वासना
अशुद्धि है (अध्याय—3)
प्रवचन—बाईसवां
योगयुक्तो विशुद्धात्मा
विजितात्मा
जितेन्द्रियः।
सर्वभूतात्मभूतात्मा कुर्वन्नपि
न लिप्यते।।
7।।
तथा
वश में किया
हुआ है शरीर
जिसके, ऐसा
जितेंद्रिय
और विशुद्ध
अंतःकरण वाला,
एवं
संपूर्ण
प्राणियों के आत्मरूप
परमात्मा में एकीभाव
हुआ निष्काम
कर्मयोगी
कर्म करता हुआ
भी लिपायमान
नहीं होता।
शरीर
वश में किया
हुआ है जिसका!
इस बात को
सबसे पहले ठीक
से समझ लें।
साधारणतः
हमें पता ही
नहीं होता कि
शरीर के
अतिरिक्त भी
हमारा कोई
होना है। वश
में करेगा कौन? वश में होगा
कौन? हम तो
स्वयं को शरीर
मानकर ही जीते
हैं। और जब तक
कोई व्यक्ति
स्वयं को शरीर
मानकर जीता है,
तब तक शरीर
वश में नहीं
हो सकता, क्योंकि
वश में करने
वाले की हमें
कोई खबर ही नहीं
है।
शरीर
से अतिरिक्त
कुछ और भी है
हमारे भीतर, इसका
अनुसंधान ही
हम कभी नहीं
करते हैं।
जहां तक बाहर
के जीवन की
जरूरत है, स्वयं
को शरीर मानकर
काम चल जाता
है। लेकिन जहां
तक गहरे जीवन,
परमात्मा
की, अमृत
की, आनंद
की खोज की
जरूरत है, वहां
शरीर की अकेली
नाव से काम
नहीं चलता है।
शरीर की नाव
संसार के लिए
पर्याप्त है।
लेकिन जिसने
आत्मा की नाव
नहीं खोजी, वह प्रभु के
सागर में
प्रवेश नहीं
कर पाएगा।
और
जिसे थोड़ा-सा
भी पता चलना
शुरू हुआ कि
मैं शरीर से
भिन्न हूं, उसे शरीर को
वश में करना
नहीं होता, शरीर तत्काल
वश में होना
शुरू हो जाता
है। इस बात का
अनुभव कि मैं
शरीर से अलग, पृथक और ऊपर
हूं, ट्रांसेंडेंटल हूं, शरीर
का अतिक्रमण
करता हूं, मालिक
के आ जाने की
खबर है। जैसे
किसी कक्षा में
शिक्षक भीतर आ
जाए, शोरगुल
बंद हो जाए।
जैसे नौकरों
के बीच में मालिक
आ जाए और नौकर
सम्हलकर
अनुशासित हो
जाएं। शरीर के
भीतर इस बात
का स्मरण भी आ
जाए कि मैं भिन्न
हूं, तो
शरीर तत्काल
अनुशासन में
खड़ा हो जाता
है।
शरीर
वश में हो गया
जिसका!
किसका? सिर्फ उसका
ही होता है
शरीर वश में, जिसको स्वयं
के अशरीरी
होने का अनुभव
शुरू हुआ है।
लेकिन
साधारणतः लोग
शरीर को वश
में करने में
लग जाते हैं, बिना अशरीरी
को खोजे।
शरीर को वश
में करने जो
लग जाएगा बिना
आत्मा की खोज के,
वह शरीर को
दो हिस्सों
में बांट
लेगा। और शरीर
को ही शरीर से लड़ाता
रहेगा। कभी भी
शरीर वश में
नहीं होगा।
शरीर को भी
शरीर से लड़ाया
जा सकता है।
लेकिन शरीर को
शरीर से लड़ाकर
कोई वश नहीं
होता।
समझें, एक आदमी के
मन में कामना
है, वासना
है। जहां भी
आंख जाती है, वहीं वासना
के विषय दिखाई
पड़ते हैं। वह
अपने हाथ से
आंख फोड़
लेता है। वह
शरीर से ही
शरीर को लड़ा
रहा है। हाथ
भी शरीर है, आंख भी शरीर
है।
शरीर
से शरीर को लड़ाकर
कोई भी शरीर
को वश में
नहीं कर सकता
है। मन से मन
को लड़ाकर
कोई मन को वश
में नहीं कर
सकता है। कोई
भी चीज वश में
तभी होती है, जब उसके पार
किसी तत्व का
अनुभव शुरू
होता है।
अन्यथा वश में
नहीं होती।
हमेशा
जो पार है, वह वश में
करने वाला
सिद्ध होता
है। शरीर से श्रेष्ठतर
को खोज लें
अपने भीतर और
शरीर वश में
हो जाएगा।
श्रेष्ठतर के
समक्ष
निकृष्ट अपने आप
ही झुक जाता
है, झुकाना
नहीं पड़ता है।
और मजा नहीं
है कि झुकाना
पड़े। और जिसे
जबर्दस्ती
झुकाया है, वह आज नहीं
कल बदला लेगा।
जो सहज झुक
गया है, श्रेष्ठ
के आगमन पर जो
उसके चरणों
में गिर गया
है, तो ही
वश में हो
पाता है।
शरीर
से लड़कर, शरीर-दमन से,
कृच्छ साधनाओं
से, शरीर
को कोड़े
मारकर, शरीर
को कांटों पर लिटाकर, शरीर को धूप
में बिठाकर,
शरीर को
बर्फ में लिटाकर,
शरीर को
कितना ही कोई सताए, शरीर
को कितना ही
कोई परेशान
करे, इससे
कभी शरीर वश
में नहीं
होता। शरीर को
परेशान करना
और शरीर को
सताना भी शरीर
के द्वारा ही
हो रहा है।
इससे कभी भी शरीर
वश में नहीं
होता। हां, निर्बल हो
सकता है, दीन
हो सकता है, कमजोर हो
सकता है। और
निर्बलता से
धोखा पैदा होता
है कि वश में
हो गया।
यदि हम
एक आदमी को
भोजन न दें, इतना कम
भोजन दें, इतना
न्यून कि उसकी
शरीर की
जरूरतें उस
भोजन से पूरी
न हो पाएं, तो
उसमें वीर्य
निर्मित नहीं
होगा। वीर्य
सदा अतिरिक्त
शक्ति से
निर्मित होता
है। और तब उसे
यह भ्रम पैदा
हो सकता है कि
मेरी
कामवासना पर
मेरा काबू हो
गया। धोखे में
है वह। अगर एक
व्यक्ति के
शरीर को दीन
कर दिया जाए, हीन कर दिया
जाए, उसकी
शक्ति ही छीन
ली जाए--अनशन
से, सताकर,
परेशान
करके, शरीर
को उसकी पूरी
जरूरतें न
देकर--तो शरीर
कमजोरी की वजह
से वासना की
तरफ उठने में
असमर्थ हो
जाएगा। लेकिन
इससे धोखे में
नहीं पड़ जाना
है।
अभी केलिफोर्निया
यूनिवर्सिटी
में कुछ
विद्यार्थियों
पर वे एक
प्रयोग कर रहे
थे। तीस
विद्यार्थियों
को तीस दिन तक
भूखा रखा था।
दस दिन के बाद
ही उन
विद्यार्थियों
की काम में, यौन में, सेक्स
में कोई रुचि
न रह गई। वे
कोई संन्यासी न
थे; न ही वे
कोई साधक थे; न ही वे कोई
योगी थे।
लेकिन दस दिन
के बाद नंगी तस्वीरें
उनके पास पड़ी
रहें, तो
वे उनको उठाकर
भी नहीं
देखेंगे।
पंद्रह दिन के
बाद तो उनसे
अगर कोई बात
करना चाहे
वासना की, तो
वे बिलकुल ही
विरस हो गए।
उनके चेहरों
का रंग खो गया,
उनके
चेहरों की
ताजगी खो गई, उनके शरीर
की शक्ति खो
गई। तीस दिन
पूरे होने पर
तीसों से पूछा
गया और उन
तीसों ने कहा
कि हमें याद
भी नहीं आता
कि कभी हमारे
मन में
कामवासना भी
उठती थी।
सब सूख
गया। क्या
शरीर वश में
हो गया? दो
दिन भोजन दिया
गया, सब
हरा हो गया।
फिर वही वापस।
फिर वे नंगी
तस्वीरें
सुंदर मालूम
पड़ने लगीं।
फिर नंगी फिल्म
को देखने का
रस आने लगा।
फिर वही बात, फिर वही
मजाक, फिर
वही अश्लीलता!
सब लौट आई।
क्या हुआ!
अगर इन
युवकों को जिंदगीभर
न्यून भोजन पर
रखा जाए, तो
जिंदगी में अब
वासना फिर न
सिर उठाएगी।
लेकिन यह शरीर
पर विजय न हुई,
यह शरीर की
निर्बलता
हुई।
शरीर
पर तो तभी
विजय है, जब
शरीर हो पूरा
सबल; शरीर
निर्मित करता
हो सभी रसों
को; शरीर
की शक्तियां
हों पूर्ण
युवा; शरीर
के भीतर सब हो
हरा और ताजा; और फिर भी, फिर भी वश
में हो, तभी
जानना कि शरीर
वश में है।
लेकिन यह तभी
हो पाएगा, जब
आत्मा सबल हो।
दो
रास्ते हैं
शरीर को वश
में करने के।
एक--झूठा, धोखे
का, डिसेप्टिव। प्रतीत
होता है, वश
में हुआ; होता
कभी भी नहीं।
वह रास्ता है,
शरीर को
निर्बल करो।
एक दूसरा
रास्ता है, वास्तविक, प्रामाणिक,
आथेंटिक,
जिससे ही
केवल शरीर वश
में होता है।
वह है, आत्मा
को सबल करो।
शरीर
को निर्बल करो, तो भी वश में
मालूम होता है;
आत्मा को
सबल करो, तो
वश में हो
जाता है। शरीर
को निर्बल
करने से आत्मा
सबल नहीं
होती। आत्मा
तो वहीं के
वहीं होती है,
जहां थी; सिर्फ शरीर
निर्बल हो
जाता है।
आत्मा के सबल
होने से शरीर
को निर्बल
नहीं करना
पड़ता; लेकिन
आत्मा पार उठ
जाती है, सबल
होकर शरीर के
ऊपर मालिक हो
जाती है।
और
ध्यान रहे, सबलता अपने
आप में, अपने
आप में विजय है।
इसलिए निर्बल
के लिए मार्ग
नहीं है।
लेकिन
शरीर को वश
में करने के
नाम पर बहुत
हैरानी की
घटनाएं सारी
दुनिया में
घटी हैं। आसान
है शरीर को
निर्बल करना; कठिन है
आत्मा को सबल
करना। भूखा
मरना बहुत कठिन
नहीं है। न ही
शरीर को सताना
बहुत कठिन है।
कुछ लोगों के
लिए तो बहुत
आसान है। जिन
लोगों को भी सताने की
वृत्ति है
किसी को, किसी
को भी सताने
की जिनके मन
में वृत्ति
है...। दूसरे को सताने में
कानून बाधा
बनता है।
पुलिस है, अदालत
है। दूसरे को सताइएगा, झंझट में पड़िएगा।
सताना अगर
निरापद रूप से
करना है, तो
अपने को सताइए।
न कोई पुलिस
रोक सकती है, न कोई
कानून। बल्कि
लोग जुलूस भी
निकालेंगे, शोभा-यात्रा
भी कि तपस्वी
हैं आप!
