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सोमवार, 5 सितंबर 2016

एस धम्‍मो सनंतनो--(प्रवचन--20)

प्रेम की आखिरी मंजिल: बुद्धो से प्रेम—(प्रवचन—बीसवां)

पहला प्रश्‍न:

जिन भिक्षुओं ने बुद्ध की मूर्तियां बनायीं और बुद्ध-वचन के शास्त्र लिखे, क्या उन्होंने बुद्ध की आज्ञा मानी? क्या वे उनके आज्ञाकारी शिष्य थे?

बुद्ध की आज्ञा तो उन्होंने नहीं मानी, लेकिन मनुष्य पर बड़ी करुणा की। और बुद्ध की आज्ञा तोड़ने जैसी थी, जहां मनुष्य की करुणा का सवाल आ जाए। ऐसे उन्होंने बुद्ध की आता तोड़कर भी बुद्ध की आशा ही मानी। क्योंकि बुद्ध की सारी शिक्षा करुणा की है।
      इसे थोड़ा समझना पड़ेगा।
      बुद्ध ने कहा मेरी मूर्तियां मत बनाना, तो जिन्होंने मूर्तियां बनायीं उन्होंने बुद्ध की आता तोड़ी। लेकिन बुद्ध ने यह भी कहा कि जो ध्यान को उपलब्ध होगा, समाधि जिसके जीवन में खिलेगी, उसके जीवन में करुणा की वर्षा भी होगी।
तो जिन्होंने मूर्तियां बनायीं उन्होंने करुणा के कारण बनायीं। बुद्ध के चरण-चिह्न खो न जाएं, और बुद्ध के चरण-चिह्नों की छाया अनंत काल तक बनी रहे।

