शब्द: शून्य के पंछी—प्रवचन—इक्तालिसवां
सूत्र:
सहस्समपि चे वाचा अनत्थपदसंहिता।
एकं अत्थपदं
सेय्यो यं सुत्वा उपसम्मति ।।91।।
यो सहस्सं सहस्सेन
संगामे मानुसे जिने।
एकं च जेयमत्तानं
से वे संगामजुत्तमो ।।92।।
अत्ता हवे जितं
सेय्यो या चायं इतरा पज्ञा।
अत्तदन्तस्य
पोसस्स निच्चं सज्जतचारिनो ।।93।।
नेव देवो न गन्धब्बो
न मारो सह ब्रह्मुना।
जितं अपजितं कयिरा
तथारूपस्स जन्तुना ।।94।।
मासे-मासे सहस्सेन
यो यजेथ सतं समं।
एकं च भवितत्तानं
मुहूत्तमपि पूजये।
सा येव पूजना
सेय्या यं चे पस्ससतं हुतं ।।95।।
मनुष्य दो भांति से बोल सकता है:
एक तो इसलिए कि मौन रहना कठिन है;
एक इसलिए कि मौन से शब्दों का जन्म हो रहा है।
दोनो बड़ी विपरीत दशाएं है।
साधारणत: हम बोलते हैं, क्योंकि बिन बोले रहना कठिन है। न बोलें तो बेचैनी होती है, न बोलें तो समझ में
नहीं आता कि क्या और करें? चुप्पी काटती है।
और किसी दूसरे व्यक्ति की मौजूदगी में अगर चुप रह
जाएं तो बड़ी बेचैन करने वाली स्थिति बन जाती है। चुप तो हम क्रोध में रहते हैं।
चुप तो हम किसी का अपमान करना हो तो रहते हैं। चुप तो हम उदास होते हैं, तब रहते हैं। चुप के
साथ हमने सारे गलत संयोग जोड़ रखे हैं। चुप्पी का विधायक, मौन का सार्थक आयाम
खो ही गया है।
तुम किसी के घर जाओ और वह चुप रहे, चुप बैठा रहे, कुछ न बोले, तुम अपमानित अनुभव
करोगे। बोलने में स्वागत है, बोलने में सत्कार है। मौन का सत्कार तो हमें समझ में भी नहीं आ सकता।
क्योंकि हम शब्द ही समझ सकते हैं, निःशब्द को समझने की हमारी क्षमता नहीं है। तुम कुछ पूछो, कोई चुप रह जाए; तो तुम समझोगे, उत्तर नहीं दिया।
मौन भी उत्तर हो सकता है। और कुछ चीजों का तो
केवल मौन ही उत्तर होता है। कुछ प्रश्न ही ऐसे हैं कि शब्द में कोई संभावना ही
नहीं कि उनका उत्तर बन पाए। वस्तुत: जीवन के जितने महत्वपूर्ण प्रश्न हैं, सभी मौन में ही
सुलझाए जाते हैं। लेकिन अगर कोई चुप रह जाए,
मौन रह जाए,
तुमने पूछा हो कुछ, तो तुम यही समझोगे कि तुम्हारे प्रश्न का सम्मान
नहीं किया गया, या तुम समझोगे कि जो चुप रह गया,
उसे कुछ पता ही न था।
तो जिन्हें पता नहीं है, वे भी बोलते हैं। न
बोलें तो पता चल जाएगा कि उन्हें पता नहीं। मूढ़ बहुत मुखर हैं। मूढ़ों की इस मुखरता
से मन व्यर्थ के शब्दों से भर गया है। हम बोलते ही रहते हैं—दिन और रात, सोते और जागते, जैसे शब्द से कोई
छुटकारा ही नहीं हो पाता।
और शब्द किनारा है; अगर तुम उससे उलझे रहे तो जीवन की मझधार से वंचित
हो जाओगे; तो तुम जान ही न पाओगे कि जीवन की धारा क्या थी।
शब्द तो बाहर से पाया है, भीतर से नहीं आया है।
जब तुम पैदा हुए थे, निःशब्द पैदा हुए थे। जब तुम अवतरित हुए थे, निष्कलुष, निर्विकार, निर्विचार आए थे; शब्द तो बाहर से आया।
गंगा उतरती है तो किनारे लेकर नहीं उतरती, किनारे तो बाहर मिलते हैं।
सीमा बाहर से आती है, तुम तो असीम आते हो।
तुम तो मौन आते हो, फिर शब्द का आंगन तुम्हारे चारों तरफ दीवाल उठाता है। कोई हिंदू है, क्योंकि हिंदू
शब्दों की दीवाल है उसके पास, वेद की ईंटें लगी हैं उसकी दीवाल पर। कोई मुसलमान है, कोई ईसाई है, फर्क क्या है? शब्दों का फर्क है।
निःशब्द में तो तुम समान हो, न कोई हिंदू है, न कोई ईसाई है, न कोई मुसलमान है। निःशब्द में तो कोई विशेषण नहीं है; वहां तो तुम शून्य, खाली हो; वही तुम्हारा असली
होना है।
जब तक तुमने जाना कि तुम हिंदू हो, मुसलमान हो, ईसाई हो, तब तक तुमने जाना ही
नहीं कि तुम कौन हो, तब तक तुमने शब्द जाने। समाज तुम्हें शब्दों से भर देता है; इसी को हम शिक्षण
कहते हैं। विद्यालय, विश्वविद्यालय शब्दों से भर जाते हैं।
धर्म निःशब्द का विद्यापीठ है। समाज तुम्हें शब्दों से भर देता है, धर्म तुम्हें फिर
शब्दों से मुक्त करता है। इसलिए धर्म न तो हिंदू हो सकता है, न इस्लाम हो सकता है, न बौद्ध हो सकता है, न जैन हो सकता है।
संप्रदाय हो सकते हैं, क्योंकि संप्रदायों का संबंध शब्दों से है; धर्म का संबंध
निःशब्द से है।
समाज ने जो सिखाया, धर्म तुम्हें फिर भूलने की क्षमता देता है। समाज
ने जो लकीरें खींचीं, धर्म उन्हें तुम्हें फिर पोंछ देने की कला सिखाता है। समाज अगर शिक्षण
है, सीखना है, तो धर्म अनसीखना है, फिर कोरे होना है, फिर सीमाएं तोड़नी हैं, फिर गंगा को सागर होना है, किनारे छोड़ने हैं।
किनारों में होने की सुविधा है, क्योंकि किनारों के
बीच होना साफ—साफ होता है। किनारों के बीच होने पर तुम दोनों तरफ सुरक्षित दुर्ग
के भीतर होते हो, किनारे छूटते ही तुम अपने से भी छूट जाओगे। गंगा सागर में गिरकर गंगा
तो न रहेगी सागर हो जाएगी।
बुद्ध के आज के वचन इस दिशा में हैं।
'निरर्थक पदों से युक्त हजार पदों से भी एक सार्थक पद श्रेष्ठ है, जिसे सुनकर मनुष्य उपशांत
हो जाता है। '
कौन से पद निरर्थक हैं? तुम्हारे भीतर
शब्दों से ही जो शब्द पैदा होते हैं, वे निरर्थक हैं। तुम्हारे भीतर अगर निःशब्द से कोई शब्द पैदा होता है
तो सार्थक है। सार्थक का अर्थ होता है : जिसे तुमने जन्माया; जिसे तुमने अपने
प्राणों के अंतर्तम में जन्म दिया; जो तुमसे आया।
समाज कुछ डालता है, फिर उसी की प्रतिध्वनि तुमसे आती है; वह निरर्थक है। पहाड़
पर तुम जाते हो, आवाज करते हो, घाटियां और पहाड़ियां तुम्हारी आवाज को प्रतिध्वनित कर देती हैं; वह निरर्थक है।
घाटियों ने कुछ भी कहा नहीं, उसमें कुछ अर्थ हो ही नहीं सकता। घाटियों ने कुछ कहा ही नहीं, घाटियों ने सिर्फ
दोहराया। घाटियों ने पुनरुक्त किया। घाटियों ने तो वही लौटा दिया, जो उन तक फेंका गया
था—भला विकृत किया हो, लेकिन सार्थक तो नहीं हो सकता।
तो अगर समाज के शब्द तुम्हारे पास आकर सिर्फ
घाटियों की तरह वापस लौट
जाते हैं, तुम केवल प्रतिध्वनि मात्र करते हो, सार्थक नहीं हो सकती। सार्थक पद का अर्थ तो होता
है जो तुमसे जन्मे, जो तुम में भीतर न गया हो, बस भीतर से ही आया हो। सत्य के अनुभव से ही सार्थकता पैदा हो सकती है।
बुद्ध कहते हैं, 'निरर्थक पदों से युक्त हजार पदों से भी एक सार्थक
पद श्रेष्ठ है, जिसे सुनकर मनुष्य उपशांत हो जाता है। '
और जो उसकी उन्होंने परिभाषा की है कि कैसे तुम
पहचानोगे, वह पहचान यह है कि जो शब्द शांति से आता है, वह तुम्हें भी शांत
कर जाता है। जो शब्द भीतर के निःशब्द से आता है, वह तुम्हें भी क्षणभर को ही सही, निःशब्द की गज से भर
जाता है, उपशांत कर जाता है। तुमने अगर कभी ऐसे व्यक्ति को सुना, जिसने जाना है, तो उसके शब्दों में
तुम्हें शब्दों से कुछ ज्यादा मिलेगा। उसके शब्दों के आसपास शून्य भी सरकता मिलेगा।
उसके होने में उसके शब्द भी होंगे। उसके शब्दों में मिठास होगी किसी और ही लोक की।
उसके शब्द तो बहाने—होंगे।
उसकी चलती तो वह बिना शब्द के चला लेता। उसकी
चलती तो तुमसे चुप ही रहकर कह देता; लेकिन चुप्पी तुम समझ न पाओगे। मजबूरी है, विवशता है, इसलिए शब्दों का
उपयोग करना पड़ता है। लेकिन शब्दों का उपयोग शब्दों के लिए नहीं, शब्दों का उपयोग
शून्य के लिए। उसके शब्द बड़े विरोधाभासी होंगे। वह कहेगा कुछ, कहना कुछ और ही
चाहता है। कहता हुआ कुछ और मालूम पड़ेगा, कहना कुछ और ही चाहता था। इसलिए अगर तुमने सहानुभूति से न सुना तो तुम
उसे न समझ पाओगे।
सत्य को उपलब्ध व्यक्ति के वचनों को सुनने का ढंग
है, शैली है, व्यवस्था है, कला है। उसके श्रवण को, सुनने को साधारण सुनना नहीं कहा जा सकता। इसलिए महावीर और बुद्ध ने
उसके लिए अलग ही शब्द चुना है सम्यक श्रवण,
राइट लिसनिंग। सुनते तो सभी हैं, मगर ऐसे सुनने से
काम न चलेगा। तुम्हें ऐसे सुनना पड़ेगा जैसे तुम मस्तिष्क से नहीं, हृदय से सुनते हो।
