मैं
समझता हूं कि
कोई और प्रश्न
नहीं हैं। जो प्रश्न
पूछे हैं, कुछ प्रश्न
दोपहर भी किसी
ने पूछे थे और
एक-दो प्रश्न
कल के भी बिना
उत्तर के रह
गए हैं।
प्रश्नों
के संबंध में
सबसे पहली बात
तो यह जाननी
जरूरी है कि
जीवन में जो
भी महत्वपूर्ण
है उसके संबंध
में किसी
दूसरे से कोई
भी उत्तर नहीं
पाए जा सकते
हैं। और जो भी
उत्तर दूसरे
से पाए जा
सकते हैं वे
भीतर जाकर न
कोई समाधान
बनते हैं और न
मनुष्य की
उलझन को हल कर
पाते हैं।
ठीक-ठीक जीवन
के उत्तर तो
खुद ही खोजने
होते हैं।
श्रम से, साधना
से खुद ही
उनके उत्तर
पाने पड़ते
हैं।
लेकिन
फिर भी सोचने
का ढंग, विचार
करने का ढंग
पूछने से
उपलब्ध हो
सकता है। मैं
जिन प्रश्नों
के उत्तर आपको
दूं, मेरे
उत्तर मान
लेने आवश्यक
नहीं हैं, ज्यादा
अर्थ की बात
यह होगी कि आप
भी उन प्रश्नों
पर नई-नई दृष्टियों
से विचार करना
शुरू करें।
प्रश्न तो एक
मौका है, उस
मौके से
मनुष्य विचार
करने में पड़
जाता है।
और अगर भीतर विचार पैदा हो जाए तो जीवन में ऐसी कोई समस्या, उलझन नहीं है, जो हल न की जा सके। किसी एक प्रश्न का उत्तर पा लेना महत्वपूर्ण नहीं है, वरन स्वयं के भीतर विचार की शक्ति का जग जाना महत्वपूर्ण है। तब फिर किन्हीं ही जीवन की समस्याओं के उत्तर व्यक्ति खुद ही पाने में समर्थ हो जाता है।
और अगर भीतर विचार पैदा हो जाए तो जीवन में ऐसी कोई समस्या, उलझन नहीं है, जो हल न की जा सके। किसी एक प्रश्न का उत्तर पा लेना महत्वपूर्ण नहीं है, वरन स्वयं के भीतर विचार की शक्ति का जग जाना महत्वपूर्ण है। तब फिर किन्हीं ही जीवन की समस्याओं के उत्तर व्यक्ति खुद ही पाने में समर्थ हो जाता है।
सबसे
ज्यादा जरूरी
बात यही है कि
हम सोचना शुरू
करें। मैंने
जो कहा कि आप
प्रश्न पूछें
वह इसीलिए। जो
भी व्यक्ति
विचार करेगा
उसके मन में
बहुत से प्रश्न
उठने शुरू
होंगे। जीवन
बड़ी समस्या है
और रोज सुबह
से शाम तक
हजारों
प्रश्न उठते
हैं। यदि हम
उन प्रश्नों
को वैसा ही मन
में पड़ा रहने
दें तो
धीरे-धीरे मन
उलझ जाता है
और धीरे-धीरे
मन की क्षमता
रास्ते खोजने
की कम हो जाती
है। इसलिए
बहुत उचित है
कि
पूछें--मित्रों
से पूछें, गुरुजनों से पूछें, परिवार के वृद्धजनों
से पूछें--और
जहां से भी
सीखने को मिल
सके वहां से सीखें।
सीखने के लिए
हमेशा मन को
खुला हुआ रखना
चाहिए। चाहे
कोई आदमी बूढ़ा
भी हो जाए तो
भी। बचपन से
लेकर बुढ़ापे
तक जो आदमी
सीखने को
हमेशा तैयार
होता है उसके
जीवन में
ज्ञान की
संपदा इकट्ठी
होती है।
लेकिन
बहुत लोग बहुत
जल्दी ही
सीखना बंद कर
देते हैं।
बहुत लोग बहुत
जल्दी ही अपने
मन के द्वार
बंद कर लेते
हैं, फिर कुछ
भी नहीं सीखते
हैं। ऐसे लोग
समय के पहले
ही मुर्दा हो
जाते हैं। और
जीवन में
जितनी संपदा
ज्ञान की, विचार
की वे पा सकते
थे, उससे
भी वंचित रह
जाते हैं।
यह भी
जरूरी नहीं है
कि अपने बड़ों
से ही सीखो, छोटों से भी
सीखा जा सकता
है। सच तो यह
है कि जीवन की
कोई भी घटना
शिक्षा हो
सकती है। एक
वृक्ष पर से
सूखा गिरता
हुआ पत्ता भी
शिक्षा हो सकता
है। छोटी-छोटी
बातें भी
शिक्षा हो
सकती हैं।
लेकिन आंख
खुली हुई हो
तो पूरा जीवन
ही शिक्षालय
हो जाता है।
और आंख बंद हो,
सीखने की
प्रवृत्ति न
हो, पूछने
की वृत्ति न
हो, इंक्वायरी न हो, खोज
न हो, तो
फिर जीवन के
चारों तरफ
कितनी ही बड़ी
बातें घटती
रहें, उनसे
हम कुछ भी
नहीं सीख पाते
हैं। हमारा मन
बंद ही रहा
आता है।
और जो
मनुष्य जितना
कम सीखता है, उस मनुष्य
की अनुभूति
उतनी ही छिछली,
उथली और
ऊपरी हो जाती
है, गहरी
नहीं हो पाती।
जैसे जिस
वृक्ष को ऊपर
उठना हो उस
वृक्ष को उतने
ही गहरे तक
अपनी जड़ें जमीन
में फेंकनी
पड़ती हैं। अगर
वह जमीन में
अपनी गहरी जड़ें
न फेंके तो
फिर ऊपर नहीं
उठ सकता। जिस
व्यक्ति को
जीवन में
जितना ऊपर
उठना हो उतना
ही उसे खोज की,
चिंतन की, विचार की
गहरी जड़ें फेंकनी
जरूरी होती
हैं। जो जितनी
विचार की गहरी
जड़ों को
फेंकता है
अपने जीवन में,
उसके वृक्ष
की उतनी ही
ऊंची शाखाएं
हो पाती हैं।
नीचे की जड़ें
दिखाई नहीं
पड़तीं। अगर
तुम वृक्ष को
देखो, किसी
भी वृक्ष को, तो ऊपर तो
वृक्ष दिखाई
पड़ता है, नीचे
की जड़ें दिखाई
नहीं पड़तीं।
लेकिन जो नहीं
दिखाई पड़तीं
जड़ें उनमें ही
वृक्ष के
प्राण छिपे
होते हैं, अदृश्य
जड़ों में ही
वृक्ष के
प्राण होते
हैं। अगर
अदृश्य जड़ों
को कोई काट दे
तो फिर वृक्ष
छोटा ही रह जाएगा।
स्वामी
रामतीर्थ थे, एक भारतीय
संन्यासी थे,
वे जापान
गए। उन्होंने
वहां तीन सौ, चार सौ और
पांच सौ वर्ष
पुराने
देवदार के
वृक्ष देखे, जिनकी ऊंचाई
एक बित्ते
से ज्यादा
नहीं थी। वे
बहुत हैरान
हुए! पांच सौ
वर्ष पुराना
देवदार का
वृक्ष और एक बित्ते की
ऊंचाई का!
उन्होंने
पूछा, इसको
किस रहस्य से
तुमने छोटा
रखा? यह
कैसे इतना
छोटा रहा पांच
सौ वर्षों में?
तो
माली ने
उन्हें बताया, गमले के
नीचे से हम
इसकी जड़ें
हमेशा काटते
रहते हैं!
चूंकि जड़ें
बड़ी नहीं हो
सकतीं इसलिए
वृक्ष ऊपर
नहीं उठ सकता!
इसलिए
जड़ें तो दिखाई
नहीं पड़ती
हैं। वैसे ही
मनुष्य की जो
विचार की जड़ें
हैं वे भी
दिखाई नहीं
पड़ती हैं।
लेकिन उनमें
ही मनुष्य के
प्राणों के
विकास की सारी
संभावनाएं
छिपी रहती
हैं। अगर उनको
ही तुमने
विकसित नहीं
किया तो
तुम्हारा
जीवन भी
विकसित नहीं
होगा। अगर उन
पर तुमने
ध्यान नहीं
दिया तो तुम
छोटे पौधे की
भांति रह
जाओगे। अगर
जीवन में एक
बड़ा पौधा बनना
है, ऐसा पौधा
जिसमें फल
लगें, फूल
लगें, जिसकी
सुवास फैले, जिसकी छाया
के तले दूसरे
लोग विश्राम
करें, अगर
जीवन में ऐसा
बड़ा पौधा बनना
है तो विचार की
जड़ों को
बहुत-बहुत
गहराई तक
भेजना जरूरी
है। कौन यह
करेगा? अगर
खुद ही हम खोज
करेंगे तो यह
होगा। पूछो!
किसी भी मौके
को--जब तुम पूछ
सको, खोज
सको--खोओ
मत! कोई
छोटी-छोटी
घटना भी जीवन
में हो सकता
है बहुत बड़े
ज्ञान का भार
लेकर आ रही हो,
और हम न
पूछें तो वह
ज्ञान हमें
नहीं मिल
सकेगा।
एक
फकीर हुआ।
उससे बाद के
जीवन में पूछा
गया कि
तुम्हारे कौन
गुरु हैं?
तो
उसने कहा, ऐसे तो मेरा
पूरा जीवन ही
गुरु रहा और
जो भी आदमी
रास्ते पर
मुझे मिला
उससे ही मैंने
कुछ सीखा।
लेकिन सबसे
पहले जिस आदमी
से मैंने सीखा
वह एक चोर था।
पूछने
वाला बहुत
हैरान हुआ।
चोर से कोई
क्या सीखेगा!
