सूत्र:
न
तं कम्मं कतं
साधु यं कत्वा
अनुतप्पति।
यस्स
असुमुखी रोदं
विपाकं
परिसेवति।।61।।
तं
च कम्मं कतं
साधु यं कत्वा
नानुतप्पति।
यस्स
पतीतो सुमनो
विपाकं
परिसेवति।।62।।
मधुवा
मज्जति बालो
याव पापं न
पच्चति।
यदा
न पच्चति
पापं अथ वालो
दुक्खं
निगच्छति।।63।।
मासे—मासे
सुसग्गेन
बालो भुज्जेथ
भोजनं।
न
सो संखतधम्मानं
कलं अग्धिति सोलसि।।64।।
सूत्र के
पूर्व एक बहुत
बुनियादी बात
समझ लेनी जरूरी
है।
मनुष्य
के जीवन को हम
दो खंडों में
बांट सकते हैं
एक तो मनुष्य
का होना, बीइंग,
और एक
मनुष्य का
कर्म, उसका
कृत्य, डूइंग।
कृत्य तो
ऊपर—ऊपर है, परिधि पर है।
जो हम करते
हैं, वह
हमारा सर्वस्व
नही है, वह
हमारा पूरा
होना नहीं है।
कृत्य तो ऐसे
है, जैसे
सागर की सतह
पर लहरें। लहरें
सागर की हैं
माना, लेकिन
सागर सिर्फ
लहर ही नहीं
है। लहरें
सागर की है, यह भी पूरी
बात नहीं—लहरें
सागर और हवाओं
के बीच के
संघर्ष से
पैदा होती हैं,
हवा की भी
हैं उतनी ही
जितनी सागर की
हैं।
मनुष्य का
कर्म दूसरे
मनुष्यों के
साथ पैदा होता
है—हवाओं और
सागर के घर्षण
से। लेकिन
मनुष्य का
होना वहा
समाप्त नहीं
होता; वहां
तो शुरू भी
नहीं होता, बस परिधि है।
तुम्हारे घर
के चारों तरफ
तुमने जो सीमा
पर दीवाल खड़ी
कर रखी है, वही
कर्म है। तुम्हारा
अंतर्गृह, तुम्हारी
अंतरात्मा, वहीं तो
कर्म की कोई
भी पहुंच नहीं
है। वहां तो
कोई तभी
पहुंचता है, जब अकर्म को
उपलब्ध हो जाए।
वहां तो कोई
तभी पहुंचता
है, जब यह
जान ले कि मैं
कर्ता नहीं, द्रष्टा हूं।
लेकिन वहा
तक पहुंचने के
लिए कर्म के
जगत से
तुम्हें
यात्रा करनी
होगी। खड़े तो
तुम परिधि पर
हो; तुम्हें
अपने अंतःपुर
का तो कोई पता
नहीं है। खड़े
तो तुम द्वार
पर हो, सीमा
पर हो, तुम्हें
मंदिर के
अंतर्गृह का
कोई पता नहीं।
चलना तो वहां
से होगा। इसलिए
कर्म के जगत
में भी थोड़ा
सा कुछ करना
जरूरी है। वही
पाप और पुण्य
का विचार है।
ऐसा कर्म
पुण्य है जो
तुम्हें कर्म
के पार ले जाए।
समझने की
कोशिश करना।
ऐसा कर्म
पुण्य है जो
तुम्हें
बांधे न, जो
परिधि पर
अटकाए न, जो
तुम्हें भीतर
जाने की
सुविधा दे, सीढ़ी बने। और
ऐसा कर्म पाप
है जो तुम्हें
भीतर न जाने
दे, द्वार
पर अटका ले, सीमा पर
उलझा ले।
ऐसा कर्म
पुण्य है, जिसके
द्वारा
तुम्हारी आंख
भीतर की तरफ
मुड़ जाए, और
ऐसा कर्म पाप
है जिससे तुम
बाहर की ओर
अंधी यात्रा
पर निकल जाओ। जो
तुम्हें अपने
से दूर ले जाए,
वही पाप। जो
तुम्हें अपने
पास ले आए, वही
पुण्य।
शास्त्रों ने
क्या कहा, इसकी
बहुत चिंता मत
करना। शास्त्रों
से जो पाप और
पुण्य का
विचार करता है,
वह बहुत दूर
नहीं जाता। क्योंकि
समय बदलता है,
परिस्थिति
बदलती है। कल
के पुण्य आज
के पाप हो
जाते हैं, और
आज के पाप कल
के पुण्य हो
जाते हैं। अगर
तुम्हारे पास
कसौटी है तो तुम्हें
कभी अड़चन न
आएगी। बदलती
हुई
परिस्थितियों
में भी तुम एक
कसौटी पर सदा
कसते रहना : जो
तुम्हें भीतर
ले जाए वह पुण्य
है, जो
तुम्हें बाहर
ले जाए वह पाप
है। जो
तुम्हें भटकाए,
जो तुम्हें
अपने से दूर
ले जाए, जिसके
कारण
तुम्हारा
तुमसे ही
फासला बढ़ता जाए,
जिसके कारण
ऐसी घड़ी आ जाए
कि तुम्हें यह
पता ही न रहे
कि तुम कौन हो,
तुम कहां से
हो, तुम
क्यों हो, कहा
जाते हो, कुछ
भी पता न रहे, तुम्हारी अवस्था
पूरी तरह
बेहोश हो जाए।
जो मूर्च्छा
लाए, वह
पाप। जो
जागृति को
सम्हलने में
सहायता दे वह
पुण्य।
इसलिए
बंधी लकीरों
पर मत सोचना, क्योंकि
बंधी लकीरों
से हल नहीं
होगा। तुम पुण्य
भी कर सकते हो
शास्त्रानुसार,
लेकिन अगर
वह तुम्हें
भीतर नहीं ले
जा रहा है तो
पाप हो गया।
समझो।
तुम दान दे
सकते हो। ऐसा
कोई शास्त्र
पृथ्वी पर
नहीं है जो
कहता हो, दान
देना पुण्य
नहीं। दान
देना पुण्य है,
यह सोचकर
तुम दान दे
सकते हो। और
दान देकर
तुम्हारा
अहंकार मजबूत
कर सकते हो कि
मैं दानी हूं,
कि मुझ जैसा
दानी कोई भी नहीं
है। तुम चूक
गए। तुमने
शास्त्र की
बात तो पूरी
कर दी, लेकिन
तुम जीवन के
शास्त्र को न
समझ पाए। यह
पुण्य भी
तुम्हें अपने
से दूर ले गया।
तुम और
अहंकारी बने। तुम
और अकड़कर चलने
लगे। विनम्रता
न आई। निर्दोष
भाव न आया। तुम
और भी चालाक
हो गए। तुमने
न केवल इस
दुनिया का
हिसाब सम्हाल
लिया, परलोक
का हिसाब भी
सम्हाल लिया। तुमने
न केवल यहां
मकान बना लिए,
तुमने
परलोक में भी
मकान बना लिए।
तुमने संसार
को ही नहीं
सम्हाल लिया,
तुमने परमात्मा
को भी सम्हाल
लिया। तुम
अपने से और भी
दूर चले गए।
यह
दान पुण्य न
हुआ,
क्योंकि यह
दान समझ पर
आधारित न था। भय
पर आधारित भला
हो, लोभ पर
आधारित भला हो,
कि दान करने
से परमात्मा
प्रसन्न होगा, कि दान करने
से पुण्य होगा,
कि पुण्यकर्ता
को आनंद के
द्वार खुलते
हैं, कि पुण्यकर्ता
को नरक की
पीड़ा नहीं
झेलनी पड़ती, कि
पुण्यकर्ता
दुख से बच
जाता है। यह
पुण्य लोभ और
भय पर खड़ा है।
मैंने
सुना है, मुसलमान
टेलर था, दर्जी
था। वह बीमार
पड़ा। करीब—करीब।
मरने करीब
पहुंच गया था।
आखिरी जैसे घड़िया
गिनता था, कि
रात उसने एक सपना
देखा कि वह मर
गया और कब्र
में दफनाया जा
रहा है। बड़ा
हैरान हुआ, कब्र रंग—बिरंगी
बहुत सी
झंडियां लगी
हैं। उसने पास
खड़े एक
फरिश्ते से
पूछा कि ये झंडियां
यहां क्यों
लगी हैं? दर्जी
था, कपड़े
में उत्सुकता
भी स्वाभाविक
थी। उस फरिश्ते
ने कहा, जिन—जिन
के तुमने कपड़े
चुराए हैं, जितने—जितने
कपड़े चुराए
हैं, उनके
प्रतीक के रूप
में ये झंडियां
लगी हैं। परमात्मा
इनसे हिसाब
करेगा।
वह
घबड़ा गया। उसने
कहा,
हे अल्लाह!
रहम कर!
झंडियों का
कोई अंत ही न था।
घबड़ाहट में
अल्लाह की
आवाज की, उसमें
नींद खुल गई। ठीक
हो गया। फिर जब
दुकान पर वापस
आया तो उसके
दो शागिर्द थे
जो उसके साथ
कपड़ा सीने का
काम सीखते थे।
उसने कहा कि
सुनो, अब
एक बात का
ध्यान रखना। मुझे
अपने पर भरोसा
नहीं है। कपड़ा
कीमती आ जाएगा
तो मैं
चुराऊंगा ही।
पुरानी आदत
समझो। और अब
इस बुढ़ापे में
बदलना बड़ा
कठिन है। तुम
एक काम करना, जब भी तुम
देखो कि मैं
कोई कपड़ा चुरा
रहा हूं तुम
इतना कह देना,
उस्ताद जी!
झंडी! जोर से
कह देना, उस्ताद
जी! झंडी!
शिष्यों
ने बहुत पूछा
कि इसका मतलब
क्या है? उसने
कहा, वह
तुम मत उलझो।
मेरे लिए काम
हो जाएगा।
ऐसे
तीन दिन बीते।
दिन में कई
बार शिष्यों
को चिल्लाना
पड़ता, उस्ताद
जी! झंडी! वह
रुक जाता।
चौथे दिन
लेकिन
मुश्किल हो गई।
एक जज महोदय
की अचकन बनने
आई। बड़ा कीमती
कपड़ा था, विलायती
था। उस्ताद
घबड़ाया कि अब
ये चिल्लाते
ही हैं, झंडी!
तो उसने जरा
पीठ कर ली
शिष्यों की
तरफ और कपड़ा
मारने ही जा
रहा था कि
शिष्य
चिल्लाए, उस्ताद
जी, झंडी!
उसने कहा, बंद
करो नालायको!
इस रंग का
कपड़ा वहा था
ही नहीं। क्या
झंडी—झंडी लगा
रखी है? और
फिर हो भी तो
जहां इतनी
झंडियां लगी
हैं, एक और
लग जाएंगी।
ऊपर—ऊपर
के नियम बहुत
गहरे नहीं
जाते। सपनों
में सीखी
बातें जीवन का
सत्य नहीं बन
सकतीं। भय के
कारण कितनी
देर सम्हलकर
चलोगे? और
लोभ कैसे
पुण्य बन सकता
है?
