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गुरुवार, 8 सितंबर 2016

एस धम्‍मो सनंतनो--(प्रवचन--023)

सत्संग—सौरभ—(प्रवचन—तेइसवां)

सारसूत्र:
यावजीवम्‍पि ते बालो पंडितं पयिरूपासति।
न सो धम्मं दब्बी सूपरसं यथा।।58।।

मुहुत्‍तमपि चे विज्‍यू पंडितं पयिरूपासिति।
खिप्‍पं धम्मं विजानाति जिव्‍हा सुरपरसं यथा।।59।।

चरंति बाला दुम्‍मेधा अमित्‍तेनेव अत्तना।
करन्‍तो पापकं कम्मं यं कटुकफ्फलं।।60।।

ज सत्संग की कुछ बात करें। इन सूत्रों में सत्संग की ही आधारशिला है। सत्संग से ज्यादा महत्वपूर्ण कुछ और नहीं है। अंधे को जैसे आंख मिल जाए, या गूंगे को जबान; या मुर्दा जैसे जग जाए और जीवित हो जाए, ऐसा सत्संग है। सत्संग का अर्थ है : तुम्हें पता नहीं है; किसी ऐसे का साथ मिल जाए जिसे पता है, तो जैसे तुम्हें ही पता हो गया; तो जैसे तुम्हारे हाथ में अंधेरे में मशाल आ गई।
      सत्संग का अर्थ है जैसे तुम अंधकार में हो और अचानक बिजली कौंध जाए। एक रोशनी चारों तरफ फैल जाए। फिर चाहे अंधेरा घिर जाए लेकिन तुम दुबारा वही न हो सकोगे। तुम फिर अंधेरे में न हो सकोगे। अब तुम जानते हो कि रास्ता है। अब तुम जानते हो कि मंजिल है। सत्संग में न केवल तुम्हें रास्ते का पता चलता है, मंजिल का पता चलता है। तुम्हें उस आदमी का भी स्वाद मिल जाता है, जो मंजिल पर पहुंच गया है। तुम्हें अपने भविष्य की झलक मिलती है। तुम जो हो सकते हो, उसका सपना जगता है। तुम जो नहीं हो पा रहे हो उसकी पीड़ा पैदा होती है।
      सत्संग परम सुख भी है, परम पीड़ा भी।
      पीड़ा—कि गंवाया बहुत। पीड़ा—कि अब तक व्यर्थ ही भटके। पीड़ा—कि अब तक चले तो बहुत, लेकिन पैर मार्ग पर न पड़े। पीड़ा—कि जन्मों—जन्मों में कितनी यात्रा की, और इंचभर मंजिल से दूरी कम न हुई।
      और सुख, एक महासुख, कि भला हम न पहुंचे हों, कोई और हम जैसा पहुंच गया। भला हम न पहुंचे हों, लेकिन पहुंचना संभव है। भला हम न पहुंचे हों, लेकिन मनुष्य पहुंच सकता है, यह भरोसा।
      पीड़ा बड़ी है, लेकिन सत्संग का सुख उससे भी बड़ा है। पीड़ा के उन्हीं कीटों के बीच सत्संग का गुलाब खिलता है, फूल खिलता है। अपने लिए तुम रोते हो, लेकिन अब किसी और के लिए, और किसी और में अपने भविष्य की झलक पाकर अपने लिए भी नाचते हो।
      सत्संग कुछ ऐसी बात है, जिसका पूरब को पता है, पश्चिम को पता ही नहीं। वह आयाम पश्चिम से अपरिचित ही रह गया। और आधुनिक मनुष्य, चाहे पूरब में हो चाहे पश्चिम में, करीब—करीब पश्चिम का है, पाश्चात्य है। इसलिए आधुनिक मनुष्य को भी सत्संग का राज चूका जाता है। पूरब में हमने एक अनूठी बात जानी, कि कुछ ऐसे राज हैं कि अगर तुम जानने वाले आदमी के पास बैठ भी जाओ तो तुम्हें रूपांतरित कर देते हैं।
      सदगुरु केटालिटिक है। कुछ करता नहीं और तुम्हारे भीतर कुछ हो जाता है। उसकी मौजूदगी काफी है। उसकी मौजूदगी करती है। तुममें भर इतना साहस चाहिए कि तुम अपने द्वार—दरवाजे थोड़े उसके लिए खोलो। तुममें इतना साहस चाहिए कि तुम अपनी आंख को मींचकर न बैठे रहो। आंख थोड़ी खोलो। तुममें इतना साहस चाहिए कि तुम उसका स्वागत करो कि आओ मेरे भीतर, पधारो।
      तुम्हारी तरफ से इतना आमंत्रण—और ऐसी रोशनी जो तुमने कभी नहीं जानी, अचानक तुम्हारे भीतर उतरने लगती है। ठीक होगा कहना, उतरती नहीं, तुम्हारे भीतर जगती है। तुम्हारे भीतर सोई पड़ी थी। समान—समान से आंदोलित हो जाता है। समान —समान से आकर्षित हो जाता है। समान की समान पर कशिश है।
      तो जब किसी व्यक्ति के भीतर रोशनी का सागर होता है, तो तुम्हारे भीतर का सोया सागर भी करवट लेने लगता है। दूसरे की वासना तुम्हारी वासनाओं को जगा देती है। दूसरे की कामना तुम्हारी कामनाओं में अंकुरण कर देती है। दूसरे का कामना—मुका जीवन, तुम्हारे भीतर भी नए आयाम की शुरुआत होती है। दूसरे का करुणा से भरा हुआ हृदय तुम्हारे भीतर भी क्षणभर को उन ऊंचाइयों पर तुम्हें उठा देता है, जिन पर तुम अभी गए नहीं। जैसे छोटा बच्चा अपने बाप के कंधों पर बैठकर बाप से भी ऊंचा हो जाता है। जहां तक बाप को भी नहीं दिखाई पड़ता, वहां तक छोटे बच्चे को दिखाई पड़ने लगता है—बाप के कंधों पर।
      सत्संग का अर्थ है किन्हीं के चरणों में इतना झुक जाना, किन्हीं के प्रति इतना समर्पित हो जाना, कि तुम उन कंधों पर बैठने के हकदार बन सको। गुरु तुम्हें कंधों पर उठा लेता है। लेकिन उस उठाने के पहले जरूरी है कि तुम छोटे बच्चे की तरह झुक जाओ। तुम छोटे बच्चे की तरह निर्दोष हो जाओ।
      सत्संग की बड़ी कीमिया है, अल्केमी है। उसका अपना पूरा शास्त्र है। बाहर से खड़ा कोई देखता रहे तो उसे पता भी न चलेगा। यह कोई जोर—जोर से होने वाली वार्ता नहीं है। यह तो दो दिलों के बीच होने वाली गुफ्तगू है। यह तो दो दिलों के बीच होने वाली फुसफुसाहट है। कानों—कान इसकी किसी को खबर भी नहीं होती। बात कही भी नहीं जाती और पहुंच जाती है। कुछ किया भी नहीं जाता और क्रांति घट जाती है। बस, इतना ही चाहिए कि तुम आंख खोलकर देखने को तैयार हो।
      सदगुरु यानी सत्संग।
      सदगुरु का कुछ और उपयोग नहीं है। एक अर्थ में सदगुरु बिलकुल ही गैर—उपयोगी है। तुम अगर संसार में उसका उपयोग खोजने जाओ तो कुछ भी उपयोग नहीं है। तुम उसे बेचने जाओ संसार में तो कुछ मूल्य न पा सकोगे। बाजार में उसकी कोई कीमत नहीं। क्योंकि सदगुरु कोई कमोडिटी, कोई बाजार की दुकान पर बिकने वाली चीज नहीं है। वस्तुत: उपयोगिता के जगत में उसका कोई भी मूल्य नहीं।
      सदगुरु का मूल्य निर—उपयोगिता के जगत में है। या उस जगत में है, जहा हम उपयोगिता के भी पार उठते हैं। अतिक्रमण होता है फूलों के जगत में, सुगंधों के जगत में। जहा होना ही आनंद है। जहां हम किसी और क्षण के लिए नहीं जीते। जहा जीवन एक साधन नहीं है, परम साध्य है। जहां प्रतिक्षण मोक्ष है, मुक्ति है।
