काम से
राम तक (अध्याय—5)
प्रवचन—अठाईसवां
शक्नोतीहैव यः सोढुं
प्राक्शरीरविमोक्षणात्।
कामक्रोधोद्भवं वेगं स युक्तः
स सुखी नरः।।
23।।
जो
मनुष्य शरीर
के नाश होने
से पहले ही
काम और क्रोध
से उत्पन्न
हुए वेग को
सहन करने में
समर्थ है, अर्थात
काम-क्रोध को
जिसने सदा के
लिए जीत लिया
है, वह
मनुष्य इस लोक
में योगी है
और वही सुखी
है।
जीवन
में काम और
क्रोध के वेग
को जिस पुरुष
ने जीत लिया, वह इस लोक
में योगी है, परलोक में
मुक्त है, वही
आनंद को भी
उपलब्ध है।
काम से
अर्थ है, दूसरे
से सुख लेने
की आकांक्षा।
जहां भी दूसरे
से सुख लेने
की आकांक्षा
है, वहीं
काम है।
काम
बड़ी विराट
घटना है। काम
सिर्फ यौन
नहीं है, सेक्स
नहीं है; काम
विराट घटना
है। यौन भी
काम के विराट
जाल का
छोटा-सा
हिस्सा है।
जहां
भी दूसरे से
सुख पाने की
इच्छा है, वहां दूसरे
का शोषण करने
के भी रास्ते
निर्मित होते
हैं। जब भी
मैं किसी
दूसरे से सुख
लेना चाहता
हूं, तभी
शोषण शुरू हो
जाता है। और
अगर कोई मेरे
काम में, मेरे
दूसरे से सुख
पाने में बाधा
बने, तो
क्रोध
उत्पन्न होता
है। इसलिए
कृष्ण ने काम
और क्रोध को
एक साथ ही इस
सूत्र में कहा
है। संयुक्त
वेग हैं।
कामना
में बाधा कोई
खड़ी करे, काम
के पूरे होने
में कोई
व्यवधान बने,
कोई दीवाल
बने, कोई आड़े आए, तो
क्रोध जन्मता
है। काम के
वेग को जहां
से भी रुकावट
मिलती है, वहीं
से लौटकर वह
क्रोध बन जाता
है। काम के वेग
को यदि
व्यवधान न
मिले, रुकावट
न मिले और काम
का वेग अपनी
इच्छा को पूरा
कर ले, तो फ्रस्ट्रेशन,
विषाद बन
जाता है।
काम की
तृप्ति पर, काम पूरा हो
जाए, तो
पीछे सिर्फ
विषाद की
कालिमा छूट
जाती है, अंधेरा
छूट जाता है।
और काम पूरा न
हो पाए, कोई
व्यवधान डाल
दे, तो काम
लपट बन जाता
है क्रोध की।
क्रोध काम का ही
अवरुद्ध रूप
है; रुका
हुआ रूप है।
मैं चाहता था
कुछ करना, नहीं
कर सका, तो
जिसने बाधा दी,
उस पर मेरे
काम की वासना
क्रोध की
अग्नि बनकर बरस
पड़ती है।
मैंने
कहा, काम बड़ी
घटना है। अगर
हम मनसशास्त्रियों
से पूछें, तो
वे कहते हैं
कि मनुष्य काम
के लिए ही जी
रहा है। अगर
हम फ्रायड से
पूछें, तो
वह कहेगा, काम
ही मनुष्य का
सब कुछ है, उसकी
आत्मा है। और
जहां तक
साधारण
मनुष्य का संबंध
है, फ्रायड
बिलकुल ही ठीक
कहता है। धन
भी कमाते हैं
इसलिए कि काम
खरीदा जा सके।
यश भी पाते
हैं इसलिए कि
काम खरीदा जा
सके। चौबीस
घंटे दौड़ हमारी,
गहरे में
अगर खोजें, तो किसी से
सुख पाने की
दौड़ है।
सुना
है मैंने कि फ्रेंक वू
करके एक
मनोचिकित्सक
के पास एक
आदमी आया है।
अति क्रोध से
पीड़ित है।
क्रोध ही
बीमारी है
उसकी। क्रोध
ने ही उसे जला
डाला है भीतर।
क्रोध ने उसे
सुखा दिया है।
उसके सारे
रस-स्रोत विषाक्त
हो गए हैं।
आंखों में
क्रोध के रेशे
हैं। चेहरे पर
क्रोध की
रेखाएं हैं।
नींद खो गई
है। हिंसा ही
हिंसा मन में
घूमती है।
फ्रेंक
वू उसे बिठाता
है, और उसके
मनोविश्लेषण
के लिए एक
छोटा-सा प्रयोग
करता है। हाथ
में उठाता है
अपना रूमाल
ऊंचा, और
उस आदमी से
कहता है, इसे
देखो। और
रूमाल को छोड़
देता है। वह
रूमाल नीचे
गिर जाता है। फ्रेंक वू
उस आदमी से
कहता है, आंख
बंद करो और
मुझे बताओ कि
रूमाल के
गिरने से
तुम्हें किस
चीज का खयाल
आया? तुम्हारे
मन में पहला
खयाल क्या
उठता है रूमाल
के गिरने से?
वह
आदमी आंख बंद
करता है और
कहता है, आई
एम रिमाइंडेड
आफ सेक्स--मुझे
तो कामवासना
का खयाल आता
है।
फ्रेंक
वू थोड़ा हैरान
हुआ, क्योंकि
रूमाल के
गिरने से
कामवासना का
क्या संबंध? फ्रेंक वू ने पास
में पड़ी एक
किताब उठाई और
कहा, इसे
मैं खोलता हूं;
गौर से
देखो। किताब
खोलकर रखी, कहा, आंख
बंद करो और
मुझे कहो कि
किताब खुलती
देखकर तुम्हें
क्या खयाल आता
है?
उसने
कहा, आई एम
अगेन रिमाइंडेड
आफ
सेक्स--मुझे
फिर कामवासना
की ही याद आती
है!
फ्रेंक
वू और हैरान
हुआ। उसने
टेबल पर पड़ी
हुई घंटी बजाई
और कहा कि
घंटी को ठीक
से सुनो! आंख
बंद करो। क्या
याद आता है? उसने कहा, आई एम रिमाइंडेड
आफ सेक्स--वही
कामवासना का
खयाल आता है!
फ्रेंक
वू ने कहा, बड़ी हैरानी
की बात है कि
तीन बिलकुल
अलग चीजें
तुम्हें एक ही
चीज की याद
कैसे दिलाती
हैं! रूमाल का
गिरना, किताब
का खुलना, घंटी
का बजना--इतनी
विभिन्न
बातें हैं!
तुम्हें इन
तीनों में एक
ही बात का
खयाल आता है; कारण क्या
है?
उस
आदमी ने कहा, तुम्हारी
चीजों से मुझे
कोई संबंध
नहीं। मुझे
सिवाय सेक्स
के और कोई
खयाल आता ही
नहीं। तुम्हारी
चीजों से कोई
संबंध नहीं
है। तुम रूमाल
गिराओ कि
पत्थर गिराओ।
तुम घंटी बजाओ
कि घंटा बजाओ।
तुम किताब खोलो
कि बंद करो।
इससे कोई फर्क
नहीं पड़ता। मैं
तो सिवाय काम
के कुछ सोचता
ही नहीं।
यह
आदमी पागल
मालूम पड़ेगा।
लेकिन दुनिया
में सौ में से
निन्यानबे
आदमी इस भांति
के हैं। उन्हें
पता हो या न
पता हो। और
जिन्हें पता
है, उनकी तो
चिकित्सा हो
सकती है; जिन्हें
पता नहीं है, वे बड़ी
खतरनाक हालत
में हैं।
हमें लगेगा
कि यह तो बात
ठीक नहीं है।
रूमाल के गिरने
से हमें क्यों
खयाल आएगा? लेकिन अगर
आप अपने मन का
थोड़ा-सा अंतर्विश्लेषण
करेंगे सुबह
से रात सोने
तक, थोड़ा
भीतर झांककर
देखेंगे, तो
आप हैरान
होंगे कि कहीं
अंतस्तल पर एक
पर्त
कामवासना की
पूरे समय चलती
रहती है।
मनोवैज्ञानिक
उस राज को पकड़
लिए हैं, इसलिए
सारी दुनिया
के विज्ञापनदाताओं
को उन्होंने
कह दिया है कि
आदमी को कोई
भी चीज बेचनी
हो, सेक्स
के साथ जोड़ दो;
बिकेगी। अन्यथा
नहीं बिकेगी।
कार बेचनी
हो, तो एक
नग्न स्त्री
को कार के साथ
खड़ा करो। कोई संबंध
नहीं है।
सिगरेट बेचनी
हो, तो एक
स्त्री को खड़ा
करो। कुछ भी
बेचना हो, तो
नग्न स्त्री
को बीच में
लाओ। जिसका
कोई भी संबंध
नहीं है, तो
भी खड़ा करो।
क्यों? आदमी
के मन की
अंतर्धारा का
पता चल गया
है। हर चीज
उसी की याद
दिलाती है। तो
अगर स्त्री को
खड़ा कर दो, तो
वह चीज उसके
मन में गहरे संयुक्त
हो जाएगी, गहरी
उतर जाएगी।
फिर वह चीज
नहीं खरीदेगा।
खरीदेगा
चीज, और
समझेगा कि
किसी
जाने-अनजाने
रास्ते स्त्री
खरीदी है।
यह काम
से भरा हुआ
चित्त अगर
चौबीस घंटे
क्रोध से भरता
है, तो
आश्चर्य नहीं
है। यह काम
चौबीस घंटे
हजार बाधाएं
पाता है, रुकावटें
पाता है। यह
पूरा नहीं हो
पाता। पीड़ा
देता है। भीतर
उबल जाते हैं
प्राण। ऊर्जा
काम में बहना
चाहती है, रुकावटें
पाती है हजार
तरह की। इसलिए
तो जहां सुविधा
बन जाएगी, वहां
लोग रुकावटों
को तोड़ना शुरू
कर देंगे। जैसा
अमेरिका में
हुआ।
जब तक
दुनिया गरीब
थी, तो आदमी
समाज से डरता
था। क्योंकि
भूखा मरेगा, अगर समाज के
खिलाफ गया तो।
नौकरी, रोजी-रोटी
खो जाएगी।
जिंदा रहना
मुश्किल हो जाएगा।
आज अमेरिका
में धन काफी
है। कोई भय
नहीं रहा समाज
का उतना।
इसलिए सेक्स
के संबंध में समाज
के सारे नियम,
सारी
व्यवस्था
टूटी जा रही
है।
जितनी
दुनिया
समृद्ध होगी, उतनी सेक्स
के मामले में
सब सीमाएं तोड़ती
चली जाएगी।
इससे कुछ ऐसा
नहीं है कि
कुछ बड़ी उपलब्धि
हो जाएगी। एक
तरफ अमेरिका
जैसे समृद्ध
समाज में
सेक्स के सब
व्यवधान टूट
गए, और
दूसरी तरफ
विफलता और
विषाद घना
होता जाता है
और आत्महत्याएं
बढ़ती चली जाती
हैं।
समाज
के पास दो ही
उपाय हैं। या
तो वह आपकी
काम की वासना
को पूरा होने
की खुली छूट
दे दे; तो भी
आप पागल हो
जाएंगे--विषाद
में, फ्रस्ट्रेशन में। जैसा
अमेरिका में
हुआ है। यौन
के संबंध में
पूरी
स्वतंत्रता
पैदा हो गई
है। और इसका परिणाम
यह हुआ कि यौन
में रस भी कम
हो गया; विरस
हो गया; काम
की गहराई भी
खो गई; काम
का मूल्य भी
खो गया; और
आदमी विषाद
में खड़ा है।
अब कोई दूसरा सेंसेशन
चाहिए, कोई
दूसरा वेग, कोई दूसरी
उत्तेजना। वह
दिखाई नहीं
पड़ती।
इसलिए
काम के विकृत
रूप सारे
पश्चिम में
फैलने शुरू हो
गए।
होमोसेक्सुअलिटी
इतने जोर से
बढ़ती है, जैसा
कि दुनिया में
कभी भी नहीं
बढ़ी थी। क्योंकि
स्त्री के साथ
पुरुष ने देख
लिया, स्त्री
ने पुरुष के
साथ देख लिया।
रस नहीं है कुछ
बहुत। अब क्या
करें! अब नए
आविष्कार
करने पड़ते
हैं।
विक्षिप्त
आविष्कार
पैदा होते हैं;
विकृतियां,
परवरशंस पैदा होते
हैं।
अगर
समाज बिलकुल
खुला छोड़ दे
सेक्स, तो
परवर्ट होगा।
और अगर समाज
बिलकुल खुला न
छोड़े, तो
सप्रेशन
होगा। और
जितना दमन
होगा, उतना
क्रोध पैदा
होगा। या तो
काम को खुला छोड़ो, तो
विषाद फैल
जाता है; जीवन
रसहीन हो जाता
है। लोग
थके-हारे, अर्थहीन
हो जाते हैं। एंप्टीनेस
पकड़ लेती है।
सब रिक्त, कुछ
भी नहीं है
जिंदगी में।
और यदि काम को
रोको, तो
क्रोध
उत्पन्न होता
है। क्रोध
हजार-हजार रूपों
में प्रकट
होता है।
क्या
आपको पता है
कि आज से सौ
साल पहले
दुनिया में
युवकों के
विद्रोह कहीं
भी नहीं थे।
कोई दुनिया
में नए तरह के
यूथ पैदा नहीं
हो गए हैं; कोई नए तरह
के युवक पैदा
नहीं हो गए
हैं। दुनिया
में
युवक-विद्रोह
कभी भी न था।
युवकों ने कभी
भी पत्थर
मारकर न तो
कालेज के कांच
तोड़े थे, न
स्कूल तोड़े थे,
न आगें लगाई
थीं, न बस
और ट्राम जलाई
थीं। न गुरुओं
को, शिक्षकों
को, माता-पिताओं को
इस तरह की
चिंता में डाल
दिया था। न
समाज की सारी
व्यवस्था को
इस तरह
अस्तव्यस्त
कभी किया था।
क्या बात है? युवक के
भीतर कुछ नए
हारमोन, कोई
नई
केमिस्ट्री
हो गई? कोई
नई बात पैदा
हो गई?
