श्रद्धावांल्लभते
ज्ञानं तत्परः
संयतेन्द्रियः।
ज्ञानं
लब्ध्वा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति।।
39।।
और
हे अर्जुन, जितेंद्रिय,
तत्पर हुआ
श्रद्धावान
पुरुष ज्ञान
को प्राप्त
होता है।
ज्ञान को
प्राप्त होकर
तत्क्षण भगवत्प्राप्तिरूप
परम शांति को
प्राप्त हो
जाता है।
जितेंद्रिय
हुआ पुरुष, श्रद्धावान
चित्त वाला
ज्ञान को
उपलब्ध होता
है; ज्ञान
से परम शांति
को, परम
प्रभु को
उपलब्ध होता
है।
पहली
बात, जितेंद्रिय
हुआ
पुरुष--इंद्रियों
को जिसने जीता,
ऐसा पुरुष।
साधारणतः
सोचते हैं हम
कि
जितेंद्रिय
होगा वह, जो
इंद्रियों से
लड़ेगा, उन्हें
हराएगा।
यहीं भूल हो
जाती है। जो
इंद्रियों से
लड़ेगा, वह
हारेगा; जितेंद्रिय
कभी भी नहीं
हो सकेगा।
इंद्रियों को
जीतने का
सूत्र
इंद्रियों से
लड़ना नहीं, इंद्रियों
को जानना है।
इंद्रियां
जीती जाती हैं
इंद्रियों के
साक्षात्कार
से। जो पुरुष
इंद्रियों से
लड़ने में लग
जाता, वह
इंद्रियों से
निरंतर हारता
है। जो लड़ेगा,
वह हारेगा।
जो जानेगा, वह जीतेगा।
ज्ञान
विजय है।
इंद्रियों का
ज्ञान विजय
है।
लड़ने
से ज्यादा से
ज्यादा दमन हो
सकता है, सप्रेशन,
रिप्रेशन हो सकता है।
जिसे हम दबाते
हैं, वह
लौट-लौटकर
उभरता है।
जिसे हम दबाते
हैं, उसे
हम और शक्ति
देते हैं।
क्रोध को
दबाया, तो
और गहन हिंसा
होकर प्रकट
होगा। काम को
दबाया, तो
और विकृत, विषाक्त
होकर प्रकट
होगा। अहंकार
को दबाया, तो
एक कोने से
दबाएंगे, दस
कोनों से
निकलना शुरू होगा।
इंद्रियों
को दबाया नहीं
जा सकता।
क्यों? क्योंकि
दबाता वही है,
जो
इंद्रियों को
जानता नहीं
है। जो जानता
है, वह
दबाता ही नहीं
है। क्योंकि
जो जान लेता
है, इंद्रियां
उसके वश में
हो जाती हैं।
बेकन
ने कहा है, नालेज इज़ पावर,
ज्ञान
शक्ति है।
यह तो
उसने विज्ञान
की दृष्टि से
कहा है, साइंस
की दृष्टि से।
यह तो उसने
कहा है कि हम जितना
जान लेंगे
प्रकृति को, उतने ही हम
शक्तिशाली हो
जाएंगे।
लेकिन उसका यह
वचन
अंतःप्रकृति
के लिए भी
सत्य है।
आकाश
में चमकती है
बिजली, सदा
से चमकती रही
है। जब तक
नहीं जानते थे
उसे, तब तक
प्राण
थरथराते थे और
घबड़ाहट
ही पैदा होती
थी। जो नहीं
जानते थे, वे
सोचते थे कि
इंद्र हमारे
पापों के लिए,
दंड देने के
लिए टंकार कर
रहा है। इंद्र
हमें दंड देने
के लिए शक्ति
को फेंक रहा
है। स्वाभाविक!
गड़गड़ाहट
बिजली की, चमकती
हुई उसकी
अग्नि, रात
के अंधेरे में
प्राणों को
थर्रा जाती हो,
आश्चर्य
नहीं है।
क्या
यह संभव था कि
वे लोग, जो
नहीं जानते थे
कि विद्युत
क्या है, अगर
आकाश की बिजली
से लड़ते, तो
कभी जीत पाते?
कभी भी नहीं
जीत पाते।
आकाश की बिजली
से लड़ते, तो
मरते, टूटते,
नष्ट होते।
लड़ भी न पाते; जीतने का तो
उपाय नहीं था।
लेकिन
जिन्होंने
आकाश की बिजली
के राज को समझने
की कोशिश की, रहस्य को
जानने की, उसकी
सीक्रेट-की, उसकी कुंजी
को खोज लेने
की, वे
मालिक हो गए।
आज बिजली, वही
बिजली, जो
आकाश में
कंपती, गर्जन
करती, प्राणों
को घबड़ा जाती
थी, वही
बिजली अब घरों
में प्रकाश
बनकर, आपके
हाथ में सेवक
बनकर काम करती
है। वही बिजली
चाकर हो गई है!
जो दंड देती
मालूम पड़ती थी,
वही सेवक हो
गई है।
बेकन
ने कहा था नालेज
इज़ पावर, बहिर्प्रकृति के संबंध
में। जो-जो हम
जान लेते हैं,
उसके हम
मालिक हो जाते
हैं। टु नो इज़
टु बी दि
मास्टर, जाना
कि मालिक हुए।
नहीं जाना कि
गुलामी भाग्य
में होगी; गुलामी
ही फिर नियति
है। जान लिया
हमने जिस-जिस
बात को, उस-उस
के हम मालिक
होते चले गए।
अंतःप्रकृति
के संबंध में
भी यही सत्य
है।
इसलिए
जब कृष्ण कहते
हैं, जितेंद्रिय
पुरुष, तो
भूलकर यह मत
समझ लेना, जैसा
आमतौर से समझा
जाता है कि वह
पुरुष, जिसने
अपनी
इंद्रियों पर
काबू पा लिया।
नहीं, जितेंद्रिय
पुरुष वह है, जिसने अपनी
इंद्रियों के
सब सीक्रेट, सब राज जान
लिए। जानते ही
मालिक हो गया
है, जितेंद्रिय
हो गया है।
इंद्रियां
हार जाती हैं
ज्ञान से; इंद्रियां
प्रबल हो जाती
हैं अज्ञान से।
इंद्रियों से
लड़ता है जो, वह
इंद्रियों के
ही चक्कर में
पड़ता है।
जितेंद्रिय
होने का मार्ग,
अंतःप्रकृति
का ज्ञान है।
उदाहरण
के लिए, आप
जानते हैं, क्रोध क्या
है? आकाश
में गूंजती,
आकाश में
कंपती बिजली
से कम
रहस्यपूर्ण
नहीं है। आपकी
अंतःप्रकृति
में बिजली
कौंध गई है।
जानते हैं, क्रोध क्या
है? जानते
नहीं हैं।
किया होगा
बहुत बार; क्योंकि
आकाश में
बिजली को बहुत
बार चमकते देखा
हो, तो भी
हम जान नहीं
लेते हैं। देख
लेना, जान
लेना नहीं है।
पता हो जाना, जान लेना
नहीं है।
क्रोध
का पता है कि
भीतर कौंधता
है, लेकिन
क्रोध क्या है?
यह अंतःआकाश
में कौंध गई
बिजली क्या है,
जानते हैं?
नहीं
जानते। और अगर
लड़ने गए, तो
हारेंगे
क्रोध से, जीतेंगे
नहीं। कैसे
जीतेंगे? जिसे
जानते नहीं, उसे जीतने
का उपाय नहीं
है।
लेकिन
क्रोध से हम
लड़ते हैं। लड़कर
हम क्या कर
सकते हैं? हम इतना ही
कर सकते हैं कि
जब क्रोध आए, तो हम
दबाएं। दबेगा
कहां? और
भीतर! दमन सब
भीतर ही चला
जाता है।
उठेगा, हम
दबा देंगे; और अंतःपुरों
में प्रविष्ट
हो जाएगा; और
गहरे प्रकोष्ठों
में दब जाएगा।
फिर वहां
प्रतीक्षा
करेगा। रोज-रोज
दबाएंगे, इकट्ठा
होता जाएगा।
मनोवैज्ञानिक
कहते हैं कि जो
लोग हत्याएं
कर देते हैं, आमतौर से वे
लोग होते हैं,
जो रोज
क्रोध नहीं
करते हैं। जो
लोग छोटी-छोटी
बात में क्रोध
कर लेते हैं, उनके बाबत
एक
भविष्यवाणी
की जा सकती है
कि हत्यारे वे
नहीं हो सकते
हैं। रोज-रोज
निकल जाता है;
इतना
इकट्ठा नहीं
हो पाता है कि
हत्या कर
पाएं। हत्या
करने के लिए
बहुत क्रोध
इकट्ठा होना
चाहिए।
विस्फोट होता
है फिर, एक्सप्लोजन
होता है।
रोज-रोज निकल
जाता है, तो
लीकेज, विस्फोट
होने का मौका
नहीं आ पाता।
रोज-रोज भाप
निकल जाती है।
इसलिए
भले हैं वे
लोग, जो रोज
छोटा-मोटा
क्रोध करके
निपट लेते
हैं। भले इस
अर्थों में
हैं कि उनसे
बहुत बड़े खतरे
की संभावना
नहीं है।
लेकिन खतरनाक
हैं वे लोग, जो भले
दिखाई पड़ते
हैं। क्योंकि
वे इकट्ठा करते
हैं।
दस-पंद्रह दिन,
महीना, दो
महीना, वर्ष,
दो वर्ष कोई
इकट्ठा कर ले,
तो फिर
विस्फोट होता
है। वह
विस्फोट फिर
इतना गहन हो
जाता है, वह
इतना इंटेंस
हो जाता है कि
वह आदमी खुद
ही नहीं जानता
कि क्या हो
रहा है। हो
जाता है।
दुनिया
के बड़े से बड़े
पाप, इकट्ठे
पाप का
विस्फोट हैं।
छोटे-छोटे
उपद्रव कर
लेने वाले लोग
महापाप नहीं
कर पाते हैं। रोज-रोज
बह जाता है सब;
कभी गंगा
नहीं बन पाती।
उनका काम झरने
का ही होता है,
उससे कुछ
बहता नहीं, कोई पूर, बाढ़
नहीं आती।
इकट्ठा हो
जाता है जब
बहुत, तब
बाढ़ आती है।
और जब भीतर
बहुत इकट्ठा
हो जाता है, इतना कि
जितने भी
सेफ्टी वाल्व्स
हैं--भीतर
बहुत सेफ्टी वाल्व्स
हैं--उन सबको तोड़कर जब
विस्फोट होता
है, तो
व्यक्तित्व
सदा के लिए
खंड-खंड, कांच
के टुकड़ों
जैसा हो जाता
है, जिसका
फिर जोड़ना
मुश्किल होता
है। स्प्लिट,
सीजोफ्रेनिक हो जाता है।
सब टूट जाता
है। नहीं भी
टूटे, और
धीरे-धीरे कोई
रोज बहाता रहे
क्रोध को, तो
भी शक्ति
क्षीण होती
है। क्योंकि
क्रोध हमारी
