चरैवेति-चरैवेति—प्रवचन—चालिसवां
पहला प्रश्न:
आप कैसे समझेंगे कि मैं प्रेम में हूं और मैं कैसे समझ कि आपने मेरा
प्रेम स्वीकारा?
प्रेम के होने में ही उसकी अभिव्यक्ति है। जैसे
सूरज निकलता है, तब सूरज के होने का और क्या प्रमाण चाहिए? सूरज का होना ही
काफी प्रमाण है।
प्रेम की रोशनी सूरज से भी ज्यादा है; तुम्हें दिखाई नहीं
पड़ती, क्योंकि सूरज को देखने के लिए तो तुम्हारे पास आंख है, प्रेम को देखने के
लिए तुम्हारे पास आंख नहीं। प्रेम हो तो छिपाए नहीं छिपता। प्रेम का होना इस जगत
में सबसे सघनीभूत घटना है; उससे ज्यादा सूक्ष्म कुछ भी नहीं है, उससे ज्यादा विराट भी कुछ नहीं है। प्रेम यानी
परमात्मा की झलक।
इसीलिए तो जिससे तुम्हें प्रेम हो जाए, उसमें परमात्मा
दिखाई पड़ने लगता है। अगर तुम्हें अपने प्रेमी में परमात्मा न दिखाई पड़े तो प्रेम
हुआ ही नहीं, कुछ और—हुआ होगा; तुमने कुछ और समझ लिया। जहां भी प्रेम हो, वहां परमात्मा दिखाई
पड़ना शुरू हो जाता है। प्रेम की आंख हो तो परमात्मा पैदा हो जाता है।
और जीवन जुड़ा है। हर चीज एक—दूसरे से जुड़ी है।
घास का पौधा भी चांद—तारों से जुड़ा है। घास का पौधा भी कंपता है तो चांद—तारे कैप
जाते हैं। सब कुछ संयुक्त है।
उपनिषदों ने कहा है, यह सृष्टि ऐसे है, यह विश्व ऐसे है, जैसे मकड़ी का जाल।
एक कोने से मकड़ी के जाल को जरा सा हिलाओ, पूरा जाल हिल जाता है, दूर—दूर तक के कोने हिल जाते हैं।
यह कायनात का आहंग है कि सहरे—हयात
चटक कली की सितारों को गुदगुदाती है
चटक कली की सितारों को गुदगुदाती है—छोटी सी कली!
पर दूर के बड़े—बड़े सितारे भी छोटी कली के खिलने से खिल जाते हैं।
तुम अगर मेरे प्रेम में हो तो तुम इसकी फिक्र छोड़
दो कि मुझे पता चलेगा कि नहीं; चल ही जाएगा। मेरे पास प्रेम को देखने की आंख है। तुम्हें बताने की
जरूरत भी न पड़ेगी। तुम्हें यह न कहना पड़ेगा कि तुम्हें प्रेम है।
तुम्हारी उलझन भी मैं समझता हूं क्योंकि तुम्हारे
पास अभी प्रेम की आंख नहीं, तो तुम डरते हो, कहीं ऐसा न हो कि तुम्हारे भीतर प्रेम हो और मुझे पता भी न चले।
तुम्हारे भय को मैं समझता हूं। तुम्हारे भय से मेरी सहानुभूति है, लेकिन इसकी तुम
चिंता ही छोड़ दो। तुम्हें प्रेम है तो मुझे पता चल ही जाएगा। तुम सिर्फ प्रेम में
डूबने की फिक्र करो। ऐसा कभी हुआ ही नहीं कि प्रेम हो और पता न चले।
लेकिन साधारणत: हमें प्रेम को जतलाना पड़ता है, बतलाना पड़ता है।
प्रेमी एक—दूसरे से कहते नहीं थकते कि मुझे तुमसे प्रेम है; मुझे तुमसे प्रेम है।
यह सिर्फ इस बात की खबर है कि उन्हें डर है कि कहीं ऐसा तो न होगा कि हम यहा जलते
ही रहें और दूसरी तरफ पता ही न चले! इधर हम मरते ही रहें और दूसरी तरफ खबर भी न
हो!
पर ऐसा कभी हुआ ही नहीं। ऐसा कभी होता ही नहीं।
प्रेम इतनी बड़ी घटना है, छिपाए नहीं छिपती। तुम्हारा रोआं—रोआं कहने लगता है, तुम्हारे होने का
ढंग कहने लगता है। तुम उठते और ढंग से हो, तुम बोलते और ढंग से हो, तुम्हारी आंखें बदल जाती हैं, तुम्हारे चेहरे की आभा बदल जाती है। प्रेम इतने विराट का उतर आना है
तुममें कि तुम्हारी सारी सीमाएं डावाडोल हो जाती हैं। तुम एक मस्ती से भरकर चलते
हो, जैसे शराबी चलता है।
और जिसने प्रेम की शराब पी ली, फिर उसे शराब की
जरूरत नहीं रह जाती 1 शराब की जरूरत ही इसलिए पड़ती है कि कहीं प्रेम की शराब से
चूकना हो गया है। दुनिया में शराब बढ़ती चली जाती है, क्योंकि प्रेम घटता चला जाता है। मस्ती तो चाहिए
ही; एक बेखुदी तो चाहिए ही; अन्यथा आदमी जीए कैसे, किस सहारे जीए? कुछ भीतर लबालब, कुछ भरापन तो चाहिए ही; अन्यथा आदमी जीए किसलिए? किस कारण जीए? एक मस्ती तो चाहिए ही; अन्यथा चलना बोझ हो जाता है, उठना बोझ हो जाता है। किसलिए उठो?
क्या प्रयोजन है?
जीवन एक सौभाग्य नहीं मालूम होता प्रेम के बिना, जीवन एक दुर्भाग्य
बन जाता है। तब लोग जीवन को घसीटते हैं। तब जीवन तुम्हारे साथ लंगड़ाता है। तब जीवन
का आशीर्वाद तुम्हें उपलब्ध नहीं होता, उलटे ऐसा लगता है कि किस दुष्ट परमात्मा ने यह मजाक की!
फियोदोर दोस्तोवस्की का प्रसिद्ध उपन्यास है
ब्रदर्स कर्माझोव। अनूठा! अपने तरह का अकेला! विश्व—साहित्य में फिर वैसी दूसरी
कोई कृति नहीं। उसमें एक नास्तिक पात्र है,
जो जीवन से ऐसा उदास, इतना बुझा—बुझा हो
गया है कि वह एक दिन परमात्मा की तरफ, आकाश की तरफ आंख उठाकर कहता है कि मुझे तुझमें भरोसा तो नहीं; मैं जानता तो नहीं
कि तू है, लेकिन अगर कहीं तू हो और मुझे मिल जाए तो मैं यह जीवन तुझे वापस
लौटाना चाहता हूं। यह जो तूने मुझे जीवन में प्रवेश का अधिकार दिया, यह तू वापस ले ले। न
होना भला इस होने से।
प्रेम के बिना होने से न होना भला हो जाता है। और
अगर प्रेम हो तो न होना भी एक गहन होने को अपने भीतर समा लेता है। होने की तो बात
ही छोड़ो, न होना भी सुखद हो जाता है। होना तो परिपूर्ण आनंद हो जाता है, न होना भी
सौभाग्यपूर्ण हो जाता है।
प्रेम जीवन की ज्योति है। प्रेम के बिना घर ऐसे
है, जैसे दीया बुझ गया हो और अंधेरा घर! प्रेम के बिना जीवन ऐसे है, जैसे वीणा के तार
टूट गए हों, संगीत से खाली और शून्य वीणा! प्रेम के बिना जीवन ऐसा है, जैसे वृक्ष तो हो और
फूल न आए हों और फूलों ने आने से इनकार कर दिया हो—बांझ वृक्ष! प्रेम जीवन को भरता
है। प्रेम के बिना जीवन की प्याली खाली है;
प्रेम हो तो भर जाती है।
और जब तक प्रेम न हो, तब तक तुम्हें लगता
ही रहेगा—खाली....खाली... खाली.! एक उदासी,
एक संताप,
एक चिंता,
व्यर्थ की भागदौड़! कहीं कोई सार नहीं, कहीं कोई अर्थ नहीं, कहीं कोई लय नहीं।
जैसे किसी ने मजाक किया हो; जैसे परमात्मा शुभ न हो, शैतान हो; जैसे उसने मजाक किया हो, तुम्हें सताने के लिए पैदा किया हो; कि तुम किलबिलाओ, कि तुम परेशान होओ, कि तुम पीड़ित होओ और वह दुष्ट आततायी ऊपर से
बैठकर इस खेल को देखे!
प्रेम जैसे ही तुम्हें छूता है—जैसे सुबह की ठंडी
हवा आ जाए, पुलक—पुलक ताजा हो जाए; जैसे रात चांद उग आए, सब तरफ चांदी फैल जाए।
सुबह की आज जो रंगत है वह पहले तो न थी
क्या खबर आज खरामा सरे—गुलजार है कौन
आज मेरे बगीचे से कौन गुजर गया?
सुबह की आज जो रंगत है वह पहले तो न थी
सुबह तो बहुत हुईं, लेकिन सुबह पहली बार होती है, जब प्रेम होता है।
सुबह की आज जो रंगत है वह पहले तो न थी
क्या खबर आज खरामा सरे—गुलजार है कौन
कौन आज सुबह—सुबह मेरे बगीचे से गुजर गया? कौन मेरे हृदय से
गुजर गया है? सब अधखिली कलियां चटक गयीं, फूल बन गयीं। मुर्झाए पौधे जीवंत हो गए, हरे हो गए। मरुस्थल जगमगा उठा, दीपमालिका सज गई।
शाम गुलनार हुई जाती है, देखो तो सही
यह जो निकला है लिए मशअले—रुखसार है कौन
यह कौन मेरे हृदय में मशाल लेकर निकल गया?
