मृत्यु के पीछे अजन्मा, अमृत और सनातन का दर्शन—
अध्याय—1—2
प्रश्न: भगवान
श्री, लक्ष्य के साथ क्रियाएं बनती हैं और निश्चित परिणाम
की इच्छा रहती है। अगर हर समय चित्त निरहंकार या निर्विचार रहा, तो क्रियाएं कैसे होंगी? निर्विचार मन कुछ व्यक्त
कैसे कर सकता है? सब निरंतर निर्विचार रहने से निष्क्रिय हो
जाएं, तो समाज कैसे चल सकता है? समाज
नष्ट नहीं हो जाएगा?
निरहंकार होने से कोई निष्क्रिय नहीं
होता है; न ही निर्विचार होने से कोई निष्क्रिय होता है।
निरहंकार होने से सिर्फ कर्ता का भाव चला जाता है। लेकिन कर्म परमात्मा को समर्पित
होकर पूर्ण गति से प्रवाहित होते हैं। नदी बहती है, कोई
अहंकार नहीं है। हवाएं चलती हैं, कोई अहंकार नहीं है। फूल
खिलते हैं, कोई अहंकार नहीं है। ठीक ऐसे ही सहज, निरहंकारी जीवन से सब कुछ होता है, सिर्फ भीतर कर्ता
का भाव संगृहीत नहीं होता है।
इसलिए सुबह जो मैंने कहा कि अर्जुन का
अहंकार ही पूरे समय उसकी पीड़ा और उसका संताप बना है। इसका यह अर्थ नहीं कि वह
अहंकार छोड़ दे, तो कर्म छूट जाएगा।
और जैसा मैंने कहा कि विचार मनुष्य को
चिंता में डालता है; निर्विचार हो जाए चित्त, तो
चिंता के बाहर हो जाता है। इसका यह अर्थ नहीं है कि निर्विचार चित्त फिर बोलेगा
नहीं, करेगा नहीं, अभिव्यक्ति नहीं
रहेगी।
नहीं, ऐसा नहीं है।
निर्विचार चित्त बांस की पोंगरी की तरह हो जाएगा। गीत उससे बहेंगे, लेकिन अपने नहीं, परमात्मा के ही बहेंगे। विचार उससे
निकलेंगे, लेकिन अपने नहीं, परमात्मा
के ही निकलेंगे। समस्त के प्रति समर्पित होगा वैसा चित्त। बोलेगा वही, जो परमात्मा बुलाता है; करेगा वही, जो परमात्मा कराता है। स्वयं के बीच का जो मैं का आधार है, वह बिखर जाएगा। इसके बिखरते ही चिंता नहीं है। इसके बिखरते ही कोई संताप,
कोई एंग्जाइटी नहीं है।
न त्वेवाहं जातु
नासं न त्वं नेमे जनाधिपाः।
न चैव न
भविष्यामः सर्वे वयमतः परम्।। १२।।
क्योंकि आत्मा नित्य है, इसलिए शोक करना अयुक्त है। वास्तव में न तो ऐसा ही है कि मैं किसी काल में
नहीं था, अथवा तू नहीं था, अथवा ये
राजा लोग नहीं थे और न ऐसा ही है कि इससे आगे हम सब नहीं रहेंगे।
अर्जुन ऐसी चिंता दिखाता हुआ मालूम
पड़ता है कि ये सब जो आज सामने खड़े दिखाई पड़ रहे हैं, युद्ध में मर जाएंगे,
नहीं हो जाएंगे। कृष्ण उसे कहते हैं, जो है,
वह सदा से था; जो नहीं है, वह सदा ही नहीं है।
इस बात को थोड़ा समझ लेना उपयोगी है।
धर्म तो सदा ऐसी बात कहता रहा है, लेकिन विज्ञान ने भी ऐसी बात कहनी शुरू की है। और विज्ञान से ही शुरू करना
उचित होगा। क्योंकि धर्म शिखर की बातें करता है, जिन तक सबकी
पहुंच नहीं है। विज्ञान आधार की बातें करता है, जहां हम सब
खड़े हैं। विज्ञान की गहरी से गहरी खोजों में एक खोज यह है कि अस्तित्व को
अनस्तित्व में नहीं ले जाया जा सकता है। जो है, उसे विनष्ट
करने का कोई उपाय नहीं है। और जो नहीं है, उसका सृजन करने का
भी कोई उपाय नहीं है। रेत के एक छोटे से कण को भी हमारे विज्ञान की सारी जानकारी
और सारे जगत की प्रयोगशालाएं और सारे जगत के वैज्ञानिक मिलकर भी विनष्ट नहीं कर
सकते हैं; रूपांतरित भर कर सकते हैं; नए
रूप भर दे सकते हैं।
जिसे हम सृजन कहते हैं, क्रिएशन कहते हैं, वह भी नए रूप का निर्माण है--नए
अस्तित्व का नहीं, एक्झिस्टेंस का नहीं--फार्म का। और जिसे
हम विनाश कहते हैं, वह भी अस्तित्व का विनाश नहीं है,
सिर्फ रूप का, आकृति का। आकृतियां बदली जा
सकती हैं, लेकिन जो आकृति में छिपा है, वह अपरिवर्तित है। करीब-करीब ऐसा, जैसे कि गाड़ी का
चाक चलता है, घूमता है; लेकिन एक कील
है, जो खड़ी है, जिस पर चाक घूमता रहता
है। जो चाक को ही जानते हैं, वे कहेंगे, सब परिवर्तन है। जो कील को भी जानते हैं, वे कहेंगे,
सब परिवर्तन के मूल में, केंद्र पर ठहरा हुआ
भी कुछ है, अनमूविंग भी कुछ है।
और बड़े मजे की बात यह है कि अगर चाक
से कील अलग कर लें, तो चाक जरा भी घूम न पाएगा। चाक का घूमना उस पर
निर्भर है, जो नहीं घूमता है। रूप बदलते हैं। रूप का बदलना
उस पर निर्भर है, जो अरूप है, फार्मलेस
है और नहीं बदलता है।
अर्जुन जब कह रहा है कि ये सब मर
जाएंगे, तब वह फार्म की, रूप की,
आकृति की बात कह रहा है। वह कह रहा है, ये सब
मिट जाएंगे। उसे आकृति से ज्यादा का कोई भी पता नहीं है।
और जब कृष्ण कहते हैं कि नहीं, जिन्हें तू आज देख रहा है, वे पहले नहीं थे, ऐसा नहीं है। वे पहले भी थे। मैं भी पहले था, तू भी
पहले था। और ऐसा भी नहीं है कि जो हम आज हैं, कल नहीं होंगे।
कल भी हम होंगे, सदा-सदा अनादि से अनंत तक हमारा होना है।
यहां कृष्ण और अर्जुन दो अलग चीजों की बात कर रहे हैं, यह
समझ लेना जरूरी है।
अर्जुन रूप की बात कर रहा है, कृष्ण अरूप की बात कर रहे हैं। अर्जुन उसकी बात कर रहा है, जो दिखाई पड़ता है; कृष्ण उसकी बात कर रहे हैं,
जो नहीं दिखाई पड़ता है। अर्जुन उसकी बात कर रहा है, जो आंखों और हाथों की पकड़ में आता है; कृष्ण उसकी
बात कर रहे हैं, जो हाथ, आंख और कान की
पकड़ के पीछे छूट जाता है। अर्जुन, जैसा हम सब सोचते हैं,
वैसा सोच रहा है। कृष्ण, वैसा कह रहे हैं,
जैसा हम सब जान सकें कभी तो सौभाग्य है।
जो दिखाई पड़ता है, वह सदा नहीं था। सदा तो बहुत बड़ा शब्द है। जो दिखाई पड़ता है, वह क्षणभर पहले भी नहीं था। आप मेरे चेहरे को देख रहे हैं, क्षणभर पहले यह चेहरा यही नहीं था, क्षणभर बाद यही
नहीं होगा। क्षणभर में बहुत कुछ मेरे शरीर में मर गया और बहुत कुछ नया आ गया।
बुद्ध कहा करते थे--कोई उनसे मिलने
आता, तो वे उससे कहा करते थे--कि तुम जब मिलने आए थे और जब
तुम विदा होओगे, तो वही नहीं होओगे जो मिलने आया था।
घंटेभर में बहुत कुछ बदल जाता है। एक
आदमी सत्तर साल में कोई दस बार पूरा का पूरा बदल जाता है। हर सात साल में शरीर के
सब अणु-परमाणु बदल जाते हैं। प्रतिक्षण शरीर में कुछ मर रहा है और बाहर फेंका जा
रहा है। प्रतिक्षण शरीर में नया जीवित हो रहा है, नया आ रहा है,
भोजन से आप नया डाल रहे हैं। और प्रतिपल शरीर से बहुत कुछ बाहर
फेंका जा रहा है। सात साल में पूरा शरीर बदल जाता है। लेकिन हम कहे चले जाते हैं
कि मैं वही हूं। आकृति की समानता, आकृति की एकता बन जाती है।
फिल्म देखते हैं कभी आप। अगर परदे पर
फिल्म को धीमे-धीमे चलाया जाए, तो आप बहुत हैरान हो जाएंगे।
इतना हाथ, पैर से इतना ऊपर सिर तक उठे, इतने हाथ के उठने के लिए हजारों चित्र लेने पड़ते हैं। फिर वे चित्र एकदम
से तेजी से चलाए जाते हैं। एक चित्र इतना ऊपर दूसरा और ऊपर, तीसरा
और ऊपर, चौथा और ऊपर। इतनी तेजी से घूमने से हाथ उठता हुआ
मालूम पड़ता है। लेकिन अगर उन्हें धीमे चलाया जाए तो आप पाएंगे कि हाथ के हजार
चित्र लेने पड़े हैं।
ठीक ऐसे ही, जब हम एक व्यक्ति को देख रहे हैं, तो हम एक ही
व्यक्ति को नहीं देख रहे हैं। जितनी देर हमने देखा, उस बीच
हजार चित्र हमारी आंखों ने ग्रहण किए हैं। भीतर चित्र संश्लिष्ट हुए और एक आकृति
हमारे मन में बनी। जब तक वह बनी है, तब तक बाहर सब बदल गया
है।
विराट आकाश में तारे दिखाई पड़ते हैं।
जो तारे हमें दिखाई पड़ते हैं, वे वहीं नहीं होते हैं, जहां दिखाई पड़ते हैं। वहां कभी थे। क्योंकि जो निकटतम तारा है, उससे भी हम तक आने में कोई चार साल रोशनी को लग जाते हैं। और रोशनी धीमी
नहीं चलती। रोशनी चलती है एक सेकेंड में एक लाख छियासी हजार मील। एक लाख छियासी हजार
मील प्रति सेकेंड से प्रकाश की किरण यात्रा करती है हम तक। चार साल लगते हैं,
निकटतम तारे से हम तक पहुंचने में। जब हमारे पास किरण पहुंचती है,
तो हमें तारा वहां दिखाई पड़ता है, जहां चार
साल पहले था। इस बीच हो सकता है कि रहा ही न हो, बिखर गया
हो। और इतना तो तय है कि उस जगह अब नहीं होगा, जहां चार साल
पहले था। इस बीच में वह करोड़ों, अरबों, खरबों मील की यात्रा कर गया है।
इसलिए रात हमें जो तारे दिखाई पड़ते
हैं, वे वहां नहीं हैं, जहां दिखाई
पड़ते हैं। रात बड़ी झूठी है, तारे बिलकुल झूठे हैं। कोई तारा
वहां नहीं है। और दूर के तारे हैं। किसी तारे को सौ वर्ष लगते हैं, हजार वर्ष लगते हैं रोशनी पहुंचाने में; करोड़ वर्ष
लगते हैं। ऐसे तारे हैं कि जब पृथ्वी बनी थी--कोई चार अरब वर्ष पहले--तब से उनकी
चली रोशनी अब तक पृथ्वी पर नहीं पहुंची। इन चार अरब वर्षों में न मालूम क्या हो
गया होगा!
