ उसकी आंखें जा रही हैं, उसके हाथ भी उसी तरफ जा रहे हैं जिस तरफ उसका हृदय जा रहा है। उसकी श्वासें भी उसी तरफ जा रही हैं, जिस तरफ उसकी धड़कनें जा रही हैं। वह इकट्ठा है। उसके जीवन में एक दिशा है, एक गति है, विक्षिप्तता नहीं है।
      'जैसे फूलों से मालाएं बनती हैं, वैसे ही जन्म लेकर प्राणी को पुण्य अर्जन करना चाहिए।'
      ताकि तुम्हारा जीवन एक माला बन जाए।
      'फूलों की सुगंध वायु की विपरीत दिशाओं में नहीं जाती।
      बड़ी मीठी बात बुद्ध कहते हैं। खूब हृदय भरकर सुनना।
      'फूलों की सुगंध वायु की विपरीत दिशाओं में नहीं जाती। न चंदन की, न तगर की, न चमेली की, न बेला की।'
      अगर हवा पूरब की तरफ बह रही हो, तो चंदन, कोई उपाय नहीं चंदन के पास कि अपनी सुगंध को पश्चिम की तरफ भेज दे। हवा के विपरीत नहीं जाती।
'न तगर की, न चमेली की, न चंदन की, न बेला की। लेकिन सज्जनों की सुगंध विपरीत दिशा में भी जाती है।'
      सत्पुरुष सभी दिशाओं में सुगंध बहाता है। एक ही सुगंध है इस जगत में जो विपरीत दिशा में भी चली जाती है। वह है सत्पुरुष की। वह है संत-पुरुष की। वह है जाग्रत पुरुष की सुगंध।
      मनुष्य भी एक फूल है। और जो कली ही रह गए, खिल न पाए, उनके दुख का अंत नहीं। कलियों से पूछो, जो खिलने में असमर्थ हो गयीं; जिनमें गंध भरी थी और लुटा न पायीं; ऐसे ही जैसे किसी स्त्री को गर्भ रह गया, और फिर बच्चे का जन्म न हो, तो उसका संताप समझो। गर्भ बड़ा होता जाए और बेटे का जन्म न हो, तो उस स्त्री की पीड़ा समझो। ऐसा ही प्रत्येक मनुष्य पीड़ा में है, क्योंकि तुम्हारे भीतर जो बड़ा हो रहा है, वह जन्म नहीं पा रहा है। तुम एक गर्भ लेकर चल रहे हो। गर्भ बड़ा होता जाता है, लेकिन तुम्हारे जन्म की दिशा खो गई है। तुम भूल ही गए हो। तुम एक कली हो, उसके भीतर गंध इकट्ठी होती जा रही है। बोझिल हो गई है, कली अपने ही बोझ से दबी जा रही है।
      मेरे देखे तुम्हारी पीड़ा यह नहीं है कि तुम्हारे जीवन में दुख है। तुम्हारी असली पीड़ा यही है कि जो सुख हो सकता था वह नहीं हो पा रहा है। यह दुख की मौजूदगी नहीं है जो तुम्हें पीड़ित कर रही है, यह उस सुख की मौजूदगी का अभाव है जो हो सकता था और नहीं हो पा रहा है। तुम्हारी गरीबी तुम्हें पीड़ा नहीं दे रही है। लेकिन तुम्हारे भीतर जो अमीरी का झरना फूट सकता था, फूटने को तत्पर खड़ा है, उस पर चट्टान पड़ी है, वह झरना फट नहीं पा रहा है। यह विकास की छटपटाहट है आदमी का संताप। यह आदमी की पीड़ा जन्म लेने की छटपटाहट है।
      सारा अस्तित्व खिलने में भरोसा रखता है। जब भी कोई चीज खिल जाती है तो निर्भार हो जाती है। आदमी भी एक फूल है। और बुद्ध कहते हैं, बड़ा अनूठा फूल है। और बुद्ध जानकर रहते हैं। उनका फूल खिला तब उन्होंने एक अनूठी बात जानी कि विपरीत दिशाओं में भी, जहा हवा नहीं भी जा रही हो, वहा भी संत की गंध चली जाती है। संत की गंध कोई सीमाएं नहीं मानती।