इसलिए
जो दुष्टजन
हैं, वायलेंट,
जिनके मन
में गहरी
हिंसा है, दूसरे
पर हिंसा
प्रकट करने
में कठिनाई है,
वे अपने पर
हिंसा शुरू कर
देते हैं। और
आत्म-हिंसा को
लोग तपश्चर्या
समझ लेते हैं।
तपश्चर्या
आत्महिंसा
नहीं है।
और
ध्यान रहे, जो आदमी
अपने पर हिंसा
करेगा, वह
दूसरे पर कभी
भी अहिंसक
नहीं हो सकता
है। जो अपने
पर अहिंसक
नहीं हो सका, वह इस
पृथ्वी पर
किसी पर भी
अहिंसक नहीं
हो सकता है।
जीवन की सारी
यात्रा स्वयं
से शुरू होती
है।
इसलिए
मैं आपसे कहना
चाहूंगा, और
कृष्ण को जो
जानते हैं
थोड़ा भी, वे
स्वभावतः
समझते हैं
भलीभांति कि
कृष्ण का अर्थ,
शरीर को जीत
लेता है जो, उससे किसी
निर्बल, शरीर
को सताने
वाले, मैसोचिस्ट,
दुखवादी,
आत्मपीड़क,
आत्महिंसक
व्यक्ति का
नहीं होगा, नहीं हो
सकता है।
कृष्ण तो शरीर
को बड़ा प्रेम
करने वाले व्यक्तियों
में से एक
हैं।
ध्यान
रहे, शरीर से
भयभीत वही
होता है, जिसकी
आत्मा कमजोर
है। क्योंकि
अगर शरीर सबल हुआ,
तो कमजोर
आत्मा
मुश्किल में
पड़ जाएगी।
शरीर लेकर
भागेगा। रथ है
बहुत कमजोर, घोड़े हैं
बहुत मजबूत, गङ्ढे में गिरना
निश्चित!
डरेगा आदमी।
लेकिन रथ भी
है मजबूत, सारथी
भी है सबल, कुशलता
भी है लगाम को
हाथ में साधने
की, फिर
मजबूत घोड़ों
का मजा है।
फिर घोड़ों
को निर्बल
करने की जरूरत
नहीं है।
कृष्ण घोड़ों को
निर्बल करने
के पक्ष में
नहीं हैं।
कृष्ण आत्मा
को सबल करने
के पक्ष में
हैं। यह आत्मा
सबल कैसे हो
जाएगी?
तो
कृष्ण कहते
हैं, अंतःकरण
शुद्ध है
जिसका!
जितना
अंतःकरण
अशुद्ध होगा, आत्मा उतनी
निर्बल होगी।
आत्मा की
निर्बलता हमेशा
अशुद्धि से
आती है। आत्मा
की सबलता शुद्धि
से आती है। वह
जितनी प्योरिफाइड,
जितनी
पवित्र हुई
चेतना है, उतनी
ही सबल हो
जाती है।
आत्मा के जगत
में पवित्रता
ही बल है और
अपवित्रता
निर्बलता है।
इसलिए
जब भी कोई
अपवित्र काम
आप करेंगे, तत्काल
पाएंगे, आत्मा
निर्बल हो गई।
जरा चोरी करने
का विचार करके
सोचें। करना
तो दूर, थोड़ा
सोचें कि पड़ोस
में रखी हुई
आदमी की चीज उठा
लें। अचानक
भीतर पाएंगे
कि कोई चीज
निर्बल हो गई,
कोई चीज
नीचे गिर गई।
सोचें भर कि
चोरी कर लूं, और भीतर कोई
चीज निर्बल हो
गई। सोचें कि
किसी को दान
दे दूं, और
भीतर कोई चीज
सबल हो गई।
सोचें मांगने
की, और
भीतर
निर्बलता आ
जाती है।
सोचें देने की,
और भीतर कोई
सिर उठाकर खड़ा
हो जाता है।
जहां
अशुद्धि है, वहां
निर्बलता है।
जहां शुद्धि
है, वहां
सबलता है। और
निर्बल और सबल
होने को आप अशुद्धि
और शुद्धि का
मापदंड
समझें। जब मन
भीतर निर्बल
होने लगे, तो
समझें कि
आस-पास जरूर
कोई अशुद्धि
घटित हो रही
है। और जब
भीतर सबल
मालूम पड़ें प्राण,
तब समझें कि
जरूर कोई
शुद्धि की
यात्रा पर आप निकल
गए हैं। ये
दोनों बंधी
हुई चीजें
हैं।
इसलिए
कृष्ण कहते
हैं, अंतःकरण
जिसका शुद्ध
है! अंतःकरण
जिसका शुद्ध
है...।
यह
अंतःकरण की
शुद्धि और
अशुद्धि को
ठीक से समझ
लेना जरूरी
है।
अंतःकरण
कब होता है
अशुद्ध? जब
भी--जब भी--हम
किसी दूसरे पर
निर्भर होते
हैं, किसी
भी सुख के
लिए। किसी भी
सुख के लिए जब
भी हम किसी
दूसरे पर
निर्भर होते
हैं, तभी
अंतःकरण
अशुद्ध हो
जाता है।
दूसरे पर निर्भरता
अशुद्धि है।
और दूसरे पर निर्भरताएं
सभी बहुत गहरे
अर्थ में पाप
हैं। लेकिन हम
कुछ पापों को सोशियलाइज
किए हुए हैं, उनको हमने
समाजीकृत
किया हुआ है।
इसलिए अंतःकरण
को पता नहीं
चलता।
अगर एक
आदमी सोचता है
कि आज मैं
वेश्या के घर
जाऊं, तो मन
निर्बल होता
मालूम पड़ता है
कि पाप कर रहा
हूं। लेकिन
सोचता है, अपनी
पत्नी के पास
जाऊं, तो
मन निर्बल
होता नहीं
मालूम पड़ता
है। पत्नी के
पास जाते समय
मन निर्बल
मालूम नहीं
पड़ता है, क्योंकि
पत्नी और पति
के संबंध को
हमने समाजीकृत
किया है, सोशियलाइज किया है।
वेश्या के पास
जाते वक्त
निर्बलता मालूम
पड़ती है, क्योंकि
वह पाप सोशियलाइज
नहीं है, इंडिविजुअल है। पूरा
समाज उसमें
सहयोगी नहीं
है, आप
अकेले जा रहे
हैं।
लेकिन
जो आदमी गहरे
में समझेगा, उसे समझ
लेना चाहिए कि
जिस क्षण भी
मैं अपने सुख
के लिए किसी
के भी पास
जाता
हूं--चाहे वह
पत्नी हो, चाहे
वह पति हो, चाहे
वह मित्र हो, चाहे वह
वेश्या हो--जब
भी मैं किसी
और के द्वार पर
भिक्षा का
पात्र लेकर
खड़ा होता हूं,
तभी आत्मा
अशुद्ध हो
जाती है। न
दिखाई पड़ती हो,
लंबी आदत से
अंधापन पैदा
हो जाता है।
बहुत बार एक
ही बात को
दोहराने से, करने से, मजबूत
यांत्रिक
व्यवस्था हो
जाती है।
चोर भी
रोज-रोज थोड़े
ही अनुभव करता
है कि आत्मा
पाप में पड़
रही है। नियमित
चोरी करने
वाला
धीरे-धीरे
चोरी में इतना
गहरा हो जाता
है कि अंतःकरण
की आवाज फिर
सुनाई नहीं
पड़ती है। फिर
तो किसी दिन
चोरी करने न
जाए, तो लगता
है कि कुछ
गलती हो रही
है।
लेकिन
आत्मा निरंतर
आवाज देती है।
और इसलिए दूसरी
बात आपसे कह
दूं कि जब भी
आप कोई पहला काम
कर रहे हों
जीवन में, तब बहुत गौर
से आत्मा से
पूछ लेना, उस
वक्त आवाज
बहुत साफ होती
है। जितना
ज्यादा करते
चले जाएंगे, उतनी आवाज
धीमी होती चली
जाएगी। आदतें
मजबूत हो
जाएंगी।
अशुद्धि ही
शुद्धि मालूम
पड़ने लगेगी।
गंदगी ही
सुगंध मालूम
पड़ने लगेगी।
आदत
दूसरा स्वभाव
है। जोर से
उसकी पर्त बन
जाती है, फिर
भीतर की आवाज
आनी बंद हो
जाती है। फिर
खयाल में नहीं
आता कि भीतर
की कोई आवाज
है। हमने उसको
बंद कर दिया, और हमने
इतनी बार
ठुकराया। अब
भी आत्मा
बोलती है, लेकिन
रोज धीमी हो
जाती है, और
धीमी आवाज
होती चली जाती
है। या हम इतने
बहरे होते चले
जाते हैं आदत
से, कि वह
आवाज सुनाई
नहीं पड़ती है।
इसलिए
पहली बार जब
भी जो आप कर
रहे हों, करने
के पहले भीतर
देख लेना, निर्बल
होते हैं या
सबल। जिस चीज
से भी सबलता आती
हो भीतर, उस
चीज को समझना
कि वह आत्मा
के पक्ष में
है। और जिस
चीज से
निर्बलता आती
हो, समझना
कि वह विपक्ष
में है।
दूसरे
पर निर्भर सभी
सुख दुर्बल कर
जाते हैं। असल
में दूसरे के
द्वार पर खड़े
होना भिखारी
होना है। वह
भीख कितनी ही
सूक्ष्म हो
सकती है। इसलिए
यह भी हो सकता
है कि सिकंदर
जैसा आदमी, बहादुर है, तलवार से
भयभीत नहीं
होता, युद्ध
में मौत से
नहीं डरता, लेकिन यह
इतना बहादुर
शेर जैसा आदमी
भी घर आकर
पत्नी से डरता
है। यह क्या
बात है? यह
पत्नी से
क्यों डरता है?
इसने
दुनिया में
किसी और से
कभी कुछ नहीं
मांगा, लेकिन
पत्नी के पास
आकर कमजोर हो
जाता है।
अक्सर
यह होगा कि जो
लोग मकान के
बाहर बहुत हिम्मतवर
दिखाई पड़ेंगे, मकान के
भीतर बहुत
कमजोर दिखाई
पड़ेंगे। और स्त्रियां
उनके राज को
जानती हैं कि
उनके सामने वे
किसी गहरे
अर्थ में
भिखारी हैं।
किसी सुख के
लिए उन पर
निर्भर हैं।
उस सुख की
निर्भरता उन्हें
कमजोर बनाती
है।
इसलिए
पति चाहे
कितनी ही
बहादुरी करता हो
बाहर, भला
किसी युद्ध
में चैंपियन
हो जाता हो, वह घर आकर
पत्नी के
सामने एकदम
दब्बू हो जाता
है। वहां भीख
शुरू हो गई।
वहां गुलामी
शुरू हो गई।
वहां कुछ
मांगना है
उसे। वहां
किसी पर निर्भर
होना है। बस, उपद्रव शुरू
हो गया।
यह मैं
पति के लिए
नहीं, सभी
के लिए कह रहा
हूं। जहां भी
हम किसी पर
कुछ मांगने को
निर्भर होते
हैं, वहां
चित्त दीन
होने लगता है।
कृष्ण
कहते हैं, अंतःकरण है
शुद्ध जिसका।
तो एक, निर्भर नहीं
है जो अपने
सुखों के लिए
किसी पर।
दूसरी बात, चित्त में अशुद्धियां,
इंप्योरिटीज किस द्वार
से प्रवेश
करती हैं?
