जिनसूत्र--(भाग--2)
प्रश्नसार:
1—प्रश्नकर्ता
के ख्याल में,
भगवान का एक ही
बात अनेक—अनेक
ढंगों से कहना, पर सुनते समय
उसे लगना जैसे
पहली बार सुनता
हो। और इतना आनंद
मिलना कि वापिस
घर लौटने का मन
न होना। क्या
करूं, मैं क्या
करूं कि आपको सुनता
ही रहूं।
2—घर
से चले थे,
अनेकों प्रश्न
से धिरे थे
कल के प्रवचन में
अचानक सारे प्रश्न
गायब हो गये। ऐसा
क्यो और कैसे
हुआ।
3—भगवान
का प्रवचन सुनते
समय आंखों का बंद
होने लगना कानों
का बहरा होने
लगना और चेष्टा
से भी स्थिति
का न सँभालना।
इधर जी की चाह कि
जब परमात्मा समक्ष
है तो उसे निहारता
ही रहूं,
वचनामृत रस
पान करता ही रहूं, कैसे होश पूर्वक
सुनना हो—भक्त
की पूकार......
4—मैं
क्या प्रश्न
करूं और आप क्या
उत्तर दें। प्रश्न
भी आप, उत्तर
भी आप। प्रेम में
प्रश्न हो, उत्तर हो, या चुप्पी?
5—कई
बार भगवान का रंगीन
दिखाई पड़ना—यद्यपि
एक खालीपन की भांति—और
अचानक आनंद से
भर जाना,
ये सब क्या
है?
पहला
प्रश्न:
आप
एक ही बात
कहते हैं
अनेक-अनेक
ढंगों से। पर जब
आपको सुनता
हूं तो उस समय
यही लगता है
कि पहली बार
सुन रहा हूं।
और इतना आनंद
मिलता है कि वापिस
घर लौटकर जाने
का जी नहीं
करता। क्या करूं, मैं क्या
करूं कि आपको
सुनता ही
रहूं!
एक
ही बात है
कहने को।
क्योंकि एक ही
सत्य है जानने
को। सच पूछो
तो एक बात भी
कहने को नहीं
है। जानने को
है कुछ, कहने
को नहीं।
जागने को है
कुछ, सुनने
को नहीं।
कुछ है, जो कहा नहीं
जा सकता। उसी
को कहना है।
ढंग बदल जाते
हैं। और अच्छा
है कि तुम्हें
याद रहे कि मैं
एक ही बात कह
रहा हूं।
ढंगों में
बहुत मत उलझ
जाना। बहुत
लोग उलझ गये
हैं। कोई
हिंदू में, कोई मुसलमान
में, कोई
जैन में, वे
सब ढंग हैं।
कहने के भेद
हैं। अभिव्यंजनाएं
हैं अलग-अलग।
अभिव्यक्तियां
हैं अलग-अलग।
जो कहा गया है,
वह एक है।
और जो कहा गया
है, वह कुछ
ऐसा है कि कहा
नहीं जा सकता
है। इसीलिए
बहुत ढंगों से
कहना पड़ता है
कि शायद एक
ढंग चूक जाए, तो दूसरे
ढंग से पकड़
में आ जाए।
दूसरा चूके, तो तीसरे से
पकड़ में आ
जाए। इसलिए
मैं रोज नये-नये
इशारे करता
हूं। अंगुलियां
अलग-अलग हो
भला। जिस तरफ
इशारा है, वह
निश्चित ही एक
है।
अगर
तुम कल चूक गये, तो आज मत चूक
जाना। यह
निरंतर एक ही
तरफ सतत इशारा
ऐसे ही है
जैसे जलधार
गिरती है पहाड़
से सख्त
चट्टानों पर।
जल तो बहुत
कोमल है, चट्टान
बड़ी सख्त है
पर धार गिरती
ही रहती है, गिरती ही
रहती है, गिरती
ही रहती है, एक दिन
चट्टान टूट
जाती है, रेत
होकर बह जाती
है। कोमल जीत
जाता है सख्त
पर। निर्बल
जीत जाता बलशाली
पर। पहाड़ से
गिरते हुए
झरने को देखकर
तुम्हें कभी
याद आया या
नहीं--निर्बल
के बल राम। नहीं
आया, तो
फिर तुमने
पहाड़ से गिरता
झरना नहीं
देखा। झरना
जीत जाता है, जिसका कोई
भी बल नहीं।
चट्टान हार
जाती है, जिसका
सब बल है।
आदमी
का मन तो है
चट्टान की
भांति। बड़ा
सख्त। सदियों
पुराना। बड़ा
प्राचीन।
सनातन। सदा से
चला आया। और
चैतन्य की धार
है जल, जलधार
की भांति।
अभी-अभी।
अभी-अभी फूटी।
अभी बूंद-बूंद
टपकी। लेकिन
जीत जाएगी
चैतन्य की धार।
तो
रोज-रोज तुमसे
एक ही बात
कहता हूं, वही जलधार
है, वही
जलधार है।
पहले दिन न टूटेगी
चट्टान, दूसरे
दिन टूटेगी।
आज नहीं तो कल,
कल नहीं तो
परसों, चट्टान
को टूटना ही
पड़ेगा।
चट्टान
पुरानी है, पर
निष्प्राण
है। जलधार नयी
है, पर
सप्राण है।
ढंग बदल लेता
हूं, शब्द
बदल लेता हूं।
और इसीलिए
मैंने सभी
शास्त्रों के
शब्द ले लिये
हैं। क्योंकि
जब मुझे यह
दिखायी पड़ गया
कि एक ही है, तो सभी
शास्त्र मेरे
हो गये। अब
मुझे कोई फर्क
नहीं है
महावीर और
मुहम्मद में,
कृष्ण में
और क्राइस्ट
में। ढंग का
फर्क है। दोनों
ढंग प्यारे
हैं।
जिस
ढंग से
तुम्हें समझ
में आ जाए वही
ढंग प्यारा है।
ढंग पर मत
जाना। वह जो
ढंग के भीतर
छिपा है, उस
पर ही ध्यान
रखना। और वह
एक तुम्हें
सुनायी पड़ने
लगे तो फिर
सुनने की भी
जरूरत न रह
जाएगी। वह एक
तुम्हें
दिखायी पड़ने
लगे, तो
फिर दिखाने का
कोई प्रयोजन न
रह जाएगा। आंखवालों
को तो कोई राह
नहीं दिखाता।
अंधों को दिखानी
पड़ती है।
स्वस्थ को तो
कोई औषधि नहीं
पिलाता, रोगी
को पिलानी
पड़ती है। जागो!
उस एक को जिसे
मैं दिखाने की
कोशिश कर रहा
हूं, देखने
की कोशिश करो!
तो जो मैं कह
रहा हूं उसका बहुत
मूल्य नहीं
है। एक बार
समझ में आ जाए,
अंगुली
व्यर्थ हो
जाती है, फिर
तो चांद पर नजर
टिक जाती है।
शास्त्र
व्यर्थ हो
जाते हैं, सत्य
पर आंखें बंध
जाती हैं। उसी
दिन से फिर सुनने-सुनाने
की कोई बात न
रही, पढ़ने पढ़ाने की
कोई बात न
रही।
कबीर
ने कहा है--
"लिखा
लिखी की है
नहीं, देखा
देखी बात।'
पर
बिना इशारों
के आंख
तुम्हारी उस
तरफ जाएगी न।
तो खयाल रखना, कहीं मेरी
अभिव्यंजना
ही बाधा न बन
जाए। कहीं ऐसा
न हो कि तुम
सुनने में ही
रस लेने लगो।
कहीं ऐसा न हो
कि सुनने का
संगीत ही
तुम्हें पकड़ ले।
कहीं ऐसा न हो
कि सुनना ही
तुम्हारी
बेहोशी हो
जाए। कहीं यह
मनोरंजन न बन
जाए। जागरण
बने तो ठीक, मनोरंजन बने
तो चूक गये।
तो तुम मेरे
पास भी आये और
दूर ही रह गये।
मेरे शब्दों
को मत पकड़ना।
उनका उपयोग कर
लेना। और
उपयोग होते ही
उन्हें ऐसे ही
फेंक देना
जैसे खाली चली
हुई कारतूस को
फेंक देते
हैं। फिर उसे
रखने का कोई
अर्थ नहीं।
चली कारतूस को
कौन ढोता है? और जो ढोयेगा,
वह किसी दिन
मुसीबत में
पड़ेगा। वह काम
नहीं आयेगी।
जिस दिन
तुम्हें
जरा-सी झलक
मिली, उसी
दिन शब्द चली
हुई कारतूस हो
गये।
पूछा
है, "एक ही
बात आप कहते
हैं अनेक-अनेक
ढंगों से। पर जब
भी आपको सुनता
हूं तो उस समय
यही लगता है
कि पहली बार
सुन रहा हूं।'
ऐसा
इसलिए लगता है
कि जो मैं
तुम्हें दिखा
रहा हूं, वह
तुम्हें अब तक
दिखायी नहीं
पड़ा। जिस दिन
दिखायी पड़
जाएगा, उस
दिन फिर ऐसा न
लगेगा। फिर
मेरे शब्द
कितने ही नये
हों, महावीर
के बहाने कहूं
कि मुहम्मद के
बहाने कहूं, तुम जल्दी
ही पहचान लोगे
कि बात वही
है। अभी तुम्हें
दिखायी नहीं
पड़ा है। तुमने
सुना है बहुत
बार, ऐसी
तुम्हारे
अंतस-चेतन में
झांई भी
पड़ी है कि
शायद बात वही
है, लेकिन
शायद! अभी यह प्रगाढ़
होकर
तुम्हारा
जीवंत अनुभव
नहीं बना है।
इसलिए
जब भी तुम
मुझे सुनोगे, लगेगा नया।
नया कुछ भी
नहीं है। सत्य
नया कैसे हो
सकता है! सत्य
न नया है, न
पुराना है।
सत्य तो बस
है।
नये-पुराने का
कोई संबंध
सत्य पर नहीं
लगता, क्योंकि
सत्य समय के
बाहर है। नये
और पुराने तो
समय के भीतर
होते हैं।
सत्य कुछ ऐसा
थोड़े ही है कि
कल था और कल
नहीं होगा। या
आज हुआ है।
सत्य तो बस
है। आज-कल
सत्य के भीतर
हो रहे हैं।
सत्य आज-कल के
भीतर नहीं हो
रहा है। जिस
क्षण तुम्हें
यह बात प्रगाढ़
होने लगेगी, टूटेगी तुम्हारी
चट्टान और
जलधार को जगह
मिलेगी, फिर
तुम्हें याद
भी न आयेगी
क्या पुराना
और क्या नया!
