सूत्र:
नाणेण जाणई भावे,
दंसणेण या
सद्दहे।
चरित्तेणे निगिण्हाई,
तवेण परिसुज्झई।।
62।।
नादंसणिस्स नाणं,
नाणेण विणा न हुंति
चरण गुणा।
अगुणिस्स नत्थि मोक्खो,
नत्थि अमोक्खरस
निव्वाणं।।
63।।
हयं नाणं कियाहीणं,
हया अण्णाणओ
किया।
पासंतो पंगुलो दड्ढो,
धावमाणो
य अंधओ।। 64।।
संजोअसिद्धीइ फलं वयंति,
न हु एगचक्केण
रहो पयाइ।
अंधो य पंगु
य वणे समिच्चा,
ते संपडत्ता
नगरंपविट्टा।।
65।।
नाणेण जाणई
भावे--ज्ञान
से मनुष्य
जानता है।
दंसणेण
य सद्दहे--दर्शन
से श्रद्धा
उत्पन्न होती
है।
चरित्तेण निगिण्हाइ--चरित्र
से निरोध होता
है, निषेध
होता है।
ज्ञान
से हम जानते
हैं। लेकिन
जानना काफी
नहीं है। जानना
बहुत ऊपर-ऊपर
है। मात्र जान
लेने से श्रद्धा
पैदा नहीं
होती। जब तक
कि स्वयं
दर्शन न हो जाये, जब तक कि खुद
की आंखों से
हम न देख
लें--तब तक श्रद्धा
नहीं होती।
महावीर
ने देखा; हमने
सुना। जो
सुनकर जान
लिया, उससे
श्रद्धा पैदा
नहीं होगी।
कृष्ण ने कहा;
हमने सुना।
मान लिया
सुनकर। उससे
श्रद्धा पैदा
नहीं होगी। और
अगर तुमने
श्रद्धा किसी
भांति आरोपित
कर ली तो तुम
भटक जाओगे।
क्योंकि झूठी
श्रद्धा जीवन
को रूपांतरित
नहीं करती।
वही लक्षण है
झूठी श्रद्धा
का, कि
जीवन तो कहीं
और जाता है, श्रद्धा कुछ
और कहती है।
श्रद्धा कहती है,
त्याग; और
जीवन धन को
इकट्ठा करता
चला जाता है।
तो श्रद्धा
झूठी है, मिथ्या
है।
जब
जीवन और
श्रद्धा
साथ-साथ चलने
लगे, जब जीवन
श्रद्धा के
पीछे छाया की
भांति चलने लगे,
तभी जानना
की श्रद्धा
सच्ची है।
तो
महावीर कहते
हैं, श्रद्धा
मौलिक है।
श्रद्धा से जो
ज्ञान आविर्भूत
हो, वही
ज्ञान है। और
जब श्रद्धा से
ज्ञान आविर्भूत
होगा तो ज्ञान
से चारित्र्य
अपने-आप निष्पन्न
होता है।
जीवन
का आधार ज्ञान
पर मत
रखना--दृष्टि
पर, दर्शन पर
रखना। अधिक
लोगों ने जीवन
के आधार ज्ञान
पर रख लिए
हैं। तर्क से,
विचार से, बुद्धि से
जो बात ठीक
लगी है--सोचा, उसे स्वीकार
कर लें। लेकिन
जो तर्क से
ठीक लगा है वह
हृदय तक न जा
सकेगा, क्योंकि
तर्क की पहुंच
हृदय तक नहीं।
तर्क तो सिर्फ
खोपड़ी की
खुजलाहट है; बहुत
ऊपर-ऊपर है।
प्राणों को
आंदोलित नहीं
करता तर्क।
तर्क
के लिए कभी
किसी ने प्राण
दिये? तर्क
के लिए कभी
कोई शहीद हुआ?
तुम जिसके
लिए मर सको, वही
तुम्हारी
श्रद्धा है।
तुम जिसके
बिना जी न सको,
वही
तुम्हारी
श्रद्धा है।
तुम कहो
जीयेंगे तो
इसके साथ, इसके
बिना तो
मृत्यु हो
जायेगी--वही
श्रद्धा है।
जो जीवन से भी
बड़ी है, वही
श्रद्धा है।
जिसके लिए
जीवन भी
निछावर किया
जा सकता है, वही श्रद्धा
है।
तर्क
के लिए तुमने
कभी किसी को
जीवन निछावर
करते देखा? दो और दो चार
होते हैं--इस
सत्य का अगर
कोई प्रतिपादन
करता हो और
तुम तलवार
लेकर खड़े हो
जाओ, तो
क्या वह सत्य
की रक्षा के
लिए अपने जीवन
को देना
चाहेगा? मूढ़तापूर्ण मालूम
पड़ेगा।
दो और
दो चार होते
हैं, इसके लिए
मरने में कोई
सार न मालूम
होगा। वह कहेगा
कि तुम्हारी
मर्जी, दो
और दो पांच कर
लो कि दो और दो
तीन कर लो; लेकिन
दो और दो चार
कोई ऐसी बात
नहीं जिसके लिए
मैं जीवन को
गंवा दूं।
प्रेम
के लिए कोई
जीवन को गंवा
सकता है।
इसलिए
श्रद्धा प्रेम
की भांति है।
महावीर कहते
हैं, श्रद्धा
पर जीवन को
खड़ा करना।
महावीर की
श्रद्धा को
समझ लेना।
उनका विशेष
शब्द है: श्रद्धान।
यह तुम जिसे
साधारणतः
श्रद्धा कहते
हो उससे महावीर
का कोई
प्रयोजन नहीं
है। लोग कहते
हैं, हमारी
तो ईश्वर में
बड़ी श्रद्धा
है। जिसे तुमने
देखा नहीं, श्रद्धा
होगी कैसे? श्रद्धा कान
से नहीं होती,
श्रद्धा
आंख से होती
है।
इसलिए
श्रद्धा का
दूसरा नाम
महावीर
"दर्शन' कहते
हैं। श्रद्धा
और दर्शन
महावीर की
भाषा में
पर्यायवाची
हैं; एक ही
अर्थ रखते हैं,
उनमें जरा
भी फर्क नहीं
है।
इसलिए
तुम कहते हो, ईश्वर में
हमारी
श्रद्धा है।
देखा? अनुभव
किया? स्पर्श
हुआ? जीये उसमें? तुम्हारा
हृदय उसके साथ
धड़का? तुम
नाचे उसके साथ?
कोई पहचान
है? नहीं, तुम कहते हो
मान्यता है।
और लोग कहते
हैं, बड़े
बुजुर्ग कहते
हैं, सनातन
से चली आयी
बात, परंपरा
में है। लेकिन
इससे श्रद्धा
पैदा न होगी।
यह तुम्हारा
विश्वास है, श्रद्धा
नहीं।
विश्वास
और श्रद्धा का
भेद यही है।
विश्वास उधार; श्रद्धा
अपनी।
श्रद्धा होती
है निज की, विश्वास
ऐसा है जैसे
बाजार से खरीद
लाए कागज या
प्लास्टिक के
फूल और घर को
सजा लिया।
श्रद्धा ऐसे
है जैसे बीज
बोया, वृक्ष
को सम्हाला, पानी दिया, खाद दी--फिर
एक दिन फूल
आये और हवाएं
सुगंध से भर
गयीं।
श्रद्धा
के फूल
तुम्हारे
जीवन में लगते
हैं--उधार और बासे नहीं; किसी और से
नहीं; मांगे
हुए नहीं।
विश्वास
बड़ा सस्ता है।
इतने सस्ते
तुम सत्य को न
पा सकोगे।
सत्य जो
सर्वोपरि है, उसे तुम
विश्वास से न
पा सकोगे।
उधार कब किसने
सत्य को जाना
है!
उपनिषद
कहते हैं:
सत्यम् परं, परं
सत्यम्; सत्य
सर्वोत्कृष्ट
है और जो
सर्वोत्कृष्ट
है वही सत्य
है।
सर्वोत्कृष्ट
को इतने सस्ते
कैसे पा सकोगे?
अपने को
दांव पर लगाना
होगा। इसलिए
मैं कहता हूं,
दुकानदार
सत्य तक नहीं
पहुंचते; जुआरी
पहुंचते हैं।
क्योंकि सत्य
की पहली शर्त
यह है: अपने को
गंवाओ तो
मिलेगा; दांव
पर लगाओ तो
मिलेगा। यह
बिलकुल जुए
जैसा है।
मिलेगा कि
नहीं, यह
पक्का नहीं
है। तुम तो
गंवा दोगे
अपने को, तब
मिलेगा।
गंवाने के
पहले कोई
सुनिश्चित नहीं
कर सकता कि
मिलेगा ही।
इसलिए
दुकानदार, गणित, तर्क
बिठानेवाले
लोग विश्वास
से राजी हो
जाते हैं।
विश्वास मरा
हुआ है, लाश
है।
हां, महावीर को
दिखायी पड़ा
होगा। जो
उन्होंने कहा वह
उनकी श्रद्धा
थी; जो
तुमने सुना वह
तुम्हारा
विश्वास है।
इसलिए
खयाल रखना, अगर मैं कुछ
कह रहा हूं तो
वह मेरी
श्रद्धा है।
और तुमने अगर
सुनकर मान
लिया तो तुम
धोखे में पड़
गये।
तुम्हारे लिए
वह विश्वास
होगा। चूंकि
मेरे लिए
श्रद्धा है, इसलिए
तुम्हारे लिए
श्रद्धा न हो
जायेगी। जैसा
मैंने देखा, तुम भी
देखो।
तो मैं
तुम्हें
श्रद्धा नहीं
दे सकता; मैं
तुम्हें सिर्फ
कुछ इशारे दे
सकता हूं, जिनसे
तुम भी आंख खोलो
और देखो। जब
तुम देख लोगे
तभी श्रद्धा
होगी। फिर
तुम्हारे
देखे को कोई
छीन न सकेगा।
क्योंकि
देखते ही हृदय
में विराजमान
हो जाता है।
इसलिए
महावीर ने श्रुतियों
को, स्मृतियों
को, सभी को
इनकार कर दिया;
वेद को
इनकार कर
दिया। यह शब्द
विचारणीय है।
हिंदू
कहते हैं, वेद उपनिषद श्रुतियां
हैं। सुना ऐसा
हमने; ऐसा सदपुरुषों
ने कहा; ऐसा
जो जागे, उनका
बोध
है--श्रुति!
फिर हमने उसे
याद रखा; सदियों
सदियों तक
सम्हाला
धरोहर की
तरह--स्मृति!
सभी शास्त्र
पहले श्रुति
बनते, फिर
स्मृति बन जाते।
महावीर ने कहा,
न श्रुति न
स्मृति--श्रद्धा।
शास्त्र
को तुम्हें
स्वयं ही
निर्मित करना
होगा।
तुम्हारा
शास्त्र
तुम्हें जन्म
देना होगा।
ऐसे गोद लिए
शास्त्र काम न
पड़ेंगे।
फर्क
देखा! एक
स्त्री मां
बनती है--गोद
लेकर मां बन
जाती है। ऐसा
मां बनने का
धोखा देती है।
न तो गर्भ रहा, न गर्भ की
पीड़ा सही, न
नौ महीने के
लंबे कष्ट
भोगे, न
वमन हुआ, न
दर्द उठा, न
मितली आयी, न बोझ सहा, फिर प्रसव
की पीड़ा भी न
सही, कि
जैसे प्राण
संकट में पड़े,
कि बचेंगे
कि न
बचेंगे।...उस
अज्ञात जीवन
के लिए जो पेट
में है अपने
ज्ञात जीवन को
दांव पर
लगाया--उस
अनजान के लिए
जो अभी आया
नहीं; कौन
है, कैसा
है, कुछ
पता नहीं है; जो ज्ञात है,
परिचित है,
पहचाना है,
उसको खतरे
में डाला; अपने
प्राण जोखिम
में डाले।
तो एक
तो मां बनती
है गर्भ को
धारण करके।
फिर होशियार
लोग हैं। वे
कहते हैं, "इतनी
परेशानी में
क्या पड़ना!