लेकिन उस फकीर
ने कहा कि मैं
एक गांव में
गया, आधी रात
थी, कोई
मुझे...दरवाजे
सब बंद थे। एक
आदमी रास्ते पर
मिला, उसने
कहा, अब तो
दरवाजे बंद
हैं, आप
मेरे साथ ही
आएं और ठहर
जाएं। लेकिन
मैं एक चोर
हूं! हो सकता
है, आप साधु
हैं, मेरे
घर ठहरना पसंद
न करें। लेकिन
उस साधु ने कहा,
जब उस
व्यक्ति ने
कहा, मैं
एक चोर हूं, तो मैं उसकी
ईमानदारी और
सच्चाई से
प्रभावित हुआ।
इतना सच्चा तो
मैं भी नहीं
हूं जितना वह चोर
था। मैंने
उसके पैर छुए
और उसे प्रणाम
किया और कहा
कि तुम मेरे
गुरु हुए, तुमसे
मैंने एक बात
सीखी। साधु
होकर भी मैं
इतना सच्चा
नहीं हूं कि
ठीक-ठीक कह
सकूं कि मैं कौन
हूं और क्या
हूं, लेकिन
तुमने एक चोर
होकर भी यह
स्पष्टता से
कहा कि मैं
चोर हूं। तो
मैं तुमसे
प्रभावित हुआ,
तुमसे
मैंने सच्चाई
सीखी।
वह उस
चोर के घर रात
को गया। उसे सुला
कर चोर ने कहा, क्षमा करें,
अब तो मेरा
धंधे का वक्त
है तो मैं
जाता हूं, आप
विश्राम करें,
मैं सुबह
तीन या चार
बजे के करीब
लौटूंगा।
वह
चोरी करने चला
गया। वह रात
कोई पांच बजे
सुबह
होते-होते
लौटा। उस साधु
ने पूछा, क्या
चोरी सफल हुई?
कुछ लाए?
उस चोर
ने हंसते हुए
कहा, आज तो
नहीं, लेकिन
कल फिर कोशिश
करेंगे।
ऐसे वह
साधु एक महीना
उस चोर के घर
रहा। रोज चोर
सुबह लौटता, वह साधु
पूछता, कुछ
लाए? वह
कहता, आज
तो नहीं, लेकिन
कल, कल
जरूर लेकर
आएंगे। फिर वह
साधु चला आया।
उसने
बाद में बताया
कि जब मैं
भगवान को
खोजने लगा और
रोज-रोज असफल
होने लगा; शांत होने
की चेष्टा
करता था, लेकिन
नहीं हो पाता
था; मन से
विचारों को
दूर करने का
प्रयास करता
था, लेकिन
विचार दूर
नहीं होते थे;
भगवान को
खोजता था, लेकिन
भगवान नहीं
मिलता था; तब
मैं थक जाता, निराश हो
जाता और सोचता
कि सब कुछ छोड़
दूं! तब मुझे
उस चोर की याद
आती जो रोज
रात को कहता था,
अगर आज नहीं
मिला तो कल तो
जरूर मिल
जाएगा। तब फिर
मैं सोचता कि
एक साधारण सा
चोर भी जब कल
पर इतना
विश्वास रखता
है, इतनी
आशा रखता है, इतना साहस
रखता है, तो
मैं परमात्मा
को खोजने
निकला हूं, मुझे भी
इतनी जल्दी निराश
नहीं होना
चाहिए। मैं भी
सोचता कि आज
नहीं तो कल
जरूर मिल
जाएगा।
फिर एक
दिन परमात्मा
की अनुभूति
मुझे हुई और तब
मैंने सबसे
पहले उस चोर
को प्रणाम
किया, जहां
मैं था वहीं
से--कि तुम
मेरे गुरु हो
और तुमसे
मैंने यह आशा
सीखी, यह
हिम्मत सीखी,
यह साहस
सीखा और निराशा
से मैं बचा।
अब यह
चोर से एक
आदमी सीख सकता
है तो जिंदगी
में सीखने की
बात तो सब तरफ
से सीखी जा
सकती है। केवल
वे ही लोग जो
अपने
मस्तिष्क की
दीवालों को
बंद कर लेते
हैं, सीखने से
वंचित हो जाते
हैं।
विद्यालय में
ही विद्या
नहीं मिलती, शिक्षालयों
में ही सब
ज्ञान नहीं
मिल जाता है, असली ज्ञान
तो जीवन में
मिलता है।
लेकिन अगर तुम
पूछो नहीं, खोजो नहीं, आंखें खोल
कर देखो नहीं,
तो ज्ञान की
वर्षा ऐसे
नहीं होती
जैसे पानी बरसता
है--कि वह अपने
आप तुम्हारे
ऊपर बरस जाएगा
और तुम्हें
मिल जाएगा।
उसे तो खोजना
होगा, प्रयास
करना होगा। और
जो प्रयास
करता है...
एक
वैज्ञानिक ने
एक अदभुत काम
किया इधर।
कैक्टस का एक
पौधा, जिसमें
कांटे ही
कांटे होते
हैं और जिसमें
कभी बिना
कांटे की कोई
शाखा नहीं
होती, एक
अमरीकन
वैज्ञानिक उस
पौधे को बहुत
प्रेम करता
रहा। लोगों ने
तो समझा कि
पागल है, क्योंकि
पौधे को प्रेम
करना! अरे
आदमी को ही
प्रेम करने
वाले को बाकी
लोग पागल
समझते हैं, तो पौधे को
प्रेम करने
वाले को तो
कौन समझदार समझेगा!
उसके घर के
लोगों ने भी
समझा कि दिमाग
खराब हो गया
है। वह सुबह
से उठता तो वह
पौधा ही पौधा
था। उसी को
प्रेम करता, उससे बातें
भी करता। तब
तो और पागलपन
हो गया। वृक्ष
से तो बातें
हो कैसे सकती
हैं?
उस
वैज्ञानिक ने
जब यह घोषणा
की कि मैं एक
वृक्ष से
बातें शुरू
किया हूं और
मुझे आशा है
कि मैं सफल हो
जाऊंगा। तो
सारे अमरीका
में उसकी हंसी
उड़ी, सारे
अखबारों में
उसकी फोटो छपी
कि यह आदमी पागल
हो गया। कहीं
कोई वृक्ष से
बातें किया है
कभी? लेकिन
वह अदभुत पागल
आदमी था कि
अपने काम में लगा
रहा। इस
कैक्टस के
पौधे से, जिसमें
कांटे ही
कांटे होते
हैं, वह
रोज सुबह बैठ
कर घंटे भर
बातें करता, उससे प्रेम
करता, उस
पर पानी
सींचता, जितने
हृदय के भाव
होते उसको
बताता। वृक्ष
तो चुप रहता, वृक्ष क्या
बोलेगा, वृक्ष
तो कभी बोला
ही नहीं है, इसलिए
एकतरफा ही
बातें होतीं,
वह
वैज्ञानिक
खुद ही उस
पौधे से कुछ
कहता रहता।
उसकी
पत्नी भी
परेशान हो गई, उसके बच्चे
भी हैरान हुए।
उन्होंने कहा,
यह क्या
पागलपन किया?
बदनामी
होगी। इससे
कोई फल आने
वाला है!
लेकिन
उसने कहा कि
मैं
प्रतीक्षा
करूंगा। और उस
पौधे से उसने
क्या कहा? उस पौधे से
सारी बातें
करता, जैसे
कोई मित्रों
से करता है।
और अंत में एक
बात रोज उससे
कह देता। उससे
कह देता कि
मैं तो तुमसे
कह रहा हूं, पता नहीं
मेरी भाषा तुम
समझते हो या
नहीं समझते हो,
पता नहीं
तुम तक मेरी
बातें पहुंचेंगी
या नहीं पहुंचेंगी,
लेकिन अगर
मेरा प्रेम
तुम तक पहुंच
जाए तो तुम
किसी इशारे से
जाहिर तो कर
ही सकते हो कि
मेरा प्रेम
तुम तक पहुंच
गया। तो मैं
तुम्हें बताता
हूं, तुम
यह इशारा कर
देना तो मैं
समझ जाऊंगा। और
उसने क्या कहा?
उसने यह कहा
कि तुम्हारे
इस पौधे
में--कांटों वाला
पौधा है
कैक्टस का, उसमें कांटे
ही कांटे
हैं--अगर एक
ऐसी शाखा निकल
आए जिसमें
कांटे न हों, तो मैं समझ
जाऊंगा कि
मेरी बातें
तुम तक पहुंचीं।
उस
पौधे में कभी
बिना कांटे की
कोई शाखा नहीं
निकली, यह तो असंभव
ही था। लेकिन
सात साल तक वह
यह कहता रहा।
और तुम हैरान
हो जाओगे, एक
दिन ऐसा आया
कि उस पौधे
में एक शाखा निकली
जिसमें कांटे
नहीं थे। तब
तो सारा
अमरीका स्वीकार
किया, सारी
दुनिया ने
स्वीकृति दी
कि जरूर
मनुष्य की
प्रेम की वह
आवाज उस पौधे
के प्राणों तक
भी पहुंची, अन्यथा वह
शाखा कैसे
निकलती
जिसमें कांटे
नहीं हैं? सारी
शाखाएं
कांटों वाली,
एक शाखा
बिना कांटे की
भी निकल आई।
पौधा भी, अगर
सतत उसके साथ
प्रेम किया
गया, उत्तर
दिया उसने।
तो अगर
तुम जिंदगी से
पूछो--पत्थरों
से, पौधों से,
आदमियों से,
आकाश से, तारों से--तो
सब तरफ से
उत्तर
मिलेंगे।
लेकिन तुम पूछो
ही नहीं, तो
उत्तरों की
वर्षा नहीं
होती, ज्ञान
कहीं बरसता
नहीं किसी के
ऊपर। उसे तो
लाना पड़ता है,
उसे तो
खोजना पड़ता
है। और खोजने
के लिए सबसे बड़ी
जो बात है वह
हृदय के द्वार
खुले हुए होने
चाहिए। वे बंद
नहीं होने चाहिए।
दुनिया की तरफ
से दरवाजे बंद
नहीं होने चाहिए,
बिलकुल
खुला हुआ मन
होना चाहिए।
और जो भी आए चारों
तरफ से, निरंतर
सजग रूप से, होशपूर्वक
उसे समझने, सोचने और
विचारने की
दृष्टि बनी रहनी
चाहिए।
एक
दो बातें पूछी
हैं: मन से कुछ
विचार निकाल डालना
है, किंतु वह
विचार
बारंबार हृदय
में जबरदस्ती
उठता है। उसको
कैसे निकाल
डालें?