जो हमें दिखाई पड़ता है, वह वही नहीं है, जो है। उतनी देर में भी बदल जाता
है। जब आंख से मैं देखता हूं आपके चेहरे को, तो आपसे किरण
मुझ तक आती है, तब तक भी समय गुजरा। आप वही नहीं होते हैं।
इस बीच भीतर सब कुछ बदल गया है। आकृति--सदा की तो बात दूर--क्षणभर भी एक नहीं
रहती।
हेराक्लतु ने कहा है, यू कैन नाट स्टेप ट्वाइस इन दि सेम रिवर--एक ही नदी में दोबारा नहीं उतर
सकते। यह भी जरा ठीक नहीं है, बिलकुल ठीक नहीं है। एक ही नदी
में एक बार भी उतरना बहुत मुश्किल है, दोबारा उतरना तो असंभव
है। एक नदी में एक बार भी उतरना मुश्किल है! क्योंकि जब पैर आपका नदी की सतह को
छूता है, तब नीचे नदी भागी जा रही है। जब पैर और थोड़ा नीचे
जाता है, तब ऊपर नदी भागी जा रही है। जब पैर और नीचे जाता है,
तब नदी भागी जा रही है। आपका पैर नदी में एक फीट उतरता है, उस बीच नदी का सारा पानी भागा जा रहा है। जब आप ऊपर छुए थे, तब नीचे का पानी भाग गया है। जब आप नीचे पहुंचें, तब
तक ऊपर का पानी नहीं है।
आकृति तो नदी की तरह भाग रही है।
लेकिन आकृति हमें थिर दिखाई पड़ती है। समानता की वजह से तादात्म्य मालूम होता है।
वही है जो कल देखा था, वही है जो सुबह देखा था, वही है।
प्रतिपल आकृति बदली जा रही है।
यह आकृतियों का जो जगत, यह रूप का जो जगत है, अर्जुन इस रूप के जगत के प्रति
चिंतित है बहुत। हम भी चिंतित हैं बहुत। जो मर ही रहा है प्रतिपल, उसके लिए वह कह रहा है कि ये मर जाएंगे तो क्या होगा? जो मर ही रहा है, जिसे बचाने का कोई उपाय नहीं है,
उसके लिए वह चिंतित है; वह असंभव के लिए
चिंतित है। और जो असंभव के लिए चिंतित है, वह चिंता से कभी
मुक्त नहीं हो सकता। असंभव की चिंता ही विक्षिप्तता बन जाती है।
आकृति को सदा बचाना तो दूर, क्षणभर भी बचाना मुश्किल है। एक आकृति का जगत है--रूप का, ध्वनि का, किरण का, तरंगों
का--वह कंपित है पूरे समय। सब बदला जा रहा है। अभी हम यहां इतने लोग बैठे हैं,
हम सब बदले जा रहे हैं, सब कंपित हैं, सब तरंगायित हैं, सब वेवरिंग हैं, सब बदल रहा है। इस बदलाहट के जगत को, जो भी सोचता हो
बचाने की आकांक्षा, वह असंभव आकांक्षा कर रहा है। असंभव
आकांक्षाओं के किनारे टकराकर ही मनुष्य विक्षिप्त हो जाता है।
कृष्ण अर्जुन को कह रहे हैं कि तू जो
कह रहा है कि ये मर जाएंगे, तो मैं तुझे कहता हूं, ये पहले
भी थे, ये बाद में भी होंगे। तू इनके मरने की चिंता छोड़ दे।
क्यों?
मुझे सुकरात की घटना याद आती है।
सुकरात जब मर रहा था, तो उसके एक मित्र ने, क्रेटो ने
पूछा कि आप मर जाएंगे, लेकिन आप चिंतित और परेशान नहीं दिखाई
पड़ते! तो सुकरात ने कहा कि मैं इसलिए चिंतित और परेशान नहीं हूं, क्योंकि मैं सोचता हूं कि यदि मरकर मर ही जाऊंगा, तब
तो चिंता का कोई कारण ही नहीं है। क्योंकि जब बचूंगा ही नहीं, तो चिंता कौन करेगा! दुखी कौन होगा! पीड़ित कौन होगा! कौन जानेगा कि मैं मर
गया! अगर मैं मर ही जाऊंगा, तो जानने को भी कोई नहीं बचेगा
कि मैं मर गया। जानने को भी कोई नहीं बचेगा कि मैं कभी था। जानने को कोई नहीं
बचेगा कि सुकरात जैसा कुछ था। इसलिए चिंता का कोई कारण नहीं है। और अगर नहीं मरा,
अगर नहीं मरा मरकर भी, तब तो चिंता का कोई
कारण ही नहीं है। और दो ही संभावनाएं हैं--सुकरात ने कहा--या तो मैं मर ही जाऊंगा
और या फिर नहीं ही मरूंगा। और तीसरी कोई भी संभावना नहीं है। इसलिए मैं निश्चिंत
हूं। कृष्ण अर्जुन को कह रहे हैं कि जो मरने वाला है, वह
तेरे बचाने से नहीं बचेगा। और जो नहीं मरने वाला है, वह तेरे
मारने से नहीं मर सकता है। इसलिए तू व्यर्थ की चिंता में पड़ रहा है। इस व्यर्थ की
चिंता को छोड़।
यह शायद रूप और अरूप के बीच जो जगत का
फैलाव है, अगर हम रूप की तरफ से पकड़ें, तब
भी चिंता व्यर्थ है; क्योंकि जो मिट ही रहा है, मिट ही रहा है, मिट ही रहा है, मिट ही जाएगा, पानी पर खींची गई लकीर है। खिंच भी
नहीं पाती और मिटनी शुरू हो जाती है। हाथ उठ भी नहीं पाता और मिट गई होती है। अगर
हम अरूप से सोचें, तो जो नहीं मिटेगा, नहीं
मिटेगा, नहीं मिटेगा, वह कभी मिटा नहीं
है। लेकिन अरूप से हमारा कोई परिचय नहीं है, अर्जुन का भी
कोई परिचय नहीं है।
यह भी समझ लेना जरूरी है कि अर्जुन की
चिंता एक और दूसरी सूचना भी देती है। अर्जुन कहता है, ये सब मर जाएंगे। इसका मतलब है कि अर्जुन अपने को भी रूप ही समझता है।
अन्यथा ऐसा नहीं कहेगा। हम दूसरों के संबंध में जो कहते हैं, वह हमारे संबंध में ही कहा गया होता है। जब मैं किसी को मरते देखकर सोचता
हूं कि मर गया, खो गया, मिट गया,
तब मुझे जानना चाहिए कि मुझे अपने भीतर भी उसका पता नहीं है,
जो नहीं मिटता है, नहीं मरता है, नहीं खोता है।
अर्जुन जब चिंता जाहिर कर रहा है कि
ये मर जाएंगे, तो वह अपनी मृत्यु की ही चिंता जाहिर कर रहा है। वह
यह जानता नहीं कि उसके भीतर भी कुछ है, जो नहीं मरता है। और
जब कृष्ण कह रहे हैं कि ये नहीं मरेंगे, तब कृष्ण अपने संबंध
में ही कह रहे हैं, क्योंकि वे उसे जानते हैं, जो नहीं मरता है।
हमारा बाहर का ज्ञान, हमारे भीतर के ज्ञान का ही विस्तार है। हमारा जगत का ज्ञान, हमारे स्वयं के ज्ञान का ही विस्तार है, एक्सटेंशन
है। जो हम अपने संबंध में जानते हैं, उसे ही फैलाकर हम समस्त
के संबंध में जान लेते हैं। और जो हम अपने संबंध में नहीं जानते, उसे हम किसी और के संबंध में कभी नहीं जान सकते। आत्म-ज्ञान ही ज्ञान है;
बाकी सब ज्ञान गहरे अज्ञान पर खड़ा होता है। और अज्ञान पर खड़े ज्ञान
का कोई भी भरोसा नहीं।
अब वह अर्जुन बड़े ज्ञान की बातें करता
हुआ मालूम पड़ता है; वह बड़े धर्म की बातें करता हुआ मालूम पड़ता है;
लेकिन उसे इतना भी पता नहीं है कि अरूप भी है कोई, निराकार भी है कोई। अस्तित्व के आधार में कुछ है, जो
अमृत है--इसका उसे कोई भी पता नहीं है। और जिसे अमृत का पता नहीं है, उसके लिए जीवन में अभी ज्ञान की कोई भी किरण नहीं फूटी। जिसे मृत्यु का
पता है, वह घने अंधकार और अज्ञान में खड़ा है।
कसौटी यही है, अगर ज्ञात है आपको सिर्फ मृत्यु, तो अज्ञान आधार है;
और अगर ज्ञात है आपको अमृत, नहीं जो मरता,
तो ज्ञान आधार है। अगर मृत्यु का भय है मन में--चाहे दूसरे की,
चाहे अपनी, इससे कोई भेद नहीं पड़ता--अगर
मृत्यु का भय है मन में, तो गवाही है वह भय इस बात की कि
आपको अमृत का कोई भी पता नहीं है।
और अमृत ही है; और मृत्यु केवल ऊपर बनी हुई लहरों का नाम है। सागर ही है लेकिन सागर दिखाई
नहीं पड़ता; दिखाई लहरें पड़ती हैं। आप कभी सागर के किनारे गए
हैं, तो सागर देखा है? कहेंगे, जरूर देखा है। लेकिन सिर्फ लहरें ही देखी होंगी, सागर
नहीं देखा होगा। लहरें सागर नहीं हैं; लहरें सागर में हैं
जरूर, लेकिन लहरें सागर नहीं हैं। क्योंकि सागर बिना लहरों
के भी हो सकता है, लेकिन लहरें बिना सागर के नहीं हो सकतीं।
पर दिखाई लहरें पड़ती हैं; उन्हीं का जाल फैला है ऊपर। आंखें
उन्हीं को पकड़ती हैं, कान उन्हीं को सुनते हैं।
और मजा यह है कि जिस लहर को आप देख
रहे हैं, लहर का मतलब ही यह है कि आप उसे कभी न देख पाएंगे।
क्योंकि लहर, देख रहे हैं, तभी बदली जा
रही है। देख भी नहीं पाए कि बदल गई। लहर का मतलब ही है, जो
हो रही है, नहीं हो रही है; जिसका होना
और न होना एक साथ चल रहा है; जो उठ रही है और गिर रही है;
जो है और नहीं है; जो एक साथ डोल रही है। इस
लहर को ही हम देखते हैं।
जिसने लहरों को ही सागर समझा, वह चिंतित हो सकता है कि क्या होगा? लहरें मिट रही
हैं, क्या होगा? लेकिन जो सागर को
जानता है, वह कहेगा, लहरों को बनने दो,
मिटने दो। लहरों में जो पानी है, जो सागर है,
वह पहले भी था जब लहर नहीं थी, और बाद में भी
होगा जब लहर नहीं होगी।
जीसस से एक मित्र ने पूछा है उनके कि
अब्राहम--एक बहुत पुराना प्रोफेट हुआ जेरूसलम में, तो अब्राहम बहुत पहले
हुआ-- आप अब्राहम के संबंध में क्या जानते हैं? तो जीसस ने
कहा, जब अब्राहम हुआ, उसके पहले भी मैं
था--बिफोर अब्राहम, आई वाज़--मैं अब्राहम के पहले भी था।
निश्चित ही, उस आदमी को शक हुआ होगा। तीस साल से ज्यादा उम्र नहीं थी जीसस की। अब्राहम
को मरे हजारों साल हो गए और यह आदमी कहता है, अब्राहम के
पहले भी मैं था। जब अब्राहम नहीं हुआ था, तब भी मैं था।
असल में जीसस सागर की बात कर रहे हैं; उस लहर की बात नहीं कर रहे, जो मरियम से उठी। वह जो
जीसस नाम की लहर है, उसकी बात नहीं कर रहे हैं। वह उस सागर
की बात कर रहे हैं, जो लहरों के पहले है और लहरों के बाद है।
और जब कृष्ण कहते हैं कि पहले भी हम
थे, तू भी था, मैं भी था; ये जो
लोग सामने युद्ध के स्थल पर आकर खड़े हैं, ये भी थे; बाद में भी हम होंगे--तो वे सागर की बात कर रहे हैं। और अर्जुन लहर की बात
कर रहा है। और अक्सर सागर और लहर की बात करने वाले लोगों में संवाद बड़ा मुश्किल है,
कम्युनिकेशन बहुत मुश्किल है। क्योंकि कोई पूरब की बात कर रहा है,
कोई पश्चिम की बात कर रहा है।
इसलिए गीता इतनी लंबी चलेगी। क्योंकि
अर्जुन बार-बार लहरों की बातें उठाएगा, और कृष्ण बार-बार
सागर की बात करेंगे, और उनके बीच कहीं भी, कहीं भी कटाव नहीं होता। कहीं वे एक-दूसरे को काटते नहीं। काट दें तो बात
हल हो जाए। इसलिए लंबी चलेगी बात। वह फिर दोहरकर लहरों पर लौट आएगा। उसे लहरें ही
दिखाई पड़ती हैं। और जिसे लहरें दिखाई पड़ती हैं, उसका भी कसूर
क्या है! लहरें ही ऊपर होती हैं।
असल में जो देखने पर ही निर्भर है, उसे लहरें ही दिखाई पड़ेंगी। अगर सागर को देखना हो, तो
खुली आंख से देखना जरा मुश्किल है। आंख बंद करके देखना पड़ता है। अगर सागर को देखना
हो, तो सच तो यह है कि आंख से देखना ही नहीं पड़ता, सागर में डुबकी लगानी पड़ती है। और डुबकी लगाते वक्त आंख बंद कर लेनी होती
है। लहरों से नीचे उतरना पड़ता है सागर में। लेकिन जो अभी अपने ही चित्त की लहरों
से नीचे न उतरा हो, वह दूसरे के ऊपर उठी लहरों के नीचे नहीं
जा सकता है। अर्जुन की सारी पीड़ा आत्म-अज्ञान है।
प्रश्न: भगवान
श्री, यह भी लहर का ही सवाल है। कृष्ण जब अर्जुन से यह कह
रहे हैं कि मैं, तू और ये जनादि पहले भी थे और बाद में भी
होंगे, इससे यह निष्कर्ष निकलता है, अभी
आपने बताया कि आत्मा की फार्मलेस कंटेंट का ही शरीर के फार्म के बजाय महत्व है।
लेकिन क्या यह संभावना भी नहीं हो सकती है कि फार्म के बगैर कंटेंट की सम्यक
अभिव्यक्ति नहीं हो सकती! घटादि आकृति के बगैर मृत्तिका का क्या प्रयोजन है?