युवक
बिलकुल वैसे
ही हैं, जैसे
सदा थे। सिर्फ
एक बात का
फर्क पड़ा है, दुनिया से
बाल-विवाह
विदा हो गया।
तेरह-चौदह साल
में युवक
कामवासना से
भर जाता है।
लेकिन समाज सब
तरफ से रोक
पैदा कर देता
है। रोक पैदा
कर देता है, क्रोध पैदा
होता है। काम
अवरुद्ध हुआ
कि क्रोध पैदा
हुआ। क्रोध
पैदा हुआ कि
विध्वंस
होगा।
इसलिए
सारी दुनिया
में विध्वंस
की लहर दौड़ गई
है। युवक तोड़
रहे हैं उन
चीजों को, उन्हीं
चीजों को, जिनको
उनके मां-बाप
ने निर्मित
किया उनके लिए।
विश्वविद्यालय
जलेंगे, बच नहीं
सकते।
इसलिए
अमेरिका के एक
बहुत समझदार
मनोवैज्ञानिक
किन्से
ने दस साल के
अध्ययन के बाद
यह कहा कि अगर
दुनिया से
युवक-विद्रोह
खतम करना है, तो हमें
बाल-विवाह पर
वापस लौट जाना
चाहिए।
बाल-विवाह
पर कोई
अमेरिकी
मनोवैज्ञानिक
कहेगा, वापस
लौट जाना
चाहिए! क्या
कारण है? अगर
काम अवरुद्ध
होगा, तो
क्रोध बनेगा।
और क्रोध फिर
हिंसा बनेगा,
और जीवन को
सब तरफ से तोड़
डालेगा।
लेकिन
बाल-विवाह करने
से दूसरी
परेशानियां
हैं। जैसे ही
बाल-विवाह
होना शुरू
होता है, जैसे
ही बच्चों का
विवाह कर दिया
जाए, वैसे
ही उनके जीवन
में क्रिएटिविटी
खो जाती है; वे सृजन
नहीं कर पाते।
बच्चे ही पैदा
करते हैं, फिर
और कुछ सृजन
नहीं करते।
इसलिए
बाल-विवाह वाले
समाज
आविष्कार नहीं
कर पाते, वैज्ञानिक
खोज नहीं कर
पाते, हिमालय
पर नहीं चढ़
पाते, चांदत्तारों पर नहीं
पहुंच पाते।
जहां
बाल-विवाह
होगा, वहां
खोज, सृजन,
क्रिएशन, सब बंद हो
जाएगा। लेकिन
जहां खोज होगी,
क्रिएशन
होगा, बाल-विवाह
रुकेगा, वहां
क्रोध और
हिंसा की आग
फैल जाएगी।
फिर क्या किया
जाए?
कृष्ण
कुछ और ही
सुझाव देते
हैं। वे कहते
हैं, न तो काम
को खुला छोड़
देने से कोई
हल है, न
काम को रोक
लेने से कोई
हल है। काम और
क्रोध दोनों
वेग के अतीत, पार हो जाने
में, दोनों
के ऊपर उठ
जाने में है।
दोनों वेगों
के बीच अलिप्त
हो जाने में
है; दोनों
के साथ
अनासक्त हो
जाने में है।
जो
व्यक्ति इस
पृथ्वी पर इन
दो वेगों
के साथ अलिप्त
होकर खड़ा हो
जाता है, जिसे
काम आंदोलित
नहीं करता और
जिसे क्रोध अग्नि
की लपटों में
नहीं डालता, ऐसा व्यक्ति
यहां भी और
परलोक में भी
सुख को उपलब्ध
होता है।
लेकिन
हम तो दुख ही दुख
को उपलब्ध
होते हैं।
इससे साफ समझ
लेना चाहिए कि
हमारी स्थिति
बिलकुल
प्रतिकूल
होगी। हम ठीक
उलटे होंगे
कृष्ण के आदमी
से। दुख ही दुख!
दुख के जोड़ के
अतिरिक्त और
कुछ भी नहीं।
फ्रायड
से मरते वक्त
किसी ने पूछा
कि तुमने जिंदगीभर
इतने लोगों की
मनस-चिकित्सा
की। क्या तुम
सोचते हो कि
आदमी को
मनस-चिकित्सा
के द्वारा सुख
तक पहुंचाया
जा सकता है? ब्लिस
उपलब्ध हो
सकती है? फ्रायड
ने जो बात कही,
बहुत
हैरानी की है।
फ्रायड ने कहा
कि नहीं; जैसा
आदमी है, इस
आदमी को सुख
तक कभी नहीं
पहुंचाया जा
सकता। ज्यादा
से ज्यादा
सामान्य दुख तक
आदमी पहुंचे,
इतना
इंतजाम किया
जा सकता
है--जनरल अनहैपिनेस!
फ्रायड ने कहा,
सुख तक तो
किसी को नहीं
पहुंचाया जा
सकता। लोग
बहुत दुख तक न
जाएं, न्यूरोटिक
अनहैपिनेस
तक न जाएं; पागल
न हो जाएं दुख
में; साधारण
बने
रहें--इतने
दुख तक
पहुंचाया जा
सकता है! जनरल अनहैपिनेस!
बस, ज्यादा
से ज्यादा जो
हम कर सकते
हैं, वह
फ्रायड ने कहा,
इतना कि हम
इतने दुख तक
आपको रोक सकते
हैं, जितना
सबको है।
अगर
फ्रायड जैसा
इस युग का
मनीषी कहे कि
अंतिम लक्ष्य
इससे ज्यादा
दिखाई नहीं
पड़ता, तो
हमें
मनोविज्ञान
के पूरे
आधारों पर
पुनर्विचार
करना पड़ेगा।
न्यूरोटिक अनहैपिनेस
से हम उतार
सकते हैं जनरल
अनहैपिनेस
तक! बस, इससे
ज्यादा नहीं!
इतना दुखी न
होने देंगे कि
आप पागलखाने
चले जाओ। इतना
दुखी न होने
देंगे कि
आत्महत्या कर
लो। इतना दुखी
न होने देंगे
कि आप पागल हो
जाओ। बस इतना
दुखी होने
देंगे कि दुकान
चलाते रहो, घर बच्चों
को बड़ा करते
रहो। इतना
दुखी होने देंगे,
जनरल अनहैपिनेस,
जितने सभी
लोग दुखी हैं।
बस, इससे
आगे नहीं।
इससे आगे कुछ
नहीं किया जा
सकता।
अगर
फ्रायड ऐसा
कहता है, तो
थोड़ा सोचने
जैसा है।
क्योंकि भारत
के सारे मनसविद--चाहे
कृष्ण, चाहे
पतंजलि, चाहे
कणाद, चाहे
बुद्ध, चाहे
महावीर, चाहे
शंकर, चाहे
नागार्जुन--वे
सभी कहते हैं
कि मनुष्य परम
आनंद को
उपलब्ध हो
सकता है। और
ऐसा वे प्रामाणिक
रूप से कहते
हैं, क्योंकि
वे खुद उस परम
आनंद में खड़े
हुए हैं।
जरूर
बुनियादों
में कोई फर्क
है, आधारभूत
कोई तात्विक
भेद है।
पश्चिम
मानता है कि
काम से आदमी
मुक्त हो ही नहीं
सकता। तो फिर
दुख से भी
मुक्त नहीं हो
सकता। इतना
पर्याप्त
लक्ष्य है कि
जनरल अनहैपिनेस
रहे। ज्यादा न
हो जाए; सामान्य
रहे, नार्मल! पूरब मानता
है कि मनुष्य
काम की वासना
से मुक्त हो
सकता है। कैसे
हो सकता है?
जब तक
हमें खयाल में
है कुछ गलत
विधि, तब तक
हम कितनी ही
कोशिश करें, कोई परिणाम
नहीं होगा। और
कई बार ऐसा
होता है कि
गलत विधि पर
हम वर्षों
मेहनत करते
रहें, श्रम
बहुत करें, परिणाम कुछ
न हो। ठीक
चाबी हाथ में
हो, तो क्षणभर
में ताला खुल
जाए।
सुना
है मैंने, एक आदमी बहुत
परेशान है। वह
चिकित्सक के
पास गया। वह कहता
है, मेरी
परेशानी यही
है कि जब रात
मैं बिस्तर के
ऊपर सोता हूं,
तो मुझे ऐसा
लगता है कि
बिस्तर के
नीचे कोई है।
फिर मैं नीचे
चला जाता हूं
सोने के लिए, देखता हूं, कोई नहीं
है। लेकिन तब
मुझे लगता है,
ऊपर कोई है।
फिर मैं ऊपर
आता हूं, तब
ऊपर किसी को
नहीं पाता।
पाता हूं कि
अब नीचे कोई
है। ऐसा रातभर
मैं बिस्तर के
ऊपर-नीचे होता
रहता हूं।
नींद मेरी
नष्ट हो गई
है। मैं पागल
हुआ जा रहा
हूं। मुझे
छुटकारा दिलाओ।
जानता हूं
भलीभांति, नीचे
जाकर पाता हूं,
कोई नहीं
है। लेकिन तब
तक मुझे लगता
है, ऊपर
कोई है। अब
मैं नीचे हूं,
ऊपर का
भरोसा कैसे
करूं कि नहीं
है? जाऊं, तभी पता
चले। लेकिन जब
तक ऊपर जाता
हूं, तब तक
लगता है, नीचे
कोई है!