तो
दान अगर लोभ
से दिया, पाप
हो गया; क्योंकि
लोभ बाहर ले
जाता है। दान
अगर भय से
दिया, पाप
हो गया; क्योंकि
भय बाहर ले
जाता है। अभय
लाता है भीतर,
अलोभ लाता
है भीतर।
इसलिए
बंधी लकीरों
का सवाल नहीं
है। लकीरों पर
तो बहुत लोग
चलते हैं, पहुंच
नहीं पाते।
जिंदगी कोई
रेलगाड़ी नहीं
है कि पटरियों
पर दौड़ जाए।
बंधी पटरियों
पर कोई कभी
परमात्मा तक
नहीं पहुंचा
है। काश, इतना
आसान होता!
इसलिए तो
तुम्हें इतने
लोग दुनिया में
दिखाई पड़ते
हैं, उनमें
से बहुत से
लोग सोच—समझकर
पुण्य करते
रहते हैं, फिर
भी पुण्य होता
नहीं।
असली
सवाल कृत्य का
नहीं है। असली
सवाल तो कृत्य
तुम्हें पास
लाता है या नहीं!
अगर यह कसौटी
तुम्हारे
भीतर बनी रहे
कि जो तुम्हें
होने के करीब
ले आए वही
पुण्य है, तो
तुम धीरे—धीरे
पाओगे, प्रत्येक
कृत्य से
ध्यान की किरण
निकलने लगी।
और तुम्हारे
पास एक कसौटी
है जिससे तुम
तौल लोगे—क्या
करना है और
क्या नहीं
करना है।
कृत्य का इतना
ही मूल्य है।
कृत्य
का अर्थ है, तुम
कुछ करोगे।
करने में
साक्षी— भाव न
खो जाए। अगर
साक्षी— भाव
खो गया तो
कर्म बंधन बन
जाता है। अगर
साक्षी— भाव
बना रहा तो
कर्म तुम्हें
बांधता नहीं,
साधारण सा
कृत्य रह जाता
है। उसका कोई
बल नहीं रह
जाता।
क्योंकि
कृत्य को बल
तो तुम देते
हो, अपने
तादात्म से।
जब तुम किसी
कृत्य से जुड़
कर कर्ता हो
जाते हो, तभी
बल मिलता है
कृत्य को। उसी
बल से तुम
बांधे जाते हो।
पाप
की एक दूसरी
परीक्षा भी
स्मरण रख लो, फिर
हम सूत्र में
प्रवेश करें।
साधारणत:
लोग सोचते हैं, दूसरे
को कष्ट देना
पाप है। यह
नजर भी दूसरे
पर हो गई। यह
नजर भी धर्म
की न रही।
धर्म का कोई
प्रयोजन
दूसरे से नहीं।
धर्म का संबंध
स्वयं से है।
स्वयं को दुख
देना पाप है।
हां, जो
स्वयं को दुख
देता है, उससे
बहुतों को दुख
मिलता है—यह
बात और। जो
स्वयं को ही
दुख देता है, वह किसको
दुख न देगा? जो स्वयं
दुर्गंध से
भरा है, उसके
पास जो भी
आएंगे, उनको
दुर्गंध
झेलनी पड़ेगी।
लेकिन वह बात 'गौण है।
तुम
दूसरों की
फिक्र मत करना।
क्योंकि
दूसरों की
फिक्र से एक
बहुत उपद्रव पैदा
होता है, वह यह
कि तुम भीतर
की दुर्गंध तो
नहीं मिटाते,
बाहर से
इत्र—फुलेल
छिड़क लेते हो।
तो दूसरे को
दुर्गंध नहीं
मिलती, लेकिन
तुम तो
दुर्गंध में
ही जीयोगे। 'परमात्मा तक
इत्र को ले
जाने की कोई
सुविधा नहीं है।
वहां तो जब
भीतर की सुवास
पैदा होगी, तभी सुवास
होगी। वहां
धोखा नहीं
चलेगा। वहा
बाजार से
खरीदी गई सुगंधियां
काम न आएंगी।
इसलिए
दूसरी बात
खयाल रख लो कि
पाप का कोई
सीधा संबंध
दूसरे से नहीं
है,
न पुण्य का
कोई सीधा
संबंध दूसरे
से है।
पुण्य
का अर्थ है :
तुम्हारे
आनंद की, अहोभाव
की दशा।
पुण्य
का अर्थ है :
तुम्हारा
नाचता हुआ, आनंदमग्न
चैतन्य।
पुण्य
का अर्थ है :
तुम्हारे
भीतर की
बांसुरी बजती
हुई।
तो
स्वभावत:
दूसरे पर भी
वर्षा होगी
तुम्हारे संगीत
की। यह सहज ही
हो गाएगी।
इसका हिसाब ही
क्या रखना!
तुम्हारे
भीतर की बांसुरी
बजती होगी तो
दूसरों पर
वर्षा सहज ही
हो जाएगी।
इसका हिसाब ही
नहीं रखना।
इसकी बात भूल
भी जाओ तो भी
चलेगा। पुण्य
तुमसे होते
रहेंगे।
असली
पुण्य अगर हो
गया अपने पास
आने का, तो
शेष सब पुण्य
छाया की तरह
चले आते हैं।
और असली पाप
अगर हो गया
अपने से दूर
जाने का, तो
शेष शब पाप
छाया की तरह
चले आते हैं।
साधारणत:
धर्मगुरु
तुम्हें
समझाते हैं, दूसरे
की सेवा करो—पुण्य;
दूसरे को 'रख दो—पाप।
मैं तुमसे यह
नहीं कहता।
बुद्धों ने
तुमसे यह कभी
नहीं कहा है। उन्होंने
कहा है, ऐसा
कृत्य पाप है,
जो तुम्हें
दुख से भर जाए,
जो तुम्हें
पछतावे से भर
जाए, जिसे
करके तुम जार—जार
रोओ, जिसे
करके तुम चाहो
कि अनकिया हो जाए,
जिसे करके
तुम पछताओ, जिसे करके
फिर तुम कभी
चैन न पा सको, जिसका काटा
गड़ता ही रहे, गड़ता ही रहे।
भला करते वक्त
पता न चले—क्योंकि
हम करने की
धुन में होते
हैं—बाद में
पता चले। हो
सकता है, करते
वक्त पता न
चले, क्योंकि
कृत्य तब बीच
की तरह होता
है। थोड़ा समय
लगता है, तब
फसल पकती है, तब तुम्हें
कांटे चुभते
हैं। देर—अबेर
पता चले, लेकिन
एक बात पता
चलेगी कि पछताओगे,
कि छिपाओगे,
कि चाहोगे
हजार—हजार मन
से कि न किया
होता; कि
चाहोगे कि
किसी तरह लौट
जाएं और
अनकिया कर दें।
मगर समय में
लौटने का कोई
उपाय नहीं। जो
हो चुका हो
चुका; उसे
मिटाने का, पोंछने का
ऐसा कोई सीधा
उपाय नहीं।
पछतावा ही रह
जाएगा। पाप का
स्वाद
पश्चात्ताप
है. मुंह
कडुवाहट से भर
जाता है।
तो
तुम अपने पर
ध्यान रखना।
यह तो हो सकता
है कि
तुम्हारे पाप
से दूसरे को दुख
न मिले, क्योंकि
दूसरा दुख ले
या न ले, यह
उसकी
स्वतंत्रता
है। दूसरा
राजी हो न
राजी हो, यह
उसकी मौज है।
कोई किसी को
दुख
जबर्दस्ती
नहीं दे सकता।
न कोई किसी को
सुख
जबर्दस्ती दे
सकता है।
जबर्दस्ती
यहां चलती ही
नहीं।
प्रत्येक के
भीतर परम
स्वातंत्र्य
है।
तुम
अगर किसी
बुद्ध पुरुष
को गालियां भी
दे दोगे तो
बुद्ध को तुम
दुख न दे
पाओगे। तुमने
तो दिया था, बुद्ध
तक न पहुंचा।
तुमने तो दिया
था, उन्होंने
न लिया। तो
तुम करोगे
क्या? तुमने
तो लाख कोशिश
की थी। तुमने
तो बहुत उपाय
किए थे। लेकिन
सब असफल हो
जाता है। बुद्ध
पुरुष हंसते
ही खड़े रहते
हैं।
तो
जरूरी नहीं है
कि तुम्हारा
पाप दूसरे को
दुख दे ही।
साधारणत: देता
है,
क्योंकि
दूसरे दुख
पाने को तैयार
हैं। इसे ठीक
से समझ लेना।
साधारणत: देता
ही है। लेकिन
देने के कारण
तुम नहीं हो, दूसरे लेने
को तैयार हैं।
तुम न देते तो
वे किसी और से
ले लेते। हजार
दुकानें हैं,
तुम्हारी
ही दुकान नहीं।
कहीं और से
खरीदे लेते।
तुम्हारी
गाली न मिली
होती तो किसी
और से गाली ले
लेते। अगर कोई
देने वाला न
होता तो खुद
को दे लेते।
मगर दुख तो वे
पाते। दुख
पाने की उनकी
तैयारी थी।
दुख पाने की
उनकी आकांक्षा
थी। तुमने तो
सिर्फ सहारा
दिया। तुम तो
सिर्फ बहाने
बने। तुम तो
सिर्फ खूंटी
बने, कोट
तो उन्हें
टलना ही था; कहीं भी टांग
लेते, खूटी
न मिलती, द्वार—दरवाजे
पर टल लेते।
वे टांगकर
रहते।
दूसरे
को दुख देना
असली बात नहीं
है। दूसरे को
दुख मिलता है, यह
सच है। वह
उसको अपने
कारण मिलता है।
इसलिए पाप का
कोई सीधा
संबंध दूसरे
से नहीं है।
वहां भूल हो
गई है। वहां
तुम्हारे
धर्मगुरु
तुम्हें
समझाए चले जाते
हैं, दूसरे
को दुख मत दो।
वहां भी नजर
दूसरे पर है।
संसार की भी
नजर दूसरे पर
और धर्म की भी
नजर दूसरे पर,
तो दूसरे से
छुटकारा है या
नहीं?