कल-परसों
मैंने आपसे
बात की कि
कामना, आकांक्षा,
वासना के
द्वार से अशुद्धियां
प्रवेश करती
हैं। वासना से
ग्रस्त, पैसोनेट, इच्छा से
भरा हुआ मन, कमजोर भी
होता है, अशुद्ध
भी होता है, दुखी भी
होता है, अंधकार
में भी डूबता
है। मजा यह है
कि इच्छा पूरी
हो जाए, तो
भी सुख नहीं
मिलता! इच्छा
पूरी हो जाए, तो भी सुख
नहीं मिलता; इच्छा पूरी
न हो, तब तो
दुख मिलता ही
है।
मुझे
याद आती है एक
यूनानी कथा।
सुना है मैंने
कि यूनान में
एक सम्राट हुआ, मिडास। कहते हैं, सारी पृथ्वी
जीत ली है
उसने।
सुंदर-सुंदर
स्वर्ण के महल
हैं उसके पास।
अदभुत बगीचे
हैं। ऐसे
अदभुत बगीचे
हैं कि एक दिन
खबर मिली मिडास
को कि स्वर्ग
का देवता डिनोशियस
उसके बगीचे
को देखने आ
रहा है। बड़े
अदभुत झरने
हैं उसके बगीचे
में और एक तो
उसका अपना
बहुत ही
प्यारा झरना है।
उसने सोचा, डिनोशियस को वह झरना
तो दिखाएंगे
ही। फिर उसे
खयाल आया कि डिनोशियस
हो सकता है कि
झरने का पानी
पीने को आतुर
हो जाए। इतना
स्फटिक जैसा
स्वच्छ जल है
वहां! तो उसने
एक तरकीब की।
सोचा कि यदि डिनोशियस
प्रसन्न हो
जाए, तो
कुछ वरदान
मांग लूं।
उसने झरने में
शराब मिलवा
दी।
और जब डिनोशियस
आया, तो झरना
सचमुच ऐसा
सुगंध से भरा
था और ऐसा
स्फटिक जैसा
स्वच्छ था कि
उस देवता डिनोशियस
को भी स्वर्ग
के झरने फीके
मालूम पड़े। और
उसने कहा कि
तुम्हारे
झरने का पानी
मैं जरूर ही पीऊंगा।
उसने पानी पीया,
शराब में डूबकर
बेहोश हो गया।
बेहोशी में मिडास ने
उससे वरदान
मांग लिया।
मांग लिया
वरदान कि मैं
जो कुछ भी
छुऊं, वह
सोने का हो
जाए। और उस
दिन से मिडास
जो भी छूता, सोने का हो
जाता।
लेकिन
मुश्किल शुरू
हो गई। सोचता
था कि किसी दिन
अगर यह वरदान
मिल जाए कि जो
भी छुऊं सोने
का हो जाए, तो मुझसे
ज्यादा सुखी
कोई भी न
होगा। लेकिन मिडास से
ज्यादा दुखी
आदमी पृथ्वी
पर कभी भी
नहीं हुआ।
पत्नी
को छुआ, वह
सोने की हो
गई। बेटी को
छुआ, वह
सोने की हो
गई। खाने को
छुआ, वह
सोने का हो
गया। पानी को
छुआ, वह
सोने का हो
गया। एक दिन, दो दिन, भूखा-प्यासा
चीखने-चिल्लाने
लगा। पागल
होने के करीब
आ गया। लोग
उसे देखकर
भागने लगे कि
कहीं छू न ले।
घर के लोग भी
ताले लगाकर
अपने कमरों
में छिप गए कि
कहीं छू न ले। वजीरों ने छुट्टियां
ले लीं। सेनापतियों
ने कहा, क्षमा
करो! पहले इस
वरदान से
छुटकारा लो, फिर हम आ
सकते हैं।
द्वारपाल अब
तक लोगों से रक्षा
करते थे उसकी।
अब द्वारपाल
बंदूकें उलटी
लेकर खड़े हो
गए और लोगों
की रक्षा करने
लगे उससे।
मिडास
बड़ी मुश्किल
में पड़ गया।
चिल्लाता है, रोता है, मगर
डिनोशियस
का कोई पता
नहीं लगता।
कहते हैं, मरा;
और जब वह
मरा, तो
उसके मुंह से
जो वचन निकले,
उसके मरते
वक्त भी वह
यही कह रहा था,
बिफोर गोल्ड किल्स
मी, एज इट किल्स आल
मेन, डियर डिनोशियस,
गिव मी बैक टेन
फिंगर टिप्स,
दैट लीव दि
वर्ल्ड अलोन।
इसके पहले कि
सोना मुझे मार
डाले, जैसा
कि सभी को मार
रहा है, मार
डालता है, प्यारे
डिनोशियस,
वापस लौटा
दो मुझे मेरी
वे दस अंगुलियां,
जिनसे मैं
दुनिया को
छुऊं, लेकिन
दुनिया उनसे
अस्पर्शित रह
जाए। लेकिन वह
यह कहते हुए
ही मरा।
इच्छा
पूरी न हो, तब तो दुख
देती ही है; इच्छा पूरी
हो जाए, तो
और भी भयंकर
दुख देती है।
और दुख गंदगी
है। सारे
प्राण गंदगी
से भर जाते
हैं। दुख
अंधेरा है, दुख धुआं
है। जहां दुख
नहीं है
प्राणों में,
वहां
प्राणों की ज्योति
उज्ज्वल जलती
है, धुएं
से मुक्त।
ज्योति होती
है सिर्फ, धुएं
से रिक्त।
तो
कृष्ण कहते
हैं, अंतःकरण
है शुद्ध
जिसका...।
वासना
के द्वार से
जिसने भी खोज
की, उसका
अंतःकरण
शुद्ध नहीं
होगा। सड़ेगा।
वासना सड़ाती
है। उससे
ज्यादा सड़ाने
वाला और कोई
तत्व पृथ्वी
पर नहीं है, और कोई
केमिकल नहीं
है। जितने ढंग
से वासना सड़ाती
है, उतने
ढंग से कोई
केमिकल नहीं सड़ाता है।
व्यक्ति सड़ता
चला जाता है।
तीसरी
बात कृष्ण
कहते हैं कि
जिसने जीता
शरीर को; जिसका
अंतःकरण
शुद्ध है; और
जिसने जाना
अपने को प्रभु
के साथ एक!
दो
शर्तें पूरी
हों, तो ही
तीसरी बात
पूरी हो सकती
है। शरीर पर
हो विजय, तो
ही अंतःकरण
शुद्ध हो सकता
है। नहीं तो
शरीर ऐसे
रास्तों पर ले
जाएगा कि
आत्मा अशुद्ध
होती ही
रहेगी।
अंतःकरण हो
शुद्ध, आत्मा
हो पवित्र, तो उस
पवित्रता के
क्षण में ही
विराट के साथ
एकात्म सध
सकता है।
अपवित्रता दीवाल
है। पवित्रता
में सब
दीवालें गिर
जाती हैं।
खुले आकाश से
मिलन हो जाता
है।
अपवित्रता की
दीवाल ही हमें
परमात्मा से
अलग किए हुए
है। हमारी ही
वासनाओं की
अपवित्र
दीवाल और ईंटें
हमें मजबूती
से अपने भीतर
बंद किए हैं।
गिर जाए दीवाल,
तो व्यक्ति
जान पाता है
कि मैं और
प्रभु एक हैं।
इस बात
को ऐसा भी समझ
लें, जो जानता
है कि मैं और
शरीर एक हैं, वह कभी नहीं
जान पाएगा कि
मैं और
परमात्मा एक हैं।
जो जान लेगा, मैं और शरीर
भिन्न हैं, वह जान
पाएगा कि मैं
और परमात्मा
एक हैं। ये एक
ही सिक्के के
दो पहलू हैं।
जिसने अपने को
शरीर से जोड़
रखा है, वह
परमात्मा से
टूटा हुआ
पाएगा। और
जिसने अपने को
शरीर से तोड़ा,
वह
परमात्मा से
जुड़ा हुआ
पाएगा। जिसकी
नजर शरीर से
जुड़ी है, उसकी
पीठ परमात्मा
पर होगी। और
जिसकी नजर शरीर
से हटी, उसकी
आंख परमात्मा
पर पड़ जाएगी।
इसलिए शरीर से
मुक्त, शरीर
के पार उठना अनिवार्य
है।
शुद्ध
अंतःकरण, वासनाओं
की गंदगी की
दीवाल बीच में
नहीं चाहिए, तभी
एकात्म--प्रभु
और स्वयं के
बीच ऐसा मिलन,
जैसे मटकी
टूट जाए और
मटकी के भीतर
का पानी सागर
के पानी से एक
हो जाए।
मिट्टी की
मटकी सागर के
पानी को और
गगरी के पानी
को अलग-अलग
रखती है। मिट्टी
टूट जाए, बीच
से हट जाए!
लेकिन
अगर गगरी का
पानी समझता हो
कि मैं मिट्टी
की गगरी हूं, तब कभी भी
नहीं तोड़ेगा।
फिर तो मैं ही
टूट जाऊंगा!
अगर गगरी के
भीतर का पानी
सोचता हो कि
यह मिट्टी की
जो पर्त मेरे
चारों तरफ
गगरी की है, यही मैं हूं,
तो सागर से
मिलन कभी भी न
होगा। लेकिन
पानी को पता
चल जाए कि मैं
गगरी नहीं, पानी हूं, तो गगरी
तोड़ी जा सकती
है। और गगरी
टूटे, तो
भीतर का पानी
और बाहर का
पानी एक हो
जाए। वह जो
भीतर की आत्मा
और बाहर की
आत्मा है, एक
हो जाए।
और जब
ऐसा हो जाए, तो कृष्ण
कहते हैं, ऐसा
व्यक्ति सब
कुछ करे--सब
कुछ, अनकंडीशनली;
कोई शर्त
नहीं है ऐसे
व्यक्ति
पर--सब कुछ करे,
तो भी कर्म
उससे चिपकते
नहीं हैं।
कर्मों का उस
पर कोई भी लेप
नहीं चढ़ता
है।
इस
वक्तव्य से
बहुत-से लोगों
को कठिनाई
होती है।
पूछता है आदमी, सब कुछ करे!
