दिनांक
8 दिसंबर, 1976;
श्री
रजनीश आश्रम,
पूना।
प्रश्नसार:
पहला
प्रश्न :
आपने
संन्यास देते
ही मुक्त करने
की बात कही, लेकिन
मुक्त होते ही
संन्यासी का
जीवन आमूल रूप
से परिवर्तित
क्यों नहीं हो
पाता है? हालत
ऐसी है कि
संन्यास के
बाद भी वह
अपनी पुरानी
मनोदशा में ही
जीता है। कभी—कभी
तो सामान्य
सतह से भी
नीचे गिर जाता
है। मुक्ति का
सुवास उसे तत्क्षण
एक ईमानदार
महामानव
क्यों नहीं
बना पाता? क्या
इससे 'संचित'
का संकेत
नहीं मिलता कि
सब कुछ पूर्व—कर्म
से बंधा है, नीयत है?
पहली
बात मैंने कहा, मैं
संन्यास देते
ही तुम्हें
मुक्त कर देता
हूं;
मैंने
यह नहीं कहा
कि तुम मुक्त
हो जाते हो।
मेरे मुक्त
करने से तुम
कैसे मुक्त हो
जाओगे? मेरी
घोषणा के साथ
जब तक
तुम्हारा
सहयोग न हो, तुम मुक्त न
हो पाओगे।
तुमने अगर
अपने बंधनों
में ही प्रेम
बना रखा है और
जंजीरें
तुम्हें
आभूषण मालूम
होने लगी हैं
और कारागृह को तुम घर समझते हो, तो मैंने कह दिया कि तुम मुक्त हो गये, लेकिन इससे तुम खुले आकाश के नीचे न आ जाओगे। मेरी घोषणा काफी नहीं है; तुम्हारा सहयोग जरूरी है।
और कारागृह को तुम घर समझते हो, तो मैंने कह दिया कि तुम मुक्त हो गये, लेकिन इससे तुम खुले आकाश के नीचे न आ जाओगे। मेरी घोषणा काफी नहीं है; तुम्हारा सहयोग जरूरी है।
मेरी
तरफ से तो तुम
मुक्त ही हो।
मेरी तरफ से
तो कोई
व्यक्ति
अमुक्त है ही
नहीं, अमुक्त
हो ही नहीं
सकता।
अमुक्ति एक
स्वप्न है; आंख खोलने
की बात है, समाप्त
हो जायेगा।
लेकिन तुम
मेरी घोषणा
मात्र से
मुक्त नहीं हो
जाते। तुम नये—नये
बहाने खोजते
हो।
अब
तुम यह बहाना
खोज रहे हो कि
क्या इससे 'संचित'
का संकेत
नहीं मिलता कि
सब कुछ पूर्व—कर्म
से बंधा है, नियत है?
तुम
चाहते हो किसी
तरह तुम अपनी
जिम्मेवारी, अपना
दायित्व टाल
दो; तुम कह
दो, 'हमारे
किए क्या
होगा! सब बंधा
हुआ है।’ तुम
बचना चाहते हो।
तुम सहयोग तक
करने से बचना
चाहते हो। तुम
आंख तक खोलने
से बचना चाहते
हो। तुम अपनी
बंद आंख के
लिए हजार
बहाने खोजते
हो।
प्रश्न
महत्वपूर्ण
है,
सभी के काम
का है. ' आपने
संन्यास देते
ही मुक्त करने
की बात कही......।’
मैं इसीलिए
कहता हूं कि
मैंने मुक्त
कर दिया, क्योंकि
तुम मुक्त हो,
मेरे किए से
नहीं मुक्त हो
जाते। मुक्ति
तुम्हारा
स्वभाव है।
मैं तुम्हारे
स्वभाव की
घोषणा कर रहा
हूं। तुम मेरे
वक्तव्य को
गलत मत समझ
लेना। तुम यह
मत समझ लेना
कि मैं
तुम्हें
मुक्त कर रहा
हूं। मुक्त तो
तुम थे ही, भूल
गये थे, याद
दिला दी।
सदगुरु
सिवाय स्मरण
दिलाने के और
कुछ भी नहीं करता
है। जो
तुम्हारा है
वही तुम्हें
दे देता है।
जो तुमने मान
रखा था, जगा
देता है और कह
देता है
मान्यता थी, भ्रम था, झूठ
था। तुमने
रस्सी में सांप
देख लिया था, मैं दीया ले
कर तुम्हारे
पास खड़ा हूं; कहता हूं
गौर से देख लो।
मैं तुम्हें
सांप से मुक्त
किए दे रहा
हूं। क्या
इसका यह अर्थ
हुआ कि सांप
था और मैं
तुम्हें
मुक्त कर रहा
हूं सांप से? इसका इतना
ही अर्थ हुआ
कि सांप तो था
ही नहीं, इसीलिए
मुक्त कर रहा हूं, अन्यथा
मुक्त तुम
होते कैसे? दीया लाने
से भी क्या
होता था? अगर
सांप था तो था।
अंधेरे में
शायद थोड़ा शक—शुबा
भी रहता कि
शायद रस्सी हो;
दीया लाने
से तो और साफ
हो जाता कि
नहीं सांप ही
है। दीया लाने
से तुम कैसे
मुक्त हो सकते
थे?
सदगुरु
के पास आने से
तुम मुक्त
नहीं हो सकते, क्योंकि
सदगुरु दीया
है—एक रोशनी।
उस रोशनी में
तुम्हारे
जीवन का
पुनरावलोकन कर
लेना। रस्सी
दिखाई पड़ जाये
तो क्या कहना
चाहिए अब. तुम
सांप से मुक्त
हो गये? कि
जाना कि सांप
था ही नहीं? तुम एक झूठे
सांप से भयभीत
हो रहे थे, जो
नहीं था उससे
घबड़ा गये थे।
इसलिए
मैंने कहा कि
मैं संन्यास
देते ही तुम्हें
मुक्त कर देता
हूं। मेरा काम
पूरा हो गया।
लेकिन इससे
तुम्हारा काम
पूरा हो गया, ऐसा
मैंने नहीं
कहा।
तुम्हारा भी
सहयोग अगर
परिपूर्ण हो
तो बात घट
जाये। जहां
सदगुरु और
शिष्य
संपूर्ण
सहयोग में मिल
जाते हैं, वहीं
क्रांति घट
जाती है।
लेकिन तुम जब
राजी होओगे तब
न!
तुम
स्वतंत्र
होना ही नहीं
चाहते। तुम
बंधन के लिए
नये —नये तर्क
खोज लेते हो। तुम
बहाने ईजाद
करने में बड़े
कुशल हो।
अब
तुम पूछ रहे
हो. 'लेकिन मुक्त
होते ही
संन्यासी का
जीवन आमूल रूप
से परिवर्तित
क्यों नहीं हो
पाता?'
अब
यह और भी
महत्वपूर्ण
बात समझो।
संन्यास का या
मुक्ति का
परिवर्तन से
कोई संबंध
नहीं है।
क्योंकि यह
परिवर्तन की
आकांक्षा भी
अमुक्त मन की
आकांक्षा है।
तुम अपने को
बदलना चाहते
हो। क्यों
बदलना चाहते
हो?
यह बदलने की
चाह कहां से
आती है? तुम
परमात्मा हो,
इससे
श्रेष्ठ कुछ
हो नहीं सकता
अब। जो
श्रेष्ठतम था,
हो चुका है,
घट चुका है।
तुम बदलना
चाहते हो। तुम
परमात्मा में
भी थोड़ा
श्रृंगार
करना चाहते हो।
तुम थोड़ा रंग—रोगन
करना चाहते हो।
तुम कहते हो
कि बदलाहट
क्यों नहीं
होती?
मुक्ति
का बदलाहट से
कोई संबंध
नहीं है।
मुक्ति की तो
घोषणा ही यही
है कि अब
बदलने को कुछ
बचा नहीं; जैसा
है वैसा है।
अष्टावक्र के
वचन तुम सुन
नहीं रहे हो? —जैसा है
वैसा है। अब
बदलना किसको?
बदले कौन? बदले किसलिए?
बदले कहां?
अब
तुम पूछते हो
कि परिवर्तन
क्यों नहीं हो
पाता? तो तुम
मुक्ति का
अर्थ ही नहीं
समझे।
परिवर्तन
तो अहंकार की
ही आकांक्षा
है। तुम अपने
में चार चांद
लगाना चाहते
हो। धन मिले
तो तुम अकड़ कर
चल सको। पद
मिले तो अकड़
कर चल सको। पद
नहीं मिला, धन
नहीं मिला, या मिला भी
तो सार नहीं
मिला—अब तुम
चाहते हो कम
से कम ध्यान
की अकड़ हो, योग
की अकड़ हो, संतत्व
की अकड़ हो, कम
से कम महात्मा
तो हो जायें!
लेकिन
परिवर्तन
नहीं हो रहा!
अभी तक
महात्मा नहीं
हुए। अभी भी
जीवन की छोटी—छोटी
चीजें पकड़ती
हैं। भूख लगती,
प्यास लगती,
नींद आती—और
कृष्ण तो गीता
में कहते हैं
कि योगी सोता
ही नहीं। और
भूख लगती, प्यास
लगती,
पसीना
आता,
धूप खलती।
तो तुम पाते
हो कि अरे, अभी
तक महात्मा तो
बने नहीं; कांटों
की शैथ्या पर
तो सो नहीं
सकते अभी तक—तो
फिर कैसी
मुक्ति?
तुम
मुक्ति का
अर्थ ही न
समझे। मुक्ति
का अर्थ है :
तुम जैसे हो
परिपूर्ण हो, इस
भाव का उदय।
भूख तो लगती
ही रहेगी
लेकिन अब
तुम्हें न लगेगी,
शरीर को ही
लगेगी, बस
इतना फर्क
होगा। फर्क
भीतरी होगा।
बाहर से किसी
को पता भी न
चलेगा, कानों—कान
खबर न होगी।
जिस मुक्ति की
बाहर से खबर
होती है, समझना
कि कहीं कुछ
गड़बड़ हो गई; अहंकार फिर
प्रदर्शन कर
रहा है, फिर
शोरगुल मचा
रहा है कि
देखो, मैं
महात्मा हो
गया! मुक्ति
की तो कानों—कान
खबर नहीं पड़ती।
मुक्ति तो
तुम्हारी
साधारणता को
अछूता छोड़ देती
है।
अब
तुम्हारी
घबराहटें
अजीब हैं! एक
सज्जन आये, वे
कहने लगे कि
संन्यास तो ले
लिया लेकिन
चाय अब तक
नहीं छूटी। यहां
हम चाह को
छोड़ने की बात
कर रहे हैं, वे चाय
छोड़ने की बात
कर रहे हैं।
दरिद्रता की
कोई हद है! और
चाय छोड़ भी दी
तो क्या पा
लोगे? चाय
ही छूटेगी न!
तुम पा क्या
लोगे? लेकिन
तुम्हें मूढ़ों
ने समझाया है
कि चाय छोड़ने
से मोक्ष मिल जाता।
काश! मोक्ष
इतना सस्ता
होता कि चाय
छोड़ने से मिल
जाता, कि
तुम धूम्रपान
न करते और
मोक्ष मिल
जाता! कितने
तो लोग हैं जो
धूम्रपान
नहीं करते हैं,
मोक्ष पा
लिया? तुम
भी उन जैसे ही
हो जाओगे, नहीं
करोगे तो। मैं
यह नहीं कह
रहा हूं कि
धूम्रपान
करना। मैं यह
भी नहीं कह
रहा हूं कि
धूम्रपान
करने से मोक्ष
मिलता है। मैं
इतना ही कह
रहा हूं
धूम्रपान
करने और न करने
से मोक्ष का
कोई संबंध
नहीं। करो, तुम्हारी
मर्जी; न
करो, तुम्हारी
मर्जी। ये
असंगत बातें
हैं। चाय पीते
हो कि नहीं
पीते, इससे
कुछ संबंध
नहीं है। चाय
पीते हो कि
कॉफी पीते हो,
इससे कुछ
संबंध नहीं है।
मोक्ष तो
जागरण है।
पहले तुम चाय
पीते थे, सोये
—सोये पीते थे,
अब तुम जाग
कर पीओगे। और
अगर जागरण में
चाय छूट जाये
अनायास, छोड़नी
न पड़े, तुम्हें
अचानक लगे कि
बात खतम हो गई,
रस न रहा अब,
तो गई, तो
छोड़ने का भाव
भी पैदा नहीं
होगा कि मैंने
कुछ त्याग कर
दिया।
क्षुद्र
को त्याग कर
क्षुद्र
त्यागी ही तो
बनोगे न, महाशय
कैसे बनोगे? क्षुद्र आशय
हैं तुम्हारे।
कोई धूम्रपान
छोड़ना चाहता,
कोई चाय
छोड़ना चाहता,
कोई कुछ
छोड़ना चाहता।
तुम्हारे आशय
क्षुद्र हैं।
इनको तुम छोड़
भी दो तो तुम
क्षुद्र
रहोगे। फिर
तुम सड़क पर
अकड़ कर चलोगे
कि अब कोई आये
और चरण छुए, क्योंकि
महात्मा ने
चाय छोड़ दी।
तुम
जरा अपनी
क्षुद्रता का
हिसाब तो
समझो! पूछते
हो कि जीवन
आमूल रूप से
परिवर्तित
क्यों नहीं
होता है? जीवन
में खराबी
क्या है जो
परिवर्तित हो?
मैंने तो
कुछ खराबी
नहीं देखी।
भूख लगनी
चाहिए। भूख न
लगे तो बीमार
हो तुम। भूख
लगनी
स्वाभाविक है।
प्यास लगनी
चाहिए। प्यास
न लगे तो
बीमार हो तुम।
सोओगे भी। और
स्वभावत: जो कांटों
का
बिस्तर बना कर
सो रहा है, वह
पागल है, विक्षिप्त
है। यह देह
तुम्हारी है,
तुम्हारा
मंदिर है, इसे
कांटों पर सुला
रहे हो?
और
जो अपनी देह
के प्रति कठोर
है,
वह दूसरों
की देहों के
प्रति भी सदय
नहीं हो सकता,
असंभव। जो
अपने के प्रति
सदय न हो सका, वह दूसरे के
प्रति कैसे
सदय होगा? तुम
हिंसक हो। तुम
दुष्ट
प्रकृति के हो।
तुम काटे बिछा
कर लेट रहे हो।
अब तुम्हारी
मर्जी होगी कि
सारी दुनिया
काटी पर लेटे।
अगर सारी
दुनिया न लेटे
कीटों पर तो
तुम हजार तरह
के उपाय करोगे,
उपदेश
करोगे,
समझाओगे
कि काटी पर
लेटने से
मोक्ष मिलता
है,
देखो मैं
लेटा! देखो
मेरी कट गई, तुम भी कटवा
लो! इससे बड़ा
आनंद मिलता
है!
