सुहृन्मित्रार्युदासीनमध्यस्थद्वेष्यबन्धुषु।
साधुष्वपि च
पापेषु समबुद्धिर्विशिष्यते।।
9।।
और
जो पुरुष
सुहृद, मित्र,
बैरी, उदासीन,
मध्यस्थ, द्वेषी और बंधुगणों
में तथा धर्मात्माओं
में और
पापियों में
भी समान भाव
वाला है, वह
अति श्रेष्ठ
है।
कृष्ण
के लिए समत्वबुद्धि
समस्त योग का
सार है। इसके
पूर्व के
सूत्रों में
भी अलग-अलग
द्वारों से समत्वबुद्धि
के मंदिर में
ही प्रवेश की
योजना कृष्ण
ने कही है। इस
सूत्र में भी
पुनः किसी और
दिशा से वे समत्वबुद्धि
की घोषणा करते
हैं। बहुत-बहुत
रूपों में समत्वबुद्धि
की बात करने
का प्रयोजन
है।
प्रयोजन
है, भिन्न-भिन्न,
भांति-भांति
प्रवृत्ति और प्रकृतियों
के लोग हैं। समत्वबुद्धि
का परिणाम तो
एक ही होगा, लेकिन
यात्रा
भिन्न-भिन्न
होगी। हो सकता
है, कोई
सुख और दुख के
बीच समबुद्धि
को साधे। लेकिन
ऐसा भी हो
सकता है कि
सुख और दुख के
प्रति किसी व्यक्ति
की
संवेदनशीलता
ही बहुत कम
हो।
हम सबकी संवेदनशीलताएं, सेंसिटिविटीज अलग-अलग हैं। हो सकता है, किसी व्यक्ति के लिए सुख और दुख उतने महत्वपूर्ण द्वार ही न हों; यश और अपयश ज्यादा महत्वपूर्ण हों।
हम सबकी संवेदनशीलताएं, सेंसिटिविटीज अलग-अलग हैं। हो सकता है, किसी व्यक्ति के लिए सुख और दुख उतने महत्वपूर्ण द्वार ही न हों; यश और अपयश ज्यादा महत्वपूर्ण हों।
आप
कहेंगे कि यश
तो सुख ही है
और अपयश दुख
ही है! नहीं; थोड़ा बारीकी
से देखेंगे, तो फर्क
खयाल में आ
जाएगा।
ऐसा हो
सकता है कि एक
व्यक्ति यश
पाने के लिए कितना
ही दुख झेलने
को राजी हो
जाए; और ऐसा भी
हो सकता है कि
कोई व्यक्ति,
अपयश न मिले,
इसलिए
कितना ही दुख
झेलने को राजी
हो जाए। इससे
उलटा भी हो
सकता है। ऐसा
व्यक्ति हो
सकता है, जो
अपने सुख के
लिए कितना ही
अपयश झेलने को
राजी हो जाए।
ऐसा व्यक्ति
हो सकता है, जो दुख से
बचने के लिए
कितना ही यश
खोने को राजी
हो जाए।
तो
जिसके लिए
अपयश और यश
ज्यादा
महत्वपूर्ण हैं, उसके लिए
सुख और दुख का
द्वार काम
नहीं करेगा।
उसके लिए यश
और अपयश में
समबुद्धि को
साधना पड़ेगा।
वही
साधना पड़ेगा
हमें, जो
हमारा चुनाव
है, जो
हमारा
द्वंद्व है।
हम सबके
द्वंद्व अलग
अलग हैं।
यह भी
हो सकता है कि
किसी व्यक्ति
के लिए अपयश, यश का भी कोई
मूल्य न हो, लेकिन
मित्रता और शत्रुता
का भारी मूल्य
हो। एक
व्यक्ति ऐसा
हो सकता है कि
मित्र के लिए
हजार तरह के
यश खोने को राजी
हो जाए; और
एक व्यक्ति
ऐसा भी हो
सकता है कि यश
के लिए हजार
मित्रों को
खोने के लिए
राजी हो जाए।
तो जिस
व्यक्ति के
लिए मित्र और
शत्रु
महत्वपूर्ण
बात है, उसे
न यश महत्वपूर्ण
है, न सुख; न दुख
महत्वपूर्ण
है, न
अपयश। उसके
लिए मित्रता
और शत्रुता के
बीच ही समत्व
को साधना
होगा।
जो
आपके लिए
महत्वपूर्ण
है द्वंद्व, वही द्वंद्व
आपके लिए
मार्ग बनेगा।
दूसरे का द्वंद्व
आपके लिए
मार्ग नहीं
बनेगा।
एक
व्यक्ति हो
सकता है, जिसे
सौंदर्य का
कोई बोध ही न
हो। बहुत लोग
हैं, जिन्हें
सौंदर्य का
कोई बोध ही
नहीं है। वे
भी दिखलाते
हैं कि उन्हें
सौंदर्य का
बोध है। और
अगर उनके पास थो॰? पैसे
की सुविधा है,
तो वे भी
अपने घर में वानगाग के
चित्र लटका
सकते हैं और पिकासो की
पेंटिंग्स
लटका सकते हैं,
लेकिन फिर
भी सौंदर्य का
बोध और बात
है। जिसे
सौंदर्य का
बोध है, उसके
लिए द्वंद्व,
कुरूपता और
सौंदर्य के
बीच संतुलन का
होगा। सभी को
वह बोध नहीं
है।
सौंदर्य
का बोध
रवींद्रनाथ
जैसे किसी
व्यक्ति को
होता है। तो
उस बोध के
परिणाम ये
होते हैं कि
छोटा-सा
असौंदर्य भी
सहना कठिन हो
जाता है।
छोटा-सा, बहुत
छोटा-सा, जिस
पर हमारी
दृष्टि भी न
जाए, वह भी
रवींद्रनाथ
को असह्य हो
जाएगा। अगर
कोई व्यक्ति
थोड़ा इरछा-तिरछा
भी
रवींद्रनाथ
के पास आकर
बैठ गया, तो
वे बेचैन हो
जाएंगे।
जरा-सा अनुपात
अगर ठीक नहीं
है, तो
उन्हें बड़ी
कठिनाई शुरू
हो जाएगी। एक
व्यक्ति अगर
जोर की आवाज
में बोल दे और
सौंदर्य खो
जाए आवाज का, संगीत खो
जाए, तो
रवींद्रनाथ
को पीड़ा हो
जाएगी। और हो
सकता है, आपको
जोर से बोलना
महज आदत हो।
आपको कोई बोध
ही न हो।
प्रत्येक
व्यक्ति के बोधत्तंतु
भिन्न-भिन्न
हैं। हम सभी
के पास
अपना-अपना द्वंद्व
है। तो समझें
कि अपना
द्वंद्व ही
अपना द्वार
बनेगा। इसलिए
कृष्ण हर
द्वंद्व की बात
करते हैं।
इस
सूत्र में वे
कहते हैं, मित्र और
शत्रु के बीच
जो सम है।
अर्जुन
के लिए यह
सूत्र उपयोगी
हो सकता है।
अर्जुन के लिए
मित्रता और
शत्रुता कीमत
की बात है।
क्षत्रिय के
लिए सदा से
रही है। बहुत
संवेदनशील
क्षत्रिय
अपनी जान दे
दे, वचन न
छोड़े। मित्र
को दिया गया
वायदा पूरा
करे, चाहे
प्राण चले
जाएं। अगर
वणिक बुद्धि
का व्यक्ति हो,
तो एक पैसा
बचा ले, चाहे
हजार वचन चले
जाएं, हजार
मित्र खो
जाएं।
बुरे-भले की
बात नहीं है, अपना-अपना
द्वंद्व है।
सुना
है मैंने, राजस्थान
में एक
लोक-कथा है।
एक गांव में
गांव के
राजपूत सरदार
ने गांवभर
में खबर रख छोड़ी
है कि कोई
मूंछ बड़ी न
करे। खुद मूंछ
बड़ी कर रखी है।
और अपने
दरवाजे पर
तख्त डालकर
बैठा रहता है।
और गांव में
खबर कर रखी है
कि कोई मूंछ
ऊंची करके
सामने से न
निकले। अगर
मूंछ भी हो, तो नीची कर
ले।
गांव
में एक नया
वणिक आया है, नया वैश्य
आया है। उसने
नई दुकान खोली
है। उसको भी
मूंछ रखने का
शौक है। पहली
बार राजपूत के
सामने से निकल
रहा है।
राजपूत ने कहा,
वणिक-पुत्र,
मूंछ नीची
कर लो! शायद
तुम्हें पता
नहीं, मेरे
दरवाजे के
सामने मूंछ
ऊंची नहीं जा
सकती।
वणिक-पुत्र ने
कहा, मूंछ
तो ऊंची ही
जाएगी!
तलवारें खिंच
गईं। राजपूत
दो तलवारें
लेकर बाहर आ
गया। राजपूत
था इसलिए दो
लाया। एक
वणिक-पुत्र के
लिए, एक
अपने लिए।
वणिक-पुत्र
ने तलवार
देखी। कभी पकड़ी
तो न थी।
सिर्फ मूंछ ऊंची
रखने का शौक
था। सोचा, यह झंझट हो
गई।
वणिक-पुत्र ने
कहा, ठीक
है। खुशी से
इस युद्ध में
मैं उतरूंगा।
लेकिन एक
प्रार्थना कि
जरा मैं घर
होकर लौट आऊं।
उस राजपूत ने
कहा, किसलिए?
वणिक-पुत्र
ने कहा, आपको
भी ठीक जंचे,
तो आप भी
यही करें। हो
सकता है, मैं
मर जाऊं, तो
मेरे पीछे
मेरी पत्नी और
बच्चे दुखी न
हों; उनकी
मैं गर्दन
काटकर आता
हूं। अगर आपको
भी जंचती
हो बात, हो
सकता है, आप
मर जाएं, तो
आप अपनी पत्नी
और बच्चों की
गर्दन काट दें;
फिर हम लड़ें
मौज से।
राजपूत ने कहा,
बात ठीक है।
वणिक-पुत्र
अपने घर गया।
राजपूत ने
भीतर जाकर
गर्दनें साफ
कर दीं। बाहर
आकर बैठ गया। थोड़ी
देर में
वणिक-पुत्र
मूंछ नीची
करके लौट आया।
उसने कहा, मैंने सोचा
नाहक झंझट
क्यों करनी!
जरा-सी मूंछ
को नीची करने
के लिए उपद्रव
क्यों करना!
यह तुम्हारी
तलवार
सम्हालो! उस
राजपूत ने कहा,
तुम आदमी
कैसे हो? मैंने
अपनी पत्नी और
बच्चे साफ कर
दिए! तो उस
वणिक-पुत्र ने
कहा कि फिर
तुम जानते ही
नहीं कि वणिक
का अपना गणित
होता है।
हमारा अपना
हिसाब है!