ही शक्ति है, जिससे हम
परिचित नहीं।
क्रोध
वही शक्ति है, जो क्षमा बन
जाती है। काम
वही शक्ति है,
जो
ब्रह्मचर्य
बनती है। लोभ
वही शक्ति है,
जो दान बनती
है। घृणा वही
शक्ति है, जो
प्रेम में
रूपांतरित
होती है। तो
जो रोज घृणा
कर लेता है, माना कि कभी
इतनी घृणा
इकट्ठी नहीं
कर पाता कि
हत्या कर दे, कि छुरा
भोंक दे, लेकिन
जो रोज घृणा
करता है, वह
प्रेम करने के
लायक शक्ति
उसके पास बचती
नहीं है।
क्योंकि वही
शक्ति प्रेम
बनती है। जो रोज
क्रोध कर लेता
है, क्षमा
करने योग्य
उसके पास
ऊर्जा, एनर्जी
नहीं होती। बह
जाती है सब।
लीकेज से भी
बह जाती है।
विस्फोट से
इकट्ठी बहती
है, लीकेज
से धीरे-धीरे
बहती है; लेकिन
आदमी रिक्त हो
जाता है।
रोज
क्रोध, रोज
घृणा, रोज
लोभ करने वाला
आदमी ठीक वैसा
है, जैसे
किसी आदमी ने
कुएं में
बाल्टी डाली,
जिसमें
हजार छेद हैं।
पानी तो भरता
हुआ दिखाई पड़ता
है; जब तक
बाल्टी पानी
में डूबी रहे,
तब तक लगता
है, भरा।
पानी के ऊपर
उठी बाल्टी कि
लगा कि निकला।
कुएं में
शोरगुल बहुत
होता है; आवाज
बहुत होती है;
वर्षा मच
जाती है; हजार-हजार
छेद से बाल्टी
के पानी टपकने
लगता है; लेकिन
जब तक हाथ में
आती है बाल्टी,
तब तक रिक्त
हो गई होती
है।
जीवन
में शोरगुल
बहुत है हमारे, वैसा ही
जैसे हजार
छिद्रों वाली
बाल्टी में पानी
भरने पर कुएं
में होता है।
बड़ी वर्षा
मालूम होती
है। लेकिन जब
मृत्यु के
क्षण में हाथ
लगती है
बाल्टी जीवन
की, तो
उसमें बूंद भी
नहीं बचती; सब रिक्त और
खाली होता है।
दो
खतरे हैं
इंद्रियों के
साथ। एक भोग
का खतरा है।
भोग का खतरा
हजार छिद्रों
वाली बाल्टी
बन जाता है।
दूसरा दमन का
खतरा है। दमन
का खतरा ऐसा
है, जैसे चाय
की केटली
का मुंह किसी
ने बंद कर
दिया हो और
ऊपर से पत्थर
रख दिया हो और
नीचे से आग भी
दिए जा रहे
हैं! तब फूटेगी
केटली।
कृष्ण
जब कहते हैं
जितेंद्रिय, या महावीर
जब कहते हैं
जितेंद्रिय, या बुद्ध जब
कहते हैं
जितेंद्रिय, तो उनकी बात
को समझना
अत्यंत ही
कठिन हुआ है। हम
तत्काल
जितेंद्रिय
का अर्थ लेते
हैं, दमन।
क्योंकि हम
भोग में खड़े
हैं। हमारा मन
दूसरी अति में
अर्थ ले लेता
है। भोग से हम
परेशान हैं।
जैसे ही हम
सुनते हैं, जीतो इंद्रिय को;
हम कहते हैं,
दबाओ
इंद्रिय को।
जीत बन जाती
है दमन, हमारे
मन में। और
तभी भूल हो
जाती है।
जितेंद्रिय
का अर्थ है, जानो
इंद्रिय को।
एक-एक इंद्रिय
के रस को पहचानने
से, परिचित
होने से; एक-एक
इंद्रिय की
शक्ति के भीतर
प्रवेश करने
से, जीत
फलित होती है।
ज्ञान विजय बन
जाता है। ज्ञान
ही विजय है।
कैसे जानेंगे?
कामवासना
उठती है हजार
बार। थोड़े
अनुभव नहीं हैं।
एक पुरुष अपने
जीवन में, साधारण
स्वस्थ पुरुष,
चार हजार
संभोग कर सकता
है, करता
है। चार हजार
बार काम के
अनुभव से
गुजरता है एक
पुरुष।
स्त्री तो लाख
बार गुजर सकती
है। उसकी
क्षमता गहन
है। इसलिए
पुरुष
वेश्याएं नहीं
हो सके; स्त्रियां
वेश्याएं हो
सकीं।
लाख
बार भी काम के
अनुभव से
गुजरकर यह पता
नहीं चलता कि
यह काम-ऊर्जा, यह
सेक्स-एनर्जी
क्या है? क्योंकि
हम कभी काम पर
ध्यान नहीं
करते। कभी हम
सेक्स पर
मेडिटेशन
नहीं करते।
इस जगत
में जो भी
ज्ञान उपलब्ध
होता है, वह
ध्यान से
उपलब्ध होता
है--जो भी
ज्ञान! चाहे विज्ञान
की
प्रयोगशाला
में उपलब्ध
होता हो; और
चाहे योग की अंतःप्रयोगशाला
में उपलब्ध
होता हो। जो
भी ज्ञान जगत
में उपलब्ध
होता है, वह
ध्यान से
उपलब्ध होता
है। ध्यान
ज्ञान को पाने
का इंस्ट्रूमेंट,
उपाय, विधि,
मेथड है।
कभी
आपने ध्यान
किया है सेक्स
पर?
आप
कहेंगे, बहुत
बार किया है।
चिंतन किया है,
ध्यान नहीं
किया। सोचते
तो बहुत हैं; जितना करते
नहीं, उतना
सोचते हैं।
काम के अनुभव
से जितना
गुजरते हैं, उससे लाख
गुना ज्यादा
काम के विचार
से गुजरते हैं।
चौबीस घंटे
घूम-फिरकर
काम मन में
सरकता रहता
है।
चिंतन
तो किया है, ध्यान नहीं
किया। चिंतन
का अर्थ है, जो भीतर
वासना घटती है,
उसके साथ ही
बह जाते हैं; दूर खड़े
होकर देख नहीं
पाते। मन में
उठा काम का
विचार, तो आप
भी काम के
विचार के साथ आइडेंटिफाइड
हो जाते हैं; तादात्म्य
हो जाता है।
आप ही काम हो
जाते हैं, यू
बिकम दि
सेक्स। फिर
ऐसा नहीं होता
कि काम की
ऊर्जा उठी है,
मैं दूर खड़ा
देखता हूं, क्या है?
एक
वैज्ञानिक
प्रयोगशाला
में प्रवेश
करता है, परीक्षण
करता, खोज
करता, प्रयोग
करता, निरीक्षण
करता, दूर
खड़े होकर
देखता, क्या
हो रहा है? अगर
वैज्ञानिक जो
कर रहा है, उसके
साथ आइडेंटिफाइड
हो जाए...जैसे
एक वैज्ञानिक
एक केमिकल पर,
एक
रासायनिक
द्रव्य पर खोज
कर रहा है। वह
खुद को ही समझ
ले कि मैं ही
रासायनिक
द्रव्य हूं, तो हो गई खोज! फिर
कभी नहीं
होगी। वह आदमी
ही खो गया, जो
खोज कर सकता
था। केमिकल
द्रव्य खोज कर
सकते होते, तो उन्होंने
कभी की खोज कर
ली होती।
वैज्ञानिक की
शर्त यह है कि
वह आब्जर्व
कर सके, निरीक्षण
कर सके! आब्जर्वेशन
विज्ञान का
मूल आधार है।
जिसे
विज्ञान आब्जर्वेशन
कहता है, निरीक्षण
कहता है, उसे
ही योग, धर्म,
ध्यान कहता
है। वह धर्म
की पारिभाषिक
शब्दावली
ध्यान है।
ध्यान का मतलब
है, जो भी
देख रहे हैं, उससे दूर
खड़े होकर देख
सकें, टु
बी ए विटनेस।
एक गवाह की
तरह देख सकें;
सम्मिलित न
हो जाएं।
जिस
इंद्रिय के
साथ आपका
एकात्म हो
जाता है, उसे
आप कभी न जान
पाएंगे। जिस
इंद्रिय के रस
के साथ आप
इतने डूब जाते
हैं कि भूल
जाते हैं कि मैं
देखने वाला
हूं, बस, फिर ध्यान
नहीं हो पाता।
फिर कभी
इंद्रियों के
रस का ज्ञान
नहीं हो पाता।
क्रोध
उठे, तो क्रोध
से जरा दूर
खड़े होकर
देखें, क्या
है? लेकिन
हम भगवान पर
तो ध्यान करते
हैं, जिसका
हमें कोई पता
नहीं। जिसका
हमें पता नहीं,
उस पर तो
ध्यान होगा
कैसे। ध्यान
तो उस पर हो सकता
है, जिसका
हमें पता है।
भगवान पर
ध्यान करते
हैं, जिसका
हमें कोई पता
नहीं है।
क्रोध पर, काम
पर कभी ध्यान
नहीं करते, जिसका हमें
पता है।
और मजा
यह है कि जो
काम, क्रोध और
बाकी
इंद्रियों के
समस्त उपद्रव
के प्रति, ऊर्जा
के प्रति, विस्फोट
के प्रति
ध्यान करने
में समर्थ हो
जाता है; जैसे-जैसे
उसका ध्यान
बढ़ता है
इंद्रियों पर,
वैसे-वैसे
इंद्रियां
विजित होती
चली जाती हैं,
हारती चली
जाती हैं। वह
जीतता चला
जाता है; उतना
रिकवर
करता चला जाता
है; उतनी
जमीन वापस
लेता चला जाता
है। उतनी-उतनी
इंद्रिय अपनी
ताकत छोड़ती
चली जाती है, जहां-जहां
ध्यान की किरण
प्रवेश कर
जाती है।
क्रोध
को जिसने जान
लिया, वह
क्रोध नहीं कर
सकता। काम को
जिसने जान
लिया, वह
कामातुर नहीं
हो सकता। लोभ
को जिसने जान
लिया, वह
लोभ में नहीं
पड़ सकता।
अहंकार को
जिसने पहचाना,
वह अहंकार
के बाहर है।
करना क्या है?
लड़ना
नहीं है, जानना
है। रोज आता
है क्रोध, परमात्मा
की बड़ी कृपा
है। आता है
इसलिए, कि
करो ध्यान।
उठता है काम, बड़ी अनुकंपा
है प्रभु की।
उठता है इसलिए,
कि करो
ध्यान।
जिंदगी में
लाख मौके
मिलते हैं।
लेकिन हम
चूकने में बड़े
कुशल हैं! हम
चूकते ही चले
जाते हैं।
हजार बार रखा
जाता है हमारे
सामने निशान
लगाने के लिए,
लेकिन हम
धनुष-बाण ही
नहीं उठाते।
हम चूकते ही
चले जाते हैं!