      'फूलों की सुगंध वायु की विपरीत दिशाओं में नहीं जाती। न चंदन की, न तगर की, न चमेली की, न बेला की। लेकिन सज्जनों की सुगंध विपरीत दिशा में भी जाती है।
      सज्जन की सुगंध एकमात्र सुगंध है, जो संसार के नियम नहीं मानती। जो संसार के साधारण नियमों के पार है, जो अतिक्रमण कर जाती है।
      सीख ले फूलों से गाफिल मुद्दआ-ए-जिंदगी
      खुद महकना ही नहीं गुलशन को महकाना भी है
      इतना ही काफी नहीं है कि खुद महकों।
      खुद महकना ही नहीं गुलशन को महकाना भी है
      इसलिए बुद्ध ने कहा है, समाधि, फिर प्रज्ञा। समाधि, फिर करुणा। बुद्ध ने कहा है, वह ध्यान-ध्यान ही नहीं, जो करुणा तक न पहुंचा दे।
      खुद महकना ही नहीं गुलशन को महकाना भी है
      उसी समाधि को बुद्ध ने परिपूर्ण समाधि कहा है जो लुट जाए सभी दिशाओं में। सभी दिशाओं में बह जाए।
      लेकिन यही समझ लेने की बात है। यह बड़ी विरोधाभासी बात है। तुम साधारण अवस्था में सभी दिशाओं में दौड़ते हो और कहीं नहीं पहुंच पाते। बुद्धत्व की तरफ चलने. वाला व्यक्ति एक दिशा में चलता है और जिस दिन पहुंचता है उस दिन सभी दिशाओं में बहने में समर्थ हो जाता है।
      तुम सभी दिशाओं में बहने की कोशिश करते हो। थोड़ा धन भी कमा लें, थोड़ा धर्म भी कमा लें। थोड़ी प्रतिष्ठा भी बना लें, थोड़ी समाधि भी कमा लें। थोड़ा दुकान भी बचा लें, थोड़ा मंदिर भी। तुम सभी दिशाओं में हाथ फैलाते हो। और आखिर में पाते हो भिखारी के भिखारी ही विदा हो गए। जैसे आए थे खाली हाथ वैसे खाली हाथ गए। बहुत पकड़ना चाहा, कुछ पकड़ में न आया।
      तुम्हारी हालत करीब-करीब वैसी है जैसे तुमने एक बहुत प्रसिद्ध गधे की सुनी हो, कि एक मजाकिया आदमी ने एक गधे के पास दोनों तरफ घास के दो ढेर लगा दिए बराबर दूरी पर। और गधा बीच में खड़ा था। उसे भूख तो लगी, तो वह बाएं तरफ जाना चाहा, तब मन ने कहा कि दाएं। उस तरफ भी घास थी। दाएं तरफ जाना चाहा तो गन ने कहा बाएं।
      कहते हैं गधा भूखा बीच में खड़ा-खड़ा मर गया, क्योंकि न वह बाएं जा सका, न दाएं। जब दाएं जाना चाहा तब मन ने कहा बायां। जब बाएं जाना चाहा तब मन ने कहा दायां।
      तुम्हारा मन यही कर रहा है। जब तुम मंदिर की तरफ जाना चाहते हो, तब मन कहता है दुकान। जब तुम दुकान पर बैठे हो, मन को भजन याद आता है, मंदिर। ऐसे ही मर जाओगे। और दोनों तरफ तृप्ति के साधन मौजूद थे। कहीं भी गए होते। मैं तुमसे कहता हूं? अगर तुम दुकान पर ही पूरी तरह से चले जाओ तो वहीं ध्यान हो जाएगा। आधे-आधे मंदिर जाने की बजाय दुकान पर पूरे चले जाना बेहतर है। क्योंकि पूरे चला जाना ध्यान है। ग्राहक से बात करते वक्त भीतर राम-राम गुनगुनाना गलत है। ग्राहक को ही पूरा राम मान लेना उचित है।
