सूत्र:
मा प्रमादमनुयुग्चेथ
मा कामरतिसंथवं।
अप्पमत्तो हि झायंतो
पप्पोति विपुलं सुखं।।24।।
पमादं अप्पमादेन
यदा नुदति
पंडितो।
पग्भपासादमारुयूह असोको सोकिनिं
पजं।
पब्बतट्ठो' व भूमट्ठे
धीरो
बाले अवेक्खति।।25।।
अप्पमत्तो पमत्तेसु सुत्तेसु बहुजागरो।
अबलस्सं' व धीघस्सो
हित्वा याति सुमेधसो।।26।।
अप्पमादरतो भिक्खु पमादे भयदस्सि
वा।
सग्जोजनं अपुं थूलं
डहं अग्गी' व गच्छति।।27।।
अप्पमादरतो भिक्खु पमादे भयदस्सि
वा।
ढूंढ़ता
फिरता हूं ऐ
इकबाल अपने
आपको
आप
ही गोया
मुसाफिर आप ही
मंजिल हूं मैं
खोज किसकी है? किसी और की
नहीं, अपनी
ही। पाना किसे
है? वह
बाहर नहीं है,
भीतर है।
जिसे हम तलाश
रहे हैं वह
हमारा स्वभाव
है। इसलिए
यात्रा
पदयात्रा
नहीं है, यात्रा
आत्मयात्रा
है। यात्रा
किसी और तक
पहुंचने की
नहीं है, यात्रा
अपने तक ही
पहुंचने की
है। जो मिला
ही हुआ है, उसके
प्रति जागना
है। संपदा खोजनी
नहीं है, सिर्फ
आंख खोलनी
है।
ढूंढ़ता
फिरता हूं ऐ
इकबाल अपने
आपको
आप
ही गोया
मुसाफिर आप ही
मंजिल हूं मैं
यात्री
भी तुम्हीं
हो; यात्रा
भी तुम्हीं
हो; यात्रा
का लक्ष्य और
गंतव्य भी तुम्हीं
हो। इसलिए
बिना कहीं जाए
भी पहुंचना हो
सकता है। जहां
बैठे हो वहीं
बैठे-बैठे भी
पहुंचना हो
सकता है। जरा
भी बिना हिले-डुले
भी पहुंचना हो
सकता है।
और जो
बाहर खोजने गए
वे भटक गए।
यात्रा पहले कदम
से ही गलत हो
गयी। जिन्होंने
सोचा बाहर है, पहले से ही
चूक गए। कहीं
जाना नहीं, अपने पास
आना है। कहीं
खोजना नहीं, अपने भीतर
जागना है। और
जिसे यह बात
समझ में आ गयी,
वह तथाकथित
धर्म के जाल
से मुक्त हो
जाता है।
और
ध्यान रखना, अधर्म से
मुक्त होना
कठिन नहीं है,
धर्म से
मुक्त होना
कठिन है।
अधर्म तो
अंधेरा जैसा
है, दीया
जलते ही अपने
आप नष्ट हो
जाता है।
लेकिन तथाकथित
धर्म राह पर
पड़ी पत्थर की
चट्टानों जैसा
है। सिर्फ दीए
के जलने से ही
दूर नहीं हो
जाता है। और
तथाकथित धर्म
का बड़ा गहरा
जाल प्रत्येक
व्यक्ति के पास
है। तुम्हें
ऐसा व्यक्ति
खोजना
मुश्किल होगा
जो न हिंदू है,
न मुसलमान
है, न ईसाई
है, न जैन
है, न
बौद्ध है, न
सिक्ख है। कोई
न कोई जाल पास
है। खालिस
आदमी खोजना
मुश्किल है।
और
खालिस आदमी ही
स्वयं तक आ
सकता है। जिसे
तुमने धर्म
समझा है, वह
तुम्हारे
बाजार का ही
हिस्सा है। और
जिसे तुमने
मंदिर समझा है,
वह
परमात्मा के
नाम की दुकान
है।
कुछ
दिन पहले मैं
एक कहानी पढ़ता
था। एक गांव में
एक महाकंजूस
था। यहूदी। या
कहें मारवाड़ी।
उसने कभी एक
पैसा दान न
दिया। गांव
में भिखारी भी
उसके घर की
तरफ नहीं जाते
थे। अगर कोई
नया भिखारी
उसके घर की तरफ
जाता, तो
लोग समझ जाते
कि नया भिखारी
है। जिसको
थोड़ा भी पता
है, वह कभी
भीख मांगने
उसके द्वार पर
न जाएगा। उसने
कभी दिया ही
नहीं। वह
भिखारी से भी
कुछ छीन सकता
था। देना उसकी
आदत न थी।
लेकिन
एक दिन वह
गांव के
धर्मगुरु के
द्वार पर
पहुंचा।
यहूदी
धर्मगुरु। और
उसने कहा कि
आज मेरे लिए
कुछ
प्रार्थना
करनी होगी।
धर्मगुरु ने
सोचा कि अब
प्रार्थना
करवाने आया है, तो कुछ दान
करवा लेने का
मौका है।
लेकिन यहूदी
कंजूस भी
सोच-विचार कर
ही आया था।
पूछा धर्मगुरु
ने, क्या
प्रार्थना
करनी है? उस
कंजूस ने कहा
कि मेरी पत्नी
बीमार पड़ी है,
मर जाए, यह
प्रार्थना
करनी है।
धर्मगुरु ने
कहा, दान
क्या दोगे?
उस कंजूस ने
कहा कि जीवन
अगर मांगता, तब तो दान
मांगना उचित
भी था। मौत
मांग रहा हूं;
इसके लिए भी
दान देना पड़ेगा?
कुछ तो
संकोच करो--वह
मौत मांगते
संकोच नहीं कर
रहा है--कुछ तो
थोड़ा खयाल करो,
कुछ तो दया
करो।
धर्मगुरु
ने देखा कि
इतना आसान
नहीं है मामला।
उसने कहा, कुछ भी हो, मौत हो कि
जीवन हो, प्रार्थना
तो तभी हम
करेंगे जब कुछ
दान हो। उसने
कहा, अच्छा
एक रुपया दे
देंगे। बहुत
धर्मगुरु ने जोर
डाला तो उसने
कहा, दो
रुपया दे
देंगे। ऐसे
कुछ बात बनती
न दिखी तो
धर्मगुरु ने
कहा, सुनो! मौत की
प्रार्थना की
नहीं जा सकती।
कोई उल्लेख ही
नहीं है
शास्त्र में
कि किसी की
मौत के लिए
प्रार्थना
कभी की गयी
हो। परमात्मा
से लोग जीवन
की प्रार्थना
करते हैं, मौत
की नहीं। तुम
मुझे क्षमा
करो। यह काम
मुझसे न हो
सकेगा।
महाकंजूस
ने कहा, छोड़ो भी ये बातें
कानूनी, पांच
रुपए दे सकता
हूं।
धर्मगुरु बोला
कि नहीं, यह
हो ही नहीं
सकता, प्रार्थना
तो जीवन की ही
हो सकती है।
लेकिन एक
तरकीब
तुम्हें मैं
बता देता
हूं--क्योंकि
कानून में सब
जगह तरकीब तो
होती ही
है--शास्त्रों
में ऐसा कहा
है कि अगर कोई
आदमी मंदिर को
दान का वचन दे
और तीन महीने
के भीतर दान न
दे, तो
उसकी पत्नी मर
जाती है--दंडस्वरूप।
तो तुम दान की
घोषणा कर दो।
देने की तो
कोई जरूरत ही
नहीं है।
पत्नी तीन
महीने के भीतर
मर जाएगी। तो
उस महाकंजूस
ने कहा कि जब
देना ही नहीं
है, तो
उसने कहा तब
ठीक है, तब
एक लाख रुपया
दान दे देंगे।
जब देना ही
नहीं है!
धर्मगुरु ने
कहा, जब
देना ही नहीं
है तो क्या
लाख क्या दस
लाख? अरे, दस लाख ही कह
दो! थोड़ा सकुचाया,
क्योंकि
कल्पना में भी
देना कष्टकर
मालूम होता
है। उसने कहा,
दस लाख
ज्यादा हो
जाएंगे। पर
धर्मगुरु ने
कहा, जब देना
ही नहीं है, तो जैसा एक
लाख वैसा दस
लाख। वह बड़े
बेमन से राजी
हुआ। लौट गया
घर।
पत्नी
मरी तो नहीं; बीमार थी, ठीक हो गयी।
वह बड़ा चकित
हुआ। तीन
महीने पूरे हुए,
वह वापस
आया। उसने कहा
कि यह नियम तो
काम नहीं किया।
धर्मगुरु ने
कहा कि देखो,
शास्त्र
कहता है--दंडस्वरूप,
एज
ए पनिशमेंट।
मगर तुम तो
चाहते हो कि
पत्नी मर जाए।
इसलिए यह
तुम्हें दंड
तो न होगा, यह
तो पुरस्कार
हो जाएगा।
इसलिए
प्रार्थना व्यर्थ
गयी। अगर तुम
सच में ही
चाहते हो
पत्नी मर जाए,
तो तुम अब
ऐसा करो कि
जाकर बाजार से
कुछ हीरे-जवाहरात
खरीदो, कुछ सुंदर साड़ियां खरीदो, पत्नी
को भेंट करो।
पत्नी
तुम्हारे
प्रति इतनी
प्रेम से भर
जाए और तुम भी
इतने प्रेम से
भर जाओ कि
तुम्हारे
प्राण कहने लगें कि
नहीं, अब
मत मार; हे
परमात्मा, अब
मत मारना! तब
वह मारेगा,
कि तभी तो
दंड हो सकता
है। नहीं तो
नियम...।
यह बात
जंची। पर
उसने कहा, हीरे-जवाहरात
मैंने कभी खरीदे
नहीं।
धर्मगुरु ने
कहा, क्या
हर्ज है, पत्नी
तो मर ही
जाएगी, तुम
बेच
देना। थोड़ा
लाभ ही भला हो
जाए, नुकसान
तो क्या होगा!
