पहला
प्रश्न :
महाकाश्यप
उस दिन सुबह
खिलखिलाकर न
हंसा होता, तो भी
क्या बुद्ध
उसे मौन के
प्रतीक फूल को
देते?
प्रश्न
पूछते समय
थोड़ा सोचा भी
करें कि
प्रश्न का सार
क्या है। यदि
ऐसा हुआ होता!
यदि वैसा हुआ
होता! इन सारी
बातों में
क्यों व्यर्थ
समय को व्यतीत
करते हो?
महाकाश्यप
न हंसा होता
तो बुद्ध फूल
देते या न
देते, इससे
तुम्हें क्या
होगा?
महाकाश्यप
न भी हुआ हो, हुआ हो, कहानी सिर्फ
कहानी हो, तो
भी तुम्हें
क्या होगा? कुछ अपनी
पूछो। कुछ ऐसी
बात पूछो जो
तुम्हारे काम
पड़ जाए। प्रश्न
ऐसे न हों कि
सिर्फ
मस्तिष्क की
खुजलाहट हों,
क्योंकि
खुजलाहट का
गुण है जितना
खुजाओ बढ़ती चली
जाती है।
पूछने
के लिए ही मत
पूछो। अगर न
हो प्रश्न तो
पूछो ही मत। चुप
बैठेंगे, शायद
तुम्हारे बीच
कोई
महाकाश्यप
हंस दे।
हंसना न
हंसना
महत्वपूर्ण
नहीं है। बाहर
जो घटता है उसका
कोई मूल्य बुद्धपुरुषों
के लिए नहीं
है। फूल तो
महाकाश्यप को
दिया ही होता।
वह अकेला ही
था वहा जो
बुद्ध के मौन
को समझ सकता
था। हर हालत
में फूल उसके
पास गया होता।
बुद्ध न देते
तो भी गया
होता। छोड़ दो
फिकर! हंसता
नहीं, बुद्ध
न भी देते फूल,
तो भी मैं
कहता हूं? उसी
के पास गया
होता। फूल खुद
चला गया होता।
कोई बुद्ध को
देने की जरूरत
भी न थी।
घटना को
समझने की
कोशिश करो, ब्यौरे
की व्यर्थ
बकवास में मत
पड़ो। घटना
सीधी है कि
बुद्ध चुप रहे,
उस चुप्पी
को कोई और न
समझ पाया। चुप्पी
को समझने के
लिए तुम्हें
भी चुप होना जरूरी
है। जिस भाषा
को समझना हो
उस भाषा को
जानना जरूरी है।
मैं हिंदी बोल
रहा हूं तो
हिंदी जानना
जरूरी है। मैं
चीनी बोलूं, तो चीनी
जानना जरूरी
है, तभी
समझ सकोगे।
बुद्ध
उस दिन मौन
बोले, मौन
की भाषा बोले,
जो मौन का
रस जानता था
वही समझा। जो
मौन का रस
नहीं जानते थे,
उन्होंने
इस मौन को भी
अपने चिंतन का
व्यापार बना
लिया। वे
सोचने लगे, बुद्ध मौन
क्यों बैठे
हैं? अभागे
लोग! जब बुद्ध
मौन थे तब तुम
चुप हो गए होते,
तो फूल
उन्हें भी मिल
सकता था। लेकिन
वे सोचने लगे
कि बुद्ध मौन
क्यों बैठे हैं?
कि बुद्ध
हाथ में फूल
क्यों लिए हैं?
जिसने सोचा,
उसने
गंवाया।
बुद्धों
के पास सोचने
से संबंध नहीं
जुड़ता। बुद्धों
के पास तो न
सोचने की कला
आनी चाहिए। महाकाश्यप
चुप रहा। उसने
बस भर आंख
देखा। उसने
सोचा नहीं। कौन
फिकर करे? इतना
अप्रतिम
सौदर्य उस दिन
प्रगट हुआ था!
ऐसा सूरज उगा
था जैसा कभी-कभी
सदियों में
उगता है। बुद्ध
उस दिन सब
द्वार-दरवाजे
अपने मंदिर के
खोलकर बैठे थे।
निमंत्रण
दिया था कि
जिसे भी आना
हो आ जाए। परमात्मा
द्वार पर आकर
खड़ा था। दस्तक
दे रहा था। तुम
सोचने लगे, तुम विचार
करने लगे, ऐसा
क्यों? वैसा
क्यों? क्यों
बुद्ध चुप
बैठे हैं? पहले
क्यों कभी
नहीं बैठे?
विचारक
चूक गए। महाकाश्यप
कोई विचारक न
था। वह सिर्फ
देखता रहा
बुद्ध को। जैसे
बुद्ध फूल को
देखते रहे, ऐसा
महाकाश्यप
बुद्ध को
देखता रहा। वही
तो इशारा था
कि जैसे मैं
देख रहा हूं
फूल कों-मात्र
द्रष्टा
हूं-ऐसे ही
तुम भी
द्रष्टा हो जाओ
आज। हो चुकीं
बहुत बातें
दर्शन की, अब
द्रष्टा हो
जाओ। दर्शन की
बात कब तक
चलाए रखोगे? हो चुकी
चर्चा भोजन की,
अब भोजन करो।
अब स्वाद लो। बुद्ध
ने थाली सजा
दी थी अपनी। तुम
सोचने लगे
भोजन के संबंध
में, बुद्ध
भोजन रखे
सामने बैठे थे।
जैसे
बुद्ध फूल को
देख रहे थे, वैसा ही
महाकाश्यप
बुद्ध के फूल
को देखने लगा।
बुद्ध ने एक
फूल देखा, महाकाश्यप
ने दो फूल
देखे। दो
फूलों को एक
साथ देखा। उन
दोनों फूलों
का तारतम्य
देखा, संगीत
देखा, लयबद्धता
देखी। एक
अपूर्व छंद का
उसे अनुभव
होने लगा। रुकता
भी महाकाश्यप
कैसे बिना हंसे!
क्यों
हंसा
महाकाश्यप? हंसा
लोगों पर, जो
कि सोच में पड़
गए हैं। मंदिर
सामने खड़ा है
और वे मंदिर
की खोज कर रहे हैं।
सूरज उग चुका
है, वे आंख
बंद किए
प्रकाश की
चर्चा में लीन
हैं। महाकाश्यप
हंसा लोगों की
मूढ़ता पर। हंसा
कहना ठीक नहीं,
हंसी निकल
गई। कुछ किया
नहीं हंसने
में। वह रुक न
सका। घट गया, फूट पड़ी
हंसी देखकर
सारी नासमझी।
हजारों लोग
मौजूद थे चूके
जा रहे हैं, इस मुढ़ता
पर हंसा।
और इस
बात पर भी
हंसा कि बुद्ध
ने भी खूब खेल
खेला। जो नहीं
कहा जा सकता, वह भी कह
दिया। जो नहीं
बताया जा सकता,
उसको भी बता
दिया। जिसको जतलाने
में कभी
अंगुलियां
समर्थ नहीं
हुईं, उस
तरफ भी इशारा
कर दिया। उपनिषद
उस दिन मात हो
गए। जो नहीं
कहा जा सकता
था, उसे
कृत्य बना
दिया। वक्तव्य
दे दिया उसका
संपूर्ण जीवन
से।
इसलिए
उस दिन के बाद
झेन परंपरा
में जब भी गुरु
प्रश्न पूछता
है तो शिष्य
को उत्तर नहीं
देना होता, कोई
कृत्य करना
होता है जिससे
वक्तव्य मिल
जाए। कोई
कृत्य, ऐसा
कृत्य जिसमें
शिष्य
संपूर्ण रूप
से डूब जाए। महाकाश्यप
हंसा, ऐसा
नहीं, महाकाश्यप
हंसी हो गया। पीछे
कोई बचा नहीं
जो हंस रहा था।
कोई पीछे खड़ा
नहीं था जो
हंस रहा था। महाकाश्यप
एक खिलखिलाहट
होकर बिखर गया
उस संगत पर। झेन
फकीर प्रश्न
पूछते हैं।
एक झेन
फकीर हुआ। बैठा
था, शिष्य
बैठे थे। एक
बर्तन में
पानी रखा था। उसने
कहा कि सुनो, बिना कुछ
कहे बताओ कि
यह क्या है? यह बर्तन और
यह पानी, बिना
कुछ कहे कोई
वक्तव्य दो। अर्थात
कृत्य से
घोषित करो, जैसा
महाकाश्यप ने
किया
था-खिलखिलाकर।
और जब कृत्य
से महाकाश्यप
ने घोषित किया,
तो कृत्य से
बुद्ध ने
उत्तर भी
दिया-फूल देकर।
आज मैं भी
तुम्हें फूल
देने को
उत्सुक हूं।
शिष्य
देखने लगे, हाथ में
कोई फूल तो
नहीं था। सोचने
लगे कि यह बात
तो और उलझन की
हो गई। कम से
कम बुद्ध हाथ
में फूल तो
लिए थे; इस
आदमी के हाथ
में कोई फूल
नहीं है। वे
फूल के संबंध
में सोचने लगे।
और उन्होंने
लाख सोचा कि
इस पानी भरे
बर्तन के
संबंध में
क्या कहो, बिना
कहे कैसे
वक्तव्य दो? और तभी भोजन
का समय करीब आ
रहा था। रसोइया-जो
भिक्षु, जो
संन्यासी
रसोई का काम
करता था-वह
भीतर आया। उसने
ये उदासी, चिंतन
से तने हुए
लोग देखे। उसने
पूछा, मामला
क्या है? गुरु
ने कहा, एक
सवाल है। इस
जल भरे बर्तन
के संबंध में
वक्तव्य देना
है। कोई
वक्तव्य जो
इसके पूरे के
पूरे रहस्य को
प्रगट कर दे। शब्द
का उपयोग नहीं
करना है। और
जो यह करेगा, वही फूल मैं
देने को तैयार
हूं जो बुद्ध
ने दिया था।
लेकिन
उस रसोइये ने
गुरु के हाथ
की तरफ देखा ही
नहीं कि फूल
वहां है या
नहीं। गुरु
फूल है। अब
इसमें फूल
क्या देखना!
वह उठा, उसने एक लात
मार दी उस
बर्तन में, पानी लुढ़ककर
सब तरफ बह गया।
और वह बोला कि
अब उठो, हो
गई बकवास बहुत,
भोजन का समय
हो गया। कहते
हैं, गुरु
ने उसके चरण
छू लिए-दे
दिया फूल। वक्तव्य
उसने प्रगट कर
दिया। अस्तित्व
को तो ऐसे ही
बिखेर कर
बताया जाता है।
अब और क्या
कहने को
रहा-उलटा दिया
पात्र, जल
बिखर गया सब
तरफ।
ऐसे ही
उस दिन
महाकाश्यप ने
भी उलटा दिया
था अपना पात्र।
खिलखिलाहट
बिखर गई थी सब
तरफ। ऐसी फिर
हजारों
घटनाएं हैं
झेन परंपरा
में। एक घटना
को दुबारा
नहीं दोहरा
सकते, याद
रखना। क्योंकि
दोहराने का तो
मतलब होगा, सोच कर की। इसलिए
हर घटना अनूठी
है और आखिरी
है। फिर तुम
उसे पुनरुक्त
नहीं कर सकते।
अगर मैं
आज फूल लेकर आ
जाऊं, तो
जो हंसेगा, उसको भर
नहीं मिलेगा। अगर
आज मैं बर्तन
में पानी रखकर
बैठ जाऊं और तुम
से पूछूं? तो
जो लात मारकर
लुढ़काकर, उसको
भर नहीं
मिलेगा। वह तो
विचार हो गया
अब। अब तो
महाकाश्यप की
कहानी पता है।
हजारों घटनाएं
हैं, लेकिन
हर घटना अनूठी
है। और उसकी
पुनरुक्ति।
नहीं हो सकती।
क्योंकि
पुनरुक्ति
यानी विचार। कुछ
कहो पूरे
अस्तित्व से,
और कुछ कहो
इस ढंग से
जैसा कभी न
कहा गया हो, तो फिर मन को
जगह नहीं बचती।
मन तो अनुकरण
करता है, दोहराता
है, यंत्रवत
है। मन के पास
कोई मौलिक सूझ
नहीं होती।
एक
दूसरे झेन
फकीर का एक
शिष्य बहुत
दिन से चिंता
में रत
है-गुरु ने
कोई सवाल दिया
है जो हल नहीं
होता। जब सब
तरह के उपाय
कर चुका तो
उसने प्रधान
शिष्य को पूछा
कि तुम तो
स्वीकार हो गए
हो, तुम
तो कुछ कुंजी
दो। हम परेशान हुए जा
रहे हैं, वर्षों
बीत गए। कुछ
हल नहीं होता,
कोई राह
नहीं मिलती। और
जब भी जाते
हैं, हम
उत्तर भी नहीं
दे पाते और
गुरु कहता है,
बस, बकवास
बंद। अभी हम
बोले भी नहीं!
