प्रश्न
सार:
1—बैठे-बैठे
दिले-नादां
ये खयाल आया
है
हम
नहीं आए यहां
कोई हमें लाया
है
किसने
नन्हा-सा
मुहब्बत का ये
जला के दिया
दिले-वीरां
के अंधेरे पे
तरस खाया है।
पर दीया
तो जलता नजर
नहीं आता...?
2—भगवान,
तुम्हारे चरणों
में शत—शत प्रणाम
!
3—कल
जिस क्षण आपने
कहा कि महावीर
ने स्वाधीनता
को आत्यंतिक मूल्य
दिया, उस क्षण
मैं आपको निहारता
ही रहा। क्या
कर दिया आपने?
4—मुझे
इतना कुछ मिल रहा
था कि अंतर में
समाता नहीं—और
प्यास भी इतनी
ही है।...... प्रभु !
यह सब क्या हो
रहा है?
पहला
प्रश्न:
बैठे-बैठे
दिले-नादां
ये खयाल आया
है
हम
नहीं आए यहां
कोई हमें लाया
है
किसने
नन्हा-सा
मुहब्बत का ये
जला के दिया
दिले-वीरां
के अंधेरे पे
तरस खाया है।
पर दीया
तो जलता नजर
नहीं आता...?
कविता
उधार है। किसी
और का दीया
जला होगा, उसने गायी
है। अपने
काव्य को
जन्माना
होगा।
दीया
तो सभी का जल
सकता है। दीया
है तो जलने के लिए
है। दीया है
तो जलने की
संभावना है।
लेकिन कोई
दूसरा
तुम्हारा
दीया जला नहीं
सकता। तुम्हारी
स्वतंत्रता
परम है। तुम न
जलाना चाहो तो
दीया जलाया
नहीं जा सकता
और तुम जलाना
चाहो तो कोई
तुम्हें रोक न
सकेगा। तुमने
चाहा नहीं है
कि दीया जले।
अभी अंधेरे
में तुम्हारे
बड़े लगाव हैं।
अकसर
मैं लोगों को
देखता हूं। वे
चाहते हैं, अंधेरा भी
बना रहे और
दीया भी जल
जाये। ऐसी उलझन
है। क्योंकि
अंधेरे में
बड़े स्वार्थ
हैं।
जैसे
एक आदमी चोरी
करने गया हो, तो कई बार
टकरा जाये, दीवाल-दरवाजे
से ठोकर खा
जाये, तो
सोचने लगे मन
में कि दीया
होता तो ठीक
था--लेकिन
दीया हो और
रोशनी हो जाये
तो चोरी न कर
सकेगा। तो अगर
कोई कहे कि यह
रहा दीया, ले
लो तो वह
कहेगा, पागल
तो नहीं समझा
है मुझे?
तो
तुम्हारी
दिक्कत यह है
कि तुम्हारा
जीवन दोहरा
है। एक तरफ
अंधेरा है, अंधेरे में
लगा स्वार्थ
है। दूसरी तरफ
अंधेरे की तकलीफें
हैं। दीये का
खयाल पैदा
होता है। जब
तक तुम अंधेरे
के स्वार्थ न
तोड़ लोगे, तब
तक तुम दीया
जला न सकोगे।
यह सीधा गणित
है। तो दीये
जलाने की तो
फिक्र छोड़ो,
पहले यह देख
लो कि "अंधेरे
में हमारा
स्वार्थ है? हम अंधेरे
को चाहते हैं
कि बना रहे? अंधेरे से
कुछ मिलने की
आशा है? अंधेरे
में मन को
लगाया है? भविष्य
को अंधेरे में
छिपाया है, सपने देखे
हैं?' अगर
अंधेरे से कुछ
भी मिलने का, कहीं भी
थोड़ा-सा खयाल
है तो तुम
दीया कैसे जलने
दोगे? कोई
जला भी दे तो
उसे बुझा
दोगे। जो दीया
जलाये वह
दुश्मन मालूम
होगा।
अंधेरे
में तुम्हारा
बड़ा न्यस्त
स्वार्थ है।
इसलिए
दीया नहीं जल
रहा है।
तुम्हारे
अंधेरे पर कोई
कितना ही तरस
खाये, तो भी
अगर तुम
अंधेरे में
रहना चाहते हो
तो इस तरस से
कुछ भी न
होगा।
महावीर
आते हैं, बुद्ध
आते हैं, कृष्ण
आते हैं, क्राइस्ट
आते हैं। तरस
की कुछ कमी
नहीं है। करुणा
बड़ी है। महाकरुणा
के स्रोत आते
हैं। स्वयं
सूर्य
तुम्हारे द्वार
पर आकर दस्तक
देते हैं।
लेकिन तुम
अपने अंधेरे
में छिपे बैठे
हो। तुम सोचते
हो कि प्रकाश
भी जल जाये।
लेकिन कभी
तुमने भीतर का
द्वंद्व देखा?
कि प्रकाश
के जलने के
साथ ही अंधेरे
के सभी स्वार्थ
नष्ट-भ्रष्ट
हो जायेंगे।
तो अंधेरे से पाने
की तुमने
जो-जो आशाएं
बांधी हैं, वह सभी
धूल-धूसरित हो
जायेंगी।
उस अंधेरे से
भरी आशाओं को
ही तो हम
संसार कहते
हैं।
तो जब
तक संसार में थोड़ा
भी ऐसा लग रहा
है कि कुछ मिल
सकता है, मिलेगा--तब
तक तुम स्थगित
करोगे, दीये
को जलने न
दोगे। तब तक
तुम रोशनी से डरोगे।
अगर रोशनी आ
जाये तो तुम
पीठ कर लोगे।
तुम हजार तर्क,
विचार खोज
लोगे रोशनी से
बचने के। तुम
कहोगे, यह
तो रोशनी
आंखों को
तिलमिलाती है,
कि यह रोशनी
तो हमारी सारी
व्यवस्था को डगमगाये
देती है, कि
यह रोशनी तो
असुरक्षित कर
देगी। हम भले,
हमारा
अंधेरा भला!
लेकिन
बेईमानी ऐसी
है कि तुम अगर
इसे भी साफ देख
लो तो भी
रास्ता बन
जाये। तुम साफ
कह दो कि "हम
अंधेरे में ही
जीयेंगे! बंद
करो प्रकाश की
बातचीत! हमें
कुछ लेना-देना
नहीं है।' लेकिन तुम
उतने ईमानदार
भी नहीं हो।
जब कोई
प्रकाश की बात
करता है तो
तुम इतने स्पष्ट
भी नहीं हो कि
कह सको कि
"बंद! यह बात
से हमें कुछ
लेना-देना
नहीं है। हम
अंधेरे में
जीना चाहते
हैं और अंधेरे
में ही
जीयेंगे। और
अंधेरा हमारा
सुख है।'
यह भी
तुम नहीं कह
पाते। तुम यह
भी दिखलाना चाहते
हो कि तुम
प्रकाश के
प्रेमी हो।
तुम यह भी दिखलाना
चाहते हो कि
तुम शुभ के
पक्षपाती हो।
एक
बहरा आदमी रोज
सुबह चर्च
जाता था।
रविवार को वह
सबसे पहले
पहुंच जाता था
और पहली
पंक्ति में
बैठता था। वह
बज्र बधिर था।
उसे न तो
प्रवचन में
कुछ सुनायी
पड़ता न समझ
में आता। न
संगीत चर्च
में होता, वह उसको
सुनायी पड़ता।
एक दिन एक
आदमी ने पूछा कि
"तुम इतने
जल्दी आते किसलिए
हो? रोज
तुम चर्च चले
आते हो, मीलों
चलकर।
तुम्हें कुछ
सुनायी तो
पड़ता नहीं। न
तुम संगीत सुन
सकते हो, न
तुम प्रवचन
सुन सकते हो, तो तुम आते किसलिए हो?'
वह
आदमी हंसने
लगा। उसने कहा
कि मैं जतलाने
आता हूं कि
सारी दुनिया
देख ले कि मैं
किस पक्ष में
हूं। और
परमात्मा भी
नोट कर ले कि
मैं कोई
सांसारिक
आदमी नहीं
हूं। धार्मिक
हूं!
तो तुम
यह मोह भी
नहीं छोड़ पाते
कि तुम धार्मिक
हो। धर्म के
साथ बड़ी
प्रतिष्ठा
जुड़ी है। धर्म
के साथ बड़ा बल
जुड़ा है, प्रभुत्व
जुड़ा है।
वस्तुतः तुम
जितने बेईमान
होते हो उतने
ही धार्मिक
दिखलाने की
चेष्टा करते
हो। क्योंकि
बेईमानी को
छिपाने का
इससे अच्छा
कोई उपाय
नहीं। प्रकाश
की आकांक्षा
करके अंधेरे
को ढांकते
हो, छिपाते
हो।
तुम्हारे
प्रकाश की
आकांक्षा
अंधेरे के विपरीत
नहीं
है--अंधेरे को
छिपाने का
उपाय और व्यवस्था
है।
तुम
प्रकाश का खूब
शोरगुल मचाते
हो, आंसू
बहाते हो, चिल्लाते
हो, "प्रकाश
चाहिए', ताकि
सारी दुनिया
देख ले कि अगर
अंधेरा है तो तुम
जिम्मेवार
नहीं हो। तुम
तो प्रकाश का
कितना गुणगान
कर रहे हो।
बर्ट्रेंड
रसेल ने लिखा
है, जगत में
बड़ी अजीब
विडंबना है:
यहां जो आदमी
जितना अनैतिक
होगा, उतनी
ही नीति की
चर्चा करेगा।
क्योंकि नीति
की चर्चा से
वह एक हवा
पैदा करता है,
जिससे पता
चल जाये कि और
कोई हो अनैतिक,
मैं तो कम
से कम नहीं
हूं।
यहां
अभी किसी की
जेब कट जाये
तो जो आदमी
जेब काटे, अगर उसमें
थोड़ी भी अकल
हो तो उसको
बड़ा शोरगुल मचाना
चाहिए कि जेब
कट गयी, पकड़ो
चोर को।
दौड़-धूप करनी
चाहिए। एक बात
निश्चित है, उसको कोई भी
न पकड़ेगा।
क्योंकि उसने
अगर चोरी की
होती और जेब
काटी होता तो
वह तो भाग गया
होता। वह तो
यहां बीच में
खड़ा रहेगा। वह
तो चोरी के
खिलाफ बोलने
लगेगा।
दो
आदमी मछली मार
रहे थे। और
तभी उस सरोवर
का निरीक्षक आ
गया। एक आदमी
भाग खड़ा हुआ।
तो वह उसके
पीछे भागा।
कोई दो मील
जाकर हांफतेऱ्हांफते
उसको पकड़
पाया। और जब
पकड़ पाया तो
उसने जल्दी से
खीसे से
निकालकर
लाइसेंस बता
दिया। उसको
मछली मारने का
हक था। तो उस
आदमी ने कहा कि
"अरे नासमझ! तो
फिर भागा
क्यों?' तो
उसने कहा कि
इसीलिए कि
दूसरे के पास
लाइसेंस नहीं
है।
लोग
बड़ी होशियारी
से चल रहे
हैं।
तुम
प्रकाश की खूब
बातचीत करते
हो ताकि एक
बात तो
निश्चित हो
जाये कि तुम
प्रकाश के
आकांक्षी, अभीप्सु! तो
तुम्हें कोई
सोच भी न
सकेगा कि तुम
और अंधेरे का
व्यवसाय करते
होओगे। आसानी
से लोग फंस
जायेंगे
तुम्हारे
व्यवसाय में।
तुम जेबें
ज्यादा
सुगमता से काट
सकोगे।
बेईमान होने
के लिए
धार्मिक होना
जरूरी है।
दुकान ठीक
चलानी हो तो
मंदिर जाना
जरूरी है।
मंदिर जाना
दुकान के ठीक
चलने का
हिस्सा है।
दुकानदार भी
खाते-बही
लिखता है तो
ऊपर लिखता है,
"श्री
गणेशाय नमः' "लाभ-शुभ।' ईश्वर का
स्मरण करके
किताब बाजार
की शुरू करता
है। ईश्वर का
स्मरण--उस
किताब में
सहयोगी होने
को! वह यह कह
रहा है, "बाधा
मत डालना। हम
तो तुम्हारे
भक्त हैं!'
जैसा
मैं देखता हूं, सैकड़ों लोग चाहते
हैं ध्यान!
लेकिन ध्यान
जिन शर्तों से
घट सकता है, वह शर्तें
पूरी करने को
राजी नहीं।
कोई शर्त पूरी
करने को राजी
नहीं। सिर्फ
बेशर्त, मुफ्त!
