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शनिवार, 31 मई 2014

समाधि के सप्‍त द्वार (ब्‍लावट्स्‍की) प्रवचन--06

क्षांति—प्रवचन—छठवां

ध्यान-शिविर, आनंद-शिला,
अंबरनाथ; प्रातः 12 फरवरी, 1973

ओम शिष्य, भय संकल्प का हनन करता है और प्रयासों का स्थगन। यदि शील गुण का अभाव हो, तो यात्री के पांव लड़खड़ाते हैं और चट्टानी पथ पर कर्म के पत्थर उसके पांवों को लहूलुहान कर देते हैं।
ओ साधक, अपने पावों को दृढ़ कर। क्षांति (धैर्य) के सत्व में अपनी आत्मा को नहला, क्योंकि अब तू उसी के नाम के द्वार को पहुंच रहा है--बल और धैर्य का द्वार।
अपनी आंखों को बंद मत कर, और दोरजे (सुरक्षा के वज्र) से अपनी दृष्टि को मत हटा। काम के बाण उस व्यक्ति को बद्ध कर देते हैं, जो विराग को प्राप्त नहीं हुआ है।
कंपन से सावधान! भय की सांस के नीचे पड़ने से धैर्य की कुंजी में जंग लग जाता है और जंग लगी कुंजी ताले को नहीं खोल सकती।
जितना ही तू आगे बढ़ता है, उतना ही तेरे पांवों को खाई-खंदकों का सामना करना होता है। और जो मार्ग उधर जाता है, वह एक ही अग्नि से प्रकाशित है--साधक के हृदय में जलने वाली साहस की अग्नि से। जितना ही कोई साहस करता है, वह उतना ही पाता है। और जितना ही वह डरता है, उतना ही वह ज्योति मंद पड़ जाती है। और वही ज्योति मार्गदर्शन कर सकती है। वह हृदय-ज्योति वैसी ही है, जैसे किसी ऊंचे पर्वत-शिखर पर चमकने वाली अंतिम सूर्य की किरण, जिसके बुझने पर अंधेरी रात का आगमन होता है। जब वह ज्योति भी बुझ जाती है, तब तेरे ही हृदय से निकल कर एक काली और डरावनी छाया मार्ग पर पड़ेगी और तेरे भय-कंपित पैरों को भूमि से बांध देगी।


स सूत्र में साधक के लिए बहुत बहुमूल्य बातें हैं।
"ओ शिष्य, भय संकल्प का हनन करता है और प्रयासों का स्थगन'
भय शायद आंतरिक मार्ग पर सबसे बड़ी कठिनाइयों में एक है। और ऐसा भय नहीं, जिससे हम संसार में परिचित हैं, कुछ और ही तरह का भय है। भय दो प्रकार के हैं। एक तो भय है, जिसका प्रत्यक्ष कारण सामने होता है। कोई आदमी छाती के सामने छुरा लेकर खड़ा है, आप भयभीत होते हैं। इस भय का कारण प्रत्यक्ष है, सामने है। एक और भय है।
एक तो भय का यह आयाम है, जहां कारण होते हैं। कारण बाहर होते हैं, भीतर आप भयभीत होते हैं। कारण भी भय पैदा नहीं करते। सिर्फ जो भय भीतर सोया है, उसे जगा देते हैं; वह जो भीतर छिपा है, उसे प्रकट कर देते हैं। कोई छुरा लेकर छाती के सामने खड़ा हो, तो उसके छुरे से भय पैदा नहीं होता। भय तो भीतर है, छुरे से प्रकट हो जाता है। लेकिन कारण है, साफ है।
दूसरा भय और भी गहरा है, जो छुरे के कारण या किसी बाहय स्थिति के कारण नहीं अनुभव होता, बल्कि भीतर जो भय पड़ा है, उसके कंपन से ही प्रतीत होता है। अकारण प्रतीत होता है। अध्यात्म के मार्ग पर वह जो अकारण भय प्रतीत होता है, वही बाधा है। और जैसे-जैसे व्यक्ति संसार से दृष्टि हटाने लगता है, वैसे-वैसे कारण विलीन होने लगते हैं। और खुद का ही भय कंपित होने लगता है। अब कोई कंपाने वाला नहीं होता, अपना ही भय है।
कारण वाले भय से तो छूटना आसान है; क्योंकि कारण की रुकावट की जा सकती है, कारण से बचाव किया जा सकता है। कोई छुरा लेकर खड़ा हो, तो आप तलवार लेकर खड़े हो सकते हैं। अपने चारों तरफ सुरक्षा की दीवाल बना सकते हैं। बीमारी हो, तो औषधि का इंतजाम हो सकता है। बाहर जो कारण हैं, उनके विपरीत कारण बाहर निर्मित किए जा सकते हैं। और भय से सुरक्षा मिल जाती है। लेकिन जब अकारण भय का पता चलता है कि भय बाहर से नहीं आ रहा, कोई उसे जगा नहीं रहा, भय मेरे भीतर ही है, मेरी आत्मा में ही है। मैं अपने से ही कंप रहा हूं, कोई मुझे कंपा नहीं रहा। यह कंपन मेरा ही है, मेरे अस्तित्व में ही यह कंपन छिपा है। तब बड़ी कठिनाई होती है कि उपाय क्या हो? इस भय को मिटाने के लिए क्या किया जाए? इससे सुरक्षित होने के लिए कौन सा आयोजन हो?