शाम गुलनार हुई जाती है, देखो तो सही
यह जो निकला है लिए मशअले—रुखसार है कौन
प्रेम आता है,
एक झंझावात की तरह जगा जाता है।
प्रेम आता है,
नींद तोड़ जाता है।
प्रेम आता है,
प्रकाश से भर जाता है।
प्रेम आता है,
तत्क्षण 'लगता है, अब जीवन में गति आई, गंतव्य आया, कहीं पहुंचने जैसी कोई बात हुई। नाव को दिशा मिलती है।
मैं तो समझ लूंगा, अगर तुम्हें यह समझ में आ गया हो—
सुबह की आज जो रंगत है वह पहले तो न थी
अगर तुम्हें यह समझ में आ गया हो कि आज दिल का
हाल कुछ और! किसी ने छुआ है और वीणा जाग उठी है। किसी ने छुआ है और वीणा गुनगुनाने
लगी है। किसी ने छुआ है और मौन बोल उठा है।
तुम्हें भर पता हो! तुम मेरी फिक्र छोड़ो। तुम्हें
पता चले इसके पहले मुझे पता चल जाएगा। तुम्हें पता चलेगा उसके पहले मुझे पता चल
जाएगा। क्योंकि तुम भी अपने हृदय के उतने करीब नही हो, जितना मैं तुम्हारे
हृदय के करीब हूं। तुम्हें पता चलने में थोड़ी देर लग जाएगी, तुम अपने से थोड़े
ज्यादा दूर हो। मैं तुमसे ज्यादा करीब हूं क्योंकि मैं अपने करीब हूं।
जो अपने करीब है, वह सबके करीब है, क्योंकि अपने करीब होना सबके करीब हो जाना है। उस
भीतर के जगत में अपना और पराया कोई है? उस भीतर के जगत में मैं और तू कोई है? जिस दिन मैं अपने करीब हुआ, उसी दिन मैं
तुम्हारे करीब हो गया हूं।
हो सकता है,
प्रेम तुम्हारे भीतर जगे, तुम्हें थोड़ी देर से
पता चले। तुम पहले तो चौकोगे; पहले तो तुम भरोसा न कर सकोगे;
पहले तो तुम संदेह से भरोगे कि यह क्या हुआ है? जरूर कोई कल्पना
होगी, कोई मन का खेल—फिर कोई खेल, फिर कोई स्वप्न ने पकड़ा मालूम हुआ।
पहले तो तुम लाख उपाय करोगे इसे झुठलाने के कि यह
नहीं है, क्योंकि यह खतरा है, यह जोखिम है। यहां चलना खतरे से खाली नहीं है। पहले तो तुम सम्हालोगे।
तुम्हारे पैर तो कभी न लड़खड़ाए थे। तुम तो सदा सम्हलकर चले थे। तुम तो बड़े होशियार
थे और आज यह कैसी दीवानगी छाई जाती है? और आज यह क्या हुआ जाता है? पैर लड़खड़ाने लगे। तुमने तो कभी पी न थी, आज यह तुम्हें क्या हुआ है?
तुम पहले तो किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाओगे। तुम्हारा
सारा अतीत डगमगा जाएगा। ऐसे तो तुम कभी भी न थे। यह कुछ नया हुआ है! तुम इंकार
करोगे, क्योंकि मन जो अतीत है, उससे ही बंधा रहना चाहता है। मन नए से भयभीत है। इसीलिए तो मन
परमात्मा को कभी भी नहीं खोज पाता, क्योंकि परमात्मा नित—नूतन है।
मन तो बंधी लकीर का फकीर है, बंधे—बंधाए रास्तों
पर सुविधापूर्ण दौड़ता रहता है। ट्रामगाड़ी है,
बंधी पटरियों पर दौड़ती रहती है ऐसा मन है। जब
पहली दफा तुम पाओगे कि पटरियां नीचे से हट गयीं, बिना पटरियों के तुम अनजान में उतरे जाते हों—घबड़ा
जाओगे, ठिठककर खड़े हो जाओगे, पुराने सूत्र को पकड़ने की चेष्टा करोगे, नए से बचना चाहोगे।
लेकिन प्रेम आ जाए तो तुम बच न सकोगे, देर—अबेर तुम्हें
स्वीकार करना ही पड़ेगा। क्योंकि प्रेम का आनंद ऐसा है। अपरिचित है माना, क्योंकि आनंद ही
तुम्हें अपरिचित है; अनजान है माना, क्योंकि जो तुमने जाना है, वह जानने योग्य भी कहा था? उतरते हो किसी ऐसे लोक में, जिसका हाथ में कोई नक्शा नहीं है।
डर स्वाभाविक है, लेकिन डर भी तभी तक है जब तक प्रेम की घटना नहीं
घटी है। एक बार घटे तो धीरे—धीरे डर छूट जाता है। कौन प्रेम को छोड़ेगा भय के लिए? थोड़ी देर जद्दोजहद
होगी, थोड़ी देर तुम लड़ोगे, थोड़ी देर तुम बचोगे, थोड़ी देर तुम उपाय करोगे, लेकिन प्रेम सब व्यर्थ कर जाता है। प्रेम तुमसे बड़ा है; तुम्हारे उपाय कारगर
नहीं हो सकते।
तुम से पहले मुझे पता चल जाता है। अस्तित्व की
भाषा है; और जिसने अपने को जाना, उसने अस्तित्व की भाषा जानी।
इतने लोग मेरे पास आते हैं, जब कोई प्रेम से आता
है तो उसके आने का ढंग ही और। जब कोई प्रेम से आता है, तभी आता है; बाकी आते मालूम पड़ते
हैं, जाते मालूम पड़ते हैं। बाकी आते हैं, जाने के लिए;
प्रेम से भरकर जो आता है, वह आ गया; फिर कोई जाना नहीं
है। प्रेम में कोई लौटने का उपाय नहीं है।
तो अगर तुम्हें लगता हो, अगर तुम्हें खबर
मिली हो, संदेशा पहुंच गया हो, तुम्हारे हृदय की खबर तुम्हारे मस्तिष्क तक आ गई हो, जहां तुम विराजमान
हो; सिर में जहां तुम बैठे हो, वहा तक अगर हृदय के तार झंकार पहुंच गए हों तो तुम मेरी फिक्र मत करो।
तुमने न जाना था, उसके पहले ही मैंने स्वीकार कर लिया है। मैं उसकी प्रतीक्षा ही कर रहा
हूं। तुम्हारे भीतर प्रेम का जन्म हो, यही तो मेरी सारी सतत चेष्टा है। क्योंकि प्रेम से ही परमात्मा का
सूत्र हाथ में आएगा।
घबड़ाना मत और इस चिंता में मत पड़ना कि मैं
स्वीकार करूंगा या नहीं! प्रेम को कब कौन अस्वीकार कर पाया है? प्रेम को अगर कभी
अस्वीकार किया गया है तो प्रेम के कारण नहीं,
प्रेम में छिपी वासना के कारण। प्रेम को अगर कभी
अस्वीकार किया गया है तो प्रेम के कारण नहीं,
किसी और चीज के कारण, जिसने प्रेम का ढोंग
बना रखा था।
एक युवक मेरे पास आया और उसने कहा, मैं एक युवती के
प्रेम में हूं क्या वह मुझे स्वीकार करेगी?
मैंने कहा,
मुझे उस युवती का कोई पता नहीं, लेकिन प्रेम का मुझे
पता है; अगर प्रेम है तो प्रेम अस्वीकार होता ही नहीं। तू फिर से सोच, प्रेम है? वह थोड़ा डगमगाया; उसने कहा, कह नहीं सकता। तो
फिर मैंने कहा, जब तेरे ही पैर डगमगा रहे हैं,
अभी तुझे ही साफ नहीं है। तू फिर सोचकर आ। तू सात
दिन इस पर ध्यान कर। युवती की तो तू फिक्र छोड़ दे, उससे कुछ लेना—देना नहीं है। जीवन के नियम के
विपरीत तो कोई कभी गया नहीं है। तुझे अगर प्रेम है तो तू फिर से सोचकर आ। सात दिन
बाद वह आया और उसने कहा कि क्षमा करें, प्रेम मुझे नहीं है; सिर्फ वासना थी। प्रेम का मैंने नाम दिया था।
वासना तो स्वीकार हो जाती है—यह आश्चर्य है, चमत्कार है। जब
प्रेम अस्वीकार होगा, तो चमत्कार होगा। वैसा चमत्कार कभी हुआ नहीं।
और मेरे प्रेम में जो पड़ते हैं.. मेरे प्रेम में
पड़कर तुम पा क्या सकते हो? सिर्फ खो सकते हो। मेरे प्रेम में पड़कर तुम्हें मिलेगा क्या? मिटोगे। मेरे प्रेम
में पड़कर तुम विसर्जित होओगे, विलीन होओगे।
तो मुझसे तो प्रेम बन ही नहीं सकता, अगर तुम्हारी कोई भी
मांग हो, कोई भी कामना हो। मुझसे प्रेम का अर्थ तो प्रार्थना ही है।
अगर खबर मिल गई हो, हिम्मत से बढ़े चलो, शायद दो—चार कदम दूर ही मंजिल है। प्रेम से मंजिल बहुत फासले पर है ही
नहीं; बस, दो—चार कदम की बात है।
याद की रहगुजर जिस पर इसी सूरत से
मुद्दतें बीत गई हैं तुम्हें चलते-चलते
खत्म हो जाए जो दो—चार कदम और चलो
मोड़ पड़ता है जहां दश्ते—फरामोशी का
एक ऐसा जंगल आता है, जहा सब खो जाता है।
मोड़ पड़ता है जहां दश्ते—फरामोशी का
जिससे आगे न कोई मैं हूं न कोई तुम हो
खत्म हो जाए जो दो—चार कदम और चलो
याद की रहगुजर जिस पर इसी सूरत से
मुद्दतें बीत गई हैं तुम्हें चलते-चलते
कितने समय से चल रहे हो! इसी रास्ते पर कितने
जन्म बीते! अगर सिर्फ एक बात की तैयारी हो—खो जाने की तैयारी हो—तो दो—चार कदम और!
खत्म हो जाए जो दों—चार कदम और चलो
मोड़ पड़ता है जहां दश्ते—फरामोशी का
जिससे आगे न कोई मैं हूं न कोई तुम हो
प्रेम की खबर मिली यानी मौत की खबर मिली। प्रेम की
खबर मिली यानी मौत ने पुकारा। और यह ऐसी मौत है, जिसमें मरकर कोई फिर पैदा नहीं होता।
उस मौत की बात नहीं कर रहा हूं? जिसमें तुम मरकर कई
बार पैदा हुए। उस मौत से तो कुछ खास फर्क पड़ता नहीं। चोले बदल जाते हैं, देह बदल जाती है, जरा—जीर्ण वस्त्रों
की जगह नए वस्त्र मिल जाते हैं। उस मौत से तो कुछ मिटता नहीं। उस मौत से तुम नहीं
मिटते, तुम तो बने ही रहते हो, तुम तो बचे ही रहते हो। जिसे तुमने अब तक मौत की तरह जाना—शरीर छिन
जाते हैं, मन नहीं छिनता। मन तो यात्रा पर चलता ही रहता है।
याद की रहगुजर जिस पर इसीसूरत से
मुद्दतें बीत गई हैं तुम्हें चलते—चलते
मैं तुम्हें एक ऐसी मौत का निमंत्रण दे रहा हूं
जो आखिरी है, जो आत्यंतिक है, अल्टीमेट है, चरम है, जहां शरीर का सवाल नहीं, जहां मन के मिटने का सवाल है; जहां तुम्हारे मिटने का सवाल है।
इधर मैं मिटा बैठा हूं मुझसे प्रेम करने का मतलब
है, तुम्हारे मन में मिटने की आकांक्षा आ गई। मुझसे प्रेम का मतलब है कि पतंगा शमा की
तरफ चला। मुझसे प्रेम का मतलब है, अब तुम अपने पंख जलाने चले; अब तुम अपने को मिटाने चले।
इससे ही तो बहुत थोड़े से लोग मेरे पास आ पाएंगे।
सदा ऐसा ही हुआ है; मिटने को बहुत थोड़े लोग तैयार हैं। मगर सौभाग्यशाली हैं वे जो मिटने
को तैयार हैं, क्योंकि मिटकर ही जीवन का परम सत्य पाया जाता है।
दूसरा प्रश्न :
आपने कहा कि तुम अभी अहंकार से भरे हो। यह अहंकार
है क्या? और यह कैसे पता चले कि क्या—क्या अहंकार है और क्या—क्या अहंकार नहीं
है?