और मैं तुमसे
कहता हूं कि
अगर यह संभव
होता कि ध्यान
मुफ्त दिया जा
सकता--चूंकि
संभव नहीं है,
इसलिए तुम
मजे से मांगते
रहते हो। कोई
खतरा नहीं
है--अगर यह
संभव होता कि
ध्यान मैं
तुम्हें उठाकर
दे देता, तो
मैं जानता हूं
तुम मांगते भी
नहीं। तुम भागते।
तुम कहते, "अभी
नहीं! अभी
बच्चे बड़े हो
रहे हैं। अभी
थोड़ा और जीवन
को सम्हाल
लेने दो। अभी
ध्यान! अभी
नहीं!' क्योंकि
ध्यान कहीं सब
अस्त-व्यस्त न
कर दे! और
ध्यान
महाक्रांति
है, अस्त-व्यस्त
तो करेगा।
तुम
जैसे हो, तुमने
उसी ढंग की
दुनिया अपने
चारों तरफ बना
ली है।
तुम्हारे
चारों तरफ
तुम्हारी
दुनिया है। तुम
बदलोगे, तुम्हारी
दुनिया गिर
जायेगी।
क्योंकि वह आदमी
ही बीच से हट
गया जिसकी
दुनिया थी। वह
केंद्र गिर
गया जिसके
सहारे चाक
घूमता था। एक
नयी दुनिया
निर्मित
होगी।
तो अगर
तुम धन की दौड़
में लगे हो तो
तुम ध्यान न कर
सकोगे।
एक बड़े
राजनीतिज्ञ
मेरे पास आते
थे। वह मुझसे
कहते, कुछ
शांति का उपाय
बताइए। मैंने
कहा, अशांति
तुम करते हो, शांति का
उपाय मुझसे
पूछते हो? छोड़ो
महत्वाकांक्षा!
महत्वाकांक्षा
से तो अशांति
पैदा होगी।
जहां भी रहोगे,
पीड़ित और
परेशान
रहोगे। जहां
भी रहोगे, असंतुष्ट
रहोगे। शांति
कैसे होगी?
उन्होंने
कहा कि आप वह
मत कहिये, मैं तो आपके
पास इसीलिए
आया कि थोड़ी
शांति हो तो
थोड़ा ढंग से
प्रतिस्पर्धा
कर सकूं।
अशांति के
कारण
प्रतिस्पर्धा
नहीं कर पा
रहा हूं। रात
नींद नहीं
आती। बेचैनी
रहती है। तो
मुझसे पीछे
आनेवाले लोग
मुख्यमंत्री
हो गये और मैं
मंत्री-पद पर
ही अटका हूं।
जितनी दौड़-ध्ूप
वे लोग कर
लेते हैं, मैं
नहीं कर पाता।
इसीलिए तो
आपके चरणों
में आया हूं
कि थोड़ी शांति
दो, ताकि
दौड़-धूप ठीक
से कर सकूं।
अब
मतलब समझे? वे शांति
चाहते हैं
ताकि ठीक से
अशांत हो सकें।
और अशांति को
छोड़ने की
तैयारी नहीं
है। शांति की
मांग भी अशांति
को ही चलाये
रखने के लिए
है।
तो
मैंने उनसे
कहा कि फिर
कहीं और जाओ, क्योंकि
असंभव मैं न
कर सकूंगा।
शांत तुम्हें
कोई भी नहीं
कर सकता, जब
तक तुम न समझ
लो कि अशांत
करने के उपाय
बंद करने
होंगे।
जहां-जहां से
अशांति आती है,
वहां-वहां
से हाथ खींच
लेना होगा।
शांति के लिए
कुछ भी नहीं
करना
पड़ता--सिर्फ
अशांति से हाथ
खींच लेते ही
शांति
निर्मित हो
जाती है।
शांति तो
अशांति का
अभाव है।
शांति के लिए
सीधा कुछ भी
नहीं करना है।
तुमने
अंधेरे में
अपनी बड़ी आकांक्षाएं
जोड़ रखी हैं, उनको हटा लो!
दीया तो जल
जायेगा। दीया
तो जलने को
तत्पर है, प्रतिपल
तत्पर है, क्योंकि
दीया जलने के
लिए है। दीया
तो जलने की
संभावना लेकर
आया है और रो
रहा है।
तुम्हारे दीये
से टपकते आंसू
मैं देखता हूं
कि कब जलाओगे,
क्या मुझे
ऐसे ही
बुझा-बुझा ही
विदा कर दोगे?
क्योंकि
ऐसे ही बहुत
जन्मों में
तुमने उसे विदा
कर दिया। जन्म
मिला, लेकिन
जीवन न मिला।
जन्म
के साथ ही
जीवन थोड़े ही
मिलता है!
जन्म तो केवल
संभावना है।
जीवन अर्जित
करना होता है।
जरूरी नहीं है
कि तुम जन्म
गये तो तुमने
जीवन पा लिया
हो। जन्म के
साथ तो बुझा
दीया मिलता है।
फिर उसे जलाना
पड़ता है।
गहन
संघर्ष से जीवन
की ज्योति
प्रगट होती
है। जैसे दो लकड़ियों
के घर्षण से
आग पैदा हो
जाती है, दो
पत्थरों के
घर्षण से आग
पैदा हो जाती
है--ऐसे तुम जब
जीवन की सारी
चुनौतियों से
संघर्ष लेते
हो, तब
तुम्हारे
भीतर का दीया
जलता है। और
कोई उपाय नहीं
है। उधार जल
नहीं सकता।
यह
कविता किसी और
की है। और
जरूरी नहीं कि
जिसने गायी
हो उसका भी
दीया जला हो।
क्योंकि अकसर
तो ऐसा होता
है, लोग
कविताएं गाकर
सोच लेते हैं
कि जल गया
दीया। जिनके
जीवन में
प्रेम नहीं है,
वे प्रेम के
गीत गाकर
सांत्वना कर
लेते हैं।
मैं
बहुत कवियों
को जानता हूं।
तुम्हारी और
उनकी परेशानी
में मैंने जरा
भी भेद नहीं
पाया। शायद
तुमसे बदतर
उनकी परेशानी
है। फर्क है तो
इतना कि वे
सपने सजाने
में कुशल हैं।
तुम इतने कुशल
नहीं हो सपनों
को रंग देने
में। वे इतने
कुशल हैं कि
बुझे दीये को
भी जले दीये
की तरह मानकर
जी सकते हैं, गीत गुनगुना
सकते हैं।
अकसर
ऐसा होता है:
जो तुम्हारे
पास नहीं है
उसकी
सांत्वना तुम
अनेक रूपों से
अपने पास जुटा
लेते हो।
प्रेम जिसके
पास नहीं है, वह प्रेम के
बहुत गीत गाकर
धीरे-धीरे
भरोसा कर लेता
है कि प्रेम
हो गया। यह
बड़ी विडंबना
है। प्रेम के
गीत जितने
लोगों ने गाये
हैं उनमें से
निन्यानबे ने
प्रेम को जाना
ही न था। जो
नहीं जान पाए
जीवन में, जो
यथार्थतः न घट
पाया, उसे
उन्होंने
सपनों में घटा
लिया। सपने
परिपूरक हैं।
आधुनिक
मनोविज्ञान
इस सत्य को
स्वीकार करता है
कि सपने
परिपूरक हैं।
जो तुम जीवन
में नहीं कर
पाते हो वह
तुम सपने में
करके अपने को
समझा लेते हो।
दिन में उपवास
करो, रात सपने
में भोजन कर
लोगे। दिन में
ब्रह्मचर्य
साधो, रात
सपने में
सुंदर
स्त्रियां, सुंदर पुरुष
तुम्हारे
आसपास नाचने
लगेंगे। तुम्हारे
ऋषि-मुनियों
के आसपास
अप्सराएं यूं
ही नहीं नाची
थीं। कोई
वस्तुतः
अप्सराएं कहीं
से आती नहीं।
किस इंद्र को
पड़ी है? कहां
कौन इंद्र है?
वह तो
ऋषि-मुनि ने
ही जो दबा
लिया था, दमन
कर लिया था; वह जिसको
प्रगट नहीं
किया था जीवन
में--वह सन्नाटे
में रात के, तंद्रा के
क्षण में, निद्रा
के क्षण में
प्रगट होने
लगा। और अगर
बहुत दबाया तो
आंख बंद करने
की भी जरूरत
नहीं, अप्सरा
खुली आंख
प्रगट हो
जायेगी। यह
निर्भर करता
है कि तुमने
दमन कितना
गहरा किया।
अगर दमन बहुत
गहरा कर लिया।
इतना गहरा कर
लिया कि अब दमन
को बर्दाश्त
नहीं किया जा
सकता। तो खुली
आंख भी तुम
सपने देखने
लगोगे। खुली
आंख और बंद आंख
में दमन की गहराई
का ही फर्क
है। तुम बंद
आंख से देखते
हो। तुमने
पागल आदमी
देखे? वे
खुली आंख से
देख रहे हैं।
एक
पागलखाने में
एक आदमी दावा
करता था कि वह
ईश्वर का भेजा
हुआ पैगंबर
है। जिस
मुसलमान खलीफा
ने उसे कैदखाने
में डलवा दिया
था, वह उससे
मिलने आया।
कहा था कि तीन
सप्ताह तू फिर
से सोच ले। वह
जब उससे मिलने
आया तो वह एक
खंभे से बंधा
था। उसको कोड़े
मारे गये थे, तीन सप्ताह
भूखा रखा गया
था। और जब
उसने उस आदमी
से पूछा कि
क्या खयाल है,
क्या अब भी
तेरा खयाल है
कि तुझे
परमात्मा ने पैगंबर
बनाकर भेजा है,
इसके पहले
कि वह बोले, एक दूसरा
आदमी जो दूसरे
खंभे से बंधा
था, उसने
कहा, "इसकी
बातों में मत पड़ना, मैंने
इसे कभी भेजा
ही नहीं! यह
सरासर झूठा है।'
लेकिन जो
पैगंबर की तरह
बंधा था, उसने
क्या कहा? वह
मुस्कुराया।
उसने कहा, "यह
तो लिखा ही है
शास्त्रों
में कि उसके
पैगंबरों को
सदा तकलीफें
झेलनी
पड़ेंगी।
तुम्हारे कोड़ों
से कुछ भी
सिद्ध नहीं
होता है--इतना
ही सिद्ध होता
है कि शास्त्र
सही हैं।'
पागल
आदमी का अर्थ
क्या होता है? इतना ही कि
जिसने अब खुली
आंख सपने
देखने शुरू कर
दिये; जो
अपने सपनों
में भरोसा
करने लगा
है--इतना कि यथार्थ
झूठा पड़ जाता
है, सपने
ज्यादा सच
मालूम होते
हैं।
तो
तुम्हारे कवि
और पागलों में
कोई बहुत अंतर
नहीं होता है।
कवि थोड़े कुशल
पागल हैं, जिनके पास
कुछ प्रतिभा
है; सुंदर
गीत रच सकते
हैं, कि
सुंदर चित्र
बना सकते हैं।
अकसर तो तुम
कवियों के पास
मत जाना--उनके
गीत का
सौंदर्य देखकर,
अन्यथा
वहां एक कुरूप
आदमी पाओगे।
गीत को सुन
लेना। गीत में
बड़ा सौंदर्य
हो सकता है।
कभी-कभी तो बड़ी
आकाश की ऊंचाई
कवि छू लेते
हैं।
सपनों
को बाधा क्या
है? सपनों को
कोई सीमा नहीं
है। जहां तक
सपना देखना हो,
देख सकते
हो। न पहाड़
रोकते हैं, न आकाश
रोकते हैं।
लेकिन सपने तुम
जो देखते हो
वह खबर देते
हैं कि जिस
चीज की कमी रह
गयी, उसको
सपने में पूरा
कर रहे हो।
भिखमंगा सपने
देखता है
सम्राट होने
के। और अकसर
सम्राटों ने भिखमंगे
होने के सपने
देखे। देखे ही
नहीं, पूरे
किये। महावीर,
बुद्ध
सम्राट थे।
लेकिन भिखारी
होने का सपना पैदा
हो गया। न
केवल सपना
देखा, उसे
पूरा किया।
भिखारी
सम्राट होने
के सपने देखते
हैं। जो नहीं
हो रहा है, जो नहीं है
पास उसको सपने
में देखना
पड़ता है।
तो
जरूरी नहीं है
कि जिसने ये
पंक्तियां
लिखी हों...ये
पंक्तियां
प्यारी हैं, सार्थक हैं।
बैठे-बैठे
दिले-नादां
ये खयाल आया
है
हम
नहीं आये यहां
कोई हमें लाया
है।
खयाल
तो दुरुस्त
है। लेकिन यह
खयाल ही नहीं
है, यह सत्य
है। तुम यहां
आये कहां? कोई
लाया है।
तुमने न तो
आने का निर्णय
किया था, न
तुमने आने की
आकांक्षा की
थी। न तुमसे
किसी ने पूछा
था कि तुम
संसार जाना
चाहते, जीवन
में उतरना
चाहते? कोई
तुम्हें उतार
गया है। एक
दिन अचानक
तुमने जागकर
पाया कि तुम
यहां हो। हमने
सदा अपने को
जिंदगी के बीच
में पाया है।
जिंदगी के
प्रारंभ में तो
किसी ने नहीं
पाया। जरूर
कोई लाया है।
कोई आंख पर पट्टियां
बांधकर इस बगीचे
में छोड़ गया
है।
बैठे-बैठे
दिले-नादां
ये खयाल आया
है।
हम
नहीं आये यहां, कोई हमें
लाया है।
और अगर
यह खयाल ही
रहा तो ज्यादा
देर न टिकेगा, चला जायेगा।
खयाल आते हैं,
जाते हैं।
खयाल बसते
थोड़े ही हैं!