प्रत्येक
व्यक्ति का
टाइप है, और
प्रत्येक
व्यक्ति के
रुझान हैं, और प्रत्येक
व्यक्ति की संवेदनशीलताएं
हैं, और
प्रत्येक
व्यक्ति के
लिए उसके जीवन
का
महत्वपूर्ण
द्वंद्व है। और
हर एक को अपना
द्वंद्व देख
लेना चाहिए कि
मेरा द्वंद्व
क्या है? प्रेम
और घृणा मेरा
द्वंद्व है? मित्रता-शत्रुता
मेरा द्वंद्व
है? धन-निर्धनता
मेरा द्वंद्व
है? यश-अपयश
मेरा द्वंद्व
है? सुख-दुख,
ज्ञान-अज्ञान,
शांति-अशांति,
मेरा
द्वंद्व क्या
है?
और जो
भी आपका
द्वंद्व हो, कृष्ण कहते
हैं, उस
द्वंद्व में
समबुद्धि को
उपलब्ध होना
मार्ग है।
ध्यान
रहे, दूसरे के
द्वंद्व में
आप समबुद्धि
को बड़ी आसानी
से उपलब्ध हो
सकते हैं।
अपने ही
द्वंद्व का
सवाल है।
दूसरे के
द्वंद्व में
आपको समबुद्धि
लाने में जरा
भी कठिनाई
नहीं पड़ेगी। आप
कहेंगे कि
बिलकुल ठीक
है। अगर आपकी
जिंदगी में
कभी यश का
खयाल नहीं
पकड़ा, अगर
आपको कभी
राजनीति का
प्रेत सवार
नहीं हुआ, यश
का, तो आप
कहेंगे कि ठीक
है, इलेक्शन जीते कि
हारे। इसमें
तो हम सम ही
रहते हैं, इसमें
कोई हमें
कठिनाई नहीं
है। आपको कभी
वह भूत नहीं
पकड़ा हो, तो
आप बिलकुल
समबुद्धि बता
सकते हैं।
लेकिन असली
सवाल यह नहीं
है कि आप
बताएं; असली
सवाल वह है कि
जिसे भूत पकड़ा
हो। आपका अपना
भूत क्या है, आपका अपना
प्रेत क्या है,
जो आपका
पीछा कर रहा
है? उसकी
ठीक पहचान
जरूरी है।
इसलिए
कृष्ण अलग-अलग
सूत्र में
अलग-अलग प्रेतों
की चर्चा कर
रहे हैं। वे
यहां कहते हैं
कि मित्र और
शत्रु के बीच
समभाव।
बड़ी
कठिनाई है। एक
बार धन और
निर्धनता के
बीच समभाव
आसान है, क्योंकि
धन निर्जीव
वस्तु है। इसे
थोड़ा ठीक से
समझ लेंगे।
एक बार
यश और अपयश के बीच
समभाव आसान है, क्योंकि यश
और अपयश आपकी
निजी बात है।
लेकिन मित्र
और शत्रु के
बीच समभाव
रखना बहुत
कठिन है।
क्योंकि एक तो
निजी बात नहीं
रही; कोई
और भी
सम्मिलित हो
गया; मित्र
और शत्रु भी
सम्मिलित हो
गए। आप अकेले
न रहे, दूसरा
भी मौजूद हो
गया। और इसलिए
भी महत्वपूर्ण
और कठिन है कि
धन जैसी
निर्जीव वस्तु
नहीं है
सामने। आप
सोने को और
मिट्टी को समान
समझ लें एक
बार, तो
बहुत कठिनाई
नहीं है, क्योंकि
दोनों जड़ हैं।
लेकिन मित्र
और शत्रु दोनों
जीवंत हैं, चेतन हैं, उतने ही
जितने आप।
आपके ही तल पर
खड़े हुए लोग हैं;
आप जैसे ही
लोग हैं।
कठिनाई, जटिलता
ज्यादा है।
इसलिए
मित्र और
शत्रु के बीच
समभाव रखने की
क्या
प्रक्रिया
होगी? कौन
रख सकेगा
मित्र और
शत्रु के बीच
समभाव? उसको
ही कृष्ण योगी
कहते हैं। कौन
रख सकेगा? तो
इसके थोड़े से
सूत्र खयाल
में ले लें।
एक, जो व्यक्ति
अपने लिए किसी
का भी शोषण
नहीं करता, जो व्यक्ति
अपने लिए किसी
का भी शोषण
नहीं करता, वही व्यक्ति
मित्र और
शत्रु के बीच
समभाव रखने
में सफल हो
पाएगा।
आप
मित्र कहते ही
उसे हैं, जो
आपके काम पड़ता
है। कहावत है
कि मित्र की
कसौटी तब होती
है, जब
मुसीबत पड़े।
जो आपके काम
पड़ जाए, उसे
आप मित्र कहते
हैं। जो आपके
काम में बाधा
बन जाए, उसे
आप शत्रु कहते
हैं। और तो
कोई फर्क नहीं
है। इसलिए
मित्र कभी भी
शत्रु हो सकता
है, अगर
काम में बाधा
डाले। और
शत्रु कभी भी
मित्र हो सकता
है, अगर
काम में
सहयोगी बन
जाए।
अगर
आपका कोई भी
काम है, तो
आप समभाव न रख
सकेंगे।
मित्र और
शत्रु के बीच
वही समभाव रख
सकता है, जो
कहता है, मेरा
कोई काम ही
नहीं है, जिसमें
कोई सहयोगी बन
सके और जिसमें
कोई विरोधी बन
सके। जो कहता
है, इस
जिंदगी को मैं
नाटक समझता
हूं, काम
नहीं। जो कहता
है, यह
जिंदगी मेरे
लिए सपने जैसी
है, सत्य
नहीं। जो कहता
है, यह
जिंदगी मेरे
लिए रंगमंच है;
यहां मैं
खेल रहा हूं, कोई काम
नहीं कर रहा
हूं।
जो
थोड़ा भी गंभीर
है जीवन के
प्रति और कहता
है कि यह काम
मुझे करना है, वह शत्रुओं
और मित्रों के
बीच कभी भी
समभाव को
उपलब्ध नहीं
हो सकता।
क्योंकि काम
ही कहेगा कि
मित्रों के
प्रति भिन्न
भाव रखो, शत्रुओं
के प्रति
भिन्न भाव
रखो। अगर मुझे
कुछ भी करना
है इस जमीन पर,
अगर मुझे
कोई भी खयाल
है कि मैं कुछ
करना चाहता
हूं, तो
फिर मैं मित्र
और शत्रु के
बीच समभाव न
रख सकूंगा।
मित्र और
शत्रु के बीच
समभाव तभी हो
सकता है, जब
मेरा कोई काम ही
नहीं है इस
पृथ्वी पर।
मुझे कहीं
पहुंचना नहीं
है। मुझे कुछ
करके नहीं
दिखा देना है।
इसका
यह भी मतलब
नहीं है कि
मैं बिलकुल
निठल्ला और
निष्क्रिय
बैठ जाऊं, तो मित्र और
शत्रु के बीच
समभाव हो
जाएगा। अगर
मैंने
निठल्ला
बैठना भी अपनी
जिंदगी का काम
बना लिया, तो
कुछ मेरे
मित्र होंगे
जो निठल्ले
बैठने में
सहायता देंगे
और कुछ मेरे
शत्रु हो
जाएंगे जो
बाधा
डालेंगे।
इसका
यह अर्थ नहीं
है। इसका इतना
ही अर्थ है कि
काम तो मैं
करता ही
रहूंगा, लेकिन
यह जिद्द,
यह अहंकार
मेरे भीतर न
हो कि यह काम
मुझे करके ही
रहना है। तो
फिर ठीक है।
जो काम में
साथ दे देता
है, उसका
धन्यवाद; और
जो काम में
बाधा दे देता
है, उसका
भी धन्यवाद।
जो रास्ते से
पत्थर हटा देता
है, उसका
भी धन्यवाद; और रास्ते
पर जो पत्थर
बिछा देता है,
उसका भी
धन्यवाद।
न मुझे
कहीं पहुंचना
है, न मुझे
कुछ कर लेना
है। जीता हूं;
परमात्मा
जो काम मुझसे
लेना चाहे, ले ले।
जितना मुझसे
बन सकेगा, कर
दूंगा। कोई
ऐसी जिद्द
नहीं है कि यह
लक्ष्य पूरा
होना ही
चाहिए। तो फिर
मित्र और
शत्रु के बीच
कोई बाधा नहीं
रह जाती। फिर
समान हो जाती
है बात।
तो
पहली बात तो
आपसे यह कहना
चाहूं कि जिस
व्यक्ति को भी
जीवन को एक
काम समझ लेने
की नासमझी आ
गई हो, और
जिसे ऐसा खयाल
हो कि उसे
जिंदगी में
कुछ करके जाना
है, वह
शत्रु और
मित्र
निर्मित
करेगा ही। और
वह समभाव भी न
रख सकेगा।
दूसरी
बात आपसे यह
कहना चाहता
हूं कि शत्रु
और मित्र के
बीच समभाव
रखना तभी संभव
है, जब आपके
भीतर वह जो
प्रेम पाने की
आकांक्षा है,
वह विदा हो
गई हो। दूसरी
बात भी ठीक से
समझ लें।
हम
सबके मन में
मरते क्षण तक
भी प्रेम पाने
की आकांक्षा
विदा नहीं
होती। पहले
दिन बच्चा पैदा
होता है तब भी
वह प्रेम पाने
के लिए आतुर
होता है, उतना
ही जितना बूढ़ा
मरते वक्त
आखिरी श्वास
लेते वक्त
होता है।
प्रेम पाने की
आतुरता बनी
रहती है; ढंग
बदल जाते हैं।
लेकिन प्रेम
कोई करे मुझे! कोई
मुझे प्रेम
दे! प्रेम का
भोजन न मिलेगा,
तो मैं भूखा
होकर मर जाऊंगा,
मुश्किल
में पड़ जाऊंगा।
एक बार
शरीर को भोजन
न मिले, तो
हम सह पाते
हैं। लेकिन
अगर चित्त को
भोजन न
मिले--प्रेम
चित्त का भोजन
है। चित्त को
प्राण मिलते
हैं प्रेम से।
तो जब
तक जरूरत है
प्रेम की, तब तक मित्र
और शत्रु को
एक कैसे समझिएगा!
सम कैसे हो
जाइएगा! तटस्थ
कैसे होंगे!
मित्र वह है, जो प्रेम
देता है।
शत्रु वह है, जो प्रेम
नहीं देता है।
तो जब तक आपकी
प्रेम की
आकांक्षा शेष
है कि कोई मुझे
प्रेम दे...।
और यह
बड़े मजे की
बात है कि
दुनिया में
सारे लोग
चाहते हैं कि
कोई उन्हें
प्रेम दे।
शायद ही कोई
चाहता है कि
मैं किसी को
प्रेम दूं!