      आधे-आधे कुछ सार न होगा। आधा यहां, आधा वहां, तुम दो नाव पर सवार हो, तुम बड़ी मुश्किल में पड़े हो। तुम सब दिशाओं में पहुंचना चाहते हो और कहीं नहीं पहुंच पाते। बुद्धपुरुष एक दिशा में जाते हैं। और जिस दिन मंजिल पर पहुंचते हैं, सब दिशाओं में उनकी गंध फैल जाती है। तुम सब पाने की कोशिश में सब गंवा देते हो। बुद्धपुरुष एक को पा लेते हैं और सब पा लेते हैं।
      महावीर ने कहा है, जिसने एक को पा लिया, उसने सब पा लिया। जिसने एक को जान लिया, उसने सब जान लिया।
      जीसस ने कहा है, सीक यी फर्स्ट दि किंगडम आफ गाड ऐंड आल एल्म शैल बी एडेड अनटू यू। अकेले तुम परमात्मा की खोज कर लो। प्रभु का राज्य खोज लो, शेष सब अपने से आ जाएगा, तुम उसकी फिकर ही मत करो। एक को जिसने गंवाया, वह सब गंवा देता है। और एक को जिसने पाया वह सब पा लेता है।
      लेकिन तुम्हारा सब अधूरा-अधूरा है। अधूरे-अधूरे के कारण तुम खंड-खंड हो गए हो। तुम्हारे भीतर बड़े टुकड़े हो गए हैं। एक टुकड़ा कहीं जा रहा है, दूसरा टुकड़ा कहीं जा रहा है। तुम एक टूटी हुई नाव हो, जिसके तख्ते अलग-अलग बह रहे हैं। तुम कैसे पहुंच पाओगे? तुम कहा पहुंच पाओगे? तुम हो ही नहीं। तुम इतने खंड-खंड हो गए हो कि तुम हो, यह कहना भी उचित नहीं है। होने के लिए जरूरी है कि तुम्हारी दिशा बने, एक अनुशासन हो, एक श्रृंखला हो। तुम फूलों को पिरोना सीखो, फूलों की माला बनाना सीखो।
      जीवन में सत्य का आविष्कार करना है, प्रेम का आविष्कार करना है। जीवन में तुम कौन हो इसका आविष्कार करना है। इसे ऐसी ही नहीं गंवा देना है। तो तुम्हारे जीवन में धीरे-धीरे अनुशासन आना शुरू हो जाए। अगर तुम्हारे पास कुछ भी-थोड़ी सी भी-दृष्टि हो, दिशा हो कहां पहुंचना है, तो एक तारतम्य आ जाए। उस तारतम्य के साथ ही साथ तुम्हारे भीतर एकता का जन्म होगा। इस एकता के माध्यम से ही किसी दिन तुम माला बन सकते हो। और जिस दिन तुम माला बन जाते हो, उस दिन परमात्मा के गले में चढ़ाने नहीं जाना होता। परमात्मा का गला खुद तुम्हारी माला में आ जाता है। आ ही जाएगा। तुम काबिल हो गए।
      काबले-इल्‍तिफात तू ही नहीं
      तभी तक अड़चन थी।
      उनसे शिकवा फजूल है सीमाब
      शिकायत बेकार है। इतना ही जानना कि अभी हम तैयार नहीं हुए।
अब यह फूलों की गठरी को तुम किसी के गले में डालना चाहोगे तो माला कैसे बनेगी? गिर जाएंगे फूल नीचे, धूल में पड़ जाएंगे। यह माला किसी के गले में डालनी हो तो माला होनी चाहिए। फूलों के ढेर को माला मत समझ लेना।