नहीं, धर्म
का कुछ लेना—देना
नहीं दूसरे से।
धर्म की नजर
अपने पर है।
अपने को दुख
मत देना, मैं
तुमसे कहता
हूं और तुम पुण्यात्मा
हो। अपने को
दुख मत देना।
इस भांति जीना
कि अतीत के
पछतावे का
कारण न रह जाए,
लौटकर
देखने की
जरूरत भी न हो।
इस भांति जीना
कि कभी मन में
ऐसा खयाल भी न
उठे कि कुछ
अनकिया करना
है, तो
तुम्हारा
जीवन पुण्य का
जीवन है।
अगर
तुम्हें लौट—लौटकर
पछतावा हो, अगर
पीछे लौटकर
देखने में डर
लगने
लगे, अपने
ही अतीत से
पीड़ा और
परेशानी होने
लगे, अपने
ही अतीत से
घबड़ाहट होने
लगे, अपना
ही अतीत बोझ
हो जाए, छाती
पर पत्थर की
तरह बैठ जाए, अपना ही
अतीत गले में
फांसी की तरह
लग जाए—तो
समझना कि पाप
किया।
अतीत
के लिए कुछ भी नहीं
किया जा सकता।
करने की कोई
जरूरत नहीं है; जागकर
वर्तमान को
बदल लेना। जो
हो गया हो गया,
उससे
घबड़ाना भी मत,
उसको
मिटाने की
चेष्टा में भी
मत लगना, क्योंकि
वह व्यर्थ
चेष्टा है।
तुम तो
वर्तमान ओ।
जाग जाना और
वर्तमान में ऐसे
जीने लगना कि
तुम्हारा
जीवन सुख से
भर जाए।
पुण्य
सुख की कुंजी
है,
पाप दुख की।
स्वभावत: जब
तुम सुखी होते
हो, तुमसे दूसरों
को सुख मिलता
है। क्योंकि
दूसरों को तुम
वही दे सकते
हो जो तुम्हारे
पास हे। तुम
वही बांट सकते
हो जो —तुम्हारे
पास है। हम
अपने को ही
बांटते चलते
हैं। और उपाय
भी नहीं है कोई।
अगर तुम्हारे
भीतर गीत है
तो तुम
गुनगुनाओगे, किसी के कान
पर गीत की कड़ी
पड़ेगी। और
तुम्हारे
भीतर गाली है,
तो भी—तो भी
बाहर आ जाएगी,
किसी के कान
पर पड़ेगी।
असली सवाल
भीतर का है।
अपने
माजी के तसव्वुर
से हिरासां
हूं मै
अपने
गुजरे हुए
ऐयाम से नफरत
है मुझे
अपनी
बेकार
तमन्नाओं पे
शरमिंदा हूं
अपनी
बेक उम्मीदों
पे नदामत है
मुझे
मेरे
माजी को
अंधेरे में
दबा रहने दो,
मेरा
माजो मेरी
जिल्लत के
सिवा कुछ भी
नहीं
मेरी
उम्मीदों का
हासिल मेरी
काविश का सिला
एक
बेनाम अजीयत
के सिवा कुछ
भी नहीं
तुम
भी सोचोगे
अतीत के संबंध
में,
तो ऐसा ही
पाओगे : एक बोझ!
एक व्यर्थ 'का
बोझ! टूटी हुई
आशाएं! खंडित
वासनाएं!
व्यर्थ के पाप—न
किए होते तो
चल गाता।
व्यर्थ के झूठ—न
बोले होते तो
चल जाता। दो
दिन की जिंदगी
चल ही ? गाती है।
व्यर्थ दिए
हुए कष्ट, व्यर्थ
चारों तरफ बोए
हुए काटे, अपनी
ही राह पर नोट—लौटकर
आ जाते हैं।
फूल भी बो
सकते थे। उतना
ही समय लगता
है। सच तो यह
है, जैसा
मैंने जाना, थोड़ा कम समय
लगता है फूल
बोने में।
फूल
बड़ी नाजुक चीज
है,
जल्दी निकल
आती है। कांटा
बड़ा कठोर है, बड़ी।(र लगती
है। काटो को
सम्हालने में
आदमी अपना सब
गंवा देता है।
फूल सरलता सं
निकल आते हैं।
आसान था कि
तुमने फूल बो
लिए होते।
कठिन था कीटों
को बनाना।
कठिन था काटो
को अपने भीतर
ढालना, क्योंकि
तुम्हें
चुभेंगे भी।
काटो को जो
ढालेगा, लहूलुहान
होगा। मगर
कठिन तुम कर
गुजरे। पीछे
लौटकर अधिकांश
लोगों को बस
ऐसा ही प्रतीत
होता है—
अपने
माजी के तसव्वुर
से हिरासां
हूं मैं
अपने
गुजरे हुए
ऐयाम से नफरत
है मुझे
और
ध्यान रखना, जब
तुम्हें अपने
अतीत से नफरत
हो, तो
तुम्हें अपने
से नफरत हो
जाएगी।
तुम्हारा
अतीत तुम हो।
और ध्यान रखना—
अपनी
बेकार
तमन्नाओं पे
शरमिंदा हूं
और
अगर तुम्हारी
जिंदगी में
पश्चात्ताप
है,
घाव की तरह
शर्म है। जो
किया, जो
करना चाहा, जो करना
चाहते थे न कर
पाए, जो
हुआ—अगर उस सब
के प्रति
शर्मिंदगी है,
तो तुम आज
खिल न सकोगे।
इतना बोझ लिए
कौन फूल कब
खिल पाता है?
अपनी
बेक उम्मीदों
पे नदामत है
मुझे
मेरे
माजी को
अंधेरे में
दबा रहने दो
यही
हम सब करते
हैं,
अतीत को
अंधेरे में
सरकाए जाते
हैं, जैसे
था ही नहीं।
इतना आसान
नहीं छुटकारा।
क्योंकि तुम
अतीत के ही
फैले हुए हाथ
हो। अंधेरे
में किसको
हटाते हो? अपने
को ही हटाते
हो। हटाकर भी
हटाया नहीं जा
सकता। छिपा
सकते हो
ज्यादा से
ज्यादा।
मनोवैज्ञानिक
कहते हैं कि
आदमी ने इसी
हटाने और
छिपाने की
कोशिश में
अपने मन के दो
खंड कर लिए
हैं एक चेतन
और एक अचेतन।
अचेतन यानी
अंधेरे में
हटाया हुआ।
हम
सरकाए चले
जाते हैं।
जैसे घर में
इंतजाम कर
लेते हैं लोग, कुडा—करकट
इकट्ठा करने
की एक जगह बना
लेते हैं, व्यर्थ
की चीजों को
एक कमरे में
फेंकते चले जाते
हैं। उस कमरे
में जीते नहीं।
ऐसा ही मन में
भी हमने किया
है। जो—जो
व्यर्थ है, उसे फेंकते
चले जाते हैं।
और करीब—करीब
व्यर्थ ही
व्यर्थ है।
ढेर बढ़ता चला
जाता है। अपने
ही घर में
रहने की जगह
नहीं रह जाती।
अपने ही घर
में तुम्हें
घर के बाहर
रहना पड़ता है।
घर तो भरा है
कूड़ा—करकट से।
मेरे
माजी को
अंधेरे में
दबा रहने दो
मेरा
माजी मेरी
जिल्लत के
सिवा कुछ भी
नहीं
तुमने
कभी गौर किया? अतीत
को अगर तुम
खोलकर रखो
किताब की तरह
तो हजार—हजार
आंसू रोओगे।
कहीं भी सकून
न मिलेगा।
कहीं भी तुम
छाया न पाओगे,
जहा दो क्षण
को विश्राम कर
लो। जलते हुए
मरुस्थल
पाओगे।
मेरी
उम्मीदों का
हासिल मेरी
काविश का सिला
एक
बेनाम अजीयत
के सिवा कुछ
भी नहीं
एक
व्यर्थ की दौड़—धूप
थी,
एक आपाधापी
थी। जिसमें
किया बहुत, पाया कुछ भी
नहीं। अब करना
क्या है? क्या
किया जा सकता
है?
इसे
छिपाओ मत अपने
से। इससे
भयभीत भी मत
होओ। वस्तुत:
इसे गौर से
देखो। इसका
ठीक से
विश्लेषण करो।
इसके साक्षी
बनो। क्योंकि
इसको तुम ठीक
से देखोगे तो
तुम्हारा वर्तमान
बदलेगा।
भूलें
दोहरती हैं, क्योंकि
तुम उन्हें
गौर से नहीं
देखते। भूलें
बार—बार
दोहरती चली
जाती हैं। तुम
वही—वही फिर—फिर
करते हो, क्योंकि
तुम पाठ नहीं
लेते।
अतीत
पाठशाला है।
उससे अगर एक
समझ तुम्हारे
जीवन में आ
जाए तो सब आ
गया,
तो जीवन का
अर्थ पूरा हुआ।
वह समझ यह है
कि अपने को
दुख देना ही
संभव है, दूसरे
को दुख देना
संभव नहीं है।
और जब भी
तुमने सोचा, दूसरे को
दुख दे रहे
हैं, तब
तुमने अपने ही
दुख के बीज
बोए। दूसरे के
साथ कुछ भी
करना संभव
नहीं है।
इसलिए जब
तुमने यह
व्यर्थ की आशा
बांधी कि दूसरे
के साथ तुम
कुछ कर रहे हो,
दूसरे को
सता रहे हो, दूसरे को
मिटा रहे हो, तब तुमने
अनजाने अपने
को ही मिटाया।
तुम्हारे
क्रोध में
तुम्हीं जले।
तुम्हारी
घृणा में
तुमने अपने
भीतर ही घाव
बनाए।
तुम्हारी
ईर्ष्या में
तुमने अपनी ही
चिता की लकड़ियां
सजायी। लेकिन
आदमी ऐसा है!
मैंने
सुना है, एक
भक्त बहुत
दिनों तक
भगवान की
प्रार्थना करता
रहा। कहते हैं
भगवान
प्रसन्न हुए
और उन्होंने
उसे वरदान
दिया कि तू जो
भी मांगेगा, जब भी मांगेगा,
तत्क्षण
पूरा हो जाएगा।
लेकिन जितना
तुझे मिलेगा
उससे दुगुना
तेरे पड़ोसियों
को मिल जाएगा।
सब
बात ही खराब
कर दी। दिल
बैठ गया भक्त
का! क्योंकि
आदमी बड़ा मकान
चाहता है, सिर्फ
इसीलिए कि
पड़ोसियों के
मकान छोटे कर
दे। मांगा, लेकिन अब
कोई रस न रहा।
कहा, सात
मंजिल का मकान
हो जाए, हो
गया। लेकिन
बाहर [rनकलने
की हिम्मत न
पड़े भक्त की, क्योंकि बगल
के मकान चौदह
मंजिल के हो
गए। सारा गांव
चौदह मंजिल का
हो गया। यह
कोई वरदान हुआ?