कोई आयोजन काम न देगा। सांसारिक भय से बचना आसान है। हम सभी ने इंतजाम कर लिया है सांसारिक भय से बचने का। हमारी पूरी समाज की व्यवस्था सांसारिक भय से बचने का उपाय है। तो यहां पुलिस है, अदालत है, कानून है, राज्य है, वे सब हमारे उपाय हैं बाहर के भय से बचने के। लेकिन भीतर जो भय है, उससे बचने के लिए आदमी क्या करे? और उससे न बच सके, तो आत्मिक जगत में कोई प्रवेश नहीं हो पाएगा। क्योंकि वह तो जगत ही भीतर का है, वहां बाहर कुछ है ही नहीं, जिससे इंतजाम हो सके, बचाव हो सके। वहां आप होंगे अकेले और आपका भय होगा--अकारण भय।
एक वृक्ष हवा के झोंके में कंपता है, तो हवा के झोंके को रोका जा सकता है। लेकिन एक वृक्ष अपने अस्तित्व में अपनी जड़ों में ही कंपन को लिए है और कंपता है, तब क्या किया जाए? इसी भय की चर्चा है। और यही भय संकल्प का हनन कर देता है।
जितना ही भीतर होता है कंपन, उतने ही आप दृढ़ नहीं हो पाते हैं। जितना होता है भीतर कंपन, आपको अपनी ही बात का कोई भरोसा नहीं हो पाता। आप जानते हैं कि जो आप कह रहे हैं, वह कहते समय भी आप कंप रहे हैं। आप जानते हैं, जो आप निर्णय ले रहे हैं, निर्णय लेते समय भी कंप रहे हैं। आप जानते हैं कि आपका संकल्प सदा अधूरा है। और अधूरा संकल्प, संकल्प नहीं है। अधूरे संकल्प का कोई अर्थ ही नहीं होता। कोई आदमी कहे कि मैं आधा तैयार हूं, उसका कोई अर्थ नहीं होता। तैयारी या तो पूरी होती है या नहीं होती। आप अगर कहें कि मैं छलांग लगाने को आधा तैयार हूं, तो कैसे छलांग होगी? एक पैर तैयार नहीं है और एक पैर तैयार है--आधे आप तैयार हैं। छलांग होगी कैसे? छलांग तो तभी हो सकती है, जब तैयारी पूरी हो। जरा सा भी विपरीत भाव मन में है, तो छलांग नहीं हो सकती। और जो भय से कंप रहा
है, उसमें विपरीत भाव सदा बना रहता है। उसे अपने पर भरोसा नहीं हो सकता, जो भय से कंप रहा है।
इसलिए महावीर ने अभय को साधक के लिए पहली सीढ़ी कहा है। और ठीक कहा है, क्योंकि जब तक अभय न हो जाए, तब तक कुछ भी न होगा। बड़ी मजे की घटना महावीर के संदर्भ में घटी है। और वह यह है कि महावीर ने कहा कि जब तक तुम अभय को उपलब्ध नहीं होते, तब तक तुम अहिंसक न हो सकोगे। आदमी हिंसक इसलिए तो है कि भयभीत है। हिंसा भय का बचाव है। कोई मुझे न मार डाले, इसलिए मैं खुद ही मारने को तैयार हूं। और कोई मुझे मारने आए, इसके पहले ही मैं उसे मारने चला जाता हूं। और बचना हो, तो यही उचित है कि आक्रमण के पहले ही आक्रमण कर दिया जाए। क्योंकि जो पहल करता है आक्रमण में, वह आगे निकल जाता है। हिंसा इसलिए इतनी हमारे मन को घेरे हुए है कि हम भीतर भयभीत हैं। हम डरे हुए हैं; इसलिए हम दूसरे को डराना चाहते हैं।
और हमें एक ही अनुभव है निडर होने का। वह तब हमें होता है, जब हमसे कोई डरता है, तो ही हमें निडर होने का अनुभव होता है--तुलनात्मक है। अगर आप किसी को डरा सकते हैं तो आपको आनंद आता है। आपको लगता है कि ठीक, अब मैं डरने वाला नहीं हूं, डरानेवाला हूं। वह जो आपसे ज्यादा डरता है, आपके सामने कंपता है, उसको देख कर आपको भरोसा आता है कि मैं कम कंप रहा
हूं या आप अपने कंपन को ही भूल जाते हैं।
सम्राट होने का मजा क्या होगा? सत्ता में होने का मजा क्या है? हिंसा का मजा है, जो सत्ता में है, वह आपको कंपा सकता है। जिसके हाथ में शस्त्र है, वह आपको कंपा सकता है। जिसके हाथ में धन है वह आपको कंपा सकता है। और जिसके चारों तरफ लोग कंपते रहते हैं, उसको यह भरोसा रहता है कि मैं कंपने वाला नहीं हूं कंपाने वाला हूं।
हिटलर के संबंध में उसके एक अत्यंत विश्वासपात्र, निकट व्यक्ति ने किसी को पत्र में लिखा है कि हिटलर जब भी किसी को मरवाता था, तब बहुत प्रसन्न होता था। अक्सर अपने सामने वह किसी को गोली मरवा कर मरवा डालता था और सामने ही कोई तड़प कर शांत हो जाता था, उसके चेहरे पर ऐसी शांति और आनंद की लहरें छा जाती थीं। तो उस अत्यंत निकट जन ने हिटलर से पूछा कि तुम इतने प्रसन्न क्यों हो जाते हो, जब कोई मरता है? तो हिटलर ने कहा कि मुझे यह भरोसा आता है कि मैं मरने वाला नहीं हूं, मारने वाला हूं। मौत मेरा कुछ भी न बिगाड़ सकेगी। जब मैं किसी को मार डालता हूं, तो मैं मौत का मालिक हो गया हूं।
नादिर को, तैमूर को, चंगेज को, नेपोलियन को, सिकंदर को, हिटलर को, स्टालिन को, माओ को जो रस प्रतीत होता है दूसरे को नष्ट करने में, वह इस बात का है कि मैं जब नष्ट कर सकता हूं स्वयं, तो मुझे कौन नष्ट कर सकेगा? तुलना में जो हमसे ज्यादा डरता है, हम उससे बड़े हो जाते हैं। और इसलिए हर आदमी अपने आसपास किसी न किसी को डराता रहता है।
अगर एक दफ्तर में जाएं, तो मालिक मैनेजर को डरा रहा है; मैनेजर अपने नीचे के हेड क्लर्क को डरा रहा है; हेड क्लर्क अपने क्लर्क को डरा रहा है; क्लर्क चपरासी को डरा रहा है, चपरासी लौटकर अपनी पत्नी को डरा रहा है, पत्नी अपने बच्चों को डरा रही है। और यह चल रहा है। बच्चे को कुछ नहीं सूझता, तो अपने गुड्डे की टांग तोडकर उसको नष्ट कर देता है और प्रसन्न होता है।
अगर हम समाज को देखें, तो उसमें पर्त दर पर्त भय का संबंध है। और अगर पति पत्नी को नहीं डराए, तो पत्नी पति को डरा रही है। ऐसा घर पाना बहुत मुश्किल है, जहां न पति पत्नी को डरा रहा हो, न पत्नी पति को डरा रही हो। और ऐसा घर मिल जाए, तो समझना कि वह घर है, बाकी तो सब हायररकी है सताने की, एक दूसरे को परेशान करने का इंतजाम है।
हमें अपने से कमजोर की तलाश है; क्योंकि उसके सामने हम शक्तिशाली मालूम पड़ते हैं। अपने से दीन की तलाश है, क्योंकि उसके सामने हम धनी मालूम पड़ते हैं। अपने से मूढ़ की तलाश है; क्योंकि उसके सामने हम ज्ञानी मालूम पड़ते हैं। पर अगर इस सारी खोज को हम ठीक से देखें, तो ये सारे संबंध रुग्ण हैं और भय पर खड़े हैं। यह जो भय है, यह मिटता नहीं किसी को डराने से, सिर्फ छिपता है। और छिपा हम रहे हैं जन्मों से। और रत्ती भर हम उसे मिटा नहीं पाए हैं। सच तो यह है कि जितना हमने छिपाया है, उतना ही उसको मिटाना मुश्किल हो गया है। क्योंकि छिपा-छिपा कर हमने ही उसे ऐसे अंधेरे में डाल दिया है, जहां खुद को भी दिखाई नहीं पड़ता कि कहां है?
