पहला
प्रश्न:
हर
बार बोलने के
बाद ऐसा अनुभव
होता है कि
मैंने
बेईमानी की; चुप
रहने पर ही
अपने साथ
ईमानदारी, पूरी
ईमानदारी
करती मालूम
होती हूं। ऐसा
क्यों है?
शुभ लक्षण
है,
चिंता की
कोई बात नहीं
है।
बोलते
ही दूसरा
महत्वपूर्ण
हो जाता है।
बोलते ही मन
वही बोलने
लगता है जो
दूसरे को प्रीतिकर
हो। बोलते ही
मन शिष्टाचार, सभ्यता
की सीमा में आ
जाता है।
बोलते ही हम
स्वयं नहीं रह
जाते, दूसरे
पर दृष्टि अटक
जाती है।
इसलिए बोलना
और ईमानदार
रहना बड़ा कठिन
है। बोलना और
प्रामाणिक
रहना बड़ा कठिन
है। अच्छा है,
इतनी समझ
आनी शुरू हुई।
शुभ लक्षण है।
ज्यादा से
ज्यादा चुप
रहना उचित है।
पहली कला चुप
होने की सीखनी
पड़ेगी। उतना
ही बोलो जितना
अत्यंत
अनिवार्य हो।
जिसके बिना चल
जाता हो उसे
छोड़ दो, उसे
मत बोलो। और
तुम अचानक
पाओगे कि
नब्बे
प्रतिशत से
ज्यादा तो
व्यर्थ का है,
न बोलते तो
कुछ हर्ज न था,
बोल के ही
हर्ज हुआ।
बड़े
विचारक
पैस्कल ने कहा
है कि दुनिया
की नब्बे
प्रतिशत
मुसीबतें कम
हो
जाएं, अगर
लोग थोड़े चुप
रहें। झगड़े—फसाद
कम हो जाएं, उपद्रव कम
हो जाएं, अदालतें
कम हो जाएं, अगर लोग
थोड़े चुप रहें।
जमीन
का बहुत सा
उपद्रव बोलने
के कारण है; बोले
कि फंसे।
बोलने से एक
सिलसिला शुरू
होता है।
सारी
बात मौन सीखने
की है। मौन
प्रामाणिक
होगा।
क्योंकि मौन
में दूसरे की
मौजूदगी नहीं
है;
झूठे होने
की कोई जरूरत
नहीं है।
बोलने में झूठ
बोला जाता है।
मौन में झूठ
का क्या सवाल
है? मौन तो
सच होगा ही।
जब चुप हो, तो
दूसरे से
मुक्त हो; जब
बोलते हो, दूसरे
की परिधि में
आ गए। जैसे ही
बोले कि समाज
शुरू हुआ।
अकेले हो, चुप
हो, तो बस
आत्मा है।
पशु
हैं,
पक्षी हैं,
पौधे है—उनका
कोई समाज नहीं।
मनुष्य का
समाज है, क्योंकि
मनुष्य बोलता
है। भाषा से
समाज का जन्म
हुआ। गूंगों
का क्या समाज
होगा? और
अगर होगा तो
वह भी किसी
ढंग के बोलने
पर निर्भर
होगा, इशारों
पर निर्भर
होगा।
जब
तुम नहीं
बोलते, तब
तुम एकांत में
अकेले हो गए।
भरे बाजार में,
भीड़ में खड़े
हो, नहीं
बोलते—हिमालय
के शिखर पर
पहुंच गए।
जिसने मौन की
कला जान ली वह
भीड़ में ही
अकेले होने की
कला जान लेता
है। वह अपने
में डुबकी
लगाने लगता है।
वहां
प्रामाणिकता
का राज्य है।
वहा सत्य का
सौंदर्य है।
झूठ होने का
कोई कारण नहीं
है। वहां बस
तुम हो।
जैसे
तुम अपने
स्नानगृह में
प्रामाणिक हो
जाते हो, वस्त्र
अलग कर देते
हों——वहां तुम
हो। लेकिन अगर
तुम्हें पता
चल जाए कि कोई
चाबी के छेद
से झांक रहा
है, तत्क्षण
तुम झूठ हो
जाते हो, तत्क्षण
तौलिया लपेट
लेते हो; तत्क्षण
विचारने लगते
हो : कौन है? किसी
ने देखा? क्षणभर
पहले
गुनगुनाते थे
गीत, कोई
फिक्र न थी, क्योंकि कोई
सुनने वाला न
था।
स्नानगृह
में सभी गायक
हो जाते हैं।
ऐसे दूसरों के
सामने कहो, गाओ,
तो झिझकते
हैं, शरमाते
हैं। दूसरे की
मौजूदगी शर्म
पैदा करती है,
झिझक पैदा
करती है। क्योंकि
दूसरा क्या
सोचेगा, यह
चिंता पैदा
होती है। कहीं
मैं दूसरे को
राजी न कर
पाया, गाया
और कहीं दूसरे
ने हंसा, मखौल
हुई, मजाक
हुआ….!
तुमने
खयाल किया, स्नानगृह
में दर्पण के
सामने तुम फिर
से छोटे बच्चे
हो जाते हो, मुंह
बिचकाते हो, अपने पर ही
हंसते भी हो।
खो गए बीच के
दिन, फिर
तुम छोटे
बच्चे हो गए, लौट आई एक
प्रामाणिकता,
एक सच्चाई।
बाहर निकलते
ही तुम दूसरे
आदमी हो जाते
हो। घर में
तुम एक होते
हो, बाजार
में तुम और भी
दूसरे हो जाते
हो।
जितनी
दूसरों की और
परायों की
मौजूदगी बढ़ती
चली जाती है, उतना
ही जाल बड़ा
होता जाता है,
उतनी ही
उलझन होती
जाती है :
हजारों आंखों
को राजी करना है;
हजारों
लोगों को
प्रसन्न करना
है। इसलिए तो
इतना पाखंड है।
वही
व्यक्ति
सच्चा हो सकता
है,
जिसने इसकी
चिंता छोड़ दी
कि दूसरे क्या
सोचते हैं।
मगर उस आदमी
को हम पागल
कहते हैं, जो
इसकी चिंता
छोड़ देता है
कि दूसरे क्या
कहते हैं।
इसलिए सत्य के
खोजी के जीवन
में ऐसा पड़ाव
आता है जब उसे
करीब—करीब
पागल हो जाना
पड़ता है; फिक्र
छोड़ देता है
कि दूसरे क्या
कहते हैं, हंसते
हैं, मजाक
करते हैं। ऐसे
जीने लगता है
जैसे दूसरे
हैं ही नहीं।
ज्या
पाल सार्त्र
का बड़ा
प्रसिद्ध वचन
है. दूसरा नरक
है,
दि अदर इज
हेल। अकेले
में तो आदमी
स्वर्ग में हो
जाता है।
दूसरे की
मौजूदगी
तत्क्षण
उपद्रव शुरू
कर देती है।
दूसरे की
मौजूदगी तनाव
पैदा करती है।
तुम बेचैन हो
जाते हो; तुम
केंद्र सै डिग
जाते हो भीतर
सब हलन—चलन
शुरू हो जाता
है।
स्वाभाविक
है कि बोलते
ही लगे कि
बेईमानी हो गई।
तो
पहले तो मौन
को साधो। पहले
तो अपनी ऊर्जा
को मौन में
उतरने दो, गहराने
दो मौन को।
कभी ऐसी घड़ी
भी आएगी—जरूर
आती है : न आए तो
कुछ हर्ज नहीं
है, पर आती
है।
महावीर
बारह वर्ष मौन
रहे,
फिर लौट आए
बस्ती में
जंगलों से
वापस, फिर
बोलने लगे।
बुद्ध छह वर्ष
तक स्वात में
रहे, फिर
लौट आए। जब भी
जीसस को ऐसा
लगता कि लोगों
के संग—साथ ने
धूल जमा दी, तो अपने
दर्पण को झांकने
वे एकांत में
पहाड़ पर चले
जाते। जब
देखते कि
दर्पण फिर
शुद्ध हो गया,
फिर निर्मल
धारा बहने लगी
चैतन्य की, धूल— धवांस न
रही, फिर
निर्दोष हो गए,
फिर बालपन
पा लिया, फिर
लौट गए
मूलस्रोत की
तरफ, तब
लौट आते।
शिष्यों ने
पूछा भी है
उनसे कि आप
क्यों मौन में
चले जाते हैं?
जब
वाणी थका दे, जब
बोलना ज्यादा
बोझ बन जाए, तो मौन में
उतर जाना ऐसे
ही है, जैसे
दिनभर का थका
हुआ आदमी रात
सो जाता है।
जब
दूसरों की
मौजूदगी से
तुम ऊब जाओ, परेशान
हो जाओ, तो
उचित है कि आख
बंद कर लो और
अपने में खो
जाओ। वहां से
पाओगे ताजगी,
क्योंकि
तुम्हारे
जीवन का स्रोत
वहीं छिपा है;
वह दूसरे
में नहीं है, वह तुम्हारे
भीतर है।
तुम्हारी
जड़ें
तुम्हारे
भीतर हैं।
इसलिए
तुम अक्सर
पाओगे कि जो
लोग जिंदगीभर
दूसरों के, दूसरों
के साथ ही
गुजारते हैं,
वे आदमी
बिलकुल उथले
और ओछे हो
जाते हैं।
राजनेता की
वही तकलीफ है।
वह ओछा हो
जाता है, छिछला
हो जाता है।
उसकी कोई
गहराई नहीं रह
जाती।
क्योंकि
जिंदगीभर भीड़।
और भीड़ भी ऐसी
ही नहीं; ऐसी
भीड़ जिसको
राजी करना है;
ऐसी भीड़
जिसके सामने
भिक्षा का
पात्र फैलाना है
: मत के लिए, वोट
के लिए; ऐसी
भीड़ जिसकी तरफ
हर वक्त नजर
रखनी है।
कहते
हैं कि
राजनेता अपने
अनुयायियों
का भी अनुयायी
होता है।
क्योंकि वह
देखता
रहता है कि
लोग कहा जाना
चाहते हैं, पीछे
लौट—लौटकर
देखता रहता है
कि लोग कहा
जाना चाहते हैं,
जहां लोग
जाना चाहते
हैं उसी तरफ
वह चल पड़ता है।
लगता ऐसा है
कि वह लोगों
के आगे चल रहा
है, लोगों
का नेता है।
असलियत
बिलकुल और है।
असली नेता वही
है जो ठीक से
पहचान लेता है,
समय के पहले,
कि लोग किस
तरफ जाएंगे।
वही नेता
पराजित हो
जाता है, जो
लोगों को नहीं
पहचान पाता कि
वे कहां जाना चाहते
हैं, और
अपनी हांकता
है; जल्दी
ही पाता है, अकेला रह
गया।
मुल्ला
नसरुद्दीन एक
दिन गधे पर
बैठकर जा रहा था, गांव
के बाजार से
गुजर रहा था।
किसी ने पूछा,
कहां जा रहे
हो? उसने
कहा, यह मत
पूछो! मेरे
गधे से पूछो।
क्योंकि पहले
तो मैंने इसे
बहुत चलाने की
कोशिश की, उसमें
भद्द होती थी।
कहीं रास्ते
में अड़ जाए, भीड़— भड़क्का
इकट्ठा हो जाए,
लोग हंसने
लगें, ठिठक
जाए, अटक
जाए। आखिर
मैंने तरकीब
सीख ली। मैंने
राजनीति सीख
ली। अब यह
जहां जाता है
हम इस पर बैठे
रहते हैं। अगर
यह ठिठकता हैं
'तो हम ऐसा
बहाना करते
हैं कि हम ही
रोके हुए हैं;
चल पड़ता है—हमने
चलाया। अब हम
इस पर ध्यान
रखते हैं। तब
से कोई फजीहत
नहीं होती, कहीं कोई
झंझट नहीं आती।
जो
लोग राजनीति
में रहेंगे, धीरे—धीरे
पाएंगे, उनका
जीवन बिलकुल
ही दूसरों के
हाथों में पड़
गया। उनका
अपना कोई जीवन
ही न रहा। कह
सकें कुछ अपनी
आत्मा, ऐसी
कोई चीज उनके
पास बचती नहीं।
यद्यपि
राजनेता कहते
हैं, अतर्वाणी,
आत्मा की
आवाज! आत्मा
ही नहीं है, आत्मा की
आवाज कहां से
होगी! वह
आत्मा की आवाज
भी भीड़ की
आवाज है। भीड़
से पहले पहचान
लेते हैं कि
भीड़ कहां जाती
है, यह
उनकी कुशलता
है। भीड़ को भी
पता नहीं चलता
कि कहां जाना
चाहती है; उसके
पहले जो पहचान
ले, वही
नेता है। तब
ढोंग बना रहता
है।
जो
व्यक्ति सारी
जिंदगी भीड़
में गुजारेगा, दूसरे
पर नजर अटकाकर
गुजारेगा, वह
पाएगा कि धीरे—धीरे
भीतर जाने के
द्वार
अवरुद्ध हो गए।
क्योंकि जिन
रास्तों का हम
उपयोग नहीं
करते, वे
टूट जाते हैं,
बिखर जाते
हैं। जिन
रास्तों का हम
उपयोग नहीं
करते, वे
रास्ते हमें
भूल ही जाते
हैं, उनके
नक्शे हमें
याद नहीं रह
जाते।
और
जिसने दूसरे
को ही राजी
करने में सारी
जिंदगी का रस
जाना, वह
परिधि पर जीता
है। जैसे तुम
पड़ोसी को राजी
करने के लिए
हमेशा अपने
मकान की
चारदीवारी के
पास खड़े होकर
उससे बातें
करते रहो, ठीक
ऐसा ही जब तुम
दूसरे को राजी
करने में लगे हो,
तब अपने से
बाहर रहना
पड़ता है।
मौन
तुम्हें अपने
भीतर लाएगा। अपने
भीतर आओ। वहीं
परम राज्य है
जीवन का। वहीं
स्रोत हैं
अनंत। वहीं से
जन्म हुआ है, वहीं
मौत में डूब
जाओगे। वहीं
से सूर्य उगा
है, वहीं
अस्त होगा।
उसमें बार—बार
डुबकी लो। जब
भी तुम डुबकी
लगाकर लौटोगे
वहां से, तुम
पाओगे, फिर
ताजे हुए! फिर
जीवन की नई
संपदा मिली!