चीजों के दाम
तो रोज बढ़ते
ही जाते हैं।
यह बात
जंची। वह
गया। उसने
हीरे-जवाहरात खरीदे। साड़ियां
खरीदीं बहुमूल्य।
कभी खरीदकर
घर लाया न था।
पत्नी तो
हैरान हो गयी
कि इसमें ऐसा
रूपांतरण
हुआ। निश्चित
ही धर्मगुरु
की कृपा से
हुआ होगा।
मंदिर गया, इसीलिए हुआ
होगा। उसने भी
पहली दफा उसे
प्रेम से
देखा। और
पत्नी उसे
इतना प्रेम
करने लगी कि
उस कंजूस को
भी पहली दफा
एहसास हुआ कि
यह पत्नी तो
बड़ी अनूठी
है। मैं नाहक
ही इसके मरने
की प्रार्थना
करता था। तब
वह डरा। अब
उसके मन में
यह होने लगा
कि कहीं मर न
जाए। और तीन
महीने करीब
होने के पास आ रहे
थे। और पत्नी
बीमार पड़ गयी।
तो वह घबड़ाया
हुआ पहुंचा
धर्मगुरु के
पास। उसने कहा,
यह तो
मुसीबत हो
गयी। नियम काम
करता मालूम पड़
रहा है; पत्नी
बीमार पड़ गयी।
अब कैसे बचाएं
उसे? धर्मगुरु
ने कहा कि वह
जो दस लाख दान
दिया था, वह
दान दे दो। अब
तो बचने का और
कोई उपाय
नहीं।
जिनको
तुम मंदिर कह
रहे हो, वे
तुम्हारी ही
दुकान के
आसपास बड़ी
दुकानें हैं।
वहां भी
व्यापार के
वही नियम काम
कर रहे हैं।
तुम्हारे
धर्मगुरु तुमसे
भिन्न नहीं
हैं। हो भी
नहीं सकते।
नहीं तो तुम्हारे
धर्मगुरु
कैसे होंगे? तुम्हारे
धर्मगुरु
होने के लिए
तुम्हारे जैसा
ही होना जरूरी
है। तुम्हारा
ही गणित, तुम्हारा
ही हिसाब, तुम्हारे
ही मन का
व्यवसाय।
तुम्हारा
मंदिर
तुम्हारे
जैसा है।
ध्यान रखना, तुम्हारा
मंदिर
तुम्हारा है,
परमात्मा
का नहीं।
तुमने ही
बनाया है। और
तुमने जो
मूर्ति
स्थापित की है,
वह
तुम्हारी ही
मूर्ति होगी।
परमात्मा की
तो मूर्ति का
तुम्हें पता
भी कहां है! और
तुम जिस मूर्ति
के सामने झुके
हो, वह अपनी
ही धारणाओं
के सामने
झुकना है।
परमात्मा
की कोई मूर्ति
बनानी जरूरी
नहीं है, क्योंकि
वह तो तुममें
मूर्तिमान
हुआ है।
तुम्हें कहीं
बाहर झुकने
का सवाल नहीं
है, भीतर झुकने की
कला आ जाए।
ध्यान रखना, किसी के
सामने भी झुकने
का सवाल नहीं
है। बस झुकने
की कला आ जाए; झुकना
तुम्हारा
स्वभाव बन
जाए। जिस दिन
भी तुम भीतर झुकोगे, तुम पाओगे
मंदिर के
सामने खड़े हो।
जिस दिन भी
भीतर तुम्हारी
अकड़ टूटेगी,
अहंकार गिरेगा,
तुम पाओगे
यह चिन्मय
मंदिर तो सदा
से भीतर था।
मैं मृण्मय
मंदिरों में
खोजता था, आदमी
के बनाए घरों
में पुकार रहा
था, और
जिसे मैं खोज
रहा था वह
मेरे भीतर सदा
मौजूद था।
ढूंढ़ता
फिरता हूं ऐ
इकबाल अपने
आपको
आप ही
गोया मुसाफिर
आप ही मंजिल
हूं मैं
तुम ही
हो भगवान और
तुम ही हो
भक्त। तुम ही
हो पूजा, पुजारी,
पूज्य। और
जब तक तुम्हें
यह बात स्मरण
न आ जाए, तब
तक तुम भटकते
ही रहोगे।
इसलिए बुद्ध न
तो परमात्मा
की बात करते
हैं, न
प्रार्थना की
बात करते हैं,
बुद्ध केवल
ध्यान की बात
करते हैं।
अप्रमाद।
'प्रमाद
में मत लगे रहो।
कामरति
का गुणगान मत
करो। प्रमादरहित
व ध्यान में
लगा पुरुष
विपुल सुख को
प्राप्त होता
है।'
एक-एक
शब्द समझ लेने
जैसा है।
'प्रमाद
में मत लगे रहो।'
जैसे
तुम जी रहे हो, वह जीवन
प्रमाद का है।
प्रमाद का
अर्थात मूर्च्छा
का। वह जीवन
तंद्रा का है।
कभी-कभी तुम भी
जागते हो तो
तुम्हें भी
लगता है, तुम
व्यर्थ ही जी
रहे हो। ऐसा
आदमी खोजना
मुश्किल है
जिसे कभी-कभी
झलक न आती हो
कि मैं क्या
व्यर्थ जी रहा
हूं! किसी दिन
सुबह उठकर
ऐसा लगता
हो--क्या सार
है इसमें? रोज
उठता हूं, रोज
जागता हूं, दौड़ता हूं; बाजार
है, दौड़-धूप
है, आपाधापी
है, कमाना
है, सांझ
फिर सो जाना
है, फिर
सुबह उठ आना
है।
सुबह
होती है शाम
होती है
उम्र
यूं ही तमाम
होती है
लेकिन
किसलिए? क्या
प्रयोजन है इस
सब का? एक
दिन ऐसे ही दौड़ते-
दौड़ते
राह में गिर
जाऊंगा। धूल धूल से मिल
जाएगी। क्या
परिणाम होगा
इस सब यात्रा
का? और तुम
कोई पहले नहीं
हो। तुम जिस
धूल पर चल रहे
हो, वह न
मालूम कितने
लोगों को अपने
में समा चुकी है।
तुम जिसे
रास्ता कहते
हो, वहां
कितने लोगों
का मरघट नहीं
बन गया है!
थोड़े
गौर से अपने
चारों तरफ देखो
तो दिखायी
पड़ेगा--
आग बुझी हुई
इधर टूटी हुई
तनाब उधर
क्या
खबर इस मुकाम
से गुजरे
हैं कितने
कारवां
जरा
गौर से देखो
अपने चारों
तरफ।
आग बुझी हुई
इधर टूटी हुई
तनाब उधर
कितने
खंडहर पड़े हैं।
कहीं आग बुझी
पड़ी है। जैसे
किसी ने कभी
जल्दी ही थोड़े
ही समय पहले
रोटी बनायी
हो। चीजें
टूटी-फूटी पड़ी
हैं। कोई
गुजरा है।
क्या
खबर इस मुकाम
से गुजरे
हैं कितने
कारवां
कितने
लोग, कितने
यात्री इस
मुकाम से गुजर
चुके हैं; और
खो गए। उनका
कोई चिह्न भी
खोजे नहीं मिलता।
ऐसे ही तुम भी
खो जाओगे।
यह बोध सभी को
कभी न कभी पकड़
लेता है।
लेकिन
तुम इसे झुठला
देते हो; तुम
अपने को सम्हाल
लेते हो।
तुम्हारा सम्हालने
का मतलब क्या
है? तुम
अपने को सम्हलने
नहीं देते। जब
कभी सम्हलने
का क्षण आता
है, तुम
फिर अपने
पुराने ढांचे
में लग जाते
हो; दौड़कर दुकान पर
पहुंच जाते हो,
या रेडियो
खोल लेते हो, या अखबार
पढ़ने लगते हो,
या किसी से
बातचीत करने
में लग जाते
हो। घबड़ाहट
होती है कि ये
क्षण खतरनाक
हो सकते हैं।
क्योंकि
इन्हीं
क्षणों में
वैराग्य
जन्मता है, इन्हीं
क्षणों में
संन्यास का
जन्म होता है।
तुम यहां-वहां
उलझा लेते हो
ताकि ये
खतरनाक बातें
तुम्हें दिखायी
न पड़ें। तुम
किसी झूठ में
तल्लीन हो
जाते हो। सत्य
अगर जगाने
को तुम्हारे
पास भी आता है,
तो तुम करवट
ले लेते हो, फिर नयी
नींद में खो
जाते हो।
ऐसा
आदमी तो खोजना
ही मुश्किल है
जिसको कभी न कभी
यह दिखायी
न पड़ता हो कि
यह सब व्यर्थ
है जो मैं कर
रहा हूं।
लेकिन फिर भी
आदमी वही किए
चला जाता है
जो व्यर्थ दिखायी
पड़ता है।
प्रकाश के किन्हीं
क्षणों में, ज्योतिर्मय चैतन्य की
किसी अवस्था
में, जब सब
व्यर्थ दिखायी
पड़ता है, तब
फिर तुम कैसे
अंधेरे में
उतर आते हो
बार-बार?
