अप्पमादो अमतपदं पमादो मच्चुनो
पदं।
अप्पमत्ता
न मीयंति
ये पमत्ता
यथा मता।।18।।
एतं विसेसतो भ्त्वा अप्पमादम्हि
पंडिता।
अप्पमादे पमोदंति अरियानं गोचरे
रता।।19।।
ते झायिनो साततिका निच्चं दल्ह-परक्कमा।
फुसंति
धीरा निब्बानं
योगक्खेमं
अनुत्तरं।।20।।
उट्ठानवतो सतिमतो सुचिकम्मस्स
निसम्मकारिनो।
सग्भ्तस्स
च धम्मजीविनो
अप्पमत्तस्स
यसोभिङ्ढति।।21।।
उट्ठानेनप्पमादेन सग्भ्मेन दमेन च।
पमादमनुग्भ्न्ति
बाला दुम्मेधिनो
जना।
अप्पमादग्च
मेधावी धनं
सेट्ठं' व रक्खति।।23।।
जफर
ने गाया है--
उम्रे-दराज
मांगकर
लाए थे चार
दिन
दो
आरजू में कट
गए दो इंतजार
में
ऐसी ही
कहानी है आदमी
की। जिंदगी
में कुछ हाथ आता
नहीं। आशाएं
बहुत हैं, सपने बहुत
हैं। लेकिन
हाथ में सिर्फ
राख ही लगती
है। आशाओं
की, सपनों
की धूल ही
लगती है। और
जाते समय जफर
के शब्द
अधिकांशतः
सभी के लिए
सही सिद्ध
होते हैं। चार
दिन मिले थे
जिंदगी के, दो आकांक्षाओं
में बीत गए, दो उनकी
पूर्ति की
प्रतीक्षा
में। न तो कभी
कुछ पूरा होता
है, न कहीं पहुंचते
हैं। जीवन ऐसे
ही बीत जाता
है--व्यर्थता
में, असार
में।
जिसे
जीवन की यह
व्यर्थता दिखायी
पड़ी, वही
संन्यस्त
हुआ। जिसे
संसार की यह
दौड़ सिर्फ दौड़
मालूम
पड़ी--अर्थहीन,
कहीं ले
जाने वाली
नहीं--जिसे
जीवन सिवाय
मृत्यु के
मुंह में जाने
के और कुछ न दिखायी
पड़ा, वही
जागा, उसी
ने होश को सम्हाला,
उसी ने नींद
से बाहर
निकलने की
चेष्टा की।
अगर तुम्हें
अभी भरोसा है
कि तुम्हारे
सपने पूरे हो
जाएंगे, तो
तुम जागना न चाहोगे।
जिसके मन में
भी सपनों का
जाल है, वह
जागना न चाहेगा।
क्योंकि जागने
पर तो सपने
टूट ही जाते
हैं। सपनों के
लिए नींद चाहिए।
अप्रमाद
चाहिए जीवन के
लिए, प्रमाद
चाहिए नींद के
लिए। अप्रमाद
का अर्थ है
होश। वह बुद्ध
और महावीर का
शब्द है। और
प्रमाद का
अर्थ है
सुस्ती, तंद्रा,
नींद। अगर
तुम्हारे मन
में कोई भी
वासना है, तो
प्रमाद चाहिए
ही। तब तुम अप्रमत्त
होने की
चेष्टा न कर सकोगे, क्योंकि
वह तो विपरीत
होगा। कोई
मधुर सपना देखता
हो और तुम उसे जगाने जाओ,
पीड़ा मालूम
होती है। तुम
दुश्मन जैसे
मालूम पड़ोगे।
इसीलिए बुद्धपुरुष
सांसारिक
व्यक्तियों
को शत्रु जैसे
मालूम पड़ते
हैं। मधुर
नींद ले रहे
थे, अपने
सपनों में खोए
थे--सपने
स्वर्णिम भी
हो सकते हैं, सोने के
महलों के हो
सकते हैं, लेकिन
सपना सपना
है। मिट्टी का
घर हो कि सोने
का महल हो, जागकर
दोनों ही
समाप्त हो
जाते हैं।
जागते ही
दोनों टूट
जाते हैं।
बुद्धपुरुषों
की सारी
चेष्टा यही है
कि तुम कैसे
सपने के बाहर
जाग जाओ। तो
ही तुम जीवन
के वास्तविक
रूप को जान सकोगे, तो ही तुम उस
जीवन को जान सकोगे
जिसकी कोई
मृत्यु नहीं
है। अभी तो
जिसे तुमने
जीवन समझा है,
वह मान्यता
है। वह जीवन
नहीं है। इसे
कौन जीवन कहेगा
जो आज है और कल
नहीं हो जाएगा?
पानी का
बबूला है, बुद्ध
ने कहा; भोर
का तारा है, बुद्ध ने
कहा; अभी
है, अभी
गया। घास के
पत्ते पर टिकी
शबनम की बूंद
है, बुद्ध
ने कहा। कब
गिर जाएगी, कोई भी नहीं
जानता।
ऐसे
जीवन पर भरोसा
कर लेता है
आदमी! नींद
बड़ी गहरी होनी
चाहिए, बेहोशी
महान होनी
चाहिए। और रोज
तुम देखते हो कोई
बूंद गिरी, रोज तुम
देखते हो कोई
तारा डूबा, रोज तुम
देखते हो कोई
बबूला फूटा और
खो गया हवा
में। तुम दो आंसू
भी बहा लेते
हो किसी की
मृत्यु पर, सहानुभूति
भी प्रगट कर
आते हो; लेकिन
तुम्हें यह
बोध नहीं आता
कि यह मृत्यु
तुम्हारी
मृत्यु की भी
खबर है। तुम
मरघट भी हो आते
हो और फिर
वैसे के वैसे
संसार में
वापस लौट आते
हो। नींद बड़ी
गहरी होगी।
मरघट भी नहीं
तोड़ पाता। निकटतम
प्रियजन मर
जाता है तो भी
तुम जो मर गया
उसके लिए रो
लेते हो, लेकिन
तुम्हें यह
होश नहीं आता
कि तुम्हारी मौत
भी करीब आयी
चली जाती है।
आज कोई मरा है,
कल तुम भी मरोगे।
लोग इस विचार
से बचते हैं, लोग इस
विचार से डरते
हैं।
और
पश्चिम के
मनोवैज्ञानिक
तो कहते हैं
कि जो व्यक्ति
सोचता है
मृत्यु के
संबंध में, वह रुग्ण
है। वह रुग्ण
इसलिए है कि
अगर ऐसा वह सोचेगा
तो जी न
सकेगा। उनकी
बात भी ठीक
है। अगर यही
जीवन जीवन
है, तो
मृत्यु के
संबंध में
बहुत सोचना
खतरनाक है।
क्योंकि जैसे
ही तुम मृत्यु
के संबंध में
बहुत सोचोगे,
तुम्हारे
पैर रुक
जाएंगे। जाती
यात्रा पर तुम
सहम जाओगे।
महत्वाकांक्षा
के लिए उड़ने
की तैयारी कर
रहे थे, पंख
गिर जाएंगे।
मनोवैज्ञानिक
कहते हैं, मृत्यु के
संबंध में
बहुत सोचना
रुग्णता है। अगर
यही जीवन जीवन
है, तो वे ठीक
कहते हैं।
लेकिन उन्हें
पता नहीं कि
यह जीवन तो
जीवन नहीं है।
जीवन तो इस
तंद्रा के पार
है। इस बेहोशी
के बाहर है।
लेकिन हम इस
बेहोशी को खूब
सम्हालकर
चलते हैं। हम
कहीं से भी
इसे टूटने
नहीं देते।
बहुत मौके
भी आ जाते हैं टूटने के, तो भी हम सम्हाल-सम्हाल
लेते हैं। फिर
करवट ले लेते
हैं, फिर
सो जाते हैं।
एक
सपना टूटा
नहीं कि उसके
पहले ही हम
दूसरे सपने के
बीज बो देते
हैं। एक आशा मिटी नहीं
कि हम दूसरी
आशा के सहारे टंग जाते
हैं। लेकिन
आशा को हम
बनाए ही रखते
हैं। एक क्षण
का भी हम मौका
नहीं देते कि
जीवन की वास्तविकता
का हम एहसास
कर सकें, अनुभव
कर सकें। छाती
में चुभ
जाए जीवन का
यह सत्य, कि
मौत छिपी है, मौत आ रही है,
प्रतिपल चली आ रही
है। जिस दिन
से पैदा हुए
हैं उस दिन से
ही मौत पास
आनी शुरू हो
गयी है। जन्म
का दिन मृत्यु
का दिन भी है, यह खयाल आ
जाए। तुम
जन्मदिन
मनाते हो, लेकिन
हर जन्मदिन
जीवन को पास
नहीं लाता, मृत्यु को
पास लाता है।
और एक वर्ष कम
हो गया जीवन
का। मौत और भी
पास आ गयी। क्यू
में तुम थोड़े
आगे सरक गए
मरघट की तरफ।
बुद्ध
का पूरा
मनोविज्ञान, समस्त बुद्धों
का--फिर वे
महावीर हों, कृष्ण हों, क्राइस्ट
हों, या मोहम्मद
हों--समस्त बुद्धों
का
मनोविज्ञान
मृत्यु के बोध
पर निर्भर है।
जिस दिन भी
तुम्हें दिखायी
पड़ जाएगा कि
यह जीवन गया गया है, इसे
पकड़ोगे
तो भी बचा न पाओगे--कोई
नहीं बचा
पाया--इसको
बचाने की
कोशिश में सिर्फ
समय व्यतीत
होगा, शक्ति
क्षीण होगी।
इसे बचाने की
कोशिश मत करो,
यह तो जाएगा
ही। यह कोशिश
असंभव है। जो
थोड़ा सा समय
मिला है
क्षणभंगुर, उसमें जागने
की कोशिश करो।
जीवन को बचाने
की नहीं, जागने
की। क्योंकि जागने से
ही तुम्हें एक
ऐसी संपदा
मिलनी शुरू
होगी जो फिर
कभी छीनी
नहीं जाती।
जिसे चोर छीन
नहीं सकते, डाकू लूट
नहीं सकते।
मृत्यु भी
जिसे छीन नहीं
पाती है। जब
तक वैसा स्वर
तुम्हारे
भीतर न बजने
लगे जो सनातन
है, शाश्वत
है, ओंकार
है; जो न
कभी शुरू हुआ
और न कभी अंत
होगा--एस धम्मो सनंतनो--ऐसा
धर्म
तुम्हारे
भीतर न उतर आए
जो समयातीत
है, काल के
बाहर है, मृत्यु
के हाथ जिस तक
नहीं पहुंच
पाते, तब
तक तुम जीए
जरूर, जीवन
को बिना जाने
जीए। तुम सोए,
तुमने झपकी
ली, तुम
नशे में रहे, तुम होश में
न आए।
बुद्ध
की सारी
जीवन-प्रक्रिया
को एक शब्द
में हम रख
सकते हैं, वह है, अप्रमाद,
अवेयरनेस,
जागकर जीना। जागकर
जीने का
क्या अर्थ
होता है? अभी
तुम रास्ते पर
चलते हो, बुद्ध
से पूछोगे
तो वे कहेंगे,
यह चलना
बेहोश है।
रास्ते पर
दुकानें दिखायी
पड़ती हैं, पास
से गुजरते लोग
दिखायी पड़ते हैं, घोड़ागाड़ी,
कारें दिखायी
पड़ती हैं, लेकिन
एक चीज
तुम्हें चलते
वक्त नहीं दिखायी
पड़ती, वह
तुम स्वयं हो।
और सब दिखायी
पड़ता है। पास
से कौन गुजरा,
दिखायी पड़ा। राह पर
भीड़ है, दिखायी पड़ी।
रास्ता
सुनसान है, दिखायी पड़ा। सब
तुम्हें दिखायी
पड़ता है, एक
तुम भर दिखायी
नहीं पड़ते।
यही तो सपना
है।
सपने
में तुमने कभी
खयाल किया, सब दिखायी
पड़ता है, एक
तुम दिखायी
नहीं पड़ते।
सपने का
स्वभाव यही
है। बहुत सपने
तुमने देखे
हैं। कभी खयाल
किया, सब दिखायी पड़ते हैं, एक तुम भर दिखायी
नहीं पड़ते
सपने में।
मित्र-शत्रु
सब दिखायी
पड़ते हैं,
तुम भर नहीं
दिखायी पड़ते।
यही तो
स्थिति जीवन
की है, जागने की है। जिसे
तुम जागना
कहते हो उसमें
और नींद में
कोई अंतर नहीं
मालूम होता।
दोनों में एक
बात समान है
कि तुम्हारा
तुम्हें कोई
पता नहीं
चलता। भीतर
अंधेरा है।
भीतर दीया
नहीं जला।
इसको बुद्ध
प्रमाद कहते
हैं, मूर्च्छा
कहते हैं।
अपना
ही पता न चले, यह भी कोई
जिंदगी हुई? चले, उठे,
बैठे, उसका
पता ही न चला
जो भीतर छिपा
था। अपने से
ही पहचान न
हुई, यह भी
कोई जिंदगी है?