यह सूत्र कहता है, ओ शिष्य, भय संकल्प का हनन करता है और प्रयासों का स्थगन।
तब हम सोचते बहुत हैं कि करें और कर कभी भी नहीं पाते। हजार बार सपना लेते हैं कि उठाएं पैर, उठाते कभी भी नहीं! विचार ही करते रहते हैं करने का। विचार से तो कोई यात्रा होती नहीं। कितनी बार तय करता है आदमी अपने को बदल डालने का; लेकिन वह बदलाहट की कोई शुरुआत नहीं होती। वह हमेशा स्थगित करता है, पोस्टपोन करता है कि कल करेंगे शुरू। और कल कभी नहीं आता।
कल यही मन फिर आगे पर टाल देता है। आगे पर टालना हमारी बड़ी तरकीब है। उससे हमारी दोनों बातें सधी रहती हैं। हमें यह भी नहीं होता कि हम बदलाहट का कोई उपाय नहीं कर रहे हैं! कल करेंगे--आयोजन कर रहे हैं, प्लानिंग कर रहे हैं। इसलिए मन में यह भी भरोसा रहता है कि हम बदलने की तरफ चल रहे हैं। और चलते कभी भी नहीं। कौन सा भय हमें रोकता है चलने में? वह कोई कारण वाला भय नहीं है, जो हमें रोकता है। यह हमारी भयभीत अवस्था है।
सोरेन कीर्कगार्ड ने कहा है कि आदमी को जितना ही मैंने समझा, उतना ही मैंने पाया कि आदमी एक कंपन है--जस्टट्रेम्बलिंग। भीतर उसके सब कंप रहा है।
तो इस बात को पहले तो इस भांति अनुभव करें कि भय के कारण बाहर नहीं हैं, भय भीतर है। कारणों से सिर्फ पता चलता है, प्रकट होता है। जैसे कि कोई आपके हाथ में छुरा मार दे, तो खून की धार निकल पड़ती है। छुरे से खून की धार पैदा नहीं होती। खून की धार तो बह रही थी, छुरे से प्रकट होती है। ऐसे ही भय की धार भी आपके भीतर बह रही है; जो कोई छुरा लेकर सामने खड़ा होता है, तो वह धार फूट पड़ती है। वह भी आपके ही भीतर है, जैसे खून आपके भीतर है। खून दिखाई पड़ता है, वह दिखाई नहीं पड़ता है। इसलिए आपके खयाल में नहीं आता। जब कोई आपके सामने छुरे की धार रखने लगता है, तो जो लहर आपके भीतर होने लगती है,वह छुरे से नहीं आ रही। छुरे से केवल आपको स्मरण आ रहा है। जो दबी थी, वह मुखर हो रही है। जिसको आप छिपा कर बैठे थे, वह गतिमान हो रही है। जिसको आप भूल गए थे, उसको आपको पुनः स्मरण करना पड़ रहा है।
बुद्ध अपने भिक्षुओं को कहते थे कि जाओ मरघट पर और महीनों मृत्यु पर ध्यान करो। और जब कोई लाश लाई जाए तो बैठ जाओ, और शांति से एकाग्र होकर उसे देखते रहो। फिर जब चिता सजे तो देखते रहो, निरीक्षण करो, विचार मत करो। सिर्फ देखो कि मौत में क्या हो रहा है? फिर जब जलने लगे लाश और राख हो जाए सब और जब प्रियजन विदा हो जाएं रोकर, तो बैठे रहो उस सुलगती आग, बुझती आग के पास। अभी-अभी जो था, अब नहीं है। धीरे-धीरे तुम्हें अपनी लाश भी दिखाई पड़ने लगेगी। आज नहीं कल, तुम्हें स्मरण आ जाएगा कि कोई तुम्हें भी लेकर मरघट की तरफ आ रहा है। और तुम्हारे प्रियजन भी इकट्ठे होकर तुम्हें चिता पर चढ़ा देंगे और तुम भी राख हो जाओगे। तब बहुत भय पकड़ेगा। उस भय से भागना मत मरघट से। तुम जमे ही रहना।
आपको पता है, लोग कहते हैं मरघट पर मत जाना, वहां भूत हैं। भूत नहीं हैं वहां; आपका भय वहां प्रकट होता है। मगर आदमी हमेशा बाहर चीजों को स्थापित कर देता है। मरघट पर भय की वजह से भूत मालूम पड़ते हैं, भूत की वजह से भय नहीं होता। भूतों को रहने के लिए काफी जगह है। और भूत भी मरघट न चुनेंगे रहने के लिए, क्योंकि आप ही तो भूत होंगे कभी। भूत भी मरघट चुनने वाले नहीं हैं। भूत भी मरघट से उतना ही डरते हैं, जितना आप डरते हैं। मरघट पर जो डर है, वह भूत का नहीं है। डर की वजह से भूत अनुभव होता है। मरघट है मौत, वह उसका प्रतीक है। उसके पास जाते ही आपके भीतर वह जो छिपा है, वह तरंगित होने लगता है। आपके भीतर के भय का सरोवर कंपित होने लगता है। उस कंपित अवस्था में आपको भूत-प्रेत दिखाई पड़ने शुरू हो जाते हैं। वह प्रोजेक्शन है। वह आपका भय बाहर फैलकर दिखाई पड़ता है तब।