इसे
बुद्ध प्रमाद
कहते हैं।
प्रमाद का
अर्थ है:
जानते हो, फिर भी जो
जानते हो उसके
विपरीत जीते
हो। जानते हो
आग में हाथ
डालने से हाथ जलेगा, फिर-फिर
डालते हो।
पुराने घाव भी
नहीं मिट पाते
और फिर हाथ
डाल देते हो।
निश्चित ही
तुम होश में
नहीं हो सकते,
बेहोश हो; कोई बड़ी
गहरी तंद्रा
में जी रहे
हो।
'प्रमाद
में मत लगे रहो।'
ये जो
कभी-कभी
प्रकाश के
क्षण
तुम्हारे
जीवन में आते
हैं, इनको सहारा दो, सहयोग दो। इनको घना
करो। इनको
पुकारो। इनकी
प्रार्थना
करो। इनका
स्वागत करो। इनको सम्हालो
अपने भीतर। इनको संजोओ।
क्योंकि इनसे
बड़ी कोई संपदा
नहीं है। और
अगर तुम इनके
साथ सहयोग करो,
स्वागत करो,
इन्हें
स्वीकार करो,
अंगीकार
करो, तो ये
क्षण बढ़ते
जाएंगे। इन
क्षणों के
बढ़ते जाने का
नाम ही ध्यान
है।
ध्यान
का अर्थ है, जागा हुआ
चित्त।
प्रमाद का
अर्थ है, सोया
हुआ चित्त।
इसलिए बुद्ध
और महावीर ध्यान
के लिए
अप्रमाद शब्द
का प्रयोग
करते हैं।
'प्रमाद
में मत लगे रहो।'
काफी
लगे रहे हो।
और तुम हजार
बहाने खोज
लेते हो लगे
रहने के। तुम
कहते हो
अभी...अभी
बच्चे बड़े हो
रहे हैं। तुम
कहते हो, अभी
तो
महत्वाकांक्षा
के दिन हैं, थोड़ा और कमा
लूं। तुम
कहते हो, अभी
तो जवान हूं, ये धर्म और
वैराग्य, ये
तो बुढ़ापे
की बातें हैं।
एक
युवक को मैंने
संन्यास
दिया। उसका
बूढ़ा बाप आ
गया। बूढ़े बाप
की उम्र होगी
कोई सत्तर-पचहत्तर।
उसने कहा, आप भी क्या
अन्याय कर रहे
हैं? जवान
आदमी को
संन्यास देते
हैं? शास्त्रों
में तो कहा है
कि संन्यास तो
अंत में लेने
की बात है।
मैंने कहा, छोड़ो, तुम्हारे
लड़के का
संन्यास वापस
ले लेंगे। तुम
संन्यास लेने
को तैयार हो? तुम तो
पचहत्तर वर्ष
के हुए। कब
आखिर आएगा? वह आदमी मुस्कुराने
लगा। उसने कहा,
आपकी बात
ठीक है; लेकिन
अभी बहुत
दूसरे काम भी
हैं, अभी
दूसरी उलझनें
भी हैं। तो
मैंने कहा कि
इस लड़के का
मैं संन्यास
वापस ले सकता
हूं, अगर
तुम संन्यास
लेने को तैयार
हो। तुमने ही
कहा।
मगर वह
आदमी सिर्फ
तर्क दे रहा
था, लड़के को
संन्यास से
बचाने को। खुद
संन्यास लेने
के लिए वह
तर्क काम का
नहीं था। लोग
जवान रहते हैं,
तब कहते हैं,
अभी तो जवान
हैं। और जब
बूढ़े हो जाते
हैं, तब वे
कहते हैं, अब
तो बूढ़े हो
गए।
जब
कश्ती
साबित-ओ-सालिम
थी साहिल की
तमन्ना किसको
थी
अब ऐसी
शिकस्ता
कश्ती पर
साहिल की
तमन्ना कौन करे
जब नाव
जवान थी--जब
कश्ती
साबित-ओ-सालिम
थी साहिल की
तमन्ना किसको
थी--तब कौन
फिक्र करता था
किनारे की, कौन
आकांक्षा
करता था
किनारे की? तब तो तूफानों
से जूझ लेने
का मन था।
जब
कश्ती
साबित-ओ-सालिम
थी साहिल की
तमन्ना किसको
थी
अब
ऐसी शिकस्ता
कश्ती पर...
अब बुढ़ापा आ
गया, अब
नाव जराजीर्ण
हो गयी।
अब
ऐसी शिकस्ता
कश्ती पर
साहिल की
तमन्ना कौन करे
प्रमाद
से भरा चित्त
अपने सोने के
लिए उपाय ही
खोजता रहता
है। जवान हो, तब कहता है
अभी जवान हैं।
बूढ़ा हो जाए, तो कहता है
अब बूढ़े हो गए,
अब क्या कर
सकेंगे? बच्चे
बच्चे
हैं, कैसे
संन्यस्त हो
जाएं? जवान
जवान हैं,
अभी तो
जिंदगी बहुत
शेष है। बूढ़े बूढ़े हो गए,
अब तो कुछ
शेष ही न रहा।
तुम प्रमाद के
लिए तर्क खोजते
हो।
प्रमाद
को जो तर्क
सहारा देता है, उसी को
शास्त्रों ने
कुतर्क कहा
है। प्रमाद से
जो जगाता है, उसी तर्क को
शास्त्रों ने सुतर्क
कहा है। जो
तर्क तुम्हें
नींद में डुबाए
रखता है, वह
आत्मघाती है,
वह जहर है।
उसमें दबे-दबे
तुम मर जाओगे।
उसमें बहुत मर
चुके हैं।
तर्क का उपयोग
अपने को जगाने
के लिए करना।
जैसे-जैसे तुम
जागने के
लिए थोड़ा
रास्ता बनाओगे,
तुम पाओगे
जागृति के और
क्षण आने लगे।
तुम
जितना-जितना जागृति
के लिए उत्सुक
होने लगोगे,
प्रतीक्षा
करने लगोगे,
उतने
ज्यादा क्षण
आने लगेंगे।
जिसे तुम
चाहते हो, वह
आ ही जाता है।
बुद्ध
का एक बहुत
अनूठा वचन है
कि आकांक्षा
सोच-विचारकर
करना, क्योंकि
आकांक्षाएं
पूरी हो जाती
हैं। जिसे तुम
चाहते हो वह आ
ही जाता है
देर-अबेर।
आकांक्षा
सोच-समझकर
करना।
अगर धन
मांगा, धन
आ जाएगा; एक
दिन आ ही जाएगा।
अगर पद मांगा,
पद आ जाएगा;
एक दिन आ ही
जाएगा।
क्योंकि आदमी
जो चाहता है, धीरे-धीरे
उस तरफ खिंचता
चला जाता है।
जिसकी आकांक्षा
होती है, उसका
प्रयास भी
होने लगता है।
जिसका प्रयास
होता है, उसकी
प्राप्ति भी
होने लगती है।
सोचकर
मांगना।
क्योंकि जो
मांगा है वह
मिल जाता है। विचारकर
मांगना। नहीं
तो पछताओगे,
नहीं तो रोओगे।
क्योंकि इतने
दिन मांगने
में गए, इतने
दिन जो मांगा
उसको इकट्ठा
करने में गए, अब वह मिल
गया और कुछ भी
नहीं मिला।
कुछ और मांग
लिया होता।
'प्रमाद
में मत लगे रहो।'
पूरी
जिंदगी, जिसे
तुम जिंदगी
कहते हो, एक
गहरी नींद है;
जिसमें तुम
करते बहुत हो,
होता कुछ भी
नहीं; चलते
बहुत हो, पहुंचते कहीं भी
नहीं; जिसमें
तुम सिर्फ
मरते हो, जीते
नहीं।
'कामरति का मत
गुणगान करो।'
मत
गुणगान करो
वासना का।
क्योंकि
जितना तुम गुणगान
करते हो, अपने
ही गुणगान से
प्रभावित
होते चले जाते
हो। आदमी
आत्म-सम्मोहन
में गिरता है।
तुमने कभी
सोचा, तुम
जिस चीज का
गुणगान करते
हो वही चीज
तुम्हारे मन
में समाने
लगती है।
गुणगान
तुम्हारा ही तुम्हीं
को प्रभावित
कर जाता है।
बुद्ध
और महावीर
दोनों ने कहा
है, कामकथा मत सुनो।
लेकिन कामकथा
ही लोग देखते
हैं, सुनते
हैं। फिल्म हो,
कि रेडियो
हो, कि
किताब हो, कि
उपन्यास हो, कि कविता हो,
लोग कामकथा
ही सुनते और
पढ़ते हैं। और
फिर जब कामवासना
जोर से पकड़ती
है, घबड़ाते हैं। तब
कहते हैं, यह
तो बड़ा
मुश्किल है, इससे
छुटकारा कैसे
हो? उसी को
आरोपित करते
हैं, उसी
को सींचते हैं,
उसी को
सम्हालते हैं,
और जब सम्हल
जाती है और जब
सारे जीवन को जकड़ लेती
है, तो फिर
चिल्लाते हैं,
चीखते हैं
कि इससे
छुटकारा कैसे
हो।
कामवासना
वस्तुतः कुछ
भी नहीं, सम्मोहन
है। और जिस
चीज के प्रति
भी तुम सम्मोहित
होते चले
जाओ--सम्मोहित
का अर्थ है
जिसका भी तुम सुझाव
अपने को देते
चले जाओ--वही
चीज रसपूर्ण हो
जाती है। रस
आदमी स्वयं
डालता है। रस वस्तुओं
में नहीं है, तुम डालते
हो। इसलिए
प्रत्येक
संस्कृति, प्रत्येक
सभ्यता
अलग-अलग तरह
की चीजों में
उत्सुक हो
जाती है। पर
जिसमें
उत्सुक हो
जाती है, उसी
में सौंदर्य
और कामवासना
का जन्म हो
जाता है।
हजारों संस्कृतियां
जमीन पर रही
हैं, उन्होंने
अलग-अलग चीजों
में सौंदर्य
देख लिया है।
जिसमें
सौंदर्य
देखना चाहा है
वहीं दिखायी
पड़ गया है।
बुद्ध
कहते हैं, 'कामरति का मत
गुणगान करो।'
रुको।
सोचो।
क्योंकि जिस
चीज का भी तुम
गुणगान करोगे, तुम उस तरफ
अनजाने
आकर्षित होते
चले जाओगे।
आदमी अपनी ही
बातों से
प्रभावित हो
जाता है।
तुमने कभी
देखा, रास्ते
में, अंधेरे
में, किसी
गली-कूचे से
गुजरते हो, अकेले हो, डरते हो, गीत
गुनगुनाने
लगते हो, या
सीटी बजाने
लगते हो। क्या
फायदा सीटी बजाने से? तुम्हारी ही
सीटी है, कोई
इससे कुछ सार
तो न हो
जाएगा। लेकिन
अपनी ही सीटी
की आवाज सुनकर
हिम्मत बढ़
जाती है। जैसे
कि अकेले नहीं
हो। गाना गुनगुनाने
लगते हो, अपने
ही गाने की
गर्मी शरीर