अपने से ही
मिलना न हुआ, यह भी कोई
जिंदगी है? और जो अपने
को ही न पहचान
पाया, और
क्या पहचान
पाएगा? निकटतम थे तुम अपने,
उसको भी न
छू पाए, और
परमात्मा को
छूने की
आकांक्षा
बनाते हो? चांदत्तारों पर पहुंचना
चाहते हो, अपने
भीतर पहुंचना
नहीं हो पाता।
स्मरण रखो, निकटतम को पहले
पहुंच जाओ, तभी दूरतम
की यात्रा हो
सकती है। और
मजा यह है कि
जिसने निकट को
जाना, उसने
दूर को भी जान
लिया, क्योंकि
दूर निकट का
ही फैलाव है।
उपनिषद
कहते हैं, वह परमात्मा
पास से भी पास,
दूर से भी
दूर है। क्या
इसका यह अर्थ
हुआ कि उसे
जानने के दो
ढंग हो सकते
हैं--कि तुम
उसे दूर की
तरह जानने जाओ
या पास की तरह
जानने जाओ?
नहीं, दो ढंग नहीं
हो सकते। जब
तुम पास से ही
नहीं जान पाते
तो तुम दूर से
कैसे जान पाओगे?
जब मैं अपने
को ही नहीं छू
पाता, परमात्मा
को कैसे छू पाऊंगा?
जब आंख अपने
ही सत्य के
प्रति नहीं
खुलती, तो
परमात्मा के
विराट सत्य की
तरफ कैसे खुल
पाएगी?
इसलिए
बुद्ध चुप रह
गए, परमात्मा
की बात ही
नहीं की। वह
बात करनी फिजूल
है। सोए आदमी
से, जागकर जो दिखायी
पड़ता है, उसकी
बात करनी
फिजूल है। सोए
आदमी से तो
यही बात करनी
उचित है, कैसे
उसका सपना
टूटे, कैसे
उसकी नींद
टूटे?
'अप्रमाद
अमृत का पथ है
और प्रमाद
मृत्यु का।'
जो भी
सोए-सोए जी
रहा है वह मौत
में जा रहा
है। वह रास्ता
मौत का है। जो जागकर जी
रहा है वह
अमृत में चलने
लगा। वह
रास्ता अमृत
का है।
क्योंकि
तुम्हारे
भीतर जागते ही
तुम्हें उसका
पता चलता है
जो मिट ही
नहीं सकता।
तुम एक ऐसे घर
के वासी हो
जिसमें अमृत
भी छिपा है, अमृत के
झरने छिपे हैं,
लेकिन
रोशनी नहीं
है। रोशनी लानी
है। घर अंधेरा
है। झरने अमृत
के छिपे हैं, खजाने शाश्वत के
छिपे हैं, लेकिन
घर अंधेरा है।
और तुम अंधेरे
घर के वासी
हो। और तुम
अगर कभी आंख
भी खोलते हो
तो खिड़की पर
खड़े होकर बाहर
देखते हो।
शायद, जैसा कि राबिया
की प्रसिद्ध
घटना है, एक
सांझ फकीर राबिया
को--एक अनूठी
स्त्री हुई राबिया, सूफी फकीर
थी--लोगों ने
घर के सामने
कुछ खोजते देखा।
सांझ थी और
सूरज ढलता था।
लोगों ने पूछा--बूढ़ी औरत
को सहायता
देने के
लिए--कि क्या
खो गया है? उसने
कहा, मेरी
सुई खो गयी
है। तो वे भी
खोजने लगे।
फिर एक
आदमी को खयाल
आया कि सुई
बड़ी छोटी चीज
है, सूरज अब
ढलता, तब
ढलता, जल्दी
ही अंधेरा हो
जाएगा; और
छोटी सी चीज
है, इतना
बड़ा रास्ता है;
कहां गिरी
यह ठीक से पता
न हो, तो
खोजना
मुश्किल है; फिर रात
करीब आती है।
तो उसने पूछा
कि राबिया,
ठीक से बता
कि सुई गिरी
कहां? स्थान
का पता चल जाए
तो खोज भी हो
जाए।
राबिया
ने कहा, वह
तो तुम न पूछो
तो अच्छा है।
क्योंकि सुई
तो मेरे घर
में भीतर गिरी
है। वे सब रुक
गए जो खोज रहे
थे। उन्होंने
कहा, पागल
औरत! हमें सदा
से शक रहा है
कि तेरा दिमाग
खराब है।
सांसारिक
लोगों को
संन्यासियों
का दिमाग सदा
से खराब मालूम
पड़ा है। वह
उनकी
आत्मरक्षा की
दृष्टि है।
अगर संन्यासी
ठीक है, तो
फिर तुम पागल
हो। तो बेहतर
यही है कि
संन्यासी
पागल है, ऐसा
मानकर चलो। इससे
कम से कम अपनी
सुरक्षा होती
है। फिर तुम्हारी
भीड़ है। इसलिए
तुम जो कहते
हो वह भीड़ का वचन
है। भीड़ के
वचन झूठे हों
तो भी सच
मालूम होते
हैं।
लोग हंसने
लगे।
उन्होंने कहा, हमें पहले
से ही शक था कि
तू पागल है।
अब अगर सुई घर
के भीतर गिरी
है, तो
बाहर किसलिए
खोज रही है? राबिया ने कहा, भीतर
अंधेरा है, और मैं गरीब
हूं, दीया
भी मेरे पास
नहीं। बाहर
खोजती हूं
क्योंकि बाहर
थोड़ी रोशनी है
अभी सूरज की।
और देर मत करो,
साथ दो, खोजो, नहीं
तो जल्दी सूरज
भी डूब जाएगा,
बाहर भी
खोजना
मुश्किल हो
जाएगा।
उन्होंने
कहा कि पागल
औरत! रोशनी
बाहर है यह हम
समझे; लेकिन
जब सुई बाहर गुमी ही न
हो तो रोशनी
क्या करेगी? रोशनी सुई
थोड़े ही पैदा
कर सकती है? तो राबिया
ने कहा, तुम्हीं बताओ
मैं क्या करूं?
उन्होंने
कहा, यह भी
कोई पूछने की
बात है? कहीं
से भी दीया ले आओ, घर
में दीया ले
जाओ, या
सुबह तक ठहरो,
सुबह जब
सूरज उगेगा
और घर में
रोशनी आएगी तब
खोज लेना। मगर
खोजना तो वहीं
होगा जहां
खोया है।
राबिया हंसने
लगी। उसने कहा
कि तुम मुझे
पागल समझते हो, लेकिन मैंने
वही किया जो
तुम कर रहे
हो। आनंद तुम
खोजते हो बाहर,
परमात्मा
को भी तुम जब
खोजते हो तो
बाहर--कभी मंदिर
में, कभी
मस्जिद में।
न
हरम में है न दैर में
हम
तो दोनों जगह
पुकार आए
मस्जिद
के सामने भी
पुकारा, मंदिर
के सामने भी
पुकारा, कहीं
पाया नहीं।
हम
तो दोनों जगह
पुकार आए
मगर जब
आदमी खोजता है
तो बाहर ही
खोजता है, बिना यह
पूछे कि खोया
कहां है।
तुमने
परमात्मा को
खोया कहां? कब खोया? किस
जगह खोया? सुई
हो या
परमात्मा, कोई
फर्क नहीं
पड़ता।
लेकिन
यही घटना घटी
है। खोया भीतर
है, खोजते
बाहर हो।
क्यों खोजते
हो बाहर? क्योंकि
इंद्रियां
बाहर खुलती
हैं, इंद्रियों
की रोशनी बाहर
पड़ती है। आंख
बाहर खुलती है,
भीतर नहीं।
हाथ बाहर फैलते
हैं, भीतर
नहीं। कान
बाहर सुनते
हैं, भीतर
नहीं। इसलिए
आदमी बाहर
खोजता है, और
कभी खोज नहीं
पाता।
उम्रे-दराज
मांगकर
लाए थे चार
दिन
दो
आरजू में कट
गए दो इंतजार
में
मांगता
है, रोता है, गिड़गिड़ाता है, खोजता
है, टकराता है, गिरता
है, फिर
उठता है। आधी
जिंदगी मांगने
में, आधी
प्रतीक्षा
में बीत जाती
है। हाथ खाली
के खाली रह
जाते हैं। और
जिसे तुम
खोजते थे वह
भीतर मौजूद था,
जरा रोशनी
लाने की बात
थी। दीया
जलाने की बात थी।
उस दीए का
नाम है
अप्रमाद, होश।
चलते, उठते, बैठते,
कुछ भी
करो--बुद्ध ने
कहा--एक काम
करना मत भूलो:
होशपूर्वक
करो। बुद्ध
अपने भिक्षुओं
को कहते थे कि चलो भी
रास्ते पर, तो रास्ते
को ही मत देखो,
अपने को भी
देखते हुए चलो
कि मैं चल रहा
हूं। भाषा में
कहने की भीतर
जरूरत नहीं है
कि मैं चल रहा
हूं। लेकिन यह
प्रतीति बनी
रहे कि मैं
देख रहा हूं।
और तुम बड़े
हैरान होगे,
एक अनूठा
अनुभव होगा।
एक
सुंदर स्त्री
रास्ते से गुजरती
है। अगर
तुम्हें यह भी
होश रहे कि
मैं देख रहा हूं; सुंदर
स्त्री वहां
है, मैं
यहां हूं, और
मैं देख रहा
हूं--तुम
अचानक हैरान होओगे--यह
बोध कि तुम
देख रहे हो और
कामना पैदा
नहीं होती!