अभिव्यक्ति और अस्तित्व में फर्क है; एक्झिस्टेंस और एक्सप्रेशन में फर्क है। जो अभिव्यक्त नहीं है, वह भी हो सकता है। एक बीज है। छिपा है वृक्ष उसमें; अभिव्यक्त
नहीं है, लेकिन है। है इस अर्थ में कि हो सकता है; है इस अर्थ में कि छिपा है; है इस अर्थ में कि
पोटेंशियल है।
अभी आक्सफोर्ड युनिवर्सिटी की एक
लेबोरेटरी में, डिलाबार प्रयोगशाला में, एक बहुत
अनूठा प्रयोग चल रहा है, वैज्ञानिक प्रयोग है। और वह प्रयोग,
मैं समझता हूं, इस समय चलने वाले प्रयोगों में
सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। वह प्रयोग यह है कि बहुत संवेदनशील कैमरे बीज में छिपे
हुए उस वृक्ष का भी चित्र ले सकते हैं, जो बीस साल बाद पूरा
का पूरा प्रकट होगा।
यह बहुत हैरानी वाली बात है। एक कली
का चित्र लेते वक्त भूल से यह घटना घट गई। और विज्ञान की बहुत-सी खोजें भूल से
होती हैं। क्योंकि वैज्ञानिक बहुत ट्रेडीशनल माइंड के होते हैं। वैज्ञानिक बहुत
कनफर्मिस्ट होते हैं। वैज्ञानिक आमतौर से क्रांतिकारी नहीं होता। क्रांतिकारी
कभी-कभी वैज्ञानिक हो जाते हैं, यह दूसरी बात है; लेकिन वैज्ञानिक आमतौर से क्रांतिकारी नहीं होता। वैज्ञानिक तो जितना
विज्ञान जानता है, उसको जोर से पकड़ता है; और किसी भी नई चीज को प्रवेश नहीं करने देता। पिछले पूरे विज्ञान का
इतिहास यह बताता है कि हर विज्ञान की नई खोज में बाकी वैज्ञानिकों ने जितनी बाधा
डाली, उतनी और किसी ने भी नहीं डाली है। तो अक्सर नई घटना
भूल से घटती है; वैज्ञानिक उसको कर नहीं रहा होता, एक्सिडेंटल होती है।
डिलाबार प्रयोगशाला में बहुत
संवेदनशील कैमरों के साथ फूलों पर कुछ अध्ययन किया जा रहा था। और एक कली का फोटो
लिया गया, लेकिन कली का फोटो तो नहीं आया, फोटो फूल का आया! कैमरे के सामने कली थी और कैमरे के भीतर फूल आया। तब
पहले तो यही खयाल हुआ कि जरूर कुछ कैमरे की फिल्म में कुछ भूल हो गई है। कोई
एक्सपोजर पहले हो गया। कुछ न कुछ गलती हो गई है। लेकिन फिर भी फूल के खिलने तक
प्रतीक्षा करनी चाहिए।
और जब फूल खिला तो बड़ी कठिनाई हो गई।
गलती कैमरे की फिल्म में नहीं हुई थी, गलती वैज्ञानिकों की
समझ में थी। जब फूल खिला, तो ठीक वह वैसा था, जैसा कि चित्र बना था। तब फिर इस पर काम आगे जारी हुआ। और ऐसा समझा गया कि
जो कल होने वाला है, वह भी किसी सूक्ष्म तरंगों के जगत में,
इस समय भी हो रहा है, तभी कल हो पाएगा।
एक बच्चा पैदा होता है मां से। नौ
महीने अंदर गर्भ में छिपा होता रहता है। किसी को पता नहीं, क्या हो रहा है। नौ महीने बाद पैदा होता है। यह नौ महीने बाद अचानक नहीं आ
जाता, नौ महीने की इसने भीतर यात्रा की है। एक कली जब फूल
बनती है, तो फूल बनने के पहले उसके आस-पास की विद्युत तरंगें
यात्रा करती हैं फूल बनने की--गर्भ में। वह चित्र लिया जा सकता है। इसका मतलब यह
हुआ कि आज नहीं कल, हम एक बच्चे के चित्र से उसके बुढ़ापे का
चित्र भी ले सकेंगे। मैं मानता हूं, ले सकेंगे।
इस अर्थ में ज्योतिष बहुत वैज्ञानिक
आधार लेगा। अब तक ज्योतिष वैज्ञानिक नहीं बन सका है। इस अर्थ में वैज्ञानिक बनेगा।
जो कल होने वाला है, वह आज भी किसी तल पर हो रहा है--हमें चाहे दिखाई पड़े,
चाहे न दिखाई पड़े।
कठिनाई कुछ ऐसी है कि मैं एक वृक्ष के
नीचे बैठा हूं, आप वृक्ष के ऊपर बैठे हैं। आप कहते हैं, एक बैलगाड़ी रास्ते पर मुझे दिखाई पड़ रही है। मैं कहता हूं, मुझे दिखाई नहीं पड़ रही है। मैं कहता हूं, कोई
बैलगाड़ी नहीं है, रास्ता खाली है। जहां तक रास्ता मुझे दिखाई
पड़ता है, रास्ता खाली है। मेरे लिए बैलगाड़ी भविष्य में है,
फ्यूचर में है। झाड़ पर आप बैठे हैं, आपके लिए
प्रेजेंट में है, वर्तमान में है। आप कहते हैं कि नहीं,
बैलगाड़ी है। मैं कहता हूं, होगी; है तो नहीं, भविष्य में होगी। लेकिन आप कहते हैं,
वर्तमान में है; मुझे दिखाई पड़ रही है।
फिर बैलगाड़ी मुझे भी दिखाई पड़ने लगती
है। भविष्य से मेरे लिए भी वर्तमान में आ जाती है। फिर रास्ते पर चली जाती है, थोड़ी देर में मुझे दिखाई पड़नी बंद हो जाती है। अतीत में चली जाती है,
पास्ट में। लेकिन झाड़ पर से आप कहते हैं कि नहीं, मुझे अभी भी दिखाई पड़ रही है। मेरे लिए अभी भी वर्तमान में है।
मेरे लिए बैलगाड़ी भविष्य में थी, वर्तमान में हुई, अतीत में हो गई। आपके लिए एक ही
प्रेजेंट में चल रही है, वर्तमान में चल रही है। आप जरा
मुझसे ऊंचाई पर बैठे हैं और कोई खास फर्क नहीं है।
जहां से कृष्ण देख रहे हैं, वह ऊंचाई से देखना है, फ्राम दि पीक। जहां से वे कह
रहे हैं कि नहीं, कल भी थे, परसों भी
थे, पहले भी थे; अभी भी हैं, कल भी होंगे, परसों भी होंगे। असल में कृष्ण जहां से
देख रहे हैं, वहां एवर प्रेजेंट है, वहां
सब वर्तमान है। अर्जुन जहां से देख रहा है, वहां से वह कहता
है, क्या पता जन्म के पहले थे या नहीं थे! मुझे पता नहीं। बस,
उसकी यात्रा जन्म तक जाती है। जन्म तक भी नहीं जाती।
अगर आप ठीक से देखेंगे, तो चार वर्ष से पहले की स्मृति आपको नहीं होती है। चार वर्ष से पहले की
बात अनुमान है, इनफरेंस है। लोग कहते हैं कि आप थे। चार वर्ष
तक आपकी स्मृति जाती है। कोई बहुत बुद्धिमान हुआ, तीन वर्ष
तक चली जाएगी। कोई और बहुत ही प्रतिभाशाली हुआ, तो दो वर्ष
तक चली जाएगी। लेकिन दो वर्ष तक भी जाए, तो दो वर्ष तक आप थे?
कुछ कहा नहीं जा सकता। स्मृति ही आधार है, तो
दो वर्ष के पहले आप नहीं थे। लेकिन अचानक कैसे हो जाएंगे, अगर
दो वर्ष तक न रहे हों।
लेकिन अगर याद आ जाए जन्म तक--दूसरे
याद दिला देते हैं--पर मां के पेट में भी आप थे, उसकी कोई स्मृति नहीं
है। लेकिन गहरी हिप्नोसिस में उसकी स्मृति भी आ जाती है। गहरे सम्मोहन में व्यक्ति
को बेहोश किया जाए, तो वह बता देता है कि वह तीन महीने का जब
मां के पेट में था, तो मां गिर पड़ी थी। बच्चे को भी तो चोट
लगती है, जब मां गिरती है तो। गर्भ की भी स्मृति आ जाती है।
गर्भ के पार की भी स्मृति आ सकती है। पिछले जन्म की भी स्मृति आ सकती है। लेकिन वह
हमारे लिए पास्ट होगा। उसकी स्मृति जगानी पड़ेगी। अतीत होगा।
कृष्ण के लिए सब शाश्वत वर्तमान है, दि इटरनल नाउ, अब ही है सब। वे जिस जगह से खड़े होकर
देख रहे हैं, वे कहते हैं कि नहीं अर्जुन, पहले भी सब थे, बाद में भी सब होंगे। मैं भी था,
तुम भी थे।
यहां भी डर है कि भूल हो जाएगी। यहां
भी डर यह है कि अर्जुन समझेगा कि मैं अर्जुन नाम का व्यक्ति पहले भी था। कृष्ण यह
नहीं कह रहे हैं। अर्जुन नाम का व्यक्ति कभी नहीं था पहले; हो नहीं सकता। अर्जुन नाम का व्यक्ति तो सिर्फ एक वस्त्र है। उस वस्त्र के
पीछे जो छिपी है चेतना निराकार, वह थी। और अर्जुन नाम का
व्यक्ति आगे भी नहीं होगा। वह तो वस्त्र है, वह तो मौत के
साथ खो जाएगा। हां, जिस पर टंगा है वस्त्र, वह आगे भी होगा।
कृष्ण जो कह रहे हैं, अगर अर्जुन बहुत भी समझेगा, तो भी भूल होने वाली है।
वह भूल यह होगी कि वह ज्यादा से ज्यादा यही समझेगा, तो मैं
अर्जुन तुम कृष्ण, हम पहले भी थे। ये जो लोग खड़े हैं,
ये पहले भी थे। वह फिर भी वही पूछेगा, ये
आकृतियां पहले भी यही थीं?