अब यह तो हद्द
हो गई। ऐसे तो
हम कभी भी जीत
न पाएंगे। कम
से कम बोलने
तो दो। हम कुछ
कहें, फिर
तुम कहो गलत और
सही। हम बोलते
ही नहीं और
गलत हो जाता
है। तो अब तो
सही होने का
कोई उपाय न
रहा। गुरु
नाराज है।
शिष्य
हंसने लगा। प्रधान
शिष्य ने कहा, नाराज
नहीं। क्योंकि
जब तुम विचार
करते हुए जाते
हो तो चेहरे
का ढंग ही और
होता है। जब
तुम
निर्विचार
में जाते हो, तो चेहरे का
ढंग ही और
होता है। सोचो
थोड़ा, जब
तुम विचार से
भरे होते हो
तो सारे चेहरे
पर तनाव होता
है। आंख में, माथे पर बल
होते हैं। जब
तुम
निर्विचार
में होते हो, सब बल खो
जाते हैं, सब
तनाव खो जाता
है। जब तुम
निर्विचार
में होते हो, तब तुम्हारे
चारों तरफ ऐसी
शांति झरती है
कि अज्ञानी भी
पहचान ले, तो
गुरु न
पहचानेगा! वह
तुम्हें
दरवाजे के भीतर
घुसने देता है,
यह भी उसकी
करुणा है। उस
प्रधान शिष्य
ने कहा कि
मेरी तुम्हें
पता नहीं। दरवाजे
के बाहर ही
रहता था, वह
कहता था, लौट
जा। फिजूल की
बकवास लेकर मत
आ। अभी उसने
मुझे देखा भी
नहीं था। लेकिन
जैसे मेरी
छाया मुझसे
पहले पहुंच
जाती। जैसे
मेरा वातावरण,
मैं दरवाजे
पर होता, और
उसे छू लेता। जैसे
कोई गंध उसे
खबर दे देती।
तो इस
नए शिष्य ने
पूछा, फिर
तुमने कैसे
उसकी अनुकंपा
को पाया? उसके
प्रसाद को
पाया? उसने
कहा, वह तो
मैं कभी न पा
सका। जब मैं
मर ही गया, तब
मिला। उसने
कहा, भलेमानुष,
पहले क्यों
न बताया? यही
हम भी करेंगे।
अब कहीं
कोई यह कर
सकता है? दूसरे दिन
वह गया। जैसे
ही गुरु ने
उसकी तरफ देखा,
इसके पहले
कि गुरु कहे
कि नहीं, बकवास
बंद, वह
भड़ाम से गिर
पड़ा, आंखें
बंद कर लीं, हाथ फैला दिए,
जैसे मर गया।
गुरु ने
कहा, बहुत
खूब! बिलकुल
ठीक-ठीक किया।
प्रश्न का
क्या हुआ? उस
शिष्य ने-अब
मजबूरी-एक आंख
खोली और कहा
कि प्रश्न तो
अभी हल नहीं
हुआ। तो गुरु
ने कहा, नासमझ!
मुर्दे बोला
नहीं करते, और न मुर्दे
ऐसे आंख खोलते
हैं। उठ, भाग
यहां से; और
किसी दूसरे से
उत्तर मत
पूछना। पूछे
उत्तरों का
क्या मूल्य है?
वह
तुम्हारा
होना चाहिए। तुम्हारे
अंतरतम से आना
चाहिए। तुम
उसमें मौजूद
होने चाहिए। वह
तुम्हारा गीत
हो, वह
तुम्हारा नाच
हो। उसमें तुम
पूरे लीन हो
जाओ। वह जीवन
हो कि मौत, इससे
कोई फर्क नहीं
पड़ता।
महाकाश्यप
उस दिन हंसा। कहना
ठीक नहीं हंसा।
हंसी फैल गई
देखकर यह सारी
दशा। बुद्ध का
सामने होना और
लोगों का अंधे
बने रहना, सूरज का
निकल आना और
अंधेरे का न
मिटना देखकर हंसा।
ज्ञान बरसता
हो, और
लोगों के घड़े
हों, और जल
उन पर पड़ता ही
न हो, यह
देखकर हंसा।
हंसता या
न हंसता, फूल उसे
मिलना था। हंसी,
न हंसी तो
सांयोगिक है। बुद्ध
ने फूल हर
हालत दिया
होता। हंसने
की वजह से
नहीं दिया, ध्यान रखना,
नहीं तो भूल
हो जाएगी। यही
तो भूल है मन
की। तब तुम
सोचोगे कि
हंसने की वजह
से दिया, तो
अगर अब दुबारा
कभी ऐसा मौका
हमें मिलेगा
तो हम हंस
देंगे। वहीं
तुम चूक जाओगे।
हंसने की वजह
से नहीं दिया।
हंसी के पीछे
जो मौन
था-हंसी के
पीछे विचार भी
हो सकता है, तब व्यर्थ
हो गई-हंसी के
पीछे जो मौन
था, उस। खिलखिलाहट
के फूलों के
पीछे जो परम
शाति थी। वह
हंसी निर्वाण
का फूल थी। न
हंसता तो
बुद्ध उठकर गए
होते। हंसा तो
बुद्ध ने उसे
बुला भी लिया।
न हंसता तो
बुद्ध खुद
उठकर गए होते,
खुद उसकी
झोली में
उंडेल दिया
होता।
लेकिन
इस तरह के
प्रश्न
तुम्हारे मन
में उठते क्यों
हैं? तुम्हारे
जीवन की समस्याएं
हल हो गयीं कि
तुम
महाकाश्यप की
चिंता में पड़े
हो? तुम्हारा
जीवन समाधान
को उपलब्ध हो
गया कि तुम इस
तरह के बौद्धिक
प्रश्न उठाते
हो? मत गवांओ
समय को इस
भाति, अन्यथा
कोई
महाकाश्यप
तुम पर भी
हंसेगा, तुम्हारी
मूढ़ता पर भी
हंसेगा। यहां
मैं तुम्हारे
सामने मौजूद
हूं कुछ हो सकता
है। जब मैं
मौजूद नहीं
रहूंगा, तब
तुम रोओगे। अगर
अभी न हंसे, तो तब तुम
रोओगे। इस मौजूदगी
का उपयोग कर
लो। इस
मौजूदगी को पी
लो। इस
मौजूदगी को
तुम्हारे
रग-रेशे में
उतर जाने दो। व्यर्थ
के ऊहापोह में
मत पड़ो।
मदरसे
तक ही थीं बहस
आराइयां
पाठशाला
तक तर्क, तर्कजाल,
प्रश्न
और प्रश्नों
के विस्तार।
मदरसे
तक ही थीं बहस
आराइयां
चुप लगी
जब बात की तह
पा गए
तो जो
मैं कहता हूं
उसको तुम तर्क
मत बनाओ, अन्यथा तुम
चूके। तब तुम
किसी दिन
पछताओगे कि
इतने करीब थे
और चूक गए। और
कभी-कभी ऐसा
हुआ है कि
सोचने वालों
ने गंवा दिया
है और न सोचने
वालों ने पा
लिया है। कभी-कभी
क्या, हमेशा
ही ऐसा हुआ है।
जो मैं कह रहा
हूं, वह
इसीलिए कह रहा
हूं ताकि चुप
लग जाए, और
तुम बात की तह
पा जाओ। तुम
बात में से
बात निकाल
लेते हो। बात
की तह नहीं
पाते। एक बात
से तुम दस
दूसरी बातों
पर निकल जाते
हो। मै करता
हूं इशारा
चांद की तरफ, तुम अंगुली
पकड़ लेते हों।
तुम अंगुली के
संबंध में
पूछने लगते हो,
तुम चांद की
बात ही भूल
जाते हो। कहीं
ऐसा न हो कि
किसी दिन
तुम्हें कहना
पड़े-
थी न
आजादे-फना
किश्ती-ए-दिले-नाखुदा
मौजे-तूफा
से बची तो
नज़े-साहिल हो
गई
किसी
तरह तूफान से
बचकर आ भी गए
तो किनारे से
टकरा गए।
थी न
आजादे-फना
किश्ती-ए-दिले-नाखुदा
मौजे-तूफा
से बची तो
नज़े-साहिल हो
गई
कहीं
ऐसा न हो कि
यहां मेरे
किनारे पर आकर
भी डूब जाओ।
कोई
एजाजे-सफर था
या
फरेबे-चश्मे-शौक
सामने
आकर निहां आंखों
से मंजिल हो
गई
कहीं
ऐसा न हो कि
मंजिल सामने आ
गई हो और फिर
भी तुम चूक
जाओ। उस दिन
बुद्ध के
सामने बैठे
लोग चूक गए।
सामने
आकर निहां आंखों
से मंजिल हो
गई
आ गई थी
सामने मंजिल, लेकिन
जिसे पहुंचना
है अगर वही
तैयार न हो, तो मंजिल भी
क्या करे? सामने
भी आ जाए तो भी
तुम चूक जाओगे।
क्योंकि सवाल
मंजिल का नहीं,
तुम्हारा
है।
व्यर्थ
की बातों में
मत पड़ो। और
यदि ऐसा होता, तो कैसा
होता, यह
तो पूछो ही मत।
इसकी तुम्हें
व्यर्थता
नहीं दिखाई
पड़ती कि यदि
रावण सीता को
न चुराता तो
रामायण का
क्या होता? अब इसका कौन
उत्तर दे? इसका
कौन उत्तर दे
और उत्तर का
क्या अर्थ है?