      कुछ बात ही ऐसी थी कि जिस आदमी ने कहा मेरी मूर्तियां मत बनाना, हमने
अगर उसकी मूर्तियां न बनाई होतीं तो बड़ी भूल हो जाती। जिन्होंने कहा था हमारी मूर्तियां बनाना, उनकी हम छोड़ भी देते, न बनाते, चलता। बुद्ध ने कहा था मेरी पूजा मत करना, अगर हमने बुद्ध की पूजा न की होती, तो हम बड़े चूक जाते।
      यह सौभाग्य की घड़ी कभी-कभी, सदियों में आती है, जब कोई ऐसा आदमी पैदा होता है जो कहे मेरी पूजा मत करना। यही पूजा के योग्य है। जो कहता है मेरी मूर्ति मत बनाना, यही मूर्ति बनाने के योग्य है। सारे जगत के मंदिर इसी को समर्पित हो जाने चाहिए। .
      बुद्ध ने कहा मेरे वचनों को मत पकड़ना, क्योंकि जो मैंने कहा है उसे जीवन में उतार लो। दीये की चर्चा से क्या होगा, दीये को सम्हालो। शास्त्र मत बनाना, अपने को जगाना। लेकिन जिस आदमी ने ऐसी बात कही, अगर इसका एक-एक वचन लिख न लिया गया होता, तो मनुष्यता सदा के लिए दरिद्र रह जाती। कौन तुम्हें याद दिलाता ' कौन तुम्हें बताता कि कभी कोई ऐसा भी आदमी हुआ था, जिसने कहा था मेरे शब्दों को अग्नि में डाल देना, और मेरे शास्त्रों को जलाकर राख कर देना, क्योंकि मैं चाहता हूं जो मैंने कहा है वह तुम्हारे भीतर जीए, किताबों में नहीं? लेकिन यह कौन लिखता?
      तो निश्चित ही जिन्होंने मूर्तियां बनायीं, बुद्ध की आज्ञा तोड़ी। लेकिन मैं तुमसे कहता हूं उन्होंने ठीक ही किया। बुद्ध की आज्ञा तोड़ देने जैसी थी। नहीं कि बुद्ध ने जो कहा था, वह गलत था। बुद्ध ने जो कहा था, बिलकुल सही कहा था। बुद्ध से गलत कहा कैसे जा सकता है २ बुद्ध ने बिलकुल सही कहा था, मेरी मूर्तियां मत बनाना, क्योंकि कहीं मूर्तियों में तुम मुझे न भूल जाओ, कहीं मूर्तियों में मैं खो न जाऊं, कहीं मूर्तियां इतनी ज्यादा न हो जाएं कि मैं दब जाऊं। तुम सीधे ही मुझे देखना।
      लेकिन हम इतने अंधे हैं कि सीधे तो हम देख ही न पाएंगे। हम तो टटोलेंगे। टटोलकर ही शायद हमें थोड़ा स्पर्श हो जाए। टटोलने के लिए मूर्तियां जरूरी हैं। मूर्तियों से ही हम रास्ता बनाएंगे। हम उस परम शिखर को तो देख ही न सकेंगे जो बुद्ध के जीवन में प्रगट हुआ। वह तो बहुत दूर है हमसे। आकाश के बादलों में खोया है वह शिखर। उस तक हमारी आंखें न उठ पाएंगी। हम तो बुद्ध के चरण भी देख लें, जो जमीन पर हैं, तो भी बहुत। उन्हीं के सहारे शायद हम बुद्ध के शिखर पर भी कभी पहुंच जाएं, इसकी आशा हो सकती है।
      तो मैं तुमसे कहता हूं जिन्होंने आशा तोड़ी उन्होंने ही आज्ञा मानी। जिन्होंने वचनों को सम्हालकर रखा, उन्होंने ही बुद्ध को समझा। लेकिन तुम्हें बहुत जटिलता होगी, क्योंकि तर्क बुद्धि तो बड़ी नासमझ है।
      ऐसा हुआ। एक युवक मेरे पास आता था। किसी विश्वविद्यालय में अध्यापक था। बहुत दिन मेरी बातें सुनीं, बहुत दिन मेरे सत्संग में रहा। एक रात आधी रात आया और कहा, जो तुमने कहा था वह मैं पूरा कर चुका। मैंने अपने सब वेद, उपनिषद, गीता कुएं में डाल दीं। मैंने उससे कहा, पागल! मैंने वेद-उपनिषद को पकड़ना मत, इतना ही कहा था। कुएं में डाल आना, यह मैंने न कहा था। यह तूने क्या किया?
      वेद-उपनिषद को न पकड़ो तो ही वेद-उपनिषद समझ में आते हैं। वेद- उपनिषद को समझने की कला यही है कि उनको पकड़ मत लेना, उनको सिर पर मत ढो लेना। उनको समझना। समझ मुक्त करती है। समझ उससे भी मुक्त कर देती है जिसको तुमने समझा। कुएं में क्यों फेंक आया? और तू सोचता है कि तूने कोई बड़ी क्रांति की, मैं नहीं सोचता। क्योंकि अगर वेद-उपनिषद व्यर्थ थे, तो आधी रात में कुएं तक ढोने की भी क्या जरूरत थी 2 जहां पड़े थे पड़े रहने देता। कुएं में फेंकने वही जाता है, जिसने सिर पर बहुत दिन तक सम्हालकर रखा हो। कुएं में फेंकने में भी आसक्ति का ही पता चलता है। तुम उसी से घृणा करते हो जिस से तुमने प्रेम किया हो। तुम उसी को छोड़कर भागते हो जिससे तुम बंधे थे।
      एक संन्यासी मेरे पास आया और उसने कहा, मैंने पत्नी-बच्चे सबका त्याग कर दिया। मैंने उससे पूछा, वे तेरे थे कब? त्याग तो उसका होता है जो अपना हो। पत्नी तेरी थी? सात चक्कर लगा लिए थे आग के आसपास, उससे तेरी हो गई थी? बच्चे तेरे थे? पहली तो भूल वहीं हो गई कि तूने उन्हें अपना माना। और फिर दूसरी भूल यह हो गई कि उनको छोड़कर भागा। छोड़ा वही जा सकता है जो अपना मान लिया गया हो। बात कुल इतनी है, इतना ही जान लेना है कि अपना कोई भी नहीं है, छोड़कर क्या भागना है! छोड़कर भागना तो भूल की ही पुनरुक्ति है।
      जिन्होंने जाना, उन्होंने कुछ भी छोड़ा नहीं। जिन्होंने जाना, उन्होंने कुछ भी पकड़ा नहीं। जिन्होंने जाना, उन्हें छोड़ना नहीं पड़ता, छूट जाता है। क्योंकि जब दिखाई पड़ता है कि पकड़ने को यहां कुछ भी नहीं है, तो मुट्ठी खुल जाती है।
      बुद्ध की मृत्यु हुई-तब तक तो किसी ने बुद्ध का शास्त्र लिखा न था, ये धम्मपद के वचन तब तक लिखे न गये थे-तो बौद्ध भिक्षुओं का संघ इकट्ठा हुआ। जिनको याद हो, वे उसे दोहरा दें, ताकि लिख लिया जाए। .
      बड़े शानी भिक्षु थे, समाधिस्थ भिक्षु थे। लेकिन उन्होंने तो कुछ भी याद न रखा था। जरूरत ही न थी। समझ लिया, बात पूरी हो गई थी। जो समझ लिया, उसको याद थोड़े ही रखना पड़ता है। तो उन्होंने कहा कि हम कुछ कह तो सकते हैं, लेकिन वह बड़ी दूर की ध्वनि होगी। वे ठीक-ठीक वही शब्द न होंगे जो बुद्ध के थे। उसमें हम भी मिल गये हैं। वह हमारे साथ इतना एक हो गया है कि कहां हम, कहां बुद्ध, फासला करना मुश्किल है।
      तो अज्ञानियों से पूछा कि तुम कुछ कहो, इतनी तो कहते हैं कि मुश्किल है तय करना। हमारी समाधि के सागर में बुद्ध के वचन खो गये। अब हमने सुना, हमने कहा कि उन्होंने कहा, इसकी भेद-रेखा नहीं रही। जब कोई स्वयं ही बुद्ध हो जाता है, तो भेद-रेखा मुश्किल हो जाती है। क्या अपना, क्या बुद्ध का ' अज्ञानियों से पूछो।
      अज्ञानियों ने कहा, हमने सुना तो था, लेकिन समझा नहीं। सुना तो था, लेकिन बात इतनी बड़ी थी कि हम सम्हाल न सके। सुना तो था, लेकिन हम से बड़ी थी घटना, हमारी स्मृति में न समाई, हम अवाक और चौंके रह गये। घड़ी आई और बीत गई, और हम खाली हाथ के खाली हाथ रहे। तो कुछ हम दोहरा तो सकते हैं, लेकिन हम पक्का नहीं कह सकते कि बुद्ध ने ऐसा ही कहा था। बहुत कुछ छूट गया होगा। और जो हमने समझा था, वही हम कहेंगे। जो उन्होंने कहा था, वह हम कैसे कहेंगे?
      तो बड़ी कठिनाई खड़ी हो गई। अज्ञानी कह नहीं सकते, क्योंकि उन्हें भरोसा नहीं। ज्ञानियों को भरोसा है, लेकिन सीमा-रेखाएं खो गई हैं।
      फिर किसी ने सुझाया, किसी ऐसे आदमी को खोजो जो दोनों के बीच में हो। बुद्ध के साथ बुद्ध का निकटतम शिष्य आनंद चालीस वर्षों तक रहा था। लोगों ने कहा, आनंद को पूछो! क्योंकि न तो वह अभी बुद्धत्व को उपलब्ध हुआ है और न वह अज्ञानी है। वह द्वार पर खड़ा है। इस पार संसार, उस पार बुद्धत्व, चौखट पर खड़ा है, देहली पर खड़ा है। और जल्दी करो, अगर वह देहली के पार हो गया, तो उसकी भी सीमा-रेखाएं खो जाएंगी।
      आनंद ने जो दोहराया, वही संगृहीत हुआ। आनंद की बड़ी करुणा है जगत पर। अगर आनंद न होता, बुद्ध के वचन खो गये होते। और बुद्ध के वचन खो गये होते, तो बुद्ध का नाम भी खो गया होता।
      नहीं कि तुम बुद्ध के नाम या वचन से मुक्त हो जाओगे। आग शब्द से कभी कोई जला? जल शब्द से कभी किसी की तृप्ति हुई? लेकिन सुराग मिलता है, राह खुलती है। शायद तुममें से कोई चल पड़े। सरोवर की बात सुनकर किसी की प्यास साफ हो जाए, कोई चल पड़े। हजार सुनें, कोई एक चल पड़े। लाख सुनें, कोई एक पहुंच जाए। उतना भी क्या कम है!
      तो तुम पूछते हो, 'जिन्होंने बुद्ध की मूर्तियां बनायीं क्या उन्होंने आज्ञा का उल्लंघन किया?'
      निश्चित ही आज्ञा का उल्लंघन किया, करने योग्य था। अगर कहीं कोई अदालत हो, तो मैं उनके पक्ष में खड़ा होऊं। मैं बुद्ध के खिलाफ उनके पक्ष में खड़ा होऊं जिन्होंने मूर्तियां बनायीं। उन्होंने संगमरमर के नाक-नक्श से थोड़ी सी खबर हम तक पहुंचा दी।
      बुद्ध की मूर्ति बनानी असंभव है। क्योंकि बुद्धत्व अरूप है, निराकार है। बुद्ध की तुम क्या प्रतिमा बनाओगे? कैसे बनाओगे? कोई उपाय नहीं है। लेकिन फिर भी अदभुत मूर्तियां बनीं। उन मूर्तियों को अगर कोई गौर से देखे, तो मूर्तियां कुंजियां हैं। तुम्हारे भीतर कोई ताले खुल जाएंगे, गौर से देखते-देखते। तुम्हारे भीतर कोई चाबी लग जाएगी, कोई द्वार अचानक खुल जाएगा।