तुम सोचते नहीं उसे सुनते समय, तुम सिर्फ सुनते हो। तुम गुनते नहीं, तुम सिर्फ उसे पीते हो। पीने की तरह सुनना होगा—बड़ी
गहन सहानुभूति से। अगर तुम्हारे भीतर विवाद चले, विचार चले,
तो जो कहा गया, वह चूक जाएगा। बड़ा नाजुक है, बड़ा बारीक है, बड़ा सूक्ष्म है; शब्द से भी ज्यादा
सूक्ष्म है।
लेकिन अगर ऐसा एक भी शब्द तुम अपने प्राणों में
पड़ जाने दो तो तुम उपशांत हो जाओगे। तुम तत्क्षण पाओगे, शांति बरस गई। तुम
तत्क्षण पाओगे, किसी और ही लोक की प्रभा ने तुम्हें घेर लिया। तुम पाओगे तुम्हारे पैर
इस जमीन पर नहीं पड़ रहे, किसी और ही आकाश को छूने लगे। तुम उड़ने लगोगे, चलोगे नहीं।
उसके शब्दों में एक मदिरा होगी, जो तुम्हें अपरिचित, अजनबी मस्ती से भर
जाएगी। फूलों की गंध तुम उसमें पाओगे, भौंरों की गुनगुनाहट पाओगे, लेकिन शास्त्रों का गुंजन नहीं। झरनों का कलरव तुम्हें उसमें सुनाई पड़
जाए भला, पक्षियों के गीत उसमें तुम्हें सुनाई पड़ जाएं भला, लेकिन प्रत्यय, धारणाएं, सिद्धातों की झलक
उसमें न होगी।
माना कि वह भी उन्हीं शब्दों को प्रयोग करने के
लिए मजबूर है, जिनका तुम प्रयोग करते हो; वह भी उन्हीं शब्दों का प्रयोग करता है, जिनका प्रयोग शास्त्रों ने किया है; लेकिन उसका अंदाज और
है। वह शास्त्रों के शब्दों का ही प्रयोग करने को मजबूर है, लेकिन उन शब्दों का
कुछ ढंग, उन शब्दों को प्रयोग करने की कोई प्रक्रिया बुनियादी रूप से भिन्न है।
वह तुम्हें कुछ समझाने को कम, तुम्हें कुछ बताने को शब्दों का उपयोग करता है। समझाने को कम, इशारा करने को
ज्यादा। वह तुम्हें किन्हीं सिद्धातों के लिए राजी नहीं कर लेना चाहता, किसी यात्रा के लिए
आमंत्रण देता है।
बड़ा फर्क है। सिद्धातों के लिए समझा लेना तो बड़ा
सुगम है; तुम जैसे हो, जहां हो, वैसे ही रहोगे, सिद्धात तुम्हारे लिए और आभूषण बन जाएंगे। तुम थोड़े और समझदार हो
जाओगे। तुम्हारी नासमझी और थोड़े श्रृंगार कर लेगी। तुम्हारी मूढ़ता के चारों तरफ
तुम और चांद—तारे लटका लोगे। तुम्हारा अज्ञान और थोड़ा छिप जाएगा; और वस्त्रों में, वसनों में छिप जाएगा।
तुम बदलोगे नहीं।
बुद्ध पुरुष जब बोलते हैं तो तुम्हें मिटाने और
तुम्हें नया जन्म देने को। वे तुम्हारी कब भी खोदते हैं और तुम्हारे लिए गर्भ का
निर्माण भी करते हैं। उनके शब्द खतरनाक भी हैं,
वे तुम्हें मारेंगे। और उनके शब्द अमृत जैसे भी
हैं, क्योंकि वे तुम्हें पुन: जिलाएंगे। उनके शब्द में सूली भी है और
पुनर्जीवन भी। अगर तुमने सुना तो उनका एक शब्द भी तुम्हें उपशांत कर जाएगा।
तो अगर तुम किसी तार्किक की बात सुनने जाओ तो तुम
और उद्विग्न होकर लौटोगे; तुम और परेशान होकर लौटोगे। तुम वैसे ही परेशान थे, वह तुम्हें और
परेशान कर जाएगा। यह भी हो सकता है, तुम उससे राजी भी हो जाओ, लेकिन तब भी तुम शांत न हो सकोगे। उससे राजी होने में भी बेचैनी होगी, परेशानी होगी, कांटे चुभते रहेंगे, जैसे कहीं कुछ गलत
हुआ है। साफ भी नहीं होता कि क्या गलत हुआ है,
लेकिन कहीं कुछ गलत हुआ है। क्योंकि शांति तो
हृदय की बात है, मस्तिष्क की नहीं। उसने तो तुम्हारे मस्तिष्क को सहलाया। उसने तो
तुम्हारे मस्तिष्क को भुलाया। उसने तो तुम्हारे मस्तिष्क में कुछ और विचार, कुछ और शब्द डाले।
तुम वैसे ही बोझिल थे, तुम और थोड़े बोझ से भर गए।
लेकिन जब तुम किसी बुद्ध पुरुष का वचन सुनकर
लौटते हो तो हो सकता है, राम उससे राजी भी न होओ, लेकिन बेचैन न हो सकोगे। हो सकता है, तुम उसके पीछे चलने की तैयारी भी न दिखाओ, तब भी तुम पाओगे, जैसे कोई स्नान हो
गया। जैसे धूल से भरे, यात्रा के थके, तुम किसी झरने में डुबकी लगा आए। पसीने से तरबतर थे, एक मेघ आया और बरस
गया, सब शीतल हो गया। लेकिन सुनने की कला चाहिए।
तार्किक को सुनने के लिए कोई कला की जरूरत नहीं, क्योंकि उसके लिए तो
समाज ही तुम्हें तैयार कर देता है। तर्क की भाषा के लिए तुम पूरी तरह निष्णात हो।
सत्य की भाषा के लिए तुम्हारी कोई तैयारी नहीं है। सत्य की भाषा अनिवार्य रूप से
विरोधाभासी होगी।
उपनिषद कहते हैं, परमात्मा पास से भी पास, दूर से भी दूर। अगर
इतना कहें, पास से भी पास, ठीक; अगर इतना ही कहें, दूर से भी दूर, तो भी ठीक; लेकिन एक ही वक्तव्य में विरोध है;
पास से भी पास और दूर से भी दूर। तर्क के बाहर हो
गई बात।
बुद्ध से पूछो, तुम जो भी पूछोगे बुद्ध से, सभी उत्तर विरोधाभासी आएंगे। सत्य का स्वभाव विरोधाभासी है। क्यों? क्योंकि सत्य इतना
विराट है कि सभी विरोध उसमें समाए हैं। तर्क बड़ा छोटा है; उसकी साफ—सुथरी सीमा—रेखा
है। सत्य की कोई सीमा—रेखा नहीं। सत्य सागर है,
तर्क छोटे—छोटे पोखर हैं, डबरे हैं; उनकी सीमा—रेखा है।
छोटी सी बुद्धि में सीमा—रेखा की बातें समा जाती हैं, समझ में आ जाती हैं।
तुम से बड़ी बात है सत्य की; तुम उसे छू लो तो काफी; तुम उसे मुट्ठी में न बांध पाओगे।
बुद्ध ने कहा है, 'निरर्थक पदों से युक्त हजार पदों से भी एक सार्थक
पद श्रेष्ठ है।
कौन सा पद सार्थक है? ऐसे तो हम जो भी
बोलते हैं, अगर भाषाशास्त्री से पूछोगे तो सभी सार्थक हैं। जो व्याकरण के
नियमानुसार कहा गया, जिसने भाषा का कोई नियम, रीति उल्लंघन न की, वह सभी सार्थक है। सार्थकता व्याकरण में है, सार्थकता भाषा के
नियमों में है।
बुद्ध पुरुष इसे सार्थक नहीं कहते। बुद्ध पुरुष
कहते हैं, सार्थकता बोलने वाले के अनुभव में है : व्याकरण के नियम पालन हों या न
हों।
कबीर कोई व्याकरण नहीं जानते, लेकिन काशी में
जितने भी पंडित थे उस समय, सब भी एक तरफ रख दिए जाएं तराजू पर और कबीर अकेले एक तरफ तराजू पर रख
दिए जाएं, तो भी सारे पंडित मिलाकर कबीर के पलड़े को ऊपर न उठा सकेंगे; वे नीचे जमीन पर ही
बैठे रहेंगे। पंडित अधर में ही अटके रहेंगे। पूरी काशी भी एक कबीर के पलड़े को ऊपर
नहीं उठा सकती।
एक कबीर पूरी काशी से ज्यादा हैं; हालांकि व्याकरण तो
नहीं है, भाषा तो नहीं है। कबीर तो गंवार हैं, पढ़े—लिखे नहीं हैं।
कहा है कबीर ने : मसि कागद छुयो नहीं।
कभी छुआ ही नहीं कागज—कलम। मगर जो कहा है, वेद के ऋषि भी झेंप जाएं, उपनिषद के स्रष्टा
शर्माए—एक गंवार की भाषा में। न कोई तुक है,
न कोई व्यवस्था है, लेकिन फिर भी जो कहा है, वह जानकर कहा है।
अर्थ भीतर से आ रहा है, अर्थ बाहर की किसी व्यवस्था से संयुक्त नहीं है। अर्थ भीतर के अनुभव
से आ रहा है।
ऐसा समझो कि तुमने प्रेम के संबंध में बहुत से
शास्त्र पढ़े हैं और फिर प्रेम के संबंध में तुम कुछ लिख दो, जरूर सार्थक मालूम
होगा, होगा नहीं। सार्थक मालूम तो होगा,
क्योंकि तुम जो भी लिखोगे, उसमें व्यवस्था होगी, संगति होगी, तर्कसरणी होगी; लेकिन सार्थक हो
नहीं सकता, क्योंकि प्रेम तुमने जाना नहीं।
और अक्सर ऐसा होता है कि प्रेम को जो नहीं जानते, वे प्रेम के संबंध
में बोलते हैं, लिखते हैं, गीत गाते हैं। ये प्रेम की कमी को पूरा करने के उपाय हैं। जिन्होंने
प्रेम को जान लिया, वे शायद चुप भी रह जाएं; या अगर कुछ कहें तो शायद तुम्हारी समझ में न पड़े, बेबूझ मालूम पड़े, क्योंकि तुमने भी
प्रेम तो जाना नहीं; जिसने जानकर कहा है, उसकी बात तुम्हें जंचेगी नहीं।
मैंने सुना है, एक नाव पड़ी थी एक नदी के किनारे और चार कछुए
छलांग लगाकर उसमें बैठ गए। हवा तेज थी, उनके धक्के से नाव चल पड़ी, वे बड़े प्रसन्न हुए। लेकिन एक बड़ा दार्शनिक सवाल उठ आया कि नाव कौन
चला रहा है? हम तो नहीं चला रहे।
एक कछुए ने कहा, नदी चला रही है। देखते नहीं? नदी की धार बही जा रही है, वही नाव को लिए जा रही है।
दूसरे ने कहा,
पागल हुए हो?