खयाल का कोई बड़ा
भरोसा थोड़े ही
है! जब तक कि यह
खयाल ध्यान न बन
जाये, तब
तक इस पर
भरोसा मत करना।
यह तो आयी है
तरंग, चली
जायेगी। अभी
आयी है, अभी
भूल जाओगे। क्षणभर
में उतर
जायेगा खयाल।
जिस
दिन यह खयाल
ध्यान बन जाये, यह तुम्हारी
स्थिर चित्त
की भाव-दशा बन
जाये कि कोई
लाया है--क्या
परिणाम होंगे?
परिणाम बड़े
दूरगामी
होंगे। अगर
कोई लाया है तो
तुम्हारे
अहंकार के लिए
कोई जगह न रह
जायेगी। जन्म
किसी ने दिया,
जीवन किसी
ने दिया। तुम
क्यों अकड़े
फिरते हो? तुम
नाहक बोझ ढो
रहे हो इस "मैं'
का। न तुम
आये, न तुम
हो, न तुम
जाओगे। कोई
लाया, कोई
रखे है, कोई
ले जायेगा।
हिंदू
पुराण बड़ी
मधुर कथा कहते
हैं। जो लाया
वह ब्रह्मा। जो
सम्हाले वह
विष्णु। जो ले
जायेगा वह
शिव। तुम पर
कुछ छोड़ते
नहीं। काम ही
नहीं छोड़ते
कुछ। ब्रह्मा
ले आया है, विष्णु
सम्हाले हैं,
शिव ले
जायेंगे।
मतलब केवल
इतना है कि
विराट ने तुम
में एक तरंग
ली है।
वही
विराट जब
चाहेगा तो
तरंग समा
जायेगी।
तुम
अपने को बीच
में मत लाओ।
जब इतनी विराट
चीजें भी
तुम्हारे बिना
हो गयीं, तो
तुम छोटी-छोटी
बातों का
हिसाब मत रखो
कि मैंने मकान
बनाया है। जब
तुमने अपने को
ही नहीं बनाया
है तो तुम
मकान भी क्या
बनाओगे? यह
तो जिसने
तुम्हें
बनाया है, उसी
ने बनवा लिया
होगा। उसी ने
तुमसे यह मकान
भी बनवा लिया
होगा।
एक
कहानी मैं पढ़
रहा था। एक
नास्तिक बोल
रहा था। ईश्वर
के विपरीत
प्रमाण दे रहा
था। और अंततः
उसने बड़े
नाटकीय ढंग से
घूंसा मारकर
टेबल पर कहा
कि अगर ईश्वर
हो तो मैं
चुनौती देता
हूं, इसी वक्त
अपने किसी
देवदूत को
भेजो ताकि
मुझे एक चांटा
मारे--चांटा
सुना जा सके, देखा जा
सके। ऐसे कोई
देवदूत तो आते
नहीं, ईश्वर
ऐसी चुनौतियां
लेता नहीं।
ऐसा ले तो
मुश्किल में
पड़ जाये। इतने
लोग हैं, इतनी
चुनौतियां
हैं! लेकिन एक
आदमी बीच में
से उठा, उसने
आकर एक चांटा
मारा। उसने
कहा, यह
क्या करते हो?
उसने कहा कि
ईश्वर ने मुझे
भेजा है।
ईश्वर ने कहा
कि तुम इस
योग्य नहीं कि
देवदूत भेजे
जायें, मैं
ही काफी हूं।
मकान
तुमसे बनवा
लेता है।
दुकान तुमसे चलवा लेता
है। काम तुमसे
हजार करवा
लेता है।
लेकिन तुमको
ही जब उसने
बनाया--और
तुम्हारी
नियति में, तुम्हारी
प्रकृति में
बीज डाले
वासनाओं के, इच्छाओं के।
उन्हीं
इच्छाओं के
बीजों का फिर रूपांतरण
होता है, वृक्ष
बनते हैं।
तुम
जरा पक्षियों
को देखो? उन्होंने
तो कोई आर्किटेक्चर
का कोई शिक्षण
नहीं लिया।
कैसे प्यारे
घोंसले बना
लेते हैं! ऐसे
भी पक्षी हैं
कि उनको जन्म देने
के बाद माता
और पिता तो उड़
जाते हैं।
अंडा ही छोड़कर
उड़ जाते हैं।
अंडा बाद में
फूटता है। तो
पक्षियों को
अपने मां-बाप
से मिलने का
मौका भी नहीं
आता। इसलिए
शिक्षण का कोई
उपाय भी नहीं
है, कोई
स्कूल नहीं।
लेकिन जब वे
पक्षी बड़े
होते हैं, फिर
घोंसला बनाते
हैं। और
घोंसला ठीक
वैसा ही होता
है जैसा उनके
मां-बाप ने
बनाया था। वे
भी उड़ जायेंगे
अंडे को रखकर।
अंडा फूटेगा
तब मां-बाप
पास न होंगे।
पुनः
सदियों-सदियों
अनंत काल तक
ऐसा सिलसिला
चलता रहेगा।
वैज्ञानिक
बड़े चकित थे
कि यह घोंसला
बन कैसे जाता
है! और घोंसला
कोई छोटी
प्रक्रिया
नहीं है। एक
पक्षी का घोंसला
उतारकर
बनाने की
कोशिश करो।
तुम बड़ी
मुश्किल में
पड़ जाओगे।
तिनकों से, धागों से, पंखों से
पक्षी ऐसे
सुंदर घोंसले
बनाते हैं। कभी-कभी
तो बड़े जटिल
घोंसले बनाते
हैं।
कोई
बनवा लेता है!
जिसने
पक्षियों को
बनाया है, उसी ने शायद
पक्षियों के
द्वारा
घोंसले बनाने
की योजना भी
उनके भीतर कर
रखी है। बिना
शिक्षण के करवा
लेता है।
तुम
कहते हो मैंने
प्रेम किया, कि मैं एक
स्त्री के
प्रेम में गिर
गया। यह तुमने
किया? या
कि जिसने
तुम्हें जन्म
दिया, उसने
ही यह प्रेम
भी तुम्हें
दिया?
जीवन
को थोड़ा परखो!
फिर से छानो!
फिर से
विश्लेषण करो!
तुम पाओगे:
कोई करवा रहा
है।
यह
खयाल तो बड़ा
अच्छा है अगर
ध्यान बन
जाये। और
ध्यान से मेरा
अर्थ है, अगर
यह खयाल स्थिर
भाव बन जाये, तुम्हारा
बोध बन जाये।
बैठे-बैठे
दिले-नादां
ये खयाल आया
है,
हम
नहीं आये यहां, कोई हमें
लाया है!
इतने
पर ही सारा
धर्म पूरा हो
जाता है--अगर
तुम्हें ये
समझ में आ
जाये कि कोई
हमें लाया है; कोई हमें ले
जायेगा; कोई
हमारे भीतर
श्वास ले रहा
है; कोई
हमारे भीतर जी
रहा है। तो
तुम अकर्ता
भाव को उपलब्ध
हो गये। फिर
तुम कर्ता
नहीं हो।
और जब
तुम कर्ता
नहीं हो तो
तुम्हारी
सारी जीवन-ऊर्जा
साक्षी बन
जायेगी।
कर्ता में
नियोजित है
जीवन-ऊर्जा, करने में
लगी है। अगर
करने से
तुम्हारा हाथ
अलग हो जाये
ऐसा नहीं कि
कर्म बंद हो
जायेगा; कर्म
तो चलेगा--और
सुडौल चलेगा;
और शुभ
चलेगा।
भूल-चूक कम हो
जायेगी, क्योंकि
तुम्हारे
कारण जो बाधा
पड़ती थी वह भी मिट
जायेगी। अबाध
उसकी धारा
तुमसे बहने
लगेगी। कर्म
तो चलता
रहेगा। वह तो
उस चलानेवाले
पर है। वह तो
पूर्ण पर है।
लेकिन तुम, तुम्हारी
ऊर्जा बचेगी।
वही ऊर्जा
संगृहीत होकर
साक्षी-भाव
बनती है। वही
ऊर्जा समाधि
बनती है।
किसने
नन्हा-सा
मुहब्बत का ये
जलाकर दिया
दिले-वीरां
के अंधेरे पे
तरस खाया है।
और वही
ऊर्जा, वही
समाधि दीया
बनेगी। वही
जलेगी तो तुम
प्रकाशित
होओगे। जब तक
ध्यान की
ज्योति न जले
भीतर, तुम
प्रकाशित न हो
सकोगे। और
ध्यान की
ज्योति बाहर
से भीतर नहीं
डाली जा
सकती--अंतर्तम
में ही खिलती
है।
जैसे
वृक्षों में
फूल लगते हैं
तो वृक्ष में
रसधार बहती
है--उसी रसधार
के आखिरी छोर
पर रंगीन
फूलों का जन्म
होता है। ऐसे
ही तुम्हारे
जीवन के वृक्ष
में रसधार बह
रही है। वही
रसधार जब
ध्यान की तरह
पकती है, समाधि
के फूल खिलते
हैं। तब
तुम्हारे
भीतर दीया
जलेगा।
कविताओं
को गुनगुनाकर
भूल में मत पड़
जाना।
कविताएं
प्यारी हैं।
लेकिन जब
तुम्हारा जीवन
का काव्य
निर्मित होगा
तब तुम पाओगे:
सब कविताएं
फीकी हैं।
जिस
दिन तुम्हारा
जीवन गीत गुनगुनाएगा, उस दिन तुम
पाओगे: सब
कविताएं कूड़ा-कर्कट
हैं।
और घबड़ाना
मत!
दीया
अगर बुझा है
तो इसे इस तरह
देखना कि यह
जलने के लिए प्रतीक्षा
है। बुझे को
निराशा मत बना
लेना। ऐसा मत
सोचना: "अब
क्या करें? अंधेरा सघन
है। दीया बुझा
है।' हाथ-पैर
रोककर गिर मत पड़ना। थक
मत जाना!
हम
जिसको मौत
समझते हैं पैगामे-हयाते-जदीद
है वोह
ये
फूल चमन में
जितने हैं, फिर खिलने
को मुर्झाते
हैं।
जिसको
हम मौत कहते
हैं, वह भी मौत
नहीं। वह भी
नये जीवन का
संदेश है।
हम
जिसको मौत
समझते हैं, पैगामे-हयाते-जदीद है वोह
ये
फूल चमन में
जितने हैं, फिर खिलने
को मुर्झाते
हैं।
जो फूल
मुर्झा गया, उसमें तुम
नये खिलनेवाले
फूल की छवि
देखना। यहां
सब फिर से खिलने
को मुर्झाता
है। अगर दीया
बुझा है तो
जलने को ही
प्रतीक्षा कर
रहा है कि
जले।
इसे
निराश होने का
कारण मत बना
लेना।
वस्तुतः यही
तो आशा की
किरण है, कि
तुम्हारा
दीया अभी बुझा
है। जल सकता
है। कुछ होने
को बाकी है।
यही तो आशा की
किरण है कि सब हो
नहीं गया है।
जो हुआ है वह
क्षुद्र है।
जो नहीं हुआ
है वह विराट
है। वह विराट
अभी प्रतीक्षा
कर रहा है। वह
होने को है।
यही तो जीवन की
संभावना, उत्फुल्लता
है, प्रसाद
है, कि कुछ
होने को है।
तो पैर
में तुम घूंघर
बांध सकते हो
और नाच सकते
हो। और जो
होने को है वह
सबसे बड़ा है।
जो हो चुका है, जो हुआ है जन्म,
जो हुआ है
देह का मिलना,
जो हुआ है
धन-संपत्ति, पद-प्रतिष्ठा--वह
सब छोटा है।
जो होने को
है--ध्यान, समाधि,
मोक्ष--वह
विराट है। जो
हुआ है वह
ना-कुछ है। जो होने
को है वह सब
कुछ है। इसे
आशा का संचार
समझना। इसे
समझना जीवन का
संदेश।
और एक
बार तुम्हारे
भीतर आशा पैदा
हो जाये और
तुम निराश न
रह जाओ, हताश
न बैठ जाओ, तुम्हारी
जीवन ऊर्जा उठ
बैठे, आशा
से भरपूर--तो
रसधार बहने
लगी! फूल
खिलेंगे! दीये
भी जलेंगे।
यह
तेरा तसव्वुर
है या तेरी तमन्नाएं
दिल
में कोई रह-रहके
दीपक-से जलाए
है।
यह
तेरा तसव्वुर
है या तेरी तमन्नाएं
दिल
में कोई रह रहके
दीपके-से जलाए है।
जरा
तुम्हारे
भीतर आशा उठे
तो उसका
तसव्वुर, उसकी
तमन्ना, उसकी
खोज के लिए
पैर आगे बढ़ने
लगे। उसकी खोज
करनी है जिसने
तुम्हें भेजा
है। उसकी खोज
करनी है जहां
से तुम आये
हो। अगर
हिंदुओं की
भाषा का उपयोग
करना हो तो
कहो: उसकी खोज
करनी है, जिसने
तुम्हें भेजा
है। अगर जैनों
की भाषा का उपयोग
करना है तो
कहो: उसकी खोज
करनी है, जहां
से तुम आये
हो। मूल-स्रोत
की! जीवन के
मूल-बिंदु की,
जहां से
सारा विस्तार
हुआ है।
जरा-सा
भी तुम्हारे
भीतर उसकी खोज
का अंकुर पड़
जाये--दिल में
कोई रह-रहकर
दीपक-से जलाए
है। तो पल-पल
दीये पर दीये, दीयों की
पंक्तियां, दीप-मालाएं
जल उठेंगी।
तुम्हारा
रास्ता
ज्योतिर्मय
हो जायेगा।
लेकिन
इस
ज्योतिर्मय
के पहले जोखिम
उठानी पड़ेगी।
अगर जोखिम न
उठायी तो कवि
रह जाओगे; अगर जोखिम
उठायी तो ऋषि
हो जाओगे।
जोखिम उठानी
पड़ेगी। जोखिम
है उस सब को
खोने की, जो
अंधेरे में ही
मिलता है--और
अंधेरे में ही
मिल सकता है।
अंधेरे के
सारे के सारे
व्यवसाय को
खोने की जोखिम
शर्त है--दीये
के जलने की।
दीया
जल सकता है।
कीमत चुकाने
को राजी हो
जाओ। मुफ्त वह
दीया नहीं
जलेगा। और
अच्छा है कि
मुफ्त नहीं
जलता। क्योंकि
मुफ्त जल जाता
तो कोई रस न
होता। मुफ्त जल
जाता तो तुम
धन्यवाद भी
अनुभव न करते।
मुफ्त जल जाता
तो तुम प्रौढ़
ही न हो पाते।
मुफ्त जल जाता
तो तुम जाग ही
न पाते। तो
दीया भी जलता
रहता और तुम
कमरे में
अंधेरे में ही
रहते। तुम आंख
बंद किये सोये
रहते।
दीये
के जलने से ही
थोड़े ही रोशनी
हो जाती
है--आंख भी तो खुली
होनी चाहिए।
सूरज भी निकल
आये और तुम
आंख बंद किये
पड़े रहो तो
तुम अंधेरे
में रहोगे। छोटी-सी
दो पलकें इतने
बड़े सूरज को
नकार देती हैं।
तो
चुनौती
स्वीकार करो!