      हमने संगमरमर में मूर्तियां बनायीं, क्योंकि संगमरमर पत्थर भी है और कोमल भी। बुद्ध पत्थर जैसे कठोर हैं और फूल जैसे कोमल। तो हमने संगमरमर चुना। संगमरमर कठोर है, पर शीतल। बुद्ध पत्थर जैसे कठोर हैं, पर उन जैसा शीतल, उन जैसा शात तुम कहां पाओगे? हमने संगमरमर की मूर्तियां चुनीं। क्योंकि बुद्ध जब जीवित थे तब भी वे ऐसे ही शात बैठ जाते थे, कि दूर से देखकर शक होता कि आदमी है या मूर्ति?
मैंने एक बड़ी पुरानी कहानी सुनी है। एक बहुत बड़ा मूर्तिकार हुआ। उस मूर्तिकार को एक ही भय था सदा, मौत का। जब उसकी मौत करीब आने लगी, तो उसने अपनी ही ग्यारह मूर्तियां बना लीं। वह इतना बड़ा कलाकार था कि लोग कहते थे, अगर वह किसी की मूर्ति बनाए तो पहचानना मुश्किल है कि मूल कौन है, मूर्ति कौन है। मूर्ति इतनी जीवंत होती थी।
      जब मौत ने द्वार पर दस्तक दी, तो वह अपनी ही ग्यारह मूर्तियों में छिपकर खड़ा हो गया। श्वास उसने साध ली। उतना ही फर्क था कि वह श्वास लेता, मूर्तियां श्वास न लेतीं। उसने श्वास रोक ली। मौत भीतर आई और बड़े भ्रम में पड़ गई। एक को लेने आई थी, यहां बारह एक जैसे लोग थे। लेकिन मौत को धोखा देना इतना आसान तो नहीं। मौत ने जोर से कहा, और सब तो ठीक है, एक जरा सी भूल रह गई। वह चित्रकार बोला, कौन सी भूल? मौत ने कहा, यही कि तुम अपने को न भूल पाओगे।
लेकिन अगर बुद्ध खड़े होते वहां, तो उतनी भूल भी न रह गई थी। उतनी भी भूल न रह गई थी, अपनी याद भी न रह गई थी। अपना होना भी न रह गया था। अगर बुद्ध को तुम ठीक से समझोगे, तो उनके स्वाभिमान में भी तुम विनम्रता को लहरें लेते देखोगे। उनके होने में भी तुम न होने का स्वाद पाओगे।
      नियाज की ही मेरे नाज में भी ज्ञान  रही
      खुदी की लहर भी आई तो बेखुदी की तरह
      नियाज की ही मेरे नाज में भी ज्ञान  रही-मेरी अस्मिता में, मेरे स्वाभिमान में भी विनम्रता की ही ज्ञान  रही, उसकी ही महिमा के गीत चलते रहे। खुदी की लहर भी आई-और कभी मैंने समझा भी कि मैं हूं-खुदी की लहर भी आई तो बेखुदी की तरह। इस तरह समझा कि जैसे नहीं हूं।
      हमने संगमरमर में बुद्ध को खोदा। कभी बुद्ध की प्रतिमाओं के पास बैठकर गौर से देखो। यह पत्थर में जो खुदा है, इसमें बहुत कुछ छिपा है। बुद्ध की आंखें देखो, बंद हैं। बंद आंखें कहती हैं कि बाहर जो दिखाई पड़ता था, अब व्यर्थ हो गया। अब भीतर देखना है। यात्रा बदल गई। अब बाहर की तरफ नहीं जाते हैं, अब भीतर की तरफ जाते हैं। जो दिखाई पड़ता था, अब उसमें रस नहीं रहा। अब तो उसी को देखना है जो देखता है। अब द्रष्टा की खोज शुरू हुई, दृश्य की नहीं। मूर्ति ऐसी थिर है, जरा भी कंपन का पता नहीं चलता। ऐसे ही भीतर बुद्ध की चेतना थिर हो गई है, निष्कंप हो गई है। जैसे हवा का एक झोंका भी न आए और दीये की लपट ठहर जाए। मूर्ति में हमने यह सब खोदा। मूर्ति तो एक प्रतीक है। अगर तुम उस प्रतीक का राज समझो, तो देखते-देखते मूर्ति को तुम भी मूर्ति जैसे हो जाओगे। अच्छा ही किया जिन्होंने बुद्ध की आशा न मानी।
      बुद्ध बिलकुल ठीक ही कहते थे कि मूर्ति मत बनाना, क्योंकि मैं अमूर्त हूं। आकार मत ढालना, क्योंकि मैं निराकार हूं। तुम जो कुछ भी करोगे, गलत होगा। सीमा होगी उसकी, मैं असीम हूं। बुद्ध बिलकुल ठीक ही कहते थे। लेकिन यह बात दूसरे बुद्धों के लिए ठीक होगी, तुम सबका क्या होता ' तुम सबके लिए तो निराकार की भी खबर आएगी तो आकार से। तुम्हारे लिए तो निर्गुण की श्री खबर आएगी तो सगुण से। तुम तो अनाहत नाद भी सुनोगे तो भी आहत नाद से ही। तुम तो वहीं से चलोगे न जहां तुम हो। जहां बुद्ध हैं, वहां तो पहुंचना है। वहां से तुम्हारी यात्रा न हो सकेगी।
      और बुद्ध के वचन जिन्होंने इकट्ठे किये, वैसे वचन पृथ्वी पर बहुत कम बोले गये हैं, जैसे वचन बुद्ध के हैं। जैसी सीधी उनकी चोट है और जैसे मनुष्य के हृदय को रूपांतरित कर देने की कीमिया है उनमें, वैसे वचन बहुत कम बोले गये हैं। खो सकते थे वचन। और बहुत बुद्ध भी हुए हैं बुद्ध के पहले, उनके वचन खो गये हैं। उनके शिष्यों में कोई गहरा आज्ञाकारी न था, ऐसा मालूम होता है। बड़ा दुर्भाग्य हुआ, बड़ी हानि हुई। कौन जाने उनमें से कौन सा वचन तुम्हें जगाने का कारण हो जाता, निमित्त बन जाता।
तो मैं दोनों बातें कहता हूं। जिन्होंने मूर्तियां बनायीं, बुद्ध के वचन तोड़े; जिन्होंने बुद्ध के वचन इकट्ठे किये, उन्होंने बुद्ध के वचन तोड़े; लेकिन फिर भी मैं कहता हूं कि उन्होंने ठीक ही किया, अच्छा ही किया। और गहरे में मैं जानता हूं कि बुद्ध भी उनसे प्रसन्न हैं कि उन्होंने ऐसा किया। क्योंकि बुद्ध तो वही कहते हैं, जो वे कह सकते हैं, जो उन्हें कहना चाहिए। शिष्य को तो और भी बहुत सी बातें सोचनी पड़ती हैं, बुद्ध क्या कहते हैं वही नहीं। अंधेरे में भटकते हुए जो हजारों लोग आ रहे हैं, उनका भी विचार करना जरूरी है।
      बुद्धों के पास एक प्रेम का जन्म होता है। यद्यपि बुद्ध कहते हैं, प्रेम आसक्ति है, लेकिन बुद्धों के पास प्रेम की आखिरी मंजिल आती है। यद्यपि बुद्ध कहते हैं, मेरे प्रेम में मत पड़ना, पर कैसे बचोगे ऐसे आदमी से? जितना वे कहते हैं, मेरे प्रेम में मत पड़ना, उतना ही उनके प्रति प्रेम उमगता है, उतना ही उनके प्रति प्रेम बहता है। जितना वे तुम्हें सम्हालते हैं, उतना ही तुम डगमगाते हो। कठिन है बहुत। बुद्ध मिल जाएं और प्रेम में न पड़ना कठिन है। ठीक ही बुद्ध कहते हैं कि मेरे प्रेम में मत पड़ना। लेकिन बचना असंभव है।
      जिस जगह आकर फरिश्ते भी पिघल जाते हैं जोश
      लीजिए हजरत सम्हलिए वह मुकाम आ ही गया
      फरिश्ते भी जहां पिघल जाते हैं, जहां देवता भी खड़े हों तो प्रेम में पड़ जाएं। जिस जगह आकर फरिश्ते भी पिघल जाते हैं जोश
      लीजिए हजरत सम्हलिए वह मुकाम आ ही गया
      जब बुद्धों के पास कोई आता है तो ऐसे मुकाम पर आ जाता है कि-उनकी शिक्षा है कि प्रेम में मत पड़ना-लेकिन उनका होना ऐसा है कि हम प्रेम में पड़ जाते हैं। उनकी शिक्षा है कि हमें पकड़ना मत, पर कौन होगा पत्थर का हृदय जो उन्हें छोड़ दे?
      तो फिर करना क्या है? फिर होगा क्या? होगा यही कि ऐसे भी पकड़ने के ढंग हैं, जिनको पकड़ना नहीं कहा जा सकता। प्रेम की ऐसी भी सूरतें हैं, जिनमें आसक्ति नहीं। लगाव की ऐसी भी शैलियां हैं, जिनमें लगाव नहीं। प्रेम में डूबा भी जा सकता है और प्रेम के बाहर भी रहा जा सकता है। मैं तुमसे कहता हूं जैसे जल में कमल, ऐसे बुद्ध के पास रहना होता है। प्रेम में पड़ते भी हैं, और अपना दामन बचाकर चलते भी। इस विरोधाभास को जिसने साध लिया, वही बुद्धों के सत्संग के योग्य होता है।
      इनमें से दो में से तुमने अगर एक को साधा, अगर तुम प्रेम में पड़ गये, जैसे कि कोई साधारण जगत के प्रेम में पड़ जाता है, तो प्रेम बंधन हो जाता है। तब बुद्ध से तुम्हारा संबंध तुमने सोचा जुड़ा, बुद्ध की तरफ से टूट गया। तुमने समझा तुम पास रहे, बुद्ध की तरफ से तुम हजार-हजार मील दूर हो गये। अगर तुमने सोचा कि संबंध बनाएंगे ही नहीं, क्योंकि संबंध बंधन बन जाता है, तो तुम बुद्ध के पास दिखाई पड़ोगे, लेकिन पास न पहुंच पाओगे। बिना प्रेम के कभी कोई पास आया?
      तो मैं तुमसे बड़ी उलझन की बात कह रहा हूं। प्रेम भी करना और सावधान भी रहना। प्रेम भी करना और प्रेम की जंजीरें मत बनाना। प्रेम करना और प्रेम का मंदिर बनाना। प्रेम करना और प्रेम को मुक्ति बनाना।
      जिस जगह आकर फरिश्ते भी पिघल जाते हैं जोश
      लीजिए हजरत सम्हलिए वह मुकाम आ ही गया
      बहुत सम्हल-सम्हलकर सत्संग होता है। सत्संग का खतरा यही है कि तुम प्रेम में पड़ सकते हो। और सत्संग का यह भी खतरा है कि प्रेम से बचने के ही कारण तुम दूर भी रह सकते हो। दूर रहोगे तो चूकोगे, प्रेम बंधन बन गया तो चूक जाओगे, ऐसी  मुसीबत है! पर ऐसा है। कुछ करने का उपाय नहीं। सम्हल-सम्हलकर चलना है। इसलिए सत्संग को खड्ग की धार कहा है। जैसे तलवार की धार पर कोई चलता हो-इधर गिरे कुआं, उधर गिरे खाई।
      लीजिए हजरत सम्हलिए
      बहुत सम्हलकर चलने की बात है।