भक्त सोचने
लगा—यह तो
अभिशाप हो गया
है। इससे तो
हम अपनी तरह
से ही कर लेते,
वही ठीक था।
यह व्यर्थ गई
प्रार्थना।
इसे
समझना। आदमी
और भगवान के
नियमों में
बड़ा फर्क है।
तुम जो मांगते
हो,
मिल जाएगा।
लेकिन भगवान
एक शर्त उसमें
लगा देगा, और
वही शर्त
तुम्हारी
मांगों को
व्यर्थ कर जाएगी।
क्योंकि
तुमने मांगे
ही गलत कारणों
से थे। लाखों
रुपए मांगे, मिल गए; हीरे—जवाहरात
मांगे, मिल
गए; लेकिन
पड़ोस में
दोहरी वर्षा
हो गई हीरे—जवाहरातों
की।
तुम
सोचो उस भक्त
की मुश्किल।
उसकी जगह अपने
को रखकर देखो।
आखिर उससे न
रहा गया। उसने
कहा,
मेरे मकान
के सामने चार
कुएं बना दे।
उसके मकान के
सामने चार
कुएं बन गए, पड़ोसियों के
मकान के सामने
आठ—आठ कुएं बन
गए। निकलने की
जगह ही न रही।
उसने कहा, हे
भगवान! अब
मेरी एक आख
फोड़ दे। उसकी
एक आंख फूट गई,
पड़ोसियों
की दोनों आंखें
फूट गयीं। आठ—आठ
कुएं! अंधा
पूरा गांव। वह
राजा हो गया।
लोग गिरने लगे
कुओं में, मरने
लगे। उसकी
खुशी वापस लौट
आई।
लेकिन
ध्यान रखना, जब
दूसरे की दो आंखें
फोड़नी हों तो
पहले अपनी एक
तो कम से कम
फोड़ ही लेनी
पड़ती है। और
इस कहानी में
कहीं भूल हो
गई है, क्योंकि
मेरे जाने
मामला ठीक
उलटा है पड़ोसी
की एक फोड़नी
हो तो अपनी दो
फूट जाती हैं।
दूसरे
को दुख देने
की अकांक्षा
में ही तुमने
पाप किया है।
दूसरे को दुख
देकर सुख पाने
की आकांक्षा
में ही तुमने
पाप के बीज
बोए हैं। अब
उन्हें छिपाओ
मत। अब उन्हें
उघाड़ो। अब
उन्हें खुली आंख
के सामने रखो।
उनके साक्षी
बनो।
अपनी
पूरी जिंदगी
को शास्त्र
समझो; उसमें
ही सारा सार
छिपा है। और
अगर तुमने
अपनी भूलें
ठीक से देख
लीं, तो
तुम्हें कहीं
और सीखने जाना
न पड़ेगा।
तुम्हारा
गुरु
तुम्हारे जीवन
में छिपा है; वहीं से
तुम्हें बोध
की किरण
मिलेगी; वहीं
से तुम्हारे
जीवन में क्रांति
शुरू हो जाएगी।
अब
ध्यान रखना कि
भूल दूसरी मत
कर लेना। अब
तक दूसरों को
दुख देने की
भूल की थी; अब
कहीं यह मत कर
लेना दूसरी
भूल कि अब तक
दूसरों को दुख
दिया, अब
दूसरों को सुख
दूंगा। यही
भूल धार्मिक
लोग कर रहे
हैं।
मेरी
शिक्षा
बिलकुल भिन्न
है। मैं कहता
हूं?
तुमने पहले
भी भूल की थी
दूसरों को दुख
देने की, वह
दुख देने की
भूल न थी—दूसरों
को देने की थी।
अब भी तुम वही
भूल दोहरा रहे
हो—अब तुम
दूसरों को सुख
देना चाहते हो।
बहुत
से लोग दूसरों
को सुख देने
में ही जीवन
गंवा देते हैं।
कौन किसको सुख
दे पाया? कौन
कैसे किसी को
सुख दे सकता
है? सुख तो
साक्षी— भाव
से आता है।
तुम दूसरे को
कैसे साक्षी
बना सकते हो? तुम साक्षी
बन सकते हो, दूसरा भी बन
सकता है।
लेकिन कोई
किसी को
साक्षी कैसे
बना सकता है?
तो
दूसरे से
छुटकारा
पुण्य है।
अब
हम बुद्ध के
सूत्र को
समझें।
'वह
काम शुभ नहीं,
जिसे करके
पीछे मनुष्य
को पछताना पड़े
और जिसके फल
को आंसू बहाते
और विलाप करते
हुए भोगना पड़े।'
वह
काम शुभ नहीं!
कसौटी? ——जिसको
करके पीछे
पछताना पड़े।
तो
जिन—जिन कर्मों
को करके तुम
पीछे पछताए हो, कृपा
करो, आगे
अब उन्हें मत
करो। यद्यपि
तकलीफ यही है
कि पाप का पता
पीछे से चलता
है; जब हो
जाता है तब
पता चलता है; पहले से पता
नहीं चलता।
पहले से पता
चलने का कोई
कारण भी नहीं
है। काटा जब
चुभेगा तभी तो
पीड़ा होगी। जब
तक चुभे न, पीड़ा
कैसे होगी? हाथ जब आग
में डालोगे
तभी तो जलेगा;
हाथ डालोगे
ही नहीं तो
जलेगा कैसे? माना, इसलिए
थोड़े—बहुत पाप
करने की
संभावना सभी
के लिए है।
लेकिन उसी आग
में बार—बार
हाथ डालने का
कोई कारण समझ
में नहीं आता।
एक बार समझ
में आता है, दो बार समझ
में आता है, तीन बार समझ
में आता है।
एक बार कांटा
चुभ जाता है; परिचय न था, पहचान न थी, दूसरी बार
चुभ जाता है, क्योंकि
काटे का रंग—ढंग
अलग था। तीसरी
बार चुभ जाता
है। लेकिन
कितनी बार? रग—ढंग अलग
हो, कांटा
तो कांटा है।
लेकिन
हम जीवन से
सीखते ही नहीं।
जीवन में सबसे
बड़ा जो
चमत्कार
दिखाई है, वह
यही है कि कोई
जीवन से सीखता
मालूम नहीं होता।
इसीलिए तो
हमें इतने—इतने
सीखने के लिए
प्रयास करने
पड़ते हैं। और
जब तुम जीवन
से ही नहीं
सीख पाते तो
और कहां सीख
पाओगे? जीवन
से बड़ा गुरु
कहां पाओगे? जीवन से बड़ा
विद्यापीठ कहां
मिलेगा? अगर
वहां चूक जाते
हो तो तुम
कहीं और अब
जाओ, चूकते
ही रहोगे।
जीवन तुम्हें
न सिखा पाया
तो और तुम्हें
कौन सिखा
पाएगा? तुम
और किसी की
तलाश कर रहे
हो, जब कि
गुरु
तुम्हारे
प्रत्येक क्षण
में और
प्रत्येक पल
में मौजूद है!
अपने कृत्यों
की जरा जांच
करते रहो।
बुद्ध
कहते हैं, 'वह
काम शुभ नहीं,
जिसे करके
पीछे मनुष्य
को पछताना पड़े
और जिसके फल
को आंसू बहाते
और विलाप करते
हुए भोगना पड़े।
'
खुद
अपने ही हाथों
से ऐ हमनफस
चमन
का चमन खाते—खस
बन गया
अपने
ही हाथों से
जहां फूल ही
फूल हो सकते
थे,
जहां
फुलवारी हो सकती
थी, वहां
सिर्फ घास—पात
और काटे ही
काटे उगते
मालूम पड़ते
हैं।
खुद
अपने ही हाथों
से ऐ हमनफस
चमन
का चमन खाते—खस
का गया
पर
कुछ बिगड़ नहीं
गया है। जब
जागे तभी
सबेरा। पर
जागरण का अर्थ
होता है : जो अब
तक किया है, उससे
कुछ सीख लो।
बुद्ध
का जो मूल
सूत्र है, उसमें
एक और खूबी है,
जो अनुवाद
में नहीं है।
अनुवादों में
बहुत बार बहुत
कुछ खो जाता
है।
अनुवादकों को
पता भी नहीं
होता, क्योंकि
अनुवाद
शब्दशः किए
जाते हैं।
लेकिन बुद्ध
जैसे व्यक्ति
जब कुछ बोलते
हैं तो उनके
एक—एक शब्द का
कुछ मूल्य
होता है। और
जब अनुवादक अनुवाद
करते हैं तो
भाषा कोश से
ज्यादा उनकी
पहुंच नहीं
होती, जीवन
के कोश तक
उनकी पहुंच
नहीं होती।
बुद्ध
का वचन है 'साधु'—शुभ नहीं।
न
तं कम्म कत
साधु....।
वह
काम 'साधु' नहीं।
वह जरा उलटा
लगता है हिंदी
में, इसलिए
शुभ अनुवाद
करने वालों ने
किया है।
'वह
काम साधु नहीं,
जिसे करके
पीछे मनुष्य
को पछताना पड़े।
'
अब
थोड़ा समझने की
कोशिश करना।
जब हम कहते
हैं शुभ तो
जोर कर्म पर
हो जाता है, और
जब हम कहते
हैं साधु तो
जोर होने पर
हो जाता है।
तुम असाधु
रहकर भी एक
कर्म शुभ कर
सकते हो। चोर
भी दान दे
सकता है, चोर
ही देते हैं।
क्योंकि दान
देने के लिए
लाओगे कहां से?
असाधु भी
शुभ कृत्य कर
सकता है, इसमें
कोई अड़चन नहीं।
हत्यारा भी
मंदिर बना
सकता है।
कृत्य तो
तुम्हारे
होने के
विपरीत भी हो
सकता है।
इसलिए
बुद्ध का शब्द
बड़ा बहुमूल्य
है। वे कहते
हैं,
साधु; शुभ
नहीं। वे कहते
हैं, एक कृत्य
कर लिया अच्छा,
इससे क्या
होगा? अच्छा
होना चाहिए
तुम्हें भीतर।
कृत्यों का
हिसाब मत रखो,
होने का
हिसाब रखो।
तुम्हारा
होने का ढंग
पुण्य रूप हो।
तुम्हारे
कर्मों की
चिंता नहीं है
कि तुम अच्छे
कर्म करो—तुम
अच्छे हो जाओ।
जब तक तुम शुभ
कर्म करते हो,
तब तक जरूरी
नहीं है कि
तुम शुभ हो गए
हो।
अक्सर
तो ऐसा होता
है कि आदमी
भीतर अशुभ
होता है,
ढांकने के लिए
शुभ कर्म करता
है। पापी
तीर्थयात्रा
को जाते हैं।
और कोई जाएगा
भी क्यों? धोखेबाज,
बेईमान
मंदिरों—मस्जिदों
में
प्रार्थना
करते हैं। और
कोई करेगा भी
क्यों?