होता
है, किसी
विचार को हम
अपने मन से
बाहर निकालना
चाहते हैं। हो
सकता है विचार
प्रीतिकर न हो,
दुखद हो, चिंता लाता
हो, उदासी
लाता हो, घृणा
का विचार हो, हिंसा का
विचार हो। कोई
ऐसा विचार हो
जिसे हम अपने
मन से बाहर कर
देना चाहते
हैं, कोई
ऐसी स्मृति हो
पीड़ा से भरी
हुई, अपमान
की कोई स्थिति
हो, दुख की
कोई घटना हो, हम उसे भूल
जाना चाहते
हैं, विस्मरण
करना चाहते
हैं, मन से
हटाना चाहते
हैं। लेकिन
जितना उसे
हटाते हैं, वह और हमारे
पास आती है।
जितना हम उसे
दूर फेंकते
हैं, वह और
लौट-लौट कर
हमारे पास आ
जाती है। तो
यह पूछा है कि
यह कैसे हो? कैसे उसे
अलग किया जाए?
मन की
प्रकृति को
समझना जरूरी
है, तभी कुछ
किया जा सकता
है। मन की
प्रकृति का पहला
नियम यह है कि
अगर किसी चीज
को भूल जाना
है तो उसे
भूलने की
कोशिश नहीं
करनी चाहिए।
क्योंकि
भूलने की
कोशिश के ही
कारण बार-बार
उसकी याद बनी
रहती है। तुम
जब भी उसे भूलना
चाहो तभी उसको
फिर याद करना
पड़ता है। और भूलने
की तो कोशिश
होती है, लेकिन
पीछे उसकी याद
वापस खड़ी हो
जाती है। तुम्हें
एक कहानी सुनाऊं,
उससे यह समझ
में आ सकेगा।
तिब्बत
में मिलारेपा
नाम का एक
बहुत बड़ा साधु
हुआ। उसके पास
एक आदमी आया
और उसने कहा
कि मैं कोई
मंत्र सिद्ध
करना चाहता
हूं ताकि मेरे
पास बड़ी शक्तियां
आ जाएं, मैं
कोई चमत्कार,
मिरेकल कर सकूं। मिलारेपा
ने कहा कि मैं
तो सीधा-सादा
फकीर हूं, मुझे
कोई चमत्कार
नहीं मालूम और
न कोई शक्ति
और न कोई
मंत्र। लेकिन
जितना उसने
इनकार किया
उतना ही उस
आदमी को ऐसा
लगा कि जरूर
इसके पास कुछ
होना चाहिए, इसीलिए
बताता नहीं
है। वह उसके
पीछे ही पड़
गया, वह
उसके...रात
वहीं पड़ा रहता
उसके दरवाजे
पर। आखिर मिलारेपा
घबड़ा गया।
उसने एक रात, अमावस की रात
थी, उससे
कहा कि ठीक है,
तुम नहीं
मानते, यह
मंत्र ले जाओ।
एक कागज पर
पांच
पंक्तियों का
छोटा सा मंत्र
लिख दिया और
कहा, इस
मंत्र को ले
जाओ, अमावस
की रात को ही
यह सिद्ध होता
है, इसे
तुम पांच बार
पढ़ना, पांच
बार पढ़ते से
ही यह सिद्ध
हो जाएगा।
वह
आदमी तो कागज
को लेकर भागा।
उसे धन्यवाद
देने का भी
खयाल न रहा, उसने
नमस्कार भी
नहीं की, उस
दिन उसने पैर
भी नहीं छुए।
वह तो भागा
जल्दी से कि
घर जाए और
मंत्र को
सिद्ध करे।
मंदिर की कोई
बीस-पच्चीस
सीढ़ियां थीं,
वह उनसे
नीचे उतर ही
रहा था, बीच
सीढ़ियों पर था,
तभी उस साधु
ने चिल्ला कर
कहा कि सुनो, एक शर्त और
है! मंत्र जब
पढ़ो तो खयाल
रखना बंदर की
स्मृति न आए, बंदर दिखाई
न पड़े। अगर मन
में बंदर का
खयाल आ गया तो
मंत्र बेकार
हो जाएगा।
उस
आदमी ने कहा, यह भी क्या
बात बताई!
मुझे जिंदगी
हो गई, आज
तक बंदर का
खयाल नहीं आया,
स्मृति
नहीं आई। कोई
डर की बात
नहीं, कोई
चिंता का कारण
नहीं।
लेकिन
वह सीढ़ियां
पूरी भी नहीं
उतर पाया कि
उसके भीतर
बंदर की
स्मृति आनी
शुरू हो गई।
वह जैसे घर की
तरफ चला, भीतर
बंदर भी उसके
मन में स्पष्ट
होने लगा, बंदर
बहुत साफ
दिखाई पड़ने
लगा घर
पहुंचते-पहुंचते।
वह बहुत घबड़ाया।
उसने कहा, यह
क्या मुश्किल
हो गई! वह बंदर
को भगाने
लगा कि हटो
मेरे मन से।
लेकिन बंदर था
कि जितना वह
हटाने लगा, और स्पष्ट
होने लगा। मन
में उसका बिंब,
बंदर की
प्रतिमा
स्पष्ट होने
लगी। वह घर
गया, आंख
बंद करे तो
बंदर दिखाई
पड़े, अब
मंत्र को कैसे
पढ़ा जाए जब तक
बंदर दिखाई
पड़े! रात भर
में परेशान हो
गया, लेकिन
बंदर से
छुटकारा नहीं
हो सका।
सुबह
वापस लौटा, उसने वह
मंत्र उस साधु
को लौटा दिया
और कहा, क्षमा
करें, अगर
यही शर्त थी
तो आपको मुझे
बताना नहीं
था। बताने से
सब गड़बड़ हो
गई। बंदर मुझे
कभी स्मरण नहीं
आता था, आज
रात भर बंदर
मेरे पीछे पड़ा
रहा। और
दुनिया का कोई
जानवर मुझे
दिखाई नहीं
पड़ा, सिर्फ
बंदर दिखाई
पड़ा। और मैं
इसे रात भर
निकालने की
कोशिश करता था,
लेकिन वह
नहीं निकलता
था।
जिसको
कोई निकालना
चाहेगा उसे
निकालना कठिन हो
जाएगा, क्योंकि
निकालने के
कारण ही उसकी
स्मृति परिपक्व
होती है, मजबूत
होती है। तो
फिर क्या
रास्ता है?
अगर
किसी विचार को, किसी स्मृति
को निकालना हो
मन से, तो
पहली तो बात
यह है, निकालने
की कोशिश मत
करना। पहली
शर्त! फिर क्या
होगा? अगर
नहीं निकालेंगे
तब तो वह
आएगा। सिर्फ
उसको देखना।
निकालना मत, मात्र चुपचाप
बैठ कर उसे
देखना। न उसे
निकालना, न
उसे हटाना।
तटस्थ-भाव से विटनेस भर
हो जाना, उसके
साक्षी भर हो
जाना।
जैसे
कोई रास्ते पर
बैठ
जाए--रास्ते
पर लोग निकलते
हैं, तांगे निकलते हैं,
कारें
निकलती हैं, जानवर
निकलते
हैं--किनारे
पर हम बैठ कर
चुपचाप देख
रहे हैं। रास्ता
चल रहा है, न
हम चाहते हैं
कि फलां आदमी
रास्ते पर चले,
न हम यह
चाहते हैं कि
फलां आदमी न
चले, हम
सिर्फ देख रहे
हैं। हमारा
कोई लगाव नहीं,
हम मात्र
देख रहे हैं
अनासक्त भाव
से, बिना
किसी लगाव के,
अनअटैच्ड,
सिर्फ देख
रहे हैं।
ठीक
ऐसे ही, अगर
मन से किन्हीं
विचारों से
मुक्ति पानी
हो, तो
सिर्फ देखना,
उनसे लड़ना
मत। लड़ने के
बाद तो उनको
हटाना असंभव
है। मात्र
उनको देखना।
जब भी कोई
स्मृति ऐसी है
जो हटाने जैसी
है, कोई
विचार ऐसा है
जिसे विदा
करना
है--एकांत में
बैठ जाओ, उसे
आने दो, आंख
बंद कर लो, चुपचाप
देखो। जैसे
फिल्म देखते
हैं हम, सिनेमा
में बैठ कर एक
पर्दे पर चलते
हुए चित्रों
को देखते हैं,
वैसे
चुपचाप उसे
देखो। कुछ करो
मत, छेड़ो
मत, हटाओ
मत, बुलाओ
मत, मात्र
देखो--जैसे
केवल एक दर्शक
मात्र। तुम हैरान
हो जाओगे, अगर
दर्शक मात्र
की तरह देखो
तो थोड़ी देर
में वह विलीन
हो जाएगी। और
जब भी वह आए तब
दर्शक की तरह
देखो, कुछ
दिनों में वह
विलीन हो
जाएगी, उसका
आना बंद हो
जाएगा।
अगर
कोई व्यक्ति
इसी भांति
अपने सब
विचारों को
निरंतर देखता
रहे, ऑब्जर्व करता रहे, तो
धीरे-धीरे सभी
विचार क्षीण
हो जाते हैं।
और तब एक
अपूर्व शांति
भीतर फलित
होती है। तब
चित्त निरंतर
शांत, निरंतर
मौन बना रहता
है। उसमें
विचारों की भीड़-भाड़,
शब्दों की
भीड़-भाड़, व्यर्थ
का कचरा कोई
भी नहीं घूमता
है।
अभी तो
मस्तिष्क एक कचरेघर की
भांति है। अगर
तुमसे मैं
कहूं, कल
अपने कमरे पर
बैठ कर अकेले
में दस मिनट
केवल, तुम्हारे
मन में जो भी
चलता हो उसको
कागज पर लिखना,
तो बाद में
पढ़ कर तुम
घबड़ा जाओगे।
तुम्हारे दिमाग
में ऐसे
पागलपन के
विचार चलते
हुए मालूम पड़ेंगे,
ऐसी व्यर्थ
की
बातें--जिनका
कोई मतलब नहीं,
जिनकी कोई
संगति नहीं, जिनसे कोई
प्रयोजन नहीं,
जिनका कोई
लाभ
नहीं--तुम्हारे
मन में दौड़ती
हुई मालूम
पड़ेंगी। अगर
दस मिनट तुम
अपने सारे
विचारों को
वैसा का वैसा
लिखो तो खुद
ही घबड़ा जाओ, दूसरों को
बताने की
हिम्मत न हो।
क्योंकि कोई भी
देख कर कहेगा
कि तुम पागल
हो, ये
विचार
तुम्हारे मन
में कैसे चलते
हैं!