पूरी
जिंदगी--एक
जिंदगी नहीं,
अनंत जिंदगी
चूकते चले
जाते हैं। फिर
तो हम चूकने
के अभ्यस्त हो
जाते हैं।
अभ्यास इतना
गहरा हो जाता
है...।
मैंने
सुना है, एक
सर्कस में ऐसा
हुआ। एक आदमी
रोज ही अपनी
पत्नी को
तख्ते पर रखकर
और तीर से
निशाना लगाता था।
तीस तीर मारता
था। लेकिन तीर
ऐसे कि हाथ को
छूकर तख्ते
में चुभ
जाते; कान
को छूते हुए
गुजरते और
तख्ते में चुभ
जाते। सिर को
छूते हुए
निकलते और
तख्ते में चुभ
जाते। पूरी
पत्नी को
चारों तरफ से
तीरों से भर
देता; लेकिन
जरा भी पत्नी
को खरोंच न
लगती। ऐसा
उसका तीस साल
का अभ्यास था।
तीस साल से वह
यही काम कर
रहा था।
एक
दिन--ऐसे दिन
बहुत आए थे, जब पत्नी से
दिन में कलह
हो गई थी। कई
बार उसके मन
में भी होता
था कि आज तीर
मार ही दूं
बीच में ही, छाती में ही चुभ जाए।
लेकिन अपने को
सम्हाल गया
था। सांझ होते-होते
क्रोध चला गया
था। एक दिन
सांझ को इतना झगड़ा हो
गया कि जब वह
आया मंच पर और
पत्नी खड़ी हुई
तख्ते पर, तो
उसने कहा, अब
बहुत हो गया।
उठाया तीर, आंख बंद कर
लीं; क्योंकि
अभ्यास इतना
गहरा था कि
आंख खुली रही,
तो संभावना
यही है कि तीर
तख्ते में
लगेगा, पत्नी
में नहीं
लगेगा। तीस
साल का
अभ्यास! आंख
बंद कर लीं, कि आंख बंद
करके मारूंगा
तीर, तब तो
लगने ही वाला
है। आंख बंद
कीं। सांस रोक
ली। मारा तीर।
हाल में
तालियां बजीं।
घबड़ाकर
आंख खोली। तीर
पत्नी को छूता
हुआ तख्ते में
लग गया था।
तीस तीर आंख
बंद करके मारे
उसने, लेकिन
तीर अपनी जगह
पहुंचते रहे!
बंद आंख से भी
तीर पत्नी में
न लग सका।
अभ्यास गहरा
था; तीस
साल का था।
बंद आंख में
भी काम कर
गया।
हमारा
तो जन्मों का, लाखों
जन्मों का
अभ्यास है
चूकने का। उठा
क्रोध--चूके, भूले कि
ध्यान का मौका
आया; अपरचुनिटी टु
मेडिटेट।
इस
सूत्र के साथ
मैं आपसे कहना
चाहता हूं, जब क्रोध
उठे, तब
उसकी फिक्र
छोड़ दें, जिस
पर क्रोध उठा;
क्योंकि
उसकी फिक्र की,
तो चूके।
उसकी फिक्र
में ही चूकते
हैं। किसी ने
गाली दी; गाली
की फिक्र
छोड़ें; गाली
देने वाले की
फिक्र छोड़ें।
इस वक्त तो उसको
कहें कि अभी
ठहरो जरा; मैं
अपना काम करके
आधा घंटे में
लौटकर आता हूं।
द्वार बंद
करें, आंख
बंद करें। बहुत
मौका तो यही
है कि आंख बंद
करके भी वही
होगा, जो
उस सर्कस के
आदमी का हुआ।
जन्मों का
अभ्यास है!
आंख बंद करके
भी क्रोध वही
करेगा, जो
सामने करता, आंख खोलकर
करता।
नहीं; आंख बंद
करें। भूलें
बाहर को।
धन्यवाद दें,
जिसने
क्रोध को
उठाया, क्योंकि
एक मौका दिया
ध्यान का। आंख
बंद करें और
देखें कि
क्रोध क्या है?
कहां है? कैसे उठता? कैसे गहन
होता? कैसे
छा जाता है
पूरे प्राणों
पर धुएं की
भांति? कैसे
पकड़ लेता? कैसे
खून-खून गरम
हो जाता? कैसे
रक्त का कण-कण
विषाक्त हो
जाता? कैसे
सारा शरीर
उत्तप्त और फीवरिश हो
जाता? कैसे
मन बेहोश हो
जाता? देखें,
और बहुत
हैरान होंगे।
जैसे-जैसे
देखने की
क्षमता बढ़ेगी, जैसे-जैसे
पहचानने की
सामर्थ्य बढ़ेगी,
जैसे-जैसे
साक्षी जगेगा,
वैसे-वैसे
क्रोध
तिरोहित
होगा। किसी
दिन जब पूरे
क्रोध को
आमने-सामने
देख पाएंगे, इन इट्स
टोटल नैकेडनेस,
क्रोध को
उसकी पूरी ही
नग्नता में, रोएं-रोएं
में जब क्रोध
को पहचान
पाएंगे, हृदय
के कोने-कोने
में, चेतन-अचेतन
में सब तरफ जब
क्रोध को देख
पाएंगे कि यह
रहा क्रोध, उसी दिन
पाएंगे कि
क्रोध
रूपांतरित हो
गया और क्षमा
का जन्म हुआ
है, उसी
दिन क्षमा
जन्म जाएगी।
वही ऊर्जा जो
ध्यान के अभाव
में क्रोध है,
वही ऊर्जा
ध्यान के साथ
क्षमा बन जाती
है।
अगर
मुझसे पूछें, तो गणित के
सूत्र में ऐसा
कहूं, क्रोध
+ ध्यान = क्षमा;
काम + ध्यान =
ब्रह्मचर्य; लोभ + ध्यान =
दान। फिर गणित
को आप फैला
लें। जहां
ध्यान जुड़ा, वहीं
रूपांतरण है।
क्योंकि
ध्यान के साथ आता
ज्ञान; ज्ञान
विजय है।
जितेंद्रिय
पुरुष वह है, जिसने अपनी
इंद्रियों के
सब कोने-कातर,
जिसने अपनी
इंद्रियों के
सब छिपे
प्रकट-अप्रकट
रूप जाने, पहचाने;
जिसने अपनी
इंद्रियों की
प्रयोगशाला
में उतरकर
साक्षी का
अनुभव किया, वह विजेता
हो जाता है।
ऐसा
जितेंद्रिय पुरुष
उपलब्ध होता
है शांति को।
लेकिन
एक और शर्त
कृष्ण कहते
हैं, श्रद्धावान
भी। यह शब्द
भी थोड़ा कठिन
है। जैसे
जितेंद्रिय
शब्द के साथ
भ्रांतियां
जुड़ी हैं, वैसे
ही श्रद्धा के
साथ और भी
गहरी जुड़ी
हैं। क्योंकि
जितेंद्रिय
होने की कोशिश
कम ही लोग करते
हैं, इसलिए
भ्रांति कम
है।
श्रद्धावान
होने की कोशिश
सभी लोग करते
हैं, इसलिए
भ्रांति और भी
ज्यादा है।
श्रद्धा
शब्द
अध्यात्म के
पास बहुत
गहराइयों से
जुड़ा है। हम
सब जीते हैं
सतह पर, गहराइयों
का हमें कोई
पता नहीं है।
इसलिए हम सतह
पर श्रद्धा का
अनुवाद करते
हैं। और जो
हमारा अनुवाद
है, वह बड़ा
खतरनाक है।
श्रद्धा का
हमारा जो
अनुवाद है, वह विश्वास
है, बिलीफ है।
जो
आदमी विश्वास
करता है, हम
कहते हैं, श्रद्धावान
है। विश्वास
श्रद्धा नहीं
है। विश्वास
श्रद्धा तो है
ही नहीं; श्रद्धा
के ठीक विपरीत
है। भाषाकोश
में नहीं है।
वहां तो लिखा
है, श्रद्धा
यानी विश्वास,
विश्वास
यानी
श्रद्धा।
विश्वास
श्रद्धा के बिलकुल
विपरीत है, जब मैं ऐसा
कहता हूं, तो
चौंकेंगे
आप। लेकिन
कहने का कारण
है।
विश्वास
वह आदमी करता
है, जिसके
भीतर
अविश्वास है।
और श्रद्धा उस
आदमी में होती
है, जिसके
भीतर
अविश्वास
नहीं है।
विश्वास
हमारा कृत्य
है, हमारे
द्वारा किया
गया काम है।
श्रद्धा हमारी
अनुपस्थिति
में घटी घटना
है। हैपनिंग
है, डूइंग नहीं।
विश्वास
हम करते हैं।
क्यों करते
हैं? क्योंकि
संदेह के साथ
जीना कठिन है।
बहुत कठिन है।
संदेह के साथ
जीने से
ज्यादा
तपश्चर्या कोई
और नहीं है।
संदेह के साथ
जीना बहुत आर्डुअस
है। चौबीस
घंटे संदेह
में नहीं जी
सकते हैं। कहां-कहां
संदेह करेंगे?
इंच-इंच पर
संदेह खड़ा है।
अगर संदेह
करेंगे, तो
पैर भी न उठा
सकेंगे; श्वास
भी न ले
सकेंगे; भोजन
भी न कर
सकेंगे।
संदेह करेंगे,
तो जीना
क्षणभर भी
मुश्किल है।
संदेह
कठिन है, बहुत
कठिन है।
संदेह करेंगे,
तो पिता को
मानना पिता
मुश्किल हो
जाएगा। क्योंकि
खुद तो कोई
पता नहीं है
कि वह पिता
है। ऐसा लोग
कहते हैं कि
पिता है। खुद
का तो कोई
अनुभव नहीं है
कि वह पिता
है। मां को
मां मानना मुश्किल
हो जाएगा!