चोरी करे, बेईमानी
करे! तब वह फिर
समझा नहीं
बात।
चोरी-बेईमानी
करे, तो
यहां तक
पहुंचेगा
नहीं। यहां
पहुंच जाए, तो चोरी
करने योग्य
कुछ बचता
नहीं। चोरी
किसकी करे, वह भी नहीं
बचता। चोरी
कौन करे, वह
भी नहीं बचता।
मन होगा, पूछेगा
कि कृष्ण कहते
हैं, ऐसा
आदमी कुछ भी
करे! तो ऐसे
आदमी पर कोई
नैतिक बंधन
नहीं?
बिलकुल
नहीं।
क्योंकि नीति
के बंधन अभी
जिसके ऊपर हैं, उसके भीतर
अनीति होनी
चाहिए। अनीति
के लिए नीति
के बंधन जरूरी
हैं। और जो
अभी अनीति से
भरा है, वह
तो अभी गंदगी
से मुक्त नहीं
हुआ, अंतःकरण
शुद्ध नहीं
हुआ। वह यहां
तक आएगा नहीं।
यह जो बात है, सब कुछ करे
ऐसा व्यक्ति,
उसके पहले
तीन बातों को
स्मरण रख लेना,
शरीर पर पाई
जिसने विजय, अंतःकरण हुआ
जिसका शुद्ध,
परमात्मा
से जानी जिसने
एकता!
इन तीन
शर्तों के बाद
बेशर्त, कृष्ण
कहते हैं, ऐसा
व्यक्ति कुछ
भी करे। ऐसा
व्यक्ति कुछ
भी करेगा नहीं,
इसीलिए कह
पाते हैं कि
ऐसा व्यक्ति
कुछ भी करे।
आपसे नहीं कह
रहे हैं।
अर्जुन से भी
नहीं कह रहे
हैं। ये तीन सीढ़ियां
पार कर लेने
के बाद ऐसा
व्यक्ति कुछ
भी करे। ऐसे
व्यक्ति पर
कोई भी नियम
नहीं है, कोई
नीति नहीं, कोई धर्म
नहीं।
क्योंकि ऐसा
व्यक्ति उस
जगह आ गया है, जहां अनीति
बची ही नहीं।
और जब अनीति न
बचती हो, तो
नीति की क्या
सार्थकता है?
अधर्म बचा
नहीं। और जहां
अधर्म न बचता
हो, वहां
धर्म बेकार
है। और जिसने
स्वयं को
प्रभु के साथ
एक जाना, जिसकी
अस्मिता और
अहंकार न बचा,
अब कोई उपाय
नहीं रहा कि
उससे कुछ गलत
हो जाए।
हमसे
गलत होता है।
ज्यादा से ज्यादा
गलत हम रोक
पाते हैं। ऐसे
व्यक्ति से गलत
होता ही नहीं।
ऐसा व्यक्ति
जो भी करता है, वही सही है।
हमें वह करना
चाहिए, जो
सही है; वह
नहीं करना
चाहिए, जो
गलत है। ऐसा
व्यक्ति, जिसकी
कृष्ण बात कर
रहे हैं, जो
करता है, वही
सही है; जो
नहीं करता, वही गलत है।
ऐसे व्यक्ति
मापदंड हैं।
ऐसे व्यक्ति
चरम हैं, परम
मूल्य है
उनका। ऐसे
व्यक्ति के
लिए जो वक्तव्य
है, वह
वक्तव्य सबके
लिए नहीं है।
अन्यथा
चोर भी पढ़कर
प्रसन्न होता
है गीता के इस
वचन को, कि
ठीक है, कुछ
भी करो!
बेईमान भी
पढ़कर प्रसन्न
हो सकता है।
और यह भी सोच
सकता है कि
ज्यादा तो
हमसे नहीं
बनता, पहली
तीन चीजें
नहीं बनतीं,
कम से कम
चौथी चीज तो
करो ही। जितना
बने, उतना
ही क्या बुरा
है!
नहीं, इसमें क्रम
है। तीन के
बिना चौथा पढ़ना
ही मत। चौथे
को काट देना
गीता से अभी।
जब तीन पूरी
हो जाएं, तब
तीन को काट
देना, चौथी
को पढ़ना।
बेशर्त, अनकंडीशनल
वही व्यक्ति
हो सकता, जिसने
अनिवार्य तीन
शर्तें पूरी
कर ली हैं।
यह बात, पश्चिम में
जब पहली दफे
गीता के
अनुवाद हुए, जर्मन, फ्रेंच, अंग्रेजी
में, तो
वहां भी
कठिनाई हुई।
उनको भी
हैरानी हुई। क्योंकि
बाइबिल टेन कमांडमेंट्स
के ऊपर नहीं
जाती। बाइबिल
में एक भी कमांडमेंट
ऐसा नहीं है, एक भी आदेश
ऐसा नहीं है, कि जो करना
हो, करो।
बाइबिल कहती
है, चोरी
मत करो; बेईमानी
मत करो; दूसरे
की औरत को
बुरी नजर से
मत देखो; यह
सब कहती है
पड़ोसी को
प्रेम करो; यह सब कहती
है। ऐसा एक भी
वक्तव्य
बाइबिल में नहीं
है, जो
इसके मुकाबले
हो। जो
वक्तव्य यह
कहता हो कि अब
तुम्हें जो भी
करना हो, करो।
तो जब
पहली दफा गीता
का अनुवाद हुआ, तो कठिनाई
मालूम पड़ी।
स्पष्ट लगा
बाइबिल को पढ़ने
वाले और प्रेम
करने वाले
लोगों को कि
यह किताब तो
थोड़ी-सी इम्मारल
मालूम होती है,
अनैतिक
मालूम होती
है। इसमें ऐसी
बात भी है, कुछ
भी करो! तो फिर
टेन कमांडमेंट्स
का क्या हुआ, चोरी मत करो,
बेईमानी मत
करो, व्यभिचार
मत करो! उनका
क्या होगा? क्या
व्यभिचार भी
करो?
उन्हें
पता नहीं कि
जीसस जिन
लोगों से बोल
रहे थे, उनसे
यह चौथी बात
नहीं कही जा
सकती थी। जिस
समाज में बोल
रहे थे, उस
समाज में यह
चौथी बात नहीं
कही जा सकती
थी। जिन लोगों
के बीच बोल
रहे थे, उनके
जीवन का एक
स्तर था, समझ
की एक सीमा
थी। ध्यान रहे,
जीसस
अत्यंत ही
अविकसित समाज
में बोल रहे
थे, नहीं
तो सूली न
लगती। नासमझों
के बीच बोल
रहे थे।
कृष्ण
नासमझ से नहीं
बोल रहे हैं।
कृष्ण एक बहुत
संभावी आत्मा
से बोल रहे
हैं, जिसका
बहुत विकास
संभव है। एक
बुद्धिमान
आदमी से बोल
रहे हैं, जो
धर्म के संबंध
में बहुत कुछ
जानता है।
अनुभव नहीं है
उसे; जानता
है, सुना
है, पढ़ा है,
सुशिक्षित
है, सुसंस्कृत
है। अर्जुन
जैसे
सुसंस्कृत
आदमी कम होते
हैं। उस जमाने
में, जिसको
हम कहें, शिखर
पर जो
संस्कृति के
रहा होगा, ऐसा
व्यक्तित्व
है। कृष्ण भी
जिसको सखा मान
सकते हों, मित्र
मान सकते हों,
वह
संस्कृति के
शिखर पर है।
उससे बात कर
रहे हैं।
जानते हैं, भूल नहीं हो
पाएगी। इसलिए
तीन शर्तों के
बाद चौथी बात
भी कह देते
हैं।
जीसस
ने कभी ऐसी
बात नहीं कही।
मोहम्मद ने
कभी ऐसी बात
नहीं कही।
मोहम्मद और
जीसस एक लिहाज
से अभागे समाज
में पैदा हुए, उन लोगों के
बीच, जिनसे
इतनी ऊंची
बातें नहीं
कही जा सकती
थीं। ऊंची
बातें कहने का
अवसर, समय
और स्थिति
उनको नहीं
मिली।
इसलिए
गीता को जो
पढ़ता है, उसे
कुरान कभी
फीका लग सकता
है। लेकिन
इसमें ज्यादती
कर रहे हैं।
कुरान को फीका
मत देखना। जो
गीता को पढ़ता
है, उसे
बाइबिल उतनी
गहरी नहीं
मालूम पड़ेगी।
लेकिन
ज्यादती मत
करना।
जीसस
और मोहम्मद, कृष्ण जैसे
ही गहरे
व्यक्ति हैं।
लेकिन अर्जुन
जैसा शिष्य
पाना सदा आसान
नहीं है। बात
तो अर्जुन से
कही जा रही है,
इसलिए तीन
शर्तें पूरी
करके
उन्होंने
चौथी, अंतिम,
दि अल्टिमेट,
आखिरी बात
भी कह दी कि
फिर व्यक्ति
कुछ भी करे, उस पर कोई
नियम, कोई
मर्यादा नहीं
है।
राम की
भी हिम्मत
नहीं होती यह
कहने की। राम
भी मोहम्मद और
जीसस से ऊंची
बात नहीं कह
पाते हैं।
मर्यादा पुरुषोत्तम
हैं। मर्यादा
की बात करते
हैं। इस बात से
तो राम भी
थोड़े चौंकते
कि कुछ भी करे!
इससे राम को
भी अड़चन पड़ती!
राम नैतिक
चिंतन की
पराकाष्ठा
हैं।
लेकिन
धर्म वहीं
शुरू होता है, जहां नीति
समाप्त होती
है। धर्म आगे
की यात्रा है
और, जहां
सब नियम गिर
जाते हैं।
क्योंकि नीति
के नियम, माना
कि बहुत सुंदर
हैं, लेकिन
नियम ही हैं।
माना कि मर्यादाएं
बड़ी अदभुत हैं,
लेकिन मर्यादाएं
ही हैं। माना
कि दीवारें
सोने की हैं, लेकिन फिर
भी दीवारें
हैं। माना कि
बंधन नीति के
सोने के हैं, लोहे की
जंजीरें नहीं
हैं; हीरे-जवाहरातों
से जड़ी हैं, लेकिन फिर
भी जंजीरें
हैं।
कृष्ण
तो परम मुक्ति
की बात कर रहे
हैं। वे कह रहे
हैं, ये तीन
शर्त तू पूरी
कर, फिर तू
कुछ भी कर।
फिर अगर तू
भागता भी हो
यहां से, तो
मैं तुझसे
नहीं कहूंगा
कि तू रुक। तू
लड़ता हो, तो
मैं नहीं
कहूंगा कि मत
लड़। लेकिन ये
तीन शर्त पूरी
हो जानीं
चाहिए।
इस
लिहाज से इस
जमीन पर जगत
के श्रेष्ठतम
वक्तव्य दिए
जा सके हैं।
पृथ्वी पर
किसी भी देश
में इतने
श्रेष्ठ
वक्तव्य देने
की स्थिति कभी
भी पैदा नहीं
हुई थी। इतनी उड़ान की और
इतनी ऊंची बात, बादलों के पार,
जहां सब
अतिक्रमण हो
जाता है, वहीं
है परम
स्वतंत्रता
और परम
मुक्ति। ऐसे व्यक्ति
को कोई भी
कर्म नहीं बांधता
है।
प्रश्न:
भगवान
श्री, आपने
कर्म-संन्यास
का अर्थ
कर्म-त्याग
कहा है। लेकिन
पिछले छठवें
श्लोक में
कर्म-संन्यास
का अर्थ
संपूर्ण
कर्मों में
कर्तापन का
त्याग कहा गया
है। कृपया
कर्म-संन्यास
के इन दो
अर्थों में
दिखाई पड़ने
वाली भिन्नता
को स्पष्ट
करें।
कर्म-संन्यास
का बहिर्अर्थ
तो कर्म का
त्याग है। अंतर्अर्थ
भी है।
क्योंकि
मनुष्य के
जीवन में जो
भी घटना घटेगी, उसके दो
पहलू होंगे, बाहर भी, भीतर
भी। अगर
कर्म-संन्यासी
को आप देखेंगे
बाहर से, तो
दिखाई पड़ेगा
कि कर्म का
त्याग किया।
महावीर
चले जंगल की
तरफ; छोड़ दिया
राजमहल, धन,
घर, द्वार,
प्रियजन, परिजन। हम
देखने खड़े
होंगे मार्ग
में, तो
क्या दिखाई
पड़ेगा? दिखाई
पड़ेगा कि महावीर
जा रहे हैं सब
छोड़कर। कर्म
छोड़कर जा रहे
हैं। अगर हम
कहेंगे कि
महावीर के
कर्म संन्यास का
क्या अर्थ है?