यह हवा है,
नदी नहीं,
जो नाव को चला रही है।
बड़ा विवाद छिड़ गया। तीसरे ने कहा, यह सब भ्रम है—वह और
भी बड़ा दार्शनिक रहा होगा—यह सब भ्रम है; न हवा चला रही है, न नदी चला रही है; न कोई चल रहा, न कहीं कोई जा रहा, यह सब सपना है; हम नींद में देख रहे हैं।
चौथा लेकिन चुप रहा। उन तीनों ने चौथे की तरफ
देखा और कहा, तुम कुछ बोलते क्यों नहीं? लेकिन चौथा फिर भी चुप रहा; उसने कहा, मुझे कुछ भी पता नहीं।
उसकी यह बात सुनकर वे जो तीनों आपस में लड़ रहे थे, सब साथी हो गए, और उस चौथे को
उन्होंने धक्का देकर नदी में गिरा दिया कि बड़ा समझदार बना बैठा है। उसने बेचारे ने
इतना ही कहा था कि मुझे कुछ पता नहीं, कौन चला रहा है। उसने बड़े गहरे अनुभव की बात कही थी। किसको पता है, कौन चला रहा है? पता हो भी कैसे सकता
है।
वेद के ऋषियों ने कहा है, किसने बनाया इस जगत
को, कौन कहे? कैसे कहे? किसको पता है? जिसने बनाया हो, शायद उसे पता हो, शायद उसे भी पता न हो। बड़ी अनूठी बात कही है : शायद उसे पता हो, शायद उसे भी पता न
हो। क्योंकि बना लेने से ही कुछ पता चल जाता है, ऐसा तो नहीं।
एक मूर्तिकार मूर्ति बना लेता है; इससे क्या पता चल
जाता है? उससे पूछो, वह कहेगा, एक भाव उठा, पता नहीं कहां से आया ई क्यों आया?
न आता तो भी कोई उपाय नहीं था। आ गया तो पकड़े गए
उस भाव में, उस भाव ने पकड़ ली गर्दन और मूर्ति को बनाना पड़ा। कैसे बनी? किसने बनाई? उपकरण हो गया था। एक
कवि से पूछो—जिसने गीत रचा हो—पूछो, कैसे बनाया? कहेगा, पता नहीं।
जिन्हें पता है, वे शायद कहें,
पता नहीं;
और जिन्हें पता नहीं है, वे निश्चित उत्तर
देंगे कि पता है, क्योंकि इसी भांति वे अपने अज्ञान को ढांक सकेंगे।
वे तीन कछुए आपस में लड़ते थे, लेकिन उनका विवाद
खतम हो गया, जब इस चौथे कछुए ने शांत रहकर कहा कि मुझे पता नहीं। किसको पता है? उनके क्रोध की सीमा
न रही। उन्होंने कहा कि बड़ा रहस्यवादी बनता है,
बड़ा समझदार बनता है। इतनी समझदारी की बात कर रहा
है, हमें पता नहीं, किसी को पता नहीं! धक्का मारकर नीचे गिरा दिया।
सत्य जब भी बोला गया है तो बाकी कछुओं ने उसे
धक्का मारकर गिरा दिया है। सत्य को कभी स्वीकार नहीं किया गया। क्योंकि तुम कुछ
पहले से ही स्वीकार किए बैठे हो, इसलिए सत्य से भी वंचित रह जाते हो और सत्य की अभिव्यक्ति के पास जो
उपशांत होने की संभावना थी, उससे भी वंचित रह जाते हो। तुम पहले से ही माने बैठे हो कि तुम्हें
पता है।
मेरे पास तुम हो, अपनी सब जानकारी अलग रख दो; गठरी में बांधकर नदी
में डुबा आओ; तो तुम मुझे सुनते—सुनते उपशांत होने लगोगे। तुम्हें शायद कुछ करना भी
न पड़े, शायद सुनते—सुनते ही तुम एक नए अर्थ से भर जाओ, आपूरित हो जाओ—हो ही
जाओगे, हो ही जाना चाहिए; कोई कारण नहीं है, बाधा नहीं है कोई।
लेकिन अगर तुम अपनी जानकारी लेकर सुन रहे हो, तुम अपने शास्त्र को
बचा—बचाकर सुन रहे हो, तुम अपने सिद्धांतों को पकड़े—पकड़े सुन रहे हो, तो तुमने सुना ही
नहीं; तब तुम विवाद में रहे, संवाद न हो सका। संवाद हो जाए और एक सार्थक पद पड़ जाए तुम्हारे भीतर, बस, काफी है।
बुद्ध कहते हैं, 'एक सार्थक पद श्रेष्ठ है हजारों पदों से भी। '
पर क्या है सार्थकता की उनकी परिभाषा? जो भीतर के अनुभव से
आया हो, अनुभवसिक्त हो, जानकर आया हो; उधार न हो, नगद हो, तो ही सार्थक है।
ज्ञान की आराधना दिन का शयन है
क्लेश से निस्तार केवल कर्म से है
दर्शनों से सिद्धियां किसको मिली हैं
जीव का उद्धार केवल धर्म से है
दर्शनों से सिद्धियां किसको मिली हैं
कितना ही समझो, सोचो, विचार करो, शास्त्र पढ़ो, अध्ययन—मनन—चिंतन करो, दर्शनों से सिद्धियां किसको मिली हैं? कौन सिद्ध हुआ है शास्त्रों को पढ़कर? ही, जो सिद्ध हुए हैं, उनसे जरूर शास्त्र
जन्मे हैं; वह बड़ी और बात है।
जीव का उद्धार केवल धर्म से है
धर्म का क्या अर्थ है? धर्म का अर्थ है.
अनुभव में आ जाए जो।
अभी तो तुम जिसे धर्म कहते हो वह भी धर्म नहीं है, दर्शन है। मेरे पास
कोई आ जाता है, वह कहता है, मैं जैन—धर्म में मानता हूं। मैं कहता हूं, कहो जैन—दर्शन में, मत कहो जैन—धर्म में।
क्योंकि जैन—धर्म का तुम्हें कहां पता? महावीर को था, तुम्हें कहां? जैन—दर्शन में, महावीर ने जो कहा, उसमें तुम मानते हो। महावीर ने किसी का कहा नहीं माना, महावीर ने जाना। तुम
मानते हो, मान्यता दर्शन तक जाती है। मान्यता एक दृष्टि है, एक दृष्टिकोण है, अनुभव नहीं।
और इसकी कसौटी यही है कि अगर तुमने सुनने की शर्त
पूरी की तो तुम उपशांत हो जाओगे।
अनेक बार लोग मुझसे पूछते हैं, सदगुरु की पहचान
क्या है? मैं कहता हूं सदगुरु की तुम फिक्र मत करो, तुम सिर्फ सुनने की
कला सीख लो। बस, सदगुरु तुम पहचान लोगे। सदगुरु छिपाएगा तो भी छिपा न सकेगा; तुम पहचान ही लोगे।
तुम उसके पास आकर उपशांत होने लगोगे।
जैसे बगीचे के पास आकर शीतल हवाएं तुम्हें छूने
लगती हैं, बगीचा दिखाई भी न पड़ता हो तो भी तुम जानते हो, करीब आने लगे बगीचे
के। और करीब आते हो, फूल की गंध हवाओं में तिरने लगती है; अभी भी बगीचा दिखाई न पड़ता हो, रात अंधेरी हो, तो भी तुम जानते हो
कि दिशा ठीक है। गंध बढ़ती चली जाती है, बगीचा करीब आता चला जाता है। लेकिन अगर तुम्हारे नासापुट खराब हों, अगर तुममें सूंघने
की क्षमता खो गई हो, तब बड़ी मुश्किल होगी।
तुम यह मत पूछो कि बगीचा कहां है, तुम यह पूछो कि
नासापुट कैसे उपलब्ध हों? सूंघने की क्षमता कैसे उपलब्ध हो?