हम
जो भीतर हैं, उससे
हम डरते हैं, तो उससे
विपरीत का
आवरण ओढ़ते है।
भीतर जितनी
कालिख होती है,
उतने हम
शुभ्र
वस्त्रों में
उसे ढांकते
हैं। भीतर
जितनी दीनता
होती है, उतने
कीमती
वस्त्रों में
हम उसे ढांकते
हैं। किसी को
पता न चल जाए
भीतर की
दरिद्रता।
भीतर पतझर हो,
तो हम बाहर
उधार वसंत की
अफवाह फैला
देते हैं।
तुम
लोगों को गौर
से देखना।
अक्सर तुम
पाओगे : वे जो
करते हैं, उससे
ठीक उलटे हैं।
करना उनकी
होशियारी का
हिस्सा है।
राम—राम जपते
हैं, क्योंकि
काम उन्हें
ऐसे करने हैं
कि जब तक वे राम—राम
न जपें तब तक
पर्दा न पड़ेगा।
पर्दा डालते
हैं। पर्दे के
पीछे सारा खेल
चलता है।
बुद्ध
का शब्द बड़ा
महत्वपूर्ण
है। वे यह
नहीं कहते कि
तुम शुभ कर्म
करो,
वे कहते हैं,
तुम साधु हो
जाओ। कर्म तो
अपने से सुधर
जाएंगे, तुम
साधु हो जाओ।
तुम्हारा
होना शुभ हो, फिर तुम
चिंता मत करो।
और
यह समझने की
बात है कि अगर
असाधु शुभ
कर्म भी करे
तो भी परिणाम
अशुभ ही होगा।
साधु अशुभ
कर्म कर ही
नहीं सकता, लेकिन
ऐसा हो सकता
है कि तुम्हें
अशुभ लगे, लेकिन
अशुभ हो नहीं
सकता।
साधु
का अर्थ ही यह
है कि उसके
कृत्य छिपाने
के लिए नहीं, उसके
कृत्य ढांकने
के लिए नहीं, उसके कृत्य
पाखंड नहीं
हैं—उसके
कृत्य उसकी
भीतर की
समस्वरता से
पैदा होते हैं।
अगर वह मंदिर
बनाता है तो
गांव में
अफवाह फैला
देने के लिए
नहीं कि मैं
धार्मिक हूं।
वह मंदिर
बनाता है, क्योंकि
मंदिर बनाने
में उसे आनंद
आता है। इससे
किसी और का
लेना—देना
नहीं। मंदिर
बनाता है, क्योंकि
मंदिर बनाने
में ही उसके
भीतर एक तृप्ति,
एक चैन, एक
आनंद का
महोत्सव होता
है।
आज
की सुबह मेरे
कैफ का अंदाज
न कर
दिले—वीरा
में अजब
अंजुमन आराई
है
ये
जमीं खित्त—ए—फिरदौस
को शर्माने
लगी
गुले—अफसुर्दा
से नौखेज महक
आने लगी
आज
की सुबह शबहाए—तमन्ना
की सहर
आज
की सुबह मेरे
कैफ का अंदाज
न कर
जब
किसी के जीवन
में आनंद
उतरता है—कृत्य
की तरह नहीं, अस्तित्व
की तरह..।
आज
की सुबह मेरे
कैफ का अंदाज
न कर
फिर
तुम अनुमान न
कर सकोगे उसकी
सुबह का! फिर उसके
भीतर जो सूरज
उगा है, तुम
उसकी कल्पना
भी न कर सकोगे।
आज
की सुबह मेरे
कैफ का अंदाज
न कर
फिर
उसकी मस्ती का
तुम हिसाब न
लगा सकोगे।
उसके भीतर एक
सागर लहराता
है,
और तुम्हें
बूंदों का भी
पता नहीं।
कैसे तुम
अंदाज करोगे?
कैसे तुम
अनुमान लगाओगे?
आज
की सुबह मेरे
कैफ का अंदाज
न कर
दिले—वीरा
में अजब अंजुमन
आराई है
कल
तक जो उजाड़
रेगिस्तान था
हृदय का, वहा
एक महोत्सव
उतर आया है।
दिले—वीरा
में अजब
अंजुमन आराई
है
जिसको
उतरता है, वह
भी चकित रह
जाता है। वह
भी भरोसा नहीं
कर पाता कि यह
क्या हो रहा
है!
दिले—वीरा
में अजब
अंजुमन आराई
है
कोई
महोत्सव उतर आया!
जहा कभी कोई
आवाज न उठी थी, वहां
कोई गीत गूंजने
लगा। जहां दूर—दूर
तक सूखे
रेगिस्तान थे,
वहा
हरियाली उमग
आई।
आज
की सुबह मेरे
कैफ का अंदाज
न कर
दिले—वीरा
में अजब
अंजुमन आराई
है
ये
जमीं खित्त—ए—फिरदौस
को शर्माने
लगी
यह
जमीन स्वर्ग
को शर्माने
लगी। स्वर्ग झेंपा—झेंपा
है! स्वर्ग
ईर्ष्या से भर
गया है! जिसके
भीतर साधुता
आई उसके लिए
जमीन स्वर्ग
हो गई, उसके
लिए यही क्षण
परम क्षण हो
गया।
ये
जमीं खित्त—ए—फिरदौस
को शर्माने
लगी
गुले—अफसुर्दा
से नौखेज महक
आने लगी
और
जिसे सोचा था
कि कुम्हला
गया,
सूख गया फूल
है, उससे
नई महक आने
लगी! नव—जन्म
हुआ!
पुनर्जन्म
हुआ!
आज
की सुबह शबहाए—तमन्ना
की सहर
और
जिसकी अब तक
प्रतीक्षा की
थी—प्रतीक्षा
ही प्रतीक्षा
की थी—वह सुबह
आ गई। रात गई, सुबह
हुई!
आज
की सुबह मेरे
कैफ का अंदाज
न कर
ऐसे
अपूर्व
महोत्सव से
कोई मंदिर बनाता
है। ऐसे
अपूर्व
महोत्सव से
कोई पूजा करता
है। ऐसे
अपूर्व
महोत्सव से
कोई किसी की
सेवा करता है।
ऐसे अपूर्व
महोत्सव से
भीतर जो सुगंध
आई,
कोई बांटने
निकल पड़ता है।
लेकिन
ध्यान रखना, दूसरे
पर नजर नहीं
है। अब भीतर
किरण फूटी है,
करोगे भी
क्या? बांटोगे
न तो करोगे
क्या? भीतर
गंध भर गई है, बिखेरोगे न
तो करोगे क्या?
भीतर मेघ भर
गया है, बरसोगे
न तो करोगे
क्या?
आज
की सुबह मेरे
कैफ का अंदाज
न कर
दिले—वीरा
में अजब
अंजुमन आराई
है
इस
महोत्सव को, इस
पुण्य की घड़ी
को बुद्ध ने 'साधु' कहा
है। अनुवाद
चूक जाता है
बात को।
अनुवाद तो ठीक
है वह काम शुभ
नहीं।
काम
का सवाल ही
नहीं है, तुम्हारा
सवाल है। यह
काम की चिता
के कारण ही तो
सब उपद्रव हुआ
है। तो लोग
सोचते हैं, अच्छा काम
करेंगे तो
अच्छे हो
जाएंगे। गलत!
बात उलटी है :
अच्छे हो
जाओगे तो
अच्छे काम होंगे।
काम भीतर से
आते हैं।
इस
खयाल ने
कितनों को
भरमाया है, कितनों
को भटकाया है,
कितना
भटकाया है, कि अच्छे
काम कर लेंगे
तो अच्छे हो
जाएंगे। तो
फिर हम ऊपर से
अपने को
सुधारते चले
जाते हैं। झूठ
नहीं बोलते, इसकी कसम ले
लेते हैं। झूठ
भीतर रह जाता
है, हम ऊपर
सच बोलने लगते
हैं। झूठ भीतर
रह जाता है।
अहिंसा का
व्रत ले लेते
हैं, हिंसा
भीतर भरी रह
जाती है।
एक
जैन मुनि हुए।
बड़े प्रसिद्ध
मुनि थे। नाम
था शीतल
प्रसाद। आगरा
उनका आगमन हुआ।
आगरा में एक
कवि रहते थे, बनारसी
दास। वे उनके
दर्शन को गए।
कवि थे, मस्त
आदमी थे! पूछा
कि महाराज, आपका नाम
जान सकता हूं?
उन्होंने
कहा, मेरा
नाम शीतल
प्रसाद है।
फिर
कुछ बात चलने
लगी। कवि जरा
भुलक्कड़
स्वभाव के थे।
थोड़ी देर बाद
भूल गए।
उन्होंने कहा, महाराज!
आपका नाम जान
सकता हूं?
मुनि
थोड़े नाराज
हुए। कहा, कह
दिया : शीतल
प्रसाद! फिर
थोड़ी बात चली।
कवि फिर भूल
गए। वे जरा
भुलक्कड़ थे।
उन्होंने
पूछा, महाराज!
आपका नाम जान
सकता हूं? तो
शीतल प्रसाद
ने डंडा उठा
लिया और कहा
कि मूरख!
कितनी बार
बताया कि शीतल
प्रसाद! कवि
ने कहा, महाराज!
ज्वाला
प्रसाद होता
तो ठीक था।
शीतल प्रसाद
जमता नहीं।
ऊपर
से ढांक लोगे, भीतर
न हो जाएगा।
भीतर ज्वाला
ही रहेगी, ऊपर
से तुम कितने
ही शीतल
प्रसाद हो जाओ।
नहीं, अहिंसा
को ऊपर से मत
थोपना, न
सत्य को ऊपर
से ओढ़ना। यह
कोई राम—नाम
की चदरिया
नहीं है कि ओढ़
ली और भक्त हो
गए। तुम वही
करते रहोगे।
जो तुम कल
हिंसा के नाम
से करते थे, वही तुम
अहिंसा के नाम
से करते रहोगे।
तुम्हें कुछ
और आता ही
नहीं। तो
तुम्हारी
अहिंसा भी
हिंसा का
माध्यम बन जाएगी।
तुम जरा देखो,
घर में एकाध
आदमी धार्मिक
हो जाए
दुर्भाग्य से
तो सारे घर को
सिर पर उठा
लेता है।
एक
महिला मेरे
पास आती थी, उसने
कहा कि मेरे
पति को किसी
तरह समझाइये,
वे धार्मिक
हो गए हैं।
मैंने कहा, इसमें क्या
अड़चन है? कहा,
वे दो बजे
रात उठकर
जपुजी का जोर—जोर
से पाठ करते
हैं। सरदार
हैं। दो बजे
रात! और सरदार!
और जपुजी का
पाठ! मैंने कहा,
बात तो अड़चन
की हो गई। तुम
उनको लेकर आना।
मैंने
उनसे पूछा—वे
बड़े प्रसन्न
थे—उन्होंने
कहा,
भोर सुबह
पाठ करता हूं
जपुजी का, इसमें
क्या खराबी है?