तो अर्थ
होगा, कर्म
का त्याग।
लेकिन अगर
महावीर से
पूछें कि उनके
भीतर क्या हो
रहा है? क्योंकि
घर-द्वार, महल,
हाथी, घोड़े
भीतर नहीं
हैं। कर्म, प्रिय, परिजन
भीतर नहीं
हैं। भीतर
क्या है?
जब
बाहर से कोई
कर्म छोड़ता है, तो भीतर
क्या छूटता है?
भीतरी
हिस्सा क्या
है कर्म का? भीतरी
हिस्सा कर्ता
है, दि डुअर।
डूइंग
बाहर है; डुअर
भीतर है। ये
एक ही घटना के
दो हिस्से
हैं। बाहर
कर्म छूटे, तो भीतर
कर्ता विदा हो
जाएगा। सच में
ही कर्म छूट
जाए, तो
कर्ता तत्काल
विदा हो जाएगा,
क्योंकि
कर्म के बिना
कर्ता हो नहीं
सकता। कर्ता
का मतलब ही यह
है कि जो कर्म
करता है।
लेकिन
भाषा में गलती
होती है। एक
पंखा है आपके
हाथ में। मैं
पूछता हूं, पंखे का
क्या अर्थ है?
आप कहते हैं,
जो हवा करता
है। लेकिन अभी
पंखा हवा नहीं
कर रहा है, आप
हाथ में पकड़े
हुए बैठे हैं।
अभी पंखा है
या नहीं? पंखे
की परिभाषा है,
जो हवा करता
है; डोलता
है, हवा
करता है। अभी
डोल नहीं रहा
है। तो अगर
ठीक सिमैनटिक्स,
ठीक भाषा का
प्रयोग करें,
तो अभी वह
पंखा है नहीं।
पंखा तो वह है,
जो पंख की
तरह हवा करता
है।
पोटेंशियल है
अभी, कर
सकता है।
इसलिए हम
कामचलाऊ
दुनिया में
कहते हैं, पंखा
है। इसका मतलब
यह है कि पंखा
हो सकता है। इसका
उपयोग करें, तो यह पंखे
का काम दे
सकता है।
एक
किताब रखी है।
किताब का मतलब
यह है कि जिसमें
कुछ ज्ञान
संगृहीत है।
लेकिन मैं
किताब उठाकर
आपके सिर पर
मार देता हूं, उस वक्त वह
किताब नहीं
है। उस वक्त
वह पत्थर का
काम कर रही
है। भाषा में
तो अब भी
किताब है। हम
कहेंगे, किताब
फेंककर मार
दी। लेकिन
किताब, किताब
का मतलब ही यह
है कि जिसमें
ज्ञान संगृहीत
है। कहीं
संगृहीत
ज्ञान फेंककर
मारा जा सकता
है? लेकिन
जब मैं किताब
को फेंककर मार
रहा हूं, तो
वस्तुतः मैं
किताब का
उपयोग किताब
की तरह नहीं
कर रहा हूं, पत्थर की
तरह कर रहा
हूं। अगर
वैज्ञानिक
ढंग से कहना
हो, तो
उसको अब किताब
नहीं कहना
चाहिए। अब वह
किताब नहीं
है। अब इस
वक्त वह पत्थर
है।
जब तक
आप कर्म कर
रहे हैं, तब
तक आप कर्ता
हैं। कर्म बंद
हुआ, कर्ता
खो गया। कर्ता
बचता नहीं।
इससे उलटा भी सही
है। कर्ता खो
जाए, कर्म
खो जाता है।
जहां
तक दूसरों के
देखने का
संबंध है, वहां पहले
कर्म खोता है।
और जहां तक
स्वयं के देखने
का संबंध है, पहले कर्ता
खोता है। अगर
मैं अपने भीतर
से देखूं,
तो पहले
मेरा कर्ता खो
जाएगा, तभी
मेरा कर्म खोएगा।
पहले मैं
कर्ता नहीं रह
जाऊंगा, तभी मेरा
कर्म गिर
जाएगा। लेकिन
जहां तक आप देखेंगे,
पहले कर्म
गिरेगा, पीछे
आप अनुमान
लगाएंगे कि
कर्ता भी खो
गया होगा।
क्योंकि मेरे
भीतर के कर्ता
को आप देख
नहीं सकते, सिर्फ मैं
ही देख सकता
हूं।
इसलिए
कृष्ण जो कह
रहे हैं कि
जहां
कर्तृत्व खो
गया, जहां
कर्ता खो गया!
यह अंतर्व्याख्या
है। भीतर से
साधक को जानना
पड़ेगा कि मेरा
जो करने वाला
था, वह अब
नहीं रहा। अब
कोई करने वाला
भीतर नहीं है।
कब
खोता है करने
वाला? इसके
लिए भी दोत्तीन
सूत्र खयाल
में लेंगे, तो उपयोगी
होंगे। साधक
की दृष्टि से
बड़ी कीमत के
हैं।
या तो
कर्ता तब खोता
है, जब आप
समझें कि मैं शून्यवत
हूं; हूं
ही नहीं।
समझें कि मैं
क्या हूं? कुछ
भी तो नहीं; मिट्टी का
एक ढेर। कभी
आंख बंद करके
देखें, तो
क्या पता चलता
है? क्या
हूं? सांस
की धड़कन? क्या
हूं? जैसे
कि लोहार की
धौंकनी चलती
हो। कभी सांस
को चलने दें, आंख बंद कर
लें। और भीतर
खोजें कि मैं
कौन हूं!
क्या
पता चलेगा? बस इतना ही
पता चलेगा कि
धौंकनी चल रही
है। लोहार की
धौंकनी
ऊपर-नीचे हो
रही है। श्वास
भीतर आ रही है,
बाहर जा रही
है। अगर पूरे
शांत होकर
देखेंगे, तो
सिवाय श्वास
के चलने के
कुछ भी पता
नहीं चलेगा।
क्या श्वास का
चलना भर इतनी
बड़ी बात है कि
मैं कहूं कि
मैं हूं! और
फिर श्वास भी
मैं तो नहीं
चला रहा हूं!
जब तक चलती है,
चलती है; जब नहीं
चलती है, तो
नहीं चलती है।
जिस दिन नहीं
चलेगी, मैं
चला नहीं
सकूंगा। एक
श्वास भी नहीं
ले सकूंगा, जिस दिन
नहीं चलेगी।
श्वास ही चल
रही है; वह
भी मैं नहीं
चला रहा। पता
नहीं कौन
अज्ञात शक्ति
चला रही है! बस,
इतना-सा खेल
है। इस इतने
से खेल को
इतनी अकड़ से क्यों
ले रहा हूं?
तो एक
मार्ग तो है
कि मैं खोजूं
कि मैं हूं
क्या! तो पता
चले कि कुछ भी
नहीं हूं।
बुद्ध
का यह मार्ग
है। बुद्ध
कहते हैं, खोजो, तुम
क्या हो!
क्या-क्या हो,
खोज लो।
थोड़ी-सी
मिट्टी है, थोड़ा-सा
पानी है, थोड़ी-सी
आग है, थोड़ी-सी
हवा है।
वैज्ञानिक
से पूछें, तो वह कहता
है, कोई
चार और पांच
रुपए के बीच
का सामान है।
थोड़ा एल्युमिनियम
भी है, थोड़ा
तांबा भी है, थोड़ा लोहा
भी है।
मुश्किल से
चार-पांच रुपए
के बीच; चार-पांच
इसलिए कि दाम
घटते-बढ़ते
रहते हैं! बाकी
इससे ज्यादा
का सामान नहीं
है आदमी के
पास। हालांकि
मर जाए, तो
इतना पैसा भी
मिल नहीं सकता।
पांच रुपए में
भी कोई खरीदने
को राजी नहीं
होगा।
क्योंकि वह
सामान भी इतना
उलझा हुआ है
कि उसको
निकालने में
बहुत रुपए लग
जाएं। वह पांच
रुपए के लायक
नहीं है! बहुत
गहरी खदान है।
खोदने में
ज्यादा पैसा
खराब होगा, निकलेगा कुछ
खास नहीं।
इसीलिए तो जला
देते हैं या गाड़ देते
हैं। आदमी के
शरीर का अब तक
कोई उपयोग नहीं
है।
तो
बुद्ध कहते
हैं कि खोजो
कि तुम
क्या-क्या हो? कुछ थोड़ी-सी
चीजों का जोड़
हो। सांस चल
रही है इस
धौंकनी में।
बस, यही हो?
कहोगे कि
थोड़े विचार भी
हैं मेरे पास।
माना। विचार
भी क्या हैं? हवा में बने
हुए खिलौने।
पानी पर खींची
गई रेखाएं।
बहुत इम्मैटीरियल।
क्या मतलब है!
और एक आदमी की
गर्दन काट कर
खोजो, तो
विचार कहीं भी
नहीं मिलते।
हवा के झोंके
की तरह हैं।
हवा के झोंके
में पत्ते
हिलते रहते हैं,
जिंदगी के
धक्के में
विचार हिलते
रहते हैं। किसी
ने गाली दी, धक्का आया
भीतर, थोड़े
विचार हिलने
लगे। गाली
उठने लगी।
किसी ने
प्रशंसा की, गले में
माला डाल दी, भीतर हवा का
धक्का
पहुंचा। बड़े
प्रसन्न हो गए;
छाती फूल गई;
सांस जरा
जोर से चलने
लगी।
तो
बुद्ध कहते
हैं, जरा ठीक
से देख लो कि
तुम्हारा
पूरा जोड़ क्या
है। इसी जोड़
पर इतने अकड़े
हुए हो? तो
बुद्ध कहते
हैं, संघात
हो, सिर्फ
एक जोड़ हो।
नाहक परेशान
मत होओ। शून्य
समझो अपने को।
जो इस जोड़ को
ठीक से समझ ले,
वह शून्यवत
हो जाएगा। शून्यवत
हो जाए, तो
कर्ता खो जाता
है।
एक और
रास्ता है। वह
रास्ता यह है
कि न मैं पैदा
हुआ; न मैं
मरूंगा अपने
हाथ से, न
अपने हाथ से
पैदा हुआ।
जन्मते वक्त
कोई मुझसे
पूछता नहीं कि
जन्मना चाहते
हो? मरते
वक्त कोई
मुझसे दस्तखत
नहीं करवाता
कि अब आपके
इरादे जाने के
हैं? मुझसे
कोई पूछता ही
नहीं। मैं
बिलकुल
गैर-जरूरी
हूं। जिंदगी
मेरी, कहता
हूं कि जिंदगी
मेरी। और
मुझसे बिना
पूछे भेज दिया
जाता हूं!