कांटों
पर लेटने से
बड़ा आनंद
मिलता है!
किसको तुम धोखा
दे रहे हो? ही,
कांटों पर
लेटने से इतना
ही हो सकता है
कि तुम्हारी संवेदनशीलता
धीरे— धीरे
क्षीण हो जाये,
तुम्हारी
चमड़ी पथरीली
हो जाये, तुम
चट्टान जैसे
हो जाओ। और
जीवन का रहस्य
तो फूल जैसे
होने में है, चट्टान जैसे
होने में नहीं
है। जीवन का
रहस्य तो
कोमलता में है।
जीवन का रहस्य
तो स्त्रैणता
में है। परुष
हो गये, अति
पुरुष हो गये—उतने
ही कठोर हो
जाओगे; उतना
ही तुम्हारे
जीवन से काव्य
खो जायेगा, माधुर्य खो
जायेगा, संगीत
खो जायेगा, गीत खो
जायेगा, तुम्हारे
भीतर का छंद
समाप्त हो
जायेगा।
तो
तुमने कांटों
पर लेटे आदमी
को कभी कोई
प्रतिभाशाली
आदमी देखा? तुम
जा कर काशी
में अनेक को
पा सकते हो कांटों
पर लेटे, लेकिन
कभी तुम्हें
प्रतिभा के
दर्शन होते हैं
वहां? तुमने
कांटों पर लेटे
किसी आदमी को
अलबर्ट
आइंस्टीन की
प्रतिभा जैसा
देखा? कांटों
पर लेटे आदमी
को तुमने कभी
बीथोवन या
तानसेन या
कालीदास या
भवभूति, एम्स,
ऐसी किसी
ऊंचाइयों को
छूते देखा? तुमने इन कांटों
पर लेटे
आदमियों से
उपनिषद पैदा
होते देखे, वेद की
ऋचाओं का जन्म
होते देखा? ये कांटों
पर लेटे
आदमियों को
जरा गौर से तो
देखो, इनका
सृजन क्या है?
इनकी
सृजनात्मकता
क्या है? इनसे
होता क्या है?
बस कांटे पर
लेटे हैं, यही
गुणवत्ता है!
इतना ही काफी
है परमात्मा
का सौभाग्य? और परमात्मा
के प्रति
अहोभाव प्रगट
करने के लिए
कीटों पर लेट
जाना काफी है?
यह भी खूब
धन्यवाद हुआ
कि परमात्मा
जीवन दे और तुम
कीटों पर लेट
गये! और
परमात्मा फूल
जैसी देह दे
और तुम उसे
पथरीला करने
लगे!
नहीं, इससे
होगा क्या? किस बात को
तुम आमूल
क्रांति
चाहते हो?
जीवन
तो जैसा है
वैसा ही रहेगा, वैसा
ही रहना चाहिए।
हा, इतना
फर्क पड़ेगा....
और वही
वस्तुत: आमूल क्रांति
है। आमूल का
मतलब होता है
मूल से। चाय
पीना मूल में
तो नहीं हो
सकता, न
सिगरेट पीना
मूल में हो
सकता है और न
बिस्तर पर
सोना और न कांटों
पर
सोना मूल में
हो सकता है। न
भोजन करना और
न उपवास करना
मूल में हो
सकता है। मूल
में तो साक्षी—
भाव है।
आमूल
क्रांति का
अर्थ होता है :
जो अब तक सोये —सोये
करते थे, अब
जाग कर करते
हैं। जागने के
कारण जो गिर
जायेगा गिर
जायेगा, जो
बचेगा बचेगा;
लेकिन न
अपनी तरफ से
कुछ बदलना है,
न कुछ
गिराना, न
कुछ लाना।
साक्षी है मूल।
शब्दों
के अर्थ भी
समझना शुरू
करो।’ आमूल' कहते हो, आमूल
क्रांति नहीं
हुई। आमूल क्रांति
का क्या मतलब
है? अब सिर
के बल चलने
लगोगे सड़क पर,
तब आमूल क्रांति
हुई? क्योंकि
पैर के बल तो
साधारण आदमी
चलते हैं; तुम
सिर के बल
चलोगे तो आमूल
क्रांति हो गई।
लोग तो भोजन
खाते हैं, तुम
कंकड़—पत्थर
खाने लगोगे, तब आमूल
क्रांति हो गई?
आमूल
क्रांति का
अर्थ है : लोग
सोये हैं, मूर्च्छित
हैं, तुम
जाग गये, तुम
साक्षी हो गये।
अब देह को भूख
लग आती है तो
लगती है, और
देह भोजन कर
लेती है, तृप्त
हो जाती है; तुम पीछे
खड़े देखते हो
शांत भाव से।
भूख लगी, भोजन
का आयोजन कर
देते; तृप्ति
हो जाती, तुम
देखते रहते।
तुम द्रष्टा
हुए।
लेकिन
तुम किन्हीं
छोटी—छोटी क्रांतियों
को करने में
लगे हुए हो।
तुम्हारे
तथाकथित
महात्माओं ने
तुम्हें बड़े
क्षुद्र आशय
दिए हैं। उन
क्षुद्र
आशयों के कारण
मैं तुम्हें
महा सूत्र दे
देता हूं कि
तुम मुक्त हुए, फिर
भी तुम दीन
बने रहते हो, दरिद्र बने
रहते हो। तुम्हें
इतनी बड़ी
संपदा दे देता
हूं फिर भी
तुम आते हो, कहते हो कि
यह नहीं छूट
रहा, वह
नहीं छूट रहा।
तुमसे कहा
किसने कि तुम
छोड़ो? मैंने
नहीं कहा।
किसी और ने
कहा होगा। तो
तुम्हारे
जीवन में बड़ी
कीचड़ मची है, साफ—सुथरा
नहीं! तुम
मेरे भी
संन्यासी हो,
तो भी
वस्तुत: मेरे
नहीं हो; हजार
स्वर
तुम्हारे
भीतर पड़े हैं।
जिन बातो का
मैं निरंतर
खंडन कर रहा
हूं वे भी
तुम्हारे
भीतर पड़ी हैं,
और
तुम्हारे
भीतर अभी भी
मूल्यवान हैं
और महत्वपूर्ण
हैं। इसलिए
तुम्हारे मन
में बार—बार
उठने लगता है
प्रश्न. अभी
तक क्रांति
नहीं हुई?
तुम
एक दफा इस क्रांति
की लिस्ट बनाओ।
क्या तुम
चाहते हो क्रांति
में?
तब तुम बड़े
हैरान होओगे
कि तुम बड़ी
अजीब—अजीब
बातें लिस्ट
में लिखने लगे।
ऐसी अजीब
बातें लिखने
लगे जिनका कोई
मूल्य नहीं है।
एक
सज्जन मेरे
पास आये। वे
कहने लगे. 'इतना
ध्यान करता हूं, लेकिन शरीर
तो बूढ़ा होता
जा रहा है।
ध्यानी का तो
शरीर बूढ़ा
नहीं होना
चाहिए।’ ये
आमूल क्रांतिया
हैं! ध्यानी
का शरीर का
नहीं होना
चाहिए! बुढ़ापे
में कुछ खराबी
है? जो
जवान हुआ का
होगा। ध्यानी
भी का होगा।
ध्यानी भी
मरेगा। फर्क
इतना ही रहेगा
कि ध्यानी जब
का होगा तब भी
साक्षी रहेगा
कि जो का हो
रहा है वह मैं
नहीं हूं,
इतना फर्क
होगा। और
ध्यानी जब
मरेगा तो
जागता मरेगा
और जानता मरेगा
कि जो मर रहा
है, वह
मेरी देह थी, वह मैं नहीं
हूं। मृत्यु
तो होगी। नहीं
तो बुद्ध, महावीर,
कृष्ण, मोहम्मद,
क्राइस्ट, कोई मरते ही
नहीं।
क्योंकि
ध्यानी थे, मरेंगे कैसे?
ध्यानी तो
अमृत को
उपलब्ध हो
जाता है! तो मर
नहीं सकते थे।
के भी न होते।
तुम
झूठी बातो में
पड़े हो और
तुमने व्यर्थ
की बातें अपने
भीतर इकट्ठी
कर ली हैं।
मैं लाख
चेष्टा करता
हूं तुम्हारी
व्यर्थ की बातें
छीन लूं तुम
कहीं कोने—कातर
में छिपा लेते
हो।
मैं
वस्तुत:
तुम्हें
मुक्त कर रहा
हूं। मैं
तुम्हें
क्रांति से भी
मुक्त कर रहा
हूं परिवर्तन
से भी मुक्त
कर रहा हूं
मैं तुम्हें मूलत:
मुक्त कर रहा
हूं। मैं
तुमसे यह कह
रहा हूं : ये सब
कुछ करने की
बातें ही नहीं
हैं;
तुम जैसे हो
भले हो, को
हो, शुभ हो,
सुंदर हो।
तुम इसे
स्वीकार कर लो।
तुम अपने जीवन
की सहजता को
व्यर्थ की बातो
से विकृत मत
करो।
विक्षिप्त
होने के उपाय
मत करो, पागल
मत बनो!
तुम्हारे सौ
में से
निन्यानबे महात्मा
पागलखानों
में होने
चाहिए और अगर
तुम पागल बनने
को क्रांति
कहते हो तो कम
से कम मेरे
पास मत आओ।
मैं तुम्हें
पागल बनाने
में जरा भी
उत्सुक नहीं हूं।’हालत ऐसी है
कि संन्यास के
बाद भी वह
अपनी पुरानी
मनोदशा में ही
जीता है।’
और
किस दशा में
जीओगे? इधर
तुमने
संन्यास लिया,
उधर
तुम्हारी देह
एकदम
स्वर्णकाया
हो जायेगी? इधर तुमने
संन्यास लिया
और वहां
तुम्हारे पास
मन एकदम बुद्ध
का, महावीर
का, कृष्ण
का, क्राइस्ट
का हो जायेगा?
मन तो मन ही
है। मन तो मन
जैसा ही रहेगा।
फर्क क्या
पड़ेगा? फर्क
इतना ही पड़ेगा
कि अब तक मन
मालिक था, अब
तुम मालिक हो
जाओगे। अब तक
देह चलाती थी,
अब तुम
चलाओगे। अब तक
देह खींचती थी,
तुम मजबूरी
में खिंचे
जाते थे; अब
तुम मजबूरी
में न खिचोगे,
अब तुम
होशपूर्वक, बोधपूर्वक
जाओगे।
मन
तो मन ही है।
मन तो
कंप्यूटर है, यंत्र
है। एकदम कैसे
बदल जायेगा? तुम्हारा मन
है क्या? तुम्हारे
अब तक के जीवन—
अनुभवों का
सार है। जैसे
कि तुम
आत्मकथा लिख
रहे हो, और
तुम अपनी आत्मकथा
में सब बातें
लिखते जाओ और
फिर तुम एक
दिन संन्यास
ले लो और फिर
तुम किताब खोल
कर देखो, तुम
कहो कि मेरी
आत्मकथा तो
वही की वही है!
तुम क्या
पागलपन की बात
कर रहे हो? तुम्हारे
संन्यास से
तुम्हारी
लिखी गई आत्मकथा
थोड़े ही बदल
जायेगी।
मन
तो अतीत है, हो
चुका। मन तो
अतीत की धूल
है। वह जो कल
बीत गया, उसके
चिह्न हैं।
तुम्हारे
संन्यास लेने
से वह चिह्न
थोड़े ही मिट
जायेंगे; वे
तो बने रहेंगे।
वह तो हो चुका।
जो हो चुका हो
चुका; अब
उसमें कुछ
फर्क होने
वाला नहीं है।
वह तो बन गई
अमिट लकीर।
इतना ही होगा
कि अब तुम
चौंक कर
जानोगे कि
मैंने
भ्रांति से मन
के साथ अपना तादात्म्य
कर लिया था।
यह मन मैं
नहीं हूं। यह
मन मेरे पास
एक यंत्र है।
इसकी जब जरूरत
हो, उपयोग
कर लूंगा।
गणित करना
होगा तो मन का
उपयोग करना
होगा। महावीर
भी मन का
उपयोग किए
बिना गणित
नहीं हल कर
सकते। अगर मैं
तुमसे बोल रहा
हूं तो मन का
उपयोग कर रहा
हूं; बिना
मन का उपयोग
किए तुमसे बोल
नहीं सकता।
क्योंकि वाणी
तो मन का
संग्रह है।
भाषा तो मन
में अंकित है।
जो भी तुमसे
कह रहा हूं वह
कह नहीं
सकूंगा अगर मन
का उपयोग न
करूं। तो मन
का उपयोग तो
जारी है। और
वही कह सकूंगा
तुमसे जो मन
ने अतीत में
जाना है, जो
मन ने अतीत
में पहचाना है।
मन तो संपदा
है। लेकिन
फर्क इतना पड़
गया कि जब मैं
खाली बैठा हूं
और किसी से
बोल नहीं रहा
हूं तो चुप
होता हूं मन
शांत होता है।
ऐसे ही जैसे
जब तुम कहीं
नहीं जा रहे, अपनी कुर्सी
पर बैठे हो, तुम्हारे
पैर नहीं चलते
रहते। कुछ
लोगों के चलते
रहते हैं, बैठे
हैं कुर्सी पर
तो पैर ही
हिलाते रहते
हैं। इसका
मतलब? इसका
मतलब : या तो
चलो या बैठो, दो में से
कुछ एक करो।
यह क्या धोबी
के गधे, घर
के न घाट के।
यह बैठे हो
कुर्सी पर, पैर क्यों
हिला रहे हो? अगर चलना है
तो चलो, वह
भी शुभ है, बैठना
है तो बैठो।
मगर बीच में
तो मत अटके
रहो, त्रिशंकु
तो न बनो। जब
तुम बैठे हो, तब तुम पैर
नहीं चलाते
क्योंकि तुम
जानते हो कि
अभी पैर का
कोई उपयोग
नहीं है। पैर
मौजूद हैं, लेकिन तुम
चलाते नहीं।
कुछ उठाना है
तो हाथ हिलाते
हो; कुछ
उठाना नहीं है
तो हाथ नहीं
हिलाते।
जब
कुछ सोचना है
तो मन का
उपयोग करते हो; जब
कुछ सोचना
नहीं तो मन का
उपयोग नहीं
करते। कुछ
बोलना है तो
मन का उपयोग
करते हो। कुछ
निवेदन करना
है तो मन का
उपयोग करते हो।
जब कुछ संवाद
नहीं है, कोई
संबंध नहीं
जोड़ना, किसी
से कुछ कहना
नहीं, तब
मन शांत होता
है। तब मन
नहीं होता, बंद होता है।
तुम निपट
सन्नाटे में
होते हो। एक
गहरी
प्रशांति
तुम्हें घेरे
होती है। तुम
जागे होते हो।
तुम परिपूर्ण
होश में होते
हो।
मन
तो तुम्हारा
वही रहेगा, सिर्फ
मन के साथ
तादात्म्य
छूट जायेगा।
अब तुम ऐसा न
कहोगे कि मैं
यह मन हूं और
ऐसा भी न
कहोगे कि मैं
यह देह हूं।
और
तुम कहते हो 'कभी—कभी
तो सामान्य
सतह से भी
नीचे गिर जाता
है।’
किसको
तुम सामान्य
कहते हो? तुम्हारे
मन में बड़ी
निदायें भरी
हैं।’सामान्य
आदमी' निंदा
का शब्द है, गाली दे रहे
हो तुम। तुम
यह कह रहे हो : 'सामान्य से
भी नीचे गिर
जाता है!' ये
सामान्य आदमी
चाय पी रहे, धूम्रपान कर
रहे, सिनेमा
जा रहे! अब अगर
तुम सिनेमा
चले गये तो तुम्हारे
मन में भाव
उठा कि
सामान्य से
नीचे गिर गये।
मैंने
तुम्हें इतना
मुक्त किया है
कि मैं तुमसे
कहता हूं तुम
गिर सकते ही
नहीं, गिरने
का कोई उपाय
नहीं है।
'सामान्य' किसको कहते
हो? ये जो
अनंत— अनंत
कोटि लोग हैं,
इनके प्रति
तुम्हारे मन
में बड़ी गहन
निंदा है।
क्यों तुम
चाहते हो कि
इनसे तुम
विशिष्ट हो जाओ?