फिर तो जो है, वस्तुतः वही
तुम्हें घेर
लेगा। वही
तुम्हारे
बाहर है, वही
तुम्हारे
भीतर है।
और जिस
दिन यह घटना
घट जाएगी, उसी दिन फिर
कहीं भी जाओ, मुझसे दूर न
जा सकोगे। घर लौटो, तो
भी मुझमें ही
लौटोगे। यहां
आओ, तो
मेरे पास
आओगे। न आओ, तो मेरे पास
आओगे। फिर एक
संबंध बनेगा,
जो समय और
स्थान के बाहर
है। फिर एक
सेतु जुड़ जाएगा,
जो देहातीत
है। लेकिन जब
तक नहीं सुना
है, तब तक
बार-बार आना
होगा। आने की
तकलीफ उठानी होगी।
अगर न उठानी
हो तकलीफ तो
जल्दी करो, चट्टान को
टूटने दो।
सुनो! सुनो ही
मत, गुनो! हाथ ही मत
देखो मेरा, उस तरफ देखो
जिस तरफ हाथ
इशारा कर रहा
है। उस अदृश्य
को पकड़ने
की कोशिश करो।
फिर तुम जहां भी
होओगे, जैसे
भी होओगे, कोई
भेद मेरे और
तुम्हारे बीच
संबंध का न
पड़ेगा। फिर
मैं शरीर में
रहूं, तुम
शरीर में रहो,
या न रहो, यह जोड़ कुछ
ऐसा है कि
टूटता नहीं।
अभी तो
लौटने में
तकलीफ होगी।
क्योंकि
लौटकर जब तुम
जाते हो, अकेले
जाते हो, मुझे
अपने साथ नहीं
ले जाते। मैं
चलने को राजी
हूं। तुम अपने
घर में मेरे लिए
जगह ही नहीं
बनाते। सुन
लोगे मुझे, समझ लोगे
मुझे, तो
मैं साथ ही आ
रहा हूं।
मुझसे दूरी
गयी, दुई
गयी। फिर तुम
मुझसे भरे हुए
लौटोगे। जब तक
ऐसा नहीं, तब
तक तो बड़ी
तकलीफ होगी।
अभी
बज्मेत्तरब
से क्या उठूं
मैं
अभी
तो आंख भी
पुरनम नहीं है
अभी इस
खुशी की महफिल
से तो मत उठाओ
मुझे, अभी
तो आंख भी
गीली नहीं
हुई।
अभी
बज्मेत्तरब
से क्या उठूं
मैं
अभी
तो आंख भी
पुरनम नहीं है
तो
तुम्हें
लगेगा जैसे
बे-समय, असमय
तुम्हें उठा
दिया गया है।
ऐसा लगेगा जैसे
अभी जाना न था
और जाना पड़ा।
और अगर ऐसे
तुम गये, तो
घर और भी उदास
हो जाएगा।
जितना पहले था,
उससे भी
ज्यादा। मैं
तुम्हारे घर
को उदास नहीं
करना चाहता।
मैं तुम्हारे
घर को मंदिर
बनाना चाहता
हूं। मैं
चाहता हूं कि
तुम जब घर जाओ,
तो
तुम्हारे घर
का अभिनवरूप
प्रगट हो। मैं
तुम्हें घर से,
संसार से, गृहस्थी से
तोड़ नहीं लेना
चाहता। वही
मेरे संन्यास
का अभिनवपन
है कि मैं
तुम्हें
संसार से तोड़
नहीं लेना चाहता।
मैं तुम्हें
संसार से इस
भांति जोड़
देना चाहता
हूं कि संसार
का जोड़ ही
परमात्मा से
जोड़ बन जाए।
संसार
तुम्हारे और
परमात्मा के
बीच बाधा न
रहे, साधक
हो जाए।
अगर
तुम मुझे ले
जा
सको--थोड़ा-सा
ही सही, थोड़ा-सा
वातावरण मेरा,
थोड़ी-सी
रोशनी मेरी, थोड़ी-सी
श्वासें
मेरी--तो घर
तुम जाओगे, वही घर नहीं
जिसे तुम
छोड़कर आये थे।
पत्नी-बच्चे
तब तुम्हें
पत्नी-बच्चे
ही न रह
जाएंगे, उनमें
भी तुम
परमात्मा की
झलक देख
पाओगे। देख ली
जिसने
परमात्मा की
जरा-सी झलक, फिर वह सभी
जगह उसे देख
पाता है।
पत्थर में देख
पाता है, तो
पत्नी में न
देख पायेगा!
पत्थर में देख
पाता है, तो
पति में न देख
पायेगा! अब
कैसे मजे की
घटना है कि
लोग जीवंत
व्यक्तियों
को छोड़कर
भागते हैं और
पत्थरों में
भगवान को देखते
हैं। तुम्हें
यहां न दिखा, तुम्हें
पत्थर में
कैसे दिखायी
पड़ेगा! और जिसको
पत्थर में दिख
सकता है, वह
भागेगा क्यों?
क्योंकि
उसे सब जगह
दिखायी
पड़ेगा।
दृष्टि
अगर वस्तुतः
जन्मी हो, तो तुम मुझे
छोड़कर जाओगे
ही नहीं। मैं
तुम्हारा
आकाश हो जाऊंगा।
मैं तुम्हें
घेरे हुए
चलूंगा। और
तभी तुम मुझसे
जुड़े। तभी तुम
मेरे
संन्यासी
हुए। अन्यथा
संबंध बुद्धि
का रहेगा। और
तब बार-बार
अड़चन होगी।
जब-जब तुम्हें
जाना
पड़ेगा--और
जाना तो पड़ेगा
ही। जिम्मेवारियां
हैं। जाना तो
पड़ेगा ही, दायित्व
हैं। जाना तो
पड़ेगा ही, तुमने
बहुत से भरोसे
दिये हैं, आश्वासन
दिये हैं।
जाना तो पड़ेगा
ही, क्योंकि
परमात्मा ने
तुम्हें कुछ
करने के लिए
काम दिया है।
वह काम तो
पूरा करना
होगा। भगोड़ापन
मैं नहीं
सिखाता हूं। भगोड़े
मेरे लिए
संन्यासी
नहीं हैं। भगोड़े
में कुछ कमी
है। भगोड़ा
संसार में
परमात्मा को न
देख पाया, अंधा
है। भगोड़ा
वहां से भाग
गया, जहां
जीवन-रूपांतरण
होता, जहां
क्रांति घट
सकती थी, जहां
चुनौती थी।
नहीं, मैं तो
तुम्हें
वापिस भेजूंगा।
तुम्हारी आंख
गीली हुई हो
या न हुई हो, तुम्हें
जाना तो होगा।
जब जाना ही है,
तो मुझे
पीकर जाओ। आंख
गीली क्या, हृदय को
गीला करके जाओ।
और तुम्हारे
हाथ में है।
अगर तुम
प्यासे लौटते
हो, तो कोई
और जिम्मेवार
नहीं है। तुम
मुझे दोष न दे
सकोगे। नदी बह
ही रही थी, तुम
झुके नहीं।
तुमने अंजुलि
न बनायी।
तुमने नदी से
पानी न भरा।
तुम शायद प्रतीक्षा
करते थे कि
नदी अब
तुम्हारे कंठ
तक भी आये।
नदी तुम्हारे
पास से बह रही
थी, लेकिन
झुकने की
तुमने हिम्मत
न दिखायी।
केवल हिम्मतवर
झुक सकते हैं।
समर्पण केवल
वे ही कर सकते
हैं, जिनके
पास महासंकल्प
है। जो बड़े
बलशाली हैं, वे ही केवल
झुकने की
हिम्मत दिखा
पाते हैं। कमजोर
तो डरा रहता
है कि झुकने
से कहीं
कमजोरी का पता
न चल जाए। अड़ा
रहता है, अकड़ा
रहता है।
मनोवैज्ञानिक
कहते हैं कि
जितना भीतर
आदमी हीनभाव
से भरा होता
है उतना ही अकड़कर
खड़ा रहता है
कि किसी को
पता न चल जाए।
झुका, पैरों
में झुका, समर्पण
किया, कहीं
ऐसा न हो कि
लोग कहने लगें,
अरे, कहां
गया तुम्हारा
बल! तो हीनग्रंथि
से भरा हुआ
आदमी हमेशा
अपने को
श्रेष्ठ
मानने की अकड़
रखता है। यह
कमजोर का
लक्षण है।
बलशाली तो झुक
जाता है।
क्योंकि
झुकने से भी
उसका बल मिटता
नहीं। झुकने
से बल बढ़ता
है। क्योंकि झुकने
से वह और भी
ताजा हो जाता
है, नया हो
जाता है, छोटे
बच्चे की
भांति हो जाता
है। देखा
तुमने, तूफान
आता है, आंधी
आती है, बड़े
वृक्ष गिर
जाते हैं, छोटे-छोटे
घास के पौधे
झुक जाते हैं।
तूफान चला
जाता है, घास
के पौधे फिर
खड़े हो जाते
हैं। तूफान
वृक्षों को
गिरा देता है,
घास को नहीं
उखाड़
पाता। घास के
पास कुछ बल है,
जिसका
वृक्षों को
पता नहीं।
झुकने का बल
है। तूफान घास
के पौधों को
सिर्फ ताजा कर
जाता है, हल्का
कर जाता है, धूल-धवांस
झाड़ जाता है।
फिर वापिस खड़े
हैं! बड़े
वृक्ष गिर गये
तो फिर लौट
नहीं सकते, खड़े नहीं हो
सकते।
बड़े
वृक्ष गिरते
क्यों हैं? तूफान तो
नहीं गिराता।
क्योंकि
तूफान गिराता
होता तो छोटे
तो कभी के बह
गये होते।
नहीं, बड़े
वृक्ष तूफान
के खिलाफ अकड़कर
खड़े रहते हैं,
इसलिए गिर
जाते हैं।
छोटे वृक्ष
तूफान के साथ हो
लेते हैं, हवा
पूरब जाती है
तो पूरब झुक
जाते हैं, हवा
पश्चिम जाती
है तो पश्चिम
झुक जाते हैं।
छोटे वृक्ष
कहते हैं, हम
तुम्हारे साथ
हैं। बड़े
वृक्ष कहते
हैं, हम
तुम्हारे
विरोध में
हैं। उसी
विरोध में गिर
जाते हैं।
तुम
अगर मेरे साथ
हो, तो मैं
तुम्हें ताजा
कर जाऊंगा।
तुम अगर पूरी
तरह मेरे साथ
हो, तो
मेरी आंधी तुम
पर से गुजर
जाएगी, तुम्हें
और हरा कर
जाएगी, और
नया कर जाएगी।
और तुम जहां
भी जाओगे, मैं
तुम्हारे
हृदय में धड़कने
लगूंगा।
लेकिन अगर तुम
मेरे साथ नहीं
हो, अकड़े खड़े हो--अकड़
बहुत तरह की
होती हैं, किसी
ने शास्त्र पढ़
लिया तो अकड़ा
खड़ा है। वह कहता
है, यह सब
हमें मालूम है;
किसी ने
थोड़े उपवास कर
लिये तो अकड़ा
खड़ा है। वह
कहता है, हम
कोई साधारणजन
थोड़े ही हैं, इतने उपवास
किये, तपस्वी
हैं; किसी
ने कुछ दान दे
दिया तो अकड़ा
खड़ा है--इस अकड़ को
अपने भीतर
देखो। अगर यह
अकड़ भीतर रही,
तो तुम गीले
न हो पाओगे।
तो तुम सूखे
के सूखे लौट
जाओगे। हो
सकता है, डर
है कि तुम और
भी टूटकर लौट
जाओ। तो तुम
मेरे पास आकर
नये तो न हो
पाओ, और
जराजीर्ण हो
जाओ।
तो जब
मेरे पास हो, झुको। भरो अंजुलि, पीओ। कोई
तुम्हें रोक
नहीं रहा है।
तुम्हीं न रोको,
तो कोई और
बाधा नहीं है।
पूछा
है कि मैं
क्या करूं कि
आपको सुनता ही
रहूं! एक ही
उपाय है, मेरे
जैसे हो जाओ।
और तो कोई
उपाय नहीं है।
क्योंकि अंततः
तो तुम स्वयं
को ही सुनोगे।
अंततः तो
स्वयं को ही
सुनना है।
अंततः तो तुम्हारे
प्राणों में
तुम्हारी ही
वीणा का नाद गूंजेगा।