आकृतियां कभी ये न थीं। लेकिन आकृति
अभिव्यक्ति है। अनाकृति, निराकार अस्तित्व--अभिव्यक्ति नहीं है। लेकिन
अस्तित्व अनभिव्यक्त भी हो सकता है, अनमैनिफेस्ट भी हो सकता
है। जो प्रकट है वही नहीं है, जो अप्रकट है वह भी यही है।
प्रकट हमें है ही क्या! बहुत थोड़ा-सा हमें प्रकट है।
अगर हम वैज्ञानिक से पूछें, तो आज वैज्ञानिक कहने लगा है कि हमारे सामने प्रकट बहुत थोड़ा-सा है। यहां
हम बैठे हैं। आज से दो सौ साल पहले रेडियो तो नहीं था। आज रेडियो है। यहां हम
रेडियो रखे हैं और उसे लगाते हैं और लंदन की आवाज सुनाई पड़नी शुरू हो जाती है। जब
आप रेडियो पर बटन घुमाते हैं, तब लंदन से आवाज शुरू हो जाती
है? नहीं, लंदन की आवाज तो गुजर ही रही
थी पूरे वक्त। सिर्फ आपके पास रेडियो नहीं था, जो पकड़े। जब
नहीं सुन रहे थे, तब भी गुजर रही थी; मैनिफेस्ट
नहीं थी, प्रकट नहीं थी; अप्रकट गुजर
रही थी। कान उसे नहीं पकड़ पाते थे, बस इतना ही। और भी हजारों
आवाजें गुजर रही हैं।
वैज्ञानिक कहते हैं कि हमारी आवाज
सुनने का एक रेंज है। इतनी तरंगों तक हम सुनते हैं। इतनी तरंगों के नीचे भी नहीं
सुनते, इसके ऊपर भी नहीं सुनते। हमारी सुनने की क्षमता की एक
सीमा है; उसके पार बहुत कुछ गुजर रहा है, जो हमें सुनाई नहीं पड़ता है। वह है। उसके नीचे भी बहुत कुछ गुजर रहा है,
जो हमें सुनाई नहीं पड़ता। वह भी है। जो हमें दिखाई नहीं पड़ता,
वह भी है। अस्तित्व उतना ही प्रकट होता है, जितनी
हमारे पास इंद्रियां हैं।
समझ लें एक अंधा आदमी है, उसके लिए प्रकाश का कोई अस्तित्व नहीं है। क्योंकि अंधे आदमी के लिए
प्रकाश प्रकट होने में असमर्थ है। क्योंकि अंधे आदमी के पास कोई माध्यम नहीं है। जरा
सोचें कि कहीं किसी न किसी ग्रह-उपग्रह पर जरूर ऐसे प्राणी होंगे, जिनके पास पांच से ज्यादा इंद्रियां होंगी। तब हमको पहली दफे पता चलेगा कि
और भी चीजें हैं जगत में, जिनका हमें कोई भी पता नहीं है।
क्योंकि पांच इंद्रियां कोई सीमा नहीं आ गई।
वैज्ञानिक कहते हैं कि कम से कम पचास
हजार प्लेनेट्स पर जीवन है, कम से कम पचास हजार प्लेनेट्स पर। कोई चार अरब
ग्रहों-उपग्रहों का पता है, उनमें कम से कम पचास हजार पर
जीवन के होने की संभावना है। इन पर अलग-अलग तरह का जीवन विकसित हुआ होगा--कहीं सात
इंद्रियों वाले, कहीं पंद्रह इंद्रियों वाले, कहीं बीस इंद्रियों वाले व्यक्ति होंगे। तो वे वे चीजें जान रहे होंगे,
जिनका हम सपना भी नहीं देख सकते। क्योंकि सपना भी हम वही देख सकते
हैं, जो हम जानते हैं। सपने में भी हम वह नहीं देख सकते हैं,
जो हम जानते नहीं हैं। हम कल्पना भी नहीं कर सकते, हमारे कालिदास और हमारे भवभूति और हमारे रवींद्रनाथ कविता भी नहीं लिख
सकते, कल्पना भी नहीं कर सकते उसकी, जो
हमारी इंद्रियों के बाहर है। लेकिन वह है। चूंकि हमें नहीं दिखाई पड़ता है, इसलिए नहीं है, ऐसा कहने का कोई भी कारण नहीं है।
और फिर अभिव्यक्ति बहुत ऊपरी घटना है।
अस्तित्व बहुत भीतरी घटना है। अस्तित्व घटना नहीं है, कहना चाहिए, अस्तित्व होना है, बीइंग है। और अभिव्यक्ति हैपनिंग है, घटना है। मैं
यहां बैठा हूं। मैं एक गीत गाऊं। जब तक मैंने गीत नहीं गाया था, तब तक गीत मेरे भीतर कहां था? कहीं था। कोई
फिजियोलाजिस्ट मेरे शरीर को काट-पीटकर गीत पकड़ पाता? कोई
वैज्ञानिक, कोई मनोवैज्ञानिक, कोई
मस्तिष्क का सर्जन मेरे मस्तिष्क को काटकर गीत की कड़ी पकड़ पाता? कहीं भी खोजने से मेरे भीतर गीत नहीं मिलता। लेकिन जो गीत मैं गा रहा हूं,
अगर वह मेरे भीतर नहीं था, तो उसके आने का
उपाय क्या है!
वह अनमैनिफेस्ट था, वह कहीं बीज था, वह कहीं छिपा था। वह कहीं सूक्ष्मतम
तरंगों में था, वह कहीं अस्तित्व में तो था, अभिव्यक्त नहीं था। फिर वह प्रकट हुआ है। फिर वह प्रकट हुआ है। प्रकट होने
से वह हो गया है, ऐसा नहीं, प्रकट होने
के पहले भी था। और ऐसा भी नहीं कि वह पूरा प्रकट हो गया हो, क्योंकि
प्रकट होने में मेरी सीमाएं भी बाधा डालती हैं।
रवींद्रनाथ मरते दम तक कहते रहे कि जो
मैं गाना चाहता था, वह गा नहीं पाया हूं। लेकिन जिसको तुम गा ही नहीं पाए,
तुम्हें कैसे पता चला कि तुम उसे गाना चाहते थे! जरूर कहीं भीतर कुछ
एहसास हो रहा है; कहीं कोई फीलिंग कि कुछ गाना था। जैसा कई
बार आपको लगता है कि किसी का नाम जबान पर रखा है और याद नहीं आता। अब बड़े पागलपन
की बात कहते हैं आप कि जबान पर रखा है और याद नहीं आता। अगर जबान पर रखा है,
तो अब और याद आने की जरूरत क्या है, निकालिए
जबान से! लेकिन आप कहते हैं, नहीं, रखा
तो जबान पर है, लेकिन याद नहीं आता।
क्या मतलब हुआ इसका? इसका मतलब हुआ कि कहीं कोई एक सरकता एहसास है कि मालूम है, लेकिन फिर भी मैनिफेस्ट नहीं हो पा रहा है, फिर भी
अभिव्यक्त नहीं हो पा रहा है, मन पकड़ नहीं पा रहा है। कहीं
एहसास है। और अगर आप मर जाएं या आपको काट डाला जाए और हम आपके भीतर सब खोज-बीन
करें कि जो बिलकुल जबान पर रखा था, वह कहां है! तो जबान मिल
जाएगी, जबान पर रखा हुआ कुछ भी नहीं मिलेगा। मस्तिष्क मिल
जाएगा, तंतु मिल जाएंगे, हजारों-हजारों
सेल की व्यवस्था मिल जाएगी, काट-पीट हो जाएगी, वह कहीं मिलेगा नहीं। कहीं अनभिव्यक्त, अनमैनिफेस्ट,
कहीं छिपा, कहीं अंतराल में, अस्तित्व में दबा वह खो जाता है।
जो कृष्ण कह रहे हैं, वह यह कह रहे हैं कि जो प्रकट हुआ है, वही तू नहीं
है। वह जो अप्रकट रह गया है, वही तू है। और जो अप्रकट है,
वह बहुत बड़ा है; और जो प्रकट हुआ है, वह एक छोर भर है अर्जुन! ऐसे छोर बहुत बार प्रकट हुए हैं, ऐसे छोर बहुत बार प्रकट होते रहेंगे, होते रहेंगे।
लेकिन वह जो अप्रकट है, वह अनंत; वह जो
अप्रकट है, अनादि; वह जो अप्रकट है,
असीम; वह कभी चुकता नहीं। सारी अभिव्यक्तियों
के बाद भी वह अनचुका, पीछे शेष रह जाता है।
निश्चित ही, अभिव्यक्त न होगा तो हम इंद्रियों से उसे न पहचान पाएंगे। हम इंद्रियों से
उसे न पहचान पाएंगे, क्योंकि इंद्रियां सिर्फ अभिव्यक्ति को
पकड़ती हैं। लेकिन हम इंद्रियां ही नहीं हैं। और अगर हम इंद्रियों के भीतर उतरने की
कला सीख जाएं, तो जो अभिव्यक्त नहीं है, वह भी पकड़ा जाता है, वह भी पहचाना जाता है, वह भी देखा जाता है, वह भी सुना जाता है, वह भी हृदय के किसी गहन तल पर स्पर्शित होता है।
अभिव्यक्ति अस्तित्व की अनिवार्यता
नहीं है, अभिव्यक्ति अस्तित्व का खेल है; आकृति अस्तित्व की अनिवार्यता नहीं है, आकृति
अस्तित्व का खेल है। इसलिए कृष्ण जगत को, जीवन को एक लीला से
ज्यादा नहीं कहते हैं। और लीला का मतलब है कि मंच पर कोई आया है, राम बनकर आया है; बस वह एक आकृति है। कोई रावण बनकर
आया है, वह एक आकृति है। वे धनुष-बाण लेकर लड़ने खड़े हुए हैं,
वह एक आकृति है। परदे के पीछे अभी थोड़ी देर बाद वे गपशप करेंगे,
सीता को भूल जाएंगे। झगड़ा बंद हो जाएगा, चाय
पीएंगे ग्रीन-रूम में बैठकर।
वह जो कृष्ण कह रहे हैं, वह ग्रीन-रूम की बात कह रहे हैं। अर्जुन जो बात कह रहा है, वह मंच की बात कह रहा है। पर जो मंच पर प्रकट हुआ है, वह सिर्फ रूप है, वह सिर्फ अभिनय है, वह एक आकृति है। और आकृति के बिना अस्तित्व हो सकता है, लेकिन अस्तित्व के बिना आकृति नहीं हो सकती है। जैसा मैंने कहा, लहर नहीं हो सकती सागर के बिना, सागर बिना लहर के हो
सकता है।
जब राम और रावण पर्दे के पीछे जाकर
गपशप करके चाय पीने लगेंगे, तब राम और रावण की जो आकृतियां बनी थीं, वे कहां हैं? वे नहीं हैं। वे लहरें थीं, वे सिर्फ आकार थे, जो पीछे प्राण न हो, तो नहीं हो जाते हैं। रूप बदलता है, फार्म बदलता है,
आकृतियां बदलती हैं, अभिनय बदलता है, अभिनेता नहीं; वह जो पीछे खड़ा है, वह नहीं। कृष्ण उसकी ही बात कर रहे हैं।
देहिनोऽस्मिन्यथा
देहे कौमारं यौवनं जरा।
तथा
देहान्तरप्राप्तिर्धीरस्तत्र मुह्यति।। १३।।
किंतु जैसे जीवात्मा की इस देह में
कुमार, युवा और वृद्ध अवस्था होती है, वैसे
ही अन्य शरीर की प्राप्ति होती है। उस विषय में धीर पुरुष मोहित नहीं होता है।
कृष्ण कह रहे हैं कि जैसे इस एक शरीर
में भी सब बदलाहट है--बचपन है, जवानी है, बुढ़ापा
है, जन्म है, मृत्यु है--जैसे इस एक
शरीर में भी कुछ थिर नहीं है, जैसे इस एक शरीर में भी सब
अथिर, सब बदला जा रहा है, बच्चे जवान
हुए जा रहे हैं, जवान बूढ़े हुए जा रहे हैं, बूढ़े मृत्यु में उतरे जा रहे हैं...।
एक बड़े मजे की बात है, भाषा में पता नहीं चलता, क्योंकि शब्दों में गति
नहीं होती। शब्द तो ठहरे हुए, थिर होते हैं, स्टैटिक होते हैं। चूंकि भाषा में शब्द ठहरे हुए होते हैं, जीवन के साथ भाषा बड़ा अनाचार करती है। जीवन में कुछ भी ठहरा हुआ नहीं
होता। न ठहरे हुए जीवन पर जब हम ठहरे हुए शब्दों को जड़ देते हैं, तो बड़ी गलती हो जाती है।
हम बोलते हैं, यह बच्चा है। गलत बात बोलते हैं। बच्चा है की स्थिति में कभी नहीं होता,
बच्चा पूरे वक्त होने की स्थिति में होता है--हो रहा है। कहना चाहिए,
बच्चा हो रहा है। हम कहते हैं, बूढ़ा है। गलत
बात कहते हैं। है की स्थिति में कोई बूढ़ा नहीं होता। बूढ़ा हो रहा है। प्रत्येक चीज
हो रही है। है की स्थिति में कोई भी चीज नहीं है। इज़ की हालत में कोई भी चीज नहीं
है, प्रत्येक चीज बिकमिंग में है। हम कहते हैं, नदी है। कैसी गलत बात कहते हैं! नदी और है हो सकती है? नदी का मतलब ही है कि जो बह रही है, हो रही है।
सब शब्द थिर हैं और जीवन में कहीं भी
कुछ थिर नहीं है। इसलिए जीवन के साथ बड़ी भूल हो जाती है। और इन शब्दों को दिन-रात
बोलते-बोलते हम भूल जाते हैं। जब हम किसी आदमी को जवान कहते हैं, तो जवान का मतलब क्या होता है जीवन में? भाषाकोश में
नहीं, शब्दकोश में नहीं। शब्दकोश में तो जवान का मतलब जवान
होता है। जिंदगी में क्या होता है? जिंदगी में जवान का मतलब
सिर्फ बूढ़े होने की तैयारी होता है और कुछ नहीं। शब्दकोश में नहीं कहीं लिखा है
ऐसा। शब्दकोश में बूढ़े का मतलब बूढ़ा होता है। जिंदगी में बूढ़े का मतलब मरने की
तैयारी होता है। और तैयारी भी ऐसी नहीं कि जो हो गई, हो रही
है, होती ही जा रही है।
कृष्ण कह रहे हैं, इस जीवन में भी अर्जुन, चीजें ठहरी हुई नहीं हैं। इस
जीवन में भी जिन आकृतियों को तू देख रहा है, कल वे बच्चा थीं,
जवान हुईं, बूढ़ी हो गईं।
बड़े मजे की बात है। अगर मां के पेट
में जब पहली दफे बीजारोपण होता है, उस सेल, उस कोष्ठ का चित्र ले लिया जाए और आपको बताया जाए कि आप यही थे पचास साल
पहले, तो आप मानने को राजी न होंगे कि क्या मजाक करते हैं,
मैं और यह! एक छोटा-सा सेल जो नंगी आंख से दिखाई भी नहीं पड़ता,
जिसको खुर्दबीन से देखना पड़ता है; जिसमें न
कोई आंख है, न कोई कान है, न कोई हड्डी
है; जिसमें कुछ भी नहीं है; जिसका पता
नहीं कि वह स्त्री होगी कि पुरुष होगा; जिसका पता नहीं,
एक छोटा-सा बिंदु, यह काला धब्बा--यह मैं!