भूल जाओ कि
मैं देख रहा
हूं। बस सुंदर
स्त्री दिखायी
पड़ती है और
वासना जग जाती
है, कामना
पैदा हो जाती
है। किसी का
महल दिखायी
पड़ता है, मन
में सपने बनने
लगते हैं--ऐसा
महल मेरा भी
हो। लेकिन जरा
सा जागो, महल भी दिखायी
पड़े कोई हर्जा
नहीं है, लेकिन
देखने वाला भी
दिखायी
पड़े। वह देखने
वाले को देख
लेने की कला
का नाम है
अप्रमाद।
कृष्णमूर्ति
जिसे 'अवेयरनेस'
कहते हैं, वह बुद्ध का
शब्द है 'अप्रमाद'। महावीर ने
उसी को 'विवेक'
कहा है। गुरजिएफ
ने एक शब्द
प्रयोग किया
है। वह बहुत
ठीक-ठीक शब्द
है--'सेल्फ रिमेंबरिंग'। स्वयं का
बोध। कुछ भी
करो स्वबोध
न खोए, स्वबोध की कड़ी
भीतर लगी ही
रहे। स्वबोध
का सातत्य
बना ही रहे।
शुरू-शुरू
में बार-बार
तुम पकड़ोगे
और खो-खो
जाएगा। क्षणभर
को लगेगा
कि अपना बोध
है, फिर खो
जाएगा।
पुरानी आदत है
खोने की।
लेकिन अगर सातत्य
बना रहा, तो
जैसे
बूंद-बूंद
गिरकर बड़े
चट्टान को भी
तोड़ देती है, वैसे ही
बूंद-बूंद
अप्रमाद की, होश की, धीरे-धीरे
तुम्हारे
जन्मों-जन्मों
के अंधकार की पर्त को
तोड़ देगी। और
पहले दिन भी
जब किरण
तुम्हारे
भीतर उतरेगी
तब तुम पाओगे,
अरे! हम
जिसे खोजते थे
वह सदा घर में
था। हम बाहर
व्यर्थ ही
खोजने गए थे।
हमने उसे खोया
ही न था। बाहर
देखा, उसी
में भूल गए
थे।
कई बार
तुम्हें खयाल
होगा, जो
लोग चश्मा
लगाते
हैं--यहां तो
काफी लोग चश्मा
लगाए हुए
हैं--कई बार
तुम्हें खयाल
होगा, चश्मा
आंख पर होता
है और तुम
चश्मा खोजते
हो। और तुम यह
भूल ही जाते
हो कि चश्मे
ही से चश्मे को
खोज रहे हो।
चश्मा लगाए
हुए हो और
चश्मे को खोज
रहे हो। लोग
कान में पेंसिल
और कलम खोंस
लेते हैं और
इधर-उधर खोजते
हैं। भूल जाते
हैं।
परमात्मा
खोया नहीं, सिर्फ भूल
गया है, विस्मरण
है। सिर्फ
विस्मरण है।
इससे हिम्मत रखो।
क्योंकि
स्मरण आना
कठिन नहीं है।
अगर खो ही गया
होता तो खोजना
मुश्किल था।
कहां खोजते? इतना विराट
है जगत! कहां
खोजते? असीम
है! कहीं से
रास्ता न मिल
सकता था।
परमात्मा
मिल जाता है
क्योंकि खोया
नहीं है, केवल
विस्मृत हुआ
है। जैसे खीसे
में ही रखे थे
हीरे-जवाहरात
और भूल गए। जब
भी खीसे में
हाथ डालोगे,
पाओगे वहीं है। अप्रमाद
का अर्थ है, खीसे में
हाथ डालना।
चेतना में
भीतर हाथ डालना।
भीतर जगाने
की चेष्टा
अपने आपको।
'अप्रमाद
अमृत का पथ है
और प्रमाद
मृत्यु का।'
नींद
में और मृत्यु
में बड़ा
सामंजस्य है।
समानता है।
एकस्वरता है।
नींद छोटी
मृत्यु है। रोज
रात तुम मर
जाते हो। सुबह
फिर उठते हो। दिनभर में
जीवन थक जाता
है, रात मर
जाते हो। रात
तुम वही नहीं
रहते जो तुम दिनभर थे।
बिलकुल भूल ही
जाता है कि
दिन में तुम
क्या थे, कौन
थे। रात जब
तुम सोते हो, कभी तुमने
यह खयाल किया,
विचार किया,
दिन में जो
तुम्हारी
पत्नी थी रात
पत्नी नहीं रह
जाती। याद ही
नहीं रहती।
दिन में जो
तुम्हारा
बेटा था रात
बेटा नहीं रह
जाता। दिन में
जो तुम्हारा
घर था रात
तुम्हारा घर
नहीं रह जाता।
दिन में हो
सकता है तुम
भिखारी हो, रात सपने
में सम्राट हो
जाते हो। दिन
हो सकता है
सम्राट थे, रात भिखारी
हो जाते हो।
और दिन की जरा
भी याद नहीं
आती नींद में।
तो यह
कहना ठीक नहीं
है कि तुम
नींद में वही
होते हो जो
तुम जागने
में थे। मर ही
जाते हो, जागरण
का रूप तो खो
ही जाता है।
वह जो ढांचा
था, तुम्हारा
व्यक्तित्व
था, बिलकुल
विसर्जित हो
जाता है। दिन
में फिर तुम जागते
हो। फिर तुम
दूसरे व्यक्ति
हो गए। फिर
दुकान-बाजार,
धन-दौलत, हिसाब-किताब,
फिर वापस
लौट आया।
रोज
आदमी नींद में
मरता है। जैसे
रोज नींद में
मरता है दिनभर
की थकान के
बाद, ऐसे ही
मृत्यु भी जीवनभर
की थकान के
बाद मरना है।
फिर जागता है,
फिर नया
जन्म हो जाता
है। मौत का
स्वभाव नींद जैसा
है।
समाधि
का स्वभाव भी
नींद जैसा है।
पतंजलि
ने कहा है कि
समाधि और
सुषुप्ति एक
जैसी है। इसीलिए
तो जब
संन्यासी
मरता है तो
उसकी कब्र को
हम समाधि कहते
हैं। हर किसी
की कब्र को
समाधि नहीं
कहते। समाधि
हम तभी कहते
हैं जब
संन्यासी की
कब्र बनाते
हैं। क्यों? समाधि मृत्यु
जैसी है।
समाधि भी नींद
जैसी है, सिर्फ
एक फर्क है, छोटा--लेकिन
बहुत
बड़ा--समाधि
जागती हुई
नींद है।
इसलिए
कृष्ण ने कहा
है, या निशा सर्वभूतानाम
तस्याम जागर्ति
संयमी। जब सब
सोते हैं, जब
सबकी
नींद है--सर्वभूतानाम--सारे
भूत सो जाते
हैं। पौधे भी
सो जाते हैं, पत्थर भी सो
जाते हैं, सारा
संसार सो जाता
है। तस्याम
जागर्ति
संयमी। तब भी
संयमी जागा
रहता है। बाहर
के ही भूत सो
जाते हैं ऐसा
नहीं, भीतर
के भी तत्व सो
जाते
हैं--शरीर सो
जाता है, शरीर
के भीतर के
सारे पांचों
तत्व सो जाते
हैं--तस्याम
जागर्ति
संयमी, फिर
भी भीतर चेतना
जागती रहती
है। सब तरफ
नींद हो जाती
है, लेकिन
भीतर एक दीया
होश का जलता
ही रहता है। अडिग,
अकंप। उस दीए को ही सम्हाल
लेना अप्रमाद
है।
और
नींद में तो
मुश्किल होगा
सम्हालना
अभी। पहले तो
जिसे तुम
जागना कहते हो
उसमें सम्हालो।
जागने
में सम्हल
जाए, तो संभव
है कभी नींद
में भी सम्हल
जाए। अभी तो जागने में
भी सोए हुए
हो। अभी तो
नींद में जागने
की बात ही
फिजूल है। अभी
तो जागना भी
नींद जैसा है।
अभी तो नींद
को जागने
जैसा बनाना
बड़ा मुश्किल
है। पहले जागने
को ही
वास्तविक
जागना बनाओ।
जिसे तुम अभी
जागना कहते हो
वह सिर्फ आंख का
खुलना है, भीतर
तो नींद बनी
ही रहती है।
वह कहीं जाती
नहीं। और तुम
जरा आंख बंद
करके कुर्सी
पर आराम से
बैठ जाओ, तुम
पाओगे, सपनों का
सिलसिला
शुरू। आंख
खुली थी, बाहर
के चित्रों
में उलझ गए, तो भीतर के
सपने दिखायी
नहीं पड़ते।
आंख बंद करो, दिवास्वप्न शुरू हो जाते
हैं। सपनों का
तारतम्य लगा
है, सिलसिला
लगा है।
तुम्हारा
जागरण
नाममात्र को
जागरण है। बुद्धों
का जागरण ही
जागरण है।
क्योंकि जो
जागरण नींद
में भी न टिके, वह जागरण
क्या? कहते
हैं, मित्र
वही है जो
संकट में काम
जाए। जागरण
वही है जो
नींद में काम
आए। वह उसकी
कसौटी है।
नींद जिसको
मिटा दे उसको
जागरण कहना ही
मत। वह
नाममात्र का
जागरण था।
'अप्रमाद
अमृत का पथ है
और प्रमाद
मृत्यु का। अप्रमादी
नहीं मरते; लेकिन
प्रमादी तो मृतवत ही
हैं।'
अप्रमादी
नहीं मरते
हैं। बुद्धपुरुष
कभी नहीं मरते
हैं। मर नहीं
सकते। मरते तो
तुम भी नहीं
हो, लेकिन इस
सत्य का
तुम्हें पता
नहीं है। तुम
मान लेते हो
कि मर गए।
तुम्हारी
मान्यता ही
सारी बात है। बुद्धपुरुषों
में और तुममें
मान्यता का
भेद है। तथ्य
का नहीं, सत्य
का नहीं, धारणा
का। तुम मान
लेते हो कि मर
गए। और जब तुम मान
लेते हो कि मर
गए, तो मर
गए।
मैंने
सुना है कि
मुल्ला नसरुद्दीन
एक सुबह उठा
और उसने अपनी
पत्नी को कहा
कि सुनो, मैं मर
चुका। रात मर
गया। सपना
देखा था, लेकिन
इतना प्रगाढ़
था सपना कि
उसे भरोसा आ
गया। पत्नी ने
कहा, पागल
हुए हो, भले-चंगे बोल
रहे हो, कहीं
मरों ने
खबर दी कि मर
गए? मर गए
तो मर गए। तुम
बोल रहे हो। नसरुद्दीन
ने कहा, मैं
कैसे मानूं?