फिर नई शक्ति
का आविर्भाव
हुआ! थकान गई, उदासी गई, चिंता गई!
जैसे
कोई स्नान
करके लौटता है
तो शरीर शीतल
हो जाता है, शात
हो जाता है, ऐसे ही जब
कोई भीतर से
होकर वापस आता
है, मौन
में स्नान
करके लौटता है,
तो समस्त
अस्तित्व, समस्त
व्यक्तित्व
शात और मौन हो जाता
है, आनंदित
हो जाता है।
तुमने फिर से
रस पा लिया!
वृक्ष को फिर
पानी मिल गया!
जड़ों को फिर
भूमि मिल गई!
सब फिर हरा हो
गया! फिर से आ
गया वसंत!
गहरी
नींद से यही
तो लाभ होता
है। दुनिया के
सभी चिकित्सा—शास्त्र
कहते हैं कि
अगर कोई बीमार
हो तो इलाज के
पहले, किसी भी
इलाज के पहले,
बड़े से बड़ा
इलाज है कि
उसे नींद आ
जाए। बीमार
अगर सो न सके
तो फिर कोई
औषधि काम नहीं
करती। औषधि तो
ऊपरी सहारे
हैं, असली
औषधि तो भीतर
है। अपने में
डुबकी लग जाए,
अपने जीवन—स्रोत
से फिर संबंध
जुड़ जाए।
गहरी
नींद में वही
घटता है। गहरी
नींद का अर्थ
है जहां
स्वप्न भी न
हो,
क्योंकि
स्वप्न में भी
दूसरों की
छाया मौजूद रहती
है। तुम स्वप्न
में भी स्वयं
नहीं हो पाते;
वहां भी झूठ
हो जाता है।
फ्रायड
ने कहा है कि
आदमी स्वप्न
में भी झूठ बोलता
है। हमारा झूठ
इतना गहरा हो
गया है कि
स्वप्न में जहां
कोई भी नहीं
है,
वहां भी हम
झूठ बोलते हैं।
फ्रायड ने कहा
है, अगर
किसी व्यक्ति
के मन में
अपने पिता को
मार डालने की
आकांक्षा हो—जरूरी
नहीं कि वह
मार ही डालना
चाहता हो, लेकिन
क्रोध में ऐसी
आकांक्षा हो—तो
वह सपना
देखेगा कि
उसने अपने
काका को मार
डाला। पिता को
न मारेगा सपने
में, सपने
में भी! काका
मिलते—जुलते
हैं पिता से
थोड़े, उन्हें
मार डालेगा।
उतना झूठ वहा
भी बोल गया।
तुम
अपने स्वप्न
में भी सच
नहीं हो; क्योंकि
दूसरा तो
मौजूद नहीं है,
लेकिन
दूसरे की छाया
मौजूद है।
दूसरे की छाया
भी तो दूसरे
की छाया है।
तो
जब स्वप्न भी
नहीं होते तब
सुषुप्ति। और
सुषुप्ति बड़ी
प्राणदायी
है। सुषुप्ति
संजीवनी है।
जब कोई इतना
गहरे में अपने
गिर जाता है
कि वहां
स्वप्न भी
नहीं पहुंच
पाते, दूसरे
तो दूर, उनकी
छाया भी नहीं
आती; जब
तुम इतने अपने
में होते हो, तब तुम सुबह
पाते हो, रात
बड़ी आनंद से
बीती। सुबह
तुम एक ताजगी
पाते हो, ओज
पाते हो, बल
पाते हो। जिस
दिन तुम रात
गहरे नहीं सो
पाते, उस
दिन तुम सुबह
थके— थके उठते
हो। चाहे तुम
आठ—दस घंटे
बिस्तर पर पड़े
रहे, चाहे
तुमने करवटें
बहुत बदलीं, लेकिन स्वप्न
तुम्हें घेरे
रहे, तुम
उथले—उथले रहे,
भीड़
तुम्हें पकड़े
ही रही, तुम
अकेले न हो
पाए। नींद में
भी तुम मौन न
हो पाए!
नींद
में मौन हो
जाने का अर्थ
सुषुप्ति है।
जैसे गहरी
नींद तुम्हें
ताजा कर जाती
है,
उससे भी
ताजा तुम्हें
मौन करेगा।
क्योंकि गहरी
नींद में तुम
बेहोश होते हो,
मौन में तुम
गहरी नींद में
होओगे और होश
में होओगे।
पतंजलि
ने समाधि की
यही परिभाषा
की है। समाधि
का अर्थ है
सुषुप्ति+होश।
होश भी हो और
सुषुप्ति
जैसी प्रगाढ़
शात दशा हो, जहां तरंग
भी नहीं उठती!
डूबो
मौन में। तुम
अनिर्वचनीय
रस वहां से पाओगे।
यद्यपि जैसे—जैसे
तुम मौन में
ठहरने लगोगे, वैसे—वैसे
तुम यह भी
पाओगे,, अब
तुम जो थोड़ा—बहुत
बोलते हो
उसमें सत्य
आने लगा।
क्योंकि
जिसने अपना रस
जाना, वह
दूसरे के
मंतव्यों की
चिता छोड़ने
लगता है। अब
असली बात अपने
रस की रह जाती
है, अब
दूसरे से क्या
प्रयोजन?
जिसको
अपने सौंदर्य
का भरोसा आ
गया,
अब वह इसकी
फिक्र नहीं
करता कि लोग
उसे सुंदर कहते
हैं या नहीं
कहते हैं।
सारी दुनिया
उसे असुंदर
कहे, भेद
नहीं पड़ेगा; उसे अपने
सौंदर्य की
मस्ती आ गई।
जिसे अपने
भीतर का सत्य
पता चलने लगा,
अब वह इसकी
चिंता नहीं
करता कि लोग
उसे सच्चा
मानते हैं या
नहीं मानते, अब लोगों की
बात का कोई
मूल्य नहीं है।
तुम
लोगों की बात
का इतना विचार
करते हो, क्योंकि
तुम्हें अपने
पर कोई भरोसा
नहीं। तुम्हारा
सब भरोसा उधार
है। पहले तुम
लोगों की आंखों
में देखते हो
कोई सुंदर कह
रहा है? कोई
साधु मान रहा
है? तो
तुम्हें भी
भरोसा आता है।
आश्चर्य!
तुम्हें अपनी
साधुता का खुद
पता नहीं चलता;
इसे भी तुम
दूसरे से
पूछने जाते
हो! तो जैसे—जैसे
भीड़ बड़ी होने
लगती है
तुम्हें साधु
मानने की, उतना
ही तुम
आत्मविश्वास
से भरने लगते
हो कि निश्चित
ही मैं साधु
हूं।
यह
भी बड़ा मजा
हुआ,
मजाक हुआ, अपना पता
तुम्हें नहीं,
उसको भी तुम
उधार पता
लगाते हो!
तुम्हें अपने भीतर
के आनंद का
कोई बोध नहीं;
लोग अगर
तुमसे कहें कि
बड़े आनंदित
हैं आप, बड़े
प्रसन्नचित्त
हैं, जब
दिखाई पड़ते
हैं तभी जैसे
बहार आई हो, जब देखते
हैं तभी जैसे
आंखों में फूल
खिले हों, आप
बड़े खुशदिल
हैं—तुम
मुस्कुराने
लगते हो। लोग
तुम्हें
भरोसा दिला
देते हैं। और
धीरे—धीरे तुम
मान लेते हो
कि तुम खुशदिल
हो, बड़े
प्रसन्नचित्त
हो। जरा गौर
से तुम अपनी
मान्यता को
फिर से उलट—पुलटकर
देखना—जो
तुमने अपने
संबंध में बना
रखी है—दूसरों
ने बना दी।
हार्वर्ड
विश्वविद्यालय
में
मनोवैज्ञानिक
एक प्रयोग कर
रहे थे।
उन्होंने एक
कक्षा के
विद्यार्थियों
को दो हिस्सों
में बांट दिया।
आधे
विद्यार्थियों
को कहा अलग
कमरे में, यह
सवाल जो तख्ते
पर लिखा जा
रहा है, बहुत
कठिन है; यह
इतना कठिन है
कि कोई आशा
नहीं कि तुम
में से कोई भी
इसे हल कर
पाएगा। तुमसे
ऊपर की
कक्षाओं के
विद्यार्थी
भा इसे हल
करने में
कठिनाई पाते
हैं। यह तो
बड़े गणितज्ञ
ही इसे हल कर
सकते हैं।
लेकिन सिर्फ
जानने के लिए
दिया जा रहा
है, हो
सकता है संयोग
से, शायद—इसका
कोई जरा भी
आश्वासन नहीं
है—शायद तुम
में से कोई
थोड़ा—बहुत
इसको हल करने
की दिशा में
ठीक चल पाए।
पूरा हल कर
पाए, यह तो
हो नहीं सकता,
फिर भी
कोशिश करो।
उन्होंने
कोशिश की।
पंद्रह
विद्यार्थियों
में केवल तीन
विद्यार्थी
उसे हल कर पाए।
उसी
क्लास के
दूसरे पंद्रह
विद्यार्थियों
को दूसरे कमरे
में कहा गया—वही
सवाल—एकदम सरल
है। इतना सरल
है कि तुम में
से अगर कोई
इसे हल न कर पाए
तो बड़े
आश्चर्य की
बात होगी।
तुमसे —नीची
कक्षाओं के
विद्यार्थियों
ने भी इसे हल कर
लिया है।
और
आश्चर्य की
बात,
बारह हल कर
पाए, तीन
भर चूक गए!
क्या हुआ? तुम्हारा
भरोसा उधार है,
दूसरे
तुम्हें देते
है। कोई तुमसे
कह देता है
बुद्धिमान, तो तुम
बुद्धिमान हो
जाते हो; कोई
तुमसे कह देता
है बुद्ध तुम
बुद्ध हो जाते
हो। और लोग
अगर दोहराए
चले जाएं तो
तुम मानने लगते
हो उनकी बात।
लोगों की
बातों में
सम्मोहन है।
और जिसे
आत्मज्ञान की
तरफ कदम रखना है,
उसे यह
सम्मोहन तोड़
देना होगा।
उसे अपने पर
भरोसा करना
पड़ेगा सीधा—सीधा।
दूसरे
का माध्यम
हटाओ बीच से।
दूसरे को अपना
पता नहीं है, तुम्हारा
पता क्या होगा?
वह खुद तुम
पर निर्भर है,
कि तुम उसको
कहो किं आप
बड़े
बुद्धिमान, कि आप बड़े
सुंदर, कि
आप जैसा सीधा—साधा
और सरल मनुष्य
नहीं देखा। वह
तुम्हारे पास
भिक्षा मांगने
आया था। और इस
तरह
पारस्परिक
भिक्षा का लेन—देन
चलता है।
मैंने
सुना है, एक
मोहल्ले में
दो ज्योतिषी
रहते थे। जब
वे सुबह
निकलते थे, मिल जाते तो
एक—दूसरे को
हाथ दिखा देते
कि आज दिन कैसा
रहेगा! एक—दूसरे
की फीस भी चूका
देते चार—चार
आने, कोई
हर्जा भी न
होता, जानकारी
भी हो जाती।
अब ऐसा
ज्योतिषी, जो
अपना ज्योतिष
पूछ रहा है...!
एक
बार एक बड़े
ज्योतिषी को
मेरे पास लाया
गया। उनकी फीस
एक हजार एक
रुपए।
उन्होंने कहा
कि एक हजार एक
रुपया मेरी
फीस है। मैंने
कहा,
कोई हर्ज
नहीं, हाथ
तो देखें। हाथ
जब देख लिया, फिर बड़ी देर
हो गई और
बातें चलती
रहीं, दो—चार
बार उन्होंने
इशारा किया कि
वह एक हजार एक
रुपया! मैं
बात टाल गया।
फिर— फिर
उन्होंने याद
दिलाई। मैंने
कहा कि
तुम्हें यह भी
पता नहीं चलता
कि मुझसे ये
रुपए मिलने
वाले नहीं हैं?
तुम अपना
हाथ तो घर से
देखकर निकले
होते। तुम
मेरा भविष्य
बताते हो, तुम्हें
अपना आज भी
पता नहीं है।
पर
पारस्परिक
चलता है। लेन—देन
है। हम
तुम्हारी
प्रशंसा कर
देते हैं, तुम
हमारी
प्रशंसा कर
देते हो, दोनों
घर प्रसन्न
लौट जाते हैं।
डूबो
मौन में!
दूसरे को
जितना भूl सको
उतना अच्छा।
मैं यह नहीं
कह रहा हूं कि
तुम भाग जाओ
जिंदगी से।
मैं यह कह रहा
हूं कि तुम
जिंदगी में
सच्चे हो जाओ।
धीरे—धीरे तुम
में एक बल
आएगा, वह
तुम्हारे
भीतर से आएगा।
और तब तुम
पाओगे कि
बोलने में भी
तुम्हारी प्रामाणिकता
रह जाती है, मिटती नहीं।
वस्तुत: तुम
पाओगे कि
बोलने में भी
तुम्हारा मौन
खंडित नहीं
होता, बना
ही रहता है।
उसकी एक सतत
धारा, एक
अंतर्धारा
बहती रहती है 1
बोलते भी तुम
हो, लेकिन
अपने से छूटते
नहीं। बोलते
भी तुम हो, शब्द
का उपयोग भी
करते हो, लेकिन
तुम्हारे
निःशब्द को
शब्द खंडित
नहीं कर पाता।
शब्द
बड़ा कमजोर है, निःशब्द
को कैसे खंडित
करेगा? बादल
आते हैं, जाते
हैं, आकाश
कहीं मैला
होता है!