मजाक कर रहे हैं। यह मैं कैसे हो सकता हूं! लेकिन यह आपकी पहली तस्वीर है। इसे
अपने एल्बम में लगाकर रखना चाहिए। और अगर यह आप नहीं हैं, तो
जो तस्वीर आपकी आज है, वह भी आप नहीं हो सकते हैं। क्योंकि
कल वह भी बदल जाएगी।
अगर हम एक आदमी की, पहले दिन पैदा हुआ था तब की तस्वीर, और जिस दिन मरता
है उस दिन की तस्वीर को आस-पास रखें, क्या इन दोनों के बीच
कोई भी तालमेल दिखाई पड़ेगा? कोई भी संबंध हम जोड़ पाएंगे?
क्या हम कभी कल्पना भी कर पाएंगे कि यह वही बच्चा है, जो पैदा हुआ था, वही यह बूढ़ा मर रहा है! नहीं कोई
संगति दिखाई पड़ेगी, बड़ी असंगत बात दिखाई पड़ेगी कि कहां यह
कहां वह, इसका कोई संबंध दिखाई नहीं पड़ता है। लेकिन इतने
असंगत प्रवाह की भी हम कभी चिंता, कभी विचार नहीं करते हैं।
कृष्ण यही विचार उठाना चाह रहे हैं
अर्जुन में। वे यह कह रहे हैं कि जिन आकृतियों को तू कह रहा है कि ये मिट जाएंगी, इसका मुझे डर है; ये आकृतियां मिट ही रही हैं। ये
चौबीस घंटे मिटती ही रही हैं। ये सदा मिटने के क्रम में ही लगी हैं।
आदमी पूरी जिंदगी सिवाय मरने के और
कुछ करता ही नहीं है। उसकी सारी जिंदगी मरने का ही एक लंबा क्रम है। जन्म में जो
शुरू होता है, मृत्यु में वह पूरा होता है। जन्म की प्रक्रिया एक
कदम है, मृत्यु की प्रक्रिया दूसरा कदम है।
और ऐसा भी नहीं है कि अचानक मौत एक
दिन आ जाती है। मौत जन्म के दिन से रोज-रोज आती ही रहती है; तभी तो पहुंच पाती है। उसको सत्तर साल लग जाते हैं आप तक आने में। या ऐसा
समझिए कि आपको सत्तर साल लग जाते हैं उस तक पहुंचने में। लेकिन यात्रा पहले दिन ही
शुरू हो जाती है।
यह सब बदल रहा है, लेकिन फिर भी यह खयाल नहीं आता कि इतनी बदलाहट के बीच मुझे यह खयाल क्यों
बना रहता है कि मैं वही हूं, जो बच्चे में था; मैं वही हूं, जो जवान में था; मैं
वही हूं, जो बूढ़े में है। यह आइडेंटिटी, यह तादात्म्य, इतनी बदलाहट के बीच यह सातत्य,
यह स्मृति, यह रिमेंबरिंग कहां बनी रहती है,
किसे बनी रहती है, क्यों बनी रहती है? एक स्वर तो जरूर भीतर होना चाहिए जो अनबदला है, अन्यथा
कौन याद करेगा?
मैं कहता हूं कि दस साल का था, तो ऐसी घटना घटी। मेरे भीतर जो दस साल में था, वह
जरूर किसी तल पर आज भी होना चाहिए। अन्यथा दस साल में जो घटना घटी, उसे मैं कैसे याद कर सकता हूं! मैं तो नहीं था, जो
मैं आज हूं, यह तो मैं नहीं था। जो भी आज दिखाई पड़ता है,
यह दस साल में मैं नहीं था। किसे याद है? यह
स्मृति का सूत्र कहां है? कोई जरूर मेरे गहरे में कोई कील
होनी चाहिए, जिस पर सब बदल गया है। रास्ते बदल गए हैं,
अनेक-अनेक रास्तों पर वह रथ घूम चुका है, लेकिन
कोई एक कील जरूर होनी चाहिए, जिसने चक्के की हर स्थिति देखी
है। चक्का खुद याद नहीं रख सकता है, बदल रहा है पूरे समय।
कोई अनबदला तत्व चाहिए।
तो कृष्ण कह रहे हैं कि बचपन था, जवानी थी, बुढ़ापा था। इस सब बदलाहट के बीच कोई थिर,
कोई नहीं बदलने वाला, कोई अपरिवर्तित, कोई अनमूविंग तथ्य, उसकी स्मृति जगाने की है। तब फिर
हम ऐसा न कह सकेंगे कि मैं बच्चा था; फिर हम ऐसा न कह सकेंगे
कि मैं जवान था; फिर हम ऐसा न कह सकेंगे कि मैं बूढ़ा हूं।
नहीं, तब हमारी बात और
होगी। तब हम कहेंगे कि मैं कभी बचपन में था, मैं कभी जवानी
में था, मैं कभी बुढ़ापे में था। मैं कभी जन्मा, मैं कभी मरने में था। लेकिन यह जो मैं है, यह इन
सारी स्थितियों से ऐसे ही टूट जाएगा, जैसे कोई यात्री
स्टेशनों से गुजरता है। तो अहमदाबाद के स्टेशन पर नहीं कहता कि मैं अहमदाबाद हूं।
वह कहता है कि मैं अहमदाबाद के स्टेशन पर हूं। बंबई पहुंचकर वह यह नहीं कहता कि
मैं बंबई हो गया हूं। वह कहता है, मैं बंबई के स्टेशन पर
हूं। क्योंकि अगर वह बंबई हो जाए, तो फिर अहमदाबाद कभी नहीं
हो सकेगा। अहमदाबाद हो जाए, तो फिर बंबई कभी नहीं हो सकेगा।
आप अगर बच्चे थे, तो जवान कैसे हो सकते हैं? और अगर आप जवान थे,
तो बूढ़े कैसे हो सकते हैं? निश्चित ही कोई
आपके भीतर होना चाहिए जो बच्चा नहीं था। इसलिए बचपन भी आया और गया; जवानी भी आई और गई; बुढ़ापा भी आया और जाएगा। जन्म भी
आया, मृत्यु भी आई; और कोई है, जो इस सब के भीतर खड़ा है और सब आ रहा है और जा रहा है स्टेशंस की तरह।
अगर यह फासला दिखाई पड़ जाए कि जिन्हें
हम अपना होना मान लेते हैं, वे केवल स्थितियां हैं। हमारा होना वहां से गुजरा है,
लेकिन हम वही नहीं हैं--उसके स्मरण के लिए कृष्ण कह रहे हैं।
प्रश्न: भगवान
श्री, यह शरीर छोड़कर आत्मा अन्य शरीर में प्रवेश करता है।
मरण और जन्म के बीच के समय में आत्मा का क्या केवल अस्तित्व रहता है या अभिव्यक्ति
भी? उस अवस्था में आत्मा का स्वरूप कैसा होता है?
एक शरीर को छोड़ने के बाद दूसरे शरीर
में प्रवेश के बीच जो अंतराल है, उस अंतराल में कोई अभिव्यक्ति भी
होती है कि सिर्फ अस्तित्व होता है! अभिव्यक्ति भी होती है। लेकिन वह अभिव्यक्ति,
जैसी अभिव्यक्ति से हम परिचित रहे हैं शरीर के भीतर, वैसी नहीं होती। उस अभिव्यक्ति का माध्यम पूरा बदल जाता है। वह अभिव्यक्ति
सूक्ष्म शरीर की अभिव्यक्ति होती है। उसे भी देखा जा सकता है--विशेष टयूनिंग में।
जैसे रेडियो सुना जा सकता है--विशेष टयूनिंग में। उसे भी स्पर्श किया जा सकता
है--विशेष व्यवस्था से।
लेकिन साधारण शरीर, जिसे हम जानते हैं वैसा शरीर, तो हम दफना आते हैं,
वह नहीं रह जाता। लेकिन वही अकेला शरीर नहीं है हमारे भीतर। उसके
भीतर और शरीर और शरीर भी हैं। उसके भीतर शरीरों का एक जाल है। साधारण मृत्यु में
सिर्फ पहला शरीर गिरता है। उसके पीछे छिपा दूसरा शरीर हमारे साथ ही यात्रा करता
है। सूक्ष्म शरीर कहें, कोई भी नाम दे दें, एस्ट्रल बाडी कहें, कोई भी नाम दे दें--वह हमारे साथ
यात्रा करता है। उस शरीर में ही हमारी सारी स्मृतियां, सारे
अनुभव, सारे कर्म, सारे संस्कार
संगृहीत होते हैं। वह हमारे साथ यात्रा करता है।
उस शरीर को देखा जा सकता है। बहुत
कठिन नहीं है उसे देखना। बहुत कठिन नहीं है, बहुत ही सरल है। और
जैसे-जैसे दुनिया आगे बढ़ी है सभ्यता में, थोड़ा कठिन हो गया
है, अन्यथा इतना कठिन नहीं था। कुछ चीजें खो गई हैं, हमें दिखाई पड़नी मुश्किल हो गई हैं। सिर्फ हम आदी नहीं रहे उनको देखने के।
उस दिशा से हमारे मन हट गए हैं। उस दिशा में हमने खोज-बीन बंद कर दी है। अन्यथा वह
सूक्ष्म शरीर बहुत सरलता से देखा जा सकता था। अभी भी देखा जा सकता है। और अभी तो
वैज्ञानिक आधारों पर भी देखने की बड़ी सफल चेष्टाएं की गई हैं। उस सूक्ष्म शरीर के
सैकड़ों-हजारों चित्र भी लिए गए हैं। समस्त वैज्ञानिक उपकरणों से जांच भी की गई है।
यहां हम इतने लोग बैठे हैं। हम इतने
ही लोग नहीं बैठे हैं। अगर किसी दिन हम वैसा कैमरा बहुत ठीक से विकसित कर पाए--जो
कि हो ही जाएगा, क्योंकि चित्र तो सूक्ष्म शरीरों के लिए ही जाने लगे
हैं--और यहां का चित्र किसी दिन उस कैमरे से लिया जाए जो सूक्ष्म शरीरों को भी
पकड़ता हो, तो लोग इतने ही नहीं दिखाई पड़ेंगे, जितने बैठे हैं। और भी बहुत से लोग दिखाई पड़ेंगे, जो
हमें दिखाई नहीं पड़ रहे हैं।
महावीर की सभाओं के लिए कहा जाता है
कि उनमें बड़ी भीड़ होती थी। लेकिन उस भीड़ में बहुत तरह के व्यक्ति सम्मिलित होते
थे। उसमें वे तो सम्मिलित होते थे, जो गांवों से सुनने
आए थे; वे भी सम्मिलित होते थे, जो
आकाश से सुनने आए थे।
सदा, सब जगह वे चेतनाएं भी
मौजूद हैं। कभी वे चेतनाएं अपनी तरफ से भी कोशिश करती हैं कि आपको दिखाई पड़ जाएं।
कभी वे चेतनाएं आप कोशिश करें तो भी दिखाई पड़ सकती हैं। लेकिन उनसे उनके दिखाई
पड़ने का संबंध विशेष है, सामान्य नहीं है।
एक शरीर से दूसरे शरीर की यात्रा के
बीच में शरीर तो होता है, क्योंकि सूक्ष्म शरीर अगर न हो तो नया शरीर ग्रहण
नहीं किया जा सकता। सूक्ष्म शरीर को अगर विज्ञान की भाषा में कहें, तो वह बिल्ट-इन-प्रोग्रैम है; नए शरीर को ग्रहण करने
की योजना है, ब्लूप्रिंट है। नहीं तो नए शरीर को ग्रहण करना
मुश्किल हो जाएगा। आपने अब तक इस जिंदगी तक जो भी संग्रह किया है--संस्कार,
अनुभव, ज्ञान, कर्म--जो
भी आपने इकट्ठा किया है, जो भी आप हैं, वह सब उसमें है।
कभी आपने देखा, रात जब आप सोते हैं, तो रात सोते समय जो आपका आखिरी
विचार होता है, वह सुबह उठते वक्त आपका पहला विचार होता है।
नहीं देखा हो तो थोड़ा खयाल करना। रात सोते वक्त नींद के उतरने के आखिरी क्षण में,
इधर नींद उतर रही है, उस वक्त आपका जो विचार
होगा, वह सुबह जब नींद टूट रही, तब
आपका पहला विचार होगा। रात का आखिरी विचार, सुबह का पहला
विचार होगा। वह रातभर कहां था? आप तो सो गए थे। अब तक उसे खो
जाना चाहिए था। वह आपके सूक्ष्म शरीर में प्रतीक्षा करता रहा--आप फिर उठें,
वह फिर आपको पकड़े।