जो पता चलाना चाह रहा
है, वही अहंकार है। अहंकार तरकीब खोज रहा है अब। वह कहता है ठीक, चलो माना; चलो कौन विवाद करे? स्वीकार! अब यह तो
पता कर लो, क्या—क्या अहंकार है और क्या—क्या अहंकार नहीं है?
सभी कुछ अहंकार है। तुम्हारे पास जो भी है, सभी कुछ अहंकार है।
इसको मैं बेशर्त कहता हूं। क्योंकि शर्त बांधी कि अहंकार उसी शर्त में बच जाएगा; तुम जो बचाओगे, उसी में छिप जाएगा।
तुम अगर कहोगे, प्रार्थना तो अहंकार नहीं? प्रेम तो अहंकार
नहीं? तो फिर अहंकार उसी आडू में बच जाएगा। ये अहंकार की तरकीबें हैं! आडू
खोजना। वह कहता है, प्रार्थना तो अहंकार नहीं! तो चलो,
प्रार्थना के पीछे ही छिप जाएं; अब से प्रार्थना ही
करेंगे। और तब तुम कहने लगोगे कि मैं परमात्मा का पूजक! परमात्मा का पुजारी! मेरी
पूजा देखो, मेरे जैसा पुजारी और कोई भी नहीं। मेरा प्रेम देखो, मेरे जैसा प्रेमी
तुम कहीं पाओगे ' अहंकार वहीं खड़ा हो जाएगा।
अगर मैंने तुमसे कहा, विनम्रता अहंकार
नहीं है, तो विंनम्रतीं के पीछे खड़ा हो जाएगा। अहंकार कहेगा, मुझसे विनम्र कभी
कोई हुआ है!
अहंकार ने ऐसी बहुत सी शरण—स्थल खोज रखी हैं।
किसी ने कहा दान, किसी ने कहा पूजा, किसी ने कहा नमाज, किसी ने कहा त्याग, किसी ने कहा उपवास, किसी ने कहा संन्यास—बस, अहंकार वहीं छिप जाएगा। अहंकार को अड़चन थोड़े ही है किसी चीज में छिप
जाने से!
कोई धन की ही थोड़े ही जरूरत है, निर्धन का भी अहंकार
होता है। अमीर ही थोड़े ही अकड़कर चलते हैं, गरीब भी अकड़कर चलते हैं। अमीर अकड़कर चलता है धन के कारण, गरीब अकड़कर चलते हैं
निर्धनता के कारण। वे कहते हैं, हम गरीब भले! क्या रखा है चांदी के ठीकरों में? गरीबी बड़ी नियामत है।
शहर का आदमी अकड़कर चलता है, क्योंकि शहर का है, गांव का आदमी अकड़कर
चलता है, क्योंकि गांव का है। जिनके पास बहुत बुद्धि है, वे अकड़कर चलते हैं
कि हम बड़े बुद्धिमान हैं; जिनके पास बुद्धि नहीं, वे कहते हैं, क्या रखा है बुद्धि में? हम तो सीधे—सादे आदमी हैं।
अकड़ के लिए कोई भी बहाना काफी है। इसलिए मैं
तुमसे कहता हूं बेशर्त, तुम्हारे पास जो भी है, सभी अहंकार है। जिस दिन तुम्हारे पास जो भी है, सभी अहंकार की समझ
तुम्हें आ जाएगी, अहंकार को बचने की जगह न रही; फिर अहंकार कहीं छिप न सकेगा।
समझदारी भी शरण बन जाती है, नासमझी भी शरण बन जाती है। भोग तो शरण बनता ही है, त्याग भी शरण बन
जाता है।
त्यागियों का अहंकार देखते हो, कैसा दीप्त! कैसा
चमकता हुआ! भोगी का अहंकार थोड़ा बोथला होता है,
त्यागी के अहंकार में धार होती है। अभी—अभी उसकी
तलवार पर धार रखकर आई है। भोगी तो थोड़ा डरता भी है, क्योंकि कहता है, भोगी हूं कैसे कहूं? सारी दुनिया को पता
है। त्यागी डरता भी नहीं; वह कहता है, त्यागी हूं। त्यागी बताना चाहता है—सारी दुनिया को पता चल जाए। भोगी
तो थोड़ा छिपाता भी है। पापी तो डरता है, छिपाता है, किसी को पता न चल जाए; त्यागी बतलाता है, प्रदर्शनवादी हो जाता है। तुमने पापियों की शोभा—यात्राएं देखीं? महात्माओं की निकलती
हैं, रथ निकलते हैं।
बड़ी कठिनाई है। मगर कठिनाई को जड़ से पकड़ लो तो बड़ी नहीं है, जरा सी है। ही, जड़ से ही न पकड़ो तो
फिर कठिनाई है।
तुम एक कमरे को साफ कर लोगे, अहंकार दूसरे कमरे
में छिप जाएगा। भवन बड़ा है, इसमें बहुत कमरे हैं। फिर तो यह लुका—छिपी चलती रहेगी जन्मों—जन्मों।
ऐसा ही तो चलता रहा है। एक तरफ से बचे, दूसरी तरफ से पकड़े गए। दूसरी तरफ से बचे तो तीसरी तरफ से पकड़े गए।
यह लुका—छिपी का खेल बंद करो। मैं तुमसे कहता हूं
सभी अहंकार है, क्योंकि तुम अहंकार हो। तुम्हारा सब अहंकार है—सब!
थोड़ा ज्यादा लगेगा; लगेगा मैं अतिशयोक्ति कर रहा हूं जरा भी
अतिशयोक्ति नहीं कर रहा हूं। अगर अहंकार से छूटना हो तो यही गहरी समझ चाहिए। और
अगर यह तुम्हें दिखाई पड़ जाए, एक आह निकल जाएगी। अगर यह तुम्हें दिखाई पड़ जाए तो कुछ बचेगा तुम्हारे
भीतर, जिसका तुम्हें अभी पता ही नहीं;
जो अभी सब भाति छिपा है तुम्हारे अहंकार में, अहंकार के हटते ही
प्रगट होगा।
अस्तित्व तो होगा, तुम न होओगे। शुद्ध अस्तित्व होगा, तुम्हारी सीमा न
होगी। आंगन की दीवालें गिर जाएंगी और आंगन आकाश हो जाएगा।
आंगन पूछता है, दीवाल का कौन सा हिस्सा है, जो मेरी सीमा बनाता
है? जो हिस्सा सीमा बनाता हो, उसको गिरा दें। लेकिन आंगन की दीवाल पूरी की पूरी सीमा बनाती है; ऐसा कुछ नहीं है कि
एक—आध हिस्सा सीमा बनाता है। अगर एक—आध हिस्सा सीमा बनाता है तो तुम वहां दरवाजा
लगा देना; लेकिन इससे आँगन-आंगन ही रहेगा। दरवाजे वाला आंगन हो जाएगा, आकाश नहीं हो जाएगा आंगन।
सारी दीवालों को विदा करना होगा—बेशर्त!
समझ चाहिए। तुम मुझसे मत पूछो कि क्या अहंकार
नहीं है? क्योंकि मैंने कुछ भी कहा, अगर मैं कहूं आत्मा...।
इसलिए तो बेचारे बुद्ध को आत्मा तक को इनकार कर
देना पड़ा; क्योंकि उन्होंने देखा कि बहुत से लोग आत्मा के पीछे छिपे बैठे हैं।
वे कहते हैं, हम आत्मा हैं; अहं ब्रह्मास्मि। आत्मा ही नहीं,
मैं ब्रह्म हूं। अब क्या करोगे?
उपनिषद के ऋषि ने जब कहा था, मैं ब्रह्म हूं तो
जोर ब्रह्म पर था। पीछे चलने वाले लोग जब दोहराते हैं, अहं ब्रह्मास्मि, तो जोर अहं पर होता
है, मैं पर होता है। मैं ब्रह्म हूं इसमें मैं असली चीज है, ब्रह्म हो या न हो।
ब्रह्म तो भ्रम भी हो सकता है, लेकिन मैं हूं और ब्रह्म भी मेरा है। उपनिषद के ऋषि ने कहा था, चूंकि मैं नहीं हूं
इसलिए ब्रह्म। जोर ब्रह्म पर था; मैं, मेरा क्या होना न होना! भाषा की बात थी। बुद्ध ने कहा, आत्मा भी नहीं, ब्रह्म भी नहीं।
तुम्हारे हाथ में कुछ भी पकड़ने को न छोड़ा। इससे
ज्यादा कठोर शिक्षक कभी पैदा नहीं हुआ, क्योंकि इससे बड़ा करुणा का स्रोत ही कभी पैदा नहीं हुआ। इसने तुम्हें
शरण न छोड़ी, सब छीन लिया; कहा, सब धर दो, सब रख दो—तुम्हारा शरीर भी नहीं,
तुम्हारा मन भी नहीं, तुम्हारे विचार भी
नहीं, तुम्हारी आत्मा, तुम्हारे परमात्मा, तुम्हारे शास्त्र, वेद, कुछ भी नहीं—तुम सब रख दो। तुम जो भी रख सकते हो, वह रख ही दो अलग, तब वही बच जाएगा, जो तुम रख ही नहीं
सकते अलग, क्योंकि वह तुम्हारा स्वभाव है। उस शुद्ध स्वभाव का नाम निर्वाण है; अकृत। वह करने से
नहीं मिलता, करने से तो अहंकार ही भाता है।
मुझे कई ऐसे संन्यासी मिलने आ जाते हैं, जिनकी श्वास—श्वास
अहंकार से भरी है। अकड़कर चलते हैं—अहं ब्रह्मास्मि की गज! लेकिन उनकी नाक देखो, उनकी आंख देखो, उनके नथुने देखो, सब के भीतर अहंकार
बड़ी जोर से श्वास लेता मालूम पड़ता है। दो संन्यासियों को एक मंच पर बिठाना मुश्किल
है। कौन ऊपर बैठे? कौन नीचे बैठे? जो नीचे बैठ जाए, वह नीचा हो जाएगा। जिनकी बुद्धि अभी यहां अटकी हो. इनकी पूजा चलती है।
एक बड़े संन्यासी, जिनके बहुत शिष्य हैं, उन्होंने मुझे
निमंत्रण दिया तो मैं गया। वे अपने मंच पर बैठे थे। उनके पास ही एक छोटा मंच था, उस पर एक दूसरे
संन्यासी बैठे थे। जब मेरी उनसे बात होने लगी तो उन्होंने कहा कि देखें, आप देखते हैं यहां
कौन बैठा हुआ है? मैं देख तो रहा हूं कोई बैठे हुए हैं, लेकिन कौन हैं, मैं जानता नहीं। कहने लगे कि ये इलाहाबाद
हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस थे, मगर बड़े विनम्र आदमी हैं। इनकी विनम्रता देखते हैं? सदा मुझसे नीचे
बैठते हैं।
वे बड़ी मंच पर बैठे हैं, वे उनसे जरा मझौल
मंच पर बैठे हैं, और बाकी लोग सब जमीन पर बैठे हैं। मैंने कहा कि ये आपसे तो नीचे बैठे
हैं, मगर हम लोगों से ऊपर बैठे हैं। इनको एक गड्डा खोदकर बिठाओ; यह न चलेगा।
और मैंने कहा,
यह तो मैं मान लिया कि ये विनम्र हैं, आपके संबंध में क्या? ये तो नीचे बैठे हैं, आप ऊपर चढ़े बैठे हैं।
अगर इसी वजह से ये विनम्र हैं कि नीचे बैठे हैं, तो आपके संबंध में क्या!