एक पत्ता हिल जाता है हवा में और आपको किसी के पदचाप सुनाई पड़ जाते हैं! और एक पत्ता गिर जाता है वृक्ष से, जरा-सी आहट, आप भाग खड़े होते हैं! फिर भागने से आप अपने ही भय को और बढ़ा लेते हैं। जो भय छोटा-सा था, भागने से और बड़ा हो जाता है। क्योंकि अब आप अच्छी तरह कंपित हो जाते हैं; अब आप अपने ही भय के जाल में ग्रसित होते जा रहे हैं। और तब कुछ भी हो सकता है और तब आपको कुछ भी दिखाई पड़ सकता है। और वह इतना साकार होगा कि आप कभी भी मानने को राजी नहीं होंगे कि वह असत्य था।
लेकिन भूल हो रही है। जो पद पर दिखाई पड़ रहा है, वह पद पर नहीं है, वह प्रोजेक्टर में है। फिल्म-गृह में आपके पीठ के पीछे प्रोजेक्टर लगा होता है। उसकी तरफ कोई देखते नहीं। दो छोटे से छेद से प्रोजेक्टर की मशीन चित्रों को फेंकती रहती है, आप देखते हैं पद पर। पर्दा होता है सामने, प्रोजेक्टर होता है पीछे। पद पर जो दिखाई पड़ता है, वह पद में नहीं है। वह सिर्फ पद पर दिखाई पड़ता है। जो पद पर दिखाई पड़ता है, वह पीछे जो मशीन है प्रक्षेप करने की, उसमें छिपा है।
जब आपको भूत दिखाई पड़े तो आप जरा पीछे लौट कर अपने में देखना; वहां भय है। किसी भी तरह के भूत हों, जिनसे भय पैदा होता है, हमारी नजर तत्काल, पद पर पकड़ जाती है और हम भूल जाते हैं कि हम ही उसे फैला रहे हैं; हमारे भीतर से ही वह निकलकर बाहर खड़ी हो रही है छाया। सब भूत-प्रेत, सब भय के जो कारण हमें बाहर दिखाई पड़ते हैं, वे हमारा ही सृजन हैं। और फिर हम इतना उपद्रव अपने चारों तरफ खड़ा कर लेते हैं! पर उसमें एक सुविधा है। यह मानने में आसानी रहती है कि कोई हमें भयभीत कर रहा है। जिम्मा किसी और का हो जाता है, उत्तरदायित्व किसी और का है। अगर आप भाग रहे हैं, तो आप नहीं भाग रहे हैं, भूत आपको भगा रहा है। जिम्मेदारी भूत की हो गई। आप जिम्मेदारी से बच गए। आप ही भाग रहे हैं--और आप खड़े हो जाएं, तो भूत भागना शुरू कर देता है।
विवेकानंद ने लिखा है, बहुत बार वे इसे कहते भी थे कि पहली-पहली बार जब संन्यासी होकर वे काशी पहुंचे, तो काशी के बंदरों ने उन्हें बहुत सताया। एक झाड़ के नीचे बैठकर ध्यान कर रहे थे, बंदर वहां इकट्ठे हो गए, डराने लगे। विवेकानंद ने बचने का उपाय किया। जब भी कोई डराए तो बचने का उपाय करना पड़ता है। और जब आप बचने का उपाय करते हैं, तो आप डराने वाले का साहस बढ़ाते हैं। विवेकानंद सरकने लगे पीछे उस झाड़ से, हटने लगे, बंदर चारों तरफ से और पास आने लगे, विवेकानंद ने भागने का विचार किया कि बंदर झपट पड़े। विवेकानंद भागे, तो बंदरों की भीड़ और भी जो वृक्षों पर बैठे थे, वे भी नीचे उतर आए। अचानक विवेकानंद को खयाल आया, यह तो मुसीबत हो जाएगी। ये तो आज मुझे मार ही डालेंगे। खयाल आया कि कहीं मेरे भय को देख कर तो ये इतने ज्यादा साहसी नहीं हुए जा रहे हैं? लौट कर खड़े हो गए। खड़े होने से ही बंदर ठिठक गए। विवेकानंद बंदरों की तरफ आगे बढ़े, बंदर भागकर वृक्षों पर चढ़ गए। फिर विवेकानंद बार-बार इस बात को कहे कि उस दिन मुझे भय का सारा सार समझ आ गया।
जिससे भयभीत हो जाओ, वह तुम्हारा पीछा करेगा। तुम उसके पीछे लगे तो वह अपना बचाव करेगा। तुम खड़े हो जाओ, भयभीत मत होओ, तो सारे जगत से तुम्हें भयभीत करने के सारे कारण तिरोहित हो जाते हैं।
भय भीतर है। कारण पद से ज्यादा नहीं हैं, बहाने हैं। और यह भय संकल्प को नष्ट कर देता है। आप इकट्ठे नहीं हो पाते हैं। इस भय के कारण डांवांडोल ही होते हैं। और तब स्थगित करते चले जाते हैं। स्थगन भी भय है।
"यदि शील गुण का अभाव हो, तो यात्री के पांव लड़खड़ाते हैं और चट्टानी पथ पर कर्म के पत्थर उसके पांव को लहूलुहान कर देते हैं।'
इस भय से बचने के लिए क्या किया जाए?