मुझे तो
पक्का भरोसा
हो गया है कि
मैं मर गया हूं।
अब एक मुसीबत
खड़ी हो गयी!
बहुत समझाया,
लेकिन वह
माने न। वह
कहे मैं और
तुम्हारी मानूं?
जब कि मुझे
पक्का अनुभव
हो रहा है कि
मैं मर चुका
हूं।
उसे एक
मनोवैज्ञानिक
के पास ले
जाया गया।
मनोवैज्ञानिक
भी परेशान
हुआ। ऐसा कोई
केस पहले आया
भी नहीं था कि
जिंदा आदमी और
कहे कि मैं मर
गया हूं। पागल
उसने बहुत
देखे थे, पागल
भी ऐसा नहीं
कहते; वे
भी मानते हैं
कि जिंदा हैं।
उसने बहुत समझाने
की कोशिश की
लेकिन वह माने
न। तो उसने सोचा
कि कुछ ठोस
प्रमाण खोजने पड़ेंगे।
तभी यह मानेगा,
जिद्दी है।
तो वह
उसे ले गया पोस्टमार्टम
घर
में--अस्पताल
में--जहां मुर्दों
की लाशें
इकट्ठी पड़ी
थीं। उसने कहा
कि नसरुद्दीन, अगर तुम मर
गए तो यह तुम
काम करके देखो,
यह छुरी लो,
मुर्दों की लाश
काटकर देखो।
काटकर देखा।
उसने पूछा कि
खून निकलता है?
नसरुद्दीन ने कहा, नहीं,
खून नहीं
निकलता। ऐसी
कई लाशें दिखलायीं।
रोज सात दिन
तक ले गया।
फिर उसने कहा,
अब एक बात
पक्की हो गयी
है कि मरे हुए
आदमी के शरीर
से खून नहीं
निकलता। उसने
कहा, बिलकुल
पक्की हो गयी।
घर
लाया, तेज
धार वाला चाकू
लिया, उसकी
अंगुली--नसरुद्दीन
की अंगुली
उसने काटी,
खून का
फव्वारा
निकला। उसने
कहा, अब देखो,
अब तुम
मानते हो कि
जिंदा हो? नसरुद्दीन ने कहा, इससे
सिर्फ यही
सिद्ध होता है
कि अपनी वह
धारणा गलत थी,
मरे हुए
आदमियों से भी
खून निकलता
है। वे मुर्दे
धोखा दे गए।
या मुर्दे कुछ
गलत थे। या
तुमने कोई
चालबाजी की।
लेकिन इससे
सिर्फ यही
सिद्ध होता है
कि मुर्दों
से भी खून
निकलता है।
आदमी
की जब एक
मान्यता हो, तो वह अपनी
मान्यता को सब
तरफ से सहारे
देता है। तुम
जो मान लेते
हो उसको तुम
सहारा देते हो।
यह तुम्हारी
मान्यता है कि
तुम मरणधर्मा
हो। इस
मान्यता को
सहारा भी मिल
जाता है, क्योंकि
शरीर मरणधर्मा
है। तुम मरणधर्मा
नहीं हो, तुम
अमृतपुत्र
हो। अमृतस्य
पुत्रः।
लेकिन शरीर मरणधर्मा
है, वह
बहुत करीब है।
और शरीर को
तुमने
करीब-करीब अपना
होना मान लिया
है। तुम यह
भूल ही गए हो
कि तुम शरीर
से पृथक हो, शरीर से पार
हो। शरीर नहीं
था तब भी थे, शरीर नहीं
होगा तब भी रहोगे।
लेकिन शरीर से
तुम ऐसे चिपट
गए हो, और
शरीर से ऐसा
तादात्म्य हो
गया है कि
शरीर मरता है
तो तुम मानते
हो कि शरीर
नहीं, तुम
ही मरे।
इस
तादात्म्य को
तोड़ना पड़ेगा, यह मूर्च्छा
है, यह
प्रमाद है।
अपने को शरीर
मान लेना
प्रमाद है। और
जिसने अपने को
शरीर माना, वह मरेगा,
क्योंकि
शरीर मरने
वाला है। फिर
यह भ्रांति बनी
रहेगी कि
शरीर मर गया
तो मैं मरा।
जब तुम
छोटे थे, बच्चे
थे, तब तुम
मानते थे मैं
बच्चा हूं।
शरीर बच्चा था।
तुम तो बच्चे
कभी भी नहीं
थे, तुम तो
सनातन पुरुष
हो। छोटे
बच्चे में भी
सनातन चैतन्य
है। वह उतना
ही प्राचीन है
जितने बुद्ध
और कृष्ण। वह
तभी से है।
अगर कभी संसार
शुरू हुआ हो
तो तभी से है।
और अगर कभी
संसार शुरू न
हुआ हो, तो
वह तभी से है।
फिर तुम जवान
हो गए। तुम
मानते हो तुम
जवान हो। शरीर
के साथ तुम
अपने को मानते
चले जाते हो।
फिर तुम बूढ़े
हो गए, हाथ-पैर
कंपने
लगे, लकड़ी टेककर
चलने लगे, तुम
मानते हो मैं
बूढ़ा हो गया।
शरीर ही हो
रहा है।
यह तो
ऐसे ही है
जैसे नया कपड़ा
पहना, और
तुमने समझा कि
मैं नया। और
फिर कपड़ा
पुराना होने
लगा, जराजीर्ण
होने लगा, और
तुमने समझा कि
मैं पुराना और
जराजीर्ण हो गया।
यह तो
ऐसे है कि
जैसे कोई
यात्री ट्रेन
में यात्रा
करे, पूना स्टेशन पर
गाड़ी खड़ी हो
तो वह समझे कि
मैं पूना।
फिर बंबई गाड़ी
पहुंच जाए तो
वह समझे कि
मैं बंबई। ये
तो शरीर की
यात्रा के
स्टेशन हैं।
कभी बीमार, कभी स्वस्थ।
कभी रुग्ण, कभी रुग्ण
नहीं। कभी
जन्म, कभी
मृत्यु। ये तो
शरीर के पड़ाव
हैं।
लेकिन
प्रमाद गहरा
है, और
छोटी-छोटी बात
में छिपा है।
भूख लगती है, तुम कहते हो,
मुझे भूख
लगी। ज्ञानी कहेगा, शरीर
को भूख लगी।
तुम्हें क्या
भूख लगेगी?
तुम्हें
कैसे भूख लगेगी?
शरीर की
जरूरत है; शरीर
के लिए रोज
नया पदार्थ
चाहिए, ताकि
शरीर अपने को
सक्रिय रख सके,
शक्तिवान
रख सके। भूख
लगती शरीर को,
तुम्हें
नहीं। प्यास
लगती है शरीर
को, तुम्हें
नहीं। और जब
तुम भोजन करते
हो तब तुम्हारी
आत्मा में
थोड़े ही जाता
है? जब तुम
पानी पीते हो
तब तुम्हारी
आत्मा में
थोड़े ही जाता
है? शरीर
से ही गुजरता
है, शरीर
से ही निकल
जाता है। सिर
में दर्द होता
है तो तुम मान
लेते हो कि
मुझे दर्द हो
रहा है। तुम
दर्द से अलग
हो।
मैं एक
आदमी का जीवन पढ़ रहा था, एक अमेरिकन
कवि का। कार
का एक एक्सीडेंट
हो गया और
उसका हाथ पूरा
पिचल
गया। भयंकर
पीड़ा थी उसे, अस्पताल भी
बहुत दूर था।
जिस राह से वे
गुजर रहे थे, यात्रा को
गए थे किसी
जंगल की, वहां
तक पहुंचने
में तो समय लगेगा।
उसकी पीड़ा
असह्य थी।
उसकी पत्नी ने
कहा, सुनो! मैं एक
किताब पढ़
रही हूं। वह
कार में बैठी
किताब पढ़
रही थी। झेन
के ऊपर एक
किताब थी।
ध्यान के ऊपर
एक किताब थी।
उसने कहा कि
इसमें बुद्ध
का एक सूत्र
दिया हुआ है।
कर के देख लो, हर्ज क्या
है?
बुद्ध
अपने भिक्षुओं
को एक सूत्र
दिए थे कि जब
तुम्हें पीड़ा
हो, दर्द हो,
चोट लगे, तो ऐसा मत
मान लेना कि
मुझे दर्द हो
रहा है, या
मुझे पीड़ा लगी
है। उसी
मान्यता से
उपद्रव है।
तुम आंख बंद
कर लेना, अगर
हाथ में चोट
लगी या सिर
में दर्द है, तो सारी
चेतना को वहीं
इकट्ठी कर
लेना। जैसे सारी
चेतना की
ज्योति-किरणें
इकट्ठी हो
गयीं, और
वहीं एक ही
जगह फोकस
हो गया। वहीं
केंद्रित कर
लेना, सिरदर्द
हो रहा है तो
वहीं
केंद्रित कर
लेना, और
पूरी तरह गौर
से सिरदर्द को
देखना। इसी
देखने में तुम
अलग हो जाओगे--देखने
वाला और जो दिखायी
पड़ रहा है, वह
अलग हो जाएगा।
और जब
तुम्हारा
दर्द पूरी तरह
दिखायी पड़ने लगे, तब सिर्फ
तीन दफे
कहना, दर्द...दर्द...दर्द...।
भीतर ही कहना,
पर बड़े
सजगता से कहना,
दर्द को
देखते हुए
कहना--दर्द! यह
मत कहना कि मुझे
दर्द हो रहा
है, वही तो
सम्मोहन है
जिसमें आदमी
उलझ जाता है।
तुम सिर्फ
इतना कहना, यह रहा दर्द...