यह विशिष्ट
होने की आकांक्षा
अहंकार ही तो
है, और
क्या है? इस
विशिष्ट होने
की आकांक्षा
में तुम अध्यात्म
समझे बैठे हो,
कि संन्यास
तुमने समझा
है!
मेरे
पास आते हैं
पुराने ढब के
संन्यासी। वे
कहते हैं : यह
आप क्या कर
रहे हैं, सामान्य
आदमियों को
संन्यास दिए
दे रहे हैं!
मैंने
कहा :
परमात्मा
नहीं झेंपता
सामान्य आदमी
बनाने से तो
मैं क्यों परेशान
होऊं संन्यास
देने से? और
परमात्मा
सामान्य आदमी
ज्यादा बनाता
है, तुम
देख रहे हो।
तुम्हारे
जैसे विशिष्ट
आदमी तो कभी—कभी
बनाता है और
मुझे शक है कि
वह बनाता भी
है! क्योंकि
मैंने अभी तक
कोई संन्यासी
पैदा होते नहीं
देखा, सब
सामान्य आदमी
पैदा होते हैं;
संन्यासी
तो तुम बन
जाते हो।
अब्राहम
लिंकन जब
अमरीका का
प्रेसिडेंट
हुआ,
उसका चेहरा
बहुत सुंदर
नहीं था, घरेलू
ढंग का था।
किसी ने पूछ
लिया उससे कि
तुम अमरीका के
प्रेसिडेंट
भी हो गये, लेकिन
तुम्हारा
चेहरा इतना
कुरूप क्यों
है? अब्राहम
लिंकन ने कहा
कि जहां तक
मैं समझता हूं
परमात्मा कुरूप
आदमियों को
पसंद करता है,
क्योंकि
सुंदर कम
बनाता और
कुरूप ज्यादा
बनाता है। यह
परमात्मा की
पसंदगी मालूम
होती है। इतना
ही कह सकता
हूं और तो
मुझे कुछ पता
नहीं। लाख में
एकाध को सुंदर
बनाता है, बाकी
को तो साधारण
बनाता है। तो
परमात्मा
साधारण को
पसंद करता है,
इसीलिए।
मगर
सुंदर तो शायद
परमात्मा
बनाता भी होगा; तुमने
किसी को देखा
कि परमात्मा
किसी को संन्यासी
बनाता है? सब
सामान्य
बच्चों की तरह
पैदा होते हैं।
बुद्ध हों कि
महावीर हों कि
कृष्ण हों कि
क्राइस्ट हों,
सब सामान्य
बच्चों की तरह
पैदा होते हैं।
परमात्मा
सामान्य का
प्रेमी है—सहज
का,
साधारण का।
आदमी का
अहंकार है जो
विशिष्ट होना
चाहता है।
झेन
फकीर रिंझाई
अपने झोपड़े
में बैठा था
और एक शिष्य
ने उससे कहा
कि तीन साल
आपके चरणों की
सेवा करते हो
गये,
अभी तक मैं
आप जैसा क्यों
नहीं हो पाया?
रिंझाई ने
कहा. देखो, सामने
देखो। चीड़ के
दो वृक्ष खड़े
हैं; एक
छोटा है, एक
बड़ा है। एक को
परमात्मा ने
ऐसा बनाया, एक को
परमात्मा ने
ऐसा बनाया।
लेकिन मैं
तुमसे कहता
हूं कि मैंने
इन दोनों वृक्षों
में कभी कोई
प्रतिस्पर्धा
नहीं देखी।
छोटे ने कभी
कहा नहीं कि
मैं छोटा
क्यों बनाया
गया और बडे ने
कभी अकड़ कर
नहीं कहा कि ३
छोटे, अपनी
हैसियत से रह।
मुझे देख, मैं
कितना बड़ा
हूं! इनमें
मैंने कभी
विवाद नहीं
सुना। मुझे
मेरे जैसा
बनाया, तुम्हें
तुम जैसा
बनाया।
छोटे—बड़े
की धारणा आदमी
की है। साधारण—असाधारण
की धारणा आदमी
की है। सब एक
जैसे हैं। सब
एकरस हैं। अगर
एक ही ब्रह्म
सब में विराजा
है,
तो कौन
विशिष्ट, कौन
सामान्य? यह
तुम्हारे
भीतर जो भाव
है कि कभी—कभी
सामान्य सतह
से भी नीचे
गिर जाता है? तुम कुछ
धारणायें
लेकर चल रहे
हो कि
संन्यासी को
ऐसा होना
चाहिए; संन्यासी
को कभी क्रोध
नहीं करना चाहिए।
अब कभी हो गया
क्रोध, किसी
ने धक्का मार
दिया, अब
क्रोध हो गया,
अब तुम घर
लौट कर बैठे
उदास कि यह
मामला क्या है,
सामान्य से
नीचे गिर गये,
क्रोध हो
गया! संन्यासी
को तो क्रोध
होना नहीं
चाहिए! तो तुम
मेरे संन्यास
को समझे नहीं।
मैं तुमसे कह
रहा हूं कि
संन्यासी
अहंकार का विसर्जन
कर दे, तो
ही संन्यासी
है। अब यह एक
नया अहंकार
तुम पाल रहे
हो कि संन्यासी
को क्रोध नहीं
होना चाहिए।
क्यों नहीं
होना चाहिए? हो जाये तो
ठीक, न हो
जाये तो ठीक
है। जो
परमात्मा
करवा ले, ठीक
है। अगर तुम
इतनी परम
स्वीकृति को
जीने लगो तो
ये सामान्य—असामान्य,
विशिष्ट—
साधारण, ये
सब कोटियां
तुम्हारी गिर
जायेंगी। और
तब तुम अचानक
चौंक कर एक
दिन पाओगे.
क्रोध भी खो
गया। क्योंकि
क्रोध जीता ही
इन्हीं
कोटियों के कारण
है कि मैं
विशिष्ट!
तुम्हें
जब कोई धक्का
मार देता है, तुम
क्या कहते हो?
जानते नहीं,
मैं कौन
हूं! क्या
मतलब हुआ. 'जानते
नहीं मैं कौन
हूं? होश
सम्हालो!'
यह
अहंकार ही तो
क्रोध पैदा कर
रहा है। फिर
एक नया अहंकार
तुमने पैदा कर
लिया कि मैं संन्यासी
हूं क्रोध
नहीं करूंगा
चाहे कुछ भी हो
जाये। अब यह
एक नया अहंकार
है। फिर तुम
विशिष्ट हुए।
क्रोध तो होगा, अब
भीतर सरकेगा।
उस
आदमी के जीवन
में
विकृतियां खो
जाती हैं जिस
आदमी के जीवन
में मूल्य
तिरोहित हो
जाते हैं।
इसलिए
अष्टावक्र
बार—बार कहते
हैं न कुछ शुभ
है,
न कुछ अशुभ
है; न कुछ
कर्तव्य न कुछ
अकर्तव्य; न
कुछ नीति न
कुछ अनीति। ये
वचन बड़े क्रांतिकारी
हैं। मुझे
पक्का भरोसा
नहीं हैं कि
तुम समझ पा
रहे हो, क्योंकि
तुम्हारे
भीतर सदियों
से बैठा हुआ धारणाओं
का जाल है। वह
उधर बैठा सोच
रहा है कि
अच्छा ऐसा.
ऐसा तो हो नहीं
सकता।
तुम्हें यह
घबड़ाहट लगी है
कि तुम्हारी
कोटियों का
क्या होगा!
तुम
संन्यासी भी
होना चाहते हो
तो विशिष्ट होने
को। और मैं तुम्हें
संन्यासी बना
रहा हूं, ताकि
तुम अति
सामान्य हो
जाओ, सहज
हो जाओ।
तुम्हारा
पुराना
संन्यासी
विशिष्ट था—घर
में नहीं
रहेगा, जंगल
में रहेगा, किसी के साथ
नहीं उठेगा—बैठेगा,
साधारण
बोलचाल में
नहीं उतरेगा,
दूर—दूर, पृथक—पृथक, अलग— अलग, हर
बात में भेद
प्रगट करेगा;
सामान्य से
अपने को अलग
करने की हर
चेष्टा करेगा।
मैंने
तुम्हें
संन्यास दिया
है और तुम्हें
जीवन से दूर
करने की कोई
चेष्टा नहीं
की। तुम पति
हो, पत्नी
हो, बेटे
हो, बाप हो,
घर है, द्वार
है, दूकान
भी चलाओगे, नौकरी भी
करोगे—तुम्हें
मैंने
संन्यास दिया
है, तुम
जैसे हो वैसे
ही। तुम्हें
मैं अन्यथा
नहीं देखना
चाहता।
अगर
तुम मेरी बात
समझ गये तो
मैंने
तुम्हें मुक्ति
दे दी है। अब
तुम्हारे ऊपर
कोई बोझ नहीं
है—कुछ होने
का बोझ नहीं
है।
'मुक्ति का
सुवास उसे तत्क्षण
एक ईमानदार
महामानव
क्यों नहीं
बना पाता?'
महामानव
बनने की आकांक्षा
पागलपन है।’महामानव'—मतलब क्या
होता है? दूसरे
मानव पीछे पड़
जायें, तुम
झंडा लिए आगे
चले जा रहे हो—'झंडा ऊंचा
रहे हमारा!' महामानव!
आदमी होना
काफी नहीं, पर्याप्त
नहीं? तुम
किसी न कसी
तरफ महान हो
कर रहोगे?
सहज
मानव कहो, महामानव
नहीं। और सहज
मानव ही वस्तुत:
महामानव है।
जिसको तुम
महामानव कहते
हो वह तो
अहंकार की एक
नई यात्रा है।
इससे सावधान
रहो। अहंकार
के रास्ते बडे
सूक्ष्म
हैं,
बड़े बारीक
हैं। वह हर
जगह से अपनी
तरकीब खोज
लेता है।
मुल्ला
नसरुद्दीन की
पत्नी अपने
मायके गई। बार—बार
नसरुद्दीन को
लिखती कि कुछ
दिनों के लिए
आप भी बनारस आ
जायें। लेकिन
मुल्ला
नसरुद्दीन
पूना छोड़ता
नहीं।
आखिरकार उनकी
श्रीमती ने
पत्र के साथ
एक चित्र भी
भेजा जिसमें
एक पार्क की
बेंच पर एक
जोड़ा बैठा हुआ
है—पति—पत्नी
एक—दूसरे का
हाथ पकड़े हुए, एक—दूसरे
की आंखों में आंखें
डाले हुए। और
पास के ही एक
बेंच पर उनकी
श्रीमती जी
अकेली बैठी
हैं—चिंतित, उदास अवस्था
में, खोई—खोई,
जैसे सब
संपत्ति खो गई
है। साथ के
पत्र में लिखा
था 'देखो, तुम्हारे
बिना मैं
कितनी अकेली
हो गई हूं!'
मुल्ला
ने चित्र को
देखा और
गुस्से से भर
कर तार किया 'यह
सब तो ठीक है, पर यह लिखो
कि फोटो किसने
खींची?'
आदमी
के मन में अगर
संदेह है तो
कोई रास्ता खोज
ही लेगा।
अहंकार अगर है
तो कोई रास्ता
खोज ही लेगा।
तुम इधर से
दबाओगे उधर से
निकल आयेगा।
तुम इधर से
बचोगे, कोई
और नया मार्ग
खोज कर आ
जायेगा।
साधक
को स्मरण रखना
है कि अहंकार
के सारे मार्ग
पहचान लिए
जायें।
मैं
तुमसे अहंकार
छोड़ने को नहीं
कह रहा हूं,
क्योंकि
अहंकार छोड़ना
भी अहंकार बन
जाता है। मैं
तुमसे इतना ही
कह रहा हूं.
तुम कृपा करके
अहंकार के
मार्ग पहचानो—कहां—कहां
से आता है, कैसे
—कैसे आता है, कैसी
सूक्ष्म
प्रक्रियाएं
लेता है, कैसे
वेश पहनता है?
तुम पहचान
भी नहीं पाते।
कभी विनम्रता
बन कर आ जाता
है। अब
महामानव बन कर
आ रहा है। अब
वह कह रहा है
कि तुम, अरे
तुम कोई
साधारण मानव
हो! तुम
महामानव हो।
तुम्हें कुछ
करके दिखाना
है दुनिया में।
तुम्हें नाम
छोड़ जाना है
दुनिया में।
अभी धन कमाना
था, अभी
चुनाव जीतना
था; अब
किसी तरह वहा
से छूटे तो अब
महामानव होना
है। लेकिन जो
है, उससे
तुम राजी नहीं;
कुछ हो कर
दिखाना है।
मैं
तुमसे कह रहा
हूं : तुम जो हो
ऐसे ही तुम
सुंदर हो। तुम
जैसे हो इसी
में विश्राम
को उपलब्ध हो
जाओ।
तुम
जरा मेरी बात
को समझो, गुनो!