बच्चे तो गोद
भी लिए जा
सकते हैं।' गोद ले लो।
लेकिन गोद
लेने में और
गर्भ लेने में
बड़ा फर्क है।
कामचलाऊ मां
पैदा हो
जायेगी, लेकिन
असली मां पैदा
न होगी।
क्योंकि असली
मां तो तभी
पैदा होती है
जब बच्चा पैदा
होता है।
जब
बच्चा पैदा
होता है तो दो
चीजों का जन्म
होता
है--बच्चे का
और मां का। एक
तरफ बच्चा
पैदा होता है, दूसरी तरफ
मां पैदा होती
है। अभी कल तक
जो एक साधारण
स्त्री थी, अचानक मां
बन जाती है!
बच्चे को
तुमने गोद में
ले लिया तो
बच्चा तो कभी
पैदा नहीं हुआ;
तुमसे तो
पैदा नहीं
हुआ। तो मां
बनने का धोखा पैदा
होता है।
विश्वास
ऐसा ही है--गोद
लिया हुआ
सत्य। श्रद्धान, श्रद्धा ऐसे
है--जन्म दिया
हुआ सत्य। और
कोई दूसरा
तुम्हारे
सत्य को कैसे
जन्म दे
सकेगा!
बड़ी
पुरानी कहानी
है सोलोमन के
जीवन में। दो
स्त्रियां
सोलोमन की
अदालत में आयीं।
वे दोनों दावा
कर रही थीं एक
ही बच्चे का
कि वह उसकी
मां है। बड़ी
कठिनाई थी।
कैसे तय किया
जाये? सोलोमन
ने कहा, ठीक
है। एक-एक को
पास बुलाया और
कान में कहा
कि सुन, तय
करना तो
मुश्किल हो
रहा है। कोई
गवाह नहीं, कोई चश्मदीद
गवाह नहीं है।
तो उचित यही
है कि आधा-आधा
बच्चा बांट
देते हैं। तो
जिसका बच्चा
था वह तो चीख
मारकर रो उठी।
उसने कहा कि
नहीं, ऐसा
मत करना; फिर
पूरा ही उसे
दे दो। लेकिन
जिसका बच्चा
नहीं था, उसने
कहा कि ठीक है,
न्याययुक्त
है, तर्कयुक्त
है--आधा-आधा
बांट दो। जो
चीख उठी थी।
और जिसने तर्क
का सहारा न
लिया था, हृदय
का सहारा लिया
था, उसने
कहा कि
नहीं-नहीं, फिर उसे ही
दे दो; मेरा
नहीं है, उसी
का है।
सोलोमन
ने उसी को
बेटा दे दिया।
हृदय ने गवाही
दे दी, किसका
है!
यह तो
कहानी पुरानी
हो गयी।
एक
मनोवैज्ञानिक
का जीवन मैं
पढ़ रहा था।
उसने इस कहानी
के बाबत चर्चा
की है। और
उसने लिखा है
अगर आज अमरीका
की किसी अदालत
में यह मामला
आये और जज तय न
कर पाये, तो
वह
मनोवैज्ञानिक
को बुलायेगा।
क्योंकि अब तो
अमरीका में
मनोवैज्ञानिक
से पूछा जाता
है कि क्या
करना, ये
दोनों
स्त्रियां
दावा करती हैं,
इनमें कौन
झूठी है? और
मनोवैज्ञानिक
सोलोमन की
तरकीब का
उपयोग करें, तो जो स्त्री
कहे, कि "लूंगी तो
पूरा, नहीं
तो पूरा दे
दूंगी', वह
थोड़ा रुग्ण
चित्त की
मालूम पड़ेगी।
जिद्दी! हठाग्रही!
एकांतवादी!
समझदार आदमी
तो
समझौतावादी
होता है।
बुद्धिमान तो
सभी
समझौतावादी
होते हैं। वे
कहते हैं, जहां
पूरा न मिलता
हो वहां आधा
ले लो। तो
मनोवैज्ञानिक
उस स्त्री
को--जो कहेगी
कि ठीक है, मैं
आधा लेने को
राजी
हूं--कहेगा
स्वस्थ है, नार्मल है। और यह
स्त्री तो आब्सैस्ड
है, जो
कहती है पूरा लूंगी, नहीं
तो पूरा दे
दूंगी, यह
तो पागलपन से
भरी है।
तो उस
मनोवैज्ञानिक
ने कहा है, अगर आज यह
घटना घटे तो
अमरीका की
अदालत बच्चा
उसको दे देगी
जो आधा लेने
को राजी थी, क्योंकि वह
पागल नहीं है।
तर्कयुक्त है
उसका उत्तर, विचारपूर्ण
है। यह कौन-सी
समझदारी है कि
अगर पूरा न
मिलता हो तो
आधा भी छोड़
दो। जितना
मिलता हो उतना
तो ले लो!
मध्यमार्ग
चुनो। अति पर
तो मत जाओ!
जो लोग
बुद्धि से
चलते हैं, वे होशियारी
से चलते हैं।
जो श्रद्धान
से चलते हैं, वे दीवाने
होते हैं।
इसलिए तो
बुद्धि के लिए
प्रेम सदा
अंधा मालूम
होता है।
बुद्धि कहती
है, थोड़ा
सोचो, समझो,
विचारो,
हिसाब बिठाओ।
महावीर
कह रहे हैं कि
ज्ञान से तो
मनुष्य केवल
जानता है।
जानना यानी
परिचय बाहर-बाहर।
हृदय तक बिधती
नहीं बात।
श्रद्धा से, दर्शन से
बिधती है हृदय
तक--रोएं-रोएं
में समा जाती
है; श्वास-श्वास
में प्रविष्ट
हो जाती है।
इसलिए तुम
ज्ञान को पकड़कर
मत बैठे रह
जाना।...नाणेण
जाणई
भावे--ज्ञान
से तो बस
जानना मात्र
होता है। "एक्वेंटेन्स'। ऐसा परिचय
बन जाता है।
जैसे
तुमने हिमालय
के संबंध में
कुछ बातें भूगोल
की किताब में
पढ़ी हैं--क्या
यह जानना वही
है जो उसके
लिए प्रगट
होता है, जिसने
हिमालय के
दर्शन किए, जिसकी आंखों
ने हिमालय की
शीतलता को पीया,
जिसकी
आंखों ने
हिमालय के
सौंदर्य को
अपने में
प्रविष्ट
होने दिया, जो हिमालय
की घाटियों और
शिखरों पर
घूमा, जिसने
हिमालय का
स्पर्श किया?
क्या यह
जानना वही है
जो भूगोल की
किताब से मिल
जाता है? भूगोल
की किताब में
तो कोरे
कागजों पर
स्याही के
काले चिह्न
हैं और कुछ भी
नहीं। कहां वे
स्वर्ण-शिखर!
कहां वे बर्फ
से ढंके
हुए शीतल
अछूते, कुंवारे लोक!
आंखें--आंखें
ही केवल सत्य
को देख
सकेंगी। कही-सुनी
पर बहुत ध्यान
मत देना।
देखा-देखी
बात! देखो तो
ही कुछ बात
हुई।
लिखा-लिखी की
है नहीं, देखा-देखी
बात।
नाणेण जाणई भावे, दंसणेण य सद्दहे।
"दर्शन से ही
श्रद्धा
उत्पन्न होती
है।'
श्रद्धा
का अर्थ है, जुड़ गये तार
तुम्हारे
हृदय से; बात
बुद्धि की न
रही; बात
केवल मत न रही,
"ओपिनियन'
न रही। अब
ऐसा नहीं कि
ऐसा हम सोचते
हैं--ऐसा है।
श्रद्धा का
अर्थ हुआ: ऐसा
है। ऐसा नहीं
कि हम सोचते
हैं; ऐसा
नहीं कि और
लोग कहते हैं;
ऐसा नहीं कि
जाननेवालों
ने कहा है; ऐसा
नहीं कि हमने
सुना है--ऐसा
है।
विवेकानंद
परमात्मा की
खोज में भटकते
थे। अनेक
गुरुओं के पास
गये। पूछा, ईश्वर है? विवेकानंद
की निष्ठा और
विवेकानंद की
जलती हुई खोज!
जिससे पूछते
वह घबड़ा जाता।
वे बलशाली व्यक्ति
थे। वे ऐसे
पूछते कि अगर
उत्तर ठीक न मिला
तो शायद चढ़
पड़ेंगे, शायद
गर्दन दबा
देंगे।
रामकृष्ण के
पास भी गये।
औरों ने ईश्वर
के बाबत चर्चा
की थी। उसमें कई
बड़े-बड़े लोग
थे। उसमें
रवींद्रनाथ
के दादा थे; वे महर्षि
समझे जाते थे।
उनके पास भी
विवेकानंद
पहुंच गये थे।
वे एक बजरे
में रहते थे
नाव में। आधी
रात तैरकर
नाव में चढ़
गए। पूरी नाव
कंप गयी। वे
ध्यान कर रहे
थे अंदर।
दरवाजा धक्का
देकर तोड़
दिया। भीतर पहुंच
गये पागल की
तरह। आधी रात!
पानी में सरोबोर!
पूछा, "क्या
बात है युवक!
कैसे आये?' तो
विवेकानंद ने
कहा, "ईश्वर
है?' तो
उन्होंने कहा,
"बैठो मैं
तुम्हें
समझाऊंगा।' विवेकानंद
ने कहा, "मैं
समझने नहीं
आया। मैं यह
जानना चाहता
हूं, ईश्वर
है? ऐसा
तुम्हें
अनुभव हुआ है?'
झिझके
महर्षि!
विवेकानंद
छलांग लगाकर
नदी में कूद
गये। बुलाया
कि "सुनो, आये...चले?'
विवेकानंद
ने कहा, झिझक
ने सब कह
दिया। समझने
मैं आया नहीं,
जानने मैं
आया नहीं। मैं
तो यह पूछने
आया हूं कि
तुमने देखा है?
मैं किसी
ऐसे आदमी की
तलाश में हूं,
जिसका हाथ
ईश्वर के हाथ
में हो।
शास्त्र तो मैं
भी पढ़ लूंगा।
शास्त्र ही
समझना हो तो
तुमसे क्या
समझेंगे, खुद
ही पढ़ लेंगे।
फिर
रामकृष्ण के
पास भी वही
सवाल किया था, कि ईश्वर है?
तो रामकृष्ण
ने क्या उत्तर
दिया? रामकृष्ण
ने कहा, तुम्हें
जानना है? विवेकानंद
झिझके! "अभी
जानना है कि
थोड़ी देर रुकोगे?'
विवेकानंद
ने कहा, मैंने
सोचा नहीं। यह
तो मैंने सोचा
ही न था कि कोई
इस तरह पूछेगा
जैसे कि पास
के कमरे में
है ईश्वर, दरवाजा
खोला कि दिखा
देंगे!