कितने बादल आए
और गए न होंगे
इस आकाश के
समक्ष अनंत
काल से, आकाश
पर रेखा भी तो
नहीं छूट जाती।
ऐसा ही
निःशब्द का
आकाश है, मौन
का आकाश है, शून्य का
भीतर आकाश है,
उस पर कोई
फर्क नहीं
पड़ता विचारों
से। विचार
क्या फर्क
लाएंगे! रेखा
भी नहीं
खिंचती।
लेकिन उसका
तुम्हें पता
हो तब।
एक
बार मौन में
घिर हो जाओ, फिर
तुम्हारी
वाणी में भी
एक सुगंध आ
जाएगी। एक बार
मौन में उतर
जाओ, फिर
तुम्हारी
वाणी भी नई
गहराइयां ले
लेगी, फिर
तुम्हारी
वाणी में भी
एक विशालता आ
जाएगी।
तुम
बोलोगे भी तो
दूसरे पर
ध्यान रखकर न
बोलोगे। तुम
बोलोगे अपने
भीतर की आवाज
से। तुम्हारा
बोलना
संगीतपूर्ण
होगा; तुम्हारा
बोलना सत्य
होगा; तुम्हारा
बोलना
तुम्हारे
पूरे
व्यक्तित्व की
सुगंध से
ओतप्रोत होगा;
तुम बोलोगे
तो दूसरों पर
भी शीतलता छा
जाएगी; तुम
बोलोगे भी तो
दूसरों पर
तुम्हारे
निःशब्द की
धुन बजने
लगेगी; तुम्हारा
मौन उन्हें
छुएगा।
इस
देश में हमने
यह नियम समझा
था कि केवल
वही बोले, जिसने
मौन के तल छू
लिए हों, बाकी
चुप रहें।
इसलिए बुद्ध
बोलते हैं, ठीक। बुद्ध
का बोलना
सार्थक।
अब
यह बड़े मजे
की बात है, बडा
विरोधाभास है,
जिसने न
बोलना सीख
लिया, वही
बोलने का
हकदार है।
जिसने चुप
होना जाना, वही पात्र
है कि अगर
बोले तो
सौभाग्य।
जिसने चुप
होना सीख लिया,
उसको चुप
हमने नहीं
रहने दिया।
कहते
हैं,
बुद्ध को जब
ज्ञान हुआ तो
वे सात दिन
चुप रह गए।
चुप्पी इतनी
मधुर थी, ऐसी
रसपूर्ण थी, ऐसा रोआं—रोआं
उसमें नहाया,
सराबोर था,
बोलने की
इच्छा ही न
जगी, बोलने
का भाव ही
पैदा न हुआ।
कहते हैं, देवलोक
थरथराने लगा।
कहानी बड़ी
मधुर है। अगर
कहीं देवलोक
होगा तो जरूर
थरथराया होगा।
कहते हैं, ब्रह्मा
स्वयं घबड़ा
गया।
क्योंकि
कल्प बीत जाते
हैं,
हजारों—हजारों
वर्ष बीतते
हैं, तब
कोई व्यक्ति
बुद्धत्व को
उपलब्ध होता
है। ऐसे शिखर
पर कोई हजारों
वर्षों में
पहुंचता है।
और अगर उस
शिखर से आवाज
न दे, उस
शिखर से अगर
बुलावा न दे, तो जो नीचे
अंधेरी घाटियों
में भटकते लोग
हैं, उन्हें
तो शिखर की
खबर भी न
मिलेगी; वे
तो आख उठाकर
देख भी न
सकेंगे; उनकी
गर्दनें तो
बड़ी बोझिल हैं।
वस्तुत: वे
चलते नहीं, सरकते हैं, रेंगते हैं।
आवाज
बुद्ध को देनी
ही पड़ेगी।
बुद्ध को राजी
करना ही पड़ेगा।
जो भी मौन का
मालिक हो गया, उसे
बोलने के लिए
मजबूर करना ही
पड़ेगा।
कहते
हैं,
ब्रह्मा
सभी देवताओं
के साथ बुद्ध
के सामने मौजूद
हुआ। वे उनके
चरणों में
झुके।
हमने
देवत्व से भी
ऊपर रखा है
बुद्धत्व को।
सारे संसार
में ऐसा नहीं
हुआ। हमने
बुद्धत्व को
देवत्व से ऊपर
रखा है। कारण
है देवता भी
तरसते हैं
बुद्ध होने को।
देवता सुखी
होंगे, स्वर्ग
में होंगे—अभी
मुक्त नहीं
हैं, अभी
मोक्ष से बड़े
दूर हैं। अभी
उनकी लालसा
समाप्त नहीं
हुई, अभी
तृष्णा नहीं
मिटी, अभी
प्यास बुझी
नहीं।
उन्होंने और
अच्छा संसार
पा लिया है, और सुंदर
स्त्रिया पा ली
हैं, और
सुंदर पुरुष
पा लिए हैं।
कहते हैं, स्वर्ग
में कंकड़—पत्थर
नहीं हैं, हीरे—जवाहरात
हैं। कहते हैं,
स्वर्ग के
जो पहाड़ हैं, वे शुद्ध
स्फटिक—मणि से
बने हैं। कहते
हैं, स्वर्ग
में जो फूल
लगते हैं, वे
मुर्झाते
नहीं। परम सुख
है।
लेकिन
स्वर्ग से भी
गिरना होता है।
क्योंकि सुख
से भी दुख में
लौटना ही
पड़ेगा। सुख और
दुख एक ही
सिक्के के
पहलू हैं। कोई
नरक में पड़ा
है,
कोई स्वर्ग
में पड़ा है।
जो नरक में
पड़ा है वह नरक
से बचना चाहता
है। जो स्वर्ग
में पड़ा है वह
स्वर्ग को
पकड़े रखना चाहता
है।
दोनों
चिंतातुर हैं।
दोनों पीड़ित
और परेशान हैं।
जो स्वर्ग में
पड़ा है, वह भी
किसी लोभ के
कारण वहां
पहुंचा है। जो
नरक में पड़ा
है, वह भी
किसी लोभ के
कारण वहां
पहुंचा है। एक
ने अपने लोभ
के कारण पाप
किए होंगे, एक ने अपने
लोभ के कारण
पुण्य किए हैं—लोभ
में फर्क नहीं
है।
बुद्धत्व
के चरणों में
ब्रह्मा झुका।
और उसने कहा
कि आप बोलें; आप
न बोलेंगे तो
महा दुर्घटना
हो जाएगी। और
एक बार यह
सिलसिला हो
गया, तो आप
परंपरा बिगाड़
देंगे। बुद्ध
सदा बोलते रहे
हैं। उन्हें
बोलना ही
चाहिए। जो न
बोलने की
क्षमता को पा
गए हैं, उनके
बोलने में कुछ
अंधों को मिल
सकता है, अंधेरे
में भटकतों को
मिल सकता है।
आप चुप न हों, आप बोलें।
किसी
तरह
बामुश्किल
राजी किया।
कहानी का अर्थ
इतना ही है कि
जब तुम मौन हो
जाते हो तो
अस्तित्व भी
प्रार्थना
करता है कि
बोलो; वृक्ष
और पत्थर और
पहाड़ भी
प्रार्थना
करते हैं कि
बोलो; करुणा
को जगाते हैं
तुम्हारी कि
बोलो। तुम
जहां पहुंच गए
हो वहां और भी
बहुत पहुंचना
चाहते हैं।
उन्हें
रास्ते का कोई
भी पता नहीं।
उन्हें मार्ग
का कोई भी पता
नहीं; अंधेरे
में टटोलते
हैं। उन पर
करुणा करो, बोलो। तुम
भी कल उनके
साथ थे, इतनी
जल्दी भूल मत
जाओ, विस्मरण
मत करो। पीछे
लौटकर देखो।
साधारण
आदमी वासना से
बोलता है; बुद्ध
पुरुष करुणा
से बोलते हैं।
साधारण आदमी
इसलिए बोलता
है कि बोलने
से शायद कुछ
मिल जाए; बुद्ध
पुरुष इसलिए
बोलते हैं कि
शायद बोलने से
कुछ बंट जाए।
बुद्ध पुरुष
इसलिए बोलते
हैं कि तुम भी
साझीदार हो
जाओ उनके परम
अनुभव में। पर
पहले शर्त
पूरी करनी
पड़ती है—मौन
हो जाने की, शून्य हो
जाने की।
जब
ध्यान बोलता
है,
जब ध्यान की
वीणा पर संगीत
उठता है, जब
मौन मुखर होता
है, तब
शास्त्र
निर्मित होते
हैं। जिनको
हमने शास्त्र
कहा है, वे
ऐसे लोगों की
वाणी है, जो
वाणी के पार चले
गए थे। और जब
भी कभी कोई
वाणी के पार
गया, उसकी
वाणी शास्त्र
हो जाती है, आप्त हो
जाती है, उससे
वेदों का पुन:
जन्म होने
लगता है।
तो
पहले तो मौन
को साधो, मौन
में उतरो फिर
जल्दी ही वह
घड़ी भी आएगी, वह मुकाम भी
आएगा, जहां
तुम्हारे
शून्य से वाणी
उठेगी। तब उसमें
प्रामाणिकता
होगी, सत्य
होगा।
क्योंकि तब
तुम दूसरे के
भय के कारण न
बोलोगे, तुम
दूसरों से कुछ
मांगने के लिए
न बोलोगे। तब
तुम देने के
लिए बोलते हो
भय कैसा! कोई
ले तो ठीक, कोई
न ले तो ठीक।
ले—ले तो उसका
सौभाग्य, न
ले तो उसका
दुर्भाग्य।
तुम्हारा
क्या है? तुमने
बाट दिया। जो
तुमने पाया
तुम बांटते गए।
तुम पर यह
लांछन न रहेगा
कि तुम कृपण
थे, जब
पाया तो
छिपाकर बैठ गए।
पर
ऐसा कभी हुआ
ही नहीं। ऐसा
कभी होता ही
नही। क्योंकि
यह पाना कुछ
ऐसा है कि
इसमें बांटने की
अभीप्सा साथ
में ही आती है, इसके
भीतर ही छिपी
आती है। जैसे
फूल जब खिलता
है तो उस
खिलने में ही
गंध का बंटना
भी छिपा होता
है। कोई फूल
यह चाहे कि
खिल तो जाऊं
और बांटू न, तो असंभव
होगा।
इसलिए
ब्रह्मा आए या
नहीं, इससे
कोई फर्क नहीं
पड़ता, यह
कहानी है।
बुद्ध को
बोलना ही
पड़ेगा। जब फूल
खिलता है, सुगंध
को बिखरना ही पड़ेगा।
जब दीया जलता
है तो किरणें
बरसेंगी ही
चारों तरफ; कोई ब्रह्मा
की जरूरत नहीं
कि दीए से
प्रार्थना
करे। कहानी तो
प्रतीक है—मधुर
प्रतीक है।
पहले
मौन,
फिर वाणी
में सत्य का
अवतरण.!
शुभ
है। प्रारंभ
है। घबड़ा मत
जाना। डरना मत।
पाखंड टूटने
की घड़ी करीब आ
रही है।
इब्तिदा
से आज तक
नातिक की है
ये सरगुजश्त
पहले
चुप था, फिर
हुआ दीवाना, अब बेहोश है
ये
तीन घड़िया आती
हैं।
पहले
चुप था, फिर
हुआ दीवाना..?
क्योंकि
जैसे ही तुम
चुप हुए, दुनिया
तुम्हें
दीवाना कहेगी।
इधर तुम चुप
हुए कि उधर
खबर फैलनी
शुरू हुई कि तुम
दीवाने हुए, कि तुम पागल
हुए। ऐसे
दुनिया अपनी
रक्षा करती है।
ऐसे दुनिया
तुम्हें पागल
न कहे तो फिर
और लोग भी इसी
रास्ते पर
जाने को आतुर
हो जाएं। असल
में दुनिया
अपनी रक्षा
करती है, क्योंकि
तुम्हें
देखकर औरों के
मन में भी उठती
है आवाज।
लेकिन तब बड़ा हेर—फेर करना
पड़ेगा।
जिंदगी का ढांचा
बदलना पड़े।
वह जरा ज्यादा
मुश्किल है।
तुम
पागल हों—ऐसा
तुम्हें पागल
कहकर आदमी
निश्चित हो
जाते हैं कि
पागल है, छोड़ो
भी उसकी बात।
मेरे
संन्यासियों
को लोग पागल
ही समझते हैं।
पागल हैं, उनकी
बात ही मत
सुनो—ऐसे वे
तुम्हें
पागल कह रहे
हैं, यह
नहीं है। ऐसे
वे इतना ही कह
रहे हैं कि
आकर्षित तो वे
भी हो रहे हैं,
लेकिन
भयभीत हैं, कमजोर हैं, कायर हैं।
तुम्हें पागल
कहकर वे अपने
को बचाने की
कोशिश कर रहे
हैं। तुम अगर
पागल सिद्ध हो
जाओ तो यह
झंझट मिटे, अन्यथा तुम
उन्हें भी
बुलाए ले रहे
हो! उन्हें भी
तुम आकर्षित
किए ले रहे हो!