दीया जल सकता
है--इस आशा से
उद्वेलित
होओ। उठो!
कठिन होगा।
संघर्षण
होगा। लेकिन
उसी संघर्षण
में तुम
जागोगे, आंख
खुलेगी।
और
अच्छा है कि
आंख
खुलते-खुलते
ही दीया भी जले।
कोई दूसरा जला
दे दीया तो
तुम आंख न
खोलोगे।
ऐसा
मैंने सुना है, एक पुरानी
चीनी कथा है, एक किसान ने
परमात्मा से
बड़े दिनों तक
प्रार्थना की
कि "हे प्रभु!
तुझे
खेती-बाड़ी का
कुछ पता नहीं।
जब पानी चाहिए
तब पानी नहीं;
जब पानी
नहीं चाहिए, तब बेतहाशा
पानी! बाढ़ भेज
देता है! तुझे
कुछ समझ नहीं।
तूने कभी
खेती-बाड़ी
नहीं की। ओलों
की क्या जरूरत
है? जब धूप
चाहिए तब धूप
नहीं।'
आखिर
परेशान हो गया
परमात्मा भी
सुन-सुनकर।
उसने कहा, "आखिर तू
चाहता क्या है?'
उस किसान ने
कहा कि एक साल
मुझे मौका
दें। आखिर
जिंदगी हो गयी
खेती-बाड़ी
करते हुए।
मुझे पता है, तूने कभी
खेती-बाड़ी की
भी नहीं। एक
साल जो मैं चाहूं,
वैसा हो।'
परमात्मा
ने कहा, "चल
यही सही।'
एक साल
ऐसा हुआ कि
किसान जब धूप
चाहता तब धूप; जब पानी
चाहता तब
पानी। बड़ी फसल
उठी। ऐसी कभी न
उठी थी। गेहूं
की बालें इतनी
बड़ी-बड़ी हुईं
कि किसान ने
कहा, "अब
देखो! सालभर
के बाद
दिखलाऊंगा कि
क्या तुम अब
तक परेशान करते
रहे संसार को!'
आदमियों के
सिरों के ऊपर
चली गयीं। फिर
वक्त आया फसल
काटने का। फसल
काटी गयी।
बालें तो बहुत
बड़ी-बड़ी थीं, लेकिन गेहूं
उनमें न थे।
वह किसान बड़ा
हैरान हुआ कि
यह मामला क्या
हुआ! उसने
प्रभु को कहा,
"हे प्रभु!
समझे
नहीं--धूप जब
चाहिए तब धूप
दी। वर्षा जब
चाहिए तब
वर्षा दी। वर्षभर
ठीक मेरे
हिसाब से सब
चला। और बालें
इतनी ऊंची गयीं,
कभी न गयी
थीं। किसी ने
देखी न थीं
इतनी ऊंची बालें।
लेकिन मामला
क्या है? अंदर
कोई गेहूं
नहीं है!'
तो
परमात्मा
हंसा और उसने
कहा, "तूने
सिर्फ धूप
मांगी, पानी
मांगा, ओले
नहीं मांगे, तूफान नहीं
मांगा, आंधी
नहीं मांगी।
आंधी और तूफान
के बिना भीतर का
सत्व संगृहीत
नहीं होता। तो
बालें बड़ी हो
गयीं लेकिन भीतर
प्राण
संगृहीत न
हुए।'
संघर्ष
के बिना कहीं
प्राण
संगृहीत हुए
हैं?
तो अगर
तुम्हें
मुफ्त मिल
जाता होता
भीतर का दीया
भी तो
तुम्हारे
भीतर आत्मा
पैदा न होती।
तुम बाल हो
जाते बड़ी लंबी, मगर भीतर गेहूं
का दाना न
होता।
इस
जीवन में जैसा
है, सब वैसा
ही जरूरी है।
जो चेष्टा से
मिलना चाहिए,
वह चेष्टा
से ही मिलता
है। क्योंकि
बिना चेष्टा
के वह मिल ही
नहीं सकता; वह पैदा ही
नहीं होता; तुम्हारी
पात्रता ही
निर्मित नहीं
होती।
दूसरा
प्रश्न:
भगवान, तुम्हारे
चरणों में
शत-शत प्रणाम!
"दर्शन' ने पूछा है।
प्रश्न
तो है ही
नहीं। "दर्शन' की वृत्ति
भी प्रश्न
पूछने की नहीं
है। उसने सिर्फ
अपना अहोभाव
प्रगट किया
है।
इसे
समझना।
जो
पूछते हैं, जरूरी नहीं
कि समझ
पायेंगे।
पूछने के कारण
ही बहुत बार
तुम समझने से
वंचित रह जाते
हो। क्योंकि
जब तुम पूछते
हो तो प्रश्न
को तुम
इतना-इतना
भारी समझ लेते
हो, और तुम
प्रश्न में
इतने व्यस्त
हो जाते हो कि उत्तर
के लिए जगह ही
नहीं मिलती
तुम्हारे भीतर
प्रवेश पाने
की। तुम उत्तर
के लिए दरवाजा
नहीं छोड़ते।
समझ तो
वे ही सकते
हैं जो पूछते
नहीं। न पूछना
ठीक-ठीक उत्तर
को समझ लेने
का अनिवार्य
चरण है।
तो
"दर्शन' ने
न तो कभी कुछ
पूछा
है--सिर्फ एक
बार को छोड़कर।
पहली बार जब
वह मुझे मिलने
आयी थी, वर्षों
पहले, तब
विवाद करने
आयी थी। कोई
बात उसे जंची
न थी तो तर्क
करने आयी थी।
मैंने उसी दिन
देख लिया था
कि वह उलझ गयी,
अब लौट न
सकेगी। आयी थी
तर्क करने, रह गयी सदा
को। उसके बाद
उसने कभी कुछ
पूछा नहीं।
वर्षों बीत
गये। और इन
वर्षों में
बहुत लोग
आये-गये, वह
फिर मेरे साथ
रही। रास्ता ऊबड़-खाबड़
था तो भी; कंटकाकीर्ण
था तो भी। अब
तो मैं
धीरे-धीरे आश्वस्त
हो गया हूं कि
लौटकर पीछे
देखूंगा तो
कोई भी न हो, तो भी "दर्शन'
होगी।
वह
छाया की तरह
पीछे रही है।
पहले ही दिन
विवाद उसने
छोड़ दिया।
संवाद शुरू
होता है तभी, जब हम विवाद
छोड़ते हैं।
उत्तर
पहुंचने लगता
है तभी जब हम
प्रश्न छोड़
देते हैं।
उसने कुछ पूछा
नहीं, इतना
सिर्फ कहा है,
तुम्हारे
चरणों में
शत-शत प्रणाम।
यह भी पहली
दफे कहा है।
नागुफ्तनी हदीसे-मुहब्बत
नहीं मगर
जो
दिल की बात वह
कहें क्या जबां
से हम?
--प्रेम
कोई छिपाने की
बात नहीं।
नागुफ्तनी हदीसे-मुहब्बत
नहीं मगर
--प्रेम
कोई न कहने की
बात नहीं।
जो
दिल की बात वह
कहें क्या जबां
से हम?
लेकिन
जो दिल की बात
है उसे कैसे
जबान से कहा
जाये! कहना भी
चाहें तो भी कही
नहीं जा सकती।
जो भी कहा जा
सकता है, वह
बुद्धि का
होता है। जो
नहीं कहा जा
सकता, वही
हृदय का है।
तो उसे
मैंने रोते
देखा है, हंसते
देखा है; प्रसन्न
देखा है, उदास
देखा है।
लेकिन कभी
उसने कुछ कहा
नहीं। इस न
कहने के कारण
उसे बहुत कुछ
मिला है, जो
उनको नहीं मिल
पाया जो बहुत
कहने में लगे
हैं।
लेकिन, फिर भी
खामोश भी रहो,
चुप भी रहो
तो भी हृदय
कुछ कहना
चाहता है। नहीं
कह सकता, असमर्थ
पाता है--फिर
भी कुछ कहना
चाहता है। कहने
में, अभिव्यक्त
होने में
संबंधित होना
चाहता है।
मैं
हजार जब्त
करूं तो क्या, मैं हजार
कुछ न कहूं तो
क्या?
कि दयारे-नाजे-हबीब
में, मेरी खामुशी
भी सवाल है।
उस
प्रेमी के
दरबार में, उस प्रेमी
की महफिल में,
मैं हजार
जब्त करूं तो
क्या, मैं
हजार कुछ न
कहूं तो
क्या--न कहो, सम्हालो तो
भी: दयारे-नाजे-हबीब
में, मेरी खामुशी भी
सवाल है।
लेकिन
चुप रहना भी
तो
अभिव्यक्ति
हो जाती है। न
कुछ कहकर भी
तो कुछ कह
दिया जाता है।
मौन भी तो
अपनी एक
मुखरता रखता
है।
तो
यद्यपि
"दर्शन' ने
कभी कुछ कहा
नहीं, लेकिन
बहुत कुछ वह
कहती रही
है--अपनी
चुप्पी से, अपने शांत
मौन से। अनेक
बार मैंने उससे
पूछा भी है, लेकिन फिर
भी वह बचा गयी,
उसने कुछ
कहा नहीं है।
ऐसी
भाव दशा जल्दी
ही परम फूलों
को उपलब्ध होती
है। और आज
उसने पहली दफा
लिखा है। एक
बार और उसने
पत्र लिखा
था--वह भी खाली
कागज भेजा था; उसमें कुछ
लिखा नहीं था।
उत्तर मैं
उसका भी दिया
था। क्योंकि खाली
कागज में भी
तो कोई बड़ी
अंतर्तम से
उठी हुई
प्रश्नावली
है। कुछ जो
नहीं कहा जा
सकता, जिसे
शायद वह खुद
भी नहीं तय कर
पाती कि कैसे
कहें, उसको
खाली कागज में
लिखकर भेज
दिया है। अपने
शून्य को! आज
उसने धन्यवाद
दिया है! कुछ
लिखा है।
तुम्हारे
चरणों में
शत-शत प्रणाम।
उसके भीतर कुछ
हो रहा है, वह
बड़ी पीड़ा से
गुजर रही है।
पुराना संसार
टूट रहा है।
नये का
अभ्युदय हो
रहा है! इन
पीड़ा के क्षणों
में अत्यंत
जरूरी है कि
वह जो होने जा
रहा है, उसके
प्रति अहोभाव
से भरी रहे।
अन्यथा, पुराना
संसार काफी
वजनी है! उसका
जाल-जंजाल गहरा
है। उसमें
बार-बार उतर
जाने की, उलझ
जाने की
संभावना है!
लेकिन उसके
सौभाग्य से वह
जाल खुद ही
टूटा जा रहा
है। वह जाल
खुद ही पीछे
हटा जा रहा
है।
सदा ही
ऐसा होता है।
जिस दिन तुम
तैयार हो, उसी दिन
संसार
तुम्हें
छोड़ने को
तैयार हो जाता
है। तुम लाख
कहते हो कि
क्या करें, कैसे छोड़ें,
संसार नहीं
छोड़ रहा है!