रामकृष्ण
ने कहा, उस
कमरे से भी
पास है।
तुम्हारे
भीतर है! मेरे भीतर
है! तुम कहो तो
मैं दिखा दूं।
और तुमने अभी
तैयारी न की
हो तो सोचकर आ
जाना।
और
इसके पहले कि
विवेकानंद
कुछ
कहें--रामकृष्ण
तो थोड़े
पागल-से आदमी
थे--उन्होंने
विवेकानंद की
छाती पर पैर
लगा दिया। विवेकानंद
धड़ाम से
गिर पड?।
बेहोश हो गये।
घंटेभर
बाद जब होश
में आये तो
कंप रहे थे
पत्ते की तरह तूफान
में! रोने
लगे। क्योंकि
जो दिखाया, जो प्रतीति
हुई उस घड़ी
में, उसने
सारा, सारा
जीवन बदल
दिया। फिर
रामकृष्ण से
बहुत भागने की
कोशिश की, बहुत
भागने की
कोशिश की, सब
उपाय
किए--लेकिन
भाग न सके। इस
आदमी ने विवेकानंद
की आंखें किसी
तरफ खोल दीं।
अब यह
सवाल ज्ञान का
न रहा। इसको
महावीर श्रद्धान
कहते हैं।
श्रद्धा हुई।
यह गैर
पढ़ा-लिखा आदमी
रामकृष्ण, महर्षि देवेंद्रनाथ
को हरा दिया।
वे बड़े ज्ञानी
थे, बड़े
पंडित थे, ब्रह्म-समाज
के जन्मदाताओं
में एक थे।
लेकिन श्रुति
थी, स्मृति
थी--श्रद्धान
न था।
महावीर
कहते हैं, ज्ञान से
जाना जाता है;
दर्शन से
श्रद्धा होती
है। और जब
श्रद्धा होती
है तो चरित्र
का जन्म होता
है। क्योंकि
जिस पर
श्रद्धा ही
नहीं है वह
तुम्हारे
चरित्र में
कभी न उतर
सकेगा। उतार
लोगे तो पाखंड
होगा। ऊपर-ऊपर
होगा। किसी और
को दिखाने को
होगा।
अंतर्तम में
तुम विपरीत
रहोगे, भिन्न
रहोगे। बाहर
के दरवाजे से
एक, भीतर
के दरवाजे से
दूसरे रहोगे।
कहोगे कुछ, करोगे कुछ।
वह तुम्हारे
चरित्र में न
आ सकेगा।
चरित्र में तो
कोई बात तभी
आती है जब श्रद्धा
की भूमि में
बीज पड़ता है।
जीसस
ने कहा है, किसान बीज
फेंकता है।
कुछ रास्ते पर
पड़ जाते हैं, जहां पथरीली
जगह है; कभी
उगते नहीं।
कुछ रास्ते के
किनारे पड़
जाते हैं, जहां
जमीन तो ठीक
है, लेकिन
लोग गुजरते
हैं, पैरों
में दब
जाते हैं; उग
भी आते हैं तो
मर जाते हैं।
कुछ उस भूमि
में पड़ते हैं,
गीली, कोमल--जहां
पैदा भी होते
हैं, सुरक्षित
भी रह जाते
हैं।
तो जब
तक कोई ज्ञान
तुम्हारी
श्रद्धा न बन
जाये, जब तक
हृदय की भूमि
में कोई बीज न
पड़े, जब तक
तुम्हारी
दृष्टि में
कोई बात सत्य
की तरह अनुभव
में न आ
जाये--तब तक
चारित्र्य का,
चरित्र का,
आचरण का कोई
रूपांतरण
नहीं होता।
हां, तुम
चेष्टा करके
रूपांतरण कर
सकते हो।
बहुतों ने यही
किया है।
ज्ञान
से सीधा
चरित्र
निर्मित किया
जा सकता है--लेकिन
वही चरित्र
पाखंडी, हिपोक्रेट
का चरित्र है।
जो ज्ञान से
सीधा चरित्र
पर चला गया, वह अपने ऊपर
एक तरह का
आरोपण कर
लेगा। वह सत्य
बोलेगा, लेकिन
झूठ से उसकी
मुक्ति न
होगी। झूठ
भीतर-भीतर उबलेगा,
सत्य
ऊपर-ऊपर
थोपेगा। वह
अहिंसक हो
जायेगा, लेकिन
हिंसा भीतर
दावानल की तरह
जलती रहेगी। वह
ब्रह्मचर्य
का व्रत ले
लेगा, लेकिन
कामवासना
रोएं-रोएं में
मौजूद रहेगी। उसके
व्रत ऊपर-ऊपर
होंगे; जैसे
वस्त्र हैं
ऐसे होंगे; हड्डी, मांस,
मज्जा न
बनेंगे।
जब
ज्ञान
श्रद्धा के
माध्यम से
गुजरकर चरित्र
तक पहुंचता है, तब सम्यक
चारित्र्य
पैदा होता है।
चरित्र
से, जो
व्यर्थ है
उसका निरोध हो
जाता है।
चरित्र का
इतना ही अर्थ
है। महावीर के
हिसाब से
चरित्र का
अर्थ है:
व्यर्थ का
निरोध। इसे
खयाल में लेना,
क्योंकि
महावीर की
नकारात्मक
दृष्टि का बुनियादी
हिस्सा है।
महावीर यह
नहीं कहते कि
तुम्हें
ब्रह्मचर्य
आरोपित करना
है। ब्रह्मचर्य
तो आत्मा का
स्वभाव है; आरोपित करना
नहीं। आरोपित
तो इसलिए करना
पड़ता है कि
श्रद्धा से
कभी वासना का
सत्य, वासना
की व्यर्थता
तुम्हें
दिखायी नहीं
पड़ी। सुना
किसी को, ब्रह्मचर्य
की बातें मधुर
लगीं, तुम्हारे
अनुभव से भी
थोड़ी मेल खाती
लगीं। जीवन के
दुख से भी तुम
ऊब गये हो, परेशान
हो गये हो। तो
लगा कि ठीक ही
है, उचित
ही है। ऐसा उचित
मानकर तुमने
ब्रह्मचर्य
आरोपण करना
शुरू किया। तो
ब्रह्मचर्य
को विधायक रूप
से आरोपित
करना होगा, पाजिटिव रूप से
आरोपित करना
होगा।
तुम्हें
चेष्टा करके
ब्रह्मचारी
बनना होगा।
महावीर
का कहना यह है, अगर तुम्हें
दिखायी पड़ गया
कि वासना
व्यर्थ है तो
ब्रह्मचर्य
आरोपित नहीं
करना पड़ता; वासना गिर
जाती है, जो
शेष रह जाता
है वही
ब्रह्मचर्य।
इस भेद को खूब
गहराई से समझ
लेना।
असत्य
गिरता है; सत्य तो--जो
शेष रह जाता
है, असत्य
के गिर जाने
पर जो शेष रह
जाता है, तुम्हारा
स्वभाव, वही
सत्य है।
इसलिए
महावीर कहते
हैं, चरित्र
से सिर्फ
निरोध होता है,
नकार होता
है, व्यर्थ
छूट जाता है।
सार्थक तो है
ही भीतर, व्यर्थ
से जुड़ गया
है। सार्थक को
लाना नहीं है।
आयोजन करके, निमंत्रण
देकर, अभ्यास
करके लाना
नहीं
है--सिर्फ
व्यर्थ को देख
लेना है।
व्यर्थ को
व्यर्थ की तरह
देख लेना पर्याप्त
है। व्यर्थ व्यर्थ
की तरह दिखा
कि हाथ से
छूटा, गिरा।
फिर तुम उसे
दुबारा न उठा
सकोगे। और तुम
जो उसके बिना
रह जाओगे, वही
सत्य है, वही
स्वभाव है। वह
तुम सदा से
थे।
इसका
अर्थ यह हुआ
कि तुम ठीक तो
हो ही, कुछ
गलत से
तुम्हारा
संबंध जुड़ गया
है। ठीक होना
तो सदा से ही
है; गलत से
संबंध जुड़ गया
है। गलत से
संबंध छूट
जाये, तुम
ठीक तो थे ही।
ऐसा नहीं है
कि तुम गलत हो
गए हो और
तुम्हें ठीक
होना है; ऐसा
ही है कि सोने
के ऊपर मिट्टी
की तह बैठ गयी,
धूल जम गयी,
दर्पण के
ऊपर धूल बैठ
गयी--बस धूल को
हटा देना है, पोंछ देना
है; दर्पण
तो दर्पण है
ही। धूल के
भीतर शुद्ध
दर्पण मौजूद
है। धूल ने
दर्पण को खराब
थोड़े ही किया
है! धूल से
दर्पण नष्ट
थोड़े ही हुआ
है! ढंक गया
है--उघाड़ना
है।
इसलिए
महावीर के लिए
आत्मा एक
आविष्कार है।
सिर्फ उघाड़ना
है। जैसे राख
में अंगारा
छिपा हो--फूंक
मारी, राख
गिर गयी, अंगारा
रह गया। ऐसे
ही दृष्टि की
फूंक जब लग
जाती है, राख
झड़ जाती है; जो शेष रह
जाता है, वही
चरित्र है।
"चरित्र
से निरोध होता
है और तप से
विशुद्धि होती
है।'
तप का
मैंने
तुम्हें कल
अर्थ कहा, वह खयाल
रखना। तप का
अर्थ है: जो
दुख आयें उन्हें
चुपचाप, बिना
ना-नुच किये, बिना
अस्वीकार किए
स्वीकार कर
लेना।
तप का
भी अर्थ इतना
ही है कि
पिछले-पिछले
जन्मों में, दूर की लंबी
यात्रा में, हमने जो दुख
के बीज बोए थे
उनके फल पक
गये हैं। उन्हें
कौन भोगेगा?
उन्हें
भोगना ही
होगा। तो जिसे
भोगना ही है, उसे दुख से
भोगना गलत है।
जिसे भोगना ही
है उसे सहज
स्वभाव से, सरलता से, शांति से
भोग लेना उचित
है। क्योंकि
अगर तुमने उसे
दुख से भोगा
तो तुमने फिर
दुख के बीज
बोये। तुमने
प्रतिक्रिया
की। तुम कहते
रहे कि चाहता
नहीं था, यह
क्या हो रहा
है? इनकार
करते रहे। तो
तुमने चाह की
फिर प्रदर्शना
की। तुम्हारी
चाह भीतर बनी
ही रही। तुम
सुख चाहते थे
और दुख मिल रहा
है--तो तुम
नाराज रहे, तुम क्रोधित
रहे। दुख तो
भोगना ही पड़ा।
लेकिन ये
क्रोध और
नाराजगी के
नये बीज बो
लिये। इनका
दुख फिर भोगना
पड़ेगा।
महावीर
कहते हैं, तुम चुपचाप,
बिना कोई
प्रतिक्रिया
किये, दुख
आये तो उसे
भोग लो। जैसे
दर्पण के
सामने सुंदर
व्यक्ति आ जाये
कि कुरूप
व्यक्ति आ
जाये, दर्पण
कोई इनकार
नहीं करता, दोनों को
झलका देता है।
फिर दोनों चले
जाते हैं, दर्पण
खाली रह जाता
है। तो महावीर
कहते हैं, सुख
आये तो पकड़ना
मत, दुख
आये तो धकाना
मत। सुख आये
तो समझना, किये
हुए
पुण्य-कर्मों
का फल है। दुख
आये तो समझना
कि किये हुए
पाप-कर्मों का
फल है।
निष्पक्ष, तटस्थ
दर्पण की
भांति खड़े
रहना: दोनों
आये हैं, दोनों
चले जायेंगे।
जो आता है वह
जाने को ही आता
है। जो आया है
वह जाने के
रास्ते पर ही
है। सुबह हो
गयी, सांझ
हो जायेगी।
सांझ हो गयी, सुबह हो
जायेगी। सूरज
ऊगा, सूर्यास्त
होने लगा।
इसलिए घबड़ाना
मत। तुम सिर्फ
चुपचाप खड़े
रहना।
तुम्हारी दृष्टि
कोरी रहे, दर्पण
की तरह
रहे--बिना
किसी पक्षपात
के, बिना
किसी विकल्प
के। कोई धारणा
मत बनाना। इस अवस्था
का नाम तप है।
तप से
आदमी शुद्ध
होता है। क्यों? क्योंकि तप
से जो अतीत है,
उससे
छुटकारा हो
जाता है। अतीत
है अशुद्धि...अतीत
से छुटकारा है
विशुद्धि।
अतीत से दबे
रहना है
अशुद्धि।
कचरा, कूड़ा-कर्कट
न-मालूम कितने
जन्मों का
छाती पर रखे हम
बैठे हैं! यह
है अशुद्धि।
इससे छुटकारा
पा जाना है
शुद्धि। और
जैसे ही कोई
शुद्ध हुआ, वैसे ही
महावीर कहते
हैं: जो है, हमारा
स्वरूप, स्वभाव,
उसकी छवि
उभरने लगती है;
उसका रूप
स्पष्ट होने
लगता है। और
एक से दूसरी
चीज जुड़ी है।
लेकिन शुरुआत
श्रद्धा से।
दर्शन, ज्ञान, चरित्र--इनको
महावीर ने
मोक्ष का
मार्ग कहा है।
जीवन बड़ा
संयुक्त है: बीज
से पौधा, पौधे
से वृक्ष, वृक्ष
में फलों का
लग जाना, फूलों
का लग जाना।
कहीं
बीच से शुरू
मत करना!