उन्हें भी तुम
खींचे ले रहे
हो! उस खिंचाव
को झुठलाने के
लिए, उस
आकर्षण से बच
जाने के लिए
वे तुम्हें
पागल घोषित कर
रहे हैं।
पहले
चुप था, फिर
हुआ दीवाना
लेकिन
यह 'दीवाना' दोहरा
अर्थ रखता है।
लोग पागल कहें
या न कहें, जो
चुप होता है
वह एक अर्थ
में दीवाना हो
ही जाता है।
किस अर्थ में
दीवाना हो
जाता है? इस
अर्थ में
दीवाना हो
जाता है कि
चुप होने के साथ
ही साथ वह
समाज के घेरे
के बाहर पड़ने
लगता है, मुक्त
होने लगता है।
जैसे
ही तुम चुप
होते हो, तुम
इतने बलशाली
होने लगते हो
कि समाज की
निर्भरता तुम
छोड़ने लगते हो।
और तुम्हारे
जीवन में एक
मस्ती आती है
जो केवल
दीवानों के
जीवन में होती
है; तुम्हारे
चेहरे पर एक
नई रौनक आ
जाती है; तुम्हारी
आंखें किसी और
ही ओज से भर
जाती हैं; तुम्हारे
पैर चलते हैं,
जमीन पर
पड़ते नहीं; जैसे तुम हर—हमेश
किसी नशे से
भरे हो!
आज
की सुबह मेरे
कैफ का अंदाज
न पूछ
दिले—वीरा
में अजब
अंजुमन आराई
है
मत
पूछ मेरी
मस्ती का
हिसाब! उजड़े
हुए हृदय में
कोई अजीब
महोत्सव हुआ
है,
कोई नई धुन
बजी है!
दीवाने
तो तुम हो ही
जाओगे। पागल
तो तुम मालूम
होने ही लगोगे।
पर यह पागलपन
चुनने जैसा है।
यह पागलपन
करने जैसा है।
तुम्हारी
सारी
होशियारियां
भी इकट्ठी
होकर इस
पागलपन के एक
कतरे का भी मुकाबला
नहीं कर सकतीं।
तुम्हारी
बुद्धिमत्ता
दो कौड़ी की है।
क्योंकि
जिसने पागल
होना जाना, उसने
ही परमात्मा
का होना भी
जाना।
फिर
हुआ दीवाना, अब
बेहोश है
और
फिर तीसरी
घड़ी भी आती
है। जब तुम
नहीं रहते, तुम
बचते ही नहीं।
उसी घड़ी को 'बेहोश' कहते
हैं। बेहोशी
का मतलब यह
नही है कि
तुम्हारा होश
खो जाता है।
बेहोशी का
मतलब है कि
तुम खो जाते
हो, होश तो
पूरा हो जाता
है। यह ऐसी
बेहोशी है कि
इसमें होश
खोता नहीं, बढ़ जाता है, लेकिन तुम
मिट जाते हो।
यही सांसारिक
शराब और
परमात्मा की
शराब का भेद
है।
जब
तुम शराब पीते
हो,
तुम तो रहते
हो, होश खो
जाता है। जब
तुम परमात्मा
को पीते हो, तुम तो मिट
जाते हो, होश
रह जाता है।
इब्तिदा
से आज तक
नातिक की है
ये सरगुजश्त
पहले
चुप था, फिर
हुआ दीवाना, अब बेहोश है
घबड़ाना
मत। यहीं तो
सदगुरु की
जरूरत हो जाती
है। तुम्हारा
डर स्वाभाविक
है। अब तक जिस
ढंग से तुम
जीए,
वह सब लड़खड़ा
जाएगा। अब तक
जिसको तुमने
जिंदगी समझी
थी, अब
जिंदगी मालूम
न होगी। अब
कहीं दूर ने
तुम्हें
पुकारा। अब
तुम चल पड़े
किसी ऐसी खोज
में, जहां
आदमी को अकेला
ही जाना पड़ता
है, जहां
राजपथ नहीं है,
जहां बस
पगडंडियां
हैं।
पगडंडियां भी
पहले से तैयार
नहीं; चलते
हो, बस
उतनी ही तैयार
होती हैं।
दुनिया तो यही
समझेगी कि तुम
गए! दुनिया तो
यही समझेगी कि
तुम मुर्दा
हुए!
मुहब्बत
ने उम्रे—अबद
हमको बख्शी
मगर
सब यह समझे
फना हो गए हम
लोग
यही समझे कि
मर गया यह
आदमी। पहले
समझेंगे पागल, फिर
समझेंगे मृत।
लोग भूल ही
जाएंगे
तुम्हें कि
तुम हो भी।
ऐसा किनारा
काटकर निकल
जाएंगे।
दुनिया यही
समझेगी, यह
आदमी समाप्त
हुआ। लेकिन
तुम्हारे
भीतर जो घटा
है, वह
तुम्हीं
जानते हो।
तुम्हारे
भीतर जो मेघ—मल्हार
जगी है, वह
तुम्हीं
जानते हो।
तुम्हारे
भीतर आषाढ़ के
मेघों को
देखकर जो मोर
नाचने लगे हैं,
वह तुम्हीं
जानते हो।
तुम्हारे
भीतर तो अमृत
बरसा है, मृत्यु
समाप्त हुई है,
लेकिन
लोगों के लिए
तुम लगोगे कि
मृतक हो गए।
मौन
से शुरुआत
होती है। उस
शुरुआत में डर
लगेगा, भय
लगेगा, भाग
जाने का मन
होगा, लौट—लौटकर
लोगों से बात
करने का मन
होगा, किसी
तरह अपने को
उलझा लेने का
मन होगा।
क्योंकि भय
लगेगा, यह
भीतर कहां मैं
जा रहा हूं!
क्योंकि जो
तुम्हारी
गहराई है भीतर,
वह तुमसे भी
गहरी है, वह
तुमसे पार है।
उस गहराई में
उतरते वक्त
मौत रास्ते
में पड़ेगी; ऐसा लगेगा
कि मरे, गए!
ध्यान
में मृत्यु
घटती है।
ध्यान सूली है, लेकिन
सूली के बिना
सिंहासन नहीं।
ध्यान में जो
मरता है, वही
परमात्मा में
जगता है।
संसार से तो
तुम मृतवत हो
जाते हो और
परमात्मा तुम
में जीवंत हो
जाता है। मरने
की तैयारी
रखना, क्योंकि
वही साधना है।
और मरकर ही
मिलता है
महाजीवन।
शुभ
है घड़ी, घबड़ाना
मत। सम्हालना
इस घड़ी को टूट
न जाए, फूट
न जाए, बिखर
न जाए। बड़े
सौभाग्य से
आती है, बड़ी
मुश्किल से
आती है।
सैकड़ों कोशिश करते
हैं, किसी
एकाध को आती
है। धन्यभागी
मानना अपने को
और परमात्मा
के प्रति
अनुग्रह का
भाव रखना कि
इतनी समझ दी
है, तो
द्वार खुलने
लगा। बहुत कुछ
और होगा।
पहले
चुप था, फिर
हुआ दीवाना, अब बेहोश है
दूसरा
प्रश्न
ऐसा
क्यों है कि
सभी बुद्ध
पुरुष बोध और
जागरण के
केंद्रीय
संपरिवर्तन
का उपदेश देते
हैं और उनके
स्थापित धर्म
आचरण और
कर्मकांड में
सिकुड़कर रह
जाते हैं? क्या
सभी संगठित
धर्म समाज के
ही हिस्से
नहीं हैं?
ऐसा होता
है,
अब तक हुआ
है, आगे भी
होता रहेगा।
क्योंकि जब
कोई बुद्ध
पुरुष बोलता
है तो वह जहां
से बोलता है, वहां तुम तो
समझ नहीं
सकते! उसे
समझने के लिए
तो तुम्हें भी
बुद्ध पुरुष
हो जाना पड़ेगा।
और तब तो
समझने की कोई
जरूरत ही न
रहेगी; तुम
ही जान लोगे
तो फिर समझने
की जरूरत क्या
है? जरूरत
तो तभी तक है
जब तक
तुम्हारा
अपना कोई
स्वाद नहीं, अपना कोई
अनुभव नहीं।
और
जब बुद्ध
पुरुष बोलते
हैं तो वे
कहीं शिखर से
बोल रहे हैं, तुम
अपनी घाटियों
से, अंधेरी
वादियों से
सुनते हो।
तुम्हारा
अंधेरा
तुम्हारे
श्रवण में
सम्मिलित हो
जाता है।
तुम्हारा
अंधेरा तुम जो
सुनते हो, उसकी
व्याख्या
करने लगता है।
तुम्हारा
अंधेरा, तुम
जो सुनते हो
वही नहीं
सुनते, कुछ
और तुम्हें
सुना देता है।
बुद्ध कुछ
बोलते हैं, तुम कुछ और
सुनते हो।
ऐसा
मुझे रोज ही
अनुभव आता है।
लोग मेरे पास
ही आ जाते है, वे
कहते हैं, आपने
ऐसा कहा था।
मैंने कभी कहा
नहीं, उन्होंने
सुना जरूर।
उनको मैं झूठ
नहीं कह सकता।
उन्होंने
सुना है, मैंने
कहा हो या न
कहा हो। चकित
होता हूं कभी—कभी
कि यह बात तो
मैंने कभी कही
नहीं। वे मुझे
याद दिलवाते
हैं, तब
मुझे याद आता
है कि जरूर
ऐसा ही कुछ
मैंने कहा था;
ऐसा ही कुछ,
यही नहीं।
उसमें कुछ
शब्द
उन्होंने जोड़
दिए, कुछ
घटा दिए, सारा
अर्थ ही बदल
गया। एक कॉमा
भी तुम जोड़ दो,
अर्थ बदल
जाएगा। और एक
कॉमा की क्या
बात है, तुम
तो पहाड़ जोड़
देते हो; तुम
अपना सारा सब
कुछ उसमें जोड़
देते हो। तुम
सुनते थोड़े ही
हो, तुम
विचार करते हो।
तुम अपना कूड़ा—करकट
उसमें डाल
देते हो। यह
सब अनजाने
होता है।
इसलिए
फिर,
पहले तो
बुद्ध पुरुष
बोलते हैं
किसी ऊंचाई से,
सुनते ही
घटना कहीं और
पहुंच जाती है,
हाथ के बाहर
हो जाती है।
बुद्ध पुरुष
भी कुछ कर
नहीं सकते
इसमें; जानकर
ही बोलते हैं
कि समझा नहीं
जाएगा। समझा
नहीं जाएगा, यह जानकर भी
बोलते हैं।
पूरा सूरज
निकले, एक
किरण तो पहुंच
जाएगी। किरण
भी. न पहुंचे, किरण का नाम
तो पहुंच
जाएगा, कोई
बीजारोपण हो
जाएगा शायद आज
काम न आए, अनंत
जन्मों में
कभी ठीक समय
पर अंकुरित हो
उठे।
मैं
तुमसे जो आज
कह रहा हूं? वह
तुम आज समझोगे,
यह जरूरी
नहीं; लेकिन
अगर तुमने सुन
भी लिया, गलत
भी सुना, तो
भी एक
बीजारोपण हुआ——कभी
न कभी उसमें
फल आने शुरू
होगे।
फिर
जब लोग सुनते
हैं और लोग ही
इकट्ठा करते हैं, लोग
ही संगृहीत
करते है—फिर
हजारों साल
बीत जाते हैं,
उस संग्रह
में जुड़ता चला
जाता है।
अज्ञानियो के
हाथ की छाप
बुद्ध
पुरुषों के
वचनों को मैला
करती चली जाती
है। धीरे—धीरे
हाथ की छापे
ही रह जाती
हैं।
तुम्हारे
हस्ताक्षर रह
जाते हैं।
बुद्ध
पुरुषों के
हस्ताक्षर
बहुत फीके हों—होकर
खो जाते हैं।'
इसलिए
भारत में एक
अनूठी परंपरा
रही है कि जब फिर
कोई बुद्ध पुरुष
हो तो अतीत के
बुद्ध
पुरुषों की
वाणी को पुनरुज्जीवित
करे।
तुम्हारे
हस्ताक्षर
हटाए; तुमने
जो धूल—धवांस
इकट्ठी कर दी
है चारों तरफ,
उसे हटाए; दर्पण को
फिर निखराए, फिर उघाड़े।
थोड़ी
ही देर के लिए
धर्म शुद्ध
रहता है, बड़ी
थोड़ी देर के
लिए! तुम्हारे
सुनते ही उपद्रव
शुरू हो गया।
तुम संगठन
करोगे। तुम
संप्रदाय
बनाओगे, तुम
शास्त्र
निर्मित
करोगे। वे
शास्त्र, वे
संप्रदाय, वे
सिद्धात, वे
धर्म
तुम्हारे
होंगे—बुद्ध
पुरुषों के
नहीं। बुद्ध
पुरुषों का तो
बहाना होगा।
धीरे—धीरे
उनका बहाना भी
हट जाएगा।
लकीरें रह
जाएंगी—मुर्दा।
मैंने
सुना है, एक घर
में पहला
विवाह हो रहा
था। लड़के की
मां बार—बार
कह चुकी थी
अपने पति को
कि तुम एक
सफेद बिल्ली
ले आओ। उसने
हंसकर कई बार
टाला कि इसकी
का जरूरत है।
वह बोली कि
तुम्हें इन
बातों में
पड़ने की जरूरत
नहीं है; लेकिन
तुम बिल्ली ले
आओ, अन्यथा
विवाह कैसे
होगा? घर
बहू आएगी, मैं
उसका स्वागत
कैसे करूंगी?
तो उसके पति
ने पूछा कि
आखिर मैं
समझूं भी तो, कि बिल्ली
का क्या लेना—देना
है स्वागत से!