मनोवैज्ञानिक
ने कहा, यह
बहुत कठिन
मामला है। दो
वर्ष लग
जाएंगे। फिर
भी पक्का नहीं
कहा जा सकता
कि आप इस नासमझी
के बाहर हो
सकेंगे।
कोशिश मैं
करूंगा। सौ रुपए
सप्ताह का
खर्च होगा। हर
सप्ताह दो
बैठक मुझे
तुम्हें देनी
पड़ेंगी। और दो
साल मेहनत चलेगी।
उस आदमी ने
कहा, इतनी
मेरी आर्थिक
हैसियत नहीं
है। इतना लंबा
इलाज मैं न
करवा पाऊंगा।
फिर भी मैं
कोशिश करता
हूं। पत्नी से
जाकर बात कर
लूं। कोई
रास्ता बन जाए,
तो मैं इलाज
करवा लूं। मैं
कल आपको खबर
करूंगा।
लेकिन
उस आदमी ने
सात दिन तक
कोई खबर न की।
मनोवैज्ञानिक
रास्ता देखता
रहा। सातवें
दिन उसने फोन
किया कि क्या
हुआ? आप आए
नहीं! उसने
कहा कि मैं
बिलकुल ठीक
हूं। हद हो गई!
मेरी पत्नी ने
इलाज कर दिया!
मनोवैज्ञानिक
ने कहा, कैसा
इलाज किया
होगा? क्या
तुम ठीक हो गए?
उस आदमी ने
कहा, बिलकुल
ठीक।
तुम्हारी
पत्नी ने क्या
किया? मनोवैज्ञानिक
हैरान हुआ; क्योंकि
बीमारी
खतरनाक थी और
लंबी दिखाई
पड़ती थी। उस
आदमी ने कहा, मेरी पत्नी
ने केवल
बिस्तर के चारों
पैर काट डाले;
पलंग के
चारों पैर काट
दिए और कुछ
नहीं किया। अब
नीचे किसी के
होने का उपाय
ही नहीं रहा।
अब मैं मजे से
सो रहा हूं!
और मैं
आपसे कहता हूं
कि वह
मनोवैज्ञानिक
दो साल नहीं, दो सौ साल
में भी उस
आदमी को ठीक न
कर पाता। कई बार
जरा सा गलत
रुख, और
यात्रा कितनी
ही हो, मंजिल
फिर नहीं
मिलती।
पश्चिम
के
मनोवैज्ञानिक
कहते हैं, काम से
मुक्त नहीं
हुआ जा सकता।
बस, यहां
से पश्चिम की
सारी जड़ सड़नी
शुरू हो गई।
यहीं पश्चिम
बीमार पड़ गया।
काम से मुक्त
नहीं हुआ जा
सकता, यह
बात पचास साल
में उन्होंने
इतनी गहरी
बिठा दी हर
आदमी के मन
में कि अब सच
में ही मुक्त
नहीं हुआ
जाता। सेल्फ फुलफिलिंग
प्रोफेसी हो
गई वह। कह
दिया कि नहीं
हुआ जा सकता।
आदमी तो चाहता
ही था कि न हुआ
जा सके, तो
उत्तरदायित्व
भी खो जाए, अपराध
भी खो जाए। और
अगर मैं कुछ
गलत करूं, तो
मैं कह सकूं, यह तो
मनुष्य का स्वभाव
है, कोई
उपाय नहीं है,
क्या कर
सकता हूं!
लेकिन
पूरब कहता है, काम से
मुक्त हुआ जा
सकता है। और
आज नहीं कल पश्चिम
को पूरब से इस
सूत्र को पुनः
सीखना ही पड़ेगा।
अन्यथा
पश्चिम मरेगा,
अपनी ही
नासमझी में
दबकर मर
जाएगा।
पूरब
कहता है, हुआ
जा सकता है।
कृष्ण कहते
हैं, हो
जाया जा सकता
है, हो
सकते हो
अर्जुन। कैसे?
जब तक
भी मुझे अपने
भीतर के आनंद
का कोई पता नहीं
है, तब तक
स्वभावतः मैं
दूसरे से सुख
पाने पर निर्भर
रहूंगा। जब तक
मुझे भीतर कोई
रस आता ही नहीं;
जब तक आंख
बंद करता हूं,
भीतर कोई
शांति, कोई
आनंद की झलक
नहीं
मिलती--तब तक
मैं किसी और
के पास जाऊंगा
कि कोई मुझे
सुख दे दे।
और मजे
की बात तो यह
है कि जिसके
पास मैं जाऊंगा, वह भी मेरे
पास इसीलिए
आया है कि मैं
उसे सुख दे
दूं! और दो
भिखारी
एक-दूसरे के
सामने भिक्षापात्र
रखकर बैठ जाएं,
तो कुछ हल
होने वाला है?
कोई हल होने
वाला नहीं है।
हम सब ऐसे ही
भिखारी हैं।
मैं
किसी से सोचता
हूं कि इससे
मिलेगा सुख; उसके पीछे दौड़ता
हूं। वह भी
मेरे पीछे
इसलिए दौड़ रहा
है कि मुझसे
मिलेगा सुख!
हम दोनों लेने
की तलाश में
हैं, और
दोनों के पास
देने को नहीं
है। देने को
होता, अगर
मेरे पास किसी
को सुख देने
को होता, तो
सबसे पहले तो
मैं ले लेता।
अगर मेरे घर
में कुआं होता
और मैं प्यास
अपनी बुझा
सकता, तो
मैं दूसरे की
प्यास भी
बुझाने के लिए
कुएं पर बुला
लेता। लेकिन
मेरे घर में
कुआं नहीं, मैं प्यासा
मरा जा रहा
हूं; और एक
दूसरे आदमी के
पीछे चल रहा
हूं, इस
आशा में कि
उससे मेरी
प्यास बुझ
जाएगी! वह खुद भी
मेरे घर
इसीलिए आया
हुआ है कि
उसकी प्यास मुझसे
बुझ जाएगी। न
उसके घर कुआं
है, न मेरे
घर कुआं है! हम
दोनों
एक-दूसरे को
धोखा दे रहे
हैं।
मैं
उसे ऐसा
दिखाने की
कोशिश कर रहा
हूं कि मैं
तुझे सुख
दूंगा, क्योंकि
इस तरह का
आश्वासन अगर
मैं न दिलाऊं,
तो उससे
मुझे सुख
मिलने का
रास्ता नहीं
बनेगा। वह
मुझे धोखा दे
रहा है कि मैं
तुम्हें सुख दूंगा।
वह भी इसीलिए
धोखा दे रहा
है, क्योंकि
अगर वह ऐसा
आश्वासन न दे,
तो मुझसे
सुख न पा
सकेगा। और हम
दोनों एक-दूसरे
को धोखा दे
रहे हैं।
इस जगत
में हम सब
एक-दूसरे को
धोखा दे रहे
हैं इस बात का
कि सुख
लिया-दिया जा
सकेगा। वह
संभव नहीं है।
जिसके पास
भीतर सुख नहीं
है, वह किसी
को दे नहीं
सकता। जो
हमारे पास है,
वही हम दे
सकते हैं। और
जो हमारे पास
है, वह
देने के पहले
हमें मिल गया
होता है।
इस जगत
में वह आदमी
सुख दे सकता
है, जिसके
पास है। लेकिन
हमारे पास तो
कोई सुख नहीं
है। काम से
केवल वही
व्यक्ति
मुक्त होगा, जिसे आनंद
के अंतर-स्रोत
उपलब्ध हो
जाएं, अन्यथा
मुक्त नहीं
होगा।
तो जब
कृष्ण कहते
हैं, काम और
क्रोध से
मुक्त हो जाता
है जो, तो
उसका अर्थ ही
यह है। उसका
अर्थ ही यह है
कि जब भी मन
में काम
उठे--तो काम एक
ऊर्जा है, एनर्जी
है, बड़ी
शक्ति है।
इसीलिए तो
प्रकृति
काम-ऊर्जा को
संतति के लिए,
जन्म के लिए
उपयोग में
लाती है। बड़ी
शक्ति है, विराट
शक्ति है काम।
जब काम उठे, आपके भीतर
जब वासना उठे,
किसी से सुख
लेने की इच्छा
उठे, तब
आंख बंद करके
दूसरे को भूल
जाना और आपके
ही भीतर वह
ऊर्जा कहां उठ
रही है, उस
बिंदु पर
ध्यान करना।
स्वभावतः, साधारणतः
सेक्स सेंटर
से ऊर्जा उठती
है और बाहर
फैल जाना
चाहती है। यदि
कोई व्यक्ति,
जिस क्षण
सेक्स की
कामना मन को
घेर ले, आंख
बंद करके अपने
सारे ध्यान को
सेक्स के
सेंटर पर ले
जाए, तो दो
क्षण में
पाएगा कि काम
की वासना
तिरोहित हो
गई। दो क्षण
में! इससे
ज्यादा वक्त
नहीं लगेगा।
और जैसे ही
काम की वासना
तिरोहित होगी,
जो ऊर्जा उठ
गई, उसका
क्या होगा?
ऊर्जा
सदा उपयोग में
आती है। उठ
जाए तो, कुछ
न कुछ उपयोग
होता है। जो
शक्ति जाग गई,
उसका क्या
होगा? अब
बाहर जाने का
कोई मार्ग न
रहा, तो
शक्ति भीतर
जाना शुरू हो
जाती है। उस
शक्ति के बहाव
का नाम
कुंडलिनी है।
उस शक्ति के
भीतर बहने का
नाम कुंडलिनी
है। सेक्स के,
यौन के
केंद्र से
शक्ति उठती है
और रीढ़ के मार्ग
से ऊपर की तरफ
बहनी शुरू हो
जाती है। जैसे
कोई सर्प उठता
हो।
यौन के
केंद्र पर
शक्ति का
संग्रह है। या
तो वहां से
बाहर चली
जाएगी, या
वहां से भीतर
चली जाएगी। वह
द्वार है। अगर
बाहर गई, तो
या तो विषाद
बनेगी, या
क्रोध बनेगी।
अगर भीतर गई, तो ठीक उलटी
घटना बनेगी।
अगर अवरुद्ध
हो जाए, तो
क्षमा बनेगी,
जैसे बाहर
अवरुद्ध होने
से क्रोध बनती
है। अगर भीतर
अवरुद्ध हो
जाए, तो
क्षमा बनेगी।
और जैसे बाहर
पूरे होने से
विषाद बनती है,
अगर भीतर
पूरी हो जाए, तो आनंद
बनेगी।
खयाल
रख लें, बाहर
ऊर्जा जाए, पूरे लक्ष्य
तक पहुंच जाए,
तो विषाद फल
बनेगा। भीतर
उठे, और
सहस्रार तक
पहुंच जाए ऊपर
तक, तो
आनंद फलित
होगा। अगर
बाहर रुकावट
बन जाए, तो
क्रोध बनेगी;
अगर भीतर
कहीं रुकावट
बन जाए, तो
क्षमा बनेगी।
लेकिन
हम तो बाहर से
ही परिचित
हैं। हम बाहर
से ही परिचित
हैं, हमें
भीतर का कोई
खयाल नहीं है।
कृष्ण
क्यों इस बात
को स्पष्ट
नहीं कह रहे
हैं, यह भी
सोचने जैसा
है। कृष्ण को
अर्जुन को
बताना चाहिए
कि तू
काम-केंद्र पर,
सेक्स
सेंटर पर
ध्यान को
केंद्रित कर।
यह अर्जुन से
कृष्ण क्यों
नहीं कह रहे
हैं? मैं
इसे क्यों कह
रहा हूं आपसे?