दूसरा प्रश्‍न:

चारों और मेरे घोर अँधेरा
भूल न जाऊं द्वार तेरा
एक बार प्रभु हाथ पकड़ लो।


      अँधेरा दिखाई पड़ने लगे, मिटना शुरू हो जाता है। क्योंकि न देखने में ही अंधेरे के प्राण हैँ।
      अगर कविता की पंक्तियां ही दोहरा दी हों, तब तो बात दूसरी। अगर ऐसा अनुभव में आना शुरू हो गया हो-चारो ओर मेरे घोर अंधेरा, अगर यह वचन उधार न हो, सुना-सुनाया न हो, किसी और की थाली से चुराया न हो, अगर इसका थोड़ा स्वाद आया हो, तो जिसे अंधेरा दिखने लगा उसे प्रकाश की पहचान आ गई। क्योंकि बिना प्रकाश की पहचान के कोई अंधेरे को भी देख नहीं सकता। अंधेरा यानी क्या? जब तक तुम प्रकाश को न जानोगे-भला एक किरण सही, भला एक छोटा सा टिमटिमाता चिराग सही-लेकिन रोशनी देखी हो तो ही अंधेरे को पहचान सकोगे।
      यही तो घटता है बुद्धपुरुषों के पास। तुम अपने अंधेरे को लेकर जब उनकी रोशनी के पास आते हो, तब तुम्हें पहली बार पता चलता है-चारों ओर मेरे घोर अंधेरा। उसके पहले भी तुम अंधेरे में थे। अंधेरे में ही जन्मे, अंधेरे में ही बड़े हुए, अंधेरे में ही पले-पुसे, अंधेरा ही भोजन, अंधेरा ही ओढ़नी, अंधेरा ही बिछौना, अंधेरा ही श्वास, अंधेरा ही हृदय की धड़कन, पहचानने का कोई उपाय न था। इसलिए शास्त्र सत्संग की महिमा गाते हैं, और शास्त्र गुरु की महिमा गाते हैं। उस महिमा का कुल राज इतना है कि जब तक तुम किसी ऐसे व्यक्ति के पास न आ जाओ, जहां प्रकाश जलता हो, जहां दीया जलता हो, तब तक तुम अपने अंधेरे को न पहचान पाओगे। तुलना ही न होगी, पहचान कैसे होगी? विपरीत चाहिए, कंट्रास्ट चाहिए, तो दिखाई पड़ना शुरू होता है। और जब दिखाई पड़ना शुरू होता है, तब घबड़ाहट शुरू होती है। तब जीवन एक बेचैनी हो जाता है। तब कहीं चैन नहीं पड़ता। उठते-।बैठते, सोते-जागते, काम करते न करते, सब तरफ भीतर एक खयाल
      'चारों ओर मेरे घोर अंधेरा
      भूल न जाऊं द्वार तेरा। '
      प्रीतिकर है बात। अंधेरे में पूरी संभावना है कि द्वार भूल जाए। अंधेरे में द्वार का पता कहां है? अंधेरे में तो द्वार का सपना देखा है, द्वार कहां। लेकिन अगर इतनी याद बनी रहे, और इतनी प्रार्थना बनी रहे, और यह भीतर सुरति, स्मृति चलती रहे-भूल न जाऊं द्वार तेरा, तो यही स्मृति धीरे-धीरे द्वार बन जाती है।
      द्वार कहीं तुमसे बाहर थोड़े ही है। द्वार कहीं तुमसे भिन्न थोड़े ही है द्वार कोई ऐसी जगह थोड़े ही है जिसे खोजना है। द्वार तुमसे प्रगट होगा। तुम्हारे स्मरण से ही द्वार बनेगा। तुम्हारे सातत्य, सतत चोट से ही द्वार बनेगा। तुम्हारी प्रार्थना ही तुम्हारा द्वार बन जाएगी। जिसको नानक सुरति कहते हैं, कबीर सुरति कहते हैं, जिसको बुद्ध ने स्मृति कहा है, जिसको पश्चिम का एक बहुत अदभुत पुरुष गुरजिएफ सेल्फ रिमेंबरिंग कहता था-स्वयं की स्मृति, स्व स्मृति-वही तुम्हारा द्वार बनेगी।
      अंधेरे की याद रखो। भूलने से अंधेरा बढ़ता है। याद रखने से घटता है। क्योंकि याद का स्वभाव ही रोशनी का है। स्मृति का स्वभाव ही प्रकाश का है। याद रखो-चारों ओर मेरे घोर अंधेरा। इसे कभी गीत की कड़ी की तरह गुनगुनाना मत, यह तुम्हारा मंत्र हो जाए। श्वास भीतर आए, बाहर जाए, इसकी तुम्हें याद बनी रहे। इसकी याददाश्त के माध्यम से ही तुम अंधेरे से अलग होने लगोगे। क्योंकि जिसकी तुम्हें याद है, जिसको तुम देखते हो, जो दृश्य बन गया, उससे तुम अलग हो गये, पृथक हो गये।
      'भूल न जाऊं द्वार तेरा।'
      भक्त गहन विनम्रता में जीता है। द्वार मिल भी जाए तो भी वह यही कहेगा, भूल न जाऊं द्वार तेरा। क्योंकि वह जानता है कि मेरे किये तो कुछ होगा नहीं। मेरे किये तो सब अनकिया हो जाता है। मैं तो भवन बनाता हूं र गिर जाते हैं। मैं तो योजना -करता हूं व्यर्थ हो जाती है। मैं पूरब जाता हूं पश्चिम पहुंच जाता हूं। अच्छा करता हूं बुरा हो जाता है। कुछ सोचता हूं? कुछ घटता है। मेरे किये कुछ भी न होगा। भक्त कहता है, तू ही अगर, तेरी कृपा अगर बरसती रहे, तो ही कुछ संभव है।  
      'भूल न जाऊं द्वार तेरा
      एक बार प्रभु हाथ पकड़ लो। '
      बहुत ही बढ़िया पंक्ति है। क्योंकि एक बार अगर प्रभु ने हाथ पकड़ लिया, तो फिर छूटता ही नहीं। क्योंकि उसकी तरफ से एक बार पकड़ा गया सदा के लिए पकड़ा गया। और एक बार तुम्हारे हाथ को उसके हाथ का स्पर्श आ जाए, तो तुम-तुम न रहे। वह हाथ ही थोड़े ही है, पारस है। छूते ही लोहा सोना हो जाता है।
      लेकिन तुम्हें अथक टटोलते ही रहना पड़ेगा। वह हाथ मुफ्त नहीं मिलता है। वह हाथ उन्हीं को मिलता है जिन्होंने खूब खोजा है। वह हाथ उन्हीं को मिलता है जिन्होंने खोज की पराकाष्ठा कर दी। वह हाथ उन्हीं को मिलता है जिन्होंने खोजने में कुछ भी रख न छोड़ा। अगर तुमने थोड़ी भी बचाई हुई है अपनी ताकत, तो तुम चालाक हो। तो तुम्हारी प्रार्थना व्यर्थ जाएगी। अगर तुमने सब दाव पर लगा दिया, तो तुम्हारी जीत निश्चित है।
      यह काम जुआरियों का है, दुकानदारों का नहीं। धर्म जुआरियों का काम है, दुकानदारों का नहीं। हिसाब-किताब मत रखना कि चलो दो पैसा ताकत लगाकर देखें, एक आना ताकत लगाकर देखें, दो आना ताकत लगाकर देखें। ऐसे हिसाब- किताब से उसका हाथ तुम्हारे हाथ में न आएगा। क्योंकि तुम्हारी बेईमानी जाहिर है। जब तुम अपने को पूरा दाव पर लगा देते हो-पीछे कुछ छूटता ही नहीं-जब तुम स्वयं ही पूरे दांव पर बैठ जाते हो, उसी क्षण हाथ-हाथ में आ जाता है। उस क्षण हाथ में न आए तो बड़ा अन्याय हो जाएगा। वैसा अन्याय नहीं है-देर है, अंधेर नहीं। और देर भी तुम्हारे कारण है।
