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बुधवार, 21 मई 2014

गीता दर्शन--(भाग--2) प्रवचन--055

अकंप चेतना—(अध्याय—5) प्रवचन—सताईसवां


प्रहृष्येत्प्रियं प्राप्य नोद्विजेत्प्राप्य चाप्रियम्
स्थिरबुद्धिरसंमूढो ब्रह्मविद् ब्रह्मणि स्थितः।। 20।।

और जो पुरुष प्रिय को प्राप्त होकर हर्षित नहीं हो और अप्रिय को प्राप्त होकर उद्वेगवान न हो, ऐसा स्थिर बुद्धि, संशयरहित, ब्रह्मवेत्ता पुरुष सच्चिदानंदघन परब्रह्म परमात्मा में एकीभाव से नित्य स्थित है।


प्रिय को जो प्रिय समझकर आकर्षित न होता हो; अप्रिय को अप्रिय समझकर जो विकर्षित न होता हो; जो न मोहित होता हो, न विराग से भर जाता हो; जो न तो किसी के द्वारा खींचा जा सके और न किसी के द्वारा विपरीत गति में डाला जा सके--ऐसे स्वयं में ठहर गए व्यक्तित्व को, ऐसी स्वयं में ठहर गई बुद्धि को कृष्ण कहते हैं, सच्चिदानंद परमात्मा की स्थिति में सदा ही निवास मिल जाता है।
इसमें दोत्तीन बातें समझ लेने जैसी हैं।