गलत कहते हो।
जिस दिन तुम
छोड़ना चाहते
हो, उस दिन
संसार क्षणभर
को नहीं पकड़ता
है, क्योंकि
संसार ने
तुम्हें कभी
पकड़ा ही न था।
इधर तुम छोड़ने
लगे, उधर
संसार अपने आप
छोड़ने लगता
है।
ऐसी ही
घड़ी से वह
गुजर रही है।
ऐसी घड़ी में
प्रणाम करने
का खयाल, सौभाग्य
है क्योंकि
ऐसे समय में
तो शिकायत करने
का मन होता
है। अगर वह
शिकायत लिख
भेजती आज तो
मैं समझता कि
ठीक था, तर्कयुक्त
था; क्योंकि
पीड़ा से गुजर
रही है, घनी
पीड़ा से गुजर
रही है। आज वह
मुझ पर नाराज
होती तो समझ
में आनेवाली
बात थी। क्योंकि
यह बिलकुल
स्वाभाविक है
कि जब पीड़ा से
कोई गुजरे तो
कहीं न कहीं, किसी न किसी
को दोष दे। और
मुझसे ज्यादा
करीब उसके कोई
भी नहीं। तो
जो भी करीब हो,
उसी को हम
दोष देते हैं।
आज इस
दुख की घड़ी
में
स्वाभाविक था
कि वह कहती कि
"तुम्हीं' ने सब खराब
कर दिया! सब उजड़
गया! सब धागे
टूटे जा रहे
हैं! लेकिन इस
घड़ी में उसका
चरणों में
प्रणाम भेजना
बहुत
बहुमूल्य है।
इस किरण के
सहारे ही वह
पार हो
जायेगी।
हजारों
तूर उसी की हसरते-दीदार
पर कुर्बां,
कि
जिसकी जिंदगी
ही हसरते-दीदार
हो जाए।
हजारों
सूरज भी उसकी
आंखों पर कुर्बान
हैं; उसकी
देखने की
अभिलाषा पर कुर्बान
हैं--जिसके
जीवन का
लक्ष्य ही उस
परम प्रिय को देखना
रह गया हो।
हजारों
तूर उसी की हसरते-दीदार
पर कुर्बां,
कि
जिसकी जिंदगी
ही हसरते-दीदार
हो जाए।
उसे
मैंने "दर्शन' नाम दिया
है। "दर्शन' का अर्थ
होता है: "हसरते-दीदार';
देखने की अभिलाषा।
और उसकी देखने
की अभिलाषा
गहन होती चली
गयी है। अब तो
यहां बैठती भी
है तो आंखें बंद
करके ही बैठती
है। जैसे-जैसे
देखने की अभिलाषा
गहन होती है, वैसे-वैसे
आंख भी बंद
होने लगती है।
क्योंकि आंख
से तो वही
देखा जा सकता
है जो रूप है, आकार है, नाम
है। आंख बंद
करके उसे देखा
जा सकता है--जो
अरूप है, निराकार
है, अनाम
है।
हजारों
तूर उसी की हसरते-दीदार
पर कुर्बां,
कि
जिसकी जिंदगी
ही हसरते-दीदार
हो जाए।
और
"दर्शन' की
जिंदगी अब उस
दिशा में
प्रवाहित हो
रही है, उसकी
नाव, जहां
उस परम प्यारे
के सिवाय कोई
और न बचेगा।
कठिन
होगी यात्रा!
सब छूटेगा।
लेकिन सब
छूटने के
मूल्य पर ही
सब मिलता है। एक
ही बात खयाल
रखना--
हरम
हो, बुतकदा हो, दैर
हो, कुछ हो,
कहीं ले चल
जहां
वह हुस्न-लामहदूद
हो, ऐ दिल!
वहीं ले चल।
--जहां
वह परम
सौंदर्य हो, अब वहीं
चलेंगे!
हरम
हो, बुतकदा हो, दैर
हो, कुछ हो,
कहीं ले चल
--मंदिर
हो, मस्जिद
हो, काबा
हो, काशी
हो, कुछ भी
हो।
हरम
हो, बुतकदा हो, दैर
हो, कुछ हो,
कहीं ले चल
जहां
वह हुस्न-लामहदूद
हो, ऐ दिल!
वहीं ले चल!
जहां
वह असीम
सौंदर्य हो!
जहां उस परम
प्रिय का
दर्शन हो!
उसके
लिए सब निछावर
करने की
तैयारी रखना।
वह आखिरी दम
तक परीक्षा
लेता है। वह
आखिरी-आखिरी घड़ी
तक परीक्षा
लेता है।
आखिरी-आखिरी
घड़ी तक पीड़ा
देता है!
लेकिन जो उस
पीड़ा से गुजर
जाता है, वह
उस महापात्रता
को उपलब्ध हो
जाता है--जहां
तुम्हें
परमात्मा को
खोजने नहीं
जाना पड़ता, परमात्मा
तुम्हें
खोजता आता है!
और अगर, अहोभाव हो
तो घड़ी दूर
नहीं। शिकायत
से लोग दूर
होते हैं
परमात्मा से;
धन्यवाद से
पास होते हैं।
जितना
धन्यवाद गहन होता
जाता है उतनी
दूरी कम होती
जाती है। अगर अहोभाव
परिपूर्ण हो
जाये तो दूरी
समाप्त हो जाती
है। अहोभाव के
क्षण में
अचानक तुम
पाते हो: वही
है मौजूद!
उसने ही
तुम्हें सब
तरफ से घेरा
है। उसके अतिरिक्त
और कोई भी
नहीं। उसके
अतिरिक्त और कुछ
भी नहीं है!
गुल
में, शफक में, दामने-अब्रे-बहार में
देखा
जो मैंने आए
नजर तुम
जगह-जगह।
संध्या
की लाली में
देखा, कि
वसंतों की
वर्षा में
देखा!
गुल
में, शफक में, दामने-अब्रे-बहार में
देखा
जो मैंने आए
नजर तुम
जगह-जगह।
वही
दिखायी पड़ने
लगेगा। ऐसा
अहोभाव हो कि
कहीं मन के
कोने-कातर में
भी सरकती कोई
शिकायत न रह
जाये, उसके
दुख भी
स्वीकार हों,
उसकी पीड़ा
भी स्वीकार
हो। उसने दी
पीड़ा, इस
योग्य समझा।
यही क्या कम
है! ऐसे भाव
में मंदिर
निर्मित होता
है। ऐसे भाव
की दशा में
भक्त निर्मित
होता है।
और
"दर्शन' जल्दी
ही उस दशा को
उपलब्ध हो
सकती है।
लेकिन जितने
हम करीब
पहुंचते हैं,
उतना ही
खतरा भी बढ़ता
है। जो जमीन
पर चलते हैं, समतल जमीन
पर, उनके
गिरने का कोई
भी डर नहीं।
लेकिन जो पहाड़
की ऊंचाइयों
पर चढ़ते
हैं, गिरने
का डर भी उसी
के साथ-साथ
बढ़ता जाता है।
गिरे तो बुरी
तरह गिरेंगे।
इसलिए जितनी
ऊंचाई आती है,
उतने ही
सम्हलकर और
सावधान होकर
चलने के क्षण आते
हैं। जमीन पर
गिरे भी तो
क्या गिरे, फिर उठकर
खड़े हो
जायेंगे।
मैंने
सुना है, बायजीद
एक गांव के
पास से गुजर
रहा था। उसने
एक शराबी को
देखा, जो
डगमगाता चल
रहा था!
बायजीद ने उसे
पकड़ा और कहा
कि, "सुन
पागल! कितनी
पी रखी है? कुछ
होश सम्हाल!
गिर पड़ेगा तो
कीचड़ मची है, सब कपड़े
खराब हो
जायेंगे।'
उस
शराबी ने आंख
खोली और हंसने
लगा। उसने कहा, "बायजीद! हम
अगर गिरे तो कपड़े
ही खराब होंगे;
तुम अगर
गिरे तो...?'
बायजीद
बड़ा सूफी फकीर
था, बड़ा संत
था।
"तुम अगर
गिरे तो?'
तो
कहते हैं, बायजीद ने
उसके चरण छुए
और कहा कि ठीक
समय पर तूने
मुझे चेताया।
अगर हम गिरे
तो कपड़े तो
दूर, आत्मा
तक खराब हो
जायेगी। तू
गिरा तो सुबह नहा-धोकर
ठीक हो जायेगा,
यह भी सच
है। अगर हम
गिरे तो
जन्म-जन्म लग
जायेंगे।
"दर्शन'
वहां है
जहां
सम्हालकर
चलना होगा
प्रतिपल। और
रोज-रोज
सम्हालने को
ज्यादा
सम्हालना
होगा। ज्यादा
सावधानी, सावचेती।
इन
पीड़ा के
क्षणों को अगर
ठीक से पार कर
लिया तो मंदिर
ज्यादा दूर
नहीं है, पास
ही है--कुहासे
में ढंका है।
तीसरा
प्रश्न:
कल
जिस क्षण आपने
कहा कि
"महावीर ने
स्वाधीनता को
आत्यंतिक
मूल्य दिया, वह मूल्य
किसी और ने
नहीं दिया' उस क्षण मैं
आपको निहारता
ही रहा। क्या
कर दिया आपने?
मैं अपनी
अभव्यता
देखता रहूं, अल्पता
देखता रहूं, और आपको
निहारता रहूं,
शीश नवाता
रहूं!
सुना
यदि शांत मन
से तो कभी-कभी
ऐसे झरोखे
खुलेंगे।
महावीर
ने तो कहा है
कि अगर कोई
ठीक से सुन ले
तो मात्र
श्रवण से भी
पार हो जाता
है। इसलिए महावीर
ने कहा कि
मेरे चार
तीर्थ हैं, चार घाट हैं
जिनसे लोग उस
पार जा सकते
हैं: श्रावक, श्राविका,
साध्वी, साधू।
श्रावक-श्राविका
का अर्थ होता
है: जिन्होंने
ठीक से सुना, श्रवण किया।
सिर्फ सुनकर
कोई पार जा
सकता है? निश्चित
ही। लेकिन
सिर्फ सुनने
को कोई छोटी घटना
मत समझना।
सिर्फ सुनना
बड़ी घटना
है--करने से भी
बड़ी घटना है।
करना तो आसान
है, सुनना
कठिन है। क्योंकि
ठीक सुनने का
अर्थ है: जब
तुम्हारे भीतर
कोई विचार की
तरंग न हो; तभी
तुम वह सुन
पाओगे जो कहा
जा रहा है।
अगर विचारों
की तरंगें हैं
तो तुम वही
सुन लोगे जो तुम्हारी
विचार की
तरंगें
व्याख्या
करेंगी।
मैं
यहां बोल रहा
हूं। तुम वहां
सोच भी रहे हो।
तो मिश्रित
होगा सुनना।
मेरे कहे पर
तुम्हारे
विचारों की
खोल चढ़
जायेगी। मेरे
कहे पर
तुम्हारे
विचारों का
रंग बिखर
जायेगा। तुम
वही समझ लोगे
जो तुम समझ
सकते थे; वह
नहीं जो मैंने
कहा था।
तो
कभी-कभी ऐसी
घड़ी घटेगी
सुनते-सुनते
कि तुम उस जगह
पहुंच जाओगे
जिसको महावीर
श्रावक का
तीर्थ कहते
हैं। श्रवण के
घाट पर पहुंच
जाओगे! अचानक!
तब क्या मैं
कह रहा हूं, यह सवाल
नहीं है--कोई
भी शब्द, भाव-भंगिमा
मात्र, तुम्हारे
भीतर कोई
झरोखा खोल
देगी! कोई
द्वार जो बंद
पड़ा था जन्मों
से, हवा के
एक झोंके में
खुल जायेगा!
कोई दृश्य जो तुमने
कभी न देखा था,
दिखायी पड़
जायेगा। ऐसा
ही कुछ हुआ है!
"कल जिस क्षण
आपने कहा, महावीर
ने स्वाधीनता
को आत्यंतिक
मूल्य दिया, वह किसी और
ने नहीं दिया,
उस क्षण मैं
आपको निहारता
ही रहा। क्या
कर दिया आपने?'