में आ जाती है,
लगता है
जैसे अकेले
नहीं हो।
तुमने
अपने जीवन को
अपने ही सुझावों
से भर लिया है।
तुम उन्हीं
में गिरे हो, उन्हीं में दबे हो।
तुम्हारा
सुझाव ही
तुम्हारा
संसार है।
तुम्हारा आत्मसम्मोहन, ऑटोहिप्नोसिस ही
तुम्हारा
संसार है। और
जब बुद्ध या
शंकर कहते हैं,
संसार माया
है, तो तुम
यह मत समझना
कि इन वृक्षों,
चांदत्तारों के संबंध
में कह रहे
हैं। वे उस
संसार के
संबंध में कह
रहे हैं जो
तुमने अपने
चारों तरफ खड़ा
कर लिया है, जिसको तुमने
ही अपने सपनों
में रंग लिया
है, जिसके
रंग तुम्हारे
मन के दिए हुए
हैं। यह संसार
तो बड़ा सत्य
है। लेकिन इस
संसार का तो
तुम्हें पता
ही नहीं है।
तुम्हें तो
वही दिखायी
पड़ता है, जो
तुम देखना
चाहते हो।
तुम्हें तो
वही दिखायी
पड़ता है, जिसकी
तुम कामना
करते हो।
पूरी
मनुष्य-जाति कामरति के
गुणगान में
पागल हुई जा
रही है।
तुम्हारे कवि, सौ में से निन्यानबे
प्रतिशत कामवासना
का गुणगान
करते हैं।
तुम्हारे
उपन्यासकार कामवासना
के शास्त्र
लिखते हैं।
तुम्हारे
फिल्म-निर्माता
कामवासना
की फिल्में
बनाते हैं। हर
चीज कामवासना
के आसपास घूम
रही है। अगर
कार भी बेचनी
हो तो एक नग्न
स्त्री को या
सुंदर स्त्री
को उसके पास
खड़ा करना पड़ता
है। कार नहीं
बिकती, सुंदर
स्त्री बिकती
है। कुछ भी
बेचना हो, दंतमंजन बेचना हो, कि टूथपेस्ट
बेचना हो, तो
एक स्त्री के हंसते हुए
दांत दिखायी
पड़ने
चाहिए। वे
दांत बिकते
हैं। कुछ भी, छोटी सी चीज
से लेकर बड़ी
चीज तक, सारे
बाजार में कामवासना
बिकती है।
और फिर
तुम राम को
पाना चाहते हो, मुश्किल में
पड़ जाते हो।
अपना ही दलदल
खड़ा कर लेते
हो, उसमें
खुद ही उलझ गए
हो।
बुद्ध
कहते हैं, 'कामरति का मत
गुणगान करो।'
क्योंकि
वह गुणगान
तुम्हें सुलाएगा, वह लोरी
बन जाएगा और
तुम प्रमाद
में डूब जाओगे।
अगर गुणगान ही
करना हो तो
निर्वाण का
करो, मोक्ष
की चर्चा करो।
अगर गुणगान ही
करना है तो
सत्य का करो, सपनों का
नहीं।
लेकिन
सत्य को सुनने
को कौन आता है? सत्य का
गुणगान सुनने
की किसको
इच्छा है? सत्य
की बात ही सुनकर
कड़वी
लगती है।
क्योंकि सत्य
तुम्हारे
सपनों को तोड़ता
है। सत्य
दुश्मन जैसा
मालूम पड़ता
है।
इसलिए
तो बुद्धों
को हम पत्थर
मारते हैं, जीसस को सूली पर
लटका देते हैं,
सुकरात को जहर पिला
देते हैं। हम
बर्दाश्त
नहीं करते इन
लोगों को। ये
खतरनाक हैं।
हम मजे से सो
रहे हैं, और
गहरी नींद ले
रहे हैं, और
बड़े मधुर
सपनों में डूबे
हैं, और ये
नासमझ आ-आकर जगाने
लगते हैं--कि जागो, सुबह
हो गयी।
जैसे
सर्दी की रात
अगर तुमने
किसी को कहा है
सुबह उठा देना, हालांकि
तुमने ही कहा
है, लेकिन
सुबह जब वह
तुम्हें
उठाता है तो
मन में नाराजगी
आती है कि यह
दुष्ट आ गया।
कहा तुम्हीं
ने था। तो जब
साधारण सर्दी
की रात में
सुबह उठने में
ऐसी कठिनाई हो
जाती है--लोग अलार्म घड़ी को उठाकर
पटक देते हैं।
अलार्म घड़ी का
क्या कसूर है?
तुम्हीं ने भरा था अलार्म, तुम्हीं ने बिस्तर
के पास रखी थी!
तो तुम सोचो,
जो
जन्मों-जन्मों
की, जीवन-जीवन
की तंद्रा के
बाद कोई बुद्धपुरुष
से तुम्हारा
सौभाग्य से
मिलना हो जाता
है, तो
तुम्हें
दुर्भाग्य ही
मालूम पड़ता है,
कि यह और
कहां की
मुसीबत हो
गयी! चुपचाप
मजे से सपना
लिए जा रहे थे,
एक करवट और
लेते, थोड़ा
और सो लेते!
ध्यान रखो, अगर
तुम बुद्धपुरुषों
की वाणी भी
सुनते रहो,
तो भी
धीरे-धीरे तुम
पाओगे
तुम्हारे
आसपास जो झूठ
का एक जाल था
वह खिसकना
शुरू हो गया।
सत्य की एक
किरण भी गहन
से गहन अंधेरे
को तोड़ने में
समर्थ है।
छोटी सी किरण,
जन्मों का
अंधेरा भी टूट
जाता है।
'प्रमाद
में मत लगे रहो।
कामरति
का मत गुणगान
करो। प्रमादरहित
व ध्यान में
लगा पुरुष
विपुल सुख को
प्राप्त होता
है।'
एक ही
सुख है। और वह
सुख है स्वयं
में रमण। एक ही
सुख है, वह
सुख दूसरे में
रमण का नहीं
है।
कामवासना
का सार है, दूसरे में
सुख की आशा।
ध्यान का सार
है, स्वयं
में सुख की
खोज। बस ये दो
ही यात्राएं
हैं। या तो
दूसरे को खोजो,
या अपने को।
जिसने दूसरे
को खोजा, वह
अपने को न खोज
पाया। जिसने
अपने को खोजा,
उसे दूसरे
की खोज की
जरूरत ही न
रही। जिसने अपने
को पा लिया, उसने सब पा
लिया।
एक
सूफी फकीर हुआ
बहाउद्दीन।
उसकी बड़ी
ख्याति थी।
उसके शब्द बड़े
गहरे थे। उसका
व्यक्तित्व
बड़ा अनूठा था।
दूर-दूर से लोग
यात्रा करके
उसके पास आते।
लेकिन सभी ठीक
कारणों से आते
थे, ऐसा
नहीं।
क्योंकि कारण
तो तुम्हारे
भीतर होता है।
एक
आदमी उसके पास
इसीलिए आ गया
था और शिष्य
हो गया था, कि कैसे मैं
भी इतना
प्रभावशाली
हो जाऊं, जैसा
बहाउद्दीन
है। बहाउद्दीन
ने उसे देखते
ही से कहा कि
तुम गलत कारण
से सही जगह आ
गए हो। उस
आदमी न कहा, क्या मतलब? बहाउद्दीन ने कहा कि
तुम अपने को
बदलने नहीं आए
हो, अपने
को सजाने आ गए
हो। और तुम
मेरे पास
ध्यान करने
नहीं आए हो, तुम्हारी
उत्सुकता अभी
भी पर में है।
तुम दूसरों को
प्रभावित
करना चाहते
हो। और यही तो
ध्यान के
विरोध में है।
तुम सोच-समझकर
आओ। उस
आदमी को बात
तो सही लगी कि
वह आया तो
इसीलिए है कि
दूसरे उससे
कैसे
प्रभावित हों,
कैसे वह भी
एक गुरु हो
जाए।
गुरु
होने की
आकांक्षा कामवासना
है, बहाउद्दीन ने कहा।
क्योंकि
तुम्हारी नजर
इस पर है कि दूसरे
मुझे कैसे मानें,
कैसे पूजें?
ध्यानी इस
बात की चिंता
करता है कि
कैसे मैं स्वयं
हो जाऊं। कोई पूजेगा, नहीं पूजेगा,
यह उसके विचार
में भी नहीं
आता। कोई पूजेगा
या पत्थर मारेगा,
ये दूसरे समझें।
ध्यानी अपने
में डूबता है।
उसको
बात तो लगी।
अब उसको बहाउद्दीन
के सामने आना
भी मुश्किल हो
गया। तो वह
छिपकर आने लगा
यह देखने कि
जरूर कोई
तरकीब होगी इस
आदमी की जिसकी
वजह से इतने
लोग प्रभावित
हैं।
एक दिन
बहाउद्दीन
ने अपने खीसे
से एक हीरा
निकाला और कहा
कि यह हीरा
ऐसा ही
मूल्यवान है
जैसा सत्य
मूल्यवान होता
है, और यह
हीरा बड़ा
चमत्कारी है।
उस आदमी ने
सोचा कि मिल
गयी बात, यह
इसी हीरे की
वजह से यह
आदमी इतना
प्रभावी है।
रात छिप
गया वह। जब सब
सो गए, वह
अंदर गया।
खीसे में से बहाउद्दीन
के हीरा निकालकर
भाग खड़ा हुआ।
लेकिन
हीरा लेकर
उसने बड़ी
कोशिश की, कोई
प्रभावित न
हो। हाथ में
रखकर बैठा रहे,
कोई पूजा न
करे। वह बड़ा
परेशान हुआ कि
मामला क्या है?
हीरा तो वही
है।
ऐसे
वर्ष बीत गए।
एक दिन बहाउद्दीन
उसके द्वार पर
आया और उसने
कहा कि अब
बहुत हो गया, अब वह हीरा
वापस लौटा। उस
आदमी ने कहा, लेकिन मैं
इसी हीरे के
बल पर बड़ा
प्रभाव पैदा करने
की कोशिश कर
रहा हूं, कोई
प्रभावित ही
नहीं होता।
मामला क्या है?
बहाउद्दीन
ने कहा, जब
तक तू हीरा न
हो जाए, तब
तक तेरे हाथ
में आया हीरा
भी पत्थर हो
जाएगा। और तू
अगर हीरा हो
गया, तो
तेरे हाथ में
आया हुआ पत्थर
भी हीरा हो
जाता है। तू
कब तक बाहर की
चीजों में
परेशान रहेगा?
इस हीरे में
कुछ भी नहीं
रखा है। तू
इसे अब वापस
लौटा दे। उस
दिन जानता था
कि तू छिपा है,
इसलिए हीरा
निकाला था, ताकि तुझसे
छुटकारा हो।
जब तू रात निकालकर
ले गया जेब से,
तब भी मैं
जागा था।
क्योंकि योगी
कहीं सोता है?