तुम मेरी वीणा
को सुनकर अपनी
वीणा को पहचान
लो। तुम मेरी
वीणा के तारों
को डोलते, कंपते
देखकर अपनी
वीणा के तारों
को भी तरंगित होने
दो। तुम मेरे
पास वस्तुतः
सजग होकर अपनी
सोयी हुई
संपदा को खोज
लो, जगा लो,
तो तुम मुझे
सुनते रहोगे।
क्योंकि फिर
तुम जो बोलोगे,
वह ठीक वही
होगा जो मैं
बोल रहा हूं।
तुम जो करोगे,
वह ठीक वही
होगा जो मैं
कर रहा हूं।
और दूसरा कोई
उपाय नहीं है।
अगर
तुमने मुझे
दूर रखा, अलग
रखा, भेद
रखा, तो
तुम्हें
बार-बार
लौट-लौटकर
मुझे सुनना
पड़ेगा। यह तो
बंधन हो
जाएगा। यह
बंधन मैं नहीं
चाहता कि तुम
बनाओ। मैं
चाहता हूं तुम
परिपूर्ण मुक्त
हो जाओ। पर एक
ही उपाय है।
जैसा, जो
मुझे हुआ, वही
तुम्हें हो
जाए--हो सकता
है। अगर एक
बीज फूटकर
वृक्ष बन गया,
सभी बीज बन
सकते हैं। जरा
ठीक से भूमि
खोजनी है। और
हिम्मत खोजनी
है भूमि में
बिखर जाने की,
ताकि
अंकुरण संभव
हो जाए।
परमात्मा
को छिपाये
बैठे हो, दबाये
बैठे हो। खोलो
उसे, फैलने
दो उसे। यहां
कोई ऐसा है ही
नहीं जो परमात्मा
को लिये पैदा
न हुआ हो।
परमात्मा
हमारा प्रथम
रूप है, और
अंतिम भी।
परमात्मा
हमारा बीज है,
और हमारा
फूल भी।
दूसरा
प्रश्न:
घर
से चला था तब
मन में अनेकों
प्रश्न चक्कर
काट रहे थे।
अब तक आपके
तीन प्रवचन
सुन चुका हूं।
और कल डोली की
दुल्हन की बात
सुनकर अचानक सारे
प्रश्न गायब
हो गये। और अब
प्रश्न यह है
कि ऐसा क्यों
और कैसे हुआ? कृपया
समझायें।
थोड़ी
देर ठहरो, यह भी गायब
हो जाएगा।
प्रश्न उठ आते
हैं जल्दी
में। ठहरनेवाले
के अपने-आप
गायब हो जाते
हैं।
प्रश्नों के
कोई उत्तर
थोड़े ही हैं।
किसी प्रश्न
का कोई उत्तर
नहीं है।
तुम्हारी समझ
बढ़ जाती है, प्रश्न गायब
हो जाते हैं।
समझ का विकास
है, प्रश्नों
के उत्तर
नहीं।
इसे
थोड़ा खयाल में
लेना।
छोटा
बच्चा है।
खिलौनों से
खेलता है। फिर
बड़ा हो गया।
जब छोटा था, खिलौने
छीनते तो झंझट
पैदा होती।
बिना खिलौनों
के सो भी न
सकता था। बिना
खिलौनों के
भोजन भी न कर
सकता था। खिलौने
ही सब कुछ
थे--संगी-साथी,
सारा
संसार। फिर एक
दिन अचानक उन
खिलौनों को कोने
में छोड़कर
बच्चा भूल ही
जाता है। याद
ही नहीं रहती।
क्या हो गया? बच्चा बड़ा
हो गया।
खिलौनों से
खेलने का समय
जा चुका।
बुद्धि प्रौढ़
हो गयी थोड़ी।
थोड़ी समझ ऊपर
उठ गयी।
जिस
समझ से प्रश्न
उठते हैं, अगर उसी समझ
में तुम रुके
रहे, तो
कोई हल नहीं।
उस समझ के
थोड़े ऊपर उठे
कि प्रश्न
गये। वस्तुतः
सत्संग का यही
अर्थ है कि तुम्हारी
समझ तुम्हारे
प्रश्नों से
ऊपर चली जाए।
प्रश्न नीचे
रह जाएं, बस
गये।
तुम्हारी समझ
जब प्रश्नों
से नीचे होती
है, तो
प्रश्न होते
हैं।
तुम्हारी समझ
जब प्रश्नों
से ऊपर उठ जाती
है, पंख
खोल देती है
आकाश में, प्रश्न
जमीन पर पड़े
रह जाते हैं।
फिर कोई चिंता
नहीं रह जाती।
इसे
खयाल रखो।
असली सवाल
प्रश्नों का
नहीं है, असली
सवाल
तुम्हारी
चित्त दशा का
है। एक खास चित्त
दशा में खास
तरह के प्रश्न
उठते हैं। उसी
चित्त दशा को
बनाये रखे अगर
तुम प्रश्नों
को हल करना
चाहो, हल
नहीं हो सकते।
अकसर लोग यही
कर रहे हैं।
यह असंभव है।
चित्त का तो
कुछ रूपांतरण
नहीं करते।
चित्त तो वही
का वही रहता
है। प्रश्न
पूछते हैं, एक उत्तर
मिलता है।
तुम्हारा
चित्त वही का
वही, उस
उत्तर में से
दस प्रश्न खड़े
हो जाते हैं।
फिर दस उत्तर
ले आओ, हजार
प्रश्न खड़े हो
जाएंगे।
एक
स्कूल में ऐसा
हुआ। एक छोटा
बच्चा
भाग-भागकर
सिनेमा पहुंच
जाता था।
शिक्षक
परेशान था। कुछ
भी पूछो वह किंकर्तव्यविमूढ़
खड़ा हो जाता
था। एक दिन
उसने यह सोचकर
कि चलो कुछ
ऐसा पूछें
जिसका यह
उत्तर दे सके, तो अंग्रेजी
के शब्द पूछे
कि इनका अर्थ
क्या है? वह
खड़ा रह गया
हक्का-बक्का!
वह उनके भी
उत्तर न दे
सका। शिक्षक
ने उसकी
सहायता के लिए
उसके पड़ोसी
विद्यार्थी
से
पूछा--"ड्रीम'
का क्या
अर्थ है? उसने
कहा, स्वप्न!
दूसरे से
पूछा--"गर्ल' का क्या
अर्थ है? उसने
कहा, लड़की।
अब तो बात साफ
थी। उसने इस
लड़के से पूछा--"ड्रीमगर्ल'
का क्या
अर्थ है? उस
लड़के ने कहा,
"हेमामालिनी।'
एक तल
है। उस तल में
से बाहर
निकलना बड़ा
मुश्किल होता
है। सारे
उत्तर, सारे
प्रश्न आखिर
तुम्हारी ही
बुद्धि के हिस्से
बन जाएंगे।
उनसे तुम पार
न जा सकोगे।
इसलिए वास्तविक
सहायता उत्तर
देने से नहीं
होती, वास्तविक
सहायता
तुम्हारी
बुद्धि को नये
आयाम, नये
स्तर, नये
सोपान देने से
होती है। जैसे
ही तुम एक बुद्धि
स्तर से थोड़े
ऊपर गये, तो
अचानक तुम
पाते हो बात
खतम हो गयी।
प्रश्न सार्थक
ही मालूम नहीं
पड़ता, उत्तर
की कौन तलाश
करता है!
प्रश्न ही गिर
जाता है।
सत्पुरुषों
के पास
प्रश्नों के
उत्तर नहीं मिलते, प्रश्न गिर
जाते हैं।
समस्याओं का
समाधान नहीं
होता, समस्याएं
विसर्जित हो
जाती हैं।
थोड़ा
रुको।
जिन्होंने
पूछा है, सरल-हृदय
व्यक्ति
होंगे। जिन्होंने
पूछा है, निष्ठावान
व्यक्ति
होंगे। तीन
दिन ही उन्होंने
मुझे सुना है।
और कल डोली की
दुल्हन की बात
सुनकर उनके
सारे प्रश्न
गायब हो गये।
बड़े सरल-हृदय
होंगे।
उन्हें अपने
पंखों का पता
नहीं होगा। उड़
सकते हैं आकाश
में। जैसे ही
जरा-सी ऊंचाई
आयी, प्रश्न
गये। इस नये
प्रश्न को भी
मत पूछो।
प्रश्न नासमझों
के लिए छोड़
दो। समझदार को
पूछने को कुछ
भी नहीं है।
समझदार को तो
समझने को है, पूछने को
कुछ भी नहीं
है। थोड़ा जागो।
दुल्हन
की बात सुनकर
जैसे उनके
भीतर एक नया
द्वार खुल
गया। खुलना ही
चाहिए, अगर
मेरी बात ठीक
से सुन रहे हो।
ये बातें
सिर्फ बातें
नहीं हैं। ये
बातें बहुत
कुछ लेकर
तुम्हारे पास
आ रही हैं। ये
बातें बहुत ही
गहन संदेश
लेकर
तुम्हारे पास
आ रही हैं। ये
बातें प्रतीक
हैं। इन
प्रतीकों को
अगर तुमने
अपने हृदय में
उतरने दिया, तो न-मालूम
कितने बंधनों
को खोल जाएंगी,
न-मालूम
कितनी गांठों
को सुलझा
जाएंगी।
सरल हो
चित्त, सुनने
की निर्दोषता
हो, बंधे
हुए
पूर्वाग्रह न
हों, तो
प्रश्न बच
नहीं सकते
मेरे पास। बच
सकते हैं केवल
दो तरह के
लोगों के। एक
तो उनके जो
सुनते ही
नहीं। जो बैठे
हैं जड़, पत्थर
की भांति। या
उनके, जो
मानकर ही बैठे
हैं कि उन्हें
पता है, इसलिए
सुनने की कोई
जरूरत नहीं।
तो या
तो सुस्त, अंधेरे में
सोये हुए
लोगों के
प्रश्न नहीं
मिटते, या
उन लोगों के
जिनको
पांडित्य का
पागलपन सवार
हो गया है।
जिनको खयाल है
उन्हें पता
है।
प्रश्न
दो तरह से
उठते हैं। एक
तो प्रश्न
उठता है
जिज्ञासा से।
और एक प्रश्न
उठता है
जानकारी से।
जिज्ञासु का
प्रश्न तो अगर
वह रुका रहे
थोड़ी देर तो
अपने-आप गिर
जाएगा। लेकिन
जानकारी से जो
प्रश्न उठता
है, वह गिरनेवाला
नहीं है। वह
जानकारी
गिरेगी तभी
गिरेगा। तुमने
खयाल किया? कुछ प्रश्न
तो तुम्हारे
जीवन से आते
हैं। वे तो सच्चे
प्रश्न हैं।
कुछ प्रश्न
तुम्हारे शास्त्रीय
बोध से आते
हैं। वे
बिलकुल झूठे
प्रश्न हैं।
जब तक
तुम्हारा
शास्त्र न
गिरेगा तब तक
वे प्रश्न न
गिर पायेंगे।
पर जिन मित्र
ने यह पूछा है,
उनको मैं
कहूंगा, उन्हें
पूछने की कोई
जरूरत नहीं।
धीरज रखें। वे
उन लोगों में
से नहीं हैं, जो अपने को
बचाने आये
हों। उन लोगों
में से हैं, जो मिटाने
आये हैं।
जिगर
और दिल को
बचाना भी है
नज़र
आप ही से
मिलाना भी है
मुहब्बत
का हर भेद
पाना भी है
मगर
अपना दामन
बचाना भी है
उन
लोगों में से
वे नहीं हैं।
उनका दामन
मेरे हाथ में
आ गया। और वे छुड़ाने
वालों में से
नहीं हैं।
उनको मैं
कहूंगा, धीरज
रखें। जैसे और
प्रश्न गिर
गये, यह
प्रश्न भी गिर
जाएगा।
जैसे-जैसे तुम
अपने भीतर ऊपर
उठने लगोगे, जैसे-जैसे
तुम्हारे
भीतर जो होना
है होने लगेगा,
वैसे-वैसे
तुम्हारे
प्रश्न खोते
चले जाएंगे।
एक चित्त की
दशा है, जिसे
निष्प्रश्न
कहें, वही
ध्यान की दशा
है। नहीं कि
ध्यानी के सब
प्रश्न हल हो
जाते हैं, बल्कि
ध्यानी के सब
प्रश्न गिर