मैंने
कुछ भी नहीं
किया। मेरे
किये क्या हो
सकता है? तुमने
कुछ होने दिया।
मैंने कुछ
किया नहीं।
तुमने कुछ
होने दिया। इस
फर्क को ठीक
से समझ लेना।
अगर
तुमने ऐसा
सोचा कि मैंने
कुछ कर दिया, तो यह तो
परतंत्रता की
नयी जंजीर
शुरू हो जायेगी।
तब तुम राह देखोगे
कि मैं कुछ
करूं तो हो।
इस
भ्रांति में
मत पड़ना।
यह भ्रांति
होती है।
तुम एक
राह से गुजर
रहे हो। एक
सुंदर स्त्री
दिखायी पड़ी।
कुछ हो गया।
अब तुम कहते
हो, "इस
स्त्री ने कुछ
कर दिया।' इस
स्त्री ने कुछ
भी नहीं किया।
तुम्हारे भीतर
ही कुछ हुआ।
इसकी मौजूदगी
ने सहारा दे
दिया। इसने
कोई जादू नहीं
किया, कोई
वशीकरण नहीं
किया, जैसा
लोग समझते
हैं। शायद इसे
तो खयाल भी न
हो। तुम्हें
कुछ हुआ, यह
पक्का है।
इसकी मौजूदगी
ने कैटेलेटिक
एजेंट का काम
किया। शायद
इसकी मौजूदगी
में न हो पाता,
देर-अबेर
होता, लेकिन
इसकी मौजूदगी
में कोई चीज
तुम्हारे भीतर
झलक गयी; लेकिन
जो झलकी है वह
तुम्हारी ही
अंतर-दशा है।
इसकी मौजूदगी
में तुमको झलक
मिली प्रेम की,
लेकिन
प्रेम
तुम्हारी
भाव-दशा है।
तुम्हारे भीतर
पड़ा हुआ प्रेम
फूट पड़ा। इसकी
मौजूदगी अवसर
बनी। इसने कुछ
किया नहीं।
इसकी मौजूदगी
निष्क्रिय
अवसर है।
ठीक
वैसे ही बुद्धपुरुषों
की मौजूदगी
निष्क्रिय
अवसर है।
बुद्ध या महावीर
तुम्हारे
भीतर कुछ करते
नहीं। नहीं, इतनी हिंसा
भी वे न कर
सकेंगे। यह भी
हिंसा हो जायेगी।
असमय में कुछ
कर देना ऐसा
ही होगा जैसे
गर्भपात हो
जाये समय के
पहले। नहीं वे
प्रतीक्षा
करेंगे।
सुकरात
कहता था: मेरा
काम दाई का
काम है, मिडवाइफ।
दाई का काम यह
है कि जब
बच्चा पैदा
होने के करीब
हो तब वह जरा
सहारा दे दे।
बिना सहारे के
भी पैदा हो
जायेगा
बच्चा। थोड़ा
सहारा दे दे।
थोड़ी ढाढ़स
बंधा दे। थोड़ी
हिम्मत बंधा
दो। लेकिन समय
के पहले बच्चे
को बहार न
निकाल दे, अन्यथा
बच्चा मृत
होगा या
अर्ध-जीवित
होगा।
तो जो
भी यहां घटेगा
मेरे निकट तुम्हारे
भीतर, तुम
उसे घटने दे
रहे हो--इतना
याद रखना।
भूलकर भी यह
मत सोचना कि
मैंने कुछ
किया। तुमने
कुछ होने
दिया। अगर यह
तुम्हें खयाल
रहे तो तुम मालिक
रहोगे। तुम जब
होने देना
चाहोगे तभी हो
जायेगा। अगर
तुम सतत होने
देना चाहोगे
तो सतत होता
रहेगा। लेकिन
मालकियत मेरे
हाथ में मत दे
देना।
ऐसी
भूल अकसर हो
जाती है। अकसर, जीवन में
हमारा सारा
तर्क यही है:
कोई तुम्हारे
पास से गुजरा
और तुम्हें
नमस्कार न
किया--क्रोध आ
गया। अब तुम
कहते हो, इस
आदमी ने
क्रोधित कर
दिया। इस आदमी
ने कुछ भी
नहीं किया। यह
उसकी मर्जी
नमस्कार करे न
करे। हां, एक
मौजूदगी बनी,
एक अवसर
बना। उसने
नमस्कार नहीं
किया। क्रोध तो
तुमने होने
दिया। इसे दोष
दूसरे पर मत
देना।
तुम्हारे
भीतर कोई
दूसरा कुछ
करता नहीं।
ऐसा ही समझो
कि एक सूखा
कुआं हो और हम
उसमें एक बालटी
डालें, खूब
खड़खड़ाएं,
खूब डुबकी लगवाएं
बालटी की, लेकिन
कुछ भी न हो, क्योंकि
कुआं सूखा है।
बालटी खाली की
खाली वापस आ
जाए। फिर भरे
कुएं में हम
बालटी डालें,
तो भरकर आ
जाये।
तुम
अगर प्रेम से
भरे हो तो
परिस्थितियां
अनुकूल बन जायेंगी
जिनमें
तुम्हारा
प्रेम उभरकर आ
जायेगा। तुम अगर
क्रोध से भरे
हो तो
परिस्थितियां
अनुकूल बन जायेंगी, जिनमें
क्रोध उभरकर आ
जायेगा।
यह
संसार सभी
परिस्थितियों
का समागम है।
यहां सभी
परिस्थितियां
मौजूद हैं।
तुम जिससे भरे
हो वही प्रगट
होने लगेगा।
अगर तुम थोड़े
शांत, मौन
से भर जाओ, तो
तुम्हारे
भीतर बहुत कुछ
घटेगा, बहुत-से
वातायन
खुलेंगे।
लेकिन
भूलकर भी यह
मत कहना कि
मैंने कुछ
किया। ज्यादा
से ज्यादा
इतना ही कहना
कि मेरी
मौजूदगी में
तुमने कुछ
होने दिया। और
फिर ये भी
कोशिश करना कि
मेरी मौजूदगी
के बिना भी वह
हो जाये, ताकि
तुम उसके
मालिक बन सको।
मुझे
सुन रहे थे, कुछ
हुआ--अचानक
तुम चौंक गये,
अवाक रह गए,
चकित!
अब ऐसा
ही सुबह बैठ
जाना, सूरज
ऊगते ही, सूरज
को देखना! फिर
वैसे ही शांत,
मौन उसे
देखते रहना।
तुम अचानक
पाओगे: किसी
दिन सूरज के
ऊगने से भी
वैसा हो
जायेगा।
फिर
पक्षियों के
कोलाहल को
सुनना। उनके
कलरव को
सुनना। किसी
दिन तुम
पाओगे:
सुनते-सुनते-सुनते
फिर तार मिल
गए! फिर हो गया!
तब तो एक बात
पक्की हो जायेगी
कि तुम जहां
भी होने देते
हो वहीं हो जाता
है।
फिर
किसी दिन बीच
बाजार में, जहां होने
की कोई आशा
नहीं दिखायी
पड़ती, वहां
तुम बाजार के
शोरगुल को मौन
भाव से सुनना
और तुम चकित
होओगे: वहां
भी हो जाता है!
तब तुम
मालिक होने
लगे। तब तुम
अपने पैरों पर
खड़े होने लगे।
तब मैं
तुम्हारे लिए
बैसाखी न बना, वरन मेरी
मौजूदगी ने
तुम्हारे
पैरों को बल
दिया।
ध्यान
रखना, तुम्हारी
आकांक्षा
मुझे बैसाखी
बना लेने की है।
लेकिन बैसाखी
मिल जाए तो भी
तुम लंगड़े ही रहोगे।
किसी
गुरु को बैसाखी
मत बनाना। और
जो गुरु स्वयं
को तुम्हारी
बैसाखी बनने
दे वह
तुम्हारा
मित्र नहीं, शत्रु है; क्योंकि वह
तुम्हारे
लंगड़ेपन के
लिए शाश्वतता
दे रहा है। अब
तुम सदा के
लिए लंगड़े रह
जाओगे।
यही
बात अकसर घटती
है। तुम
किन्हीं
लोगों के पास
जाकर कहोगे, कि आपकी
मौजूदगी ने, आपने ऐसा
कुछ कर दिया।
सदगुरु
और असदगुरु
की पहचान यही
है। असदगुरु
कहेगा, "हां,
मेरी शक्ति
से ऐसा हुआ।' सदगुरु कहेगा, "किसी
की शक्ति का
कोई सवाल
नहीं। तुमने
होने दिया', और तुम अगर
होने दो तो
कोयल की
कुहू-कुहू से
भी हो जायेगा।
पानी के झरने
की आवाज से भी
हो जायेगा।
सागर के तुमुल
नाद से भी हो
जायेगा। फिर
तो बीच बाजार
में भी हो
जायेगा। भीड़,
कोलाहल, चलते
हुए लोग, हजार
तरह की बातें,
शोरगुल--उससे
भी हो जायेगा।
क्योंकि असली
बात बाहर से
भीतर नहीं आ
रही है--असली
बात भीतर से बाहर
जा रही है।
असली बात है
कि तुम शांत
होकर सुनने
में समर्थ हो
गए; तुमने
कोई
प्रतिक्रिया
न की।
निश्चित
ही, पहली दफा
उसी व्यक्ति
के पास हो
सकेगा। जिससे तुम्हारा
बड़ा श्रद्धा
का लगाव है।
पहली दफा! वहां
आसान होगा, जहां बड़ा
प्रेम का
लेन-देन है; जहां दो
हृदय साथ-साथ धड़कते
हैं।
जब
तुमने मेरी यह
बात सुनी तब
किसी कारण से, संयोगवशात
तुम चुप थे।
मन में
सन्नाटा था।
सुनने को आतुर
थे, इसलिए
बोल नहीं रहे
थे। उस आतुरता
में भी कोई ऐसी
घड़ी आयी होगी
जहां मेरे
श्वास के और
तुम्हारे
श्वास के बीच
एक लयबद्धता आ
गयी, एक
तालमेल हो
गया। तो जिस
तरह, जिस
जगत में मैं
स्पंदित हो
रहा हूं, क्षणभर
को तुम मेरे
साथ नाच लिये,
स्पंदित हो
गए। कुछ हुआ!
कुछ--जिससे
तुम चकित होओ!
कुछ--जिस पर
तुम भरोसा
नहीं कर सकते!
कुछ--जिसको
तुम चाहोगे कि
मैं कहूं कि
मैंने किया!
क्योंकि
तुम्हें अपने
पर
आत्मविश्वास
नहीं कि तुमसे
ऐसा हो सकेगा।
फिर भी
मैं तुमसे
कहता हूं, तुम्हीं से
हुआ है। और
बार-बार तुमसे
यही कहूंगा कि
जब भी हो, स्मरण
रखना तुम्हीं
से हो रहा है।
मेरी परिस्थिति
का उपयोग कर
लो। मेरी
मौजूदगी का
उपयोग कर लो।
मेरी मौजूदगी
तुम्हें
तुम्हारे
भीतर की संपदा
के प्रति थोड़ा
जागरूक कर दे,
फिर तुम
मुझे भूलो!
क्योंकि मैं
बाहर हूं। फिर
तुम अपनी तरफ
चलो।
बुद्ध
ने कहा:
बुद्ध-पुरुष
इशारा करते
हैं, चलना
तुम्हें पड़ता
है। महावीर ने
कहा है: मैं सिर्फ
उपदेश करता
हूं, आदेश
नहीं। मैं वही
बोल देता हूं,
जो है। तुम
अगर सुनने को
राजी हो सुन
लो। जीसस ने
कहा है: अगर
तुम्हारे पास
आंखें हों तो
देख लो, मैं
मौजूद हूं!
तुम्हारे पास
कान हों तो
सुन लो, मैं
बोल रहा हूं!
तुम्हारे पास
हृदय हो तो धड़क
लो मेरे साथ!
ऐसा ही
समझो कि थोड़ी, क्षणभर को, तुम
मेरे साथ धड़क
लिये, श्वास
से श्वास मेल
खा गयी, धड़कन
से धड़कन मेल
खा गयी। एक
क्षण को एक
आरोह हुआ।
तुम्हारे
भीतर एक तरंग
उठी, उसने
आकाश छू लिया!
लेकिन इसे मैं
चाहता हूं कि
तुम सदा स्मरण
रखना कि वह
तुम्हारे ही
कारण हुआ।
क्योंकि अगर
मेरे कारण हुआ
तो तुम मुझसे बंधे।
फिर बाजार में
न हो सकेगा।
फिर पक्षियों
के कलरव में न
हो सकेगा। फिर
सागर के तुमुल
नाद में न हो
सकेगा। फिर
तुम बंधे
मुझसे। फिर तो
मैं तुम्हारा
नशा हो गया।
फिर तुम्हें
मेरी तलफ लगेगी,
कि जाएं
वहां, सुनें
वहीं, फिर
सत्संग करें!
नहीं, सत्संग का
अर्थ ही यह है
कि तुम्हारी
ऐसी घड़ी आ
जाये कि सब
जगह, जहां
तुम हो वहीं
सत्संग होने
लगे। नहीं
कहता कि यहां
मत आना, लेकिन
वह आना
तुम्हारा रोग
न बन जाए; वह
शराबी की लत न
बन जाए!
तुम
आना और
प्रसन्न
होना। और तुम
आना और खुलना।
और तुम आना और
प्रसाद को
उपलब्ध होना।
लेकिन स्मरण
रखना कि सब
तुम्हारे
भीतर हो रहा
है। और जब तुम
यहां से जाओ, तो जो हुआ है
उसे संभालकर
अपने साथ ले
जाना, उसे
यहां मत छोड़
जाना। और
धीरे-धीरे
विपरीत परिस्थितियों
में भी उसकी
झलक को पाने
की कोशिश करना।
जहां कोई
संभावना न
दिखायी पड़ती
हो, जहां
दुख ही दुख, पीड़ा ही
पीड़ा हो--फिर
तुम आंख बंद
करके उसी भावदशा
को, उसी
तरंग को अपने
भीतर लाना।
तुम चकित
होओगे कि धीरे-धीरे
वह तरंग उठने
लगी, मालकियत
हाथ में आने
लगी!
तब
कहीं भी, आंगन
कितना ही
तिरछा हो, तुम्हें
नाच आ गया तो
तुम नाच
सकोगे।
ज्यादा से
ज्यादा यहां
मैं इतना ही
कर रहा हूं कि
तुम्हें
चौकोर आंगन दे
रहा हूं। इससे
ज्यादा नहीं।
जो जगा है वह
तुम्हारे
भीतर ही सोया
था।
फिर
ये कैसी कसकसी
है दिल में,
तुझको
मुद्दत हुई कि
भूल चुका।
वह जो कसकसी फिर
से मालूम हुई, वह कुछ बाहर
से नहीं आयी
है। वह उसी की
याददाश्त है
जिसे तुम
मुद्दत हुई
भूल चुके। वह
तुम्हारे
मूलस्रोत का
स्मरण है।
फिर
ये कैसी कसकसी
है दिल में
तुझको
मुद्दत हुई कि
भूल चुका।
इतने
भूल चूके हो
कि अब यह भी
याद नहीं कि
भूल चुके। भूल
चुके हैं, यह भी याद
रहे तो बिलकुल
भूले नहीं, याद है।
लेकिन हम इतने
भूल गये हैं
कि यह भी अब याद
नहीं कि भूल
चुके।
तुम
मेरे करीब, वह मुद्दत
हुई जिसे तुम
भूल चुके, जनम-जनम
का घेरा, बहुत
दूर रह गयी वह
बात जो
तुम्हारा
मूलस्रोत थी
और जो तुम्हारी,
अंतिम जीवन
की नियति है; प्रथम जो थी
और अंतिम जो
है, वह बात
भूल गयी
है--यहां
तुम्हें याद आ
जाये, थोड़ी
सुरति आ जाये!