जैसे ही यह शरीर छूटता है, आप एक बिल्ट-इन-प्रोग्रैम-- जिंदगीभर की आकांक्षाओं, वासनाओं, कामनाओं का सब संगृहीत ब्लूप्रिंट, एक नक्शा--अपने सूक्ष्म शरीर में लेकर यात्रा पर निकल जाते हैं। वह नक्शा
प्रतीक्षा करेगा, जब तक आप नए शरीर को ग्रहण करें। जैसे ही
शरीर ग्रहण होगा, फिर जो-जो संभावना शरीर में उपलब्ध होने
लगेगी, जिस-जिस चीज का अवसर बनने लगेगा, वह सूक्ष्म शरीर उन-उन चीजों को प्रकट करना शुरू कर देगा।
लेकिन एक बार ऐसी मृत्यु भी होती है, जब सूक्ष्म शरीर भी आपके साथ नहीं होता। वैसी मृत्यु को ही मुक्ति,
वैसी मृत्यु को ही मोक्ष...। उसके बाद सिर्फ अस्तित्व होता है,
फिर कोई अभिव्यक्त शरीर नहीं होता। लेकिन साधारण मृत्यु में आपके
साथ एक शरीर होता है। असाधारण मृत्यु है वह, महामृत्यु है,
समाधिस्थ की होती है। जो इस जन्म में समाधि को उपलब्ध होगा, उसका मतलब होता है कि उसने जीते जी अपने सूक्ष्म शरीर को विसर्जित कर
दिया। समाधि का मतलब ही यही है कि उसने जीते जी सूक्ष्म शरीर को विसर्जित कर दिया,
बिल्ट-इन-प्रोगै्रम तोड़ डाला। अब आगे की यात्रा के लिए उसके पास कोई
योजना न रही। अब न कोई पंचवर्षीय योजना है उसके पास, न कोई
पांच जीवन की। अब उसके पास कोई योजना नहीं है। अब वह योजना-मुक्त हो गया। अब इस
शरीर के गिरते ही उसके पास सिर्फ अस्तित्व रह जाएगा, अभिव्यक्ति
नहीं।
अभिव्यक्ति बंधन है, क्योंकि अभिव्यक्ति पूरे की अभिव्यक्ति नहीं है। इसलिए थोड़ा-सा प्रकट होता
है और जो अप्रकट रहता है, वह बेचैन होता है। हमारे प्राणों
में जो स्वतंत्रता की छटपटाहट है, हमारे प्राणों में जो
मुक्ति की आकांक्षा है, वह इस कारण से है कि बड़ा थोड़ा-सा
प्रकट हो रहा है। जैसे एक आदमी के सारे शरीर में जंजीरें बांध दीं और सिर्फ एक
अंगुली खुली छोड़ दी। वह अपनी अंगुली हिला रहा है। तकलीफ में पड़ा हुआ है। वह कहता
है, मुझे स्वतंत्रता चाहिए। क्योंकि मेरा पूरा शरीर जकड़ा हुआ
है।
ऐसे ही हमारा पूरा अस्तित्व जकड़ा हुआ
है। एक छोटे-से द्वार से जरा-सी अभिव्यक्ति है, वह अभिव्यक्ति बंधन
मालूम पड़ती है। वही हमारी पीड़ा है। छटपटा रहे हैं। लेकिन इस छटपटाहट के हम दो तरह
के प्रयोग कर सकते हैं। या तो वह जो छोटा-सा द्वार है हमारा शरीर, उसी के माध्यम से हम अपने को मुक्त करने की कोशिश में लगे रहें, तो हम उसको बड़ा करेंगे।
एक आदमी बड़ा मकान बनाता है। उसका मतलब
सिर्फ यह है कि वह अपने शरीर को बड़ा बना रहा है। कोई और मतलब नहीं है। एक आदमी बड़ा
मकान बनाता है और बड़े मकान में जरा लगता है कि थोड़ा मुक्त हुआ। स्पेस बढ़ी, जगह बड़ी हुई। छोटी कोठरी में ज्यादा बंद मालूम होता था, बड़े मकान में जरा खुला मालूम पड़ता है। लेकिन थोड़े दिन में वह भी छोटा
मालूम पड़ने लगता है। फिर एक बड़ा महल बनाता है, थोड़े दिन में
वह भी छोटा मालूम पड़ने लगता है।
असल में आदमी के पास इतना बड़ा
अस्तित्व है कि पूरा आकाश भी छोटा है। इसलिए वह कितने ही बड़े मकान बनाता जाए, सब छोटे पड़ जाएंगे। उसको इतनी स्पेस चाहिए, जितनी
परमात्मा को मिली है। बस, इससे कम में काम नहीं चल सकता।
वहां भी भीतर परमात्मा ही है। वह पूरी जगह चाहता है, वह असीम
चाहता है, जहां कहीं कोई सीमा न आती हो। जहां भी सीमा आएगी,
वहीं बंधन मालूम होगा। और शरीर बहुत तरह की सीमाएं बना लेता है।
देखने की सीमा, सुनने की सीमा, सोचने
की सीमा, सब चीज की सीमा है।
और असीम है अस्तित्व और सीमित है
अभिव्यक्ति, इसलिए अभिव्यक्ति से मुक्त होना ही संसार से मुक्त
होना है। वह जिसको हम पुरानी भाषा में कहें, आवागमन से मुक्त
होना, वह अभिव्यक्ति से मुक्त होना है। वह शुद्ध अस्तित्व की
तलाश है, प्योर एक्झिस्टेंस की तलाश है। वह उस अस्तित्व की
तलाश है, जहां अभिव्यक्ति नहीं होगी, बस
होना ही होगा--जस्ट बीइंग--सिर्फ होना ही रह जाएगा। और कोई सीमा न होगी। सिर्फ
होने में सीमा नहीं है।
तो जिस दिन कोई समाधि को पाकर, सब बिल्ट-इन-प्रोग्रैम तोड़कर, अभिव्यक्ति की सारी
आकांक्षाएं छोड़कर, अभिव्यक्ति की सारी वासनाओं को छोड़कर मरता
है, उस दिन उसके पास फिर कोई शरीर नहीं होता, फिर हम उसका फोटोग्राफ नहीं ले सकते।
तो अभी पश्चिम में साइकिक रिसर्च
सोसाइटीज ने जो फोटोग्राफ्स लिए हैं, उन फोटोग्राफ्स में
महावीर का फोटोग्राफ नहीं हो सकता, उस फोटोग्राफ में बुद्ध
को नहीं पकड़ा जा सकता, उस फोटोग्राफ में कृष्ण को नहीं पकड़ा
जा सकता। उस फोटोग्राफ में उनको ही पकड़ा जा सकता है, जो अभी
बिल्ट-इन-प्रोग्रैम लेकर चले हैं। जिनके पास एक योजना है, एक
ब्लूप्रिंट है शरीर का, उनको पकड़ा जा सकता है। महावीर का
फोटोग्राफ नहीं पकड़ा जा सकता है, कोई उपाय नहीं है। अस्तित्व
का कोई भी चित्र नहीं लिया जा सकता। अस्तित्ववान का चित्र लिया जा सकता है,
अस्तित्व का कोई चित्र नहीं लिया जा सकता है। अस्तित्व का कैसे
चित्र होगा? क्योंकि अस्तित्व की कोई सीमा नहीं है। चित्र
उसी का हो सकता है, जिसकी सीमा हो।
तो साधारण मृत्यु में तो--पूछा है
आपने--शरीर रहेगा, सूक्ष्म हो जाएगा। असाधारण मृत्यु में, योगिक मृत्यु में, महामृत्यु में, निर्वाण में नहीं कोई शरीर रह जाता, सिर्फ अस्तित्व
ही रह जाता है। नहीं कोई लहर रह जाती, बस सागर ही रह जाता
है।
प्रश्न: भगवान
श्री, वासनामय सूक्ष्म शरीर की शांति के लिए क्या
पुत्र-पत्नी कुछ कर सकते हैं? क्योंकि गीता में पिंडदान का
उल्लेख आता है।
वासना, प्रत्येक व्यक्ति की
अपनी है, दूसरा उसमें कुछ भी नहीं कर सकता। वासना मेरी है,
मेरी पत्नी कुछ नहीं कर सकती। हां, लेकिन मेरी
वासना के लिए करने के बहाने से अपनी वासना के लिए कुछ कर सकती है। पर वह बहुत
दूसरी बात है।
पति मर गया है। पत्नी अपने पति को
वासनामुक्त करने की कोशिश करती है--प्रार्थना करती है, हवन करती है, पिंडदान करती है, कुछ भी करती है, कोई आयोजन करती है--इससे उसके पति
की वासना में कोई अंतर नहीं पड़ सकता है, लेकिन उसकी स्वयं की
वासना में अंतर पड़ सकता है। और योजना का सीक्रेट यही है।
योजना पति की वासना-मुक्ति के लिए
नहीं है। क्योंकि पति की वासना-मुक्ति अगर आप करवा दें, तब तो पति को वासना भी पकड़ा सकते हैं आप। तब तो इस दुनिया में मुक्ति
मुश्किल हो जाएगी। महावीर मर जाएं और महावीर की पत्नी वासना पकड़ाए, तो महावीर क्या करेंगे! क्योंकि जिसे हम मुक्त कर सकते हैं, उसे हम बांध भी सकते हैं। तब तो मुक्ति भी बंधन बन जाएगी; तब तो मुक्ति भी असंभव है।
नहीं, लेकिन राज दूसरा है,
सीक्रेट दूसरा है। वह सीक्रेट साधारणतः खोला नहीं गया है। राज यह है
कि पति मर गया है; पति के लिए तो पत्नी कुछ भी नहीं कर सकती।
जिंदा में ही कुछ नहीं कर सकती, मरने के बाद करना तो बहुत
मुश्किल है। दूसरे का अपना होना है, जिसमें हमारा कोई प्रवेश
नहीं है--न पति का, न पत्नी का, न मां
का, न पिता का। लेकिन पति के बहाने वह जो करेगी--अगर वह पति
को वासना-मुक्त करने की आकांक्षा से प्रार्थना करे, तो यह
प्रार्थना, यह आकांक्षा, यह
वासना-मुक्ति की कामना, उसकी अपनी वासना को तिरोहित करेगी।
यह बड़े मजे की बात है कि दूसरे की
वासना जगाने में हम अपनी ही वासना जगाते हैं। और दूसरे की वासना मिटाने में हम
अपनी ही वासना मिटाते हैं। असल में दूसरे के साथ जो हम करते हैं, गहरे में अपने ही साथ करते हैं। सच तो यह है कि दूसरे के साथ सिर्फ किए
जाने का दिखावा हो सकता है, सब करना अंततः अपने ही साथ है।
उपयोगी है, लेकिन कृपा करके ऐसा मत सोचें कि वह जो दूसरा
यात्रा पर निकल गया है, उसके लिए उपयोगी है। आपके लिए उपयोगी
है। आपके लिए सार्थक है।
लेकिन शायद ऐसा अगर कहा गया होता जैसा
मैं कह रहा हूं, तो शायद पत्नी प्रार्थना भी न करे। सोचेगी, ठीक है। लेकिन मरे हुए पति के लिए इतना करने की आकांक्षा उसके मन में होती
है कि शायद उनको सुगम मार्ग मिल जाए, आनंद की राह मिल जाए,
स्वर्ग का द्वार मिल जाए।
होने का बुनियादी कारण है। क्योंकि
जिंदा रहते तो हम एक-दूसरे को सिर्फ नर्क के द्वार तक पहुंचाते हैं, एक-दूसरे को दुख में धक्के देते हैं। इसलिए मरने के बाद पछतावा, रिपेंटेंस शुरू होता है। मरने के बाद पति पत्नी को जितना प्रेम करता हुआ
दिखाई पड़ने लगता है, ऐसा जिंदगी में कभी नहीं किया था।
रिपेंटेंस शुरू होता है। जीते के साथ जो किया था, उससे
बिलकुल उलटा करना शुरू होता है।
बाप के साथ बेटा जिंदा में जो कर रहा
था, वह मरने के बाद कुछ और करने लगता है। जिंदा में कभी आदर न दिया था,
मरने के बाद तस्वीर, फोटो लगाता है, फूल चढ़ाता है! जिंदा में कभी पैर न दबाए थे, मरने के
बाद राख को समेटकर गंगा ले जाता है। जिंदा बाप ने कहा होता कि गंगा ले चलो,
तो भूलकर न ले गया होता। मरे बाप को गंगा ले जाता है!