मैंने कहा,
फिर बताने की क्या जरूरत कि चीफ जस्टिस थे? अब संन्यासी हो गए।
जो मर ही गया, उसकी बात क्या करनी! लेकिन आप मुझसे यह कह रहे हैं कि मेरे अनुयायियों
में चीफ जस्टिस भी हैं हाईकोर्ट के। और चीफ जस्टिस भी हाईकोर्ट के मुझसे नीचे
बैठते हैं। मैंने कहा, इनको मैं देख रहा हूं गौर से; ये कानूनी आदमी हैं, इनकी नजर से कानून दिखाई पड़ रहा है। ये रास्ता देख रहे हैं कि कब आप
खिसके, ये ऊपर बैठें। इसलिए ये बीच में बैठे हैं; इनको पार करके दूसरा
न जा पाएगा।
वे दोनों बड़े नाराज हो गए। उन्होंने कहा, आप शिष्टाचार की
सीमा तोड़ रहे हैं। मैंने कहा, मैंने तो समझा संन्यासियों से बात हो रही है, क्या शिष्टाचार? सत्याचार! शिष्टाचार
तो संसारी रखते हैं, संन्यासी से बात हो रही हो तो सत्याचार इसमें क्या शिष्टाचार! नाराज
क्यों होते हैं?
उन्होंने बुलाया तो था मुझे बोलने, अब वे बड़े घबडाए।
शाम को उनकी बड़ी सभा थी, कोई बीस हजार लोग मौजूद थे। अब वे बड़ी बेचैनी में पड़ गए, बड़ी राजनीति शुरू हो
गई कि इस आदमी को बोलने देना कि नहीं! क्योंकि पता नहीं यह आदमी क्या कहे! इतना
सत्याचार उन्हें जमा नहीं।
ठीक शाम को खबर आई कि मैं बोल न सकूंगा। मैंने
कहा कि चलो तो मैं सुनने ही आ जाता हूं। अब इसको वे मना न कर सके। सुनने के लिए तो
क्या मनाही है? चलो, अब इतनी दूर आ गया हूं तो सुन ही लूंगा।
जब मैं वहा मंच पर बैठ गया तो लोग चिल्लाने लगे
कि सुनना है। मैंने कहा अब इनकी मैं सुनूं क्या करूं? वे सभापति थे. उन्होंने
कहा, मैं सभापति हूं। तो मैंने कहा कि अब पूरी सभा कह रही है। मैंने कहा, हाथ उठवा लें। तो
पूरी सभा ने हाथ उठा दिए। मैंने कहा, अब मैं सभापति की मानूं कि सभा की?
आप पति रहे नहीं; यह तो तलाक हो गया! अब तो मैं बोलूंगा।
तो जिन्होंने मुझे निमंत्रण देकर बुलाया था, उनकी परेशानी तुम
समझ सकते हो। अहंकार बड़े रास्ते खोजता है। वे उठकर चले गए। उन्होंने खड़े होकर कह
दिया, सभा विसर्जित—हालाकि सभा विसर्जित न हुई, वे उठकर चले गए।
अहंकार विनम्रता में छिप जाएगा। अज्ञान ज्ञान की
शरण में छिप जाता है। तुम जरा अपने अंधेरे को तो देखो! तुम्हारा अंधेरा बड़ा कुशल
है। हो सकता है, प्रकाश के सहारे छिपा बैठा हो। अंधेरा बड़ा चालाक है।
हिंदी के एक बड़े कवि थे—महाकवि दिनकर—सदा मुझे
मिलने आते थे। पटना मैं जाता—उनके गांव—तब तो वे निश्चित आते ही; कहीं भी उन्हें पता
चल जाता, आसपास होते तो मुझे मिलने आते। मूर्धन्य कवि थे, बड़ी प्रतिभा थी, मुझसे लगाव था।
एक बार मुझे मिलने आए संयोग की बात, मुझसे उन्होंने कहा
कि डायबिटीज की बीमारी उन्हें हो गई है। तो मैंने कहा कि यह तो बड़ा मुश्किल हुआ, क्योंकि उनको
मिष्ठानों से बड़ा लगाव था, जैसा सभी बिहारियों को.. हमारे मैत्रेय जी बैठे हैं। अब बड़ी मुश्किल
हो गई, डायबिटीज हो गई और मिठाई! तो मुझसे बोले कि बड़ा मुश्किल में पड़ गया
हूं। यह तो जीना दूभर हो गया, मिठाई बिना चलता नहीं। तो मैंने उनकी एक कविता उनको सुनाई। उसकी दो
पंक्तियां हैं—
रूग्ण होना चाहता कोई नहीं
रोग लेकिन आ गया जब पास हो
तिक्त औषध के सिवा उपचार क्या
शमित होगा वह नहीं मिष्ठान्न से
यह उनकी कविता है। मैंने कहा, महाराज! यह आपने
काहे को लिखी होगी? यह तुम्हारी डायबिटीज से निकली है।
रुग्ण होना चाहता कोई नहीं
रोग लेकिन आ गया जब पास हो
तिक्त औषध के सिवा उपचार क्या
शमित होगा वह नहीं मिष्ठान्न से
अब कोई इसको पढ़ेगा तो समझेगा, जिसने लिखा है, जानकर लिखा है। यह
जिसने लिखा है, जानकर नहीं लिखा; वे खुद ही जीवनभर पीड़ित रहे। अभी—अभी तो वे चल बसे, शरीर छोड़ दिया; लेकिन बड़ा दुख उनको
डायबिटीज का नहीं था, बड़ा दुख मिष्ठान्न छूट जाने का था। वे जब भी आते, मुझसे पूछते, ऐसी कोई तरकीब नहीं
त्र कोई ऐसी विधि मुझे बताएं—आप तो इतनी विधियां खोजते है—कि मिष्ठान्न भी खाता
रहूं और डायबिटीज सताए न। सदियां बीत जाएंगी,
यह कविता तो रहेगी, किसी को याद भी न रहेगा कि दिनकर को डायबिटीज थी।
लोग इसको बड़ा मूल्यवान वचन समझेंगे—मूल्यवान वचन है।
तुम क्या कहते हो, इससे पक्का पता नहीं चलता कि तुम क्या हो। तुम
कहो, अहं ब्रह्मास्मि और वहा केवल अहं विराजमान हो सिंहासन पर। तुम समझदारी
की बातें करो और केवल नासमझी को छिपाने का उपाय हो। तुम विनम्र बन जाओ और वह केवल
अहंकार को आभूषण देने की व्यवस्था हो।
तो मैं तुमसे कहता हूं—बेशर्त! जो कुछ तुम्हारे
पास है—पूरा जोड़, रत्तीभर नहीं छोड़ता, पूरा—पूरा अहंकार है। इसलिए चिंता में मत पड़ो कि क्या छोड़ना है? सभी छोड़ना है, सभी के पार जाना है; फिर जो शेष रह जाएगा।
और जरूर शेष रह जाएगा, क्योंकि तुम्हारे
पास कुछ ऐसा भी है, जो तुमसे ज्यादा है। तुम्हारा जोड़ अहंकार है, लेकिन तुम्हारे भीतर
कुछ ऐसा भी है, जो तुम्हारे जोड़ से ज्यादा है,
तुमसे पार है। तुम्हारे भीतर तुमसे विराटतर कुछ
है। तुम्हारे भीतर तुमसे गहरा कुछ है। तुम्हारे भीतर तुमसे ऊंचा कुछ है। तुम्हारे
भीतर ऐसा कुछ है, जो तुम्हारे मैं से अछूता है, कुंआरा है।
पर उसको कोई नाम न दें तो अच्छा। अगर नाम दें, अहंकार उसी नाम की
आडू में छिप जाएगा। कहो आत्मा, वह उसी के पीछे बैठ जाएगा। वह कहेगा कि चलो, मैं आत्मा हूं खतम
हुई बात।
इसलिए बुद्ध ने कहा, कुछ भी नहीं हो तुम, शून्य हो। शून्य के
पीछे न छिप पाएगा। इसलिए बुद्ध ने ब्रह्म शब्द का उपयोग न किया, शून्य का उपयोग किया।
बुद्ध ने शून्य का उपयोग किया इसलिए नहीं कि ब्रह्म शब्द से कुछ एतराज था, तुम्हारी चालाकियों
से; तुम्हारी चालाकियों का होश था। ब्रह्म के पीछे तुम बड़े मजे से छिप
जाओगे। कंबल बन जाएगा ब्रह्म और तुम उसके अंदर छिपकर विश्राम करने लगोगे। शून्य का
तुम कंबल न बना पाओगे।
बुद्ध का शब्द—शब्द उपयोगी है। बड़े सोचकर, बड़े ध्यान से
उन्होंने एक—एक शब्द का उपयोग किया है। मोक्ष शब्द का उपयोग नहीं किया, क्योंकि मोक्ष में
तो मैं बना रहेगा, मैं मुक्त हो जाऊंगा। उन्होंने कहा, निर्वाण। तुम तो रहोगे ही नहीं।
तीसरा प्रश्न :
वर्षों पहले जब पहली बार मैंने आपको देखा, तब मेरी आंखें
चौंधिया गयीं; और उसी दिन से एक ज्योति हर क्षण मेरी दृष्टि के मध्य प्रज्वलित रहती
आई है। यह रहस्यमयी ज्योति क्या है? क्या यह मेरी दृष्टि
की कोई खराबी तो नहीं है?