उसका कारण
है।
इस देश
की एक व्यवस्था
थी
ब्रह्मचर्य
आश्रम की।
सारे बच्चे, जो भी गुरु
के पास
ब्रह्मचर्य
के काल में
आश्रम में
रहते थे, उन
सबको
अनिवार्य रूप
से सेक्स
सेंटर पर ध्यान
करना सिखा
दिया जाता था।
ब्रह्मचर्य
की साधना ही
थी वह। यह
सामान्य
ज्ञान की बात
थी, इसलिए
कृष्ण को इसे
विशेष रूप से कहने
की कोई जरूरत
नहीं है। इतना
ही वे कह सकते
हैं कि अर्जुन,
काम और
क्रोध से जो
मुक्त हो जाता
है, वह इस
पृथ्वी पर सुख
को और उस लोक
में भी आनंद को
उपलब्ध होता
है।
आपसे
मुझे विस्तार
से कहने की
जरूरत है, क्योंकि वह
जो
ब्रह्मचर्य
के आश्रम का
काल था, वह
हमारी जिंदगी
से बिलकुल
काटकर फेंक
दिया गया है।
हम गृहस्थ ही
शुरू होते हैं,
जो कि बहुत
ही बेहूदी बात
है। बच्चा भी
गृहस्थ की तरह
शुरू होता है,
जो कि बड़ी
गलत शुरुआत
है। जीवन के
सुनिश्चित आधार
रखे ही नहीं
जाते।
अर्जुन
को भलीभांति
पता है कि काम
की ऊर्जा कैसे
अंतर्प्रवाहित
होती है, इसलिए
उसको उल्लेख
नहीं किया है।
वह सभी को पता
था। उसका
उल्लेख करने
की कोई जरूरत
न थी। वह सामान्य
ज्ञान था। वह
ऐसा ही
सामान्य
ज्ञान था, जैसे
मैं आपसे कहूं
कि जाओ, कार
ले जाओ। तो यह
सामान्य
ज्ञान है कि
पेट्रोल डला
लेना। इसको
कहने की कोई
जरूरत न पड़े।
पेट्रोल न हो,
तो कार नहीं
जाएगी, यह
सामान्य
ज्ञान की बात
है।
ठीक
ऐसे ही जीवन
की ऊर्जा भीतर
कैसे यात्रा
करती है, उसके
मेडिटेशन की
विधि सबको
ज्ञात थी। वह
हर बच्चे को
जन्म के बाद
पहली चीज थी।
जैसे ही बच्चा
होश में भरता,
जो पहली चीज
हम सिखाते थे,
वह ब्रह्मचर्य
था। जो पहला
पाठ हम देते
थे उसके जीवन
में, वह
ब्रह्मचर्य
था। क्योंकि
वही सबसे बड़ा
पाठ है, जो
जीवन की ऊर्जा
को काम से
हटाकर राम की
तरफ ले जाता
है।
काम है
दूसरे पर
निर्भरता, राम है
स्वनिर्भरता।
काम है
बहिर्गमन, राम
है अंतर्गमन।
काम और राम के
बीच हमारे
सारे जीवन का
आंदोलन है। जो
बाहर ही दौड़
रहा है, उसे
काम ही काम
सुनाई पड़ता
है। जो भीतर
दौड़ रहा है, उसे राम ही
राम सुनाई
पड़ता है।
जैसे
मैंने आपसे
कही उस आदमी
की बात--रूमाल
गिराया, तो
उसने कहा, आइ
एम रिमाइंडेड
आफ सेक्स। अगर
किसी भक्त को,
किसी साधक
को रूमाल गिराओ,
और पूछो कि
किस चीज का
स्मरण आया? वह कहेगा, राम का।
घंटी बजाओ;
पूछो, किस
चीज का स्मरण
आया? वह
कहेगा, राम
का। किताब खोलो;
पूछो, किस
चीज का स्मरण
आया? वह
कहेगा, राम
का।
स्वामी
रामतीर्थ
हिंदुस्तान
जब वापस लौटे, तो सरदार पूर्णसिंह
नाम के एक
बहुत विचारशील
व्यक्ति उनके
पास रात को
रुकते थे। एक
दिन बड़े हैरान
हुए। कमरे में
कोई नहीं है।
राम सोते हैं।
पूर्णसिंह
जाग गए हैं।
कमरे में राम
की ध्वनि आ
रही है। और
राम तो सोए
हुए हैं। कमरे
के बाहर जाकर पूर्णसिंह
चक्कर लगा आए;
कोई नहीं
है। कहीं से
कोई आवाज नहीं
है। जितना
कमरे से दूर
गए, आवाज
कम होती चली
गई। कमरे में
वापस लौटकर
आए। रात के दो
बजे हैं। जैसे
कमरे के पास
आए, आवाज
बढ़ने लगी। तब
अचानक उन्हें
खयाल आया कि आवाज
कहीं
रामतीर्थ के
पास से आ रही
है। वे जितने
पास आए, हैरान
हो गए।
रामतीर्थ
सो रहे हैं।
नींद लगी है।
रामतीर्थ के
हाथ पर कान
रखकर देखा, तो आवाज आ
रही है, राम,
राम। पैर पर
कान रखकर देखा,
तो आवाज आ
रही है, राम,
राम। बहुत
घबड़ा गए कि यह
क्या हो रहा
है! शरीर आवाज
दे रहा है!
रोआं-रोआं
आवाज दे रहा
है!
संभव
है। बिलकुल
संभव है। शरीर
बहुत संवेदनशील
यंत्र है। जब
आप कामवासना
से भरे होते
हैं, तब भी
रोआं-रोआं खबर
देता है, काम,
काम।
कामवासना से
भरे हुए आदमी
का हाथ छुएं।
हाथ खबर देता
है, काम।
कामवासना से
भरे आदमी की
आंख में आंख
डालें; खबर
आती है, काम।
कामवासना से
भरे आदमी को
कहीं से भी टटोलें;
खबर आती है,
काम।
राम से
भी इतना ही
भरा जा सकता
है। और जब
ऊर्जा
अंतर्यात्रा
बनकर सहस्रार
पर पहुंचकर अंतर्गूंज
पैदा करती है, अंतर्नाद
पैदा करती है,
तो उस
व्यक्ति ने
जिस शब्द का
भी उपयोग करके
यह यात्रा की
हो--कृष्ण का, या राम का, या क्राइस्ट
का, या
अल्लाह का--वह
शब्द उसके
रोएं-रोएं से
प्रस्फुटित
होने लगता है;
गूंजने
लगता है। और
जिनके पास
सुनने के कान
हैं, वे
सुन सकते हैं।
बड़े सूक्ष्म
कान चाहिए।
अब अभी
कहा गया आपको, एलिजाबेथ,
जिसने कल
रात ग्यारह
बजे जाकर
संन्यास लिया,
वह कल यहां
धुन में खड़ी
थी। स्वभावतः,
जैसा
अमेरिकन
दिमाग होता है,
स्केप्टिकल है। परसों
सुबह ही उसने
मुझसे बात की
कि मैं श्रद्धा
बिलकुल नहीं
कर सकती। मुझे
तो बड़े संदेह
उठते हैं। और
भारतीय दिमाग
से मेरा कोई
तालमेल नहीं
बैठता। मुझे
तो रेशनल,
बुद्धिगत
कोई बात समझ
में आनी
चाहिए। ये
संन्यासी नाच
रहे हैं, ये
सब कर रहे हैं,
यह मुझे
बहुत अजीब
लगता है।
स्वभावतः! यह
मुझे ठीक नहीं
लगता। मैं नाच
नहीं सकती
हूं। कठोर थी
परसों सुबह।
मैंने
उससे कहा कि
ठीक है। कोई
चिंता मत कर।
तू खड़े होकर
देख। नाच मत।
खड़े होकर
सिर्फ देख। और
दूसरे के लिए
जजमेंट मत ले
कि दूसरे क्या
कर रहे हैं, क्योंकि
दूसरे के भीतर
हम प्रवेश
नहीं कर सकते
हैं। उसके
भीतर क्या हो रहा
है, हमें
कुछ पता नहीं
है।
परसों
रात वह खड़ी
रही, देखती
रही। कल रात
भी खड़ी होकर
देखती रही।
फिर अचानक कब
उसकी ताली
बजने लगी, उसे
पता नहीं। फिर
वह कब डोलने
लगी, उसे
पता नहीं। और
कब यह नृत्य
उसके लिए मिट
गया और सिर्फ
प्रकाश ही
प्रकाश यहां
शेष रह गया...।
रात
ग्यारह बजे जब
मेरे पास गई, तो उसे रोका
गया कि इतनी
रात नहीं, अब
मैं सोने को
हूं। उसने कहा
कि इसी वक्त
मुझे संन्यास
लेना है।
क्योंकि कल
सुबह का क्या
भरोसा? जो
मुझे अनुभव
हुआ है, मुझे
इसी वक्त
छलांग लगा
देनी चाहिए।
जो मैंने देखा
है...।
वह
मुझसे आकर
बोली कि मुझे
कुछ हुआ है, जो अनबिलीवेबल
है; मैं
अभी भी
विश्वास नहीं
कर सकती।
क्योंकि मेरा
दिमाग स्केप्टिकल,
अभी भी
मौजूद है। वह
पीछे खड़ा है
और कह रहा है कि
ऐसा हो नहीं
सकता। मेरा
दिमाग कह रहा
है, ऐसा हो
नहीं सकता।
लेकिन हुआ है,
यह भी मैं
जानती हूं।
दोनों बातें
एक साथ हैं।
घटना घटी है, वह भी मैंने
देखा। नहीं हो
सकता है, यह
भी मेरा दिमाग
कहता है।
लेकिन अगर
किसी और को
हुआ होता, तो
मैं इनकार कर
देती। अब
इनकार करने का
भी कोई उपाय
नहीं है।
आप भी
देखते हैं।
नहीं देख पाते
हैं। इतने लोग
इकट्ठे हैं।
एक को जो हुआ
है, वह सब को
हो सकता है; सबकी
पोटेंशियलिटी
है। लेकिन
देखने वाली आंख,
सुनने वाले
कान तैयार
होने चाहिए।
आज मैं
कहूंगा कि जरा
देखें! शांत, मौन, सिर्फ
देखते रहें।
जल्दी न करें।
कितनी जल्दी
है भागने की!