यह बहुत गहरे में हमारा जो जगत है, इसमें हम जिंदा लोगों के साथ इतना दर्ुव्यवहार कर रहे हैं कि सिर्फ मरों
के साथ क्षमायाचना कर सकते हैं, और कुछ नहीं। इसलिए पति के
लिए पत्नी कर सकती है, पति पत्नी के लिए कर सकता है, बेटा बाप के लिए कर सकता है, बेटा मां के लिए कर
सकता है। अपने लिए शायद नहीं भी करेगा।
इसलिए एक बहुत मनोवैज्ञानिक सत्य को, एक बहुत गलत कारण देकर पकड़ाने की कोशिश की गई है। वह सत्य केवल इतना है कि
हम अपनी वासना को, दूसरे की वासना-शांति के लिए किए गए
प्रयास से--अपनी वासना को--शांत करने में सक्षम होते हैं। और यह छोटी बात नहीं है।
मगर यह जानकर ही की जानी चाहिए अब। और अब यह जानकर ही होगी; क्योंकि
युग बदलता है, प्रौढ़ता बदलती है मस्तिष्क की।
घर में यदि मिठाई रखी है, तो हम बच्चों से कह देते हैं कि भूत है कमरे में, मत
जाना। कोई भूत नहीं होता, मिठाई होती है। लेकिन मिठाई बच्चा
ज्यादा न खा ले। और बच्चे को अभी समझाने का कोई उपाय नहीं होता कि मिठाई ज्यादा खा
लोगे तो नुकसान हो जाएगा। तो भूत खड़ा करना पड़ता है। काम हो जाता है--भूत की वजह से
बच्चा नहीं जाता। लेकिन बच्चा फिर जवान हो जाता है। अब इसको कहिए, भूत है, तो वह कहता है, रहने
दो, कोई फिक्र नहीं। बल्कि भूत की वजह से और आकर्षण पैदा
होता है, वह और चला जाता है। वैसे शायद न भी जाता। अब तो
उचित है कि इसे पूरी बात ही समझा दी जाए।
आदमियत ने जो-जो धारणाएं मनुष्यता के
बचपन में निर्मित की थीं, वे सभी की सभी अब अस्तव्यस्त हो गई हैं। अब उचित है
कि सीधी और साफ बात कह दी जाए। आज से पांच हजार साल पहले जब गीता कही गई होगी या
और भी पहले, तो जो धारणाएं मनुष्य के विकास की बहुत प्राथमिक
अवस्थाओं में कही गई थीं, वे अब सब हंसने योग्य हो गई हैं।
अगर उन्हें बचाना हो तो उनके राज खोल देने जरूरी हैं, उन्हें
सीधा-साफ कह देना जरूरी है कि वे इसलिए हैं। भूत नहीं है, मिठाई
है। और मिठाई खाने के नुकसान क्या हैं, वे साफ कह देने उचित
हैं।
मनुष्य प्रौढ़ हुआ है। और इसलिए मनुष्य
सारी दुनिया में अधार्मिक दिखाई पड़ रहा है। यह मनुष्य की प्रौढ़ता है, अधार्मिकता नहीं है। असल में प्रौढ़, एडल्ट आदमी के
लिए, एडल्ट ह्युमैनिटी के लिए, प्रौढ़
हो गई मनुष्यता के लिए, बचपन में दिए गए मनुष्यता को जो
सिद्धांत थे, अब उनकी आत्मा को फिर से नए शरीर देने की जरूरत
है।
मात्रास्पर्शास्तु
कौन्तेय शीतोष्णसुखदुःखदाः।
आगमापायिनोऽनित्यास्तांस्तितिक्षस्व
भारत।। १४।।
हे कुंतीपुत्र, सर्दी-गर्मी और सुख-दुख को देने वाले इंद्रिय और विषयों के संयोग तो
क्षणभंगुर और अनित्य हैं। इसलिए, हे भरतवंशी अर्जुन, उनको तू सहन कर।
जो भी जन्मता है, मरता है। जो भी उत्पन्न होता है, वह विनष्ट होता है।
जो भी निर्मित होगा, वह बिखरेगा, समाप्त
होगा। कृष्ण कह रहे हैं, इसे स्मरण रख भारत, इसे स्मरण रख कि जो भी बना है, वह मिटेगा। और जो भी
बना है, वह मिटेगा; जो जन्मा है,
वह मरेगा--इसका अगर स्मरण हो, इसकी अगर
याददाश्त हो, इसका अगर होश, अवेयरनेस
हो, तो उसके मिटने के लिए दुख का कोई कारण नहीं रह जाता। और
जिसके मिटने में दुख का कारण नहीं रह जाता, उसके होने में
सुख का कोई कारण नहीं रह जाता।
हमारे सुख-दुख हमारी इस भ्रांति से जन्मते
हैं कि जो भी मिला है वह रहेगा। प्रियजन आकर मिलता है, तो सुख मिलता है। लेकिन जो आकर मिला है, वह जाएगा।
जहां मिलन है, वहां विरह है। जो मिलन में विरह को देख ले,
उसके मिलन का सुख विलीन हो जाता है, उसके विरह
का दुख भी विलीन हो जाता है। जो जन्म में मृत्यु को देख ले, उसकी
जन्म की खुशी विदा हो जाती है, उसका मृत्यु का दुख विदा हो
जाता है। और जहां सुख और दुख विदा हो जाते हैं, वहां जो शेष
रह जाता है, उसका नाम ही आनंद है। आनंद सुख नहीं है। आनंद
सुख की बड़ी राशि का नाम नहीं है। आनंद सुख के स्थिर होने का नाम नहीं है। आनंद
मात्र दुख का अभाव नहीं है। आनंद मात्र दुख से बच जाना नहीं है। आनंद सुख और दुख
दोनों से ही उठ जाना है, दोनों से ही बच जाना है।
असल में सुख और दुख एक ही सिक्के के
दो पहलू हैं। जो मिलन में सिर्फ मिलन को देखता और विरह को नहीं देखता, वह क्षणभर के सुख को उपलब्ध होता है। फिर जो विरह में सिर्फ विरह को देखता
है, मिलन को नहीं देखता, वह क्षणभर के
दुख को उपलब्ध होता है। और जब कि मिलन और विरह एक ही प्रक्रिया के दो हिस्से हैं;
एक ही मैग्नेट के दो पोल हैं; एक ही चीज के दो
छोर हैं।
इसलिए जो सुखी हो रहा है, उसे जानना चाहिए, वह दुख की ओर अग्रसर हो रहा है। जो
दुखी हो रहा है, उसे जानना चाहिए, वह
सुख की ओर अग्रसर हो रहा है। सुख और दुख एक ही अस्तित्व के दो छोर हैं। और जो भी
चीज निर्मित है, जो भी चीज बनी है, वह
बिखरेगी; बनने में ही उसका बिखरना छिपा है; निर्मित होने में ही उसका विनाश छिपा है। जो व्यक्ति इस सत्य को पूरा का
पूरा देख लेता है, पूरा...! हम आधे सत्य देखते हैं और दुखी
होते हैं।
यह बड़े मजे की बात है, असत्य दुख नहीं देता, आधे सत्य दुख देते हैं। असत्य
जैसी कोई चीज है भी नहीं, क्योंकि असत्य का मतलब ही होता है
जो नहीं है। सिर्फ आधे सत्य ही असत्य हैं। वे भी हैं इसीलिए कि वे भी सत्य के आधे
हिस्से हैं। पूरा सत्य आनंद में ले जाता, आधा सत्य सुख-दुख
में डांवाडोल करवाता है।
इस जगत में असत्य से मुक्त नहीं होना
है, सिर्फ आधे सत्यों से मुक्त होना है। ऐसा समझिए कि आधा सत्य, हाफ ट्रुथ ही असत्य है। और कोई असत्य है नहीं। असत्य को भी खड़ा होना पड़े
तो सत्य के ही आधार पर खड़ा होना पड़ता है, वह अकेला खड़ा नहीं
हो सकता; उसके पास अपने कोई पैर नहीं हैं।
कृष्ण कह रहे हैं अर्जुन से, तू पूरे सत्य को देख। तू आधे सत्य को देखकर विचलित, पीड़ित,
परेशान हो रहा है।
जो भी विचलित, पीड़ित, परेशान हो रहा है, वह
किसी न किसी आधे सत्य से परेशान होगा। जहां भी दुख है, जहां
भी सुख है, वहां आधा सत्य होगा। और आधा सत्य पूरे समय पूरा
सत्य बनने की कोशिश कर रहा है।
तो जब आप सुखी हो रहे हैं, तभी आपके पैर के नीचे से जमीन खिसक गई है और दुख आ गया है। जब आप दुखी हो
रहे हैं, तभी जरा गौर से देखें, आस-पास
कहीं दुख के पीछे सुख छाया की तरह आ रहा है। इधर सुबह होती है, उधर सांझ होती है। इधर दिन निकलता है, उधर रात होती
है। इधर रात है, उधर दिन तैयार हो रहा है। जीवन पूरे समय,
अपने से विपरीत में यात्रा है। जीवन पूरे समय, अपने से विपरीत में यात्रा है। एक छोर से दूसरे छोर पर लहरें जा रही हैं।
कृष्ण कहते हैं, भारत! पूरा सत्य देख। पूरा तुझे दिखाई पड़े,
तो तू अनुद्विग्न हो सकता है।
यं हि न
व्यथयन्त्येते पुरुषं पुरुषर्षभ।
समदुःखसुखं धीरं
सोऽमृतत्वाय कल्पते।। १५।।
क्योंकि, हे पुरुषश्रेष्ठ, दुख-सुख को समान समझने वाले जिस
धीर पुरुष को ये इंद्रियों के विषय व्याकुल नहीं कर सकते, वह
मोक्ष के लिए योग्य होता है।
विरोधी धु्रवों में बंटा हुआ जो हमारा
अस्तित्व है, इन दोनों के बीच, इन दोनों की
आकृतियों के भेद को देखकर, इनके भीतर की अस्तित्व की एकता को
जो अनुभव कर लेता है, ऐसा व्यक्ति ही ज्ञानी है। जिसे जन्म
में मृत्यु की यात्रा दिखाई पड़ जाती है, जिसे सुख में दुख की
छाया दिखाई पड़ जाती है, मिलन में विरह आ जाता है जिसके पास,
जो प्रतिपल विपरीत को मौजूद देखने में समर्थ हो जाता है, वैसा व्यक्ति ही ज्ञानी है। देखने में समर्थ हो जाता है--खयाल रखना जरूरी
है। ऐसा मानने में समर्थ हो जाता है, वह ज्ञानी नहीं हो जाता
है। मान लिया ऐसा, तो काम नहीं चलता है।
माने हुए सत्य अस्तित्व के जरा-से
धक्के में गिर जाते हैं और बिखर जाते हैं। जाने हुए सत्य ही जीवन में नहीं बिखरते
हैं। जो ऐसा जान लेता है, ऐसा देख लेता है, या कहें कि
ऐसा अनुभव कर लेता है और बड़े मजे की बात है कि अनुभव करने कहीं दूर जाने की जरूरत
नहीं है। जिंदगी रोज मौका देती है, प्रतिपल मौका देती है।
ऐसा कोई सुख जाना है आपने, जो दुख न बन गया हो? ऐसा कोई सुख जाना है जीवन में, जो दुख न बन गया हो?
ऐसी कोई सफलता जानी है, जो विफलता न बन गई हो?
ऐसा कोई यश जाना है, जो अपयश न बन गया हो?
लाओत्से कहा करता था कि मुझे जीवन में
कभी कोई हरा नहीं पाया। वह मर रहा है, आखिरी क्षण है। तो
शिष्यों ने पूछा, वह राज हमें भी बता दो, क्योंकि चाहते तो हम भी हैं कि जीतें और कोई हमें हरा न पाए। जरूर बता दें
जाने के पहले वह राज, वह सीक्रेट। लाओत्से हंसने लगा। उसने
कहा, तुम गलत आदमी हो। तुम्हें बताना बेकार है। तुमने मेरी
पूरी बात भी न सुनी और बीच में ही पूछ लिया। मैं इतना ही कह पाया था कि मुझे
जिंदगी में कोई हरा नहीं पाया। तुम इतनी जल्दी ही पूछ लिए। पूरी बात तो सुन लो!