इसीलिए तो
मुझे पता है
कि हीरा कहां
है। और तूने
अब काफी दिन
प्रयोग कर
लिया, अब
लौटा दे। और
अब तो समझ, बाहर
से नजर को
भीतर हटा।
हीरा मांगने
नहीं आया हूं,
तुझे
बुलाने आया
हूं कि अब तुझमें
अकल आ जानी
चाहिए।
जीवन
के दो ही ढंग
हैं: या तो
बाहर का हीरा
या भीतर का
हीरा। जीवन के
दो ही मार्ग
हैं: या तो तुम भिखारी
की तरह खोजते रहो हाथ फैलाकर, भिक्षापात्र लिए, या
तुम सम्राट हो
जाओ--अपने
भीतर झांको।
'प्रमाद
में मत लगे रहो।
कामरति
का मत गुणगान
करो। प्रमादरहित
व ध्यान में
लगा पुरुष
विपुल सुख को
प्राप्त होता
है।'
यह
ध्यान की खोज
क्या है?
ध्यान
की खोज उस मूल
स्रोत की खोज
है जो नितांत
तुम्हारा
स्वभाव है; जिसे तुमसे
अलग नहीं किया
जा सकता। मेरा
हाथ तुम काट
सकते हो, वह
मेरा स्वभाव
नहीं है।
क्योंकि बिना
हाथ के भी मैं
रहूंगा। मेरी
आंख तुम फोड़
सकते हो, वह
मेरा स्वभाव
नहीं है।
क्योंकि बिना
आंख के भी मैं
रहूंगा। योगियों
ने ऐसे
प्रदर्शन किए
हैं, जिनमें उन्होंने
श्वास भी छोड़
दी, और फिर
भी रहे। तो
श्वास भी
स्वभाव नहीं
है। जो भी अलग
किया जा सके, वह स्वभाव
नहीं है। जो तुमसे अलग
न किया जा सके,
वही तुम हो।
इस मूल की खोज
करनी ही ध्यान
है, कि मैं
उसी को पकड़ लूं
जिसको कोई
मुझसे छीन न
सके। जो
चुराया न जा
सके, जो
काटा न जा सके,
जलाया न जा सके, मिटाया
न जा सके।
मैं
अकेला ही चला
था जानिबे-मंजिल
मगर
लोग
साथ आते गए और
कारवां बनता
गया
प्रत्येक
व्यक्ति जब
चला था तो
अकेला ही चला
था। प्रत्येक
व्यक्ति जब
चला था तो ऐसी
ही क्षीण धारा
थी जैसी गंगोत्री
की--शुद्ध
स्वभाव की।
प्रत्येक
व्यक्ति जब चला
था तो सिर्फ
ध्यान की तरह
चला था। फिर, लोग साथ आते
गए और कारवां बनता गया।
फिर इंद्रियां
जुड़ीं, और शरीर जुड़ा,
और वासनाएं
जुड़ीं, और काम जुड़ा,
और संसार जुड़ा।
फिर से
उसकी खोज कर लेनी है जो
तुम चले थे, मूल जो
तुम्हारा था। झेन फकीर
अपने शिष्यों
को कहते हैं, अपने मूल
चेहरे को खोजो--ओरिजिनल फेस। झेन
फकीर कहते हैं,
उस चेहरे को
खोजो जो
तुम्हारा था
जब तुम्हारे
मां-बाप भी
पैदा न हुए
थे। उस मौलिक को
खोजो जो
सदा-सदा
तुम्हारा था।
कभी रास्ते पर
नहीं मिला था।
और शेष सब
वस्त्र हैं, जो तुम अपने
चारों तरफ
इकट्ठा करते
चले गए। पर्त-पर्त
वस्त्रों की
उतार डालनी
है, और
उसको खोज लेना
है जो तुम हो
मूलतः, जो
तुम्हारा स्वभाव
है।
ध्यान
ऐसे ही है
जैसे कोई
प्याज के
छिलकों को छीलता
चला जाए।
छिलके के बाद
छिलके हैं, और छिलके के
बाद छिलके
हैं। और फिर
एक घड़ी
आती है जब सब
छिलके खो जाते
हैं और शून्य
हाथ में रह
जाता है। वही
शून्य
तुम्हारा
स्वभाव है।
इसलिए
बुद्ध को
लोगों ने
शून्यवादी
कहा। क्योंकि
उन्होंने कहा
कि वही शून्य
तुम्हारा
स्वभाव है, वही शून्य
ध्यान है। तो
ध्यान में
परमात्मा की
भी याद न रह
जाए, क्योंकि
वह भी एक पर्त
होगी, वह
भी एक अशुद्धि
होगी, क्योंकि
वह भी छोड़ी
जा सकती है।
जो भी छोड़ा
जा सकता है वह
छोड़ देना
ध्यान की खोज
है। उसी को
बचा लेना है
जो बच ही
जाएगा, जिसको
तुम छोड़ना भी
चाहो तो न छोड़ सकोगे।
और
जैसे ही कोई
व्यक्ति उस
मूल स्वभाव को
पहुंच जाता है, आनंद की
अपरिसीम
वर्षा हो जाती
है। कबीर ने
कहा है कि मैं
नाच रहा हूं
और अमृत बरस
रहा है। उस शून्य
की घड़ी
में सब मिल
जाता है, सब--जो
तुमने चाहा था
और जो तुमने
चाहा नहीं भी
था, जो
तुमने सोचा था
और जिसे तुम
सोच भी न सकते
थे--सब। कोई
कमी नहीं रह
जाती। संतोष
तभी उपलब्ध होता
है। उसके पहले
संतोष सब मन
को समझाना है।
अपने
मन को समझा
लेना एक बात
है, कि ठीक है,
संतोष करो,
क्योंकि
लोग कहते हैं
संतोष में सुख
है। मैं तुमसे
कहता हूं, सुख
में संतोष है।
संतोष में
क्या खाक सुख
होगा! क्योंकि
जो संतोष करके
सोच रहा है
सुख मिल जाए, वह दुखी तो
है ही। लोग
कहते हैं कि
हम तो अपनी गरीबी
में ही संतोष
कर रहे हैं।
लेकिन गरीबी
का पता है, तो
पीड़ा है। अमीर
होने की दौड़
में उतरने
का साहस भी
नहीं है, तो
संतोष कर लिया
है। यह संतोष
मजबूरी है। यह
संतोष सुख
नहीं है। इस
संतोष से इतना
हो सकता है कि
तुम्हें बहुत
दुख न मिलें,
लेकिन सुख न
मिलेगा।
यह संतोष
तुम्हें
यात्रा की
तकलीफ से बचा
देगा, लेकिन
मंजिल के आनंद
को इससे तुम न
पा सकोगे।
मैं तुमसे
कहता हूं, सुख संतोष
है। और सुख
केवल उसी को
मिलता है जिसने
स्वयं को
जाना। स्वयं
को जानना सुख
है। स्वयं में
रत हो जाना महासुख
है। स्वयं में
ठहर जाना
स्वर्ग है।
उसके अतिरिक्त
सब दुख है।
उसके
अतिरिक्त तुम
कुछ भी पा लो, तृप्ति न
होगी। उसे
पाते ही
तृप्ति हो
जाती है।
'जब
पंडित प्रमाद
को अप्रमाद से
हटा देता है, तब वह प्रज्ञारूपी
प्रासाद पर चढ़कर
स्वयं अशोक और
धीर बना संसार
की शोकाकुल
प्रजा को उसी
प्रकार देखता
है जिस प्रकार
कोई पर्वत पर चढ़कर नीचे
भूमि पर खड़े
लोगों को
देखे।'
एक-एक
शब्द
बहुमूल्य है।
'जब
पंडित प्रमाद
को अप्रमाद से
हटा देता है।'
अंधेरे
को हटाने का
और कोई उपाय
भी नहीं है। कैसे
हटाओगे
अंधेरे को? दीया जला
लो। तलवारें
लाने की जरूरत
नहीं है कि
अंधेरे से लड़ो,
न बम-बंदूक
काम आएगी, न
पहलवानी की
कोई जरूरत है।
मोहम्मद
अली को भी लड़ाओगे
अंधेरे से तो मोहम्मद
अली ही हारेगा,
अंधेरा
हारने वाला
नहीं है।
क्योंकि
अंधेरा है ही
नहीं, उससे
लड़ोगे
कैसे? लड़ने
के लिए भी तो
कोई चाहिए।
अंधेरा तो
अभाव है। तो
अंधेरे को
धक्के मत देने
लग जाना। बहुत
लोग यही कर
रहे हैं। कोई
क्रोध से लड़
रहा है, कोई
काम से लड़ रहा
है, कोई लोभ
से लड़ रहा है, कोई मोह से
लड़ रहा है। ये
सब अंधेरे से
लड़ने वाले लोग
हैं। बुद्धपुरुषों
ने यह नहीं
कहा है।
बुद्ध
कहते हैं, 'जब पंडित
प्रमाद को
अप्रमाद से
हटा देता है।'
अंधेरे
को हटाने का
एक ही उपाय है: दीए को जला
लेना। जब
पंडित, ज्ञानवान
व्यक्ति
प्रमाद के अंधकार
को अप्रमाद के
दीए से
हटा देता है, बेहोशी को
होश से तोड़
डालता है। और
कोई उपाय नहीं
है।
इसलिए
तुम क्रोध से
मत लड़ना।
उतनी ही शक्ति
ध्यान को पाने
में लगाओगे
तो ध्यान भी
मिल जाएगा, और क्रोध तो
अपने से चला
जाता है।
जितनी शक्ति
लोगों ने
अंधकार से
लड़ने में लगायी,
वह व्यर्थ
ही गयी। और
अंधकार हंसता
है, तुम्हारा
मजाक उड़ाता
है, क्योंकि
वह मूढ़तापूर्ण
है। कभी नकार
से मत लड़ना।
संसार से मत लड़ना, सत्य
को पाने की
चेष्टा करना।
नींद से मत लड़ना,
जागने की फिकर
करना। नींद तो
अपने से चली
जाती है।
खयाल
रखना, जिससे
हम लड़ते
हैं वह है या
नहीं। अगर है,
तो लड़ाई
हो सकती है।
अगर नहीं है
तो कैसे लड़ाई
होगी? और
जो नहीं है, वह
शक्तिशाली
मालूम होगा।
अंधेरे से लड़ो,
अंधेरा बड़ा
शक्तिशाली
मालूम होगा।
कितने ही हाथ-पैर
चलाओ, उस
पर कोई असर
नहीं होता।
कितना ही उछलो-कूदो,
तुम ही थक
जाते हो, अंधेरा
नहीं थकता।
पोटली में बांधो,
पोटली बाहर
चली जाती है, अंधेरा वहीं
का वहीं रह
जाता है। तो
तुम्हें लगेगा,
तर्क कहेगा,
अंधेरा बड़ा
शक्तिशाली
है। अंधेरा
शक्तिशाली
नहीं है, अंधेरा
है ही नहीं।
तुम्हारी भूल
है। छोटे से दीए को जलाओ।
अंधेरे से
लड़ने में
जितनी शक्ति
लगती थी, उसको
रोशनी बनाने
में लगाओ।
इसलिए
मैं कहता हूं, संसार से मत लड़ो, सत्य
को खोजो।
गृहस्थी को छोड़कर मत भागो, संन्यास
को जगाओ।
विधायक की
चिंता करो, नकार की
चिंता मत करो।
'जब
पंडित प्रमाद
को अप्रमाद से
हटा देता है।'
वही
एकमात्र
रास्ता है।
इसलिए बुद्ध
उसे पंडित कह
रहे हैं। वही
ज्ञानवान है, जो दीए
को जलाता है।
जो अंधेरे से लड़ता है, वह महामूढ़
है।
'तब
वह प्रज्ञारूपी
प्रासाद पर चढ़कर...।'
यह एक
समझने की बात
है। बौद्ध
चिंतन, मनन
और ध्यान की
प्रक्रिया का
एक गहनतम
सूत्र है।
बुद्ध कहते
हैं, पहले
व्यक्ति को
प्रमाद तोड़ना
है, अंधेरा
तोड़ना है। यह
तोड़ना प्रकाश
के लाने से होगा।
तो प्रमाद
मिटाना है, अप्रमाद
जगाना है।
लेकिन जब पहली
दफा अप्रमाद
आता है, तो
वह इतनी बड़ी
घटना है, वह
इतनी विराट
घटना है कि
व्यक्ति
उसमें डूब जाता
है। जब पहली
दफा ध्यान
घटता है, तो
ध्यान में ही
व्यक्ति खो
जाता है।
जो
यहां ध्यान कर
रहे हैं, उनको
इसके अनुभव
होते हैं। जब
पहली दफा
ध्यान घटता है
तो लोग मेरे
पास आकर कहते
हैं, क्या
हुआ कुछ समझ
में नहीं आता!