      सदगुरु के पास होना सदगुरु का उपयोग है।
      सत्संग का अर्थ है पास होना।
      उपनिषद शब्द का भी यही अर्थ है। उपनिषद का अर्थ है गुरु के पास होना। उपनिषद की वर्षा हुई उन लोगों पर, जो गुरु के पास हो गए। उन पर फूल ही बरस गए। उनके जीवन में नए चांद—तारों का आविर्भाव हुआ।
      पास कैसे होओगे? समर्पण की कला सीखो, तो सत्संग उपलब्ध होता है। समर्पण के बीज से ही सत्संग का फूल खिलता है।
      बुद्ध के ये सूत्र सत्संग के सूत्र हैं। पहला
      'यदि मूढ़ जीवनभर पंडित के साथ रहे तो भी वह धर्म को वैसे ही नहीं जान सकता है, जैसे कलछी दाल के रस को नहीं जानती।
      रहती जीवनभर साथ है। कलछी दाल में ही पड़ी रहती है। लेकिन दाल का रस उसे कभी पता नहीं चलता।
      न सो धम्म विजानाति दब्‍बी सूपरसं यथा।
      ऐसे ही मूढ़—वही छू है बस, जो सत्संग का अवसर पाकर भी वंचित रह जाए। ऐसा अपूर्व अवसर मिले और जो कलछी की तरह दाल में पड़ा रह जाए और जिसे स्वाद न आए।
      मूढ़ता का एक ही अर्थ है कि जो अपने को खोले न, बंद रखे।
ऐसे मूढ़ तो अपने मन में यही समझता है कि बड़ा होशियार है। वह मूढ़ का लक्षण है, कि वह अपने को होशियार समझता है। अपनी होशियारी में ही मरता है। होशियारी ही ले डूबती है।
      मैंने यही देखा। नासमझों को पार होते देखा, समझदारों को डूब जाते देखा। नासमझी नाव भी बन जाती है। लेकिन समझदारी तो सिर्फ डुबाती है, सिर्फ डुबाती है। क्योंकि अहंकार वजनी चट्टान है। गर्दन से बांध ली तो नदी पार न हो सकोगे। अकेले तो पार हो भी जाते। बिना नाव के भी पार हो जाते। नदी नहीं डुबाती, नदी ने कभी किसी को नहीं डुबाया। गर्दन में बंधी चट्टान डुबाती है। और तुम अपनी कुशलता में, अपनी समझदारी में बड़ी से बड़ी चट्टानों को ढोने का आग्रह रखते हो। तुम्हारी चेष्टा यही है कि तुम परमात्मा में 'तुम' रहते प्रविष्ट हो जाओ। बस, यह 'तुम' ही गले में बंधी चट्टान है। यह अहंकार ही ले डूबेगा।
      मूढ़ का अर्थ है : जो अपनी समझदारी में अपने को बचाए चला जाता है। थोड़ा समझना, क्योंकि थोड़ी न बहुत मूढ़ता सभी के भीतर है। कम ज्यादा हो, मात्रा में फर्क हो, है तो जरूर। तो समझने की कोशिश करना। मूढ़ता का अर्थ है : तुम सोचते हो कि तुम बड़ी बहुमूल्य चीजें बचा रहे हो।
      कल एक युवती ने मुझे कहा कि वह बगावती है, विद्रोही है। तो कुछ भी उसे कहा जाए, उससे उलटा करती है।
      अब यह मूढ़ता का लक्षण हुआ। लेकिन वह अंकड़ी है। उसका खयाल है, रसके पास कुछ बेजोड़ व्यक्तित्व है। बगावती है, विद्रोही है।
      अहंकार बड़ी तरकीबें खोजता है। बगावत के आभूषण खोजता है। विद्रोह के आवरणों में छिप जाता है। अच्छे—अच्छे नारे लिख लेता है अपने चारों तरफ। उनके बीच सुरक्षित हो जाता है। अब यह भी मूढ़ता की बात हुई कि जो भी कहा जाए, उसी को ही कहने में कठिनाई मालूम पड़ती है।
      जरूर न कहने की तैयारी रखो। बहुत कुछ है जिंदगी में जिसको न कहना है। अगर न कहना नहीं जानते तो तुम्हारे ही कहने का कोई भी अर्थ नहीं, कोई मूल्य नहीं। तुम्हारी हा कचरा है। तुम्हारे न से ही बल आता है, शक्ति आती है। जरूर न कहने की तैयारी रखो, लेकिन न कहने की तैयारी का मतलब इतना ही है कि हां कहने की तैयारी में सहयोगी हो। नकार अपने आप में मूल्यवान नहीं है। जरूर घास—पात को काटो, लेकिन फूलों के बीज भी बोओ। जरूर व्यर्थ को जलाओ, लेकिन सार्थक को सम्हालो भी। कंकड़—पत्थर को छोड़ो, निश्चित छोड़ना ही है, लेकिन हीरों को मत फेंक देना। न कहो, लेकिन हर चीज के लिए न कहोगे? तब तो आत्मघात हो जाएगा। तुम्हारा इंकार बगावत न हुई, आत्महत्या हुई।
      जरूर न कहो, पर तुम्हारी न तुम्हारे अत्यंत विवेक से निकले, विद्रोह से नहीं। न कहने के मजे से नहीं, न कहना है इसलिए नहीं, न कहने के लिए नहीं। हां की तलाश में बहुत न भी कहनी पड़ेगी। हीरों की खोज में बहुत पत्थर छोड़ने पड़ेंगे। लेकिन खोज पर नजर रहे। ध्यान विधेय पर हो; नकार का उपयोग कर लेना है। उपनिषद कहते हैं, नेति—नेति विधि है ब्रह्म को पाने की। न कहना.? न कहना विधि है ब्रह्म को पाने की : यह भी नहीं, वह भी नहीं। लेकिन ध्यान रखना, खोजते चले जाना। यह तो न कहना तो सिर्फ उपाय है, ताकि व्यर्थ का इंकार हो जाए, सार्थक बच रहे, सार्थक में डुबकी लग जाए।
      अब अगर न कहना ही जीवन की आदत हो जाए, यह जीवन की शैली बन जाए, कि तुम ही कहने में असमर्थ हो जाओ, पंगु हो जाओ, कि ही तुमसे निकल ही न सके, कि हा की गरदन तुम घोंट दो भीतर, तो फिर तुमने आत्महत्या कर ली। यह फिर मूढ़ता हो गई। फिर नहीं ने तुम्हें मारा। फिर नहीं तुम्हारी कब्र बन गई। फिर तुम नहीं का उपयोग न कर सके। नहीं ने ही तुम्हारा उपयोग कर लिया।
      मत कहो इसे विद्रोह। मत कहो बगावत। बगावत बड़ी बात है। विद्रोह कीमती शब्द है। ऐसी क्षुद्रता के लिए उसका उपयोग मत करो। यह सिर्फ अहंकार है। और अहंकार मूढ़ता है। मैं तुम्हें न कहना सिखाता हूं? ताकि तुम हा कह सको किसी दिन। मैं चाहता हूं कि तुम्हारी न इतनी प्रगाढ़ हो जाए कि जब तुम ही कहो तो तुम्हारी हा की कोई सीमा न रहे। न जरूर कहो, ताकि हां में धार आ जाए। लेकिन न पर ही धार मत देते रहना। अन्यथा खुद की ही गरदन काट लोगे। कोई और न कटेगा इससे, खुद ही कटोगे।