जाते हैं। हल
करने की
आकांक्षा
नहीं रह जाती।
प्रश्न व्यर्थ
हो जाते हैं।
चीज
एक है जो अभी
खो के अभी
खोनी है
बात
एक है जो अभी
हो के अभी
होनी है
जिंदगी
नींद है वह जागकर
आने वाली
जो
अभी सो के अभी
सोयी अभी सोनी
है
चीज
एक है जो अभी
खो के अभी
खोनी है
अहंकार
है नहीं
तुम्हारे पास, मगर लगता
है--है।
चीज
एक है जो अभी
खो के अभी
खोनी है
खोयी
हुई ही है।
अहंकार है
नहीं किसी के
पास, सिर्फ
भ्रांति है।
जैसे तुमने
जेब में घर से
पैसे डाले थे
और रास्ते में
कट गये, लेकिन
बाजार में तुम
उसी अकड़ से
चले जा रहे हो जैसे
पैसे जेब में
हों। उसी
गर्मी से! जेब
कट गयी है।
लेकिन
तुम्हारी अकड़
अभी जिंदा है।
क्योंकि
तुम्हें खयाल
है कि जेब में
पैसे हैं। वह
तो तुम जब हाथ
डालोगे जेब
में तब पाओगे।
चीज
एक है जो अभी
खो के अभी
खोनी है
खो
चुके
हो--वस्तुतः
खो चुके हो
ऐसा कहना भी
ठीक नहीं, कभी थी ही
नहीं। जेब कटी
ही हुई है।
प्रथम से ही
कटी है। मगर
तुमने जेब में
हाथ नहीं डाला
है। मैं तुमसे
कहता हूं, तुमसे
मैं वही छीन
लेना चाहता
हूं जो
तुम्हारे पास
नहीं है। और
तुम्हें मैं
वही देना
चाहता हूं जो
तुम्हारे पास
है।
चीज
एक है जो अभी
खो के अभी
खोनी है
बात
एक है जो अभी
हो के अभी
होनी है
और एक
बात ऐसी है जो
हो ही चुकी है, जो सदा से
हुई हुई
है--तुम्हारी
आत्मा--उसका
तुम्हें पता
नहीं है। जो
तुम्हारे पास
नहीं है, तुम्हें
खयाल है कि
है। और जो
तुम्हारे पास
है, तुम्हें
खयाल ही नहीं
है कि है। बस
इतना ही रूपांतरण
है। इतनी ही
क्रांति है कि
तुम्हें दिख
जाए कि क्या
मेरे पास नहीं
है, और
क्या मेरे पास
है। जरा-सी
क्रांति है।
लेकिन
उस जरा-सी
क्रांति से
सारा जीवन
रूपांतरित हो
जाता है। धागे
को सुई में
डालना कोई
बहुत बड़ी
क्रांति थोड़े
ही है, लेकिन
महावीर कहते
हैं, धागा
चला जाए सुई
में तो फिर
गिरकर भी सुई
खोती नहीं।
जैसे ही
तुम्हें यह
समझ में आना
शुरू हो
गया--क्या
तुम्हारे पास
नहीं है, वैसे
ही तुम्हें
दूसरी तरफ से
यह भी स्पष्ट
होने लगेगा, क्या
तुम्हारे पास
है।
भिखमंगापन
खोना है। और
तुम्हारे
सम्राट होने
की याद
तुम्हें दिलानी
है। दुल्हन की
बात सुनकर
तुम्हें अपने
भीतर के
सम्राट की
थोड़ी-सी झलक आ
गयी है।
शरीर
डोला है।
आत्मा दुल्हन
है। संसार
डोला है।
परमात्मा
दुल्हन है। और
तुम नाहक बराती
बने हो, तुम
दूल्हा बन
सकते हो। तुम
नाहक ही बरात
में धक्के-मुक्के
खा रहे हो।
कब तक
दूसरों की
बरात में
सम्मिलित
होते रहोगे? कभी महावीर
की बरात में
सम्मिलित हुए,
कभी बुद्ध
की बरात में
सम्मिलित हुए,
कभी कृष्ण
की बरात में
सम्मिलित हुए,
तुम्हें
समझ नहीं आयी?
चढ़ो अब घोड़े पर
बैठो! बहुत
दिन हो गये अब,
बराती, बराती,
बराती, अब
दूल्हा बनो!
तुम्हारी
दुल्हन
तुम्हारी प्रतीक्षा
कर रही है।
चीज
एक है जो अभी
खो के अभी
खोनी है
बात
एक है जो अभी
होकर अभी होनी
है
बस...उत्तर
नहीं दूंगा, इन मित्र को
उत्तर नहीं
दूंगा। इनसे
उत्तर से
ज्यादा आशा
है। यह तो
सुनें, पीयें,
यहां पास
मेरी हवा को छुएं, डूबें, मिट
जाएंगे सब
प्रश्न। यह
प्रश्न भी मिट
जाएगा। यह भी
कोई प्रश्न है
कि प्रश्न
क्यों गिर गये!
जब प्रश्न ही
गिर गये, जब
सांप ही चला
गया, तो यह
केंचुली भी
चली जाएगी।
तीसरा
प्रश्न:
आपका
प्रवचन
सुनते-सुनते
आंखें बंद
होने लगती हैं, कान बहरे
होने लगते हैं
और चेष्टा
करने पर भी स्थिति
नहीं
सम्हलती। जी
चाहता है कि
जब परमात्मा
सामने है, तो
उन्हें
निहारता रहूं
और उनके अमृतवचन
का रसपान
करता रहूं।
लेकिन ऐसा हो
नहीं पाता।
कृपया बतायें
कि मैं
होशपूर्वक
आपको किस
प्रकार सुनूं?
होशपूर्वक
का प्रश्न ही
कहां है!
बेहोशी से
सुनो। होश की
बात ही क्यों
लाते हो! मस्त
होकर सुनो।
सम्हालने की
जरूरत कहां है? शराबी की
तरह डगमगाते
हुए सुनो।
जिसने पूछा है,
उसे होश की
बात काम में
नहीं आएगी।
उसे तो बेहोशी
की ही बात काम
आएगी। वही तो
घट रहा
है--अपने-आप।
तुम नाहक
बुद्धि से एक
बिबूचन पैदा
कर रहे हो।
सुनते-सुनते
आंख बंद होने
लगती है, इसका
अर्थ साफ है
कि सुनायी पड़
रहा है और
आंखें बंद हो
रही हैं, क्योंकि
जो मैं कह रहा
हूं, वह
भीतर ही देखा
जा सकता है।
अगर तुम मुझे
देखना चाहते
हो तो आंख बंद
करके ही देख
पाओगे। आंख
खुली रखी, तो
डोला दिखायी
पड़ेगा, दुल्हन
दिखायी नहीं
पड़ेगी। सुन
रहे हो, इसीलिए
आंख बंद हो
रही है। अब
तुम कहीं
चेष्टा करके
आंख मत खोलना।
जबर्दस्ती
आंख खोलना चाहो
तो खोल सकते
हो, लेकिन
तुम चूक
जाओगे। अमृत
हाथ में
आते-आते वंचित
हो जाओगे। सुन
रहे हो, इसीलिए
कान बहरे होने
लगते हैं।
क्योंकि जो मैं
तुम्हें कह
रहा हूं, वह
शब्द ही नहीं
है, उस
शब्द में छिपा
शून्य भी है।
कान बहरे होने
लगते हैं, उसका
अर्थ है कि
कान कह रहे
हैं, शब्द
को रहने दो
बाहर, सिर्फ
शून्य को जाने
दो। कान बड़ी
होशियारी से,
बड़ी
सावधानी से
काम कर रहे
हैं। आंख भी
बड़ी होशियारी,
सावधानी से
काम कर रही
है। अब तुम
अपनी बुद्धि
को बीच में मत
लाओ। बंद होने
दो आंख, बंद
होने दो कान।
यही तो मेरा
इशारा है कि
भीतर जाओ। तुम
कहीं मुझे पकड़कर
मत बैठ जाना।
कहीं तुम यह
मत सोचना कि
यह तो आंख बंद
होने लगी, कान
बंद होने लगे,
यह तो सहारा
बाहर से छूटने
लगा। नहीं, यही तो तुम
किनारे के
करीब आ रहे
हो। भीतर जा रहे
हो, वहीं
किनारा है।
और होश
से क्या सुनोगे? ये बातें
कुछ होश से
सुनने की थोड़े
ही हैं। ये बातें
तो मदमस्त
होकर सुनने की
हैं। ये तो
मतवाला होकर
सुनने की हैं--
मुझे
पीने दे, पीने
दे कि तेरे
जामे-लाली में
अभी
कुछ और है, कुछ और है, कुछ और है
साकी
अभी तो
पीओ। अभी तो
प्याली में
कुछ भी न बचे, ऐसा पीओ।
डरो मत। यह
होश की बात
बुद्धिमानी
की बात है।
तुम घबड़ा रहे
हो कि यह क्या
हो रहा है? आंख
बंद हो रही है?
कान बहरे हो
रहे? तुम
घबड़ा रहे हो
कि यह क्या हो
रहा है? तुम
पागल तो नहीं
हो रहे। पागल
हुए बिना कोई
कभी परमात्मा
तक पहुंचा? पागल होने
की हिम्मत
चाहिए ही।
दिल
धड़क उठता
है खुद अपनी
ही आहट पर
अब
कदम मंज़िले-जाना
से बहुत दूर
नहीं
लाख
छुपाते हो मगर
छुप के भी मस्तूर
नहीं
तुम
अजब चीज हो, नज़दीक नहीं दूर
नहीं
परमात्मा
कुछ दूर थोड़े
ही है। और ऐसा
भी मत मान
लेना कि नज़दीक
है। न नज़दीक
है, न दूर है।
क्योंकि
परमात्मा
तुममें है। नज़दीक
होने में भी
तो थोड़ी दूरी
रह जाती है। नज़दीक से नज़दीक
होने में भी
तो फासला
रहेगा।
परमात्मा तुम हो।
तुम्हारा
होना
परमात्मा है।
आंख
बंद होती है, तो इसका
अर्थ हुआ कि
भीतर की
यात्रा शुरू
हुई। पर्दे
उठते हैं।
संसार को
देखना हो, तो
आंख खोलकर
देखना पड़ता
है। स्वयं को
देखना हो, तो
आंख बंद करके
देखना पड़ता
है। वास्तविक
दर्शन तो आंख
बंद करके ही
उपलब्ध होते
हैं। महावीर
की प्रतिमाएं
देखीं? अगर
महावीर की ठीक
प्रतिमा
देखनी हो तो
श्वेतांबर
मंदिर में मत
देखना, वहां
कुछ भूल हो
गयी है।
दिगंबर मंदिर
में देखना।
वहां महावीर
की आंख बंद
है।
श्वेतांबर मंदिर
में महावीर की
आंख खुली है।
वहां कुछ भूल हो
गयी है। हो
सकता है जिसने
महावीर की आंख
खोल रखी है
श्वेतांबर
मंदिर में, वह तुम जैसा
आदमी रहा हो।
मुझे सुनकर
तुम्हारी आंख
बंद हो रही है,
तुम खोलने
की कोशिश कर
रहे हो। लेकिन
महावीर के
सत्य को समझना
हो तो आंख बंद
ही होनी
चाहिए। क्योंकि
महावीर जिस
परमात्मा की
तरफ जा रहे हैं,
वह भीतर है।
आंख
बंद हो जाती
है तो बाहर की
तरफ सारी
यात्रा
समाप्त हुई।
सारी ऊर्जा
भीतर लौटी।
गंगा चली
गंगोत्री की
तरफ।
मूलस्रोत की
तरफ यात्रा हुई।
खुली आंख--हो
सकता है
श्वेतांबरों
को महावीर की
आंख बड़ी
प्यारी लगी हो, प्यारी रही
होगी वह
आंख--श्वेतांबरों
की बात भी
मेरी समझ में
आती है। वह
आंख इतनी
प्यारी रही
होगी कि
उन्होंने
चाहा होगा कि
देखते ही
रहें। बंद आंख
में तो तुम
क्या देखोगे?