किसे हम कहते हैं प्रिय? कौन-सी बात प्रीतिकर मालूम पड़ती है? कौन-सी बात अप्रीतिकर, अप्रिय मालूम पड़ती है? और किसी बात के प्रीतिकर मालूम पड़ने में और अप्रीतिकर मालूम पड़ने में कारण क्या होता है?
इंद्रियों को जो चीज तृप्ति देती मालूम पड़ती है--देती है या नहीं, यह दूसरी बात--इंद्रियों को जो चीज तृप्ति देती मालूम पड़ती है, वह प्रीतिकर लगती है। इंद्रियों को जो चीज तृप्ति देती नहीं मालूम पड़ती, उसके प्रति तिरस्कार शुरू हो जाता है। और इंद्रियों को जो चीज विधायक रूप से कष्ट देती मालूम पड़ने लगती है, वह अप्रीतिकर हो जाती है। फिर जरूरी नहीं है कि आज इंद्रियों को जो चीज प्रीतिकर मालूम पड़े, कल भी मालूम पड़े। और यह भी जरूरी नहीं है कि आज जो अप्रीतिकर मालूम पड़े, वह कल भी अप्रीतिकर मालूम पड़े। आज जो चीज इंद्रियों को प्रीतिकर मालूम पड़ती है, बहुत संभावना यही है कि कल वह प्रीतिकर मालूम नहीं पड़ेगी।
जब तक कुछ मिलता नहीं, तब तक आकर्षित करता है। जैसे ही मिलता है, व्यर्थ हो जाता है। सारा आकर्षण न मिले हुए का आकर्षण है। दूर के ढोल सुहावने मालूम पड़ते हैं। जैसे-जैसे जाते हैं पास, वैसे-वैसे आकर्षण क्षीण होने लगता है। और मिल ही जाए जो चीज चाही हो, तो क्षणभर को भला धोखा हो जाए, मिलने के क्षण में, लेकिन मिलते ही आकर्षण विदा होने लगता है। बहुत शीघ्र ही आकर्षण की जगह तिरस्कार, और तिरस्कार के बाद विकर्षण जगह बना लेता है।
सुना है मैंने, सिगमंड फ्रायड के एक शिष्य के पास एक व्यक्ति मनस चिकित्सा के लिए आया। उस व्यक्ति ने कहा, मैं बहुत परेशान हूं। एक स्वप्न मुझे बार-बार आता है। हर रोज, हर रात। और कभी तो रात में दो-चार बार भी आता है। मैं उस स्वप्न से इतना परेशान हो गया हूं कि कुछ रास्ता खोजने आपके पास आया हूं। मनोवैज्ञानिक ने कहा, क्या है वह स्वप्न? उस व्यक्ति ने कहा कि मैं बहुत हैरानी का सपना देखता हूं। हर रात नींद में, स्वप्न में पहुंच जाता हूं युवतियों के एक छात्रावास में। रोज, नियमित! और फिर धीरे से फुसफुसाकर कहा कि सारी युवतियां छात्रावास की नग्न घूमती मालूम पड़ती हैं!
मनोवैज्ञानिक ने कहा, घबड़ाओ मत। क्या तुम चाहते हो, यह स्वप्न बंद हो जाए? उस आदमी ने कहा, आप मुझे गलत समझे। मेरा पूरा स्वप्न तो सुन लें। लेकिन जैसे ही मैं दरवाजे में प्रवेश करने लगता हूं उस छात्रावास के, मेरी नींद खुल जाती है। कुछ ऐसा करें कि मेरी नींद दरवाजे में प्रवेश करते वक्त खुले न!
स्वभावतः, मनोवैज्ञानिक हैरान हुआ होगा। लेकिन वह आदमी ईमानदार रहा होगा। उसने कहा, सपना तोड़ना नहीं चाहता। लेकिन सपना पूरा ही नहीं हो पाता। भीतर प्रवेश करता हूं, दरवाजे पर पैर रखता हूं कि नींद टूट जाती है। छात्रावास खो जाता है; नग्न युवतियां खो जाती हैं। मनोवैज्ञानिक ने कहा कि हम कुछ कोशिश करें। सपना तोड़ना तो आसान था, लेकिन नींद को बचाना जरा कठिन है, फिर भी कोशिश करें।
उसे सम्मोहित किया। दो-चार दिन सम्मोहित करके, हिप्नोटाइज करके उसे सुझाव दिए।
चौथे दिन वह आदमी बहुत क्रोध में आया। आधी रात दरवाजे खटखटाए। मनोवैज्ञानिक ने कहा कि इतनी रात आने की क्या जरूरत? उसने कहा कि बहुत गलत किया तुमने। आज सपना नहीं टूटा। मैं भीतर भी प्रवेश कर गया। लेकिन मैं वापस चाहता हूं, वही सपना ठीक था, जो दरवाजे पर टूट जाता था।
उस मनोवैज्ञानिक ने कहा, क्यों वापस चाहते हो? उसने कहा कि कम से कम थोड़ा आकर्षण तो था; अब वह भी नहीं है। अभी तक एक आशा तो थी कि कभी यह सपना नहीं टूटेगा। आज नहीं टूटा है। लेकिन मिला तो कुछ भी नहीं! वरन मैंने कुछ खोया है। मेरा अधूरा सपना वापस लौटा दो।
आदमी जीवन में जो-जो सपने देखता है, जब तक देखता रहता है, तब तक प्रीतिकर होते हैं। जब सपने हाथ में आ जाते हैं, तो बड़े अप्रीतिकर हो जाते हैं।
जिस चीज को प्रेम करें, अगर प्रेम जारी रखना हो, तो जरा दूर ही रहना, निकट मत जाना। निकट गए कि प्रेम उजड़ जाएगा, विकर्षण जगह ले लेगा। क्योंकि सारा आकर्षण अनजान, अपरिचित, दूर जो है, आशा में है, होप। जितनी ज्यादा आशा मिश्रित मालूम होती है, उतना आकर्षण मालूम होता है। हाथ में आ गए तथ्य विकर्षित हो जाते हैं। बहुत देर हाथ में रह गए तथ्य, फेंकने जैसे हो जाते हैं। जिसे चाहा था बहुत मांगों से, उससे दूर हटने की आकांक्षा पैदा हो जाती है। अप्रीतिकर हो जाता है वही, जो प्रीतिकर था।
इसलिए कृष्ण कहते हैं, जिन्हें लोग प्रीतिकर समझते हैं, जिन्हें लोग अप्रीतिकर समझते हैं...।
किन्हें समझते हैं लोग? दूर की आशाओं को लोग प्रीतिकर समझते हैं। इंद्रियों को प्रलोभन जहां से मिलता है, वहां प्रीतिकर मालूम होता है सब। जहां-जहां इंद्रियां पहुंच जाती हैं, वहीं अप्रीति बैठ जाती है; वहीं अंधेरा छा जाता है; वहीं हटने का मन हो जाता है। इसीलिए तो जो हम पा लेते हैं, बस वह बेकार हो जाता है। आंखें फिर कहीं और अटक जाती हैं।
लेकिन एक और अर्थ में भी इस बात को समझ लेना जरूरी है। कोई आपके गले में फूल की मालाएं डाल रहा है। प्रीतिकर लगता है। स्वागत, सम्मान, प्रतिष्ठा प्रीतिकर लगती है। कोई जूते की मालाएं डाल दे गले में, अप्रीतिकर लगता है।
कृष्ण कहते हैं, ये व्याख्याओं से जो भीतर आंदोलित हो जाता है, वह प्रभु की सतत आनंद की स्थिति में प्रवेश नहीं कर सकता। क्योंकि गले में डाले गए फूल कि गले में डाले गए कांटे, चेतना को इससे अंतर नहीं पड़ना चाहिए। चेतना को अंतर पड़ता है, इसका अर्थ यह हुआ कि बाहर के लोग आपको प्रभावित कर सकते हैं। और जब तक बाहर के लोग आपको प्रभावित कर सकते हैं, तब तक भीतर की धारा में प्रवेश नहीं होता।
बाहर से जो प्रभावित होगा, उसकी चेतना बाहर की तरफ बहती रहेगी। जब बाहर से कोई बिलकुल अप्रभावित, तटस्थ हो जाता है, तभी चेतना अंतर्गमन को उपलब्ध होती है।
जब मिले स्वागत, जब मिले सम्मान, जब प्रेम की वर्षा होती लगे, तब भी भीतर साक्षी रह जाना, देखना कि लोग फूल डाल रहे हैं। जब मिले अपमान, जब बरसें गालियां, तब भी साक्षी रह जाना और जानना कि लोग कांटे फेंक रहे हैं, गालियां फेंक रहे हैं। लेकिन देखना भीतर यह कि स्वयं चलित तो नहीं हो जाते, स्वयं तो नहीं बह जाते फूलों और कांटों के साथ! स्वयं तो खड़े ही रह जाना भीतर।
ऐसे प्रत्येक अवसर को जो तटस्थ साक्षी का क्षण बना लेता है, वह धीरे-धीरे अंतर-समता को उपलब्ध होता है। धीरे-धीरे ही होती है यह बात। एक-एक कदम समता की तरफ उठाना पड़ता है। लेकिन जो कभी भी नहीं उठाएगा, वह कभी पहुंचेगा नहीं।
बहुत छोटे-छोटे मौकों पर--जब कोई गाली दे रहा हो, तब उसकी गाली पर से ध्यान हटाकर भीतर ध्यान देना कि मन चलित तो नहीं होता। और ध्यान देते ही मन ठहर जाएगा। यह बहुत मजे की बात है। जब कोई गाली देता है, तो हमारा ध्यान गाली देने वाले पर चला जाता है। अगर कृष्ण की बात समझनी हो, तो जब कोई गाली दे, तो ध्यान जिसको गाली दी गई है, उस पर ले जाना।
जैसे ही ध्यान भीतर जाएगा, हंसी आएगी। गाली बाहर रह जाएगी; गाली देने वाला बाहर रह जाएगा; आप किनारे पर खड़े हो जाएंगे। गाली से अछूते, कमल के पत्ते की तरह पानी में। चारों तरफ पानी है और आप अस्पर्शित, अनटच्ड रह जाएंगे। उस क्षण इतने आनंद की प्रतीति होगी, जिसका हिसाब नहीं।
जिसने भी गाली के क्षण में या सम्मान के क्षण में भीतर खड़े होने को पा लिया, जस्ट स्टैंडिंग को पा लिया, वह इतने अतिरेक आनंद से भर जाता है, जिसका कोई हिसाब नहीं। क्यों? क्योंकि पहली बार वह स्वतंत्र हुआ। अब कोई उसे बाहर से चलित नहीं कर सकता है। अब वह यंत्र नहीं है, मनुष्य हुआ। हम बटन दबाते हैं, बिजली जल जाती है। हम बटन दबाते हैं, बिजली बुझ जाती है। बिजली परतंत्र है, बटन दबाने से जलती और बुझती है। किसी ने गाली दी; हमारे भीतर दुख छा गया। किसी ने कहा कि आप तो बड़े महान हैं; हमारे भीतर खुशी की लहर दौड़ गई। तो हममें और बिजली में बहुत फर्क न हुआ, बटन दबाई...