प्रारंभ से ही
प्रारंभ
करना। बहुत
लोग जल्दबाजी
में होते हैं।
वे सोचते हैं, "फूल तो
बाजार में मिल
जाते हैं।
क्यों इतनी परेशानी
उठानी? क्यों
इतनी झंझट
लेनी? जो सस्ते
में मिल जाता
है, वह
सस्ते में ले
लिया जाये।'
अभी
पश्चिम में
वैज्ञानिक
कहते हैं, जल्दी ही
टेस्ट-टयूब
में बच्चे
होने लगेंगे,
ताकि
स्त्रियों को
इतनी झंझट न
उठानी पड़े। यह
होगा। यह बीस
वर्षों के
भीतर होगा। यह
तुम्हारे
सामने होगा।
क्योंकि
स्त्रियों को
एक बार पता हो
गया कि बच्चे
टेस्ट-टयूब
में पैदा हो
सकते हैं, तो
जैसे ही मां
के पेट में गर्भाधारण
होगा, उसके
अंडे को
निकालकर
टेस्ट-टयूब
में रख दिया जायेगा।
फिर
वैज्ञानिक
उसकी फिक्र कर
लेंगे अस्पताल
में। यह मां
को नौ महीने
की उपद्रव, परेशानी, कठिनाई, पीड़ा
यह सब बच
जायेगी। यह सब
तो बच जायेगी,
लेकिन मां
भी पैदा न
होगी।
जरा
सोचो!
तुम्हारा
बच्चा
टेस्ट-टयूब
में पैदा हुआ, तो वह
तुम्हारा है
या किसी दूसरे
का है, क्या
फर्क पड़ता है?
टेस्ट-टयूब
अगर बदल गयी
हो भूल-चूक से क्लर्कों
की, तो
तुम्हें कभी
पता भी न
चलेगा कि
तुम्हारा है
या किसी और का
है! भेद ही
क्या है?
फिर
गणित का ऐसे
विस्तार होता
है। फिर
वैज्ञानिक
कहते हैं कि
जरूरी क्यों
हो कि
तुम्हारे ही
वीर्याणु से
तुम्हारा
बच्चा पैदा
हो। अच्छे
वीर्याणु मिल
सकते हैं। यह
बात सच है।
आदमी जब बीज
बोता है, खेती
करता है, फूल
लगाता है, तो
अच्छे से
अच्छे बीज
चुनता है। तुम
अपना बच्चा
पैदा करना
चाहते हो, अच्छे
से अच्छे बीज
चुनो। तुमसे
बेहतर बीज मिल
सकते हैं। तो
जल्दी ही, आज
नहीं कल जैसे
फूलों की
दुकानों पर
बीज पैकेट में
मिलते हैं, वैसे आज
नहीं कल
वैज्ञानिक
बच्चों के
वीर्याणु पैकेटों
में बेचने
लगेंगे। उसकी
पूरी योजनाएं
तैयार हैं।
इतना ही नहीं,
जैसे फूल के
पैकेट पर फूल
की तस्वीर बनी
होती है कि
कैसा फूल होगा
जब फूल होगा, बच्चे की
तस्वीर भी बनी
होगी कि कैसा
बच्चा होगा।
तो तुम चुनाव
कर सकते हो:
कैसी आंख
चाहिए, कैसे
बाल चाहिए, कैसा चेहरा
चाहिए, कितनी
ऊंचाई चाहिए,
लड़का चाहिए,
लड़की चाहिए,
वैज्ञानिक,
कवि--तुम
क्या चाहते हो?
लेकिन तब एक
बात पक्की है:
सब ठीक हो
जायेगा; बच्चा
तुम्हारा
नहीं होगा।
मां बनने से, पिता बनने
से, तुम
वंचित रह
जाओगे।
यह
होनेवाला है, क्योंकि
आदमी तकलीफों
से बहुत डरने
लगा है। तो
जहां-जहां
सुविधा मिले,
सब स्वीकार
कर लेता है।
अगर सुविधा के
कारण जीवन भी
गंवा दे तो भी
हर्ज नहीं, लेकिन
सुविधा
चाहिए।
तप का
अर्थ है: जीवन
संघर्षों से
गुजरता है, तूफान भी
आते हैं, कठिनाइयां
भी हैं--उनको
स्वीकार
करना। उनको शांत
भाव से
स्वीकार कर
लेना, तो
तुम्हारे
जीवन में
धीरे-धीरे
शुद्धि निखरेगी।
आत्मा प्रगाढ़
होगी। तुम
केंद्रित बनोगे,
आत्मवान बनोगे। और
एक से दूसरी
चीज जुड़ी है।
श्रद्धा से
शुरू करना।
हृदय से शुरू
करना।
क्योंकि वहीं
तुम्हारे
प्राणों का
प्राण छिपा
है। वही
तुम्हारा
मंदिर है। और
फिर ज्ञान
अपने-आप चला आता
है।
आया
ही था खयाल कि
आंखें छलक
पड़ीं
आंसू
किसी की याद
से कितने करीब
थे।
आया ही
था खयाल की
आंखें छलक
पड़ीं! खयाल ही
उठता है, याद
ही आती है कि
आंखों में
आंसू भर जाते
हैं।
आंसू
किसी की याद
से कितने करीब
थे! जैसे याद के
करीब आंसू हैं
और हृदय में
किसी की याद
उठी तो आंखें
डबडबा आती
हैं--ऐसा ही, जहां दर्शन
घटा, वहां
ज्ञान घटता
है। बहुत करीब
है ज्ञान दर्शन
के। और जहां
ज्ञान घटा, वहां
चारित्र्य
घटना शुरू हो
जाता है। अगर
एक ही बात सध
जाये--दर्शन--तो
सब सध जाता
है।
महावीर
ने तीन की
बातें कहीं, ताकि
तुम्हें पूरा
विश्लेषण साफ
हो जाये; अन्यथा
दर्शन कहने से
भी काम चल
जाता। जब तुम्हें
दिखायी पड़
जाता है कि
दरवाजा कहां
है, तो फिर
तुम दीवाल से
नहीं निकलते।
और जब तुम्हें
दिखायी पड़
जाता है कि आग
हाथ को जला
देती है, अनुभव
में आ जाता है,
तो फिर तुम
हाथ आग में
नहीं डालते।
आग की तो बात
दूर, आग की
तस्वीर भी रखी
हो तो तुम जरा
बचकर चलते हो।
मैंने
सुना है, मुल्ला
नसरुद्दीन
पहली दफा
समुद्र की
यात्रा पर
गया। इसके
पहले कभी
समुद्र की
यात्रा न की
थी, जहाज
में बैठा न
था। बस के
अलावा और किसी
वाहन में बैठा
ही न था। जहाज
में थोड़ी देर
बैठा। उठा, कैप्टन के
कमरे में जाकर
बोला, "पेट्रोल-वेट्रोल
तो भर लिया है?'
तो उसने कहा,
"सब भर लिया
है, तुम
फिक्र न करो।
बैठो अपनी जगह
पर!' थोड़ी
देर बैठा रहा,
फिर उठकर
पहुंचा, और
कहा, "सुनो
जी! इंजिन-विंजिन
तो ठीक है?' कैप्टन
थोड़ा झल्लाया।
उसने कहा कि
सब ठीक है, आप
अपनी जगह पर बैठिये!
लेकिन वह फिर
थोड़ी देर बाद
आया। उसे
देखकर ही वह
कैप्टन थोड़ा
परेशान होने
लगा। उसने कहा
कि "फिर आ गए!
अब क्या मामला
है?' तो
मुल्ला ने कहा,
"और सब तो
ठीक-ठाक है? और कोई गड़बड़
तो नहीं है?' उस कैप्टन
ने कहा कि
इससे तुम्हें
मतलब क्या है?
मुल्ला ने
कहा, "मतलब?
फिर बीच में
मत कहना, जब
रुक जाये कि उतरकर
धक्के लगाओ!'
बस में
बैठने के आदी!
आदमी दूध से
जल जाये तो छाछ
भी फूंक-फूंककर
पीने लगता है।
तुम्हें
दिखायी पड़े, आग जलाती है,
अनुभव में आ
जाये...।
तो
तुमने खयाल
किया है! अगर
कहीं थियेटर
में बैठे हो
और लोग इतना
ही चिल्ला दें, "आग!' कि भगदड़ मच
जाती है। किसी
को आग दिखायी
नहीं पड़ रही
है, किसी
ने हो सकता है
मजाक ही की हो;
लेकिन लोग
इतना ही
चिल्ला दें, "आग!' कि भगदड़ मच
जाती है। फिर
तुम लाख समझाओ
कि रुको, कोई
सुननेवाला
नहीं है। आग
शब्द भी घबड़ा
देता है।
जीवंत अनुभव
का इतना
परिणाम है!
तो अगर
वासना जला दे
तो वासना की
तो बात दूर, वासना शब्द
भी तुम हाथ
में न ले
सकोगे। अगर कामवासना
ने तुम्हारे
जीवन को दग्ध
किया और घाव बना
दिये तो
कामवासना की
तो दूर, कामवासना
की जहां चर्चा
भी होती है
वहां तुम न
बैठ सकोगे।
कोई अर्थ न
रहा। व्यर्थ
के लिए कौन
बैठता है! और
व्यर्थ की ही
बात नहीं, जले
जीवन के दुखद
अनुभव हुए, घाव बने--कौन
घावों को
मांगने जाता
है!
लेकिन
तुम सुनते हो
ब्रह्मचर्य
की चर्चा, लोभ पैदा
होता है।
वासना की आग
अभी दिखाई
नहीं पड़ी और
ब्रह्मचर्य
की चर्चा से
लोभ जगने लगता
है--इससे अड़चन
खड़ी होती है।
इससे जीवन में
एक भ्रांति
आती है।
महावीर
कहते हैं, शुरू करना
दर्शन से।
दर्शन, ज्ञान,
चरित्र--यह
सम्यक सरणि
है। और जीवन
को अगर ठीक से
पहचानना हो तो
जीवन को
प्रतिपल जागकर
देखते रहना।
उसके
अतिरिक्त कोई
उपाय नहीं है।
जो भी है--अगर
क्रोध हो रहा
है तो क्रोध
को जागकर
देखना--वही
दर्शन बनेगा।
करुणा का
शास्त्र मत पढ़ना, क्रोध
को गौर से
देखना: उसी से
करुणा किसी
दिन पैदा
होगी।
मैं
हकीकत-आश्ना
हूं हस्तिए-मोहूम
का
देखता
हूं गौर से
फूलों को
मुरझाने के
बाद।
ऐसे
गौर से देखने
से कुछ लाभ न
होगा। जब फूल
मुर्झा गए, फिर देखने
से कुछ सार
नहीं।
बुढ़ापे
में लोग
कामवासना के
संबंध में
विचार शुरू
करते हैं। जब
फूल मुर्झा गए, जब जीवन में
ऊर्जा खो गयी,
जब थक गये, जब जीवन
जवाब देने लगा,
जब जिंदगी
खुद ही उन्हें
छोड़ने लगी और
रद्दी के ढेर
पर फेंकने
लगी--तब वे
त्यागने की
बात सोचते
हैं।
इसलिए
महावीर ने एक
बहुत अनूठा
सूत्र भारत को
दिया--और वह था:
जब तुम जवान
हो, जब जीवन
की ऊर्जा
भरी-पूरी है, तभी अगर तुम
जीवन के दुख
को देख लो और
उससे छूट जाओ,
भरी जवानी
में त्याग का
फल लग जाये, तो बड़ा शुभ
है। क्योंकि
तब ऊर्जा है।
तो जिस ऊर्जा
से तुम संसार
की तरफ जाते
थे, वही
ऊर्जा
तुम्हें
मोक्ष की तरफ
ले जाने का साधन
बन जायेगी।
ऊर्जा तो वही
है। लेकिन जब
ऊर्जा जा चुकी,
थक गये, हाथ-पैर
कमजोर पड़ गये,
उठते नहीं
बनता, बैठते
नहीं बनता--तब
तुम त्याग का
सोचने लगे! यह
त्याग न हुआ, यह तो अपने
को धोखा देना
हुआ। जिंदगी
खुद ही
तुम्हें त्यागे
दे रही है। अब
तुम्हारे
त्याग का कोई
अर्थ नहीं है।
यह तो ऐसे ही
हुआ कि जब
दांत टूट गये
तब तुमने
बहुत-सी चीजें
खाने का त्याग
कर दिया। अब
तुम उन्हें खा
ही नहीं सकते।
ध्यान
रखना, जो
बीत रहा है
अभी, आज, यहां, उसके
प्रति जागना!