तो
उन्होंने
महावीर की आंख
को खुला रखा
है। वह आंख
देखने योग्य
रही होगी, यह
सच है! वह आंख
बड़ी प्यारी थी,
यह सच है! उस
आंख की उपासना
और पूजा का भाव
उठा होगा, यह
सच है! लेकिन
यह आदमी की
कमजोरी है।
महावीर की आंख
तो बंद ही रही
होगी जब
उन्होंने
स्वयं को जाना
है। और जब
स्वयं को जाना
तभी तो वे महावीर
हुए। उसके
पहले तो वह
महावीर नहीं।
बंद
होगी
तुम्हारी आंख
भी। कान भी
बंद हो
जाएंगे।
इंद्रियां सब
बंद हो जाएंगी।
क्योंकि
इंद्रियों का
अर्थ ही होता
है, ऊर्जा के
बाहर जाने के
द्वार। जब
सारी इंद्रियां
बंद हो जाती
हैं, सारी
ऊर्जा भीतर
लौटती है।
महावीर ने
इसको प्रतिक्रमण
कहा है, ऊर्जा
का भीतर
लौटना। जब आंख
खोलकर तुम
देखते हो, तो
आक्रमण। जब
आंख बंद करके
भीतर जाते हो,
तो
प्रतिक्रमण।
आक्रमण का
अर्थ है, दूसरे
पर हमला।
प्रतिक्रमण
का अर्थ है, अपने घर लौट
आना। जैसे
सांझ पक्षी
लौटने लगे अपने
घोंसलों को, ऐसा जब
तुम्हारे
प्राण लौटने
लगे भीतर के
अंतर्तम में,
तब आंख, कान
सब बंद हो
जाएंगे।
तो
मुझे सुनते
अगर आंख बंद
हो रही हो तो हो
जाने देना।
तुम बीच में
बुद्धिमानी
मत लगाना। तुम
अपना गणित बीच
में मत लाना।
बाधा मत डालना।
कान बंद होते
हों, हो जाने
देना। इशारा
तुम्हारी
बुद्धि नहीं समझ
पा रही है, तुम्हारे
आंख और कान
समझ गये।
तुम्हारे
अस्तित्व ने
बात पकड़ ली।
तुम इसमें
बाधा और
व्यवधान खड़ा
मत करना।
नहीं, होश की बात
ही मत उठाओ।
बेहोशी ही ठीक
है। प्रश्न है
"आनंद विजय' का। बेहोशी
ही ठीक होगी।
और शराब मांगो,
होश मत
मांगो। और
मस्ती मांगो,
समझदारी मत
मांगो।
ऐ मुतरबे-बेबाक
कोई और भी नग्मा
ऐ
साकी-ए-फैयाज
शराब और जियादा
हे मुक्तकंठ
गायक! एक गीत
और। और हे
दानशील
मधुबाला! थोड़ी
शराब और।
ऐ मुतरबे-बेबाक
कोई और भी नग्मा
ऐ
साकी-ए-फैयाज
शराब और जियादा
दुनिया
में दो मार्ग
हैं, दो द्वार
हैं। एक है
ध्यान का
मार्ग। एक है
प्रेम का
मार्ग। ध्यान
के मार्ग पर
होश अनिवार्य
चरण है। प्रेम
के मार्ग पर
बेहोशी
अनिवार्य चरण
है। "आनंद
विजय' के
लिए मार्ग
प्रेम का है।
प्रेम से ही
ध्यान घटेगा।
बेहोशी से, डूबने से, मस्ती से।
ध्यानी के लिए
प्रेम भी घटता
है तो होश से
घटता है। इसको
खयाल रखना। और
अपने लिए साफ-साफ
कर लेना कि
तुम्हारे लिए
क्या उचित है।
अगर तुम्हारे
हृदय में
प्रेम के भाव
सहजता से उठते
हैं, तो
तुम फिकिर
छोड़ो होश
की। तुम तो
मांगो--
ऐ मुतरबे-बेबाक
कोई और भी नग्मा
गाओ
कुछ और भी गीत
कि मैं और डूब
जाऊं। सुनाओ कुछ
और कि मैं और
डूब जाऊं।
ऐ
साकी-ए-फैयाज...
ऐ
दानशील
साकी!...शराब और जियादा। ढालो!
प्रेम
के मार्ग पर, भक्ति के
मार्ग पर
नृत्य है, गान
है, डूबना
है। तन्मयता
है, तल्लीनता
है। ध्यान के
मार्ग पर
सजगता है, जागरूकता
है। अपना
मार्ग ठीक-ठीक
चुन लेना, और
घबड़ाना
मत कि एक
मार्ग पर चले
तो दूसरे से
तुम वंचित रह
जाओगे। अंत
में दोनों मिल
जाते हैं।
पहाड़ के शिखर
पर सभी मार्ग
मिल जाते हैं।
जो ध्यान से
चलता है, अतंतः
प्रेम को भी
उपलब्ध हो
जाता है। जो
प्रेम से चलता
है, वह अतंतः
ध्यान को भी
उपलब्ध हो
जाता है।
लेकिन दोनों के
रास्ते बड़े
अलग-अलग हैं।
चौथा
प्रश्न:
मैं
क्या प्रश्न
करूं और आप
क्या जवाब
दें! प्रश्न
भी आप हैं और
उत्तर भी।
प्रेम में
प्रश्न हो, या उत्तर हो,
या चुप्पी?
पूछे
बिना रहा न
गया!
पूछने
की पूछ ऐसी ही
है। एक तरह की
खुजलाहट है।
खाज हुई है
कभी? बस वैसी
खुजलाहट है।
नहीं भी
खुजलाना
चाहते, फिर
भी अनजाने हाथ
उठ जाते हैं, खुजलाहट
शुरू हो जाती
है।
अब
जिसने प्रश्न
पूछा है, उसने
प्रश्न की
पहली पंक्ति
में यही सोचकर
पूछा है कि
नहीं पूछना
है।
"मैं
क्या प्रश्न
करूं, और
आप क्या जवाब
दें!' अभी
बुद्धिमानी
कायम है।
"प्रश्न भी आप
हैं और उत्तर
भी।' फिर
चूक हो गयी। खुजला ली
खाज। "प्रेम
में प्रश्न हो
या उत्तर हो
या चुप्पी?' प्रश्न आखिर
उठ ही आया!
हम
जैसे हैं, उससे भिन्न
हम थोड़ी-बहुत
देर चेष्टा कर
सकते हैं--क्षण-दो
क्षण--फिर
जल्दी ही चूक
हो जाती है।
मैंने
सुना है, मुल्ला
नसरुद्दीन
की पत्नी
मुल्ला की बड़ी
प्रशंसा कर
रही है। ऐसे
दिन सौभाग्य
के कम ही आते
हैं कि पत्नी
और पति की
प्रशंसा करे!
लेकिन मुल्ला
बहुत डरा हुआ
था, क्योंकि
ऐसे सौभाग्य
का मतलब होता
है, कुछ न
कुछ उपद्रव!
कुछ खर्चा
करवा दे! या
जरूर कुछ मतलब
होगा पीछे।
आखिर मतलब साफ
हो गया। पत्नी
ने कहा, अब
बहुत हो गया, अब तुम खोजो,
लड़की के लिए
लड़का खोजना ही
पड़ेगा। अब इस
साल खाली नहीं
जाना चाहिए।
मुल्ला ने कहा
कि क्या करूं,
खोजता हूं,
लेकिन गधों
के अतिरिक्त
कोई मिलता ही
नहीं! तो
पत्नी के मुंह
से सच्ची बात
निकल गयी।
उसने कहा, अगर
ऐसे ही मेरे
पिता भी सोचते
रहते तो मैं
अनब्याही ही
रह जाती!
ज्यादा
देर नहीं चला
सकते। जल्दी
ही असलियत बाहर
आ जाती है।
पूछना तो चाहते
ही थे।
बुद्धिमानी
थोड़ी देर सम्हाली।
दो लाइन चली।
तीसरी लाइन
में लंगड़ा
गयी। पूछ ही
बैठे।
इसे
थोड़ा समझना।
मन की इस बात
को समझना।
कैसा लंगड़ाता
हुआ मन है! अगर
सच में ही
पूछने को न था
तो यह प्रश्न
लिखने की कोई
जरूरत ही न
थी। और अगर
पूछने को कुछ
था, तो यह बुद्धिमानी
दिखाने की कोई
जरूरत नहीं।
ऐसा द्वंद्व
क्यों पालते
हो? ऐसे
दोहरे क्यों
होते हो? ऐसे
दोहरे में
खतरा है। ऐसे
में तुम
टूट-टूट जाओगे,
खंड-खंड हो
जाओगे। रहोगे
कुछ, दिखाओगे कुछ।
बोलोगे कुछ, भीतर होगा
कुछ। यही तो
मनुष्य का बड़े
से बड़ा विषाद
है। पूछना हो
तो पूछो। न
पूछना हो तो
मत पूछो। यह
बीच में दोनों
के डांवांडोल
होना खतरनाक
है।
लेकिन, जब पूछा है, प्रेम में
प्रश्न हो, उत्तर हो या
चुप्पी? प्रेम
में न तो
प्रश्न है, न उत्तर है, न चुप्पी
है। प्रेम चुप
भी नहीं है और
बोलता भी
नहीं। प्रेम
बड़ा
विरोधाभास
है। प्रेम बोलता
भी नहीं, क्योंकि
जो बोलना है
वह बोलने में
आता नहीं। और
प्रेम चुप भी
नहीं है, क्योंकि
बोलने को बहुत
कुछ है, जो
बोलने में आता
नहीं। तो
प्रेम लबालब
भरा है। बह
जाना चाहता
है।
कूल-किनारे
तोड़ देना चाहता
है।
दो
प्रेमियों को
पास-पास बैठे
देखा? नहीं
बोलते, इसलिए
नहीं कि बोलने
को कुछ नहीं
है। नहीं
बोलते इसलिए
कि बोलने को
इतना कुछ है, कैसे बोलें?
और बोलने को
कुछ ऐसा है कि
बोलते से ही
गंदा हो जाता
है। शब्द उसे
कुरूप कर देते
हैं। उसे मौन
में ही
संवादित किया
जा सकता है।
उसे चुप रहकर
ही कहा जा
सकता है।
लेकिन चुप्पी मुखर
है। मौन भाषा
है।
शब्द
तो शोर है
तमाशा है
भाव
के सिंधु में
बताशा है
मर्म
की बात ओंठ से
न कहो
मौन
ही भावना की
भाषा है
लेकिन
भाषा ही है
मौन भी। मौन
भी बोलता है।
बड़ी प्रगाढ़ता
से बोलता है।
तुमने अगर कभी
मौन को सुना
नहीं, तो
तुमने कुछ भी
नहीं सुना।
तुम जीवन के
संगीत से
अपरिचित ही रह
गये। तुमने
रात के सन्नाटे
को सुना है? कैसा बोलता
हुआ होता है!