सदगुरु की पूछते हो कि सदगुरु को कैसे पहचानें? तुम कैसे पहचानोगे
सदगुरु को? तुम इतना ही करो कि तुम सुनने में समर्थ, तुम इतना ही करो कि
तुम सदगुरु को उपलब्ध हो सको, सदगुरु के लिए खुले रह सको; वह तुम्हारे द्वार पर दस्तक दे तो ऐसा न हो कि तुम सोए रहो और तुम्हें
सुनाई न पड़े—बस, इतना काफी है।
जिसने सुनना सीख लिया, जिसे श्रवण की कला आ
गई, उसे तत्क्षण समझ में आना शुरू हो जाएगा, कहा मिलती है उपशांति। तब वह चिंता न करेगा कि
मंदिर जाऊं, कि मस्जिद जाऊं, कि जैन मुनि को सुनूं कि हिंदू साधु को सुनूं कि मुसलमान फकीर को
सुनूं इसकी चिंता न करेगा।
ये चिंताएं नासमझों की हैं। फिर तो वह एक ही भाव
करेगा, जहा उपशांत होता हूं वहां जाऊं। फिर चाहे वह मुसलमान फकीर हो, चाहे जैन मुनि हो, चाहे बौद्ध भिक्षु
हो, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता।
फिर वह मस्जिद हो कि मंदिर, इससे क्या फर्क पड़ता
है? असली कसौटी हाथ में आ गई कि जहां सब शांत होने लगता है, जहां हृदय की वीणा शांति
के स्वर बजाने लगती है, जहां रोआं—रोआं पुलकित होने लगता है; जहा लगता है,
धूल झड़ी, स्नान हुआ; जहां लगता है, ताजगी मिली; जहा लगता है, पोषण मिला; जहा लगता है, जीवंत होकर लौटे, ज्योति मिली—जैसे किसी ने तुम्हारे प्राणों के दीए को, ज्योति को उकसा दिया
हो।
'हजार—हजार पद भी व्यर्थ हैं, एक सार्थक पद श्रेष्ठ है, जिसे सुनकर मनुष्य उपशांत हो जाता है। '
'संग्राम में हजारों मनुष्यों को जीतने वाले से भी उत्तम संग्राम—विजेता
वह है, जो एक अपने को ही जीत ले।
पहली बात उसे खोज लेना, जिसके पास कुछ अर्थ
की संपदा हो। क्योंकि जब तक तुम्हें खजाना न दिखाई पड़े, तब तक तुम्हें अपने
भीतर के खजाने की खोज, प्यास पैदा न होगी। हो भी कैसे?
जब तक तुमने किसी को नाचते न देखा हो, तो नृत्य का भाव
कैसे उठे? जब तक तुमने किसी को मस्ती में डोलते न देखा हो, तब तक मस्त होने की
कामना कैसे उठे? जब तक तुमने किसी को शांति का,
शून्य का अवतार अनुभव न किया हो, तब तक तुम्हारे भीतर
शांत होने की कल्पना कैसे उठे? शांत होने की कल्पना कैसे पंख फैलाए?
जिन लोगों के बीच तुम रहते हो, उन्हें तुम अपने से
ज्यादा अशांत पाते हो। सुबह से अखबार पढ़ते हो,
संसार भर के उपद्रव, चोरी, बेईमानी, हत्या, सब पढ़ते हो; पढ़—पढ़कर तुम्हें
लगता है, इससे तो हमीं भले। अखबार पढ़ने का राज ही यही है; इतने रस से लोग पढ़ते
हैं, उसका कुल कारण यही है कि पढ़कर ऐसा लगता है कि इससे तो हमीं भले।
जिस संसार में तुम्हें ऐसा लगता हो कि इससे तो हमीं भले, वहां तुम्हारी
प्रगति नहीं हो सकती; वहा तुम्हारी गति नहीं हो सकती। ऊंट को पहाड़ के करीब आना होगा, तभी उसे पता चलेगा, अरे! मैं बहुत छोटा
हूं।
पृथ्वी पर जब भी कोई बुद्ध पुरुष चलता है तो जो
भी उस पहाड़ के करीब आने की हिम्मत रखते हैं—हिम्मत रखनी पड़ती है, क्योंकि ऊंट को बड़ा
डर लगता है पहाड़ के पास जाने में। यह बात ही माननी कि कोई मुझसे बड़ा हो सकता है, यह स्वीकार करना ही
कठिन मालूम होता है। हम तो हजार उपाय करके,
हजार सहारे लेकर माने रखते हैं कि हम बड़े हैं।
ऐसी कहीं जगह, ऐसा कोई स्थान, जहां यह प्रतिमा खंडित हो जाए,
जहा यह भाव गिर जाए, दुखदायी मालूम होता
है; वहां हम जाते ही नहीं। चले भी जाएं, आंखें बंद कर लेते हैं, बचाकर निकल जाते हैं।
तो पहली तो बात बुद्ध कहते हैं, जहां अर्थ का फूल
खिला हो, ऐसे किसी व्यक्ति के पास जाना। जाते ही लगेगा, तुम्हारा सारा जीवन
व्यर्थ है। जिसके पास तुम्हें अपना जीवन व्यर्थ लगे, समझना कि वहां कोई सार्थकता खिली है; उसकी ही तुलना में
तो दुम्हें व्यर्थता का बोध हुआ।
ऐसा यह संसार है जैसे सेमर फूल
दिन दस के व्यवहार में झूठे रंग न भूल
कबीर का वचन है। जैसे सेमर फूल बड़ा शुभ्र मालूम
होता है, ऐसा यह संसार है। दिन दस के व्यवहार में—पर ज्यादा देर टिकता नहीं।
दिन दस के व्यवहार में झूठे रंग न भूल
बिखर जाता है। हवा का जरा सा झोंका—और सेमर का
फूल बिखरा; हजार खंडों में टूट जाता है, हजार दिशाओं में बह जाता है।
जिस किसी व्यक्ति के पास आकर तुम्हें यह अनुभव
में आ जाए कि मेरा जीवन व्यर्थ, क्षणभंगुर; मैंने अब तक जो कमाया, कमाया नहीं, गंवाया; अब तक जैसे मैं चला, चला नहीं, भटका; अब तक जिसको मैंने संपत्ति समझी,
वह विपत्ति थी; और अब तक जिसको मैंने वरदान समझा, वह अभिशाप था; जिसे मैंने प्रेम
जाना, वह प्रेम नहीं था; जिसे मैंने सत्य माना, वह सत्य नहीं था।
जब किसी व्यक्ति के पास आकर तुम्हें ऐसा अनुभव
होने लगे तो घबड़ाकर भाग मत जाना। मन तो कहेगा,
भाग चलो, हट चलो, हम अपने अंधेरे में बेहतर। मन तो कहेगा, यह और कहा की झंझट में पड़ते हो? यह यात्रा बड़ी मालूम
पड़ेगी। मन तो कहेगा, जैसे चलते थे, परिचित रास्ता है, उसी पर चलते रहो। मन लकीर का फकीर है। मन नए के पीछे जाने में घबड़ाता
है। लेकिन जब भी तुम कभी कोई सार्थक वचन सुनोगे तो नया ही मालूम होगा, ताजा मालूम होगा—सद्यस्नात!
और उसी के कारण तो उपशांति मिलेगी। उसी ताजगी की वर्षा तुम पर होगी तो मन उपशांत
होगा।
साहस रखना। सदगुरु को खोजने की फिक्र मत करना, तुम सुनने की क्षमता
रखना। और जब सुनने में कहीं तुम्हारे पास कोई सार्थकता का अनुभव आने लगे तो घबड़ाकर
भागना मत। क्योंकि सदगुरु सार्थक दिखेगा तो तुम निरर्थक दिखोगे। अब इसे थोड़ा ठीक
से समझ लेना। अगर गुरु पर ध्यान रखोगे तो उपशांति मिलेगी। अगर अपने पर ध्यान करोगे
तो बड़े अशांत हो जाओगे। जब भी कोई चीज सार्थक दिखाई पड़ेगी तो पृष्ठभूमि में बहुत
कुछ व्यर्थ हो जाएगा।
तुम कंकड़—पत्थर बीने बैठे थे और मैंने तुम्हें
बताया कि ये कंकड़—पत्थर हैं; मैंने तुम्हें हीरा दिखाया। तो तुम्हारे पास दो विकल्प हैं : या तो
तुम कंकड़—पत्थर छोड़ो, हीरे की खोज में लग जाओ। अगर तुमने ऐसा चुना तो मन तत्क्षण शांत हो
जाएगा कि जितने जल्दी छूटे उतना ही ठीक; जब छूटे तभी ठीक; जब जागे तभी सुबह; और दिन न खोए सौभाग्य।
तुम दूसरा विकल्प भी ले सकते हो, जो कि साधारणत: सौ
में से निन्यानबे लोग लेते हैं; वह यह कि तुम मुझ पर नाराज हो जाओ कि हमारे हीरे—जवाहरातों को कंकड़—पत्थर
किए दे रहे हो। तुम सदा के लिए मेरे दुश्मन हो जाओ; तो तुम अशांत हो जाओगे।
और ध्यान रखना, अब तुम लाख उपाय करो, तुम्हारे कंकड़—पत्थर
फिर से हीरे न हो सकेंगे। अब तुम बड़े अशांत हो जाओगे। अब तुम बड़ी पीड़ा में पड़
जाओगे। अब तुम लाख मानने की कोशिश करो कि ये हीरे—जवाहरात हैं, ये हीरे—जवाहरात अब
न हो सकेंगे। तुम कितने ही नाराज होओ, कितने ही क्रोधित होओ, कितनी ही गालियां मेरी तरफ फेंको,
अब ये हीरे—जवाहरात हीरे—जवाहरात नहीं हैं। कितने
ही छाती से चिपटाओ, भ्रम टूटा सो टूटा। जो बात गई,
सो बात गई;
अब उसे लौटाया नहीं जा सकता।
जो झूठ तुम्हें एक बार भी दिखाई पड़ गया कि झूठ है,— उसे फिर सत्य नहीं
बनाया जा सकता। और जो सत्य तुम्हें एक बार भी झलक गया कि सत्य है, अब तुम उसे झुठला न
सकोगे।
तो ध्यान रखना, जिसके पास परम उपशांति मिल सकती है, उसके पास से तुम
अशांत होकर भी जा सकते हो। अपने कारण तुम अशांत हो जाओगे।
अगर तुमने उपशांति का सूत्र पकड़ लिया, अगर तुम सार्थकता की
खोज में संलग्न हो गए, अगर तुम्हारे भीतर यह भाव उठा कि जैसा प्रकाश इस व्यक्ति के जीवन में
उठा है, ऐसा प्रकाश मेरे जीवन में भी हो,
तो तुम आत्मविजय की यात्रा में संलग्न हुए।
'संग्राम में हजारों मनुष्यों को जीतने वाले से भी उत्तम संग्राम—विजेता
वह है, जो एक अपने को ही जीत ले। '
सब जीत आखिर में हार सिद्ध होती है। सब जीत!