अभी अमेरिका में कुछ मनोवैज्ञानिक, इरिक फ्रोम, डा.सर्ज और कुछ दूसरे मनोवैज्ञानिक एक छोटा-सा प्रयोग कर रहे हैं, जो मैं आपको याद दिलाना चाहूंगा। वह प्रयोग यह है कि हमारे मस्तिष्क में कुछ सेंटर्स हैं, कुछ केंद्र हैं, जिनमें अगर बिजली की धारा प्रवाहित की जाए, तो बड़ा प्रीतिकर लगता है। और दूसरे भी कुछ केंद्र हैं हमारे मस्तिष्क में, जिनमें बिजली की धारा प्रवाहित की जाए, तो बड़ा अप्रीतिकर लगता है। सिर्फ बिजली की धारा! तो इलेक्ट्रोड, बिजली का तार डाल देते हैं खोपड़ी के भीतर, और जिस हिस्से से इंद्रियां प्रीतिकर अनुभव करती हैं, उससे जोड़ देते हैं। बाहर बटन दबा देते हैं, वहां बिजली की धारा उस केंद्र को संचालित करने लगती है। आदमी बड़ा मुग्ध हो जाता है--मुग्ध। दुखद हिस्से को पकड़ा देते हैं तार को, आदमी बड़ा दुखी हो जाता है। आदमी ही नहीं जानवर भी!
अभी एक बिल्ली पर वे प्रयोग कर रहे थे। और उस बिल्ली को तार लगा दिया और उसके सामने बटन भी उसे सिखा दी दबानी। भीतर सुखद जहां अनुभव होती है बिजली की दौड़, उसमें तार लगा दिया और बिल्ली को बटन दबाना भी सिखा दिया। बहुत हैरान हो गए वे। बिल्ली ने चौबीस घंटे खाना-पीना-सोना सब बंद कर दिया। बस, वह बटन ही दबाती रही! उसने चौबीस घंटे में छः हजार बार बटन दबाया। और मनोवैज्ञानिकों का कहना है कि अगर हम उसे अलग न कर देते, तो वह मर जाती, लेकिन बटन दबाना बंद न करती। खाने-पीने की फुर्सत न रही उसे!
जब आपको किसी से प्रीतिकर संबंध मालूम पड़ता है, कोई प्रियजन, तो अगर आप मनोवैज्ञानिक से अब पूछें, तो वह कहेगा, जब आप अपनी प्रेयसी से मिलते हैं या प्रेमी से मिलते हैं, तो आपके भीतर उसके शरीर से वह बिजली प्रवाहित होने लगती है, जो आपके विशेष केंद्रों को स्पर्श करती है। और कुछ नहीं होता। और आप उस बिल्ली से बहुत अच्छी हालत में नहीं हैं। और अगर बार-बार मन होता है कि प्रेयसी से मिलें, तो जो बिल्ली का तर्क है, वही तर्क आपका है कि बार-बार बटन को दबाएं!
आज नहीं कल, जिस दिन यह पूरे शरीर का फिजियोलाजिकल और केमिकल, यह जो हमारी व्यवस्था है शारीरिक और रासायनिक, इसका पूरा राज पता चल जाएगा, तो आप अपने खीसे में एक बटन रखकर दबाते रहना बैटरी को। उससे आपको सुखद और दुखद अनुभव होते रहेंगे!
इससे साफ होता है कि जिन लोगों ने आध्यात्मिक गहराइयों में जाकर यह कहा कि वही आदमी वास्तविक आनंद को उपलब्ध होगा, जो सुख और दुख दोनों के बीच थिर हो जाता है। वही आदमी शरीर के इस रासायनिक, शारीरिक, वैद्युतिक प्रवाह के सुख-दुख के भ्रम के ऊपर उठ पाता है। तटस्थ हो जाने की जरूरत है। दोनों के बीच एक-सा हो जाने की जरूरत है।
वह बिल्ली पागल हो गई। चौबीस घंटे बाद उसका स्विच तो अलग कर दिया गया, इलेक्ट्रोड अलग कर दिया गया, लेकिन वह पागल हो गई। उस दिन से उसको फिर दुनिया में कोई रस न रहा। न अब उसे चूहे पकड़ने में रस आता है; न अब उसे खाने में रस आता है; न उसे अब बिल्लियों से प्रेम बसाने में रस आता है। अब तो वह उसी कमरे में बार-बार आ जाती है, जहां उसको बटन दिया गया था और जहां उसने बटन दबाया था। वह पागल हो गई है। अब उसकी स्मृति भारी है। अब उतना तीव्र रस उसको किसी बात में नहीं आता है। विक्षिप्त है।
मैंने सुना है कि एक मनोवैज्ञानिक दो वर्षों से एक आदमी का इलाज कर रहा है। फिर एक दिन हजारों रुपए के खर्च, इलाज और चिकित्सा और मनोविश्लेषण के बाद उसने उस आदमी को कहा कि अब आप बिलकुल ठीक हो गए। धन्यवाद दो परमात्मा को कि आप अब बिलकुल ठीक हो गए हैं। अब आपको कभी भी महान होने का जो पागलपन पहले पकड़ा था, वह अब कभी भी नहीं पकड़ेगा। उस आदमी को पंडित जवाहरलाल नेहरू होने का भ्रम था। उस मनोवैज्ञानिक ने कहा, अब तुम्हें इस तरह के ग्रेंडयोर, इस तरह के महिमाशाली होने के पागलपन की बातें कभी नहीं पकड़ेंगी
उस बीमार ने कहा, धन्यवाद प्रभु का और धन्यवाद तुम्हारा। तुमने बड़ी मेहनत ली। बड़ी कृपा है तुम्हारी कि मैं ठीक हो गया। क्या तुम्हारा फोन उपयोग कर सकता हूं? चिकित्सक ने पूछा, किसको फोन करना है? उसने कहा, मैं जरा अपनी बेटी इंदिरा गांधी को खबर दूं कि मैं ठीक हो गया हूं। चिकित्सक तो दंग! उसने कहा, दो साल पर पानी फेर दिया तुमने! उस आदमी ने कहा, तुम्हें पता नहीं; कितना सुखद है पंडित जवाहरलाल नेहरू होना! पागल होना बेहतर! पंडित नेहरू होना छोड़ना बेहतर नहीं। मैं पागल रह सकता हूं, इतना सुखद है!
जो हमारा सुख है, हम उसके पीछे सभी पागल हो जाते हैं। दुख भी हमें पागल करता है, क्योंकि उससे हम भागते रहते हैं। सुख भी पागल करता है, क्योंकि उसकी हम मांग करते रहते हैं। और जब चेतना इस तरह प्रीतिकर-अप्रीतिकर के बीच डांवाडोल होती रहती है, तो थिर कैसे होगी? ठहरेगी कैसे? खड़ी कैसे होगी? फिर तो उसकी हालत ऐसी होती है, जैसे दीया तूफान और आंधी में झोंके लेता रहता है--कभी बाएं, कभी दाएं। कभी ठहर नहीं पाता।
कृष्ण जिस आदमी की बात कर रहे हैं, वह उस आदमी की बात है, जिसकी चेतना का दीया, जिसकी चेतना की ज्योति ठहर गई। ऐसे, जैसे बंद कमरे में जहां हवा के कोई झोंके न आते हों। ठहर गई ज्योति, रुक गई।
जिस दिन चेतना सम हो जाती है--न प्रीतिकर खींचता, न अप्रीतिकर हटाता; न दुखद कहता कि हटो, न सुखद कहता है कि आओ--और जब चेतना पर कोई भी बाहर के आंदोलन प्रभाव नहीं डालते हैं और चेतना बिलकुल ठहरकर खड़ी हो जाती है, उस खड़ी हुई चेतना में ही व्यक्ति सच्चिदानंद स्वरूप परमात्मा में थिर होता है।
इसे ऐसा समझ लें, डोलती हुई चेतना, उसी तरह है, जैसे कभी आपके रेडिओ का कांटा ढीला हो गया हो। आप घुमाते हों उसे, वह कोई स्टेशन पर टयून नहीं हो पाता हो; कहीं भी ठहर न पाता हो। हिलता हो, डुलता हो; दो-चार स्टेशन साथ-साथ पकड़ता हो। कुछ भी समझ-बूझ न पड़ता हो कि क्या हो रहा है।
चेतना जब तक डोलती है सुख और दुख के धक्कों में, झोंकों में, तब तक कभी भी टयूनिंग नहीं हो पाती परमात्मा से। जैसे ही खड़ी हो जाती है थिर, वैसे ही परमात्मा से संबंध जुड़ जाता है।
परमात्मा और व्यक्ति के बीच संबंध किसी भी क्षण हो सकता है, लेकिन व्यक्ति की चेतना के ठहरने की अनिवार्य शर्त है। परमात्मा तो सदा ठहरा हुआ है। हम भी ठहर जाएं, तो मिलन हो जाए। उस मिलन में ही सच्चिदानंद का अनुभव है। और इस मिलन के बाद कोई विरह नहीं है। सुख मिलेंगे, छूटेंगे। दुख मिलेंगे, छूटेंगे। परमात्मा मिला, तो फिर नहीं छूटता है। आनंद मिला, तो फिर नहीं छूटता है।
उसी की तलाश है सारे जीवन, उसी की खोज है। वह मिल जाए, जो मिलकर नहीं छूटता है। वह पा लिया जाए, जिसे पाने के बाद कुछ पाने को शेष नहीं रहता है। उसी की जन्मों-जन्मों की यात्रा है। लेकिन हर बार चूक जाते हैं। वह डोलती हुई चेतना, थिर नहीं हो पाती। और वह थिर क्यों नहीं हो पाती? प्रीतिकर और अप्रीतिकर में हम भटकते रहते हैं।
इसलिए कृष्ण कहते हैं, जागो! प्रीतिकर, अप्रीतिकर दोनों के बीच खड़े हो जाओ, मौन।
निश्चित ही कांटा चुभेगा, तो अप्रीतिकर लगेगा। कृष्ण को भी चुभेगा, तो भी लगेगा। फूल हाथ पर आएगा, तो अप्रीतिकर नहीं लगेगा। यह मत सोचना कि कृष्ण को हम कांटा गड़ाएंगे, तो खून नहीं बहेगा। कि कृष्ण को कांटा गड़ाएंगे, तो वे पत्थर हैं, उन्हें पता नहीं चलेगा। पता पूरा चलेगा। शरीर पूरी प्रतिक्रिया करेगा। शरीर में पीड़ा होगी, चुभन होगी। शरीर खबर भेजेगा मस्तिष्क को कि कांटा चुभता है, खून बहता है। लेकिन चेतना डांवाडोल नहीं होगी। चेतना कहेगी, ठीक है। आते हैं; जो किया जा सकता है, वह करेंगे। कांटे को निकालेंगे; मलहम-पट्टी करेंगे। लेकिन चेतना इससे विचलित नहीं होती है। चेतना ठहरी ही रह जाती है!
बुद्ध या महावीर की मूर्ति देखते हैं बैठी हुई! जैसे दीए की ज्योति ठहरी हो। इसलिए बुद्ध और महावीर और सारे जगत के उन सारे लोगों की, जिनकी चेतना ठहर गई, हमने पत्थर में मूर्तियां बनाईं। अकारण नहीं! पत्थर में बनाने का कारण था। पत्थर जितना ठहरा हुआ है, इतनी और कोई चीज ठहरी हुई नहीं है। तूफान आते हैं; जिस वृक्ष के नीचे मूर्ति रखी है बुद्ध की, वृक्ष हिल जाता है, कंप जाता है। जड़ें कंप जाती हैं, पत्ते कंप जाते हैं, लेकिन मूर्ति है कि ठहरी रहती है। वह जो उनके भीतर थिर हो गई थी चेतना, उस थिरता के समानांतर खोजने के लिए हमने पत्थर खोजा। वहां सब ठहरा हुआ है।
अप्रीतिकर, प्रीतिकर के बीच ऐसे जो ठहर जाता है, वह पुरुष सच्चिदानंद के साथ एकलीनता, एकलयता को उपलब्ध होता है।