पागल
में और
सामान्य आदमी
में बहुत फर्क
नहीं है।
सामान्य आदमी
के भीतर
धीरे-धीरे जो
विचार चलते
रहते हैं, पागल थोड़ा
और आगे बढ़
जाता है, उन्हीं
विचारों को
जोर-जोर से
बोलने लगता है,
तो वह पागल
दिखाई पड़ता
है। और जो
नहीं बोलते हैं
वे ठीक दिखाई
पड़ते हैं।
लेकिन दोनों
के भीतर एक से
विचार चलते
होते हैं। इन
सारे विचारों
के चलते हुए
कोई भी मनुष्य
कभी शांत नहीं
हो सकता। इन
विचारों से
छुटकारा होना
चाहिए। लेकिन
हटाने से कोई
विचार नहीं
हटता है। धक्के
देने से, जबरदस्ती
करने से कोई
विचार नहीं
हटता, बल्कि
और आता है।
जितना दबाओ
उतना आएगा, जितना भगाओ
उतना वापस
लौटेगा।
रास्ता
है--न भगाओ, न दबाओ, बल्कि
देखो, शांत
होकर देखो, सिर्फ
निरीक्षण करो,
मात्र
दर्शक रह जाओ।
जैसे रास्ते
पर कोई खेल हो
रहा है, तुम
खड़े होकर देख
रहे हो, ऐसे
ही अपने मन के
खेल को देखो
और दूर खड़े हो
जाओ। सिर्फ
देखो, उस
देखने के ही
द्वारा धीरे,
धीरे, धीरे
विचार क्षीण
हो जाते हैं
और एक स्थिति
आती है कि मन इतना
शांत हो जाता
है जैसे आकाश
हो बिना बादल
का, बिना
बादल का नीला
आकाश हो
जिसमें कोई
बादल नहीं।
ऐसा ही एक
क्षण आता है
जब मन बिना
विचार के शांत
नीले आकाश की
भांति हो जाता
है। वही स्थिति
अपूर्व आनंद
की होती है।
उसी स्थिति
में मनुष्य को
अपनी आत्मा का
बोध होता है, उसी स्थिति
में उसे
परमात्मा की
प्रतीति और अनुभव
शुरू होते
हैं। मन की एक
ऐसी दशा, मन
की एक ऐसी
शांत स्थिति,
मन की एक
ऐसी बादलों से
रहित आकाश
जैसी स्थिति
को पैदा कर
लेना ही ध्यान
है।
कल
हमने ध्यान का
प्रयोग किया, आज फिर हम
ध्यान के
प्रयोग के लिए
अभी बैठेंगे।
तीन दिनों के
शिविर की
अंतिम चर्चा
है, कुछ
थोड़ी सी ऐसी
जरूरी बातें
जो तुम्हारे
लिए उपयोगी हो
सकें, उन
पर भी बात
करूंगा।
एक तो
सर्वाधिक
महत्वपूर्ण
उन सभी लोगों
के लिए जिनके
मन में
परमात्मा को
जानने की कोई
भी प्यास जगी
हो--या
परमात्मा की
प्यास उसे न
कहें, जिनके
हृदय में शांत
होने की
आकांक्षा
पैदा हुई
हो--या शांति
की आकांक्षा
भी उसे न कहें,
जिनके हृदय
में आनंद को
उपलब्ध करने
की अभीप्सा
पैदा हुई हो, उन सभी के
लिए कुछ बहुत
आधारभूत
बातें जरूरी हैं।
यदि उन बातों
पर ध्यान न हो
तो इस दिशा
में--आनंद की, शांति की या
परमात्मा की
दिशा में--कोई
भी प्रयत्न
सफल नहीं हो
सकता है।
पहली
बात, जिस पर से
कि ध्यान
करीब-करीब
सारी
मनुष्य-जाति
का उचट
गया है, वह
है एकांत का
मूल्य।
धीरे-धीरे
मनुष्य भीड़ में,
समूह में
खोता गया है
और अकेले होने
की भी कोई
स्थिति है, यह उसे भूल
गई है। सुबह
से हम उठते
हैं और जो दुनिया
शुरू होती है,
जो काम शुरू
होता है, वह
हमें भीड़ में
ले जाता है।
दिन भर की
मेहनत के बाद
अगर कभी थोड़ी
देर बैठने का
समय मिलता है तो
अखबार पढ़ते
हैं, रेडियो
सुनते हैं, और उस कारण
भी एकांत संभव
नहीं हो पाता।
अगर वक्त
मिलता है, मित्रों
से मिलते हैं,
होटल, सिनेमा
या क्लब, वहां
भी हम अकेले
नहीं होते। जब
थक जाते हैं तो
रात सो जाते
हैं, फिर
सुबह से वही
दुनिया शुरू
हो जाती है।
अकेला
होना
करीब-करीब
हमें विस्मरण
हो गया है।
लेकिन यह खयाल
में रहे, दुनिया
में जो भी
श्रेष्ठतम वस्तुओं
का जन्म हुआ
है, वे सब
एकांत में
पैदा हुई हैं,
भीड़ में
नहीं। और यह
भी स्मरण रहे
कि दुनिया में
मनुष्य-जाति
के इतिहास में
जिन लोगों ने
भी सत्य को, सौंदर्य को,
शिवत्व को जाना है, उन सबने
एकांत में
जाना है, भीड़
में नहीं। और
यह भी खयाल
में रहे, भीड़
ने अब तक कोई
महान कार्य
नहीं किया है।
जो भी महान
कार्य हैं वे
व्यक्तियों
ने किए हैं। और
वे सारे महान
कार्य एकांत
में पैदा हुए
हैं। यह जान
कर तुम्हें
आश्चर्य होगा
कि भीड़ ने दुष्कर्म
तो किए हैं, बुरे काम तो
किए हैं--हत्याएं
तो की हैं, युद्ध
तो किए हैं, खून किए हैं,
आग लगाई
है--लेकिन भीड़
ने किसी सुंदर
कृति को, किसी
बहुमूल्य
चित्र को, किसी
मूर्ति को, किसी
विज्ञान के
आविष्कार को,
किसी कविता
को, किसी
महाकाव्य को,
किसी जीवन
के सिद्धांत
को जन्म नहीं
दिया है। जो
भी
महत्वपूर्ण
पैदा हुआ है
वह व्यक्ति से
पैदा हुआ है, भीड़ से
नहीं। और
व्यक्ति से भी
तभी पैदा हुआ
है जब वह
एकांत में गया
है, अकेले
में गया है, भीड़ से थोड़ा
अपने को उसने
मुक्त किया है
और दूर हुआ
है।
लेकिन
हम सब तो भीड़
की तरफ भागते
रहते हैं। अगर
घड़ी भर अकेले
बैठने को मिल
जाए तो हम
घबड़ा जाएंगे, बेचैन हो
जाएंगे।
चाहेंगे कि
मित्रों के
पास जाएं, अखबार
पढ़ें, रेडियो
सुनें, या
किसी भांति उस
अकेलेपन को
खत्म करें, उस अकेलेपन
को नष्ट करें।
यह
खतरनाक बात
है। अगर
तुम्हारे
जीवन में एकांत
की घड़ियां
नहीं हैं, तुम्हारे
जीवन में कोई
महत्वपूर्ण
बात कभी भी
पैदा नहीं हो
सकेगी। अकेले
होना सीखना
चाहिए। ऐसा नहीं
कह रहा हूं कि
चौबीस घंटे
तुम अकेले
रहो। जीवन का
काम है, उसमें
भीड़ है, उसमें
दूसरे लोग हैं,
लेकिन कुछ
घड़ियां तो खोज
लेनी चाहिए जब
तुम बिलकुल
अकेले ही हो, जब कि कोई
तुम्हारे साथ
नहीं है। न
केवल कोई साथ
नहीं है, बल्कि
भीतर भी किसी
की स्मृति न
हो, सबको
विदा कर दो और
बिलकुल अकेले
हो जाओ। उस अकेलेपन
में तुम्हें
कुछ चीजों का
साक्षात होगा।
उस अकेलेपन
में तुम्हारे
भीतर, तुम
क्या हो, उसकी
अनुभूति, उसका
अहसास, उसकी
प्रतीति होनी
शुरू होगी, उसका स्पर्श
होना शुरू
होगा। और उस
एकांत में ही
उस चिंतन को
जन्म मिलेगा,
जो
तुम्हारे
जीवन को ऊंचा
ले जा सकता
है। और उस
एकांत में ही
तुम्हारे
भीतर उस आत्मा
का जागरण होगा,
जो तुम्हें
प्रेरणा दे
सकती है, गति
दे सकती है और
शक्ति दे सकती
है।
इसलिए
एकांत के कुछ
क्षण खोजते
रहना चाहिए। लोग
हैं, अगर वे
शहरों से कभी
ऊब कर छुट्टी
के दिनों में
बाहर जाते हैं,
तो वहां भी
मित्रों को
लेकर पहुंच
जाते हैं। वहां
भी भीड़-भाड़ है,
वहां भी सब
वही लोग हैं, वही बातें
हैं।
कभी न
कभी, महीने
में कुछ क्षण,
कुछ दिन, कुछ घड़ियां
एकदम अकेले
में बितानी
जरूरी हैं। उस
अकेले में
सिर्फ अपने
साथ--खयाल मत
ले जाओ
मित्रों के, परिवार के, दुश्मनों के,
उन सबको भी
विदा कर
दो--बिलकुल
अकेले चले
जाओ। कोई एक
घंटा तो चौबीस
घंटे में
बिलकुल अकेला
बिताना
चाहिए। क्या
होगा अकेले
में बिताने से?