मन चाहेगा समझाना कि
खराबी है। मन कहेगा, किस झंझट में पड़े हो? दिमाग खराब हो रहा है? ऐसे कहीं ज्योतियां दिखाई पड़ी हैं! मन तरकीबें खोजेगा, ताकि तुम मन के पार
न जा पाओ।
अगर तुमने भर नजर मुझे देखा है तो ऐसा होगा ही कि
आंखें चौंधिया जाएंगी। अगर नहीं चौंधियाई हैं तो उसका केवल इतना ही अर्थ है कि
तुमने मुझे देखा ही नहीं, तुम इधर—उधर देखते रहे हो। तुमने सीधी आंख से आंख नहीं मिलाई। तुम बच—बचकर
चलते रहे हो। तुमने होशियारी बरती है। तुमने पागलों की तरह मुझसे मुठभेड़ नहीं कर
ली। तुम शिष्टाचारपूर्वक किनारे से निकल गए हो।
ऐसा होगा ही। और अक्सर ऐसा होता है कि पहली बार
होगा, क्योंकि पहली बार तुम सावधान नहीं होते। जब पहली दफा कोई मेरे पास आता
है तो सावधान नहीं होता; उसे पता ही नहीं किसके पास जा रहे हैं। सीधा चला आता है, झंझट में पड़ जाता है, उलझ जाता है। दूसरी
दफा तो तुम कुशल हो जाते हो। तीसरी दफा तो तुम बड़े कुशल हो जाते हो। फिर तो कुशलता
की पर्तें तुम्हें घेर लेती हैं।
पहला मिलन बहुत महत्वपूर्ण है।
ठीक हुआ। आंखें चौंधिया ही जाएंगी। आंखों की सामर्थ्य क्या! आंखों की बड़ी सीमा है। आंखों के पास अगर कभी भी अदृश्य का कोई भी जलवा आ जाए,अदृश्य का अगर कोई
भी थोड़ा सा कतरा आ जाए, तो आंखें चौंधिया जाएंगी। डावाडोल हो जाओगे, जैसे सिर पर पत्थर
मार दिया गया हो। दिन में, भरे दिन में चांद—तारे दिखाई पड़ जाएंगे।
तब मन हजार—हजार व्याख्याएं करना चाहेगा, ताकि जो घटा है, उसको मन समझा ले, अपनी परिभाषा में
बांध ले। अगर मन की परिभाषा में बंध जाए तो ठीक, फिर मन निश्चित हो जाता है, क्योंकि तब बात मन
का हिस्सा हो गई। अगर मन की परिभाषा में न बंधे, जैसा कि हो रहा है।
'वर्षों पहले जब पहली बार मैंने आपको देखा, तब मेरी आंखें
चौंधिया गयीं, और उसी दिन से एक ज्योति हर क्षण मेरी दृष्टि के मध्य प्रज्वलित रहती
आई है।
वह ज्योति सदा से प्रज्वलित थी, उस दिन तुम्हें
दिखाई पड़ गई। उस चौंधियाने के क्षण में तुम भीतर मुड़ गए। मुझसे मुठभेड़ करके तुम
अपने पर फेंक दिए गए। जैसे कोई दीवाल में गेंद को मारे तो गेंद लौट आती है; ऐसे ही तुम मुझसे
मुठभेड़ हो गई तुम्हारी। तुम्हारी आंख मुझसे टकराकर वापस लौट गई। वापस लौटती आंख ने
तुम्हें वह दिखा दिया, जो सदा से भीतर जल ही रहा है।
सबकी ज्योति जली हुई है, बुझी कभी नहीं। बुझ
जाए तो फिर कोई जला न सकेगा। बुझ जाए तो तुम होओगे कैसे? तुम हो, यह काफी प्रमाण है
कि ज्योति जली है। लेकिन तुम भीतर नहीं जाते अपने, तुम बाहर—बाहर जाते हो।
उस दिन अचानक तुम्हारी आंख चोट खाकर भीतर लौट गई।
उस लौटने की यात्रा में, उसे अपनी ज्योति से मिलन हो गया। वह ज्योति तुम्हारी है, मेरा उससे कुछ लेना—देना
नहीं। मैंने ज्यादा से ज्यादा एक दीवाल का काम किया, जिस पर तुम्हारी आंख की गेंद टकराई और वापस हो गई।
मैंने तुम्हें तुम पर वापस फेंक दिया। इससे तुम चकाचौंध से भी भर गए, चकरा गए, चक्कर खा गए, लेकिन तुम्हें अपनी
ज्योति खयाल में आ गई।
और एक बार खयाल में आ जाए तो फिर तुम उसे भुला न
सकोगे; फिर वह बार—बार आने लगेगी।
अनुभव इतना अभूतपूर्व है, अनुभव इतना प्यारा
है, स्थान ऐसा एकात है कि कभी—कभी,
दृष्टि के परावर्तन में ही दिखाई पड़ता है। अपनी गहराई
को उस दिन तुमने छुआ। उस चकाचौंध के क्षण में तुम्हें अपनी थोड़ी सी पहचान हुई। और
जो जान लिया, अब वह तुम्हारे भीतर खड़ा है। अब तुम जानते हो। अब जब भी आंख भीतर
जाएगी, वह ज्योति तुम्हें उपलब्ध हो जाएगी। तुम आंख बंद करोगे, उपलब्ध हो जाएगी।
अब मन चेष्टा कर रहा है समझाने की कि ज्योति—व्योति कुछ भी नहीं, मन का धोखा न हो! आंख
की खराबी न हो!
आंख तुम्हारी ठीक हो गई है, खराब पहले रही होगी।
आंख तुम्हारी साफ हो गई है, जाला पहले रहा होगा। धुंध तुम्हारी टूट गई है। जरा सी जगह बनी, जरा सा अवकाश हुआ है, वहा से ज्योति दिखाई
पड़ने लगी। अगर पूरी आंख साफ हो जाएगी तो भीतर की ज्योति महासूर्य बन जाती है।
कबीर ने कहा है, हजार—हजार सूरज जैसे एक साथ उग आएं, ऐसा कुछ हुआ है। ऐसा
तुम्हारे भीतर भी होगा।
मेरे पास तुम्हारे होने का एक ही प्रयोजन है, वह प्रयोजन यही है
कि तुम अपने से परिचित हो जाओ। मेरे होने का एक ही प्रयोजन है कि तुम्हें मैं वापस
तुम पर फेंक दूं। तुम मुझमें न उलझ जाना, तुम्हें अपने पर वापस जाना है। तुम्हारी आंख मुझे देखती रहे, इसमें कोई सार नहीं।
तुम्हारी आंख मुझे देखकर तुम पर वापस लौट जाए,
प्रतिक्रमण हो जाए, प्रत्याहार हो जाए दृष्टि का, तो ही कुछ सार है।
शुभ मानना इस अनुभव को, इसको पोषित करना।
इससे बेचैन मत होना, न ही आंख का इलाज करने की चिंता में पड़ जाना।
गा रहा मैं,
गुनगुनाना सीख लो तुम
आधियों में झिलमिलाना सीख लो तुम
मेरा गीत सुनकर तुम्हारे भीतर गुनगुनाहट आ जाए; मेरे पास होकर तुम
अपने पास हो जाओ।
जो मुझे मिला है, वह तुम्हारे भीतर भी पड़ा है। मुझमें तुममें जरा
भी फर्क नहीं। मुझे पता है, तुम्हें पता नहीं। खजाने के मालिक हम सब बराबर हैं। खजाना हम लेकर ही
आते हैं, क्योंकि हमारा होना ही खजाना है। बस, तुम्हें जरा तुम्हारी तरफ मोड़ना है। तुम भागे चले
जाते थे, मुझसे टकरा गए और ठिठक गए; तुम्हारी दृष्टि बाहर भागी चली जाती थी, मुझसे टकरा गई, चौंधिया गई,
अपनी तरफ लौट गई; जिसको रिफ्लेक्यान कहें—प्रतिक्रमण; किसी चीज का वापस
लौट जाना।
आईने पर सूरज की किरण पड़ती है, वापस लौट जाती है।
इसलिए आईने से कभी—कभी आंखें चौंधियाई जा सकती हैं। कोई व्यक्ति अगर आईना लेकर धूप
में तुम्हारी आंख पर प्रतिबिंब को फेंके तो तुम्हारी आंखें चौंधिया जाएंगी।
दर्पण की तरह तुम्हारी दृष्टि मुझसे टकराकर लौट
गई होगी। तुम सावचेत न थे, तुम ऐसे ही चले आए थे। तुम्हें पता न था, क्या होने जा रहा है।
कल एक युवक संन्यास लिया। उसके भीतर ऊर्जा
वर्तुलाकार घूम रही है, उसे पता नहीं। जैसे ही मैंने उसे छुआ, उसने कहा कि मेरे भीतर ऊर्जा वर्तुलाकार घूम रही
है, चक्कर काट रही है। घूम ही रही थी। उसे मैंने छुआ इसीलिए, कि मैंने देखा कि उसके
भीतर ऊर्जा चक्कर काट रही है। लेकिन वह शायद यही सोचेगा कि मेरे छूने से उसके भीतर
ऊर्जा चक्कर काटी। बात बिलकुल उलटी है; मैंने छुआ, क्योंकि देखा कि ऊर्जा चक्कर काट रही है।
लेकिन जैसे ही मैंने छुआ, वह अपने पर लौट गया; जिसको उसने कभी भीतर
झांककर न देखा था, देखा। क्षणभर बाद कहने लगा, घबड़ा रहा हूं! और ज्यादा नहीं। उसे लगा कि मैं कुछ कर रहा हूं। किए से
तो यह होता ही नहीं; यह तो अकृत है। मैं कुछ भी नहीं कर रहा हूं। तुम्हारी ज्योति मेरे
दर्पण से टकराकर लौट जाए, बस! ज्योति तुम्हारी है, तुम्हीं को लौटा रहा हूं। ज्योति तुम्हारी है, तुम्हीं को वापस दे
रहा हूं।
अनेक साधक आकर मुझे कहते है कि बड़ी हैरानी की बात
है, रात हम सोचकर आते हैं कि यह प्रश्न पूछना है, सुबह आप उत्तर दे
देते हैं।
कोई मैं तुम्हारी रातों का हिसाब नहीं रखता, तुम क्या—क्या सोचते