थोड़ा इसका रस
लो। तुम जैसे
हो वैसे में
ही राजी हो
जाओ। क्रोध
आये तो कहना
कि मैं क्रोधी
हूं, तो
आता है। किसी
से झंझट—झगड़ा
हो जाये तो कह
देना कि मैं
झझटी आदमी हूं
तो झंझट होती
है। ऐसा मैं
हूं! अपने
हृदय को खोल
कर रख दो, सहज,
जैसे हो। और
तब तुम्हारे
भीतर सहज मानव
पैदा होगा, जिसको बाउल
कहते हैं :
आधार—मानुष, सहज मनुष्य।
उस सहज की
तलाश हो रही
है। साधो, सहज
समाधि भली!
तुम
कुछ असहज करके
दिखाना चाहते
हो। तुम कुछ
ऐसा करके
दिखाना चाहते
हो जो किसी ने न
किया हो, ताकि
तुम ऊपर दिखाई
पड़ो, ताकि
तुम सबसे पृथक,
श्रेष्ठ
मालूम पड़ो।
तुम्हारे
तथाकथित
महात्माओं
में और
तुम्हारे
राजनीतिज्ञों
में बहुत फर्क
नहीं होता, क्योंकि
राजनीति का
मौलिक अर्थ
इतना ही होता है
कि दूसरों को
नीचे दिखाना
है; अपने
को ऊपर, दूसरे
को नीचे। जहां
ऐसी वृत्ति है
वहा राजनीति
है। और जहां
ऐसा भाव आ गया
कि हम सब एक ही
के हिस्से हैं
और एक ही
हममें
विराजमान, कौन
ऊपर कौन नीचे,
एक की ही
लीला है, बुरा
भी वही भला भी
वही, छोटा
भी वही बड़ा भी
वही, राम
भी वही रावण
भी वही—जिस
दिन ऐसा भाव आ
गया उस दिन
तुम धार्मिक
हो गये।
और
अंततः पूछा है, 'क्या
इससे 'संचित'
का संकेत
नहीं मिलता?'
इससे
सिर्फ इस बात
का संकेत
मिलता है कि
मैं तुमसे जो
कह रहा हूं
उसमें से तुम
कुछ भी न समझे।
कुछ और बात का
संकेत नहीं
मिलता। इससे
इतना ही संकेत
मिलता है कि
मैं यहां बीन
बजाये जाता
हूं तुम वहां
पगुराये जाते
हो। तुम समझ
नहीं पाते जो
मैं कह रहा
हूं। तुम अपनी
ही धुन गाये
जाते हो। मेरे
और तुम्हारे
प्रयोजन अलग—
अलग मालूम
होते हैं। तुम
कुछ विशिष्ट
होने आये हो, और
मेरी सारी
चेष्टा है कि
तुम्हें जमीन
पर ले आऊं, साधारण,
सहज।
तुम्हारी
आकांक्षा है
कि तुम अहंकार
में सजावटें
कर लो और मेरी
इच्छा है कि
तुम्हारा
अहंकार नग्न
दिगंबर छूट
जाये, जैसा
है वैसा है।
अगर मेरे पास
रहना है तो
मुझे समझ कर
रहो, अन्यथा
तुम मुझे भी
चूकोगे। और
तुम्हारे
जीवन में कुछ
सुलझाव आने की
बजाय उलझाव आ
जायेंगे।
क्योंकि
द्वंद्व खड़ा
हो जायेगा।
अगर तुम्हें
महामानव होना
है, तुम
कोई और
महात्मा खोजो
जो तुम्हें
शिक्षा देगा—शुभ
की अशुभ की, क्या करना
क्या नहीं
करना; अनुशासन
देगा, ब्रह्ममुहूर्त
में उठने से
लेकर रात सोने
तक तुम्हारे
जीवन को कैदी
का जीवन बना
देगा, सारी
व्यवस्था दे
देगा। तुम कोई
महात्मा खोजो।
मैं
साधारण आदमी
हूं और मैं
तुम्हें
साधारण ही बना
सकता हूं।
मेरे जीवन में
कुछ भी
विशिष्टता
नहीं है।
विशिष्टता का
आग्रह भी नहीं
है। मैं बस
तुम्हारे
जैसा हूं।
फर्क अगर कुछ
होगा तो इतना
ही है कि मुझे
इससे अन्यथा
होने की कोई
आकांक्षा
नहीं है। मैं
परम तृप्त हूं।
मैं राजी हूं।
मैं अहोभाग्य
से भरा हूं; जैसा
है सुंदर है, सत्य है। जो
भी हो रहा है, उससे इंच भर
भिन्न करने की
कोई आकांक्षा
नहीं है, कोई
योजना नहीं है।
मेरे पास
कर्ता का भाव
ही नहीं है।
देखता हूं। जो
दृश्य
परमात्मा
देता है, वही
देखता हूं।
अगर तुम भी
द्रष्टा होने
को राजी हो और
कर्ता का
पागलपन
तुम्हारा छूट
गया है, तो
ही मेरे पास
तुम्हारे
जीवन में कोई
सुगंध, कोई
अनुभूति का
प्रकाश फैलना
शुरू होगा।
अन्यथा तुम
मुझे न समझ
पाओगे। मैं तो
आलसी शिरोमणि
हूं; तुम्हें
भी वहीं ले
चलना चाहता
हूं जहां
कर्तापन न रह
जाये; जहां
प्रभु जो
कराये तुम करो,
जो बुलवाये
बोलो, जो न
करवाये न करो;
जहां तुम
बीच—बीच में
आओ ही न; जहां
तुम मार्ग से
बिलकुल हट जाओ।
मैं
बिलकुल मार्ग
से हट गया हूं
जो होता है होता
है। ऐसा ही
तुम्हारे
भीतर भी हो
जाये, ऐसे
आधार—मानुष को
पुकारा है
मैंने; ऐसे
सहज मनुष्य को
पुकार दी है।
संन्यास
यानी सहज होने
की प्रक्रिया।
और सहज होने
की प्रक्रिया
का आधार भाव
यही है कि मुक्त
तुम हो, इसलिए
कुछ और होना
नहीं है। अपनी
सहजता में डूब
गये कि मुक्त
हो गये।
इसलिए
मैं तो घोषणा
करता हूं
तुम्हारी
मुक्ति की।
अगर तुम्हारी
भी हिम्मत हो
तो स्वीकार कर
लो। साहस की
जरूरत है।
दूसरा
प्रश्न :
कोई
बीस वर्षों से
आप हम लोगों
से बोल रहे
हैं और आपके
अनेक वक्तव्य
एक—दूसरे का
खंडन करते हैं; लेकिन
आश्चर्य कि आज
तक आपने अपना
एक भी वक्तव्य
वापिस नहीं
लिया और न
किसी वक्तव्य
में कुछ
संशोधन करने
की जरूरत मानी।
और आपके समस्त
वक्तव्य अब
सार्वजनिक
संपत्ति बन गये
हैं। क्या आप
जान—बूझ कर
ऐसा कर रहे
हैं और इसके
पीछे क्या राज
है कोई? और
क्या यह खतरा
नहीं है कि
कालांतर में
लोग संदेह
करें कि ये
सारे वक्तव्य
एक ही
महापुरुष के
हैं?
मैं जो
भी बोलता हूं,
बोल दिया कि
मेरा संबंध
छूट गया उससे।
फिर मेरा क्या
रहा उसमें? जो बात
मैंने तुमसे
कह दी, तुम्हारी
हो गई। दूसरे
क्षण में जो
बात मैं
कहूंगा, वह
हो सकता है
पहली के
विपरीत दिखाई
पड़ती हो; लेकिन
अब पहली को
बदलने वाला
मैं कौन हूं? जिस क्षण
में पहली बात
उठी थी, वह
क्षण न रहा।
उस क्षण के न
रह जाने से अब
उसे वापिस
करने का भी
कोई उपाय नहीं
रह गया है।
इसलिए
मैं
पीछे लौट कर
देखता ही नहीं।
उस क्षण में
वही सत्य था
जो मैंने कहा।
वह उस क्षण का
सत्य था। और
संगति में
मेरी श्रद्धा
नहीं है। मेरी
श्रद्धा सत्य
में है। मैं
जो भी कहूं वह
एक—दूसरे से
संगत हो, ऐसा
मेरा कोई
आग्रह नहीं है।
क्योंकि अगर
एक—दूसरे से
मैं जो भी
कहूं वे सब
वक्तव्य संगत
होने चाहिए तो
मैं असत्य हो
जाऊंगा।
क्योंकि सत्य
स्वयं बहुत
विरोधाभासी
है। कभी सुबह
है, कभी
रात है। और
कभी धूप है और
कभी छाव है।
और कभी जीवन
है और कभी
मृत्यु है।
सत्य के मौसम
बदलते हैं।
सत्य बड़ा
विरोधाभासी है।
राम में भी है,
रावण में भी
है। शुभ में
भी है, अशुभ
में भी है।
सत्य के अनेक
रूप हैं। सत्य
अनेकांत है।
इसलिए
जो मैंने एक
क्षण में कहा
वह सत्य का एक पहलू
था;
दूसरे क्षण
में जो कहा वह
सत्य का दूसरा
पहलू होगा; तीसरे क्षण
में जो कहा वह
सत्य का तीसरा
पहलू होगा। वे
सभी सत्य के
पहलू हैं, लेकिन
सत्य विराट है।
शब्द में तो
छोटा—छोटा ही
पकड़ में आता
है, पूरा
तो कभी पकड़
में नहीं आता।
नहीं तो एक
बार कह कर बात
खतम कर देता।
पूरा नहीं आता
पकड़ में। पूरा
आ नहीं सकता।
शब्द बड़े
संकीर्ण हैं।
सत्य तो है
आकाश जैसा और
शब्द हैं छोटे
—छोटे अपान।
तो
जितना आयन में
समाता है उतना
उस बार कह दिया।
कल के आंगन
में कुछ और
समायेगा
परसों के आंगन
में कुछ और।
तो
मैं पीछे लौट
कर नहीं देखता।
और पीछे लौट
कर देखने का
अर्थ भी क्या
है?
न मैं आगे
की फिक्र करता,
न मैं पीछे
की फिक्र करता।
इस क्षण में
जो घटता है घट
जाने देता हूं।
फिक्र नहीं
करता, क्योंकि
मैं कोई कर्ता
नहीं हूं। मैं
अगर कहूं कि
दस साल पहले
जो मैंने कहा
था, अब मैं
वापिस लेता
हूं—तो उसका
तो अर्थ यह
हुआ कि उसका
कर्ता मैं था।
और अब मैं
अनुभव कर रहा
हूं कि उससे
झंझट आ रही है;
अब मैं जो
कह रहा हूं वह
उसके विपरोत
पडता है, इसलिए
साफ—सुथरा कर
लेना, उसे
वापिस ले लेना।
लेकिन जो दस
साल पहले कहा
गया था, किसी
संदर्भ में, किसी
परिस्थिति
में किसी
व्यक्ति की
मौजूदगी में,
किसी
चुनौती में, वह उस क्षण
का सत्य था।
उसे वापिस
लेने का मुझे
कोई
अधिकार नहीं।
उसे मैंने
बोला भी नहीं
था,
तो वापिस
लेने का मेरा
क्या अधिकार
है? मैं
उसका मालिक
नहीं हूं। जो
मुझसे बोला था
उस क्षण वही
मुझसे अब भी
बोल रहा है—इतना
मैं जानता हूं।
उस क्षण उसने
ऐसा बोलना
चाहा था, इस
क्षण ऐसा बोल
रहा है। अगर
इसमें किसी को
संगति बिठानी
हो तो परमात्मा,
वह फिक्र
करे। मैंने
अपने को
बांसुरी की
तरह छोड़ दिया
है।
अब
बांसुरी यह
थोड़े ही कहेगी
कि 'कल तुमने एक
गीत गाया और
आज तुम दूसरा
गाने लगे? हे
वेणु—वादक, रुको! यह
असंगति हुई
जाती है। कल
तुम कोई और
राग छेड़े थे, आज तुमने
कोई राग छेड़
दिया। नहीं—नहीं,
या तो जो कल
गाया था वही
गाओ, या
फिर आज जो तुम
गा रहे हो तो
कल के लिए
क्षमा मांग लो।’
बांसुरी
ऐसा कहेगी.
जिसने कल गाया
था, वही आज
भी गा रहा है।
कल उसने उस
राग को पसंद
किया था, आज
उसने कोई और
राग चुना है।
मैं
बीच में पड़ने
वाला कौन गुम
इसलिए मुझे
चिंता नहीं
सताती।
तुम्हारा
प्रश्न भी ठीक
है। कोई दूसरा
व्यक्ति इतने
वक्तव्य देता
तो या तो पागल
हो जाता.
क्योंकि अगर
इतना बोझ अपने
सिर पर रखता
तो विक्षिप्त
हो जाता। इन
सबके बीच कैसे
हिसाब बिठाता, कितने
गीत गाये गये?