जो हो
गया, हो
गया। उससे
अन्यथा नहीं
हो सकता था। अब
तुम उसमें से
और
व्यर्थ
की बातें मत
निकालो, नहीं तुम
सोचते ही
रहोगे। प्रत्येक
पल सोचने में
गंवाया, बड़ा
महंगा है। क्योंकि
उसी पल में सब
कुछ उपलब्ध हो
सकता था।
दूसरा
प्रश्न:
बुद्ध
के देह में
जीवित रहते
उनका
भिक्षु-संघ
एकता में रहा।
लेकिन बुद्ध
के
देह-विसर्जन
के बाद
जैसे-जैसे समय
बीतता गया, बुद्ध-
धर्म अनेक
शाखाओं एवं
प्रशाखाओं
में बंटने लगा।
अज्ञानी
संप्रदाय
बनाते हैं, लेकिन बुद्ध
के ज्ञानी
शिष्य भी अनेक
विभिन्न एवं
विपरीत
संप्रदायों
में बंट गए। कृपया
इस घटना पर
कुछ प्रकाश
डालें।
अज्ञानी
संप्रदाय
बनाते हैं। ज्ञानी
भी संप्रदाय
बनाते हैं। लेकिन
अज्ञानी का
संप्रदाय
कारागृह मुक्ति
की एक राह है।
संप्रदाय का
अर्थ होता है, मार्ग।
संप्रदाय का
अर्थ होता है, जिससे
पहुंचा जा
सकता है।
ज्ञानी
मार्ग से
पहुंचते हैं, मार्ग
बनाते भी हैं।
अज्ञानी
मार्ग से जकड़
जाते हैं, पहुंचते
नहीं। मार्ग
बोझिल हो जाता
है। छाती पर
पत्थर की तरह
बैठ जाता है। ज्ञानी
मार्ग का
उपयोग कर लेते
हैं, अज्ञानी
मार्ग से ही
बंध जाते हैं।
संप्रदाय में
कुछ बुराई
नहीं है, अगर
पहुंचाता हो।
संप्रदाय
शब्द बड़ा
बहुमूल्य है। जिससे
पहुंचा जाता
है, वही
संप्रदाय है। लेकिन
बड़ा गंदा हो
गया। लेकिन
गंदा हो जाने
का कारण
संप्रदाय
नहीं है। अब
कोई नाव को
सिर पर रखकर
ढोए तो इसमें
नाव का क्या
कसूर है? क्या
तुम नाव के
दुश्मन हो
जाओगे, कि
लोग नाव को सिर
पर रखकर ढो
रहे हैं। मूढ़
तो ढोएंगे ही।
नाव न होती, कुछ और ढोते।
मंदिर-मस्जिद
न होते लड़ने
को तो किसी और
बात से लड़ते। कुछ
और कारण खोज
लेते। जिन्हें
जाना नहीं है,
वे मार्ग के
संबंध में
विवाद करने
लगते हैं। जिन्हें
जाना है, वे
मार्ग का
उपयोग कर लेते
हैं। और जिसने
का उपयोग कर
लिया, वह
मार्ग से
मुक्त हो जाता
है। जिसने नाव
का उपयोग कर
लिया, वह
नाव को सिर पर
थोड़े ही ढोता
है! नाव पीछे
पड़ी रह जाती
है, रास्ते
पीछे पड़े रह
जाते हैं। तुम
सदा आगे बढ़ते
चले जाते हो।
संप्रदाय
में अपने आप
कोई भूल-भ्रांति
नहीं है। भूल-भ्रांति
है तो तुम में
है। तुम तो
औषधि को भी
जहर बना लेते
हो। बड़े
कलाकार हो!
तुम्हारी
कुशलता का क्या
कहना! जो
जानते हैं वे
जहर को भी
औषधि बना लेते
हैं। वक्त पर
काम पड़ जाता
है जहर भी
जीवन को बचाने
के। तुम्हारी
औषधि भी जीवन
की जानलेवा हो
जाती है। असली
सवाल तुम्हारा
है।
बुद्ध
के जाने के
बाद धर्म
शाखा-प्रशाखाओं
में बंटा। बंटना
ही चाहिए। जब
वृक्ष बड़ा
होगा तो पीड़
ही पीड़ थोड़े
ही रह जाएगा। शाखा-प्रशाखाओं
में बंटेगा। पीड़
ही पीड़ बड़ी
ठूंठ मालूम
पड़ेगी। उस
वृक्ष के नीचे
छाया किसको
मिलेगी
जिसमें पीड़ ही
पीड़ हो? उससे तो खजूर
का वृक्ष भी
बेहतर। कुछ तो
छाया
थोड़ी-बहुत
कहीं पड़ती
होगी।
वृक्ष
तो वही शानदार
है, वही
जीवित है, जिसमें
हजारों
शाखाएं-प्रशाखाएं
निकलती हैं। शाखाएं-प्रशाखाएं
तो इसी की खबर
हैं कि वृक्ष में
हजार वृक्ष
होने की
क्षमता थी, किसी तरह एक
में समा लिया
है। हर्ज भी
कुछ नहीं है। जितनी
शाखाएं-प्रशाखाएं
हों उतना ही
सुंदर। क्योंकि
उतने ही पक्षी
बसेरा कर
सकेंगे। उतने
ही पक्षी
घोंसले बना
सकेंगे। उतने
ही यात्री
विश्राम पा
सकेंगे। उतनी
ही बड़ी छाया
होगी, उतनी
ही गहन छाया
होगी। धूप से
तपे-मादों के
लिए आसरा होगा,
शरण होगी।
जो
वृक्ष ठूंठ रह
जाए, उसका
क्या अर्थ हुआ?
उसका अर्थ
हुआ, वृक्ष
बांझ है। उसमें
फैलने की
क्षमता नहीं
है। जीवन का
अर्थ है, फैलने
की क्षमता। सभी
जीवित चीजें
फैलती हैं। सिर्फ
मृत्यु
सिकुड़ती है। मृत्यु
सिकोड़ती है, जीवन फैलाता
है। जीवन
विस्तार है, एक से दो, दो
से अनेक होता
चला जाता है। परमात्मा
अकेला था, फिर
अनेक हुआ, क्योंकि
परमात्मा
जीवित था। अगर
मुर्दा होता,
तो अनेक
नहीं हो सकता
था। संसार को
गाली मत देना,
अगर
तुम्हें मेरी
बात समझ में
आए तो तुम
समझोगे कि
संसार
परमात्मा की
शाखाएं-प्रशाखाएं
है। तुम भी
उसी की शाखा-प्रशाखा
हो। इतना
जीवित है कि
चुकता ही नहीं,
फैलता ही
चला जाता है। वृक्ष
भारत में बड़े
प्राचीन समय
से जीवन का प्रतीक
रहा है। बुद्ध
के वृक्ष में
बड़ी क्षमता थी,
बड़ा बल था, बड़ी संभावना
थी। अकेली पीड़
से कैसे बुद्ध
का वृक्ष
चिपटा रहता? जैसे-जैसे
बढ़ा, शाखाएं-प्रशाखाएं
हुईं। लेकिन
ज्ञानी की
दृष्टि में उन
शाखाओं-प्रशाखाओं
में कोई विरोध
न था। वे सभी
एक ही वृक्ष
से जुड़ी थीं
और एक ही जड़ पर
जीवित थीं। उन
सभी का जीवन
एक ही स्रोत
से आता था। बुद्ध
स्रोत थे। ज्ञानी
ने इसमें कुछ
विरोध न देखा।
इसमें इतना ही
देखा कि बुद्ध
में बड़ी
संभावना है।
यह जरा
हैरानी की बात
है, सारी
मनुष्य-जाति
में बुद्ध ने
जितनी संभावनाओ
को जन्म दिया,
किसी दूसरे
आदमी ने नहीं
दिया।
महावीर
के वृक्ष में
केवल दो
शाखाएं
लगीं-दिगंबर, श्वेतांबर।
बस। और उनमें
भी कोई बहुत
फासला नहीं है।
क्षुद्र बातों
का फासला है। कि
कोई महावीर का
श्रृंगार
करके पूजता है,
कोई महावीर
को नग्न पूजता
है। श्रृंगार
के भीतर भी
महावीर नग्न
हैं, और नग्न
में भी उनका
बड़ा श्रृंगार
है। इसमें कुछ
बड़ा फासला नही
है। उनकी
नग्नता ही श्रृंगार
है, अब और
क्या सजाना है?
उनको और
सजाना तो ऐसे
ही है जैसे
कोई सांप पर
पैर चिपकाए। वह
सांप अकेला
बिना पैर के
ही खूब चलता
था। अब तुम और
पैर चिपकाकर
उसे खराब मत
करो। यह तो उन
पर और
श्रृंगार
करना ऐसे ही
है जैसे कोई
मोर को और
रंगों से पोत
दे। मोर वैसे
ही काफी रंगीन
था, अब तुम
कृपा करके रंग
खराब मत करो।
महावीर
की नग्नता में
ही खूब
श्रृंगार है। उन
जैसी सुंदर
नग्नता कभी
प्रगट हुई? पर फिर
तुम्हारी मौज
है। तुम्हारा
मन नहीं
मानता-इसलिए
नहीं कि महावीर
में कुछ कमी
है-तुम्हारा
मन बिना किए
कुछ नहीं
मानता। तुम
कुछ करना
चाहते हो। करो
भी क्या? महावीर
जैसे व्यक्ति के
सामने एकदम
असमर्थ हो
जाते हो। सुंदर
कपड़े पहनाते
हो, सुंदर
आभूषण लगाते
हो, यह
तुम्हारी
राहत है। इससे
महावीर का कुछ
लेना-देना
नहीं। तुम्हारे
सब वस्त्रों
के पीछे भी वे
अपनी नग्नता
में खड़े हैं, नग्न ही हैं।
ऐसे छोटे-छोटे
फासले हैं।
दिगंबर
कहते हैं कि
उनकी कोई शादी
नहीं हुई। श्वेतांबर
कहते हैं, शादी हुई।
क्या फर्क
पड़ता है? दिगंबर
कहते हैं, उनका
कोई बच्चा
नहीं हुआ-जब
शादी ही नहीं
हुई तो बच्चा
कैसे हो? श्वेतांबर
कहते हैं, उनकी
एक लड़की थी। पर
क्या फर्क
पड़ता है? महावीर
में इससे क्या
फर्क पड़ता है?
शादी हुई कि
न हुई? ये
तो फिजूल की
विस्तार की
बातें हैं। महावीर
के होने का
इससे क्या
लेना-देना है?
शादी हुई हो
तो ठीक, न
हुई हो तो ठीक।
जिसको जैसी
मौज हो वैसी
कहानी बना ले।
लेकिन कोई
बहुत बड़ा
विस्तार नहीं
हुआ।
जीसस की
भी दो शाखाएं
फूटकर रह गयीं।
प्रोटेस्टेंट
और केथोलिक। कोई
बड़ा विस्तार
नहीं हुआ।
बुद्ध
अनूठे हैं, अद्वितीय
हैं। सैकड़ों
शाखाएं हुईं। और
प्रत्येक
शाखा इतनी
विराट थी कि
उसमें से भी
प्रशाखाएं
हुईं। कहते
हैं, जितने
दर्शन के
मार्ग अकेले
बुद्ध ने खोले
उतने
मनुष्य-जाति
में किसी
व्यक्ति ने
नहीं खोले। बुद्ध
अकेले समस्त
प्रकार के
दर्शनों का
स्रोत बन गए। ऐसी
कोई दार्शनिक
परंपरा नहीं
है जगत में
जिसके समतुल
परंपरा
बुद्ध-धर्म
में न हो।
अगर तुम
बुद्ध-धर्म का
पूरा इतिहास
समझ लो, तो बाकी सब
धर्मों का
इतिहास छोड़ भी
दो तो कुछ हर्जा
न होगा। क्योंकि
सारे जगत में
जो भी कहीं
हुआ है, जो
विचार कहीं भी
जन्मा है, वह
विचार बुद्ध
में भी जन्मा
है। बुद्ध
अकेले बड़े
विराट वृक्ष
हैं।
यह तो
सौंदर्य की
बात है। यह तो
अहोभाव और
उत्सव की बात
है। इसमें कुछ
चिंता का कारण
नहीं है। यह
तो इतना ही
बताता है कि
बुद्ध में बड़ी
संभावना थी। शानी
ने तो उस
संभावना का
उपयोग किया। उसमें
कोई झगड़ा न था।
बिलकुल
विपरीत जाने
वाली शाखाएं
भी-एक पूरब जा
रही है, एक पश्चिम
जा रही है-फिर
भी एक ही तने
से जुड़ी होती
हैं, विरोध
कहां है? और
उन दोनों का
जीवन-स्रोत एक
ही जगह से आता
है। एक बुद्ध
ही फैलते चले
गए सब में। इससे
कुछ अड़चन न थी।
लेकिन
अज्ञानी अड़चन
खड़ी करता है। अज्ञानी
की अड़चन ऐसी
है कि वह यह
भूल ही जाता है
कि सभी विरोध
अलग-अलग
दिशाओं में
जाती शाखाएं
हैं। एक ही
स्रोत से
जन्मी हैं।
मैंने
सुना है, एक गुरु के
दो शिष्य थे। गर्मी
की दोपहर थी, गुरु
विश्राम कर
रहा था, और
दोनों उसकी
सेवा कर रहे
थे। गुरु ने
करवट बदली-तो
दोनों
शिष्यों ने
आधा-आधा गुरु
को बांट रखा
था सेवा के
लिए, बायां
पैर एक ने ले
रखा था, दायां
पैर एक ने ले
रखा था-गुरु
ने करवट बदली
तो बायां पैर
दाएं पैर पर
पड़ गया। स्वभावत:
झंझट खड़ी हो
गई।
गुरु तो
एक है। शिष्य
दो थे। तो
उन्होंने
हिदुस्तान-पाकिस्तान
बांटा हुआ था।
तो जब दाएं
पैर पर बायां
पैर पड़ा, तो जिसका
दायां पैर था
उसने कहा, हटा
ले अपने बाएं
पैर को। मेरे
पैर पर पैर!