प्रश्न:

भगवान श्री, इस श्लोक में कहा गया है कि प्रिय और अप्रिय अनुभवों में उद्वेगरहित, स्थिर बुद्धि व संशयरहित ब्रह्मवेत्ता पुरुष परमात्मा में एकीभाव से नित्य स्थित है। इसमें एक शब्द है, संशयरहित। तो प्रीतिकर और अप्रीतिकर अनुभवों में समता रखने वाला पुरुष कैसे संशयरहित होता है, इस पर कुछ कहें।


संशय भी चेतना के कंपन का नाम है। संशय की बात भी कृष्ण ने कही--संशयरहित की--जानकर। चेतना दो तरह से कंपती है। या तो भाव के द्वार से, इमोशन के द्वार से; या बुद्धि के द्वार से, इंटलेक्ट के द्वार से। चेतना के दो द्वार हैं, भाव या विचार। पहली बात कृष्ण ने कही कि प्रीतिकर और अप्रीतिकर के बीच थिर है जो। यह भाव के द्वार की बात है। भावना में न कंपे कोई। प्रीतिकर हो या अप्रीतिकर, यह हृदय की बात है। हृदय को प्रीतिकर लगता है, तो भी कंपन आ जाता; अप्रीतिकर लगता है, तो भी कंपन आ जाता। हृदय के द्वार से थिर हो जाए।
दूसरी बात भी कही कि संशयरहित हो। संशय, बुद्धि का कंपन है। बुद्धि जब कंपती है, तो प्रीतिकर-अप्रीतिकर से नहीं कंपती। बुद्धि जब कंपती है, तो ठीक या गलत, इससे कंपती है। हृदय कंपता है प्रीतिकर-अप्रीतिकर से। बुद्धि कंपती है, ठीक या गलत। ठीक में भी वह वैसा ही खड़ा रहे, गलत में भी वह वैसा ही खड़ा रहे। बुद्धि भी न कंपे, बुद्धि के द्वार से भी न कंपे
एक व्यक्ति आपसे कहता है, ईश्वर है? बुद्धि तत्काल कहती है, है। किसी की बुद्धि कहती है, नहीं है। कंप गई। कंप गई! आस्तिक भी कंप गया, जिसने कहा, है। नास्तिक भी कंप गया, जिसने कहा, नहीं है। आस्तिक प्रीतिकर ढंग से कंपा। नास्तिक अप्रीतिकर ढंग से कंपा। आस्तिक पक्ष में कंपा; नास्तिक विपक्ष में कंपा। लेकिन कंप गया।
कृष्ण उस धार्मिक की बात कर रहे हैं कि कोई कहता है, ईश्वर है, और बुद्धि संशय में नहीं पड़ती। इतना भी संशय नहीं करती कि है या नहीं। अकंपित रह जाती है।
परम आस्तिक का लक्षण तो यही है। परमात्मा के पक्ष में भी न कंपे, विपक्ष में भी न कंपे, वही व्यक्ति परमात्मा को उपलब्ध होता है। जरा कठिन है बात। अति कठिन है। परम आस्तिक, वस्तुतः आस्तिक वही है, जो परमात्मा है, इतना भी आग्रह नहीं करेगा। क्योंकि यह कंपन है। यह नहीं के विरोध में चले जाना है। यह नास्तिक से उलटा होना है, आस्तिक होना नहीं है। आस्तिक इतनी बड़ी घटना है कि नास्तिक को भी समा लेती है।
बुद्ध के पास एक व्यक्ति आया और उसने कहा कि मैं ईश्वर को नहीं मानता हूं, शांत हो सकता हूं? बुद्ध ने कहा, ईश्वर को मान ही कैसे सकोगे बिना शांत हुए? उस आदमी ने कहा, ईश्वर को नहीं मानता हूं, शांत हो सकता हूं? बुद्ध ने कहा, शांत हुए बिना ईश्वर को मान ही कैसे सकोगे? तो जो तुमसे कहता हो कि ईश्वर को पहले मान लो, वह गलत कहता है। ईश्वर को मानकर कोई दुनिया में शांत नहीं होता। क्योंकि जो शांत नहीं है, वह ईश्वर को मान ही नहीं सकता है। तुम शांत हो जाओ। उसने कहा, ईश्वर को मानने की कोई भी जरूरत नहीं है? बुद्ध ने कहा, कोई भी जरूरत नहीं है। तुम शांत हो जाओ, शांत हो जाने की जरूरत है।
शांति की साधना में लग गया वह व्यक्ति। वर्ष बीता। बुद्ध ने उससे पूछा, शांत हुए? उसने कहा, पूरी तरह शांत हो गया हूं। बुद्ध ने कहा, ईश्वर के संबंध में क्या खयाल है? उसने कहा, अब कोई खयाल न बनाऊंगा। अब मैं जानता हूं कि ईश्वर है, यह भी अशांत लोगों का खयाल था; ईश्वर नहीं है, यह भी अशांत लोगों का खयाल था। अब मैं कोई खयाल न बनाऊंगा। बुद्ध ने कहा, ईश्वर के संबंध में कुछ भी न कहोगे? उसने कहा कि अगर मेरी आंखें कह सकें, तो कहें। अगर मेरे चलते हुए पैर कह सकें, तो कहें। अगर मेरे हाथ कह सकें, तो कहें। अगर मेरा अस्तित्व कह सके, तो कहे। मैं नहीं कहूंगा। और अगर ईश्वर है, तो पूरे प्राण, श्वास-श्वास कहेगी।
आस्तिकता भी एक संशय है, एक कंपन--पक्ष में। नास्तिकता भी एक संशय है, एक कंपन--विपक्ष में। धार्मिकता अकंप है, निष्कंप--न पक्ष, न विपक्ष। धार्मिकता आस्तिकता और नास्तिकता दोनों का ट्रांसेंडेंस है, दोनों के पार चले जाना है।
और ध्यान रहे, नास्तिक को कोई कितना ही समझाकर आस्तिक बना दे, बीमारी बदल जाती है, नास्तिक नहीं बदलता। आस्तिक को कोई कितना समझाकर नास्तिक बना दे, बीमारी बदल जाती है, आस्तिक नहीं बदलता। बीमारी के बदल जाने से स्वास्थ्य नहीं आता।
पक्ष बीमारी है, निष्पक्षता स्वास्थ्य है। पक्ष बीमारी है, निष्पक्षता स्वास्थ्य है। पक्ष यानी झुके, डोले, गए। कुछ चुन लिया। च्वाइस हो गई। चुनाव कर लिया। तटस्थ न रह सके। निष्पक्ष, यानी नहीं किया चुनाव, तटस्थ रहे।
हृदय के लिए प्रीतिकर और अप्रीतिकर कंपाते हैं। बुद्धि के लिए विश्वास और अविश्वास कंपाते हैं। विश्वास और अविश्वास में भी जो निःसंशय खड़ा है।
ध्यान रहे, आमतौर से लोग व्याख्या करते हैं निःसंशय की विश्वासी के लिए, कि जो विश्वास करता है दृढ़ता से, वह आदमी संशयरहित है। मैं नहीं करता हूं। मैं कहता हूं, जो आदमी कहता है, मैं दृढ़ता से विश्वास करता हूं, उसके भीतर संशय उतनी ही दृढ़ता से मौजूद है। उस संशय को ही दबाने के लिए वह दृढ़ता का पत्थर रख रहा है। जो आदमी कहता है, मैं पक्का विश्वास करता हूं; जानना कि वह डरा हुआ है अपने भीतर के अविश्वास से। उसको ही दबाने के लिए पक्के विश्वास की दीवाल खड़ी कर रहा है। जो आदमी सच में विश्वास करता है, पक्का-कच्चा नहीं करता।
जो आदमी आपसे कहे कि मैं पक्का प्रेम करता हूं, समझना कि प्रेम पक्का नहीं है। क्योंकि पक्के का खयाल ही कच्चे वाले को आता है, नहीं तो पक्के की कोई बात ही नहीं है। जो प्रेम करता है, वह तो शायद कह भी नहीं सकता कि मैं प्रेम करता हूं। इतना कहना भी उसे गलत मालूम पड़ेगा। अगर प्रेम ने खुद नहीं कह दिया है, तो अब शब्दों से और क्या कहा जा सकता है! अगर प्रेम खुद भी नहीं कह पाया, तो अब शब्दों से और क्या कहा जा सकता है!
इस पृथ्वी पर जिन्होंने सच में प्रेम किया है, उन्होंने शायद कहा ही नहीं। क्या कहें? अगर प्रेम ही नहीं कह पा रहा है, तो अब और हम क्या कह सकेंगे?
नहीं लेकिन; जो कहता है छाती ठोककर कि मैं पक्का विश्वास दिलाता हूं, प्रेम मेरा सच्चा और पक्का है; उसके भीतर अगर हम थोड़ा प्रवेश करें, तो कहीं कच्चा और झूठा छिपा हुआ मिल जाएगा। उसी को दबाने के लिए वह इंतजाम कर रहा है। यह सेफ्टी मेजर है।