मगर मैं तो
जो गीत इस
क्षण गाया जा
रहा है, उससे
ही संबंधित हूं।
उससे अन्यथा
का मुझे कुछ
हिसाब नहीं है।
संगति
बिठाने में
मेरी रुचि
नहीं है। और
तुम भी इस
फिक्र में मत
पड़ना।
तुम्हारी
तकलीफ मैं
समझता हूं।
तुम भी इस
फिक्र में मत
पड़ना। तुम भी
यह हिसाब मत
लगाना कि मेरे
सारे वक्तव्यों
में कुछ संगति
खोज लो। संगति
है,
लेकिन तुम
जिस दिन
बांसुरी
बनोगे उस दिन
पता चलेगी, उसके पहले
पता नहीं
चलेगी।
वक्तव्यों
में संगति
नहीं है; जो
ओंठ मेरी
बांसुरी पर
रखे हैं, वे
एक के ही ओंठ
हैं, उसमें
संगति है।
वक्तव्य अलग—
अलग, गीत
अलग—अलग, छंद
अलग—अलग; लेकिन
यह तो तुम्हें
उसी दिन पता
चलेगा जब तुम भी
बांस की पोगरी
हो जाओगे। तब
तुम अचानक देख
पाओगे. अरे, सब जो
विपरीत दिखाई
पड़ता था, संयुक्त
हो गया! वह जो
सब खंड—खंड
दिखाई पड़ता था,
अखंड हो गया।
वह जो सब
टुकड़े—टुकड़े
मालूम पड़ता था
और तालमेल
नहीं बैठता था,
वह किसी एक
विराट
व्यवस्था का
अंग था, उसमें
एक अनुशासन था।
वह तुम्हें
उसी दिन दिखाई
पड़ेगा जिस दिन
परमात्मा
बोलने लगेगा
तुम्हारे ओंठ
से और तुम्हारे
ओंठ से गाने
लगेगा, तुम
बांसुरी हो
जाओगे।
मैं
कोई दार्शनिक
नहीं हूं।
इसलिए किसी
वक्तव्य को न
तो कहने की
इच्छा है न
उसे वापिस
लेने की इच्छा
है। जो जिस
क्षण में हो जाये, मैं
राजी हूं।
तुम
मुझे एक कवि
समझो। तुम कवि
से आकांक्षा
नहीं करते कि
उसकी दो
कविताओं में
संगति हो। या
तुम मुझे एक
चित्रकार
समझो। तुम
चित्रकार से
आशा नहीं करते
कि उसके दो चित्रों
में एक संगति
हो। सच तो यह
है चित्रकार
से तुम्हारी
अपेक्षा होती
है कि उसका
दूसरा चित्र
बिलकुल अनूठा
हो,
पहले से
बिलकुल मेल न
खाये। अगर कोई
चित्रकार
अपने उन्हीं—उन्हीं
चित्रों को
दोहराये चला
जाये तो तुम कहोगे
यह चित्रकार
मुर्दा है।
ऐसा
पिकासो के
जीवन में
उल्लेख है, कोई
मित्र पिकासो
की एक पेंटिंग
खरीदा। कई लाख
रुपये में
खरीदी। वह
पिकासो के पास
लाया और उसने
कहा कि यह
पेंटिंग
मौलिक रूप से
तुम्हारी ही
है न, किसी
ने कोई नकल तो
नहीं की, कोई
धोखाधड़ी तो
नहीं है? इसके
पहले कि मैं
खरीदूं मैं
तुमसे पूछ
लेना चाहता
हूं।
पिकासो
ने पेंटिंग की
तरफ देखा और
कहा कि झंझट
में पड़ना मत, यह
सब नकल है, यह,
असली नहीं
है।
पिकासो
की प्रेयसी
पास बैठी थी, वह
बड़ी चौंकी।
उसने कहा. 'रुको!
तुम होश में
हो?' पिकासो
से कहा. 'यह
चित्र तुमने
मेरी आंखों के
सामने बनाया,
मुझे भली—
भांति याद है,
यह चित्र
तुम्हारा ही
बनाया हुआ है।’
पिकासो
ने कहा : 'मैंने
कब कहा कि मैंने
नहीं बनाया, लेकिन यह
नकल है।’
अब
और उलझन हो गई।
पत्नी ने कहा. 'तुमने
ही बनाया और
नकल! तुम कह
क्या रहे हो?' पिकासो ने
कहा. 'मैं
इसलिए कह रहा
हूं कि मैं
ऐसा चित्र
पहले भी बना
चुका, फिर
यह दुबारा
बनाया। यह
दुबारा मैंने
बनाया कि किसी
और ने बनाया, क्या फर्क पड़ता
है? यह
मौलिक नहीं है।
यह पुनरुक्ति
है। मेरे हाथ
से ही हुई
पुनरुक्ति, लेकिन यह
मौलिक नहीं है।
ऐसा चित्र मैं
पहले बना चुका
हूं। यह फिर
पुनरुक्ति है।
पुनरुक्ति तो
मौलिक नहीं
होती।’
तो
हम पिकासो से
आशा करते हैं
कि वह जो हर
चित्र बनाये, वह
ऐसा अनूठा हो
कि पुराने
चित्रों से
भिन्न हो। कवि
से हम आशा
करते हैं, एक
ही गीत न गाये
चला जाये।
मेरे
गांव में एक
कवि हैं। एक
ही कविता
उन्होंने
लिखी है, वह भी
पता नहीं
चुराई या क्या
किया।
क्योंकि जो एक
ही लिखता है, वह संदिग्ध
है। अगर कवि
थे तो कभी तो
दूसरी लिखते।
एक ही कविता
जानते हैं वे : 'हे युवक!' बस
कुछ युवक के
संबंध में एक
कविता है। और
उनसे पूरा गांव
परेशान है।
क्योंकि ऐसा
हो ही नहीं
सकता कि वे
कवि—सम्मेलन
में उपस्थित न
हो जायें और
उनको वह 'हे
युवक' कविता
सुननी ही
पड़ेगी।
गांव
की यह परेशानी
जब मैं छोटा
था तभी मुझे समझ
में आ गई। तो
कोई भी कवि—सम्मेलन
हो,
मैं उनके घर
जा कर खबर कर
आता कि कवि—सम्मेलन
हो रहा है और
आपको बुलाया
है। ऐसा बार—बार
जब मैंने किया,
कहीं भी कवि—सम्मेलन
हो, कुछ भी
हो, मैं
उनको बुला आता।
और कभी—कभी तो
ऐसी जगह भी कि
जहां कोई कवि—सम्मेलन
नहीं, कोई
सभा हो रही, कुछ हो रही, मैं उनको
निमंत्रण कर
आता कि आप
आइये और लोगों
को बड़ी कविता
की इच्छा है।
एक दिन मुझसे
कहने लगे कि
तुम मालूम
होते हो, मेरे
बड़े प्रेमी हो,
तुम्हीं
आते हो हमेशा!
और ऐसी सभाओं
में उनकी कविता
पढ्वा देता
जहां कि लोग
सिर ठोंक लेते,
क्योंकि वे
आये नहीं थे
यह सुनने।
मैं
पहले उनको
निमंत्रण दे
आता,
फिर मंच के
पास—छोटा गांव—मंच
के पास खड़ा हो
जाता। जैसे ही
वे आते, मैं
उनसे कहता : 'वकील साहिब,
आइये— आइये!'
मंच पर चढ़ा
देता। अब कोई
गांव में कह
भी नहीं सकता।
वे थे वकील, तो कोई झगड़ा—झांसा
भी नहीं कर
सकता। उनको मंच
पर चढ़ा कर
बिठा देता।
फिर भीड़ में
जा कर वहां से
चिट लिख कर
भेजने लगता कि
एक कविता होनी
चाहिए, वकील
साहिब की एक
कविता होनी
चाहिए। सारा
गांव जानता कि
मेरे अलावा उस
कविता को कोई
नहीं सुनना
चाहता है। अगर
सभापति मेरी
चिटों पर कोई
ध्यान न देते
तो मैं बीच
में खड़ा हो
जाता कि जनता
वकील साहिब की
कविता सुनना
चाहती है। अब
जनता यह कह भी
नहीं सकती कि
कोई नहीं सुनना
चाहता, क्योंकि
वकील साहिब, झगड़ा—झंझट
की बात है। और
जनता चिट लिख—लिख
कर भेज रही है।
सभापति को
मजबूरन कहना
पड़ता कि वकील
साहिब, आपकी
कविता
सुनाइये। वे 'हे युवक'...... वह शुरू कर
देते।
जब
ऐसा बहुत बार
हुआ तो एक दिन
मुझसे वे बोले
कि मामला क्या
है,
तुम्हीं
क्यों आते हो?
सब कवि—सम्मेलन,
सब सभायें,
धर्म की सभा
कि राजनीति की,
कुछ भी हो, तुम क्या
सभी के संयोजक
हो?
मैंने
कहा : नहीं, वे
संयोजक तो सब
अलग—अलग हैं, लेकिन वे
जानते हैं कि
मैं आपका भक्त
हूं तो मुझे
भेज देते हैं।
धीरे— धीरे तो
उनको शक होने
लगा कि मैं.
.क्योंकि कोई उनकी
कविता सुनना न
चाहे, वह
समझ में भी
आये उन्हें कि
कोई सुनना
नहीं चाहता, सब लोग ऐसे
उदास हो कर
बैठ जायें, इधर—उधर
देखने लगें कि
फिर आ गये ये।
नौबत यहां तक
पहुंची कि
मुझे जो
अध्यक्ष इत्यादि
सभाओं के होते
वे मुझे पहले
बुला कर कहते कि
भाई, वकील
साहिब को न
बुला आना। हम
तुम्हें
मिठाई
खिलायेंगे, अगर वकील
साहिब को न
लाये।
अब
एक ही कविता, वह
जरूर
उन्होंने
चुराई होगी।
कवि
से हम आशा
करते हैं कि
वह नई
कवितायें कहे, चित्रकार
से कि नये
चित्र बनाये;
मूर्तिकार
से कि नई
मूर्तियां
गढ़े।
दार्शनिक से
हम आशा करते
हैं कि उसने
जो कहा है, बस
उसी को —कहता
रहे।
नहीं, मैं
कोई दार्शनिक
नहीं हूं। मैं
कोई पंडित
नहीं हूं।
मेरे वक्तव्य
तुम कविताओं
की तरह लेना।
जिसको मैंने
बाधना चाहा है,
वह तो एक है;
लेकिन उसे
बहुत—बहुत अलग—
अलग दिशाओं से
बांधना चाहा
है। जो मैं
प्रगट करना
चाहता हूं वह
तो एक है; लेकिन
बहुत—बहुत अलग—अलग
रंगों में
मैंने वे
चित्र बनाये
हैं। तुम समझ
पाओगे यह बात
तभी, जब
तुम भी ऐसे
खाली हो जाओगे
जैसा खाली मैं
हूं।
तो
मैं तुमसे यह
कहना चाहता
हूं कि मैंने
अब तक कोई ऐसा
वक्तव्य नहीं
दिया है जिसको
मैं समझता हूं
कि
विरोधाभासी
है। भिन्न—भिन्न
वक्तव्य दिए
हैं,
अलग— अलग
बातें कही हैं,
अलग— अलग
ढंग से गीत को
बांधा है; लेकिन
जो मैंने कहा
है, वह एक
ही है। बहुत
अलग—अलग
माध्यमों में
बांधा है।
एक
गीत को हम
कविता की तरह
कागज पर लिख
सकते हैं और
उसी गीत को हम
संगीत की तरह
वीणा पर बजा
सकते हैं। अब
कागज पर लिखी
कविता में और
वीणा के बजते—हिलते
तारों में कोई
भी संगति नहीं
है। उसी कविता
को हम चित्र
की तरह
चित्रित भी कर
सकते हैं।
तुमने देखा
होगा, रागिनियों
के चित्र देखे
होंगे। हर
रागिनी का
चित्र भी
बनाया जा सकता
है। क्योंकि
हर राग का रंग
भी है।’राग'
शब्द का
अर्थ ही रंग
होता है। राग
का अर्थ ही
होता है रंग।
हर राग का रंग
है।
तो
अगर मैं शांति
की कोई कविता
कहूं तो शांति
की वीणा पर
धुन भी बजाई
जा सकती है कि
उस धुन को सुन
कर शांत भाव
पैदा होने लगे।
और शांत चित्र
भी बनाया जा
सकता है नीले—हरे
रंगों में, कि
चित्र को देख
कर शांति पैदा
होने लगे। और शांति
की प्रतिमा भी
बनाई जा सकती
है—बुद्ध की
प्रतिमा कि
उसे तुम गौर
से देखते रहो
तो तुम्हारे भीतर
अशांति खोने
लगे। ये अलग—
अलग माध्यम हैं।
लेकिन जो मैं
कहना चाहता
हूं वह तो एक
ही है।
इसलिए
मुझे तो कोई
विरोधाभास
दिखाई भी नहीं
पड़ा कि
पश्चात्ताप
करूं, कि
वापिस ले लूं।
ही, तुम्हारी
तकलीफ मैं
समझता हूं। तुम्हें
बहुत बार लगता
होगा कि कभी
मैं कुछ कह
देता हूं,
कभी कुछ कह
देता हूं।
क्योंकि तुम
इतने
विस्तीर्ण
सत्य को लेने
को तैयार नहीं
हो। तुम बहुत
संकीर्ण सत्य
को लेने को
तैयार हो। जब
मैं कहता हूं
भक्ति से
भगवान मिल
जायेगा, तो
जो भक्त है वह
कहता है ठीक।
और जब मैं
ज्ञान पर बोल
रहा होता हूं
तो मैं कहता
हूं भक्ति से
कैसे भगवान
मिलेगा? वह
भक्त घबड़ाया,
उसने कहा. 'मामला गड़बड़
हो गया! हम तो
कल राजी हो
गये थे, हम
तो बिलकुल
तैयार हो गये
थे कि अब
संन्यास ले
लें इस आदमी
से, यह
अपनी ही बात
कह रहा है और
आज ये कह रहे
हैं कि भक्ति
से कैसे भगवान
मिलेगा?' क्योंकि
भक्त जब तक है
तब तक कैसे
भगवान मिलेगा?