पांच मिनट बाद
सही। मौन। हो सकता
है, जो उसे
हुआ, वह
आपको हो जाए।
हो सकता है, आपको भी
यहां नाचते
हुए
संन्यासियों
के शरीर में
ध्वनियां
सुनाई पड़ने
लगें। और उनके
नृत्य की झलक
के साथ प्रकाश
दिखाई पड़ने
लगे।
वह सब
घटित हो रहा
है। चारों तरफ
परमात्मा हजार
तरह से प्रकट
होता है।
लेकिन हम! हम
अपने भीतर खोए
रहते
हैं--बहरे, अंधे। हमें
कुछ सुनाई
नहीं पड़ता।
राम भी सुनाई
पड़ सकता है, भीतर ऊर्जा
जागी हो तो।
कभी
आपने खयाल
किया, संभोग
के बाद
स्त्री-पुरुष
दोनों के शरीर
से खास तरह की
दुर्गंध
निकलनी शुरू
हो जाती है।
लोग कहते हैं
कि महावीर
चलते, तो
उनके शरीर से
सुगंध
निकलती।
बिलकुल निकल सकती
है।
जब
शरीर की ऊर्जा
बाहर जाती है, तो शरीर को
दुर्गंध की
स्थिति में
छोड़ जाती है।
और जब शरीर की
ऊर्जा भीतर
जाती है, तो
शरीर को सुगंध
की स्थिति में
छोड़ जाती है।
ठीक
बाहर जाती
ऊर्जा से जो
परिणाम होते
हैं, उसके ठीक
विपरीत भीतर
जाती ऊर्जा से
परिणाम होते हैं।
बाहर है दुख; भीतर है
सुख।
कृष्ण
कहते हैं, इस पृथ्वी
पर भी उस योगी
को आनंद है; परलोक में
उसकी मुक्ति
है।
योऽन्तःसुखोऽन्तरारामस्तथानर्तज्योतिरेव यः।
स
योगी ब्रह्मनिर्वाणं
ब्रह्मभूतोऽधिगच्छति।।
24।।
जो
पुरुष निश्चय
करके
अंतरात्मा
में ही सुख
वाला है और आत्मा
में ही आराम
वाला है तथा
जो आत्मा में
ही ज्ञान वाला
है, ऐसा वह
ब्रह्म के साथ
एकीभाव
हुआ सांख्ययोगी
ब्रह्म-निर्वाण
को प्राप्त
होता है।
जो
आत्मा में ही
विश्राम में
जीता है, जो
आत्मा में ही
आनंद को अनुभव
करता है, जो
आत्मा में ही
ज्ञान को पाता
है, जिसके
जीवन का सब
कुछ उसकी
आत्मा है! इसे दोत्तीन
मार्गों से
खयाल में लेना
जरूरी है।
हमारा
सब कुछ सदा ही
आत्मा के बाहर
होता है। सुख, बाहर; ज्ञान,
बाहर। कोई
देगा, तो
हमें मिलेगा।
कोई नहीं देगा,
तो हम
अज्ञानी रह
जाएंगे।
यूनिवर्सिटी,
कालेज
ज्ञान देंगे,
तो हम
ज्ञानी हो
जाएंगे।
इसीलिए तो
सारी दुनिया पढ़े-लिखे
अज्ञानियों
से भरती चली
जाती है!
दूसरे
से
मिलेगा--चाहे
ज्ञान हो, चाहे सुख हो,
चाहे शांति
हो--दूसरे से
मिलेगी। सब
कुछ आएगा सदा
दूसरे से।
अपने भीतर कुछ
भी नहीं है।
तो हम बिलकुल
खाली हैं? कोई
कंटेंट
नहीं भीतर!
कंटेनर हैं, सिर्फ एक
डब्बा हैं
खाली, जिसके
भीतर कुछ भी
नहीं है! भिक्षापात्र
हैं! दूसरे जो
डाल देंगे, वही भर
जाएगा; वही
हमारी संपदा
है! तो दूसरे
कहां से ले
आएंगे? वे
भी खाली हैं।
वे भी हमारे
जैसे ही रिक्त
डब्बे हैं। तो
फिर हम
एक-दूसरे को
प्रवंचना
देते रहते
हैं।
न तो
दूसरे से
मिलता है सुख, न दूसरे से
मिलता है
ज्ञान। दूसरे
से मिल सकता
है सुख का
आभास, और
अंततः दुख।
दूसरे से मिल
सकती हैं
सूचनाएं, अंततः
अज्ञान को
छिपाने वाली;
और कुछ भी
नहीं। इनफर्मेशन
मिल सकती है
दूसरे से, नालेज
नहीं।
कोई
विश्वविद्यालय
ज्ञान नहीं दे
रहा है। सब विश्वविद्यालय
सिर्फ नालेज
की जगह इनफर्मेशन, सूचनाएं दे
रहे हैं।
ज्ञान बड़ी
आंतरिक घटना है।
सूचना बाहर से
मिलती है, ज्ञान
भीतर से आता
है। आभास बाहर
खड़े किए जा सकते
हैं, वास्तविक
सुख का कोई
अनुभव बाहर
नहीं होता है।
कभी नहीं हुआ;
कभी हो भी
नहीं सकता है।
बाहर
से मिलता है
तनाव, टेंशन;
विश्राम
नहीं, विराम
नहीं। कृष्ण
कहते हैं, आत्मा
को ही जिसने
आराम जाना!
बाहर से सिवाय
तनाव के और
कुछ भी नहीं
मिलता। और अगर
तनाव बहुत बढ़
जाएं, तो
निद्रा मिल
सकती है, और
कुछ भी नहीं
मिल सकता। रोज
तनाव बढ़ते
जाते हैं, विश्राम
खोता चला जाता
है। टेंशंस
बढ़ते चले जाते
हैं, इकट्ठे
होते चले जाते
हैं। एक-एक
आदमी हिमालय जैसे
टेंशंस, तनाव अपने
सिर पर लिए चल
रहा है।
तनाव
बहुत बढ़ जाते
हैं, अब क्या
करना? इन
तनावों के बीच
कैसे जीना? तो बाहर से
तनाव को
भुलाने की
तरकीबें मिल
सकती हैं; केमिकल
ड्रग्स मिल
सकते हैं, शराब
मिल सकती है, एल एस डी मिल
सकती है, मेस्कलीन मिल सकती है,
मारिजुआना मिल सकता
है। फिर बाहर
से केमिकल
ड्रग्स मिल सकते
हैं कि पी लो
इनको और नींद
में खो जाओ; डूब जाओ
अंधेरे में।
बाहर
से मिल सकते
हैं तनाव, और विश्राम
के नाम पर मिल
सकती है
निद्रा। टूटेगी
निद्रा, तनाव
वापस दुगुने
वेग से खड़े हो
जाएंगे। दुगुने
वेग से क्यों?
क्योंकि
निद्रा की इस
रासायनिक
मूर्च्छा के बाद
आप कमजोर होकर
वापस आएंगे।
तनाव तो वही
रहेंगे, लेकिन
आप कमजोर होकर
वापस आएंगे। तनाव
दुगुनी ताकत
के हो जाएंगे,
आप और कमजोर
हो जाएंगे।
फिर एक ही
उपाय है कि और
पीओ शराब।
एक
शराबी कहा
करता था कि
मैंने कभी एक
प्याली से
ज्यादा शराब
नहीं पी। जो
मित्र उसको
जानते थे, उन्होंने
कहा, हमसे
झूठ बोलते हो?
आंखों से
हमने देखा है
तुम्हें प्यालियों
पर प्याली
ढालते! उसने
कहा, मैंने
एक प्याली से
ज्यादा कभी
नहीं पी। मैं
यह बाइबिल पर
हाथ रखकर कसम
खाकर कह सकता
हूं। मित्रों
को भरोसा न
हुआ! बाइबिल
उठा लाया।
उसने बाइबिल
पर हाथ रखकर
कसम खा ली, एक
प्याली से
ज्यादा मैंने
कभी नहीं पी।
उन मित्रों ने
कहा, हद हो
गई! झूठ की भी
एक सीमा होती
है! तुम
बाइबिल को भी
झूठ में घसीट
रहे हो। आज
सांझ को
देखेंगे।
सांझ
को देखा, जैसा
कि वह रोज
पीता था, प्याली
पर प्याली
ढालता गया।
मित्रों ने
कहा, यह
क्या कर रहे
हो? उसने
कहा, मैं
फिर भी कहता
हूं कि मैंने
एक प्याली से
ज्यादा नहीं
पी। उन्होंने
कहा, तुम्हारा
मतलब क्या है?
तब इसका
मतलब है कि
हमारी भाषाएं
अलग-अलग हैं! उस
आदमी ने कहा, निश्चित। एक
प्याली तो मैं
पीता हूं, फिर
दूसरी प्याली
पहली प्याली
पीती है। फिर
एड इनफिनिटम,
फिर तीसरी
प्याली चौथी
प्याली पीती
है। फिर चौथी
प्याली पांचवीं
प्याली! मैं
एक ही प्याली
पीता हूं।
बाकी प्याली
के लिए मेरा
कोई जिम्मा
नहीं। मैं तो
कसम खाकर आता
हूं कि एक से
ज्यादा न
पीऊंगा।
लेकिन कसम खाने
वाला एक पीकर
ही बेहोश हो
जाता है। फिर
प्याली पर
प्याली पीती
चली जाती हैं।
आज
मूर्च्छा में खोएंगे, कल और बड़ी
मूर्च्छा
चाहिए, परसों
और बड़ी
मूर्च्छा
चाहिए; प्याली
पर प्याली
बढ़ती चली
जाएगी।
तनाव
मिलते हैं
बाहर से, विश्राम
नहीं। या मिल
सकती है
तंद्रा, जो
कि विश्राम
नहीं है, जो
कि केवल
मूर्च्छा है।
विश्राम तो
आंतरिक घटना
है, विराम,
सब ठहर गया
जहां। शांत, जैसे झील पर
लहर न हो। आकाश,
जहां कि
बदलियां न
हों। निरभ्र
आकाश। सब चुप,
मौन। होश
पूरा, शांति
भी पूरी। ऐसे
विराम के क्षण
तो भीतर ही हैं।
कृष्ण
कहते हैं, सुख जिसने
जाना भीतर, विश्राम
जिसने जाना
भीतर, ज्ञान
जिसने जाना
भीतर, ऐसा
पुरुष ही
सांख्य का ज्ञानयोगी
है। ऐसा पुरुष
ही ज्ञानयोगी
है।
तीन
चीजों पर जोर
देते हैं वे।
कारण है। तीन
ही तरह की
चीजें हैं, जो हम चाहते
हैं। या तो
सुख चाहते
हैं। कुछ लोग
हैं, जो
सुख के लिए
दौड़ते रहते
हैं। कुछ लोग
हैं, जो
सुख से भी
ज्यादा ज्ञान
चाहते हैं।
एक
वैज्ञानिक
है। सब तरह के
दुख झेलता है।
सब तरह की
पीड़ा झेलता
है।
बीमारियां
अपने ऊपर बुला
लेता है कि
बीमारियों को
मिटाने की
तरकीब खोज ले।
जहर चख लेता
है कि जहर का
पता चल जाए कि
आदमी मरता है कि
नहीं मरता है।
सुख से भी
ज्यादा ज्ञान
की तलाश है।
कुछ
लोग हैं, जो
सुख की खोज
में हैं। कुछ
लोग हैं, जो
ज्ञान की खोज
में हैं। कुछ
लोग विश्राम
की खोज में
हैं। सुख के खोजी,
हम जिनको
संसारी कहते
हैं, ऐसे
सारे लोग सुख
के खोजी हैं।
जिनको हम
विचारक, वैज्ञानिक,
कलाकार, इस
कोटि में रखते
हैं--दार्शनिक,
चिंतक--ये
सारे के सारे
लोग ज्ञान के
खोजी हैं।
जिनको हम कहते
हैं, साधु,
संत, मिस्टिक्स,
ये सब के सब
विश्राम के
खोजी हैं। बस,
ये तीन तरह
के खोजी हैं
इस जगत में।
लेकिन इसीलिए
कृष्ण ने तीन
गिनाए कि इन
तीनों की भूल
हो जाए, अगर
ये बाहर
खोजें।
भीतर
खोज शुरू हो
जाए--तो कोई
सुख को खोजता
हुआ भीतर
पहुंच जाए तो
भी चलेगा, ज्ञान को
खोजता हुआ
पहुंच जाए तो
भी चलेगा, विश्राम