जब एक आदमी कहता है कि मेरा विश्वास पक्का है, जितना अकड़कर कहे कि मेरा विश्वास पक्का है, उतना ही समझना कि वह खुद से डरा है। ये पक्के विश्वासी दूसरे की बात सुनने तक में डरेंगे। क्योंकि उनके भीतर छिपा हुआ डर है। वह कभी भी प्रकट हो सकता है। इसीलिए तो डाग्मेटिज्म पैदा होता है, मतांधता पैदा होती है। हर आदमी कहता है, मैं बिलकुल पक्का हूं। शक खुद ही है। जिसे शक नहीं है, वह निःसंशय है। जिसने शक को दबाया, उसने केवल संशय को दबाया है; वह निःसंशय नहीं है।
कृष्ण कहते हैं, संशयरहित! जिसके भीतर संशय ही नहीं है।
बड़ी इनोसेंट अवस्था है संशयरहितता की। विश्वास की बहुत निष्कपट अवस्था नहीं है, पक्के इंतजाम की, कैलकुलेटेड है। हिसाब-किताब है वहां। डरे हुए हैं भीतर की नास्तिकता से, इसलिए आस्तिकता को पकड़े हुए हैं। इसी डर से कि कहीं कोई नास्तिक की बात सुनाई न पड़ जाए, तो कान बंद किए हुए हैं!
सुना है न आपने, एक आदमी घंटाकर्ण, जो कान में घंटे बांधे रखता था कि कहीं कोई विपरीत बात सुनाई न पड़ जाए! वह घंटे अपने बजाता रहता कान के। न कान सुनेंगे, न सुनाई पड़ेगी। लेकिन बड़ा कमजोर आदमी रहा होगा। अगर विपरीत बात सुनने से इतना भय है, तो यह भय विपरीत बात से नहीं आता, अपने भीतर कहीं से आता है। कहीं छिपा है गहरे में।
संशयरहित कौन होगा? संशयरहित वही होगा, जो ठीक जैसे हृदय में प्रीति और अप्रीति के बीच तटस्थ होता है, ऐसे ही बुद्धि में विश्वास और अविश्वास के बीच तटस्थ होता है।
और इस दुनिया में हम किसी के विश्वास बदलवा नहीं सकते। बीमारी बदल सकते हैं। और अक्सर तो यह होता है कि बीमारी भी नहीं बदल पाते। कितना ही समझाओ, कोई किसी को इस दुनिया में कनविन्स कर पाता है? नहीं कर पाता।
समझाओ किसी को। जितना समझाओगे, वह उतना और मजबूत होता जाता है अपनी ही बात में। क्योंकि वह इतना इंतजाम और करता है कि यह आदमी हमला बोल रहा है। भीतर से उसको डर लगता है कि कहीं दीवाल कमजोर न पड़ जाए; वह और ईंट-पत्थर जोड़कर बड़ी दीवाल खड़ी कर लेता है; इंतजाम कर लेता है। समझाने वाले अक्सर उस आदमी को उसके पक्ष में और मजबूत कर जाते हैं। और कुछ नहीं करते। नास्तिक को समझाएं, तो नास्तिक और मजबूत नास्तिक हो जाता है। आस्तिक को समझाएं, तो आस्तिक और मजबूत आस्तिक हो जाता है। क्यों? क्योंकि उसे लगता है, हमला हो रहा है, इंतजाम करो।
मैंने सुना है कि एक आदमी का दिमाग खराब हुआ और खयाल पैदा हो गया कि वह मर गया है। जिंदा था, खयाल पैदा हो गया कि मर गया है। घर के लोग परेशान हो गए। समझा-समझाकर हैरान हो गए कि तुम जिंदा हो। लेकिन वह कहे, मैं कैसे मानूं, जब मैं मर ही चुका हूं! कैसे समझाएं इस आदमी को कि यह आदमी जिंदा है! लोग कहते कि हमें देखो, तुम्हारे सामने खड़े हैं। वह कहता कि तुम सब भी मर गए हो। भूत-प्रेत हैं। हम सब भूत-प्रेत हो गए हैं। कोई जिंदा नहीं है, सब मर चुके हैं। लोग कहते, हम तुमसे बोल रहे हैं। वह कहता, मैं सुन रहा हूं। लेकिन सब भूत-प्रेत हैं। कोई जिंदा है नहीं।
बड़े परेशान हो गए, तब उसको चिकित्सक के पास ले गए। चिकित्सक ने कहा, घबड़ाओ मत। हम कुछ इसे कनविन्स करने का उपाय करते हैं। इसे समझाएंगे। उस आदमी से कहा, आईने के सामने खड़े हो जाओ। वह आदमी आईने के सामने खड़ा हो गया। और उससे कहा, तीन घंटे तक मंत्र की तरह एक ही बात कहते रहो, डेड मेन डू नाट ब्लीड। मरे हुए आदमियों के शरीर से खून नहीं निकलता, तीन घंटे तक कहते रहो।
वह आदमी तीन घंटे तक कहता रहा, मरे हुए आदमी के शरीर से खून नहीं निकलता, डेड मेन डोंट ब्लीड। तीन घंटे के बाद चिकित्सक उसके पास गया, हाथ में चाकू मारा उस पागल के, खून बहने लगा। प्रसन्नता से हंसकर कहा कि देखो, इससे क्या सिद्ध होता है? व्हाट इज़ प्रूव्ड बाई दिस? हाथ से खून निकल रहा है! उस आदमी ने कहा कि दिस प्रूव्स दैट डेड मेन डू ब्लीड--इससे सिद्ध होता है कि मरे आदमी में से खून निकलता है। और क्या सिद्ध होता है!
सारे तर्क बेमानी हैं। सब तर्क विपरीत को, विरोध को और मजबूत कर जाते हैं। सोचते हैं, उस डाक्टर की क्या हालत हुई होगी! तीन घंटे की मेहनत एक वाक्य में उसने समाप्त कर दी!
दुनिया में कोई विवाद से कभी बात तय नहीं होती। क्यों नहीं होती तय? कोई सत्य की खोज में नहीं है, पक्ष की खोज में है। और जब पक्ष को कोई निर्मित करता है, तो वह सदा डरा रहता है, उसके भीतर विपरीत भी मौजूद रहता है। वह आपसे अपना बचाव कम करता है; अपने ही भीतर के एक्सप्लोजन, विस्फोट से बचाव करता है। तो वह इंतजाम मजबूत करता चला जाता है। आप दस तरकीबें लाते हैं, दस दलीलें लाते हैं कि ईश्वर है। वह भी दस दलीलें लाता है कि नहीं है। आप दस दलीलें लाते हैं कि ईश्वर नहीं है, आस्तिक दस दलीलें लाता है कि है। इसीलिए तो पांच-दस हजार साल से दुनिया में विवाद चलता है। किसी का संशय मिटता है विश्वास से, अविश्वास से? हिंदू से, मुसलमान से? ईसाई से? किसी का कोई संशय नहीं मिटता।
कृष्ण का अर्थ बहुत दूसरा है। वे कहते हैं कि अगर संशय मिटाना है, तो तुम पक्ष-विपक्ष में मत पड़ो। तुम मौन, दोनों से दूर खड़े हो जाओ। तुम कहो कि मुझे पता नहीं कि यह ठीक है या वह ठीक है। मैं निष्पक्ष खड़ा हो जाता हूं।
निष्पक्ष खड़े होना ठीक है। दो के बीच एक को चुनना ठीक नहीं, तीसरे बिंदु पर निष्पक्ष खड़े हो जाना ठीक है, निःसंशय। तब फिर कोई संशय नहीं होगा।
संशय तभी होता है, जब कोई विश्वास होता है। यह भी बात खयाल में ले लें। जिसने भी विश्वास को पकड़ा, उसको संदेह भी पकड़ेगा। अगर आपने पकड़ा कि ईश्वर है, तो पच्चीस तरह के संदेह उठेंगे, कैसा है? क्यों है? कब से हुआ? अगर आपने कहा, नहीं है, तो पच्चीस तरह के संदेह पकड़ेंगे कि फिर यह जगत कैसे है? यह जीवन क्यों चल रहा है? आदमी क्यों मरता-जीता है? सुखी-दुखी क्यों होता है? पकड़ते चले जाएंगे। लेकिन अगर आप कोई विश्वास, कोई अविश्वास न पकड़ें, तो आपको संशय पकड़ सकता है? संशय की कोई जगह न रही। संशय को टिकने के लिए विश्वास या अविश्वास की खूंटी चाहिए। दोनों न पकड़ें। कृष्ण कहते हैं, संशयरहित हो जाएंगे, निःसंशय हो जाएंगे।
प्रीतिकर-अप्रीतिकर से हृदय के द्वार पर तटस्थ हो जाएं; विश्वास-अविश्वास से बुद्धि के द्वार पर तटस्थ हो जाएं। ये दो तरह की तटस्थताएं भीतर उस ज्योति को सीधा कर देंगी, जो डोलती रहती है। उसके सीधे, निष्कंप होते ही सच्चिदानंद परमात्मा के साथ तालमेल, हार्मनी, संगीत निर्मित हो जाता है।