      थोड़ा देखो, माला और ढेर में क्या फर्क है? ढेर में संगठन नहीं है, अर्थात आत्मा नहीं है। माला में एक संगठन है, एक व्यक्तित्व है, एक आत्मा है। धागा दिखाई नहीं पड़ता। एक फूल से दूसरे फूल में चुपचाप अदृश्य में पिरोया हुआ है। जीवन के लक्ष्य भी दिखाई नहीं पड़ते। एक क्षण से दूसरे क्षण में अदृश्य पिरोए होते हैं। बुद्ध उठते हैं, बैठते हैं, चलते हैं, तो हर घड़ी के भीतर ध्यान का धागा पिरोया हुआ है। जो भी करते हैं, एक बात ध्यान रखते ही हैं कि उस करने में से ध्यान का धागा न छूटे। वह धागा बना रहे।
      फूल से भी ज्यादा मूल्य धागे का है, लक्ष्य का है, दिशा का है। और जिस दिन यह घड़ी घट जाती है कि तुम संगठित हो जाते हो, तुम एक हो जाते हो, उसी दिन-उसी दिन परमात्मा की कृपा तुम पर बरस उठती है। उसे कुछ कहने की जरूरत नहीं है।
      इसलिए बुद्ध उस संबंध में चुप रहे हैं। जो कहा जा सकता था, उन्होंने कहा। जो नहीं कहा जा सकता था, उन्होंने नहीं कहा। उन्होंने सारा जोर इस पर दिया है कि तुम्हारा व्यक्तित्व कैसे एक हो जाए। तुम्हारा ज्ञान  कैसे आचरण बन जाए। तुम्हारे बिखरे फूल कैसे माला बन जाएं। इससे ज्यादा उन्होंने बात नहीं की, क्योंकि इसके बाद बात करनी ठीक ही नहीं है। इसके बाद जो होना है वह होता ही है। वह हो ही जाता है। उसमें कभी कोई अड़चन नहीं पड़ती।
      इसलिए परमात्मा को तुम भूल जाओ तो अड़चन नहीं है। अपने को मत भूल जाना। अपने को भूला, तो सब गया, सब डूबा। खुद की याद रखी और उसी याददाश्त को रोज-रोज सम्हालते गए, रोज-रोज हर तरह से वह याददाश्त सघन होती चली जाए, जैसे जल गिरता है पहाड़ से-और चट्टान मजबूत है, जल बिलकुल नाजुक है-लेकिन रोज गिरता ही चला जाता है। एक दिन चट्टान तो रेत होकर बह जाती है, जल की धार अपनी जगह बनी रहती है।
      कठोर से कठोर भी टूट जाता है सातत्य के सामने। इसलिए घबड़ाना मत, अगर आज तुम्हें अपनी दशा चट्टान जैसी लगे। तुम कहो कि कैसे यह अहंकार बहेगा? यह चट्टान बड़ी मजबूत है। कैसे यह दिल झुकेगा? यह झुकना जानता नहीं। तुम इसकी फिकर मत करना, तुम सिर्फ सातत्य रखना ध्यान का, अवलोकन का, साक्षी का। शेष सब अपने से हो जाता है।
      बुद्ध ने मनुष्य के व्यक्तित्व का विज्ञान दिया। उन्होंने मनोविज्ञान दिया। मेटाफिजिक्स, परलोक के शास्त्र की बात नहीं की। बुद्ध बड़े यथार्थवादी हैं। वे कहते हैं जो करना -जरूरी है, वही। और ज्यादा व्यर्थ की विस्तार की बातों में तुम्हें भटकाने की जरूरत नहीं है। ऐसे ही तुम काफी भटके हुए हो।