यह कहावत तुमने सुनी है-देर है, अंधेर नहीं। लेकिन कहावत में लोग सोचते हैं कि देर उसकी तरफ से है। वहीं गलती है। देर तुम्हारी तरफ से है। तुम जितनी देर चाहो लगा दो। तुम बेमन से टटोल रहे हो। तुम टटोलते भी हो और डरे हो कि कहीं मिल न जाए। तुम ऐसे टटोलते भी हो और शंकित हो कि कहीं हाथ-हाथ में आ ही न जाए, क्योंकि बड़ा खतरनाक हाथ है। फिर तुम-तुम ही न हो सकोगे उसके बाद। उसकी एक झलक तुम्हें राख कर जाएगी। उसकी एक किरण तुम्हें सदा के लिए मिटा जाएगी। तुम जैसे हो वैसे न बचोगे।
ही, तुम जैसे होने चाहिए वैसे बचोगे, जो तुम्हारा स्वभाव है बचने का। जो कूड़ा-करकट तुमने अपने चारों तरफ इकट्ठा कर लिया है, पद का, प्रतिष्ठा का, नाम का, रूप का, वह सब जलकर राख हो जाएगा। तो तुम्हारी प्रार्थना-परमात्मा से तुम्हारी प्रार्थना-बस एक ही हो सकती है, और वह प्रार्थना है कि यह मेरा जो कूड़ा-करकट है,  जिसको मैंने समझा कि मैं हूं? इसे मिटा।
जिंदगी दरिया-ए-बेसाहिल है और किश्ती खराब
      मैं तो घबराकर दुआ करता हूं तुफां के लिए
      तुम्हारी बस एक ही प्रार्थना हो सकती है कि तुम तूफान के लिए प्रार्थना करो। जिंदगी दरिया-ए-बेसाहिल है-किनारा कहीं दिखाई नहीं पड़ता। सारी जिंदगी का अनुभव यही है कि किनारा कहीं नहीं है। और किश्ती खराब-और नाव टूटी-फूटी; अब डूबी, तब डूबी! मैं तो घबराकर दुआ करता हूं दया के लिए-तो मैं एक ही प्रार्थना करता हूं कि परमात्मा तूफान भेज दे।
जरा अपनी किश्ती को गौर से तो देखो। जरा अपने चारों तरफ आंख खोलकर देखो, किनारे कहां हैं! सपने देखे हैं तुमने किनारों के, आशाएं संजोई हैं तुमने किनारों की, किनारे हैं कहां? तुम डरते हो आंख उठाने में भी कि कहीं ऐसा न हो कि किनारा सच
में ही न हो। तुम आंख झुकाकर किनारों की सोचते रहते हो कि आज नहीं पहुंचे, कल पहुंच जाएंगे। पहुंच जाएंगे। एक बात तो तुमने मान ही रखी है कि किनारा है।  
      मैं तुमसे कहता हूं कि जिसे तुम जिंदगी कहते हो उसका कोई भी किनारा नहीं। वह तटहीन उपद्रव है। कोई किनारा नहीं। कभी कोई वहां किनारे पर नहीं पहुंचा। न एलेक्जेंड़र, न नेपोलियन, कभी कोई वहां किनारे पर नहीं पहुंचा। सभी बीच में ही डूबकर मर जाते हैं। कोई थोड़ा आगे, कोई थोड़ा पीछे।
      लेकिन आगे-पीछे का भी क्या मतलब है, जहां किनारा न हो! किनारा होता, तो कोई किनारे के पास पहुंचकर डूबता तो कहते, थोड़ा आगे। हम बीच मझधार में डूब जाते तो कहते कि थोड़े पीछे। लेकिन सभी जगह बीच मझधार है। बीच मझधार ही है। किनारा नहीं है।
      और किश्ती की तरफ तो देखो जरा, थंपेडे लगाए चले जाते हो। एक छेद टूटता है, भरते हो। दूसरा खुल जाता है, भरते हो। पानी उलीचते रहते हो। जिंदगी इस टूटी किश्ती के बचाने में ही बीत जाती है।
      जो जानते हैं वे तूफान के लिए प्रार्थना करते हैं। वे कहते हैं, परमात्मा! मैं जैसा हूं मुझे मिटा, ताकि मैं वैसा हो सकूं जैसा तूने चाहा।
      जिंदगी दरिया-ए-बेसाहिल है और किश्ती खराब
      मैं तो घबराकर दुआ करता हूं तुफ़ा के लिए
      और तुम्हारे जीवन में अगर ऐसी प्रार्थना का प्रवेश हो जाए-प्रार्थना यानी मृत्यु की प्रार्थना-और कोई प्रार्थना है भी नहीं। तुमने प्रार्थनाएं की हैं, मुझे भलीभांति पता है। तुम्हारे मंदिरों में मैंने तुम्हारी प्रार्थनाएं भी सुनी हैं। तुम्हारी मस्जिदों में, तुम्हारे गुरुद्वारों में तुम्हारी प्रार्थनाएं खुदी पड़ी हैं। पत्थर-पत्थर पर लिखी हैं। लेकिन तुमने सदा प्रार्थना उसी जिंदगी के लिए की जिसमें कोई किनारा नहीं है। और तुमने सदा प्रार्थना उसी किश्ती को सुधार देने के लिए की, जो न कभी सुधरी है, न सुधर सकती है। तुमने कभी प्रार्थना अपने को डुबा देने के लिए न की। जिसने की, उसकी पूरी हो गई। और जो डूबने को राजी है, मझधार में ही किनारा मिल जाता है।
      जिसे तुम जिंदगी कहते हो उसका कोई किनारा नहीं। और जिसको मैं परमात्मा कह रहा हूं वह किनारा ही किनारा है, वहा कोई मझधार नहीं। देखने का ढंग, एक तो अहंकार के माध्यम से देखना है-टूटी किश्ती के माध्यम से-वहां डर ही डर है, मौत ही मौत है। और एक अहंकार को हटाकर देखना है। वहा कोई मौत नहीं, कोई डर नहीं, क्योंकि अहंकार ही मरता है, तुम नहीं। तुम्हारे भीतर तो शाश्वत है। एस धम्मो सनंतनो। तुम्हारे भीतर तो अमृत है। तुम्हारे भीतर तो शाश्वत छिपा है, सनातन छिपा है।
      अभी मयखाना-ए-दीदार हर जरें में खुलता है
      अगर इंसान अपने आप से बेगाना हो जाए
      बस एक छोटी सी बात कि अहंकार न रह जाए।
      अगर इंसान अपने आप से बेगाना हो जाए
      जरा अपने से दूर हो जाए, जरा अपने को छोड़ दे, यह अपना होना जरा मिटा दे। अभी मयखाना-ए-दीदार हर जरें में खुलता है
      फिर तो हर कण-कण में परमात्मा की मधुशाला खुल जाती है। फिर तो क्या-कण में उसी की मधुशाला खुल जाती है। फिर तो सभी तरफ उसी का प्रसाद उपलब्ध होने लगता है। बस जरा सी तरकीब है, तुम जरा हट जाओ। तुम्हारे और परमात्मा के बीच में तुम्हारे सिवाय और कोई भी नहीं।