बाह्यस्पर्शेष्वसक्तात्मा विन्दत्यात्मनि यत्सुखम्
ब्रह्मयोगयुक्तात्मा सुखमक्षयमश्नुते।। 21।।
और बाहर के विषयों में आसक्तिरहित पुरुष अंतःकरण में जो भगवत्ध्यान जनित आनंद है, उसको प्राप्त होता है और वह पुरुष सच्चिदानंदघन परब्रह्म परमात्मा रूप योग में एकीभाव से स्थित हुआ अक्षय आनंद को अनुभव करता है।


बाह्य विषयों में अनासक्त हुआ! वही बात एक दूसरे आयाम से पुनः कृष्ण कहते हैं।
कृष्ण जैसे व्यक्तियों की भी कठिनाइयां हैं। जो बात एक बार कही जा सकती है, वह भी हजार बार कहनी पड़ती है। फिर भी जरूरी नहीं है कि सुनने वाले ने सुनी हो। हजार बार कहकर भी डर यही है कि नहीं सुनी जाएगी।
बहुत-बहुत मार्गों से वे वही-वही, फिर-फिर अर्जुन से कहते हैं। शायद एक आयाम से समझ में न आई हो, दूसरे आयाम से समझ में आ जाए। शायद हृदय के द्वार से खयाल में न आई हो, बुद्धि के द्वार से खयाल में आ जाए। शायद हृदय और बुद्धि दोनों की बात गहरी पड़ गई हो, तो वस्तुओं के मार्ग से समझ में आ जाए।
आब्जेक्टिव वर्ल्ड है हमारे चारों तरफ; वस्तुओं का जगत है। दो वस्तुओं के बीच जो अनासक्त है! वस्तुओं के बीच, जहां इंद्रियां आकर्षित होकर टिकती हैं, आसक्ति के गेह बनाती हैं, घर बनाती हैं, वहां जो अनासक्त-भाव से जीता है, वह भी, वह भी वहीं पहुंच जाता है, सच्चिदानंद स्वरूप ब्रह्म में।
किसी भी द्वार से तटस्थ हो जाना सूत्र है। किसी भी व्यवस्था से च्वाइसलेस, चुनावरहित हो जाना मार्ग है। किसी भी ढंग, किसी भी विधि, किसी भी मार्ग से दो के बीच अकंप हो जाना सूत्र है--स्वर्ण सूत्र।
वस्तुएं भी निरंतर बुला रही हैं। मन आसक्त कब होता है? वस्तुओं को देखने से नहीं होता मन आसक्त। रास्ते से गुजरते हैं आप, दुकान पर दिखाई पड़ा है कुछ; शो रूम में, शो केस में कुछ दिखाई पड़ता है। दिखाई पड़ने से मन आसक्त नहीं होता। आंख खबर दे देती है कि देखते हैं, शो रूम में हीरे का हार है! आंख का खबर देना फर्ज है। आंख ठीक है, तो खबर देगी। जितनी ठीक है, उतनी ठीक खबर देगी। आंख खबर दे देती है मस्तिष्क को। मस्तिष्क भीतर मन को खबर दे देता है कि हार है। इतनी खबर से कहीं भी कोई आसक्ति नहीं हुई जा रही है।
लेकिन मन ने कहा, है, सुंदर है--शुरू हुई यात्रा। अभी बहुत सूक्ष्म है। कहा, सुंदर है--यात्रा शुरू हुई। क्योंकि सुंदर जैसे ही मन कहता है, मन के किसी कोने में धुआं उठने लगता है पाने का। जैसे ही कहा, सुंदर है, पाने की आकांक्षा ने निर्माण करना शुरू कर दिया। अभी आप कहेंगे कि नहीं अभी तो सिर्फ एक एस्थेटिक जजमेंट हुआ, एक सौंदर्यगत निर्णय किया। इसमें क्या बात है! कहा कि सुंदर है।
नहीं; लेकिन बहुत गहरे में, सूक्ष्म में जैसे ही कहा, सुंदर है--पहले हमें यही पता चलता है कि सुंदर है और फिर पता चलता है कि पाना है। लेकिन अगर स्थिति को ठीक से समझें, तो पहले मन के गहरे में इच्छा आ आती है, पाना है; और तब बुद्धि कहती है, सुंदर है। ऊपर से देखने पर पहले तो हमें यही पता चलता है कि सुंदर है। फिर पीछे से छाया की तरह सरकती हुई कोई वासना आती है और कहती है, पाओ! लेकिन आध्यात्मिक जितने खोजी हैं, वे कहते हैं कि पहले तो मन के गहरे में वासना सरक जाती है और कहती है, पाओ। उस खबर को सुनकर भीतर से मन कहता है, सुंदर है।
इसमें दो तरह समझ लें। मन को दो तरह की खबरें मिलती हैं। मन बीच में खड़ा है। बाहर शरीर है; भीतर आत्मा है। शरीर खबर देता है, हीरे का हार है सुंदर। शरीर खबर देता है, विषय की, वस्तु की। आत्मा के भीतर से खबर आती है, वासना की, वृत्ति की, चाह की--पाना है। दोनों का मिलन होता है मन पर, और आसक्ति निर्मित होती है।
अनासक्ति का अर्थ है, बाहर से तो खबर आए--आनी ही चाहिए, नहीं तो जीना असंभव हो जाएगा। अगर आंखें ठीक से न देखेंगी, कान ठीक से न सुनेंगे, हाथ ठीक से स्पर्श न करेंगे, तो जीना कठिन हो जाएगा। अस्वस्थ होगी वैसी देह। देह स्वस्थ होगी, तो खबर पूरी होगी। लेकिन भीतर से कोई वासना आकर मन के दरवाजे पर मिलेगी नहीं। बाहर से खबर आएगी। समझी जाएगी। सुनी जाएगी। आगे बढ़ जाया जाएगा। भीतर से कोई आया नहीं मिलने को; खबर बेकार चली गई।
और ध्यान रहे, एक क्षण को भी खबर बेकार चली जाए, तो फिर मिलन नहीं होगा। यह भी आप खयाल में ले लें। एक क्षण भी चूक हो जाए, क्रासिंग न हो पाए; बाहर से शरीर खबर लाए, इंद्रियां कहें, सुंदर है हार; और उसी क्षण भीतर अगर आप जागे रहें और देखते रहें कि कोई वासना आकर इस इनफर्मेशन, इस सूचना से मेल नहीं करती, तो बस एक क्षण में विदा हो जाएगी। वह एक क्षण ही चूक जाता है, बेहोश...।
वह क्षण हम कैसे चूकते हैं? उसके चूकने की भी व्यवस्था है। जैसे ही हार दिखाई पड़ा कि हमारी पूरी अटेंशन, पूरा ध्यान हार पर चला जाता है। वह जो भीतर से वासना आती है, वह अंधेरे में चुपचाप चली आती है। उसे कोई पहरेदार नहीं मिलता।
साधक के लिए इस प्रक्रिया से गुजरना पड़ता है। जब हीरे के हार की खबर दी आंखों ने, तब तत्काल आंख बंद करके ध्यान ले जाएं भीतर, कि भीतर से कौन आ रहा है! बाहर से तो खबर आ गई; अब भीतर से कौन आ रहा है! ध्यान को ले जाएं भीतर। देखें, कोई वृत्ति सरकती है? कोई मांग, कोई इच्छा पैदा होती है? भीतर पहुंच जाएं।
और बड़े मजे की बात है। बुद्ध ने कहा है कि जैसे किसी घर पर पहरेदार न हो, तो चोर घुस जाते हैं, ऐसे ही जिस आत्मा के द्वार पर ध्यान न हो, तो वृत्तियां घुस जाती हैं। जिस घर के द्वार पर पहरेदार न हो, तो चोर घुस जाते हैं! ध्यान पहरेदार है, अटेंशन
तो कृष्ण कहते हैं, वस्तुओं में अनासक्त!
वस्तुओं में अनासक्त वही होगा, जो वृत्तियों के प्रति जागरूक है, जो वासना के प्रति होशपूर्वक है, जागा हुआ है। जो देखता है कि ठीक; आंख ने खबर दी कि हार सुंदर है। अब भीतर से क्या आता है, उसे देखता है। और अगर कोई व्यक्ति जागकर वृत्तियों को देखने लगे, तो इंद्रियां खबर देती हैं, लेकिन वृत्तियों को उठने का मौका नहीं मिल पाता। एक क्षण की चूक--चूक हो गई। तब तक सूचना खो गई, और आपका होश आपकी शक्ति को बचा गया। आसक्ति निर्मित नहीं हुई।
वृत्ति और इंद्रिय की सूचना के मिलन से आसक्ति निर्मित होती है। इन दोनों का सेतु बन जाए, तो आसक्ति निर्मित होती है। इनका सेतु न बन पाए, तो अनासक्ति निर्मित हो जाती है।
वस्तुओं में जो अनासक्त है! वस्तुओं के बीच जो होशपूर्वक चल रहा है!
चारों तरफ हजार-हजार आकर्षण हैं। इंद्रियों पर लाखों आघात पड़ रहे हैं रोज। कहीं से आवाज कान में आती। कहीं से आंख में रोशनी आती। कहीं से स्पर्श हाथ को मिलता। कहीं से गंध मिलती। कहीं से स्वाद का स्मरण आता। कहीं से कुछ, कहीं से कुछ।
चारों तरफ से अनंत-अनंत आघात पड़ रहे हैं आपके ऊपर। और आपकी वृत्तियां हैं कि तत्काल हर आघात को पकड़ लेती हैं। फिर वासना का और आसक्ति का गहन जाल निर्मित हो जाता है। फिर एक कारागृह बन जाता है भीतर, जिसमें आप बंद होकर जीते हैं। फिर जिंदगी दुख बन जाती है--मांग, मांग; भीख, भीख! यह चाहिए, यह चाहिए, यह चाहिए! और सब मिल जाए, फिर भी कुछ मिलता हुआ मालूम नहीं पड़ता। क्योंकि जब तक एक चीज मिल पाती है, तब तक वासना ने नए बीज बो लिए होते हैं और तब तक आसक्ति ने नए मार्ग बना लिए होते हैं। इधर मिल नहीं पाता, तब तक आप न मालूम और कितने बीज बो चुके!
फिर यह पूरी जिंदगी वृत्तियों के बीच, जैसे कि पानी की लहरों पर कोई कागज की नाव पड़ी हो, ऐसी हो जाती है। कागज की नाव सागर की लहरों पर! हर लहर धकाती है, हर लहर डुबाती है, धक्के और धक्के। फिर पूरा जीवन वृत्तियों की लहरों पर धक्के खाने में बीतता है। रोज करो पूरी आसक्ति, और नई आसक्ति निर्मित होती चली जाती है। जीवन एक दुख-स्वप्न से ज्यादा नहीं है।
इसलिए कृष्ण कहते हैं कि अगर आनंद की यात्रा करनी हो, अगर उस आनंद को पाना हो, जिसे हम प्रभु कहते, परमात्मा कहते, तो वृत्तियों को ठहराना, जगाना, चेतना को होश से भरना, वस्तुओं में आकर्षित मत होना, आसक्त मत बनना।
कैसे टूटेगी लेकिन यह आसक्ति? एक तो मैंने आपसे कहा कि जब भी आसक्ति निर्मित हो...।