      लेकिन जिस युवती ने मुझे यह कहा, वह अपने को बुद्धिमान समझती है। सुशिक्षित है। लेकिन सुशिक्षित होने से कहीं कोई बुद्धिमान हुआ? अन्यथा दुनिया में इतने बुद्धिमान होते, जिसका हिसाब न रहता। सुशिक्षित लोग तो बहुत हैं। पढ़े—लिखे लोग तो बहुत हैं। लेकिन पढ़े—लिखे होने से, साक्षर होने से सुबुद्धि का कोई भी संबंध नहीं। निरक्षर होकर भी सुबुद्धि हो सकती है, साक्षर होकर भी न हो। अक्सर ऐसा ही होता है कि साक्षर अपनी साक्षरता में ही सुबुद्धि को खो देता है। समझ लेता है कि बस, विश्वविद्यालय की उपाधियों में सब ज्ञान मिल गया। इसलिए तो संसार में बुद्धों का होना कम होता चला गया है। क्योंकि ज्ञान के नाम पर छूता ने घर बना लिए हैं। ज्ञान  के नाम पर मूढ़ता ने इतना इंतजाम कर लिया है, विश्वविद्यालयों की इतनी उपाधियां इकट्ठी कर ली हैं अपने चारों तरफ, कि बुद्धत्व के जन्म की संभावना न रही।
      बुद्धत्व के जन्म का पहला सूत्र है : अपने अज्ञान को समझना।
मूढ़ वही है, जो सोचता है कि तानी है। और अमूढ़ वही है, जिसने समझा कि मैं अज्ञानी हूं। अमूढ़ सत्संग को उपलब्ध हो सकेगा। मूढ़ दाल में कलछी की तरह पड़ा रहे जीवनभर, तो भी उसे कुछ स्वाद न लगेगा।
      ऐसे लोगों को मैं जानता हूं, जिनसे मेरा संबंध वर्षों का है, लेकिन वे कलछी की भाति ही मुझसे जुड़े रहे। उन्हें कुछ स्वाद नहीं लगा। उन पर दया आती है। उनके लिए आंसू बहते हैं, लेकिन कोई उपाय नहीं। कलछी—कलछी है। जब तक वही राजी न हो बदलने को, तब तक कुछ भी किया नहीं जा सकता।
      'यदि मूढ़ जीवनभर पंडित के साथ रहे तो भी वह धर्म को वैसे ही नहीं जान सकता है, जैसे कलछी दाल के रस को नहीं जानती है।'
      कलछी बड़ी कठोर है, सख्त है। उसकी सख्ती के कारण ही संवेदना—शून्य है। तुम कलछी की भाति मत रहना। सख्त मत रहना। थोड़े संवेदनशील बनो। अपने चारों तरफ एक पर्त को मत खड़ी करो। उस पर्त के कारण न तुम रो सकते हो, न तुम हंस सकते हो। उस पर्त के कारण तुम्हारा सब झूठा हो गया है, अप्रामाणिक हो गया है। सूरज उगता है, लेकिन तुम्हें दिखाई नहीं पड़ता। फूल खिलते हैं, लेकिन तुम्हारे प्राणों से उनका कोई संबंध नहीं जुड़ता। हवाएं आती हैं, लेकिन तुम्हें बिना छुए गुजर जाती हैं।
      परमात्मा हजार—हजार ढंग से तुम्हारे द्वार पर दस्तक देता है। तुम हजार—हजार ढंग से अपने को समझा लेते हो, कुछ और होगा, कोई राहगीर होगा, या कोई भिखमंगा आ गया होगा, या हवा का झोंका आया होगा। उसकी पगध्वनियां बहुत बार तुम्हारे करीब आती हैं। तुम्हारे हृदय की धड़कन से भी ज्यादा करीब उसकी पगध्वनियां हैं। सत्य तुम्हारे तुमसे भी ज्यादा करीब है, क्योंकि सत्य तुम्हारा स्वभाव है। एस धम्मो सनंतनो। लेकिन तुम अपने ऊहापोह में ऐसे उलझे हो कि जो निकटतम है, समीपतम है, वह भी सुनाई नहीं पड़ता।
      संवेदनशील बनो। सत्संग का पहला सूत्र है, संवेदनशील बनो। अगर तुम परमात्मा की हवाओं के लिए मुका नहीं, अगर परमात्मा की सूरज की किरणें तुम पर पड़ती हों लेकिन तुम अछूते रह जाते हो, तो तुम परमात्मा के लिए भी खुले नहीं हो। और जब परमात्मा किसी सदगुरु में तुम्हारे बीच खड़ा हो जाएगा, तब तुम हजार तरह की व्याख्याएं कर लोगे। तुम्हारी व्याख्याएं ही तुम्हारे और सदगुरु के बीच में दीवालें बन जाएंगी। तुम्हारे शब्द, तुम्हारी समझदारी ही तुम्हारी आंख पर पर्दा डाल देगी। और तुम वही समझ लोगे, जो तुम समझ सकते थे। सत्संग वहीं चूक जाता छै। वह समझो, जो सदगुरु है। वह मत समझो, जो तुम समझ सकते हो।
      अपनी समझ को थोड़ा किनारे रखो। अपनी समझ को थोड़ी बाद दो। अपनी समझ को कभी—कभी छोड़ भी आए घर। जहां जूते उतारते हो, वहीं उसे भी उतार—आए। कभी—कभी बुद्धि को छोड़कर  भी जीयो। हृदय से ही, कभी—कभी प्रेम से ही देखो, विचार से नहीं।
      कभी संवेदनशीलता में ऐसे डूब जाओ, कि भूल ही जाओ कौन हो तुम—स्त्री था पुरुष, गरीब या अमीर, काले या गोरे, बच्चे या बूढ़े, सुंदर या कुरूप, बुद्धिमान। क बुद्धिहीन। कभी प्रेम में ऐसी डुबकी लगाओ कि ये सब कोटियां भूल ही जाएं। सा रहो, कोई कोटि तुम्हारे आसपास न हो। कोई लेबल न रह जाए, कोई विशेषण न शो। हिंदू नहीं, मुसलमान नहीं, ईसाई नहीं, जैन नहीं, बस तुम—खाली, निर्विकार, कोरे कागज की भाति।
      तत्क्षण तुम्हारे ऊपर वेद उतरने शुरू हो जाते हैं। तुम उपलब्ध हो गए। तुम खुल गए। उपनिषदों की वर्षा होनी शुरू हो जाती है।
      सदगुरु जो कहना चाहता है, या सदगुरु का अस्तित्व जो कह रहा है, उसे समझने के लिए तुम्हें अपने को जरा अपने से दूर रखना ही पड़ेगा। क्योंकि वह किसी .,गैर लोक की खबर लाया है। वह गीत लाया है किसी और लोक के। वह संपदाएं लाया है अपरिचित, अनजान, अज्ञेय की। तुम जरा अपनी परख और समझ को किनारे रखो।
      मिश्र में एक अदभुत फकीर हुआ, झुन्‍नून। एक युवक ने आकर उससे पूछा, मैं '' औ। सक्का का आकांक्षी हूं। मुझे भी चरणों में जगह दो। झुन्‍नून ने उसकी तरफ। : रहा—दिखाई पड़ी होगी कलछी—उसने कहा, तू एक काम कर। खीसे से एक। पत्‍थर निकाला और कहा, जा बाजार में, सब्जी मंडी में चला जा, और दुकानदारों से पूछना कि इसके कितने दाम मिल सकते हैं।
वह भागा गया। उसने जाकर सब्जियां बेचने वाले लोगों से पूछा। कई ने तो कहा कि हमें जरूरत ही नहीं है, दाम का क्या सवाल? दाम तो जरूरत से होता है। हटाओ अपने पत्थर को। पर किसी ने कहा कि ठीक है, सब्जी तौलने के काम आ जाएगा। तो दो पैसे ले लो, चार पैसे ले लो, पत्थर रंगीन है।
      पर झुन्‍नून ने कहा था, बेचना मत, सिर्फ दाम पूछकर आ जाना। ज्यादा से ज्यादा कितने दाम मिल सकते हैं? सब तरफ पूछकर आ गया, चार पैसे से ज्यादा कोई देने को तैयार न था।
      आकर कहा कि चार पैसे से ज्यादा कोई देने को तैयार नहीं है। बहुत तो लेने को ही तैयार नहीं। बहुतों ने तो झिड़क कि हटो यहां से, सुबह का वक्त! हम ग्राहकों से बात करें, कि यह पत्थर लेकर आ गए! शाम को आना। किसी ने उत्सुकता भी दिखाई तो इसीलिए कि सब्जी तौलने के काम आ जाएगा 1 एक आदमी ऐसा भी मिला, उसने कहा कि कोई काम का तो नहीं, लेकिन बच्चे खेलेंगे। अब तुम ले आए हो तो चलो, चार पैसे ले लो। बड़ी दया से उन्होंने चार पैसे देने को कहा है'—बेच आऊं?