सीमा होती है
सहने की। बहुत
हो चुका, हटा
ले। तो उस
दूसरे ने कहा,
देखूं
किसकी हिम्मत
है कि मेरे
पैर को और कोई
हटा दे! सिर कट
जाएंगे, मगर
मेरा पैर जहां
रख गया रख गया।
यह कोई साधारण
पैर नहीं, अंगद
का पैर है। भारी
झगड़ा हो गया, दोनों लट्ठ
लेकर आ गए।
गुरु यह
उपद्रव सुनकर
उसकी नींद खुल
गई, उसने
देखी यह दशा। उसने
जब लट्ठ चलने
के ही करीब आ
गए-लट्ठ चलने
वाले थे गुरु
पर! क्योंकि
जिसका दायां
पैर था वह
बाएं पैर को
तोड़ डालने को
तत्पर हो गया
था। और जिसका
बायां पैर था
वह दाएं पैर
को तोड़ डालने
को तत्पर हो
गया था। गुरु
ने कहा, जरा
रुको, तुम
मुझे मार ही
डालोगे। ये
दोनों पैर
मेरे हैं। तुमने
विभाजन कैसे
किया?
अज्ञानी
बांट लेता है
और भूल ही
जाता है। भूल
ही जाता है कि
जो उसने बांटा
है वे एक ही व्यक्ति
के पैर हैं, या एक ही
वृक्ष की
शाखाएं हैं। अज्ञानी
ने उपद्रव खड़ा
किया। अज्ञानी
लड़े। एक-दूसरे
का विरोध किया।
एक-दूसरे का
खंडन किया। एक-दूसरे
को नष्ट करने
की चेष्टा की।
जब संप्रदाय
अज्ञानी के
हाथ में पड़ता
है तब खतरा
शुरू होता है।
ज्ञानी
संप्रदाय को
बनाता है, क्योंकि
धर्म की
शाखाएं-प्रशाखाएं
पैदा होती हैं।
जितना जीवित
धर्म, उतनी
शाखाएं-प्रशाखाएं।
दुनिया से
संप्रदाय
थोड़े ही
मिटाने हैं, अज्ञानी
मिटाने हैं। जिस
दिन संप्रदाय मिट
जाएंगे, दुनिया
बड़ी बेरौनक हो
जाएगी। उस दिन
गुरु बिना पैर
के होगा। उसको
फिर, जैसे
भिखमंगों को
ठेले पर रखकर
चलाना पड़ता है,
ऐसे चलाना
पड़ेगा। फिर
वृक्ष बिना
शाखाओं के
होगा। न पक्षी
बसेरा करेंगे,
न राहगीर
छाया लेंगे। और
जिस वृक्ष में
पत्ते न लगते
हों, शाखाएं
न लगती हों, उसका इतना
ही अर्थ है कि
जड़ें सूख गयीं।
अब वहां जीवन
नहीं। जीवन
छोड़ चुका उसे,
उड़ गया।
तुम
पूछते हो, 'बुद्ध के
देह में जीवित
रहते उनका
भिक्षु-संघ एकता
में रहा।
नहीं, ज्ञानियों
के लिए तो वह
अब भी एकता
में है। और
तुमसे मैं
कहता हूं
अज्ञानी के
लिए वह तब भी
एकता में नहीं
था जब बुद्ध
जीवित थे। तब
भी अज्ञानी
अपनी
तैयारियां कर
रहे थे। तभी
फिरके बंटने
शुरू हो गए थे।
बुद्ध के जीते
जी
अज्ञानियों
ने अपने हिसाब
बांट लिए थे, अलग-अलग कर
लिए थे। बुद्ध
के मरने से
थोड़े ही अचानक
अज्ञान पैदा होता
है। अज्ञानी
तो पहले भी
अज्ञानी था, वह कोई
अचानक थोड़े ही
अज्ञानी हो
गया। और जो
अज्ञानी है, बुद्ध के
जीवित रहने से
थोड़े ही कुछ
फर्क पड़ता है?
अज्ञान तो
तुम्हे छोड़ना
पड़ेगा, बुद्ध
क्या कर सकते
हैं? बुद्ध
ने कहा है, मार्ग
दिखा सकता हूं?
चलना तो
तुम्हें
पड़ेगा। समझा
सकता हूं
समझना तो
तुम्हें
पड़ेगा। अगर
तुम न समझने
की ही जिद्द
किए बैठे हो, अगर समझने
के लिए तुम
में जरा भी
तैयारी नहीं है-तैयारी
नहीं दिखाई
है-तो बुद्ध
लाख सिर पीटते
रहें, कोई
परिणाम नहीं
हो सकता।
तीसरा
प्रश्न,
क्या
जीवन में सभी
कुछ नदी-नाव
संयोग है? बुद्ध भी?
बुद्धत्व
भी?
नहीं--बुद्धत्व
को छोड़कर सभी
कुछ नदी-नाव
संयोग है। क्योंकि
बुद्धत्व
तुम्हारा
स्वभाव है, संयोग नहीं।
ऐसा नहीं है
कि तुम्हें
बुद्ध होना है।
तुम बुद्ध हो।
बस इतना ही है
कि तुम्हें
पहचानना है। ऐसा
नहीं है कि
तुम्हें
बुद्धत्व
अर्जित करना
है। तुमने कभी
गंवाया ही
नहीं। प्रत्यभिज्ञा
करनी है। पहचान
करनी है। जो
मिला ही है, जागकर देखना
है।
बुद्धत्व
संयोग नहीं है।
बुद्धत्व
किन्हीं
परिस्थितियों
पर निर्भर नहीं
है। न
तुम्हारी
साधना पर
निर्भर है, याद रखना।
यह मत सोचना
कि तुम बहुत
ध्यान करोगे
इसलिए बुद्ध
हो जाओगे। बहुत
ध्यान, बहुत
तपश्चर्या से
शायद तुम्हें
जागने में आसानी
होगी
बूद्धत्व के
प्रति, लेकिन
बुद्ध होने
में नहीं। बुद्ध
तो तुम थे। गहरी
तंद्रा में थे
और खर्राटे ले
रहे थे, तब
भी तुम बुद्ध
ही थे। भटक
रहे थे
योनियों
में-अनंत
योनियों में
कीड़े-मकोड़ों की
तरह-जी रहे थे
कामवासना में,
हजार क्रोध
और लोभ में, तब भी तुम
बुद्ध ही थे। ये
सब सपने थे जो
तुमने देखे। लेकिन
सपनों के पीछे
तुम्हारा
मूलस्रोत सदा ही
शुद्ध था। वह
कभी अशुद्ध
हुआ नहीं। अशुद्ध
होना उसकी
प्रकृति नहीं।
और सब
जीवन में
नदी-नाव संयोग
है। किसी
स्त्री के तुम
प्रेम में पड़
गए, और
तुमने शादी कर
ली, वह
नदी-नाव संयोग
है। धन कमा
लिया किसी ने
और कोई न कमा
पाया, वह
नदी-नाव संयोग
है। किसी ने
यश कमा लिया
और कोई बदनाम
हो गया, वह
नदी-नाव संयोग
है। वह हजार
परिस्थितियों
पर निर्भर है।
वह तुम्हारा
स्वभाव नहीं। वह
बाहर पर
निर्भर है, भीतर पर
नहीं।
सिर्फ
एक चीज
नदी-नाव संयोग
नहीं है, वह है
तुम्हारा
होना। शुद्ध
होना। बुद्धत्व
भर संसार के
बाहर है, शेष
सब संसार है। तो
जिस दिन तुम
जागते हो, उस
दिन तुम अचानक
संसार के बाहर
हो जाते हो, अतिक्रमण हो
जाता है।
ऐसा
समझो कि तुम
एक सपना देख
रहे हो। सपने
में कोई देख
रहा है गरीब
है, कोई
देख रहा है
अमीर है। कोई
देखता है साधु,
कोई देखता
है असाधु। कोई
देखता है हजार
पाप कर रहा
हूं? कोई
देखता है हजार
पुण्य कर रहा
हूं। यह सब
नदी-नाव संयोग
है। यह सब
सपना है। लेकिन
वह जो सपना
देख रहा है, वह जो
द्रष्टा है, वह नदी-नाव
संयोग नहीं है।
चाहे सपना तुम
साधुं का देखो,
चाहे असाधु
का, सपने
में भेद है, देखने वाले
में कोई भेद
नहीं है। वह
देखने वाला
वही है। चाहे
साधु, चाहे
असाधु; चाहे
चोर, चाहे
अचोर, पाप
करो, पुण्य
करो, वह जो
देखने वाला है
भीतर वह एक है।
उस देखने वाले
को ही जान
लेना
बुद्धत्व है। स्वयं
को पहचान लेना
बुद्धत्व है। शेष
सब पराया है। शेष
सब संयोग से
बनता मिटता है।
इसलिए शेष की
फिकर नासमझ
करते हैं। जो
संयोग पर
निर्भर है
उसकी भी क्या
फिकर करनी?