ध्यान रहे, मन के जगत के लिए एक परम सूत्र आपसे कहता हूं, एक अल्टिमेट फार्मूला, और वह यह है कि मन के जगत में किसी चीज को मिटाना बहुत कठिन है, बनने न देना बहुत सरल है। मिटाना बहुत कठिन है, बनने न देना बहुत सरल है।
अभी मनोवैज्ञानिक और फिजियोलाजिस्ट, शरीरशास्त्री भी एक नियम पर पहुंच गए, जो कि योग की तो बहुत पुरानी खोज है, लेकिन अभी शरीरशास्त्रियों को पहली दफा खयाल में आया। वह भी मैं आपसे कहना चाहता हूं। वह यह खयाल में उनको आना शुरू हुआ, खासकर रूस में पावलव को यह खयाल में आया कि शरीर में दो तरह के यंत्र एक साथ काम कर रहे हैं। एक तो यंत्र है वालंटरी, स्वेच्छा से चलता है। एक ऐसी यांत्रिक व्यवस्था है, जो नान-वालंटरी है, स्वेच्छा के बाहर चलती है।
जैसे खून बह रहा है आपके शरीर में; आपकी स्वेच्छा का कोई हिस्सा नहीं है। आपको पता ही नहीं चलता; खून बहता रहता है। तीन सौ साल पहले तक तो यह भी पता नहीं था कि शरीर में खून बहता है। लोग समझते थे, भरा हुआ है; बहता नहीं है! बहने का कोई पता ही नहीं चलता। आपको पता चलता है कि खून बह रहा है शरीर में? बड़ी गति से बह रहा है! गंगा बहुत धीमी बह रही है। जब तक मैंने आपसे यह बात की, आपके पैर में जो खून था, वह सिर में आ गया। तेजी से बह रहा है। सतत गति है खून की। परिभ्रमण चल रहा है। उसी परिभ्रमण से वह स्वच्छ है, ताजा है।
यह खून आपकी स्वेच्छा के बाहर है। आपकी इच्छा नहीं चल सकती इसमें, वालंटरी नहीं है। लेकिन योग कहता है कि अगर थोड़े प्रयोग किए जाएं, तो यह भी स्वेच्छा के भीतर आ जाता है। और योग ने इस तरह के प्रयोग करके सारे जगत में दिखा दिए हैं। नाड़ी की गति कम-ज्यादा हो जाती है स्वेच्छा से, थोड़े अभ्यास से। आप भी थोड़ा प्रयोग करेंगे, तो सफल हो सकते हैं। बहुत कठिन नहीं है।
कभी नाड़ी अपनी नाप लें। पाया कि सौ चल रही है एक मिनट में। तब पांच मिनट बैठकर संकल्प करें कि अब एक सौ पांच चले। पांच मिनट बाद फिर से नापें। और आप पाएंगे कि अब एक सौ पांच नहीं, तो एक सौ तीन तो चलने ही लगी। दो-चार-दस दिन में एक सौ पांच चलने लगेगी। फिर कम भी कर सकते हैं। तब थोड़ी-सी स्वेच्छा के भीतर आ गई। आपने संकल्प का थोड़ा विस्तार किया।
कुछ चीजें हमारी स्वेच्छा से चलती हैं। यह मेरा हाथ है; ऊपर उठाता हूं, नीचे गिराता हूं। मेरी इच्छा से उठता है। न उठाऊं, तो नहीं उठता है। अब एक नई बात खोज में आई है और वह यह कि कोई भी वृत्ति जो स्वेच्छा से उठाई जाती है, एक सीमा के बाद नान-वालंटरी हो जाती है। एक सीमा तक स्वेच्छा के भीतर होती है।
समझें, जैसे एक व्यक्ति को कामवासना भर गई। तो कामवासना एक सीमा तक स्वेच्छा के भीतर होती है। अगर आप इस स्वेच्छा की सीमा के भीतर जाग गए, तो आप कामवासना को शिथिल करके वापस सुला देंगे। लेकिन एक सीमा के बाद वह स्वेच्छा के बाहर चली जाती है। और जो नान-वालंटरी मैकेनिज्म है शरीर का, वह पकड़ लेता है। जब नान-वालंटरी मैकेनिज्म पकड़ लेता है, जब स्वेच्छा के बाहर का यंत्र पकड़ लेता है, तो फिर आपके हाथ के बाहर हो गई बात। अब आप नहीं रोक सकते। अब बात बाहर चली गई।
जब आपको क्रोध उठता है, जब उसकी पहली झलक भीतर आनी शुरू होती है कि उठा, अभी वह स्वेच्छा के भीतर है। लेकिन जब खून में एड्रिनल तत्व छूट गया और खून में जहर पहुंच गया और खून ने क्रोध को पकड़ लिया, फिर आपके हाथ के बाहर हो गया। लेकिन पहले, जब आप में क्रोध उठता है, तो थोड़ी देर तक एड्रिनल ग्रंथियां, जिनमें जहर भरा हुआ है आपके शरीर में, प्रतीक्षा करती हैं कि शायद यह आदमी अभी भी रुक जाए। शायद रुक जाए। आप नहीं रुकते, बढ़ते चले जाते हैं। फिर मजबूरी में जहर की ग्रंथियों को जहर छोड़ देना पड़ता है। जहर के छूटते ही अब आपके हाथ के बाहर हो गया।
ठीक वैसे ही कामवासना में भी वीर्य की ग्रंथियां एक सीमा तक प्रतीक्षा करती हैं कि शायद यह आदमी रुक जाए। एक सीमा के बाद जब देखती हैं कि यह आदमी रुकने वाला नहीं है, तो वीर्य की ग्रंथियां वीर्य को छोड़ देती हैं। फिर स्वेच्छा के बाहर हो गया।
शरीर की सारी व्यवस्था, मन की सारी व्यवस्था एक सीमा के बाद स्वेच्छा के बाहर हो जाती है। तो अगर आपको अनासक्त होना हो, तो जब स्वेच्छा के भीतर चल रहा है काम, तभी जाग जाना जरूरी है। जब स्वेच्छा के बाहर चला गया, तब जागने से पछतावे के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है, प्रायश्चित्त के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है।
इसलिए जितने जल्दी हो सके, जैसे ही आपको लगे कि कोई चीज सुंदर मालूम पड़ी कि फौरन भीतर जाएं और देखें कि वासना और वृत्तियां उठ रही हैं। यही मौका है। जरा-सी चूक, और वृत्तियां आसक्ति को निर्मित कर लेंगी।
निर्मित आसक्ति को विघटित करना बहुत कठिन है, अनिर्मित आसक्ति को बनने देने से रोकना बहुत सरल है। जब तक नहीं बनी है, अगर जाग गए, तो नहीं बनेगी। बन गई, जाग भी गए, तो बहुत कठिनाई हो जाएगी। बहुत कांप्लेक्स, बहुत जटिल हो जाएगी। और यह हमेशा बेहतर है, प्रिवेंशन इज़ बेटर दैन क्योर। अच्छा है, रोक लें पहले, बजाय पीछे चिकित्सा करनी पड़े। अच्छा है, बीमारी पकड़े, उसके पहले सम्हल जाएं; बजाय इसके कि बीमारी पकड़ जाए और फिर बिस्तर पर लगें और चिकित्सा हो।
आसक्ति के निर्मित होने के पहले ही जाग जाना जरूरी है। कृष्ण तीसरी बात कहते हैं कि अर्जुन, अगर वस्तुओं में तू अनासक्त रह सके, तो भी वहीं पहुंच जाएगा।
एक अदभुत ग्रंथ है भारत में। और मैं समझता हूं, उस ग्रंथ से अदभुत ग्रंथ पृथ्वी पर दूसरा नहीं है। उस ग्रंथ का नाम है, विज्ञान भैरव। छोटी-सी किताब है। इससे छोटी किताब भी दुनिया में खोजनी मुश्किल है। कुल एक सौ बारह सूत्र हैं। हर सूत्र में एक ही बात है। हर सूत्र में एक ही बात! पहले सूत्र में जो बात कह दी है, वही एक सौ बारह बार दोहराई गई है--एक ही बात! और हर दो सूत्र में एक विधि पूरी हो जाती है।
पार्वती पूछ रही है शंकर से, शांत कैसे हो जाऊं? आनंद को कैसे उपलब्ध हो जाऊं? अमृत कैसे मिलेगा? और दो-दो पंक्तियों में शंकर उत्तर देते हैं। दो पंक्तियों में वे कहते हैं, बाहर जाती है श्वास, भीतर आती है श्वास। दोनों के बीच में ठहर जा; अमृत को उपलब्ध हो जाएगी। एक सूत्र पूरा हुआ। बाहर जाती है श्वास, भीतर आती है श्वास; दोनों के बीच ठहरकर देख ले, अमृत को उपलब्ध हो जाएगी।
पार्वती कहती है, समझ में नहीं आया। कुछ और कहें। और शंकर दो-दो सूत्र में कहते चले जाते हैं। हर बार पार्वती कहती है, नहीं समझ में आया। कुछ और कहें। फिर दो पंक्तियां। और हर पंक्ति का एक ही मतलब है, दो के बीच ठहर जा। हर पंक्ति का एक ही अर्थ है, दो के बीच ठहर जा। बाहर जाती श्वास, अंदर जाती श्वास। जन्म और मृत्यु; यह रहा जन्म, यह रही मौत; दोनों के बीच ठहर जा। पार्वती कहती है, समझ में कुछ आता नहीं। कुछ और कहें।
एक सौ बारह बार! पर एक ही बात, दो विरोधों के बीच में ठहर जा। प्रीतिकर-अप्रीतिकर, ठहर जा--अमृत की उपलब्धि। पक्ष-विपक्ष, ठहर जा--अमृत की उपलब्धि। आसक्ति-विरक्ति, ठहर जा--अमृत की उपलब्धि। दो के बीच, दो विपरीत के बीच जो ठहर जाए, वह गोल्डन मीन, स्वर्ण सेतु को उपलब्ध हो जाता है।
यह तीसरा सूत्र भी वही है। और आप भी अपने-अपने सूत्र खोज सकते हैं, कोई कठिनाई नहीं है। एक ही नियम है कि दो विपरीत के बीच ठहर जाना, तटस्थ हो जाना। सम्मान-अपमान, ठहर जाओ--मुक्ति। दुख-सुख, रुक जाओ--प्रभु में प्रवेश। मित्र-शत्रु, ठहर जाओ--सच्चिदानंद में गति।
कहीं से भी दो विपरीत को खोज लेना और दो के बीच में तटस्थ हो जाना। न इस तरफ झुकना, न उस तरफ। समस्त योग का सार इतना ही है, दो के बीच में जो ठहर जाता, वह जो दो के बाहर है, उसको उपलब्ध हो जाता है। द्वैत में जो तटस्थ हो जाता, अद्वैत में गति कर जाता है। द्वैत में ठहरी हुई चेतना अद्वैत में प्रतिष्ठित हो जाती है। द्वैत में भटकती चेतना, अद्वैत से च्युत हो जाती है। बस, इतना ही।
लेकिन मजबूरी है--चाहे शिव की हो, और चाहे कृष्ण की हो, या किसी और की हो--वही बात फिर-फिर कहनी पड़ती है। फिर-फिर कहनी पड़ती है। कहनी पड़ती है इसलिए, इस आशा में कि शायद इस मार्ग से खयाल में न आया हो, किसी और मार्ग से खयाल आ जाए।
एक सूत्र और।