शील उपाय है।
यह शील समझने जैसा है। आपको खयाल है कि अगर आप असत्य बोलें, तो आपके भीतर कंपन बढ़ जाता है। झूठ बोलने वाला कंपता है, सच बोलने वाला नहीं कंपता। अब तो हमने यंत्र खोज लिए, जिनसे आपका झूठ बोलना फौरन पकड़ा जाता है। क्योंकि आपका कंपन यंत्रों में खबर देता
है, ग्राफ बन जाता है नीचे कि आप कंप रहे हैं और किस मात्रा में कंप रहे हैं।
पश्चिम की अदालतों में लाई-डिटेक्टर्स का उपयोग शुरू किया है और आप उससे बच नहीं सकते, आप कुछ भी करें। आपसे कुछ सवाल पूछे जाते हैं। पूछा जाता है, इस समय घड़ी में कितना बजा है। घड़ी सामने अदालत में लगी है। झूठ बोलने का कोई कारण नहीं है। आप कहते हैं, बारह बजे हैं। नीचे की वह जो मशीन है, वह काम करना शुरू कर देती है कि अभी यह आदमी नहीं कंप रहा है, अभी इसमें कोई कंपन नहीं है। क्योंकि कंपन तो इलेकिटरकल है। पूरा शरीर विद्युत की तरंगों से भर जाता है, तो विद्युत की तरंगें यंत्र पकड़ लेता है। आपके पैर के नीचे यंत्र लगा है, वह कह रहा है, ठीक अभी यह आदमी नहीं कंप रहा है। आपसे पूछा जाता है, इस कपड़े का रंग क्या है? आप कहते हैं नीला है। अभी भी नहीं कंप रहा है। ऐसे दस-पांच प्रश्न पूछे जाते हैं, जिनमें आप झूठ बोल ही नहीं सकते।
फिर आपसे पूछा जाता है, क्या आपने चोरी की? छाती में धक्का लगता है, नीचे यंत्र में भी धक्का लग जाता है। भीतर आप जानते हैं चोरी की है और ऊपर आप कहते हैं, नहीं की है। दो हिस्से हो गए। आप इकट्ठे नहीं हैं, बंट गए। क्योंकि आप दुनिया को झूठ कह दें कि चोरी नहीं की, आप अपने को कैसे झूठा कहेंगे? भीतर आप जानते हैं कि चोरी की और बाहर आप कहते हैं, चोरी नहीं की। आपकी तरंगें विभाजित हो गईं। नीचे ग्राफ कट गया, और आपके हृदय की धड़कन बढ़ गई। और आपके हाथ-पैर की विद्युत-धारा गतिमान हो गई। अब आप कंपने लगे। अब आप जानते हैं, कहीं मैं पकड़ा न जाऊं, कहीं यह बात खुल न जाए, कहीं कोई गवाह न मिल जाए, यह बात तो झूठ है। अब आप बचाव में पड़ गए। यह यंत्र नीचे पकड़ लेगा।
जब आप असत्य बोलते हैं, तब आप कंपते हैं। जितना आप कंपते हैं, उतना आप भय को शक्ति दे रहे हैं। क्योंकि भय कंपन है, जब आप क्रोध करते हैं, तब आप कंपते हैं। जब आप घृणा करते हैं, तब आप कंपते हैं। आप भय को बढ़ा रहे हैं। तो जो घृणा से भरा है, क्रोध से भरा है, विद्वेष से भरा है,र् ईष्या से भरा है, वह भय को बढ़ा रहा है। ए सब भय के भोजन हैं।
शील का अर्थ हैः भय के भोजन से बचना। जिनसे भय बढ़ता है और कंपन बढ़ता है, वैसे कामों, विचारों से बचना, ताकि कंपन कम हो जाए।
ठीक इसके विपरीत बात भी है। क्योंकि कुछ चीजें हैं, जिनसे कंपन बढ़ता है और कुछ चीजें हैं, जिनसे कंपन घटता है। अगर घृणा से बढ़ता है, तो प्रेम से घटता है। इसलिए जब हम गहरे प्रेम में होते हैं, तो भय नहीं पकड़ता। प्रेमी भयभीत होते ही नहीं। और जो एक दूसरे से भयभीत हैं, उनके बीच प्रेम का पुष्प कभी पैदा नहीं हो पाता। कोई उपाय नहीं। क्योंकि भय और प्रेम का कोई संबंध नहीं। सबसे धोखा
हो जाता है। घृणा से कंपन बढ़ता है, आपका रोआं-रोआं कंप जाता है। आप वस्तुतः कंपन अनुभव कर सकते हैं। यंत्रों की कोई जरूरत नहीं। क्रोध में आप कंपते हैं। यह कंपन आपके पूरे शरीर की विद्युत धारा में फैल जाता है। प्रेम में आप स्थिर हो जाते हैं।
पश्चिम का एक मनोवैज्ञानिकों का समूह कुछ बंदरों पर प्रयोग कर रहा
था, छोटे बंदर के बच्चों पर। प्रयोग अनूठा है और बड़ी कीमती उसकी निष्पत्तियां हैं। उन्होंने इन छोटे बच्चों के लिए दो झूठी बंदरियां बनाईं। उनकी माताओं का काम करेंगी वे झूठी बंदरियां। एक थी सिर्फ तारों की बनी हुई मादा, स्तन थे उसके और स्तन से दूध बच्चों को मिलने वाला था। लेकिन तारों का बना हुआ पूरा ढांचा था। और दूसरी मादा थी, उससे दूध मिलने वाला नहीं था, लेकिन वह ऊन से बनी हुई थी। ढांचा ऊन का था। और भीतर उसके बिजली चल रही थी, जिससे वह तप्त थी। बंदर दूध पीने तो चले जाते थे तार वाली मां के पास; लेकिन बस दूध पी कर हट जाते थे। और तत्क्षण चले जाते थे उस मां के पास, जहां उन्हें गर्मी का अनुभव होता; उससे लिपटे रहते। अनुभव यह हुआ कि अगर बंदरों को भयभीत कर दिया जाए, तो फिर वे दूध पीने भी नहीं जाते थे दूसरी मां के पास; भूखे रह जाते। लेकिन उस मां के पास रहते, जिससे उन्हें प्रेम की गर्मी का आभास होता। तार वाली मां के पास वे कंपते रहते, ऊन वाली मां के पास वे शांत हो जाते। उनका कंपन बंद हो जाता। भरोसा। कोई प्रेम भी नहीं है वहां, केवल गर्मी है। लेकिन भरोसा--खयाल है कि वहां प्रेम की गरमाहट है, वह उनको आश्वस्त कर देती है।
फिर इन मनोवैज्ञानिकों ने कुछ बंदरों को तार वाली मां के पास ही बड़ा किया और कुछ बंदरों को ऊन वाली मां के पास बड़ा किया। ऊन वाली मां के पास जो बच्चे बड़े हुए, वे कम भयभीत होते थे, तार वाली मां के पास जो बच्चे पैदा हुए, बड़े हुए, वे सदा भयभीत रहते थे, सदैव कंपते रहते, डरे रहते थे।
प्रेम के क्षण में भय कम होता है। आपको प्रेम के क्षण में जो सुखद अनुभूति होती है, वह भय के कम होने की है। और अगर प्रेम वस्तुतः पूरी युग में भी शांति से जा सकता है बिना भयभीत हुए।
तो घृणा है शील के विपरीत, प्रेम है शील। क्रोध शील के विपरीत है। अक्रोध, क्षमा, शील, आप खोज लें। जिस-जिससे आपका कंपन बढ़ता हो, वह शील नहीं है। और जिस-जिससे आपका कंपन कम होता हो, आपका भय क्षीण होता हो, वह शील है। अगर महावीर और बुद्ध अभय हैं, तो अभय होने का कारण यह नहीं कि आप उनको छुरा मारेंगे, तो वे नहीं मर जाएंगे। मर ही जाएंगे। कि आप उनको जहर दे देंगे, तो वे नहीं मरेंगे। मर ही जाएंगे। अभय है तो इस कारण कि उनके भीतर जिन-जिन चीजों से कंपन पैदा होता था, उनके भोजन-स्रोत समाप्त कर दिए गए। भय को भी भोजन चाहिए। हम भय को इकट्ठा कर रहे हैं और भोजन भी दे रहे हैं!
मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं भय से छूटना है। लेकिन अगर मैं उनसे कहूं कि तब क्रोध से, घृणा से,र् ईष्या से छूटना पड़ेगा। क्रोध से सीधा नहीं छूटा जा सकता, भय से सीधा नहीं छूटा जा सकता। भय से छूटना चाहें और भय के सारे भोजन जुटाते रहें, तो छूटना कैसे हो सकेगा? तब आप अपने ही विपरीत काम में लगे हैं।
बुद्ध ने शील को सुरक्षा कहा है। शील में सत्य, प्रेम, करुणा, क्षमा सब आ जाते हैं। वे सब गुण जो आपके भीतर से भय को विसर्जित कर देते हैं।
"शील का अभाव हो, तो यात्री के पांव लड़खड़ाते हैं और चट्टानी पथ पर कर्म के पत्थर उसके पांव को लहूलुहान कर देते हैं'
तो ध्यान रखना, धर्म के लिए शील का मूल्य नीति का मूल्य नहीं। इसलिए नहीं सत्य बोलना कि झूठ बोलने से दूसरों को हानि होती है। इसका धर्म से कोई लेना-देना नहीं। इसलिए क्रोध मत करना कि दूसरों को दुख होता है। इससे भी धर्म का कोई लेना-देना नहीं। यह नैतिक व्यवस्था की बात है। धर्म उन्हीं शब्दों का उपयोग करता है। लेकिन उसका प्रयोजन भिन्न है।
धर्म कहता है, इसलिए झूठ मत बोलना कि झूठ बोले कि तुम कंपे और तुम कंपे कि आगे की यात्रा असंभव है। इसका दूसरे से कोई संबंध नहीं है। दूसरे को लाभ हो जाएगा, लेकिन वह प्रयोजन नहीं। तुम असत्य बोले कि कंपे। फिर इन कंपते पैरों से उस पर्वत-शिखर पर नहीं जाया जा सकता, जो कि परम अनुभव है। और उसके बिना जीवन सदा नरक बना रहेगा। क्रोध से दूसरे को हानि होती है निश्चित। लेकिन क्रोध न करेंगे तो दूसरे को लाभ होगा; वह भी निश्चित है। पर धर्म के लिए वह प्रयोजन नहीं है। वह गौण है, बाई-प्रोडक्ट, उप-उत्पत्ति है। एक आदमी गेहूं बोता है, भूसा भी पैदा हो जाता है; भूसा पैदा करने के लिए कोई गेहूं नहीं बोता है। गेहूं ही पैदा करने के लिए बोता है; भूसा भी पैदा हो जाता है, वह दूसरी बात है। ठीक भूसा जैसी है नीति, धर्म के लिए। वह पैदा होती है, पर वह लय नहीं है। आप ही हैं लय। और तब धर्म एक वैज्ञानिक व्यवस्था हो जाती है। तब मामला साफ है।
इसलिए नहीं कहते आपसे कि क्रोध मत करो कि दूसरे को दुख देना बुरा
है और दूसरों को दुख दोगे, तो नरक चले जाओगे। नहीं इसलिए क्रोध मत करो कि क्रोध के कारण तुम अभी नरक में हो। चले जाओगे, यह फिजूल की बात है। वह भी तरकीब है हमारी कि इसे आगे रखेंगे तो उपाय बना सकते हैं। बीच में कुछ क्रोध कर लेंगे, माफी मांग लेंगे। इसके पहले कि नरक जाएं, क्षमा कर लेंगे, कसम खा लेंगे, व्रत ले लेंगे, कुछ पुण्य कर लेंगे, कुछ दान कर लेंगे, तीर्थ-यात्रा कर आएंगे। तो इसके पहले कि नरक में ढकेले जाएं, हम कुछ इंतजाम कर लेंगे, समय अगर मिल जाए। लेकिन मैं आपसे कहता हूं, समय बिलकुल नहीं है। समय है ही नहीं। क्रोध किया कि आप नरक में हैं। दोनों के बीच उपाय नहीं है क्षण भर का भी। प्रेम किया
कि आप स्वर्ग में हैं। दोनों के बीच में जगह, अंतराल नहीं है।
साधक के लिए तो दृष्टि इस पर ही टिका रखनी है। इस खोज में, दुख के पार ले जानेवाली खोज में--कौन उसके पैरों को मजबूत करेगा, क्या उसके पैरों को मजबूत करेगा? वही नीति है, वही शील है।
"ओ साधक, अपने पांवों को दृढ़ कर । क्षांति (धैर्य) सत्व में अपनी आत्मा को नहला, क्योंकि अब तू उसी के नाम के द्वार को पहुंच रहा है--बल और धैर्य का द्वार'
अपने पांवों को दृढ़ कर
इसका मतलब इतना ही है कि ऐसा कुछ भी मत कर, जिससे तू कंपे। ऐसा कुछ कर, जिससे तेरा कंपन न हो, तू ठहर सके, खड़ा हो सके। पैरों में बल शारीरिक बात नहीं है, पैरों में बल आत्मिक बात है। वह जो पैरों में खड़े होने का बल है इस पथ पर, वह तभी आएगा जब मेरे भीतर कंपती हुई आत्मा अकंप हो जाए। जैसे कि किसी रों से मजे से चला जा सकता है। सच तो यह है कि वहां जितने कंपते पैर हों, उतनी ही यात्रा सुगम होती है। संसार के रास्ते पर कंपते पैर ठीक हैं। वह पूरा रास्ता ही कंप रहा है। वहां पैरों को ठहराने का उपाय ही नहीं है। और वहां जितने आपके कंपते हैं पैर, उतनी आप तेजी से यात्रा कर लेंगे। वहां ठहरे हुए आदमी की कोई गति नहीं है; वहां तो भागते-दौड़ते आदमी की गति है।
लेकिन संसार के पार, उसे हम सत्य कहें, मुक्ति कहें, परमात्मा कहें, जो भी नाम दें, उसकी तरफ जाने वाले आदमी के पैर अकंप चाहिए।
कैसे होंगे अकंप?