      गुरु ने कहा, अब तू ऐसा कर, सोने—चांदी के बाजार में चला जा, वहां पूछ आ। लेकिन बेचना नहीं है, सिर्फ दाम पता लगाने हैं। वह वहा गया, वह तो हैरान होकर लौटा। सोने—चांदी के दुकानदार हजार रुपया देने को तैयार थे। भरोसा ही न आया। कहां चार पैसे, कहां हजार रुपए! बहुत फर्क हो गया। लगा कि बेच ही दे। जो आदमी दे रहा है हजार रुपए; फिर दे या न दे, कल बदल जाए। पर गुरु ने मना किया था। लौटकर आया। कहा, कि अब रोकना ठीक नहीं। हजार रुपए देने वाला एक आदमी मिल गया। पांच सौ से कम में तो किसी ने मांगा ही नहीं।
      गुरु ने कहा, अब तू ऐसा कर, बेच मत देना। अब तू जाकर हीरे—जवाहरात जहा बिकते हैं, जौहरी और पारखी जहां हैं, वहा ले जा; लेकिन बेचना नहीं है। चाहे कोई कितना ही दे और तेरे मन में कितना ही उत्साह आ जाए, बेचना भर नहीं। वहा गया तो चकित हो गया। वहा तो लोग दस लाख रुपया तक देने को तैयार थे उस पत्थर के। वह तो पगलाने लगा। कहो दो पैसे और कहो दस लाख! कई बार तो मन हुआ कि बेचो और रुपए ले जाओ। और यह आदमी पीछे दे, न दे। लेकिन गुरु ने मना किया था।
लौटकर आया। गुरु ने पत्थर ले लिया। उसने कहा, बेचना नहीं है। सिर्फ तुझे यह बताने को पत्थर दिया था कि सत्य का तू आकांक्षी है, इतने से ही सत्य नहीं मिलता; पारखी भी है या नहीं? नहीं है तो हम सत्य देंगे और तू दो पैसे दाम बताएगा। तू दो पैसे का भी न समझेगा। पारखी होकर आ। सत्य तो है और हम देने को भी तैयार हैं। लेकिन सिर्फ इतना तेरे कह देने से कि तू आकांक्षी है, काफी नहीं हल होता। क्योंकि मैं देखता हूं? अकड़ तेरी भारी है। पैर भी तूने झुककर छुए हैं। शरीर तो झुका, तू नहीं झुका। छू लिए हैं उपचार वश, छूने चाहिए इसलिए। और लोग भी छू रहे हैं इसलिए। झुकना ही तुझे नहीं आता, तो जिन हीरों की यहां चर्चा है वह तो झुकने से ही उनकी परख आती है। तो पहले झुकना सीखकर आ।  
      एक दूसरी दुनिया है सत्संग की। और बाहर से तुम जाकर देखोगे, एक सदगुरु के पास किसी को सत्संग करते, तुम्हें कुछ भी समझ में न आएगा। क्योंकि यह भाषा 'गैर है। यह कंकड़—पत्थरों का मामला ही नहीं है। तुम सब्जी मंडी में रहते हो; या बहुत हुआ तो सोने—चांदी की दुकान चलाते हो। लेकिन यह किन्हीं और ही लोक की बातें हैं। और इनके लिए इतना झुक जाना जरूरी है कि करीब—करीब मिट ही जाओ।
      इसलिए जीसस ने कहा है, जो मिट जाएंगे, वे बच जाते हैं। और जो बचाएंगे —अपने को, मिट जाते हैं।
      बचाना अपने को मूढ़ता है। फिर तुम कलछी हो जाते हो।
तुम जिस दुनिया में जीते हो, उस दुनिया को तुमने अपना घर समझा है। सदगुरु कहते हैं, सराय है।
      यह दुनिया इक सत है इसको आखिर छोड़ जाना है
      अगर दो—चार दिन आकर यहां ठहरे तो क्या ठहरे
      लेकिन तुम्हारा सारा जीवन—दृष्टिकोण, तुम्हारे देखने का ढंग, इस दुनिया को। सब कुछ मानकर चलता है। जन्म और मौत के बीच तुम्हारा सब कुछ है। सदगुरु का जन्म के पहले और मृत्यु के बाद सब कुछ है। तुम्हारा सब कुछ जन्म और मृत्यु के बीच में है। यह जो थोड़ी सी सरायें हैं, जहा दो दिन ठहरे तो क्या ठहरे, यहीं तुम्हारा सब कुछ है। सराय की भाषा ही तुम्हारी एकमात्र भाषा है। शाश्वत को तुम्हें होई अनुभूति नहीं।
      और सदगुरु बात करता है तुम्हारी उस समय की, जब तुम पैदा भी न हुए थे। और बात करता है तुम्हारी तब, जब मौत घट जाएगी और फिर भी तुम होओगे; सनातन की, शाश्वत धर्म की, अमृत की। तुम मृत्यु में डूबे खड़े हो। मृत्यु से तुम्हारी एकमात्र पहचान है। जीवन को तो तुम जानते ही नहीं, तो तुम सदगुरु को कैसे जानोगे, जो महाजीवन है? तो तुम कलछी की भांति पड़े रह जाओगे।
      मूढ़ यदि जीवनभर भी सदगुरु के साथ रहे तो भी धर्म को वैसे ही नहीं जान पाता, जैसे कलछी दाल के रस को नहीं जानती है। '
      सदगुरु में मृत्यु भी है, अमृत भी। मृत्यु, क्योंकि तुम जैसी ही देह भी वहा है। और अमृत भी, क्योंकि तुम्हें जिस आत्मा का पता नहीं, वह आत्मा वहां अभिव्यक्त हुई है अपने हजार—हजार रंगों में। उस आत्मा का इंद्रधनुष अनंत के छोरों को छू रहा है। तुम जैसा भी है सदगुरु, तुम से भिन्न भी।
      इक जाम में घोली है बेहोशी—ओ—होशियारी
      सर के लिए गफलत है दिल के लिए बेदारी
      अगर तुमने सिर से ही समझने की कोशिश की, तो तुम सदगुरु के पास से और 'गी मूर्च्छित होकर लौटोगे।
      सर के लिए गफलत है दिल के लिए बेदारी
      और दिल के लिए होश है, जाग जाना है। अगर तुम सदगुरु के पास सिर के साथ ही गए, सिर लेकर गए, सिर से ही सदगुरु का आगमन हुआ तुम्हारे भीतर और आना—जाना चला, सिर ही खुला रहा और हृदय बंद रहा, तो तुम और भी गफलत से भरकर लौटोगे, और भी बेहोश होकर लौटोगे। तुम और भी पंडित होकर लौटोगे। वैसे ही तुम काफी ज्ञानी थे। तुम्हारे ज्ञान में थोड़ी मात्रा और बढ़ जाएगी। ऐसे ही तुम काफी जानते थे अब तुम और होशियार हो जाओगे। सदगुरु के पास जाकर तुम थोड़ी सूचनाएं और इकट्ठी कर लोगे। जानकारियां इकट्ठी कर लोगे। थोड़ा शास्त्र—ज्ञान बढ़ जाएगा। तुम और कुशल हो जाओगे। तुम्हारी खोपड़ी और थोड़ी वजनी हो जाएगी। नाव में और थोड़े पत्थर इकट्ठे हो जाएंगे। गर्दन पर और थोड़ी चट्टान लटक जाएगी। डूबना आसान हो जाएगा, पार होना और मुश्किल हो जाएगा। शास्त्रों को सिर पर रखकर कभी कोई पार हुआ है? तुमने कभी—सुना कि पंडित कभी मोक्ष को उपलब्ध हुआ हो?
      पंडित से मेरा अर्थ है, जिसका सिर भारी। पंडित से मेरा वही अर्थ नहीं, जो बुद्ध का है। बुद्ध के समय पंडित शब्द अभी भी विकृत न हुआ था। अभी भी उसका अर्थ था. प्रज्ञावान, जागा हुआ। पंडित का वही अर्थ था, जो बुद्ध का अर्थ है।
      अब तो पंडित का अर्थ है, जिसने उधार जूठन इकट्ठी कर ली है। इधर से, उधर से कचरा इकट्ठा कर लिया है। कचरे की ही संपत्ति का ढेर लगाकर उसके ऊपर बैठ गया है। उधार से कभी कोई पार हुआ? नगद चाहिए अनुभव।
      तो अगर तुम पंडित हो तो तुम ऐसे हो, जैसे चिकना घड़ा हो। वर्षा होती है, छूता नहीं। सब बह जाता है।
      इक जाम में घोली है बेहोशी—ओ—होशियारी
      सर के लिए गफलत है दिल के लिए बेदारी
      कहां से लोगे, इस पर निर्भर है। मुझे सुनते हो तुम; कहां से सुनते हो? सिर से सुनते हो, मस्तिष्क से सुनते हो, विचारों से सुनते हो? या निर्विचार से, ध्यान से, प्रेम से? श्रद्धा का द्वार खोलते हो मेरे लिए या विचार का?
      अपने भीतर देखना। दोनों झरोखे संभव हैं। और दोनों का स्वाद अलग—अलग। अगर सिर से तुम सुनते हो, तो तुम धीरे—धीरे जानकार होते चले जाओगे। लेकिन अगर हृदय से तुम सुनते हो, तो तुम धीरे—धीरे और भी अपने अज्ञान से भरते चले जाओगे। विनम्र होओगे। जानोगे, कुछ भी तो जानता नहीं। चुप होने लगोगे, मौन होने लगोगे। अवाक रह जाओगे। ठिठकोगे। और उसी अवाक रह जाने में समझ का जन्म है। समझदारी में नहीं, नासमझी के बोध में समझ का जन्म है।
      इधर बहुत वर्षों में बहुत तरह के लोग मेरे निकट आए। धीरे— धीरे मुझे अनुभव


हुआ कि अगर मुझे उन लोगों को तृप्ति देनी है, जिनका संबंध मस्तिष्क का है, तो वे लोग जो हृदय के कारण मेरे करीब आए हैं, कुम्हला जाएंगे। जो लोग हृदय के तारण मेरे पास आए हैं, और जिन्होंने हृदय दाव पर लगाया है, अगर उनके लिए मुझे बरसना है, तो मस्तिष्क के कारण जो लोग मेरे पास आए हैं, वे दूर हट जाएंगे।। केवल दूर हट जाएंगे, नाराज भी हो जाएंगे। इन दोनों को एक साथ तृप्त करना असंभव है। बहुत मैंने चेष्टा की कि दोनों के लिए सहारा मिलता रहे। शायद जो '। मस्तिष्क से आज भरा है, कल झुक जाए। पर लगा, नहीं, असंभव है। कलछी दाल ओर कितने ही समय रहे, रस न ले सकेगी। फिर मुझे उनकी फिक्र ही छोड़ देनी पड़ी।  'गज भी उनके लिए दया है मेरे मन में। लेकिन उनको खुद ही अपने पर दया नहीं भाती, तो मेरी दया क्या कर सकती है?