दर्शन की
क्षमता को
वहां सजग
करना।
जैसे-जैसे
दर्शन जागता
जायेगा--क्रोध
में, काम
में, लोभ
में, मोह
में--वैसे-वैसे
तुम पाओगे मोह,
काम, क्रोध,
लोभ गिरने
लगे, और एक
नयी ऊर्जा का
भीतर
आविर्भाव
हुआ। क्योंकि
जो ऊर्जा
क्रोध में लगी
है वही मुक्त
होकर करुणा बन
जाती है।
दर्शन के
माध्यम से
क्रोध करुणा
बन जाता है।
और काम की
यात्रा राम की
यात्रा बन
जाती है।
"सम्यक
दर्शन के बिना
ज्ञान नहीं।'
नांदसणिस्स नाणं।
"ज्ञान
के बिना
चारित्र्य
नहीं।'
नाणेण विणा न हुंति
चरणगुणा।
"चरित्रगुण के बिना
मोक्ष नहीं।'
अगुणिस्स नत्यि मोक्खो
"और
मोक्ष के बिना
आनंद कहां, निर्वाण
कहां।'
नत्थि अमोक्खस्स
निव्वाणं।
बड़े
सीधे-सरल, लेकिन बड़े
वैज्ञानिक
सूत्र हैं!
"दर्शन
के बिना ज्ञान
नहीं।'
इसलिए
और कैसा भी
ज्ञान तुमने
इकट्ठा किया
हो, उसे
ज्ञान मत
समझना। और
कितना ही
ज्ञान तुम्हारे
पास हो, उसे
तुम अज्ञान का
आभूषण ही
समझना; उससे
अज्ञान ही सज
गया है, संवर
गया है, ज्ञान
पैदा नहीं
हुआ। उससे
अज्ञान ढंक
गया है, ज्ञान
पैदा नहीं
हुआ।
"ज्ञान
के बिना
चरित्र नहीं।'
दर्शन, ज्ञान, चरित्र।
और ज्ञान की
परीक्षा यही
है कि वह तुम्हारे
आचरण में उतर
आये।
मैंने
सुना है, प्रसिद्ध
शहीद
चंद्रशेखर
आजाद को तीन
ही गालियां
आती थीं। और
जब वह बहुत
क्रोध में भी
आ जाते तो
उन्हीं तीन
गालियों को
बार-बार
दोहराने लगते।
गधा, नालायक,
उल्लू के
पट्ठे--बस तीन
ही गालियां
आती थीं। किसी
मित्र ने कहा
कि अगर
तुम्हें
गालियां देने
में ऐसा रस
आता है और
क्रोध के वक्त
गालियां कम पड़
जाती हैं तो
और क्यों नहीं
सीख लेते? कोई
गालियों की
कमी है?...कि
गधा, नालायक,
उल्लू के
पट्ठे; फिर
गधा, नालायक,
उल्लू के
पट्ठे--बार-बार
वही दोहराने
लगते हो, अच्छा
भी नहीं मालूम
होता! जैसे
टूटा हुआ रिकार्ड
दोहराने लगता
है।
तो
चंद्रशेखर
आजाद ने कहा, "चौथी गाली
की जरूरत नहीं
है।' कोट
के खीसे से
पिस्तौल
निकाली और कहा,
"गाली, फिर
गोली। तीन
गाली काफी
हैं। फिर इसके
बाद गोली।' कहा कि मैं
इस सूत्र को
मानकर चलता
हूं कि विचार
आचरण में लाने
चाहिए। तो
गाली तो केवल
विचार है, गोली
आचरण है।
मगर
मजा यह है कि
अगर गाली है
तो गोली
अपने-आप आ जायेगी।
गाली कब तक
देते रहोगे? अगर क्रोध
है तो हिंसा
पैदा होगी।
उससे बच न सकोगे।
क्योंकि
जिसको हम
विचार में
सम्हालते हैं,
वह आज नहीं
कल आचरण में
झलक जाता है।
क्योंकि आचरण
कुछ भी नहीं
है--निरंतर
विचार, पर्त-पर्त
विचार का ही
जम जाना है।
विचार ही तो
वस्तुएं बन
जाते हैं। जो
तुमने सोचा है,
कल वही
तुम्हारा
आचरण बन
जायेगा। जो
तुम्हारा आज
विचार है वह
कल आचरण होगा।
और जो आज
तुम्हारा
आचरण है वह कल
तुम्हारा
विचार था।
विचार
और आचरण एक ही
यात्रा के
हिस्से हैं।
विचार पहला
कदम है; आचरण
अंतिम। अगर
कोई विचार
आचरण न बनता
हो तो इस बात
का एक ही अर्थ
होता है कि वह
विचार तुम्हारा
नहीं है।
इसलिए कैसे
आचरण बने?
चिकित्सकों
से पूछो! अगर
तुम्हारे
शरीर में खून
की कमी हो
जाये तो हर
किसी का खून
तुम्हारे काम
न पड़ेगा।
तुम्हारा ही
टाइप चाहिए।
मतलब हुआ कि
तुम्हारा खून
ही तुम्हारा
शरीर स्वीकार
करता है; और
किसी तरह का
खून स्वीकार
नहीं करता।
अगर तुम्हारे
चेहरे पर
प्लास्टिक
सर्जन कुछ
आपरेशन करे और
चमड़ी बदलनी हो
तो तुम्हारे
ही पैर या जांघ
की चमड़ी
निकालकर
लगानी पड़ती
है। क्योंकि
दूसरी किसी की
चमड़ी
तुम्हारा
शरीर स्वीकार
नहीं करता।
जो
शरीर के संबंध
में सही है वह
आत्मा के संबंध
में और भी
ज्यादा सही
है। तुम्हारा
ही हो अनुभव
तो ही
तुम्हारी
आत्मा
स्वीकार करती
है, अन्यथा
नहीं स्वीकार
करती।
तुम्हारे ही
प्राणों में
पगा हो तो ही
तुम्हारी
आत्मा उसे अपने
भीतर लेती है,
अन्यथा
बाहर फेंक
देती है। जैसे
हर किसी के खून
को तुम्हारे
भीतर नहीं
डाला जा सकता
और जैसे हर
किसी की चमड़ी
तुम्हारे पैर
पर या
तुम्हारे
चेहरे पर नहीं
चिपकायी जा
सकती--शरीर तो
बाहर है, आत्मा
तो बहुत गहरे
है, तुम्हारा
आखिरी, आत्यंतिक
अस्तित्व है। वहां
तो केवल तुम
ही तुम हो।
तुम्हारा ही
जो है, वही
वहां पाएगा
जगह; शेष
सब अस्वीकृत
हो जाता है।
इसलिए
महावीर कहते
हैं, सम्यक
दर्शन के बिना
ज्ञान नहीं।
ज्ञान के बिना
चारित्र्य
नहीं।
चारित्र्य के
बिना मोक्ष
नहीं।
और जो
अभी चरित्र
में शुद्ध
नहीं हुआ, उसकी मुक्ति
कहां! क्योंकि
मोक्ष तो जो
गलत है उससे
छूट जाने का
नाम है, बंधन
के टूट जाने
का नाम है।
और
मोक्ष के बिना
निर्वाण कहां, आनंद कहां?
तो तुम
अगर दुखी हो
तो आकस्मिक
नहीं। तुम
दुखी रहोगे ही, क्योंकि
आनंद तक जाने
की तुम यात्रा
नहीं कर रहे
हो। और अगर
कभी तुम उत्सुक
भी होते हो तो
तुम जल्दबाजी
में हो, अधैर्य
है बहुत। तो
तुम सोचते हो,
दो-चार कदम
एक साथ उठ
जायें कि
दो-चार सीढ़ियां
एक साथ छलांग
लग जायें, कि
जल्दी कुछ हो
जाये। कुछ हैं
जो ज्ञान से
शुरू करते
हैं। कुछ, जो
और भी ज्यादा
जल्दबाजी में
हैं, वे
चरित्र से
शुरू कर देते
हैं। जब भी
तुम्हें खयाल
उठता है, तुम
सोचने लगते हो
चरित्र को
कैसे बदलें!
तुम आखिरी बात
पहले लाना
चाहते हो? तुम
भ्रांति में
पड़ रहे हो।
तुम सिर के बल
खड़े हो जाओगे।
इसलिए
मैं कहता हूं, जैन मुनि सौ
में
निन्यानबे
सिर के बल खड़े
हैं।
उन्होंने
चरित्र से
शुरुआत कर दी।
और महावीर के
बड़े सीधे-साफ
सूत्र हैं।
इनको समझने के
लिए कोई बहुत
बुद्धिमत्ता
नहीं चाहिए।
इनमें उलझाव
कुछ भी नहीं
है। महावीर की
उलझाने
की आदत नहीं
है; चीजों
को बिलकुल
साफ-साफ रख
देने की आदत
है। अब इससे
ज्यादा साफ
सूत्र क्या
होगा: "दर्शन
के बिना ज्ञान
नहीं! ज्ञान
के बिना
चरित्र नहीं।
चरित्र के
बिना मोक्ष
नहीं।'
लेकिन
जैन मुनि क्या
कर रहा है? वह चरित्र
को साध रहा
है। वह कहता
है, जब
चरित्र शुद्ध
होगा तो ज्ञान
शुद्ध होगा। जब
ज्ञान शुद्ध
होगा तो दर्शन
शुद्ध होगा।
उसने सारी
प्रक्रिया
उलटी कर ली
है। वह सिर के
बल खड़ा हो गया
है। इसलिए न
तो दर्शन
उत्पन्न होता,
न ज्ञान
उत्पन्न होता,
न चरित्र
उत्पन्न
होता। सब बासा
है। सब उधार है।
सब मुर्दा और
लाश की भांति
है। कोई उत्सव
नहीं है सत्य
का। कोई
परमात्मा की
जीवंत अनुभूति
नहीं है।
"क्रिया-विहीन
ज्ञान व्यर्थ
है।' हयं नाणं कियाहीणं।
"और
अज्ञानियों
की क्रिया भी
व्यर्थ है।'
ये
सूत्र बड़े
बहुमूल्य हैं!
"हया अण्णाणओ
किया।'
"क्रियाविहीन ज्ञान
व्यर्थ है।' अगर ऐसा कोई
ज्ञान
तुम्हारे पास
है जो जीवन में
आचरित नहीं हो
रहा है, अपने-आप
जीवन में उतर
नहीं रहा है
तो व्यर्थ है,
गलत है। और अगर
तुम अज्ञानी
हो और क्रिया
में लग गये हो,
चरित्र
बनाने में लग
गये हो, तो
वह भी व्यर्थ
है।
क्रियाहीन
ज्ञान तो
व्यर्थ है; क्योंकि
जानते तुम हो,
लेकिन जीवन
में काम में
नहीं लाते हो।
यह तो ऐसे ही
है कि भोजन
रखा है और तुम
भूखे बैठे हो।
यह भोजन
व्यर्थ है। हो
या न हो, बराबर
है। यह सर्दी
पड़ रही है, कंबल
सामने रखे
बैठे हो, ओढ़ते
नहीं हो--कि
धूप निकली है,
तुम सर्दी
में कंप रहे
हो, जाकर
धूप में नहीं
बैठ जाते हो
कि थोड़ा धूप
का आनंद ले लो
और शरीर को
गरमा लो। यह
ज्ञान तो व्यर्थ
है जो आचरण
में न उतर
आये। इस भोजन
का क्या करोगे?