अकेले में
अगर तुमने
सबको विदा कर
दिया, मन
से भी, बाहर
से भी और तुम
बिलकुल अकेली
हो गईं, तो
क्या होगा?
अकेले
होने में ही
तुम्हें
विचार होगा
जीवन के बाबत
कि मैं अपने
जीवन को
व्यर्थ तो
नहीं खो रही
हूं? मैं जो कर
रही हूं वह
व्यर्थ तो
नहीं है? जो
मेरे जीवन में
हो रहा है
उसका कोई
मूल्य है? कोई
अर्थ है या
नहीं? उस
अकेले में ही
यह चिंतन पैदा
होगा कि मेरा
जीवन जिस गति
से जा रहा है
वह उचित है
क्या? मेरे
जीवन में कोई
विकास हो रहा
है, इसका
विश्लेषण हो
सकेगा। कहीं
ऐसा तो नहीं
है कि कल
मैंने जो किया
था, वही आज
किया है, वही
कल भी होगा और
इसी भांति एक
गोल घेरे में
घूमते-घूमते
मैं समाप्त हो
जाऊं? इस
सबका चिंतन
पैदा होगा।
अपने भीतर की बुराइयां
देखने की भी
संभावना पैदा
होगी। और अगर बुराइयां
दिखाई पड़ने
लगें तो उनसे
छूटना कठिन
नहीं होता है,
वह मैंने
सुबह तुमसे
कहा। तो अपनी
बुराइयों का
भी दर्शन
होगा। अगर
तुम्हारे
जीवन में कुछ श्रेष्ठ
है, तो उसे
कैसे विकसित
करें, उसे
और कैसे बड़ा
करें, इसके
भी खयाल पैदा
होंगे, इसकी
भी प्रेरणा
मिलेगी। वह
तुम्हारा
आत्म-निरीक्षण
का क्षण हो
जाएगा।
थोड़ी
देर एकांत
अत्यंत
अनिवार्य है।
बिलकुल अकेले
हो जाओ। अगर
बाहर नहीं जा
सकते हो, कोई
कमरे में अपने
को बंद कर लो
और एक घंटा, आधा घंटा
बिलकुल एकांत
में चुपचाप
बैठ कर बिताओ।
वह तुम्हारे
जीवन के संबंध
में बहुत
महत्वपूर्ण
घड़ी सिद्ध
होगी। आखिर
में तुम्हें
ज्ञात होगा कि
तुमने काम में
जो समय बिताया
वह तो व्यर्थ
गया और तुमने
एकांत में जो
समय बिताया उसने
तुम्हारे प्राणों
को बनाने में,
तुम्हारे
जीवन को
निर्माण करने
में बहुत बड़ी सहायता
दी।
लेकिन
मनुष्य-जाति
एकांत को
भूलती जाती
है। और एकांत
को भूलने के
कारण ही वह
प्रकृति को भी
भूलती चली
जाती है। तो
यह चारों तरफ
हमारे प्रकृति
का सौंदर्य है, उससे भी
हमारे संबंध
क्षीण हो गए।
अभी लंदन
में उन्होंने
छोटे-छोटे
बच्चों से एक
सर्वे किया और
छोटे-छोटे
बच्चों से
पूछा, तो लंदन की महानगरी
में दस लाख
बच्चे ऐसे हैं
जिन्होंने
खेत नहीं देखा
है और पंद्रह
लाख बच्चे ऐसे
हैं जिन्होंने
गाय नहीं देखी
है। लंदन
जैसी जगह में
पंद्रह लाख
छोटे बच्चे ऐसे
हैं
जिन्होंने
गाय नहीं देखी
है, दस लाख
बच्चे ऐसे हैं
जिन्होंने
खेत नहीं देखा
है। इनकी
जिंदगी में तो
बड़ी कमी रह
जाएगी, इनकी
जिंदगी तो
बहुत अधूरी रह
जाएगी।
मनुष्य
प्रकृति का
हिस्सा है।
मनुष्य प्रकृति
का एक हिस्सा
है, उसका एक
अंग है। अगर
हम उसे बिलकुल
तोड़ कर अलग रख
लें तो उसके
जीवन में बहुत
सी बातें नष्ट-भ्रष्ट
हो जाएंगी।
तुम
कहोगे, हम
तो पौधों को
देखते हैं, चांद को
देखते हैं, सूरज को
देखते हैं, झील को
देखते हैं।
इतना
ही देखना काफी
नहीं है; देखने
का भी मार्ग
है। कभी किसी
वृक्ष के पास तुमने
घड़ी दो घड़ी
एकांत में बैठ
कर बिताई हैं?
कभी उस
वृक्ष को
प्रेम किया है?
कभी उस
वृक्ष को
प्रेम से सहलाया
है? कभी
उसके निकट बैठ
कर उससे टिक
कर प्रेम की
कोई घड़ी अनुभव
की है? अगर
नहीं, तो
तुम वृक्ष से
परिचित नहीं
हो पाओगी।
कभी किसी झील
की रेत पर
चुपचाप घड़ी भर
उसी भांति
विश्राम किया
है जैसे कोई
अपनी मां की
गोद में सिर
रख कर विश्राम
करता है? अगर
नहीं किया, तो तुम उस
झील से, उस
रेत से परिचित
नहीं हो पाओगी।
भागे हुए झील
के पास जाना
और सोचना कि
हमने झील को
देख लिया, और
वापस लौट आने
से झील नहीं
देखी जाती है।
इतने
जल्दी, इतनी
शीघ्रता में
भागते हुए लोग
प्रकृति के
दृश्यों को
देखते फिरते
हैं। अमेरिका
जैसे मुल्कों
में तो वे
कारों से भी
नहीं उतरते, कारों में
बैठे-बैठे ही
वे सारी
प्रकृति का दर्शन
कर लेते हैं।
ऐसे प्रकृति
से संबंध नहीं
हो सकता।
प्रकृति को
जानने के लिए
जरूरी है अत्यंत
आत्मीयता से
उसके निकट
जाना। अत्यंत
आत्मीयता और
प्रेम से
प्रकृति के
निकट होना।
कभी
तुमने किसी
पशु को प्रेम
किया है? और
अगर हम पशु को,
पौधों को, चारों तरफ
फैली हुई
प्रकृति को
प्रेम न कर
सकें और हमारे
उससे कोई
संबंध न हों, तो हमारे
भीतर बहुत सी कमियां रह
जाएंगी, बहुत
से अभाव रह
जाएंगे।
हमारे जीवन
में सौंदर्य
के फूल खिलने
संभव नहीं हो
सकेंगे।
तो मैं
दूसरी बात यह
कहना चाहता
हूं--पहली बात तो
यह कि तुम
एकांत में कुछ
न कुछ समय
बिताना शुरू
करो--दूसरी
बात, कुछ न कुछ
समय प्रकृति
के निकट भी
बिताना बहुत
जरूरी है।
जैसे अब तुम
यहां आई हो तो
तुम्हें खयाल
होगा--कोई
बंबई से आया
होगा, कोई नासिक से, कोई पूना से,
बड़े-बड़े
शहरों से--तो
तुम्हें खयाल
होगा कि यहां
इस दूर
प्रकृति के
रम्य स्थान
में हम बहुत प्रकृति
के करीब हैं।
लेकिन इतना
होना काफी नहीं
है। यहां आ
जाना काफी
नहीं है। यहां
के पौधों से, यहां के
चांद से, यहां
की जमीन से, यहां की झील
से, इन
सबसे
तुम्हारा
अत्यंत
प्रेमपूर्ण
घनिष्ठ संबंध
पैदा होना
चाहिए। अगर वह
पैदा न हो तो तुम्हारा
कोई संबंध
इनसे नहीं हो
सकेगा।
एक
मित्र मेरे आए
हुए थे, उन्होंने
बहुत दुनिया
की यात्रा की
है। तो अपने छोटे
से गांव में
उनको मैं नदी
पर ले गया पहाड़ियां
दिखाने। नाव
में बिठा कर
उनको मैंने
यात्रा कराई।
लेकिन वे मुझे
बताते रहे स्विटजरलैंड
की झीलों के
संबंध में, कश्मीर की
झीलों के
संबंध में। दो
घंटे तक हम वहां
थे। जिस झील
पर हम मौजूद
थे उसके बाबत
न तो उन्होंने
कोई बात की, न उस झील के
बाबत उनके मन
में कोई खयाल
उठा और न उस
झील को
उन्होंने
देखा।
क्योंकि उनके
मन में तो स्विटजरलैंड
की झीलें
घूमती रहीं और
कश्मीर की
झीलें घूमती
रहीं। जब दो
घंटे के बाद
हम विदा होने
लगे, तो
उन्होंने
मुझसे कहा कि
यह जगह बड़ी
अच्छी थी जहां
आप मुझे लाए।
मैंने
उनसे कहा, यह झूठी बात
आप न कहें।
क्योंकि आप उस
जगह पर...मैं
आया तो था
आपको लेकर, लेकिन आप
वहां पहुंच
नहीं सके।
आपका मन वहां
एक क्षण को भी
उस झील के साथ
आत्मीय नहीं
हो सका। आप तो
दूसरी बातें
करते रहे--स्विटजरलैंड
की, कश्मीर
की। अगर इस
झील के साथ
आपका प्रेम
पैदा होता तो
कश्मीर भी भूल
जाता, स्विटजरलैंड भी भूल जाता,
एक घंटे भर
को आप मौन हो
जाते और इस