इसको थोड़ा
बारीकी से समझ
लेना उचित
होगा।
हम
सबको यह भ्रम
होता है कि हम
प्रेम देते
हैं। लेकिन
अगर आप प्रेम
सिर्फ इसीलिए
देते हैं, ताकि आपको
लौटते में
प्रेम मिल जाए,
तो आप सिर्फ
इनवेस्टमेंट
करते हैं, देते
नहीं हैं। आप
सिर्फ
व्यवसाय में
संलग्न होते
हैं।
मैं
अगर आपको
प्रेम देता
हूं सिर्फ
इसलिए कि मैं
प्रेम चाहता
हूं और बिना प्रेम
दिए प्रेम
नहीं मिलेगा, तो मैं
सिर्फ सौदा कर
रहा हूं। मेरी
चेष्टा तो
प्रेम पाने की
है। देता हूं
इसलिए कि बिना
दिए प्रेम
नहीं मिलेगा।
यह
मेरा दिया हुआ
प्रेम वैसा ही
है, जैसा कि
कोई मछली को
मारने वाला
कांटे पर आटा लगा
देता है। आटा
लगाकर कांटे
पर और लटकाकर
बैठ जाता है
अपनी बंसी को।
मछलियां
सोचती होंगी
कि आटा खिलाने
के लिए कोई
बड़ी कृपा करके
आया है! पर आटा
सिर्फ ऊपर है,
भीतर कांटा
है। मछली आटा
ही खाने को
आएगी और तब
पाएगी कि
कांटा उसके
प्राणों तक चुभ गया
है। अगर किसी
में कांटा भी
डालना हो, तो
आटा लगाकर ही
डालना पड़ता
है।
अगर
मुझे किसी से
प्रेम लेना है
और किसी के ऊपर
प्रेम की
मालकियत कायम
करनी है, तो
पहले घुटने टेककर
प्रेम निवेदन
करना पड़ता है।
वह आटा है।
तो
दूसरा सूत्र
आप खयाल में
ले लें, जब
तक प्रेम की
आकांक्षा है
कि कोई मुझे
प्रेम दे...।
और
ध्यान रहे, जब तक यह
आकांक्षा है,
तब तक आप
बच्चे हैं, जुवेनाइल हैं, आप
विकसित नहीं
हुए। विकसित
मनुष्य वह है,
प्रेम पाने
का कोई सवाल
जिसे नहीं रह
गया। जो बिना
प्रेम के जी
सकता है।
प्रौढ़ मनुष्य
वह है, जो
प्रेम नहीं
मांगता।
और यह
बड़े मजे की
बात है, और
इसी से तीसरा
सूत्र निकलता
है। जो आदमी
प्रेम नहीं
मांगता, वह
आदमी प्रेम
देने में
समर्थ हो जाता
है। और जो
आदमी प्रेम
मांगता चला
जाता है, वह
कभी प्रेम
देने में
समर्थ नहीं
होता।
मगर
बड़ा उलटा है।
हम सबको लगता
है, हम प्रेम
देने में
समर्थ हैं।
बाप सोचता है,
मैं बेटे को
प्रेम दे रहा
हूं। लेकिन
मनोवैज्ञानिक
से पूछें, मनसविद
से पूछें। वह
कहता है, बाप
भी बेटे को थपथपाकर
आशा करता है
कि बेटा भी
बाप को थपथपाए।
हां, थपथपाने के ढंग अलग
होते हैं।
बेटा और ढंग
से थपथपाएगा,
बाप और ढंग
से थपथपाएगा।
बेटा कहेगा, डैडी, आप
जैसा ताकतवर
डैडी इस
दुनिया में
कोई भी नहीं
है! डैडी, जिनकी
छाती में
हड्डियां भी
नहीं हैं, उनकी
छाती फूलकर
आकाश जैसी हो
जाएगी। बेटा
भी थपथपा
रहा है।
बेटा
भी अगर बाप का
प्रेम चुपचाप
ले ले और उत्तर
न दे, तो बाप
दुखी और पीड़ित
लौटता है।
बेटा अगर मां का
प्रेम वापस न लौटाए, तो
मां भी चिंतित
और परेशान और
पीड़ित हो जाती
है।
बूढ़े
से बूढ़ा आदमी
भी प्रेम वापस
मांग रहा है।
आदमियों से
नहीं मिलता, तो लोग
कुत्ते पाल
लेते हैं।
दरवाजे पर आते
हैं, कुत्ता
पूंछ हिला
देता है।
क्योंकि अब पत्नियां
पूंछ हिलाएं,
जरूरी नहीं
है। बच्चे
पूंछ हिलाएं,
जरूरी नहीं
है। सब गड़बड़ हो
गई है पुरानी
व्यवस्था
पूंछ हिलाने
की।
जिन-जिन
मुल्कों में
आदमी पूंछ
हिलाना बंद कर
रहे हैं, वहां-वहां
कुत्ते का
फैशन बढ़ता
जाता है। वह सब्स्टीटयूट
है। दरवाजे पर
खड़ा रहता है; आप आए, वह
पूंछ हिला
देता है। आप
बड़े खुश हो
जाते हैं।
आश्चर्यजनक
है! कुत्ते की
हिलती पूंछ भी
आपको तृप्ति
देती है। कम
से कम कुत्ता
तो प्रेम दे
रहा है!
हालांकि
कुत्ते का भी प्रयोजन
वही है। वह भी
पूंछ हिलाकर
आटा डाल रहा
है। उसके भी
अपने कांटे
हैं। वह भी
जानता है कि
बिना पूंछ
हिलाए यह आदमी
टिकने नहीं
देगा। यह भोजन
मिलता है, घर
में विश्राम मिलता
है, यह
पूंछ हिलाकर
वह आपसे खरीद
रहा है। वह भी इनवेस्ट
कर रहा है।
सारी दुनिया इनवेस्टमेंट
में है।
जो
आदमी प्रेम
मांग रहा है, वह मित्र और
शत्रु के बीच
समबुद्धि को
उपलब्ध नहीं
हो सकता।
सिर्फ वही
आदमी
समबुद्धि को
उपलब्ध हो
सकता है, वह
तीसरा सूत्र
आपसे कहता हूं,
जो प्रेम
मांगने के पार
चला गया और जो
प्रेम देने
में समर्थ हो
गया। जिसे
प्रेम देना है
और लेना नहीं
है, वह
मित्र को भी
दे सकता है, शत्रु को भी
दे सकता है।
क्योंकि लेने
का तो कोई
सवाल नहीं है,
इसलिए फर्क
करने की कोई
आवश्यकता
नहीं है।
सुना
है मैंने, जीसस एक
कहानी कहा
करते थे। वह
कहानी आपको इस
बात को समझाने
में सहयोगी
होगी। जीसस
कहा करते थे
प्रेम को ही
समझाने के
लिए। कभी-कभी
जीसस के शिष्य
सवाल उठा देते
थे कि मैं तो
आपकी इतनी सेवा
करता हूं, फिर
भी आप मुझे
इतना ही प्रेम
करते हैं, जितना
कि उस आदमी को
करते हैं, जिसने
आपकी कभी कोई
सेवा नहीं की!
मैं आपके साथ
बरसों से
परेशान होता
हूं, दर-दर
भटकता हूं।
मुझे भी आप
उतना ही प्रेम
देते हैं, उस
अजनबी आदमी को
भी उतना ही
प्रेम दे देते
हैं, जो
रास्ते पर
आपको पहली बार
मिलता है!
तो
जीसस एक कहानी
कहा करते थे।
वे कहते थे कि एक
बहुत बड़ा
धनपति
था--बहुत बड़ा।
उसके पास बहुत
धन था, जिसका
कोई हिसाब भी
न था। मगर इस
वजह से बहुत बड़ा
धनपति था, इसलिए
नहीं। ईसा
कहते थे, वह
इसलिए बड़ा
धनपति था कि
धन पर उसकी
पकड़ खो गई थी
और धन की उसकी
आकांक्षा खो
गई थी। उसकी
अब कोई और
आकांक्षा न थी
कि मुझे और धन
मिल जाए।
इसलिए वह बड़ा
धनपति था। और
वह धन बांट
सकता था।
क्योंकि
जिसकी
आकांक्षा शेष
है कि मुझे और
धन मिल जाए, वह बांट
नहीं सकता, वह दान नहीं
कर सकता। वह
बांट सकता था।
अब पाने की
कोई आकांक्षा
न थी।
एक दिन
सुबह उसके
अंगूर के खेत
पर उसने अपने
मजदूर भेजे और
कहा कि गांव
से कुछ मजदूर
बुला लाओ।
सुबह सूरज
उगने के वक्त
कुछ मजदूर खेत
पर काम करने
आए। लेकिन
मजदूर कम थे।
फिर उसने आदमी
भेजा; फिर
बाजार से कुछ
मजदूर आए।
लेकिन तब सूरज
काफी चढ़ चुका
था; दोपहर
होने के करीब
थी। लेकिन फिर
भी मजदूर कम
थे, काम
ज्यादा था।
फिर उसने और
आदमी भेजे।
ऐसा हुआ कि
दोपहर के बाद
भी कुछ लोग
आए। और ऐसा
हुआ कि सांझ
ढलते हुए भी
कुछ लोग आए।
और फिर सूरज
ढलने लगा। और
मजदूरी बंटने
का समय आ गया।
उसने सब
मजदूरों को
बराबर पैसे दिए।
सुबह
से जो मजदूर
आए थे, उनकी
तेवर चढ़ गईं।
उन्होंने कहा,
यह अन्याय
है। हम सुबह
से आए हैं! दिनभर
सूरज के चढ़ते
और उतरते हमने
काम किया। और
कुछ लोग ऐसे
भी हैं, जो
अभी आए हैं, जिन्होंने
काम हाथ में
लिया ही था कि
सूरज ढल गया
और सांझ हो गई
और अंधेरा उतर
आया। और हम सबको
तुम बराबर
देते हो!
उस
धनपति ने कहा, मैं तुमसे
यह पूछता हूं
कि तुमने
जितना काम
किया, उतना
काम के योग्य
तुम्हें मिल
गया या उससे
कम है? उन्होंने
कहा, नहीं,
हमें उससे
ज्यादा ही मिल
गया है। तो उस
आदमी ने कहा, फिर तुम
इनकी चिंता मत
करो। इन्हें
मैं इनके काम
के कारण नहीं
देता; मेरे
पास बहुत है, इसलिए देता
हूं। तुम्हें
तुम्हारे काम
से ज्यादा मिल
गया हो, तुम
निश्चिंत चले
जाओ। और
इन्हें मैं
इनके काम के
कारण नहीं
देता; मेरे
पास देने को
बहुत है, इसलिए
देता हूं।
जिसके
पास देने को
प्रेम है--और
उसी के पास है, जिसको अब
मांगने की
इच्छा न रही, जो अब प्रेम
का भिखारी न
रहा, जो
सम्राट हुआ। बहुत
मुश्किल से
कभी कोई बुद्ध,
कभी कोई
कृष्ण इस हालत
में आते हैं, जब कि वे
प्रेम के
मालिक होते
हैं, जब वे
सिर्फ देते
हैं और लेते
नहीं। मांगते
नहीं, मांगने
का कोई सवाल
ही नहीं, सिर्फ
बांटते चले
जाते हैं। ऐसा
व्यक्ति शत्रु
को भी दे देगा
और मित्र को
भी दे देगा, क्योंकि कोई
कमी पड़ने वाली
नहीं है। और
मित्र और
शत्रु में
फर्क क्यों
करें? जब
दोनों को देना
ही है, तो
फर्क का क्या
सवाल है! लेना
हो, तो
फर्क का सवाल
है, क्योंकि
मित्र देगा और
शत्रु नहीं
देगा। लेकिन
देना ही हो, तो फर्क का
क्या सवाल है!