बस इतना काफी
है!
और इस
बात को तुम हर
किसी से कहते
मत फिरना। नहीं
तो लोग
हंसेंगे। यह
बात तो
दीवानों से ही
करने की है।
अगर
तुमने यह किसी
और को कहा कि
मैं यह बोल
रहा था कि
"महावीर ने
स्वाधीनता को
आत्यंतिक मूल्य
दिया, वह
मूल्य किसी और
ने नहीं दिया',
उस क्षण में
तुम्हारे
भीतर कुछ
अनहोना घट गया,
तो लोग
कहेंगे, इस
बोलने में
क्या रखा है? ये शब्द तो साधारण
हैं।
"महावीर ने
स्वाधीनता को
आत्यंतिक
मूल्य दिया, वह मूल्य
किसी और ने
नहीं दिया'--इन शब्दों
से क्या घट
सकता है?
तुम
दूसरे को मत
समझाना! ये
बातें तो
दीवानों की
हैं। हां किसी
और को हुआ हो
तो उससे बात
कर लेना। नहीं
तो खतरा क्या
है? खतरा यह
है कि अगर तुम
औरों से यह
कहोगे तो वे
समझेंगे, कि
कुछ गड़बड़; तुम्हारा
दिमाग खराब हो
रहा है, किसी
सम्मोहन में
पड़ गये हो। और
डर यह है कि वे कहीं
तुम्हारा
आत्म-अविश्वास
न जगा दें।
अगर आत्म-अविश्वास
जग गया तो
दुबारा यह न
होगा।
तो ऐसी
घटना कभी भी
घटती हो, मुझे
कह देना या गैरिक
रंग के बहुत
पागल यहां हैं,
उनसे कह
देना; मगर
समझदारों से
मत कहना, नहीं
तो वे तुम्हें
नुकसान
पहुंचा सकते
हैं। अंततः जब
तुम्हारे
जीवन में सब
साफ हो जायेगा,
फिर तो कोई
नुकसान नहीं
पहुंचा सकता।
लेकिन अभी जब
अंकुर बड़ा
कोमल होता है,
अभी जब बीज
टूटा ही होता
है, तब हर
खतरा
प्राणघाती हो
सकता है।
जब
दिल पे न हो
काबू अपना, क्या जब्त
करें क्या
सब्र करें!
मुझ
जैसे काश वह
हो जाएं जो
आ-आकर समझाते
हैं।
कई लोग
तुम्हें समझायेंगे
कि "क्या
पागलपन कर रहे
हो? होश में
आओ! बुद्धि
सम्हालो। यह
तुम किन बातों
में पड़े जा
रहे हो?'
जब
दिल पे न हो
काबू अपना, क्या जब्त
करें क्या
सब्र करें!
मुझ
जैसे काश वह
हो जाएं जो
आ-आकर समझाते
हैं।
लेकिन
वह तुम्हारे
जैसे न होंगे।
और डर यह है कि
वह तुम्हें
अपने जैसा बना
सकते हैं, क्योंकि वे
ज्यादा हैं।
भीड़
है। और हम भीड़
पर बड़ा भरोसा
करते हैं। हमारी
धारणा ही यह
है कि जिस बात
को बहुत लोग
मानते हैं, वह ठीक होनी
चाहिए। अकसर
तो उलटा होता
है। जिसको
बहुत लोग
मानते हैं वह
बात अकसर तो
गलत होती है।
क्योंकि बहुत
लोग गलत हैं।
अकसर तो ऐसा होता
है, ठीक
बात को कभी
कोई एक-आध
मानता है। भीड़
तो सदा गलत को
ही मानती है।
इसलिए सत्य के
जगत में कोई
लोकतंत्र
नहीं है, कोई
मत नहीं है, कि नब्बे
प्रतिशत
लोगों ने साथ
दे दिया तो
सत्य होना
चाहिए। अकसर
तो ऐसा हुआ है:
जब महावीर ने
कहा तो वे
अकेले, जब
बुद्ध ने कहा
तो वे अकेले।
धर्म
को छोड़ दें, विज्ञान को
लें।
गैलीलियो ने
कहा, कोपरनिकस ने कहा तो
अकेले।
आइंस्टीन न
कहा तो अकेले।
सारी
दुनिया मानती
थी सदियों से
कि जमीन चपटी है।
और जब
गैलीलियो ने
कहा कि जमीन
गोल है तो वह
अकेला था।
सारी दुनिया
मानती थी
सदियों से कि
सूरज ऊगता है, डूबता है।
अब भी सभी
भाषाएं यही
कहती हैं: सूर्यास्त,
सूर्योदय; सनराइज,
सनसेट। गैलीलियो
हो चुका, इससे
भाषा में अभी
फर्क नहीं पड़ा
है। तीन सौ साल
हो गये, लेकिन
भाषा अब भी
गलत बोली जा
रही है।
गैलीलियो
ने कहा, न
सूरज ऊगता है
न डूबता
है--सूरज चलता
ही नहीं। खयाल
यह था कि सूरज
पृथ्वी के
चारों तरफ
चक्कर लगाता
है। दिखता है
लगाता हुआ, इसमें कोई
शक नहीं। अब
भी खाली आंख
से देखो तो लगता
है कि चक्कर
लगा रहा है।
असलियत
बिलकुल उलटी
है: पृथ्वी
चक्कर लगा रही
है। सूरज खड़ा
है। लेकिन हम
पृथ्वी पर
बैठे हैं तो
हमको पृथ्वी
का चक्कर
लगाना तो
दिखायी पड़ नहीं
सकता। इसलिए
सूरज चक्कर
लगाता हुआ
दिखायी मालूम
पड़ता है।
कभी
तुमने खयाल
किया? ट्रेन
में तुम बैठे
हो और दूसरी
ट्रेन बगल में
खड़ी है।
तुम्हारी
ट्रेन चलती है
तो लगता है दूसरी
ट्रेन चल पड़ी।
चौंककर
तुम्हें लगता
है दूसरी
ट्रेन चल रही
है। चलती
तुम्हारी है,
लेकिन तुम
तो अपनी ट्रेन
में बैठे हो।
तुम भी उसके
साथ चल पड़े, इसलिए पता
नहीं चलता।
दोनों की गति
बराबर है। लेकिन
पास की ट्रेन
खड़ी है। वह
चलती हुई
मालूम पड़ती
है।
गैलीलियो
ने कहा है कि
सूरज खड़ा है, पृथ्वी चलती
है।
हजारों-हजारों
साल से आदमी मानता
था: पृथ्वी
खड़ी है, सूरज
चलता है।
लेकिन इससे
कुछ फर्क नहीं
पड़ता।
गैलीलियो
को अदालत में
ले जाया गया
था। क्योंकि पोप
खिलाफ था, क्योंकि
बाइबिल में तो
लिखा है कि
पृथ्वी खड़ी है।
और धर्मगुरु
सदा डरते रहे
हैं कि अगर
शास्त्र की एक
भी बात गलत हो
जाये तो लोगों
में शक पैदा
होगा। लोग
सोचेंगे जब एक
गलत हो सकती
है तो बाकी भी
गलत हो सकती
हैं।
तो पोप
को समझ में भी
आ रहा था, लेकिन
फिर भी उसने
गैलीलियो को
कहा कि तुम
क्षमा मांगो।
अदालत में
घुटने टेककर
गैलीलियो ने
क्षमा मांगी
लेकिन वह आदमी
भी बड़ा गजब का
था। उसने कहा
कि मैं क्षमा
चाहता हूं। आप
कहते हैं, शास्त्र
कहते हैं तो
सूरज ही चक्कर
लगाता होगा, पृथ्वी खड़ी
होगी। लेकिन
एक बात मैं
कहे देता हूं,
मेरे कहने
से कुछ भी
नहीं होता।
लगा तो पृथ्वी
ही चक्कर रही
है। मेरे कहने
से क्या होगा?
मैं क्षमा
मांगता हूं।
मेरा इसमें
कुछ हाथ ही नहीं
है। मैं थोड़े
ही पृथ्वी को चलवा रहा
हूं? तो
मैं झंझट में
नहीं पड़ना
चाहता। लेकिन
एक बात मैं
कहे देता हूं
कि मैं क्षमा मांगूं या
न मांगूं,
मैं कहूं या
न कहूं--इससे
क्या फर्क
पड़ता है? आदमियत
माने या न
माने, इससे
क्या फर्क
पड़ता है? सूरज
खड़ा है पृथ्वी
चक्कर लगा रही
है।
दुनिया
में सत्य को
जाननेवाले तो
कभी-कभी होते
हैं। भीड़ तो
असत्य को
मानती है।
लेकिन हमारे
मन में एक
धारणा है कि
जिसको बहुत
लोग मानते हैं
वह ठीक होना चाहिए।
इतने लोग
मानते हैं! और
हमारा कोई
आत्मविश्वास
तो है नहीं।
तो
दूसरों से मत
कहना। अन्यथा
वे हंसेंगे।
उनकी हंसी
तुम्हारे
जीवन में जहर
हो सकती है।
वे तुम्हें
पागल समझेंगे।
उनका समझना
तुम्हें
डगमगा सकता
है।
इसलिए
ये बातें तो
ऐसी हैं कि जो
तुम्हारे ही रास्ते
पर चल रहे हैं
और जिन्हें
कुछ ऐसा होना
शुरू हुआ हो, उनसे कर
लेना; तो
तुम एक दूसरे
के लिए सहयोगी
बनोगे, सहारा बनोगे,
बल दोगे, आत्मबल
विकसित होगा।
और जितना
आत्मबल बढ़ेगा
उतनी और
घटनाएं संभव
हो जायेंगी।
आखिरी
प्रश्न:
मुझे
इतना कुछ मिल
रहा था कि
उसका आनंद
अंतर में
समाता नहीं
था। इतना आनंद, इतनी खुशी
कहां रखूं, कैसे
सम्हालूं--समझ
में नहीं आता।
और प्यास भी
उतनी ही है।
जिनकी कृपा से
जीवन की
संध्या में
मुझे यह सब
मिल रहा है, उनसे पास
होते हुए भी
दूर हूं। इन
दो बातों के लिए
पागल-सी जी
रही थी। कुछ
दिनों से सब
चुप होने लगा
है। घंटों
बैठी रहती हूं
या लेटी रहती हूं।
कुछ करने का
मन नहीं होता।
न कुछ बुरा लगता
है और न
अच्छा। प्रभु,
यह सब क्या
हो रहा है?
शुभ
हो रहा है।
प्यास थिर हो
रही है। प्यास
गहरी हो रही
है।
नदी जब
उथली होती है
तो शोरगुल
करती है। नदी
जब गहरी होती
है तो शांत हो
जाती है। इतनी
शांत हो जाती
है कि पता ही
नहीं चलता कि
चलती भी है या
नहीं।
गहरी
नदी को देखा? थिर मालूम
होती है। बस
ऐसा ही हो रहा
है। जो प्यास
अब तक थोड़ी
तरंगें भी
पैदा करती थी,
वह और गहराई
पर जा रही है।
अब सब चुप हो
रहा है।
कुछ
रोज ये भी रंग
रहा इंतजार का,
आंख
उठ गयी जिधर
बस उधर देखते
रहे।
आंख
हटाना भी भूल
जायेगा।
विचार करना भी
भूल जायेगा।
ठगे-ठगे से!
बैठे-बैठे!
कुछ
रोज ये भी रंग
रहा इंतजार का,
आंख
उठ गयी जिधर
बस उधर देखते
रहे।
ऐसी
दीवानगी
आयेगी, आ
रही है।
स्वागत करना
उसका! पलक पांवड़े
बिछाना उसके
लिए! घबड़ा मत
जाना।
क्योंकि पहले-पहले
जब शांति
उतरती है तो
लगती है उदासी
है। क्योंकि
हम उदासी से
परिचित हैं, शांति से
परिचित नहीं
हैं। दोनों के
चेहरे में
थोड़ा तालमेल
है।
तो जब
पहली दफे
शांति आती है
तो ऐसा लगता
है कहीं ये तो
नहीं कि हम
उदास हुए जा
रहे हैं!