यह रहा
दर्द...यह रहा
दर्द...। तीन बार
दर्द-दर्द
कहना और समझना
कि दर्द वहां
है। और बुद्ध
कहते हैं कि
दर्द विलीन हो
जाएगा।
उस
स्त्री ने कहा
कि यह किताब
में ऐसा लिखा
हुआ है। उस
आदमी ने कहा, फेंको इस किताब को
बाहर। मैं मरा
जा रहा हूं, तुम्हें
ज्ञान की पड़ी
है। यह सब
बकवास है। इधर
मेरा
हाथ...इतना
भयंकर पीड़ा हो
रही है, अब
यहां ध्यान
करने का यह
कोई अवसर है?
लेकिन
कोई और तो
उपाय न था।
कोई दवा न थी
पास, अस्पताल पहुंचते- पहुंचते
घंटों लगते।
पंद्रह-बीस
मिनट बाद उसने
कहा, अच्छा
हर्ज क्या है,
कोशिश कर के
देख लें। कोई
और उपाय भी
नहीं है।
निरुपाय
आदमी कभी-कभी
ठीक बातें कर
लेता है। जब
तक उपाय होते
हैं तब तक कौन
ठीक बातें करे? अगर अस्पताल
पास होता तो
उसने प्रयोग न
किया होता।
अगर ऐस्प्रो
पास होती तो
उसने ऐस्प्रो
पर भरोसा किया
होता, बुद्ध
पर नहीं। आदमी
की मूढ़ता का
कोई हिसाब है! ऐस्प्रो
पर ज्यादा
भरोसा कर ले, ध्यान पर
नहीं।
न कोई
उपाय देखकर, मजबूरी में,
असहाय
अवस्था में, वह लेट गया
कार में और
उसने कहा, अच्छा,
मैं कर के
देखता हूं।
सारी चेतना तो
अपने आप दौड़ी
जा रही थी। जब
कहीं चोट होती
है तो चेतना
अपने आप उस
तरफ दौड़ती
है, और
बुद्ध ने कहा,
सब इकट्ठा
कर लेना, जैसे
पूरा शरीर भूल
ही जाए, बस
उतनी ही जगह
याद रह जाए
जहां दर्द है।
वह दर्द के
करीब लाया, चेतना को
दर्द के करीब
लाया, दर्द
ऐसा हो गया
जैसे कि छुरी
की धार हो।
तेज हो गया, पैना हो गया,
भयंकर हो
गया, और भी
त्वरा पकड़ ली
उसने, तेजी
आ गयी, एक
लपट की तरह
मालूम होने
लगा, और तब
उसने कहा, दर्द...दर्द...दर्द...।
और वह चकित
हुआ, उसे
भरोसा न आया
कि क्या हुआ!
दर्द एकदम
विलीन हो गया।
तादात्म्य
टूट गया।
इसे
तुम प्रयोग
करके देखना।
प्यास लगे तो
ध्यान रखना, तुम्हें
नहीं लगी है, शरीर को लगी
है। बुद्ध
अपने भिक्षुओं
को कहते थे, जब भी कोई
तुम्हें चीज
ज्यादा सताने
लगे तो तीन
बार, ध्यान
करके तीन बार
कहना, प्यास...प्यास...प्यास...!
और तुम पाओगे
प्यास अलग हो
गयी। और जैसे
ही प्यास अलग
हो जाती है, उसकी पकड़
छूट जाती है।
तब तुम्हें
ऐसा लगता है
जैसे प्यास
किसी और को
लगी, भूख
किसी और को
लगी, बूढ़ा
कोई और हुआ, रोग किसी और
को आया, तुम
अलग हो जाते
हो।
यह अलग
हो जाने की
कला ही
अप्रमाद है।
और जो जीवन के
रोज-रोज
छोटे-छोटे
कामों में अलग
होता गया, बूंद-बूंद
चोट पड़ी
चट्टान पर
अंधेरे की, बूंद-बूंद
चोट पड़ी
चट्टान पर
अज्ञान की, बूंद-बूंद
चोट पड़ी
चट्टान पर
तादात्म्य की,
और जो
रोज-रोज प्यास
लगी तब भी
उसने ध्यान से
अपने को अलग
किया; पानी
दिया, तृप्ति
हुई, तो भी
अपने को अलग
रखा; कहा
कि शरीर को
प्यास थी, शरीर
को तृप्ति हुई;
शरीर को भूख
थी, शरीर
की भूख मिटी;
शरीर को रोग
था, शरीर
का रोग गया; और हर घड़ी
अपने को अलग
रखा, अलग
रखा, अलग
रखा; अपने
को बचाया और
दूर रखा, अपने
को सम्हाला;
होश को खोने
न दिया, शरीर
के साथ जुड़ने
न दिया; तो
अंतिम घटना जो
घटेगी वह
यह, जब मौत
आएगी तब यह जीवनभर
का अनुभव
तुम्हारे साथ
होगा। तुम मौत
को भी देख पाओगे
कि मौत आती है
शरीर को, मुझे
नहीं।
लेकिन
इसे आज से साधोगे
तो ही मौत में सध पाएगा।
ऐसा मत सोचना
कि मरते वक्त
ही साध लेंगे।
जब प्यास में
न सधेगा
तो मौत में
कैसे सधेगा? जब सिरदर्द
में न सधेगा
तो मौत में
कैसे सधेगा?
भूख में कोई
मर नहीं जाता
है एक दिन
में। अगर आदमी
भूखा रहे तीन
महीने, तब मरेगा। जब
एक दिन की भूख
में न सधा और
तुम खो गए, और
एक हो गए शरीर
के साथ, तो
मृत्यु में
कैसे सधेगा?
मृत्यु में
तो चेतना शरीर
से पूरी तरह
अलग होगी, और
तुम्हारा
ध्यान शरीर पर
रहेगा।
क्योंकि जिंदगीभर
उसी का अभ्यास
किया, उसी
का सम्मोहन
किया। तो तुम
भूल ही जाओगे
कि तुम नहीं
मर रहे हो, तुम
समझोगे
कि मैं मर रहा
हूं।
कोई
कभी मरा नहीं।
कोई कभी मर
नहीं सकता। इस
संसार में जो
है वह सदा से
है, सदा
रहेगा।
रूपांतरण
होते हैं, घर
बदलते हैं, देह बदलती
है, वस्त्र
बदलते हैं, मृत्यु होती
ही नहीं।
मृत्यु असंभव
है। कोई मरेगा
कैसे? जो
है, वह
नहीं कैसे हो
जाएगा? जो
है, वह
रहेगा; रहेगा,
सदा-सदा
रहेगा।
लेकिन, फिर भी लोग
रोज मरते हैं।
रोज तड़फते
हैं। बुद्ध जब
कहते हैं अप्रमादी
नहीं मरते, तो तुम यह मत
समझना कि वे
मरते नहीं, और उनको
मरघट नहीं ले
जाना पड़ता। वह
तो बुद्ध को
भी ले जाना
पड़ा। नहीं
मरते, क्योंकि
वे जानते हैं,
वे अलग हैं।
तुम्हारे लिए
तो वे भी मरते
हैं, स्वयं
के लिए वे
नहीं मरते।
क्योंकि
मृत्यु की घड़ी
में भी वे
अपने भीतर के दीए को
देखते चले
जाते हैं। या
निशा सर्वभूतानाम
तस्याम जागर्ति
संयमी।
अंधेरी रात
में, नींद
में ही नहीं
मृत्यु की
घनघोर अमावस
में भी, तस्याम जागर्ति
संयमी। फिर भी
संयमी जागा
रहता है, देखता
रहता है, सजग
रहता है।
काशी
के नरेश का एक ऑपरेशन
हुआ उन्नीस सौ
दस में। पांच
डाक्टर यूरोप
से ऑपरेशन
के लिए आए। पर
काशी के नरेश
ने कहा कि मैं
किसी तरह का
मादक-द्रव्य
छोड़ चुका हूं; मैं ले नहीं
सकता। तो मैं
किसी तरह की
बेहोश करने
वाली कोई दवा,
कोई
इंजेक्शन, वह
भी नहीं ले
सकता, क्योंकि
मादक-द्रव्य
मैंने त्याग
दिए हैं। न मैं
शराब पीता हूं,
न सिगरेट
पीता हूं, चाय
भी नहीं पीता।
तो इसलिए ऑपरेशन
तो करें आप--अपेंडिक्स
का ऑपरेशन
था, बड़ा ऑपरेशन
था--लेकिन मैं
कुछ लूंगा
नहीं बेहोशी
के लिए। डाक्टर
घबड़ाए, उन्होंने
कहा, यह
होगा कैसे? इतनी भयंकर
पीड़ा होगी, और आप चीखे-चिल्लाए,
उछलने-कूदने लगे
तो बहुत
मुश्किल हो
जाएगी! आप सह न
पाएंगे।
उन्होंने कहा
कि नहीं, मैं
सह पाऊंगा।
बस इतनी ही
मुझे आज्ञा
दें कि मैं
अपना गीता का
पाठ करता रहूं।
तो
उन्होंने
प्रयोग करके
देखा पहले।
उंगली काटी, तकलीफें दीं, सुइयां चुभायीं
और उनसे कहा
कि आप अपना...वे
अपना गीता का
पाठ करते रहे।
कोई दर्द का
उन्हें पता न
चला। फिर ऑपरेशन
भी किया गया।
वह पहला ऑपरेशन
था पूरे
मनुष्य-जाति
के इतिहास में,
जिसमें
किसी तरह के
मादक-द्रव्य
का कोई प्रयोग
नहीं किया
गया। काशी-नरेश
पूरे होश में
रहे। ऑपरेशन
हुआ। डाक्टर
तो भरोसा न कर
सके। जैसे कि
लाश पड़ी हो
सामने, जिंदा
आदमी न हो, मुर्दा
आदमी हो।
ऑपरेशन
के बाद
उन्होंने
पूछा कि यह तो
चमत्कार है, आपने किया
क्या? उन्होंने
कहा, मैंने
कुछ किया
नहीं। मैं
सिर्फ होश सम्हाले
रखा। और गीता
जब मैं पढ़ता
हूं, इसे जन्मभर से पढ़ रहा हूं,
और जब मैं
गीता पढ़ता
हूं...और यही
पाठ का अर्थ
होता है। पाठ
का अर्थ ऐसा
नहीं होता कि
बैठे हैं, नींद
आ रही, तंद्रा
आ रही, दोहराए चले जा रहे
हैं; मक्खी
उड़ रहीं
और गीता पढ़
रहे हैं। पाठ
का यह मतलब
नहीं होता।
पाठ का अर्थ होता
है बड़ी सजगता
से, कि
गीता ही रह
जाए, उतने
ही शब्द रह
जाएं, सारा
संसार खो
जाए...तो
उन्होंने कहा,
गीता के पाठ
से मुझे होश बनता है, जागृति आती
है। बस, उसका
मैं पाठ जब तक
करता रहूं
तब तक मुझसे
भूल-चूक नहीं
होती। तो मैं
उसे दोहराता रहूं तो
फिर शरीर
मुझसे अलग है।
ना हन्यते
हन्यमाने
शरीरे।
तब मैं जानता
हूं कि शरीर
को काटो, मारो, तो
भी तुम मुझे
नहीं मार
सकते। नैनं
छिंदंति शस्त्राणि।
तुम छेदो
शस्त्रों से,
तुम मुझे
नहीं छेद
सकते। बस इतनी
मुझे याद बनी
रही, उतना
काफी था; मैं
शरीर नहीं
हूं।
हां, अगर मैं
गीता न पढ़ता होता
तो भूल-चूक हो
सकती थी। अभी
मेरा होश इतना
नहीं है कि
सहारे के बिना
सध जाए।
पाठ का यही
अर्थ होता है।
पाठ का अर्थ
अध्ययन नहीं
है, पाठ का
अर्थ गीता को
दोहराना नहीं
है, पाठ का
बड़ा बहुमूल्य
अर्थ है। पाठ
का अर्थ है, गीता को
मस्तिष्क से
नहीं पढ़ना,
गीता को बोध
से पढ़ना।
और गीता पढ़ते
वक्त गीता जो
कह रही है
उसके बोध को
सम्हालना।
निरंतर-निरंतर
अभ्यास करने से,
बोध सम्हल
जाता है। पर