तो
तीसरा सूत्र
खयाल रख लें
कि जो प्रेम
के मालिक हुए, वे ही केवल
मित्र और
शत्रु के बीच
समबुद्धि को
उपलब्ध हो
सकते हैं।
मैंने
कहा कि धन और
निर्धनता के
बीच समबुद्धि लानी
बहुत कठिन
नहीं है, क्योंकि
धन बड़ी बाहरी
घटना है। और
यश-अपयश के बीच
भी समबुद्धि
लानी बहुत बड़ी
बात नहीं है, क्योंकि
यश-अपयश भी
लोगों की
आंखों का खेल
है। लेकिन
मित्र और
शत्रु के बीच
समभाव लाना
बहुत गहरी
घटना है।
क्योंकि आप और
आपका प्रेम और
आपका पूरा
व्यक्तित्व
समाहित है। आप
पूरे रूपांतरित
हों, तो ही
मित्र और
शत्रु को
समभाव से देख
पाएंगे।
ये तीन
तो आधारभूत
सूत्र आपको
खयाल में रखने
चाहिए। और जब
भी, जब भी मन
कहे कि यह
आदमी मित्र है,
तब पूछना
चाहिए, क्यों?
यह सवाल, जब भी मन कहे,
फलां आदमी
शत्रु है, तो
पूछना चाहिए,
क्यों? क्या
इसलिए कि उससे
मुझे प्रेम
नहीं मिलेगा?
क्या इसलिए
कि वह मेरे
किसी काम में
बाधा डालेगा?
किसलिए वह मेरा
शत्रु है? और
किसलिए
कोई मेरा
मित्र है? क्या
इसलिए कि वह
मुझे प्रेम
देगा, मैं
भरोसा कर सकता
हूं? मेरे
वक्त पर काम
पड़ेगा? मेरे
काम में
सहयोगी होगा,
बाधा नहीं
बनेगा?
अगर
यही सवाल आपको
उठते हों, तो फिर एक
बार सोचना कि
आप जिंदगी में
कोई काम करने
के पागलपन से
भरे हैं।
अहंकार सदा
कहता है कि
कुछ करने को
आप हैं।
जो भी
करने को है, वह परमात्मा
कर लेता है।
आप नाहक के
बोझ से न भरें।
आप व्यर्थ
विक्षिप्त न
हों। उससे कुछ
काम तो न होगा,
उससे सिर्फ
आप परेशान हो
लेंगे। उससे
कुछ भी न
होगा।
इस
दुनिया में
कितने लोग आते
हैं, जो सोचते
हैं, कुछ
करना है उनको।
आप जरूर कुछ
करते रहें, लेकिन इस
खयाल से मत
करें कि आपको
कुछ करना है।
इस खयाल से
करते रहें कि
परमात्मा की
मर्जी; वह
आपसे कुछ
कराता है, आप
करते हैं।
अगर
ऐसा आपने देखा, तो शत्रु भी
आपको
परमात्मा का
ही काम करता
हुआ दिखाई
पड़ेगा, क्योंकि
परमात्मा के
अतिरिक्त और
कोई है नहीं।
तब आप समझेंगे
कि परमात्मा
का कोई हिसाब
होगा; वह
शत्रु से भी
काम ले रहा है,
मुझसे भी
काम ले रहा
है। उसके अनंत
हाथ हैं; वह
हजार ढंग से
काम ले रहा
है। तब आपको
शत्रु और
मित्र बनाने
की कोई जरूरत
न रह जाएगी।
इसका यह
मतलब नहीं है
कि आपके शत्रु
और मित्र नहीं
बनेंगे। वे
बनेंगे; वह
उनकी मर्जी।
आपको बनाने की
कोई जरूरत न
रह जाएगी। और
आप दोनों के
बीच समभाव रख
सकेंगे।
यह
समता आ जाए, तो भी
मनुष्य योग
में
प्रतिष्ठित
हो जाता है। समत्व
कहीं से आए; वही सार है।
तो
कृष्ण इस
सूत्र में
कहते हैं
शत्रु और
मित्र के बीच
ठहर जाने को।
अर्जुन के लिए
यह सूत्र काम
का हो सकता है।
उसकी सारी
तकलीफ गीता
में यही है।
उसको कष्ट यही
हो रहा है कि
उस तरफ
बहुत-से मित्र
हैं, जिनको
मारना पड़ेगा।
शत्रु हैं, उनको मारना
पड़े, उसमें
तो उसे अड़चन
नहीं है; अर्जुन
को अड़चन नहीं
है। अगर
विभाजन
साफ-साफ होता,
तो बड़ी
आसानी होती।
मगर विभाजन
बड़ा उलटा था।
युद्ध बहुत
अनूठा था। और
इसीलिए गीता
उस युद्ध के
मंथन से निकल
सकी; नहीं
तो नहीं निकल
पाती।
युद्ध
इसलिए अनूठा
था कि उस तरफ
भी मित्र खड़े थे, सगे-साथी
खड़े थे, प्रियजन
खड़े थे, परिवार
के लोग थे।
कोई भाई था, कोई भाई का
संबंधी था, कोई पत्नी
का भाई था, कोई
मित्र का
मित्र था। सब
गुंथे हुए थे।
उस तरफ, इस
तरफ एक ही
परिवार खड़ा
था। साफ नहीं
था कि कौन है
शत्रु, कौन
है मित्र! सब
धुंधला था।
उसी से अर्जुन
चिंतित हो
आया। उसे लगा,
अपने ही इन मित्रों
को, प्रियजनों
को मारकर अगर
यह इतना बड़ा
राज्य मिलता
हो, तो हे
कृष्ण, छोडूं इस राज्य को,
भाग जाऊं
जंगल। इससे तो
मर जाना
बेहतर। आत्महत्या
कर लूं, वह
अच्छा। इतने
सब मित्रों की,
इतने
प्रियजनों की
हत्या करके
राज्य पाकर क्या
करूंगा? वह
क्षत्रिय
बोला। वह क्षत्रिय
का मन है।
राज्य दो कौड़ी
का है, लेकिन
प्रियजनों को,
मित्रों को
मारने का क्या
प्रयोजन है?
वह
क्षत्रिय का
ही मन बोल रहा
है, जो मित्र
और शत्रु की
कीमत आंकता
है। उस तरफ भी
अपने ही लोग
खड़े हैं।
दुर्भाग्य, अभाग्य का
क्षण कि
बंटवारा ऐसा
हुआ है। ऐसा
ही होने वाला
था। क्योंकि
जो अर्जुन के
मित्र थे, वे
ही दुर्योधन
के भी मित्र
थे। खुद कृष्ण
बड़ी मुश्किल
में बंटकर
खड़े थे। कृष्ण
इस तरफ खड़े थे,
कृष्ण की
सारी फौजें
कौरवों की तरफ
खड़ी थीं। अजीब
थी लड़ाई! अपनी
ही फौजों
के खिलाफ, अपने
ही सेनापतियों
के खिलाफ
कृष्ण को लड़ना
था। और उस तरफ
से कृष्ण के
ही सेनापति
कृष्ण के
खिलाफ लड़ने को
तत्पर थे।
सारा
बंटवारा
प्रियजनों का
था। मजबूरी
में कोई इस
तरफ खड़ा हो
गया था, कोई
उस तरफ। लेकिन
सभी बेचैन थे।
फिर भी अर्जुन
सर्वाधिक
बेचैन था।
क्योंकि कहा
जा सकता है कि
अर्जुन उस
युद्ध में
सर्वाधिक
शुद्ध
क्षत्रिय था।
वह सर्वाधिक
बेचैन हो उठा
था। भीम उतना
बेचैन नहीं
है। उसे मित्र
दिखाई ही पड़
नहीं रहे हैं।
शत्रु इतने
साफ दिखाई पड़
रहे हैं कि
पहले इनको
मिटा डालना
उचित है, फिर
सोचा जाएगा।
अर्जुन चिंता
और संताप में
पड़ा है।
कृष्ण
का यह सूत्र
अर्जुन के लिए
विशेष है, मित्र और
शत्रु के बीच
समभाव। इसका
मतलब है कि
कोई फिक्र न
करो, कौन
मित्र है, कौन
शत्रु है।
दोनों के बीच
तटस्थ हो जाओ।
कौन अपना है, कौन पराया
है, इस
भाषा में मत
सोचो। यह भाषा
ही गलत है।
योगी के लिए
निश्चित ही
गलत है।
और बड़े
मजे की बात
यही है कि अर्जुन
तो केवल युद्ध
से बचने का
उपाय चाहता
था। उसकी सारी
जिज्ञासा
निगेटिव, नकारात्मक
थी। किसी तरह
युद्ध से बचने
का उपाय मिल
जाए! लेकिन
कृष्ण जैसा
शिक्षक ऐसा
अवसर चूक नहीं
सकता था।
कृष्ण
की सारी
शिक्षा पाजिटिव
है। कृष्ण की
सारी चेष्टा
अर्जुन के
भीतर योग को उत्पन्न
कर देने की
है। अर्जुन तो
सिर्फ इतना ही
चाहता था, किसी तरह से
यह जो संताप
पैदा हो गया
है मेरे मन
में, यह जो
चिंता हो गई
है, इससे
मैं बच जाऊं।
कृष्ण ने इसका
पूरा उपयोग किया,
अर्जुन के
इस चिंता के
क्षण का, इस
अवसर का।
कृष्ण इसके
लिए उत्सुक
नहीं हैं कि वह
चिंता से कैसे
बच जाए। कृष्ण
इसके लिए उत्सुक
हैं कि वह
निश्चिंत
कैसे हो जाए।
इस
फर्क को आप
समझ लेना।
चिंता से बच
जाना एक बात
है। वह तो रात
में ट्रैंक्वेलाइजर
लेकर भी आप
चिंता से बच
जाते हैं।
शराब पी लें, तो भी चिंता
से बच जाते
हैं। शराब कई
तरह की हैं।
अर्जुन को भी
शराब पिलाई जा
सकती थी।
भूल-भाल जाता
नशे में; टूट
पड़ता युद्ध
में।
शराब
कई तरह की
हैं--कुल की, यश की, धन
की, राज्य
की, प्रतिष्ठा
की, अहंकार
की। वह कुछ भी
उसे पिलाई जा
सकती थी। भूल
जाता। दीवाना
हो जाता। उसके
घाव छुए जा
सकते थे।
कृष्ण उसके
घाव छू सकते
थे कि अर्जुन,
तू जानता है
कि तेरी
द्रौपदी के
साथ दुर्योधन ने
क्या किया!