संदेह करेंगे,
तो मित्रता
बनानी असंभव
है। क्योंकि
सब मित्रताएं
अपरिचित, अनजान
के प्रति
भरोसे से पैदा
होती हैं।
संदेह करेंगे,
तो सारा जगत
शत्रु हो
जाएगा। संदेह
करेंगे, तो
रात सो भी न
सकेंगे।
संदेह करेंगे,
तो एक कौर
भी मुंह में न
डाल सकेंगे, क्योंकि जहर
की संभावना
सदा है। संदेह
करेंगे, तो
जी ही न
सकेंगे; मर
जाएंगे; जहां
खड़े हैं, वहीं
गिर जाएंगे।
संदेह
के साथ बड़ी
कठिनाई है।
इसलिए
विश्वास से हम
संदेह को
दबाते हैं।
विश्वास के
साथ जीया जा
सकता है आसानी
से। विश्वास कनवीनिएंट
है, सुविधापूर्ण
है। संदेह
बहुत इनकनवीनिएंट
है, बहुत
असुविधापूर्ण
है।
जिंदगी
चलती है
विश्वास के
सहारे। मानना
पड़ता है कि
कोई पिता है।
मानना पड़ता है
कि कोई गुरु
है। मानना
पड़ता है कि
कुछ ऐसा है, कुछ वैसा
है। सब मानकर
चलता है।
इस
मानने के बीच
में श्रद्धा
का हम अर्थ कर
लेते हैं, विश्वास। तब
जैसे हम पिता
को मानते हैं,
जैसे हम
मित्र को मान
लेते हैं, वैसे
ही हम
परमात्मा को
भी मान लेते
हैं। संदेह का
कीड़ा भीतर
सरकता रहता, ऊपर विश्वास
का पलस्तर
बिछा देते हैं;
ऊपर से
विश्वास की
पर्त फैला
देते हैं।
भीतर संदेह की
आग जलती रहती,
ऊपर से
विश्वास का
आवरण छा देते
हैं।
इसलिए
विश्वासी के
भीतर जरा-सा
छेद करो, जरा-सी
सर्जरी और
संदेह बाहर आ
जाएगा। स्किन
डीप, चमड़ी
से ज्यादा
गहरा नहीं
होता
विश्वास। और श्रद्धा?
श्रद्धा
गहराई का नाम
है। विश्वास?
विश्वास
चमड़ी का नाम
है। विश्वास
ऊपर की चमड़ी है,
जो काम
चलाने के लिए
पैदा की गई
है।
ठीक है, मां को मान
लेने में
हर्जा भी नहीं
है। न भी हो, तो कुछ
हर्जा नहीं
है। झूठ भी हो,
और मां का
काम कर दिया
हो, तो बात
हो गई। सच में
पिता पिता
न हो, कोई
और ही पिता
रहा हो, फर्क
क्या पड़ता है?
इट मेक्स
नो डिफरेंस।
और अभी तो
थोड़ा-बहुत
फर्क पड़ भी जाता
होगा, भविष्य
में बिलकुल
नहीं पड़ेगा।
क्योंकि आर्टिफीशियल
इनसेमिनेशन
हो सकता है।
मैं आज
मर जाऊं, दस
हजार साल बाद
मेरा बेटा
पैदा हो सकता
है। वीर्यकण
को संरक्षित
किया जा सकता
है, दस
हजार साल बाद इंजेक्ट
कर दोगे, बच्चा
पैदा हो
जाएगा। फिर जो
इंजेक्शन
लगाएगा, वही
फादर हुआ!
वैसे अभी भी
पिता जो है, वह इंजेक्शन
लगाने से
ज्यादा काम
नहीं कर रहा है।
पर वह नेचरल
इंजेक्शन है।
वह आर्टिफीशियल
होगा। इससे
ज्यादा कुछ है
नहीं मामला।
तो चल जाता है;
चल जाता है
काम। इससे कोई
बहुत दिक्कत
नहीं आती है।
इससे कोई जीवन
की अतल
गहराइयों का
लेना-देना
नहीं है। जो फादर्ली
है, वह
फादर है। जो
पितृत्व
दिखला रहा है,
पिता है। जो
मातृत्व
दिखला रही है,
वह मां है।
बहुत
दिन तक जरूरी
नहीं है; क्योंकि
स्त्रियां
बहुत दिन तक
बच्चे रखने को
राजी नहीं
होंगी नौ
महीने। जिस
दिन स्त्री की
इक्वालिटी
पुरुष से पूरी
हो जाएगी, उस
दिन स्त्रियां
नौ महीने
बच्चे को पेट
में रखने के लिए
कांस्टीटयूशनली
गलत कहेंगी।
गलत है।
क्योंकि
पुरुष तो अलग
हो जाता है।
भागीदार
दोनों बराबर
हैं। नौ महीने
स्त्री ढोती
है बेटे को!
कुछ आश्चर्य
नहीं कि भविष्य
की कोई
क्रांतिकारी
सरकार साढ़े
चार-चार महीने
का बंटाव
करे! अब हो
सकता है। अब
कठिनाई नहीं
है। और या फिर स्त्री
को नौ महीने
के लिए मुक्त
करे और बच्चे इनक्यूबेटर
में, मशीन
के गर्भ में
रखे जाएं और
बड़े हों।
इस सदी
के पूरे
होते-होते
बच्चे
स्त्रियों के पेट
में नहीं
रहेंगे। कभी
कोई सोच नहीं
सकता था कि
स्त्रियां
बच्चों को दूध
पिलाने से
इनकार कर
देंगी।
अमेरिका में
उन्होंने कर
दिया है।
क्योंकि दूध
पिलाने से
उनकी उम्र
जल्दी ढल जाती
है; शरीर दीन
दिखाई पड़ने
लगता है; शरीर
की चुस्ती खो
जाती है। नौ
महीने बच्चे
को पेट में
रखने से और
भारी नुकसान
शरीर को होते हैं।
व्यवस्था हुई
जाती है, फिर
इनक्यूबेटर
ही मां होगा, इंजेक्टर पिता होगा!
कोई
फर्क नहीं
पड़ता है। अभी
भी वही है।
अभी भी जिसको
हम मां कहते
हैं, उसने इनक्यूबेटर
का काम किया
है। उसके पेट
में
प्राकृतिक
इंतजाम हैं, जिसमें
बच्चा नौ
महीने रह लेता
है। कल हम
कृत्रिम
इंतजाम कर
लेंगे। शायद
उससे भी बेहतर
कर लेंगे।
यह
कामचलाऊ जगत
है। कठिनाई
नहीं आती कि
मित्र को
मित्र मान
लिया। बहुत से
बहुत क्या
करेगा! रात
में सामान
लेकर नदारद हो
जाएगा।
विश्वास से
चलता है जगत।
इसी विश्वास
को हम
परमात्मा में
भी लगाते हैं, तब भूल शुरू
होती है।
कृष्ण
का अर्थ, जब
वे कहते हैं
श्रद्धावान, तो विश्वासी
नहीं है।
कृष्ण का क्या
अर्थ होगा
श्रद्धावान
से? श्रद्धावान
को समझने के
लिए दोत्तीन
बातें
विश्वास के
संबंध में और
खयाल में रख लें।
विश्वास
के पीछे सदा
संदेह है, स्मरण रखें।
संदेह को
दबाने और
मिटाने के लिए
किया गया है
विश्वास।
संदेह के
खिलाफ इंतजाम
है विश्वास।
संदेह भीतर
सरक रहा है।
एक
आदमी कहता है, मैं ईश्वर
में विश्वास
करता हूं।
उससे पूछें कि
थोड़ा गहरे
खोजो। सच
विश्वास करते
हो? अगर वह
ईमानदार हो, आनेस्ट हो, नीयत उसकी
साफ हो, तो
पाएगा भीतर कि
भीतर विश्वास
नहीं है। विश्वासी
से विश्वासी
को पता चल
जाता है कि
भीतर कहीं संदेह
का कण है; कहीं
शक उठता है कि
है ईश्वर या
नहीं! है भी? आत्मा है? मृत्यु के
बाद बचता है
कुछ? प्रश्न
उठते हैं
भीतर। वहां
संदेह है।
श्रद्धावान
का अर्थ है, संशयहीन, संदेहहीन
नहीं। संदेह
का अर्थ है, डाउट; संशय का
अर्थ है, इनडिसीजन।
श्रद्धावान
का अर्थ है, संशयहीन, संदेहहीन
नहीं।
संदेह
तो मनुष्य के
साथ है।
प्रश्न तो
मनुष्य के साथ
है, जिज्ञासा
तो मनुष्य के
साथ है। संदेह
जिज्ञासा बने,
शुभ है।
संदेह
विश्वास बने,
खतरनाक है।
संदेह
अविश्वास बने,
तो भी
खतरनाक है।
संदेह की
सम्यक यात्रा इंक्वायरी
है, जिज्ञासा
है।
संदेह
की असम्यक
यात्रा दो तरह
से हो सकती
है। अगर राइटिस्ट
हो, दक्षिणपंथी
हो, पुराणपंथी
हो, तो
संदेह
विश्वास बन
जाता है। अगर लेफ्टिस्ट
हो, वामपंथी
हो, पुराण
विरोधी हो, नवीनपंथी हो, तो
संदेह
अविश्वास बन
जाता है।
लेकिन अगर
व्यक्ति न
दक्षिणपंथी
हो, न
वामपंथी हो; संदेह का
सम्यक उपयोग
करना जानता हो,
तो संदेह
जिज्ञासा
बनता है, प्रश्न
बनता है, खोज
बनता है, इंक्वायरी बनता है।
जिसने
विश्वास से
दबाया संदेह
को, वह
तथाकथित झूठा
आस्तिक बन
जाता है।
जिसने अविश्वास
से दबाया
संदेह को...।
ध्यान
रहे, अविश्वास
भी संदेह को
दबाने की
तरकीब है। एक
आदमी को
विश्वास नहीं
आता; संदेह
उठता है कि
ईश्वर है? एक
आदमी कहता है,
है! और पर्त
बना लेता है
ऊपर होने की, और भूल जाता
है। झंझट के
बाहर हो जाता
है। जिज्ञासा
को मिटा देता
है। कहता है, है। दूसरा
आदमी कहता है,
नहीं है। वह
भी एक पर्त
बना लेता है, न होने की।
वह भी झंझट को
मिटा देता है;
इंक्वायरी को समाप्त
कर देता है, जिज्ञासा
बंद हो जाती
है। है, तो
भी जिज्ञासा
बंद हो जाती
है। नहीं है, तो भी
जिज्ञासा बंद
हो जाती है।
जो है, ऐसा
मान लिया, उसकी
खोज की जरूरत
नहीं रहती। जो
नहीं है, ऐसा
मान लिया, उसकी
भी खोज की
जरूरत नहीं रह
जाती।
नहीं; संदेह बननी
चाहिए
जिज्ञासा।
हमें पता नहीं
कि है; हमें
यह भी पता
नहीं कि नहीं
है। झूठे
आस्तिक व्यर्थ;
झूठे
नास्तिक
व्यर्थ।
नास्तिक और
आस्तिक का एक
गहरा तालमेल
जिज्ञासा
बनाता है। पूछता
है आदमी, है?