उसने कहा, जब
मैं घर में आई
थी तो
तुम्हारी मां
ने मुझे मीठा
दही खिलाने के
लिए एक टोकरे
के नीचे दही
की मटकी रखी थी,
वह टोकरी
उठाई थी; मटकी
के पास ही एक
सफेद बिल्ली
बैठी हुई थी।
तो मुझे भी
बहू का स्वागत
करना पड़ेगा, मटकी रखनी
पड़ेगी, सफेद
बिल्ली
बिठानी पड़ेगी।
जो होता रहा
है, वह
करना ही पड़ेगा।
रीति—नियम हैं
बड़े—बूढ़ों के।
पति
ने कहा, पागल!
दही खिलाया था,
वह तो समझ
में आता है।
दही तू भी
खिला देना।
लेकिन बिल्ली
कोई उस
व्यवस्था का
हिस्सा नहीं
थी। बिल्ली
बैठ गई
होगी
दही के खयाल
से जाकर अंदर।
बिल्ली का
जूठा दही तूने
खाया होगा। अब
कुछ बहू को
फिर बिल्ली का
जूठा दही
खिलाने के
जरूरत नहीं है।
वह भूल थी।
लेकिन पत्नी न
मानी। उसने
कहा,
भूल और
सुधार, इन
बातों में मैं
नहीं पड़ती।
कोई अपशगुन हो
जाए! अपना
बिगड़ता क्या
है?
लकीरें
बनी रह जाती
हैं। ऐसा हुआ
था,
ऐसा किया
गया था, ऐसा
कहा था। फिर
हमारे अर्थ, फिर हमारा
अंधापन उनमें
जुड़ता है। और
धर्म
अंधविश्वास
हो जाता है, और सत्य
अपने शिखर खो
देता है और
घाटियों का
झूठ हो जाता
है। फिर उसी
झूठ के आसपास
भीड़ें बढ़ती
चली जाती हैं।
बुद्ध
के पास जो लोग
पहली दफे
पहुंचे थे, अपने
बोध से पहुंचे
थे। फिर उनके
बच्चे पैदा
होते हैं; इन
बच्चों को न
बुद्ध से कुछ
लेना है, न
कुछ देना है।
धर्म इनके लिए
केवल एक रीति—रिवाज
होता है।
चूंकि
बौद्धों के घर
में पैदा हो
गए हैं, इसलिए
बौद्ध; हिंदू
घर में पैदा
होते, हिंदू;
मुसलमान घर
में पैदा होते,
मुसलमान।
यह संयोग की
बात है। यह
हिंदू के घर
में पैदा होना
उतनी ही संयोग
की बात है, जितनी
दही की मटकी
के पास सफेद
बिल्ली का होना।
यह मुसलमान
होना, यह
तुम्हारा कोई
चुनाव नहीं है।
धर्म
चुना जाता है।
इसे मुझे फिर
दोहराने दें।
धर्म तभी
स्वल्प होता
है जब तुम उसे
सजगता से, अपनी
परिपूर्ण
चेतना से
चुनते हो। कोई
व्यक्ति जन्म
के साथ धर्म
का मालिक नहीं
हो सकता। और
जब तक पृथ्वी
पर जन्म के
आधार पर धर्म
रहेगा, तब
तक अधर्म
रहेगा।
मगर
मुश्किल है।
मेरे पास ही
लोग आते हैं।
पति—पत्नी
संन्यास ले
लेते हैं, अपने
छोटे बच्चे को
ले आते हैं, कहते हैं, इसे भी
संन्यास दे
दें। यह तो
छोड़े, स्त्रिया
मुझसे
संन्यास लेती
हैं, वे
कहती हैं, उनको
गर्भ है, बच्चा
गर्भ में है, उसको
संन्यास दे
दें। मैं कहता
हूं, कम से
कम उसे पैदा
हो जाने दें।
इतनी जल्दी
क्या है? उसे
भी तुम मौका
दो, उससे
भी तो पूछो; उसे चुनने
दो, थोपो
मत।
तो
जिसको तुम
संप्रदाय की
तरह जानते हो, वह
थोपा हुआ धर्म
है, वह
तुमने चुना
नहीं। चुनना
तो केवल
हिम्मतवरों
का काम है।
चुनने का अर्थ
है दाव लगाना।
तुम अगर मेरे
पास आए हो तो
यह चुनाव है।
जब मैं जा
चुका होऊंगा,
तुम रक चुके
होओगे, तुम्हारे
बच्चे मुझे
याद करेंगे—वह
चुनाव नहीं
होगा।
तुमने
अगर मेरी
तस्वीर अपने
घर में टांग
ली है, वह
तुम्हारा
प्रेम है।
तुम्हारे
बच्चे उसे
बरदाश्त
करेंगे; वह
उनका प्रेम
नहीं होगा।
धीरे—धोरे वह
तस्वीर सरकती
जाएगी, बैठकखाने
से पीछे के
कमरों में
पहुंच जाएगी।
क्योंकि उनका
भी प्रेम होगा
किसी से—और यह
उचित है ऐसा
ही हो।
आखिर
तुमने जब मेरी
तस्वीर अपने
घर में टांगी
है तो कोई
तस्वीर हटा दी
होगी। और जब
तुमने मुझे
चाहा है तो
कोई और चाह से
संबंध तोड़
लिया होगा। और
जब तुमने मुझे
प्रेम किया है
तो तुमने कुछ परंपरा
से आए हुए
प्रेम को
खंडित किया
होगा। तुम राम
को छोड़कर आए
होओगे मेरे
पास,
या कृष्ण को
छोड़कर आए
होओगे, या
बुद्ध को छोड़कर,
या महावीर
को छोड़कर आए
होओगे। तुमने
हिम्मत की है।
तुमने दाव
लगाया है।
तुमने महावीर
को मेरे लिए
दाव लगाया है।
तुमने कृष्ण
को मेरे लिए
दांव लगाया है।
तुमने
क्राइस्ट को
मेरे लिए दाव
लगाया है।
तुम्हारे
बच्चे अगर
समझदार होंगे
तो मुझे किसी
के लिए दाव
लगा देंगे—किसी
जिंदा, जीवित
सत्य को
चुनेंगे।
मरे
हुए लोग
मुर्दा
सत्यों को
चुनते हैं, क्योंकि
उनसे कुछ
हर्जा नही
होता, उनसे
कुछ लाभ भी
नहीं होता। वे
केवल
औपचारिकताएं
होती हैं।
सामाजिक
व्यवस्था का
अंग होता है।
बुद्ध
पुरुषों से
संप्रदाय
पैदा नहीं
होते, लेकिन बुद्ध
पुरुषों के
पीछे
संप्रदाय
वैसे ही आते हैं
जैसे आदमी के
पीछे छाया आती
है, और
बैलगाड़ी चलती
है तो चाक के
निशान रास्ते
पर छूट जाते
हैं। कोई
बैलगाड़ी
इसलिए ने चली
थी कि रास्ते
पर चाक के
निशान छूट
जाएं। कौन
बैलगाड़ी
इसलिए चलाता
है!
बुद्ध
पुरुष इसलिए न
बोले थे कि
संप्रदाय बन
जाएं। कौन
संप्रदाय
बनाने के लिए
बोलता है!
संक्राति के
लिए बोले थे
कि जो सुने, उसके
जीवन में क्रांति
हो जाए। लेकिन
थोड़े से लोग
ही इस लाभ को
ले पाते हैं—थोड़े
से
सौभाग्यशाली
लोग। फिर धूल
जमनी शुरू हो
जाती है। यह
स्वाभाविक
जीवन का क्रम
है।
'ऐसा
क्यों है कि
सभी बुद्ध
पुरुष बोध और
जागरण के
केंद्रीय
संपरिवर्तन
का उपदेश देते
हैं और उनके
स्थापित धर्म
आचरण और
कर्मकांड में
सिकुड़कर रह
जाते हैं?'
स्वाभाविक
है। जैसे
बच्चा पैदा
होता है, उसके
चेहरे पर
सलवटें नहीं
होतीं, सिकुड़न
नहीं होती, बुढ़ापे में
पड़ जाती हैं।
हर बच्चे की
यही गति होगी।
जब बुद्ध
पुरुष बोलते
हैं तो सत्य
होता है; जब
तुम सुनते हो,
सिद्धात बन
जाता है : जब
तुम अपने
बच्चों को देते
हो, संप्रदाय
हो जाता है।
बुद्ध पुरुष
सत्य बोलते
हैं अनुभव से,
तुम सुनते
हो। लेकिन कम
से कम बोलने
वाला सत्य है,
सुनने वाला
झूठ हो तो इस
संवाद में
थोड़ी सी सत्य
की किरण होती
है। वही किरण
तुम्हारे लिए
सिद्धात बन
जाती है।
सिद्धात
का अर्थ है :
तुमने नहीं
जाना, लेकिन
तुमने किसी
ऐसे आदमी को
जाना है, जिसने
जाना है। इतना
भरोसा
तुम्हें आ गया
है कि ठीक
होगा। तुमने
किसी ऐसे आदमी
को जाना है जो
गलत नहीं हो
सकता। तो तुम
सिद्धात
बनाते हो।
सत्य न रहा अब,
अब यह
श्रद्धा हो गई।
बुद्ध
पुरुष बोलते
हैं सत्य, जो
सुनते हैं
उनको श्रद्धा
होती है। फिर
उनके बच्चे, उनके लिए
सिर्फ
विश्वास होता
है, श्रद्धा
भी नहीं।
मानते हैं, मानना पड़ता
है; सदा से
चला आया, चलाना
पड़ता है, एक
उत्तरदायित्व
का बोध रहता
है कि बाप—दादे
इसी रास्ते पर
चले, अब
उनकी लकीर को
तोड़ना उचित
नहीं है। अब
जो नहीं हैं
जमीन पर, उनसे
बगावत भी क्या
करनी! अब जो वे
दे गए हैं, बिगड़ता
ही क्या है, उसे पूरा कर
दो। हर्जा भी
तो कुछ नहीं
है। लगता भी
तो कुछ नहीं
है।
लोग
किए चले जाते
हैं। धर्म
सिकुड़कर
संप्रदाय हो
जाता है।
धर्म
मुक्ति देता
है;
संप्रदाय
बांध लेता है।
धर्म मोक्ष
जैसा आकाश खोल
देता है धर्म
काल—कोठरियां
बन जाता है
जैसे ही
संप्रदाय
होता है।
संप्रदाय और
धर्म बिलकुल
विपरीत हैं।
इसलिए सजग
रहना, क्योंकि
वही फिर हो
सकता है—वही
होगा ही।
लेकिन कम से
कम तुम सजग
रहना। कम से
कम तुमसे न हो
यह पाप।
संप्रदाय
समाज का
हिस्सा है; धर्म
व्यक्ति की
क्रांति।
बुद्ध
पुरुष बोलते
हैं और तत्क्षण
नेतागण पकड़
लेते हैं। इसे
खयाल में रखना।
बुद्ध ने जो
बोला, वह
तत्क्षण
बुद्ध के
आसपास नेता
होने की
प्रवृत्ति के
जो लोग थे
उन्होंने पकड़
लिया।
उन्होंने
गिरोह बनाना
शुरू कर दिया।
उन्होंने
संगठन खड़ा
करना शुरू कर
दिया।
उन्होंने
शास्त्र
निर्मित करना
शुरू कर दिया।
उन्होंने
मंदिर बनाना
शुरू कर दिया।
कारवां
लग चुका है
रस्ते पर
फिर
कोई रहनुमा न
आ जाए
ध्यान
रखना, जब तुम
मंजिल के करीब
पहुंच रहे हो,
तब नेताओं
से बचना।
कारवां
लग चुका है
रस्ते पर
फिर
कोई रहनुमा न
आ जाए
फिर
कोई नेता न आ
जाए कि
तुम्हें
मार्ग बताने लगे।
बुद्ध
पुरुष
नेतृत्व नहीं
करते; बुद्ध
पुरुष आदेश भी
नहीं देते—बुद्ध
पुरुष सिर्फ
उपदेश देते
हैं। उपदेश का
अर्थ है : कह
दिया तुमसे; मान लो
मर्जी, न
मानो मर्जी।
कह दिया तुमसे;
फिर मत कहना
कि नहीं कहा
था। कह दिया
तुमसे; लेकिन
कोई
जबर्दस्ती
नहीं है कि
तुम्हें मानना
ही पड़ेगा।
आग्रह नहीं है।
जैसे
ही उपदेश में
आग्रह हो जाता
है,
उपदेश
भ्रष्ट हो
जाता है। सत्य
का कोई आग्रह
नहीं होता।
सत्याग्रह
जैसा झूठा कोई
शब्द नहीं है।
सत्य का तो
निवेदन होता
है, आग्रह
क्या होगा!