नशा शुरू हो
जाता।
उसके
घाव छुए जा
सकते थे। घाव
बहुत गहरे थे
और हरे थे।
कृष्ण के लिए
कठिनाई न
पड़ती। इतनी
लंबी गीता
कहने की कोई
भी जरूरत न
थी। जरा से
घाव उकसाने की
जरूरत थी। जहर
फैल जाता उसके
भीतर। कहना था
कि याद आता है
वह दिन, जब
द्रौपदी को
नग्न किया था!
भूल गया वह
क्षण, जब
द्रौपदी को
नग्न करने की
चेष्टा के बीच
तू सिर झुकाए
बैठा था और
तेरे ही सामने
दुर्योधन
अपनी जांघ को उघाड़कर थपथपा रहा
था और द्रौपदी
से कह रहा था, आ मेरी जांघ
पर बैठ जा! वह
क्षण तुझे याद
है? बस, इतना
काफी होता।
गीता कहने की
कोई जरूरत न
थी। अर्जुन
कूद पड़ा होता।
लेकिन
कृष्ण ने वह
नहीं किया।
उसको सिर्फ
नशा देकर लड़ा
देने की बात न
थी; सिर्फ
चिंता से बचा
देने की बात न
थी; निश्चिंत
बनाने की, विधायक
प्रक्रिया की
बात थी।
तो कृष्ण
पूरी मेहनत यह
कर रहे हैं कि
वह चिंता के बाहर
हो जाए, इतना
काफी नहीं; युद्ध में
उतर जाए, इतना
काफी नहीं; काफी यह है
कि वह योगारूढ़
हो जाए। जरूरी
यह है कि वह योगस्थ
हो जाए, वह
योगी हो जाए।
और योगी होकर
ही युद्ध में
उतरे, तो
युद्ध
धर्मयुद्ध बन
सकेगा, अन्यथा
युद्ध
धर्मयुद्ध
नहीं होगा।
दुनिया
में जब भी दो
लोग लड़ते हैं, तो कभी ऐसा
हो सकता है, थोड़ी-बहुत
मात्रा का भेद
होता है। कोई
थोड़ा ज्यादा
अधार्मिक, कोई
थोड़ा कम
अधार्मिक।
लेकिन ऐसा
मुश्किल से होता
है कि एक
धार्मिक हो और
दूसरा
अधार्मिक। अधार्मिक
होने में ही
मात्रा-भेद
होता है। कोई
नब्बे
प्रतिशत
अधार्मिक
होता है, कोई
पंचानबे
प्रतिशत
अधार्मिक
होता है।
लेकिन युद्ध
हमेशा अधर्म
और अधर्म के
बीच ही चलता
है।
कृष्ण
एक अनूठा
प्रयोग करना
चाह रहे हैं; शायद विश्व
के इतिहास में
पहला, और
अभी तक उसके
समानांतर कोई
दूसरा प्रयोग
हो नहीं सका।
वह प्रयोग यह
करना चाह रहे
हैं, युद्ध
को एक
धर्मयुद्ध
बनाने की
कीमिया अर्जुन
को देना चाह
रहे हैं।
वे
अर्जुन से कह
रहे हैं, तू
योगी होकर लड़;
तू समत्वबुद्धि
को उपलब्ध
होकर लड़; तू
शत्रु और
मित्र के बीच
बिलकुल तटस्थ
होकर लड़; अपने
और पराए के
बीच फासला छोड़
दे। क्या होगा
फल, इसकी
चिंता न कर।
इसकी ही चिंता
कर कि क्या है तेरा
चित्त! कौन
मरेगा, कौन
बचेगा, इसकी
फिक्र मत कर।
इसकी ही फिक्र
कर कि चाहे कोई
मरे, चाहे
कोई बचे, चाहे
तू मरे या तू
बचे, लेकिन
मृत्यु और
जन्म के बीच
तुझे कोई फर्क
न हो; तू समत्व
को उपलब्ध हो
जा। चाहे
सफलता आए चाहे
असफलता, चाहे
विजय आए और
चाहे पराजय, तू दोनों को
समभाव से झेल
सके। तेरे
चित्त की लौ
जरा भी कंपित
न हो। तू
निष्कंप हो
जा।
युद्ध
के क्षण में
किसी को योगी
बनाने की यह चेष्टा
बड़ी इंपासिबल
है, बड़ी
असंभव है।
ये
कृष्ण जैसे
लोग सदा ही असंभव
प्रयास में
लगे रहते हैं।
उनकी वजह से ही
जिंदगी में
थोड़ी रौनक है; उनकी वजह से
ही, ऐसे
असंभव प्रयास
में लगे हुए
लोगों की वजह
से ही, जिंदगी
में कहीं-कहीं
कांटों के बीच
एकाध फूल खिलता
है; और
जिंदगी के
उपद्रव के बीच
कभी कोई गीत
जन्मता है।
असंभव प्रयास,
दि
इंपासिबल रेवोल्यूशन,
एक असंभव
क्रांति की
आकांक्षा है
कि अर्जुन योगी
होकर युद्ध
में चला जाए।
दो
बातें आसान
हैं। अर्जुन
को योगी मत
बनाओ, बेहोश
करो, और भी
भोगी बना
दो--युद्ध में
चला जाएगा।
दूसरी भी बात
संभव है, अर्जुन
को योगी
बनाओ--युद्ध
को छोड़कर जंगल
चला जाएगा। ये
दो बातें
बिलकुल आसान
और संभव हैं।
ये बिलकुल पासिबल
के भीतर हैं।
दो में से कुछ
भी करो।
अर्जुन को और
भोग की लालच
दो--युद्ध में
लगा दो।
अर्जुन को
योगी
बनाओ--जंगल
चला जाए।
कृष्ण
एक असंभव
चेष्टा में
संलग्न हैं।
और इसीलिए
गीता एक बहुत
ही असंभव
प्रयास है।
असंभव होने की
वजह से ही
अदभुत; असंभव
होने की वजह
से ही इतना
ऊंचा, इतना
ऊर्ध्वगामी
है। वह असंभव
प्रयास यह है
कि अर्जुन, तू योगी भी
बन और युद्ध
में भी खड़ा
रह। तू हो जा बुद्ध
जैसा, फिर
भी तेरे हाथ
से धनुष-बाण न
छूटे।
बुद्ध
जैसा होकर
बोधिवृक्ष के
नीचे बैठ जाने
में अड़चन नहीं
है; कोई अड़चन
नहीं है।
लेकिन बुद्ध
जैसा होकर युद्ध
के क्षण में
युद्ध के
मैदान पर खड़े
रहने में बड़ी
अड़चन है। और
इसलिए वे सब
द्वार खटखटा
रहे हैं। कहीं
से भी अर्जुन
को प्रकाश
दिखाई पड़ जाए।
इस
सूत्र में वे
कहते हैं, मित्र और
शत्रु के बीच
समबुद्धि, तो
तू योग को
उपलब्ध हो
जाता है।
योगी
युग्जीत सततमात्मानं
रहसि स्थितः।
एकाकी
यतचित्तात्मा
निराशीरपरिग्रहः।।
10।।
इसलिए
उचित है कि
जिसका मन और
इंद्रियों
सहित शरीर
जीता हुआ है, ऐसा
वासनारहित और संग्रहरहित
योगी अकेला ही
एकांत स्थान
में स्थित हुआ
निरंतर आत्मा
को परमेश्वर
के ध्यान में
लगाए।
यहां
दोत्तीन
बातें कृष्ण
कहते हैं, जो बड़ी
विपरीत जाती
हुई मालूम
पड़ेंगी। और
ऐसे सूत्रों
की बड़ी गलत
व्याख्या की
गई है। प्रकट व्याख्या
मालूम पड़ती है,
इसलिए गलती
करने में
आसानी भी हो
जाती है।
कहते
हैं वह, वासना
से रहित हुआ, संग्रह से
मुक्त हुआ, समत्व को पाया हुआ,
ऐसा जो
योगी-चित्त है,
वह एकांत
में परमात्मा
का स्मरण करे,
परमात्मा
को ध्याये,
परमात्मा
का ध्यान करे;
परम सत्ता
की दिशा में
गति करे।
एकांत
में! तो इस
सूत्र के गलत
अर्थ बहुत
आसान हो गए।
तो यही तो
अर्जुन कह रहा
है कि मुझे
जाने दो
महाराज इस
युद्ध से।
एकांत में जाऊं, चिंतन-मनन
करूं, प्रभु
का स्मरण
करूं। जाने दो
मुझे। कृष्ण
फिर उसे रोक
क्यों रहे हैं?
फिर युद्धोन्मुख
क्यों कर रहे
हैं? फिर कर्मोन्मुख
क्यों कर रहे
हैं? फिर
क्यों कह रहे
हैं कि कर्म
में रत रहकर
तू जी? सम
होकर, समत्व को पाकर, पर
कर्म में रत
होकर।
एकांत!
तो एकांत से
कृष्ण का जो
अर्थ है, वह
समझ लेना
चाहिए।
एकांत
से अर्थ
अकेलापन नहीं
है। एकांत से
अर्थ अकेलापन
नहीं है, आइसोलेशन नहीं है।
एकांत से अर्थ
लोनलीनेस
नहीं है।
एकांत से अर्थ
है, अलोननेस। एकांत से
अर्थ है, स्वयं
होना, पर-निर्भर
न होना। एकांत
से अर्थ, दूसरे
की
अनुपस्थिति
नहीं है।
एकांत से अर्थ
है, दूसरे
की उपस्थिति
की कोई जरूरत
नहीं है।
इस
फर्क को ठीक
से समझ लें।
आप
जंगल में बैठे
हैं। बिलकुल
एकांत है। कोई
नहीं चारों
तरफ। दूर
कोसों तक कोई
नहीं। फिर भी
मैं नहीं
मानता कि आप
एकांत में हो
सकेंगे। आपके
होने का ढंग
भीड़ में होने
का ढंग है। आप
अकेले हो सकेंगे; एकांत में
नहीं हो
सकेंगे।
अकेले तो
प्रकट हैं।
अकेले बैठे
हैं। कोई नहीं
दिखाई पड़ता
आस-पास। लेकिन
एकांत नहीं हो
सकता। भीतर झांककर
देखेंगे, तो
उन सबको मौजूद
पाएंगे, जिनको
गांव में, घर
छोड़ आए हैं।
मित्र भी वहां
होंगे, शत्रु
भी वहां होंगे;
प्रियजन भी
वहां होंगे, परिवार भी
वहां होगा; दुकान-बाजार,
काम-धंधा, सब वहां
होगा। भीतर सब
मौजूद होंगे।
पूरी भीड़ मौजूद
होगी। तो
अकेले में तो
आप हैं, लेकिन
एकांत में
नहीं हैं।
एकांत का तो
अर्थ है कि
भीतर एक ही
स्वर बजे, कोई
दूसरे की
मौजूदगी न रह
जाए भीतर। तो
इससे उलटा भी
हो सकता है।
जिस आदमी को
एकांत का रहस्य
पता चल गया हो,
वह भीड़ में
खड़े होकर भी
एकांत में
होता है। भीड़
कोई बाधा नहीं
डालती। भीड़
सदा बाहर है।
कौन आपके भीतर
प्रवेश कर
सकता है?