झील के साथ जीते।
लेकिन आप तो
इस झील के साथ
जीए नहीं। और
मैंने उनसे
कहा, मैं
यह भी समझ गया
कि जब आप स्विटजरलैंड
में रहे होंगे
तो वहां की
झीलों के साथ
भी आप जीए
नहीं होंगे, वहां भी आप
सोचते रहे
होंगे दूसरी
बातें।
अगर
तुम्हें
प्रकृति के
पास जाना है
तो सारी बातों
को छोड़ दो और
उतनी देर के
लिए उस
प्रकृति के
साथ एक हो
जाओ। अगर एक
फूल को प्रेम
करना है तो और
सब खयाल छोड़
दो, एक फूल के
पास दस-पांच
मिनट बैठो, सब भूल जाओ, अकेले फूल
को रह जाने
दो। अगर
तुम्हारे मन
से सारे खयाल
चले जाएं और
बाहर सिर्फ
फूल रह जाए, तो थोड़ी देर
में तुम पाओगी
कि फूल ही
जैसी कोई
सुंदर चीज
तुम्हारे
भीतर भी मौजूद
हो गई है। अगर
तुम्हारे मन
से सारे विचार
चले जाएं और
तुम झील के
किनारे एक घड़ी
भर बैठी रह
जाओ, तो
थोड़ी देर बाद
तुम्हें पता
चलेगा कि
तुम्हारे
भीतर भी झील
जैसी किसी
शांत चीज ने
जन्म ले लिया
है। अगर तुम
घड़ी भर को मौन
जमीन पर लेट
जाओ और चांद
को देखती रहो
और कोई खयाल
तुम्हारे मन
में न आए, कोई
विचार
तुम्हारे मन
में न आए, थोड़ी
देर में चांद
ही जैसी सुंदर
चीज का
तुम्हारे
हृदय में भी कोई
अंकन हो
जाएगा। हम जो
देखते हैं
वैसे ही हो जाते
हैं। हम जो
सुनते हैं
वैसे ही हो
जाते हैं। अगर
हम पूरे
प्राणों से
किसी चीज के
साथ आत्मीय हो
जाएं तो हमारे
भीतर भी वैसी
ही घटना घटनी
शुरू हो जाती
है।
अडोल्फ
हिटलर का
तुमने नाम
सुना होगा।
हिटलर जब
हुकूमत में आया
तो उसने क्या
किया? उसने
सारे
अस्पतालों
में, सारे स्कूलों
में
खेल-खिलौने बदलवा
दिए। छोटा सा
बच्चा पैदा
होगा तो उसके
झूले के ऊपर
वह घुनघुना
नहीं लटकाता
था, या
गुड्डी नहीं
लटकाता था।
उसके झूले के
ऊपर तोप
लटकाता था या
बंदूक लटकाता
था। सारे
मुल्क में
आज्ञा कर दी
गई: बच्चों से
गुड्डे और गुड़ियां
छीन ली जाएं।
छोटे-छोटे
बच्चों को
खिलौने की जगह
तोप दी जाए, बंदूक दी
जाए। छोटा सा
बच्चा, पहले
दिन का बच्चा
पैदा हो, झूले
में लिटाया
जाए, तो
उसके झूले के
ऊपर छोटी सी
तोप झूलती रहे।
तुम
कहोगे, यह
क्या पागलपन
था? लेकिन
इसमें अर्थ
था। अगर छोटा
सा बच्चा बचपन
से ही तोप को
देखे, बंदूक
को देखे, तो
उसकी छाप उसके
मन पर पड़नी
शुरू होती है।
उसके मन में
उसके गहरे
स्थान बन जाते
हैं। वह उस प्रवृत्ति
में लीन हो
जाता है।
अगर
छोटा सा यह
बच्चा चांद को
देखे, फूल
को देखे, तो
उसके मन में
दूसरी छाप
बनती है। उसके
जीवन में
दूसरे प्रभाव
बनते हैं।
उसके जीवन के
संस्कार
भिन्न होते
हैं। उसका
जीवन दूसरा हो
जाएगा। तो
बहुत छोटेपन
में पड़े हुए
प्रभाव भी
जीवन भर साथ
देते हैं।
नेपोलियन
का तुमने नाम
सुना होगा। वह
जब छह महीने
का था, एक
झूले में लेटा
हुआ था, एक
जंगली बिलाव
आया, एक
जंगली बिल्ली
आई, उसकी
छाती पर पंजा
रख कर खड़ी हो
गई। वह छह
महीने का था, डर गया। बात
तो खत्म हो गई,
नौकरानी ने
आकर भगा दिया,
कोई चोट
नहीं पहुंची,
कोई घाव
नहीं लग गया।
छह महीने का
बच्चा था, कोई
बड़ी बात भी
नहीं थी।
लेकिन तुम
हैरान हो जाओगी,
नेपोलियन
जिंदगी भर
बिल्ली से
डरता रहा। जीवन
भर! इतना
बहादुर आदमी
था कि अगर शेर
उसके सामने आ
जाए तो वह
उससे छाती से
छाती लगा कर
लड़ सकता था।
इतना बहादुर
आदमी था कि न
तोप उसे दहला
सकती थी, न
मृत्यु उसे
डरा सकती थी।
उससे बहादुर
आदमी जमीन पर
कम हुए हैं।
लेकिन बिल्ली
देख कर उसके
प्राण कंप
जाते थे। और
जिस युद्ध में
वह हारा, जिस
लड़ाई में पहली
दफा वह हारा, उसमें भी एक
अजीब घटना घटी
थी। नेल्सन
जिससे वह हारा
वह पचास-साठ बिल्लियां
अपनी फौज के
सामने बांध कर
ले गया था।
उसको यह पता
चल गया था कि
वह बिल्ली से
घबड़ा जाता है।
और जब
नेपोलियन ने बिल्लियां
देखीं
फौज के सामने,
उसने अपने
मित्रों से
कहा कि आज
जीतना बहुत मुश्किल
है। मेरे तो
प्राण छूट गए,
मेरे तो
हाथ-पैर कंपने
लगे।
नेल्सन
ने यह पता लगा
लिया कि वह
बिल्ली से
डरता है, बिल्लियां बांध कर ले
गया। और यह
संभावना है कि
बिल्लियों
की वजह से ही
वह हारा! छोटे
से बचपन में
बिल्ली के साथ
घबड़ाहट का जो
एक प्रभाव पड़ा,
वह जीवन भर
उसको
प्रभावित
किया।
तो
हमारे जीवन
में चौबीस
घंटे प्रभाव
पड़ रहे हैं।
हम चाहें या न
चाहें, हमारा
जीवन
प्रभावित हो
रहा है। अगर
गलत प्रभाव
हमारे जीवन
में पड़ते जाएं
तो बहुत
स्वाभाविक है
कि हमारा जीवन
नष्ट हो जाए।
यह हमारे हाथ
में है कि हम
सुंदर और शुभ
प्रभाव अपने
प्राणों के
भीतर ले जाएं।
सबसे
ज्यादा
सौंदर्य के
प्रभाव
प्रकृति के निकट
उपलब्ध होते
हैं। और मुफ्त
उपलब्ध होते हैं, उसके लिए
कुछ खर्च नहीं
करना होता।
चांद सबके ऊपर
रोज उगता है, लेकिन बहुत
कम समझदार हैं
जो उस चांद के
सौंदर्य को
अपने भीतर ले
जाते हों।
लाखों लोग हैं,
कौन आकाश को
देखता है? लाखों
लोग हैं, कौन
आंख ऊपर उठाता
है और तारों
से भरे आकाश
को देखता है? लाखों लोग
रोज रुपया
खर्च करके
नाटक देख सकते
हैं, सिनेमा
देख सकते हैं,
लेकिन
प्रकृति का
अदभुत
विस्तीर्ण
आकाश ऊपर है, उसे देखने
को कोई भी
राजी नहीं है।
चारों
तरफ बहुत
सौंदर्य है।
अगर आंख थोड़ी
खुली हो, हृदय
थोड़ा सजग हो, बुद्धि थोड़ी
सी तेज हो, तो
जीवन में
अदभुत प्रभाव
अपने भीतर
इकट्ठे किए जा
सकते हैं। और
तुम क्या इकट्ठा
करोगी, यह तुम्हारे
हाथ में है।
यहां कांटे भी
हैं और फूल भी
हैं। क्या तुम
इकट्ठा करोगी,
यह
तुम्हारे हाथ
में है। और
अगर तुम कांटे
इकट्ठे करोगी
तो इस बात के
खयाल में मत
रहना कि
तुम्हारी आत्मा
फूल जैसी
सुंदर और आनंद
को उपलब्ध हो
जाए। कांटे
तुम इकट्ठा करोगी तो
कांटे जैसी ही
आत्मा
निर्मित
होगी।
तो
चारों तरफ से
हम क्या
इकट्ठा कर रहे
हैं अपने भीतर, इसकी सदा
स्मृति होनी
चाहिए, इसका
बोध होना
चाहिए।
और
मैंने कहा, प्रकृति के
निकट ही, जीवन
का जो
श्रेष्ठतम है
उसके प्रभाव
हमारे पास आने
शुरू होते
हैं। इसलिए
प्रकृति के
निकट जाओ।
मनुष्य से
अपनी निकटता
थोड़ी कम करो
और प्रकृति से
अपनी निकटता
थोड़ी बढ़ाओ।
क्योंकि
मनुष्य के पास
रह कर बहुत कम
संभव है कि तुम्हारे
जीवन में कुछ
श्रेष्ठ मिल
जाए। लेकिन
प्रकृति के
निकट
तुम्हारे
जीवन में बहुत
श्रेष्ठ का