विचार तो चले
गए लेकिन अपना
होश भी न
रहा--नींद थी
कि ध्यान था? बीच में एक
अंतराल आ गया,
कुछ क्षणों
के लिए कुछ भी
न रहा, तो
हम सो गए थे, खो गए थे, या
जाग गए थे? कुछ
पता नहीं चलता,
कोई स्मृति
भी नहीं बनती
उस घड़ी
की। इतनी बड़ी
घटना है ध्यान,
कि स्मृति
का यंत्र अवाक
होकर ठहर जाता
है; काम
नहीं करता।
बड़ी
मीठी घटना है
सूफी फकीर बायजीद
के संबंध में।
वह एक दिन बोल
रहा था। पास
में ही एक
घड़ियाल टंगा
था। जब वह बोल
रहा था तो बीच
में ही घड़ियाल
के घंटे बजने
लगे। उसने कहा, चुप। वह घड़ी
चुप हो गयी और
वह बोलता रहा।
लोग बड़े हैरान
हुए। जब वह
बोल चुका, तब
घड़ी जहां
रुक गयी थी, जितने घंटे बजाने
बाकी रह गए थे,
वह उसने बजाए।
लोगों ने कहा
कि राज समझे
नहीं, यह
मामला क्या है?
बायजीद ने कहा कि जब
भीतर का समय
रुक गया, तो
घड़ी न मानेगी?
ऐसा
हुआ हो, जरूरी
नहीं। पर बात
महत्वपूर्ण
है। भीतर की घड़ी जब रुक
जाती है तो
बाहर की घड़ी
का क्या कहना?
जब ध्यान
उतरता है तो
समय की धारा
ठहर जाती है।
जब ध्यान उतरता
है तो स्थान
का भाव खो
जाता है। तुम
कहां हो, कब
हो, कौन हो,
सब ठहर जाता
है। स्मृति का
यंत्र अवाक हो
जाता है, चौंककर
रुक जाता है।
ध्यान
का समय आता है, चला जाता
है। जब तुम
वापस लौटते हो
अपनी तंद्रा
के जगत में, विचार में, और घड़ी
फिर घंटे
बजाती है, तब
तुम सोचते हो
हुआ क्या? क्या
मैं सो गया था?
लेकिन सोने
की भी याद
होती है। रात
तुम आज सोए थे,
सुबह तुम
कहते हो, बड़ी
गहरी नींद आयी।
या एक दिन तुम
कहते हो, नींद
ठीक से न आयी,
उथली-उथली रही, ऊबड़-खाबड़ रही; सपने
बहुत रहे, राहत
न मिली, विश्राम
न मिला; रातभर पड़े रहे, करवटें
बदलीं; नींद आयी
टूट-टूटकर आयी,
टुकड़ों-टुकड़ों में आयी,
सातत्य न रहा। या
कभी तुम कहते
हो, बड़ी
गहरी नींद आयी,
बड़ा आनंद
मालूम हो रहा
है, सुबह
बड़ी ताजगी है।
तो नींद की तो
स्मृति बनती
है। ध्यान की
स्मृति नहीं बनती।
पर
पहली दफा जब
ध्यान घटता है
तो ऐसा ही
लगता है जैसे
कि सब खो गया।
हुआ क्या? हम कहां थे? हम कहां खो
गए थे? कारण
है। जब पहली
दफा अंधेरा
जाता है और
रोशनी आती है,
तो आंखें
चकाचौंध से
बंद हो जाती
हैं। तो पहला
तो प्रकाश का
अनुभव भी
करीब-करीब
अंधेरे जैसा
ही होता है।
जैसे तुम
अंधेरे कमरे
से अचानक बाहर
रोशनी में आ
गए और तुमने
सूरज देखा, तुम्हारी
आंखें बंद हो जाएंगी।
और जो
जन्मों-जन्मों
से अंधेरी
गुहा में रहा
है, वह जब
पहली दफा
ध्यान के सूरज
को देखेगा,
स्वाभाविक
है आंख बंद हो
जाए, सब
ठहर जाए।
तो
बुद्ध ने कहा
है, प्रमाद
मिटता है
अप्रमाद से।
और जब व्यक्ति
अप्रमाद के भी
ऊपर उठता है, तब प्रज्ञा।
जब ध्यान के
भी ऊपर उठता
है, समाधि
के भी ऊपर
उठता है। यह
बुद्ध की बड़ी
गहन खोज है।
समाधि के ऊपर
उठने की बात पतंजलि ने
भी नहीं कही।
और बुद्ध ठीक
कहते हैं। मैं
भी उसका गवाह
हूं।
पतंजलि
ने समाधि तक
बात कही। ऐसा
नहीं कि समाधि
के आगे पतंजलि
को पता नहीं।
लेकिन कहने की
कोई जरूरत न समझी
होगी। जो
समाधि तक
पहुंच गया, वह अगला कदम
अपने आप उठ
जाता है। उसकी
चर्चा व्यर्थ
है। लेकिन
बुद्ध पहले
व्यक्ति हैं,
जिन्होंने समाधि के
पार की बात का
ठीक-ठीक
उल्लेख किया। वह
इतना अज्ञात
लोक है, उसका
न तो कोई
भूगोल बना है,
न कोई एटलस
है।
बुद्ध-पुरुषों
ने धीरे-धीरे
थोड़ी-थोड़ी बातें
उसके संबंध
में कही हैं।
थोड़े इशारे।
बुद्ध
का यह इशारा
गहरे से गहरे
इशारों में एक
है। बुद्ध
कहते हैं, समाधि के भी
पार उठने की
एक दशा है।
समाधि का उपयोग
इतना ही है कि
उससे चित्त
मिट जाए।
रोशनी को
इसीलिए चाहा
था कि अंधेरा
मिट जाए। कोई
रोशनी को पकड़कर
थोड़े ही बैठ
जाना है।
रोशनी के भी
पार जाना है।
अंधेरे के पार
तो जाना ही है,
रोशनी के भी
पार जाना है।
संसार के तो
पार जाना ही
है, संसार
के विपरीत में
जो तुमने
संन्यास
स्वीकार किया,
उसके भी पार
जाना है। परम
संन्यासी वही
है जिसका
संन्यास भी
विसर्जित हो
गया। परम
ध्यानी वही है
जिसका ध्यान
भी पीछे छूट
गया, जो
ध्यान से भी
आगे निकल आया।
संसार तो छोड़ा
ही, स्वप्न
तो छोड़े
ही, जागरण
को पकड़ा
नहीं, वह
भी छोड़ दिया।
पूरा द्वंद्व
चला गया।
निर्द्वंद्व
हुए। अद्वैत
हुआ।
'जब
पंडित प्रमाद
को अप्रमाद से
हटा देता है, तब वह प्रज्ञारूपी
प्रासाद पर चढ़कर...।'
तब
पहली दफा
प्रज्ञा के
शिखर पर चढ़ाई
शुरू होती है।
'स्वयं
अशोक और धीर
बना...।'
अब न
तो उसे कोई
दुख होता, न कोई सुख।
ध्यान में सुख
है, गैर-ध्यान
में दुख है।
इसलिए बुद्ध
ने कहा, प्रमादरहित व ध्यान में
लगा पुरुष
विपुल सुख को
प्राप्त होता
है। लेकिन सुख
भी बहुत सुख
नहीं है, महासुख
नहीं है। जो
मिला है वह
कितना ही बड़ा
हो, अनंत
नहीं हो सकता।
अनंत तो वही
हो सकता है जो मिला
ही नहीं कभी।
अनंत तो वही
हो सकता है
जिसकी शुरुआत
भी कभी नहीं
हुई। उसी का
अंत भी न
होगा।
तो
बुद्ध कहते
हैं, 'प्रज्ञारूपी प्रासाद पर चढ़कर
स्वयं अशोक और
धीर बना, संसार
की शोकाकुल
प्रजा को उसी
प्रकार देखता है