      थोड़े से तुम्हें सूत्र दिए हैं। अगर तुम उन्हें कर लो, तो उन सूत्रों में बड़ी आग है। वे अंधकार को जला डालेंगे। वे व्यर्थ को राख कर देंगे। और उन सूत्रों की आग से तुम्हारे भीतर का स्वर्ण निखरकर बाहर आ जाएगा। बुद्ध ने बहुत थोड़ी सी बातें कहीं। उन्हीं-उन्हीं को दोहराकर कहा है। क्योंकि बुद्ध को कोई रस दर्शनशास्त्र में नहीं है। बुद्ध को रस है मनुष्य की आंतरिक-क्रांति में, रूपांतरण में। बुद्ध को जिन लोगों ने गौर से अध्ययन किया है, उन सबको हैरानी होती है कि बुद्ध एक ही बात को कितनी बार दोहराए चले जाते हैं। वह हैरानी इसीलिए होती है कि बुद्ध व्यर्थ की बात को कभी बीच में नहीं लाते। बस सार्थक को ही दोहराते हैं, ताकि सतत चोट पड़ती रहे।
      और तुम ऐसे हो, तुम्हारी नींद ऐसी है, तुम्हारी तंद्रा ऐसी है कि बहुत बार दोहराने पर भी तुम सुन लो, वह भी आश्चर्य है। बुद्ध से कोई पूछता था तो वे तीन बार दोहराकर जवाब देते थे। उसी वक्त तीन दफा दोहराकर जवाब देते थे। क्यों तीन बार? क्योंकि.. बुद्ध से कोई पूछने लगा कि क्यों तीन बार? क्या आप सोचते हैं हम बहरे हैं? बुद्ध ने कहा, नहीं। अगर तुम बहरे होते तो इतनी अड़चन न थी। तुम बहरे नहीं हो और फिर भी सुनते नहीं हो। तुम सोए नहीं हो, यही तो अड़चन है। सोए होते तो जगाना आसान हो जाता है। तुम बनकर लेटे हो। तुम सोने का ढोंग कर रहे हो। उठना भी नहीं चाहते, जाग भी गए हो। तुम सुनते हुए मालूम पड़ते हो और सुनते भी नहीं, इसलिए तीन बार दोहराता हूं।
      यह जो बुद्ध का दोहराना है, धम्मपद में-इस पूरी चर्चा में-बहुत बार आएगा। अलग-अलग द्वारों से वे फिर वहीं लौट आते हैं-कैसे तुम्हारा रूपांतरण हो? बुद्ध की सारी आकांक्षा, अभीप्सा मनुष्य-केंद्रित है। महावीर मोक्ष-केंद्रित हैं।
वे मोक्ष की चर्चा करते हैं। जीसस ईश्वर-केंद्रित हैं, वे ईश्वर की चर्चा करते हैं। बुद्ध मनुष्य-केंद्रित हैं। जैसे मनुष्य से ऊपर कोई सत्य नहीं है बुद्ध के लिए।
      साबार ऊपर मानुस सत्य, ताहार ऊपर नाहीं।
      सबके ऊपर मनुष्य का सत्य है और उसके ऊपर कोई सत्य नहीं है। क्योंकि जिसने मनुष्य के सत्य को समझ लिया, उसे कुंजी मिल गई। सारे सत्यों के द्वार उसके लिए फिर खुले हैं।
      बुद्ध को भोजन बनाओ, पीओ, पचाओ, तो धीरे-धीरे तुम पाओगे तुम्हारे भीतर बुद्ध का अवतरण होने लगा। धीरे-धीरे तुम पाओगे तुम्हारे भीतर बुद्ध की प्रतिमा उभरने लगी। हर चट्टान छिपाए है बुद्ध की प्रतिमा अपने में। जरा छेनी की जरूरत है, हथौड़ी की जरूरत है। व्यर्थ को छांटकर अलग कर देना है।
      किसी ने माइकल एंजलो से पूछा-क्योंकि एक चर्च के बाहर एक पत्थर बहुत दिन से पड़ा था, उसे अस्वीकार कर दिया गया था, चर्च के बनाने वालों ने उपयोग में नहीं लिया था, वह बड़ा अनगढ़ था, माइकल एंजलो ने उस पर मेहनत की और उससे एक अपूर्व क्राइस्ट की प्रतिमा निर्मित की-किसी ने पूछा कि यह पत्थर तो बिलकुल व्यर्थ था, इसे तो फेंक दिया गया था, इसे तो राह का रोड़ा समझा जाता था, तुमने इसे रूपांतरित कर दिया! तुम अनूठे कलाकार हो!