जन्म हो सकता
है।
मनुष्य
के निकट बहुत
संभावना है कि
तुम गलत ही
सीखो। भीड़ में
तुम गलत ही
सीखो। और अगर
तुममें थोड़ी
समझ होगी तो
तुमने हमेशा
पाया होगा कि जब
भी तुम भीड़ से
वापस लौटोगी
तो तुम कुछ
खोकर वापस लौटोगी।
और जब भी तुम
एकांत में
प्रकृति के निकट
रह कर कुछ देर
बाद लौटोगी, तुम कुछ
पाकर लौटोगी।
मनुष्य के पास
खोया जा सकता
है, प्रकृति
के पास पाया
जा सकता है।
क्योंकि प्रकृति
मनुष्य से
बहुत बड़ी है।
प्रकृति
परमात्मा का
बहुत प्रखर
रूप है।
प्रकृति
परमात्मा का
बहुत दृश्य
रूप है।
मंदिर
में जाने की
उतनी आवश्यकता
नहीं है
परमात्मा की
खोज के लिए, क्योंकि
मंदिर मनुष्य
का बनाया हुआ
है। इसलिए
मंदिर में
मनुष्य के
झगड़े लगे हुए
हैं। अगर हिंदू
के मंदिर में
जाओ, मुसलमान
के मंदिर में
जाओ, उन
दोनों में
झगड़ा है।
मस्जिद के लोग
मंदिर को जला
देते हैं, मंदिर
को मानने वाले
मस्जिद को तोड़
देते हैं। यह
सब पागलपन
वहां है, क्योंकि
वे मनुष्य के
बनाए हुए हैं।
लेकिन चांद न
तो हिंदू है
और न मुसलमान
है। झील की
शांति न तो
ईसाई है और न
पारसी है। और
एक वृक्ष में
खिले हुए फूल
न तो जैन हैं
और न हिंदू
हैं। वहां परमात्मा
है। वहां
मनुष्य की कोई
कृति नहीं है।
मनुष्य की
कृति से और
मनुष्य से
थोड़ा दूर हटना
बहुत जरूरी
है। यह मैं
नहीं कहता हूं
कि कोई बिलकुल
दूर हट जाए, मैं यह कहता
हूं कि चौबीस
घंटे में कुछ
क्षणों के लिए
जब भी समय
मिले और
तुम्हें मौका
मिले तो
प्रकृति को
अपने भीतर आने
दो और तुम
प्रकृति में
डूबो। तो
तुम्हारे
जीवन में बहुत
गहरी शांति की,
बहुत गहरी
आनंद की संभावनाएं
स्पष्ट हो सकेंगी।
ये दो
बातें मैंने
कहीं--एकांत
खोजो और
प्रकृति का
सान्निध्य, प्रकृति का
सत्संग खोजो।
इन दो बातों
को अगर स्मरण
रखा तो फिर
मैंने
तुम्हें जो
ध्यान के लिए
कहा है और कुछ
सरलता और
दूसरी बातों
के संबंध में
तुम्हें कहा
है, उनका
भी सहारा लिया,
तो कुछ हो
सकता है। कुछ
निश्चित हो
सकता है। तो
ये दो जो
सूत्र हैं, थोड़ा मनुष्य
से दूर हटने
के लिए हैं।
और
अपने भीतर
जाने के लिए
क्या हो? हम
एकांत में भी
चले गए और हम
प्रकृति के
करीब भी गए तो
क्या होगा? क्या इतना
ही काफी है? या कि हमें
अपने भीतर
जाने के लिए
कुछ और बातें
भी चाहिए?
भीतर
जाने के लिए
एक ही सूत्र
है। वह थोड़ा
कठिन है, इसलिए
मैं उसे रोके
रहा। अंतिम
समय मैंने सोचा,
तुमसे
अंतिम चर्चा
में उसे
कहूंगा। वह
थोड़ा सा कठिन
है, लेकिन इतना
कठिन नहीं कि
कोई भी न कर
सके। इतना
कठिन भी नहीं
कि बच्चे उसे
न कर सकें।
लेकिन समझ अगर
ठीक से हो जाए
तो वह भी किया
जा सकता है।
स्वयं के भीतर
जाने के लिए
एक तरह का
साक्षी-भाव, एक तरह का
तटस्थ-भाव
पैदा करना
जरूरी होता
है। उसे मैं समझाऊंगा,
तुम्हें
समझ में आ
जाएगा।
साक्षी-भाव
का क्या अर्थ
होता है?
जीवन
में दो तरह के
काम होते हैं।
अगर तुम किसी
खेल को देखने
जाओ, कुछ लोग
खेल रहे हों, तो जो लोग
खेल रहे हैं
वे तो खेल के
भीतर सम्मिलित
हैं, लेकिन
जो लोग देख
रहे हैं वे
केवल साक्षी
हैं। वे केवल
देखने वाले
हैं, दर्शक
हैं। खेलने
वाले और देखने
वाले में फर्क
है। खेलने
वाला तल्लीन
हो रहा है, खेलने
वाले को अगर
हार जाएगा तो
दुख होगा, अगर
जीत जाएगा तो
खुशी होगी।
लेकिन देखने
वाले को इससे
बहुत प्रयोजन
नहीं है। कौन
हारता है, कौन
जीतता है, इससे
उसे बहुत
प्रयोजन नहीं
है। उसे देखने
का ही मजा है।
वह चुपचाप देख
रहा है।
जीवन
में हम चौबीस
घंटे खिलाड?ी
होते हैं, खेलते
रहते हैं। और
दर्शक हम कभी
भी नहीं होते।
जीवन में
चौबीस घंटे हममें एक
ही भाव काम
करता है, खेलने
वाले का भाव।
चौबीस घंटे
खेलते रहते हैं।
सुख-दुख उठाते
हैं, हारते
हैं, जीतते
हैं, सफल
होते हैं, असफल
होते हैं।
ध्यान
रहे, सिर्फ खिलाड़ी
होना काफी
नहीं है; दिन
के कुछ समय
में हमें
दर्शक भी हो
जाना चाहिए।
अपना भी दर्शक
हो जाना
चाहिए। एक आधा
घंटे के लिए, पंद्रह मिनट
के लिए खिलाड़ी
मत रह जाओ, दर्शक
हो जाओ--खुद के
दर्शक! खुद को
भी ऐसे देखने
लगो जैसे हम
किसी दूसरे को
देख रहे हों। उससे
बहुत अदभुत
क्रांति
होगी। कभी
शायद तुमने
प्रयोग न किया
हो खुद के
दर्शक होने का,
लेकिन इसे
करो, यह
प्रयोग अदभुत
फल लाता है।
खुद के दर्शक
होने का मतलब
यह है: जैसे हम
दूसरे को
देखते हैं उस भांति
थोड़ी देर को
अपने को देखो।
दूर हो जाओ, सारा लगाव
छोड़ दो, खयाल
भूल जाए कि यह
मैं हूं और इस
भांति देखने लगो
जैसे हम कोई
फिल्म देख रहे
हों।
जैसे
समझो, तुम
कोई फिल्म
देखने जाओ तो
वहां भी दर्शक
नहीं रह जाती
हो, वहां
भी तुममें
तल्लीनता आ
जाती है, वहां
भी तुम एक हो
जाती हो। अगर
फिल्म में
किसी पात्र को
दुख आ रहा है, कोई पीड़ा आ
रही है, तुम्हारे
भी आंसू बहने
लगते हैं।
उसका मतलब क्या
हुआ? उसका
मतलब यह हुआ
कि तुम दर्शक
नहीं रहीं, तुम भी उस
फिल्म का
हिस्सा हो गईं
और रोना-गाना
तुमने शुरू कर
दिया। मतलब हम
तो नाटक में
भी दर्शक नहीं
रह जाते हैं।
बंगाल
में एक बहुत
बड़े आदमी हुए, ईश्वरचंद्र विद्यासागर।
तुमने नाम भी
सुना होगा। वे
एक नाटक देखने
गए। उस नाटक
में एक पात्र
है जो एक
स्त्री को बहुत
बुरी तरह
परेशान कर रहा
है, उसके
पीछे लगा हुआ
है, उसे
हैरान कर रहा
है, उसे
दुख दे रहा
है। आखिर में,
विद्यासागर सामने
बैठे-बैठे देख
रहे थे, उनको
इतना गुस्सा आ
गया कि वे यह
भूल गए कि यह नाटक
है, उन्होंने
निकाला जूता
और उस पात्र
को उठा कर मार
दिया। जूता
निकाल कर उसको
मार दिया बहुत
जोर से। वे यह
भूल गए कि वे
नाटक देख रहे
हैं। उनको
धीरे-धीरे यही
खयाल हो गया
कि यह आदमी
शैतान है, बदमाश
है, और
स्त्री को
परेशान कर रहा
है। लेकिन वह
अभिनेता जो था,
उसने उस
जूते को हाथ
में लिया, सिर
से लगाया और
कहा कि मेरे
जीवन में इससे
बड़ा पुरस्कार
मुझे कभी भी
नहीं मिला। विद्यासागर
जैसे आदमी को
भी मेरा नाटक
इतना सच मालूम
पड़ा कि वे
जूता मार सके,
इससे बड़ा
पुरस्कार और
क्या हो सकता
है! मेरा अभिनय
सफल हो गया। विद्यासागर
तो बहुत संकोच
में हुए, बड़े
दुखी हुए।
लेकिन बाद में
उन्होंने कहा
कि मैं भूल ही
गया था कि वह
नाटक था!