कहता हूं, जिंदगी
मेरी। और
मुझसे बिना
पूछे विदा कर
दिया जाता
हूं! कोई
मुझसे इसके
लिए भी नहीं
पूछता कि आप
जाना चाहते
हैं, आना
चाहते हैं, क्या इरादे
हैं? नहीं,
मेरी कोई
पूछताछ ही
नहीं है।
तो एक
दूसरा मार्ग
है, जो है
नियति का, डेस्टिनी
का। उस मार्ग
से ही भाग्य
की बहुत गहरी
धारणा पैदा
हुई। हमने तो
उसके बहुत
दुरुपयोग किए,
लेकिन वह
धारणा बड़ी
गहरी है। वह
यह कहती है कि मैं
हूं ही नहीं, भाग्य है। न
मालूम कौन
मुझे पैदा कर
देता, न
मालूम कौन
मुझे चलाता, न मालूम कौन
मुझे विदा कर
देता। मैं कुछ
भी नहीं हूं।
एक
सूखा पत्ता
हवाओं में उड़ता
हुआ। हवाएं
जहां ले जाती
हैं, चला जाता
है। पत्ते की
कोई आवाज नहीं,
पत्ते की
कोई पूछ नहीं।
पत्ता कहे कि
मुझे पूरब
जाना है; कोई
सुनता ही
नहीं। पत्ता
पश्चिम चला
जाता है!
पत्ता कहे, मुझे जमीन
पर विश्राम
करना है, हवाएं
उसे आकाश में
उठा देती हैं।
तो नियति की
एक धारणा है, वह हिंदू
विचार की बहुत
गहरी धारणा
है।
बुद्ध
ने शून्य का
प्रयोग किया, हिंदू विचार
ने नियति का
प्रयोग किया।
और कहा कि सब
नियंता के हाथ
में है। पता
नहीं कौन अज्ञात,
कोई अननोन
शक्ति भेज
देती है, वही
बुला लेती है।
जब हम कुछ हैं
ही नहीं, तो
हम नाहक क्यों
इतराए
हुए घूमें?
क्यों
परेशान हों? परमात्मा है,
उसके हाथ
में छोड़ देते
हैं। तब कर्ता
शून्य हो जाता
है। जब हम कुछ
करने वाले
नहीं, तो
जो उसकी मर्जी
है, वह करा
लेता है। नहीं
मर्जी है, नहीं
कराता है। ऐसा
जो अपने को
छोड़ दे पूरी
तरह समर्पण
में, तो भी
कर्ता खो जाता
है।
तीसरा
एक रास्ता और
है। और वह
तीसरा रास्ता
है, उसको जान
लेने का, जो
हमारे भीतर
है। कृष्ण का
वही रास्ता है,
उसको जान
लेने का, जो
हमारे भीतर
है। महावीर का
भी वही रास्ता
है।
निरंतर
कहे चले जाते
हैं, मैं, मैं,
मैं। बिना
इसकी फिक्र
किए कि यह मैं
कौन है? क्या
है? इसका
हम कोई पता
नहीं लगाते।
भीतर प्रवेश
करें। इसके
पहले कि मैं
कहें, ठीक
से जान तो लें,
यह मैं
किसको कह रहे
हैं। जितने
भीतर जाते हैं,
उतना ही मैं
खोता जाता
है--जितने
भीतर। जितने ऊपर
आते हैं, उतना
मैं होता है।
जितने भीतर
जाते हैं, उतना
मैं खोता जाता
है। एक घड़ी
आती है कि आप
तो होते हैं
और मैं बिलकुल
नहीं होता। एक
ऐसा बिंदु आ
जाता है भीतर,
जो बिलकुल ईगोलेस, बिलकुल मैं
शून्य है; जहां
मैं की कोई
आवाज ही नहीं
उठती।
उसको
जान लें, तो
कर्ता खो जाता
है। क्योंकि
उसको जान लेने
के बाद मैं का
भाव नहीं उठता;
और मैं का
भाव न उठे, तो
कर्ता
निर्मित नहीं
होता। कर्ता
के निर्माण के
लिए मैं का
भाव अनिवार्य
है। मैं की
ईंट के बिना
कर्ता का भाव
निर्मित नहीं
होता।
ये
तीनों एक अर्थ
में एक ही बात
हैं। चाहे जान
लें कि मैं
कुछ भी नहीं
हूं, तो भी
कर्ता गिर
जाता है। जान
लें कि
परमात्मा सब कुछ
है, तो भी
कर्ता गिर
जाता है। जान
लें कि मैं
ऐसी जगह हूं, जहां मैं है
ही नहीं, तो
भी कर्ता गिर
जाता है।
तीनों
स्थितियों से कर्ता
शून्य हो जाता
है। भीतर
कर्ता शून्य
होता है, बाहर
कर्म गिर जाते
हैं। वह उसका
ही दूसरा
हिस्सा है।
दोनों
तरफ से चल
सकते हैं।
बाहर कर्म को
छोड़ दें पूरी
तरह अगर, तो
भीतर कर्ता को
न बचा सकेंगे।
वह गिर जाएगा।
भीतर कर्ता को
विदा कर दें, तो बाहर
कर्म को न बचा
सकेंगे; वह
खो जाएगा।
कर्म-संन्यास
की जो बहिर्व्याख्या
है, वह
कर्म-त्याग
है।
कर्म-संन्यास
की जो अंतर्व्याख्या
है, वह
कर्ता-त्याग
है।
प्रश्न:
भगवान
श्री, इसी
संबंध में एक
बात और स्पष्ट
कर लेने को है।
कृष्ण
कर्म-संन्यास
अर्थात
कर्मों में
कर्तापन के
त्याग को
अर्जुन के लिए
कठिन बता रहे हैं।
तथा निष्काम
कर्मयोग को
सरल बता रहे
हैं। कृपया
स्पष्ट करें
कि कर्मों में
कर्तापन के
त्याग के बिना
निष्काम कर्म
कैसे संभव
होता है?
कृष्ण
अर्जुन से कह
रहे हैं कि यह
जो उन्होंने कर्म-संन्यास
की बात कही है, यह कठिन है।
और निष्काम
कर्म की जो
दूसरी पद्धति
कही है, वह
सरल है।
निष्काम कर्म
की पद्धति में
कर्म भी नहीं
छोड़ना पड़ता, कर्ता भी
नहीं छोड़ना
पड़ता। न कर्म
के त्याग का
सवाल है, न
कर्ता के
त्याग का सवाल
है। प्राथमिक
शर्त नहीं है
वह। निष्काम
कर्मयोग में
सिर्फ कर्म के
फल को छोड़ना
पड़ता
है--सिर्फ
कर्म के फल
को। यद्यपि
कर्म का फल
जिस दिन छूट
जाता है, उस
दिन कर्ता छूट
जाता है।
लेकिन वह
परिणाम है।
कर्म-संन्यास
में जो पद्धति
सीढ़ियां
बनाती है, निष्काम
कर्मयोग में
वह पद्धति
परिणाम में आती
है। फल छोड़ दो!
फल छूटा, तो
कर्ता नहीं
बचता है। और
जब कर्ता न
बचे, तो
कर्म अभिनय रह
जाता है, खेल!
दूसरों के लिए,
अपने लिए
नहीं। अपने
लिए समाप्त
हुआ।
ठीक
ऐसे ही, जैसे
पिता अपने
बच्चे के साथ
खेल रहा है।
उसकी गुड़िया
को सजा रहा है,
उसके
गुड्डे को
तैयार करवा
रहा है। बारात
निकलवा रहा
है। उसके लिए
खेल है अब।
बच्चे के लिए खेल
नहीं है। खेल
में सम्मिलित
है, सम्मिलित
होने से
बिलकुल
सम्मिलित
नहीं है। सम्मिलित
है पूरा, पर
कहीं भी इनवाल्व्ड,
कहीं भी
डूबा हुआ नहीं
है। मौज से
खेल रहा है। बच्चा
तो बहुत
उद्विग्न और
परेशान रहेगा
कि पता नहीं
गुड्डा ठीक
बनता है कि
नहीं! कोई वधू
राजी होती है
कि नहीं! पता
नहीं शादी
निपट पाएगी
ठीक से कि
नहीं निपट
पाएगी! कोई
अड़चन तो नहीं
आ जाएगी! कोई
ग्रह, मंगल
बाधा तो नहीं
देंगे! कोई
पंडित पत्री
में उपद्रव तो
खड़ा नहीं
करेगा! बच्चा
बहुत चिंतित
है। उसके लिए
खेल नहीं है।
उसके लिए
मामला गंभीर
है; काम
है। बाप मजे
से खेल रहा है
साथ में। कर्म
तो कर रहा है, भीतर कर्ता
बिलकुल नहीं
है।
कर्म
तो कर रहा है, कर्ता क्यों
नहीं है? क्योंकि
बच्चा फल में
उत्सुक है, एक्साइटेड है, उत्तेजित
है। सांझ
बैंड-बाजे बजेंगे,
बारात
निकलेगी।
भारी काम उसके
सिर पर है। सब
ठीक से निपट
जाए, इसकी
चिंता है।
सारे मित्र
इकट्ठे होने
वाले हैं, कोई
भूल-चूक न हो
जाए। चिंतित
है, उद्विग्न
है, परेशान
है। हो सकता
है, रातभर
नींद न आए।
रातभर सपने
में भी शादी
करे, तैयारियां करे।
उठ-उठकर बैठ
जाए। यह सब हो
सकता है। लेकिन
पिता भी वही
तैयारी कर रहा
है, लेकिन
कोई फल का
सवाल नहीं है।
सांझ क्या
होगा, इससे
कोई मतलब नहीं
है। खेल है, फल का कोई
सवाल नहीं है।
कृष्ण
कहते हैं, दूसरी बात
अर्जुन, सरल
है कि तू फल का
खयाल छोड़ दे
और कर्म में
लगा रह।
फल का
खयाल छोड़ते ही
कर्ता तो गिर
जाएगा। क्योंकि
फल अगर न हो, तो कर्ता को
कोई मजा ही
नहीं है; उसको
बचने का कोई
रस नहीं है।
मैं कर्म करने
से नहीं बचता
हूं; मैं
बचता हूं, कर्म
से जो मिलेगा,
उसकी
आकांक्षा से,
उसको पाने
से, उसको
इकट्ठा करने
से। मेरा जो
लोभ है, वह
फल के लिए है।
अगर
आपको कोई कहे
कि आप जो कर्म
कर रहे हैं, यह बिना किए
आपको फल मिल
सकता है, आप
कर्म करने को
राजी नहीं
होंगे। आप
कहेंगे, बिलकुल
ठीक। यही तो
हम पहले से
चाहते थे।
नहीं मिल सकता
था बिना कर्म
के, इसलिए
कर्म करते थे।
अगर बिना कर्म
के मिल सकता
है, तो
सिर्फ पागल ही
कर्म करने को
राजी होगा। हम
अभी तैयार
हैं।
आपकी
उत्सुकता
कर्म में नहीं
है; कर्म
मजबूरी है।
आपकी
उत्सुकता फल
में है। फल आकांक्षा
है, कर्म
मजबूरी है।
कर्म करना
पड़ता है, क्योंकि
उसके बिना फल
नहीं है। फल
मिल जाए बिना
कर्म के, तो
कर्म फौरन छोड़
देंगे आप।
कर्ता
का रस कहां है, कर्म में या
फल में? कर्ता
का रस फल में
है। दिखता है
जुड़ा हुआ कर्म
से, असल
में जुड़ा है
फल से। कर्ता
जो है, वह एरोड टुवर्ड्स
दि रिजल्ट।
उसका तीर जो
है, वह
हमेशा फल की
तरफ है। कर्म
की तरफ तो
मजबूरी है।
इसलिए
जिनको भी फल
मिल सकता है
बिना कर्म के, वे जरूर फल
को बिना कर्म
के पाने की
कोशिश करेंगे।
जो
विद्यार्थी
बिना पढ़े
पास हो सकता
है, वह पढ़ना
छोड़ देगा। अगर
सरल कर्म से
काम हो सकता
है, कि शिक्षक
को जरा छुरा
दिखाने से काम
हो सकता है, तो सरल कर्म
कर लेगा। चोरी
से हो सकता है,
तो उससे कर
लेगा। सालभर
का उपद्रव छोड़
देगा, दो-चार
दिन में हो
सकता है, उससे
कर लेगा।
रिश्वत से हो
सकता है, उससे
कर लेगा।
किसी
का भी रस कर्म
में नहीं है।
ध्यान रहे, दुनिया में
रिश्वत न हो, बेईमानी न
हो, अगर
लोगों का रस
कर्म में हो।
रस तो है फल
में, तो फल
फिर जैसे मिल
जाए, उससे
ही आदमी पा
लेता है। और
कम कर्म से
मिल जाए, तो
और बेहतर है।
खुशामद से मिल
जाए, और
बेहतर।
मंदिर
में जाकर लोग
परमात्मा के
सामने खुशामद
कर रहे हैं, स्तुति कर
रहे हैं, रिश्वत
का वचन दे रहे
हैं कि एक
नारियल चढ़ा देंगे
पांच आने का, जरा लड़के को
पास करा दो!