काशी-नरेश को
भी डर था, अगर
सहारा न लें
तो बोध शायद
खो जाए।
बुद्ध
ने तो कहा है
कि शास्त्र का
भी सहारा न लेना, सिर्फ श्वास
का सहारा
लेना। क्योंकि
शास्त्र भी
जरा दूर है।
श्वास भीतर जाए,
देखना; श्वास
बाहर जाए, देखना।
श्वास की जो
परिक्रमा चल
रही है, श्वास
की जो माला चल
रही है, उसे
देखना। इसको
बुद्ध ने अनापानसतीयोग
कहा। श्वास का
भीतर आना, बाहर
जाना, इसे
तुम देखते
रहना। श्वास
भीतर जाए, तो
तुम देखते हुए
भीतर जाना।
श्वास नासापुटों
को छुए तो
तुम वहां
मौजूद रहना, गैर-मौजूदगी
में न छुए।
तुम होशपूर्वक
देखना कि
श्वास ने नासापुटों
को छुआ। ऐसा
भीतर कहने की
जरूरत नहीं है,
ऐसा
साक्षात्कार
करना। फिर
श्वास भीतर
चली, श्वास
के रथ की
यात्रा शुरू
हुई, वह
तुम्हारे फेफड़ों
में गयी, और
गहरी गयी, उसने
तुम्हारे नाभिस्थल
को ऊपर उठाया,
देखते
जाना। उसके
साथ ही साथ
जाना। छाया की
तरह उसका पीछा
करना। फिर
श्वास एक क्षण
को रुकी, तुम
भी रुक जाना।
फिर श्वास
वापस लौटने
लगी, तुम
भी लौट आना।
श्वास बाहर
चली गयी। फिर
श्वास भीतर
आए। इस श्वास
की परिक्रमा
का तुम पीछा
करना होशपूर्वक।
तो
बुद्ध ने कहा, यह सबसे
सुगम सहारा
है। पढ़ा-लिखा
हो, गैर पढ़ा-लिखा
हो, पंडित
हो, गैर
पंडित हो, सभी
साध लेंगे।
श्वास तो सभी
को मिली है।
यह प्रकृतिदत्त
माला है, जो
सभी को जन्म
के साथ मिली
है।
और
श्वास की एक
और खूबी है कि
श्वास
तुम्हारी
आत्मा और शरीर
का सेतु है।
उससे ही शरीर
और आत्मा जुड़े
हैं। अगर तुम श्वास
के प्रति जाग
जाओ, तो तुम पाओगे
शरीर बहुत
पीछे छूट गया,
बहुत दूर रह
गया। श्वास
में जागकर
तुम देखोगे,
तुम अलग हो,
शरीर अलग
है। श्वास ने
ही जोड़ा
है, श्वास
ही तोड़ेगी।
तो
मृत्यु के
वक्त जब श्वास
छूटेगी, अगर तुमने
कभी श्वास के
प्रति जागकर
न देखा हो, तो
तुम समझोगे
गए, मरे।
वह केवल
भ्रांति है, आत्मसम्मोहन है। वह लंबा
सुझाव है, जो
तुमने सदा
अपने को दिया
था और मान
लिया है। वह
एक भ्रांति
है। लेकिन अगर
तुम जागे रहे,
और तुमने श्वास
का जाना भी
देखा, तुमने
देखा कि श्वास
बाहर चली गयी
और भीतर नहीं आयी और तुम
देखते
रहे--श्वास
बाहर चली गयी,
लौटी नहीं,
और तुम
देखते रहे--तब
तुम कैसे मरोगे?
वह जो देखता
रहा श्वास का
जाना भी, वह
तो अभी भी है।
वह तो सदा ही
है।
अप्रमादी
नहीं मरते, और प्रमादी
तो मरे हुए ही
हैं। उनको
जिंदा कहना
ठीक नहीं।
प्रमादी को
क्या जिंदा
कहना! सोए हुए
आदमी को क्या
जिंदा कहना!
अमरीका
में एक लड़की
की जान अटकी
है। वह बेहोश
पड़ी है। कई
महीने हो गए
हैं, और
चिकित्सक
कहते हैं, वह
होश में कभी
आएगी नहीं।
बीमारी
असाध्य है। लेकिन
तीन-चार साल
तक, और
ज्यादा भी, ऑक्सीजन के सहारे और
यंत्रों के
सहारे वह
जिंदा रह सकती
है। वह जिंदा
है। मगर उसको
क्या जिंदा कहो!
बिस्तर पर पड़ी
है बेहोश, कई
महीने हो गए, यंत्र टंगे
हैं चारों तरफ,
फेफड़ा
यंत्र से चल
रहा है, श्वास
यंत्र से ली
जा रही है, शरीर
में खून डाला
जाता है।
मां-बाप
पीड़ित हैं।
क्योंकि
मां-बाप कहते
हैं, यह कोई
जिंदगी है? और ऐसी ही वह
वर्षों तक अटकी
रहेगी।
इससे तो बेहतर
है मर जाए।
कभी-कभी मौत
बेहतर होती है
जिंदगी से। तो
मां-बाप ने
आज्ञा चाही है
अदालत से, क्योंकि
अदालत झंझट
खड़ा करती है
बीच में। बाप चाहते
हैं कि जो ऑक्सीजन
की नली है वह
अलग कर ली जाए,
ताकि लड़की
मर जाए। कोई
मां-बाप पर
खर्चा भी नहीं
पड़ रहा है, सरकार
खर्च उठा रही
है, लेकिन
मां-बाप को
देखकर पीड़ा
होती है कि यह
क्या सार है
इसमें? और
पता नहीं इसको
भीतर कितनी
पीड़ा हो रही
है! इससे तो
शरीर से छुटकारा
हो जाए। लेकिन
अदालत ने
आज्ञा नहीं
दी। क्योंकि
अदालत कहती है,
यह तो हत्या
करना होगा
श्वास की नली
निकालना। यह
तो उसे मारना
होगा। वह अपने
आप मरे तब
ठीक।
अब कैसी
दुविधा है!
इसको जीवन कहोगे? यह जीवन तो
नहीं हुआ। यह
तो मरे हुए
होना हुआ। मरने
से भी बदतर
हुआ। मरने में
भी एक जीवंतता
होती है। उतनी
जीवंतता भी
नहीं है।
लेकिन जिसे
तुम जीवन कह
रहे हो, वह
भी बस ऐसा ही
है कमोबेश।
जिंदगी
है या कोई
तूफान है
हम
तो इस जीने
के हाथों मर
चले
इसे
जिंदगी क्या कहो जिसके
हाथों मौत ही
आती है, और
कुछ भी नहीं
आता। फल से
वृक्ष पहचाने
जाते हैं। और
अगर तुम्हारे
जीवन में
मृत्यु का ही
फल लगता है
अंत में, तो
वृक्ष पहचान
लिया गया, यह
कोई जीवन न
था। जीसस
ने कहा है, जिस
जीवन में महाजीवन
के फल लगें
वही जीवन है।
इस जीवन में
तो मृत्यु के
फल लगते हैं।
'पंडितजन अप्रमाद के
विषय में यह
अच्छी तरह जानकर
आर्यों के, बुद्धों के उचित
आचरण में निरत
रहकर अप्रमाद
में प्रमुदित
होते हैं।'
बुद्ध
के समय तक
पंडित शब्द
खराब नहीं हुआ
था। पंडित का
अर्थ होता है
शाब्दिक--प्रज्ञावान।
जो प्रज्ञा को
उपलब्ध हो गया
है। बुद्ध के
समय तक पंडित
शब्द समादृत
था। आज नहीं
है। आज पंडित
शब्द एक गंदा
शब्द है।
उसमें रोग लग
गया। अब पंडित
हम उसको कहते
हैं जिसको
शास्त्र का
ज्ञान है।
बुद्ध के समय
में पंडित उसे
कहते थे जिसे
स्वयं का
ज्ञान है।
'पंडितजन अप्रमाद के
विषय में यह
अच्छी तरह जानकर
आर्यों के, बुद्धों के उचित
आचरण में निरत
रहकर अप्रमाद
में प्रमुदित
होते हैं।'
वे होश
में जागकर
आनंदित होते
हैं। और कोई
आनंद है भी
नहीं। तंद्रा
है दुख, निद्रा
है नर्क, लेकिन हमारी
आंखें नहीं खुलतीं।
हजार
बार भी वादा
वफा न हो
लेकिन
मैं
उनकी राह में
आंखें बिछाके
देख तो लूं
हजार
बार भी वादा
वफा न हो
लेकिन
आशाएं
कभी पूरी नहीं
होतीं।
कोई वादा वफा
नहीं होता।
भरोसे दिए
जाते हैं और
टूट जाते हैं।
लेकिन फिर भी
आदमी का बेहोश
मन है।
मैं
उनकी राह में
आंखें बिछाके
देख तो लूं
लेकिन
एक बार और सही, फिर एक बार
और सही। अब तक
नहीं हुआ है, कौन जाने कल
हो जाए, एक
बार और सही।
आशा मरती
नहीं। आशा
हारती है, पराजित
होती है, हताश
होती है, मरती
नहीं। आशा यही
कहे चली जाती
है, अब तक
नहीं हुआ है, ठीक, लेकिन
कौन जाने कल
हो जाए।
हजार
बार भी वादा
वफा न हो
लेकिन
मैं
उनकी राह में
आंखें बिछाके
देख तो लूं
ऐसे ही
आंखें बिछा-बिछाकर
तुम अपने को
गंवा देते हो।
आखिर में पाते
हो कभी कोई
वादा वफा नहीं
होता। वासना
आश्वासन बहुत
देती है, पूरा
कोई आश्वासन
कभी नहीं
होता।
आश्वासन देने
में वासना बड़ी
कुशल है।
मैंने
एक बड?ी
पुरानी कहानी
सुनी है, कि
एक आदमी ने
बड़ी भक्ति की
परमात्मा की।
परमात्मा
प्रसन्न हुआ,
और उस आदमी
से पूछा, क्या
चाहता है? उसने
कहा, आप
मुझे कोई ऐसी
चीज दे दें कि
उससे मैं जो
भी मांगूं, वह मेरी
मांग पूरी हो
जाए। तो
परमात्मा ने
उसे एक शंख
दिया, और
कहा कि इस शंख
को तू जब भी बजाएगा
और इससे जो भी
तू कहेगा
वह पूरा हो
जाएगा। तू कहेगा
लाख रुपए
चाहिए, शंख
बजकर
पूरा भी न हो
पाएगा, ध्वनि
विलीन भी न हो
पाएगी, लाख
रुपए मौजूद हो
जाएंगे। वह
आदमी तो बड़ा
प्रसन्न हुआ।
अब तो कोई बात
ही न रही। जो
भी मांगता, मिल जाता।
उस घर
में एक
महात्मा एक
बार मेहमान
हुए। महात्मा
ने यह शंख
देखा।
महात्मा ने
कहा, यह कुछ भी
नहीं है, मेरे
पास महाशंख
है। उस साधारण
गृहस्थ आदमी
ने कहा, महाशंख! महाशंख
की क्या खूबी
है? तो
महात्मा ने
कहा, महाशंख की खूबी यह
है कि मांगो
लाख, देता
है दो लाख। यह
तुम्हारा तो
एक ही लाख देता
है न? मेरा महाशंख है,
उसको मांगो
दो लाख, वह
कह दे चार
लाख। गृहस्थ
को लोभ बढ़ा। उसने
कहा, अब आप
तो महात्माजन
हैं, आप तो
सब छोड़ ही
चुके, शंख
आप ले लो, महाशंख
मुझे दे दो।
महात्मा ने
कहा, खुशी
से, हम तो
त्यागी हैं, रख लो। महाशंख
महात्मा छोड़
गए, शंख ले
गए। और उसी
रात वह विदा
भी हो गए।
सुबह--रातभर
सो न सका
गृहस्थ--सुबह
होते ही
स्नान-ध्यान करके
पूजा की। महाशंख
फूंका। कहा कि
लाख रुपए इसी
वक्त चाहिए। महाशंख ने
कहा, लाख!