धैर्य से।
हम कंप क्यों जाते हैं इतनी जल्दी?
धैर्य की बड़ी कमी है। थोड़ी भी प्रतीक्षा नहीं कर पाते, रत्तीभर नहीं रुक पाते।
हमारी हालत वैसी है, जैसे छोटे बच्चे हैं। छोटे बच्चे आम की गोई को बो देते हैं जमीन में लेकिन घड़ी आधी घड़ी में उखाड़ कर फिर देखते हैं कि अभी तक अंकुर आया कि नहीं? अंकुर कभी नहीं आएगा; क्योंकि दिन में दस बार तो वह निकाल ली जाएगी जमीन से। अंकुर आ सकता था, एक महीने, दो महीने की प्रतीक्षा करनी जरूरी थी। पानी देना जरूरी था। और गोई छिपी रहे जमीन के गर्भ में, यह जरूरी था। उसे बार-बार निकाल लेना खतरनाक है। और हम सब छोटे बच्चे हो दिन में भी हो सकता है, लेकिन तब बड़ा धैर्य चाहिए। तीन जन्मों में भी न होगा, धैर्य की कमी हो तो।
धैर्य प्रयास को गहराई दे देता है; अधैर्य उथलापन ला देता है।
अधैर्य की वजह से हम ऊपर ही ऊपर रह जाते हैं। धैर्य तीव्रता देता है और गहराई में उतरने की संभावना बन जाती है।
महाकाश्यप बुद्ध के पास आया। तो बुद्ध से महाकाश्यप ने पूछा कि कितना समय लगेगा? कब आएगी वह घड़ी जब मैं भी बुद्ध हो जाऊंगा? बुद्ध ने कहा, अगर तूने दोबारा पूछा तो समय बहुत लग जाएगा। फिर मैं भी तेरी कोई सहायता नहीं कर सकता। अभी तू क्षम्य है, नया-नया पहली दफा आया है। पूछ लिया कोई हर्ज नहीं। अब दोबारा मत पूछना, तो जल्दी हो सकती है बात।
फिर महाकाश्यप का दूसरा ही उल्लेख है। बस दो ही उल्लेख हैं बुद्ध के जीवन में महाकाश्यप के। और वह उनका सबसे कीमती शिष्य था। एक यह उल्लेख है और एक और उल्लेख है कि वर्षों बाद, कोई चालीस वर्ष बाद, एक दिन बुद्ध आकर मौन बैठ गए हैं मंच पर। उनके हाथ में एक कमल का फूल है, और वह उस फूल को देखे चले जाते हैं। और हजारों लोग इकट्ठे हुए हैं और वे सुनना चाहते हैं। और बुद्ध बोलते नहीं, मौन बैठे हैं और उस फूल को देखे चले जाते हैं। ऐसा कभी न हुआ था। आखिर किसी ने खड़े होकर कहा कि यह कब तक चलेगा। हम सुनने आए हैं दूर से, आप चुप बैठे हैं। तो बुद्ध ने कहा, जो मैं शब्दों से कह सकता था, वह मैं कई बार कह चुका। आज मैं वह कह रहा हूं, जो शब्दों से नहीं कहा जा सकता। अगर कोई समझता हो, तो इशारा करे। हजारों लोग इकट्ठे थे, सन्नाटा छा गया। शब्द ही समझ में नहीं आते थे, तो निःशब्द क्या समझ में आएगा!