प्रश्नवाची
होती है उसकी
जिज्ञासा। न
स्वीकार, न
अस्वीकार।
पूछता है।
संदेह
गहरे में जाए, तो एग्नास्टिक
बनाता है।
अज्ञेय है, अननोन है, जो भी है।
मुझे पता नहीं
है। संदेह
गहरा जाए, तो
अहंकार को तोड़ता
है; क्योंकि
मुझे पता नहीं
है; मैं
अज्ञानी हूं।
आस्तिक
भी ज्ञानी बन
जाता, विश्वास
पकड़कर; नास्तिक भी
ज्ञानी बन
जाता, अविश्वास
पकड़कर।
सिर्फ रहस्य
में वह प्रवेश
करता है, जो
कहता है, मैं
अज्ञानी हूं।
मुझे पता नहीं
कि है या नहीं
है। सिर्फ
प्रश्न का पता
है; मुझे
कुछ पता नहीं
है।
यह तो
संदेह का सम्यकरूप
है, राइट डाउट।
श्रद्धा का
इससे कोई
संबंध नहीं
है। श्रद्धा
का संबंध
दूसरी बात से
है।
एक और
वृत्ति है
मनुष्य के
भीतर, संशय
की, इनडिसीजन की, कि
आदमी सदा
डांवाडोल
होता है।
डांवाडोल होने
का अर्थ है, कुछ भी, कुछ
भी संकल्प
नहीं बन पाता।
क्षणभर बाएं
चला जाता है, क्षणभर दाएं
चला जाता है।
ध्यान
रखें, मैंने
कहा कि आस्तिक,
झूठे
विश्वास को पकड़कर जो
बनता है, वह
दक्षिणपंथी
है। उसने एक
एक्सट्रीम
पकड़ ली; अब
वह पकड़े
रहेगा, वह
छोड़ेगा नहीं।
दूसरे ने
दूसरी
एक्सट्रीम, अति पकड़
ली--वामपंथी, अविश्वास
की। वह कहता
है, नहीं
है। एक
कम्युनिस्ट
है; कहता
है, नहीं
है। उसने पकड़
ली एक अति। ये
एक अर्थ में डिसीसिव
हैं; इनमें
संशय नहीं है।
ऊपर से दिखाई
नहीं पड़ता; भीतर संदेह
है; संशय
नहीं दिखाई
पड़ता।
आस्तिक
कहता है, बिलकुल
है; जान
लगा दूंगा
अपनी। और कई
आस्तिकों ने,
जिन्हें
बिलकुल पता नहीं
था, जान
लगा दी। और
अपनी तो कम
लगाई, दूसरों
की ज्यादा
लगवा दी! कई
नास्तिक जान
लगा दिए हैं।
अपनी कम, दूसरों
की ज्यादा लगा
दिए हैं।
और
ध्यान रखें, जो आदमी भी
कहता है, जान
लगा दूंगा, वह खतरनाक
है। क्योंकि
जो जान लगा
सकता है, वह
जान ले सकता
है। जो आदमी
भी कहता है कि
जिंदगी लगा
दूंगा, शहीद
हो जाऊंगा,
उससे जरा
सावधान रहना।
क्योंकि शहीद
होने के पहले,
वह दस-पचास
को शहीद
करवाएगा, तभी
शहीद हो सकता
है। शहीद
खतरनाक है।
शहीदी का भाव
खतरनाक है।
क्योंकि जब वह
अपनी जान लगा देता
है, दो कौड़ी
की समझता है
अपनी जान, तो
आपकी कितनी कौड़ी की
समझेगा? किसी
मूल्य की नहीं
समझता है।
आपको आदमी
उतना ही मूल्य
देता है, जितना
अपने को देता
है; उससे
ज्यादा नहीं
देता।
आस्तिक
संशयहीन
दिखाई पड़ता है, संदेह भीतर
होता है।
इसलिए उसका
निःसंशय होना,
सच्चा नहीं
हो सकता; भीतर
का कीड़ा धक्का
देता रहता है।
उसी को दबाने
के लिए वह
बिलकुल पक्का
मजबूती से खड़ा
रहता है कि
मैं मानता हूं
कि ईश्वर है। और
अगर किसी ने
कहा, नहीं
है, तो ठीक
नहीं होगा। जब
कोई कहे कि
किसी ने कहा कि
नहीं है, तो
ठीक नहीं होगा,
तब समझ लेना
कि उसके भीतर
संशय का कीड़ा
है।
शास्त्र
हैं ऐसे, जो
कहते हैं, विरोधी
की बात मत
सुनना। बड़े
कमजोर
शास्त्र हैं!
क्योंकि
विरोधी की बात
के सुनने में
डर क्या है? डर यही है कि
भीतर का अपना
संशय कहीं
विरोधी की बात
सुनकर ऊपर न आ
जाए। और कोई
डर नहीं है।
नास्तिक
भी घबड़ाता
है। वह भी
अपने
अविश्वास को
जोर से पकड़ता
है। नास्तिक
और आस्तिक डागमेटिस्ट
होते हैं, पक्के रूढ़ि
को पकड़े
होते हैं। ऊपर
से दिखता है, संशय बिलकुल
नहीं है; लेकिन
भीतर संदेह का
कीड़ा है।
इसलिए वे
निःसंशय हो
नहीं सकते।
निःसंशय कौन
हो सकता है?
निःसंशय
वही हो सकता
है, जिसने
संदेह को
दबाया नहीं, संदेह को
रूपांतरित
किया, ट्रांसफार्म
किया और
जिज्ञासा
बनाई। जिसने जिज्ञासा
बनाई संदेह को,
अब वह
निःसंशय हो
सकता है। संशय
तो उसी को पैदा
होता है, जिसका
कोई विश्वास
है। जिसका कोई
भी विश्वास नहीं
है, उसके
संशय का कोई
उपाय नहीं है।
संदेह बन जाए जिज्ञासा,
तो संशय बन
जाता है श्रद्धा।
ध्यान
रहे, अगर मैं
कुछ मानता हूं,
तो संशय हो
सकता है। अगर
मैं कुछ भी
नहीं मानता, तो संशय
नहीं होता।
संशय मानने से
पैदा होता है।
अगर मैं कुछ
भी नहीं
मानता--यह भी
नहीं, वह
भी नहीं; हां
भी नहीं, नहीं
भी नहीं; स्वीकार
भी नहीं, अस्वीकार
भी नहीं--अगर
मैं कुछ भी
नहीं मानता, तब संशय
पैदा नहीं
होता।
संदेह
बने जिज्ञासा, तो संशय
बनता है
श्रद्धा।
श्रद्धा उसके
ही पास होती
है, जिसके
पास जिज्ञासा
होती है। कठिन
लगेगी यह बात।
पर जीवन में जटिलताएं
हैं।
जिज्ञासावान
श्रद्धावान
होता है। और
श्रद्धावान
ही जिज्ञासा
कर सकता है।
तब श्रद्धा का
क्या अर्थ हुआ?
श्रद्धा
का सिर्फ इतनी
ही अर्थ हुआ
कि इस आदमी के
पास कोई
विश्वास नहीं, कोई
अविश्वास
नहीं; यह
मुक्त मन है, ओपन माइंड।
श्रद्धावान
वलनरेबल है, खुला हुआ
है।
विश्वास
क्लोज
करते हैं, श्रद्धा
खोलती है।
श्रद्धा एक
ओपनिंग है। विश्वास
को पकड़ा हुआ
आदमी ऐसा है, जैसे फूल की
बंद कली।
श्रद्धा को
उपलब्ध हुआ आदमी
ऐसा है, जैसे
खिला हुआ
फूल--प्रकाश
को सब तरफ से
झेलता हुआ; निःसंशय; सूर्य के
साक्षात्कार
में तत्पर; खोज को
निकला; सूर्य
के सामने नग्न
उघाड़ा।
श्रद्धावान
का अर्थ है, नग्न, उघाड़ा,
दिगंबर, निर्वस्त्र।
कोई क्लोजिंग
नहीं है। कोई ढांक नहीं
है मन के ऊपर।
कोई आवरण नहीं
है। कोई पर्त
नहीं है।
विश्वास की
नहीं, अविश्वास
की नहीं। सब
तरफ से खुला
हुआ है। सब दीवालें
तोड़ दी हैं।
खुले आकाश के
नीचे खड़ा है।
कौन
खड़ा हो सकता
है खुले आकाश
के नीचे? जरा-सा
भी संदेह हो, तो खुले
आकाश के नीचे
खड़ा नहीं हो
सकता; अपने
घर के भीतर
छिपकर
बैठेगा।
संदेह डराता है।
संशय हो, तो
हजार इंतजाम
करके बाहर
आएगा।
निःसंशय हो, तो आ जाता है
बाहर।
ऐसा
निःसंशय
चित्त, श्रद्धावान
चित्त, ऐसा
खुला मन फूल
की तरह, सूर्य
के समक्ष; ऐसा
ही खुला मन, प्रभु के
समक्ष, सत्य
के समक्ष, अस्तित्व
के समक्ष, श्रद्धावान
है। जिसने
अपनी
अश्रद्धा को
दबाने के लिए
कोई विश्वास
नहीं पकड़ा; जिसने अपने
संदेह को
दबाने के लिए
विश्वास-अविश्वास
के जाल में
नहीं उलझा; जिसने कहा, मैं नहीं
जानता, अज्ञानी
हूं; अस्तित्व
के सामने अज्ञानी
की तरह जो खड़ा
है, वह
श्रद्धावान
है।
अस्तित्व
के समक्ष जो
किसी भी तरह
के ज्ञान को पकड़कर खड़ा
होता है, वह
श्रद्धावान
नहीं है।
अस्तित्व के
समक्ष जो किसी
तरह के
सिद्धांत को पकड़कर खड़ा
होता है कि
सत्य मुझे
मालूम है, वह
अस्तित्व को
जानने से डरता
है, इसलिए
सिद्धांत की आड़ में खड़ा
होता है। और
अस्तित्व को
जानेगा नहीं
कभी; सिद्धांत
को ही
अस्तित्व पर
थोपेगा।
कहेगा कि
अस्तित्व ऐसा
होना चाहिए, जैसा मेरा
विश्वास है।
श्रद्धावान
कहेगा, जैसा
हो अस्तित्व,
मैं वैसा ही
उसे पी जाने
को तत्पर और
खुला हूं।
मेरा कोई
विश्वास नहीं,
मेरा कोई
सिद्धांत
नहीं, मेरा
कोई शास्त्र
नहीं। मैं
अज्ञानी हूं।
मुझे कुछ पता
नहीं। तो
प्रभु मुझे
जहां ले जाए। जिसे
कुछ पता नहीं,
वह जाने का
आग्रह नहीं
करता कि मैं
यहां पहुंचूंगा,
तो प्रभु
मुझे वहां ले
चलो। जिसका
कोई विश्वास
नहीं, वह
अस्तित्व से
कहता है, जहां
ले जाओ, वही
मंजिल है।
जहां डूब जाए
नाव, वही
किनारा है।
ऐसी, ऐसी
चित्त
दशा--जहां डूब
जाए नाव, वही
किनारा है।
कोई किनारे का
मुझे पता नहीं
कि कहां ले
चलो। नहीं; किसी लक्ष्य
का मुझे पता
नहीं कि कौन
लक्ष्य है।
किसी प्रयोजन
का मुझे पता
नहीं कि क्या
प्रयोजन है।
मुझे पता नहीं,
मैं कौन
हूं। मुझे पता
नहीं, जगत
क्या है। मुझे
कुछ भी पता
नहीं।
इग्नोरेंस
टोटल है, अज्ञान
पूर्ण है। ऐसे
पूर्ण अज्ञान
में मैं कैसे
कहूं कि मुझे
कहां ले जाओ? मैं कैसे
कहूं कि मुझे
उस मंजिल पर
पहुंचा दो? मैं कैसे
हूं कि मैं
वहां जाना
चाहता हूं? मैं प्रभु
को कैसे आदेश
दूं?