बेशर्त कहता हूं; सब जीत अंततः हार सिद्ध होती है। सब सफलताएं आखिर में विफलता के खड्ड
में गिरा जाती हैं। और जिसे तुम जीवन कहते हो,
वह बेचूक कब में जाकर पूरा होता है—बेचूक। उसका
कोई और अंत नहीं है।
ऐसा यह संसार है जैसे सेमर फूल
दिन दस के व्यवहार में झूठे रंग न भूल
एक अपने को जीतना ही जीतना सिद्ध होता है। एक
अपने को पाना ही पाना सिद्ध होता है, क्योंकि फिर उसे मौत नहीं छीन पाती। वही जीवन है, जिसे मौत न छीन पाए।
फिर उसे चिता की लपटें नहीं जला पातीं। वही संपदा है, जिसे आग न जला पाए।
फिर उस पद को कोई तुमसे छीन नहीं सकता। संसार की हवाएं उस सिंहासन से तुम्हें नीचे
नहीं उतार सकतीं। वही पद है पाने योग्य, जो फिर छीना न जा सके। । वही
है शाश्वत धर्म, जिसके सामने मृत्यु हार जाती है।
पागल की गल्प नहीं
अर्थरहित जल्प नहीं
मानव के अंतर में
जो कुछ उत्तमतर है
उसके अभिव्यंजन का
जीवन यह अवसर है
सुख में वह केवल जो
इस तप में तत्पर है
यह जीवन या तो पागल के द्वारा कही गई कथा हो
जाएगी। शेक्सपीयर का प्रसिद्ध वचन है : ए टेल टोल्ड बाई एन ईडीयट, फुल आफ क्यूरी एंड
न्वाइज, सिगनीफाइंग नथिंग। एक मूर्ख के द्वारा कही गई कथा, शोरगुल बहुत, अर्थ कुछ भी नहीं।
पागल की गल्प, अर्थरहित जल्प।
साधारणत: तो जीवन ऐसा ही है—जैसे सेमर फूल। इधर
खिला नहीं, इधर बिखरने की तैयारी हुई। इधर आया नहीं कि जाना शुरू हो गया। जन्म
क्या हुआ, मौत में हुआ। सफलता का कदम ही विफलता का कदम बन जाता है।
इसे जरा गौर से देखो! यश क्या मिला, गालियां पड़ने लगीं।
फूल क्या हाथ में लिया, कांटे चुभ गए। प्रेम क्या किया,
घृणा की आधियों को निमंत्रण दे दिया। सुख क्या
मांगा, दुख बरसने लगा।
थोड़ा जीवन को देखो! जो चाहते हो, उससे उलटा हो रहा है।
जो मांगते हो, उससे उलटा हो रहा है। जो मानते हो,
वैसा कभी होता ही नहीं; और जो होता है, उसको तुम देखते नहीं।
तुम पागल हो। हजार बार सुख मांगकर दुख पाते हो, फिर भी यह नहीं
देखते कि सुख की मांग में ही दुख का आना छिपा है। तुमने मला, तुमने पुकारा सुख को, सुनता है दुख, आता है दुख। तुम
आवाज सुख को ही देते चले जाते हो, दुख आता ही चला जाता है। ऐसा लगता है कि सुख दुख का नाम है; सफलता विफलता का नाम
है। और जिसे तुम जीवन कहते हो, वह मृत्यु का आवरण है।
यह तुम्हें दिखाई पड़े, यह तुम्हें थोड़ा समझ
में आए, तो इसमें चलना, इसमें जीवन की ऊर्जा को व्यय करना,
इसमें अवसर को खोना, सब जैसे एक पागल
कहानी कह रहा हो, जिसमें न कोई ओर—छोर है, न कोई सार—संगति है। मरते वक्त तुम ऐसा ही पाओगे कि यह सब जो घटा, एक दुख—स्वप्न था
या सच में हुआ? नहीं, लेकिन यह तुम्हारी भूल है; यह जीवन का स्वभाव नहीं है। यह तुम्हारे देखने का गलत ढंग है।
पागल की गल्प नहीं
अर्थरहित जल्प नहीं
मानव के अंतर में
जो कुछ उत्तमतर है
उसके अभिव्यंजन का
जीवन यह अवसर है
सुख में वह केवल जो
इस तप में तत्पर है
अगर दिशा ठीक हो, दृष्टि साफ हो, तो अभी जो एक बेक पहेली मालूम होती है, वह बड़ी सारपूर्ण हो
जाती है।
मगर यह सार्थकता शुरू होगी, तुम्हारा हाथ स्वयं
पर पड़ जाए तो; तुम अपनी विजय कर लो तो। जिसने अपने को जीता, उसका सारा जीवन
संगतिपूर्ण हो जाता है। फिर यहां कोई असंगति नहीं रह जाती; फिर सारी चीजें अपने
आप ठीक स्थान पर खड़ी हो जाती हैं। और हर चीज का उपयोग हो जाता है।
तब यह जीवन एक व्यर्थ की दौड़—धूप नहीं होती, आत्म—अभिव्यंजना
होती है। तब यह जीवन ऐसा ही दुख—स्वप्न नहीं होता—एक पीड़ा, एक निरर्थक श्रम—वरन
सार्थक होने लगता है।
जिसने भीतर की थोड़ी सी भी समझ पाई, जिसने भीतर अपने पैर
गड़ाए, स्वभाव में जड़ें पकड़ी, जिसने आत्मा को थोड़ा जाना, स्वयं को पहचाना, अपनी पहचान हुई, उस क्षण के साथ ही यह सारा संसार अपना रूप बदल लेता है।
ठीक उलटी कथा हो जाती है। अभी जीवन के पीछे मौत
छिपी है, तब मौत के पीछे जीवन छिपा मिलता है। अभी हर फूल के पीछे काटा छिपा है, तब हर कांटे के पीछे
फूल मिलता है। अभी हर सुख के पीछे दुख मिलता है, तब हर दुख के पीछे सुख मिलने लगता है। तुम क्या
बदले, सब बदल जाता है।
ऐसा लगता है कि तुम अभी शीर्षासन कर रहे हो, तो सब उलटा दिखाई
पड़ता है, क्योंकि तुम उलटे खड़े हो। तुम सीधे खड़े हो जाओ, सब सीधा हो जाता है।
सारी बात तुम्हारे होने पर निर्भर है।
'संग्राम में हजारों मनुष्यों को जीतने से भी उत्तम संग्राम—विजेता वह
है, जो एक अपने को ही जीत ले।
कठिनाई क्या है? अड़चन क्या है?