मैंने कहा,
दो बजे रात
को तुम सुबह
कहते हो? अंग्रेजी
हिसाब से ठीक
ही कहते हैं; बारह बजे के
बाद सुबह शुरू
हो जाती है।
मैंने कहा, अगर धीरे—धीरे
पढ़ो तो कुछ
हर्जा है? उन्होंने
कहा, मजा
ही नहीं आता।
पर मैंने कहा,
ये बच्चे और
पत्नी और
पड़ोसी, इनका
भी कुछ खयाल
करो! वे बोले, इनको क्या
हानि है? ये
भी उठ जाएं।
और इनको सोए—सोए
भी अगर जपुजी
का अमृत—वचन
इनके कान में
पड़ जाता है, तो लाभ ही है।
अब
यह हिंसा है।
यह जपुजी का
पाठ नहीं।
इससे तो यह
सुबह उठकर
फिल्मी गाना
गुनगुनाता तो
भी अहिंसा
होती। अब
जपुजी का यह
पाठ न हुआ। यह
तो कोई भीतरी
पागलपन है। और
रस यह यही ले
रहा है और
इसने ढंग ऐसा
चुना है धार्मिक, कि
कोई एतराज भी
नहीं कर सकता।
उसकी
पत्नी कहने
लगी,
हम जिनसे
कहते हैं, वे
यही कहते हैं
कि भई, यह
तो धार्मिक बात
है, अब
इसमें क्या
करें? साधु—संतों
के पास ले
जाते हैं, वे
कहते हैं, यह
तो ठीक ही कर
रहे हैं।
बामुश्किल
उनको मैं राजी
कर पाया : चार
बजे,
कम से कम
तुम दो से चार
पर तो उतरो।
वे बड़े दुख से
राजी हुए, जैसे
कि स्वर्ग
खोया जा रहा
है।
बामुश्किल
उनको राजी कर
पाया कि थोड़ा
धीरे, इतने
जोर से मत
चिल्लाओ।
क्योंकि
परमात्मा
बहरा नहीं है,
धीरे—धीरे
भी सुन लेगा।
इनको क्यों
कष्ट दे रहे
हो—बच्चों को,
पत्नी को? मगर उनको
लगता ही नहीं
कि वे कष्ट दे
रहे हैं।
तुम
गौर से देखना, जिनको
तुम धार्मिक
कहते हो, वे
ज्यादा
क्रोधी हो जाते
हैं, ज्यादा
अहंकारी हो
जाते हैं।
छोटा—मोटा शुभ
कृत्य कर लेते
हैं तो उनकी
अकड़ की कोई
सीमा नहीं।
एक
बात खयाल रहे, कि
तुम न बदलोगे
तो कुछ फर्क न
होगा। तुम जो
जानते हो, तुम
जो करते रहे
हो, उसे
दबाने से कुछ
फर्क न पड़ेगा,
वह अपने
विपरीत नाम के
नीचे भी चलता
रहेगा।
मेरे
गांव में एक मुसलमान
रंगरेज था, शायद
अब भी है। कोई
पांच साल पहले
जब मैं गया, तब भी वह
जिंदा था।
बहुत का आदमी
है, सौ के
पार उसकी उस
हो गई है। जब
मैं छोटा था
तब भी वह कोई
सत्तर साल का
था। सामने ही
उसकी दुकान थी।
खुदाबख्श
उसका नाम है।
बड़ा प्यारा
आदमी है! आंखें
कमजोर हैं। तो
मैं उसके
सामने अक्सर
उसकी दुकान पर
बैठा रहता था।
कपड़े उसके
लाना, उसका
रंगने का काम
देखना—मुझे रस
था। एक बात से
मैं बड़ा हैरान
होता कि जब भी
कोई
स्त्रियां
आती, स्त्रियों
का ही आना—जाना
था, ओढ़नी, कपडे, साड़ियां
रंगवाने, तो
कोई कहती कि
इंद्रधनुषी
रंग में रंग
दो, कोई
कहती प्याजी,
कोई कहती कि
मोरपंखी! मगर
वह का कहता कि
मेरी बहू—बेटी
को तो लाल, हरा,
पीला, काला
यही रंग
सोहेगा, वैसे
तुम जो कहो वह
रंग—रंग दें।
यह
मैंने बहुत
बार सुना।
मैंने उससे
पूछा कि बाबा, अब
ये लोग कहते
हैं तो तुम
इसी रंग में
रंग क्यों
नहीं देते? उसने कहा, अब तुमसे
क्या कहें? मुझे दिखाई
पड़ता नहीं। और
चार रंग ही
मुझे रंगने
आते हैं। बहू—बेटियों
से इसका कोई
लेना—देना
नहीं है।
तो
जो भी आये, वह
कहता कि
जंचेगा तो हरा,
मेरी बहू—बेटी
को। वैसे तुम
जो कहो वह रंग
दें। कभी—कभी
मैंने यह भी
देखा कि वह
बहू—बेटी
जिद्द करती, न सुनती के
की; वह
कहती कि नहीं,
तुम तो
प्याजी रंग दो।
तो वह कहता, ठीक है।
लेकिन जब रंग
के आती ओढ़नी, तो हरी, लाल,
पीली..। वह
उतने ही रंग
जानता था। तुम
अगर हिंसा का
रंग ही जानते
हो, तुम
अहिंसा को भी
उसी में रंग
लोगे। तुम अगर
क्रोध का ही
रंग जानते हो,
तुम्हारी
करुणा में भी
क्रोध ही आ
जाएगा। इस
धोखे से बचना।
यह पाखंड बड़े
से बड़ा खतरा
है धार्मिक
यात्रा में।
भीतर
से बदलो तो
बाहर रंग बदल
जाते हैं।
बाहर से रंग
मत बदलना, भीतर
कुछ भी नहीं
बदलता।
क्योंकि भीतर
बलशाली हो तुम।
बाहर तो परिधि
है, कुछ भी
नहीं है।
अंतरात्मा
से आचरण बदले, तो
शुभ, तो
साधु। आचरण से
अंतरात्मा
बदलने की
चेष्टा करो तो
साधु नहीं, शुभ भी नहीं;
साधु और शुभ
होना तो दूर, तुम
बुद्धिमान? भी नहीं।
'वह
काम साधु है
जिसे करके
पीछे पछताना न
पड़े। '
वही
काम शुभ है, जिसे
करके पीछे
मनुष्य को
पछताना न पड़े,
जिसके फल को
प्रसन्न मन से
भोगा जा सके।
पुण्य आनंद का
द्वार है।
जिंदगी
में पहचानते
रहो,
कहां—कहां
से आनंद की
झलक आती है।
उस सभी के जोड़
से तुम जीवन
के ताले को
खोल पाओगे।
जहां से आनंद
की झलक मिले, समझना कि वहीं
से परमात्मा
ने झांका। अगर
तुम अपने सारे
आनंद का निचोड़
कर लो, तो
तुम्हारे हाथ
कुंजी आ जाएगी।
वेद खोजने से
न मिलेगी, उपनिषद
तलाशने से न
मिलेगी—जीवन
को पहचानने से,
खुली आख
रखने से!
और
ऊपर देखकर
धोखे में मत
पड़ जाना।
लोगों की
मुस्कुराहटें
देखकर मत सोच
लेना कि वे
प्रसन्न हैं।
अक्सर तो लोग
आंसुओ को
छिपाने के लिए
मुस्कुराए
चले जाते हैं।
डर लगता है कि
अगर न हंसे तो
कहीं आंसू न आ
जाएं।
तुमने
देखा, तुम भी
जब घर के बाहर
जाते हो, कैसे
सज—धजकर, टीम—टाम
करके! घर बैठे
रो रहे थे, उदास
थे, बाहर ऐसे
निकलते हो
जैसे बहार आ
गई! पति—पत्नी
लड़ रहे हों, कोई तीसरा
घर में आ जाए, एकदम
रामराज्य
स्थापित हो
जाता है। सब
झगड़ा बंद, मुस्कुराने
लगते हैं।
हम
दूसरों को
धोखा दे रहे
हैं।
हर
खिजां के
गुबार में
हमने कारवाने—बहार
देखा है
कितने
पश्मीना पोश
जिस्मों में
रूह को तार—तार
देखा है
पश्मीना
पोश जिस्मों
में रूह को
तार—तार देखा
है! तुम्हारे
वस्त्रों से
कुछ न होगा।
तुम कितने ही
कीमती वस्त्र
ओढ़ लो, तुम्हारी
आत्मा अगर तार—तार
है, खंड—खंड
है, खंडहर
है, तो इन
कीमती
वस्त्रों से
तुम चाहे
संसार को धोखा
दे लो, अपने
को न दे पाओगे।
और परमात्मा
को तो कैसे दे
पाओगे, क्योंकि
वह तो
तुम्हारा
होना ही है।
तुम्हारे
गहरे से गहरे
होने का नाम
परमात्मा है।
तो
इसे जरा जीवन
में खोजते रहो।
बुद्ध
ने जीवन का
विज्ञान दिया
है। ये कोई
मुर्दा
सिद्धात नहीं
हैं कि
तुम्हें दे
दिए और तुमने
मान लिए और पूरे
हो गए। ये कोई
मुर्दा पाठ
नहीं है कि
तुमने कंठस्थ
कर लिए और तुम
तोतों की तरह
दोहराने लगे
और जिंदगी बदल
गई। ये तो
जीवंत 'बातें
हैं। बुद्ध जो
कह रहे हैं, इसलिए तुम
मत मान लेना।
मैं कहता हूं
इसलिए मत मान
लेना।
तुम्हारी
जिंदगी जब कहे
ही, तभी
मानना। और
इतना पक्का है
कि अगर तुम
जिंदगी
खोजोगे तो
कहेगी, ही।
क्योंकि जब
बुद्धों ने
खोजी, यही
पाया।
जिंदगी
अलग—अलग नहीं
है। जिंदगी का
सार एक।
जिंदगी का
नियम एक। एस
धम्मो सनंतनो!