तीसरा प्रश्न:

इस प्रवचनमाला में आपने कई बार कहा है, एस धम्मो सनंतनो, यही सनातन धर्म है। और आश्चर्य तो यह है कि वह हर बार नये रूप में आपके द्वारा प्रगट हुआ है। क्या सनातन धर्म एक है या अनेक?


      धर्म तो एक है, लेकिन उसके प्रतिबिंब अनेक हो सकते हैं। रात पूरा चांद निकलता है। सागरों में भी झलकता है, सरोवरों में भी झलकता है, छोटे-छोटे डबरों में भी झलकता है-प्रतिबिंब बहुत हैं।
      सागर में बताकर भी मैंने तुमसे कहा, एस धम्मो सनंतनो। छोटे सरोवर में भी बताकर कहा, एस धम्मो सनंतनो। राह के किनारे वर्षा में भर गये डबरे में भी बताकर कहा, एस धम्मो सनंतनो। मैंने बहुत बार कहा। बहुत रूप में कहा। लेकिन वे सब प्रतिबिंब हैं और जो चांद है, वह तो कहा नहीं जा सकता। इसलिए तुम और उलझन में पड़ोगे।
मैंने जब भी कहा, एस धम्‍मो सनंतनो, यही सनातन धर्म है, तभी प्रतिबिंब की बात कही है। प्रतिबिंब में मत उलझ जाना। इशारा किया। इशारे को मत पकड़ लेना। और जो है ऊपर, वह जो चांद है असली, उसकी तरफ कोई इशारा नहीं किया जा सकता। अंगुलियां वहां छोटी पड़ जाती हैं। शब्द वहां काफी सिद्ध नहीं होते। और फिर उस चांद को देखना हो तो तुम्हें गर्दन बड़ी ऊंची उठानी पड़ेगी। और तुम्हारी आदत जमीन में देखने की हो गई है। तो तुम्हें प्रतिबिंब ही बताए जा सकते हैं।
      लेकिन अगर प्रतिबिंब कहीं तुम्हारे जीवन का आकर्षण बन जाए कहीं प्रतिबिंब का चुंबक तुम्हें खींच ले, तो शायद आज नहीं कल तुम असली की तलाश में भी निकल जाओ। क्योंकि प्रतिबिंब तो खो-खो जाएगा। जरा हवा का झोंका आएगा, झील कंप जाएगी और चांद टूटकर बिखर जाएगा। तो आज नहीं कल तुम्हें यह खयाल आना शुरू हो जाएगा, जो झील में देखा है, वह सच नहीं हो सकता। सच की खबर हो सकती है, सच की दूर की ध्वनि हो सकती है-प्रतिध्वनि हो सकती है, प्रतिबिंब हो सकता है-लेकिन जो झील में देखा है, वह सच नहीं हो सकता। शब्द में जिसे कहा गया है, वह सत्य नहीं हो सकता। लेकिन शब्द में जिसे कहा गया है, वह सत्य का बहुत दूर का रिश्तेदार हो सकता है।
      मुल्ला नसरुद्दीन के जीवन में ऐसा उल्लेख है कि एक मित्र ने दूर गांव से एक मुर्गी भेजी। मुल्ला ने शोरबा बनाया। जो मुर्गी को लेकर आया था उसे भी निमंत्रित किया। कुछ दिनों बाद एक दूसरा आदमी आया। मुल्ला ने पूछा, कहां से आए? उसने कहा, मैं भी उसी गांव से आता हूं और जिसने मुर्गी भेजी थी उसका रिश्तेदार हूं। अब रिश्तेदार का रिश्तेदार भी आया था तो उसको भी ठहराया। उसके लिए भी शोरबा बनवाया। लेकिन कुछ दिन बाद एक तीसरा आदमी आ गया। कहां से आ रहे हो? उसने कहा, जिसने मुर्गी भेजी थी, उसके रिश्तेदार का रिश्तेदार हूं।
      ऐसे तो संख्या बढ़ती चली गई। मुल्ला तो परेशान  हो गया। यह तो मेहमानों का सिलसिला लग गया। मुर्गी क्या आई, ये तो लोग चले ही आते हैं। यह तो पूरा गांव आने लगा। आखिर एक आदमी आया, उससे पूछा कि भाई आप कौन हैं? उसने कहा, जिसने मुर्गी भेजी थी, उसके रिश्तेदार के रिश्तेदार के रिश्तेदार का मित्र हूं। मुल्ला ने शोरबा बनवाया। उस मित्र ने चखा, लेकिन वह बोला, यह शोरबा! यह तो सिर्फ गरम पानी मालूम होता है। मुल्ला नसरुद्दीन ने कहा, यह वह जो मुर्गी आई थी, उसके शोरबे के शोरबे के शोरबे का मित्र है।
      दूर होती जाती हैं चीजें। मैंने तुम्हें झील में दिखाया। तुम ऐसा भी कर सकते हो-कर सकते हो नहीं, करोगे ही-तुम झील के सामने एक दर्पण करके दर्पण में देखोगे। क्योंकि जब मैं तुमसे कहता हूं तुम मुझे थोड़े ही सुनोगे, तुम्हारा मन उसकी व्याख्या करेगा।
      जब मैंने कहा तभी चांद दूर हो गया। मैं जब देखता हूं तब चांद है; जब मैं तुमसे कहता हूं तब झील में प्रतिबिंब है। जब तुम सुनते हो और सोचते हो, तब तुमने झील को भी दर्पण में देखा। फिर दर्पण को भी दर्पण में देखते चले जाओगे। ऐसे सत्य से शब्द दूर होता चला जाता है।
      इसलिए बहुत बार जिन्होंने जाना है वे चुप रह गये। लेकिन चुप रहने से भी कुछ नहीं होता। जब तुम कह-कहकर नहीं सुनते हो, जगाए-जगाए नहीं जगते हो, तो चुप बैठने को तुम कैसे सुनोगे? जब शब्द चूक जाता है, तो मौन भी चूक जाएगा। जब शब्द तक चूक जाता है, तो मौन तो निश्चित ही चूक जाएगा। फिर भी जो कहा जा सकता है वह प्रतिध्वनि है, इसे याद रखना। उस प्रतिध्वनि के सहारे मूल की तरफ यात्रा करना, तीर्थयात्रा करना।
      तंग था जिसके लिए हरफे-बयां का दायरा
      वो फसाना हम खामोशी में सुनाकर रह गये
      शब्द छोटे पड़ जाते हैं। दायरा छोटा है।
      तंग था जिसके लिए हरफे-बयां का दायरा
      कहने की सीमा है, जो कहना है उसकी कोई सीमा नहीं। गीत की सीमा है, जो गाना है उसकी कोई सीमा नहीं। वाद्य की सीमा है, जो बजाना है उसकी कोई सीमा नहीं।
      वो फसाना हम खामोशी में सुनाकर रह गये
लेकिन खामोशी तो तुम कैसे समझोगे? शब्द भी चूक जाते हैं। हिलाए-हिलाए तुम नहीं हिलते नींद से। जगाए-जगाए तुम नहीं हिलते नींद से। शब्द तो ऐसे हैं जैसे पास में रखी घड़ी में अलार्म बजता हो। तब भी तुम नहीं जागते। तो जिस घड़ी में अलार्म नहीं बजता, उससे तुम कैसे जगोगे।
      तो बहुत ज्ञानी चुप रह गये। बहुत इतनी बोले। चुप रहने वालों को तुमने समझा, जानते ही नहीं। बोलने वालों से तुमने शब्द सीखे और तुम पंडित हो गये। लेकिन कुछ ज्ञानियों ने बीच का रास्ता चुना। और बीच का रास्ता ही सदा सही रास्ता है। उन्होंने कहा भी और इस ढंग से कहा कि अनकहा भी तुम्हें भूल न जाए। उन्होंने कहा भी और कहने के बीच-बीच में खाली जगह छोड़ दी। उन्होंने कहा भी और रिक्त स्थान भी छोड़े। रिक्त स्थान तुम्हें भरने हैं।
      तुमने छोटे बच्चों की किताबें देखी हैं? एक शब्द दिया होता है, फिर खाली जगह, फिर दूसरा शब्द दिया होता है। और बच्चों से कहा जाता है, बीच का शब्द भरो। जो परमज्ञानी हुए, उन्होंने यही किया। एक शब्द दिया, खाली जगह दी, फिर दूसरा शब्द दिया। बीच की खाली जगह तुम्हें भरनी है। जो मैं कह रहा हूं वह प्रतिबिंब है। जो तुम भरोगे, वह चांद होगा।
      सत्य उधार नहीं मिल सकता। सत्य को तुम्हें जन्माना होगा। सत्य को तुम्हें अपने गर्भ में धारण करना होगा। सत्य तुम्हारे भीतर बढ़ेगा। जैसे मां के पेट में बच्चा बड़ा होता है। वह तुम्हारा खून, तुम्हारी श्वास मांगता है। वह तुम्हारा ही विस्तार होगा। जब तक तुम ही चांद न बन जाओ, तब तक तुम चांद को न देख सकोगे।
      इसलिए मैंने बहुत बार कहा और बहुत बार कहूंगा, क्योंकि ये बुद्ध के वचन तो अभी बहुत देर तक चलेंगे। बहुत बार बहुत जगह कहूंगा, एस धम्मो सनंतनो। तब तुम स्मरण रखना कि मैं यह नहीं कह रहा हूं कि धर्म बहुत हैं। मैं इतना ही कह रहा हूं कि बहुत स्थान हैं जहां से धर्म का इशारा किया जा सकता है। कभी गुलाब के फूल की तरफ इशारा करके कहूंगा, एस धम्मो सनंतनो। कभी चांद की तरफ इशारा करके कहूंगा, एस धम्मो सनंतनो। कभी किसी छोटे बच्चे की आंखों में झांककर कहूंगा, एस धम्मो सनंतनो। क्योंकि चाहे गुलाब हो, चाहे आंख हो, चाहे चांद हो, सौंदर्य एक है।
      बहुत रूपों में परमात्मा प्रगट हुआ है। हमारे अंधेपन की कोई सीमा नहीं। इतने रूपों में प्रगट हुआ है और हम पूछे चले जाते है, कहां है? कहीं एकाध रूप में प्रकट होता तब तो मिलने का कोई उपाय ही न था। इतने रूपों में प्रगट हुआ है। सब तरफ से उसने ही तुम्हें घेरा है। जहां जाओ, वही सामने आ जाता है। जिससे मिलो, उसी से मिलना होता है। सुनो झरने की आवाज, तो उसी का गीत; सुनो रात का सन्नाटा, तो उसी का मौन; देखो सूरज को, तो उसी की रोशनी; और देखो अमावस को, तो उसी का अंधेरा। इतने रूपों में तुम्हें घेरा है, फिर भी तुम चूकते चले जाते हो। अभागा होता मनुष्य अगर कहीं उसका एक ही रूप होता, एक ही मंदिर होता और केवल वह एक ही जगह मिलता होता। तब तो फिर कोई शायद पहुंच ही न पाता। इतने रूपों में मिलता है, फिर भी हम चूक जाते हैं।
      तो मैं बहुत जगह तुमसे कहूंगा, यह रहा परमात्मा! इसका यह मतलब नहीं कि बहुत परमात्मा हैं। इसका इतना ही मतलब कि बहुत उसके रूप हैं। अनेक उसके ढंग हैं। अनेक उसकी आकृतियां हैं। लेकिन वह स्वयं इन सभी आकृतियों के बीच निराकार है। होगा भी। क्योंकि इतने रूप उसी के हो सकते हैं, जो अरूप हो। इतने आकार उसी के हो सकते हैं जो निराकार हो। इतने अनंत-अनंत माध्यमों में वही प्रगट हो सकता है जो प्रगट होकर भी पूरा प्रगट न हो पाता हो।
      बंदगी ने हजार रुख बदले
      जो खुदा था वही खुदा है हनूज
      प्रार्थनाएं बदल जाती हैं। बंदगी के ढंग बदल जाते हैं। पूजा बदल जाती है। कभी गुरुद्वारा, कभी मस्जिद, कभी शिवाला; कभी काबा, कभी काशी।
      बंदगी ने हजार रुख बदले
      न मालूम कितने पत्थरों के सामने सिर झुके, और न मालूम कितने शब्दों में उसकी प्रार्थना की गई, और न मालूम कितने शास्त्र उसके लिए रचे गये।
      बंदगी ने हजार रुख बदले
      जो खुदा था वही खुदा है हरू
      लेकिन आज तक जो खुदा था वही खुदा है।
      तो बहुत बार मैं कहूंगा, एस धम्मो सनंतनो। यही है सनातन धर्म। इससे तुम यह मत समझ लेना कि यही है। इससे तुम इतना ही समझना कि यहां भी है। और बहुत जगह भी है। सभी जगह है। सभी जगह उसका विस्तार है। वह तुम्हारे आंगन जैसा नहीं है, आकाश जैसा है। यद्यपि तुम्हारे अपान में भी वही आकाश है।  