अश्रद्धावान
आदेश देता है
अस्तित्व को।
श्रद्धावान
अपना हाथ पकड़ा
देता
अस्तित्व को, ऐसे ही जैसे
छोटा बच्चा
अपने बाप के
हाथ में हाथ
दे देता है।
फिर वह यह भी
नहीं पूछता, कहां जा रहे
हैं? कहां
ले चल रहे हैं?
क्या है
लक्ष्य? भटका
तो न देंगे? नहीं; वह
छोटा बच्चा
हाथ दे देता
है।
कभी
अपने खयाल
किया! छोटा
बच्चा बाप के
हाथ में हाथ
देकर
निश्चिंत
चलता है। वह
श्रद्धावान है, विश्वासी
नहीं।
क्योंकि
विश्वास तो
तभी होता है, जब संदेह आ
जाए; उसके
पहले नहीं
होता। वह
श्रद्धावान
है। बाप उसे
रास्ते से मोड़ता
है, तो मुड़
जाता है; सीधा
जाता है, तो
सीधा जाता है।
बाप उसे कंधे
पर उठा लेता
है, तो
कंधे पर बैठ
जाता है। वह
यह नहीं पूछता
कि कहां
पहुंचेंगे? कहीं भटका
तो न दोगे? रास्ते
में कोई
दुर्घटना तो न
करवा दोगे? जरा हाथ
सम्हलकर पकड़ना।
वह सारी फिक्र
छोड़ देता है।
वह हाथ छोड़
देता है।
श्रद्धावान
का अर्थ है, ऐसा व्यक्ति,
जिसे ज्ञान
का दंभ नहीं।
ज्ञान का दंभी
कभी श्रद्धावान
नहीं होता।
दिखाई पड़ते
हैं वही लोग श्रद्धावान।
ज्ञान का दंभी
कभी
श्रद्धावान नहीं
होता।
तथाकथित
पंडित कभी
श्रद्धावान नहीं
होते।
अश्रद्धा के
कारण ही
पांडित्य का
जाल बिछाए
रहते हैं।
श्रद्धावान
होता है बालक
की भांति।
कहता है, मुझे
कुछ पता नहीं,
इसलिए जहां
पहुंच जाऊं, वही मंजिल
है। न पहुंचूं,
तो वही
मंजिल है। जो
मिल जाए, वही
उपलब्धि है; जो न मिले, वह भी
उपलब्धि है।
वैसा
श्रद्धावान
चित्त कहता है,
जहां डूब
जाए नाव, जहां
लग जाए, वही
किनारा है।
ऐसा असंशय, ऐसा मुक्त, ऐसा खुला
हुआ व्यक्ति,
ऐसा
निरहंकारी, ऐसा विनम्र,
ऐसा आग्रहशून्य,
श्रद्धावान
है।
कृष्ण
कहते हैं, जितेंद्रिय
पुरुष और
श्रद्धावान...।
क्योंकि
जितेंद्रिय
हो जाए कोई और
श्रद्धावान न
हो, तो
अहंकार को उपलब्ध
हो सकता है।
जितेंद्रिय
हो जाए कोई, जीत ले अपनी
इंद्रियों को
और श्रद्धा न
हो, तो
इंद्रियों की
जीत अहंकार को
और प्रगाढ़
कर जाएगी, और
अकड़ आ जाएगी
भारी, कि
मैंने क्रोध
को जीत लिया; कि मैंने
काम को जीत
लिया; कि
मैं
ब्रह्मचर्य
को उपलब्ध हुआ
हूं; कि
मैं त्याग पा
गया; कि
मैं संन्यासी
हूं; कि
मैं साधु हूं;
कि मैं
तपस्वी हूं।
जिसको
श्रद्धा न हो
साथ, अगर वह
इंद्रियों को
जीत ले, तो
वह वैसे ही
भ्रम में पड़
जाएगा, जैसे
बहिर्प्रकृति
को जीतकर
वैज्ञानिक
भ्रम में पड़
जाता है कि मैं
सब कुछ हूं; सुप्रीम हो
गया!
अंतःप्रकृति
को जीतकर भी
अहंकार आ सकता
है, अगर
श्रद्धा न हो।
इंद्रियों की
विजय भी अहंकार
की विजय बन
सकती है। हो
सकता है। और
अहंकार की
विजय आत्मा की
हार है।
इसलिए
कृष्ण तत्काल
जोड़ देते हैं, इतना ही
कहकर छोड़ नहीं
देते, जितेंद्रिय
पुरुष; श्रद्धावान
भी। वह कंडीशन
गहरी है। वह
पूरी न हो, तो
जितेंद्रिय
पुरुष
अहंकारी हो
सकता है।
अक्सर
ऐसा होता है।
जो आदमी
थोड़ा-बहुत
क्रोध करता है, वह उतना
अहंकारी नहीं
होता, जितना
जो क्रोध नहीं
करता, वह
होता है।
क्यों? क्योंकि
जो क्रोध करता
है, क्रोध
उसे विनम्र भी
कर जाता है; यह भी बता
जाता है कि
अपनी
सामर्थ्य
कितनी है!
जरा-सी बात
में तो अपनी केटली गरम
हो जाती है; पतला है
चद्दर, बहुत
मोटा नहीं है।
जो आदमी
जरा-जरा सी
बात में, क्षुद्र-क्षुद्र
बात में होश
खो देता है, उसे यह भी तो
पता चलता है
कि अपनी सीमा
क्या है!
ध्यान
रहे, जो आदमी
क्रोध कर लेता,
काम के
वशीभूत हो
जाता, लोभ
कर लेता, वह
जानता है--वह
जानता है कि
अपनी सीमा है।
और ध्यान रहे,
ऐसा आदमी
बहुत अहंकारी
नहीं हो सकता।
क्योंकि
अहंकार को खड़े
होने के लिए
उसके पास बहुत
फाउंडेशंस
नहीं होते।
जरा-जरा सी
बात में तो सब
गड़बड़ हो जाता
है! अपने पर ही
तो भरोसा नहीं
है। अहंकार
क्या करें? और जो आदमी
क्रोध करता, लोभ करता, बेईमानी भी
कर लेता, वह
दूसरों के
प्रति भी
दयावान होता
है। क्योंकि
वह जानता है, हम भी कमजोर
हैं, दूसरे
भी कमजोर हैं।
इसलिए
साधु-संत
अक्सर कठोर और
क्रूर हो जाते
हैं। क्योंकि
वे क्रोध कभी
नहीं करते; इसलिए दूसरा
अगर क्रोध कर
ले, तो
उसकी गर्दन
में फांसी
लगाने की
इच्छा पैदा हो
जाती है।
क्योंकि
उन्होंने कभी
वासना नहीं की;
तो दूसरे के
मन में वासना
आ जाए, तो
नर्क में
डालने की
इच्छा हो जाती
है। साधु-संत,
तथाकथित, श्रद्धावान
नहीं, लेकिन
जो किसी तरह
इंद्रियों को
जीतने की
चेष्टा में
लगे रहते हैं;
खतरनाक हो
जाता है उनका
मामला बहुत
बार। इसलिए
साधु-संत को
दयावान पाना
जरा कठिन है।
साधु
और दयावान
पाना जरा कठिन
है! इसका मतलब
यह हुआ कि
साधु पाना
कठिन है।
रास्ते पर
चलते हुए जिस
आदमी के मन
में लोभ नहीं
आया, क्रोध
नहीं आया, वासना
नहीं आई, काम
नहीं आया, वह
दूसरे के
प्रति कभी भी
दयावान हो
नहीं पाता।
क्योंकि वह
कहता है, जो
मुझे नहीं हुआ,
वह तुम्हें
हो रहा है!
पापी हो।
लेकिन
जिसके मन में
सब हुआ, जो
दूसरे को हो
रहा है, वह
अनिवार्य रूप
से, अनिवार्य
रूप से विनम्र
हो जाता है।
और जानता है
कि मुझ पर
मेरा ही वश
नहीं; अगर
दूसरे का वश
नहीं, तो
कुछ नर्क में
जाने की बात
नहीं हो गई है!
यह स्वभाव है
मनुष्य का, टु इर इज़
ह्यूमन। वह इस
बात को समझ
पाता है कि
भूल आदमी से
होती है।
जितेंद्रिय
पुरुष अगर
श्रद्धावान न
हो, तो खतरे
हैं। इसलिए
कृष्ण तत्काल जोड़ते हैं,
जितेंद्रिय
और
श्रद्धावान।
श्रद्धावान
होगा, तो
जितेंद्रिय
होकर, उसकी
जो
जितेंद्रिय
से उपलब्ध
शक्ति है, वह
अहंकार को
नहीं, आत्मा
को मिलेगी।
जितेंद्रिय, श्रद्धावान,
शांति को
उपलब्ध हो
जाता है, परम
शांति को
उपलब्ध होता
है।
शांति
क्या है? दि
सुप्रीम साइलेंस,
अल्टिमेट साइलेंस,
यह परम
शांति क्या है?
अशांति
क्या है? अशांति
है चित्त का
कंपन, उत्तेजना।
उत्तेजित
चित्त-दशा
अशांति है। जैसे
झील--आंधियों
के थपेड़ों
में; तूफान
में चट्टानों
से टकराती हुई
लहरें, हवा
से जोर मारती
लहरें; सब
उद्विग्न, उदभ्रांत--ऐसा चित्त
अशांत है।
शांत
चित्त--झील की
तरह मौन; हवाओं
के थपेड़े
नहीं; लहरों
का शोरगुल
नहीं; कोई
संघर्ष नहीं;
मौन।
सुख
में भी
उत्तेजना है, दुख में भी
उत्तेजना है।
इसलिए शांति
सुख और दुख के
पार है। सुखी
आदमी शांत
नहीं होता; सुखी आदमी
भी अशांत होता
है। दुखी आदमी
भी शांत नहीं
होता; दुखी
आदमी भी अशांत
होता है।
क्योंकि सुख
की अपनी
उत्तेजना है;
प्रीतिकर
लगती है, यह
हमारी धारणा
है। दुख की
अपनी
उत्तेजना है;
अप्रीतिकर
लगती है, यह
हमारी धारणा
है।
और
इसलिए जो एक
को दुख है, वह दूसरे को
सुख भी हो
सकता है। और
इसलिए जो एक को
सुख है, वह
दूसरे को दुख
भी हो सकता
है। और इसलिए
जो आज आपको
सुख है, वह
कल दुख हो
सकता है। और
इसलिए जो आज
आपको दुख है, वह कल सुख हो
सकता है। कनवर्टिबल
है; सुख
दुख में बदल
सकते हैं।
क्योंकि
दोनों उत्तेजनाएं
हैं। सिर्फ
दृष्टिकोण से
फर्क पड़ता है
कि क्या सुख
और क्या दुख।
सुख
में भी हार्ट
फेल हो जाते
सुना जाता है।
सुख में भी
हृदय-गति बंद
हो जाती है।
निश्चित ही, सुख बड़ी
तीव्र
उत्तेजना
होगी। मिलता
नहीं है हम
सबको सुख, इसलिए
सबका नहीं
होता। मिलता
ही कम है। या
मिलता है, तो
इतना
रत्ती-रत्ती
मिलता है कि
हम इम्यून
हो जाते हैं; हम समर्थ हो
जाते हैं
झेलने में।
इकट्ठा मिल जाए,
लाटरी की
तरह मिल जाए, कि दस लाख
रुपए की लाटरी
मिल गई किसी
को, तो
खतरा है।
लाटरी तो
मिलेगी, लाटरी
पाने वाला
नहीं बचेगा।
सुख
इकट्ठा आ जाए, तो तोड़ जाता
है, दुख से
भी ज्यादा तोड़
जाता है।
क्योंकि दुख
परिचित है, उसके हम इम्यून
हैं, वह
रोज आता है।
इसलिए कितना
भी आ जाए, दुख
में हार्ट फेल
होते हुए नहीं
सुने जाते। बड़े
से बड़ा दुख
आदमी झेल जाता
है; हृदय-गति
बंद नहीं
होती।
क्योंकि दुख
इतने हैं जीवन
में, हमारी
दृष्टि ऐसी
गलत है कि
अधिक दुख हमने
बना रखे हैं, तो हम झेल
जाते हैं!