आगे मैं कहने वाला था कि मुझे जिंदगी में कोई हरा नहीं पाया, क्योंकि मैंने जिंदगी में किसी को जीतना नहीं चाहा। क्योंकि मुझे दिखाई पड़
गया कि जीता कि हारने की तैयारी की। इसलिए मुझे कोई हरा नहीं पाया, क्योंकि मैं कभी जीता ही नहीं। उपाय ही न रहा मुझे हराने का। मुझे हराने
वाला आदमी ही नहीं था पृथ्वी पर। कोई हरा ही नहीं सकता था, क्योंकि
मैं पहले से ही हारा हुआ था। मैंने जीतने की कोई चेष्टा ही नहीं की। लेकिन तुम
कहते हो कि हम भी जीतना चाहते हैं और हम भी चाहते हैं कि कोई हमें हरा न पाए,
तब तो तुम हारोगे। क्योंकि जीत और हार एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।
कृष्ण कह रहे हैं, वह यह कह रहे हैं कि ऐसा जो देख लेता है...! और देखने का ध्यान रखें;
यह देखना एक्झिस्टेंशियल अनुभव है; यह
अस्तित्वगत अनुभव है। हम रोज जानते हैं, लेकिन पता नहीं कैसे
चूक जाते हैं देखने से! कैसे अपने को बचा लेते हैं देखने से! शायद कोई बड़ी ही
चालाकी हम अपने साथ करते हैं। अन्यथा ऐसा जीवंत सत्य दिखाई न पड़े, यही आश्चर्य है।
रोज अनुभव में आता है। सब चीजें अपने
से विपरीत में बदल जाती हैं। ज्यादा गहरी मित्रता करें और शत्रुता जन्मनी शुरू हो
जाती है। लेकिन तरकीब क्या है हमारी इससे बच जाने की? तरकीब हमारी यह है कि जब मित्र शत्रु बनने लगता है, तो
हम ऐसा नहीं समझते हैं कि मित्रता शत्रुता बन रही है, हम
समझते हैं कि मित्र शत्रु बन रहा है। बस वहीं भूल हो जाती है। जब एक मित्र शत्रु
बनने लगता है, तो हम समझते हैं कि मित्र शत्रु बन रहा है;
दूसरा कोई मित्र होता तो नहीं बनता, यह आदमी
दगाबाज था। तीसरा कोई मित्र होता तो नहीं बनता, यह आदमी
दगाबाज था। वह दूसरा मित्र, आप भी उसके शत्रु बन रहे हैं अब,
वह भी यही सोचता है कि यह आदमी गलत आदमी चुन लिया। ठीक आदमी होता तो
कभी ऐसा नहीं होने वाला था। मित्र जब शत्रु बनता है, तब हम
सत्य से वंचित रह जाते हैं। सत्य यह है कि मित्रता शत्रुता बन जाती है। लेकिन हम
मित्र पर थोपकर, फिर दूसरे मित्र की तलाश में निकल जाते हैं।
एक आदमी ने अमेरिका में आठ बार
शादियां कीं। मगर होशियार आदमी रहा होगा। पहली शादी, सालभर बाद तलाक किया।
देखा कि पत्नी गलत है। कोई अनहोनी बात नहीं देखी; सभी पति
देखते हैं, सभी पत्नियां देखती हैं। देखा कि पत्नी गलत है,
चुनाव गलत हो गया। तलाक कर दिया। फिर दूसरी पत्नी चुनी। छः महीने
बाद पता चला कि फिर गलत हो गया! आठ बार जिंदगी में शादी की। लेकिन मैंने कहा कि
आदमी होशियार होगा, क्योंकि आठ बार की भूल से भी जो ठीक सत्य
पर पहुंच जाए, वह भी असाधारण आदमी है। आठ हजार बार करके भी
नहीं पहुंचते, क्योंकि हमारा तर्क तो वही रहता है हर बार।
आठ बार के बाद उसने शादी नहीं की। और
उसके मित्रों ने पूछा कि तुमने शादी क्यों न की? तो उसने कहा कि आठ
बार में एक अजीब अनुभव हुआ कि हर बार जिस स्त्री को मैं ठीक समझकर लाया, वह पीछे गलत साबित हुई। तो पहली दफा मैंने सोचा कि वह स्त्री गलत थी।
दूसरी दफे सोचा कि वह स्त्री गलत थी। लेकिन तीसरी दफे शक पैदा होने लगा। चौथी दफा
तो बात बहुत साफ दिखाई पड़ने लगी। फिर भी मैंने कहा, एक-दो
प्रयोग और कर लेने चाहिए। आठवीं बार बात स्पष्ट हो गई कि यह सवाल स्त्री के गलत और
सही होने का नहीं है। जिससे भी सुख चाहा, उससे दुख मिलेगा।
जिससे भी सुख चाहा, उससे दुख मिलेगा। क्योंकि सब सुख दुख में
बदल जाते हैं। जिससे भी मित्रता चाही, उससे शत्रुता मिलेगी।
क्योंकि सभी मित्रताएं शत्रुताओं की शुरुआत हैं।
ट्रिक कहां है मन की? धोखा कहां है? तरकीब?
तरकीब है, अनुभूति के सत्य को, स्थिति के सत्य को, हम व्यक्तियों पर थोप देते हैं। फिर नया व्यक्ति खोजने निकल जाते हैं।
साइकिल नहीं है घर में, साइकिल खरीद ली। फिर पाते हैं,
सोचा था कि बहुत सुख मिलेगा, नहीं मिला। लेकिन
तब तक यह खयाल भी नहीं आता कि जिस साइकिल के लिए रात-रातभर सपने देखे थे कि मिल
जाए तो बहुत सुख मिलेगा, अब बिलकुल नहीं मिल रहा है। लेकिन
वह बात ही भूल जाते हैं। तब तक हम कार मिल जाए तो उसके सुख में लग जाते हैं। फिर
कार भी मिल जाती है। फिर भूल जाते हैं कि जितना सुख सोचा था, उतना मिला? वह कभी मिलता नहीं।
मिलता है दुख, खोजा जाता है सुख। मिलती है घृणा, खोजा जाता है
प्रेम। मिलता है अंधकार, यात्रा की जाती है सदा प्रकाश की।
लेकिन इन दोनों को हम कभी जोड़कर नहीं देख पाते, गणित को हम
कभी पूरा नहीं कर पाते। उसका एक कारण और भी खयाल में ले लेना जरूरी है। क्योंकि
दोनों के बीच में टाइम-गैप होता है, इसलिए हम नहीं जोड़ पाते
हैं।
अफ्रीका में जब पहली दफा पश्चिम के
लोग पहुंचे, तो बड़े हैरान हुए। क्योंकि अफ्रीकनों में यह खयाल ही
नहीं था कि बच्चों का संभोग से कोई संबंध है। उनको पता ही नहीं था इस बात का कि
बच्चे का जन्म संभोग से किसी भी तरह जुड़ा हुआ है। टाइम-गैप बड़ा है। एक तो सभी
संभोग से बच्चे पैदा नहीं होते। दूसरे नौ महीने का फर्क पड़ता है। अफ्रीका में खयाल
ही नहीं था कबीलों में कि बच्चे का कोई संबंध संभोग से है। संभोग से कुछ लेना-देना
ही नहीं है। कॉज़ और एफेक्ट में इतना फासला जो है--कारण नौ महीने पहले, कार्य नौ महीने बाद--तो जोड़ नहीं हो पाता।
सुख को जब हम पकड़ते हैं, जब तक वह दुख बनता है, तब तक बीच में टाइम गिरता है
समय गिरता है। तो हम जोड़ नहीं पाते कि ये दोनों बिंदु जुड़े हैं। यह वही सुख है जो
अब दुख बन गया। नहीं, वह हम नहीं जोड़ पाते। मित्र को शत्रु
बनने में समय लगेगा न! आखिर कुछ भी बनने में समय लगता है। तो जब मित्र बना था तब,
और जब शत्रु बना तब, वर्षों बीच में गुजर जाते
हैं। जोड़ नहीं पाते कि मित्र बनने में और शत्रु तक पहुंचने में इतना वक्त लगा।
नहीं, मित्र बनने की घटना अलग है और शत्रु बनने की घटना अलग
है। तब तय नहीं कर पाते; तब व्यक्ति पर ही थोप देते हैं कि
गलती व्यक्ति के साथ हो गई है।
कृष्ण अर्जुन से कह रहे हैं कि तू
आर-पार देख, पूरा देख। और जो इस पूरे को देख लेता है, वह ज्ञानी हो जाता है। और ज्ञानी को फिर ठंडा और गरम, सुख और दुख पीड़ा नहीं देते। लेकिन इसका यह मतलब मत समझ लेना कि ज्ञानी को
ठंडे और गरम का पता नहीं चलता है।
ऐसी भ्रांति हुई है, इसलिए मैं कहता हूं। ऐसी भ्रांति हुई है। तब तो वह ज्ञानी न हुआ, जड़ हो गया। अगर सेंसिटिविटी मर जाए, तो उसको पता ही
न चले। तो कई जड़-बुद्धि ज्ञानी होने के भ्रम में पड़ जाते हैं, क्योंकि उनको ठंडी और गरमी का पता नहीं चलता। थोड़े अभ्यास से पता नहीं
चलेगा। इसमें कोई कठिनाई तो नहीं है।
ध्यान रहे, ज्ञानी को ठंडे और गरम से, सुख और दुख से पीड़ा नहीं
होती। सुख और दुख में चुनाव नहीं रह जाता, च्वाइस नहीं रह
जाती, च्वाइसलेसनेस हो जाती है। इसका यह मतलब नहीं है कि
दिखाई नहीं पड़ता। इसका यह मतलब नहीं है कि ज्ञानी को सुई चुभाएं तो पता नहीं
चलेगा। इसका यह मतलब नहीं है कि ज्ञानी के गले में फूल डालें तो सुगंध न आएगी और
दुर्गंध फेंकें तो दुर्गंध न आएगी।
नहीं, सुगंध और दुर्गंध
दोनों आएंगी, शायद आपसे ज्यादा आएंगी। उसकी संवेदनशीलता आपसे
ज्यादा होगी। उसकी सेंसिटिविटी ज्यादा होगी। क्योंकि वह अस्तित्व के प्रति ज्यादा
सजग होगा; क्षण के प्रति ज्यादा जागा होगा। उसकी अनुभूति
आपसे तीव्र होगी। लेकिन वह यह जानता है कि सुगंध और दुर्गंध, गंध के ही दो छोर हैं।
कभी, जहां सुगंध बनती है,
उस फैक्टरी के पास से गुजरें तो पता चल जाएगा। असल में दुर्गंध को
ही सुगंध बनाया जाता है। खाद डाल देते हैं और फूल में सुगंध आ जाती है। सुगंध और
दुर्गंध, गंध के ही दो छोर हैं। गंध अगर प्रीतिकर लगती है,
तो सुगंध मालूम होती है; गंध अप्रीतिकर लगती
है, तो दुर्गंध मालूम पड़ती है।
ऐसा नहीं है कि ज्ञानी को पता नहीं
चलता कि क्या सौंदर्य है और क्या कुरूप है। बहुत पता चलता है। लेकिन यह भी पता
चलता है कि सौंदर्य और कुरूप आकृतियों के दो छोर हैं, एक ही लहर के दो छोर हैं। इसलिए पीड़ित नहीं होता, डांवाडोल
नहीं होता, अस्थिर नहीं होता। संतुलन नहीं खोता।
लेकिन इससे बड़ी भ्रांति हुई है। और वह
भ्रांति यह हुई है कि जिस आदमी को ठंडी-गरमी का पता न चले, वह ज्ञानी हो गया! यह बहुत आसान है। वह काम बहुत कठिन है, जो मैं कह रहा हूं! ठंडी-गरमी का पता न चले, इसके
लिए तो थोड़ा-सा ठंडी-गरमी का अभ्यास करने की जरूरत है। ठंडी-गरमी का पता नहीं
चलेगा, चमड़ी जड़ हो जाएगी, उसका बोध कम
हो जाएगा। जरा नाक में, नासापुटों में जो थोड़े से गंध के
तंतु हैं, अगर दुर्गंध के पास बैठे रहें, वे अभ्यासी हो जाएंगे।
तो परमहंस भी हो जाते हैं लोग, दुर्गंध के पास बैठकर। नासमझ उनके चरण भी छूते हैं कि बड़ा परमहंस है,
दुर्गंध का पता नहीं चल रहा है! किस भंगी को पता चलता है? नासापुट नष्ट हो जाते हैं। लेकिन इससे भंगी परमहंस नहीं हो जाता।
खलील जिब्रान ने एक छोटी-सी कहानी
लिखी है, वह मैं कहूं, फिर आज की बात
पूरी करूं। फिर हम सुबह बात करेंगे।
जिब्रान ने लिखा है कि गांव से, देहात से, एक औरत शहर आई मछलियां बेचने। मछलियां बेच
दीं। लौटती थी सांझ, तो उसकी सहेली थी शहर में। गांव की ही
लड़की थी। उसने उसे ठहरा लिया कि आज रात रुक जा। वह एक माली की पत्नी थी, मालिन थी; बगिया थी सुंदर उसके पास, फूल ही फूल थे। मेहमान घर में आया है, गरीब मालिन,
उसके पास कुछ और तो न था। उसने बड़े फूल--मोगरे के, गुलाब के, जुही के, चमेली
के--उसके चारों तरफ लाकर रख दिए।
रात उसे नींद न आए। वह करवट बदले, और बदले, और नींद न आए। मालिन ने उससे पूछा कि नींद
नहीं आती? कोई तकलीफ है? उसने कहा,
तकलीफ है। ये फूल हटाओ--एक। और मेरी टोकरी, जिसमें
मैं मछलियां लाई थी, वह टोकरी मुझे दे दो, उसमें थोड़ा पानी छिड़क दो।
अपरिचित मकान हो तो मुश्किल हो जाती
है। अपरिचित गंध! मछलियां आदत का हिस्सा थीं, लेकिन इससे कुछ कोई
परमहंस नहीं हो जाता।
ठंडी और गरमी का पता न चले तो कोई
ज्ञानी नहीं हो जाता। सुख-दुख का पता न चले तो कोई ज्ञानी नहीं हो जाता।
सुख-दुख का पूरी तरह पता चले और फिर
भी सुख-दुख संतुलन न तोड़ें सुख-दुख का पूरी तरह पता चले, लेकिन सुख में भी दुख की छाया दिखे, दुख में भी सुख
की छाया दिखे। सुख-दुख आर-पार, ट्रांसपैरेंट दिखाई पड़ने लगें,
तो व्यक्ति ज्ञान को उपलब्ध होता है।
शेष कल।
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