बुद्ध पुरुष चिल्लाते रहे शिखरों पर खड़े होकर, छप्परों पर खड़े होकर; अड़चन क्या है? क्यों हम सुनते नहीं? अड़चन कहीं कुछ भारी
होनी चाहिए; इतनी भारी होनी चाहिए कि हम बुद्ध पुरुषों की फिक्र छोड़ देते हैं और
अपना गोरखधंधा जारी रखते हैं।
अड़चन यह है कि जिसे तुमने अभी समझा है कि तुम हो, इसे गंवाना पड़ेगा, अगर उसे पाना हो, जो कि तुम वस्तुत:
हो। तुम्हारा नाम, तुम्हारा धाम, तुम्हारा पता—ठिकाना, तुम्हारी आइडेंटिटी, तुम्हारा तादात्म्य, सब झूठा है। जो भी तुमने जाना है,
मैं हूं वह तुम बिलकुल नहीं हो। तुमने जिसे अब तक
आत्मा माना है, वह आत्मा है ही नहीं। ये भी खयाल तुम्हें दूसरों ने दे दिए हैं।
किसी ने कहा,
तुम सुंदर हो,
और तुमने अपने को सुंदर मान लिया। तुमने अपना
चेहरा अभी देखा ही नहीं। किसी ने कहा, तुम बुद्धिमान हो, तुमने अपने को बुद्धिमान मान लिया। तुमने अपना चेहरा अभी देखा ही नहीं।
फिर एक भूल दूसरी भूल में ले जाती है, फिर दूसरी भूल तीसरी भूल में ले जाती है, फिर भूलों का अंबार
लग जाता है। और जो तुमसे कहते हैं, तुम सुंदर हो, उनका प्रयोजन कुछ और होगा।
मैंने सुना है, तीन उचक्के एक दुकान पर गए। भीड़ लगी थी, मिठाई की दुकान थी।
उस गांव में सबसे जाहिर और प्रसिद्ध दुकान थी। वे भीड़ में तीनों खड़े हो गए। फिर एक
ने कहा कि अब बड़ी देर हो गई रुपया दिए, न मिठाई आती है, न बाकी पैसे वापस लौट रहे हैं। उस दुकानदार ने आंख उठाई, उसने कहा, कैसा रुपया! झगड़ा—झांसा
शुरू हो गया। वह आदमी कह रहा था कि मैंने आठ आने की मिठाई मणी, तो आठ आने वापस
चाहिए। न मिठाई मिली है, न आठ आने वापस मिले हैं। उसने कुछ रुपया वगैरह दिया नहीं था।
दूसरे उचक्के ने कहा कि नहीं, यह हो ही नहीं सकता, क्योंकि यह दुकानदार
बड़ा ईमानदार आदमी है। ऐसा कभी हुआ ही नहीं,
तू गलती में है 1 बड़ा झगड़ा—झांसा मच गया। जब यह
सब चल रहा था, तब उस दूसरे उचक्के ने कहा कि मियां लाला! कहीं इस झंझट में मेरा
रुपया मत भूल जाना।
अब सेठ जरा मुश्किल में पड़ा कि अगर वह कहे कि
तूने भी रुपया नहीं दिया, तो यह सारी भीड़ मेरे ही खिलाफ हो जाएगी कि तुम्हीं एक सेठिया सराफ, सारी दुनिया चोर—बेईमान!
और यह आदमी तो बड़ा भला आदमी है, यह तो कह ही रहा है कि सेठ बड़ा भला आदमी है, ईमानदार है; यह कभी ऐसा कर ही
नहीं सकता है। इसके पहले कि कुछ वह बोले, तीसरा उचक्का बोला कि यह तो ठीक है, इनका तो रुपये—रुपये का मामला है, मेरा पांच का नोट है।
उस सेठ ने सोचा कि अब जल्दी ही-ही कह देना ठीक है, नहीं तो यह पूरी भीड़ खड़ी है, कोई कुछ भी कहने लगे, कोई सौ का ही नोट
बताने लगे। उसने कहा, भाई बिलकुल ठीक है; तुम तीनों ले लो, मुझसे भूल हो गई है।
तुमने कभी गौर किया, जो तुमसे कहता है, तुम बड़े सुंदर, तुम बड़े बुद्धिमान, तुम बड़े तेजस्वी, तुम बड़े ईमानदार, उसके कुछ प्रयोजन
होंगे, उसके कुछ अपने निहित स्वार्थ होंगे।
तुम चकित होओगे कि संसार में दूर जिनसे तुम्हारा
कोई लेना—देना है, उनके स्वार्थ होंगे वह तो ठीक ही है, जो तुम्हारे बिलकुल निकट हैं, उनके भी स्वार्थ हैं।
मां भी अपने बेटे से कहती है कि तुझसे सुंदर कोई
भी नहीं है। सभी मां ऐसा मानती हैं। उसमें भी स्वार्थ है। स्वार्थ यह है कि मेरा
बेटा असुंदर हो कैसे सकता है? मेरा बेटा है। बेटे के सौंदर्य पर तो मां का सौंदर्य निर्भर है, क्योंकि फल से तो ही
वृक्ष पहचाना जाता है। बाप कहता है, तुम बड़े बुद्धिमान, बड़े होशियार।
मेरे पास लोग आते हैं, वे अपने बच्चों की
तारीफ करते हैं। मैं चकित होता हूं। अगर सबके बच्चे इतने अदभुत हैं तो यह दुनिया
बड़ी अदभुत हो जाए, लेकिन ये सब, बाद में सब खो जाते हैं।
बच्चे अदभुत होने ही चाहिए इसमें मां—बाप का
स्वार्थ है। ये उनके सबूत हैं, प्रमाण हैं। फिर जब ये बच्चे अदभुत सिद्ध नहीं होते तो मां—बाप पीड़ित, परेशान होते हैं।
इसलिए तुम मां—बाप को कभी भी प्रसन्न न पाओगे। एक झूठ दूसरी झूठ में ले जाती है।
कोई मां—बाप प्रसन्न नहीं होता, बच्चे कुछ भी बन जाएं।
मैंने तो एक कहानी सुनी है कि एक यहूदी महिला मरी; उसके मन में सदा से
एक ही प्रश्न था कि अगर स्वर्ग गई तो मुझे मरियम से—जीसस की मां से पूछना है एक
सवाल। जब वह मरी, भाग्य से स्वर्ग पहुंची। उसने पहली ही बात जो पूछी दरवाजे पर, वह यह कि मुझे मरियम
के पास जाना है, एक सवाल मुझे पूछना है। वह मरियम के पास ले जाई गई। मरियम ने कहा, मुझे पता है, यह सवाल तेरे मन में
सदा से है; अब तू पूछ ही ले।
उसने कहा कि सवाल मेरा यह है कि संसार में मैंने
कभी किसी मां—बाप को. जब बच्चे पैदा होते हैं,
तब उनके गुणगान करते सुना है सदा; बच्चे जब पैदा होते
हैं तो किसी मां—बाप को मैंने उनकी निंदा करते नहीं सुना। जब बच्चे बड़े हो जाते
हैं और जीवन में उतरते हैं तो सभी मां—बाप को उनकी निंदा करते सुना है, तब मैंने कभी
प्रशंसा करते नहीं सुना। इससे मैं बड़ी बेचैन और परेशान रही हूं। तुमने तो कम से कम
अपने बेटे की प्रशंसा की होगी। तुम्हारा बेटा तो जीसस!
मरियम, कहते हैं, उदास हो गई; उसने कहा, हमने तो सोचा था डाक्टर बनेगा।
मां—बाप भी तुमसे जो कह रहे हैं,
वह तुम्हारा सत्य नहीं है, वे उनकी आकांक्षाएं
हैं। बाहर भी लोग तुमसे जो कह रहे हैं, वह भी तुम्हारा सत्य नहीं है, उनकी सुविधाएं हैं। और इन्हीं सब के आधार पर तुम अपनी प्रतिमा निर्मित
करते हो कि तुम कौन हो। ये बाहर के चीथड़े— थेगड़े इकट्ठे करके, अखबारों की कतरनें
लगाकर, जोड़कर तुम अपनी प्रतिमा बना लेते हो।
इस प्रतिमा के कारण ही तुम्हें भीतर जाने में
अड़चन होने लगती है—कैसे इसको छोड़ो! इसमें पूरा जीवन न्योछावर किया है, कैसे इसे तोड़ो! और
आत्मविजय के लिए इसका टूट जाना जरूरी है। क्योंकि तुम अपने को तभी जान सकोगे, जब तुमने दूसरों से
जो भी अपने संबंध में सुना है, वह सब तुम छोड़ दो; तभी तुम अपना साक्षात्कार कर सकोगे सीधा—सीधा; अपने आमने—सामने हो
सकोगे।
जाग उठेगी रूह तुम तो सो जाओगे
सर चश्मए—जिंदगी में धो जाओगे
खो जाओगे जब मनाजिरे—फितरत में
अपने से बहुत करीब हो जाओगे
तुम टूटोगे एक तरफ और दूसरी तरफ तुम्हारा स्वभाव
प्रगट होगा। इधर तुम खोने लगोगे, उधर तुम अपने पास होने लगोगे।
खो जाओगे जब मनाजिरे—फितरत में
अपने से बहुत करीब हो जाओगे
जाग उठेगी रूह तुम तो सो जाओगे
एक तरफ तो तुम सो जाओगे, गिर जाओगे, मिट जाओगे, दूसरी तरफ रूह जागने
लगेगी।
दाव पर लगाना होगा अपने को पूरा—पूरा। सस्ता सौदा
नहीं होने वाला है।
तुम मुफ्त चाहते हो आत्मा। कभी—कभी तुम कुछ—कुछ
छोड़ते भी हो आत्मा के लिए—कुछ दान करते हो,
कुछ मंदिर बनाते हो, कुछ मस्जिद खड़ी करते
हो—उससे भी काम नहीं होगा। आत्मा को पाने की एक ही शर्त है कि तुम अपने को गंवाने
को राजी हो जाओ।
जो अपने को गंवाने को राजी है, उसी को मैं संन्यस्त
कहता हूं। उसी को बुद्ध ने भिक्खू कहा है। भिक्खू का अर्थ है. जो अपने होने की
सारी संपदा को गंवाने को राजी है, भिखारी होने को तैयार है। जो कहता है, मैं कुछ भी न पकडूगा। अब तक जो संपदा मानी, अपना तादात्म्य समझा, वह छोड़ता हूं। न—कुछ
होने की तैयारी भिक्षु होना है।
'इन इतर प्रजाओं को जीतने की बजाय अपने आप को जीतना श्रेष्ठ है। अपने
को दमन करने वाला और नित्य अपने को संयम करने वाला जो पुरुष है, उसकी जीत को न देवता, न गंधर्व और न
ब्रह्मा सहित मार ही अनजीता कर सकते हैं। '
सारे संसार को भी कोई जीत ले तो भी कुछ जीत नहीं
होती। इन हारे हुए लोगों को जीत लेने में सार भी क्या हो सकता है? इन मरे हुए लोगों को
जीत लेने में सार भी क्या हो सकता है? यह तो ऐसे ही है कि कोई जाए और मरघट पर झंडा गाड़ दे; क्या सार है?