थोड़ा
समझो। तुम एक
गरीब घर में
पैदा हुए। तुम्हें
ठीक से शिक्षा
नहीं मिल सकी, तो कुछ
द्वार बंद हो
गए संयोग के। तुम
एक जंगल में
पैदा हुए, एक
आदिवासी समाज
में पैदा हुए।
अब वहां तुम
उस आदिवासी
समाज में
शेक्सपियर न बन
सकोगे, न
कालिदास बन
सकोगे। संयोग
की बात है। तुम
पूरब में पैदा
हुए तो एक
संयोग, पश्चिम
में पैदा हुए
तो दूसरा
संयोग। इन
संयोगों पर
बहुत सी बातें
निर्भर
हैं-सभी बातें
निर्भर
हैं-सिर्फ एक
को छोड़कर। एक
भर अपवाद है। और
इसीलिए धर्म
उसकी खोज है, जो संयोग के
बाहर है। धर्म
उसकी खोज है, जो
परिस्थिति पर
निर्भर नहीं
है। धर्म उसकी
खोज है, जो
किसी चीज पर निर्भर
नहीं है। जो
परम
स्वातंत्र्य
का सूत्र है
तुम्हारे
भीतर, उसकी
खोज है।
शेष सब
तुम खोजते हो, वह सब
संयोग की बात
है। और
छोटे-छोटे
संयोग बड़े
महत्वपूर्ण
हो जाते हैं। किसी
को बचपन में
ही चेचक निकल
गई और चेहरा
कुरूप हो गया।
अब इसकी पूरी
जिंदगी इस
चेचक पर निर्भर
होगी। क्योंकि
शादी करने में
इस व्यक्ति को
अड़चन आएगी। इस
व्यक्ति को
जिंदगी में
चलने में हजार
तरह की
हीनताएं
घेरेंगी। यह
सब संयोग की
ही बात है।
लेकिन, चेहरा
सुंदर हो कि
कुरूप, काला
हो कि गोरा, वह जो भीतर
द्रष्टा है,
वह एक
है। जिसने उसे
खोजना शुरू कर
दिया, उसने
सत्य की तरफ
कदम रखने शुरू
कर दिए।
तो इस
बात को स्मरण
रखो कि जो भी
संयोग मालूम पड़े
उस पर बहुत
समय मत गंवाना, बहुत
शक्ति मत
लगाना। बहुत
अपने को उस पर
निर्भर मत
रखना। वह है
तो ठीक, नहीं
है तो ठीक। चिंतन
करना उसका, मनन करना
उसका, ध्यान
करना उसका, जो संयोगातीत
है। उसका ही
नाम बुद्धत्व
है।
जिंदगी
एक आंसुओ का
जाम था
पी गए
कुछ और कुछ
छलका गए
जिंदगी
तो आंसुओ का
एक प्याला है।
जो तुम पी रहे
हो, वे
तो आंसू ही
हैं। कभी-कभार
शायद जीवन में
सुख की थोड़ी
सी झलक भी मिलती
है, लेकिन
वह भी
संयोग-निर्भर
है। इसलिए
उसके भी तुम
मालिक नहीं। कब
जिंदगी तुम पर
मुस्कुरा
देगी, उसके
तुम मालिक
नहीं। इसको ही
तो पुराने
ज्ञाताओं ने
भाग्य कहा था,
कि वह सब
भाग्य की बात
है। भाग्य का
इतना ही अर्थ
है कि वह
संयोग की बात
है, उसकी
चिंता में
बहुत मत पड़ो। जो
भाग्य है, वह
हजार कारणों
पर निर्भर है।
लेकिन जो तुम
हो, वह
किसी कारण पर
निर्भर नहीं
है।
मैं एक
यहूदी विचारक
फ्रेंकलिन का
जीवन पढ़ता था।
वह हिटलर के
कारागृह में
कैद था। उसने
लिखा है कि
हिटलर के
कारागृह से और
खतरनाक
कारागृह
दुनिया में
कभी रहे नहीं।
दुख, पीड़ा,
सब तरह का
सताया जाना, सब तरह का
अपमान, हर
छोटी-छोटी बात
पर जूतों से
ठुकराया जाना,
लेकिन वहां
भी उसने लिखा
है कि मुझे
धीरे-धीरे एक
बात समझ में आ
गई कि मेरी
स्वतंत्रता
अक्षुण्ण है।
जब मैं
पढ़ रहा था
उसका जीवन तो
मैं भी चौंका, कि इसने
अपनी
स्वतंत्रता
वहा कैसे पाई
होगी? हिटलर
ने सब इंतजाम
कर दिए
परतंत्र करने
के, दीन
करने के, दुखी
करने के; एक
रोटी का छोटा
सा टुकड़ा रोज
मिलता, वह
एक दफे भोजन
के लिए भी
काफी नहीं था,
तो लोग उसे
छिपा-छिपा कर
रखते। फ्रैंक
बड़ा
मनोवैज्ञानिक,
प्रतिष्ठित
विचारक। लेकिन
उसने भी लिखा
है कि बड़े
डाक्टर मेरे साथ
थे, जिन्होंने
कभी सोचा भी न
होगा कि किसी
की दूसरे की
रोटी का टुकड़ा
चुरा लेंगे; बड़े धनपति
मेरे साथ थे, जो अपनी
रोटी के टुकड़े
को एक-एक
टुकड़ा करके खाते-एक
टुकड़ा सुबह खा
लिया जरा सा, फिर दोपहर
में खा लिया। क्योंकि
इतनी बार भूख
लगेगी, थोड़ा-
थोड़ा करना
ज्यादा बेहतर
बजाय एक बार
खा लेने के। फिर
चौबीस घंटे
भूखा रहना
पड़ता है। तो
छोटा-छोटा मन
को समझाते। लोग
अपनी रोटी को
छिपाकर रखते,
बार-बार देख
लेते कि कोई
दूसरे ने
निकाल तो नहीं
ली, क्योंकि
सौ कैदी एक
जगह बंद। रात
लोग एक-दूसरे
के बिस्तर में
से टटोलकर रोटी
निकाल लेते। ऐसा
दीन हिटलर ने
कर दिया। लेकिन,
उसने लिखा
है, फिर भी
मुझे एक बात
समझ में आ गई
कि मेरी स्वतंत्रता
अक्षुण्ण है।
कैसे? तो उसने
लिखा है कि सब
परतंत्र हो
गया है, लेकिन
इस परतंत्रता
की तरफ मैं
क्या दृष्टि लूं
र उसके लिए
मैं मालिक हूं।
क्या दृष्टि
लूं? कैसे
इसे देखूं? स्वीकार
करूं, अस्वीकार
करूं, लडूं?
न लडूं --द्रष्टा
स्वतंत्र है।
और उसने
लिखा है कि
जिनको भी यह
स्वतंत्रता
का अनुभव हुआ, उन्होंने
पाया कि ऐसी
स्वतंत्रता
की प्रतीति
बाहर कभी भी न
हुई थी। क्योंकि
जहां इतनी
परतंत्रता
थी-इतनी काली
दीवाल थी-वहां
स्वतंत्रता
की छोटी सी
सफेद लकीर बड़ी
उभरकर दिखाई
पड़ने लगी।
तो उसने
लिखा, वहा
भी दो तरह के
लोग थे
कारागृह में। स्वतंत्र
लोग भी थे वहा,
जो
स्वतंत्र ही
रहे। वहां
असली पता चल
गया कि कौन
स्वतंत्र है!
उनको हिटलर
झुका न सका, उनको तोड़ न
सका। उनको
भूखा मार डाला,
उनको कोड़े
लगाए, लेकिन
उनको झुकाया न
जा सका। उनको
मारा जा सका, लेकिन
झुकाया न जा
सका। उनकी
स्वतंत्रता
अक्षुण्ण थी।
कौन
तुम्हें
कारागृह में
डाल सकता है? लेकिन, अगर
तुम्हारे
भीतर द्रष्टा
का बोध ही न हो,
तो तुम अपने
घर में भी
कारागृह में
हो जाते हो।
खुदा
गवाह है दोनों
हैं
दुश्मने-परवाज
गमे-कफस
हो कि राहत हो
आशियाने की
कारागृह
का दुख हो, वह तो
बांधता ही
है-कि राहत हो
आशियाने की-घर
की सुख-सुविधा
भी बाध लेती
है। जिसको
बंधना है, वह
कहीं भी बंध
जाता है। उसके
लिए कारागृह
जरूरी नहीं।
तुम
अपने घर को ही
सोचो। तुमने
कब का उसे
कारागृह बना
लिया। तुम
स्वतंत्र हो
अपने घर में? अगर तुम
अपने घर में
ही स्वतंत्र
नहीं हो, अगर
वहां भी
तुम्हारी
मालकियत नहीं
है, अगर
वहां भी
तुम्हारा
द्रष्टा
मुक्त नहीं हुआ
है, अगर
तुम कहते हो
मेरा घर, तो
तुम गुलाम हो।
अगर तुम कहते हो
इस घर में मैं
रहता हूं और
यह घर मुझमें
नहीं, तो
तुम मालिक हो।
खुदा
गवाह है दोनो
हैं
दुश्मने-परवाज
आकाश
में उड़ने की
क्षमता दोनों
छीन लेते हैं।
गमे-कफस
हो कि राहत हो
आशियाने की
कारागृह
तो छीन ही
लेता है आकाश
में उड़ने की क्षमता, घर की
सुख-सुविधा भी
छीन लेती है। सुरक्षा
भी छीन लेती
है।
तो असली
सवाल न तो घर
का है और न
कारागृह का है।
असली सवाल
तुम्हारा है। तुम
अगर कारागृह
में भी
द्रष्टा बने
रहो, तो
तुम मुक्त हो।
और तुम घर में
भी अगर
द्रष्टा न रह
जाओ, भोक्ता
हो जाओ, तो
बंध गए।
द्रष्टा
हो जाना बुद्ध
हो जाना है। बुद्धत्व
कुछ और नहीं
मांगता, इतना ही कि
तुम जागो, और
उसे देखो जो
सब को देखने
वाला है। विषय
पर मत अटके
रहो। दृश्य पर
मत अटके रहो। द्रष्टा
में ठहर जाओ। अकंप
हो जाए
तुम्हारे
द्रष्टा का
भाव, साक्षी
का भाव, बुद्धत्व
उपलब्ध हो गया।
और ऐसा
बुद्धत्व सभी
जन्म के साथ
लेकर आए हैं।
इसलिए
मैं तुमसे
कहता हूं
बुद्धत्व
जन्मसिद्ध
अधिकार है। जब
चाहो तब तुम
उसे उठा लो, वह
तुम्हारे
भीतर सोया पड़ा
है। जब चाहो
तब तुम उघाड़
लो, वह
हीरा तुम लेकर
ही आए हो? उसे
कहीं खरीदना
नहीं, कहीं
खोजना नहीं।
चौथा
प्रश्न:
होशपूर्ण
व्यक्ति भूल
नहीं करता तो
कृपया मेरे
नाम में
अंग्रेजी और
हिंदी में इस
अंतर का क्या
रहस्य है? हिंदी :
स्वामी
श्यामदेव
सरस्वती, और
अंग्रेजी :
स्वामी
श्यामदेव
भारती।
तुमसे
बात करना
करीब-करीब ऐसे
है जैस दीवाल
से बात करना। तुमसे
बात करना
करीब-करीब ऐसे
है जैसे बहरे
आदमी से बात
करना। तुम जो
समझना चाहते
हो वही समझते
हो। तुम्हें
लाख कुछ और
दिखाने के
उपाय किए जाएं, तुम उनसे
चूकते चले
जाते हो। और
बड़े मजे की
बात है कि तुम
जिन
सिद्धातों से मुका
हो सकते थे, जो सिद्धात
तुम्हारे
जीवन को नए
आकाश से जोड़ देते,
वे ही
सिद्धात तुम
अपनी जंजीरों
में ढाल लेते
हो।
जैसे, यह बात
बिलकुल सच है
कि
बुद्धपुरुष
भूल नहीं करते।
लेकिन इसका यह
अर्थ नहीं है
कि जिन चीजों
को तुम भूल
समझते हो वैसी
भूल
बुद्धपुरुष
नहीं कर सकते।
बुद्धपुरुष
कोई मुर्दा
थोड़े ही है। सिर्फ
मुर्दा
बिलकुल भूल
नहीं करते। तो
तुम्हारे
हिसाब में तो
सिर्फ मुर्दे
ही बुद्धपुरुष
हो सकते हैं। इसीलिए
तो जीवित गुरु
को पूजना बहुत
कठिन है। मरे
हुए गुरु को
पूजना आसान
होता है। क्योंकि
मरा हुआ गुरु
फिर कोई भूल
नहीं कर सकता
है।
बुद्धपुरुष
का तुमने क्या
अर्थ ले लिया
है? जैसे
कि पीछे मैंने
कहा कि बुद्ध
एक मार्ग से
गुजरते थे। एक
मक्खी उनके
कंधे पर आकर
बैठ गई। वे
बात कर रहे थे
आनंद से, उन्होंने
उसे उड़ा दिया।
मक्खी तो उड़
गई, फिर वे
रुक गए। और
उन्होंने फिर
से अपना हाथ
उठाया और बड़े
आहिस्ता से
मक्खी को
उड़ाने को गए। आनंद
ने पूछा, अब
आप क्या करते
हैं, मक्खी
तो जा चुकी। बुद्ध
ने कहा, अब
मैं ऐसे उड़ाता
हूं जैसे
उड़ाना चाहिए
था। तुझसे बात
में लगा था, बिना होश के
मक्खी उड़ा दी।
चोट लग जाती
कहीं, मक्खी
पर हाथ जोर से
पड़ जाता
कहीं-पड़ा नहीं
संयोग-तो
हिंसा हो जाती।
मैंने जानकर
नहीं की होती,
फिर भी हो
तो जाती। तत्क्षण
दूसरे दिन
प्रश्न आ गया
कि
बुद्धपुरुषों
से तो कोई भूल
होती नहीं, और
बुद्धपुरुष
ने कैसे मक्खी
उड़ा दी आनंद
से बातचीत
करते हुए?