      कितने काटो की बददुआ ली है
      चंद कलियों की जिंदगी के लिए
      नाराज हैं वे, विरोध में हैं। हजार तरह की आलोचना और निंदा उनके मन में है। उनकी नाराजगी मैं समझ सकता हूँ। लेकिन यह सौदा करने जैसा लगा।
      कितने काटी की बददुआ ली है
      चंद कलियों की जिंदगी के लिए
      यह करने जैसा लगा। एक कली भी खिल जाए और हजार काटे गालिया देते फिरते, क्या फर्क पड़ता है? कोई हर्ज नहीं है। इतना तो तय है कि काटे न खिलते। ही, रन पर ज्यादा ध्यान देने से हो सकता था, यह कली न खिल पाती।
      तो अब तो मेरा संबंध सिर्फ उनसे है, जो हृदय को दांव पर लगाने की हिम्मत रखते हैं, जुआरी हैं। अब दुकानदारों से संबंध नहीं है। इसलिए मैंने सब ऐसे उपाय हर लिए हैं कि उस तरह के लोगों को आने की सुविधा ही न रह जाए। क्योंकि आते है', तो अकारण समय व्यर्थ होता है; अकारण शक्ति, अकारण समय। और उन्हें कुछ होने वाला नहीं है; जब तक कि वे सीखने ही न आएंगे।
      अब विद्यार्थियों में मेरी उत्सुकता नहीं है, केवल शिष्यों में है। और फर्क यही हे कि विद्यार्थी जान लेने आता है, शिष्य जीवन लेने। विद्यार्थी, कुछ जानकारी बढ़ जाए, तृप्त। थोड़ी उसकी संपदा समझ की बढ़ जाए, काफी है। शिष्य अपने को। मिटाने आता है। शिष्य पुनर्जीवन के लिए आता है। शिष्य मरने और जीने की तैयारी लेकर आता है। शिष्य चुनौती स्वीकार करता है सदगुरु की। शिष्य सत्संग के लिए आता है, विद्यार्थी शिक्षित होने के लिए।
      मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं, यदि हम संन्यास न लें, तो क्या आपका प्र साद हमें न मिलेगा? मैं उनसे कहता हूं मेरा तो प्रसाद मिलेगा, लेकिन तुम न ले पाओगे। सवाल मेरे देने का नहीं है, सवाल तुम्हारे लेने का है।
      संन्यास तो केवल एक भाव मुद्रा है, एक गौरव, कि तुम तैयार हो, कि तुम मेरे साथ पागल होने को तैयार हो, कि तुम मेरे साथ चलने को तैयार हो, चाहे सारी दुनिया मेरे खिलाफ जाती हो। संन्यास तो तुम्हारे प्रेम की घोषणा है। संन्यास तो तुम्हारे इस निर्णय की सूचना है कि सारी दुनिया के मुकाबले तुम मुझे चुनते हो।
      मैं तो उन्हें भी देने को तैयार हूं, जो संन्यासी नहीं हैं। लेकिन उनकी लेने की तैयारी नहीं है। वे लेना चाहते हैं, पर उनकी एक शर्त है—वें जैसे हैं, वैसे ही रहें और लेना चाहते हैं। तब सिर से उनका संबंध बनेगा, हृदय से नहीं।
      'यदि विज्ञ पुरुष मुहूर्तभर भी पंडित के साथ रहे, तो वह तत्काल धर्म को उसी प्रकार जान लेता है, जिस प्रकार जिह्वा दाल के रस को जान लेती है।
      बड़े सीधे सरल वचन हैं बुद्ध के——कलछी और जीभ। विश पुरुष मुहूर्तभर भी, क्षणभर भी, पलभर भी सत्संग कर ले, सदगुरु के पास हो ले तो तत्काल धर्म को उसी प्रकार जान लेता है........ तत्काल! तत्क्षण! जैसे जिह्वा दाल के रस को जान लेती है।
      खिप्‍पं धम्मं विजानाति जिह्वा सूपरसं यथा।
      जीभ की खूबी क्या है? वैसी ही कुछ खूबी शिष्य की है। पहले तो जीभ और कलछी में फर्क है। कलछी मृत है, जीभ जीवित है। बुद्धि मृत है, हृदय जीवित है। इसलिए बुद्धि तो आज नहीं कल यंत्र बन जाएगी—यंत्र है। इसलिए कंप्यूटर बनते हैं। और जल्दी ही आदमी के मस्तिष्क से ज्यादा काम नहीं लिया जाएगा। जरूरत न रहेगी। क्योंकि बेहतर मशीनें होंगी, कम भूल—चूक करने वाली मशीनें होंगी।
      मैंने सुना है कि एक कंप्यूटर, बड़े से बड़ा कंप्यूटर जो अभी पृथ्वी पर है—एक सुबह वैज्ञानिक चकित हुए। उससे जो निष्कर्ष आया था, वे हैरान हुए, अवाक रह गए। उनमें से एक वैज्ञानिक ने कहा, इस तरह की भूल करने के लिए दो हजार वैज्ञानिक अगर पांच हजार साल तक कोशिश करें, तभी हो सकती है। इस तरह की भूल!
      धीरे—धीरे बुद्धि तो कंप्यूटर के साथ पहुंची जा रही है। आदमी से भूल—चूक होती है, कंप्यूटर भूल भी नहीं करेगा। करेगा भी तो ऐसी भूल करेगा, जिसको आदमी हजारों वर्ष में कर पाए मुश्किल से। असंभव जैसी बात करेगा; नहीं तो नहीं होगी भूल।
      आज नहीं कल छोटे कंप्यूटर हो जाएंगे, जिन्हें तुम अपने खीसे में रखकर चल सकोगे, कि तुम्हें सिर में इतना बोझ लेकर चलने की जरूरत न रह जाएगी। कंप्यूटर से तुम पूछ सकते हो कि फलां—फलां उपनिषद में फलां—फलां पेज पर क्या है? वह फौरन जवाब दे देगा। तुम्हें कंठस्थ करने की जरूरत क्या? अभी भी यही कर रहे हो तुम। जिसको तुम पंडित कहते हो, वह कंप्यूटर है। उसने कंठस्थ कर लिया है।
      उसने रट लिया है। यह रटन तो मशीन भी कर सकती है।
      मस्तिष्क मुर्दा है, क्योंकि मस्तिष्क का सारा संबंध अतीत से है। जो बीत गया, जो जान लिया, वही मस्तिष्क में संगृहीत होता है। जो नहीं जाना, जो अभी हुआ नहीं, उसकी मस्तिष्क में कोई छाप नहीं होती। हृदय भविष्य के लिए धड़कता है। मस्तिष्क अतीत के लिए धड़कता है। मस्तिष्क पीछे की तरफ देखता है। हृदय आगे की तरफ—जो होने वाला है। हृदय खुला है भविष्य के लिए। मस्तिष्क तो पीछे देख रहा है। जैसे कार में दर्पण लगा होता है पीछे की तरफ देखने के लिए, वैसा मस्तिष्क है। वह पीछे की तरफ देख रहा है। जो रास्ता बीत चुका, जिससे गुजर चुके, जो धूल अब बैठने के करीब हो गई है, उस धूल का दृश्य बनता रहता है।
      मस्तिष्क है अतीत का जोड; इसलिए मुर्दा है। अतीत यानी मृत, जो अब नहीं है जा चुका, मर चुका। अतीत तो कब्रिस्तान है। मस्तिष्क भी कब्रिस्तान है। वहा लाशें ही लाशें हैं तथ्यों की, जो कभी जीते—धड़कते थे; अब नहीं।
      तो सदगुरु से तुम दो तरह से जुड़ सकते हो। या तो कलछी की भांति—मुर्दा। कभी वह भी जीती थी किसी वृक्ष में। वर्षा आती थी तो उसके भीतर भी स्पंदन होता था। पक्षी गीत गुनगुनाते थे तो उनका तरन्‍नुम उसे भी अहसास होता था। धूप आती थी तो धूप की किरणें उसे भी नींद से उठा देती थीं। कभी वह भी जीवित थी किसी वृक्ष में, अब नहीं है। टूट गई वृक्ष से, अलग हो गई वृक्ष से।
      जब तुम छोटे से बच्चे थे, तब तुम्हारा मस्तिष्क भी जीवित था। तब वह तुम्हारे हृदय के साथ ही छाया की तरह चलता था। वह तुम्हारे बड़े व्यक्तित्व का अंग था। फिर धीरे—धीरे अलग हो गया। फिर धीरे—धीरे उसको शिक्षा दी गई अलग होने की। फिर तुम्हें समझाया गया कि विचार करने में प्रेम और घृणा को बीच में नहीं आने देना चाहिए। संवेदनाओं को बीच में नहीं आने देना चाहिए 1 भावनाओं को बीच में नहीं आने देना चाहिए। तुम्हें शुद्ध विचारक बनाने की कोशिश की गई। मस्तिष्क को काट दिया गया अलग। मस्तिष्क धीरे—धीरे अपने आप अपने भीतर ही चलायमान हो गया। उसका कोई संबंध तुम्हारे पूरे अस्तित्व से न रहा। वह एक टूटा हुआ खंड हो गया।
      सोचो, क्या संबंध है तुम्हारे मस्तिष्क का तुमसे? वह चलता जाता है अपने आप ही। तुम सोना चाहते हो, वह चल रहा है। तुम कहते हो, भाई, चुप भी हो जाओ। वह सुनता ही नहीं। वह चला जा रहा है। यह तुम्हारा मस्तिष्क है?