यह मरघट है,
जिसको तुम संसार कहते हो। और जिनको तुम जीतने चले
हो, ये मरे हुए लोग हैं। और मजा यह है कि तुमने अभी अपने को नहीं जीता और
तुम दूसरे को जीतने चल पड़े। तुम जीत भी कैसे पाओगे? तुम जबरदस्ती किसी की छाती पर बैठ सकते हो, जीत न पाओगे। दूसरे
की छाती पर बैठ जाना अनिवार्य रूप से दूसरे का हार जाना नहीं है। दूसरे की छाती पर
तुम्हारा बैठ जाना अनिवार्य रूप से तुम्हारी जीत नहीं है। संसार में जिसे हम जीत
कहते हैं, वह जबरदस्ती है। जबरदस्ती भी कहीं जीत हो सकती है?
जिन्होंने अपने को जीता, उस जीत के साथ ही
बहुतों के ऊपर भी उनकी जीत का जादू फैल जाता है; दूर—दूर तक उनका जादू फैल जाता है। जिनको भी फिर
स्वयं को जीतना है, वे उनके जादू में आ जाते हैं। और मजा यह है कि जबरदस्ती नहीं है कोई।
बुद्ध के चरणों में कितने लोग आकर झुके। सिकंदर
ने भी बहुत लोगों को चरणों में झुकाया, लेकिन वे झुके नहीं थे, झुकाया था।
जब तुम किसी को झुका लेते हो, तब जरा गौर से देखना, वह तो अकड़ा ही खड़ा
है; सिर्फ देह झुकती है। जब कोई अपने से झुकता है, स्वेच्छा से, तभी झुकता है। प्रेम
में और सिर्फ प्रेम में ही जीत होती है; और तो कोई जीत नहीं है।
लेकिन अपने को जीता हो तभी प्रेम की संभावना है।
जिसने अपने को जीता हो, वही प्रेम को देने में समर्थ हो पाता है। बहुत उसके पास आकर हार जाते
हैं। और मजा यह है कि उस हार में वे सब अपनी विजय का पहला कदम उठाते हैं। हार भी
जीत की तरफ पहला कदम होती है।
हारना हो तो बुद्धों से हारना; क्योंकि उससे ही तुम
जीतने की तरफ आगे बढ़ोगे। हारना हो तो उनसे हारना जिन्होंने अपने को जीत लिया हो; तो तुम भी जीत की
यात्रा पर निकल जाओगे।
'इन इतर प्रजाओं को जीतने की बजाय अपने आप को जीतना श्रेष्ठ है। अपने
को दमन करने वाला और नित्य अपने को संयम करने वाला जो पुरुष है, उसकी जीत को न देवता, न गंधर्व और न
ब्रह्मा सहित मार ही अनजीता कर सकते हैं। '
एक ही जीत है जिसे कोई दूसरा अनजीता नहीं कर सकता; जिसे कोई दूसरा हारू
में नहीं बदल सकता; बाकी तो सब जीते कोई दूसरा हार में बदल सकता है। जो दूसरे के द्वारा
हार में बदली जा सकती है, वह जीत का धोखा है, जीत नहीं। जो किसी के भी द्वारा हार में नहीं बदली जा सकती, वही जीत है; वही शाश्वत जीत है।
सूत्र क्या है?
'अपने को दमन करने वाला। '
बुद्ध के समय में दमन शब्द के अर्थ बड़े दूसरे थे, अब वैसे नहीं हैं।
फ्रायड के बाद दमन का अर्थ पूरा का पूरा बदल गया। अब दमन एक निंदित शब्द है। बुद्ध
के समय में दमन का गुण—धर्म और था।
बुद्ध क्या अर्थ करते थे दमन का? वे यही अर्थ करते थे, जो हम आज शांत का
करते हैं, दान्त का—वही अर्थ था उन दिनों। जिसके भीतर की सभी वासनाएं शांत हो गई
हैं, जिसने अपनी वासनाओं को शांत कर लिया। दमन, दम; शांति की प्रक्रिया
का नाम था।
अब इस शब्द का उपयोग खतरनाक है, क्योंकि फ्रायड की
खोजों के बाद इस शब्द ने एक नया अर्थ ले लिया है, वह है रिप्रेशन का : जिसने अपनी वासनाओं को दबा
लिया। अब दमन का अर्थ होता है: दबा लेना, तब दमन का अर्थ होता था:मुक्त हो जाना। इस भेद को खयाल में रखना।
फ्रायड ने जो दमन का अर्थ किया है, उस अर्थ में दमन
खतरनाक है, बहुत खतरनाक है। क्योंकि तुम जो भी दबा लोगे, वह बार—बार प्रगट
होगा। तुम जो भी दबा लोगे, उसमें रस और बढ़ जाएगा, घटेगा नहीं। तुम जो भी दबा लोगे,
उसको करने की और इच्छा हो जाएगी।
मैं कल एक कविता पढ़ता था अज्ञेय की—
बापू ने कहा,
विदेश जाना
तो और जो करना हो सो करना
गौ—मास मत खाना।
बापू ने कहा,
विदेश जाना
तो और जो करना हो सो करना
गौ—मास मत खाना।
अंतिम पद निषेध का था
स्वाभाविक था उसका मन से उतरना
बाकी बापू की मानकर
करते रहे और सब करना
बाकी बापू की मानकर
करते रहे और सब करना
सिर्फ एक बात,
वह जो गौ—मांस की थी, वही भर न कर पाए।
जिस बात को भी रोका जाएगा, जिस बात का भी निषेध
किया जाएगा, उसी में आकर्षण, महत आकर्षण पैदा हो जाता है। तुम से अगर कहा, यह मत करना, कि तुम्हारे मन में
तत्क्षण करने की भावना उठने लगती है। सुनते ही,
मत करना, तुम्हारे भीतर कोई गहन अहंकार उठ आता है कि करके रहेंगे।
अगर तुम न करोगे तो तड़फोगे कि कैसे करें? अगर करोगे तो अपराध
का भाव मालूम होगा। यह तो मुक्ति का उपाय न हुआ। किया तो फंसे, क्योंकि अपराध और
ग्लानि मालूम होगी कि गलत किया, पाप किया। न किया तो फंसे रहे,
क्योंकि करने की आकांक्षा प्रज्वलित होती रही, ईंधन पड़ता रहा। यह
तो दोनों तरफ फंस गए। यह तो कहीं कोई बचाव न रहा। फ्रायड दमन का यही अर्थ करता है।
इस अर्थ में दमन शब्द रोग है; उससे बचना।
लेकिन बुद्ध या पतंजलि जब दमन का उपयोग करते हैं, तो उन दिनों दमन का
बड़ा और अर्थ था। उसका अर्थ था : वासनाओं को समझना, वासनाओं का साक्षी होना, वासनाओं को देखना, उनकी समझ पैदा करना।
उनकी प्रज्ञा और प्रत्यभिज्ञा से धीरे—धीरे वासनाएं शांत हो जाती हैं, दान्त हो जाती हैं, दम को उपलब्ध हो
जाती हैं, सक्रिय नहीं रह जातीं।
किसी दूसरे ने अगर तुमसे कहा कि मत करो, इससे लाभ न होगा। जब
तुम्हीं समझोगे जीवन के प्रगाढ़ अनुभव से न करने की बात, क्योंकि कर—कर के
तुम जलोगे, कर—कर के तुम दुख पाओगे; उस दुख से ही जब बोध उठेगा और समझोगे कि यह न करने जैसा है—इसलिए नहीं
कि शास्त्र कहते हैं, इसलिए नहीं कि सदगुरु कहते हैं,
बल्कि इसलिए कि सारा जीवन तुम से कहता है, तुम्हारा अनुभव तुम
से कहता है।
इस फर्क को ठीक से समझ लेना। जब तुम्हारा अनुभव
तुम से कहता है, तुम्हारे भीतर कोई द्वंद्व पैदा नहीं होता। जब तुम्हीं अपने से कहते
हो कि यह बात व्यर्थ है, करने योग्य नहीं—लेकिन तुम्हारे अनुभव से आनी चाहिए यह बात। किताब
पढ़कर, शास्त्र पढ़कर भी तुम कह सकते हो कि नहीं, यह करने योग्य नहीं।
तब तुम तत्क्षण भीतर पाओगे, द्वंद्व खड़ा हो रहा है। एक मन करना चाहता है, एक मन न करना चाहता
है। अगर द्वंद्व पैदा हो तो समझना कि तुम फ्रायड वाले दमन के चक्कर में पड रहे हो।
अगर द्वंद्व पैदा न हो, तुम्हारा अनुभव, तुम्हारी समझ कहे, करने योग्य नहीं और छूट जाए, तो ही बुद्ध के अर्थों में दमन हुआ।
'अपने को दमन करने वाला और नित्य अपने को संयम करने वाला जो पुरुष है। '
यह बड़ी अनूठी सूक्ति है; इसे तुम जरा गहरे से
समझना।
और नित्य अपने को संयम करने वाला जो पुरुष है…..।
धम्मपद पर बहुत टीकाएं लिखी गई हैं, लेकिन कोई भी टीका
ने इस सूक्ति के परम मूल्य को नहीं समझा। सूक्ति का परम मूल्य छिपा है नित्य शब्द
में—
'नित्य अपने को संयम करने वाला जो पुरुष है.....। '
व्रत लेकर संयम मत करना। व्रत का मतलब होता है, आज कसम खाते हो, कल संयम करने की।
नित्य संयम का अर्थ होता है : कल जीवन को देखेंगे और जीवन जहां ले जाएगा, जो बोध देगा, उसके अनुसार चलेंगे।
प्रतिपल तुम्हारा संयम हो, बासा न हो।
जिनको तुम मुनि, साधु—संन्यासी कहते हो, उनका सब संयम बासा
है। कसम ले ली थी कभी, अब उस कसम को पाल रहे हैं, क्योंकि कैसे उस कसम को तोड़े? अहंकार आड़े आता है। यह संयम बासा है। ये कल की पकाई रोटी आज खा रहे
हैं।
बुद्ध कहते हैं, रोज ताजा संयम; यह बड़ी अनूठी बात है। इसका मतलब है : रोज—रोज
जीना, प्रतिपल जीना, होशपूर्वक जीना। होश ही संयम है। व्रत नहीं, होश। नियम की प्रतिज्ञा
नहीं, नियम का बोध।
ऐसा मत कहना कि कसम खाता हूं अब क्रोध न करूंगा।
यह तो दमन बन जाएगा फ्रायड के अर्थों में। क्योंकि कल अगर क्रोध आएगा, फिर तुम क्या करोगे? आज कसम खा ली कि कल
क्रोध न करेंगे, कल क्रोध आएगा तो तुम क्या करोगे?