तुम
पागल हो। बुद्धपुरुष
से भूल नहीं
होती, इसी
का सबूत है
उनका दुबारा
मक्खी को
उड़ाना। अगर
तुम जैसे
बुद्ध होते, तो चुप रह
जाते। अगर वे
भी इस सिद्धात
को मानते होते
कि बुद्धपुरुष
से भूल नहीं
होती, कैसे
उड़ाऊं। आनंद
क्या कहेगा, कि आप बुद्ध
होकर और भूल
कर लिए?
बुद्धपुरुष
से भूल नहीं
होती, लेकिन
अगर हो जाए तो
बुद्धपुरुष
तत्क्षण
स्वीकार कर
लेता है। बिना
किसी के बताए
भी। भूल नहीं
होती इससे भी
बड़ी बात यह है
कि वह भूल को
स्वीकार कर
लेता है। तुमसे
भूल भी होती
है और भूल को
स्वीकार करने में
कष्ट भी होता
है, अड़चन
भी होती है। तुम
भूल को छिपाते
हो, तुम
ढांकते हो। तुम
चेष्टा करते
हो कि किसी को
पता न चले कि
हो गई।
अब यह
मक्खी उड़ाने
की बात तो
दुनिया में
कभी किसी को
पता भी न चलती।
कि चलती? कौन बैठा था
वहां
खुर्दबीन
लेकर? आनंद-को
भी पता न था, वे अगर
दुबारा हाथ न
ले जाते तो
आनंद को भी
पता न चलता। पर
यह सवाल नहीं
है।
बुद्ध
ने इतना ही
कहा कि अगर
चैतन्य एक तरफ
उलझा हो, जैसे आनंद
से बात कर रहे
थे तो सारा
ध्यान उस तरफ
था-बुद्धपुरुष
जो भी करते
हैं पूरे
ध्यान से करते
हैं-तो जब वे
बात कर रहे थे
तो सारा ध्यान
उस तरफ था। वे
तुम जैसे
कटे-बंटे नहीं
हैं कि बाएं
देख रही है
आधी खोपड़ी और
आधी खोपड़ी
दाएं देख रही
है। वे पूरे
ही आनंद की
तरफ मुड़ गए होंगे।
तुम्हें
भूल दिखाई
पड़ती है, मुझे उनके
ध्यान की
एकाग्रता
दिखाई पड़ती है।
वे इतने
तल्लीन होकर
आनंद से बात
करते थे कि जैसे
सारा संसार
मिट गया था। सारा
संसार मिट गया
था, मक्खी
की तो बात
क्या! ऐसी घड़ी
में शरीर ने
यंत्रवत
मक्खी उड़ा दी।
बुद्ध ने उड़ाई
मक्खी भूल से,
ऐसा कहना भी
गलत है। क्योंकि
बुद्ध तो
मौजूद ही न थे।
बुद्ध तो
मौजूद थे आनंद
से चर्चा में।
शरीर ने उड़ा
दी।
शरीर
बहुत से काम
यंत्रवत करता
है। रात तुम
सोए भी रहते
हो, मच्छर
आ जाता है, हाथ
उड़ा देता है। उसके
लिए जागने की
भी जरूरत नहीं
होती। तुम
बैठे हो, कोई
एक कंकड़ फेंक
दे तुम्हारी आंख
की तरफ, तो
तुम्हें आंख
बंद थोड़े ही
करनी पड़ती है।
आंख अपने से
बंद हो जाती
है। वह
स्वचालित है,
आटोमैटिक
है। और अच्छा
है कि
स्वचालित है। नहीं
तो कंकड़ पड़
जाता और तुम आंख
बंद करने की
सोचते ही रहते,
करें बंद कि
न करें। इसलिए
प्रकृति ने
तुम पर नहीं
छोड़ा है। तुम्हारे
लिए नहीं छोड़ा
है कि तुम
सोचो, फिर
बंद करो। उसमें
तो खतरा हो
जाएगा। आंख
जैसी नाजुक
चीज तुम्हारे
ऊपर नहीं छोड़ी
जा सकती। प्रकृति
ने इंतजाम
किया है, जैसे
ही कोई चीज
करीब आएगी, आंख अपने से
बंद हो जाएगी।
तुम थोड़े ही आंख
झपकाते हो, आंख झपकती
है।
तुमने
कभी खयाल किया
कि बहुत से
काम शरीर चुपचाप
किए चला जाता
है। तुमने
भोजन किया। शरीर
पचाता है, तुम थोड़े
ही पचाते हो। तुम्हें
तो फिर खयाल
भी नहीं रखना
पड़ता कि शरीर
पचा रहा है। अपने
आप पचाए चला
जाता है।
उस घड़ी
बुद्ध ने जो
पहली दफा
मक्खी उड़ाई, वह बुद्ध
ने उड़ाइ यह
कहना ही गलत
है। कहने की
बात है, इसलिए
उस तरह कही गई।
हुआ ऐसा कि
बुद्ध तो पूरे
के पूरे आनंद
से चर्चा में
मौजूद थे, मक्खी
आ गई, शरीर
ने उड़ा दी। बुद्ध
ने शरीर को
सुधारा। जब
दुबारा
उन्होंने
मक्खी उड़ाई तो
उन्होंने शरीर
को एक पाठ
दिया कि ऐसे
उड़ानी थी-मैं
घर पर नहीं था
तो भी गलती
नहीं होनी
चाहिए। मैं
मौजूद नहीं था,
तो भी गलती
नहीं होनी
चाहिए। अगर
मैं न भी रहूं
तो भी तुझे
ऐसे ही मक्खी
उड़ानी चाहिए
जैसे
बुद्धपुरुषों
को शोभा देती
है। यह शरीर
को थोड़ा सा
संशोधन किया।
लेकिन
तत्क्षण
दूसरे दिन
सवाल आ गया कि
बुद्धपुरुषों
से भूल हो गई!
तुम इतने
उत्सुक हो भूल
दूसरे की
देखने में कि
बुद्धपुरुषों
में भी देखने
का रस तुम्हारा
छूटता नहीं। किसी
ने एक दिन
पूछा कि
कभी-कभी मैं
बालने में किसी
शब्द की भूल
कर जाता हूं। बुद्धपुरुषों
से भूल नहीं
हो सकती। तो
जाहिर है, या तो मैं
बुद्धपुरुष
नहीं हूं या
फिर बुद्धपुरुषों
से भूल होती
है। इसलिए मैं
कहता हूं? तुम्हारे
सामने बोलना
करीब-करीब
भैंस के सामने
बीन बजाने
जैसा है।
जब मैं
तुमसे बोल रहा
हूं तब मैं
तुम्हारे साथ
इतनी गहनता से
हूं कि मैं
मस्तिष्क पर
ध्यान ही नहीं
दे सकता। तो
बोलने का काम
और शब्द बनाने
का काम तो
मस्तिष्क का
यंत्र कर रहा
है-जैसे बुद्ध
के हाथ ने मक्खी
उड़ा दी थी, ऐसा मेरा
मस्तिष्क
तुमसे बोले
चला जाता है, मैं तो
तुम्हारे साथ
हूं। यंत्र कई
दफे भूलें कर
जाता है। यंत्र
की भूलें मेरी
भूलें नहीं
हैं। और जिसने
मुझे पहचाना,
वह ऐसे सवाल
न उठाएगा। ऐसे
सवाल
तुम्हारे मन
में उठ जाते
हैं, क्योंकि
तुम आ गए हो
भला मेरे पास
लेकिन झुकने
की इच्छा नहीं
है। कोई भी
बहाना मिल जाए,
तो तुम अपना
झुकना वापस ले
लो-कि अरे! इस
आदमी से एक
शब्द की भूल
हो गई! कहना
कुछ था, कह
कुछ और दिया। फिर
पीछे सुधारना
पड़ा। तुम इस
तलाश में हो
कि किसी भी
तरह तुम्हारा
समर्पण बच जाए।
सचाई यह
है कि मैं एक
बहुत कठिन काम
कर रहा हूं। तुम्हारे
साथ हो सकता
हूं पूरा, बोलने की
वजह से एक
दूसरा काम भी
मुझे साथ में करना
पड़ रहा है। अच्छा
तो यही होता
कि मैं चुप हो
जाता। तुम्हें
भी भूल न
मिलती, मेरी
भी झंझट छूट
जाती। लेकिन
तुम शब्दों को
भी नहीं समझ
पा रहे हो, तुम
मौन को भी न
समझ पाते।
मेहरबाबा
चुप हो गए। तो
ऐसे लोग थे जो
समझते थे कि
बोलने को कुछ
नहीं आता
इसलिए चुप हो
गए। तुम वहां
भी भूल खोज
लोगे। बुद्ध ने
बहुत से
प्रश्नों के
जवाब न
दिए, तो
सुनने वालों
ने समझा कि
इनको कुछ आता
नहीं है। जब
आता ही नहीं
तो जवाब कैसे
देंगे ' बुद्ध
ने इसलिए जवाब
नहीं दिए कि
जवाब उन बातों
के दिए ही
नहीं जा सकते।
उन बातों का
जवाब केवल वही
दे सकता है जो
जानता न हो। जो
जानता है, वह
चुप रह जाएगा।
जब मैं
तुमसे बोल रहा
हूं तो मैं एक
अति कठिन काम
कर रहा हूं। पहला, कि
तुम्हारी और
मेरी
उपस्थिति
संपूर्ण रूप से
एक हो जाए। तो
बोल नहीं सकता।
या फिर मैं
बोलूं तो
तुमसे मेरी
उपस्थिति का कोई
मिलन न हो पाए।
तो फिर बोल
सकता हूं
लेकिन वे शब्द
फिर कोरे
होंगे। तब
शब्द की कोई
भूल न होगी। पंडित
से कभी शब्द
की भूल नहीं
होती। बुद्धों
से होती है। पंडित
शब्द में कुशल
होता है, क्योंकि
यंत्र को ही
निखारता रहता
है।
शब्द तो
कामचलाऊ हैं। जो
मुझे कहना है, वह इन
कामचलाऊ
शब्दों से तुम
समझ लेना। तुम
यह बैठे मत सोच
लेना कि
व्याकरण की
कोई भूल हो गई।
तो
बुद्धपुरुषों
से कैसे भूल
हो सकती है? व्याकरण
मुझे आती हों 'नहीं। इतना
चला ले रहा
हूं वह भी
चमत्कार है!