तो
नाटक में भी
हम भूल जाते
हैं कि वह
नाटक है। विद्यासागर
जैसे समझदार
आदमी भी भूल
जाते हैं।
इससे ठीक उलटा
करने की जरूरत
है। जैसे नाटक
में भूल जाते
हैं कि नाटक
है और जीवन
लगने लगता है, ऐसा ही कभी
दिन में, कभी
दो दिन में
घड़ी आधा घड़ी
को जीवन को भी
ऐसे देखना
चाहिए जैसे वह
नाटक है। ठीक
उलटा। अभी तो
हम नाटक को भी
जीवन मान कर
उपद्रव में पड़
जाते हैं, कभी
ऐसा मौका
निकालना
चाहिए--दिन
में, रात
में, सोते
वक्त--थोड़ी
देर के लिए
बैठ कर जीवन
को भी ऐसे
देखना चाहिए
जैसे वह नाटक
है और मैं
केवल देखने
वाला हूं।
उसके
बहुत अदभुत
परिणाम
होंगे। उसके
बड़े अदभुत
परिणाम
होंगे। जब कोई
व्यक्ति अपने
को दूर से खड़े
होकर देखता है
तो उसके जीवन
में बहुत समझ, बहुत अंडरस्टैंडिंग
आनी शुरू होती
है। तुम्हारा
किसी ने अपमान
किया। अगर तुम
इसे नाटक की
तरह देख सको
तो तुम्हें
हंसी आएगी, क्रोध नहीं
आएगा, दुख
नहीं आएगा।
किसी ने
तुम्हें
गालियां दीं।
अगर तुम तटस्थ
खड़े होकर देख
सको, दूर
खड़े होकर देख
सको, तो
तुम्हें ऐसा
लगेगा कि कोई
किसी को गाली
दे रहा है और
मैं केवल देख
रहा हूं। तब
तुम्हारे मन
में पीड़ा के
तीर नहीं
चुभेंगे, घाव
नहीं लगेंगे।
और अगर पूरे
जीवन में कोई
धीरे-धीरे
साक्षी हो जाए
और अपने जीवन
की लीला को
नाटक की तरह
देखने लगे, उसके जीवन
से दुख और
चिंताएं
विलीन हो
जाएंगी।
बुद्ध
एक गांव के
पास से एक बार
निकले। कुछ लोग
आए और
उन्होंने
उन्हें बहुत
गालियां दीं, बहुत अपशब्द
कहे, बहुत
अपमान किया।
जब वे गालियां
दे चुके तो बुद्ध
ने कहा, अगर
तुम्हारी बात
पूरी हो गई हो
तो मैं जाऊं, मुझे दूसरे गांव
जल्दी
पहुंचना है।
वे तो
सारे लोग
हैरान हुए और
उन्होंने कहा, हमने कोई
बातें तो नहीं
कीं, हम तो
सीधी-सीधी
गालियां दिए
हैं। उसमें भी
कोई छिपावट
न थी, बात
बिलकुल सीधी
थी, हमने
सीधी-सीधी
गालियां दी
हैं। फिर भी
आप कोई दुखी
नहीं मालूम
होते। और क्या
हमारी गालियों
का कोई उत्तर
नहीं देंगे? हमने यह जो
इतना अपमान
किया है, इसके
बदले में कुछ
कहेंगे नहीं?
बुद्ध
ने कहा, अगर
तुम दस साल
पहले आए होते
तो मैं भी
तुम्हें गालियों
के उत्तर गालियों
से देता। अगर
तुम दस साल
पहले आए होते
तो तुम्हारे
अपमान ने मुझे
दुख पहुंचाया
होता। लेकिन
इधर दस साल से
तो मैं, जो
भी होता है, उसको देखने
वाला रह गया
हूं। और अब
मैं तुम्हारे
साथ वही
करूंगा जो
मैंने पिछले
गांव में भी
किया।
उन्होंने
पूछा, क्या
किया?
बुद्ध
ने कहा, पिछले
गांव में कुछ
लोग आए थे
फूल-फल लेकर, मिठाइयां लेकर मुझे
भेंट करने।
मैंने उनसे
कहा, मेरा
पेट भरा हुआ
है इसलिए तुम
क्षमा करो। वे
उन थालियों
को वापस ले
गए। मिठाइयां,
फल वे वापस
ले गए। अब तुम
गालियां लेकर
आए हो। और मैं
तुमसे कहता
हूं कि मैं
लेने में
असमर्थ हूं।
अब तुम क्या
करोगे? इन गालियों
को सिवाय वापस
ले जाने के
कोई उपाय नहीं।
और उन्होंने
तो फल और मेवे
अपने बच्चों को
बांट दिए
होंगे। तुम इन
गालियों
को किनको बांटोगे? क्योंकि मैं
लेने से इनकार
करता हूं।
बुद्ध ने कहा,
मैं लेने से
इनकार करता
हूं। तुम
गालियां दे सकते
हो, लेकिन
अगर मैं न
लूंगा तो फिर
क्या होगा? और मैं
इसलिए लेने से
इनकार करता
हूं कि जब से
मैं जाग गया
और दर्शक हो
गया, तब से
जो जरूरी होता
है, उपयोगी
होता है, वही
लेता हूं, जो
उपयोगी नहीं
है, वह
नहीं लेता। तो
मुझे क्षमा
करो, बुद्ध
ने कहा, कि
मैंने
तुम्हें पीड़ा
दी, कि
तुम्हें गाली
देने का श्रम
करना पड़ा। और
अब एक पीड़ा और
दे रहा हूं कि गालियों
को वापस ले
जाने का श्रम
भी करना
पड़ेगा।
जो
व्यक्ति जीवन
में थोड़ा
दर्शक हो जाता, तटस्थ, जरा
दूर खड़े होकर
अपने को देखने
लगता है, उसके
जीवन में
व्यर्थ छूटने
लगता है। अपने
आप छूटने लगता
है, उसे
छोड़ना नहीं
पड़ता।
तो खुद
के दर्शक बनना
सीखना चाहिए।
जैसे-जैसे तुम
खुद के दर्शक बनोगी, वैसे-वैसे
तुम्हारे
भीतर गति होगी,
तुम्हारे
भीतर गहराई
बढ़ेगी, तुम्हारे
भीतर नई-नई गहराइयां
खुलेंगी। और
तुम्हारे
जीवन में जो
क्षुद्र बहुत
प्रभावित
करता है, छोटी-छोटी
बातें छू जाती
हैं, छोटी-छोटी
बातें
प्राणों को
छेद देती हैं,
छोटी-छोटी
बातें दुख
लाती हैं, चिंता
लाती हैं, वे
तुम्हें दुख
देने में
असमर्थ हो
जाएंगी।
और अगर
जीवन के दुख
हमें न छुएं, अगर जीवन की
पीड़ाएं हमारे
भीतर न जाएं, अगर चिंताएं
हमारे हृदय
में घर न
बनाएं, तो
क्या होगा? तो अदभुत
होगा! तब
तुम्हारे
भीतर एक
मुक्ति फलित
होगी, एक फ्रीडम
होगी। चारों
तरफ से
तुम्हारा
जीवन
धीरे-धीरे मुक्त
होता जाएगा, शांत होता
जाएगा, आनंदित
होता जाएगा, प्रेम से
भरता जाएगा, करुणा से
भरता जाएगा, मौन से भरता
जाएगा। और
इन्हीं सारी भूमिकाओं
के बीच ध्यान
भी सफल हो
सकता है।
इन्हीं सारी भूमिकाओं
के बीच ही
परमात्मा का
कोई अनुभव
उपलब्ध हो सकता
है।
कोई
ऐसी आसान बात
नहीं है
परमात्मा को
पा लेना कि
कोई बैठ गया
और राम-राम
जपने लगा, और उसे
परमात्मा मिल
जाए। ये सब
बच्चों जैसी बातें
हैं। या कोई
आदमी माला फेर
ले और परमात्मा
मिल जाए।
परमात्मा को
पाने के लिए
पूरा जीवन
बदलना जरूरी
है, पूरे
जीवन की
भूमिका बदलनी
जरूरी है।
जीवन में
सरलता हो, जीवन
में
साक्षी-भाव हो,
जीवन में
एकांत हो, जीवन
में मौन हो, निर्विचार
ध्यान हो, जब
यह सारी
भूमिका जीवन
की बदलती है
तो ही कोई परमात्मा
को उपलब्ध
होता है। ऐसे
कोई माला फेरने
से या कोई
राम-राम जपने
से या गीता की
पोथी को रोज
सिर टेकने
से या किसी
मूर्ति के
सामने चंदन
लगा कर बैठ कर
कोई भजन करने
से कोई
परमात्मा को
उपलब्ध नहीं
होता। ये सब
तो बहुत
बच्चों जैसी
बातें हैं।
इनके भुलावे
में जो पड़
जाता है उसका
जीवन नष्ट हो
जाता है। परमात्मा
को पाने के
लिए तो पूरे
जीवन को बदलना
होगा।
परमात्मा को
पाने के लिए
तो पूरे जीवन
की धारा को
बिलकुल नया
करना होगा।
परमात्मा को पाने
के लिए तो
जीवन को एक
दर्पण की
भांति स्वच्छ
और पवित्र
बनाना होगा।
मैं
पहले दिन आया
था तो तुमसे
कहा था कि
तुम्हें एक
दर्पण भेंट
करना चाहता
हूं। वह इसी
सब बातों का
दर्पण था। अगर
तुम इन सारी
बातों का
उपयोग करो तो
निश्चित
तुम्हारा मन
एक मिरर
की तरह, एक
दर्पण की तरह
पवित्र हो
सकता है। और
उस दर्पण में
जिसके दर्शन
होंगे वही
परमात्मा है,
वही प्रभु
है। और उसे जो
पा लेता है
वही धन्य हो
जाता है। और
उसे जो नहीं
पाता वह कुछ
भी पा ले, तो
भी उसके पाए
हुए का कोई भी
मूल्य नहीं
है। अगर जीवन
के इन
प्रारंभिक
दिनों में
तुम्हें यह
बोध आ जाए तो
तुम्हारा
जीवन धन्य हो
सकता है।
मेरी
इन सारी बातों
को तीन दिन
तुमने बहुत
प्रेम, शांति
से सुना है।
समझने की
कोशिश भी की
होगी। उन पर
और विचार
करना। जो मैंने
कहा है उसको
थोड़ा प्रयोग
करके देखना। हो
सकता है कोई
बात तुम्हारे
काम की हो जाए,
कोई बात
तुम्हारे
जीवन में आधार
बन जाए, कोई
बात हो सकता
है तुम्हारे
जीवन को बदलने
का बिंदु हो
जाए और
तुम्हारे
जीवन में कुछ
हो सके।
परमात्मा
तुम्हें सबको
जीवन में
धीरे-धीरे
अपने निकट
बुलाए, अपने
प्रकाश से भर
दे, अपने
प्रेम से भर
दे, इसकी
अंत में कामना
करता हूं।
अब
हम आज के
अंतिम ध्यान
के लिए
बैठेंगे।
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