जिस प्रकार
कोई पर्वत पर चढ़कर नीचे
भूमि पर खड़े
लोगों को
देखे।'
'प्रमादी
लोगों में अप्रमादी
और सोए लोगों
में बहुत
जाग्रत पुरुष
वैसे ही आगे
निकल जाता है जैसे
तेज घोड़ा मंद घोड़े से
आगे निकल जाता
है।'
इन
प्रतीकों में
उलझ मत जाना।
क्योंकि
मजबूरी है बुद्धपुरुषों
की भी, शब्दों
का उपयोग करना
पड़ता है। शब्द
तुम्हारे हैं,
और
तुम्हारे रंग
में रंगे
हैं। बुद्ध भी
उनका उपयोग करें
तो भी
तुम्हारे
अर्थ की धूल
उन शब्दों पर जम
जाती है।
जैसे
बुद्ध कहते
हैं, 'प्रमादी
लोगों में अप्रमादी
और सोए लोगों
में बहुत
जाग्रत
पुरुष...।'
अप्पमत्तो पमत्तेसु सुत्तेसु बहुजागरो।
जो
बहुत जागा हुआ
है सोए हुए
लोगों में, प्रमादियों में जो अप्रमादी
है, वह
वैसे ही आगे
निकल जाता है
जैसे तेज घोड़ा
मंद घोड़े
से आगे निकल
जाता है।
लेकिन
यह उदाहरण ठीक
नहीं।
क्योंकि तेज
घोड़ा और मंद
घोड़ा, उनके
बीच जो भेद है
वह मात्रा का
है, गुण का
नहीं। वह
डिग्री का है,
क्वांटिटी का है, क्वालिटी का नहीं।
लेकिन सोए और
जागे आदमी में
जो भेद है वह
गुणात्मक है,
परिमाणात्मक नहीं। सोए
और जागे हुए
आदमी में जो
भेद है वह आगे
और पीछे का
नहीं है, ऊपर
और नीचे का
है। जागा हुआ
आदमी तुमसे
जरा आगे है, ऐसा नहीं।
तब तो तुम
दोनों एक ही
तल पर हो; कोई
तुमसे दस
कदम आगे है, तुम दस कदम
पीछे हो; रास्ता
वही है, भेद
ज्यादा नहीं
है। तुम थोड़ा
तेज चलो--थोड़ा
मंद घोड़ा भी
दौड़ ले--तो
पहुंच जाएगा।
भेद मात्रा का
है।
लेकिन
जागे और सोए
व्यक्ति में
मात्रा का भेद
नहीं है, गुण
का भेद है। वे
दोनों अलग तल
पर हैं। इसलिए
बुद्ध का पहला
प्रतीक ठीक है
कि जैसे पहाड़
पर कोई खड़ा है,
और नीचे
जनता मैदान
में खड़ी है।
ऐसा भेद है।
दो तलों का
भेद है। एक
अलग ही आयाम
है। और
निश्चित ही जो
तुमसे
ऊपर है, वह तुमसे आगे
तो होगा ही।
लेकिन जो तुमसे
आगे है, वह
जरूरी नहीं कि
तुमसे
ऊपर हो।
इसे
ऐसा समझो
कि तुम थोड़ा
जानते हो, कोई विद्वान
तुमसे
ज्यादा जानता
है, वह तुमसे
आगे है। तुम
सौ बातें
जानते हो, वह
हजार बातें
जानता है।
फर्क मात्रा
का है। नौ सौ
बातें ज्यादा
जानता है।
तुमने एक
शास्त्र पढ़ा,
उसने हजार पढ़े। पर
तुम दोनों में
बुनियादी कोई
भेद नहीं है।
फिर एक
प्रज्ञा को
उपलब्ध
व्यक्ति है।
उसमें भेद ऐसा
नहीं है कि
तुमने एक
शास्त्र पढ़ा,
उसने हजार पढ़े। यह
सवाल ही नहीं
है। तुम सोए, वह जागा।
तुम नींद में
पड़े, वह
होश में। तुम
अंधेरे में
खड़े, वह
प्रकाश में।
गुण का भेद
है।
स्वभावतः, जो तुमसे
ऊपर है वह तुमसे
आगे तो होगा
ही। इसलिए प्रज्ञावान
पुरुष
प्रतिभाशाली
तो होगा ही, लेकिन
प्रतिभाशाली
पुरुष
अनिवार्य रूप
से प्रज्ञावान
नहीं होता। तो
जिन्होंने
प्रज्ञा को
खोजा
उन्होंने
प्रतिभा को तो
मुफ्त पा
लिया। वह तो
छाया है।
लेकिन जो
प्रतिभा को ही
खोजते रहे, उन्होंने
प्रज्ञा को
नहीं पाया।
तो
तुम्हारा
प्रतिभाशाली
से
प्रतिभाशाली
पुरुष भी--कितना
ही बड़ा
वैज्ञानिक हो, नोबल-पुरस्कार
का विजेता
हो--उसमें और तुममें
गुण का कोई
फर्क नहीं
होता। उसी
रास्ते पर, उसी लकीर
में तुम भी
खड़े हो, जहां
वह खड़ा है। तुमसे
आगे है, तेज
घोड़ा हो सकता
है, तुम
मंद घोड़े
हो, लेकिन
दोनों घोड़े
हो।
बुद्ध
की मजबूरी है।
वे कहना यह
चाहते हैं कि
जिस व्यक्ति
के पास जागरण
की कला है, उसके पास
अनंत समय
उपलब्ध हो
जाता है उसे।
तुम्हारे पास
हमेशा समय कम
है। तुम हमेशा
समय को रोते
मालूम पड़ते
हो। तुमसे
अगर कहो
प्रार्थना
करो, ध्यान
करो, तुम
कहते हो समय
कहां?
मैं
कल दो पंक्तियां
पढ़ रहा था--
वो
कौन हैं
जिन्हें तौबा
की मिल गयी
फुर्सत
हमें
गुनाह भी करने
को जिंदगी कम
है
वे कौन
हैं जिन्हें
प्रायश्चित्त
करने का भी समय
मिल गया? हमको
तो पाप करने
के लिए भी
जिंदगी कम
मालूम पड़ रही
है।
प्रायश्चित्त?
वो
कौन हैं
जिन्हें तौबा
की मिल गयी
फुर्सत
हमें
गुनाह भी करने
को जिंदगी कम
है
इतने
धीमे तुम चल
रहे हो। चलना
कहना ठीक नहीं, तुम घसिट
रहे हो। इसलिए
तुम्हें
जिंदगी कम है।
जो होश से
चलता है, उसे
जिंदगी अनंत
है।
यह बड़े
आश्चर्य की
बात है कि समय
उतना ही कम मालूम
पड़ेगा
तुम्हें, जितने
तुम सोए हुए
हो। जितने तुम
जागे हुए हो, उतना ही समय
अनंत हो जाता
है। जागे हुए
व्यक्ति को
एक-एक क्षण
अनंतता हो
जाता है।
क्योंकि जागे
हुए व्यक्ति
को समय का
विस्तार ही
नहीं दिखायी
पड़ता, गहराई
भी दिखायी
पड़ती है। तुम
ऐसे हो जैसे
सागर के
किनारे खड़े हो
और सागर की
सतह भर
तुम्हें दिखायी
पड़ती है। जागा
हुआ आदमी ऐसा
है जैसे सागर
में डुबकी ली;
उसे सतह तो दिखायी
पड़ती है, सागर
की गहराई भी दिखायी
पड़ती है। अगर
एक क्षण से
तुम दूसरे
क्षण पर गए, दूसरे से
तीसरे क्षण पर
गए--अ से ब पर, ब से स पर--तो
तुम्हें
अनंतता का कभी
पता ही न चलेगा।
अगर तुम
प्रत्येक
क्षण की गहराई
में गए, तो
वह गहराई अथाह
है। तब
तुम्हें
अनंतता का पता
चलेगा। और जब
एक-एक क्षण
अनंत हो जाए, तो सब क्षण
मिलकर कितनी अनंतताएं
न हो जाएंगी!