तुम
सभी को एक ही
जिंदगी
सम्हाले हुए
है।
जिन्होंने
खोजा, उन्होंने
यही पाया। तुम
भी खोजोगे तो
यही पाओगे।
और
जिस व्यक्ति
को एक बार
पुण्य की खबर
मिल जाए, जिसको
एक बार
यह
समझ में आ जाए
कि मेरे ही
हाथ में है कि
मेरी जिंदगी
चमन हो कि
खाते—खस हो
जाए,
फिर—फिर
उसके जीवन में
कभी खिजां
नहीं आती, फिर
कभी पतझड़ नहीं
आता। फिर उसकी
जिंदगी सदा ही
वसंत है।
रिंद
हूं कब दूसरे
का आसरा रखता
हूं मैं
आंख
में सागर नजर
में मैकदा
रखता हूं मैं
और
फिर तो उसकी
आख में सागर
है,
नजर में
मधुशाला है।
फिर तो उसका
जीवन ही मधु
से ओतप्रोत
है! फिर उसे
कहीं और कुछ
खोजने की
जरूरत नहीं, उसके पास ही
सब कुछ है।
रिंद
हूं कब दूसरे
का आसरा रखता
हूं मैं
फिर
वह किसी के
आसरे की बात
नहीं रखता।
फिर उसकी
जिंदगी किसी
पर निर्भर
नहीं। न उसका
सुख किसी पर
निर्भर है, न
उसकी शाति
किसी पर
निर्भर है। वह
पहली दफा अपने
पैरों पर खड़ा
होता है, जिसे
आनंद की कुंजी
का खयाल आ
जाता है। और
कुंजी
तुम्हारे
चारों तरफ
मौजूद है; जरा
बटोरना है, टुकड़ों—टुकड़ों
में पड़ी है।
जरा जमाना है।
बहुत कठिन
नहीं है। कठिन
है ही नहीं।
तुम चाहो तो
आज जम जाए।
तुमने
ही अगर दुख
में कुछ अपने
को भुलाने की
तरकीब बना रखी
हो,
तुमने अगर
तय ही कर रखा
हो दुख में
रहने का, तब
बात अलग। आनंद
की घड़ी में
तुमने—अगर कभी
भी, क्षणभर
को भी ऐसी घड़ी
आई हो, क्षणभर
को भी ऐसी
रोशनी चमकी हो—तो
तुमने एक बात
पाई होगी कि
आनंद की घड़ी
में तुम नहीं
होते, आनंद
होता है। दुख
की घड़ी में
तुम होते हो, और दुख होता
है।
दुख
द्वंद्व है।
आनंद
निर्द्वंद्व
है।
फिर
से मुझे कहने
दो,
दुख की घड़ी
में तुम होते
हो और दुख
होता है—दो
होते हैं।
इसीलिए तो
आदमी दुख से
हटना चाहता है,
मुक्त होना
चाहता है। दुख
घेरता है
दीवाल की तरह,
कारागृह
बनता है। आनंद
की घड़ी में
तुम नहीं होते।
ऐसा नहीं होता
कि तुम होते
हो और आनंद
होता है। तुम
होते ही नहीं,
बस आनंद
होता है। जहां
तुम नहीं हो
वहीं आनंद है।
जहां तुम हो
वहीं दुख है।
तो
सारे पापों का
जोड़ अहंकार है
और सार पुण्यों
का जोड़
निरहंकार है।
कैफे—खुदी
ने मौज को
किश्ती बना
दिया
फिक्रे—खुदा
है अब न गमे—नाखुदा
मुझे
और
जब एक दफा तुम्हें
आनंद की झलक
मिल गई, और
साथ में झलक
मिल गई अपने न
होने की—जो
साथ ही साथ
घटती हैं, एक
ही सिक्के के 'दो पहलू हैं;
इधर आनंद, उधर तुम
नहीं—जिसको
आनंद में झलक
मिल गई अपने न
होने की...।
कैफे—खुदी ने
मौज को किश्ती
बना दिया
फिर
अलग से
किश्तियों की
जरूरत नहीं
होती, लहरें
ही नावें बन
जाती हैं।
फिक्रे—खुदा
है अब
और
न तब फिर
ईश्वर की कोई
चिंता रह जाती
है।
न
गमे—नाखुदा
मुझे
न
इस बात का कोई
दुख होता है
कि माझी साथ
नहीं। लहर ही
जब नाव बन। झप, लहर
ही जब ले जाने
लगी उस पार, जब डूबने को
कोई बचा ही
नहीं, तुम मिट
ल। गए तो
डूबने का डर
क्या! मांझी
की जरूरत क्या!
तुम
परमात्मा के
द्वार पर बार—बार
रोए हो जाकर—दुखों
के कारण।
परमात्मा की
तुम्हें
जरूरत पड़ती है—दुखों
के कारण। अब
यह बड़े मजे की
बात है। दुख
के कारण तुम
हो—अहंकार; और
दुख के कारण
ही तुम्हारा
परमात्मा है।
इधर दुख गए, तुम भी गए, परमात्मा भी
गया।
इसलिए
तो बुद्ध ने
परमात्मा की
कोई बात नहीं
की,
चर्चा ही न
उठाई।
कैफे—खुदी
ने मौज को
किश्ती बना
दिया
फिक्रे—खुदा
है अब न गमे—नाखुदा
मुझे
'जब
तक पाप पक नही
जाता, तब
तक मूढ़ उसे
मधु के समान
मीठा समझता है।
लेकिन जब पाप
पक जाता है, तब मूढ़ दुख
को प्राप्त
होता है।
स्वभावत:, जब
तुम बीज बोते
हो, तब
फलों का स्वाद
कैसे आए? बीज
में तो स्वाद
नहीं। बीज में
तो फलों की
कोई गंध भी
नहीं। नीम के
बीज बोते हो, निमोली बीते
हो, फिर
वृक्ष खड़ा
होता है, समय
लगता है, फिर
कडुवे फल आते
हैं। जहर निकर
आती है नीम, पत्ती—पत्ती
में जहर लेकर
आती है। तब
तुम घबड़ाते हो।
तब तम
चिल्लाते हो,
रोते हो। तब
तुम यह भूल ही गए
होते हो कि यह
बीज तुमने ही
बोया था। तब
कभी तुम कहते
हो, यह
भाग्य ने क्या
दिखाया! कभी
तुम कहते हो, परमात्मा!
तू क्यों
मुझ पर नाखुश
है? कभी
तुम कहते हो, यह समाज, यह
दुनिया, दुख
दे रही है।
तुम हजार
तरकीबें करते
हो किसी और पर
दायित्व फेंक
देने की। और एक
सीधी सी बात
नहीं देखते कि
तुमने बीज
बोया था।
और
मैं तुमसे
कहता हूं? कि
तुम्हें जब भी
दुख हो, तो
तुम खोज करना
कि तुमने इसका
बीज कब बोया
था। एक बात तो
पक्की है कि
तुमने बोया था।
इसमें कोई शक—
शुबहा नहीं।
यह तो
सुनिश्चित है
कि तुम्हारा
बोया ही तुम काटते
हो, जैसा
या। हो वैसा
ही काटते हो।
लेकिन
तुम बड़े
होशियार हो!
बोते तुम हो
और जब काटने
का वक्त आता
है, तब तुम
दूसरों को
जिम्मेवार ठहराते
हो।
जिम्मेवारियों
के नाम बदलते
जाते हैं।
अतीत
में,
हजारों साल
पहले आदमी
कहता था, विधि
का विधान। अब
वह बात पुरानी
लगती है, पिटी—पिटाई
लगती है, अब
कोई इसमें
भरोसा नहीं
करता। नई
रोशनी के लोग
कहेंगे, क्या
व्यर्थ की बात
उठाई? विधि
का विधान! कोई
विधि का बिधान
नहीं। लेकिन
उनसे पूछो, क्या है? तो
मार्क्स के
मानने वाले
कहते कि समाज,
अर्थव्यवस्था!
फ्रायड को
मानने वाले
कहते, समाज,
शिक्षा की
व्यवस्था, संस्कार!
ये तो नाम ही
बदले। पुराना
नाम भी कुछ
बुरा न था।
काम तो वही हो
रहा है, हम
जिम्मेवार
नहीं। पहले
विधि—विधान, परमात्मा, भाग्य, किस्मत;
अब इतिहास,
समाज, अर्थशास्त्र,
राजनीति! ये
सिर्फ नाम
बदले हैं, बात
तो वही रही कि
मैं
जिम्मेवार
नहीं। एक बात
सुनिश्चित
रही इन सब में
कि मैं जिम्मेवार
नहीं।
और
धार्मिक
व्यक्ति का
जन्म तभी होता
है,
जब तुम
स्वीकार करते
हो कि मैं
जिम्मेवार
हूं। जिस दिन
तुमने
स्वीकार किया
कि मैं
जिम्मेवार
हूं तुम्हारी
जिंदगी में
क्रांति आई, इंकलाब आया,
अब कोई रोक
न सकेगा।
क्योंकि अब
तुम खुद मालिक
हुए। तुमने
स्वीकार कर
लिया, मैं
जिम्मेवार
हूं? तो
इसका अर्थ हुआ
कि अब तुम
चाहो तो बदल
दो। अतीत को
तो बदलने का
सवाल नहीं, भविष्य बदला
जा सकता है।
और भविष्य बदल
गया तो अतीत
भी बदल जाएगा;
क्योंकि जो
अभी भविष्य है,
कल अतीत हो
जाएगा।
वर्तमान बदला
जा सकता है।
कम से कम अब तो
बीज न बोओ जहर
के।
'जब
तक पाप पक
नहीं जाता, तब तक मूढ़
उसे मधु के
समान मीठा
समझता है। '
समझता
है बस।
मान्यता है
उसकी। और
कितनी बार
आदमी दोहराता
है! चकित होना
पड़ता है! जब
तुम भी कभी
जागोगे तो
हैरान होओगे, तुमने
उन्हीं—उन्हीं
भूलों को
कितना
दोहराया! तुम
कोई ग्रामोफोन
के टूटे
रिकार्ड हो कि
सुई फंस गई और
दोहराए चली जा
रही है एक ही
लकीर।
'यदि
मूढ़ महीने—महीने
कुश की नोक से
भोजन करे तो
भी वह धर्मज्ञों
के सोलहवें
भाग के बराबर
नहीं हो सकता।'
अब
बुद्ध कहते
हैं कि यह भी
तुम्हें समझ
में आ जाए कि
मैं ही
जिम्मेवार
हूं मैंने ही
पाप के बीज
बोए,
और मैंने ही
पाप के फल
काटे और दुख
काटा, और
दुख भोगा—तो
एक खतरा है, वह खतरा यह
है कि कहीं
तुम दूसरी अति
पर न चले जाना।
अभी तक भोगी
थे, पाप के
बीज बोते थे; अब कहीं
त्यागी मत हो
जाना। अति पर
न चले जाना।
बुद्ध
का मार्ग मज्झिम
निकाय है।
बुद्ध ने कहा
है,
मेरा मार्ग
बीच का है, अतियों
से बचाने वाला
है।
भोगी
एक अति पर है, त्यागी
दूसरी अति पर
है। बुद्ध उसे
ही धर्मज्ञ
कहते हैं, जो
मध्य में खड़ा
हुआ, जिसने
अतियां त्याग
दीं।
'यदि
मूढ़ महीने—महीने
कुश की नोक से
भोजन करे...। '
जैसा
कि मूढ़ कर रहे
हैं। कोई
उपवास कर रहा
है,
उपवास के
हिसाब रख रहे
हैं। पहले
भोजन में अति
की थी, उसका
दुख पाया था, अब उपवास
करके दुख पा
रहे हैं। कुछ
ऐसा लगता है
कि दुख पाने
की तुमने
जिद्द ही कर
रखी है। या तो
ज्यादा
खाकर
लोग दुख पाते
हैं,
तो शरीर
बेडौल होता
चला जाता है, बोझ बढ़ता
चला जाता है, जीवन—ऊर्जा
मंद होती चली
जाती है, व्यर्थ
का बोझ ढोते
हैं।
तुम
गरीब आदमी को
बोझ ढोते
देखते हो, तुम्हें
दया आती है।
तुमने अमीर ..,आदमी को बोझ
ढोते नहीं
देखा, क्योंकि
उसके सिर पर
बोझ नहीं है, उसके शरीर
गे है। यह
ज्यादा
खतरनाक बोझ है।
गरीब तो जाकर
थोड़ी दूर इसको
गिरा देगा, यह अमीर
इसको कहीं न
गिरा पाएगा, यह इसको
ढोता ही रहेगा।
यह वजन इसके
भीतर चला गया
है।
तो
एक दफा लोग
ज्यादा खाकर
दुख पाते हैं; फिर
कभी उन्हें
थोड़ा होश आता
है तो दूसरी
अति पर चले
जाते हैं।
इसलिए
एक बड़े मजे की
बात है। तुम
इससे परीक्षा
कर सकते हो।
जिस धर्म पौर
जिस समाज में
ज्यादा भोजन
की सुविधा
होगी, उसमें
उपवास का
महत्व होगा। क्योंकि
एक अति लोग करेंगे
तो दूसरी अति
की जरूरत पड़ेगी।
अब
जैन हैं, इस
देश में
संपन्न से
संपन्न समाज
है उनका; उपवास
की महत्ता है।
गरीब आदमी का
जब धर्म—दिन
आता है तो उस
दिन वह
मिष्ठान
बनवाता है। अमीर
आदमी का जब
धर्म—दिन आता
है तो वह
उपवास करता है।
गरीब आदमी का जब
धर्म—दिन आता
है तो नए कपड़े
खरीद लेता है!