जीसस
के जीवन में
उल्लेख है कि
जीसस ने
चमत्कार किया
और पत्थरों को
रोटी बना
दिया। एक ईसाई
मेरे पास आया
था। वह कहने
लगा, आप इसमें
मानते हैं या
नहीं? मैंने
कहा, मैं
मानता हूं
क्योंकि इससे
भी बड़ा
चमत्कार दूसरे
लोग कर रहे
हैं।
उन्होंने रोटियों
को पत्थर बना
दिया है! तो यह
कोई बड़ी बात
नहीं कि ईसा
ने अगर पत्थर
को रोटी बना
दिया; यह
तो मैं रोज
देख रहा हूं
कि
करोड़ों-करोड़ों
लोगों ने रोटी
को पत्थर बना
दिया है।
चमत्कार तो
वही है।
ज्ञान
रखा है, किसी
काम नहीं आता!
तुमने ज्ञान
का कभी उपयोग किया
है? तुम कर
ही नहीं सकते
उपयोग, क्योंकि
वह दर्शन से
पैदा नहीं हुआ
है। वह तुम्हारा
है ही नहीं।
भीतर गहरे मन
में तुम जानते
ही हो कि वह
ठीक नहीं है।
ऊपर-ऊपर से
कहे जाते हो, ठीक है। लोकोपचार,
समाज, परंपरा!
तुम्हारा
ज्ञान एक
शिष्टाचार
मात्र है। लेकिन
भीतर तुम्हें
उस पर भरोसा
नहीं है। जिस
पर भरोसा नहीं
उसे तुम कैसे
जीवन में उतारोगे? जिस भोजन पर
तुम्हें
भरोसा नहीं है,
उसे तुम
कैसे करोगे? उसे तुम
कैसे पचाओगे?
उसे तुम
क्यों चबाओगे?
ऊपर से तुम
कहते हो, भोजन
है; भीतर
तो तुम्हें
दिखायी पड़ता
है पत्थर, मिट्टी
है। इसलिए
ज्ञान पड़ा रह
जाता है।
"क्रियाविहीन ज्ञान
व्यर्थ है और
अज्ञानियों
की क्रिया भी व्यर्थ
है।' और
अगर अज्ञानी
चरित्रवान
होने की कोशिश
में लग जाये
तो वह भी
व्यर्थ है; क्योंकि वह
कितना ही
आरोपित कर ले
चरित्र, वह
कभी उसके
प्राणों का
स्पंदन नहीं
बनेगा। वह
उसके जीवन का
गीत न होगा।
वह बस ऊपर-ऊपर
होगा। जरा
खरोंच दो--और
असली मवाद
बाहर निकल
आएगा।
तो तुम
तथाकथित
चरित्रवानों
को खरोंचना मत, अन्यथा चमड़ी
से भी कम गहरा
उनका चरित्र
है। बिना खरोंचा
रहे तो सब ठीक
चल जाता है।
जरा-सी
खरोंच--और कठिनाई
हो जाती है।
इसलिए तो
तुम्हारे
चरित्रवान
जीवन को छोड़कर
भाग जाते हैं,
क्योंकि
जीवन में लगती
हैं खरोंचें।
रवींद्रनाथ
से किसी ने
पूछा, "आपने
शांतिनिकेतन बोलपुर
में क्यों
बनाया?' तो
उन्होंने कहा,
"क्या ढोलपुर
में बनाऊं? यहां कम से
कम बोल तो
सकते हैं। बोलपुर!'
और मैं
तुमसे कहता
हूं, जब तक
तुम ढोलपुर
में न बोल सको,
तक तक
तुम्हारे बोलपुर
में बोलने का
कोई मतलब नहीं
है। शांति तो
वहां घनीभूत
होनी चाहिए
जहां चारों
तरफ अशांति है।
ढोलपुर!
बीच
बाजार में अगर
तुम मुक्त न
हो सको तो
तुम्हारी
मुक्ति दो कौड़ी
की है। अगर
हिमालय की
चोटियों पर
बैठकर तुम मुक्त
हो जाओ तो उस
मुक्ति का कोई
मूल्य नहीं
है। क्योंकि
उतरते ही पहाड़
से नीचे तुम
पाओगे, वह
मुक्ति पहाड़
पर ही छूट
गयी। बाजार
में खरोंचें
लगेंगी।
तुम
अपने मुनियों
को थोड़ा बाजार
में लाओ! वहां
पता चल जायेगा, क्योंकि
वहां चारों
तरफ धक्कम-धुक्की
है।
मैंने
सुना है, एक
संन्यासी तीस
वर्ष तक हिमालय
में रहा। उसकी
ख्याति
दूर-दूर तक
फैल गई। लोग
उसकी पहाड़ी
गुफा तक आने
लगे, उसके
चरण छूने।
आखिर कुंभ का
मेला भरा था, तो लोगों ने
कहा, "महाराज!
अब तो नीचे
उतरो।' तो
उसको भी अब तो
भरोसा आ गया
था। तीस साल!
एक दफा क्रोध
नहीं हुआ। एक
दफा नाराज
नहीं हुआ। एक दफा
कोई विकृति
नहीं उठी।
उसने कहा, आता
हूं। वह आया।
अब कुंभ का
मेला! वहां
कौन किसकी
फिक्र करता
है! धक्कम-धुक्की!
वह नीचे उतरा
तो धक्कम-धुक्की
होने लगी। एक
आदमी का पैर
उसके पैर पर
पड़ गया। वह
भूल ही गया
तीस साल का
हिमालय का वास,
शांति, ध्यान!
झपटकर
उसकी गर्दन
पकड़ ली और कहा,
"तूने समझा
क्या है? किसके
ऊपर पैर रख
रहा है? होश
से चल!' लेकिन
तभी उसे खयाल
आया, अरे!
तीस साल
मिट्टी हो
गये!
पर
हिमालय में
तुम बैठे थे, एकांत में, न किसी का
पैर पैर पर
पड़ता था, न
मौके थे, न
अवसर थे।
खरोंच जरा-सी
लग जाये, मुश्किल
में पड़ जाओगे।
साधु
अगर सम्यक
चरित्र को
उपलब्ध हो तो भगोड़ा
नहीं होगा। भगोड?
होने की कोई
जरूरत नहीं
है। उसके होने
में साधुता
होगी। उसने
कुछ छोड़ा नहीं
है; जो गलत
था वह छूट गया
है। और उसने
कुछ थोपा नहीं
है; जो ठीक
था वह प्रगट
हुआ है। उसका
चरित्र उसकी आंतरिक
आत्मा का ही
प्रतिबिंब
होगा। उसके
जीवन में तुम
विरोध न
पाओगे। उसके
भीतर कोई
दोहरी पर्तें
नहीं हैं।
उसके व्यक्तित्व
में तुम
डबल-माइंड न
पाओगे। ऐसा नहीं
है कि वह कुछ
भीतर है और
कुछ होने की
चेष्टा कर रहा
है। वह जो
भीतर है, वैसा
ही बाहर प्रगट
हो रहा है।
इसलिए महावीर
नग्न खड़े हुए।
नग्न
खड़े होना बड़ा
प्रतीकात्मक
है, कि जैसा
मैं भीतर हूं
वैसा बाहर।
कपड़े भी क्यों
पहनूं? मैं वैसा
क्यों
दिखलाऊं जैसा
कि मैं नहीं
हूं?
तुमने
देखा! कपड़े के
पीछे सिर्फ
शरीर को ढांकने
की ही
आकांक्षा
थोड़े ही है।
अगर सिर्फ
शरीर को
ढांकने की
आकांक्षा हो
तो ठीक। कपड़े
के पीछे शरीर
को वैसा
दिखाने की
आकांक्षा है
जैसा वह नहीं
है। तो महावीर
का नग्न खड़े हो
जाना कपड़ों का
विरोध नहीं है; लेकिन
तुम्हारी
गहरी
आकांक्षा का
विरोध है।
देखा
स्त्रियां या
पुरुष! पुरुष
कोट बनवाते हैं
तो कंधों पर
रुई भरवा
लेते हैं, क्योंकि
छाती उभरी हुई
दिखायी पड़े।
रुई सही; मगर
कौन देख रहा
है भीतर आकर!
बाहर से चलते
तो छाती उभरी
दिखायी पड़ती
है।
स्त्रियां
स्तनों को
हजार तरह से उभारकर
दिखलाने की
कोशिश में लगी
रहती हैं। न
मालूम कितने
तरह के इंतजाम
कर रखे हैं।
जैसा नहीं है
वैसा दिखाने
की चेष्टा चल
रही है।
महावीर
नग्न खड़े
हुए--सिर्फ इस
अर्थ में। यह
प्रतीकात्मक
है कि जैसा
हूं, ठीक हूं।
अब इसको
अन्यथा
दिखाने की
क्या जरूरत; अन्यथा
दिखाने से
अन्यथा हो तो
न जाऊंगा।
किसको धोखा
देना है और
क्या सार है?
दर्शन
हो तो ज्ञान
होता, ज्ञान
हो तो एक
चरित्र आना
शुरू होता।
लेकिन वह
चरित्र बड़ा
नैसर्गिक
होता। उसमें
आरोपण, चेष्टा,
श्रम जरा भी
नहीं होता। एक
नैसर्गिक दशा
होती है।
मुल्ला
नसरुद्दीन
के घर मैं
मेहमान था।
सुबह-सुबह
उसकी पत्नी से
किसी बात पर
झंझट हो गयी।
तो मुझे देखकर
उसने थोड़ा
ज्यादा रौब
बांधना चाहा
पत्नी पर। और
उसने कहा कि
देखो, मौलवी
के सामने, समाज
के सामने
तुमने कसम
नहीं खायी थी
कि सदा मेरी
आज्ञा का पालन
करोगी?
मैं
मौजूद था तो
उसने सोचा कि
शायद पत्नी
थोड़ी झुकेगी
और झंझट
ज्यादा न
करेगी।
लेकिन
पत्नी ने कहा, "हां, खायी
थी, मुझे
याद है। लेकिन
वह सिर्फ
इसीलिए खायी
थी कि मैं उस
वक्त
पहली-पहली
मुलाकात में
तमाशा खड़ा नहीं
करना चाहती
थी।'
अब ऐसी
कसम का क्या
अर्थ, जो
इसीलिए खायी
गई हो कि पहली
मुलाकात में
क्या तमाशा
खड़ा करें? और
भीड़ लगी है, मौलवी है, समाज है, विवाह
हो रहा है, गठबंधन
डाला जा रहा
है--अब इसमें
कहां तमाशा खड़ा
करो बीच में--इसलिए!
जिंदगी
में तुम्हारी
कसमें, तुम्हारे
व्रत, तुम्हारे
चरित्र, अगर
किसी कारण से
हैं तो
ऊपर-ऊपर
होंगे।
पत्नी
बहुत नाराज हो
गयी--यह मौलवी
की और विवाह
की बात उठते
देखकर। और
उसने कहा कि
मेरे मन में
कई दफे ऐसा
लगता है कि
तुम बार-बार
सोचते होओगे
कि मैं अगर
किसी और को
ब्याही गई
होती तो अच्छा
था।
मुल्ला
ने कहा, "नहीं,
कभी नहीं!