को खोजता हुआ
पहुंच जाए तो
भी चलेगा।
जान
लें आपकी खोज
क्या है तीन
में से। जो भी
खोज हो, फिर
यह देख लें कि
उसको बाहर खोज
रहे हैं, तो
भ्रांत है
खोज। भटकेंगे।
कभी
पहुंचेंगे
नहीं कहीं।
यात्रा बहुत
होगी, नाव
बहुत चलेगी, किनारा कभी
नहीं आएगा।
पैर बहुत दौड़ेंगे,
थक जाएंगे,
मंजिल कभी
नहीं आएगी; मुकाम कभी
नहीं आएगा।
मुकाम तो केवल
उनको मिलता है,
जो स्वयं को
एक खाली डब्बे
की तरह नहीं
मानते हैं। और
स्वयं को खाली
डब्बे की तरह,
एंप्टी
मानने से बड़ा
अपमान और
हीनता कुछ भी
नहीं है।
धर्म
मनुष्य की बड़ी
गरिमा की
घोषणा करता
है। धर्म कहता
है, तुम जो भी
चाहते हो, वह
तुम्हारे
भीतर है। और
इस कारण से भी
कहता है कि
अगर तुम्हारे
भीतर न होता, तो तुम चाह
भी न सकते थे।
इस बात को भी
ठीक से समझ
लेना चाहिए।
अगर
मनुष्य के
भीतर विश्राम
की क्षमता और
संभावना न हो, तो मनुष्य
विश्राम की
मांग भी नहीं
कर सकता था।
हम वही मांगते
हैं, जो
हमारे भीतर
पोटेंशियल
छिपा है और एक्चुअल
होना चाहता
है। जो हमारे
भीतर बीज की
तरह बंद है और
वृक्ष की तरह
खुलना चाहता
है। हमारी सब मांगें
हमारे बीज की
मांगें हैं, जो वृक्ष
होना चाहती
हैं। हमारी सब
मांगें हमारी
संभावनाओं की
मांगें हैं, जो वास्तविक
होने के लिए
आतुर हैं।
जैसे
एक बीज को गड़ा
दिया जमीन
में। वह आतुर
है। पत्थर को
हटा देगा।
जमीन को तोड़ेगा।
बाहर फूटकर
निकलेगा।
अंकुर बनेगा।
आकाश की तरफ
उठेगा। सूरज
में खिलेगा
फूल की तरह।
वह परेशान है
भीतर। और जब
तक बीज न टूट
जाए और अंकुर
न बन जाए, तब
तक परेशानी
नहीं मिटेगी।
जैसे
एक अंडा है और
एक मुर्गी का
चूजा उसमें बंद
है। तो चूजा
परेशान है। तोड़ेगा
अंडे को आज
नहीं कल, बाहर
निकलेगा खुले
आकाश में। एक
बच्चा एक मां के
पेट में बंद
है। तैयार हो
रहा है कि कब
बाहर निकल पड़े।
मां के पेट
में गति है, मूवमेंट है।
पूरे वक्त मां
को पता है कि
कोई जीवन भीतर
विकसित हो रहा
है। उसकी
बेचैनी है।
ठीक
ऐसे ही
प्रत्येक
व्यक्ति की
आत्मा प्रत्येक
व्यक्ति को
अंडे की तरह
बनाए हुए भीतर
बेचैन है।
प्रकट होना
चाहती है।
आनंद को पाना
चाहती है।
ज्ञान को पाना
चाहती है।
शांति को पाना
चाहती है। विश्राम
को पाना चाहती
है।
स्वतंत्रता
को पाना चाहती
है। यह भीतर
की जो मांग है, यह इस बात की
खबर है कि वह
जो अंडे में
बंद है चूजा, उसके पास
पंख हैं। वह
खुले आकाश में
उड़ सकता है।
वह पत्थरों
में पड़े रहने
को पैदा नहीं
हुआ है। अंडा
पड़ा है
पत्थरों के
बगल में। जब बगल
में अंडा पड़ा
होता है, तो
पत्थर और अंडे
में क्या फर्क
मालूम पड़ता है!
कुछ फर्क नहीं
है। लेकिन
बहुत फर्क है।
अंडे के भीतर
कोई छिपा है, जिसमें पंख
निकल आएंगे, जो दूर आकाश
की यात्रा पर
भी उड़ सकता
है।
हम
सबके भीतर भी
कुछ छिपा है, जिसमें पंख
लग सकते हैं; जो उड़ सकता
है; जिसकी
बड़ी
संभावनाएं
हैं। उन बड़ी
संभावनाओं में
तीन पर कृष्ण
ने आग्रह
किया। उन तीन
में बाकी सब
संभावनाएं
समाविष्ट हो
जाती हैं।
खोजें
सुख को, तो
ध्यान रखना, अगर बाहर
खोजा, तो
कभी मिलेगा
नहीं। भीतर
छिपा है। खोजा
ज्ञान को बाहर,
तो इनफर्मेशन
इकट्ठी हो
जाएगी, पंडित
हो जाएंगे, पांडित्य हो
जाएगा।
जानेंगे सब, और कुछ भी न
जानेंगे।
लगेगा सब
जानते हैं, और हाथ में
सिवाय शब्दों
की राख के कुछ
भी न होगा।
लगेगा कि सब
पता चल गया, और सिवाय
शास्त्रों के
नीचे दबे हुए
जानवर की
भांति स्थिति
होगी। बोझ ढोएंगे,
और कुछ भी
नहीं होगा।
सोचा
कि मिलेगा
बाहर विश्राम, बहुत बड़े
महल में
मिलेगा। महल
बन जाएगा।
विश्राम
जितना महल
बनने के पहले
था, उससे
भी कम हो
जाएगा।
क्योंकि महल
बनाने में जितने
तनाव अर्जित
करने पड़ेंगे,
वे कहां
जाएंगे! महल
में नहीं
जाएंगे, आप
में चले
जाएंगे। सोचा
कि बहुत
धन-दौलत होगी,
तब विश्राम
करेंगे। तो
बहुत धन-दौलत
बनाने में जो
तनाव लेने
पड़ेंगे, वे
तनाव कहां
जाएंगे? धन-दौलत
बाहर इकट्ठी
हो जाएगी; तनाव
भीतर इकट्ठे
हो जाएंगे। जब
तक धन-दौलत हाथ
में आएगी, तब
तक तनाव इतने
हो जाएंगे कि
किसी मतलब की
न रह जाएगी।
यह बड़े
मजे की बात
है। जिनके पास
खाने को नहीं है, उनके पास
पेट होता है, जो पचा सकता
है। और जिनके
पास खाने को
है, उनके
पास पेट नहीं
होता, जो
पचा सकता है।
जिनके पास
गहरी नींद है,
उनके पास
सिरहाने
तकिया नहीं
होता। और
जिनके पास सुंदर
तकिए आ जाते
हैं, उनकी
नींद खो जाती
है। चमत्कार
है! मगर ऐसा ही होता
है; बिलकुल
ऐसा ही होता
है। क्यों ऐसा
होता है?
ऐसा
होता इसलिए है
कि जिसे हम
खोजने निकले, वह मार्ग, वह दिशा, वह
आयाम गलत था।
जिसे हमने
खोजा, गलत
माध्यम और गलत
साधन से खोजा।
कोई आदमी तनाव
का अभ्यास
करके विश्राम
को नहीं पा
सकता। यह
बिलकुल
बेहूदी बात है,
एब्सर्ड है,
इल्लाजिकल है, तर्कसंगत
भी नहीं है।
आपका अभ्यास
इतना ज्यादा
हो जाएगा कि
फिर रुकिएगा
कैसे?
एक
आदमी कहता है
कि हमें
विश्राम करना
है, तो हम
पहले सौ मील
की दौड़ दौड़ेंगे।
फिर तभी तो विश्राम
करेंगे, सौ
मील के बाद जो
वृक्ष है, उसके
नीचे विश्राम
करेंगे।
लेकिन सौ मील
तक दौड़ने वाला
आदमी अक्सर तो
सौ मील के
वृक्ष तक पहुंच
नहीं पाता, बीच में ही
टूटकर मर जाता
है। और अगर
कभी पहुंच भी
जाए, तो
दौड़ने की ऐसी
आदत मजबूत हो
जाती है कि
फिर वह वृक्ष
के चक्कर
लगाता है। वह
कहता है, अब
बैठें
कैसे? पैरों
का अभ्यास
भारी हो गया, अब बैठते
बनता नहीं! अब
वह दौड़ता
है। जिस वृक्ष
की छाया में
सोचा था कि
पहुंचकर
विश्राम
करेंगे। अनेक
तो पहुंच नहीं
पाते, पहले
ही टूट जाते
हैं। इतना
तनाव झेल नहीं
पाते। जो
पहुंच जाते
हैं, वे भी
अभागे सिद्ध
होते हैं।
पहुंचकर
वृक्ष का
चक्कर लगाते
हैं! अभ्यास
मजबूत हो गया।
अभ्यास को
छोड़ना बड़ा
कठिन है। अब
अभ्यास को हटाओ;
अब इस
अभ्यास के
विपरीत
अभ्यास करो।
जिस
व्यक्ति ने भी, जिस तरह का
संस्कार
अर्जित कर
लिया, उसे
छोड़ना रोज
कठिन होता चला
जाता है।
रोज-रोज कठिन
होता चला जाता
है। हम सब
अपने-अपने
अर्जित
संस्कारों
में ग्रस्त हो
जाते हैं।
पहले सोचा कि
धन मिलेगा, फिर आनंद से
मौज करेंगे।
लेकिन धन
कमाते वक्त मौज
पर रोक लगानी
पड़ती है, नहीं
तो धन इकट्ठा
नहीं हो
पाएगा। धन
कमाना है अगर
और बचाना है
मौज के लिए, तो कंजूस
होना पड़ेगा, कृपण होना
पड़ेगा। एक-एक दमड़ी पकड़नी
पड़ेगी जोर से।
फिर
चालीस-पचास
साल दमड़ी पकड़ते-पकड़ते
करोड़
इकट्ठे हो
जाएंगे।
लेकिन तब तक दमड़ी पकड़ने
वाला आदमी भी
काफी मजबूत हो
जाएगा। और जब करोड़ पास
में आएंगे और
आपका मन कहेगा
कि ठीक, आ
गई मंजिल; अब
जरा मजा करें।
तब वह दमड़ी
पकड़ने
वाला मन कहेगा,
क्या कह रहे
हो! प्राण
निकल जाएंगे
मेरे। एक-एक दमड़ी तो
बचाई मैंने।
ये
जिंदगी के कंट्राडिक्शंस
हैं।
अनिवार्य
हैं।
मैंने
सुना है कि
जर्मनी में एक
बहुत बड़ा पंडित
था। उसने
जिंदगी में
सारी दुनिया
के शास्त्र
इकट्ठे किए। बहुत
शास्त्र हैं
दुनिया में, उसने सारे
धर्मों के
शास्त्र
इकट्ठे किए।
उसके मित्रों
ने कहा भी कि
तुम पढ़ोगे
कब? उसने
कहा कि पहले
मैं सब इकट्ठा
कर लूं। क्योंकि
मैं पढ़ने में
लग जाऊंगा,
फिर इकट्ठा
कौन करेगा? पहले मैं सब
इकट्ठा कर लूं,
निश्चिंत
होकर ताला बंद
करके फिर पढ?ने में लग जाऊंगा।
वह
इकट्ठा करता
रहा। उसकी
लाइब्रेरी
बड़ी होती चली
गई, बड़ी होती
चली गई। कहते
हैं, उसके
पास इतनी
किताबें
इकट्ठी हो गईं
कि अगर जमीन
पर एक के बाद
एक किताब रखी
जाए, तो एक
चक्कर पूरा का
पूरा लग जाए
पूरी जमीन का।
लेकिन यह जब
तक घटना घटी, तब तक वह
नब्बे साल का
हो चुका था।
सब
धर्मग्रंथ, सब तरह की
साधना
पद्धतियों के
ग्रंथ उसने
इकट्ठे कर
लिए। जिस दिन
उसके संग्राहकों
ने कहा कि अब
और कोई किताब
बची नहीं धर्म
की, तब वह
आखिरी सांसें
गिन रहा था।
उसने आंख खोली
और उसने कहा
कि अब तो बहुत
देर हो गई।
मैं पढूंगा कब?