अरे, दो
लाख लो। लेकिन
कुछ आया-करा
नहीं। उसने
कहा कि भाई
क्या हुआ दो
लाख का? महाशंख ने कहा, दो
लाख! अरे, चार
लाख लो। मगर
कुछ आया-गया
नहीं। उसने
पूछा, कुछ दोगे भी? उसने कहा, तुम जो भी मांगोगे
उससे दुगुना
दूंगा, मगर
दूंगा कभी
नहीं। तुम दस
लाख मांगो,
मैं बीस लाख
दूंगा। यही महाशंख
है। इसलिए महाशंख
जब किसी को
तुम कहते हो
उसका मतलब यही
होता है--किसी
काम के नहीं। महाशंख!
वायदे बहुत, आश्वासन
बहुत!
यह
जिंदगी एक महाशंख
है। तुम इससे
कुछ भी मांगो, जिंदगी आशा बंधाती
है--अरे! इतने
में क्या होगा?
हम दुगुना
देने को तैयार
हैं। और तुम
आशा किए चले
जाते हो।
जिसने आशा न छोड़ी वह
धार्मिक नहीं
हो पाता।
जिसने आशा की
यह व्यर्थता न
देखी, जिसने
आशा का यह महाशंखपन
न पहचाना, वह
धार्मिक नहीं
हो पाता।
'वे
ध्यान का सतत
अभ्यास करने
वाले और सदा दृढ़
पराक्रम करने
वाले धीर
पुरुष
अनुत्तर
योगक्षेम रूप
निर्वाण को
प्राप्त होते
हैं।'
अप्रमाद
यानी ध्यान।
बुद्ध ने कहा
है कि ऐसा अलग बैठकर घड़ीभर
ध्यान कर लेना
काफी नहीं है।
अच्छा है, न करने से
बेहतर है, काफी
नहीं है।
ध्यान का सातत्य
होना चाहिए।
जैसे श्वास
चलती है--जागो,
सोओ, उठो, बैठो--ऐसे ही
ध्यान भी चलना
चाहिए। ऐसा न
हो कि कभी ध्यान
कर लिया, फिर
भूल गए।
क्योंकि अगर घड़ीभर
ध्यान किया और
फिर तेईस घंटे
ध्यान न किया
तो घड़ीभर
में तुम जो
सफाई करोगे,
तेईस घंटे
में फिर कचरा
लग जाएगा। यह
तुम रोज साफ करोगे, रोज
गंदा हो
जाएगा। ध्यान
तो जीवन की
शैली बन जानी
चाहिए।
'वे
ध्यान का सतत
अभ्यास करने
वाले और सदा दृढ़
पराक्रम करने
वाले धीर
पुरुष
अनुत्तर
योगक्षेम रूप
निर्वाण को
प्राप्त होते
हैं।'
वे उस
जगह पहुंच
जाते हैं, जहां अमृत
है। वे उस जगह
पहुंच जाते
हैं, जहां
अहंकार का
दीया बुझ
जाता है और
जहां जीवन का
दीया जलता है।
वे उस जगह
पहुंच जाते
हैं, जहां
शरीर आवश्यक
नहीं रह जाता,
आत्मा
पर्याप्त
होती है। वे
उस जगह पहुंच
जाते हैं, जहां
सब सीमाएं गिर
जाती हैं और
असीम उपलब्ध हो
जाता है। जैसे
बूंद सागर में
खो जाए, ऐसे
वे सागर में
खो जाते हैं।
लेकिन यह खोना
नहीं है, यह
पाना है।
क्योंकि वे
सागर हो जाते
हैं। बूंद कुछ
खोती नहीं, सब कुछ पा
लेती है।
'जो
उत्थानशील, स्मृतिवान,
शुचि कर्म
वाला तथा
विचार कर काम
करने वाला है,
उस संयत, धर्मानुसार जीविका
वाला एवं अप्रमादी
पुरुष का यश
बढ़ता है।'
बुद्ध
कहते हैं, यश ही चाहो
तो ध्यान का
यश चाहना, धन
का नहीं। यश
ही चाहो तो
ज्ञान का यश
चाहना, पदार्थ
का नहीं। यश
ही चाहो तो
अंतर्ज्योति
का यश चाहना।
बाहर कितनी ही
रोशनी कर लो
और भीतर
अंधेरा रहे; और लोग
तुम्हारी
कितनी ही
प्रशंसा करें
तुम खुद अपने
भीतर आनंद से
न भर पाए, यशस्वी
न हुए, उस
यश का क्या
मूल्य है? किसको
धोखा देते हो?
यह तो अपने
ही हाथ अपनी
फांसी हो
जाएगी। यह तो आत्मघात
है। यश एक ही
है, बुद्ध
कहते हैं, वह
ध्यान का है।
फिर कोई पहचाने,
न पहचाने,
उससे दूसरे
का कोई
लेना-देना
नहीं है।
दो तरह
के यश हैं। एक
तो जो दूसरे
तुम्हें देते
हैं। और एक, जिससे दूसरे
का कोई
प्रयोजन नहीं,
तुम अपनी
अंतरात्मा
में जिसे
जन्माते हो।
एक तो धन का यश
है, पद का
यश है, राजनीति
है, संसार
का फैलाव है, वहां का यश
है। उस यश को
बहुत मूल्य मत
देना, क्योंकि
मौत उस सब को
छीन लेगी।
कोई याद रखता
है किसी को? इधर मरे
नहीं कि उधर
लोग अर्थी
तैयार करने
लगते हैं। घर
के लोग रोने-धोने
में लगे ही
होते हैं, तो
पास-पड़ोसी आ
जाते हैं। वे
अर्थी तैयार
करने लगते
हैं। जल्दी
पड़ती है, विदा
करो। भुलाओ
जल्दी। मरे
नहीं कि लोग भुलाने को
तत्पर हो जाते
हैं। मरघट ले
जाने को
उत्सुक हो
जाते हैं। चार
दिन बाद कहानी
भी नहीं रह
जाती। कौन याद
करता है? किसको
पड़ी है? पानी
पर खींची
गयी लकीर है
यह जीवन। खिंच
भी नहीं पाती
और मिट जाती
है।
एक और
भी यश है। वह
यश किसी दूसरे
से नहीं मिलता।
वह आत्मप्रतिष्ठा
से मिलता है।
वह स्वयं में
केंद्रित
होने से मिलता
है। वह स्वयं
के ज्ञान से
मिलता है। वह
ध्यान का यश
है।
'मेधावी
पुरुष को
उत्थान, अप्रमाद,
संयम और दम
के द्वारा ऐसा
द्वीप बना
लेना चाहिए
जिसे बाढ़ न
डुबा सके।'
बाढ़
यानी मौत।
तुमने जो यश
बनाया है वह
डूब जाएगा सब।
वह कागज की
नाव है। घर की
हौज में चलाते
हो एक बात, जीवन के
सागर में न चलेगी।
कागज की नाव
पर धोखे में
मत पड़ना।
दूसरे के विचार
और दूसरे के
मंतव्य और
दूसरे के
द्वारा मिली
प्रशंसा कागज
की नाव है।
ताश का बनाया
महल है। जरा
सा हवा का
झोंका, समाप्त
हो जाएगा।
बुद्ध
कहते हैं, 'मेधावी
पुरुष को
उत्थान...।'
उत्थान
एक प्रक्रिया
है जिसमें तुम
जीवन-चेतना को
ऊपर की तरफ
उठाते हो।
साधारणतः
आदमी की चेतना
नीचे की तरफ
बहती है, कामवासना की तरफ बहती
है। कामवासना
का केंद्र
सबसे नीचा
केंद्र है
आदमी के जीवन में।
वहां से चेतना
नीचे की तरफ
जाती है।
उत्थान एक
प्रक्रिया है
बुद्ध-योग की,
जिसमें तुम
चेतना को ऊपर
की तरफ उठाते
हो। जब भी तुम
पाते हो चेतना
नीचे की तरफ
जा रही है, तब
तुम उसे ऊपर
खींचते हो।
तुम उसे
सहस्रार की
तरफ ले जाते
हो। तुम आंख
बंद कर लेते
हो, और सिर
के ऊपरी भाग
में तुम सारी
जीवन-ऊर्जा को
खींचते हो।
इसका
तुम प्रयोग
करके देखना। शीर्षासन
इसीलिए शुरू
हुआ कि उससे
सहारा मिल
जाता है। क्योंकि
अगर तुम सिर
के बल खड़े हो
जाओ तो ऊर्जा
आसानी से सिर
की तरफ बहनी
शुरू हो जाती
है। ऊर्जा
वैसे ही है
जैसे जल नीचे
की तरफ बहता
है। शीर्षासन
का भी यही
अर्थ है कि
जीवन-ऊर्जा को
तुम मस्तिष्क
की तरफ लाओ।
कामकेंद्र
सबसे निम्न है, और सहस्रार
सबसे ऊपर। और
जो व्यक्ति
सहस्रार में
जीवन को ले
आता है, जो
वहां से जीने
लगता है, उसकी
फिर कोई
मृत्यु नहीं।
साधारणतया
लोगों का जब
प्राण निकलता
है तो कामकेंद्र
से निकलता है।
जननेंद्रिय
से निकलता है।
सिर्फ योगियों
का, समाधिस्थ
पुरुषों का
प्राण
सहस्रार से
निकलता है।
तुम जहां हो
वहीं से तो निकलोगे।
तुम्हारा मन
जहां-जहां
घूमता था, जहां-जहां
भटकता था, वहीं
से तो मरेगा।
और जो कामकेंद्र
से मरता है वह
फिर जन्म ले
लेता है।
क्योंकि कामवासना
और जन्म की
आकांक्षा है।
जो सहस्रार से
विदा होता है