वृक्षों में
हवा भी नहीं
होती, हवा
के झोंके भी
नहीं होते, एक पत्ता भी
नहीं
हिलता...अभी इस
क्षण कोई हवा
का झोंका नहीं
है, पत्ता
भी नहीं हिल
रहा है, लेकिन
वृक्ष मौन हैं,
चुप हैं? फूल खिले
हैं, बोल
रहे हैं। शब्द
नहीं हैं, शोर
नहीं है, अभिव्यक्ति
तो है ही।
चीन
में कहावत है
कि जब
संगीतज्ञ
संपूर्ण रूप से
कुशल हो जाता
है, तो वीणा
तोड़ देता है।
क्योंकि फिर
वीणा के कारण
संगीत में
बाधा पड़ने
लगती है। फिर
तो वीणा के
स्वर भी
शोरगुल मालूम
होने लगते
हैं। कहावत है
कि जब तीरंदाज
अपनी
तीरंदाजी में
संपूर्ण कुशल
हो जाता है, तो धनुषबाण
तोड़ देता है।
क्योंकि फिर
उससे निशाना
नहीं लगता, निशाने में
बाधा पड़ने
लगती है।
जीवन
के चरम शिखर
विरोधाभास के
शिखर हैं।
शब्द
तो शोर है, तमाशा है
भाव
के सिंधु में बताशा
है
मर्म
की बात ओंठ से
न कहो
मौन
ही भावना की
भाषा है
रोओ, आंसू कह
देंगे। नाचो,
भावभंगिमा कह देगी। गुनगुनाओ...कल
सांझ ऐसा हुआ।
वाणी, एक
संन्यासिनी, जर्मनी से
आयी है। उससे
मैंने पूछा, कुछ कहने को
है? और
मुझे लगा बहुत
कुछ कहने को
है उसके पास, हृदय भरा है।
उतने दूर से
आयी है।
दो-चार दिन के
लिए ही आ पायी
है। ज्यादा
देर रुक भी न
सकेगी। दो-चार
महीने में
भागी चली आती
है। दो-चार
दिन के लिए
समय मिलता, कभी एक दिन
के लिए भी समय
मिलता--तो
जर्मनी से पूना
आना एक दिन के
लिए! लेकिन
उतने दिन के
लिए भी आती
है। एक बार तो सिर्फ
पांच घंटे ही
रुकी। तो कहने
को आती है। कुछ
निवेदन करने
को है।
पूछा, कुछ कहना है?
कहा, नहीं,
कुछ भी नहीं
कहना है।
लेकिन उसके
चेहरे पर, उसकी
आंखों में, उसके हृदय
में बहुत कुछ
भरा है। तो
मैंने उससे
कहा कि खैर न
कह तू, चुप
रह। उसने आंख
बंद कर लीं, और वह ऐसे
शब्दहीन-शब्द
उच्चार करने
लगी जैसे छोटा
बच्चा दो-चार
महीने का
सिसक-सिसककर
रोने लगे, और
भाषा तो जानता
नहीं दो-चार
महीने का
बच्चा, तो
कुछ भी अनर्गल,
अर्थहीन
बोलने लगे।
ऐसा छोटे
बच्चे की तरह
वह सिसकने
लगी, रोने
लगी।
टूटे-फूटे
शब्द जिनका
कोई अर्थ नहीं
है, वह
उसके बाहर आने
लगे। उस घड़ी
वह छोटी बच्ची
हो गयी। उस
घड़ी उसने अपने
हृदय को ऐसा
उंडेल दिया जैसा
भाषा में कभी
भी नहीं
उंडेला जा
सकता। क्योंकि
भाषा तो बड़ी
बुद्धिमानी
की है!
भाव
के सिंधु में
बताशा है
शब्द
तो शोर है
तमाशा है
उसकी
भाषा बताशे
की तरह घुल
गयी भाव के
सिंधु में।
कुछ उबलने
लगा। कुछ
गुनगुनाहट
फूटने लगी।
उसे भी पता नहीं, क्या हो रहा
है! उसके भी बस
के बाहर है।
उसके भी नियंत्रण
के बाहर है।
जैसे कुछ बहुत
शुद्ध भाषा--जैसा
आदमी पहली दफा
बोला होगा
पृथ्वी पर। या
छोटे बच्चे
बोलते हैं
पहली दफा--कुछ
भी--अबाऽ बाऽऽ
बाऽऽ बाऽऽ
बाऽऽ बाऽ...इस
तरह के शब्द
बोलने लगी। सब
टूटे हुए।
लेकिन
उसने कह दिया
जो कहना था।
मैंने सुन लिया
जो सुनना था।
भाव से जुड़
गयी। एक सेतु
उसने बना
लिया।
अल्ला
री कामयाबी-ए-आवारगाने-इश्क
खुद
गुम हुए तो
क्या उसे पाये
हुए तो हैं
उस
क्षण वह खो
गयी। लेकिन उस
खोने में ही
प्रगट हुई।
प्रेमी अपने
को खो देता है, परमात्मा को
पा लेता है।
अल्ला
री कामयाबी-ए-आवारगाने-इश्क
यह भी
कैसी सफलता है, आवारा इश्क
की। प्रेम तो
सदा आवारा है।
प्रेम का कोई
घर थोड़े ही
है। क्योंकि
सारा
अस्तित्व उसका
घर है। प्रेम
तो बंजारा है।
अल्ला
री कामयाबी-ए-आवारगाने-इश्क
हे
परमात्मा, यह भी कैसी
सफलता है
प्रेम की!
खुद
गुम हुए तो
क्या, उसे
पाये हुए तो
हैं
खुद तो
खो जाता है
प्रेमी, उसे
पा लेता है।
शब्द तो खो
जाते हैं, मन
तो खो जाता है,
अहंकार तो
खो जाता है।
भाव
के सिंधु में
बताशा है
शब्द
तो शोर है तमाशा
है
मर्म
की बात ओंठ से
न कहो
मौन
ही भावना की
भाषा है
ज्ञान
तो बस बुद्धि
का खिलवाड़
है
ध्यान
जब तक ढोंग का
दरबार है
मंदिरों
से व्यर्थ ही
मारो न सिर
आदमी
का धर्म केवल
प्यार है
जो
प्यार को समझ
ले, सब समझ
लिया। पूछा है,
प्रेम में
प्रश्न हो, उत्तर हो, या चुप्पी? प्रेम में
प्रेम ही हो, बस इतना
काफी है। न
उतर, न
प्रश्न, न
चुप्पी।
प्रेम में बस
प्रेम हो, इतना
काफी है।
खामोशी सीखो।
खामोश
ऐ दिल भरी
महफिल में
चिल्लाना
नहीं अच्छा
अदब
पहला करीना है
मुहब्बत के करीनों
में
प्रेम
को चिल्लाकर
मत कहो।
क्योंकि
चिल्लाने में प्रेम
नष्ट हो जाता
है। प्रेम बड़ा
कोमल तंतु है।
चुप्पी तक में
नष्ट हो जाता
है, बोलने की
तो बात छोड़ो!
प्रेम एक
विरोधाभास
है। "पैराडाक्स।'
वहां बोलना
और न बोलना
दोनों का मिलन
होता है। वहां
सीमित की और
असीम की
मुलाकात होती
है। वहां
संसार और
परमात्मा
एक-दूसरे को
छूते हैं।
वहां मैं और
तू घुलते हैं
और पिघलते
हैं। नहीं, प्रेम के
पास कोई
प्रश्न नहीं
है। और प्रेम
के पास कोई
उत्तर भी नहीं
है। प्रेम
काफी है।
इसे
ऐसा समझने की
कोशिश करो।
जब तुम
प्रसन्न होते
हो, तब तुम
कभी नहीं
पूछते कि
प्रसन्न मैं
क्यों हूं।
लेकिन जब तुम
दुखी होते हो
तब तुम जरूर
पूछते हो कि
दुखी मैं
क्यों हूं? जब तुम
स्वस्थ होते
हो, तब तुम
जाते हो
चिकित्सक के
द्वार पर कि
बताओ मैं
स्वस्थ क्यों
हूं? लेकिन
जब तुम बीमार
होते हो तो
जरूर जाते हो।
जाना ही पड़ता
है पूछने कि
मैं बीमार
क्यों हूं? बीमारी का
तो कारण खोजना
पड़ता है।
स्वास्थ्य का
कारण किसी ने
कभी खोजा? कोई
बता पाया कि
आदमी स्वस्थ
क्यों होता है?
अभी तक तो
कोई नहीं बता
पाया है--न
आयुर्वेद, न
एलोपैथी, न
यूनानी, कोई
नहीं बता पाया
कि आदमी
स्वस्थ क्यों
होता है? स्वस्थ
तो आदमी होता
है। हां, जो
स्वस्थ नहीं
है, वहां
कोई कारण
होगा। झरना तो
बहता है। नहीं
बहता, तो
कोई पत्थर पड़ा
होगा। बीज तो
फूटता है।
वृक्ष बनता
है। न फूट
पाये, न
वृक्ष बन पाये,
तो कोई अड़चन
होगी--जमीन
पथरीली होगी,
कि पानी न
मिला होगा।
बच्चा तो बड़ा
होता है, बढ़ता
है, जवान
होता है। न बढ़
पाये, तो
कुछ गड़बड़ है।
आनंद
स्वाभाविक
है। आनंद के
लिए कोई
प्रश्न नहीं
है। दुख
अस्वाभाविक
है। दुख का
अर्थ ही है, जो नहीं
होना चाहिए
था। सुख का
अर्थ है, जो
होना ही
चाहिए। सुख का
अर्थ है, जिसे
हम बिना कारण
स्वीकार करते
हैं। और दुख का
अर्थ है, जिसे
हम कारण के
सहित भी
स्वीकार नहीं
कर पाते। कोई
कारण भी बता
दे तो क्या
सार है! तुम
गये डाक्टर के
पास, उसने
कहा कि कैंसर
हो गया है।
कारण भी बता
दे कि इसलिए
कैंसर हो गया
है, तो भी
क्या सार है!
कारण को भी
क्या करोगे?
सुख तो
अकारण भी
स्वीकार होता
है। दुख कारण
सहित भी
स्वीकार नहीं
होता। फिर कारण
की खोज हमें
करनी पड़ती है
दुख के लिए, क्योंकि
कारण का पता न
चले तो दुख को मिटाएं
कैसे? जिसे
मिटाना हो, उसका कारण
खोजना पड़ता
है। जिसे
मिटाना ही न
हो, उसके
कारण की खोज
की कोई जरूरत
ही नहीं है।
उसे हम जीते
हैं।
प्रेम
परम
स्वास्थ्य
है। प्रेम
परमात्मा की झलक
है तुम्हारे
दर्पण में।
कोई पूछता
नहीं कि प्रेम
क्यों है? प्रेम बस
होता है।
स्वीकार है।
सहज स्वीकार है।
न कोई उत्तर
है, न कोई
प्रश्न है। न
कुछ बोलना है,
न कुछ बोला
जा सकता है।
लेकिन इसका यह
अर्थ नहीं है
कि प्रेम कोई
रिक्तता है।
प्रेम बड़ा भराव
है। परम भराव
है। पात्र
पूरा भर जाता
है। पात्र
खाली हो तो आवाज
होती है।
अधूरा भरा हो,
तो आवाज
होगी। पात्र
पूरा भर जाए, तो आवाज खो
जाती है। ऐसे
ही जब कोई
प्रेम से भर जाता
है--कोई प्राण
का पात्र--सब
खो जाता है।
प्रेम
हो, इसकी ही
चिंता करो।
तुम ऐसे भर
जाओ कि कहने
को कुछ न रहे।
पूछने को कुछ
न रहे। तुम
ऐसे शांत हो
जाओ कि कोई
प्रश्नचिह्न
तुम्हारे
भीतर न बचे।
क्योंकि
प्रश्नचिह्न
एक तरह की
बीमारी है।
कांटे की तरह
चुभता है
प्रश्न।
जिसके हृदय पर
प्रश्नचिह्नों
की कतार लगी
है, "क्यू'
लगा है, वह
आदमी नर्क में
जीता है। उसका
जीवन एक दुख-स्वप्न
है।
प्रश्नों
को हटाते जाओ, गिराते जाओ।
और बहुत से
लोग तो व्यर्थ
के प्रश्न
इकट्ठे किये
हुए
हैं...संसार को
किसने बनाया?