आप
यहां बैठे हैं, इतनी भीड़
में बैठे हैं।
आप अकेले हो
सकते हैं। भीड़
अपनी जगह बैठी
है। कोई आपकी
जगह पर नहीं चढ़ा
हुआ है।
अपनी-अपनी जगह
पर लोग बैठे
हुए हैं। कोई
चाहे, तो
भी आपकी जगह
पर नहीं बैठ
सकता है।
अपनी-अपनी जगह
पर लोग हैं।
अगर उनका हाथ
भी आपको छू
रहा है चारों
तरफ से, तो
हाथ ही छू रहा
है। हाथ का
स्पर्श भीतर
प्रवेश नहीं
करता। भीतर आप
बिलकुल एकांत
में हो सकते
हैं।
एक ही
स्वर हो भीतर, स्वयं के
होने का; एक
ही स्वाद हो
भीतर, स्वयं
के होने का; एक ही संगीत
हो भीतर, स्वयं
के होने का।
दूसरे का कोई
भी पता नहीं। कोसों
तक नहीं, अनंत
तक कोई भी पता
नहीं। भीतर
कोई है ही
नहीं दूसरा।
आप बिलकुल
अकेले हैं।
इस
एकांत, इस
आंतरिक, इनर
एकांत का अर्थ
और है, और
बाह्य
अकेलेपन का
अर्थ और है।
भीड़ से भाग जाना
बड़ी सरल बात
है, लेकिन
स्वयं के भीतर
से भीड़ को
बाहर निकाल
देना बहुत
कठिन बात है।
भीड़ से
निकल जाने में
कौन-सी कठिनाई
है? दो पैर
आपके पास हैं,
निकल भागिए!
दो पैर काफी
हैं भीड़ से
बाहर निकलने
के लिए, कोई
कठिन बात है? दो पैर आपके
पास हैं, निकल
भागिए! मत
रुकिए तब तक, जब तक कि भीड़
न छंट जाए।
एकांत में
पहुंच जाएंगे?
अकेलेपन
वाले एकांत में
पहुंच
जाएंगे।
लेकिन
भीड़ को भीतर
से बाहर निकाल
फेंकना अति कठिन
मामला है। पैर
साथ न देंगे; कितना ही भागिए,
भीतर की भीड़
भीतर मौजूद
रहेगी। जहां
भी जाइएगा, साथ खड़ी हो
जाएगी। जहां
भी वृक्ष के
नीचे विश्राम
करने बैठेंगे,
भीतर के
मित्र बात-चीत
शुरू कर देंगे
कि कहिए, क्या
हाल है! मौसम
कैसा है? सब
शुरू हो
जाएगा!
बैठकखाना
वापस आपके साथ
भीतर मौजूद हो
जाएगा। और कई
बार तो ऐसा
होगा कि जिनकी
मौजूदगी में
जिनका कोई पता
नहीं चलता, उनकी
गैर-मौजूदगी
में उनका पता
और भी ज्यादा
चलता है!
अपनी
पत्नी के पास
बैठे हैं घंटेभर, तो भूल भी जा
सकते हैं कि
पत्नी है। भूल
भी जा सकते हैं।
अक्सर भूल ही
जाते हैं।
पत्नी नहीं है,
तब उसकी
खाली जगह उसका
ज्यादा स्मरण
दिलाती है।
आदमी जिंदा है,
तो पता नहीं
चलता; मर
जाता है, तो
घाव छोड़ जाता
है; ज्यादा
याद आता है।
जगह खाली हो
जाती है।
किसी
की मौजूदगी की
वजह से आपके
भीतर भीड़ नहीं
होती; आपके
भीतरी रसों की
वजह से ही भीड़
होती है। आंतरिक
रस है। दूसरे
में हम रस
लेते हैं।
इसलिए जब कोई
मौजूद होता है,
तो उतनी
जल्दी नहीं
रहती है।
जानते हैं कि
कभी भी रस ले
लेंगे; मौजूद
तो है। लेकिन
पता चल जाए कि
मौजूद नहीं है,
तो रस
ज्यादा आने
लगता है।
क्योंकि पता
नहीं, अभी
रस लेना चाहें,
तो दूसरा
मौजूद मिले, न मिले। तो
गैर-मौजूदगी
और भी ज्यादा
पकड़ लेती है, जोर से पकड़
लेती है।
रवींद्रनाथ
ने कहीं मजाक
में लिखा है
कि जिन पति-पत्नियों
को अपना प्रेम
जिंदा रखना हो, उन्हें
बीच-बीच में
एक-दूसरे से
छुट्टी, हॉलीडे
लेते रहना
चाहिए।
रवींद्रनाथ
के एक पात्र
ने तो अपनी
प्रेयसी से
कहा है--बहुत
पीछे पड़ी है
वह स्त्री, तो उसने कहा
कि ठीक है कि
हम राजी हो
जाएं, विवाह
कर लें। उस
पात्र ने कहा,
मैं राजी
हूं विवाह
करने को।
लेकिन तेरी
दूसरी शर्त
मेरी समझ में
नहीं आती!
क्योंकि उस
स्त्री की
दूसरी शर्त यह
है कि हम
विवाह तो कर
लें, लेकिन
झील के एक तरफ
मैं रहूंगी और
झील के दूसरी
तरफ तुम रहना।
कभी-कभी
निमंत्रण पर
हम एक-दूसरे
से मिल लिया
करेंगे। या
कभी-कभी
अनायास, झील
में नाव खेते
या नदी के तट
पर टहलते
मुलाकात हो जाएगी,
तो किसी झाड़
के नीचे बैठकर
बात कर लेंगे!
तो वह आदमी
कहता है, इससे
बेहतर है, हम
विवाह ही न
करें। विवाह
किस लिए? पर
वह स्त्री
कहती है, विवाह
तो हम कर लें, लेकिन रहें
फासले पर; ताकि
एक-दूसरे की
याद आती रहे; ताकि
एक-दूसरे को
भूल न जाएं।
कहीं ऐसा न हो
कि एक-दूसरे
के पास इतने आ
जाएं कि भूल
ही जाएं। भूल ही
जाते हैं।
अनुपस्थिति
याद को जगा
जाती है।
तो इस
खयाल में मत
रहना आप कि
भीड़ के बीच
में हैं, तो
भीड़ में हैं।
भीड़ में होने
का अर्थ है कि
भीड़ आपके भीतर
है, तो आप
भीड़ में हैं।
भीड़ आपके भीतर
नहीं है, तो
आप बिलकुल अकेले
हैं।
कृष्ण
जैसा आदमी
कहीं भी खड़ा
हो--कैसी भी
भीड़ में, कैसे
भी बाजार
में--अरण्य ही
चलता है, जंगल
ही है। हम
जैसा आदमी
कहीं भी खड़ा
हो जाए, जंगल
में भी, तो
भीड़ ही चलती
है, बाजार
ही है। हमारे
होने के ढंग
पर निर्भर है।
तो जब
अर्जुन से कहा
कृष्ण ने कि
ऐसा व्यक्ति समत्व को
उपलब्ध हुआ, थिर हुआ, शांत
हुआ, एकांत
में प्रभु को
ध्याता है, प्रभु का
ध्यान करता है,
तो क्या
अर्थ होगा? किसी जंगल
में, किसी
पहाड़ पर, किसी
गुफा में?
नहीं, एक और गुफा
है, अंतर-हृदय
की, वहां।
एक और अरण्य
है स्वयं के
भीतर ही, शून्य
का, वहां।
एक इनर स्पेस
है, एक
भीतरी आकाश
है। इस बाहर
के आकाश से भी
विराट और बड़ा,
वहां। हृदय
की गुफा में।
वहां एकांत
में वह प्रभु
को ध्याता है।
और वहीं प्रभु
का ध्यान किया
जा सकता है; बाहर के
जंगलों में
कोई प्रभु का
ध्यान नहीं किया
जा सकता।
इसे भी
थोड़ा-सा समझ
लें।
साधक
के लिए विशेष
ध्यान में ले
लेने जैसी बात
है कि प्रभु
का ध्यान
अंतर-गुफा में
किया जाता है, हृदय की
गुफा में। नकल
में हम कितनी
ही गुफाएं
बाहर बना लें
पत्थरों को
खोदकर, उनसे
हल नहीं होता।
पत्थर बहुत
कमजोर है। हृदय
को खोदना
पत्थर से भी
जटिल चीज को
तोड़ना है; ज्यादा
कठिन है। हीरे
की छेनियां
भी टूट
जाएंगी।
हृदय
में गुफा है।
सबके भीतर एक
अंतर-आकाश है।
एक
आंग्ल-भारतीय
विचारक आबरी
मेनन ने एक
छोटी-सी किताब
लिखी है। उसके
पिता तो
भारतीय थे, उसकी मां
अंग्रेज थी। आबरी मेनन
ने एक छोटी-सी
किताब लिखी है,
दि स्पेस आफ
दि इनर हार्ट,
अंतर-हृदय
का आकाश।
किताब बहुत
मधुर संस्मरण से
शुरू की है।
वेटिकन
के पोप से
मिलने गया था
मेनन; तो
वेटिकन के पोप
के चरणों में
सिर झुकाकर
आशीर्वाद
लेने को झुका।
तभी वेटिकन के
पोप ने अपने
साथ खड़े हुए
महासचिव को
पूछा, किस
जाति का
व्यक्ति है यह,
कौन है? किस
जाति का
व्यक्ति है यह,
कौन है? साथ
खड़े हुए सेक्रेटरी
ने वेटिकन के
पोप को कहा, अंग्रेज है,
आंग्ल है।
वेटिकन के पोप
ने मेनन के
चेहरे पर हाथ
फेरा और कहा, नहीं। इसके
चेहरे का ढंग
भारतीय है।
झुका
हुआ मेनन अपने
मन में सोचने
लगा, सच में
मैं कौन हूं? उसको एक सवाल
उठा कि मैं
भारतीय हूं या
अंग्रेज हूं?
लेकिन
अंग्रेज होना
और भारतीय
होना चमड़ी से
ज्यादा गहरी
बात नहीं है।
भीतर मैं कौन
हूं? चमड़ी
तो मेरी दोनों
की है।
अंग्रेज की भी
है थोड़ी चमड़ी
मेरे पास और
एक भारतीय की
भी चमड़ी है थोड़ी
मेरे पास। खून
भी मेरे पास
भारतीय का है
और अंग्रेज का
भी है। फिर
मैं कौन हूं? क्या यही
चमड़ी और खून
का जोड़ मैं
हूं? या
मैं कुछ और भी
हूं? वह
झुका हुआ मेनन
नीचे सोचने
लगा।
उठकर
खड़ा हुआ, वेटिकन
के पोप ने फिर
पूछा कि कहो, कौन हो तुम? तो उसके मन
में हुआ कि
वेटिकन के पोप
के संबंध में
कहा जाता है
कि वह इनफालिबल
है, वह कभी
भूल नहीं
करता। ईसाई
मानते हैं कि
उनका जो बड़ा
पुरोहित है, वह कभी भूल
नहीं करता।
मधुर मान्यता
है। मेनन को
खयाल आया कि
अगर मैं कहूं
कि
आंग्ल-भारतीय हूं,
आधा भारतीय
आधा अंग्रेज
हूं, तो
कहीं पोप को
दुख न हो। वह
यह न सोचे कि
मैंने उसे फालिबल
सिद्ध किया, मैंने कहा
कि वह भी गलती
कर सकता है।
तो मेनन ने
कहा कि हां, आप ठीक कहते
हैं महानुभाव!