हो; मुश्किल में पड़ जाऊंगा। लेकिन तुम जब मेरे सामने मौजूद होते हो तो
तुम्हारा प्रश्न मुझसे टकराता है और लौटने लगता है। उस लौटते में ही तुम्हें उत्तर
मिलने लगते हैं। उत्तर तुम्हारे भीतर हैं। मुझे बस तुम्हें तुम्हारे ऊपर वापस फेंक
देना है।
मंगलकारी अनुभव हुआ है। सौभाग्य मानना, परमात्मा —के प्रति
आभारी होना, अनुग्रह मानना। जो अचानक प्रसाद उपलब्ध हुआ है, उसे बिना धन्यवाद
स्वीकार मत कर लेना।
नहीं कि परमात्मा को धन्यवाद की जरूरत है; तुम्हारे धन्यवाद
देने से परमात्मा को कुछ भी नहीं मिलता, लेकिन तुम्हारे धन्यवाद देने से तुम्हारे प्रसाद पाने की संभावनाएं
बढ़ती जाती हैं। तुम जितना धन्यवाद देते हो,
तुम जितने अहोभाव से भरकर धन्यवाद देते हो, उतने तुम खुलते जाते
हो; उतने तुम उपलब्ध होते जाते हो;
उतना ज्यादा तुम्हारे भीतर होने लगेगा।
धन्यवाद का अर्थ है कि जो मिला है, उसको तुमने ऐसे ही
उपेक्षा से स्वीकार नहीं कर लिया है। क्योंकि उपेक्षा का मतलब यह होगा कि शायद तुम
पात्र भी नहीं थे। उपेक्षा का अर्थ यह होगा कि तुम अर्थ भी समझ न पाए। उपेक्षा का
यह अर्थ होगा कि तुम्हारे भीतर अनुग्रह का भाव भी नहीं है; शायद तुम्हें जरूरत
ही न थी, शायद तुम तलाश में ही न थे।
उपेक्षा का भाव तुम्हें बंद कर देगा। और प्रसाद
की संभावना बंद हो जाएगी। इसलिए नहीं कि तुम्हारे उपेक्षा के भाव से परमात्मा
नाराज हो गया, जो नाराज हो जाए, वह परमात्मा क्या! जो धन्यवाद की मल करे, वह परमात्मा क्या! न
वहा धन्यवाद की मांग है, न वहां नाराज होने का कोई सवाल है। परमात्मा बस जैसा है, वैसा है; सदा वैसा है—एक रंग, एक रूप।
लेकिन तुम्हें फर्क पड़ जाएगा। तुमने धन्यवाद दिया, तुम और खुले द्वार
हो जाओगे; और प्रसाद को अंगीकार कर पाओगे।
इसलिए छोटी सी भी किरण आए तो तुम ऐसे नाचना, जैसे सूरज आ गया है; जल्दी ही सूरज भी आ
जाएगा। एक सूरज आए तो ऐसे नाचना, जैसे हजार सूरज उतर आए हैं; जल्दी ही हजार सूरज भी उतर आएंगे। रास्ता दो। तुम्हारा अनुग्रह प्रसाद
को आमंत्रित करता है।
चौथा प्रश्न
पिछले प्रश्नोत्तर के समय कुछ बेबूझ घटना घटी, जिसे न समझ सकता हूं
और न समझा ही सकता हूं। गुरु के प्रति अहोभाव कैसे प्रगट करूं, यह भी समझ में नहीं
आता। और भीतर से चाहता हूं कि मेरी यह नासमझी बनी रहे।
ठीक है, नासमझी स्वीकार हो
तो सरलता बन जाती है। नासमझी से जो छूटना चाहता है, वह चालाक बन जाता है। नासमझी में जो डूब जाता है, वह भोला—भाला हो
जाता है, निर्दोष हो जाता है। नासमझी पाप नहीं है। समझदारी में मैंने बहुत पाप
देखा है, नासमझी में नहीं देखा। नासमझी बड़ी निर्दोष है।
नासमझ रहो। नासमझी के बड़े सुख भी हैं, क्योंकि नासमझ को
बहुत कुछ मिलता है, जो समझदार को कभी नहीं मिलता। क्योंकि समझदार तो पाने की चेष्टा में
होता है और समझदार तो दावेदार होता है कि मिलना चाहिए। समझदार तो संघर्ष करता है।
नासमझ जानता ही नहीं, कैसे संघर्ष करे! जानता ही नहीं कि मैं कैसे पा सकूंगा? मेरे कृत्य से क्या
होगा? नासमझ सिर्फ प्रतीक्षा करता है,
धैर्य रखता है। नासमझ कहता है, जब तुम्हारी कृपा
होगी, होगी। मैं मूढ़ करूं भी तो क्या?
बहुत कुछ घटता है, अकृत घटता है,
प्रसाद बरसता है। नासमझ तुम बने रहना। अज्ञान में
बुराई नहीं है। ज्ञानियों को भटकते देखा है। ज्ञान संसार देता है, अज्ञान परमात्मा ने
दिया है।
इसे कभी तुमने सोचा—इस तरह सोचा? अज्ञान परमात्मा ने
दिया है, ज्ञान संसार के अनुभव से आता है,
पढ़ने—लिखने से आता है, सुनने—सोचने से आता
है, अज्ञान लेकर आए हो तुम। अज्ञान यानी कोरी किताब, जिस पर कुछ भी लिखा
नहीं; जिस पर काली स्याही के धब्बे न लगे। तुम इस किताब को ऐसे ही रख देना, कुछ लिख मत लेना।
ज्यों की त्यों धर दीन्हीं चदरिया
खूब जतन से ओढी कबीरा
बड़े जतन से रखना इस किताब को; इसे ऐसी की ऐसी रख
देना।
सूफियों की एक किताब है : द बुक आफ द बुक्स।
उसमें कुछ लिखा नहीं है, वह खाली है। खाली किताब है। पुश्त दर पुश्त, एक पीढ़ी दूसरी पीढ़ी
को उस किताब को देती गई है। सूफी उसे पढ़ते भी हैं। सुबह खोलकर बैठ जाते हैं। कुरान, गीता, बाइबिल, धम्मपद इस किताब के
मुकाबले कुछ भी नहीं। इनमें कुछ लिखा है, इनमें स्याही के धब्बे पड़े हैं,
वह खाली किताब है। उसमें कुछ भी लिखा नहीं है, कोरा आकाश है। वह
जरा भी गंदी नहीं हुई है।
ज्यों की त्यों धर दीन्हीं चदरिया
अज्ञान को अहोभाव से स्वीकार करो, तब तुम्हें अज्ञान-अज्ञान
जैसा मालूम न पड़ेगा, भोलापन बन जाएगा। तब तुम अज्ञान से बचना न चाहोगे, क्योंकि अज्ञान से
जो बचना चाहता है, वही अहंकार है। वह कहता है, मैं जानूंगा, क्योंकि जानकर मैं हो सकूंगा। बिना जाने कैसे रहूं? जानना ही होगा। सत्य
को मुट्ठी में लेना है, मोक्ष को हाथ में लेना है, सब पाना है—फिर चाहे धन हो या धर्म।
तुमने कभी खयाल किया! ज्ञान एक तरह का अतिक्रमण
है। वैज्ञानिक, जो कि ज्ञान का खोजी है, सदा अतिक्रमण करता रहता है। जहां घूंघट नहीं उठाने थे, वहां भी घूंघट उठा
लेता है। जहां रहस्य-रहस्य रहता तो अच्छा था,
वहां भी रहस्य को टिकने नहीं देता। साए की भी
जरूरत है, अंधेरा भी चाहिए। क्योंकि प्रकाश उत्तेजक है, अंधेरा विश्राम देता
है। वैज्ञानिक कहीं अंधेरा नहीं रहने दे रहा है, सब तरफ से अंधेरा मिटाए दे रहा है। जीना मुश्किल
हो जाएगा।
जीवन की सारी गहन बातें अंधेरे में घटती हैं। कभी
देखा? बीज टूटता है पृथ्वी के गहन अंधकार में; जमीन पर रख दो, बंद का बंद रह जाता है, टूट नहीं सकता। यह
इतने राज की बात है, घूंघट इतना सबके सामने उठा कैसे दे? बड़ा शर्मीला है, बड़ा कुलीन है;
वेश्या जैसा नहीं है, बाजार में घूंघट
खोलकर नहीं खड़ा हो जाता है। पृथ्वी के गहन गर्भ में, अंधेरे में जब तुम उसे दबा देते हो, जब कोई देखने वाला
नहीं होता, जब कोई आंख बाधा नहीं देती, तब चुपचाप उस अंधेरे में टूट जाता है। चुपचाप! आवाज भी नहीं होती।
कलियां भी टूटती हैं तो थोड़ी आवाज होती है,
जरा बेशर्म हैं। बीज टूटता है तो किसी को पता ही
नहीं चलता, कानों—कान कहीं खबर नहीं होती,
चुपचाप टूट जाता है।
मां के गहन गर्भ में, अंधकार में जीवन का
जन्म होता है; वहां बच्चा निर्मित होता है। अब वैज्ञानिक कोशिश करते हैं, टेस्ट—टयूब में..कर
लेंगे किसी दिन, लेकिन बड़ी बेशर्मी हो जाएगी; कुछ महत्वपूर्ण खो जाएगा। आदमी ऐसे पैदा भी हो गया टेस्ट—टयूब में तो
कुछ महत्वपूर्ण खो जाएगा।
वैज्ञानिक सब जगह खोदता फिरता है, सब जगह उघाड़ता फिरता
है; हर चीज को नग्न करता फिरता है,
अनावरण करता फिरता है। यह एक तरह का प्रकृति के
ऊपर बलात्कार है। इसलिए मैं विज्ञान को बलात्कार कहता हूं। व्यभिचार है।
धर्म कहता है,
हम क्यों बलात्कार करें? जिसने हमें बनाया, उसने सभी को बनाया।
जिसने हमें बनाया, उसी ने सब कुछ बनाया। जो हममें है,
वही सबमें है। तो कहीं न कहीं तो हम जुड़े हैं। ये
बाहर के घूंघट हम क्यों उठाएं? अगर उसकी मर्जी होगी तो रहस्य का पर्दा अपने से उठेगा।
और जब अपने से उठता है तो मजा और!