      थोड़ा सोचो, तुम बैठना चाहते हो, तुम्हारे पैर चले जा रहे हैं। तुम उनको अपने पैर कहोगे? तुम कहोगे, हम बैठना चाहते हैं और पैर नहीं सुनते और चलते चले जाते हैं। तो कैसे तुम इन पैरों को अपना कहोगे?
      तुम रुकना चाहते हो, और जबान बोले चली जाती है। तुम चिल्लाते हो कि मुझे रुकना है और जबान नहीं रुकती। तुम इस जबान को अपना कहोगे? अपना तो वही, जिसकी मालकियत हो।
      मस्तिष्क पर तुम्हारी क्या मालकियत है? कोई भी तो मालकियत नहीं। तुम रात सोना चाहते हो, विश्रांति चाहते हो; दिनभर के थके—मांदे, उलझे, परेशान, और मस्तिष्क अपने ताल बजाए जाता है, अपने ताने—बाने बुने जाता है। मस्तिष्क अपनी गुनगुनाहट किए जाता है। तुम्हें नींद आए न आए, मस्तिष्क अपना हिसाब जारी रखता है। तुम सो भी जाओ, मस्तिष्क सपने बुनते रहता है। तुमसे बिलकुल अलग चलता है। तुम्हारा कोई काबू नहीं रह गया।
      मालकियत होती तो मस्तिष्क जीवित रहता। तब तुम्हारी समग्रता का अंग होता। तुम्हारे साथ चलता, तुम्हारे साथ बैठता, तुम्हारे साथ उठता। अब तो अलग ही हो गया, खंड—खंड हो गया। तुम अलग हो गए, मस्तिष्क अलग हो गया।
      ध्यान का इतना ही अर्थ है कि यह मस्तिष्क फिर से तुम्हारे खून की चाल के साथ चले, तुम्हारे हृदय की धड़कन के साथ धडके। यह तुम्हारी संवेदनाओं, तुम्हारी भावनाओं, तुम्हारे प्रेम, इनके साथ एक रस हो जाए, अलग न रह जाए, अलग— थलग न रह जाए। यह तुम्हारी समस्तता का एक जीवंत अंग हो। तब तुम मालिक हो जाते हो।
      शिष्य तो जीभ की भांति है, एक अंग तुम्हारा। कलछी मुर्दा है। मुर्दा कैसे अनुभव करे? बुद्ध ने ठीक ही प्रतीक चुना।
      'विज्ञ पुरुष मुहूर्तभर भी पंडित के साथ रहे, तो वह तत्काल धर्म को उसी प्रकार जान लेता है, जिस प्रकार जिह्वा दाल के रस को जान लेती है।'
      एक मुहूर्त, एक पल भी! क्योंकि अनुभव कुछ समय की बात नहीं है। जिन अनुभवों की यहां हम चर्चा कर रहे हैं, उन अनुभवों का समय से कोई संबंध नहीं है। वे कालातीत हैं। उनके लिए समय नहीं लगता। समझ लगती है, समय नहीं लगता। होश चाहिए, समय का कोई सवाल नहीं है। ऐसा नहीं है कि तुम बुद्ध पुरुषों के पास हजार साल तक रहोगे तो बहुत ज्यादा सीख लोगे। जो सीख सकता है, एक क्षण में सीख लेगा। जो नहीं सीख सकता, वह हजार साल तक वैसे ही चूका चला जाएगा। असली सवाल समय का नहीं है, असली सवाल बोध का है।
      यह तुमने खयाल किया, कुछ चीजें बोध से समझ आती हैं। घर में आग लग गई, तुम छलांग लगाकर भाग निकलते हो। एक क्षण भी नहीं रुकते। तुम यह नहीं कहते कि भई, समझ तो लेने दो, किसने लगाई? कैसे लगी? लगी भी है कि सिर्फ माया है, सपना है? और लगी भी हो तो अभी और हजार काम भी तो करने जरूरी हैं। पहले उनको निपटा लूं, फिर निपट लेंगे।
      नहीं, सब काम रुक जाते हैं। तुम यह भी तो नहीं कहते कि जाऊं, किसी गुरु से पूछ आऊं, कैसे निकलूं। न तुम जाकर शास्त्र को देखते हो कि शास्त्र में शायद कोई विधि दी हो, कि जब घर में आग लगे तो कैसे निकलना चाहिए। न तुम कपड़े —लत्तों की फिक्र करते, न तुम दर्पण के सामने खड़े होकर अपने को सजाते, संवारते। सब शिष्टाचार, सब सभ्यता एक तरफ पड़ी रह जाती है। अगर तुम बाथरूम में नग्न खड़े स्नान कर रहे थे तो नंगे ही भाग खड़े होते हो। भूल ही जाते हो कि नग्न हूं। तीव्रता, अग्नि का बोध काफी है।
      जब तुम बुद्ध पुरुषों के पास. कभी तुम्हें अवसर मिल जाए तो त्वरा से जाना चाहिए, तीव्रता से जाना चाहिए, बोध से जाना चाहिए। एक क्षण में घटना घट सकती है। यह कोई सवाल नहीं है कि जिंदगीभर, सैकड़ों साल तक तुम सत्युरुषों का सत्संग करो, तब तुम्हें बोध आएगा। डर तो यह है कि अगर तुम्हारे भीतर त्वरा नहीं है, तीव्रता नहीं है तो कभी न आएगा। हजारों साल बीत जाएंगे, तुम पर धूल जमती जाएगी। तुम्हारा दर्पण और भी धुंधला होता चला जाएगा।
      'विज्ञ पुरुष मुहूर्तभर में......।
      जरा सा भी होश हो, समझ हो, जीवन के अनुभव की थोड़ी सी भी प्रतीति हो तो एक क्षण में क्रांति घट जाती है।
      'तत्काल धर्म को जान लेता है, उसी प्रकार, जैसे जिह्वा दाल के रस को जान लेती है।'
      कल मैं एक गीत पढ़ रहा था। गीतकार ने तो प्रेयसी के लिए लिखा है। गीतकार उससे बड़े प्रेम को जानते भी नहीं। लेकिन शब्द महत्वपूर्ण हैं और परमात्मा के खोजियों के काम में भी आ सकते हैं।
      रात यूं दिल में तेरी खोई हुई याद आई
      जैसे वीराने में चुपके से बहार आ जाए
      जैसे सहराओं में हौले से चले बादे—नसीम
      जैसे बीमार को बेवजह करार आ जाए
      एक क्षण में घटती है बात—तेरी खोई हुई याद आई। सत्पुरुष के पास किसी और की याद तुम्हें नहीं आती, अपनी ही खोई हुई याद आती है। सत्पुरुष के पास, जैसे तुम दर्पण के सामने खड़े हो गए। जैसे तुमने कभी दर्पण न देखा हो, तो तुम्हें अपने चेहरे की कोई खबर न होगी। सत्युरुष के सामने खड़े होकर जैसे तुम दर्पण के सामने आ गए। अचानक अपना चेहरा पहचाना। कभी न जाना था, तत्क्षण याद आ गई। और याद ऐसी
      जैसे वीराने में चुपके से बहार आ जाए
      पता भी न चले, पगध्वनि भी न हो।
      चुपके से वीराने में बहार आ जाए
      जैसे सहराओं में हौले से चले बादे—नसीम
      जैसे मरुस्थलों में, जहा कोई सुबह की ठंडी हवा चलने का सवाल नहीं है, अचानक... अचानक, अकारण शीतल हवा का झोंका आ जाए।
       जिसे तुम जिंदगी कहते हो, वह अभी मरुस्थल जैसी है। जिसे तुम जिंदगी कहते हो, वह अभी एक वीराना है। जिसे तुम अभी जिंदगी कहते हो, उसमें तुमने पतझड़ ही जाने हैं, वसंत नहीं। दोपहर की जलती लपटें जानी हैं, सुबह की शीतल हवा नहीं।
      जैसे वीराने में चुपके से बहार आ जाए
      जैसे सहराओं में हौले से चले बादे—नसीम
      जैसे बीमार को बेवजह करार आ जाए
      जैसे कोई आदमी बीमार पड़ा है, और कोई कारण नहीं है, अचानक उठकर बैठ जाए। अचानक स्वास्थ्य की एक लहर आ जाए—बेवजह करार आ जाए।
      सत्युरुष के सत्संग में जो घटता है, बेवजह है। उसका कोई कारण नहीं है। क्योंकि तुम बिलकुल तैयार न थे। तुमने कभी सपने में भी न सोचा था कि तुम्हारे इस मरुस्थल में अचानक, चुपचाप, शीतल हवाओं का आगमन हो जाएगा। तुमने कभी यह विचारा भी न था कि तुम्हारे पतझड़ में वसंत बिना आवाज किए, बिना पगध्वनि किए उतर आएगा। तुमने कभी सोचा न था।
      तुम तो करीब—करीब राजी ही हो गए थे। तुमने तो करीब—करीब मान लिया था कि यही जिंदगी है। बस, यही जिंदगी है। तुमने तो स्वीकार कर लिया था जिंदगी का यह रूखा—सूखापन—फूल रहित! फल रहित! तुमने तो मान ही लिया था, इस घिसटन का नाम ही जिंदगी है। तुमने तो इस व्यर्थ की दौड़—धाप, आपाधापी को ही जिंदगी स्वीकार कर लिया था।
      लेकिन किसी सदगुरु के पास अचानक तुम्हें याद आती है, जिसे तुमने जिंदगी कहा, वह तो जिंदगी का प्रारंभ भी नहीं। वह तो जिंदगी की भूमिका भी नहीं। वह तो जिंदगी का अ, , स भी नहीं। तुमने जिसे जिंदगी समझा, वह तो मौत का ही छिपा हुआ रूप थी। भूल हो गई। भ्रांति में रहे।