पक्का रहा, पांच आने का
नारियल जरूर
देंगे।
अब
जिसके पास सब
कुछ हो, उसको
आप पांच आने
का नारियल और
देने का वायदा
कर रहे हैं!
अगर मान जाए, तो बुद्धू
है। अगर
परमात्मा
आपकी मान जाए
पांच आने के
नारियल से, तो बुद्धू
है निपट!
लेकिन बुद्धू
आप ही हैं। क्या
देने गए हैं? क्या रिश्वत
बता रहे हैं?
इसलिए
भारत जैसे
मुल्क में
इतनी रिश्वत
बढ़ सकी, उसका
कारण है गहरे
में कि हम तो
रिश्वत देने वाली
पुरानी कौम
हैं। हम तो
भगवान को सदा
से--जब भगवान
तक रिश्वत में
पांच आने के
राजी होता है,
तो डिप्टी
कलेक्टर नहीं
होगा? तो
कोई डिप्टी
कलेक्टर
भगवान से बड़ी
चीज है? कि
कोई मिनिस्टर
कोई भगवान से
बड़ी चीज है? अरे! हम
भगवान को भी
रास्ते पर ले
आते हैं पांच आने
का नारियल चढ़ाकर!
मिनिस्टर है
बेचारा! इसको
तो निपटा ही
लेंगे। और जब
मिनिस्टर
देखता है कि
भगवान तक नहीं
छोड़ रहे हैं
नारियल, तो
हम काहे को
छोड़ें!
और अगर
किसी दिन कोई
दिक्कत भी आई
भगवान के सामने, तो कह देंगे
कि तुम तो
हजारों साल से
ले रहे हो; हमने
तो अभी-अभी, अभी यही कोई
बीस साल पहले
शुरू किया।
इतना अनुभव भी
नहीं है। और
तुम तो सदा से
बैठे हो सिंहासन
पर, तुम्हें
कोई जल्दी भी
नहीं है।
हमारे सिंहासन
का कोई भरोसा
ही नहीं है।
तो जितनी
जल्दी ले लें,
ले लेते
हैं।
यह जो
हमारा चित्त
है, वह सदा फल
के लिए उत्सुक
है। इसलिए कुछ
भी कर्म से बच
सके और फल मिल
जाए, तो हम
ले लेंगे।
इसलिए कृष्ण
कहते हैं कि
निष्काम
कर्मयोग
चिंता नहीं
करता कि तुम
कर्म छोड़ो।
वह चिंता करता
है कि तुम फल छोड़ो। तुम
फल की फिक्र
छोड़ दो।
और फल
की फिक्र दो
तरह से छोड़ी
जा सकती है।
एक रास्ता तो
यह है कि हम
मान लें कि
परमात्मा है; जो उसकी
मर्जी। वह नियतिवादी
जो मैंने बात
कही, जो
मानता है कि
नियति है, परमात्मा
को फल देना है,
देगा; नहीं
देना है, नहीं
देगा। जो
नियति की
धारणा से जीता
है गहरे में, वह छोड़ पाता
है। वह कहता
है, ठीक है;
फल हमारे
हाथ में नहीं
है; परमात्मा
जाने। हम ही
हमारे हाथ में
नहीं हैं, तो
फल भी हमारे
हाथ में कैसे
हो सकता है?
या फिर
वह फल छो॰? देता है, दूसरा,
जो कि मानता
है कि मैं तो
हूं ही नहीं।
मिट्टी का जोड़
हूं। मुझसे
क्या फल आएगा!
मैं क्या फल निकाल
पाऊंगा!
ना-कुछ हूं, मुझसे कुछ
भी निकलने
वाला नहीं है।
बुद्ध का मार्ग
है, वह
कहता है, कुछ
निकलने वाला
नहीं है, इसलिए
फल छोड़ देता
है। मैं ही
नहीं हूं, तो
फल लेगा कौन? इसलिए फल
छोड़ देता है।
तीसरा
भी मार्ग है, वह कृष्ण का
मार्ग या
महावीर का
मार्ग, कि
पीछे, भीतर
प्रवेश करता
है और उसको
खोज लेता है, जिसे किसी
फल की जरूरत
नहीं है। उसे
खोज लेता है, जिसे सब
मिला ही हुआ
है। इसलिए कोई
मांग नहीं रह
जाती। तो भी
फल गिर जाता
है। फल गिर
जाए, तो
कर्ता खो जाता
है। लेकिन
निष्काम कर्म
में कर्म बना
रहता है और
कर्म-संन्यास
में कर्म भी
गिर जाता है, उतना ही
फर्क है।
अर्जुन
से कहते हैं
कृष्ण कि सरल
है निष्काम कर्म।
अर्जुन को
देखकर कहते
हैं, मैं फिर
दोहरा दूं।
जरूरी नहीं है
कि आपके लिए
भी सरल हो।
अर्जुन से
कहते हैं कि
तेरे लिए सरल
है अर्जुन, निष्काम
कर्म। अर्जुन
के लिए आसान
है फल को छोड़ना।
कर्म को छोड़ना
कठिन है।
इसके
लिए दोत्तीन
बातें खयाल
में ले लें।
मां के
पेट में सात
महीने का
बच्चा
करीब-करीब
पच्चीस
प्रतिशत
निर्मित हो
जाता है; पच्चीस
प्रतिशत।
बाकी पचहत्तर
प्रतिशत बाकी
सत्तर साल में
निर्मित
होगा। सात
महीने का बच्चा
पच्चीस
प्रतिशत
बिलकुल
निर्मित हो
जाता है, जिसमें
अब कोई अंतर
नहीं पड़ेंगे।
सात साल का बच्चा
तो पचहत्तर
प्रतिशत निर्मित
हो जाता है, जिसमें अब
कोई फर्क नहीं
पड़ेंगे!