ये हि संस्पर्शजा भोगा दुःखयोनय एव ते।
आद्यन्तवन्तः कौन्तेयतेषु रमते बुधः।। 22।।

और जो ये इंद्रिय तथा विषयों के संयोग से उत्पन्न होने वाले सब भोग हैं, वे यद्यपि विषयी पुरुषों को सुखरूप भासते हैं, तो भी निस्संदेह दुख के ही हेतु हैं, और आदि-अंत वाले अर्थात अनित्य हैं। इसलिए हे अर्जुन! बुद्धिमान विवेकी पुरुष उनमें नहीं रमता।


इंद्रियों और वासनाओं के मेल से प्रतीत होने वाले सुख अंततः दुख ही हैं। और शुरू होते हैं और समाप्त होते हैं; शाश्वत नहीं हैं, सनातन नहीं हैं; सदा साथ रहने वाले नहीं हैं। क्षणिक हैं। ऐसा जान लेने वाला पुरुष उनसे मुक्त होने लगता है।
दो बातें हैं। एक, जो हमें सुख जैसा भासता है, वह सुख नहीं है। भासता है निश्चित। है नहीं; उससे भी ज्यादा निश्चित। एपियरेंस, भासना किसी चीज का, तब तक पक्का पता नहीं चलता, जब तक उसके पास न जाएं। अंधेरी है रात, दूर से देखता हूं, दिखाई पड़ता है कि शायद कोई आदमी खड़ा है। और पास आता हूं, तो लगता है, नहीं, आदमी नहीं है; शायद लकड़ी का कोई डंडा पोता हुआ है! और पास आता हूं, तो लगता है, नहीं, लकड़ी का कोई डंडा नहीं, वृक्ष से कोई कपड़ा लटकता है। जैसे-जैसे पास आता हूं, वैसे-वैसे जो दूर से जाना था, वह बदलता है। अंतिम निर्णय तो वही होगा, जो ठेठ बिलकुल पास आकर होगा। दूर के निर्णय अंतिम नहीं माने जा सकते।
सुख जब तक नहीं मिलता, तब तक तो सुख मालूम पड़ता है। लेकिन मिलते से किसे मालूम पड़ता है! हाथ में आने पर किसे मालूम पड़ता है! हाथ में आने पर अचानक लगता है कि खो गया। निश्चित ही, पास का निर्णय ही अंतिम निर्णय है।
आपने भी अपनी जिंदगी में बहुत सुख पाए होंगे, लेकिन पाकर किस सुख को सुख पाया! पा भी नहीं पाते कि दूसरे सुख की तलाश शुरू कर देते हैं। क्यों कर देते हैं? अगर सुख मिल गया, तो अब ठहरकर उसे भोग लो! सुख तो मिलता नहीं; ठहरकर भोगें क्या? फिर दिखाई पड़ता है, कल, भविष्य में; फिर दौड़ते हैं। वहां पहुंचते नहीं कि पाते हैं कि वहां भी खो गया!
सुख जब हाथ में आता है, तब निर्णायक रूप से तय होता है कि सुख नहीं है। और जब तक दूर रहता है, तब तक निश्चित मालूम पड़ता है कि सुख है। इंद्रधनुष जैसा है। दिखाई पड़ता है; लेकिन इंद्रधनुष के पास मत जाना। वह रेनबो वर्षा में बन जाता है आकाश में। कितना सुंदर! मन होता है कि बांधकर घर के बैठकखाने में लगा लें। जाना मत। वहां जाकर कुछ भी नहीं मिलेगा।
अगर पहुंच गए इंद्रधनुष के पास--पास भी न पहुंच सकेंगे, क्योंकि जैसे-जैसे पास पहुंचेंगे, वह खोने लगेगा--जब पास पहुंचेंगे, तो सिवाय भाप के बादलों के और उनमें से गुजरती सूरज की किरणों के वहां कुछ भी नहीं मिलेगा। कोई रंग नहीं, कोई रूप नहीं, कोई आकार नहीं। लेकिन कितना प्यारा लगता है इंद्रधनुष दूर से! कितना काव्य की तरह आकाश में खिंचा हुआ! कैसा मन करता है कि बांध लो घर में!
ध्यान रहे, जहां-जहां इंद्रधनुष दिखाई पड़ते हैं सुख के, वहां-वहां यही हालत है। जब पास जाएंगे, तो सिर्फ धुआं ही हाथ में लगता है। कुछ भी हाथ में नहीं मिलता!
कृष्ण कहते हैं, सुख प्रतीत होता है, सुख है नहीं। ऐसा जो समझ लेगा ठीक से, स्वभावतः उसकी वासना उठकर, इंद्रियों से मिलकर आसक्ति बनना बंद कर देगी।
दूसरी बात वे कहते हैं, यह भी स्मरण रख अर्जुन, कि यह भी सुख जो कि दिखाई पड़ता है, न होने की हालत में है। अगर कोई इस भ्रम में भी पड़ता हो कि नहीं, है। जैसा कि अज्ञानी को लगता है कि है। वह कहेगा कि कितना ही समझाओ कि नहीं है, लेकिन मैं कैसे मानूं! मैं कैसे मानूं कि उस बड़े महल में पहुंच जाऊंगा, तो सुख नहीं होगा? यद्यपि वह कभी नहीं पूछता उस बड़े महल में रहने वाले से कि अगर बड़े महल में रहने वाले को सुख मिल गया है, तो अब वह किसके लिए दौड़ रहा है? अब उसे सुख ले लेना चाहिए। वह दौड़ रहा है; वह भागा हुआ है। उसे बड़े महल का पता ही नहीं है। बड़ा महल उन्हीं को दिखाई पड़ता है, जो झोपड़ों में हैं। जो बड़े महल में हैं, उनको दिखाई ही नहीं पड़ता। उनके लिए और बड़े महल हैं! वे दिखाई पड़ते हैं, जिनमें वे नहीं हैं। जहां वे नहीं हैं।
मन की आदत ऐसी है कि अगर आपका एक दांत टूट जाए, तो जीभ वहीं-वहीं जाती है, जहां दांत टूट गया है। बाकी दांतों को छोड़ देती है, जो हैं; और जो नहीं है, उसके साथ बड़ा लगाव बना लेती है। पता नहीं क्या दिमाग खराब हो जाता है जीभ का! और एक दफे देख लिया कि नहीं है, अब दुबारा क्या देखना? लेकिन जीभ है कि देखे चली जाती है। उन दांतों को कभी नहीं देखती, जो हैं। जो नहीं है, अभाव, एब्सेंस का जो गङ्ढा बन जाता है, उसी में जीभ जाती है। मन भी जहां-जहां अभाव है, वहीं जाता है।
महल जिसके पास है, उसको महल नहीं दिखाई पड़ता। उसकी जीभ महल पर नहीं जाती। उसके लिए कहीं कोई और चीज है, जो नहीं है। उसकी जीभ वहां चली जाती है।
मैंने सुनी है एक इजिप्शियन कहानी। मैंने सुना है कि एक इजिप्शियन फकीर से परमात्मा प्रसन्न हो गया। बहुत प्रसन्न हो गया, तो उस फकीर को कहा कि तुझे जो चाहिए वह मांग ले। उसने कहा कि आपकी जो मर्जी हो! तो परमात्मा ने, कहते हैं, उसे एक फल दे दिया और कहा कि इसे जो खा लेगा, वह अमर हो जाएगा। लेकिन उस फकीर ने कहा कि दो आदमी खाएं, तो दो हो सकते हैं? परमात्मा ने कहा, नहीं, एक!
उस फकीर का अपने शिष्य से बड़ा प्रेम था। उसने सोचा कि अगर मैं अमर हो गया और शिष्य मर गया, कोई सार नहीं है। उसके बिना तो मेरा कोई सुख ही नहीं है। उसने शिष्य को कहा कि तू यह ले ले। तू अमर हो जा। पर उस शिष्य का एक लड़की से प्रेम था। उसने सोचा, मैं अकेला अमर हो गया, तो बिलकुल बेकार! वह उस लड़की को दे आया। पर उस लड़की का गांव के एक सिपाही से प्रेम था। उसने कहा कि मैं अमर हो गई! वह उस सिपाही को दे आई। लेकिन उस सिपाही का लगाव राजा की स्त्री से लगा हुआ था। वह रात जाकर उसको दे आया। उस स्त्री ने सोचा कि मैं अगर खाकर अमर हो जाऊं, तो मेरे बेटे का क्या होगा? उसका भारी लगाव, उसने बेटे को दे दिया। बेटे का अपने बाप से बहुत प्रेम था। उसने कहा, मैं तो ठीक, लेकिन पिता बुजुर्ग हुए। उनकी मौत करीब है। मैं तो अभी इसके बिना भी बहुत दिन जी लूंगा। उसने पिता को दे दिया। लेकिन पिता फकीर का भक्त था; उसी फकीर का। उसने सोचा कि हमारे रहने न रहने का क्या सवाल! वह फकीर रहे जमीन पर, तो हजारों के काम आएगा। वह जाकर फकीर के चरणों में फल रखा। फकीर ने फल देखा। उसने कहा, यह फल आया कैसे तुम्हारे पास!
सब कहीं और जी रहे हैं। सब कहीं और! कोई वहां नहीं जी रहा है, जहां है। कहीं और! सब दौड़ रहे हैं किसी और के लिए। सब भागे हुए हैं; कोई खड़ा हुआ नहीं है। यह जो भागा हुआ पन है...।
अगर कृष्ण कहते हैं कि अज्ञानी ऐसा भी कहते हों कि नहीं, हमें मिला नहीं, हम कैसे मान लें! हो सकता है, अर्जुन मान ले; सब सुख उसने जाने हैं। आप शायद न मानें; बहुत सुख नहीं जाने हैं। क्या पता हमें, जो सुख हमें मिले नहीं, वे हैं या नहीं?
तो कृष्ण दूसरा सूत्र उनके लिए कहते हैं, जो मान न पाएं। जिन्होंने सुख न देखे हों, उनके लिए वे कहते हैं कि अगर सुख हों भी--हाइपोथेटिकली, बातचीत के लिए मान लें कि सुख है भी--तो भी सुख शुरू होता और समाप्त हो जाता है।
और ध्यान रहे, जो सुख शुरू होता है और समाप्त हो जाता है, वह अगर हो भी, तो परिणाम में सिवाय दुख के कुछ भी नहीं छोड़ जाएगा। क्योंकि सुख के बाद दुख की छाया हो जाएगी। ऐसे ही जैसे कभी रास्ते से गुजर रहे हों, अंधेरी रात हो, और जोर से कोई कार आपकी आंखों में प्रकाश डालती हुई गुजर जाए। पीछे और घनघोर अंधेरा हो जाता है। पहले कुछ दिखाई भी पड़ता था, अब वह भी दिखाई नहीं पड़ता।
सुख मिले भी, तो समाप्त होता है क्षण में। यह भी कृष्ण उनके लिए कह रहे हैं, जो नहीं जानते। जो जानते हैं, वे तो कहते हैं, एक क्षण को भी नहीं मिलता। लेकिन अज्ञानी के लिए इतना छोड़ते हैं कि शायद क्षणभर को मिले भी, तो शुरू हुआ कि समाप्त हुआ। इधर शुरू नहीं हुआ कि उधर समाप्त होना शुरू हो जाता है। इधर जन्मा नहीं कि उधर मरा। इधर लहर बनी नहीं कि बिखरी। इधर किरण उतरी नहीं कि खोई। आता भी नहीं है हाथ में कि जाने की तैयारी करके आता है। ऐसा सुख मिल भी जाए यदि, तो पीछे सिवाय दुख के घाव के कुछ भी नहीं छोड़ जाता है। ऐसा भी जो जान ले, वह भी विषयों, वृत्तियों के तालमेल को निर्मित नहीं होने देता। अनासक्त, वीतराग, स्वयं में ठहरा हुआ हो जाता है। और चेतना जहां ठहर जाती है अर्जुन, कृष्ण कहते हैं, वहीं परम सत्ता में प्रवेश कर जाती है।
आज इतना ही। बैठे रहेंगे। उठेगा कोई भी नहीं। पांच मिनट कीर्तन को पी जाएं, फिर चुपचाप चले जाएं।
आज इतना ही।


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