फिर उसका कोई
जन्म नहीं।
सहस्रार से तुम
परमात्मा में
लीन होते हो, और कामकेंद्र
से तुम
प्रकृति में
लीन होते हो। कामकेंद्र
प्रकृति से जोड़ता है, सहस्रार
परमात्मा से।
'उत्थानशील,
अप्रमाद से
भरा, संयम
और दम के द्वारा
ऐसा द्वीप बना
लेना चाहिए
जिसे बाढ़ न डुबा
सके।'
जिसे
मौत न डुबा
सके। ऐसा
द्वीप बन जाता
है। सहस्रार
की ही चर्चा
है। वहां
तुम्हारी
चेतना इकट्ठी
होती चली जाती
है। धीरे-धीरे
शरीर से तुम
अलग हो जाते
हो। धीरे-धीरे
चैतन्य ही
तुम्हारी
एकमात्र भावदशा
रह जाती है, होश प्रगाढ़
हो जाता है। संगृहीभूत
हो जाता है।
सघन हो जाता
है। तुम तब
नीचे नहीं भटकते।
बुद्ध ने इसको
कहा है
मेघ-समाधि।
जैसे कि बादल
ऊपर डोलता है।
बरस जाए तो
जमीन पर धाराएं
बहती हैं।
अन्यथा जल
आकाश में
भटकता है, ऊपर
उठ जाता है, उत्थान हो
जाता है।
जब कोई
व्यक्ति अपनी
जीवन-चेतना को
शरीर से
निरंतर अलग करता
रहता है, तो
धीरे-धीरे
उसके
मस्तिष्क में
मेघ-समाधि का जन्म
होता है। उसकी
सारी चेतना एक
मेघ की भांति
उसके
मस्तिष्क में
समाहित हो
जाती है। सारा
शरीर नीचे पड़ा
रह जाता है।
वह आकाश में
घूमते एक सफेद
बादल की तरह
हो जाता है।
और जब प्राण
वहां से
निकलते हैं तो
मृत्यु
तुम्हें छू भी
नहीं पाती।
वहां से अमृत का
द्वार है।
लेकिन
तुम उस द्वार
पर खड़े हो
जहां सिर्फ आशाओं के
आश्वासन हैं।
तुम महाशंख
के सामने प्रार्थनाएं
कर रहे हो।
कोई
आया न आएगा
लेकिन
क्या
करें गर न
इंतजार करें
न कोई
कभी आया वहां
उस द्वार पर, न कोई कभी
आएगा, लेकिन,
क्या करें
गर न इंतजार
करें! आदमी
कहता है, क्या
करें? क्योंकि
तुम्हें एक ही
द्वार का पता
है, वहीं
तुम होना
जानते हो।
उत्थान करो
चेतना का, जागो, खींचो
अपने को ऊपर
की तरफ; दृढ़ता,
पराक्रम का,
संयम का एक
द्वीप बनाओ।
'दुर्बुद्धि लोग प्रमाद
में लगते हैं,
और
बुद्धिमान
पुरुष
श्रेष्ठ धन की
तरह अप्रमाद
की रक्षा करते
हैं।'
लेकिन
यह तभी संभव
है जब तुम
जिंदगी की
असलियत को
पहचान लो। इस
जिंदगी की
असलियत को
पहचानते ही
तुम्हारे कदम
दूसरी जिंदगी
की तरफ उठने
शुरू हो जाते
हैं।
'दुर्बुद्धि,
मूढ़ लोग प्रमाद
में लगते हैं।'
इससे
बड़ी मूढ़ता और
क्या हो सकती
है कि जिस द्वार
पर कभी कोई
नहीं आया, वहीं तुम
प्रतीक्षा
किए बैठे हो।
कब तक बैठे रहोगे?
कितने
जन्मों से तुम
बैठे रहे हो
इसी कामवासना
के द्वार पर।
कब तक बैठे रहोगे?
बहुत देर हो
गयी। ऐसे ही
बहुत देर हो
गयी। अब जाग
जाना चाहिए। कितनी
बार मर चुके
हो, फिर भी
खयाल न आया कि
जिस वृक्ष में
हर बार मृत्यु
का फल लगता है
वह वृक्ष बीज
से ही गलत है।
जो जागे, जिन्होंने जरा गौर से
जिंदगी को
देखा, उन्होंने
क्या पाया? उन्होंने
कुछ और ही बात पायी!
मैंने
पूछा जो
जिंदगी क्या
है
हाथ
से गिर के जाम
टूट गया
जिन्होंने
भी पूछा, जिन्होंने भी जरा होश सम्हाला, जरा जिंदगी
को गौर से
देखा--हाथ से
गिर के जाम टूट
गया। बेहोशी
में ही जिंदगी
का जाम सम्हला
है। होश आते
ही टूट जाता
है, टुकड़े-टुकड़े
हो जाता है।
पर हो ही जाए
तो अच्छा। तुम
जिसे जिंदगी
कहते हो वह
टूट ही जाए तो
अच्छा।
क्योंकि तुम
और किसी तरह जागोगे
नहीं।
तुम्हारा
सपना किसी तरह
बिखर ही
जाए तो अच्छा।
पर तुम
अपने अनुभव को
झुठलाए
चले जाते हो।
आदमी अनुभव से
सीखता ही
नहीं। तुम
अपने सारे
अनुभव को
भूलते चले
जाते हो। कल भी
तुमने क्रोध
किया, परसों
भी क्रोध किया,
क्रोध से
कुछ पाया? कुछ
भी नहीं पाया।
तुम भलीभांति
जानते हो।
किसी बुद्धपुरुष
की जरूरत नहीं
है तुम्हें यह
समझाने
को। लेकिन आज
भी तुम क्रोध करोगे, और
कल भी तुम
क्रोध करोगे।
क्या तुम
अनुभव से कभी
कुछ सीखते ही
नहीं? क्या
अनुभव का तुम
कभी कोई इत्र
नहीं निचोड़ते?
क्या अनुभव
आते हैं और
चले जाते हैं
और तुम चिकने घड़े की तरह
रह जाते हो? तुमने कल भी
वासना की थी, परसों भी
वासना की थी, कौन से फूल खिले? कौन
से वाद्य बजे?
कौन सा
उत्सव हुआ? हर बार हारे,
हर बार थके,
हर बार
विषाद ने मन
को घेरा, हर
बार पीड़ा
अनुभव की, संताप
अनुभव किया, फिर-फिर भूल
गए। ऐसा लगता
है कि तुमने
अपने को धोखा
देने की कसम
खा रखी है।
तुम
कहां वस्ल
कहां वस्ल के
अरमान कहां
दिल
के बहलाने को
एक बात बना रक्खी
है
तुम्हें
भलीभांति
पता है कि दिल
को बहला रहे
हो। लेकिन इस
दिल का बहलाना
बड़ा महंगा
सौदा है। जो
मिल सकता था वह
तुम गंवा रहे
हो, और जो मिल
नहीं सकता उस
द्वार पर हाथ जोड़े खड़े
हो।
जागो।
थोड़े से भी जागोगे, एक किरण
काफी है
अंधेरे को
मिटाने को।
मिट्टी का
छोटा सा दीया
काफी है, कोई
सूरज थोड़े ही
चाहिए! लेकिन
जिस घर में
पहली किरण आ
गयी, उस घर
में सूरज का
आगमन शुरू हो
गया। और जिस
घर में मिट्टी
का दीया जल
गया, देर
नहीं है, जल्दी
ही हजार-हजार
सूरज भी जलेंगे।
थोड़ी सी किरण
भी; जरा सा
बोध भी; पर
बैठे मत रहो,
कोई और इस
काम को
तुम्हारे लिए
न कर सकेगा। तुम्हीं
को करना होगा।
इसलिए
प्रतीक्षा मत
करो कि कोई
आएगा और
आशीर्वाद दे
देगा, और
किसी के
आशीर्वाद से
हो जाएगा। यह
आशीर्वाद
तुम्हें
स्वयं को ही
अपने को देना
होगा।
इसलिए
बुद्ध कहते
हैं, पराक्रमी।
यही एक
पराक्रम है। उत्थानरत,
सतत ध्यान
में लगा, अप्रमत्त,
ऐसा जिसका
जीवन है वह
जीवन ही
धार्मिक जीवन
है। मंदिर
जाने से कुछ न
होगा, मस्जिद
जाने से कुछ न
होगा, परमात्मा
तुम्हारे
भीतर है। कहीं
और खोजोगे,
व्यर्थ ही
समय जाएगा। और
सब जगह तुम
खोज भी चुके
हो। कितनी पृथ्वियों
पर तुम भटके
हो! कितने लोक-लोकांतर
में! कितनी योनियों
में! कितनी
जीवन-स्थितियों
में! अब एक काम
और कर लो कि
अपने भीतर खोज
लो। जिसने उसे
वहां खोजा, वह कभी खाली
हाथ नहीं आया।
और जिन्होंने
कहीं और खोजा,
उनके हाथ
कभी भरे नहीं।
उम्रे-दराज
मांगकर
लाए थे चार
दिन
दो
आरजू में कट
गए दो इंतजार
में
जो
थोड़ा-बहुत समय
बचा हो, उसे
अब आरजू में
और इंतजार में
मत लगाओ।
अब उसे भीतर
के होश को जगाने
में, भीतर
की चेतना को
उठाने में, भीतर के
परमात्मा को
पुकारने में लगाओ। और
पुकारते ही वह
उपलब्ध हो
जाता है, क्योंकि
केवल
विस्मृति हुई
है, उसे
कभी खोया तो
नहीं।
आज
इतना ही।
thank you guruji
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