जब तक मैं
है तब तक तो तू
बना रहेगा। और
जब तक तू है तब
तक मैं भी बना
रहेगा।
साक्षी से
मिलेगा, भक्ति
से नहीं।
भक्ति में तो
राग है।
तो
तुम घबड़ाये।
लेकिन जो
साक्षी को
मानने वाला था, वह
चौंक कर बैठ
गया। उसने कहा
अब बात ठीक
हुई; यह
आदमी अब तक
गलत—सलत बोल
रहा था, लेकिन
आज पते की कही।
लेकिन मैं एक
ही बात कह रहा
हूं। ये अलग—अलग
माध्यम हैं।
ये अलग—अलग
मार्ग हैं। इन
सबसे उसी एक
शिखर पर हम
पहुंच जाते
हैं।
और
मैंने ऐसा
चुना है कि
मैं सभी
मार्गों की
तुमसे बात
करूंगा। ऐसा
पहली दफा हो
रहा है। बुद्ध
ने एक मार्ग
की बात कही, महावीर
ने एक मार्ग
की बात कही, नारद ने एक
मार्ग की, अष्टावक्र
ने एक मार्ग
की। इसका
दुष्परिणाम
हुआ। इसका
दुष्परिणाम
यह हुआ कि
जिसने
अष्टावक्र को
माना वह नारद
के विपरीत हो
गया, जिसने
नारद को माना
वह बुद्ध के
विपरीत हो गया;
जिसने
बुद्ध को माना
वह महावीर के
विपरीत हो गया।
और मेरा जानना
है कि ये कोई
भी विपरीत
नहीं हैं; ये
सब एक ही तरफ
इशारा कर रहे
हैं।
अंगुलियां
अलग—अलग; जिस
चांद की तरफ
इशारा है, वह
चांद एक है।
तुम चांद को
देखो, अंगुली
को पकड़ कर मत
बैठ जाओ। इस
सत्य को उजागर
करने के लिए
मैंने तय किया
कि मैं सब पर
बोलूंगा। और
जब मैं एक पर
बोलता हूं तो
मैं सब भूल
जाता हूं जो
मैं पहले बोला;
तभी तो इस
पर बोल सकता हूं, नहीं तो बोल
न पाऊंगा। तब
न्याय न हो
सकेगा।
अगर, समझो
कि अष्टावक्र
पर बोलते वक्त
मैं जरा भीतर
नारद का राग
भी रखूं कि
कहीं ऐसा न हो,
नारद गलत न
हो जायें, तो
फिर लीपा—पोती
हो जायेगी।
फिर
अष्टावक्र पर
मैं पूरे रूप
से न बोल सकूंगा।
जब अष्टावक्र
पर बोलता हूं
तो नानक समझें
अपनी, नारद
समझें अपनी, कबीर—मीरा
अपनी फिक्र कर
लें; मैं
फिक्र नहीं
करता। फिर
मेरी फिक्र एक
ही है कि
अष्टावक्र के
साथ प्रामाणिक
रूप से उनकी
बात पूरी की
पूरी तुम तक
पहुंचा दूं।
फिर मैं
अष्टावक्र के
साथ पूरा लीन
हो जाता हूं।
फिर मैं नहीं
बोलता, फिर
मैं
अष्टावक्र को
बोलने देता
हूं। इसलिए
तुम्हें
विरोधाभास
दिखाई पड़ते
हैं। मगर तुम
कहीं से भी चल
पड़ो, तुम
किसी भी मार्ग
को पकड़ लो।
जिस दिन
पहुंचोगे उस
दिन जानोगे
कोई विरोधाभास
नहीं है।
'कोई बीस
वर्षों से आप
हम लोगों से
बोल रहे हैं।
आपके अनेक
वक्तव्य एक—दूसरे
का खंडन करते
हैं।’
इसलिए
भी मेरा रस है
इस बात में कि
हर वक्तव्य का
खंडन हो जाये, ताकि
तुम वक्तव्य
से बंधे न रह
जाओ। मैं
अवक्तव्य की
तरफ तुम्हें
ले चल रहा हूं
अनिर्वचनीय
की तरफ ले चल
रहा हूं। मेरा
वक्तव्य
तुम्हारी
छाती पर पत्थर
बन कर न बैठ
जाये। इसके
पहले कि तुम
पकड़ो, मैं
उसे तोड़ भी
देता हूं। मैं
तुम्हें
मुक्त करना
चाहता हूं
बांधना नहीं।
तुम मेरे
वक्तव्यों
में न बंध जाओ।
तुम बंध भी न
सकोगे। मैं
मौका ही नहीं
देता। तुम तो
कई दफा तैयारी
कर लेते हो।
तुम तो बिलकुल
बैठ जाते हो
कि ठीक है आ
गया घर। अब
अपना सम्हाल
लें, अब
कहीं जाना—
आना नहीं, यह
हो गई बात
पक्की। लेकिन
इसके पहले कि
तुम सम्हलो, मैं छीनना
शुरू कर देता
हूं। एक हाथ
से देता हूं
दूसरे से छीन
लेता हूं।
क्योंकि मैं
चाहता हूं कि
तुम एक ऐसी
दशा में आ जाओ
जहॉ कोई
वक्तव्य
तुम्हारे ऊपर
न हो।
अवक्तव्य, अनिर्वचनीय,
शून्य रह
जाये। मेरे
वक्तव्य सत्य
के मार्ग में
बाधा न बनें, क्योंकि सभी
वक्तव्य बाधा
बन जाते हैं।
वक्तव्य को
पकड़ा कि तुम
सांप्रदायिक
हो गये।
इसी
तरह तो
मुसलमान
मुसलमान है, उसने
कुरान का
वक्तव्य पकड़
लिया। बौद्ध
बौद्ध है; उसने
बुद्ध का
वक्तव्य पकड़
लिया। जैन जैन
है, उसने
महावीर का
वक्तव्य पकड़
लिया। मैं
तुम्हारे लिए
कोई वक्तव्य नहीं
छोड़ जाना
चाहता। मैं
तुम्हें
अवक्तव्य, अनिर्वचनीय
दशा में छोड़
जाना चाहता
हूं। सब
कहूंगा और सब
छीन लूंगा।
इधर एक हाथ से
दूंगा, दूसरे
हाथ से अलग कर
लूंगा। कभी तो
तुम समझोगे कि
यह खाली दशा, जब तुम्हारे
हाथ में कुछ
भी नहीं होता,
यही सत्य की
दशा है। जब
पकड़ने को कुछ
भी नहीं होता
तभी तुम मुक्त
हो। जहां
तुमने कुछ
पकड़ा कि तुम
पकड़े गये।
पकड़ने वाला
पकड़ा जाता है।
जिसे तुम
पकड़ते हो वह
तुम्हें पकड़
लेता है।
वक्तव्य
को पकड़ने वाला
सांप्रदायिक
हो जाता है।
अवक्तव्य में
जीने वाला
धार्मिक है।
फिर अवक्तव्य
में जीने वाला
सब वक्तव्यों
को समझ लेता
है,
तो भी किसी
वक्तव्य से
ग्रसित नहीं
होता, परिभाषित
नहीं होता।
'आपके अनेक
वक्तव्य एक—दूसरे
का खंडन करते
हैं। लेकिन
आश्चर्य कि आज
तक आपने अपना
एक भी वक्तव्य
वापिस नहीं
लिया है।’
लेने
की कोई जरूरत
नहीं है। अगर
किसी वक्तव्य
को मैं वापिस
लूं तो उसका
अर्थ यह होगा
कि किसी
वक्तव्य के पक्ष
में वापिस ले
रहा हूं। कल
कोई बात कही
थी,
उसे वापिस
लेता हूं; क्योंकि
आज कुछ कहना
चाहता हूं और
चाहता हूं कि
कल की बात
बाधा न बने; आज की बात
तुम्हें पूरी
तरह पकड़ ले, इसलिए कल की
बात वापिस
लेना चाहता
हूं। नहीं, वापिस तो
मैं सभी लेना
चाहता हूं
इसलिए कोई भी
वापिस न लूंगा।
जाल तो मैं
पूरा वापिस
समेट लेना
चाहता हूं लेकिन
मेरे समेटने
से न होगा, तुम्हारे
समझने से होगा।
मैं ऐसा ही
खंडन करता
जाऊंगा।
तुमने
महावीर का
स्यादवाद
समझा? महावीर
से कोई पूछता,
ईश्वर है, तो महावीर सात
वक्तव्य देते।
ईश्वर है? तो
महावीर कहते.
हा है, 'स्वाद
अस्ति'। और
इसके पहले कि
वह आदमी पकड़
ले, महावीर
कहते हैं.
शायद नहीं है,
'स्वाद
नास्ति'।
और उसके पहले
कि वह आदमी इस
वक्तव्य को
पकड़ ले, महावीर
कहते हैं कि
शायद दोनों है
'अस्ति, नास्ति'।
और इसके पहले
कि वह आदमी इस
वक्तव्य को
पकड़ ले, महावीर
कहते हैं.
शायद दोनों
नहीं है। ऐसा
महावीर चलते
जाते। छ:
वक्तव्य देते
हैं। और इसके
पहले कि आदमी
इनमें से कोई
भी वक्तव्य
पकड़ ले, महावीर
कहते हैं :
अवक्तव्य,
कहा
नहीं जा सकता।
वह सातवां है।
सब
वक्तव्यों के
बाद याद रखना, मैं
तुमसे कहना
चाहता हूं.
अवक्तव्य। जो
मैं कहना
चाहता हूं वह
कहा नहीं जा
सकता। कहने की
कोशिश कर रहा
हूं क्योंकि
तुम अनकहे को
अभी समझ न
सकोगे। इसलिए
कभी कहता हूं
ईश्वर है, यह
भी एक वक्तव्य
है—ईश्वर के
संबंध में।
कभी कहता हूं
ईश्वर नहीं है,
यह भी एक
वक्तव्य है—ईश्वर
के संबंध में।
पहले वक्तव्य
में 'ही' के द्वारा
ईश्वर को
समझाया गया, दूसरे
वक्तव्य में 'नहीं' के
द्वारा
समझाया गया।
पहले वक्तव्य
में दिन के
द्वारा, दूसरे
वक्तव्य में
रात के द्वारा।
पहले वक्तव्य
में भाव के
द्वारा, दूसरे
वक्तव्य में
अभाव के
द्वारा। पहले
वक्तव्य में
आस्तिकता के
सहारे, दूसरे
वक्तव्य में
नास्तिकता के
सहारे।
अब
तुम बड़े हैरान
होओगे कि
नास्तिक का
वक्तव्य भी
ईश्वर के
संबंध में है।
और ईश्वर में
दोनों मिले
हैं 'है' भी और 'नहीं' भी।
तभी तो चीजें
होती हैं और 'नहीं' हो
जाती हैं।
तुम
देखते हो, एक
वृक्ष है; कल
नहीं था, फिर
बीज फूटा, फिर
वृक्ष हो गया,
आज है, कल
फिर नहीं हो
जायेगा। अगर
परमात्मा का
स्वभाव सिर्फ 'है' ही हो
तो वृक्ष 'नहीं'
कैसे होगा?
परमात्मा
के स्वभाव में
दोनों बात
होनी चाहिए।
वृक्ष का होना
भी परमात्मा
को राजी है, वृक्ष का न
होना भी राजी
है। जब वृक्ष 'नहीं' हो
जाता तब भी
परमात्मा को
कोई बाधा नहीं
पड़ती; वृक्ष
हो जाता है तो
भी बाधा नहीं
पड़ती। तो
परमात्मा में 'ही' भी है,
'नहीं' भी
है। अभाव भी, भाव भी। यह
जरा कठिन है।
आस्तिक का
वक्तव्य
सरलतम है। वह
कहता है 'है'। नास्तिक
का वक्तव्य
थोड़ा कठिन है
लेकिन बहुत
कठिन नहीं। वह
कहता 'नहीं'
है। लेकिन
खयाल करते हैं,
दोनों
वक्तव्यों
में 'है' तो है ही।
कोई कहता है
परमात्मा 'है';
कोई कहता है
परमात्मा 'नहीं
है'! पर 'है'
तो दोनों
में ही मौजूद
है। है —पन तो
है ही। महावीर
फिर तीसरा
वक्तव्य
बनाते हैं कि
दोनों है; अलग—अलग
मत कहो; अलग—
अलग कहने में
बात अधूरी रह
जाती है, पूरा
कह दो। ऐसा
बढ़ते जाते हैं
और अंत में
असली बात कहते
हैं कि
अवक्तव्य है,
कहा नहीं जा
सकता।
ये
सब कहने के
उपाय हुए। इस
बहाने कहना
चाहा। लेकिन
जो भी कहा वह
छोटा—छोटा रहा; जिसे
कहा जाना था
वह बहुत बड़ा
है, समाया
नहीं, अटा
नहीं, कह
नहीं पाये। तो
आखिर में असली
बात कहे देते
हैं कि मौन से
ही उसे कहा जा
सकता है।
'आश्चर्य कि
आपने आज तक
अपना एक भी
वक्तव्य वापिस
नहीं लिया है।’
सभी
वक्तव्य उसी
एक की तरफ
इशारे हैं।
'और न किसी
वक्तव्य में
कोई संशोधन
करने की जरूरत
समझी।’
संशोधन
का तो मतलब
होता है
अहंकार।
ऐसा
हुआ कि गुजरात
के एक पुराने
गांधीवादी आनंद
स्वामी एक रात
मेरे साथ रुके।
बैठ कर गपशप
होती थी। तो
उन्होंने
मुझसे कहा कि
मैं गांधी जी
का पुराना से
पुराना
रिपोर्टर हूं।
जब गांधी जी
अफ्रीका से
भारत आये, तो
जो वक्तव्य
उन्होंने
पहला दिया था
उसकी रिपोर्ट
अखबारों में
मैंने ही दी
थी। लेकिन उस
वक्तव्य में
गांधी जी ने
कुछ अपशब्द
उपयोग किए थे,
अंग्रेजों
के प्रति कुछ
गालियां
उपयोग की थीं,
वे मैंने
छोड़ दी थीं।
और जब दूसरे
दिन गांधी जी
ने रिपोर्ट
पढ़ी अखबारों
में तो
उन्होंने पता
लगवाया कि यह
रिपोर्ट
किसने दी है।
मुझे बुलवाया,
मुझे गले
लगा लिया और
कहा :
रिपोर्टर ऐसा
होना चाहिए!
तुमने
गालियां छोड़
दीं, यह
अच्छा किया।
क्योंकि दे कर
तो पीछे मैं
भी पछताया।
अपशब्द बोले
नहीं जाने
चाहिए। ऐसा ही
करना। यह सही—सही
रिपोर्टिंग
है। और उन्होंने
मेरी पीठ
थपथपाई, ऐसा
स्वामी आनंद
ने मुझसे कहा।
मैंने
कहा कि आप एक
काम और किए
कभी कि गांधी
जी गाली न दें
और आप एकाध
रिपोर्ट में
गाली जोड़ देते, फिर
देखते क्या
होता है! वे
कहते, क्या
मतलब? मैंने
कहा, पहली
रिपोर्ट भी हो
तो गई गलत, हो
तो गई झूठ, जो
कहा था वह
आपने छोड़ दिया;
जो कहा था
वह कहा गया था।
और गांधी जी
ने पीठ थपथपाई,
इसका तो
मतलब यह हुआ
कि गांधी जी
पीछे पछताये जो
कहा था। तो जो
कहा था, बेहोशी
में कहा होगा।
अगर होश में
कहा था तो
पछताने का
क्या सवाल है?
बेहोशी में
कहा होगा। फिर
जब होश आया, पीछे से लौट
कर जब देखा, तो लगा कि यह
तो मेरे
अहंकार को चोट
लगेगी, यह
मेरे
महात्मापन का
क्या होगा!
लोग कहेंगे, गाली दे दी!