      यह एक क्षण में हो जाता है। जैसे कोई तुम्हें सोए से झकझोर कर जगा दे, आंख खुल जाए; ऐसा ही सत्संग है। लेकिन तुम संवेदनशील हो तो यह हो पाता है। तुम जीभ की तरह संवेदनशील हो तो यह हो पाता है।
      लोग इतने कठोर क्यों हो गए हैं? कलछियां क्यों हो गए हैं? लोगों को एक और बड़ा भ्रांत खयाल है कि कठोरता में सुरक्षा है। लोग सोचते हैं, अगर कठोर न हुए तो असुरक्षित हो जाएंगे। हर कोई दबा देगा। हर कोई छाती पर बैठ जाएगा। तो लोग कठोर हो गए हैं, ताकि सुरक्षित हो जाएं। हालत बिलकुल उलटी है।
      तुमने कभी गौर किया? दात कठोर हैं, धीरे—धोरे गिर जाते हैं। जीभ कठोर नहीं है, कभी गिरती नहीं है। अंत तक साथ बनी रहती है। जीभ इतनी कोमल है और बत्तीस कठोर दांतों के बीच बनी रहती है। दात आते हैं और चले जाते हैं। जीभ सुरक्षित है।
संवेदनशीलता में सुरक्षा है, क्योंकि संवेदनशीलता में जीवन है। घबड़ाना मत संवेदनशील होने से। और अपने को कठोर मत कर लेना, अकड़ा मत लेना, क्योंकि उसी अकड़ने में असुरक्षा है। मरने लगे तुम। मरने में नहीं सुरक्षा हो सकती। ज्यादा जींवत होने में सुरक्षा है।
      सदगुरु के पास आ जाना इंकलाब है,
      एक क्रांति है।
      जैसे बीमार को बेवजह करार आ जाए
      अचानक, तुम अब तक जो समझते थे ठीक, वह गलत हो जाता है। अचानक, अब तक तुम जिसे समझते थे राह, वह गुमराह हो जाती है। अचानक, अब तक तुम। जिसे जीवन समझते थे, उस पर सब पकड़ छूट जाती है।
      दिल भी गुलाम दिल की तमन्नाएं भी गुलाम
      यूं जिंदगी हुई भी तो क्या जिंदगी हुई
      एक सदगुरु को देखकर पहली दफा यह खयाल आता है। एक मालिक को देखकर पहली दफा खयाल आता है कि तुम गुलामी में जीए।
      डायोजिनिस को पकड़ लिया था कुछ डाकुओं ने, और उसे बेचने बाजार में ले गए। तब तो दुनिया में गुलाम होते थे और गुलाम बेचे जाते थे। डायोजिनिस को तख्ती भर खड़ा किया गया, बोली लगाए जाने के लिए। बड़ा शानदार आदमी था। नग्न! उसकी ज्ञान  देखे बनती थी। वहां बड़े धनपति आए थे, गुलामों को खरीदने। लेकिन उन धनपतियों में किसी के भी चेहरे पर यह ज्ञान  न थी. यह गरिमा न थी। लोग झेंपेझेंपे से मालूम हो रहे थे इस गुलाम को देखकर।
      और जैसे ही बोली लगाने वाला बोली लगाने को था, डायोजनीज ने चारों तरफ

नजर डाली। वह उस तख्त पर ऐसे खड़ा था, जैसे कि सम्राट हो। और उसने कहा, ठहरो! यह जो सामने आदमी खड़ा है, कौन है। उस बोली लगाने वाले ने कहा कि वह इस नगर का सबसे बड़ा धनपति है। डायोजनीज ने कहा कि इस गुलाम को इस। मालिक की जरूरत है। मुझे इसी के हाथ बेच डालो। इस गुलाम को मुझ मालिक की जरूरत है।
      दिल भी गुलाम दिल की तमन्नाएं भी गुलाम
      यूं जिंदगी हुई भी तो क्या जिंदगी हुई
      पहली दफा तुम्हारा सब झनझनाकर टूट जाता है। जैसे दर्पण गिर पड़े पृथ्वी पर और खंड—खंड हो जाए, चकनाचूर हो जाए।
      सदगुरु से मिलन एक सौभाग्यपूर्ण दुर्घटना है। उसके बाद फिर तुम वही न हो सकोगे। फिर तुम लाख बटोरो उन टुकड़ों को, टूटे हुए शीशे के टुकड़ों को, फिर तुम अपनी तस्वीर दुबारा जमा न पाओगे। अब तो तुम्हें नया होना ही पड़ेगा। लेकिन यह नन्हीं के लिए हो पाता है, जो संवेदनशील हैं। वे ही शिष्यत्व को उपलब्ध होते हैं।  
      'दुर्बुद्धि मूढ़ जन अपना शत्रु आप होकर, पापकर्म करते हुए विचरण करते हैं, जिसका फल कडुवा होता है।'
      चरंति बाला दुम्मेधा, अमित्तेनेव अत्तना'
      वे जो दुर्बुद्धि मूढ़ जन हैं, जो सदगुरु के पास आकर भी ऐसे गुजर जाते हैं, जैसे कुछ भी न हुआ। जो ज्ञानियों के पास आकर भी ज्ञान की झलक से वंचित रह जाते हैं, जिन्होंने अपने को इतना कठोर कर लिया है कि करीब—करीब मुर्दा हो गए हैं, ऐसे दुर्बुद्धि छू जन अपने शत्रु स्वयं हैं। कोई और उन्हें कष्ट नहीं दे रहा है। अपनी ही नासमझी अपने गले की फांसी हो गई है।
      'अपने ही शत्रु होकर पापकर्म करते हुए विचरण करते हैं, जिसका फल कडुवा होता है।'
      बुद्ध ने बार—बार कहा है, कि पाप करना सिर्फ नासमझी नहीं, आत्मघात है। भूल नहीं, विध्वंस है। तुम जब भी पाप करते हो, तो दूसरे गुरुओं ने तो तुमसे कहा है कि पाप बुरा है, क्योंकि दूसरे को चोट पहुंचानी बुरी है। बुद्ध ने कहा है, पाप बुरा है, क्योंकि पाप में तुम अपने ही गले पर फांसी लगा रहे हो। यह दूसरे से कोई संबंध नहीं है। दूसरे को चोट पहुंचेगी, न पहुंचेगी, यह तो गौरव बात है, लेकिन पाप करके तुम अपने को ही आग में डाल रहे हो। अपने को ही चिता पर चढ़ा रहे हो।
      'दुर्बुद्धि मूढ़ जन अपना शत्रु आप है।'
      बुद्ध ने कहा है, तुम अपने ही मित्र हो अगर संवेदनशील, समझपूर्वक जीयो। अपने ही शत्रु हो, अगर दुर्बुद्धि से, कता से, कठोर होकर जीयो। अगर बेहोशी में जीयो तो तुमसे बड़ा शत्रु तुम्हारा कोई दूसरा नहीं। अगर होश में जीयो तो तुमसे बड़ा तुम्हारा कोई मित्र नहीं।
      जो व्यक्ति भी पाप करता है, पाप करने के कारण कोई उसे दंड देता है, ऐसा नहीं; पाप करने के कारण वह जीवन के सनातन नियम से दूर पड़ता जाता है। वह दूरी ही कष्ट ले आती है। जितना सनातन नियम से दूर पडता है, जितना दूर जाता है, उतनी ही ठंडक खोती चली जाती है। जीवन उष्ण होता चला जाता है। आग की लपटें पकड़ने लगती हैं। जो भी सनातन नियम से दूर हटेगा, वह अपने हाथ अपने रास्ते पर काटे बो रहा है। कोई दूसरा दंड नहीं देता। कोई दूसरा नियंता नहीं है।
      वह जो जीवन का परम नियम है, जिसको बुद्ध धर्म कहते हैं, उसके पास होने में सुख है, दूर होने में दुख है। उसके साथ एक हो जाने में महासुख है। उसके साथ बहुत दूर पड़ जाने में महादुख है। नर्क यानी परम नियम से फासला, स्वर्ग यानी निकटता।
      बू—ए—गुल नाला—ए—दिल दूदे—चिरागे—महफिल
      जो तेरी बज्म से निकला सो परीशां निकला
      प्रेयसी के लिए कहा है कवि ने, कि तेरी महफिल से जो भी निकलता है, तुझसे दूर होने के कारण परेशान  हो जाता है। आदमियों की तो बात छोड़ो, बू—ए—गुल, फूल की सुगंध भी तेरी महफिल से बाहर निकलती है तो परेशान हो जाती है। नाला—ए—दिल, दिल की आह भी तेरी महफिल से बाहर निकलती है तो परेशान हो जाती है। दूदे—चिरागे—महफिल, और की तो बात छोड़ो, तेरी महफिल के चिराग का धुआं भी बाहर निकलता है तो डगमगाता और परेशान नजर आता है।
      बू—ए—गुल नाला—ए—दिल दूदे—चिरागे—महफिल
      जो तेरी बज्म से निकला सो परीशां निकला
      लेकिन यही सत्य है धर्म की व्यवस्था का। वहा से जो दूर हुआ, वहा से जो बाहर निकला, वह परेशान हुआ। जो उस नियम को छोड़ते हैं, वे पीड़ित होते हैं। लोई पीड़ा उन्हें देता नहीं, अपने ही छोड़ने के कारण पीड़ित होते हैं।
      तुम्हारे जीवन में अगर पीड़ा हो तो किसी के ऊपर दोष मत देना और शिकायत मत करना। इतना ही जानना कि कहीं न कहीं जीवन के नियम से तुम दूर जा रहे हो।  परमात्मा की महफिल से दूर जा रहे हो। लौटना!