आदेश की तो
बात ही नहीं
है। धर्म कोई
सैन्य—प्रशिक्षण
नहीं है कि
आदेश हो। नेता
आदेश देते हैं
कि ऐसा करो।
बुद्ध पुरुष
कहते हैं कि
ऐसा हमें हुआ,
सुनो। करने
की बात ही
नहीं है, होने
की बात है।
और
इसलिए अगर कभी
तुम्हें कोई
जीवित गुरु
मिल जाए, तो उन
क्षणों को मत
चूकना।
मुर्दा
संप्रदायों
से तुम्हें
कुछ भी न मिलेगा।
मुर्दा
संप्रदाय ऐसे
हैं जैसे तुम
कभी—कभी फूलों
को किताब में
रख देते हो, सूख जाते
हैं, गंध
भी खो जाती है,
सिर्फ एक
याददाश्त रह
जाती है। फिर
कभी वर्षों
बाद किताब
खोलते हो, एक
सूखा फूल मिल
जाता है।
संप्रदाय
सूखे फूल हैं, शास्त्र
किताबों में
दबे हुए सूखे
फूल हैं। उनसे
न गंध आती है, न उनमें
जीवन का उत्सव
है, न उनसे
परमात्मा का
अब कोई संबंध
है। क्योंकि
उनकी कहीं
जड़ें नहीं अब,
पृथ्वी से
कहीं वे जुड़े
नहीं, आकाश
से जुड़े नही, सूर्य से
उनका कुछ अब
संवाद नहीं, सब तरफ से कट
गए, टूट गए,
अब तो
शास्त्र में
पड़े हैं। सूखे
फूल हैं।
अगर
तुम्हें
जिंदा फूल मिल
जाए तो सूखे
फूल के मोह को
छोडना। जानता
हूं मैं, अतीत
का बड़ा मोह
होता है।
जानता हूं मैं,
परंपरा में
बंधे रहने में
बड़ी सुविधा
होती है।
छोड़ने की
कठिनाई भी
मुझे पता है।
अड़चन बहुत है।
अराजकता आ
जाती है।
जिंदगी जमीन
खो देती है।
कहां खड़े हैं,
पता नहीं
चलता। अकेले
रह जाते हैं।
भीड़ का संग—साथ
नहीं रह जाता।
लेकिन
धर्म रास्ता
अकेले का है।
वह खोज तनहाई
की है। और
व्यक्ति ही
वहां तक
पहुंचता है, समाज
नहीं। अब तक
तुमने कभी
किसी समाज को
बुद्ध होते
देखा? किसी
भीड़ को तुमने
समाधिस्थ
होते देखा? व्यक्ति—व्यक्ति
पहुंचते हैं,
अकेले—अकेले
पहुंचते हैं।
परमात्मा से
तुम डेपुटेशन
लेकर न मिल
सकोगे, अकेला
ही
साक्षात्कार
करना होगा।
संगठित
धर्म—धर्म
नहीं रहा, समाज
का हिस्सा हो
गया; रीति—रिवाज
हो गया, क्रांति
नहीं। जीवंत
धर्म समाज का
हिस्सा नहीं
है; व्यक्ति
के भीतर की आग
है। इसलिए जो
दिल वाले हैं,
जिगर वाले
हैं, बस
उनकी ही बात
है।
हमें
दैरो—हरम के
तफरकों से काम
ही क्या है
मंदिर
और मस्जिद के
झगड़ों से मतलब
क्या है? संप्रदायों
के ऊहापोह से
प्रयोजन क्या
है? सिद्धांतों
की रस्साकशी
में पड़ने की
जरूरत क्या है?
हमें
दैरो—हरम के
तफरकों से काम
ही क्या है
सिखाया
है किसी ने
अजनबी बनकर
गुजर जाना
मंदिर
और मस्जिद से
अपने दामन को
बचाकर गुजर जाना; कहीं
उलझ मत बैठना
काटो में।
जहां भी
तुम्हें लगे
कि मुर्दा है,
लाश है, वह
कितने ही
प्यारे आदमी
की हो, इससे
क्या फर्क पड़ता
है। अपनी मां
मर जाती है तो
उसको भी दफना
आते हैं; प्यारी
थी, दफनाने
की बात ही
नहीं जंचती, बात ही कठोर
लगती है; इधर
मरी नहीं, वहां
अर्थी सजने
लगती है, चले
मरघट! रोते
जाते हैं, लेकिन
जाना तो पड़ता
है मरघट। आंसू
बहाते हैं, लेकिन आग तो
लगानी पड़ती है
चिता में।
ऐसी
ही समझ और ऐसी
ही हिम्मत
मुर्दा
धर्मों के साथ
भी होनी चाहिए।
जो मर गए, अब
उनसे कुछ होता
नहीं। कभी
उनसे हुआ था—मैं
यह नहीं कहता—कभी
उनसे बड़ी
क्रांति घटी
थी, अन्यथा
वे इतने दिन
जिंदा कैसे रह
जाते? मरकर
भी इतने दिन
तक जिंदा कैसे
रहते? लाश
को भी कोई
बचाता क्यों?
लाश बड़ी
प्यारी रही होगी
कभी, लाश
चलती रही होगी।
कभी इस लाश
में भी जीवन
रहा होगा। इन
आंखों में भी
दीए जलते
होंगे कभी।
कभी इन हृदयों
में भी धड़कन
रही होगी। कभी
इन ने भी
लोगों को छुआ
होगा, बदला
होगा। कभी
इनके कारण
लाखों लोग नए
जीवन को
उपलब्ध हुए
होंगे—सच, माना।
लेकिन
अब?
इसी मां ने
तुम्हें जन्म
दिया था, इसी
मा की तुम
अर्थी बांधकर
ले चले! थोड़ा
कठोर होना
पड़ता है। रोओ,
रोने से कुछ
मनाही नहीं है।
आंसू गिरेंगे,
स्वाभाविक
है। लेकिन यह
भूल मत करना
कि लाश को घर
में रखकर बैठ
जाओ, कि यह
मां की लाश है,
इसे कैसे
जला सकते हैं?
अगर मां की
लाश घर में रख
ली तो जो
जिंदा हैं, उनके लिए
रहना मुश्किल
हो जाएगा। और
अगर ऐसी लाशें
तुम इकट्ठी
करते चले गए
तो घर न होंगे,
मरघट होंगे।
थोड़ा
सोचो तो, जितने
लोग तुम्हारे
परिवार में मर
चुके हैं अब
तक, अगर
सबकी लाश बचा
ली गई होती, तुम्हें
रहने को जगह
होती घर में? घर की छोड़ो, जमीन पर जगह
होती? तुम
जहां बैठे हो,
वैज्ञानिक
कहते हैं, एक—एक
आदमी जहां
बैठा है, वहां
कम से कम दस
आदमियों की कब
बन चुकी है उस
जगह पर। अगर
सब मुर्दे बचा
लिए गए होते
तो जमीन पर
जिंदा
आदमियों को
रहने को जगह
होती? मुर्दे
ही सब जगह घेर
लेते। उनके
लिए भी जगह
काफी न होती।
जिंदा आदमी तो
पागल हो जाते।
जिंदा आदमी तो
सिर फोड़ लेते
आत्महत्या कर
लेते, खुदकुशी
कर लेते, जहर
खा लेते। इतने
मुर्दों के बीच
कैसे जीते? अच्छा हुआ
कि लोगों ने
लाशें इकट्ठी
नहीं कीं।
लेकिन
धर्म की
दुनिया में
ऐसा नहीं हो
पाया; लोग
लाशें इकट्ठी
कर लेते हैं।
फिर उन
मुर्दों के
कारण तुम जी
भी नहीं पाते।
तुम्हारे
मंदिर—मस्जिद
सिर्फ लड़वाते
हैं, पहुंचाते
कहां हैं? तुम्हारे
मंदिर—मस्जिद
तुम्हें
परमात्मा की
तरफ तो दूर, तुम्हें
आदमी तक भी
नहीं होने
देते।
हमें
दैरो—हरम के
तफरकों से काम
ही क्या है
सिखाया
है किसी ने
अजनबी बनकर
गुजर जाना
यही
मैं तुम्हें
सिखा रहा हूं।
मुर्दा लाशों
के पास से
सम्मानपूर्वक, श्रद्धा
के दो फूल
चढ़ाकर, लेकिन
अपने दामन को
बचाकर निकल
जाना। मुर्दा
लाशों से
ज्यादा नेह मत
लगाना, क्योंकि
मुर्दों को जो
ज्यादा प्रेम
करेगा, वह
खुद भी मुर्दा
हो जाएगा। हम
वही हो जाते
हैं जो हमारा
प्रेम है।
जीवंत
को खोजना, अगर
जीवन चाहते हो।
सदगुरु
को खोजना, अगर
जीवन चाहते हो।
लेकिन
लोग अजीब हैं।
लोग मुर्दों
पर ज्यादा
भरोसा रखते
हैं। उसका
कारण है, और
कारण यह है कि
मुर्दों के
साथ तुम जो
चाहो कर सकते
हो। जिंदा
सदगुरु के साथ
तुम जो चाहोगे
वह न कर सकोगे;
वह जो
चाहेगा वही
होगा। मरे
बुद्ध की अब
तुम जो चाहो
करो—पूजा चाहो
पूजा, न
पूजा करना हो
न पूजा, फोड़ना
हो फोड़ो, तोड़ना
हो तोड़ो।
बुद्ध की
प्रतिमा
तुम्हें रोक न
पाएगी।
देखो
जरा मजा, श्वेतांबर
जैन हैं।
महावीर
जिंदगी के परम
सत्य को नग्न
रहकर पाए।
उनको बेचैनी
है—श्वेतांबरों
को—उनके नग्न
होने से। और
जिंदा महावीर
को तो न पहना
पाए कपड़े, मरे
महावीर को
पहना देते हैं।
जिंदा महावीर
को तो आभूषण न
पहना पाए, मरे
महावीर को
पहना देते हैं।
जिंदा महावीर
ने तो सब छोड़
दिया, और
मरे की तुम जो
चाहो, तुम्हारे
हाथ में है, मजबूरी है, जो चाहो करो।
बुद्ध ने कहा
था, मेरी
मूर्तियां मत
बनाना। लेकिन
जितनी
मूर्तियां
बुद्ध की हैं
किसी और की
नहीं हैं। अब
तुम जो चाहो
करो, तुम्हारी
जैसी मर्जी।
एक—एक मंदिर
में दस—दस
हजार
मूर्तियां
हैं बुद्ध की।
पुजारी भी कम
पड़े जा रहे
हैं। दस हजार
मूर्तियां
हैं।
पूजा
कभी की बंद हो
चुकी, उपचार
रह गया है।
तीसरा
प्रश्न
कल
कहा गया कि
कोई किसी को
सुख या दुख
नहीं दे सकता
है, यदि
दूसरा लेने को
राजी न हो। और
यह भी कहा गया
कि यदि कोई
स्वयं आनंद को
उपलब्ध हो, तो उस आनंद
की वर्षा
अनायास
दूसरों पर हो
जाती है। आप
हमें
स्वार्थी
होने का लाभ
तो नहीं बता
रहे हैं?
बड़ी
देर हो गई है, अगर
तुम अब तक न
समझे।
स्वार्थी
होना ही सिखा
रहा हूं।
लेकिन जल्दी
मत कर लेना
समझने की, जो
मैने कहा। तुम
जिसे स्वार्थ
कहते हो, उसे
तो मैं
स्वार्थ नहीं
कहता। मैं
जिसे स्वार्थ
कहता हूं उसकी
तुम्हें खबर भी
नहीं है। तुम
जिसे परार्थ
कहते हो, उसे
तो मैं परार्थ
नहीं कहता।
मैं जिसे परार्थ
कहता हूं उसकी
तुम्हें कोई
भी खबर नहीं
है। इसलिए
तुम्हारे
भीतर का पूरा
इंतजाम बदलना
पड़ेगा। भाव ही
नहीं बदलने
पड़ेंगे, तुम्हारी
भाषा भी बदलनी
पडेगी।
क्योंकि
तुम्हारे
भावों ने
तुम्हारी
भाषा को भी
दूषित कर दिया
है।
स्वार्थ
शब्द बड़ा
प्यारा है, लेकिन
खराब हो गया
है। उसका अर्थ
होता है :
स्वयं के हित
में, स्वयं
के अर्थ में।
स्वार्थ को
आत्मार्थ कहो।
खोजी
आत्मार्थी है।
आत्मार्थ
कहते ही
तुम्हें अड़चन
नहीं होती; बिलकुल ठीक,
प्रसन्न
दिखाई पड़ते
हैं कि बात
बिलकुल ठीक है।
स्वार्थ कहते
ही अड़चन हो
जाती है। स्व
का अर्थ आत्मा
है।
लेकिन
तुमने अहंकार
को स्व समझा
है,
इसलिए अड़चन
हो रही है। अब
यह बड़ी उलझन
की बात है।
पहले तुम
अहंकार को स्व
समझ लिए, वहीं
भूल हो गई। वह
तुम्हारा स्व
नहीं, वह
तुम्हारी
आत्मा नहीं, वह तुम नहीं—वह
एक झूठ है, जो
तुमने ईजाद की
और समाज ने
तुम्हारी
ईजाद में
सहारा दिया।
क्योंकि समाज
चाहता है, तुम
सच्चे न होओ, झूठे होओ।
झूठों पर
हुकूमत करनी
आसान है।
सच्चे बगावती
होते हैं।
सत्य
विद्रोही है।
झूठ अनुगामी
हो जाता है।
झूठा
व्यक्तित्व
डरा रहता है।
तो
समाज के
ठेकेदार चाहते
हैं तुम झूठे
रहो। राजनेता
चाहते हैं तुम
झूठे रहो।
पंडित—पुरोहित
चाहते हैं तुम
झूठे रहो। तुम
जितने झूठे हो
उतना ही उनका
धंधा ठीक से चलता
है। तुम जितने
सच्चे हुए
उतना ही उनका
धंधा टूटने
लगता है।
सच्चे आदमी को
कहा जगह है
मंदिरों में? सच्चे
आदमी की कहां
गुंजाइश है
मस्जिदों में?