तो डरे होंगे
कि कहीं अखबार
में रिपोर्ट न
निकल जाये, नहीं तो वह
इतिहास की
संपत्ति हो
जायेगी। तो
तुम्हें
बुलाया।
तुम्हारी पीठ
थपथपाई।
तुमने उनके अहंकार
को बचाया, उन्होंने
तुम्हारे
अहंकार को
बचाया। तुम
इससे बड़े खुश
हुए। यह झूठ, और गांधी
कहते हैं कि
सत्य पर मेरा
आग्रह है और
सत्याग्रह को
मानते हैं। और
सत्य, कहते
हैं, सबसे
ऊपर है। मगर
यह तो सत्य न
हुआ। और अगर
यह सत्य है तो
फिर गांधी जी
एक दिन गाली न
दें, तुम
उसमें गाली
जोड़ देना, फिर
वह क्यों
असत्य होगा? वह भी सत्य
है। गाली हटाओ
कि जोड़ो, बराबर।
मैंने
कहा : अगर मैं
होता तो तुमसे
कहता तुम्हें
रिपोर्टिंग
आती नहीं है, यह
धंधा तुम छोड़ो,
तुमने झूठ
किया। हालाकि
झूठ गांधी जी
के अहंकार के
समर्थन में था,
इसलिए वे राजी
हो गये। अगर
असमर्थन में
होता तो? तो
गांधी जी
वक्तव्य देते
अखबारों में
कि यह रिपोर्ट
झूठी है। झूठी
तो यह थी ही, पर उन्होंने
कोई वक्तव्य
अखबारों में
तो दिया ही
नहीं कि मैंने
गालियां दी
थीं, उनका
क्या हुआ? उल्टे
तुम्हारी पीठ
थपथपाई। यह तो
बड़ा लेन—देन
हो गया, यह
तो पारस्परिक
हिसाब हो गया।
तुमने उन्हें
बचाया, उन्होंने
तुम्हें
बचाया। और अगर
वे तुम्हें
कहें कि तुम
बड़े से बड़े
रिपोर्टर हो,
तो आश्चर्य
क्या? महात्मापन
पर थोड़ी चोट
लगती, वह
तुमने बचा ली।
और तुमने
सदियों के लिए
धोखा दिया, क्योंकि अब
कोई निश्चित
रूप से कह
सकेगा कि
गांधी ने कभी
गाली नहीं दी,
जो कि झूठ
होगी बात। और
गांधी की
कथाओं में
लिखा जायेगा,
उन्होंने
कभी गाली नहीं
दी। और
उन्होंने
गाली दी थी, मैंने कहा, अभी तुम लिख
जाओ इसको कम—से—कम।
वे
मुझसे इतने
नाराज हो गये, क्योंकि
वे सोचते थे
कि मैं भी
उनकी पीठ थपथपाऊंगा।
मैंने कहा, यह तो तुमने
बेईमानी की।
फिर मुझे कभी
नहीं मिले।
मैंने
जो कहा, कहा
है। बदलना
क्या है? कहते
वक्त होश से
कहा है।
बदलेगा कौन? जितने होश
से कहा है, उससे
ज्यादा होश से
कहा ही नहीं
जा सकता है, इसलिए बदलने
का कोई सवाल
नहीं है। जो
हुआ, हुआ।
अब उससे मेरी
बदनामी हो कि
नाम हो, उससे
मैं महात्मा
समझा जाऊं कि
दुरात्मा समझा
जाऊं, ये
बातें गौण हैं।
जो कहा गया, वह कहा गया।
क्या तुम
समझोगे, तुम्हारे
ऊपर है। इसलिए
कभी किसी बात
में संशोधन
करने की मैंने
जरूरत नहीं
मानी। संशोधन
का कोई अर्थ
ही नहीं है।
'क्या आप
जानबूझ कर ऐसा
करते हैं और
इसके पीछे क्या
कोई राज है?'
नहीं, जानबूझ
कर नहीं करता
हूं; ऐसा
हो रहा है, ऐसा
होते देखता
हूं। और यही
सहज मालूम
होता है।
इसमें कोई
असहजता नहीं
है। पीछे से
क्या लीपा—पोती
करनी? जो
क्षण जैसा था
वैसा था। उस
क्षण के संबंध
में मेरा
वक्तव्य
गवाही रहेगा।
मेरा कोई
वक्तव्य मेरे
संबंध में झूठ
नहीं कहेगा।
ही, तुम्हारी
तकलीफ मैं
समझता हूं कि
तुम्हें अड़चन
होती है समझने
में, लेकिन
यह तुम्हारी
समस्या है, मेरी नहीं।
यह उलझन
तुम्हारी है,
इसमें तुम
कुछ रास्ता
निकालो।
तुम्हारी
उलझन को बचाने
के लिए मैं सच
को झूठ करूं, झूठ को सच
करूं, यह
मुझसे न हो
सकेगा।
'और क्या यह
खतरा नहीं है
कि कालांतर
में लोग संदेह
करें कि सारे
वक्तव्य एक ही
महापुरुष के हैं?
हर्जा
क्या है? अगर
लोग ऐसे ही
समझेंगे कि
बहुत—से लोगों
की ये बातें
हो सकती हैं, एक की नहीं
हो सकतीं, तो
हर्जा क्या है?
यह लोग
जानें। और
पीछे का हम
क्या हिसाब
रखें आज से कि
कल लोग क्या
सोचेंगे!
भविष्य को हम
अज्ञात ही
रहने दें।
मैं
जानता हूं कि
मेरे वक्तव्य
अड़चन देंगे।
कोई व्यक्ति
जो मेरे
वक्तव्यों के
आधार पर पी एच
डी. लेना
चाहेगा, इतनी
आसानी से न ले
पायेगा। लाख
सिर मारेगा तो
भी उसकी सूझ—बूझ
में न पड़ेगा।
यह कोई नहर
नहीं है जो
मैंने तुमसे
कही; यह
उद्दाम वेग
में बाढ़ में
आई हुई नदी है,
इसको तुम पी
एच डी. के
हिसाब से न
बांध सकोगे।
लेकिन पी एच.
डी मिले किसी
को, न मिले ,.
इसकी
परेशानी मैं
क्यों लूं?'
एक
जगह आधुनिक
कला की
प्रदर्शनी हो
रही थी। अब
आधुनिक कला तो
आप जानते हैं, कुछ
भी समझ में
नहीं आता।
कहते
हैं एक बार
पिकासो का
चित्र उल्टा
टांग दिया
किसी ने
प्रदर्शनी
में,
तो वह उल्टा
ही टंगा रहा
और लोग उसकी
प्रशंसा करते
रहे और
आलोचकों ने
उसकी प्रशंसा
में लेख लिख
मारे। और जब
पिकासो
पहुंचा उसने
कहा किसने यह
बदतमीजी की, मेरा चित्र
उल्टा लटका
हुआ है!
मगर
उल्टा—सीधे का
पता लगाना
मुश्किल है।
एक
बार पिकासो के
पास एक आदमी
आया,
वह दो
पेंटिंग
खरीदना चाहता
था और एक ही
तैयार थी। वह
अरबपति आदमी
था। उसने कहा,
जो पैसे
चाहिए, लेकिन
अभी इसी वक्त.....।
पिकासो भीतर
गया, उसने
कैंची से
पेंटिंग के दो
टुकड़े कर दिए,
दो पेंटिंग
हो गईं। अब
पिकासो की
पेंटिंग ऐसी
है कि तुम चार
टुकड़े भी कर
दो तो भी पता
नहीं चलेगा कि
बीच से काटी कि
क्या हुआ। एक
बार तो कहते
हैं एक आदमी
ने अपना
पोट्रेंट बनवाया।
पिकासो ने
बनाया। कई
हजार डालर
मांगे। उस
आदमी ने कहा, और सब तो ठीक
है, लेकिन
मेरी नाक ठीक
नहीं। पिकासो
ने कहा, अच्छा
ठीक है, झंझट
तो बहुत होगी,
लेकिन हम
ठीक कर देंगे।
जब वह आदमी
चला गया तो
पिकासो बड़ा
उदास बैठा है।
उसकी प्रेयसी
ने पूछा, इतने
उदास क्यों हो?
उसने कहा कि
मुझे ही पता
नहीं कि नाक
बनाई कहां है!
अब कहा ठीक कर
दो!
यह
आधुनिक कला तो
ऐसी है। तो
आध्रनिक
चित्रों की एक
प्रदर्शनी
होती थी। लोग
बड़े हैरान हुए, क्योंकि
प्रदर्शनी
में जो
पुरस्कार
बांटने के लिए
न्यायाधीश
नियुक्त किया
था, एक
ज्योतिषी......। लोगों
ने पूछा.
ज्योतिषी
महाराज को कला
का क्या पता? इनको हमने
भूत—प्रेत
उतारते भी
देखा, हाथ,
कुंडली
पढ़ते भी देखा,
ज्योतिषशास्त्र
भी, मगर
कला का इनको
कुछ पता है, यह तो हमें
पता ही नहीं
था। आज तक ये कहां
छिपे रहे?
तो
संयोजकों ने
कहा,
इन्हें कला
का कुछ पता भी
नहीं है, लेकिन
यह कला ऐसी है
कि इसमें पता
होने का सवाल कहां
है? और सच
तो यह है कि यह
कला ऐसी उलझन—
भरी है कि
सिर्फ
ज्योतिषी ही
पता लगा सकता
है कि इसमें
कौन—सा ठीक है,
कौन—सा गलत
है।
मैं
जो कह रहा हूं
जब इकट्ठा तुम
उसे फैलाओगे तो
बहुत कठिन हो
जायेगा, यह सच
है। उसमें पता
लगाना कि
मैंने क्या
कहा, क्या
नहीं कहा, क्यों
ऐसा कहा, फिर
क्यों ऐसा
खंडन कर दिया।
चलो अच्छा ही
है, भविष्य
के लिए थोड़ा
बौद्धिक
अभ्यास होगा।
ये
वक्तव्य मैं
पंडितो के लिए
छोड़ भी नहीं
जा रहा हूं; ये
तो उनके लिए
छोड़ जा रहा
हूं जो ध्यानी
हैं। ध्यानी को
समझ में
आयेंगे, पंडित
को समझ में
नहीं आयेंगे।
तो
इनके पीछे एक
राज है और वह
राज यह है कि
ध्यानी को ही
समझ में आ
सकते हैं ये, पंडित
को बिलकुल समझ
में नहीं
आयेंगे।
पंडित तो
कहेगा कि यह
आदमी या तो
पागल था या बहुत
तरह के आदमी
थे। ये एक
आदमी के
वक्तव्य नहीं
हैं, कई
आदमियों के
वक्तव्य एक—दूसरे
से मिल गये
हैं, डांवांडोल
हो गये हैं, गड्डमगड्ड
हो गये हैं।
यह कोई एक
आदमी की बात
नहीं हो सकती,
एक आदमी
इतनी बातें
कैसे कह सकता
है?
राज
है—ये वक्तव्य
पंडित के लिए
छोड़े नहीं जा
रहे हैं। ये
वक्तव्य
ध्यानी के लिए
छोड़े जा रहे हैं।
हा,
जो ध्यान और
प्रेम में डूब
कर इनको पढ़ेगा,
वह समझ लेगा।
नहीं कि
वक्तव्य समझ
लेगा; समझ
लेगा उसको
जिसने ये दिए
थे, समझ
लेगा उस
चैतन्य की दशा
को जिसमें ये
दिए गये थे; समझ लेगा उस
साक्षी— भाव
को जिसमें
इनका अवतरण
हुआ था।
मेरे
एक—एक शब्द
में मेरे
शून्य की थोड़ी—सी
झलक रहेगी। और
मेरे शब्द के
आसपास खाली
जगह में मेरी
मौजूदगी
रहेगी।
राज
इनमें है; लेकिन
तर्क और विचार
का नहीं—ध्यान
और शून्य का।
आखिरी
प्रश्न :
कल
आपने भय की
चर्चा की कि
सब कुछ भय से
ही हो रहा है।
वेद भी ऐसा ही
कहते हैं।
वेदों में भी
आदमी को डराया
ही गया है। यह
भय क्यों और
कैसे पैदा हुआ
जिसके कारण
मैं बहुत परेशान
हूं? भय के
अतिरिक्त
मुझमें कोई
वासना नहीं है।
इस भय मात्र
को मिटाने के
उपाय बताने की
अनुकंपा करें।
पहली
बात. जब तक तुम
भय को मिटाना
चाहोगे, भय न
मिटेगा।
मिटाने में ही
भय छिपा है।
तुम न केवल भयभीत
हो, तुम भय
से भी भयभीत
हो। इसलिए तो
मिटाना चाहते
हो। तुम मिटा
न सकोगे। तुम
मिटोगे तो भय
चला जायेगा।
तुम भय को न
मिटा सकोगे।
भय ही
तुम्हारे
अहंकार की
छाया है।
समझो
कि भय क्या है।
तुम
जानते हो मौत
होगी, इसे तुम
झुठला नहीं
सकते। रोज कोई
मरता है। हर
मरने वाले में
तुम्हारे ही
मरने की खबर
आती है। जब भी
कोई अरथी
निकलती है, तुम्हारी ही
अरथी निकलती
है। और जब भी कोई
चिता जलती है,
तुम्हारी
ही चिता जलती
है। कैसे
भुलाओगे त्र
तुम जानते हो
कि तुम भी मरोगे।
जन्म गये तो
मरोगे तो ही।
यह देह तो मरण—शैव्या
पर धरी है। यह
तो चढ़ी है
चिता पर। यह
तो तुम रोज
मरते जा रहे
हो। भयभीत
कैसे न होओगे? यह डर तो
खायेगा। यह तो
घबडायेगा कि
मौत करीब आ
रही है, पता
नहीं कब आ
जाये! कभी भी आ
जाये, किसी
भी क्षण आ
सकती है।
इस
जीवन में एक
ही चीज
निश्चित है—मृत्यु; और
तो कुछ
निश्चित नहीं
है। इस
निश्चित
मृत्यु से तुम
घबडाओगे कैसे
न पू घबडाओगे
तो ही। यह
बिलकुल
स्वाभाविक है।
तुमने शरीर को
समझ लिया मैं,
तो मौत होने
वाली है। मौत
होगी तो भय
होगा। तुमने
मन को समझ
लिया मैं। और
मन तो शरीर से
भी ज्यादा
अस्थिर है; क्षण भर भी
वही नहीं रहता,
बदलता ही
जाता है; पानी
की धार है, अभी
कुछ, अभी
कुछ। सुबह
प्रेम से भरा
था, दोपहर
घृणा से भर
गया। अभी— अभी
श्रद्धा उमग
रही थी, अभी—
अभी अश्रद्धा
पैदा हो गई।
अभी— अभी बड़ी
करुणा दर्शा
रहे थे, अभी—
अभी क्रोध में
आ गये। अभी
जिसके लिए
मरने को तैयार
थे, अभी
उसको मारने को
तत्पर हो गये।
यह
मन तो भरोसे
का नहीं है; यह
तो बिलकुल कैप
रहा है। यह तो
पानी की लहर
है। इस पर तो
खींचों कुछ, खिंचता नहीं
है, मिट
जाता है। इस
मन के साथ
तुमने अपने को
एक समझा है!