      पीड़ा सांकेतिक है, और पीड़ा मित्र है, सहयोगी है। क्योंकि बताती है कि दूर ? गा रहे हो। पीड़ा को थर्मामीटर समझना। वह खबर देती है कि हट रहे हो दूर; पास आ जाओ। जब भी दुख हो तो अपने जीवन की फिर—फिर परीक्षा करना। जब भी। दु:ख हो, अपने जीवन का फिर—फिर निदान करना; फिर—फिर विश्लेषण करना। जरूर कहीं तुम्हारे पैर कहीं गलत पड़े हैं। तुम मंदिर से दूर गए हो।
      कवि भी कभी—कभी बड़ी मधुर बातें कह देते हैं। होश में नहीं कहते बहुत। होश में कहें तो ऋषि हो जाएं। बेहोशी में कहते हैं। लेकिन कवि कभी—कभी बेहोशी में भी झलकें पा लेते हैं, उस परम सत्य की। कवि और ऋषि का यही फर्क है। ऋषि होश में कहते हैं, कवि बेहोश में कहते हैं। ऋषि वहां पहुंचकर कहते हैं, कवियों को वहा ही झलक दूर से सपनों में मिलती है। कवि स्वप्न—द्रष्टा है, ऋषि सत्य—द्रष्टा है।
      ये मसाइले—तसव्‍वुफ ये तेरा बयान गालिब
      तुझे हम वली समझते जो न बादाख्यार होता
      ये मसाइले—तसव्‍वुफ.......
      ईश्वरीय प्रेम की ये अदभुत बातें, कि वेद ईर्ष्या करें।
      ये मसाइले—तसव्‍वुफ
      सूफियाना बातें! ये मस्ती की बातें!
      ये तेरा बयान गालिब
      और तेरा कहने का यह अनूठा ढंग, कि उपनिषद शरमा जाएं।
      तुझे: हम वली समझते जो न बादाख्यार होता
      अगर शराब न पीता होता तो लोग तुझे सिद्ध पुरुष समझते। वह तेरी भूल हो। गई। ये बातें तो ठीक थीं, ये बातें बड़ी कीमती थीं, जरा शराब की बू थी, बस! कवि जब होश में आता है तो ऋषि हो जाता है। लेकिन कवियों के वक्तव्य तुम्हारे लिए सहयोगी हो सकते हैं। क्योंकि ऋषि तो तुमसे बहुत दूर है। कवि तुम्हारे और ऋषि के बीच मे खड़ा है। तुम जैसा बेहोश, लेकिन तुम जैसा स्वप्नरहित नही! ऋषियों जैसा होशपूर्ण नहीं, लेकिन ऋषियों ने जो खुली आंख देखा है, उसे वह कंद आंख के सपने में देख लेता है। कवि कड़ी है।
      ये मसाइले—तसव्‍वुफ ये तेरा बयान गालिब
      तुझे हम वली समझते जो न बादाख्यार होता
      इसलिए कभी—कभी ऋषियों को समझने के लिए कवियों की सीढ़ियों पर चढ़ जाना उपयोगी है। लेकिन वहा रुकना मत। वह ठहरने की जगह नहीं है। गुजर जाना, चढ़ जाना, उपयोग कर लेना।
      'दुर्बुद्धि मूढ़ जन अपना शत्रु होकर जीता है। पाप कर्म करते हुए विचरण करता है, जिसका फल कडुवा होता है।
      पाप पहले भी कडुवा है, मध्य में भी कडुवा है, अंत में भी कडुवा है। पुण्य पहले भी मीठा है, मध्य में भी मीठा है, अंत में भी मीठा है। तुम अगर सच में ही भोगना चाहो जीवन के अर्थ को, जीवन के रस को, तो पुण्य ही उपाय है। पुण्य ही कुंजी है स्वर्ग के द्वार की। पाप है कुंजी नर्क के द्वार की।
      अगर तुम्हारे जीवन में तुम नर्क पाओ तो मत देना भाग्य को दोष। मत कहना कि समाज दोषी है। मत कहना कि दुनिया के हालात ऐसे हैं; कि दूसरे लोग सता रहे हैं। ये सब बातें कहोगे तो तुम कभी स्वर्ग की कुंजी अपने हाथ में न पा सकोगे। तुम्हारा विश्लेषण गलत हो गया। इतना ही कहना कि मैं कहीं जीवन के नियम से दूर हट रहा हूं।
      जो तेरी बज्‍म से निकला सो परीशां निकला
      तो खोज करना कि कहा—कहा तुम जीवन के नियम से दूर जा रहे हो। अगर क्रोध के कारण तुम्हारे जीवन में कष्ट हो तो क्रोध के प्रति जागना, ताकि क्रोध की ऊर्जा करुणा बन जाए। अगर लोभ के कारण कष्ट हो तो लोभ के प्रति जागना, ताकि लोभ में नियोजित ऊर्जा दान बन जाए। अगर घृणा के कारण कष्ट हो तो घृणा के प्रति जागना, ताकि घृणा में संलग्न ऊर्जा मुक्त हो जाए और प्रेम बन जाए।
      जिनको हमने पाप कहा है, वे और कुछ भी नहीं हैं, वे जीवन से दूर ले जाने के रास्ते हैं। जिनको पुण्य कहा है, वे भी कुछ नहीं हैं, वे वापस अपने घर को खोज लेने के उपाय हैं।
      जब भी तुम्हारे मुंह में कडुवा स्वाद आए, कडुवाहट फैले, तब समझना कि जीवन में कुछ करने का समय आ गया। कुछ बदलना पड़ेगा। और इसमें देर मत करना। क्योंकि देर में एक खतरा है। धीरे—धीरे कडुवाहट कम मालूम होने लगेगी। अगर तुम झूठ रोज—रोज बोलते ही गए तो पहले दिन जितना कडुवा होता है, दूसरे दिन उतना कडुवा नहीं होता है। तीसरे दिन और भी कडुवा नहीं होता। धीरे—धीरे तुम अभ्यासी हो जाते हो। कडुवाहट मिट जाती है। यह भी संभव है कि तुम्हें मिठास भी आने लगे। तब तुम्हारा दुर्भाग्य सुनिश्चित हो गया। उस पर सील लग गई। अब उसे खोलना मुश्किल हो जाएगा।
      तो जब भी जीवन में तुम्हें पहली कडुवाहट आए, किसी भी कृत्य को करते हुए, तत्क्षण समझना कि पाप हो रहा है। कडुवाहट सूचक है। कडुवाहट का काटा प्रतिपल तुम्हें बता रहा है कि कहां क्या हो रहा है। जब भी जीवन में कोई मिठास आए, समझना कि कोई पुण्य हुआ। पुण्य को दोहराना, ताकि पुण्य तुम्हारी आदत हो जाए। पाप को मत दोहराना, ताकि पाप कहीं तुम्हारी आदत न हो जाए।
      तो धीरे—धीरे तुम पाओगे कि तुमने अपने भीतर ही उस कल्याण—मित्र को खोज। लिया, जो तुम्हें परम आनंद की तरफ ले जाएगा। अन्यथा तुम अपने ही शत्रु के हाथों में हो।

आज इतना ही।




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