जिंदगी, जब
हम पाते हैं
जीने के लिए, खड़े होते
हैं, तब तक
करीब-करीब
हमारे भीतर तय
हो गई होती
है। उसका एक
पैटर्न, उसका
एक ढांचा
निर्मित हो
गया होता है।
अर्जुन
आज युद्ध के
मैदान पर खड़ा
है, कोरी
स्लेट की तरह
नहीं। अगर
कोरी स्लेट की
तरह होता, तो
कृष्ण उससे
कहते कि ये दो
रास्ते हैं, तू कोई भी
लिख ले; दोनों
ही सरल हैं।
क्योंकि तेरी
स्लेट कोरी है।
कुछ भी लिख।
जो भी लिखेगा,
वही काम दे
जाएगा। लेकिन
अर्जुन कोरी
स्लेट की तरह
नहीं खड़ा है।
बहुत कुछ लिखा
जा चुका है। जगह
अब कुछ और
लिखने को है
नहीं; भरा
हुआ खड़ा है।
क्षत्रिय
होना निर्णीत
हो चुका है।
क्षत्रिय
होना उसका
पूरा हो चुका
है। अब उसको
ब्राह्मण
बनाने की
कोशिश बड़ी
उपद्रव की है।
ब्राह्मण
बनाने का मतलब
है, नई, अ
ब स से शुरू
करनी पड़ेगी
यात्रा।
अर्जुन को अगर
वापस उसकी मां
के पेट में, गर्भ में ले
जाया जा सके, तो फिर से
बात हो सकती
है। अन्यथा
नहीं हो सकती
है। या फिर
उसका पूरा
ब्रेनवाश
करना पड़े। तब
कृष्ण के वक्त
में उसका उपाय
नहीं था; अब
है। उसकी
खोपड़ी बिलकुल
साफ करनी पड़े
बिजली के
धक्कों से।
हालांकि
जरूरी नहीं है
कि खोपड़ी साफ
करने के बाद
वह कोई बेहतर
आदमी बन सके।
जरूरी नहीं
है। बहुत डर
तो यही है कि
वह आदमी सदा
के लिए लंगड़ा
हो जाए।
क्योंकि तीस
साल की उम्र
में अगर हम किसी
आदमी के
मस्तिष्क को
फिर से साफ
करें, तो
उसकी उम्र तो
तीस साल होगी
और पहले दिन
के बच्चे जैसा
व्यवहार
करेगा। बहुत
उपद्रव का
मामला है।
तो
अर्जुन एक
सुनिश्चित
व्यक्तित्व
लेकर खड़ा है, एक
पर्सनैलिटी
है उसके पास।
तो जब कृष्ण
उससे कहते हैं
कि अर्जुन, तू जो कि
कर्म में ही
जीया और बड़ा
हुआ है, कर्म
ही जिसका
स्वभाव है, कर्म के
बिना जिसने
कभी कुछ न
जाना, न
सोचा, न
किया। जिसके व्यक्तित्व
की सारी गरिमा
उसके कर्म के
शिखर पर है।
जिसका सारा
गौरव, जिसकी
सारी चमक, जिसकी
सारी सफलता
उसके कर्म की
कुशलता है। इस
आदमी को कृष्ण
कहते हैं कि
तेरे लिए सरल
है कि तू फल को
छोड़ दे।
और
ध्यान रखें, क्षत्रिय के
लिए फल को
छोड़ना आसान है,
कर्म को
छोड़ना कठिन
है। क्षत्रिय
के लिए फल को
छोड़ना आसान है,
कर्म को
छोड़ना कठिन
है। ब्राह्मण
के लिए कर्म को
छोड़ना आसान है,
फल को छोड़ना
कठिन है।
व्यक्तित्व
की बनावटें
हैं।
ब्राह्मण
वैसे ही कर्म
में नहीं
होता। ब्राह्मण
कर्म के जाल
के बाहर खड़ा
रहता है। समाज
ने फल उसके
लिए निश्चित
कर रखा था। फल
से वह राजी
था। कर्म वह
सदा से छोड़े
हुए था।
यद्यपि थोड़ा
कर्म करने से
ज्यादा फल मिल
सकता था, लेकिन
नहीं, वह
बहुत थोड़े फल
से राजी था, लेकिन कर्म
की झंझट में
नहीं था। कर्म
छोड़कर खड़ा था।
अब
महावीर या
बुद्ध कर्म
करें, तो
क्या पैदा
नहीं कर ले सकते
हैं! लेकिन
महावीर या
बुद्ध भिक्षा
का पात्र लेकर
दो रोटी भीख
मांग लेते
हैं। उतने से तृप्त
हैं।
ब्राह्मण इस
देश का सदा से
कर्म छोड़कर
जीया है।
थोड़े-से फल से
राजी है, अल्प
फल से राजी
है। कर्म के
छोड़ने में उसे
कोई कठिनाई
नहीं है।
क्षत्रिय
फल को बिलकुल
छोड़ सकता है, लेकिन कर्म
को नहीं छोड़
सकता।
क्षत्रिय के
लिए सवाल यह
नहीं है कि हारूंगा
या जीतूंगा।
क्षत्रिय के
लिए यह भी
सवाल नहीं है
कि विजय मिलेगी
या हार हो
जाएगी।
क्षत्रिय के
लिए सवाल यह
है कि मैं लड़ा
या नहीं लड़ा।
क्षत्रिय को
अंततः निर्णय
इससे होगा कि
वह लड़ा या
नहीं लड़ा।
लड़ने से भागा
तो नहीं!
क्षत्रिय अगर
लड़ते हुए मर
जाएगा, तो
भी भागे हुए
क्षत्रिय से
ज्यादा शांति
से मरेगा।
कर्म से नहीं
भागा; कर्म
से नहीं हटा।
लड़ लिया। जो
कर सकता था, वह किया। जो
हो सकता था, वह हुआ। फल
का कोई बड़ा
सवाल नहीं है
उसके लिए।
और
क्षत्रिय अगर
फल की सोचे, तो क्षत्रिय
नहीं हो सकता।
क्योंकि
युद्ध के क्षण
में फल को भूल
जाना पड़ता है।
दुकान एक बात
है, युद्ध
दूसरी बात है।
दुकान पर आप
बैठकर आराम से
सोच सकते हैं
कि क्या लाभ
होगा, क्या
हानि होगी।
क्योंकि कर्म
कोई जान नहीं
ले रहा है अभी
आपकी। ग्राहक
कोई आपकी
गर्दन नहीं पकड़े हुए
है। ग्राहक
सामने बैठा है;
आप सोच सकते
हैं। आज नहीं
करेंगे सौदा,
कल कर
लेंगे।
क्षत्रिय के
सामने तो कर्म
इतना प्रखर है
कि अगर वह फल
को सोचने में
चला जाए, चूक
जाए, तो
गर्दन कट जाए।
उसको तो कर्म
में ही होना
चाहिए।
इसलिए
जापान में, जहां कि
क्षत्रियों
का शायद आज की
दुनिया में जीवित
वर्ग है, समुराई।
सारी पृथ्वी
पर
क्षत्रियों
का एकमात्र, ठीक जैसा कि
अर्जुन रहा
होगा। अर्जुन
को मैं समुराई
कहता हूं! कभी
समुराई हमने
पैदा किए थे।
अब वे नहीं
हैं। जापान
में एक
छोटा-सा वर्ग
है, समुराई।
लड़ना ही उसका
जीवन, उसका
आनंद और उसकी
कला है।
समुराई
के युद्ध का
जो सूत्र है, वह यह है कि
जब तुम तलवार
चलाओ, तब
तलवार ही बचे,
तुम न बचो।
तलवार ही चले।
तुम तो अपने
को छोड़ो।
तलवार ही हो
जाओ। और यह भी
मत सोचना कि
एक क्षण बाद
क्या होगा, क्योंकि एक
क्षण के बाद
का तुम सोचोगे,
तो
तुम्हारे
सामने की
तलवार
तुम्हारी
गर्दन काट
जाएगी। तुम तो
अभी देखना, जो हो रहा
है। एक क्षण
के बाद भी हटे,
चेतना इतनी
भी हटी, कि
चूके।
तो अगर
दो समुराई कभी
युद्ध में पड़
जाएं, तो
बड़ा मुश्किल
हो जाता है।
युद्ध
निर्णायक नहीं
हो पाता। बड़ी
कठिनाई हो जाती
है, क्योंकि
दोनों उसी
क्षण में जीते
हैं। जो भी आगे
की सोचता है, वही हार
जाता है।
तो
क्षत्रिय के
लिए सरल है कि
फल की फिक्र
छोड़ दे। वैश्य
के लिए सरल
नहीं है कि फल
की फिक्र छोड़
दे। वैश्य कह
सकता है, कर्म
छोड़ सकते हैं।
फल! फल जरा
छोड़ना
मुश्किल है।
क्षत्रिय कह
सकता है, फल
छोड़ सकते हैं।
लेकिन कर्म!
कर्म छोड़ना
जरा मुश्किल
है। ट्रेनिंग
है, प्रशिक्षण
है।
तो
कृष्ण अर्जुन
से कह रहे हैं
कि तेरे लिए
सुगम है, सरल
है, फल की
आकांक्षा छोड़,
युद्ध में
उतर जा। कर्म
पूरा कर और
शेष प्रभु पर
छोड़ दे। तेरे
लिए पहली बात
आसान नहीं है
कि तू कहे कि
मैं कर्म
छोड़कर चला
जाऊं।
अगर यह
अर्जुन कर्म
छोड़कर चला भी
जाए, मान लें
एक क्षण को कि
गीता यहीं
समाप्त हो जाती
है और अर्जुन
छोड़कर चले
जाते हैं जंगल
में। क्या
करेंगे? कोई
आसनी बिछाकर
किसी झाड़ के
नीचे ध्यान
करेंगे? ध्यान
भी करेंगे, तो पास की झाड़ी
में चलता हुआ
शेर दिखाई
पड़ेगा।
धनुष-बाण खींच
लेंगे। पक्षी
सुनाई पड़ेंगे
वृक्ष पर; याद
आएगी बचपन की
कि निशानेबाज
था। आंख ही
दिखाई पड़ती थी
मुझे। और मेरे
सारे साथियों
को पूरा पक्षी
दिखाई पड़ता
था। गुरु
द्रोण ने कहा
था कि तू ही एक
धनुर्धर है।
यह याद आएगा।
यह ट्रेनिंग
है उसकी।
ज्यादा देर
ध्यान-व्यान नहीं
करेगा, बहुत
जल्दी शिकार
करने में लग
जाएगा। आदमी
वैसा है।
कृष्ण
उसे भलीभांति
पहचानते हैं।
कृष्ण उसके मन
में गहरे
देखते हैं कि
वह आदमी कैसा
है। वह लड़ने
का कोई न कोई
उपाय खोज लेगा
जंगल में। वह
कोई न कोई
उपद्रव में
पड़ेगा। वह
बिना लड़े नहीं
जी सकेगा।
क्योंकि बिना
लड़े तलवार पर
जंग चढ़ जाएगी।
बिना लड़े क्षत्रिय
पर भी जंग चढ़
जाती है। उसकी
तो धार, क्षत्रिय
की धार तो
उसके लड़ने में
है।
मैंने
सुना है कि एक
समुराई तीस
वर्ष तक एक ही तलवार
से लड़ता
रहा--एक ही
तलवार से। और
जब जापान के
एक सम्राट ने
उसे बुलाकर
उसकी तलवार
देखी, तो
दंग रह गया।
जैसे कल ही उस
पर धार रखी गई
हो! तो सम्राट
ने पूछा कि
क्या धार अभी
रखवाई है? उसने
कहा, समुराई
को तलवार पर
धार रखवानी
नहीं पड़ती।
लड़ने से रोज
धार बनती रहती
है। और जिस
दिन समुराई को
तलवार पर धार रखवानी
पड़े, उस
दिन वह गया, हारा।
क्योंकि
तलवार जंग खा
गई, उतनी
देर में
समुराई भी जंग
खा जाएगा।
अर्जुन
तो तलवार की
चमक है। उस पर
जंग न चढ़ जाए।
जंग उसको डुबा
देगी। वह
युद्ध भी खोएगा, क्षत्रित्व भी खोएगा,
और
ब्राह्मण हो
नहीं सकता।
उसके लिए अगले
जन्म की
प्रतीक्षा करनी
पड़ेगी। अगले
जन्म में भी
डर है। वह
क्षत्रिय है।
अगले जन्म में
भी बहुत डर तो
यह है कि क्षत्रिय
ही होगा।
इसलिए
कृष्ण उससे
कहते हैं कि
तुझे देखकर
मैं कहता हूं
कि तेरे लिए
यही निज-धर्म
है। तेरी यही
निजता है, तेरी यही इंडिविजुअलिटी
है। तू इसके
लिए निर्मित
हुआ है। यही
तेरी नियति है,
यही तेरा
भाग्य है कि
तू लड़, तू
कर्म में उतर।
फल को जाने
दे। फल हटा, कर्ता हट
जाएगा, कर्म
रह जाएगा। और
अकेला कर्म रह
जाए, तो
निष्काम कर्म
फलित हो जाता
है।
अब
पांच मिनट हम
कीर्तन
करेंगे। कोई
उठे न। पांच
मिनट
संन्यासी जो
देते हैं, उसे लेते
हुए जाएं।
उनका प्रसाद
स्वीकार
करें। कोई भी
न उठे। पांच
मिनट के लिए
इतनी जल्दी न
करें। और साथ
दें। ताली तो
बजा ही सकते
हैं! आनंद में
सम्मिलित हो
जाएं।
आज इतना
ही।
2/22 गीता ओशो
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