      माइकल एंजलो ने कहा, नहीं, तुम गलती कर रहे हो। जो मैंने पत्थर से प्रगट किया है, वह पत्थर में छिपा ही था, सिर्फ मैंने पहचाना। और जो व्यर्थ टुकड़े पत्थर के आसपास थे उनको छांटकर अलग कर दिया। यह प्रतिमा तो मौजूद ही थी। मैंने बनाई नहीं। मैंने सिर्फ सुनी आवाज। मैं गुजरता था यहां से, यह पत्थर चिल्लाया और इसने कहा कि कब तक मैं ऐसे ही पड़ा रहूं? कोई पहचान ही नहीं रहा है। तुम मुझे उठा लो, जगा दो। बस, मैंने छेनी उठाकर इस पर मेहनत की। जो सोया था उसे जगाया।
बुद्धत्व को कहीं पाने नहीं जाना है। हरेक के भीतर आज जो चट्टान की तरह मालूम हो रहा है-अनगढ़, बस जरा से छेनी-हथौड़े की जरूरत है। सब के भीतर से पुकार रहा है कि कब तक पड़ा रहूंगा? उघाड़ो मुझे!
      इसलिए बुद्ध कहते हैं, जो तुम सुनो, जो सुभाषित तुम्हारे कानों में पड़ जाएं, उन्हें तुम स्मृति में संगृहीत मत करते जाना। उन्हें उतारना आचरण में। उन्हें जीवन की शैली बनाना। धीरे-धीरे तुम्हारे चारों तरफ उनकी हवा तुम्हें घेरे रहे, उनके मौसम में तुम जीना। जल्दी ही तुम पाओगे कि तुम्हारे भीतर का बुद्धत्व उभरना शुरू हो गया। फूल माला बन गए।
      और तब एक ऐसी घटना घटती है, जो संसार के नियमों के पार है। फूलों की सुगंध वायु की विपरीत दिशा में नहीं जाती, न चंदन की, न तगर की, न चमेली की, न बेला की। लेकिन जिनके भीतर का बुद्धपुरुष जाग गया, बुद्ध चैतन्य जाग गया,
उनकी सुगंध विपरीत दिशा में भी जाती है। सभी दिशाओं में उनकी सुगंध फैल जाती है।
      और जब तक तुम ऐसे अपने को लुटा न सकोगे, तब तक तुम पीड़ित रहोगे। एक ही नर्क है-अपने को प्रगट न कर पाना। और एक ही स्वर्ग है-अपनी अभिव्यक्ति खोज लेना।
      जो गीत तुम्हारे भीतर अनगाया पड़ा है, उसे गाओ। जो वीणा तुम्हारे भीतर सोई पड़ी है, छेड़ो उसके तारों को। जो नाच तुम्हारे भीतर तैयार हो रहा है, उसे तुम बोझ की तरह मत ढ़ोओ। उसे प्रगट हो जाने दो।
      प्रत्येक व्यक्ति अपने भीतर बुद्धत्व को लेकर चल रहा है। जब तक वह फूल न खिले, तब तक बेचैनी रहेगी, अशांति रहेगी, पीड़ा रहेगी, संताप रहेगा। वह फूल खिल जाए, निर्वाण है, सच्चिदानंद है, मोक्ष है।

आज इतना ही।











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