तुम किसी स्त्री का घूंघट उघाड़ दो जबरदस्ती, छुरे का भय दिखाकर, मुंह तो उघड़ जाएगा, लेकिन स्त्री का
सौंदर्य न उघड़ेगा; सौंदर्य तो खो ही जाएगा। फिर स्त्री खुद अपना घूंघट उघाड़ती है—उसके
लिए जिसके प्रति उसको प्रेम है—तब घूंघट ही नहीं उघड़ता, तब सौंदर्य भी उघड़ता
है, लेकिन स्वेच्छा से।
परमात्मा को या सत्य को जानने के दो ढंग हैं : एक
तो बलात्कार है, जबरदस्ती है। विज्ञान बलात्कार है। धर्म बलात्कार नहीं, प्रेम है। धर्म कहता
है, हम प्रतीक्षा करेंगे।
अज्ञानी भी जानते हैं, लेकिन उनके जानने का
ढंग बिलकुल अलग है। वे प्रतीक्षा करते हैं। वे समझदार होने की चेष्टा में नहीं
लगते। वे कहते हैं, हम ठीक हैं, हम मूढ़ ही भले। राह देखेंगे, जिसने हमें बनाया, वही कह जाएगा कुछ जरूरी होगा तो। वही बता जाएगा कुछ जरूरी होगा तो।
अगर नहीं बताता है तो शायद यही जरूरी है कि न बताए। ज्ञान की छीन—झपट नहीं करते, चोरी—चपाटी नहीं
करते। ज्ञान आता है मुक्त दान की भांति, परमात्मा की तरफ से प्रसाद की भांति, तो स्वीकार है, नहीं आता तो यह न आना स्वीकार है। जिस भांति रखे
वह, जिस विधि रखे वह, उसी भांति रहना स्वीकार है।
ठीक है, नासमझ ही रहो। और यह जो घटना घटी—कि पिछले प्रश्नोत्तर के समय कुछ
बेबूझ घटना घटी—यह इसीलिए घटी; अगर ज्ञानी होते तो न घटती।
पंडित भी आ जाते हैं भूले—भटके यहां, उन्हें कुछ भी नहीं
घटता। मैं उनको देखकर कह सकता हूं। कभी—कभी एक भी पंडित यहां आकर बैठ जाता है तो
विध्न हो जाता है। उसकी मौजूदगी.. यहां एक सरोवर है, वह एक टापू की तरह
हो जाता है। उसे मैं देख पाता हूं कि उसके आसपास ऊर्जा का प्रवाह नहीं है, वहां एक मुर्दा चीज
रखी है। जिंदा लोगों में एक लाश रखी है। उसके आसपास से प्रवाह बहकर निकल जाता है—टापू
है, पथरीला है; आर—पार नहीं जाती बात उसके, किनारे—किनारे से निकल जाती है।
अगर तुम नासमझ हो तो सौभाग्यशाली हो। बड़ी मुश्किल से मिलती है नासमझी।
नासमझी तो मिली ही हुई है, बड़ी मुश्किल से मिलती है यह समझ कि हम नासमझ बने रहें।
स्वभावत:,
जो हुआ है,
उसे तुम समझा न सकोगे। वह होता ही न, अगर तुम उन लोगों
में से होते, जो समझा सकते हैं।
इसे फिर दोहरा दूं : हुआ ही इसलिए है कि तुम अबोध
हो, छोटे बच्चे की भांति हो; होता ही नहीं अगर तुम समझाने—समझने वाले होते।
यह बड़ी मुश्किल बात है। उनके जीवन में ही
महत्वपूर्ण घटनाएं घटती हैं, जो
कह भी नहीं पाते कि क्या हुआ; बता भी नहीं पाते। जो बताने और कहने में बहुत कुशल हैं, उसके कारण ही बाधा
हो जाती है।
और ध्यान रखना, जिन्होंने कहा भी है, वे भी कहां कह पाए
हैं! मैं तुमसे कितना कह रहा हूं कहां कह पाता हूं? जो कह पाता हूं वह कुछ और है; जो कहना चाहता था, वह कुछ और है। रोज
फिर कोशिश करता हूं कि चलो, आज फिर सही, कल हारे तो आज कहेंगे, फिर पाता हूं कि बात।
जो गीत गाना है, वह गाया नहीं जा सकता, लेकिन उसे गाने की
चेष्टा करनी पड़ेगी। शायद पूरा—पूरा गीत न भी गाया जा सके, उसकी थोड़ी लय भी तुम
तक पहुंच जाए; शायद पूरी कड़ियां तुम्हारे पास तक उतर भी न सकें, कुछ खंड—खंड अंश भी
पहुंच जाएं; शायद तुम्हारा पेट भर भी न सके,
लेकिन तुम्हारे कंठ तक भी स्वाद पहुंच जाए तो भी
कुछ कम नहीं; इसलिए कहने की चेष्टा चलती है। कह तो कोई भी नहीं पाया है। यह घटना ही
ऐसी है इसे कोई कह नहीं सकता।
जो कहा जा सके, वह सत्य नहीं। जो सत्य है, उसे कहा नहीं जा
सकता। यह कहने—सुनने के पार है।
'गुरु के प्रति अहोभाव कैसे प्रगट करूं, यह भी समझ में नहीं आता।
प्रगट हो गया! प्रगट करने की कोई जरूरत भी नहीं।
बस, खयाल आ गया अहोभाव का, बात हो गई। कुछ बैंड—बाजे थोड़े ही बजाने पड़ेंगे, कुछ शोरगुल थोड़े ही
मचाना पड़ेगा। तुम्हारे मन में खयाल आ गया, बात हो गई। अहोभाव आ गया, बात हो गई। बताने की थोड़े ही बात है, अहोभाव भाव की बात है।
प्रार्थना से जो उठा है पूत होकर
प्रार्थना का फल उसे तो मिल गया
अगर प्रार्थना से तुम नहाकर उठ आए, बात हो गई।
प्रार्थना से पवित्र होकर उठ आए, बात हो गई। प्रार्थना से भरकर लौट आए, बात हो गई।
प्रार्थना से जो उठा है पूत होकर
प्रार्थना का फल उसे तो मिल गया
प्रार्थना का कोई और फल थोड़े ही है, प्रार्थना ही फल है।
इसलिए नारद भक्ति—सूत्र में कहते हैं, भक्ति फलरूपा है। भक्ति स्वयं फल है।
प्रार्थना की,
फिर प्रतीक्षा मत करना फल की; नहीं तो चूके जा
रहे. हो। बात ही गलत हो गई। प्रार्थना ही फल है।
कल प्रार्थना घटी। तुमने सुना, कुछ भीतर हुआ, कोई चोट पड़ी, तुम नहा गए। उसी
नहाने में अहोभाव भी स्वभावत: उठ आता है, स्वाभाविक फूल है प्रार्थना का। कहने की कोई जरूरत भी नहीं।
और नासमझ ही बने रहना, ताकि यह घटता रहे।
यहीं खतरा खड़ा होता है। अब चूंकि यह घट गया,
डर है कि तुम समझदार हो जाओगे। तुम कहोगे, हो गया, एक बात जान ली, पहचान ली। अब तुम
समझोगे कि तुमने समझ लिया। यह समझ लेना आगे के लिए बाधा बन जाएगा। फिर दुबारा यह
घटना मुश्किल हो जाएगी। और जब यह न घटेगी तो तुम इसकी अपेक्षा करोगे, आकांक्षा करोगे, मांगोगे। जितना तुम
मांगोगे, आकांक्षा करोगे, अपेक्षा करोगे, उतना ही मुश्किल हो
जाएगा और भी घटना, क्योंकि यह घटी थी तुम्हारे बिना मांगे।
तुमने मांगा थोड़े ही था कल। तुम्हें पता ही न था
और यह हो गई। तुम मौजूद न थे, तब यह घटी। तुम मुझे सुनते—सुनते खो गए होओगे, तार जुड़ गया होगा
मुझसे। तुम सुनते—सुनते एक लय में डूब गए होओगे। सुनते—सुनते तुम्हारा मन स्तब्ध
हो गया होगा, विचार क्षणभर को ठहर गए होंगे। सुनते—सुनते विराम आ गया होगा। सुनते—सुनते
मेरे साथ सुर सध गया होगा, तालमेल बैठ गया होगा। बस, यह घट गई। तुमने कुछ किया थोड़े ही था—अकृत! तुम कुछ करते होते तो घटती
ही नहीं; तो बाधा पड़ जाती।
लेकिन अब खतरा है, इसलिए सावधान। अब तुम सोचोगे यह घटी, इसका रस पाया, रस—विभोर हुए। अब यह
रस मन की आकांक्षा न बन जाए।
मन यह कहने लगे कि अब रोज घटना चाहिए; कल घटी, आज भी घटनी चाहिए, आने वाले कल भी घटनी
चाहिए। आज क्यों नहीं घट रही? तो बस, तुमने उपद्रव ले लिया। तो तुम चूक गए; हाथ आते—आते सूत्र छूट गया।
तुम इसको भूल ही जाओ। तुमने तो कुछ किया न था, इसलिए तुम कौन हो
इसे याद रखने वाले? तुमने तो कुछ किया न था, इसलिए तुम कौन हो इसे मांगने वाले?
तुमने तो कुछ किया न था, इसलिए अपेक्षा क्या!
अहोभाव हुआ,
बात समाप्त हुई, खतम हुई। भूलो, विस्मरण करो। तुम फिर वैसे ही अज्ञानी हो जाओ, जैसे इसके पहले थे।
तुम फिर अपनी पुरानी अवस्था में खड़े हो जाओ। फिर—फिर घटेगी, और—और घटेगी, गहरी—गहरी घटेगी, बहुत गहरी छन सकती
है।
मगर जैसे ही पहली बार घटती है, उपद्रव खड़ा होता है।
तुम मांग करने लगते हो। मन इसको जकड़ लेता है,
इसको भी वासना बना लेता है। और जैसे ही मांग आई, प्रार्थना गई।
प्रार्थना एक क्षण है, एक भावदशा है।
प्रार्थना से जो उठा है पूत होकर
प्रार्थना का फल उसे तो मिल गया
बात भूलो। बात खतम हो गई है, फिर नए हो जाओ। यह
लकीर तुम्हारे मन पर न रह जाए। इसको ही मैं नासमझी कह रहा हूं इसको ही मैं अज्ञान
कह रहा हूं। तुम फिर अज्ञानी हो जाओ। इस बात के घटने के पहले तुम जहां थे कल, वहीं कृपा करके फिर
पहुंच जाओ। यह बात जैसे हुई ही नहीं। यह बात जैसे तुमने सुनी कि किसी और को हुई।
इस बात को तुम अपनी संपदा न बनाओ, अन्यथा ज्ञान निर्मित होने लगा। और ज्ञान बाधा है।
आखिरी प्रश्न
ध्यान में जड़ता आने लगी है, विचार भी खास तंग नहीं
करते, मगर पूरा होश भी नहीं रहता है। यह कैसी स्थिति है और मुझे क्या करना
चाहिए?