लेकिन सुख? हमारी
दृष्टि ऐसी है
कि सुख हमने
बनाए नहीं। कभी
कोई सुख अगर
हमारी दृष्टि
के अनुकूल पड़कर
हम पर छा जाता
है, तो
खतरा है। फिर
सुख की
उत्तेजना भी
थोड़ी देर में
अप्रीतिकर हो
जाती है। सब उत्तेजनाएं
अप्रीतिकर हो
जाती हैं।
सुना
है मैंने, नादिर एक
स्त्री को
प्रेम करता
था। लेकिन उस
स्त्री ने
नादिर की तरफ
कभी ध्यान
नहीं दिया।
नादिरशाह
साधारण आदमी
नहीं था, असाधारण
आदमी था।
हत्यारों में
उस जैसा असाधारण
दूसरा नहीं
है। अभी-अभी
हमने कुछ
रिकार्ड तोड़े
हैं--हिटलर, स्टैलिन के
साथ। लेकिन
हिटलर और
स्टैलिन का जो
हत्यारापन
है, वह बड़ा
परोक्ष है।
उन्हें कभी
ठीक पता नहीं
चलता कि वे
मार रहे हैं।
नादिरशाह का हत्यारापन
सीधा, प्रत्यक्ष
था; वही
मार रहा था
सामने छाती
में।
नादिरशाह
को उस स्त्री
ने ध्यान नहीं
दिया। लेकिन
जब नादिरशाह
को पता चला कि
वह उसके ही एक पहरेदार
को, साधारण
सिपाही को
प्रेम करती है,
तो पागल हो
गया। अपने बुद्धिमानों
को उसने
बुलाया और कहा
कि सजा बताओ, क्या सजा
दूं? बुद्धिमान
हैरान हुए, क्योंकि
नादिरशाह सजा इनवेंट
करने में इतना
कुशल था कि वह बुद्धिमानों
से पूछे? बुद्धिमान
थोड़े हैरान
हुए! उन्होंने
कहा, आपकी
कुशलता हम न
पा सकेंगे।
आपसे ज्यादा
कुशल और कौन
है? सताने में आप
ऐसी-ऐसी
तरकीबें
निकालते हैं!
आपसे ज्यादा
हम कुछ न बता
सकेंगे।
लेकिन
नादिरशाह ने कहा
कि नहीं; मैं
जो भी सोच सका,
सब कम पड़ता
है। तुम कुछ
ऐसा सोचकर आओ
कि जैसा कभी
किसी ने किसी
को न सताया
हो।
उसके
विद्वानों
में से एक मनसशास्त्री
ने कहा कि अगर
मेरी मानें, तो मैं आपको बताऊं।
नादिरशाह मान
गया, जो
उसने बताया।
और सजा दी गई।
ऐसी सजा पहली
दफा दी गई; और
अगर बहुत दफे
दी जाए, तो
दुनिया में
बड़ी मुसीबत हो
जाए। सजा बड़ी
अजीब थी। सोच
भी नहीं सकते,
ऐसी थी।
दोनों को
नग्न करके, आलिंगन में
बांधकर
रस्सियों से,
और एक खंभे
में बांध दिया
गया। न खाना, न पीना।
दोनों के
चेहरे
एक-दूसरे की
तरफ। क्षणभर
को तो उन्हें
लगा कि हमारे
जीवन का
स्वर्ग मिल
गया। इसी के
लिए आतुर थे
कि एक-दूसरे
की बांह में
पहुंच जाएं!
पहुंच गए!
थोड़े हैरान हुए
कि नादिर को
यह क्या हुआ
है! लेकिन
उन्हें पता
नहीं कि एक
मनोवैज्ञानिक
ने सलाह दी
है। और
राजनीतिज्ञों
को जब भी
मनोवैज्ञानिक
सलाहकार मिल
जाएंगे, तब
दुनिया में
जितनी दुर्घटनाएं
होंगी, उतनी
और कभी नहीं
हो सकतीं।
मिनट, दो मिनट, फिर
घबड़ाहट
शुरू हुई।
क्योंकि कोई
किसी को
आलिंगन में ले
ले, तो
क्षणभर में
आलिंगन टूट
जाए, तो
सुख का खयाल
रह जाता है।
दस मिनट रह
जाए, तो घबड़ाहट
और बेचैनी
शुरू हो जाती
है। पंद्रह
मिनट, आधा
घंटा...। जिन
ओंठों में
समझा था कि
गुलाब के फूल
खिलते हैं, उनसे बदबू
आने लगी। कहीं
खिलते नहीं, किन्हीं
ओंठों में
गुलाब के फूल
नहीं खिलते।
सिर्फ उन
कवियों की
कविताओं में
खिलते हैं, जिन्हें
ओंठों का कोई
पता नहीं है।
जिनको भी ओंठों
का थोड़ा अनुभव
है, वे
जानते हैं, फूल नहीं
खिलते। सब तरह
की बदबू मुंह
से उठती है।
उठने लगी।
दिन
बीता, चौबीस
घंटे हो गए।
सोए नहीं। रातभर
की तंद्रा
आंखों में, शरीर में भर
गई। ऐसा लगने
लगा कि दोनों
लाश हो गए
हैं। आदमी
जिंदा नहीं
हैं। फिर
मल-मूत्र भी
बहने लगा; क्योंकि
दो दिन बीत
गए। फिर तो
गंदगी भारी हो
गई। फिर तो वे
चीखने-चिल्लाने
लगे कि हमें छुड़ा दो; माफ करो।
लेकिन नादिर
रोज आकर देख
जाता कि
प्रेमियों की
क्या हालत है!
फिर तो
ऐसा मन होने
लगा कि अगर
हाथ खुले हों, तो एक-दूसरे
की गर्दन दबा
दें। उस जगत
में उन दोनों
को उन क्षणों
में जैसी
शत्रुता
अनुभव हुई
होगी, ऐसी
किन्हीं
प्रेमियों को
कभी नहीं हुई
है।
प्रेमियों
का सबसे बड़ा
सौभाग्य यह है
कि वे कभी मिल
न पाएं। मिल
जाएं, तो
उपद्रव शुरू
होते हैं। और
इस भांति मिल
जाएं, इस
पूरी तरह मिल
जाएं, तब
तो बहुत
कठिनाई है।
पंद्रह दिन
बाद सोच सकते
हैं कि क्या
हालत हुई
होगी! दो
लाशों की तरह
मुर्दा, पागल,
विक्षिप्त!
कहते
हैं कि जब
पंद्रह दिन
बाद
मनोवैज्ञानिक
ने सलाह दी कि
अब छोड़ दो, अब दूसरा
मजा देखो, उन
दोनों को छोड़
दिया। वे
दोनों
एक-दूसरे की तरफ
पीठ करके जो
भागे, तो
दोबारा
जिंदगी में
फिर कभी नहीं
मिले। फिर कभी
एक-दूसरे को
देखा भी नहीं।
बड़ी कठिन रही
होगी सजा।
सब सुख
दुख हो जाते
हैं। और सब
दुख भी अभ्यास
से सुख हो
जाते हैं। एक
आदमी पहली दफा
सिगरेट पीता
है, तो सुख
नहीं मिलता, सिर्फ
तिक्तता
पहुंच जाती है
मुंह में।
गंदा धुआं; खांसी, और
बदबू; और घबड़ाहट; बेचैनी!
पहली दफा आदमी
शराब पीता है,
तो कभी सुख
नहीं मिलता।
लेकिन शराब
पिलाने वाले
कहते हैं, टेस्ट
पैदा करना
पड़ता है, ट्रेन
करना पड़ता है।
वे कहते हैं
कि ऐसे थोड़े ही
है, यह कोई
साधारण चीज
थोड़े ही है।
यह शास्त्रीय
संगीत जैसी
चीज है।
अभ्यास से
स्वाद का जन्म
होता है। मुंह
में कड़वाहट
छूट जाती है, छाती तक जलन
पहुंच जाती है,
श्वास की
पूरी नली
विरोध और
बगावत करती है,
पहले दिन
शराब पीने पर।
लेकिन अभ्यास
से शराब
प्रीतिकर हो जाती
है।
सुख भी
उत्तेजना, दुख भी
उत्तेजना, इसलिए
उत्तेजनाएं
एक-दूसरे में
बदल सकती हैं,
बदल जाती
हैं।
शांति, परम शांति
वह है, जहां
कोई उत्तेजना
नहीं है--न सुख
की, न दुख
की। जहां सुख
भी नहीं, जहां
दुख भी नहीं, ऐसा जहां
परम शांत हुआ
चित्त, वहीं
आनंद फलित
होता है, वहीं
प्रभु का
द्वार खुलता
है, वहीं
परम सत्य में
प्रवेश होता
है।
जितेंद्रिय
हुआ, श्रद्धा
से युक्त, शांत
हुआ मन, परम
सत्य, निगूढ़ सत्य में
प्रविष्ट हो
जाता है।
प्रश्न:
भगवान
श्री, श्रद्धा
ज्ञान का सहज
परिणाम है, अथवा ज्ञान
को उपलब्ध
होने के पहले
श्रद्धा का
होना
अनिवार्य है?