क्या
लेना-देना है!
इसलिए
महावीर ने
नहीं पूछा यह
प्रश्न कि
संसार को
किसने बनाया।
उन्होंने कहा, सदा से है, यह बनाने की
बकवास बंद
करो। क्योंकि
तुम पूछो, किसने
बनाया, इससे
कुछ हल न
होगा। बता दें
कि "अ' ने
बनाया, तो
तुम पूछोगे "अ'
को किसने
बनाया? तो
"ब' ने
बनाया। तुम
पूछोगे, "ब'
को किसने
बनाया? यह
कुछ हल न
होगा।
तो
महावीर कहते
हैं, अनादि है,
अनंत है।
किसी ने नहीं
बनाया, इस
झंझट में पड़ो
मत। उनका कुल
मतलब इतना है
कि झंझट में पड़ो मत।
है। इससे राजी
हो जाओ। इसके
रहस्य को जानो,
इसके रहस्य
को जीओ।
इसको प्रश्न
मत बनाओ। इसको
जीओ।
इसमें डूबो,
इसमें
उतरो। जीवन एक
समस्या न हो, एक रहस्य
हो। एक प्रश्न
न बने, प्रार्थना
बने। जीवन को
कोई एक
दर्शनशास्त्र
नहीं बनाना है,
जीवन को
प्रेम का
मंदिर बनाना
है।
इसलिए
महावीर ने कहा
मत पूछो यह।
आत्मा कहां से
आयी? महावीर
कहते हैं, सदा
से है। तुम
व्यर्थ के
प्रश्न मत
पूछो। सारे
सत्पुरुषों
ने व्यर्थ के
प्रश्नों को
काटना चाहा
है। अगर
उन्होंने
उत्तर भी दिये
हैं, तो
इसीलिए दिये
हैं ताकि तुम
व्यर्थ के
प्रश्नों से छूटो। अगर
वे चुप रहे, तो इसीलिए
चुप रहे कि
तुम व्यर्थ के
प्रश्नों से छूटो।
बुद्ध
तो उत्तर ही न
देते थे, कोई
पूछता था
प्रश्न तो चुप
रह जाते थे।
वे कहते कि
तुम भी चुप हो
जाओ। ऐसे चुप
होकर मैंने पाया,
चुप होकर
तुम भी पा लोगे।
मन जब
बिलकुल शांत
होता है, कोई
प्रश्न नहीं
उठाता, तो
सब द्वार खुल
जाते हैं।
प्रश्न ही
तालों की तरह
लगे हैं
तुम्हारे
जीवन के
द्वारों पर!
पांचवां
प्रश्न:
आपको
सुनते-सुनते
कई बार आप
रंगीन दिखायी
पड़ने लगते हैं, और फिर भी एक
खालीपन की
भांति। आपकी
कुर्सी के
पीछे की दीवाल
भी रंगीन
दिखायी पड़ती
है, और एक
अजीब आनंद से
भर जाता हूं।
यह सब क्या है?
जीवन
में कुछ भी हम
सहजता से
स्वीकार नहीं
करते।
बड़ा
चित्रकार हुआ पिकासो।
एक चित्र बना
रहा था। किसी
ने पूछा, यह
क्या है? पिकासो
ने अपने सिर
से हाथ मार
लिया। और कहा
कि कोई नहीं
पूछता जाकर
फूलों से और
कोई नहीं
पूछता पक्षियों
से, मेरे
पीछे क्यों
पड़े हो? कोई
नहीं पूछता इंद्रधनुषों
से कि क्या है?
क्यों?
पिकासो
की बात में
अर्थ है। पिकासो
यह कह रहा है, यह मेरे
आनंद का उद्भव
है। क्या है, क्यों है, मुझे कुछ
पता नहीं।
पश्चिम
का एक बहुत
बड़ा विचारक
कवि हुआ, कूलरिज।
कूलरिज से
किसी ने
पूछा--एक
प्रोफेसर ने--कि
तुम्हारी
कविता को मैं पढ़ाता हूं
यूनिवर्सिटी
में, अर्थ
मेरी पकड़ में
नहीं आते, अर्थ
क्या है? कूलरिज
ने कहा तुम
जरा देर से
आये। जब मैंने
इसे लिखा था, तो दो
आदमियों को
पता थे इसके
अर्थ। अब केवल
एक को पता है।
तो उसने कहा
कि निश्चित वह
एक तुम हो।
तुमने ही यह
कविता लिखी, तुम तो मुझे
बता दो।
कूलरिज ने कहा,
वह एक मैं
नहीं हूं। जब
मैंने लिखी तो
मुझे और परमात्मा
को पता था। अब
केवल
परमात्मा को
पता है। अब
मुझे भी पता
नहीं। मैं खुद
ही सोचता हूं
कि इसका अर्थ
क्या है? कई
बार खुद ही
मैं चकित हो
जाता हूं। तुम
भले आ गये। कई
दफा मैं सोचता
था जाकर
यूनिवर्सिटी
के प्रोफेसरों
से पूछ आऊं, वे तो अर्थ
लोगों को
समझाते हैं।
अगर
तुम्हें मुझे
सुनते-सुनते
मेरे चारों तरफ
एक आभा का
अनुभव हो, तो क्या
जरूरी है कि
प्रश्न बनाओ
ही? तो
क्या जरूरी है
कि तुम उसका
उत्तर खोजो ही?
क्या इतना
काफी नहीं है
कि तुम उस आभा
को पीओ और
उसमें डूबो
और तल्लीन हो
जाओ? अगर
तुम्हें मेरे
आसपास रंगों
का एक इंद्रधनुष
दिखायी पड़े, तो क्यों
जल्दी से उसे
तुम प्रश्न
बना लेते हो? प्रश्न का
अर्थ है, संदेह।
निष्प्रश्न
का अर्थ है, श्रद्धा।
अगर
तुम्हारे मन
में श्रद्धा
हो, तो तुम जो
देखोगे
उसे तुम
स्वीकार कर
लोगे कि ठीक
है, ऐसा है,
इंद्रधनुष
बना। और तुम
आह्लादित
होओगे। और तुम्हारे
आह्लाद की कोई
सीमा न होगी।
और तुम प्रफुल्लित
होओगे। और तुम
किसी दूर की
दूसरी दुनिया
में उड़ने
लगोगे। एक नये
आकाश में
तुम्हारे पंख
खुल जायेंगे।
लेकिन
तत्क्षण
प्रश्न खड़ा हो
जाता है। प्रश्न
यह है कि पता
नहीं यह मामला
क्या है? कुछ
धोखा है, कुछ
जादू है, या
मेरा मन
सम्मोहित हो
गया, या
मेरी कल्पना
है, या मैं
कोई सपना देख
रहा हूं? लेकिन
तुमने कभी
खयाल किया कि
जब तुम यह
प्रश्न
बनाओगे, वह
इंद्रधनुष
तुम्हारे लिए
रुका न रहेगा।
जब तुम प्रश्न
बना रहे हो, इंद्रधनुष
खो जाएगा। वह
जो घड़ीभर
के लिए झरोखा
खुला था और
अतींद्रिय
दर्शन की संभावना
बनी थी, वह
तुम चूक गये।
तुम सोच-विचार
में खड़े रह
गये।
प्रश्नों
से थोड़ा अपने
को बचाओ।
फुर्सत के समय
कर लेना, जब
कुछ भी न घट
रहा हो जीवन
में तब खूब
प्रश्न कर
लेना। जब कुछ
घटता हो, तब
प्रश्न को बीच
में मत लाओ।
क्योंकि उसके
कारण दीवाल
खड़ी हो जाती
है। वही दीवाल
तुम्हारी आंख
पर पर्दा बन
जाएगी। जो है,
है। जो जैसा
है, वैसा
है। तथ्यों के
आगे-पीछे मत
जाओ, तथ्यों
में प्रवेश
करो।
ये
रूपहली छांव, ये आकाश पर
तारों का जाल
जैसे
सूफी का
तसव्वुर, जैसे
आशिक का खयाल
आह
लेकिन कौन
जाने, कौन
समझे जी का
हाल
ऐ गमे-दिल
क्या करूं, ऐ वहशते-दिल
क्या करूं
ये
रूपहली छांव, ये आकाश पर
तारों का जाल।
जैसे सूफी का
तसव्वुर...
जैसे कोई सूफी
ध्यान की मस्ती
में डूबा
हो।...जैसे
आशिक का खयाल।
जैसे कोई
प्रेमी अपनी
प्रेयसी की
भावना में
डूबा हो। ऐसा
ही है। ये
रूपहली छांव,
ये आकाश पर
तारों का जाल।
यह सब रहस्यमय
है। यह सब परम
रहस्य है। तुम
प्रश्न मत
उठाओ। तुम धीरे-धीरे
रहस्य को चखो।
स्वाद लो।
तुम्हें
हैरानी होगी।
अगर मैं यहां
बैठा-बैठा क्षणभर
को तुम्हारे
लिए खो जाता
हूं और एक
रंगों का जाल
यहां प्रगट
होता है, तो
तुम प्रश्न मत
उठाओ, यह
मौका प्रश्न
का नहीं है।
यह मौका तो इन
रंगों में उतर
जाने का है।
पूछ लेना पीछे,
कल। कह दो
मन को कि बाद
में सोच
लेंगे। अभी तो
स्वाद ले लें।
और उसी स्वाद
में उत्तर
मिलेगा। कल पूछने
की जरूरत न रह
जाएगी।
और एक
बार अगर
तुम्हें उन
रंगों में
उतरने का पाठ
पकड़ जाए, तुम
एक सीढ़ी भी इस
गहराई में उतर
जाओ, तो
जरूरत नहीं है
कि फिर तुम
मेरे पास ही
उन रंगों को
देखो। अगर तुम
किसी वृक्ष को
भी इतनी ही शांति
और प्रेम से देखोगे, जैसा तुमने
मुझे देखा, तो उस वृक्ष
के पास भी ऐसे
ही रंगों का
सागर लहराने
लगेगा। लहरा
रहा है।
तुम्हारे पास
आंख नहीं।
अस्तित्व पर
कोई घूंघट
नहीं, सिर्फ
तुम अंधे हो।
तुम्हें एक
छोटे-से फूल के
पास भी ऐसे ही आभाओं के
आयाम खुलते
हुए नजर
आएंगे। एक बार
तुम्हें यह
समझ में आ जाए
कि शांत, प्रेम
से भरकर किसी
की तरफ देखना
सत्य को देखने
के लिए
अनिवार्य है,
तब तुम वह
देख पाओगे, जैसा है।
अभी तुमने
बहुत कम देखा
है। अभी तुमने
ऐसे देखा है
जैसे बहुत से
पर्दे डाल
दिये गये हों,
और पर्दों
के पीछे दीया
छिपा हो, ऐसी
फूट-फूटकर
छोटी-सी
किरणें
तुम्हारे पास
आ पाती हों।
एक-एक पर्दा
हटता जाता है,
किरणों का
जाल बढ़ता जाता
है।
जब
तुम्हें मेरी
तरफ
देखते-देखते
कभी अचानक एक
आभा का
विस्फोट
मालूम होता हो, रंगीन
तरंगें चारों
तरफ फैल जाती
हों, तो
इसका अर्थ
इतना हुआ कि
उस क्षण में
तुम्हारी आंख
पर पर्दा बहुत
कम है। अभी
तुम प्रश्न उठाकर
नये पर्दे मत
बनाओ। अभी तुम
प्रश्नों को कह
दो, हटो जी!