और तुम यह नहीं कह सकते कि कसम खाने से न आएगा, क्योंकि कसम खाने से
क्रोध के आने—जाने का क्या लेना—देना, क्या संबंध है? सच तो यह है कि तुम कसम ही इसलिए खा रहे हो कि तुमको भी पता है कि कल
आएगा। नहीं तो कसम क्यों खाते? कसम किसके लिए खाते? कल अगर आना ही नहीं है तो बात ही खतम हो गई, कसम क्यों खाते?
तुम भी डरे हो, तुम भी जानते हो अपने को भलीभांति—अपने स्वभाव को, अपनी आदतों को, अपने अतीत को। तुम
जानते हो कि कल यह फिर होगा; कसम खा लो, कसम को अटका दो बीच में; शायद कसम रोकने में सहयोगी बन जाए। फिर कल क्रोध आएगा तो तुम दमन
करोगे।
बुद्ध कहते हैं, आज क्रोध आया,
समझो, जागो, ध्यान करो; इस क्रोध को बोधपूर्वक विसर्जित होने दो। यह क्रोध अंधेरे में
विसर्जित न हो जाए, अन्यथा फिर आएगा। इसको सम्यकरूपेण विदा दो। इसको द्वार—दरवाजे पर लाकर
नमस्कार करके विदा दो। इसको होशपूर्वक विदा दो।
कसम मत खाओ,
सब कसमें अंधेरे में हैं। बेहोश आदमी कसम खाते
हैं, होश से भरा आदमी कभी कोई कसम नहीं खाता। कसम का सवाल क्या है? होश पर्याप्त है। सब
कसमें होश में पूरी हो जाती हैं। फिर कल अगर क्रोध आएगा तो जो होश आज साधा था, उसको कल फिर साधेंगे।
धीरे—धीरे होश को बढ़ाएगे, होश को साधेंगे; क्रोध विसर्जित हो जाएगा।
होशपूर्ण व्यक्ति क्रोध करता ही नहीं; क्रोध के लिए बेहोशी
अनिवार्य शर्त है। मुझे ऐसा कहने दो : क्रोध के लिए बेहोशी अनिवार्य शर्त है और
कसम के लिए भी बेहोशी अनिवार्य शर्त है। कसम बेहोश आदमी खाते हैं और बेहोश आदमी ही
क्रोध करते हैं। बेहोश आदमी ही कामवासना में पड़ते हैं और बेहोश आदमी ही ब्रह्मचर्य
का नियम लेते हैं। बेहोशी में दमन होने लगता है।
बुद्ध कह रहे हैं, 'नित्य अपने को संयम करने वाला जो पुरुष है...। '
मैं बड़ा चकित होकर देखता रहा हूं र क्यों धम्मपद
के ऊपर चिंतन, स्वाध्याय करने वाले लोग इस नित्य शब्द को चूकते चले गए। यह इतना साफ
है, इसमें कुछ कहने की जरूरत नहीं है,
बिलकुल सीधा है।
'नित्य अपने को संयम करने वाला...। '
' ताजा, रोज—रोज, फिर—फिर होशपूर्वक जीने वाला। कल की बासी प्रतिज्ञा नहीं, आज की ताजी प्रज्ञा; आज का होश।
'.. —जो पुरुष है, उसकी जीत को न देवता, न गंधर्व, न ब्रह्मा और न मार ही अनजीता कर सकते हैं। '
कोई उसकी जीत को अनजीता नहीं कर सकता। जिसकी जीत
की बुनियाद होश में रखी गई है, उसकी जीत की बुनियाद को कोई भी कभी उखाड़ नहीं सकता।
हृदय नग्न तो सात पटों के भी आवरण वृथा हैं
वसन व्यर्थ यदि भलीभांति आवृत भीतर का मन है
कितने तुम अपने को ढांको, सात वस्त्रों में
ढांक लो, और अगर भीतर नंगापन है तो रहेगा।
वसन व्यर्थ यदि भलीभांति आवृत भीतर का मन है
फिर तुम नग्न भी खड़े हो सकते हो—अगर भीतर का
नंगापन ही न रहा—तो भी तुम नग्न नहीं हो।
मुझे ऐसा कहने दो : महावीर नग्न खड़े होकर भी नग्न
नहीं हैं, और तुम कितने ही वस्त्रों में अपने को ढाक लो, नग्न ही रहोगे।
'जो महीने—महीने सौ वर्ष तक हजारों रुपयों से यश करे और यदि परिशुद्ध
मन वाले पुरुष को मुहूर्तभर भी पूज ले, तो सौ वर्ष के हवन से वह मुहूर्तभर की पूजा श्रेष्ठ है। '
'जो महीने—महीने सौ वर्ष तक हजारों रुपयों से यश करे.। '
बुद्ध यज्ञ की सम्यक दिशा की तरफ इशारा कर रहे
हैं। यज्ञ बुद्ध के समय में बड़ा प्रचलित था। अग्नि को जलाओ, आहुतियां डालो, घी जलाओ, अन्न फेंको; न मालूम कितने तरह
के यज्ञ प्रचलित थे। हिंसक यज्ञ प्रचलित थे—अश्वमेध करो, गोमेध करो, नरमेध भी यज्ञ होते
थे, जिनमें आदमियों को भी चढ़ाओ। भयंकर हिंसा यज्ञ के नाम से चलती थी।
बुद्ध की क्रांतियों में से एक क्रांति यह भी थी
कि उन्होंने कहा, अगर यज्ञ ही करना है तो अपने को चढ़ाओ। और अपने को ही चढ़ाना है तो बाहर
की अग्नि में चढ़ाने से क्या होगा? खोजो सदगुरु की अग्नि। कहीं कोई पावन जहां अंतर्शिखा जलती हो, वहां झुको, वहां चढ़ा दो अपने को, वहां जलो जाकर। अगर
जलना है तो परवाने बनो। खोजो कोई शमा।
'जो महीने—महीने सौ वर्ष तक हजारों रुपयों से यज्ञ करे और यदि परिशुद्ध
मन वाले पुरुष को मुहूर्तभर भी पूज ले, तो सौ वर्ष के हवन से वह मुहूर्तभर की पूजा श्रेष्ठ है। '
एक क्षणभर को! मुहूर्त तो क्षण से भी छोटा है—दो
क्षणों के बीच में जो खाली जगह है, उसका नाम मुहूर्त—जरा सा है, बड़ा संकीर्ण है। लेकिन मुहूर्त यानी वर्तमान। एक क्षण गया, वह अतीत का हो गया।
जो अभी आ रहा है, वह आया नहीं, भविष्य का है। दोनों के बीच में जो है, वही मुहूर्त।
वर्तमान में ही सत्संग हो सकता है सदगुरु से।
अतीत के गुरु काम न आएंगे, भविष्य के गुरु काम न आएंगे; जो अभी है, जो यहां है, जो है, वही काम आ सकता है। मुहूर्तभर को भी उसको पूज ले तो सैकडों वर्षों की
पूजा से श्रेष्ठ है। क्योंकि उस पूजा में तुम झुके, उस पूजा में तुम जले, उस पूजा में तुम गए।
इसको हम कहें आत्ममेध यश। हो चुके थे बहुत नरमेध, अश्वमेध, गोमेध; बुद्ध और महावीर ने
आत्ममेध—अपने को मिटा देने का.।
मिट ही जाओगे। तुम मिटोगे तो ही पूजा हो पाएगी।
अगर तुम बने रहे तो पूजा न हो पाएगी। किसी बुद्ध पुरुष के चरण में झुकने का अर्थ
ही यह है कि तुम बिलकुल झुके, तुम गए। एक मुहूर्तभर को भी अगर तुम न हो गए, तो पूजा हो गई।
निचले हर शिखर पर देवल
ऊपर निराकार तुम केवल
बाकी सब मंदिर तो नीची—नीची चोटियों पर हैं।
कितनी ही ऊंची मालूम पड़ती हों चोटियां—बद्री हो कि केदार—लेकिन सब देवल नीची—नीची
चोटियों पर हैं।
निचले हर शिखर पर देवल
ऊपर निराकार तुम केवल
और जब कभी तुम किसी सत्युरुष के पास आ जाओगे तो
तुम आंख ऊपर उठाते जाओगे, उठाते जाओगे, लेकिन ओर—छोर न पाओगे।
ऊपर निराकार तुम केवल
ऐसे निराकार आकाश के नीचे झुक जाने का नाम :
आत्ममेध।
ऐसा मुहूर्तभर को हो जाए, बस एक बार हो जाए, तो तुम फिर लौट न
सकोगे। क्योंकि जिसने उस झुकने का आनंद जान लिया, वह फिर उठेगा नहीं।
नहीं कि शरीर न उठेगा; शरीर तो उठेगा, चलेगा, काम करेगा, लेकिन भीतर कुछ झुका
ही रहेगा—झुका ही रहेगा; फिर भीतर कोई कभी न उठेगा।
पूजा का एक क्षण, एक मुहूर्त शाश्वत हो जाता है।
एस धम्मो सनंतनो।
आज इतना ही।
thank you guruji
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