मौन आता है, भाषा नहीं
आती। किसी तरह
चला ले रहा
हूं।
अब इन
मित्र ने पूछा
है कि 'होशपूर्ण
व्यक्ति भूल
नहीं करता, तो कृपया
मेरे नाम में
अंग्रेजी में
तो लिखा है-स्वामी
श्यामदेव
भारती, और
हिंदी में
लिखा
है-स्वामी
श्यामदेव
सरस्वती।
जरूर
मैं तुम्हें
देखने में लग
गया होऊंगा जब
ये नाम लिखे। और
संभावना इसकी
है श्यामदेव
भारती!
श्यामदेव
सरस्वती! कि
तुम दो आदमी
हो, एक
नहीं। स्प्लिट,
टूटे हुए। दर्पण
में दो चेहरे
बन गए होंगे। इस
तरह भी तुम
देख सकते थे। लेकिन
उस तरह देखोगे
तो तुम्हारी
जिंदगी
तुम्हें
बदलनी पड़े!
तुमने तत्क्षण
देखा कि अरे!
बुद्धपुरुष
से भूल हो गई। कहां
फंस गए? कोई
और
बुद्धपुरुष
खोजें, जो
श्यामदेव
सरस्वती लिखे
तो श्यामदेव
सरस्वती ही
लिखे।
झेन
फकीर हुआ
लिंची। वह
अपने शिष्यों
को नाम दे
देता और भूल
जाता। किसी को
कोई नाम दे
देता और जब वह
दूसरे दिन उसको
बुलाता तो वह
किसी और नाम
से बुलाता। लोग
कहते, यह
भी क्या बात
हुई? हमने
तो सुना है कि
बुद्धपुरुष
कभी इस तरह का विस्मरण
नहीं करते।
लिंची
कहता, लेकिन
जिसको मैंने
नाम दिया था
कल, वह अब
है कहां? तुम
कुछ और ही
होकर आ गए हो। तुम्हीं
आते जो कल थे, तो पहचान भी
लेता। तुम्हीं
बदलकर आ गए तो
अब मैं क्या
करूं?
दूसरा
फकीर हुआ
बोकोजू। वह
रोज सुबह उठकर
कहता, बोकोजू!
और फिर खुद कहता,
यस सर। जी
ही, यहीं
हूं। उसके
शिष्य पूछते
कि यह क्या
मामला है? वह
कहता, रात
सोने में भूल
जाते हैं कि
कौन सोया था!
सुबह अगर याद
न कर लो, ऐसा
दो-चार-दस दिन
निकल जाएं, अपना नाम ही
भूल जाए!
क्योंकि मैं
कोई नाम तो नहीं
हूं।
मन की
इस वृत्ति को
थोड़ा बदलो। अगर
मेरी कोई भूल
होगी, तो
उसको मैं
भोगूंगा, तुम
क्यों परेशान हो? मेरे
पाप, मेरी
भूलें मुझे
भटकाके। तुम
अपनी भूलों को
सुधार लो। तुम
अपने होश को
सम्हाल लो। और
इस तरह की
व्यर्थ की
बातें मत पूछो।
अंतिम
प्रश्न :
पतंजलि
और सारे
बुद्धपुरुषों
ने कहा है, समाधि। परंतु
कृष्णमूर्ति
कहते हैं, समझ।
समाधि से तो
लगता है समझ
फलित हो सकती
है, परंतु
समझ से समाधि
कैसे फलित हो
सकती है? क्या
केवल समझ से
बुद्धत्व की
स्थिति
प्राप्त की जा
सकती है? भगवान,
इसे ठीक से
समझाएं।
शब्दों
का ही भेद है
समझ और समाधि
में। जिसे कृष्णमूर्ति
समझ कहते हैं, उसी को
पतंजलि समाधि
कहते हैं। तुम्हारी
अड़चन मैं
समझता हूं
कहां है। क्योंकि
तुम सोचते हो
समझदार तो तुम
हो। इसलिए
क्या अकेली
समझ से समाधि
फलित हो सकती
है? क्योंकि
अगर ऐसा होता,
तब तो समाधि
फलित हो गई
होती, समझदार
तुम हो।
बुरा न मानना, समझदार
भी तुम नहीं
हो, समाधि
भी तुम्हें
अभी फलित नहीं
हुई। समझ तो
समाधि बन ही
जाती है। समझ
और समाधि एक
ही घटना के
नाम हैं।
कृष्णमूर्ति
को पुराने
शब्दों का
उपयोग करने
में थोड़ी अड़चन
है। अड़चन यही
है कि पुराने
शब्द पुराने
अर्थों से बहुत
बोझिल हो गए हैं।
इसलिए
कृष्णमूर्ति
नए शब्दों का
उपयोग करते हैं।
लेकिन शब्दों
का तुम चाहे
कुछ भी, कितना ही
नया ऊपयोग करो,
तुम गुलाब
के फूल को
गुलाब कहो या
चमेली कहना शुरू
कर दो, इससे
गुलाब का फूल
न बदल जाएगा। तुम्हारे
चमेली कहने से
तुम गुलाब के
फूल को न बदल
दोगे। तुम नाम
बदलते चले जाओ,
गुलाब का
फूल गुलाब ही
रहेगा। आदमी
ने परमात्मा
की कितनी
प्रतिमाएं
बनायीं। प्रतिमाएं
अलग-अलग हैं, परमात्मा एक
है।
कृष्णमूर्ति
किसे समझ कहते
हैं? अगर
उनकी तुम
परिभाषा
समझोगे, तो
तुम पाओगे वह
परिभाषा वही
है जिसको
पतंजलि ने
समाधि कहा है।
क्या है
कृष्णमूर्ति
की परिभाषा
समझ की? वे
कहते हैं, समझ
का अर्थ है
होश, परिपूर्ण
जागृति। वे कहते
हैं, समझ
का अर्थ है
विचारों के
ऊहापोह का शात
हो जाना। निर्मल
दृष्टि का
आविर्भाव। ऐसे
देखना कि देखो
तो जरूर लेकिन
चिंतन का धुआ
तुम्हारी आंखों
पर न हो। धुएं
से रहित जब
तुम्हारी
चेतना की
ज्योति जलती
है, तब समझ।
पतंजलि
भी यही कहता
है-निर्विचार, निर्विकल्प।
न कोई
सोच-विचार, न कोई
कल्प-विकल्प
मन में, वही
स्थिति समाधि।
समाधि का अर्थ
होता है
समाधान। जहां
सब चिंतन
समाप्त हो गया,
सब प्रश्न
गिर गए, उस
समाधान की
अवस्था में
तुम एक दर्पण
बन जाते हो। उस
दर्पण में जो
है-'जो है' कृष्णमूर्ति
का शब्द है
परमात्मा के
लिए। कृष्णमूर्ति
कहते हैं-दैट
व्हिच इज, जो
है। पतंजलि
कहेगा- सत्य। मीरा
कहेगी-कृष्ण। बुद्ध
कहेंगे-निर्वाण।
ये उनके
अपने-अपने
शब्द हैं। जो
है, वह
तुम्हें उसी
क्षण दिखाई
पड़ेगा जब
तुम्हारी सब
धारणाएं गिर
जाएंगी। जब तक
तुम धारणा से
देखोगे, तब
तक तुम वही
देख लोगे जो
तुम्हारी
धारणा दिखा
देगी। जैसे
किसी ने रंगीन
चश्मा लगाकर
संसार देखा, तो उसी रंग
का दिखाई पड़ने
लगता है। हर
धारणा का रंग
है। समझ
निर्धारणा है।
उसका कोई रंग
नहीं। समझ का
अर्थ है, वही
दिखाई पड़ जाए
जो है। जैसा
है, वैसा
ही दिखाई पड़े।
तो इन
शब्दों के
बहुत जाल में
तुम मत पड़ना। तुम्हें
जो रुच जाए, जो भा जाए।
समझ भा जाए, ठीक। मगर
मेरा खयाल है,
समझ से
तुम्हें अड़चन
इसीलिए होती
है कि तुम सोचते
हो समझदार तो
हम हैं। समाधि
को पाना है। शायद
तुम यह भी
सोचते हो कि
चूंकि हम
समझदार हैं
इसीलिए तो
समाधि पाने
निकले। नासमझ
कहीं समाधि
पाने की
चेष्टा करते
हैं! लेकिन
मैं तुमसे
कहता हूं
नासमझ वही है
जिसने अपने को
समझदार समझ
लिया है। सभी
नासमझ अपने को
समझदार समझते
हैं, तुम्हीं
थोड़े ही।
समझदार
वही है जिसने
अपनी नासमझी
पहचान ली है। और
जिसने अपनी
नासमझी पहचान
ली है, वह
धीरे-धीरे-दो
उपाय हैं
उसके-या तो वह
शुद्ध समझदारी
के ही सूत्र
को बड़ा करता
चला जाए। प्रत्येक
कृत्य जागकर
करने लगे, होश
सै करने
लगे-उठे तो
होशपूर्वक, बैठे तो
होशपूर्वक, चले तो
होशपूर्वक, जो कुछ भी
करे उसके पीछे
होश साध ले। और
दूसरा उपाय
पुराना उपाय
हे, कि अगर
इतना न हो सके,
तो कम से कम
घड़ीभर, दो
घड़ी चौबीस
घंटे में से
निकाल ले और
उन दो घड़ियों
को समाधि के
क्षणों में
बिताए, ध्यान
में बिताए।
घड़ीभर
अगर तुमने
ध्यान में
बिताया, तो धीरे-धीरे
तुम पाओगे, उस ध्यान का
प्रभाव चौबीस
घड़ियों पर
फैलने लगा। क्योंकि
यह असंभव है
कि तुम एक
घंटे के लिए
स्वस्थ हो जाओ
और तेईस घंटे
बीमार रहो। एक
घंटे को भी जो
स्वस्थ हो गया,
उसके
स्वास्थ्य की
लहरें चौबीस
घंटों पर फैल जाएंगी।
तो पुराने
मनीषियों ने
कहा है, चौबीस
घंटे तुम आज
शायद निकाल भी
न पाओ-तुमसे आशा
भी रखनी उतनी
उचित नहीं
है-तुम घड़ीभर
निकाल लो। ऐसा
नहीं कि
उन्हें पता
नहीं कि घड़ीभर
से क्या होगा?
लेकिन
शुरुआत होगी। और
जब हाथ पकड़
में आ जाए, तो
फिर धीरे-धीरे
पूरे सत्य को
ही पकड़ा जा
सकता है।
कृष्णमूर्ति
कहते हैं, अलग से
ध्यान करने की
कोई जरूरत
नहीं। ठीक ही
कहते हैं। जिन्होंने
अलग से करने
को कहा है वे
भी जानते हैं
कि अलग से
करने की कोई
जरूरत नहीं। लेकिन
अभी तुम चौबीस
घंटे कर सकोगे,
इतनी
अपेक्षा वे
नहीं करते। कृष्णमूर्ति
ने तुम पर
ज्यादा भरोसा
कर लिया। पतंजलि
उतना भरोसा
तुम पर नहीं
करते। और
इसलिए पतंजलि
ने तो तुम में
से कुछ को
समाधि तक
पहुंचा दिया,
कृष्णमूर्ति
न के बराबर
किसी को
पहुंचा पाए हों।
तुम पर जरा
ज्यादा भरोसा
कर लिया। तुम
घुटने से
सरक-सरककर
चलते थे। कृष्णमूर्ति
ने मान लिया
कि तुम दौड़कर
चल सकते हो।
कृष्णमूर्ति
ने जो बात कही
है, अपने
हिसाब से कह
दी, तुम्हारी
चिंता नहीं की।
पतंजली ने जो
बात कही है
उसमें
तुम्हारी
चिंता है। और
एक-एक कदम
तुम्हें
उठाने की बात
है। पतंजलि ने
सीढ़ियां रखी
हैं, कृष्णमूर्ति
ने छलांग। तुम
सीढ़ियां चढ़ने
तक की हिम्मत
नहीं जुटा
पाते, तुम
छलता क्या खाक
लगाओगे!