सच्चे आदमी
की कहीं भी तो
जगह नहीं।
जीसस
ने कहा है, लोमड़ियों
को भी जगह है
छिपा लेने को
सिर, मेरे
लिए नहीं।
अहंकार
झूठ है।
अहंकार का
अर्थ क्या
होता है? अहंकार
का अर्थ होता
है: मैं इस
समस्त
अस्तित्व से
अलग हूं अलग—
थलग हूं। मैं—मैं
हूं और यह
सारा संसार
मुझसे अलग है।
यह सारा
अस्तित्व अलग
है, मैं
अलग हूं। यह
अहंकार का
अर्थ है। यह
झूठ है। तुम
अलग नहीं हो, एक क्षण को
अलग नहीं हो।
श्वास से जुड़े
हो, सूरज
की किरणों से
जुड़े हो, भोजन
से जुड़े हो, सब तरफ से
जुड़े हो, चैतन्य
से भी जुड़े हो।
जैसे
रोज—रोज तुम
भोजन लेते हो
और शरीर जीता
है,
ऐसे रोज—रोज
तुम परमात्मा
भी पीते हो और
आत्मा जीती है,
अन्यथा
आत्मा भी न जी
सकेगी। जुड़े
हो, एक हो।
अहंकार भ्रम
है।
तो
पहले तो एक
भ्रम को मान
लिया कि
अहंकार है, एक
झूठ स्वीकार
कर लिया। अब
जब अहंकार मान
लिया तो
स्वार्थ बुरा
हो गया।
स्वार्थ बुरा
हो गया तो
तुम्हें
शिक्षक मिल जाते
हैं जो परार्थ
सिखाते हैं।
अब बुनियाद से
झूठ खड़ी हो गई।
बुनियाद में
अहंकार को मान
लिया, मैं
हूं। मैं मान
लिया तो अब
मैं के आधार
पर जितने काम
तुम करते हो, वे सब बुरे
मालूम पड़ते
हैं। क्योंकि
मैं झूठ है, झूठ के
सहारे जो भी
होगा पाप होगा।
तो स्वार्थ
बुरा हो गया।
अब जब स्वार्थ
बुरा हो गया
तो इलाज क्या
करें? बीमारी
पकड़ गई तो
औषधि चाहिए, तो परार्थ
करो।
लेकिन
मजा यह है, बुनियाद
को ही हम
क्यों न बदल
डालें? गलत
बुनियाद पर क्यों
यह मकान खड़ा
करें? बुनियाद
झूठ, फिर
पहली मंजिल
खड़ी होती है
स्वार्थ की, उसके ऊपर
परार्थ की
दूसरी मंजिल
खड़ी होती है।
तुम्हारा
स्वार्थ भी
झूठा, तुम्हारा
परार्थ भी
झूठा, क्योंकि
तुम झूठे हो।
मैं
तुम्हें
स्वार्थ
सिखाता हूं।
क्योंकि मैं
जानता हूं, तुम्हारे
परम स्वार्थ
में ही परार्थ
संभव है, अन्यथा
नहीं। मैं
तुमसे कहता
हूं? तुम
अपने आनंद को
पा लो।
क्योंकि वही
एकमात्र राह
है कि दूसरों
के ऊपर
तुम्हारा
आनंद बरस सके
और उन्हें मिल
सके। अपने
भीतर का दीया
जला लो तो
दूसरों को भी
तुम्हारी
रोशनी दिखाई
पड़ने लगे
तुम्हारे दीए
की रोशनी में
कोई दूसरा भी
राह खोज ले सकता
है।
यही
तो सत्संग का
अर्थ है। किसी
और के दीए की
रोशनी में तुम
राह खोजते हो—राह
है कि
तुम्हारा
अपना दीया भी
तुम जला लो।
जो शाति को
उपलब्ध है, उसके
आसपास शाति
बरसती है। जो
परमात्मा को
उपलब्ध है, उसके आसपास परमात्मा
परिक्रमा
करता है।
परमात्मा को
उपलब्ध
व्यक्ति के
पास पहुंचकर तुम्हें
भी परमात्मा
की पगध्वनियां
सुनाई पड़ने
लगेंगी, तुम्हें
भी स्पर्श
होने लगेगा
किसी अनूठी घटना
का, तुम भी
अपने को किसी
और ही बहाव
में बहता हुआ
पाओगे।
सत्संग
का अर्थ है
ऐसा व्यक्ति, जो
सत्य को पा
गया है। तुम
उसकी लहर का
लाभ ले लेना, अपना पाल
खोल देना, उसकी
हवा आए, तुम्हें
भी ले जाए।
नदी
में या तो
पतवार चलाओ या
पाल खोल दो।
अहंकार पतवार
चलाता है, पाल
नहीं खोलता।
अहंकार अपनी
ही चेष्टा
करता है, परमात्मा
को कुछ नहीं
करने देता।
सत्संग
का अर्थ है :
रखो पतवार अलग, बहुत
खेली, कितने
जन्मों से देख
रहे हो, पहुंचे
कहां? किनारे
से दूर भी
नहीं गए हो, खूटियां
किनारे पर ही
गड़ी हैं। नाव
जंजीरों से
बंधी है और
तुम पतवारें
चला रहे हो? नाहक मेहनत
कर रहे हो, व्यर्थ
पसीना—पसीना
हुए जा रहे हो।
कितने जन्म
गंवा दिए।
छोड़ो, पाल
खोलो। हवाओं
का रुख पहचानो।
अगर पूरब जाना
है तो देखो, कब हवाएं
पूरब जा रही
हैं, तब
पाल खोल दो और
हवाओं पर सवार
हो जाओ।
जब
तुम किसी
परमात्मा को
उपलब्ध
व्यक्ति के पास
पहुंचते हो, अपने
पाल खोल दो।
वह आदमी
परमात्मा की
तरफ जा ही रहा
है, जा ही
रहा है, जा
ही रहा है—तुम
भी सवार हो
जाओ। तुम भी
थोड़ी देर उसकी
रौ में बह लो।
तुम भी थोड़ा
स्वाद ले लो।
माना, दीया
उसका है—उसकी
रोशनी में तुम
भी अपने
अंधेरे
रास्ते को थोड़ा
रोशन कर लो।
स्वार्थ
सिखाता हूं? क्योंकि
तुम अगर हो
जाओ, तुम
अगर आनंदित
होओ, शात
होओ, प्रफुल्ल
होओ, तुम्हारे
जीवन में फूल
खिलें—दूसरों
को गंध भी
मिलेगी। अगर
वे न लेना
चाहें, बात
अलग। क्योंकि
फूल के पास से
भी तुम अपनी
नाक रूमाल से
बंद करके गुजर
जा सकते हो, इसमें फूल
बेचारा क्या
करे! सूरज
नाचता हो चारों
तरफ, तुम
आख बंद करके
बैठे रह सकते
हो, इसमें
सूरज बेचारा
क्या करे! यह
तुम्हारी मर्जी।
लेकिन
मैंने एक ही
बात जानी है
अब तक : उन्हीं
से परार्थ हुआ
है,
जिन्होंने
पहले स्वार्थ
साध लिया है।
और यह बात ठीक
है, गणित
की है, साफ
है। क्योंकि
जो अपना ही
नहीं हुआ अभी,
वह दूसरे का
क्या हित कर
सकेगा? जिसने
अपना हित न
साधा, वह
दूसरे का क्या
हित कर सकेगा?
तुम अपने
बुझे दीए लेकर
दूसरों के दीए
जलाने मत निकल
पड़ना। खतरा यह
है कि दीया तो
तुम जला ही न
सकोगे—कैसे
जलाओगे, तुम्हारा
ही बुझा है—खतरा
यह है कि कहीं
तुम दूसरों के
दीयों के जलने
की संभावना
में बाधा न बन
जाओ।
तुम्हारी
अनुकंपा होगी,
मत जाना
दूसरों के पास।
मैं
तुम्हें सेवा
नहीं सिखाता, मैं
तुम्हें
स्वार्थ
सिखाता हूं।
यद्यपि मैं
जानता हूं कि
जब तुम्हारा
स्वार्थ पूरा
होगा, तुम्हारे
जीवन में सेवा
आ जाएगी। सेवा
परिणाम है।
साधारणत:
तुम्हें उलटी
बात सिखाई जा
रही है। लोग
कहते हैं, सेवा
करो तो तुम
अपने को पा
लोगे। मैं
तुमसे कहता
हूं अपने को
पा लो तो सेवा
हो सकेगी। तुम
सेवा करोगे
कैसे? तुम्हारे
पास है क्या
जो तुम देने
जाओगे? तुम
अपना जहर ही
दूसरों की
जिंदगी में मत
डाल आना।
और
यही हो रहा है।
पति कहता है, मैं
पत्नी को
प्रेम करता
हूं, उसका
सुख चाहता हूं।
लेकिन पत्नी
से पूछो, वह
कहती है, यह
आदमी दुख दे
रहा है। पत्नी
सोचती है, मैं
पति को सुख दे
रही हूं सारा
इंतजाम सुख देने
का कर रही हूं
चौबीस घंटे उसी
की सेवा में
रत हूं। पति
से पूछो कि
पत्नी से सुख
मिल रहा है? वह कह रहा है
कि अकेले थे
तब सुखी थे, मगर यह बड़ी
देर से पता
चला। अब फिर
अकेले होना
चाहते हैं।
लेकिन अब बड़ा
मुश्किल है; पत्नी है, बच्चे हैं, उत्तरदायित्व
है।
तुम्हें
अपने अकेले
होने का सुख
तभी पता चलता
है,
जब दूसरा
बंध जाता है
और दुख शुरू
हो जाता है।
मां—बाप कहते
हैं, हम
बच्चों के सुख
के लिए सब कर
रहे हैं।
बच्चों से भी
तो पूछो!
बच्चे कहते
हैं, ये
दुष्ट हैं, ये सता रहे
हैं, स्वतंत्रता
नष्ट कर रहे
हैं, अपने
को हमारे ऊपर
जबर्दस्ती
थोप रहे हैं।
मा बैठी है, बच्चे को
टेबल पर खाना
खिला रही है। आंसू
बह रहे हैं
बच्चे के, वह
खाना नहीं
चाहता, मां
डंडा लिए बैठी
है। ठूंस रहा
है बच्चा किसी
तरह। और देखो
उसके आंसू बह
रहे हैं। और
मां उस पर
कृपा कर रही
है, सेवा
कर रही है।
बच्चे से पूछो।
बच्चे कहते
हैं, कितनी
जल्दी बड़े हो
जाएं, बस!
ताकि यह झंझट
मिटे।
एक
मां अपने छोटे
लड़के को पालक
की सब्जी खाने
के लिए
जबर्दस्ती कर
रही थी। अब
पालक! उसे
समझा रही थी, इससे
ताकत आएगी, शक्ति बढ़ेगी।
बच्चा रो रहा
है। उसने कहा,
अच्छा खाए
लेता हूं!
लेकिन इसीलिए
खा रहा हूं कि
शक्ति बढ़ जाए,
ताकि मुझे
फिर कोई पालक
न खिला सके।
तुम
थोपे जा रहे
हो। तुम्हारी —सेवा
से यह संसार
बना है—इतना
कुरूप, इतना
वीभत्स, इतना
रुग्ण। और सब
एक—दूसरे की
सेवा कर रहे
हैं, सब एक—दूसरे
को प्रेम कर
रहे हैं, करुणा
बरस रही है।
और परिणाम
क्या है?
कहीं
कुछ भूल हो रही
है। कहीं कोई
बड़ी बुनियादी
भूल हो रही है।
और वह भूल यह
है कि तुम्हें
खुद जीवन का
कोई रस नहीं
आया और तुम
दूसरे को रस
देने की कोशिश
कर रहे हो।
तुम्हें खुद
तरीका नहीं
आया जीवन का, तुम्हारे
खुद ढंग—ढौल
रास्ते पर
नहीं हैं।
तुम्हारे मां—बाप
ने तुम्हें
बिगाड़ा सेवा
करके, तुम
अपने बच्चों
को बिगाड़ रहे
हो सेवा करके।
नेताओं
से पूछो, वे
कहते हैं कि
देश को हम आगे
ले जाने के
लिए प्राण
लगाए हुए हैं।
जनता से पूछो,
वे कहते हैं,
ये सब
शरारती हैं, सब चालबाज
हैं, सब
बेईमान हैं।
कोई निकसन
पकड़ा गया, कोई
नहीं पकड़ा गया,
बाकी हैं सब
एक से। नेता
जान गंवाए दे
रहा है और वह
सोच रहा है कि
शहीद हुआ जा
रहा है। जनता
कहती है, तुम
शहीद हो ही
जाओ, फिर
हम तुम्हारे
मजार पर मेले
भरेंगे, मगर
तुम शहीद तो
हो जाओ! किसी
तरह हमारी
गर्दन से नीचे
उतरो। बहुत
छाती पर बैठ
लिए, हटो!
इसलिए जैसे ही
कोई नेता
गद्दी से नीचे
उतरा, जनता
बिलकुल भूल
जाती है। याद
ही नहीं आती, अखबारों से
नाम खो जाता
है, लोगों
की जबान से
नाम खो जाता
है, लोग
बिलकुल भूल
जाते हैं।
माजरा क्या है?
मामला क्या
है?
मैंने
सुना है, एक
ईसाई पादरी ने
रविवार की
धर्मकक्षा
में अपने
बच्चों को समझाया
कि कम से कम एक
सेवा का काम
रोज करना
चाहिए। दूसरी
बार उसने पूछा,
तीन लड़कों
ने हाथ हिलाया
कि हमने सेवा
का काम किया, आज ही किया।
वह बहुत खुश
हुआ। उसने
पहले से पूछा,
क्या सेवा
का काम किया? उसने कहा कि
एक की स्त्री
को रास्ता पार
करवाया। इस
तरफ से उस तरफ
जाना था, ट्रेफिक
भारी था, कारें
दौड़ रहीं, बसें
दौड़ रहीं, साइकिलें!