चौथा प्रश्न:


मेरी हालत त्रिशंकु की हो गई है। न पीछे लौट सकती, न आगे कोई रास्ता दिखाई पड़ता है। जाऊं तो जाऊं कहां?


      जाने को कहीं है भी नहीं। जहां हो वहीं होना है।
      अच्छा ही हुआ कि आगे कोई रास्ता नहीं दिखाई पड़ता, नहीं तो जाना जारी रहता। अच्छा है कि पीछे भी लौट नहीं सकते, नहीं तो लौट जाते। इससे बेचैनी मत अनुभव करो। बेचैनी अनुभव होती है, यह मैं समझता हूं। क्योंकि जाने की आदत हो गई है। कहीं जाने को न हो, तो आदमी घबड़ाता है। बेकार भी जाने को हो, तो भी निश्चित चला जाता है।
      कहां जा रहे हैं, इसका इतना सवाल नहीं है। जा रहे है, कुछ काम चल रहा है। लगता है कुछ हो रहा है, कहीं पहुंच रहे हैं। मंजिल की किसको फिकर है। व्यस्तता बनी रहती है। चलने में उलझे रहते हैं। तो लगता है कुछ हो रहा है।
      कौन कहां पहुंचा है चलकर? तुम भी न पहुंचोगे। कोई कभी चलकर नहीं पहुंचा। जो पहुंचे, रुककर पहुंचे। जिन्होंने जाना, ठहरकर जाना। देखो बुद्ध की प्रतिमा को। चलते हुए मालूम पड़ते हैं? बैठे हैं। जब तक चलते थे तब तक न पहुंचे। जब बैठ गये, पहुंच गये।
      यह तो बड़ी शुभ घड़ी है। लेकिन हमारी आदतें खराब हो गयीं। हमारी आदतें चलने की हो गई हैं। बिना चले ऐसा लगता है, जीवन बेकार जा रहा है। चाहे चलना हमारा कोल्हू के बैल का चलना हो कि गोल चक्कर में घूमते रहते हैं। है वही। रोज तुम उठते हो, करते क्या हो? रोज चलते हो, पहुंचते कहां हो? सांझ वहीं आ जाते हो जहा सुबह निकले थे। जन्म जहां से शुरू किया मौत वही ले आती है। एक गोल वर्तुलाकार है।
      मैंने सुना है कि एक बहुत बड़ा तार्किक तेल खरीदने गया था तेली के घर। तेली का कोल्हू चल रहा था। बैल कोल्हू खींच रहा था, तेल निचुड़ रहा था। तार्किक था! उसने देखा यह काम, कोई हांक भी नहीं रहा है बैल को, वह अपने आप ही चल रहा है।
      उसने पूछा, गजब, यह बैल अपने आप चल रहा है! कोई हांक भी नहीं रहा! रुक क्यों नहीं जाता? उस तेल वाले ने कहा, महानुभाव, जब कभी यह रुकता है, मैं उठकर इसको फिर हांक देता हूं। इसको पता नहीं चल पाता कि हांकने वाला पीछे मौजूद है या नहीं।
      तार्किक-तार्किक था। उसने कहा, लेकिन तुम तो बैठे दुकान चला रहे हो, इसको दिखाई नहीं पड़ता? उस तेल वाले ने कहा, जरा गौर से देखें, इसकी आंखों पर पट्टियां बांधी हुई हैं। इसे दिखाई कुछ नहीं पड़ता। जब भी यह जरा ठहरा या रुका कि मैंने हांका। पर उस तार्किक ने कहा कि तुम तो पीठ किये बैठे हो उसकी तरफ। पीछे चल रहा है कोल्हू तुम्हें पता कैसे चलता है? उसने कहा, आप देखते नहीं बैल के गले में घंटी बांधी हुई है? जब तक बजती रहती है, मैं समझता हूं चल रहा है। जब रुक जाती है, उठकर मैं हांक देता हूं। इसको पता नहीं चल पाता। उस तार्किक ने कहा, अब एक सवाल और। क्या यह बैल खड़े होकर गर्दन नहीं हिला सकता है? उस तेल वाले ने कहा, जरा धीरे-धीरे बोलें। कहीं बैल न सुन ले।
      तुम जरा अपनी जिंदगी तो गौर से देखो। न कोई हांक रहा है, मगर तुम चले जा रहे हो। आंख बंद है। गले में खुद ही घंटी बांध ली है। वह भी किसी और ने बांधी, ऐसा नहीं। हालांकि तुम कहते यही हो। पति कहता है, पत्नी ने बांध दी। चलना पड़ता है। बेटा कहता है, बाप ने बाध दी है। बाप कहता है, बच्चों ने बांध दी है। कौन किसके लिए घंटी बांध रहा है! कोई किसी के लिए नहीं बाध रहा है। बिना घंटी के तुम्हें ही अच्छा नहीं लगता। तुमने घंटी को श्रृंगार समझा है। आंख पर पट्टियां हैं, घंटी बंधी है, चले जा रहे हो। कहां पहुंचोगे? इतने दिन चले, कहां पहुंचे? मंजिल कुछ तो करीब आई होती!
      लेकिन जब भी तुम्हें कोई चौंकाता है, तुम कहते हो, धीरे बोलो। जोर से मत बोल देना, कहीं हमारी समझ में ही न आ जाए। तुम ऐसे लोगों से बचते हो, किनारा काटते हो, जो जोर से बोल दें। संतों के पास लोग जाते नहीं। और अगर जाते हैं, तो ऐसे ही संतों के पास जाते हैं जो तुम्हारी आंखों पर और पट्टियां बंधवा दें। और तुम्हारी घंटी पर और रंग-पालिश कर दें। न बज रही हो तो और बजने की व्यवस्था बता दें। ऐसे संतों के पास जाते हैं कि तुम्हारे पैर अगर शिथिल हो रहे हों और बैठने की घड़ी करीब आ रही हो, तो पीछे से हांक दें कि चलो, बैठने से कहीं कोई पहुंचा है! कुछ करो। कर्मठ बनो। परमात्मा ने भेजा है तो कुछ करके दिखाओ।
      थोड़ा समझना। जीवन की गहनतम बातें करने से नहीं मिलतीं, होने से मिलती हैं। करना तो ऊपर-ऊपर है, पानी पर उठी लहरें है। होना है गहराई।
      अच्छा ही हुआ, लेकिन व्याख्या गलत हो रही है।
      प्रश्न है, 'मेरी हालत त्रिशंकु की हो गई है। '
      एकदम अच्छा हुआ। शुभ हुआ। धन्यवाद दो परमात्मा को। लेकिन शब्द से लगता है कि शिकायत है, शिकवा है। क्योंकि तुम्हें लग रहा है, यह तो कहीं के न रहे। पीछे लौट नहीं सकते। जरूरत क्या है लौटने की पीछे? लौट सकते तो क्या मिलता? पीछे से तो होकर ही आ रहे हो। कुछ मिलना होता तो मिल ही गया होता। हाथ तुम्हारे खाली हैं और पीछे लौटना है! जिस रास्ते से गुजर चुके, सिवाय धूल के कुछ भी नहीं लाए हो साथ, फिर लौटकर जाना है?
      तुम कहोगे, चलो छोड़ो, पीछे नहीं आगे तो जाने दो। मगर यह रास्ता वही है;
जो पीछे की तरफ फैला है, वही आगे की तरफ फैला है। ये एक ही रास्ते की दो दिशाएं हैं। तुम जिस रास्ते पर पीछे चलते आ रहे हो, उसी पर तो आगे जाओगे न। उसी की श्रृंखला होगी। उसी का सिलसिला होगा।
      अब तक क्या मिला? पचास साल की उम्र हो गई, अब बीस साल और इसी रास्ते पर चलोगे, क्या मिलेगा? तुम कहोगे, चलो यह भी छोड़ो, कोई दूसरा रास्ता बता दो। मगर रास्ता तुम चाहते हो। क्योंकि चलना तुम्हारी आदत हो गई है। दौड़ने की विक्षिप्तता तुम पर सवार हो गई है। रुक नहीं सकते, ठहर नहीं सकते, दो घड़ी बैठ नहीं सकते।
      क्यों? क्योंकि जब भी तुम रुकते हो, तभी तुम्हें जिंदगी की व्यर्थता दिखाई पड़ती है। जब भी तुम ठहरते हो, खाली क्षण मिलता है, तभी तुम्हें लगता है यह तो शून्य है। कुछ भी मैंने कमाया नहीं। तभी तुम कंप जाते हो। एक संताप पकड़ लेता है। एक अस्तित्वगत खाई में गिरने लगते हो। उससे बचने के लिए फिर तुम काम में संलग्न हो जाते हो। कुछ भी करने में लग जाते हो। रेडियो खोलो, अखबार पढ़ो, मित्र के घर चले जाओ, पत्नी से झगड़ लो। कुछ भी बेहूदा काम करने लगो। एक गेंद खरीद लाओ, बीच में रस्सी बाध लो, इससे उस तरफ फेंको, उस तरफ से इस तरफ फेंको।
      लोग कहते हैं, फुटबाल खेल रहे हैं। कोई कहता है, वालीबाल खेल रहे हैं। और लाखों लोग देखने भी इकट्ठे होते हैं। खेलने वाले तो नासमझ हैं, समझ में आया। कम से कम खेल रहे हैं। लेकिन लाखों लोग देखने इकट्ठे होते हैं। मारपीट हो जाती है। एक गेंद को इस तरफ से उस तरफ करते हो, शर्म नहीं आती। मगर सारी जिंदगी ऐसी है। कुछ भी करने को बहाना मिल जाए। ताश फेंकते रहते हैं, ताश बिखेरते रहते हैं। शतरंज बिछा लेते हैं। जिंदगी में तलवार चलाना जरा महंगा धंधा है। घोड़े वगैरह रखना भी जरा मुश्किल है। हाथी तो अब कौन पाले? शतरंज बिछा लेते हो। हाथी-घोड़े चलाते हो। और ऐसे तल्लीन हो जाते हो जैसे सारा जीवन दाव पर लगा है। तुम अपने को कितनी भांति धोखे देते हो।
      बहुत हुआ। अब जागो। और जागने का एक ही उपाय है कि तुम थोड़ी देर को रोज खाली बैठने लगो। कुछ भी मत करो। करना ही तुम्हारा संसार है। न करना ही तुम्हारा निर्वाण बनेगा। कुछ देर को खाली बैठने लगो। घडी-दो घड़ी ऐसे हो जाओ जैसे हो ही नहीं। एक शून्य सन्नाटा छा जाए। श्वास चले, चलती रहे। लेकिन कृत्य की कोई आसपास भनक न रह जाए। तुम बस चुपचाप बैठे रहो। धीरे-धीरे-शुरू में तो बड़ी बेचैनी होगी, बड़ी तलफ पकड़ेगी कि कुछ भी कर गुजरो, क्या बैठे यहां समय खराब कर रहे हो-लेकिन जल्दी ही तुम पाओगे कि जीवन की तरंगें शात होती जाती हैं; भीतर के द्वार खुलते हैं।
      मेरे पास लोग आते हैं। उनसे मैं कहता हूं र चुप बैठ जाओ। वे कहते हैं, यह
हमसे न होगा। कम से कम मंत्र ही दे दें। तो हम वही जपेंगे। मगर करेंगे। माला दे दें, उसको ही फिराते रहेंगे।
      अब शतरंज में और माला में कोई फर्क है? चाहे तुम फिल्मी गीत गुनगुनाओ और चाहे तुम राम-राम जपो, कोई फर्क नहीं। असली सवाल तुम्हारे व्यस्त होने का है। कैसे तुम अव्यस्त हो जाओ, अनआकुपाइड हो जाओ।
      ध्यान का अर्थ है, करने को कुछ भी न हो, बस तुम हो। जैसे फूल हैं। जैसे आकाश के तारे हैं। ऐसे बस हो गये। कुछ नहीं करने को। कठिन है बहुत, सर्वाधिक कठिन है। इससे ज्यादा कठिन कुछ भी नहीं।
      लेकिन अगर तुम बैठते ही रहे, बैठते ही रहे, बैठते ही रहे तो किसी दिन अचानक तुम पाओगे बज उठी कोई वीणा भीतर से। उसकी भविष्यवाणी नहीं की जा सकती। मैं कुछ कह नहीं सकता, कब यह होगा। तुम पर निर्भर है। आज हो सकता है। जन्म भर न हो। तुम पर निर्भर है।
      लेकिन किसी दिन जब बज उठेगी तुम्हारी भीतर की वीणा, तब तुम पाओगे व्यर्थ गंवाया जीवन। भीतर इतना बड़ा उत्सव चल रहा था, हम हाथी-घोड़े चलाते रहे। भीतर इतने बड़े आनंद की अहर्निश वर्षा हो रही थी, भीतर स्वर्ग के द्वार खुले थे, हम बाजार में गंवाते रहे।
      मैं यह नहीं कह रहा हूं कि तुम बाजार छोड़कर भाग जाओ। मैं तुमसे यह कह रहा हूं कि चौबीस घंटे में दो घड़ी अपने लिए निकाल लो। बाकी सब घड़ी बाजार में गंवा दो, कोई हर्जा नहीं। जिंदगी के आखिर में तुम पाओगे, जो बैठकर तुमने गुजारा समय, वही बचाया, बाकी सब गया।
      और एक बार तुम्हारे भीतर का यह अंतर्नाद तुम्हें सुनाई पड़ने लगे-उसे ओंकार कहो, या जो तुम्हारी मर्जी हो-जिस दिन यह भीतर का अंतर्नाद तुम्हें सुनाई पड़ने लगेगा, उस दिन फिर तुम बाजार में रहो, दुकान में रहो, जहा रहो, कोई फर्क नहीं पड़ता, भीतर की वीणा बजती ही रहती है। सदा बजती रही है। सिर्फ तुम्हें सुनने की आदत नहीं है। सुनने की सामर्थ्य नहीं है। तुम तालमेल नहीं बिठा पाए हो।
      तो अच्छा हुआ कि हालत त्रिशंकु की हो गई। न पीछे जाने का कोई रास्ता-भगवान को धन्यवाद दो! न आगे जाने का कोई उपाय-बड़ा सौभाग्य! अब बैठ जाओ। वहीं बैठ जाओ जहा हो। न पीछे लौटकर देखो, न आगे। आंख बंद कर लो। कहीं जाना नहीं है। अपने पर आना है।
      जिसे तुम खोजते हो, वह तुम में छिपा है। जिसकी तरफ तुम जा रहे हो, वह तुम में बसा है। आखिर में यही पाया जाता है कि हम जिसे तलाशते थे, वह तलाश करने वाले में ही छिपा था। इसीलिए तो इतनी देर लग गई और खोज न पाए।