मुसलमान
को देखा ईद
में,
नए कपड़े
पहनकर और—सालभर
न बदले हों
कपड़े, पर
ईद के दिन—खुशी
का दिन है।
जैनियों को
देखा, उनके
जब पर्युषण आते
हैं तो कपड़े—लत्ते
उतारकर साधु—संन्यासी
जैसी चदरिया
ओढ़कर चले
मंदिर की तरफ—उपवास
करना है!
आदमी
अतियों में
डोलता है। भोग
की एक अति है, त्याग
की एक अति है।
लेकिन
तुम्हारी
मूढ़ता अगर
त्याग से ही
मिटती होती तब
तो बड़ा आसान मामला
था—उपवास कर
लेते और
ज्ञानी हो
जाते। मूढ़ता
का क्या संबंध
है उपवास से? मूढ़ता
ऐसे नहीं
टूटती। तुम
अगर मूढ़ हो और
त्यागी हो गए
तो मूढ़ त्यागी,
रहेंगे, बस
इतना ही फर्क
पड़ेगा। पहले
मूढ़ भोगी थे, अब मूढ़
त्यागी हो
जाओगे। मुढ़ता
छोड़ो! त्याग
और भोग का
सवाल नहीं है।
भोगी हो, मूढ़
हो, तो दो
उपाय ते : या तो
भोग को बदलकर
त्याग कर दो, मूढ़ तुम
भीतर रहोगे।
मैने
बहुत त्यागी
देखे, लेकिन
बुद्धिमान
मुझे नहीं कोई
दिखाई पड़ा।
ठीक वैसे ही
मूढ़ मिले।
जैसे मूढ़
बाजार में
बैठे हैं वैसे
ही मूढ़ मंदिर
में बैठे हैं।
वही के वही है,
कुछ फर्क
नहीं हुआ है।
एक अति से
दूसरी अति पर
चले गए हैं।
असली
क्रांति भोग
को त्याग में
बदलने में
नहीं है, मूढ़ता
को बोध में
बदलने।। है।
इसे मैं फिर
से तुमसे कह
दूं। अगर तुम
भोग में खड़े
हो तो दो
स्थितियां है
तुम मूढ़ हो और
भोग में खड़े
हो; मूढ़ न
होते तो भोग
में खड़े ही
क्यों ह। से —अब
तुम्हारे लिए
दो उपाय हैं।
एक बिलकुल
सुगम है कि
भोग को छोड़ दो, त्यागी हो
जाओ। अब तक
स्त्रियों के
पीछे भागे थे,
अब
स्त्रियों से
भागने लगो—मगर
भागो! इधर
नहीं तो उधर, लेकिन भाग—दौड़
जारी रखो। अभी
तक धन के लिए
दीवाने थे, धन इकट्ठा
करते, हिसाब
लगाते—लगाते
जिंदगी गई—अब
त्याग का
हिसाब रखो कि
कितने लाख
त्याग दिए।
भागो, छोड़ो।
अभी पकड़ते थे,
अब. छोड़ो!
लेकिन दोनों
हालतों में
तुम्हारी मूढ़ता
वहीं की वहीं
है।
मूढ़ता
छोड़ने—पकड़ने
से नहीं जाती, मूढ़ता
जागने से जाती
है। मूढ़ता
भागने से नहीं
जाती, जागने
से जाती है।
भागों नहीं, जागो! उस
जागने को
ध्यान कहते
हैं 1 उस जागने
को होश कहते हैं,
अमूर्च्छा
कहते हैं, अप्रमाद
कहते हैं।
'यदि
मूढ़ महीने—महीने
कुश की नोक से
भोजन करे तो
भी वह
धर्मज्ञों के
सोलहवें भाग
के बराबर नहीं
हो सकता।
बुद्ध
तो यह कह रहे
हैं कि उसका
कुछ फायदा नहीं, कुछ
पा नहीं पाता
वह। धर्मज्ञ
कौन है? जिसने
भीतर की
ज्योति को जगा
लिया जिसने
जीवन के नियम
को पहचान लिया;
जिसने
जागने में
थोड़ी सी
स्थिति
सम्हाल ली जिसकी
लौ अकंप जलने
लगी, अब
हिलती नहीं, डुलती नहीं,
डावाडोल
नहीं होती।
यूं
समझ में अजमते—पीरे—मुगा
क्या आएगी
पहले
जाहिद
रूशनासे—शीशा—ओ—सागर
बने
फोड़
लेना सर का
समझा जाएगा जोफे—जुनूं
बात
तो जब हे कि हर
दीवारे—जिंदा
दर बने
तुम
जेलखाने में
बंद हो, अब यह
कोई तरकीब न
हुई कि तुम
अपने सिर को
दीवार से
टकराकर फोड़ लो।
यह कोई जेल से
बाहर निकलने
का रास्ता न
हुआ।
फोड़
लेना सर का
समझा जाएगा जोफे—जुनूं
यह
तो पागलपन की
कमजोरी समझी
जाएगी।
बात
तो जब है कि हर
दीवारे—जिंदा
दर बने
बात
तो तब है जब
दीवाल को
दरवाजा बनाना
तुम सीख जाओ।
सिर फोड़ लेने
से क्या होगा?
पहले
भोगी की तरह
पड़े रहे, अब
त्यागी की तरह
सिर फोड़ रहे
हो। सिर फोड़ने
से कहीं
दीवालें टूटी
हैं? सिर ही
फूट जाएगा।
दरवाजा खोलना
है—बोध चाहिए,
समझ चाहिए,
होश चाहिए!
दीवाल को
दरवाजा बनाना
है।
और
ध्यान रखना, जहां
दीवाल है वहीं
दरवाजा है।
जहां—जहा
तुमने दुख
पाया है, वहीं—वहीं
सुख पाया जा
सकता था। जहां—जहा
तुमने दुख के
बीज बोए, वहीं—वहीं
फूलों के बीज,
सुख के बीज
भी बोए जा
सकते थे। अभी
भी कुछ बिगड़
नहीं गया है, लेकिन होश
चाहिए। बुद्ध
का सारा जोर
होश पर है।
गरूरे—खुल्द
जाहिद तकें—दुनिया
के भरोसे पर
संभल
ऐ बेखबर क्यों
खानुमा
बर्बाद होता
है
दुनिया
छोड़ने के आधार
पर अगर तुमने
सोचा हो कि
तुम परमात्मा
को जान लोगे, तो
असंभव। ही, तुम्हारा
अहंकार शायद
और मजबूत हो
जाए। गरूरे—खुल्द जाहिद—तुम्हारे
वैराग्य से
चाहे
तुम्हारा गुरूर
और बढ़ जाए।
तकें—दुनिया
के भरोसे पर—दुनिया
छोड़ने के
भरोसे पर, तुम
यह मत सोचना
कि तुम
परमात्मा को
पा लोगे।
परमात्मा
यहीं छिपा है।
उसे खोजना है।
मजा तो तब है, जब दीवार दर
बने। जहां—जहां
छिपा है, वही—वहीं
पर्दा उठाना
है। तुममें भी
छिपा है। अगर
तुम आख बंद
करो और
विचारों का
पर्दा उठा लो
तो वहीं जाहिर
हो जाए।
संभल
ऐ बेखबर क्यों
खानुमा
बर्बाद होता
है
त्यागी
सिर्फ बर्बाद
हो रहा है।
भोगी भी
बर्बाद हो रहा
है। भोगी के
और ढंग हैं
बर्बाद होने
के,
त्यागी के
और ढंग हैं, लेकिन दोनों
बर्बाद होते
हैं। क्योंकि
दोनों मूढ़ता
पर ही खड़े हैं।
मेरे पास
ऐसे संन्यासी
आ जाते हैं
कभी, जो कि
चालीस साल से
त्यागी हैं, घर—द्वार
छोड़ दिया।
उन्हें देखकर
दया भी आती है,
हंसी भी आती
है। चालीस साल
से दर—दर की
ठोकरें खा रहे
हैं, दीवालों
से सिर टकरा
रहे हैं, अब
मरने के करीब
आ गए हैं। वे
मेरे पास आते
हैं, वे
कहते हैं कि
ध्यान कैसे
करें! चालीस
साल तुम क्या
कर रहे थे? वे
कहते हैं, त्याग
किया।
और ध्यान
चालीस साल के
त्याग करने से
भी उपलब्ध न हुआ?
चालीस
जन्मों में भी
उपलब्ध न होगा।
और ध्यान
उपलब्ध हो जाए
तो त्याग ऐसे
ही उपलब्ध हो
जाता है, जैसे
आदमी के पीछे
उसकी छाया चली
आती है। और तब
त्याग में एक
संयम होता है,
अति नहीं
होती; तब
त्याग में एक
सौंदर्य होता
है; तब
त्याग में एक
प्रफुल्लता
होती है; तब
त्याग
तुम्हें
कुम्हलाता
नहीं, खिलाता
है।
आज की सुबह
मेरे कैफ का
अंदाज न कर
दिले—वीरा
में अजब
अंजुमन आराई
है
ये जमीं
खित्त—ए—फिरदौस
को शर्माने
लगी
गुले—अफसुर्दा
से नौखेज महक
आने लगी
आज की सुबह
है शबहाए—तमन्ना
की सहर
आज की सुबह
मेरे कैफ का
अंदाज न कर
आज
इतना ही।
thank you guruji
जवाब देंहटाएं