क्षणभंगुर मन
के साथ तुमने
अपने को एक
समझा है।
मृत्यु के मुख
में चले जा
रहे शरीर के
साथ तुमने
अपने को एक
समझा। तुम
भयभीत कैसे न
होओगे? और
तुम पूछते हो.
भय से छुटकारा
कैसे हो? भय
स्वाभाविक है।
भय तुम्हारे
भ्रांत
तादात्म्य की
छाया है। जिस
दिन तुम
जानोगे कि मैं
शरीर नहीं, मैं मन नहीं,
उसी दिन तुम
जानोगे कि भय
गया। लेकिन उस
दिन तुम यह भी
जानोगे कि मैं
भी नहीं, न
शरीर मैं हूं
न मन मैं हूं।
तब जो शेष रह
जाता है वहां
तो मैं खोजे
भी मिलता नहीं।
वहा तो मैं की
कोई धारणा ही
नहीं बनती।
मैं तो पैदा
ही तादात्म्य
से होता है।
किसी चीज से
जुड़ जाओ तो
मैं पैदा होता
है। शरीर से
जुड़ जाओ तो
मैं। मन से जुड़
जाओ तो मैं।
धन से जुड़ जाओ
तो मैं। धर्म
से जुड़ जाओ तो
मैं। कहीं भी
जोड़ लो अपने
को तो मैं। जब
सब जोड़ छूट
गये तो मैं
बचता नहीं। तब
भीतर रह जाता
है शून्य
स्वभाव। उस
शून्य स्वभाव
में कोई भय की
रेखा भी पैदा
नहीं होती।
तो
तुम पूछते हो
कि भय से कैसे
छुटकारा हो?
नहीं, भय
से छुटकारे की
चेष्टा न करो;
भय को समझो
कि भय क्यों
है? छुटकारे
के तो तुम
उपाय कर ही
रहे हो। तो
कोई भगवान के
चरणों को पकड़े
पड़ा है कि हे
प्रभु, बचाओ,
तुम्हारी
शरण आया हूं।
लेकिन भय के
कारण ही पड़ा
है। तुम भगवान
को याद ही
करते हो जब
तुम भयभीत हो
जाते हो।
एक
नाव डूबी—डूबी
हो रही थी और
मुल्ला
नसरुद्दीन और
उसका मित्र
दोनों कैप रहे
हैं।
नसरुद्दीन का
मित्र घुटने
टेक कर बैठ
गया,
नमाज पढ़ने
लगा। उसने कहा,
'हे अल्लाह,
हे परम पिता,
अगर तूने
मुझे बचा लिया
तो मैं अब कभी
भी शराब न
पीऊंगा। अगर
तूने मुझे आज बचा
लिया तो मैं
कभी धूम्रपान
न करूंगा।’ वह बड़े
त्याग करने
लगा। आखिर में
वह यह कहने ही
जा रहा था कि
अगर तूने मुझे
बचा लिया तो
मैं संन्यासी
हो जाऊंगा, फकीर हो
जाऊंगा—तभी
मुल्ला बोला,
'ठहर—ठहर!
रुक! इतनी
जल्दी मत कर, किनारा
दिखाई पड़ रहा
है।’ और वह
आदमी उठ कर खड़ा
हो गया और भूल
गया सब बकवास।
जब किनारा ही
दिखाई पड़ रहा
है तो फिर कौन
फिक्र करता
है!
मुल्ला
एक बार चढ़ रहा
था वृक्ष पर, खजूर
लगे थे। लंबा
वृक्ष। पैर
खिसके, तो
कहने लगा, 'हे
प्रभु अगर आज
वृक्ष तक
पहुंचा दो, खजूर तोड़
लूं तो पूरा
नगद एक रुपया
चढ़ाऊंगा।
पक्का मानो।
हालांकि अतीत
में मैंने ऐसा
कुछ भी नहीं
किया कि तुम
भरोसा करो, मगर इस बार
करो।’ चढ़
गया। जब खजूर
के बिलकुल पास
पहुंचने लगा
फलों के, तो
उसने सोचा, यह तो तुम भी
मानोगे कि
इतने से खजूर
के लिए एक रुपया
ज्यादा है। जब
खजूर पर हाथ
ही रख दिया तो
उसने कहा कि
चढ़े तो हम और
पैसा तुम्हें
चढ़ाये! इसी
बीच पैर खिसका
और धड़ाम से
जमीन पर गिरा।
खजूर भी छूट
गये। नीचे
गिरा, जल्दी
कपड़े झाडू कर
ऊपर देख कर
बोला, 'यह
भी क्या बात
हुई। अरे जरा
मजाक भी नहीं
समझे! अगर आज
गिराया न होता
तो एक नगद
कलदार चढ़ाते।’
बस
आदमी जब भय
में होता है
तब भगवान; जैसे
ही भय के जरा
बाहर हुआ कि
भगवान
इत्यादि सब
भूल जाता है।
तुम्हारा
भगवान
तुम्हारे भय
का ही रूप है।
और
लोग मानते हैं
कि आत्मा अमर
है। यह भी
तुम्हारे भय
की ही धारणा
है। मैं यह
नहीं कह रहा
कि आत्मा अमर
नहीं है।
लेकिन
तुम्हारा
मानना कि
आत्मा अमर है—
भय की धारणा
है। डरे हो
मौत से, तो
कहते हो, आत्मा
अमर है। कैप
रहे हो। आत्मा
का कोई पता
नहीं, अमरता
की तो बात ही
छोड़ो। मगर
आत्मा अमर है!
इन सिद्धातो
में अपने को
छिपाने की
कोशिश मत करो।
भय
से मुक्ति
संभव है—भय को
जानने के
द्वारा। भय का
साक्षात्कार
करो। जहां भी
तुम्हें लगे
भय है, वहां भय
पर ध्यान करो।
समझने की
कोशिश करो—क्यों
है? कहा है?
किस कोने
में छिपा? मन
के किस अचेतन
में बैठा? कहां
से उठता यह
धुआं? क्यों
उठता?
जिन
मित्र ने पूछा
है,
मुझे लगता
है कि
उन्होंने भय
का कभी
साक्षात्कार
नहीं किया। भय
ने उन्हें पंगु
कर दिया है।
तुम इस पंगुता
को तोड़ो। जब
भय लगे, बैठ
कर शांति से
ध्यानपूर्वक
भय को पहचानो
कहां है। लगता
है शरीर मर
जायेगा, तो
शरीर तो मरना
ही है, इसमें
भय की क्या
बात है?
यह
तो होना ही है।
इसमें भय करने
से प्रयोजन
क्या है?
सुकरात
मरता था, एक
शिष्य ने पूछा,
आप भयभीत
नहीं हैं? तो
सुकरात ने आंख
खोली और उसने
कहा, भय? दो ही
संभावनायें
हैं : या तो
जैसा नास्तिक
कहते हैं कि
मैं मर जाऊंगा,
बिलकुल मर
जाऊंगा, कुछ
भी न बचेगा; जब कुछ
बचेगा ही नहीं
तो भय किसका, किसको होगा?
बात खतम हो
गई। सुकरात न
रहा, खतम
हो गई बात। रह
कर भी क्या
करना था पू
इतने दिन रहे
तो भी क्या कर
लिया? जन्म
के पहले भी
नहीं थे, तब
तो कोई तकलीफ
नहीं थी; मौत
के बाद फिर
नहीं हो
जायेंगे, तो
तकलीफ क्या है?
तुमसे
मैं पूछता हूं
: जन्म के पहले
तुम नहीं थे, अगर
नास्तिक सही
हैं, तो
जन्म के पहले
तुम नहीं थे; कौन सी
तकलीफ थी नहीं
होने में? कोई
याद आती है
तकलीफ? जन्म
के पहले की
कोई तकलीफ याद
है? जब थे
ही नहीं तो
तकलीफ कैसी ? जब कोई था ही
नहीं तो तकलीफ
किसको? मरने
के बाद फिर
नहीं हो गये, तो अब
घबड़ाना क्या
है? फिर
वैसे ही होगा
जैसे जन्म के
पहले थे, ऐसे
ही समझो।
तो
सुकरात ने कहा
: अगर नास्तिक
सही हैं, कि
आत्मा समाप्त
हो जायेगी
मृत्यु में, कुछ भी न
बचेगा, तो
भय क्या? जैसे
जन्म के पहले
नहीं थे वैसे
फिर नहीं हो गये,
बात खतम हो
गई, आई—गई
हो गई। एक लहर
उठी, खो गई।
या हो सकता है,
आस्तिक सही
हों। अगर
आस्तिक सही
हैं और आत्मा
बचेगी, तो
फिर भय कैसा? शरीर ही गया,
हम तो बचे
ही रहे। हम तो
शरीर थे ही
नहीं।
तो
सुकरात ने कहा
: दो ही
संभावनायें
हैं या तो आस्तिक
सही हों या
नास्तिक सही
हों। और
सुकरात बड़ा
हिम्मत का
आदमी है। वह
यह भी नहीं
कहता है कि
मैं मानता हूं
इसमें कौन सही
है। वह कहता
है. मुझे कुछ
पता नहीं है।
मगर भय कैसा? दो
में से कोई एक
ही ठीक हो
सकता है।
दोनों हालत
में भय व्यर्थ
है।
तो
अगर शरीर का
जाने का भय
लगता है तो
क्या डर है? शरीर
तो जायेगा।
एक
फकीर के दो
बेटे थे, मर
गये एक
दुर्घटना में।
जब वह फकीर घर
आया नमाज पढ़
कर मस्जिद से
तो उसकी पत्नी
ने कहा, पहले
तुम भोजन कर
लो, फिर
तुम्हें एक
बात कहनी है।
उसने भोजन कर
लिया। लेकिन
वह बार—बार
पूछने लगा, बेटे कहा
हैं? क्योंकि
उसको बेटों से
बड़ा लगांव था।
जुड़वां बेटे
थे। और कहने
लगा कि वे सदा
मस्जिद पहुंच
जाते थे, आज
मस्जिद भी
नहीं पहुंचे,
बात क्या है?
पत्नी ने
कहा, पीछे
बताऊंगी, आप
पहले भोजन कर
लें। उसने
भोजन कर लिया,
हाथ—पैर धो
कर बैठ गया।
तो उसने कहा, अब दूसरे
कमरे में आयें,
लेकिन पहले
एक बात कहनी
है। बीस साल
पहले एक आदमी
कुछ हीरे —जवाहरात
मेरे पास रख
गया था अमानत
के तौर पर, आज
वापिस मांगने
आया, तो
मैं उसे लौटा
दूं? फकीर
ने कहा, यह
भी कोई पूछने
की बात है? जो
उसकी है चीज, उसे लौटा दो।
इसमें मेरे
पूछने के लिए
रुकने की
जरूरत ही न थी।
तुमने लौटाए
क्यों न? क्या
कुछ मन में
बेईमानी आ गई?
उसने
कहा,
बस फिर सब
ठीक है, अंदर
आयें। उसने
चादर उठा दी, दोनों लड़के
मुर्दा पड़े थे।
फकीर तो
सन्नाटे में आ
गया। लेकिन तब
समझा बात। बीस
साल पहले
दोनों पैदा
हुए थे; जिसने
दिया था, वह
आज वापिस ले
गया। हंसने
लगा। उसने
पत्नी से कहा,
तूने ठीक
किया। तूने यह
बात
मुझसे
ठीक ही पूछी।
और फिर देख
मजे की बात, बीस
साल पहले ये
दोनों जब पैदा
नहीं हुए थे
तब भी सब ठीक
था, अब ये
दोनों चले गये
तो गलत होने
का क्या कारण है!
तब भी तो हम
मजे में थे जब
ये नहीं थे।
जैसे तब थे
वैसे अब होंगे।
एक सपना था, देखा और टूट
गया।
तो
अगर शरीर के
कारण भय लगता
है तो यह शरीर
तो जायेगा।
इसे बचाने का
कोई उपाय नहीं।
अगर मन के
कारण भय लगता
है तो मन तो
तुम हो ही नहीं।
थोड़े जागो!
ध्यान करो!
होश से भरो।
जैसे—जैसे
जागने लगोगे, चैतन्य
की ज्योति
जलने लगेगी, शरीर—मन से
अलग होने
लगोगे, वैसे
—वैसे भय
विसर्जित हो
जायेगा।
लेकिन
तुम भय के
खिलाफ मत लड़ो।
खिलाफ लड़ोगे
तो तुम भीतर
तो कंपते ही
रहोगे। हालत
उल्टी बनी
रहेगी।
भय
से मुक्त हो
कर अपूर्व
जीवन के फूल
खिलते हैं। भय
से दबे रह कर
सब जीवन की
कलियां बिन
खिली रह जाती
हैं,
पंखुड़ियां
खिलती ही नहीं।
भय तो जड़ कर
जाता है। तो
मैं जानता हूं
तुम्हारी
तकलीफ। लेकिन
तुम भय से
बचने के लिए
उत्सुक हो तो
कभी न बच
पाओगे। मैं
तुमसे कहता
हूं : भय को
जानो, देखो—है;
जीवन का
हिस्सा है। आंख
गड़ा कर भय को
देखो, साक्षात्कार
करो। जैसे—जैसे
तुम्हारी आंख
खुलने लगेगी
और भय को तुम
ठीक से देखने
लगोगे, पहचानने
लगोगे—कहां से
भय पैदा होता
है—उतना ही
उतना भय
विसर्जित
होने लगेगा, दूर हटने
लगेगा। और एक
ऐसी घड़ी आती
है अभय की, जब
कोई भय नहीं
रह जाता।
मृत्यु तो
रहेगी, शरीर
मरेगा, मन
बदलेगा, सब
होता रहेगा; लेकिन
तुम्हारे
अंतस्तल में
कुछ है शाश्वत—सनातन
छिपा, जिसकी
कोई मृत्यु
नहीं। उसका
थोड़ा स्वाद लो।
साक्षी में
उसका स्वाद
मिलेगा। उसके
स्वाद पर ही
भय विसर्जित
होता है; और
कोई उपाय नहीं
है।
हरि ओंम
तत्सत्!
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