इतना करो कि
मुझे
स्ट्रेचर पर
उठाकर मेरी
लाइब्रेरी
में एक चक्कर
लगवा दो। देख
तो लूं कम से
कम!
वह
आदमी जिंदगीभर
हिंदुस्तान, तिब्बत और
चीन की
यात्राएं
करता रहा।
कहीं भी कोई
धर्मग्रंथ हो,
सब इकट्ठा
कर लो! शिंटो
का हो, तिब्बतन
हो, चीनी
हो--जहां
मिले। कहीं
दूर खबर मिलती
कि अफ्रीका के
फलां जंगल की
जाति के पास
एक किताब है, जो छपी नहीं;
तो वहां
जाकर अनुलिपि
तैयार करवाकर,
उतरवाकर,
किसी भी तरह
वह लाएगा।
नब्बे साल बीत
गए। मरा, तब
उसके पास
सिर्फ
किताबें थीं।
जिनको उसने देखा
था, जिनको
उसने पढ़ा नहीं
था। अक्सर ऐसा
होता है।
अक्सर ऐसा ही
होता है।
कृष्ण
कहते हैं, भीतर तू
खोज। अभी मिल
जाएगा। कल की
जरूरत नहीं
है। तीन चीजों
को तू भीतर
खोज ले, आनंद
को...।
कभी आप
सोचते हैं कि
दुख बाहर से
आता है, शांति
भीतर से आती
है! जब आप शांत
होते हैं कभी एक
क्षण को, तो
आप बता सकते
हैं, यह
शांति कहां से
आई? आप न
बता सकेंगे।
लेकिन जब आप
अशांत होते
हैं, तब तो
आप पक्का बता
सकते हैं न कि
अशांति कहां से
आई? फलां
आदमी ने गाली
दी। फलां आदमी
ने धक्का मार
दिया। दुकान
में नुकसान लग
गया। लाटरी
मिलना पक्की
थी, नहीं
मिली। कुछ
कारण आप बता
सकते हैं।
अशांति
कहां से आई? आप बता सकते
हैं सोर्स, वहां से आई।
लेकिन जब भी
आप शांत
होंगे--कभी हुए
ही न हों, तो
बात अलग--जब भी
आप शांत होंगे,
तब आप नहीं
बता सकते कि
शांति कहां से
आती है। इट कम्स
फ्राम नो
व्हेयर। कहीं
से नहीं आती।
जब भी आप दुख
में होते हैं,
तो दुख कहीं
से आता है, फ्राम
समव्हेअर।
और जब आप
आनंदमग्न
होते हैं, इट
कम्स
फ्राम नो
व्हेयर; वह
कहीं से नहीं
आता। जब आप
आनंद में होते
हैं, तब वह
कहीं से नहीं
आता; आपके
भीतर से उठता
है और फैलता
है। और जब आप
दुख में होते
हैं, तब वह
बाहर से आता
है और बादलों
की तरह आपको
घेरता है।
इस भेद
को थोड़ा देखने
की कोशिश
करेंगे।
जैसे-जैसे यह
दिखाई पड़ने
लगेगा, वैसे-वैसे
लगेगा कि अगर
आनंद को खोजना
है, तो चलो
भीतर, गहरे,
वहां पहुंच
जाओ, जहां
कोई दिशा नहीं
है।
उत्तर-पश्चिम
कोई नहीं है
जहां। जहां
कोई दूसरा
नहीं है। जहां
बिलकुल अकेले
हैं। जहां
स्वयं ही बचे।
और आखिर में
ऐसी घड़ी आ जाती
है कि स्वयं
भी नहीं बचते,
सिर्फ बचना
ही बच रह जाता
है। सिर्फ
अस्तित्व।
सिर्फ धड़कती
छाती, चलती
श्वास। सिर्फ
होना, बीइंग
रह जाता है।
चलो वहां। और
जो भी उसकी एक झलक
पा ले, वह
कहेगा, सब
कुछ भीतर है, बाहर कुछ भी
नहीं है।
लेकिन
जब तक झलक न
मिले, भरोसा
नहीं आता। मैं
कितना ही कहूं
कि तैरने का
बड़ा आनंद है, उतरो पानी
में। लेकिन जो
कभी पानी में
उतरा नहीं और
जिसने कभी
तैरना जाना
नहीं, वह
सुनेगा। जब
मैं उससे
कहूंगा, उतरो
पानी में, अगर
मैं कूदूं
भी उसके सामने,
पानी में तैरूं भी, तो उसे
तैरने के आनंद
का कुछ पता न
चलेगा। उसे इतना
ही पता चलेगा
कि अगर मैं
कूदा, तो
डूबा और मरा!
उसे सिर्फ भय
का ही पता
चलेगा, मेरे
आनंद का नहीं,
अपने भय का।
और वह
आदमी मुझसे कह
सकता है कि
मानते हैं आपकी
बात। राजी हैं
बिलकुल।
उतरेंगे पानी
में। लेकिन उतरने
के पहले तैरना
सिखा दें!
स्वभावतः, उसका तर्क
दुरुस्त है।
कहता है, पहले
तैरना सिखा
दें, फिर
हम उतरने को
राजी हैं।
मेरी भी अपनी
मजबूरी होगी।
मैं कहूंगा, पहले तुम
उतरो, तो
तैरना सिखाया
जा सकता है।
नहीं तो तैरना
कैसे मैं
सिखाऊंगा? गद्देत्तकियों पर तैरना अभी
तक भी नहीं
सिखाया जा सका
है। कुछ लोग
कोशिश करते
हैं गद्देत्तकियों
पर तैरना
सीखने की।
हाथ-पैर में
चोट लग जाएगी,
लूले-लंगड़े
हो जाएंगे। गद्देत्तकियों
पर तैरना नहीं
सीखा जाता!
असल में तैरना
उस खतरे में
ही पैदा होता
है, जहां
जिंदगी को
लगता है कि गई,
डूबी, मिटी।
उसके मिटने के
खयाल से ही
ऊर्जा उठती है
और व्यवस्थित
होती है।
तो आप
अगर कहते हों
कि पहले थोड़ा
आनंद मिलने लगे, तो हम भीतर
जाएंगे, तो
यह कभी नहीं
होगा। आप भीतर
जाएं, तो
आनंद मिलेगा।
आप कहेंगे, अभी हम कैसे
जाएं?
कभी भी
क्षणभर
को, जब भी
मौका मिले, आंख बंद कर
लें। क्षणभर
को भीतर होने
की बात को
खयाल में लें।
जब भी मौका
मिले, आंख
बंद कर लें; थोड़ी देर को
भीतर हो जाएं।
भूल जाएं बाहर
को। भूलते-भूलते
भूल जाएंगे।
रोज-रोज अगर
एक क्षण को भी
दस-बीस दफा
आंख बंद कर
लें--कार में
चलते, बस
में बैठे, ट्रेन
में सफर करते,
कुर्सी पर
दफ्तर में
बैठे--एक क्षण
को आंख बंद कर
लें। भूल जाएं
बाहर को कि
नहीं है! मैं
ही हूं अकेला।
देखने लगें
अपनी श्वास को,
अपने हृदय
की धड़कन को।
भीतर उतर
जाएं।
धीरे-धीरे-धीरे
आपको पता
लगेगा, भीतर
परम विश्राम
है। महीनों की
थकान क्षणभर
में मिट सकती
है भीतर। पहाड़
जैसे दुख, भीतर
के जरा सी सुख
की किरण के
सामने
विसर्जित हो
जाते हैं।
अज्ञान कितना
ही जीवन का हो,
भीतर
प्रकाश की एक
जरा सी ज्योति
जलती है और अज्ञान
एकदम अंधेरे
की तरह खो
जाता है।
लेकिन कोई
उपाय नहीं; जाने बिना
कोई उपाय नहीं
है, गए
बिना कोई उपाय
नहीं है, उतरे
बिना कोई उपाय
नहीं है।
उतरें।
वही
कृष्ण अर्जुन
को कह रहे हैं
कि इस जगत में तेरे
लिए सुख की
राह बन जाएगी।
योगी हो जाएगा
तू। योग का
अर्थ होता है, अपने से जुड़
जाएगा तू। योग
का अर्थ है, कम्यूनियन।
योग का अर्थ
है, एक हो
जाना अपने से।
और परलोक में
मुक्ति तेरी
है। और इसे वे
कहते हैं, यह
सांख्ययोग
है। इसे वे
कहते हैं, यही
सांख्ययोगी
का लक्षण है।
सांख्य
के संबंध में
एक बात खयाल
में ले लें। फिर
हम कीर्तन में
उतरेंगे।
कृष्ण कहते
हैं, यही सांख्ययोग
है। सांख्य इस
पृथ्वी पर
ज्ञान की परम
कुंजी है, दि
मोस्ट
सीक्रेट की।
सांख्य का
आग्रह क्या है?
सांख्य की
व्यवस्था
क्या है? सांख्य
क्या कहता है?
सांख्य
शब्द का अर्थ
होता है, ज्ञान!
सांख्य का
कहना है, करना
कुछ भी नहीं
है। करने
योग्य कुछ भी
नहीं है। करना
नहीं है, होना
है। करने से
जो भी मिलेगा,
वह बाहर
मिलेगा। न
करने से जो भी
मिलेगा, वह
भीतर मिलेगा!
यह तो हमें
समझ में आ
सकता है। अगर
बाहर की
दुनिया में
कुछ भी पाना
है, तो कुछ
करना पड़ेगा; धन पाना है, तो कुछ करना
पड़ेगा। बिना
किए बाहर कुछ
भी मिलने वाला
नहीं है। कुछ
भी पाना है, तो करना
पड़ेगा। लेकिन
भीतर अगर कुछ
पाना है, तो?