मैं किसी का
भला...किसी का
बुरा क्यों चाहने
लगा! हां, यह
भावना जरूर मन
में कभी-कभी
उठती है कि
तुम अगर जनम
भर कुंवारी
रहती तो बड़ा
अच्छा होता।'
हम
छिपाये जाते
हैं। जहां
प्रेम नहीं है, वहां प्रेम दिखलाए
जाते हैं।
जहां सदभाव
नहीं है, वहां
सदभाव दिखलाए
चले जाते हैं।
और जैसे हम
नहीं हैं वैसा
हम अपने चारों
तरफ रूप खड़ा
करते रहते
हैं। धीरे-धीरे
दूसरे तो धोखे
में आते ही
हैं, हम भी
धोखे में आ
जाते हैं।
अपने ही
प्रचारित असत्य
अपने को ही
सत्य मालूम
होने लगते
हैं। तब एक
बड़ी दुविधा
पैदा होती है।
उसी दुविधा
में लोग फंसे
हैं।
महावीर
कहते हैं, क्रियाविहीन ज्ञान
व्यर्थ, अज्ञानियों
की क्रिया
व्यर्थ। तो न
तो आचरण करना
जबर्दस्ती।
क्योंकि जो
तुम्हारे
ज्ञान में न
उतरा हो वह
तुम्हें पाखंडित
करेगा, तुम्हें
पाखंडी
बनाएगा। और
अगर कोई
तुम्हारे
ज्ञान में उतरा
हो तो उसकी
परीक्षा यही
है कि वह आचरण
में उतरे।
इससे तुम गलत
अर्थ मत लेना,
जैसा कि
आमतौर से जैन
अनुयायी लेते
हैं। वे सोचते
हैं कि जो
ज्ञान में आ
गया, अब
इसको आचरण में
उतारना है।
नहीं, यह
तो सिर्फ
परीक्षा, कसौटी
है। महावीर यह
कह रहे हैं कि
जो ज्ञान में
आ गया है, वह
आचरण में आना
ही चाहिए। अगर
ज्ञान में आ
गया है तो
आचरण में आने
से बच नहीं
सकता। लेकिन एक
शर्त है कि
ज्ञान में
दर्शन के
माध्यम से आया
हो। अगर दर्शन
के माध्यम से
न आया हो तो
ज्ञान की तरह
पड़ा
रहेगा--तुमसे
दूर, संबंध
न जुड़ेगा;
तुम्हारे
हृदय और
तुम्हारे
ज्ञान में कोई
सेतु न होगा।
"जैसे
पंगु व्यक्ति
वन में लगी आग
को देखते हुए
भी भागने में
असमर्थ होने
से जल मरता
है...और अंधा
व्यक्ति
दौड़ते हुए भी
देखने में
असमर्थ होने
से जल मरता
है।'
जंगल
में आग लगी हो
और एक अंधा आदमी
हो जंगल में, वह दौड़ सकता
है; लेकिन
उसे दिखायी
नहीं पड़ता कि
आग कहां है, लपटें कहां
हैं। वह दौड़कर
भी जल मरता
है। और एक लंगड़ा
हो, उसे
दिखायी पड़ता
है कि आग कहां
लगी है, कहां
से भागूं,
कहा से निकलूं;
लेकिन पैर
नहीं हैं, तो
भी जल मरता
है।
जिस
व्यक्ति के
पास ज्ञान तो
है, लेकिन
आचरण नहीं, वह जल
मरेगा। वह लंगड़ा
है। जिस
व्यक्ति के
पास आचरण तो
है, लेकिन
बोध नहीं, वह
भी जल मरेगा।
उसके पास पैर
तो थे, लेकिन
आंख नहीं है।
"कहा
जाता है कि
ज्ञान और
क्रिया के
संयोग से ही
फल की
प्राप्ति
होती है; जैसे
कि वन में
पंगु और अंधे
के मिलने पर
पारस्परिक
संप्रयोग से
वन से निकलकर
दोनों नगर में
प्रविष्ट हो
जाते हैं। एक पहिए
से रथ नहीं
चलता।'
पासंतो पंगुलो दङ्ढो, धावमाणो य अंधओ।
अंधा
भी मर जाता
है। पैर थे, बच सकता था।
पंगु भी मर
जाता है।
आंखें थीं, बच सकता था।
लेकिन
दोनों का मिलन
चाहिए।
संजो
असिद्धीइ
फलं वयंति, न हु एग चक्केण
रहो पयाइ।
अंधो य
पंगु य वणे
समिच्चा, ते संपडत्ता
नगरं पविट्ठा।।
अगर
दोनों साथ हो
जाएं, अगर
अंधा और लंगड़ा
एक समझौते पर
आ जायें, एक
मैत्री कर लें,
एक संबंध
बना
लें--संबंध कि लंगड़ा कहे
कि मुझे तुम
अपने कंधों पर
बिठा लो, ताकि
मैं तुम्हारी
आंख का काम
करने लगूं; संबंध कि
अंधा कहे, तुम
मेरे कंधों पर
बैठ जाओ, ताकि
मैं तुम्हारे
पैर बन जाऊं।
अंधा और लंगड़ा
उस वन में
जहां आग लगी
है, बचकर
निकल सकते हैं
अगर एक
व्यक्ति हो
जायें, अगर
दो न रहें।
अगर लंगड़ा
अंधे के कंधे
पर बैठ जाये, अंधे के लिए
देखे और अंधा
लंगड़े के लिए
चले, दोनों
जुड़ जायें, यह संयोग
अगर बैठ जाये,
तो बचकर
निकल सकते हैं,
तो सोने में
सुगंध आ जाये।
महावीर
कहते हैं, एक पहिये से
रथ नहीं चलता।
और ऐसी ही
व्यक्ति के
जीवन की दशा
है। जीवन में
तो आग लगी है।
यह जीवन का वन
तो जल रहा है।
इससे निकलने
का उपाय? अकेला
जिनके पास
चरित्र है और
जिनके पास बोध
नहीं, वे
भी न निकल
सकेंगे। और
जिनके पास
ज्ञान है लेकिन
चरित्र नहीं,
वे भी न
निकल सकेंगे।
तुम्हारे
भीतर एक रसायन
घटे, एक अल्केमिकल
परिवर्तन हो,
एक कीमिया
से तुम गुजर
जाओ कि
तुम्हारा
ज्ञान दर्शन
बने, तुम्हारी
आंख बन जाये
और तुम्हारा
ज्ञान तुम्हारा
चरित्र बन
जाये। दो तरफ
ज्ञान में
घटनाएं घटें,
एक तरफ
ज्ञान दर्शन
बने और दूसरी
तरफ ज्ञान चरित्र
बने, तो
पक्षी के
दोनों पंख
उपलब्ध हो गए।
अब तुम उड़
सकते हो इस
विराट के आकाश
में।
है
अंधेरी रात पर
दीवा
जलाना कब मना
है?
कल्पना
के हाथ से
कमनीय
जो मंदिर बना
था
भावना
के हाथ से
जिसमें
वितानों
को तना था,
स्वप्न
ने अपने करों
से
था
जिसे रुचि से
संवारा
स्वर्ग
के
दुष्प्राप्य
रंगों से,
रसों
से जो सना था
ढह
गया वह तो
जुटाकर
ईंट, पत्थर, कंकड़ों
को
एक
अपनी शांति की
कुटिया
बनाना कब मना
है?
है
अंधेरी रात पर
दीवा
जलाना कब मना
है?
जिस
दिन तुम दर्शन
को उपलब्ध
होओगे, उस
दिन तुम्हारा
पुराना
भवन--सपनों का,
स्वर्ग के
रंगों का, इंद्रधनुषों का
गिरेगा--धूल
में गिरेगा।
खंडहर भी न
बचेंगे!
क्योंकि सपने
के कहीं कोई
खंडहर बचते हैं!
बस तिरोहित हो
जायेगा, जैसे
कभी न था। हाथ
में राख भी न
रह जायेगी।
दर्शन
को उपलब्ध
होते ही, जीवन
को गौर से
देखते ही एक
बात साफ हो
जाती है कि
जीवन है, तुम
हो--और बीच में
तुमने जो सपने
बनाए थे वे झूठे
थे। वे
तुम्हारी
मूर्च्छा से
उठे थे। वे तुम्हारी
बंद आंखों से
उठे थे। जैसे
सुबह एक आदमी
जागता है, आंख
खोलता
है--सारे सपने
तिरोहित हो
गए!
दर्शन
का अर्थ है, ऐसे ही तुम
जीवन के प्रति
आंख खोलो,
जागो और देखो! तो
कितने-कितने
तुमने सजाए
हैं, संवारे
हैं स्वप्न, कितने रंग
भरे हैं! वे सब
अचानक
तिरोहित हो जायेंगे!
कितने ही
रंगीन हों, सपने सपने
हैं। उनके
तिरोहित हो
जाने से घबड़ा मत
जाना।
ईंट-पत्थर से
भी छोटी-सी
कुटिया बनायी
जा सकती है।
सत्य से भी
शांति की
छोटी-सी कुटिया
बनायी जा सकती
है। झूठे
सपनों के बड़े
महलों से कुछ
सार नहीं; उनमें
कोई कभी रहा
नहीं। लोगों
ने सिर्फ सोचा
है कि रहेंगे।
वह सिर्फ
बातचीत है। वह
बातचीत कितनी
ही सुंदर
मालूम पड़े, वह सिर्फ
लफ्फाजी है।
मैंने
सुना है, मिर्जा
गालिब के पास
कोई आदमी
रुपये उधार
मांगने आया।
उन्होंने बड़ी
मीठी बातें
कहीं। कवि थे।
जो आदमी रुपये
उधार मांगने
आया था, उसने
भी कविता में
ही बात की। कहा--
काका!
बड़े बे-वक्त आ
गए
व्यर्थ
ही रास्ता
नापा
और
आपको देखके
मेरा मन कांपा
और
आपने समय ठीक
नहीं भांपा
मेरे
शेर मारने गये
हैं डाका
अभी
तो चल रहा है फाका
लौटकर
आने दो मेरे
काका
आपका
बन जायेगा
खाका
अभी
हाका करो, वर्ना
बीबी
बना देगी आपका
साका
और
मैं करूंगा ताका
मेरे
आका! अभी न
करना इधर नाका
नहीं
तो बीबी न छोड़ेगी
एक बाल बांका।
इतनी
लंबी कविता
कही! लेकिन
लेना-देना कुछ
भी नहीं है।
वह आदमी कविता
से ही घबड़ाकर
भाग गया होगा।
फिर दुबारा न
आया होगा।
तुम्हारे
शब्द कितने ही
रंगीन हों, और कितने ही
काव्य के रंग
तुमने भरे हों,
और कितनी ही
तुकबंदी
बांधी हो, कितने
ही शब्दों का
सौंदर्य
बिठाया
हो--लेकिन भुलावे
हैं! और जितने
जल्दी जाग जाओ
उतना अच्छा
है।
दर्शन
का क्या अर्थ? दर्शन का
इतना ही अर्थ
है: आंखें
सपनों से खाली
हो जायें।
और
दर्शन मूल
भित्ति है।
अगर दर्शन को
न समझ पाए तो पूरे
महावीर बेबूझ
रह जायेंगे।
दर्शन का अर्थ
है: आंख
स्वप्न से
खाली हो; आंख
में कोई सपना
न हो, कोई
चाह न हो, कोई
तृष्णा न हो।
आंख उसको
देखने को राजी
हो जो है; आंख
उसकी मांग न
करे जो होना
चाहिए।
फिर से
दोहरा दूं। जब
भी तुम कहते
हो ऐसा होना चाहिए, तभी तुम उसे
देखने में
असमर्थ हो
जाते हो--जो
है। तब तुम उसे
देखने लगते हो
किसी गहरे तल
पर--जो नहीं है
और होना
चाहिए। तब
तुमने सपना
बनाना शुरू कर
दिया। तुमने
यथार्थ को न
देखा। तुमने
आदर्श को मांगा।
तुमने वह न
देखा जो मौजूद
था। तुम उसकी
चाह करने लगे
जो होना
चाहिए। तुम आशा
को बीच में ले
आए। तुम
कल्पना बीच
में ले आए।
फिर कल्पना ने
ताने-बाने
बुने। फिर सब
चीजें गलत हो
गयीं। फिर
कल्पना के
माध्यम से तुम
जो देखते हो
वह सत्य नहीं
है। ऐसा तुम
चाहते थे।
तुमने
देखा, जब दो
व्यक्ति
एक-दूसरे के
प्रेम में पड़
जाते हैं तो
एक-दूसरे में
ऐसी चीजें
देखने लगते
हैं जो हैं ही
नहीं। स्त्री
पुरुष में ऐसा
देखने लगती है
कि ऐसा महावीर
कभी हुआ ही
नहीं। पुरुष
स्त्री में
देखने लगता है
जगत का सारा
सौंदर्य! ऐसी
बातें करने
लगते हैं कि
जिसका हिसाब
नहीं। चांदत्तारों
को देखने लगते
हैं--एक-दूसरे
के चेहरों में,
आंखों में।
अनंत फूलों की
गंध एक-दूसरे
के पसीने से
आने लगती है।
ये सपने हैं!