इसलिए
महावीर ने एक
शब्द प्रयोग
किया है, जो
कभी किसी ने
प्रयोग नहीं
किया, वह
है: अनंतानंत।
इनफिनिट इनफिनीटीज।
वेद और उपनिषद
एक ही अनंत की
बात करते हैं।
वे कहते हैं:
परमात्मा
अनंत है।
महावीर कहते
हैं: मोक्ष अनंतानंत
है। क्योंकि
प्रत्येक चीज
दो दिशाओं में
अनंत
है--फैलाव में
और गहराई में।
और इसलिए
अंतिम हिसाब
में अनंत
गुणित अनंत।
बड़ा
विस्तार है।
लेकिन होश
जितना बढ़ता
जाए, उतना ही
विस्तार बढ़ता
चला जाता है।
'प्रमादी
लोगों में अप्रमादी,
और सोए
लोगों में
बहुत जाग्रत
पुरुष वैसे ही
आगे निकल जाता
है जैसे तेज
घोड़ा मंद घोड़े
से आगे निकल
जाता है।'
'जो
भिक्षु
अप्रमाद में
रत है, अथवा
प्रमाद में भय
देखता है, वह
आग की भांति
छोटे-मोटे
बंधनों को
जलाते हुए
बढ़ता है।'
बंधन
छोड़ने थोड़े ही
हैं। इसे थोड़ा
समझो।
थोड़ा नहीं इसे
बहुत समझो।
बंधन छोड़ने
थोड़े ही हैं, बंधन जलाने
हैं। क्योंकि छोड़े बंधन
फिर बंध सकते
हैं। बंधन
जलाकर राख कर
देने हैं। और
मजा यह है कि
जो छोड़ता
है, वह कभी
नहीं छोड़ पाता;
लेकिन जो
जागता है, वह
अचानक पाता है,
वे जल गए।
क्योंकि बंधन
हैं तुम्हारी
नींद के ही।
जैसे
एक आदमी सोया
है। सपने में
खोया है कि कारागृह
में बंद है, कि हाथ में जंजीरें
पड़ी हैं। वह
लाख उपाय करे
सपने में जंजीरें
रख देने का, क्या फायदा
होगा? सपना
नहीं टूट
जाएगा। वह छूट
भी जाए जंजीरों
से, तो भी
सपने में ही
है। कारागृह
से भी निकल
जाए सपने में,
तो भी सपने
में ही है।
सपना ही असली कारागृह
है। लेकिन जाग
जाए, तो
फिर हंसने
लगे। क्योंकि
न कोई बंधन
है--जल गए, बचे
ही नहीं, राख
भी न बची। ऐसे
जले कि पीछे
कोई निशान भी
नहीं छूट गया
है। बंधन
बेहोशी के
हैं। होश है
मुक्ति।
तो
बुद्ध कह रहे
हैं, 'जो
भिक्षु
अप्रमाद में
रत है...।'
जो
धीरे-धीरे जागने
में लीन रहने
लगा है, जो
धीरे-धीरे जागने
में डूबने लगा,
जो जागने
में रस लेने
लगा है।
'वह
आग की भांति
है, वह
छोटे-मोटे
बंधनों को
जलाते हुए
बढ़ता है।'
छोड़ता
नहीं, छोड़ने
की क्या जरूरत
है? जहां
भी उसकी होश
भरी आंख पड़ती
है, वहीं
बंधन जल जाते
हैं। जहां भी
उसकी एकाग्र दृष्टि
पड़ जाती है, वहीं बंधन
गिर जाते हैं।
जहां भी वह
होश से देखता
है, वहीं
संसार राख हो
जाता है।
हिमालय
में
एक...हिमालय
में बसे लोगों
में एक कहावत
है कि अगर कभी
किसी का विवाह
हो रहा हो तो
संन्यासी को
निमंत्रित मत
करना। या अगर
कभी कोई किसान
खेत में बीज
बोता हो, तो
संन्यासी को
आसपास देख ले,
कि कोई
संन्यासी
आसपास तो
नहीं।
कहावत
बड़ी
महत्वपूर्ण
है। उसका मतलब
केवल इतना ही
है कि तुम
बंधन बना रहे
हो। और जाग्रत
पुरुष वहां
मौजूद हो, कहीं जला न
दे। विवाह को
हम कहते हैं
बंधन। एक संसार
बसाया जा
रहा है।
बैंड-बाजे बज
रहे हैं, शहनाई
बज रही है। एक
सपने का जाल
बुना जा रहा है।
दो व्यक्ति
संसार में उतरने
को जा रहे
हैं--बड़े सपने
लिए।
संन्यासी को
वहां मत
बुलाना।
कहावत ठीक
कहती है, क्योंकि
जागा हुआ आदमी
अपने साथ
चारों तरफ जागरण
की खबर लेकर
चलता है। जागा
हुआ आदमी, जहां
उसकी नजर पड़
जाए वहां बंधन
गिर जाते हैं।
तो कहीं ऐसा न
हो कि ये
बिचारे अभी
बंधन में बंध
ही रहे हैं और
कोई संन्यासी
की नजर पड़
जाए।
यह बात
बड़ी मीठी है।
यह बात बड़ी
मूल्यवान है।
जाग्रत पुरुष
के बोध में
उसके खुद के
बंधन तो गिरते
ही हैं, जो
उसके करीब आने
का साहस जुटा
लेते हैं उनके
भी गिर जाते
हैं।
सूफी
फकीर हुआ हफीज।
महाकवि भी
हुआ। उसने एक
गीत लिखा। गीत, ऐसा लगता है
अपनी प्रेयसी
के लिए लिखा
है। गीत में
उसने कहा कि
तेरी ठोड़ी
पर जो तिल का
निशान है, उसके
लिए मन होता
है बुखारा
दे दूं, कि समरकंद! समरकंद और बुखारा का
मालिक उस समय
था तैमूरलंग।
वह बहुत नाराज
हो गया, जब
उसके कान में
यह गीत पड़ा कि
यह कौन है? मालिक
मैं हूं, यह
देने वाला कौन
है?
उसने हफीज को पकड़वा
बुलाया। उसने
कहा कि हद्द
हो गयी। पहली
तो बात यह कि
किसी स्त्री
के ठोड़ी
पर तिल है, यह इस योग्य
नहीं कि तुम बुखारा और समरकंद दे
दो। फिर दूसरी
बात यह कि
पहले यह भी तो
पक्का कर लो
कि बुखारा-समरकंद
तुम्हारे बाप
के हैं, जो
तुम दे रहे हो?
ये मेरे
हैं। मैं अभी
जिंदा हूं।
तुमने मुझसे
पूछे बिना यह
कविता कैसे लिखी?
हफीज हंसने लगा
इस मूढ़ता पर।
उसने कहा, सुनो! पहले तो
जिसके तिल की
बात है, बुखारा-समरकंद उसी के हैं।
तुम नाहक बीच
में उपद्रव कर
रहे हो। तुम
आज हो, कल न रहोगे।
जिसके तिल की
बात है, बुखारा-समरकंद उसी के
हैं--वह तो
परमात्मा की बात
कर रहा है, सूफी
फकीर
परमात्मा को
प्रेयसी के
रूप में बात
करते हैं--और
फिर दूसरी बात,
उसी की चीज
उसी को लौटा
देने में क्या
लगता है? न बुखारा-समरकंद
तुम्हारे हैं,
न मेरे, वह
मुझे भी पता
है। मगर जिसके
हैं उसी को
मैं लौटा रहा
हूं, तुम
बाधा डाल रहे
हो; देखो,
पीछे पछताओगे।
और हफीज
ने कहा, सुनो! मैं गरीब
आदमी हूं, लेकिन
मेरा दिल तो देखो! कुछ
मेरे पास नहीं,
बुखारा-समरकंद दे दिए।
तुम्हारे पास
सब है, अपनी
कृपणता तो देखो!
हफीज
की ऐसी बात सुनकर
कहते हैं तैमूरलंग
भी हंसने
लगा। अन्यथा
वह हंसने
वाला आदमी न
था।
जो
अपना नहीं है, उसको अपना
मान लेने में
बंधन है। और
जो अपना नहीं
है, उसको
अपना मान लेने
में न केवल
बंधन है, बल्कि
दूसरे से
प्रतिस्पर्धा
है, संघर्ष
है। सारे जगत
की कलह यही तो
है कि यहां सभी
ने चीजों को
अपना मान रखा
है, जो
उनकी नहीं
हैं। असली
मालिक तो चुप
है। बुखारा-समरकंद
उसी के हैं।
लेकिन तैमूरलंग,
यह लंगड़ा
बीच में खड़ा
है। लंगड़ा
था इसलिए लंग।
लंगड़ा है,
लेकिन सारी
दुनिया पर
कब्जे की
आकांक्षा है। सभी
लंगड़ों
की यही
आकांक्षा है।
यह परमात्मा
की चीज भी परमात्मा
को देने में
इसको कष्ट हो
रहा है। देना
भी कहां है? उसकी ही है।
यह तो एक बात
थी, कहने
का एक ढंग था, एक लहजा था।
जैसे-जैसे
तुम्हारा होश बढ़ेगा, तुम्हें लगेगा
अपना कुछ भी
नहीं है। अपने
सिवाय अपना
कुछ भी नहीं
है। और आखिर
में तुम पाओगे
कि वह जो अपना
है, वह भी
अपना नहीं है,
वह भी
परमात्मा का
है--तब
प्रज्ञा।
समाधि
तक भी तुम्हें
अपना थोड़ा बोध
रहेगा। सारी
चीजों से संबंध
छूट जाएगा, लेकिन स्वयं
से संबंध बना
रहेगा।
प्रज्ञा में
वह संबंध भी
छूट जाता है।
इसलिए बुद्ध
ने कहा, आत्मा
समाधि तक, उसके
बाद अनात्मा।
अत्ता
समाधि तक--कि
तुम हो; फिर
एक ऐसी भी घड़ी
आती है जहां
तुम भी नहीं
हो--बूंद सागर
में गिर गयी।
'जो
भिक्षु
अप्रमाद में
रत है, वह
आग की भांति
छोटे-मोटे
बंधनों को
जलाता हुआ
बढ़ता है।'
'जो
भिक्षु
अप्रमाद में
रत है अथवा
प्रमाद में भय
देखता है, उसका
पतन होना संभव
नहीं है। वह
तो निर्वाण के
समीप पहुंचा
हुआ है।'
लेकिन
ध्यान रखना:
समीप। बुद्ध
एक-एक शब्द के
संबंध में
बहुत-बहुत
हिसाब से
बोलते हैं।
अप्रमाद
सिर्फ समीप
है। जब अप्रमाद
भी छूट जाएगा, तब निर्वाण।
बेहोशी तो
जाएगी ही, होश
भी चला जाएगा।
क्योंकि
बेहोशी और होश
दोनों एक ही सिक्के के
दो पहलू हैं।
पराया तो छूटेगा
ही, स्वयं
का होना भी
छूट जाएगा।
क्योंकि
पराया और
स्वयं दोनों
ही एक सिक्के
के दो पहलू
हैं। तू तो मिटेगा
ही, मैं भी
मिट जाएगा।
क्योंकि मैं
और तू एक ही चर्चा
के दो हिस्से
हैं, एक ही
संवाद के दो
छोर हैं।
लेकिन
जो अप्रमाद
में रत है, उसका कोई
पतन नहीं
होता। ऐसे ही
जैसे दीया हाथ
में हो तो तुम टकराते
नहीं। घर में
अंधेरा हो और
तुम अंधेरे
में चलो
तो कभी कुर्सी
से, कभी मेज
से, कभी
दीवाल से टकराते
हो। हाथ में
दीया हो, फिर
टकराना कैसा?
फिर
तुम्हें राह दिखायी
पड़ती है। असली
सवाल राह का
खोज लेना नहीं
है, असली
सवाल हाथ में दीए का
होना है।
इसलिए
बुद्ध का
आखिरी वचन, जो उन्होंने
इस पृथ्वी पर
अंतिम शब्द
कहे--आनंद ने
पूछा, हम
क्या करेंगे?
तुम जाते हो,
तुम्हारे
रहते हम कुछ न
कर पाए, दिन
और रात हमने
बेहोशी में
गंवा दिए, तुम्हें
सुना और समझ न
पाए, तुमने
जगाया और
हम जागे नहीं,
अब तुम जाते
हो, अब
हमारा क्या
होगा--बुद्ध
ने कहा, इस
बात को सूत्र
की तरह याद
रखना, क्योंकि
मैं तुम्हारे
काम नहीं पड़
सकता: अप्प
दीपो भव।
तुम अपने दीए
बनो, क्योंकि
वही काम पड़
सकता है।
अप्रमाद
यानी अप्प
दीपो भव!
अपने दीए बनो। जागो।
होशपूर्वक
जीयो।
संसार
यही है। जो
बेहोशी में
जीता है, वह
माया में; जो
होश में जीता
है, वह
ब्रह्म में। जीने की
शैली बदल जाती
है, जीने की जगह थोड़े
ही बदलती है।
यही है सब--यही
वृक्ष, यही
पौधे, यही
पक्षी, यही
झरने--तुम बदल जाओगे।
लेकिन जब
दृष्टि बदल
जाती है, तो
सब सृष्टि बदल
जाती है।
आज
इतना ही।
THANK YOU GURUJI
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