कृपया इसे
समझाएं।
श्रद्धा
तो ज्ञान का
अंतिम परिणाम
है; लेकिन
श्रद्धावान
होना ज्ञान का
पहला चरण है।
श्रद्धा तो
पूर्णता है।
इसलिए कृष्ण
यह नहीं कह
रहे, श्रद्धा;
वे कह रहे
हैं, श्रद्धावान।
श्रद्धावान
तो एप्टिटयूड
है, वह तो
स्वभाव का एक
लक्षण है, वह
तो बीज है।
श्रद्धा तो, पूर्ण
श्रद्धा तो
उपलब्ध होती
है तब, जब
सब
जिज्ञासाओं
का अंत हो
जाता है, जब
सब संदेह गिर
जाते हैं। जब
जानना घटित
होता है, जब
जान ही लिया
जाता है, तब
श्रद्धा
उपलब्ध होती
है।
लेकिन
वह तो अंतिम
है; उसकी बात
करनी बेकार
है। अर्जुन से
तो बेकार है
बात करनी।
बुद्ध से बात
कर रहे होते
कृष्ण, तो
करते। अर्जुन
से तो
श्रद्धावान
होने की बात
करनी
अर्थपूर्ण
है। यात्रा की
मंजिल पर पहला
चरण, श्रद्धावान।
यात्रा के
अंतिम पड़ाव
पर, श्रद्धा।
वह श्रद्धावान
होना ही अंततः
श्रद्धा बनती
है। वह पहला चरण
ही आखिर में
मंजिल बन जाती
है। इसलिए
श्रद्धा के
दोनों अर्थ
खयाल में
रखें।
एक तो
श्रद्धावान
होने का मतलब
है, अभिमुखता;
श्रद्धा की
तरफ यात्रा; श्रद्धा की
तरफ आंखें; श्रद्धा की
तरफ चलना, श्रद्धावान
होने का अर्थ
है। फिर जब
पहुंच गए, जब
श्रद्धा ही
घटित हो जाती
है, तब
श्रद्धावान
नहीं होता
आदमी; आदमी
ही श्रद्धा
होता है। तब
चित्त
श्रद्धावान
नहीं होता, तब चित्त
श्रद्धा ही हो
जाता है। तब
श्रद्धा एक
गुण नहीं होती;
तब श्रद्धा
समग्र
अस्तित्व बन
जाती है। तब
श्रद्धा एक
झुकाव नहीं
होती--यात्रा
नहीं, तीर
की तरह कहीं
जाती हुई
नहीं--तब
श्रद्धा मंजिल
होती है। जाती
हुई नहीं, ठहरी
हुई, खड़ी
हुई। नदी की
तरह भागती हुई
नहीं होती
श्रद्धा, फिर
सागर की तरह
ठहरी हुई होती
है।
श्रद्धावान, नदी की तरह
भागती हुई
श्रद्धा का
नाम है। श्रद्धा,
सागर की तरह
ठहराव का नाम
है। श्रद्धा,
अर्थात
पहुंच गए।
श्रद्धावान, अर्थात
पहुंच रहे
हैं। दोनों
अर्थ हैं।
पर
कृष्ण ने
अर्जुन को जो
कहा, वह पहले
अर्थ की
दृष्टि से
कहा। दूसरे की
बात करनी
बेकार है।
वहां तो पहुंच
जाएंगे। पहला
होना चाहिए।
यात्रा की बात
ठीक है; मंजिल
तो आ जाती है।
रास्ते की बात
ठीक है; मंजिल
तो आ जाती है।
मंजिल की
चर्चा की भी
नहीं जा सकती।
मंजिल को कहने
का भी उपाय
नहीं है। प्रयोजन
भी नहीं है।
इसलिए
समस्त जानने
वालों ने विधि
की, मेथड की बात की है,
मंजिल की
नहीं। मंजिल
की तरफ सिर्फ
कभी-कभी इशारे
हैं। कैसे
पहुंचें, इसकी
बात है। मंजिल
की तरफ
कभी-कभी इशारा
है, सिर्फ
इसी को समझाने
के लिए कि
कैसे
पहुंचें।
कभी-कभी, जैसे
कृष्णमूर्ति
के मामले में,
मंजिल की
बात ही की
जाती है और
मार्ग की बात
छोड़ दी जाती
है। तब
कृष्णमूर्ति
जैसा व्यक्ति
भूल जाता है
कि सुनने वाले
कृष्ण नहीं
हैं, अर्जुन
हैं। और सुनने
वाले कृष्ण
कभी भी नहीं होंगे;
क्योंकि
कृष्ण किसलिए
सुनने आएंगे?
इसलिए
इधर
कृष्णमूर्ति
को पीछे-पीछे
बड़ा विषाद
मालूम होता है, फ्रस्ट्रेशन भी मालूम
होता है।
भीतरी, आंतरिक
नहीं, अपने
लिए नहीं; लेकिन
चालीस साल से
जिनसे बोल रहे
हैं उनके लिए।
करुणापूर्ण
है विषाद।
विषाद मालूम
होता है कि
चालीस वर्ष से
समझा रहा हूं
इनको, ये
वही के वही
लोग! वही
सामने हर बार
आकर बैठ जाते
हैं। फिर वही
सुन लेते हैं;
फिर सिर
हिलाते हैं।
फिर वही सवाल
पूछते हैं। फिर
वही उत्तर
पाते हैं। फिर
खाली हाथ लौट
जाते हैं। फिर
अगले वर्ष
खाली हाथ वापस
आ जाते हैं।
वही के वही
लोग! अगर मरघट
पर बोलते होते
कृष्णमूर्ति,
तो कोई खास
नुकसान न
होता। अगर
दीवाल से
बोलते होते, तो कोई खास
नुकसान न
होता।
कृष्णमूर्ति
के साथ पहली
दफा एक
दुर्घटना घट गई
और वह
दुर्घटना यह
है कि वे
मंजिल की बात
कर रहे हैं, मार्ग की
नहीं। वे
मंजिल की इतनी
बात कर रहे हैं,
जितनी
मार्ग की करनी
चाहिए; और
वे मार्ग की
इतनी बात कर
रहे हैं, जितनी
मंजिल की करनी
चाहिए। अगर
कभी मार्ग के संबंध
में कोई शब्द
आ जाता है, तो
घबड़ाहट
से जल्दी वह
उसको दूसरी
पंक्ति में
नष्ट कर देते
हैं। मंजिल!
क्या, हो क्या गया?
ऐसा अब तक
नहीं हुआ था।
पृथ्वी पर ऐसा
अब तक नहीं
हुआ था कि
किसी आदमी को
ज्ञान की किरण
के फूटने के
साथ, अंतिम
को, मंजिल
को, कहने
का ऐसा भाव
नहीं हुआ था।
कृष्णमूर्ति
को हुआ। होने
का कुछ विशेष
कारण है।
कृष्णमूर्ति
को दूसरे लोगों
ने साधना
करवाई; खुद
नहीं की।
कृष्णमूर्ति
को दूसरे
लोगों ने, लीडबीटर ने, एनीबीसेंट ने साधना
करवाई।
कृष्णमूर्ति
पर साधना जैसे
बाहर से आई।
भीतर सत्व था,
भीतर पिछले
जन्म तक आ गई
संभावना थी।
भीतर मौजूद
था। क्योंकि
अकेले बाहर से
कुछ करवाया
नहीं जा सकता,
जब तक भीतर
मौजूद न हो।
सूखी लकड़ी थी
भीतर, बाहर
से पकड़ाई
गई आग। पकड़
गई। लेकिन पकड़ाई
गई बाहर से।
और जब भी कोई
चीज बाहर से पकड़ाई
जाती है, तो
मन उसका विरोध
करता है।
अच्छी से
अच्छी चीज का
भी विरोध करता
है।
इसलिए
कृष्णमूर्ति
के मन में
विधियों के
प्रति, मेथड के प्रति एक
अनिवार्य
विरोध पैदा हो
गया। वे बाहर
से पकड़ाए
गए उन्हें।
गुरुओं के
प्रति एक
विरोध पैदा हो
गया; क्योंकि
गुरु उनको ऊपर
से थोपे हुए
मिले। चुने
हुए नहीं थे, खोजे नहीं थे
उन्होंने।
अगर कोई आदमी
खुद गुरु खोजता
है, तो
गुरु कभी
दुश्मन नहीं
मालूम पड़ता
है। लेकिन अगर
गुरु किसी को
खोज ले, तो
झंझट हो जाती
है। हालांकि
मजा यह है कि
जब गुरु खोजता
है, तो ठीक
से खोजता है।
और शिष्य जब
खोजता है, तो
गलत खोजता है।
लेकिन अपनी
गलत खोज भी
ठीक मालूम
पड़ती है, दूसरे
की ठीक खोज भी
गलत मालूम
पड़ती है।
शिष्य
कैसे खोजेगा
गुरु को? अगर
गुरु को खोजने
की योग्यता हो,
तो
परमात्मा को
खोजने में कोई
बाधा नहीं है।
जितनी
योग्यता से
गुरु खोजा
जाता है, उतनी
योग्यता से
परमात्मा
खोजा जा सकता
है।
इसलिए
शिष्य कभी
गुरु को खोज
नहीं सकता।
हमेशा गुरु ही
शिष्य को खोज
सकता है।
लेकिन गुरु को
इतनी कुशलता
बरतनी चाहिए
कि शिष्य को
ऐसा लगे कि
उसने ही उसे
खोजा है। नहीं
तो कठिनाई हो
जाती है।
कृष्णमूर्ति
के साथ यह
दिक्कत हो गई।
कृष्णमूर्ति
को कभी नहीं
लगा कि
उन्होंने इनको
खोजा है; लीडबीटर और एनीबीसेंट
ने ही उनको
खोजा है। और
वह सब मामला
ऐसा हो गया कि
गुरुओं के
प्रति भी विरोध
रह गया और
विधि के प्रति
भी विरोध रह
गया। लीडबीटर
को मरे लंबा
वक्त हो गया। एनीबीसेंट
को मरे लंबा
वक्त हो गया।
कृष्णमूर्ति
के मन से वह
बात अब तक
जाती नहीं है।
वे लड़े चले
जाते हैं लीडबीटर
से; लड़े
चले जाते हैं
विधियों से।
और मंजिल की
बात किए चले
जाते हैं। जो
सुनने वाले
हैं, वे
अगर कृष्ण की
तरह हों, तब
तो ठीक। वे
समझ जाएं कि
बिलकुल ठीक कह
रहे हैं।
लेकिन सुनने
नहीं आता
कृष्ण जैसा
आदमी। सुनने
तो अर्जुन
जैसा आदमी आता
है। इसलिए सब
व्यर्थ हुआ
जाता है।
वे
श्रद्धा की
बात कर रहे
हैं, करनी
चाहिए
श्रद्धावान
की। यह खयाल
में लेंगे, तो समझ में आ
जाएगा।
कृष्ण
श्रद्धावान
की बात कर रहे
हैं, जितेंद्रिय,
श्रद्धावान!
शेष
रात में
लेंगे।
अब जो
श्रद्धावान
हैं, वे थोड़ा
कीर्तन में
डूब जाएं। जो
अश्रद्धावान
हैं, वे
बिलकुल
चुपचाप चले
जाएं। जो मध्य
में हैं, वे
बैठकर थोड़ी
ताली बजाते
रहें।
आज इतना ही।
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