ऐसा वे चाहते
हैं। फिर अगर
सुहागरात
पूरी होतेऱ्होते
ये सब सपने
टूट जाते हैं
तो आश्चर्य
नहीं। आश्चर्य
तो यह था कि
तुम इतनी देर
भी कैसे देख
सके!
फिर
प्रेमी सोचते
हैं कि दूसरे
ने मुझे धोखा
दिया। कोई
किसी को धोखा
नहीं दे
रहा--तुम ही
धोखा खा रहे
हो। फिर
प्रेमी सोचता
है, यह
प्रेयसी तो
गलत साबित
हुई। यह तो
मैंने जो फूल
की गंध देखी
थी वह निकली
न। यह क्या
मुझे धोखा दे
गई! यह तो बड़ी
कर्कशा
निकली। और
मैंने तो सारे
संगीत, सारा
साज इसके कंठ
में सुना था!
मैंने तो कोयल
को कूकते सुना
था। मैंने तो
कोकिला जानी
थी। और यह तो
घर आते-आते
स्वर कर्कश हो
गया। तो क्या
इसने मुझे
धोखा दिया था?
क्या उस
क्षण इसने
बनावट की थी? वह जो
माधुर्य इससे
मैंने पाया था,
तो वह सब
प्रवंचना थी?
तो वह जाल
था? वह
मुझे फंसाने
के लिए था? और
प्रेयसी भी
यही सोचने
लगती है कि इस
आदमी में जो
भगवत्ता देखी
थी वह कहां गई!
इसके चरणों में
सिर रखने का
मन हुआ था--तो
वे चरण सब
बनावटी थे! वह
सब पाखंड था?
जल्दी
ही कांटे उभर
आते हैं, फूल
विदा हो जाते
हैं। जल्दी ही
यथार्थ प्रगट होता
है और सपने हट
जाते हैं।
और ऐसा
प्रेमी और
प्रेयसी के
बीच होता है, ऐसा
नहीं--ऐसा
हमारे हर
संबंध में
होता है। ऐसे
जीवन के हर
मोड़ पर हम उन
चीजों को देख
लेते हैं जो
हैं नहीं। हम
उन इंद्रधनुषों
को तान लेते
हैं जो कहीं
भी नहीं हैं।
और फिर जब
इंद्रधनुष
नहीं पाते हैं
तो रोते हैं, चीखते हैं, विषाद से
भरते हैं, दुखी
होते हैं, चिंतित
होते हैं।
दर्शन
का अर्थ है: जो
है उसे बिना
किसी आशा से समिश्रित
किए, बिना
किसी कल्पना
में डुबाये,
बिना कैसा
होना चाहिए
उसको बीच में
लाये, देख
लेने की कला!
आंख
साफ हो तो तुम
कभी उलझोगे
न। आंख साफ हो
तो यथार्थ से
संबंध रहेगा; अयथार्थ
तुम्हें
बांधेगा न। और
आंख साफ हो, तो साफ आंख
से जो बोध
संगृहीत होता
है उसका नाम
ज्ञान। साफ
आंख से
संगृहीत बोध
का अंतिम जो परिणाम
होता है, उसका
नाम
चारित्र्य।
और चारित्र्य
का जो आत्यंतिक
फल है वह
मोक्ष।
है
अंधेरी रात पर
दीवा
जलाना कब मना
है?
रात
अंधेरी है।
यथार्थ कठोर
है। लेकिन
दीये के जलाने
की कोई मनाही
नहीं है।
है
अंधेरी रात पर
दीवा
जलाना कब मना
है?
--आंख
के दीये को
जलाओ! दर्शन
को जगाओ!
कल्पना
के हाथ से
कमनीय
जो
मंदिर बना था
भावना
के हाथ ने
जिसमें
वितानों
को तना था
स्वप्न
ने अपने करों
से
था
जिसे रुचि से
संवारा
स्वर्ग
के
दुष्प्राप्य
रंगों से,
रसों
से जो सना था
ढह
गया वह तो
जुटाकर
ईंट, पत्थर, कंकड़ों
को
एक
अपनी शांति की
कुटिया
बनाना कब मना
है?
शुद्ध
दर्शन से जो
दिखायी पड़ता
है, यथार्थ, उस यथार्थ
से ही अपनी
जीवन की
कुटिया को बना
लेने का नाम
चारित्र्य
है।
स्वप्न
से जीवन को
बनाना और सत्य
से जीवन को बनाना--बस
यही जीवन को
बनाने के दो
ढंग हैं।
ढह
गया वह तो
जुटाकर
ईंट, पत्थर, कंकड़ों
को
एक
अपनी शांति की
कुटिया
बनाना कब मना
है?
है
अंधेरी रात पर
दीवा
जलाना कब मना
है?
लेकिन
यह किसी बाहर
के दीये के
जलाने की बात
नहीं है--भीतर
के दीये को
जलाने की बात
है। और यह
दीया जलने
लगता है जैसे-जैसे
तुम आंख को
साफ करके
देखने लगते
हो। तो क्या
करो?
महावीर
का शब्द
है--सामायिक।
पतंजलि का
शब्द है--ध्यान।
बुद्ध का शब्द
है--सम्यक
स्मृति। जीवन
को जागरण से
भरो! जो भी
करते हो, करते
समय स्मरण रखो
कि सपनों को
हटाते चलो। पुरानी
आदतें हैं, वे बार-बार
बीच में आ जायेंगी।
उनको हटाते
चलो।
तेरी
दुआ है कि हो
तेरी आरजू
पूरी
मेरी
दुआ है कि
तेरी आरजू बदल
जाए।
तुम तो
चाहते हो कि
तुम्हारी आकांक्षाएं
पूरी हो जायें, लेकिन
महावीर, बुद्ध,
कृष्ण
चाहते हैं
तुम्हारी आकांक्षाएं
बदल जायें। आकांक्षाएं
पूरी करना
चाहोगे तो
सपनों में
रहोगे। आकांक्षा
बदल जाए, आकांक्षा
न हो जाए, शून्य
हो जाए--तो
आकांक्षा के
नीचे से जो
शक्ति बचेगी,
जो
आकांक्षा में
नियोजित थी, मुक्त होगी,
वह
तुम्हारे
जीवन में विस्फोट
हो जायेगा; जैसे अणु को
हम तोड़ते हैं,
तो छोटे-से
अणु में जो
आंख से भी
दिखायी नहीं पड़ता,
इतनी ऊर्जा
प्रगट होती
है! अणु के जो
परमाणु हैं वह
एक-दूसरे को
बांधे हुए
हैं। जब
उन्हें हम अलग
करते हैं तो
जो शक्ति उनको
बांधे थी, वह
मुक्त होती
है। उस मुक्त
शक्ति का
परिणाम
हिरोशिमा में
देखा, नागासाकी
में देखा: एक
लाख आदमी क्षणभर
में राख हो
गए। एक
छोटे-से
परमाणु को
जिसको अब तक
किसी ने देखा
नहीं है, इतने
क्षुद्र के
भीतर इतनी
ऊर्जा छिपी
है! तो आत्मा
के भीतर कितनी
ऊर्जा न छिपी
होगी! जरा आत्मा
के बंधन को
हटाना जरूरी
है। जैसे अणु
के बंधन को
हटाया तो इतनी
विराट ऊर्जा
प्रगट
हुई--आत्मा के
बंधन हट जायें
तो जो परम ऊर्जा
प्रगट होती है
उसी का नाम
महावीर ने
परमात्मा कहा
है। वह
आत्म-विस्फोट
है।
बंधन
हटाने हैं।
बंधन
आकांक्षाओं
के, आशाओं के
हैं। बंधन
मूर्च्छा के
हैं। तो मूर्च्छा
को तोड़ने में
लग जाओ।
सारे
विचार का
महावीर का एक
संक्षिप्त
भाव है:
मूर्च्छा को
तोड़ने में लग
जाओ। जो भी
करो अपने को जगाकर
करो। राह पर
चलो तो जागकर
चलो। भोजन करो
तो जागकर
करो। किसी का
हाथ हाथ में
लो तो जागकर
लो। और सदा
ध्यान रखो कि
बीच में सपना
न आए। थोड़े
दिन सपनों को
ऐसे छांटते
रहे, हटाते
रहे, हटाते
रहे तो जल्दी
ही तुम पाओगे
कभी-कभी क्षणभर
को सपने नहीं
होते और झलक
मिलती है। वही
झलक ज्ञान
बनेगी। फिर उन
झलकों को
इकट्ठी करते
जाना। वह अपने
आप इकट्ठी
होती चली जाती
हैं। ज्ञान एक
दफा हो तो कोई
भूल नहीं
सकता। वह तो
हमें, दूसरों
की बातें हैं,
इसलिए याद
रखनी पड़ती
हैं। जो अपने
में घटता है
उसे विस्मरण
करने का उपाय
नहीं है। वह
तो संगृहीत
होता चला जाता
है, सघन
होता चला जाता
है। और जैसे
बूंद-बूंद
गिरकर सागर बन
जाता है, ऐसे
बूंद-बूंद
ज्ञान की
गिरकर आचरण
निर्मित होता
है।
नाणेण जाणई भावे, दंसणेण य सद्दहे।
चरित्तेण निगिण्हाइ, तवेण परिसुज्झई।।
"ज्ञान
से जानना होता
है; दर्शन
से श्रद्धा, श्रद्धा से
चरित्र, चरित्र
से शुद्धि...'
नादंसणिस्स नाणं--दर्शन
के बिना ज्ञान
नहीं।
नाणेण विणा न हुंति
चरणगुणा--ज्ञान
के बिना
चरित्र नहीं।
अगुणिस्स नत्थि मोक्खो--चरित्र
के बिना मोक्ष
कहां?
नत्थि अमोक्खस्स
निव्वाणं--और
मोक्ष के बिना
आनंद कहां?
उस
परमानंद को
चाहते हो तो
दर्शन के बीज
बोओ। दर्शन के
बीज
बोओ--ज्ञान की
फसल काटोगे।
उस ज्ञान की
फसल को पचाओगे, पुष्ट होओगे,
तो
चारित्र्य
उत्पन्न
होगा।
और
मोक्ष
चारित्र्य की
प्रभा है।
चरित्रवान
मुक्त है।
चरित्रहीन
बंधा है।
चरित्रवान की
जंजीरें गिर
गयीं।
लेकिन
अभी तो तुमने
जो चरित्रवान
देखे हैं, तुम उनको
पाओगे कि
उन्होंने नयी
जंजीरें बना ली
हैं। तो
तुम्हारे
चरित्रहीन भी
बंधे हैं, तुम्हारे
चरित्रवान भी
बंधे हैं। और
अकसर तो बड़ा
व्यंग्य और
बड़ी उलटी बात
दिखायी पड़ती
है: चरित्रहीनों
से ज्यादा
बंधे
तुम्हारे
चरित्रवान
हैं।
चरित्रहीनों
से भी बंधे!
चरित्रहीन
में भी
थोड़ी-बहुत
स्वतंत्रता
मालूम पड़ती है।
चरित्रवान तो
बैठा है मंदिर
में, स्थानक
में, पूजागृह
में बंद! ऐसा
घबड़ाया, डरा!
लेकिन कहीं
चूक हो गयी
है। चरित्र की
प्रभा मोक्ष है।
जो मुक्त न कर
जाये, वह
चरित्र नहीं।
तुम
दर्शन से शुरू
करना: किसी
दिन मोक्ष की
प्रभा उपलब्ध
होती है।
निश्चित होती
है। यह जीवन
का ठीक गणित
है।
और
महावीर जो भी
कह रहे हैं, वह
वैज्ञानिक
संगति का सत्य
है। उसमें एक-एक
कदम
वैज्ञानिक
है। जैसे सौ
डिग्री पानी
गरम करो, भाप
बन जाता
है--ऐसे
महावीर के वचन
हैं: दर्शन से
ज्ञान, ज्ञान
से चरित्र, चरित्र से
मोक्ष!
आज
इतना ही।
THANK YOU GURUJI
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