ध्यान के बहुत पड़ाव है।
पहला पड़ाव: जब कोई व्यक्ति ध्यान करना शुरू करता है तो मन इतना
बेचैन होने लगता है, जितना ध्यान के पहले भी न था।. इतनी अशांति आने लगती है, जितनी कभी न आई थी।
डर लगता है, यह तो और उलझन बढ़ी; सुलझाने आए थे, यह तो और उपद्रव गले पड़ा। चाहते थे शांति, यह तो और अशांति आ
गई।
लेकिन यह इसलिए होता है—इसलिए नहीं कि अशांति बढ़ती है—सिर्फ इसलिए
होता है कि तुम्हारा बोध बढ़ता है। अशांति तो तुम्हारे भीतर पड़ी है, भरी पड़ी है, बाजार भरा है, राशि लगी है। लेकिन
तुम इतने व्यस्त हो कि तुम इस पर ध्यान नहीं दे पाते। जब तुम ध्यान करते हो तो तुम
भीतर की तरफ मुड़ते हो, तो पहली दफा तुम अपने सारे उपद्रव से परिचित होते हो।
तो पहले पड़ाव पर तो बड़ी घबड़ाहट आ जाती है, बड़ी बेचैनी बढ़ जाती
है। विचार विक्षिप्त की भांति दौड़ने लगते हैं। शोरगुल बढ़ता मालूम पड़ता है। उपद्रव
बढ़ता मालूम पड़ता है। और ऐसा लगता है, यह क्या हुआ? हम तो ध्यान से आकांक्षा किए
थे शांत होने की, और भी अशांत हो गए। तब घबड़ाहट आती है, मन होता है,
लौट जाएं। लेकिन अगर तुम करते ही चले गए तो धीरे—धीरे
यह अशांति खो जाती है; तब मन शांत होने लगता है।
यह जो दूसरी घड़ी आती है—ध्यान में जड़ता आने लगी
है—यह जड़ता नहीं है, लेकिन विचार की गति क्षीण हो रही है। तो तुमने अब तक गति ही एक जानी
है : विचार की। चैतन्य की गति का तुम्हें कोई पता नहीं है। और जब विचार की गति कम
होने लगती है, तो लगता है, कहीं जड़ तो नहीं हो रहा! यह क्या हो रहा है? अब शांत हो रहे हो
तो जड़ता मालूम पड़ती है।
ऐसा ही समझो कि तुम सदा बाजार में रहे; हिमालय पर चले जाओगे
तो बड़ी ऊब मालूम होगी, कुछ मजा नहीं आता; कुछ सार ही नहीं मालूम पड़ता, यह तो सब जड़ मालूम होता है। बाजार की आदत वहां भी पीछा करेगी। तुम
बाजार चाहते हो। बाजार में चहलकदमी मालूम होती है, गति मालूम होती है, जीवन मालूम होता है। यह पहाड़ पर तो सब जड़ मालूम
होता है।
ऐसे ही यह दूसरा पड़ाव आया? इससे भी पार जाना पड़ेगा।
धीरे—धीरे तुम पाओगे कि जिसे तुम पहले गति समझते थे, वही जड़ता थी। एक नई गति का अनुभव तुम्हें भीतर
होगा, जो चैतन्य की गति है। एक नए जीवन की प्रतीति होगी, जो चैतन्य का जीवन
है।
पर पुराना जीवन छूटे और नया आए, इन दोनों के बीच में
एक अंतराल तो पड़ेगा। एक घर छूटा, दूसरे घर में गए, तो पहले तो पहला घर छूटेगा, तब उपद्रव होगा; सारा सामान अस्तव्यस्त होगा, बांधो, बोरिया—बिस्तर भरों, सब गड़बड़ हो जाएगा। अभी तुम दूसरे घर में भी नहीं पहुंचे। रास्ते में
रिक्शे—तांगे में अटके हो। सामान लादे जा रहे हैं दूसरे घर में। अभी दूसरा घर भी
तो नहीं आया है 1 तो और भी मुश्किल हो गई, सब सामान अस्तव्यस्त हो गया, बंद हो गया, सब उलझन हो गई। दूसरे घर में जाओगे, व्यवस्थित होओगे, धीरे—धीरे फिर बसोगे, फिर से चीजों को
जमाओगे, तब राहत मिलेगी।
अभी जड़ता मालूम होगी। यह मध्यकाल है। इससे भयभीत
मत होना। इस मध्यकाल में न तो बेहोशी रहेगी पूरी और न होश रहेगा पूरा। कुछ—कुछ होश
भी मालूम होगा, कुछ—कुछ बेहोशी भी मालूम होगी। और भी उलझन मालूम होगी कि यह क्या हुआ? एक कन्फ्यूजन, विपरीत चीजों का
मिला—जुला संगम, एक खिचड़ी की अवस्था होगी। इससे तो लगेगा, पूरे सोए थे वही
अच्छा था; कम से कम एकस्वरता तो थी। न पूरे जगे, न पूरी नींद रही; ये बीच में अटक गए! त्रिशंकु जैसी हालत मालूम
होगी।
तीर छूट चुका प्रत्यंचा से और अभी लक्ष्य पर नहीं
पहुंचा। न प्रत्यंचा का सहारा रहा, न लक्ष्य का—लक्ष्य में छिद जाए तो सहारा मिले—मध्य में अटका है।
पर यह स्वाभाविक है, कुछ घबड़ाने की जरूरत
नहीं। जो कर रहे हैं ध्यान, उसे जारी रखें; यह मध्यकाल अपने आप बीत जाएगा।
है अनिश्चित किस जगह पर सरित गिरि गल्हर मिलेंगे
है अनिश्चित किस जगह पर बाग वन सुंदर मिलेंगे
किस जगह यात्रा खतम हो जाएगी यह भी अनिश्चित
है अनिश्चित कब कुसुम कब कंटकों के शर मिलेंगे
आ पड़े कुछ भी,
रुकेगा तू न,
ऐसी आन कर ले
आ पड़े कुछ भी,
रुकेगा तू न,
ऐसी आन कर ले
बस, एक ही स्मरण रहे—रुकना नहीं है,
चलते जाना है। और बहुत सी संभावनाएं हैं, क्योंकि प्रत्येक
व्यक्ति भिन्न है; इसलिए बहुत पड़ाव साफ—साफ नहीं बताए जा सकते।
है अनिश्चित किस जगह पर सरित गिरि गल्हर मिलेंगे
सूचनाएं दी जा सकती हैं, लेकिन प्रत्येक
व्यक्ति बड़ा अलग है, बड़ा भिन्न है। इसलिए तुम्हें जहां पहाड़ मिलेंगे, वहा दूसरे को न
मिलें। और तुम्हें जहां जड़ता मिले, वहां दूसरे को न मिले। निर्भर करता है कि तुम्हारे जीवन की आदतें कैसी
हैं, तुम्हारे जीवन का ढ़ांचा कैसा था। जो आदमी पहाड़ पर ही रहता रहा है, उसको पहाड़ पर जड़ता
मालूम न पड़ेगी; उसे पहाड़ पर सब ठीक है। तुम जाओगे,
जड़ता मालूम पड़ेगी। तुम बाजार में रहे हो। तुम
बाजार के कीड़े हो। तब बहुत कठिनाई होगी। पहाड़ वाले आदमी को बाजार में ले आओ, उसे विक्षिप्तता
मालूम पड़ेगी; यह पागलपन हो रहा है। वह भाग जाना चाहेगा।
गुरजिएफ अपने शिष्य आस्पेंस्की पर प्रयोग कर रहा
था। तीन महीने तक उसे निपट मौन में रखा, पूर्ण मौन में रखा, एक एकांत मकान में, बाहर न जाने दिया। न बोलना, न सोचना, न पढ़ना; आंख के इशारे भी बंद. थे।?किसी तरह का इशारा भी भाषा है। गुरजिएफ ने तीस लोग चुने थे प्रयोग के
लिए सत्ताइस को पंद्रह दिन के भीतर विदा कर दिया। कुछ तो खुद भाग गए घबड़ाकर, कुछ जो न भागे, उनको उसने विदा कर
दिया। क्योंकि वह पूरे वक्त घूमता रहता मकान के भीतर। और कहना उसका यह था कि अगर
मुझे तुम देखो भी तुम्हारे पास से निकलते हुए तो तुम ऐसे ही रहो, जैसे कोई नहीं निकल
रहा। अगर तुम्हारा पैर मेरे पैर पर भी पड़ जाए तो क्षमा मांगने का भाव भी मत उठाना, क्योंकि कोई यहां है
ही नहीं, तुम अकेले हो। इतना स्वात, मौन!
तीन आदमी बचे। तीन महीने पूरे होने पर उन तीनों
को गुरजिएफ नगर में ले गया। आस्पेंस्की ने अपने संस्मरण में लिखा है कि बाजार में
जाकर मुझे ऐसा लगा कि यह सारी दुनिया इतनी पागल है, इसका मुझे पहले पता ही न था। पागल पागलों से बात
कर रहे हैं, पागल दुकान चला रहे हैं, पागल सामान खरीद रहे हैं, पागल चले जा रहे हैं, यह क्या हो रहा है? उसने गुरजिएफ का हाथ पकड़ लिया। उसने कहा, मुझे वापस! यहां तो
मैं पागल हो जाऊंगा; यह तो पागलखाना है।
तीन महीने अगर तुम मौन, शांति को अनुभव किए
हो, हिमालय उतरा भीतर, तो सारा संसार तुम्हें पागल मालूम पड़ेगा।
तुम पर निर्भर है कि तुम्हारी क्या स्थिति, क्या आदत, कैसा जीवन का ढांचा, कैसी व्यवस्था, क्या शैली रही है।
है अनिश्चित किस जगह पर सरित गिरि गल्हर मिलेंगे
है अनिश्चित किस जगह पर बाग वन सुंदर मिलेंगे
किस जगह यात्रा खतम हो जाएगी यह भी अनिश्चित
हरेक की अलग—अलग जगह होगी। भीतर तो एक ही घटेगा
यात्रा के अंत पर, पर बाहर बड़ी अलग—अलग स्थितियां होंगी।
कहते हैं,
महावीर को जब परम समाधि मिली तब वे उकडूं बैठे थे।
अब कोई सोचो, उकडूं भी कोई बैठने की बात है! गौदोहासन कहते हैं जैन उसको; उकडूं नहीं कहते, क्योंकि उकडूं कहना
जरा ठीक मालूम नहीं पड़ता। गौदोहासन में बैठे थे। महावीर को कोई गौ नहीं दोहनी, क्या कर रहे थे
उकडूं बैठ कर?
किस जगह यात्रा खतम हो जाएगी यह भी अनिश्चित
बुद्ध वृक्ष के नीचे बैठे थे। तब से कई लोग
वृक्षों के नीचे बैठे रहे हैं, इससे थोड़े ही कोई लेना—देना है!
सबकी यात्रा अलग—अलग जगह खतम होगी। कुछ कहा नहीं
जा सकता, कैसे घट जाएगी बात! तुम्हारे भीतर तो एक ही घटना घटेगी, लेकिन अलग—अलग घटेगी।
मीरा नाचती थी, नाचने में घटी। करीब—करीब असंभव है कि कैसे घटेगी। मैं एक सूफी फकीर
की जीवनी पढ़ रहा था। वह आलू छील रहा था, तब उसको घटना घटी। अब आलू और आत्मा का कोई संबंध है? आलू और आत्मा से
विपरीत चीजें और तुम कोई खोज सकोगे? तब से उसके शिष्य आलू छील रहे हैं। शायद आलू छीलने से कोई संबंध हो!
किस जगह यात्रा खतम हो जाएगी यह भी अनिश्चित
है अनिश्चित कब कुसुम कब कंटकों के शर मिलेंगे
आ पड़े कुछ भी,
रुकेगा तू न,
ऐसी आन कर ले
बस, चलते जाना है।
बुद्ध का वचन है : चरैवेति! चरैवेति!
चलते जाओ, चलते जाओ, जब तक कि तुम्हारा होना न गिर जाए,
बस!
आज इतना ही।
thank you guruji
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