तो न करना
सीखना पड़ेगा।
उलटी यात्रा
है।
जैसे
रात आपको नींद
नहीं आती है
और बड़ी मुश्किल
में पड़े हैं।
पूछते हैं, क्या करें? नींद कैसे
आए? क्या
करें? गलत
सवाल पूछते
हैं। किसी से
पूछना ही मत।
और अगर कोई
जवाब दे, तो
कान पर हाथ रख
लेना; सुनना
मत। जब आप
पूछते हैं, नींद नहीं
आती, क्या
करें, तो
आप गलत सवाल
पूछते हैं।
क्योंकि आपने
कुछ किया कि
नींद फिर
बिलकुल नहीं
आएगी। करने से
नींद की
दुश्मनी है।
करने से कहीं
नींद आई है! करने
से तो लगी हुई
नींद हो, तो
भी टूट जाएगी।
करना मत।
कोई
अगर कह दे कि भेड़ों को
गिनो; एक से
लेकर सौ तक गिनती
करो; सौ से
एक तक गिनती
करो। बस, गए
आप! कभी यह
नहीं होगा।
इससे नींद
नहीं आएगी। और
अगर कभी आती
हुई मालूम पड़ी,
तो वह इससे
नहीं आएगी।
कर-करके थक
जाएंगे; थोड़ी
देर में
पाएंगे कि
नहीं आती; छोड़ो।
तब आ जाएगी। न
करने से आएगी।
कुछ न करें।
पड़े रह जाएं।
नींद उतर आती
है।
कुछ न
करें; पड़े
रह जाएं। होश
से भरे रहें।
ध्यान उतर आता
है, ज्ञान
उतर आता है।
कुछ न करें।
एक घड़ीभर
के लिए चौबीस
घंटे में एक
कोने में बैठ
जाएं और कुछ न
करें। बाहर भी
नहीं करें, भीतर भी
नहीं करें।
बाहर नहीं
करना तो बहुत
आसान है।
हाथ-पैर छोड़कर
बैठ गए, तो
बाहर नहीं
होगा कुछ। मन
भीतर करेगा।
उसकी आदत है।
उसको कभी हमने
बिना काम छोड़ा
नहीं; उससे
काम लेते ही
रहते हैं। कुछ
न कुछ करेगा वह
भीतर। उसको भी
कह दें कि
काहे को
परेशान हो रहा
है। मत कर। एक
दिन में
मानेगा नहीं;
दो दिन में
नहीं मानेगा।
लेकिन आप भी
मत मानें।
चलते जाएं।
आज
नहीं कल, कल
नहीं परसों, धीरे-धीरे
मन पाएगा कि
कोई उत्सुकता
नहीं है आपकी,
शिथिल होने
लगेगा।
कभी-कभी गैप्स
आ जाएंगे, खाली
जगह आ जाएगी।
कुछ नहीं
करेगा मन भी।
उसी खाली जगह
में से अचानक
विश्राम, अचानक
विश्राम उतर
जाएगा। अचानक
जैसे कोई बड़ी
गहन शांति ने
सब तरफ से
आपको घेर
लिया। भीतर, बाहर, सब
तरफ आकाश जैसा
विराट कुछ
शांत हो गया, ठहर गया।
फिर विराम
बढ़ने लगेगा।
इस विराम में ही
ज्ञान भी
उतरेगा, इस
विराम में
आनंद भी
उतरेगा।
सांख्य
कहता है, कुछ
करके नहीं
पाना है। जो
पाना है, वह
हमारे भीतर
मौजूद है। सदा
मौजूद है। है
ही। सिर्फ
विस्मृत, सिर्फ
फारगेटफुलनेस,
भूल गए हैं।
बस, इससे
ज्यादा नहीं
है। खोया नहीं,
सिर्फ भूल
गए हैं। भीतर
जाएं, याद
आ जाए, स्मरण
आ जाए।
लेकिन
हम बाहर उलझे
हैं, उलझे ही
चले जाते हैं।
और एक उलझाव
दस नए उलझाव
बना जाता है।
और हम सोचते
रहते हैं कि
आज नहीं कल जब
सब उलझाव सुलझ
जाएंगे, तो
हम भीतर चले
जाएंगे। इस
भ्रांत तर्क
में जो पड़ा, वह सदा के
लिए खो जाता
है।
बाहर
के उलझाव कभी
कम न होंगे, कभी कम न
होंगे। एक
उलझाव दस
निर्मित करता
है। दस, सौ
निर्मित कर
जाते हैं। सौ,
हजार
निर्मित कर
जाते हैं।
आप यह
मत सोचना कि
हम एक दिन
उलझाव हल कर
लेंगे। उलझाव
हल करने में
जो आप कर रहे
हैं, वह हर
करना नए उलझाव
बनाता चला
जाता है। अगर
किसी भी दिन
आपको खयाल आ
जाए कि इस अंतर्लोक
ज्ञान की खोज
में निकलना है,
तो उलझावों
को रहने देना
अपनी जगह; उलझावों के बीच ही
कभी-कभी भीतर
डूबना शुरू कर
देना।
लेकिन
जैसा मैंने
कहा, आदतें
खराब हैं। अगर
छुट्टी का भी
दिन हो--अंग्रेजी
में नाम अच्छा
है, हॉली-डे। दिया तो
था इसी खयाल
से कि एक दिन
आप कुछ न करेंगे।
ईसाइयों का
खयाल यही है
कि परमात्मा ने
भी छः दिन काम
किया और
सातवें दिन
विश्राम किया।
रविवार के दिन
उसने कोई काम
नहीं किया, इसलिए वह हॉली-डे
हो गया, पवित्र
दिन हो गया।
लेकिन
बड़े मजे की
बात है कि
छुट्टी के दिन
ज्यादा काम
होता है, जितना
बाकी दिन होता
है। और
अमेरिका में
तो एक मजाक
चलती है कि एक
दिन की छुट्टी
के लिए सात दिन
विश्राम करना
पड़ता है बाद
में। इतनी
भाग-दौड़ कर
लेते हैं लोग
छुट्टी के दिन
कि फिर सात
दिन विश्राम
चाहिए। छुट्टी
के दिन इतना
काम हो जाता
है। सबसे
ज्यादा एक्सिडेंट
छुट्टी के दिन
होते हैं।
सारे लोग निकल
पड़े हैं
समुद्र की
तरफ! सारे लोग
पहाड़ की तरफ, हिल स्टेशन
की तरफ! भारी
काम चल रहा
है। गले से
गले में उलझी
हुई कारें
लाखों की
तादाद में दौड़ी
जा रही हैं।
बड़े
मजे की बात
है। जब सारा
बाजार ही बीच
पर पहुंच
जाएगा, तो
बीच पर जाने
से क्या होगा!
वहां सबके सब
पहुंच गए! वही
सारी दुनिया
वहीं खड़ी हो
गई! फिर भागे; फिर घर आ गए।
फिर वही काम
की दुनिया
शुरू हो गई!
पवित्र
क्षण का या
पवित्र दिन का
अर्थ है कि उस
दिन कुछ मत
करना, कुछ
करना ही मत।
उस दिन पूरे
विश्राम में
भीतर चले
जाना।
पर
नहीं; उस
दिन सिनेमा
देखना है, थिएटर
जाना है!
टिकटें खरीद
ली गई हैं।
सारा उपद्रव
पहले से तैयार
है। पवित्र
दिन को अपवित्र
करने की पूरी
तैयारी पहले
से है। तो फिर
अंतर में
उतरने का समय
कब आएगा? कब?
फिर शायद
कभी न आए। आज
से ही, अभी
से ही जो
थोड़ा-थोड़ा
भीतर की तरफ
यात्रा करने
लगे...।
तो
सांख्य का
कहना है कि
ज्ञान है आपके
पास; वह आपका
स्वभाव है।
कोई अर्जन
नहीं करना है।
वह आप हैं ही।
सिर्फ जानना
है; जागना
है; होश से
भरना है कि
मैं कौन हूं।
विश्राम पाने कहीं
जाना नहीं है
किसी यात्रा
पर। जहां खड़े
हैं, वहीं
मिल जाएगा। एक
बार पीछे
लौटकर देखना
है कि मैं
कहां हूं!
ज्ञान
किसी के हाथ
से भीख नहीं
मांगनी है।
कोई सिखाएगा
नहीं ज्ञान।
ज्ञान दबा पड़ा
है; ऐसे ही
जैसे कि हर
जमीन के नीचे
पानी दबा है।
जरा मिट्टी की
पर्तों को अलग
करना है, और
पानी के
फव्वारे
छूटने
लगेंगे।
हां, यह हो सकता
है कि कहीं सौ
फीट पर है, कहीं
पचास फीट पर
है, कहीं
दस फीट है, कहीं
दो फीट पर है।
यह फर्क हो
सकता है
मिट्टी की
पर्तों का।
क्योंकि सभी
लोगों ने
अलग-अलग
जन्मों में अलग-अलग
मिट्टी की
पर्तें
निर्मित कर ली
हैं। लेकिन एक
बात
सुनिश्चित है,
ऐसा कोई
जमीन का टुकड़ा
नहीं है, जिसके
नीचे पानी न
दबा हो। कितना
ही गहरा हो, एक बात का
आश्वासन दिया
जा सकता है कि
पानी दबा ही
है। चट्टान भी
आ जाए बीच में,
तो कोई हर्ज
नहीं; पानी
तो नीचे है
ही। बीच की
पर्त को अलग
कर देंगे और
जल-स्रोत
उपलब्ध हो
जाते हैं।
ऐसा ही
ज्ञान दबा है
भीतर। पर भीतर
की यात्रा, दि इनवर्ड
जर्नी, कब
करेंगे? कैसे
करेंगे? जिसने
पोस्टपोन
किया, वह
कभी नहीं
करेगा। जिसने
कहा, कल
करेंगे, अच्छा
है कि वह कह दे
कि नहीं
करेंगे। वह कम
से कम सच्चा
तो रहेगा। कल
नहीं। घर में
आग लगी हो, तो
कोई नहीं कहता
कि कल बुझाएंगे!
जिंदगी
में लगी है आग, और आप कहते
हैं, कल!
जिंदगी पूरी
जलती हुई
है--दुख, पीड़ा,
चिंता, संताप--सब
तरफ धुआं और
आग है। और आप
कहते हैं, कल!
तो इसका मतलब
यही है कि
आपको पता ही
नहीं है कि आप
क्या कर रहे
हैं। और आप ही
हैं कि अपनी
इस जलती हुई
आग में रोज
पेट्रोल डाले
चले जा रहे हैं,
वासनाएं भभकाए चले
जा रहे हैं।
खुद रोज उसमें
पेट्रोल
डालते हैं। और
जब आग जोर से
जलती है, तो
कहते हैं कि
बड़ी तकलीफ उठा
रहा हूं; बड़ी
मुश्किल में
पड़ा हुआ हूं।
रोज
अपेक्षा में
जीते हैं, फिर दुख आता
है, तो
कहते हैं कि
बड़ी तकलीफ में
पड़ा हूं!
किसने कहा था,
अपेक्षा
करो? एक्सपेक्टेशन किया कि दुख
आया। रोज
वासना से भर
रहे हैं और कह
रहे हैं कि
बड़ा विषाद आता
है मन में; बड़ा
हारापन लगता
है। किसने कहा
था?
लाओत्से
ने कहा है कि
मुझे कोई कभी
हरा नहीं सका, क्योंकि हम
सदा से हारे
ही हुए हैं।
हमने कभी जीतने
की इच्छा ही न
की। हमें कोई
हरा ही न सका, क्योंकि
जीतने की हमने
कभी इच्छा न
की। लाओत्से
ने कहा है, हमें
कभी कोई घर के
बाहर न निकाल
सका, क्योंकि
हम किसी के भी
घर गए, तो
बाहर ही बैठे,
दरवाजे पर
ही बैठे। हमने
कहा, इसके
पहले कि
निकालने का
मौका आए, हम
बाहर ही बैठ
जाते हैं। कोई
हमें दुख न दे
सका, लाओत्से
ने कहा है, क्योंकि
हमने सुख की
कभी किसी से
मांग ही न की।
कोई हमारा
दुश्मन न था
इस जमीन पर, क्योंकि
हमने कभी किसी
को मित्र
बनाने की चेष्टा
ही न की।
अब यह
जो आदमी है, यह जिस
विराम, जिस
शांति और जिस
आनंद को
उपलब्ध होगा,
वह सांख्य
की स्थिति है।
शेष कल
हम बात
करेंगे।
उठेगा कोई भी
नहीं। बैठे
रहें। एक भी
जन न उठे। मौन
से देखें इस
नृत्य को।
देखें इसमें परमात्मा
की छवि को, चारों तरफ
नाचते हुए।
शायद कुछ हो
सके।
आज इतना ही।
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