आखिरी सवाल:


प्रेम मैंने जाना नहीं, यही मेरे जीवन की चुभन रही। यही कारण होगा जिसने मुझे ध्यान में गति दी। ध्यान से अशांति और वैर-भाव मिट रहे हैं। भक्ति और समर्पण मेरे लिए कोरे शब्द रहे। फिर भी ध्यान में और विशेषकर प्रवचन में, कई बार यह प्रगाढ़ भाव बना रहता है कि इस जीवन में जो भी मिल सकता था, सब मिला हुआ है।


      जीवन में कुछ भी दुर्भाग्य नहीं है। बाधाएं ही सीढ़ियां भी बन सकती हैं। और सीढ़ियां बाधाएं भी बन सकती हैं। सौभाग्य और दुर्भाग्य तुम्हारे हाथ में है। जीवन तटस्थ अवसर है। एक राह पर बड़ा पत्थर पड़ा हो, तुम वहीं अटककर बैठ सकते हो कि अब कैसे जाएं, पत्थर आ गया। तुम उस पत्थर पर चढ़ भी सकते हो। और तब तुम पाओगे कि पत्थर ने तुम्हारी ऊंचाई बढ़ा दी। तुम्हारी दृष्टि का विस्तार बढ़ा दिया। तुम रास्ते को और दूर तक देखने लगे। जितना पत्थर के बिना देखना संभव न था। तब पत्थर सीढ़ी हो गया।
      यह प्रश्न है कि 'मैंने प्रेम जीवन में नहीं जाना, यही मेरे जीवन की चुभन रही।
      'उसे चुभन मत समझो अब। प्रेम नहीं जाना, निश्चित ही इसीलिए ध्यान की तरफ आना हुआ। उसे सौभाग्य बना लो। अब प्रेम की बात ही छोड़ दो। क्योंकि जिसने ध्यान जान लिया, प्रेम तो उसकी छाया की तरह अपने आप आ जाएगा।
      दो ही विकल्प हैं परमात्मा को पाने के। दो ही राहें हैं। एक है प्रेम, एक है ध्यान। जो मिलता है वह तो एक ही है। कोई प्रेम से उसकी तरफ जाता है। उस रास्ते की सुविधाएं हैं, खतरे भी। सुविधा यह है कि प्रेम बड़ा सहज है, स्वाभाविक है। खतरा भी यही है कि इतना स्वाभाविक है कि उसमें उलझ जाने का डर है। होश नहीं रहता। बेहोशी हो जाती है।
      इसलिए अधिक लोग प्रेम से परमात्मा तक नहीं पहुंचते, प्रेम से छोटे-छोटे कारागृह बना लेते हैं, उन्हीं में बंद हो जाते हैं। प्रेम बहुत कम लोगों के लिए मुक्ति बनता है, अधिक लोगों के लिए बंधन बन जाता है। प्रेम अधिक लोगों के लिए राग बन जाता है। और जब तक प्रेम विराग न हो तब तक परमात्मा तक पहुंचना नहीं होता।
      तो प्रेम की सुविधा है कि वह स्वाभाविक है। प्रत्येक व्यक्ति के भीतर प्रेम की उमंग है। खतरा भी यही है कि वह इतना स्वाभाविक है कि उसमें होश रखने की जरूरत नहीं। तुम उसमें उलझ सकते हो।
      जिनके जीवन में प्रेम नहीं संभव हो पाया-और बहुत लोगों के जीवन में संभव
नहीं हो पाया है-तो बैठकर काटे को पकड़कर मत पूजते रहो। नहीं प्रेम संभव हुआ, चिंता छोड़ो। ध्यान संभव है। और ध्यान के भी खतरे हैं और सुविधाएं भी। खतरा यही है कि श्रम करना होगा, चेष्टा करनी होगी। प्रयास और साधना करनी होगी। संकल्प करना होगा। अगर जरा भी शिथिलता की तो ध्यान न सधेगा। अगर जरा भी आलस्य की तो ध्यान न सधेगा। अगर ऐसे ही सोचा कि कुनकुने-कुनकुने कर लेंगे, तो न सधेगा। जलना पड़ेगा। सौ डिग्री पर उबलना पड़ेगा। यह तो कठिनाई है। लेकिन फायदा भी है कि थोड़ा भी ध्यान सधे, तो साथ में होश भी सधता है। क्योंकि प्रयास, साधना, संकल्प।
      इसलिए ध्यान सधे, तो कभी भी कारागृह नहीं बनता। कठिनाई है सधने की। प्रेम सध तो जाता है बड़ी आसानी से, लेकिन जल्दी ही जंजीरें ढल जाती हैं। ध्यान सधता है मुश्किल से, लेकिन सध जाए तो सदा ही मोक्ष और सदा ही मुक्ति के आकाश की तरफ ले जाता है।
      और दुनिया में दो तरह के लोग हैं। एक तो वे कि अगर प्रेम न सधा, तो उन्होंने ध्यान को साध लिया। और जो ऊर्जा प्रेम में जाती, वही सारी ध्यान में संलग्न हो गई। या जो ध्यान न सधा, तो उन्होंने सारी ऊर्जा को प्रेम में समर्पित कर दिया। या तो भक्त बनो, या ध्यानी। ये एक तरह के लोग हैं।
      दूसरे तरह के लोग हैं, उनसे प्रेम न सधा, तो ध्यान की तरफ तो न गये, बस प्रेम का रोना लेकर बैठे हैं। रो रहे हैं कि प्रेम न सधा। और उन्हीं की तरह के दूसरे लोग भी हैं कि ध्यान न सधा, तो बस वे बैठे हैं, रो रहे हैं उदास मंदिरों में, आश्रमों में कि ध्यान न सधा। वे प्रेम की तरफ न गये।
      मैं तुमसे कहता हूं सब साधन तुम्हारे लिए हैं, तुम किसी साधन के लिए नहीं। प्रेम से सधे, प्रेम से साध लेना। ध्यान से सधे, ध्यान से साध लेना। साधन का थोड़े ही मूल्य है। तुम बैलगाड़ी से यहां मेरे पास आए, कि पैदल आए, कि ट्रेन से आए, कि हवाई जहाज से आए आ गये, बात खतम हो गई। तुम कैसे आए इसका क्या प्रयोजन है? पहुंच गये, बात समाप्त हो गई।
      ध्यान रखना पहुंचने का। फिर प्रेम से हो कि ध्यान से हो, भक्ति से हो कि ज्ञान से हो। इस उलझन में बहुत मत पड़ना। साधन को साध्य मत समझ लेना। साधन का उपयोग करना है। सीढ़ी से चढ़ जाना है और भूल जाना है। नाव से उतर जाना है और विस्मरण कर देना है नाव का।
      इतनी ही याद बनी रहे कि सब धर्म तुम्हारे लिए हैं। सब साधन, विधियां तुम्हारे लिए हैं। तुम्हीं गंतव्य हो। तुम्हीं हो जहा पहुंचना है। तुमसे ऊपर कुछ भी नहीं।
      साबार ऊपर मानुस सत्य ताहार ऊपर नाहीं।
      चंडीदास के ये शब्द हैं कि सबसे ऊपर मनुष्य का सत्य है। उसके ऊपर कुछ भी नहीं है। इसका यह मतलब नहीं है कि परमात्मा नहीं है। इसका इतना ही मतलब
है कि मनुष्य अगर अपने सत्य को जान ले, तो परमात्मा को जान ले।
      साबार ऊपर मानुस सत्य ताहार ऊपर नाहीं।
      तुम सबसे ऊपर हो। क्योंकि तुम अपने अंतरतम में छिपे परमात्मा हो। बीज हो अभी, कभी फूल बन जाओगे। लेकिन बीज में फूल छिपा ही है। न खाद का कोई मूल्य है, न जमीन का, न सूरज की किरणों का। इतना ही मूल्य है कि तुम्हारे भीतर जो छिपा है वह प्रगट हो जाए।
इसलिए व्यर्थ के साधनों की बहुत जिद्द मत करना। जैसे भी पहुंचों, पहुंच जाना। परमात्मा तुमसे यह न पूछेगा, किस मार्ग से आए? कैसे आए? आ गये,

आज इतना ही।

 ओशो


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