फुर्सत के समय
जब कुछ भी न हो
रहा होगा, तब
तुमसे सिर
माथा-पच्ची कर
लेंगे। अभी तो
जाने दो। अभी
तो बुलावा
आया। अभी तो
इस इंद्रधनुष
में प्रवेश कर
जाने दो। अभी
तो डूबने दो।
अभी तो डुबकी
लेने दो।
व्यर्थ के
क्षणों में
प्रश्न कर
लेंगे। अभी
सार्थक क्षण
को प्रश्नों
में मत खोओ।
क्योंकि
तुम्हारे
प्रश्न के खड़े
होते ही तुम
पाओगे, रंग
खोने लगे।
प्रश्न ने फिर
संदेह खड़ा कर
दिया। प्रश्न
का मतलब ही
संदेह होता है।
प्रश्न उठता
ही संदेह से
है।
प्रश्न
श्रद्धा से
नहीं उठता।
श्रद्धा तो चुपचाप
स्वीकार कर
लेगी।
श्रद्धा तो
इतनी विराट है
कि कुछ भी घटे
तो भी श्रद्धा
चौंकती नहीं।
अनहोना घटे, तो भी
स्वीकार कर
लेती है।
श्रद्धा की
कोई सीमा
नहीं। संदेह
बड़ा छोटा है, बड़ा क्षुद्र
है, बड़ा
ओछा है। जरा
यहां-वहां कुछ
घटा, जो
संदेह की सीमा
के बाहर है कि
संदेह बेचैन हो
जाता है।
परेशान हो
जाता है। नहीं,
ये मौके
नहीं हैं
संदेह को
उठाने के। और
अगर तुमने इन मौकों पर न
उठाया, तो
तुम्हारा
स्वाद ही उत्तर
बनेगा।
जान
तुझ पर निसार
करता हूं
मैं
नहीं जानता
हुआ क्या है
ऐसी
श्रद्धा की
अवस्था है। जब
इंद्रधनुष
मेरे पास उठे, जान निछावर
करो।
जान
तुझ पर निसार
करता हूं
मैं
नहीं जानता
हुआ क्या है
जानने
की जरूरत भी
नहीं है। जो
हो रहा है, उसे होने
दो। जान-जानकर
कौन कब सत्य
को जान पाया।
जाननेवाले
बहुत पीछे पिछड़
गये।
जाननेवाले
किताबों में
खो गये।
जाननेवाले
प्रश्नों में
डूब गये और मर
गये। नहीं, जान-जानकर
कोई भी नहीं
जान पाया। खोओ
अपने को, मिटाओ, मिटो, पिघलो।
सत्संग का यही
अर्थ है।
जैसे
सुबह सूरज की
मौजूदगी में
बर्फ पिघलने लगती
है, ऐसे किसी
की मौजूदगी
में तुम
पिघलने
लगो--सत्संग।
यहां मैं
मौजूद हूं, अगर तुम जरा
भी करीब आने
को तैयार हो, तो तुम पिघलोगे।
उस पिघलने से
ही नयी-नयी
घटनाएं घटेंगी।
नये-नये ऊर्मियां,
नये आवेश
उठेंगे। रंग
नये, गंध
नयी, स्वाद
नये। तुम
पाओगे जैसे
तुम फैलने लगे,
बड़े होने
लगे, विस्तीर्ण
होने लगे।
जिन
लोगों ने
रासायनिक-द्रव्यों
पर बड़ी खोज की
है--एल.एस.डी., मारिजुआना,
और दूसरे
द्रव्यों
पर--उन सबका यह
कहना है कि उन
द्रव्यों के
प्रभाव में भी
मनुष्य की आंख
पर से पर्दे
हट जाते हैं।
अल्डुअस
हक्सले अमरीका
का बहुत बड़ा
मनीषी, विचारक
हुआ। उसने जब
पहली दफा एल.एस.डी.
लिया, तो
वह चकित हो
गया। उसके
सामने एक
साधारण-सी कुर्सी
रखी थी।
साधारण-सी
कुर्सी।
लेकिन जैसे-जैसे
उस पर एल.एस.डी.
का प्रभाव गहन
होने लगा
कुर्सी से रंग
फूटने लगे।
अदभुत रंग!
अनजाने, अपरिचित
रंग! ऐसे रंग, जो कभी नहीं
देखे थे। और
साधारण नहीं,
जिनके भीतर
से बड़ी आभा
फूट रही--"लूमिनस।'
ज्योतिर्मय।
साधारण रंग
नहीं, रंगों
के भीतर से
आभा की किरणें
फूटती हुई।
वह
बहुत हैरान
हुआ। उसने
आंखें मीड़ीं, अपने को
झकझोरा, ठंडे
पानी के छींटे
मारे, मगर
कुछ भी नहीं, कुर्सी
रंगीन होती
चली जाती है!
कुर्सी
साधारण। उसने
आसपास देखा, हर चीज
रंगीन है।
किताबें, टेबल,
द्वार-दरवाजे।
उसकी पत्नी
चलती हुई भीतर
आयी, उसने
संस्मरणों
में लिखा है, उसके पैरों
की आवाज...ऐसा
संगीत मैंने
कभी सुना
नहीं। पत्नी
को देखा, ऐसा
विभामय
रूप कभी देखा
नहीं। अब खुद
की पत्नी में
रूप देखना
बहुत कठिन है!
दूसरे की पत्नी
में बहुत सरल
है। खुद की
पत्नी में रूप
देखना बहुत
कठिन है।
मुल्ला
नसरुद्दीन
मिलिट्री में
भर्ती किया जा
रहा था।
जबर्दस्ती।
वह बचने के
उपाय कर रहा
था। सब
परीक्षाएं हो
गयीं। लेकिन
सब तरह से
स्वस्थ आदमी
था, बचे भी
कैसे? आखिर
उसने कहा कि
मेरी आंखें
खराब हैं। तो
डाक्टर ने
पूछा, तुम्हारे
पास कोई
प्रमाण है
तुम्हारी
आंखें खराब
होने का? उसने
खीसे से एक
तस्वीर
निकाली, कहा,
यह देखो
मेरी पत्नी की
तस्वीर है, इससे साफ
जाहिर है कि
मेरी आंखें
खराब हैं। इस
स्त्री से कौन
शादी करेगा!
अल्डुअस
हक्सले को
अपनी पत्नी
में विभामय
रूप दिखायी
पड़ा। नशे के
उतर जाने के
बाद सब खो गया।
अल्डुअस
हक्सले तो
इतना
प्रभावित हुआ एल.एस.डी.
से कि उसने
अपनी पूरी
जिंदगी फिर
यही कोशिश की
कि वेद में
जिस "सोमरस' की चर्चा है,
वह एल.एस.डी.
ही है। उसने
तो फिर यह भी
सिद्ध करने की
कोशिश की कि
अब भविष्य में
महावीर, बुद्ध,
कबीर, मीरा,
क्राइस्ट, इनको जो हुआ,
उसके लिए
इतने तीसत्तीस
साल, बीस-बीस
साल साधना
करने की कोई
जरूरत नहीं।
यह तो बैलगाड़ी
जैसे रास्ते
थे--बड़े लंबे।
अब तो जेट का
युग है। एल.एस.डी.
भविष्य की
साधना है।
वह
इतना
प्रभावित हो
गया था कि
जिंदगी इतनी
रंगीन, इतनी
प्रज्वल, इतनी
संगीतपूर्ण,
इतनी विभामयी!
तो जरूर एल.एस.डी.
कुछ कर रहा
है। एल.एस.डी.
कुछ भी नहीं
करता। और एल.एस.डी.
से कुछ
होनेवाला भी
नहीं है। एल.एस.डी.
तो एक झटके से
तुम्हारी
आंखों के
पर्दे को गिरा
देता है।
लेकिन फिर
पर्दा आ
जाएगा।
क्योंकि
पर्दे के होने
का कारण नहीं
मिटता एल.एस.डी.
से।
यह तो
ऐसे ही है
जैसे किसी ने
जबर्दस्ती
किसी सोते
आदमी की आंखें
उघाड़ दीं। खोल
दीं खींचकर पलकें।
एक क्षण को
आंखें खुल
गयीं, उसने
कुछ देखा, कि
फिर आंखें बंद
हो गयीं। सोया
आदमी सोया
आदमी है। और
अगर एल.एस.डी.
बार-बार लिया
तो रोज-रोज
रंग कम होते
जाएंगे। जैसे
औषधि का असर
खो जाता है, ऐसे ही नशे
का असर खो
जाएगा। फिर
ज्यादा मात्रा
चाहिए। उसी
मात्रा में
अर्थ न होगा।
एक दिन ऐसा
आयेगा, एल.एस.डी. से कुछ भी न
होगा। अगर
किसी आदमी की
आंख तुमने रोज
आधी रात में
जबर्दस्ती
खोली, तो
पहले दिन हो
सकता है वह
थोड़ा-सा चौंककर
देखे, दूसरे
दिन और कम
देखेगा, तीसरे
दिन और कम।
महीने भर के
बाद तुम खोल
दो आंख, आंख
खुली रहेगी, वह कुछ भी न
देखेगा।
अभ्यास हो
गया।
दुनिया
में आदमी के
ऊपर नशे का
प्रभाव
इसीलिए रहा है
कि नशे से कुछ
न कुछ रहस्य
की झलक मिलती
है। नशे का
प्रभाव अकारण
नहीं है।
और
समस्त दुनिया
के धर्मगुरुओं
ने नशे से
बचने का आग्रह
किया है, वह
भी बात ठीक
है। क्योंकि
नशा धोखा देता
है। सत्य
मिलता नहीं, सत्य की
झूठी झलक दे
देता है।
यहां
अगर मुझे
सुनते-सुनते
मेरे पास
बैठे-बैठे
प्रार्थना और
ध्यानपूर्ण
हृदय से कभी
तुम्हारी
आंखों का
पर्दा सरक जाए, तो उस समय
प्रश्न खड़े मत
करना। उस क्षण
तो पर्दे को
पूरा ही गिर
जाने देना।
छलांग लेकर
उतर जाना। तुम
भी बन जाना एक
हिस्से उस
इंद्रधनुष के।
तुम भी उस
विभा में खो
जाना। शायद लौटकर
तुम फिर कभी
वही न हो सको, जो तुम थे।
शायद तुम नये
होकर ही लौटो।
शायद फिर
तुम्हें अपने
आसपास भी वैसे
ही रंगों का
फैलाव, वैसे
ही रंगों की
बाढ़ अनुभव
होने लगे।
परमात्मा
जीवन के समस्त
रंगों को देख
लेने का नाम
है। जीवन के
समस्त रूप को
देख लेने का
नाम है। जीवन
का जो परम आह्लादमय
चमत्कारिक
रूप है, उसको
पूरा का पूरा
जी लेने का
नाम है।
परमात्मा कोई
गंभीर, उदास
चेहरों की खोज
नहीं; नाचते,
गाते लोगों
की खोज है।
आज
इतना ही।
thank you guruji
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