पहले-पहले
आनंद भी बाजे
बजाता है। फिर
धीरे-धीरे
बाजे शांत
होने लगते हैं, क्योंकि
बाजों का
शोरगुल भी
आनंद में बाधा
है। फिर आनंद
की एक ऐसी घड़ी
आती है जब
उत्सव भी शांत
हो जाता है।
भीतर-भीतर, भीतर-भीतर
रग-रोएं
में समा जाता
है। नाच भी
नहीं
होगा--नाच
इतना गहरा हो
जाता है। कोई
क्रिया ऊपर
दिखायी न पड़ेगी।
पहले
तो शौके-दीद
में सब कुछ
भुला दिया
अब
मैं नजर को
ढूंढ़ रहा हूं, नजर मुझे।
ऐसी
घड़ी आती है कि
अपना ही पता
नहीं चलता।
पहले
तो शौके-दीद
में सब कुछ
भुला
दिया--पहले तो
उस परमात्मा
को देखने की
आकांक्षा में
सब भुला बैठे।
लेकिन उस सब
भुलाने में
नजर भी खो
जाती है। अब
मैं नजर को
ढूंढ़ रहा हूं, नजर मुझे।
अब कुछ समझ
में नहीं आता
कौन कहां है, कौन कौन है?
आखिरी
घड़ी में कुछ
भी पता नहीं
चलता भेद का:
कौन भक्त है, कौन भगवान
है!
रामकृष्ण
अपने ऊपर ही
फूल डाल लेते
थे। भगवान को चढ़ाने
जाते, खुद
ही पर डाल
लेते। भगवान
को भोग लगाते,
खुद ही के
मुंह में डाल
लेते। लोगों
ने शिकायत की
कि यह तो कोई
पूजा न हुई।
ये तो पूजा का
उल्लंघन है।
रामकृष्ण
ने कहा, "करूं
क्या? भेद
ही नहीं मालूम
होता। यह मुंह
भी अब उसी का! यह
सिर भी उसी
का। ये हाथ भी
उसी के! ये फूल
भी उसी के!'
कौन
कौन है, पक्का
पता नहीं
चलता!
इक
तेरी तमन्ना
ने कुछ ऐसा
नवाजा है,
मांगी
ही नहीं जाती
अब कोई दुआ
हमसे।
अब यह
जो घड़ी आ रही
है, इस घड़ी
में कुछ भी
मांगना मत। अब
तो सिर्फ
धन्यवाद, सिर्फ
अहोभाव। उसे
धन्यवाद देना!
जो भी वह दे, धन्यवाद
देना। उदासी
मालूम पड़े तो
भी धन्यवाद
देना; जल्दी
उदासी शांति
में परिणित
हो जायेगी।
ऐसा लगे, उत्सव
खो रहा है तो
भी धन्यवाद
देना। एक नया
उत्सव शुरू हो
रहा है जो
अभिव्यक्ति
का नहीं है, जो
अनभिव्यक्त
है, जो
शांत है और
मौन है।
मैं
तुमसे कहता
हूं, महावीर
भी नाचे हैं, मीरा ही
नहीं नाची।
लेकिन मीरा का
नाच बाहर भी
आया, महावीर
का नाच भीतर
ही भीतर रह
गया। इतना गहन
है।
जैसे
देखा नील नदी
है, इजिप्त
में! कई मीलों
तक जमीन के
नीचे ही बहती है,
दिखायी
नहीं पड़ती।
फिर प्रगट
होती है। तो
सदियां हो गयीं,
लोगों को
पता ही न था कि
इसका
जन्म-स्रोत
कहां है, यह
उदगम कहां है!
क्योंकि कई
मीलों तक तो
वह जमीन के
नीचे ही बहती
है तो उदगम का
पता कैसे चले?
मीरा
ऐसी है जैसे
नील नदी प्रगट
हो गयी। और महावीर
ऐसे हैं जैसे
नील नदी अभी
जमीन के नीचे
बहती है। नाच
तो है ही--लेकिन
नाच बड़ा मौन
है, चुप है, बड़ा
गुरु-गंभीर
है!
कठिनाई
होगी। ये
प्रतीक्षा के
पल पीड़ा के पल
भी होंगे।
कभी-कभी तो
ऐसा लगेगा, कुछ खो तो
नहीं गया!
पहले तो बड़े
आनंदित मालूम हो
रहे थे; वह
आनंद भी चला
गया। पहले तो
बड़े नाचे-नाचे
मालूम पड़ते थे;
वह पुलक चली
गयी। कहीं कुछ
खो तो नहीं
गया!
शबे-इंतजार
की कशमकश न
पूछ कैसे सहर
हुई
कभी
इक चिराग जला
दिया, कभी
इक चिराग बुझा
दिया।
मिलन
की रात की
कशमकश न पूछ
और यह मत पूछ
कि कैसे सुबह
हुई! बड़ी
मुश्किल हुई।
कभी एक चिराग
जला लिया, फिर बुझा
दिया, फिर
जला लिया, फिर
बुझा दिया!
ऐसी उधेड़-बुन
हुई।
शबे-इंतजार
की कशमकश न
पूछ कैसे सहर
हुई
कभी
इक चिराग जला
दिया, कभी
इक चिराग बुझा
दिया।
ऐसी
कशमकश आएगी। घबड़ाना
मत। बस एक ही
खयाल रखना कि
जो भी हो रहा
है, जो भी
होता है--शुभ
है। यही
तुम्हारी
प्रार्थना हो
अब कि जो भी हो
रहा है, शुभ
है। और तब शुभ
के नये-नये
द्वार खुलते
जायेंगे।
दिल
से मिलती तो
है एक राह
कहीं से आकर,
सोचता
हूं ये तेरी
राहगुजर है कि
नहीं।
इस
चिंता में मत पड़ना
क्योंकि अब
जल्दी ही दिल
के पास जो
परमात्मा का
रास्ता
गुजरता है वह
दिखायी
पड़ेगा। सोच-विचार
में मत पड़ना।
जब सब सन्नाटा
हो जाता है, उत्सव भी
चला जाता है, आनंद भी चला
जाता है और सब
शांत हो जाता
है और आदमी
ठगा-ठगा रह
जाता है--तभी
हृदय के पास
से जिसका
रास्ता
गुजरता है
उसके दर्शन
होते हैं! हम अपने
करीब आये, असंग
हुए, निसंग हुए! यही
संन्यास की
पराकाष्ठा
है। संसार और
बाहर का सब
भूल गया! भीतर,
भीतर, भीतर
उतरते गये!
अपने केंद्र
पर आये! वहां
से गुजरती है
राह परमात्मा
की! तब संदेह
में मत पड़ जाना
क्योंकि ये मन
में विचार, आखिरी विचार
यही आता है कि
कहीं यह
रास्ता सही है
कि गलत।
दिल
से मिलती तो
है एक राह
कहीं से आकर,
सोचता
हूं ये तेरी
राहगुजर है कि
नहीं।
यह मत
सोचना। यह
विचार करना ही
मत। अब तो
विचार को पूरा
का पूरा ही
त्याग दो। अब
तो निर्विचार
हो रहो। और जो
भी हो, उसको
स्वीकार करते
जाओ।
धीरे-धीरे उसी
रास्ते पर
उसका रथ भी
आयेगा। और जब
वह रथ से उतरे
और तुम्हारे
सामने अपनी
झोली फैला दे
तो कंजूसी मत
करना। सब डाल
देना! स्वाहा!
सब डाल देना!
रवींद्रनाथ
का एक गीत है।
एक भिखारी
सुबह-सुबह
उठा। अपनी
झोली को कंधे
पर टांगकर
भीख मांगने
निकला। जैसा
कि भिखारी
करते हैं, उसने भी
किया। थोड़े-से
चावल के दाने
अपनी झोली में
घर से डाल
लिए। देनेवालों
के लिए थोड़ी
हिम्मत होती
है कि चलो
इसको औरों ने
भी दिया है।
तो भिखारी
थोड़े-से पैसे
अपनी थाली में
डालकर बैठ
जाता है। तो निकलनेवाले
को थोड़ा साहस
रहता है कि
कोई हम ही
नहीं फंस रहे
हैं, और
लोगों ने भी
दिया है। तो
थोड़ी लज्जत भी
आती है, तो
थोड़ी लज्जा भी
लगती है, थोड़ा
शर्म भी, संकोच
भी लगता है कि
अब और दे चुके
हैं तो हम कोई
इतने गये-बीते
तो नहीं, चलो
एक पैसा दे दो!
तो थोड़े-से
चावल के दाने
डालकर झोली
में भिखारी
चला। राह पर
आया, कभी
सोचा भी न था।
सपना भी न
देखा था--राह
पर आ रहा है उस
महाराजा का
रथ--स्वर्ण रथ,
सूर्य की
किरणों में
चमकता हुआ!
उसने सोचा, आज मेरे धन्यभाग,
आज मेरे
भाग्य खुल
गये! आज तो
झोली पसार
दूंगा और मांग
लूंगा। अब
राजा ही सामने
आ रहा है, द्वार
से कभी भीतर
जाने का मौका
मिलता न था। द्वारपाल
द्वार से ही
भगा देते थे।
अब आप तो रास्ते
पर मिल गये।
तो वह
बीच में खड़ा
हो गया। रथ
रुका। राजा न
केवल उसे अपने
पास बुलाया, खुद उतरकर
नीचे आया।
लेकिन राजा को
पास देखकर वह
घबड़ा गया। कभी
राजा की
सन्निधि नहीं
की। याद ही न
रही, अवाक
ठगा रह गया।
देखता रहा
राजा के मुंह
की तरफ। और
इसके पहले कि
वह अपनी झोली
फैलाये, राजा
ने अपनी झोली
फैला दी। और
उसने कहा, मना
मत करना, इनकार
मत करना, क्योंकि
मेरे
ज्योतिषियों
ने कहा है कि
आज मैं भीख मागूं
तो राज्य
बचेगा, अन्यथा
राज्य पर खतरा
है।
अब
कठिनाई हम सोच
सकते हैं:
भिखारी जिसने
कभी दिया नहीं, सदा मांगा!
देने की कोई
आदत ही नहीं।
देने का कोई
संस्कार ही
नहीं। वह बहुत
घबड़ाया, लेकिन
अब इनकार भी न
कर सका, क्योंकि
राजा ने कहा,
"इनकार मत
करना, पूरे
राज्य पर खतरा
है। कुछ भी दे
दो, उसने
हाथ भीतर डाला
झोली के।
मुट्ठी बांधता
है, खोलता
है। कभी दिया
तो है नहीं, देने की आदत
ही नहीं। बामुश्किल
एक चावल का
दाना निकालकर
उसने राजा की झोली
में डाल दिया।
रथ आया-गया हो
गया, धूल
उड़ती रह गयी!
वह तो खड़ा रह
गया। उसने कहा,
"यह तो हद्द
हो गयी। और
गरीब कर गया!
एक दाना और पास
था, वह भी
ले गया!'
फिर
सांझ घर लौटा
भीख मांगकर।
उस दिन खूब
भीख मिली। ऐसी
कभी न मिली
थी। जो देता
है उसे मिलती
भी है। उस दिन
घर लौटा।
प्रसन्न होना
चाहिए था, लेकिन थोड़ा
उदास था। वह
एक दाना कम
था। घर आकर पत्नी
ने पूछा, "इतने
उदास?' तो
उसने कहा, "क्या
करूं? हद्द
हो गयी। मिलने
की आशा बांधी
थी, वह तो
दूर, और
हमसे, हाथ
से ले गया!
भाग्य की विडंबना,
मजाक तो
देखो, व्यंग्य!'
उसने
झोली बड़ी
उदासी से उंड़ेली।
देखकर चकित
हुआ, एक दाना
सोने का हो
गया था। जो
दिया था, वह
सोने का हो
गया था। छाती
पीट-पीटकर
रोने लगा।
पत्नी तो कुछ
समझी नहीं।
उसने कहा, "हुआ
क्या है? माजरा
क्या है?'
"लुट गये', उसने
कहा, "लुट गये!
सारे दाने दे
दिये होते, तो सारे
दाने सोने के
हो जाते।
लेकिन अवसर
आया, गया!'
तो
इतना ही कहता
हूं, यह जो घड़ी
पक रही है, इसको
पकने देना।
जल्दी ही हृदय
के पास से
उसकी राह
मिलेगी। राह
ही नहीं, उसका
रथ भी आता है, स्वर्ण-रथ, सूर्य-किरणों
में चमकता! उस
वक्त मांगने
का मन होगा, क्योंकि हम
सदा भिखमंगे
रहे हैं।
मांगना मत!
और अगर
वह झोली
तुम्हारे
सामने फैलाये, जैसी कि
उसने सदा ही
फैलायी है, तो दे देना!
तब ऐसा मत
करना कृपणता,
कंजूसी कि
एक दाना डाल
देना; अन्यथा
फिर रोओगे
जन्मों-जन्मों
तक! क्योंकि फिर
कब दुबारा
उसका रथ
मिलेगा कहना
मुश्किल है।
सब दे डालना।
झोली और तुम
स्वयं भी
छलांग लगा
जाना, ताकि
सब स्वर्णमय
हो जाये।
सब
स्वर्णमय हो
सकता है। होना
चाहिए। हम
बाधा न दें तो
हो जाये, अभी
हो जाये।
चिंता-विचार न
करना।
शुभ हो
रहा है! सब
शांत होता जा
रहा है। जल्दी
ही रथ आने के
करीब है। उस
घड़ी की अहोभाव
से प्रतीक्षा!
कठिन
होगी
प्रतीक्षा।
दीया जलेगा, बुझेगा। जलाओगे, बुझाओगे। गुजार
देना रात! घबड़ाना
मत। जितनी
प्रतीक्षा पीड़ादायी
होगी, उतना
ही मिलन
आनंददायी है।
आज
इतना ही।
THANK YOU GURUJI
जवाब देंहटाएंहे ओशो सद्गुरू आप महान हो
जवाब देंहटाएं