बुढ़िया काफी
की थी, उसको
पार करवाया।
पादरी
ने कहा, परमात्मा
इसका फल देगा,
मैं खुश हूं।
दूसरे से पूछा
कि तूने क्या
किया? उसने
कहा, मैंने
भी बुढ़िया को
रास्ते के पार
करवाया। थोड़ा
पादरी चिंतित
हुआ, इतनी
बुढ़ियाएं
एकदम कहां से
आ गयीं! तीसरे
से पूछा, उसने
कहा कि मैंने
भी बुढ़िया को
रास्ते के पार
करवाया। उसने
कहा, तुम
सबको इतनी
बुढ़ियाएं मिल
गयीं? आज
ही? उन्होंने
कहा, बुढ़िया
तो एक ही थी, हम तीनों को
करवाना पड़ा, क्योंकि वह
उस तरफ जाना
ही न चाहती थी।
मगर करवा दिया
पार!
तुम्हारे
सेवक, तुम पैर
नहीं भी
दबवाना चाहते,
तो दबाए जा
रहे हैं।
मेरे
साथ ऐसा बहुत
बार हुआ। एक
बार एक भक्त
रात को दो बजे—मैं
ट्रेन से सफर
कर रहा था—रात
को दो बजे
डब्बे में चढ़
आया। उसने
मेरे पैर
दबाने शुरू कर
दिए। अचानक
मेरी नींद
खुली। मैंने
पूछा, भाई कौन
हो? क्या
कर रहे हो? उसने
कहा कि आप सोए
रहें निश्चित,
मैं तो सेवा
कर रहा हूं।
कई दिन से
इच्छा रही है,
लेकिन आपके
भक्तगण भीतर
घुसने ही नहीं
देते। तो
मैंने कहा, ठीक है देख
लेंगे, सेवा
तो करके ही
रहेंगे। आप तो
सोए, मैं
पैर दबाऊंगा।
मैंने
कहा,
महाजन! मैं
सोऊंगा कैसे,
तू इतने जोर
से पैर दबा
रहा है? तुझे
मेरी फिक्र
नहीं है कि दो
बजे रात सोए
आदमी को उठा
दिया।
मगर
एक घंटा उसने
मेरा पीछा न
छोड़ा। एक घंटा
जब तक गाडी उस
स्टेशन पर खड़ी
रही—जंक्यान
था और वहां एक
घंटा गाड़ी
रुकती है—और
वह एक घंटा
पैर दबाता ही
रहा। वह बड़ा
प्रसन्न है, उसने
सेवा की। वह
सोच रहा है, उसने पुण्य
कमाया। अगर
परमात्मा के
सामने मेरा
उससे मुकाबला
हुआ तो मैं न
कह सकूंगा, इसने पुण्य
कमाया। मेरे
हिसाब में तो
इसने पाप
कमाया। मगर
मेरी कौन
सुनता है!
सेवक कहीं
किसी की सुनते
हैं! सब किए जा
रहे हैं सेवा।
तुम्हारी
सेवा से युद्ध
पैदा हो रहे
हैं।
तुम्हारी
सेवा से
राष्ट्र बनते
हैं,
मूढ़ताएं
पैदा होती हैं,
राजनीति
खड़ी होती है, हजार तरह के
जाल रचते हैं—और
सब सेवा कर
रहे है!
तुम्हारी सेवा
कहीं
बुनियादी रूप
में भूल— भरी
मालूम पड़ती है।
मैं
तुम्हें सेवा
नहीं सिखाता, मैं
तुम्हें
स्वार्थ
सिखाता हूं।
ही, तुम्हारे
स्वार्थ की जब
पूर्णता आ
जाएगी तब तुम्हारे
जीवन में एक
सेवा होगी।
लेकिन वह सेवा
बड़ी और होगी।
वह बड़ी सौम्य
होगी, प्रेम
से जगेगी। और ध्यान
दूसरे पर होगा,
ध्यान अपने
पर न होगा।
अगर बच्चा
भोजन नहीं कर
रहा है, तो
छोड़ दो उसे
उसकी मर्जी पर।
प्रकृति ने
खुद ही इंतजाम
किया है, भूख
लगेगी और वह
भोजन कर लेगा।
तुम भूख के
बिना भोजन मत
थोपो।
अगर
तुम प्रेम
करते हो पत्नी
को तो मुक्ति
दो,
बांधो मत।
अगर पत्नी
चाहती है कि
पति प्रसन्न
हो, आनंदित
हो, तो
बांधों मत, मुक्त करो।
ईर्ष्या के
घेरे मत खड़े
करो। जेलखाना
मत बनाओ घर को।
नहीं तो जिनको
हम घर कहते
हैं, सभी
जेलखाने हो गए
हैं।
तुम्हारा
स्वार्थ पूरा
हो जाए—और
मेरा अर्थ है
स्वार्थ का कि
तुम परमात्मा
को पा लो—फिर
सब अपने से हो
जाएगा। पहले
बुनियादी चीज
हो जाए।
तू
चिरागे—बज्मे—उल्फत
को बुझाकर
शाद है
प्रेम
के दीए को
बुझाकर तुम
सोच रहे हो कि
तुम प्रसन्न
हो।
तू
चिरागे—बज्मे—उल्फत
को बुझाकर
शाद है
दौलते—यजदा
को मिट्टी में
मिलाकर शाद है
और
ईश्वरीय
संपदा को
मिट्टी में
मिलाकर तुम
सोचते हो, तुम
प्रसन्न हो?
क्या
न फूटेगी तेरे
दिल में सदाकत
की किरन
क्या
कभी तुझे होश
न आएगा? क्या
सत्य की किरण
तेरे जीवन में
कभी न फूटेगी?
क्या तू
अपने को झूठ
और धोखे दिए
ही चला जाएगा?
तू
चिरागे—बज्मे—उल्फत
को बुझाकर
शाद है
दौलते—यजदा
को मिट्टी में
मिलाकर शाद है
क्या
न फूटेगी तेरे
दिल में सदाकत
की किरन
क्या
साधुता का कभी
जन्म न होगा?
दर्दे—दिल
ही जन्नते—गुमगश्ता
है पहचान ले
प्रेम
और प्रेम से
जो पीड़ा पैदा
होती है—दर्दे—दिल
ही जन्नते—गुमगश्ता
है—वही
एकमात्र
स्वर्ग है जो
प्रेम की पीड़ा
से पैदा होता
है। और कोई
स्वर्ग नहीं
है।
दर्दे—दिल
ही जन्नते—गुमगश्ता
है पहचान ले
है
मुहब्बत ही हयाते—सरमदी
पहचान ले
प्रेम
ही सत्य का
द्वार है।
है
मुहब्बत ही हयाते—सरमदी
पहचान ले
वही
सत्य का जीवन
है।
तू
अगर मेरा नहीं
बनता न बन अपना
तो बन
मैं
स्वार्थ
सिखाता हूं।
तू
अगर मेरा नहीं
बनता न बन
अपना तो बन
अपना
तू बन जाए तो
सबका हो गया।
जितना
तुम भीतर
जाओगे और अपने
को पाओगे, उतना
ही प्रेम
तुम्हारे
जीवन में आएगा।
और वह प्रेम
भी ऐसा प्रेम
कि किसी के
ऊपर आक्रामक न
होगा। वह
प्रेम भी ऐसा
प्रेम कि तुम
बांटोगे, थोपोगे
नहीं। उस
प्रेम में
हिंसा न होगी।
वह प्रेम ऐसा
नाजुक होगा
जैसे फूल की
सुगंध, सुबह
की पहली किरण!
उसके पदचाप भी
कहीं सुने न जाएंगे।
जिन्होंने
स्वयं को
जानकर सेवा की
है,
उन्होंने
कहीं घोषणा
नहीं की कि हम
सेवक हैं। जो
भी घोषणा सेवक
होने की करता
है, सेवा
का उसे पता ही
नहीं है। वह
सेवा से भी
कुछ अहंकार ही
खोज रहा है।
सेवकों
के अहंकार बड़े
प्रगाढ़ होते
हैं। उनको जरा
गौर से देखो, तुम
उन्हें महान
अहंकारी
पाओगे। और
जहां अहंकार
है, वहा
कैसी सेवा? वहां सेवा
भी शोषण है।
वहा वह भी
तरकीब है अपने
अहंकार के
शिखर को ऊंचा
करने की, अहंकार
की पताकाएं
फहराने की।
तू
अगर मेरा नहीं
बनता न बन
अपना तो बन
आखिरी
प्रश्न :
कल
आपने समझाया
कि पुण्य
अर्थात जो
आनंदित करे, मुक्त
करे! तो फिर इस
कथन का क्या
अर्थ है कि पाप
से तो मुक्त
होना ही है, पुण्य से भी
मुक्त होना है?
निश्चित
ही पाप से तो
मुक्त होना
है। मैंने कहा,
पाप वह, जो
बाहर ले जाये।
मैंने कहां
पूण्य जो
भीतर ले जाये।
लेकिन बाहर से
तो मुक्त
होना ही है, भीतर से भी
मुक्त होना है।
पहले बाहर से
मुक्त हो लो, तब तत्क्षण
तुम पाओगे कि जिसे
हमने भीतर कहा
था, वह
बाहर की तुलना
में भीतर था।
जैसे ही बाहर
से तुम मुक्त
हुए, वैसे
ही तुम पाओगे
कि अब तक जो
भीतर मालूम
पड़ता था, अब
वह भी बाहर
मालूम पड़ता है।
क्योंकि
तुम्हारी
तुलना में तो
वह भी बाहर है।
तुम तो वहा हो
जहां बाहर भी
नहीं है और
भीतर भी नहीं
है—तुम तो
साक्षी—मात्र
हो।
दुख
से तो मुक्त
होना ही है, सुख
से भी मुक्त
होना है। दुख
तो बांधता ही
है, सुख भी
बाध लेता है।
इसलिए सिर्फ
हमारे मुल्क
में तीन शब्द
हैं, सारे
संसार में
कहीं नहीं हैं,
क्योंकि
इतनी गहरी
किसी ने कभी
खोज नहीं की
स्वर्ग है, नरक है, मोक्ष
है। ईसाइयत के
पास दो शब्द
हैं स्वर्ग और
नरक। इस्लाम
के पास दो
शब्द हैं
स्वर्ग और नरक।
सिर्फ इस देश
में हमारे पास
तीन शब्द हैं
स्वर्ग, नरक
और मोक्ष। नरक
यानी पाप, पाप
का फल, पाप
की सघनता।
स्वर्ग यानी
पुण्य, पुण्य
का फल, पुण्य
की सघनता।
मोक्ष—दोनों
के पार।
जिसने
दुख छोड़े, एक
दिन पाता है
कि सुख भी छोड़
देने योग्य है।
क्योंकि सुख
में भी
उत्तेजना है।
और जब तक सुख
है तब तक किसी
न किसी तरह
दुख भी कहीं
छिपा हुआ कोने—कातर
में बना ही
रहेगा, नहीं
तो सुख का पता
कैसे चलेगा? तुम्हें
आनंद का भी
पता इसीलिए
चलेगा, क्योंकि
तुमने बहुत
दिन तक आनंदरहितता
का अनुभव किया
था। आनंद को
भी छोड़ जाना
है। जाना है, पहुंचना है
वहां, जहां
कोई अनुभव न
रह जाए—क्योंकि
सभी अनुभव
बांधते हैं—जहां
तुम शुद्ध
चैतन्य रह जाओ
: कैवल्य, मोक्ष,
निर्वाण।
निश्चित
ही,
आनंद से भी
तसल्ली न होगी।
किसी
सूरत किसी
उन्यां से
तलाफी न हुई
किस
कदर तल्स
हकीकत है न
मिलना तेरा
दुख
से तो होगी ही
नहीं तृप्ति, किसकी
होती है? सुख
से भी नहीं
होती! जब तक कि
सत्य ही न मिल
जाए, परमात्मा
ही न मिल जाए, जब तक कि तुम
परमात्मा ही न
हो जाओ...।
किसी
सूरत किसी
उन्वां से
तलाफी न हुई
किस
कदर तल्ख
हकीकत है न
मिलना तेरा
न
मिलना
परमात्मा का, सत्य
का, आत्मा
का—कोई भी नाम
दो—बडी कठिन
वास्तविकता
है। कुछ भी और
तुम पालो, पाते
ही पाओगे, मंजिल
आगे सरक गई।
दुख छोड़ो, सुख
पा लो; बाहर
जाना छोड़ो, भीतर आना
शुरू कर दो; बाहर जाने
की बजाय भीतर
आना बेहतर; दुख की बजाय
सुख बेहतर—लेकिन
वह तुलना दुख
से है, स्वयं
से नहीं।
स्वयं तो तुम
वही हो जहां न
कोई दुख उठता
है, न कोई
सुख। तुम
सिर्फ बोध
मात्र हो।
कभी
सफेद बादल
घिरते आकाश
में,
कभी काले
बादल—आकाश
दोनों से अलग
है। कभी लोहे
की जंजीरें
पहनते तुम, कभी सोने
कीं—तुम दोनों
जंजीरों से
अलग हो। कभी
फूलों से
खेलते, कभी
कीटों से—तुम
दोनों से अलग
हो। रात आती, सुबह आती—तुम
दोनों से अलग
हो।
यह
तुम्हारा जो
पार होना है!
प्रत्येक
अनुभव से तुम
अलग होओगे ही, क्योंकि
अनुभव के भी
तुम द्रष्टा
हो। जब तुम
कहते हो, बड़ा
आनंद, तब
गौर से देखो :
तुम अलग खड़े
देख रहो कि
आनंद है। आनंद
से तुम अलग हो।
पर
पहले बाहर से
तो भीतर आओ, फिर
भीतर से भी
छुड़ा लेंगे।
आखिर में जब
कुछ न बचे, आखिर
में जब बस तुम
ही बचो, तुम्हारा
शुद्ध होना
बचे——तो
बुद्धत्व।
धर्म
कोई अनुभव
नहीं, धर्म
अनुभव—अतीत है।
thank you guruji
जवाब देंहटाएं