मैं भारतीय
हूं।
पोप
बहुत खुश हुआ।
मेनन ने अपनी
किताब में लिखा
है कि इसलिए
नहीं खुश हुआ
कि मैं भारतीय
था और भारतीय
से मिलकर उसे
खुशी हुई।
इसलिए भी खुश
नहीं हुआ कि
मैं कोई खास
आदमी था और
मुझसे मिलकर
खुशी हुई। खुश
इसलिए हुआ कि
पोप इनफालिबल
है, उससे कभी
भूल नहीं
होती।
पर
मेनन ने लिखा
है कि मेरे
चित्त में एक
चक्कर चल पड़ा
उस दिन से कि
मैं कौन हूं? क्या मैं यह
हड्डी और मांस
और चमड़ी का
जोड़ मैं हूं? मैं कौन हूं?
अगर सच में
यह पोप मेरी
आंखों में झांककर
कहता और कहता
कि ठीक है, मैं
समझ गया; तुम्हारा
शरीर तो
भारतीय है या
अंग्रेज, पर
तुम कौन हो? क्या तुम
शरीर ही हो? तो वह बड़ी
खोज में लग
गया कि मैं
कहां पाऊं
कि मैं कौन
हूं?
उसने
बहुत खोजा, बहुत खोजा, और आखिर में
हम सोच भी नहीं
सकते कि उसे
अपना उत्तर
छांदोग्य
उपनिषद से
मिला।
छांदोग्य
उपनिषद पढ़ते
वक्त उसे यह शब्द
सुनाई पड़ा, खयाल आया, हृदय की
गुफा, दि
इनर स्पेस आफ
दि हार्ट, वह
अंतर-हृदय का
आकाश। उसने
कहा कि अगर
मैं कोई भी
हूं, तो
मेरे हृदय की
गुफा में ही
भीतर प्रवेश
करूं तो जान
पाऊंगा, अन्यथा
नहीं जान
पाऊंगा।
फिर
उसने एक कमरे
में अपने को
बंद कर लिया
महीनों के
लिए। रोटी
सरका जाता कोई
समय पर, वह
रोटी खा लेता।
पानी सरका
जाता, वह
पानी पी लेता।
और वह आंख बंद
करके बस एक ही
चिंतन में लग
गया, एक ही
ध्यान में कि
मैं कौन हूं?
शरीर
मैं नहीं हूं।
उसने एक महीने
तक इसका ही
निरंतर ध्यान
किया कि शरीर
मैं नहीं हूं, शरीर मैं
नहीं हूं। एक
महीने तक इस
एक शब्द के सिवा
उसने कोई
उपयोग न किया
कि शरीर मैं
नहीं हूं।
सोते-जागते, उठते-बैठते,
होश में, बेहोशी में,
जानता रहा,
दोहराता
रहा, समझता
रहा, स्मरण
करता
रहा--शरीर मैं
नहीं हूं। एक
महीने के बाद
उसने आंख
खोलकर अपने
शरीर को देखा
और पाया कि
निश्चित ही
शरीर मैं नहीं
हूं। एक
यात्रा का पड़ाव
पूरा हो गया।
और
उसने लिखा है
कि जिस दिन
मैंने पाया कि
मैं शरीर नहीं
हूं, फिर
मैंने आंख बंद
की और मैंने
कहा कि अब मैं
जानने चलूं कि
मैं कौन हूं!
एक बात तो
पूरी हुई कि
क्या मैं नहीं
हूं। अब मैं
जानूं कि मैं
कौन हूं!
और जब
मैंने भीतर झांका, तो मुझे
छांदोग्य की
बात समझ में
आई कि भीतर एक
अंतर-गुफा है
हृदय की, जहां
मैं हूं, जो
मैं हूं। और
जैसे-जैसे उस
अंतर-गुफा में
मैंने प्रवेश
किया, तो
मैंने पाया, आश्चर्य!
इतना बड़ा आकाश
भी नहीं है, जितनी बड़ी
वह अंतर-गुफा
है। और
जैसे-जैसे मैं
उसमें भीतर
गया, वैसे-वैसे
एक रहस्य उदघाटित
हुआ कि
जैसे-जैसे चला
भीतर, वैसे-वैसे
मैं मिटता
गया। खाली, शून्य ही रह
गया। एकांत ही
रह गया। सिर्फ
एकांत, मैं
भी न रहा।
मेरी मौजूदगी
भी तो एकांत
में बाधा है।
तो
आपको एकांत का
अंतिम अर्थ
कहता हूं, जिससे कृष्ण
का प्रयोजन
है। अगर आप भी
बच रहे, तो
भी एकांत नहीं
है। एक क्षण
ऐसा आता है, जब आप भी
नहीं हैं; सिर्फ
चैतन्य रह
जाता है, आप
भी नहीं होते
हैं। आपको पता
भी नहीं होता
कि मैं भी हूं,
सिर्फ होना
रह जाता है।
उस शुद्ध होने
में एकांत है।
उस एकांत में
प्रभु को ध्याया
जाता है। ध्याया
क्या जाता है,
उस एकांत
में प्रभु को
जान ही लिया
जाता है। उस
एकांत में
प्रभु से मिलन
ही हो जाता
है।
तो
कृष्ण कहते
हैं, ऐसा
पुरुष एकांत
में प्रभु को
ध्याता है।
यह
ध्याता शब्द
बहुत अदभुत
है। प्रभु का
ध्यान करता
है। क्या आप
किसी ऐसी चीज
का ध्यान कर सकते
हैं, जिसका
आपको पता न हो?
क्या यह
संभव है कि
जिसको आप
जानते न हों, उसका आप
ध्यान कर सकें?
यह कैसे
संभव है? जिसे
जानते नहीं, उसका ध्यान
कैसे करिएगा?
ध्यान के
लिए तो जानना
जरूरी है।
लेकिन हम सब
प्रभु का
ध्यान करते
हैं। और हमें
प्रभु का कोई
भी पता नहीं
है!
ध्यान
हो कैसे सकता
है, जिसका
हमें पता नहीं
है! जिसे हमने
जाना ही नहीं,
यह भी नहीं
जाना कि जो है
भी या नहीं है!
यह भी नहीं
जाना कि है, तो कैसा है!
कुछ भी जिसकी
हमें खबर नहीं
है, उसका
ध्यान कर रहे
हैं लोग
बैठकर! आंख
बंद करके लोग
कहते हैं कि
हम प्रभु का
ध्यान कर रहे
हैं!
अगर
उनकी खोपड़ी
थोड़ी चीरी जा
सके और उनकी
खोपड़ी में झांका
जा सके, तो
आपको पता चल
जाएगा, वे
किसका ध्यान
कर रहे हैं!
किसका ध्यान
कर रहे हैं, पता चल
जाएगा।
नानक
एक गांव में
ठहरे हैं। और
नानक कहते हैं, न कोई हिंदू
है, न कोई
मुसलमान है।
तो गांव का
मुसलमान नवाब
नाराज हो गया।
उसने कहा, बुला
लाओ उस फकीर
को। कैसे कहता
है? किस
हिम्मत से
कहता है कि न
कोई हिंदू है,
न कोई
मुसलमान है?
नानक
आए। उस नवाब
ने पूछा कि
मैंने सुना है, तुम कहते हो,
न कोई हिंदू
है, न कोई
मुसलमान? नानक
ने कहा, हां,
न कोई हिंदू
है, न कोई
मुसलमान। तो
तुम कौन हो? तो नानक ने
कहा कि मैंने
बहुत खोजा, बहुत खोजा।
चमड़ी, हड्डी,
मांस, मज्जा,
वहां तक तो
मुझे लगा कि
हां, हिंदू
भी हो सकता है,
मुसलमान भी
हो सकता है।
लेकिन वहां तक
मैं नहीं था।
और जब उसके
पार मैं गया, तो मैंने
पाया कि वहां
तो कोई
हिंदू-मुसलमान
नहीं है!
तो उस
नवाब ने कहा
कि फिर तुम
हमारे साथ
मस्जिद में
नमाज पढ़ने
चलोगे? क्योंकि
जब कोई
हिंदू-मुसलमान
नहीं, तो
मस्जिद में
जाने में
एतराज नहीं कर
सकते हो। नानक
ने कहा, एतराज!
मैं तो यह
पूछने ही आया
था कि मस्जिद
में ठहरूं,
तो आपको कोई
एतराज तो नहीं
है?
नवाब
थोड़ा चिंतित
हुआ, एक हिंदू
कहे! पर उसने
कहा कि देखें,
परीक्षा कर
लेनी जरूरी
है। मस्जिद
में नमाज पढ़ने
के लिए ले गया
नानक को। नवाब
तो मस्जिद में
नमाज पढ़ने लगा,
नानक पीछे
खड़े होकर
हंसने लगे। तो
नवाब को बड़ा
क्रोध आया।
हालांकि नमाज
पढ़ने वाले को
क्रोध आना
नहीं चाहिए।
लेकिन नमाज
कोई पढ़े
तब न!
बड़ा
क्रोध आया और
जैसे क्रोध
बढ़ने लगा, नानक की
हंसी बढ़ने
लगी। अब नमाज
पूरी करनी बड़ी
मुश्किल पड़
गई। तबियत तो
होने लगी, गर्दन
दबा दो इस
फकीर की।
लेकिन नमाज
पूरी करनी
जरूरी थी। बीच
में तोड़ा नहीं
जा सकता नमाज
को। तो जल्दी
पूरी की, जैसा
कि अधिक लोग
करते हैं।
पूजा
अधिक लोग
जल्दी करते
हैं। इतने
जल्दी करते
हैं कि कोई भी शार्ट कट
मिल जाए, तो
जल्दी छलांग
लगाकर वे पूजा
निपटा देते
हैं। लांग
रूट से पूजा
में शायद ही
कोई जाता हो। शार्ट कट
सबने
अपने-अपने
बनाए हुए हैं,
उनसे वे
निकल जाते हैं,
तत्काल! बाई
पास! पूजा को निपटाकर
वे भागे, तो
फिर लौटकर
नहीं देखते
पूजा की तरफ।
एक मजबूरी, एक काम, उसे
निपटा देना
है!