और
अक्सर ऐसा
होता है कि जो
सीढ़ियों पर
चढ़ने की
हिम्मत नहीं
जुटा पाते वे
कृष्णमूर्ति
में उत्सुक हो
जाते हैं। क्योंकि
यहां तो
सीढ़ियां चढ़नी
ही नहीं, छलांग लगानी
है। और वे कभी
यह सोचते ही
नहीं कि हम
सीढ़ियां चढ़ने
तक का साहस
नहीं कर पा
रहे, हम
छलांग कैसे
लगाएंगे? लेकिन,
छलता लगानी
है, सीढ़ियां
चढ़ने से क्या
होगा, इस
भांति बहाना
मिल जाता है। सीढ़ियां
चढ़ने से बच
जाते हैं और
छलांग तो लगानी
किसको है?
जितना
ज्यादा मैंने
तुम्हारे
भीतर झांककर देखा
उतना ही पाया
कि तुम अपने
को धोखा देने
में बहुत कुशल
हो। तुम्हारी
सारी समझदारी
वही है। कृष्णमूर्ति
ने तुम पर
जरूरत से
ज्यादा आस्था
कर ली। तुम इस
योग्य नहीं। इसलिए
कृष्णमूर्ति
जीवनभर
चिल्लाते रहे
और किसी को
कोई सहायता
नहीं पहुंची। क्योंकि
वे वहां से
मानकर चलते
हैं जहां तुम
नहीं हो। और
जो लोग उनके
आसपास इकट्ठे
हुए, उनमें
अधिक लोग ऐसे
हैं जो कुछ भी
नहीं करना चाहते,
उनको बहाना
मिल गया। उन्होंने
कहा, -करने
से कहीं कुछ
होगा? यह
तो होश की बात
है, करने
से क्या होगा?
करने से भी
बच गए, होश
तो साधना
किसको है?
मेरे
पास रोज ऐसी
घटनाएं आती
हैं। अगर मैं
किसी को कहता
हूं कि तुम
शात-ध्यान करो, तो वह कुछ
दिनों बाद आकर
कहता है कि
ऐसा शात बैठने
से कुछ नहीं
होता। और शात
बैठने से होगा
भी क्या? ऐसा
आंख बंद करने
से कहीं कुछ
ध्यान हुआ है?
अगर मैं
उनको कहता हूं
कि छोड़ो, सक्रिय-ध्यान
करो। कुछ। दन
बाद वे आकर
कहते हैं कि
ऐसे
नाचने-कूदने-उछलने
से क्या होगा?
अरे, ध्यान
तो शांत होना
चाहिए! वह
आदमी-वही
आदमी-भूल ही
जाता है। जब सक्रिय
का कहो, तब
वह शांत की
सोचता है। क्योंकि
तब शांत की
आडू में
सक्रिय से बच
जाता है। जब
शांत की कहो, तब वह
सक्रिय की
सोचता है। सक्रिय
की आड़ में शांत
से बच जाता है।
तुम बचने ही
चले हो? फिर
तुम्हारी
मर्जी। बदलना
है या बचना है?
कृष्णमूर्ति
के शब्द
बहुमूल्य हैं, लेकिन
बेईमानों के
हाथ में पड़ गए।
और बेईमानों
को बड़ी राहत
मिल गई। न
पूजा करनी, न प्रार्थना
करनी, न
ध्यान करना, सिर्फ समझ। और
समझ, समझ
तो है ही
तुम्हारे पास।
तब उनकी तकलीफ
यह होती है कि
समझ तो हमारे
पास है ही, पूजा
करनी नहीं, ध्यान करना
ही नहीं, प्रार्थना
करनी नहीं, समाधि नहीं
आ रही है?
समझ भी
तुम्हारे पास
नही है।
मैं
तुमसे कहता
हूं
कृष्णमूर्ति
की समझ पतंजलि
की समाधि से
ज्यादा कठिन
है। क्योंकि
पतंजलि ने
टुकड़े-टुकड़े
करके सीढ़ियां
बना दी हैं। लंबे
रास्ते को
छोटे-छोटे
खंडों में तोड़
दिया है।
बुद्ध
एक जंगल से
गुजरते थे, राह भटक
गए थे। अब तुम
कहोगे कि
बुद्धपुरुष
और राह भटक
जाते हैं!
बुद्धपुरुष
अगर राह भटक
ही न सकते हों,
तो मुर्दा। राह
भटक गए, जहा
पहुंचना था न
पहुंच पाए, देर होने
लगी। तो आनंद
ने राहगीर से
पूछा कि गांव
कितनी दूर है '
उस राहगीर
ने कहा, बस
दो कोस। चल
पड़े, दो
कोस पूरे हो
गए, लेकिन
गांव का कोई
पता नहीं। फिर
किसी राहगीर
को पूछा। उसने
कहा, बस दो
कोस। आनंद ने
कहा, ये
लोग कैसे हैं?
इनका कोस
कितना बड़ा? दो कोस हम
पार हो गए। पहला
आदमी धोखा दे
गया मालूम
होता है। या
उसे पता नहीं
था, जवाब
देने के मजे
में जवाब दे
गया। क्योंकि
गुरु होने का
जब मौका मिले
तो कोई छोड़ता
नहीं। तुम्हें
पता भी न हो कि
कितनी दूर है,
कह दिया; अब कम से कम
कहने से पता
तो चला कि पता
है।
फिर
बुद्ध
मुस्कुराते
रहे। दो कोस
फिर पूरे हो
गए, अब
भी गांव का
कोई पता नहीं।
आनंद ने कहा, ये इस गाव के
आदमी सभी झूठे
मालूम होते
हैं। फिर किसी
को पूछा। उसने
कहा कि बस दो
कोस। तब तो
आनंद गुस्से
में आ गया। उसने
कहा, हद हो
गई, जो
देखो वही दो
कोस कहता है!
दो कोस का
मतलब कितना
होता है?
बुद्ध
ने कहा, नाराज न होओ।
इस गांव के
लोग बड़े
करुणावान हैं।
चार कोस तो
चला दिया
उन्होंने। अगर
पहला आदमी
कहता दस कोस, आठ कोस, शायद
हम थककर ही
बैठ जाते कि
अब कहां जाना!
अब नहीं चलना
हो सकता। दो
कोस के भरोसे
पर चल लिए, दो
कोस पार हो
गया। फिर दो
कोस के भरोसे
पर चल लिए, वह
भी पार हो गया।
अब इसकी मान
लो। ऐसा लगता
है कि अब दो ही
कोस है। छह
कोस रहा होगा
शुरू में।
जब वे
पहुंच गए दो
कोस के बाद तो
आनंद ने बुद्ध
से क्षमा
मांगी कि मुझे
क्षमा कर दें।
मैं तो समझा
कहां के झूठे, बेईमान, दुष्ट लोग
हैं कि कम से
कम रास्ता तक
सही नहीं बता
सकते। लेकिन
बुद्ध ने कहा,
करुणावान
हैं।
पतंजलि
ज्यादा
करुणावान हैं।
कृष्णमूर्ति
कठोर हैं। कृष्णमूर्ति
उतना ही बता
देते हैं
जितना है। वे
कहते हैं, हजार कोस।
तुम बैठ गए। तुमने
कहा, अब
देखेंगे। पतंजलि
कहते हैं, बस
दो कोस है। जरा
चल लो, पहुंच
जाओगे। पतंजलि
को भी पता है
हजार कोस है। लेकिन
तुम्हारी
हिम्मत हजार
कोस चलने की
एक साथ हो
नहीं सकती। तुमसे
उतना ही कहना
उचित है जितना
तुम चल सको। पतंजलि
मंजिल को
देखकर नहीं
कहते, तुमको
देखकर कहते
हैं कि तुम्हारे
पैरों की
हिम्मत कितनी,
साहस कितना,
सामर्थ्य
कितनी? दो
कोस। देख लेते
हैं कि दो कोस
यह आदमी चल
सकता है। अगर
दो कोस चल
सकता है तो
ढाई कोस बता
दो। दो कोस के
सहारे आधा कोस
और भी चल
जाएगा। फिर
बता देंगे ढाई
कोस। जल्दी
क्या है? और
धीरे-धीरे
पहुंचा देंगे।
पतंजलि
आहिस्ता-आहिस्ता
क्रमबद्ध
तोड़ते हैं। इसलिए
पतंजलि का
पूरा योग शास्त्र
बड़ी क्रमिक
सीढ़ियां हैं। एक-एक
कदम, एक-एक
कदम पतंजलि
हजारों को ले
गए। कृष्णमूर्ति
नहीं ले जा
सके।
और कुछ
ऐसा नहीं है
कि
कृष्णमूर्ति
ने यह बात पहली
दफे कही है। कृष्णमूर्ति
जैसे चिंतन के
लोग पहले भी
हुए हैं। उन्होंने
भी इतनी ही
बात कही है, यही बात
कही है, वे
भी किसी को
नहीं पहुंचा
सके।
कृष्णमूर्ति
की ज्यादा
इच्छा यह है
कि तुमसे सच
कहा जाए। सत्य
की बड़ी
प्रामाणिकता
है। वे कहते
हैं, हजार
कोस है तो
हजार ही कोस
कहना है। एक
कोस भी कम करके
हम क्यों कहें,
झूठ क्यों
बोलें? कृष्णमूर्ति
कहते हैं, कहीं
झूठ बोलने से
किसी को सत्य
तक पहुंचाया जा
सकता है?
मैं
तुमसे कहता
हूं ही!
पहुंचाया जा
सकता है। पहुंचाया
गया है। पहुंचाया
जाता रहेगा। और
तुम अनुग्रह
मानना उनका
जिन्होंने
तुम्हारे
कारण झूठ तक बोलने
की व्यवस्था
की है। जो
तुम्हारी वजह
से झूठ तक
बोलने को राजी
हो गए।
सत्य
को कह देना
बहुत कठिन
नहीं है। अगर
तुम्हारी
चिंता न की
जाए, तो सत्य
को कह देने
में क्या
कठिनाई है? जैसा है
वैसा कह दिया,
बात खतम। अगर
तुम्हारी
चिंता की जाए,
तो वैसा
कहना होगा जहा
से तुम्हें
खींचना है। तुम
एक गहरे गर्त
में पड़े हो। तुम्हारे
अंधकार में
रोशनी
पहुंचती ही
नहीं। तुमसे
रोशनी की बात
भी कल्पना
करनी! तुम्हें
तो धीरे-धीरे,
शनैः-शनै:
अंधेरे के
बाहर लाना है।
तुमसे कुछ
लहना जरूरी है
जिसका तुमसे
आज तालमेल बैठ
जाए। कल की कल
देख लेंगे। पर
ये दो
दृष्टिकोण
हैं। जिसको जो
जम जाए। जिसको
जो रम जाए। एक
बात '' खयाल
रखना, न तो
पतंजलि की
समाधि का
तुम्हें अभी
पता है, न
कृष्णमूर्ति की
समझ का। वे
दोनों एक ही
चीज के दो नाम
हैं। और तुम
यह जान लेना
कि तुम नासमझ
हो और समाधिशून्य
हो। इसे जानकर
ही अगर तुम
चलोगे तो
जिसको बुद्ध
ने कहा है
शिष्य, तुम
शिष्य हो गए।
और जीवन
को वे ही जीत
लेते हैं जो
सीखने में समर्थ
हैं। और धर्म
का फूलों से
भरा पथ उन्हीं
को उपलब्ध हो
जाता है जिनके
जीवन में
शिष्यत्व की
संभावना, शिष्यत्व का
स्रोत खुल गया।
आज
इतना ही।
thank you guruji
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