नवाब
ने
जल्दी-जल्दी
नमाज पूरी की
और आकर नानक
से कहा कि
बेईमान निकले, धोखेबाज
निकले। तुमने
कहा था, नमाज
में साथ
दूंगा। साथ न
दिया। नानक ने
कहा, मैंने
कहा था नमाज
में साथ दूंगा,
लेकिन
तुमने नमाज ही
न पढ़ी, साथ
किसका देता? तुम तो न
मालूम
क्या-क्या कर
रहे थे! कभी
मेरी तरफ
देखते थे। कभी
नाराज होते
थे। कभी मुट्ठियां
बांधते
थे। कभी दांत
पीसते थे। यह
कैसी नमाज पढ़
रहे थे? मैंने
कहा कि ऐसी
नमाज तो मैं
नहीं जानता।
साथ भी कैसे
दूं! और सच, भीतर
तुमने एक भी
बार अल्लाह का
नाम लिया? क्योंकि
जहां तक मैं
देख पाया, मैंने
देखा कि तुम
काबुल के
बाजार में
घोड़े खरीद रहे
हो!
नवाब
तो मुश्किल
में पड़ गया।
उसने कहा, क्या कहते
हो! काबुल के
बाजार में
घोड़े! बात तो सच
ही कहते हो।
कई दिन से सोच
रहा हूं कि
अच्छे घोड़े
पास में नहीं
हैं। तो नमाज
के वक्त फुरसत
का समय मिल
जाता है। और
तो काम में
लगा रहता हूं।
तो अक्सर ये
काबुल के घोड़े
मुझे नमाज के
वक्त जरूर
सताते हैं।
मैं खरीद रहा
था। तुम ठीक
कहते हो। मुझे
माफ करो। मैंने
नमाज नहीं पढ़ी,
सिर्फ
काबुल के
बाजार में
घोड़े खरीदे।
आप जब
प्रभु का
स्मरण कर रहे
हैं, तो ध्यान
रखना, प्रभु
को छोड़कर और
सब कुछ कर रहे
होंगे। प्रभु
को तो आप
जानते नहीं, स्मरण कैसे
करिएगा? ध्यान
कैसे करिएगा?
कृष्ण
कहते हैं, ऐसा
पुरुष--यह
शर्त है ध्यान
की, इतनी
शर्त पूरी हो,
तो ही प्रभु
का ध्यान होता
है, नहीं
तो ध्यान नहीं
होता। हां, और चीजों का
ध्यान हो सकता
है। प्रभु का
ध्यान, उसकी
शर्त--समत्व
को जो उपलब्ध
हुआ, निष्कंप
जिसका चित्त
हुआ, ऐसा
व्यक्ति फिर
एकांत में, अंतर-गुहा
में प्रभु को
ध्याता है।
फिर प्रभु ही
प्रभु चारों
तरफ दिखाई
पड़ता है। खुद
तो खोजे
से नहीं मिलता,
प्रभु ही
प्रभु दिखाई
पड़ता है। उसकी
ही स्मृति
रोम-रोम में
गूंजने लगती
है। उसका ही
स्वाद प्राणों
के कोने-कोने
तक तिर
जाता है। उसकी
ही धुन बजने
लगती है
रोएं-रोएं में।
श्वास-श्वास
में वही। तब
ध्यान है।
ध्यान
का अर्थ है, जिसके साथ
हम आत्मसात
होकर एक हो
जाएं। नहीं तो
ध्यान नहीं
है। अगर आप बच
रहे, तो
ध्यान नहीं
है। ध्यान का
अर्थ है, जिसके
साथ हम एक हो
जाएं। ध्यान का
अर्थ है कि
कोई आपको काटे,
तो आपके
मुंह से निकले
कि प्रभु को
क्यों काट रहे
हो! ध्यान का
अर्थ है कि
कोई आपके
चरणों में सिर
रख दे, तो
आप जानें कि
प्रभु को
नमस्कार किया
गया है। सोचें
नहीं, जानें।
आपका
रोआं-रोआं
प्रभु से एक
हो जाए। लेकिन
यह घटना तो
एकांत में
घटती है। इनर अलोननेस, वह जो भीतरी
एकांत गुहा है,
जहां सब
दुनिया खो
जाती, बाहर
समाप्त हो
जाता। मित्र,
प्रियजन, शत्रु सब
छूट जाते। धन,
दौलत, मकान
सब खो जाते।
और आखिरी पड़ाव
पर स्वयं भी
खो जाते हैं
आप। क्योंकि
उस स्वयं की
भीतर कोई
जरूरत नहीं है,
बाहर जरूरत
है।
अगर
ठीक से समझें, तो वह जिसको
आप कहते हैं
मैं, वह साइनबोर्ड
है, जो घर
के बाहर लगाने
के लिए दूसरों
के काम पड़ता
है। आपने कभी
खयाल किया कि
जब आप अपने
दरवाजे के
भीतर घुसते
हैं, तो साइनबोर्ड
को अपनी छाती
पर लटकाकर
मकान के भीतर
नहीं जाते।
क्यों? आपका
ही घर है, यहां
साइनबोर्ड
को ले जाने की
क्या जरूरत है?
साइनबोर्ड तो दरवाजे
की चौखट पर
लगा देते हैं।
बाहर से जाने
वाले, राह
से गुजरने
वाले, औरों
को पता चले कि
कौन यहां रहता
है। आप अपना साइनबोर्ड
अपनी छाती पर
लटकाकर घर के
भीतर नहीं
जाते।
वह
जिसको हम कहते
हैं, मैं, नाम-धाम,
पता-ठिकाना,
वह भी एक साइनबोर्ड
है बहुत
सूक्ष्म, जो
हमने दूसरों
के लिए लगाया
है। जब भीतर
के एकांत में
कोई प्रवेश
करता है, तो
उसे ले जाने
की कोई भी
जरूरत नहीं
पड़ती। वहां
आपकी भी कोई
जरूरत नहीं
है। आप भी
वहां शून्यवत
हो जाते हैं।
उस शून्यवत
एकाकार स्थिति
में प्रभु को ध्याया
जाता है।
यह
एकांत जंगल
में, अरण्य
में भाग जाने
वाला एकांत
नहीं, यह
स्वयं के भीतर
प्रविष्ट हो
जाने वाला
एकांत है।
और
कृष्ण ने यहां
अर्जुन को जो
कहा है, वह
योग की परम
उपलब्धि है।
समस्त योग
इसलिए है कि
हम अंतर-गुफा
में कैसे
प्रवेश करें।
योग विधि है
अंतर-गुफा में
प्रवेश की। और
अंतर-गुफा में
प्रवेश के बाद
जो प्रभु का
ध्यान है, वह
अनुभव है, वह
प्रतीति है, वह
साक्षात्कार
है।
सबके
भीतर है वह
गुफा। लेकिन
सब अपनी गुफा
के बाहर घूमते
रहते हैं, कोई भीतर
जाता नहीं।
शायद हमें
स्मरण ही नहीं
रहा है, क्योंकि
न मालूम कितने
जन्मों से हम
बाहर घूमते
हैं। और जब भी
एकांत होता है,
तो हम
अकेलेपन को
एकांत समझ
लेते हैं। और
तब हम तत्काल
अपने अकेलेपन
को भरने के
लिए कोई उपाय
कर लेते हैं।
पिक्चर देखने
चले जाते हैं,
कि रेडियो
खोल लेते हैं,
कि अखबार
पढ़ने लगते
हैं। कुछ नहीं
सूझता, तो
सो जाते हैं, सपने देखने
लगते हैं। मगर
अपने अकेलेपन
को जल्दी से
भर लेते हैं।
ध्यान
रहे, अकेलापन
सदा उदासी
लाता है, एकांत
आनंद लाता है।
वे उनके लक्षण
हैं। अगर आप घड़ीभर
एकांत में रह
जाएं, तो
आपका
रोआं-रोआं
आनंद की पुलक
से भर जाएगा। और
आप घड़ीभर
अकेलेपन में
रह जाएं, तो
आपका
रोआं-रोआं थका
और उदास, और
कुम्हलाए
हुए पत्तों की
तरह आप झुक
जाएंगे।
अकेलेपन में
उदासी पकड़ती
है, क्योंकि
अकेलेपन में
दूसरों की याद
आती है। और
एकांत में
आनंद आ जाता
है, क्योंकि
एकांत में
प्रभु से मिलन
होता है। वही
आनंद है, और
कोई आनंद नहीं
है।
तो अगर
आपको अकेले
बैठे हुए
उदासी मालूम
होने लगे, तो आप समझना
कि यह एकांत
नहीं है; यह
दूसरों की याद
आ रही है
आपको। और
एकांत की खोज
करना। और
एकांत खोजा जा
सकता है।
ध्यान
कहें, स्मरण
कहें, सुरति
कहें, नाम
कहें, कोई
भी, सब
एकांत की खोज
है। इस बात की
खोज है कि मैं
उस जगह पहुंच
जाऊं, जहां
कोई रूप-रेखा
न रह जाए
दूसरे की। और
जहां दूसरे की
कोई रूप-रेखा
नहीं रह जाती,
वहां स्वयं
की भी
रूप-रेखा के
बचने का कोई
कारण नहीं रह
जाता। सब हो
जाता है
निराकार।
उस
निराकार क्षण
में ईश्वर को ध्याया
जाता है, जाना
जाता है, जीया
जाता है। हम
फिर अलग होकर
नहीं देखते
उसे। वह परिचय
नहीं है। हम
उसके साथ
एकमेक होकर जानते
हैं। वह पहचान
नहीं है दूर
से, बाहर
से, अलग
से। वह एक
होकर ही जान
लेना है। हम
वही होकर
जानते हैं।
और जिस
दिन कोई अपनी
अंतर-गुहा में
पहुंच जाता है, वह स्वयं ही
भगवान हो जाता
है।
भगवान
हो जाने का
अर्थ सिर्फ
इतना ही है कि
वहां उसके और
भगवान के बीच
कोई फासला
नहीं रह जाता।
और प्रत्येक
व्यक्ति की
मंजिल यही है
कि वह भगवान
हो जाए। भगवान
के होने के
पहले कोई पड़ाव
मंजिल मत समझ
लेना।
निराकार
हो जाने के
पहले, कहीं
रुक मत जाना।
सब पड़ाव
हैं। रुकना तो
वहीं है, जहां
स्वयं भी मिट
जाए, सब
मिट जाए; शून्य,
निराकार रह
जाए। वही है
परम आनंद। उस
परम आनंद की
दिशा में ही
कृष्ण अर्जुन
को इस सूत्र
में इशारा
करते हैं।
आज के
लिए इतना ही।
लेकिन
उठेंगे नहीं।
पांच मिनट उस
अंतर-गुहा की
तलाश में
कीर्तन
करेंगे, आप
भी साथ दें।
जो सुना, उसे
भूल जाएं। जो
समझा, उसे
थोड़ा पांच
मिनट जीएं।
कोई
उठेगा नहीं, कोई
यहां-वहां
हिलेगा नहीं।
जिन मित्रों
को भी
सम्मिलित
होना हो, वे
भी सम्मिलित
हो सकते हैं।
और
अपनी जगह
बैठकर भी
सम्मिलित
हों। ये पांच
मिनट इस आनंद
में डूबने की
कोशिश करें।
अपनी जगह
बैठकर ही ताली
बजाएं, गीत
भी गाएं, संन्यासियों
को साथ दें।
आज इतना
ही।
THANK YOU GURUJI
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