लेकिन एक खिलखिलाहट की आवाज भीड़ में गूंजी। और बुद्ध ने कहा कि मालूम होता है महाकाश्यप है; पकड़ो उसे, भाग न जाए। चालीस साल पहले इस आदमी की वाणी सुनी थी, आज इसकी हंसी सुनी। बुद्ध ने कहा, महाकाश्यप क्यों हंसता है तू? क्या हुआ तुझे? तो महाकाश्यप ने कहा, जिसकी प्रतीक्षा कर रहा था, वह हो गया। शब्द से नहीं हुआ, आपके मौन से हो गया। तो बुद्ध ने वह फूल, जो उनके हाथ में था, वह महाकाश्यप को दिया और कहा कि जो मैं शब्दों से दे सकता था, मैंने दे दिया सबको; और जो मैं शब्दों से नहीं दे सकता था, वह मैं महाकाश्यप को देता हूं।
फिर महाकाश्यप की एक अलग परंपरा बनी शिष्यों की, जिसमें मौन हस्तांतरण की व्यवस्था हुई। उसमें अट्ठाईस महागुरु हुए भारत में। और शिष्य को तभी दान मिला उस ज्ञान का, जब वह इस घड़ी में आ गया धैर्य की। वर्षों क्षांति, प्रतीक्षा। और जरा भी अधैर्य नहीं कि कब हो। कब होने का सवाल ही नहीं, ना भी हो, तो चलेगा। जब इस अवस्था में कोई शिष्य आ गया, तो फिर महाकाश्यप की परंपरा का सूत्र मिला।
बोधिधर्म उसमें अट्ठाईसवां गुरु हुआ महाकाश्यप के बाद। और कहते हैं, बोधिधर्म भारत भर में घूमा, लेकिन कोई आदमी न मिल सका, जो इतना धैर्यवान हो, जिसे वह मौन में कुछ कहे और वह ले ले। तो उसे चीन जाना पड़ा। और तब चीन में छह गुरुओं की परंपरा चली। लेकिन फिर सातवां आदमी नहीं खोजा जा सका। वह जो फूल बुद्ध ने महाकाश्यप को दिया था, वह बड़ा पुरस्कार था महाकाश्यप के सतत मौन का और धैर्य का, चुपचाप प्रतीक्षा का।
इस महापथ पर जो यात्रा करते हैं, धैर्य के सत्व में उन्हें अपनी आत्मा को नहलाना होगा, उन्हें अनंत प्रतीक्षा की तैयारी करनी होगी। ऐसा नहीं है कि उन्हें अनंत प्रतीक्षा करनी पड़ेगी। यही उल्टी बात है। अनंत प्रतीक्षा की तैयारी होगी, तो क्षण भर में भी हो सकता है। और इसी क्षण पाने की चेष्टा होगी, तो अनंत में भी नहीं होगा। होने का मार्ग ही है कि मैं राजी हूं प्रतीक्षा के लिए। रोकने का उपाय यही है कि अभी हो। जीवन में जो भी महत्तर है वह ऐसा नहीं होता। अधैर्य के साथ उसका कोई संबंध नहीं। जो भी महान है जीवन में, उसकी पात्रता के लिए उतनी ही महान प्रतीक्षा चाहिए। हम परमात्मा को भी ऐसे चाहते हैं, जैसे बाजार गए हों, और कोई सामान खरीद लाए!
परमात्मा कोई वस्तु नहीं है। यह थोड़ा कठिन मालूम पड़ेगा।
परमात्मा एक भाव-दशा है, वस्तु नहीं।
और धैर्य, अनंत धैर्य ही आप में उस भाव-दशा को पैदा कर देता है, जिसे हम परमात्मा कहते हैं। कोई आता नहीं है बाहर से; आप ही मौन प्रतीक्षा करते-करते परमात्मा हो जाते हैं।
यह जल्दबाजी--अभी हो जाए--आपके भीतर उपद्रव बनाए रखती है; तूफान चलता रहता है। धैर्य में तूफान अपने आप खो जाता है। बुद्ध का बहुत जोर था, महावीर का बहुत जोर था धैर्य पर। और दुनिया
में कोई भी अध्यात्म की धारा नहीं है, जहां धैर्य पर जोर न हो। आपने पूछा कि कब होगा। जान लेना कभी न होगा। आप चुप रहे, मन में यह सवाल ही न उठे कि कब होगा अभी भी हो सकता है, इसी क्षण भी हो सकता है।
"धैर्य के सत्व में अपनी आत्मा को नहला'
चौबीस घंटे, जहां तक बन सके, जिस बात में भी बन सके, धैर्य रखना। और अगर थोड़े से आपको धैर्य के अनुभव हो जाएं, तो फिर आप अधैर्य कभी न करेंगे। सच तो यह है कि अधैर्य करके हम बिगाड़ते हैं सब। अधैर्य करके हम ही बिगाड़ देते हैं। फिर जितना बिगड़ जाता है, उतना अधैर्य और बढ़ जाता है। धैर्य करके हम साथ देते हैं और जितना धैर्य का साथ होता है, उतनी सफलता हो जाती है। सफलता हो जाती है, तो और भरोसा बढ़ जाता है और धैर्य की संभावना बढ़ जाती है। जीवन में दुष्टचक्र निर्मित होते हैं, आप अधैर्य करते हैं, काम बिगड़ जाता है। तो आप सोचते हैं कि इतना अधैर्य किया, तब भी बिगड़ गया। अगर धीरज रखते तो कहीं के न रहते, तो और अधैर्य करो, और जल्दबाजी मचाओ
मौसमी फूल उगाने हों, तो अधैर्य चल भी सकता है। लेकिन ऐसे वृक्ष लगाने हों जो कि शाश्वत हों, सनातन हों, और जिनमें फूल सदा ही आते रहें, और जो सदा युवा हों, सदा हरे हों, ऐसे शाश्वत वृक्ष लगाने हों, तो फिर मौसमी फूल लगाने वाला जो मन है, वह काम नहीं आएगा। उससे बचना होगा। भूमि चाहिए धैर्य की, तभी शाश्वत के बीज पनपते हैं। सूत्र कहता है, अपनी आंखों को बंद मत कर, और दोरजे (सुरक्षा के वज्र) से अपनी दृष्टि को मत हटा। काम के बाण उस व्यक्ति को विद्ध कर देते हैं, जो विराग को प्राप्त  है और क्या है? हड्डियां हैं, मांस है, मज्जा है, सौंदर्य कहां है? क्या है? इसका स्मरण रखो। इस स्मरण को गहरा करो, तो सुंदर स्त्री दिखाई पड़कर जो आकर्षण की धारा भीतर पैदा हो जाती है, जो वासना जग जाती है, उसके विपरीत एक कवच निर्मित हो जाएगा। सुंदर स्त्री के दिखाई पड़ने पर तब आपके भीतर कुछ भी न होगा। बुद्ध ने कहा है, स्त्री को उसके शरीर को भेदकर देखो। धन आकर्षित करे, तो धन के प्रति सजग होकर देखो कि उससे किसी को क्या मिला है? किसी को क्या मिल सकता है? लोभ पकड़े, क्रोध पकड़े, जो भी पकड़े, उसे सजग होकर देखो कि उससे क्या मिला है? और किसको क्या मिल सकता है? और तुम क्या पा सकोगे? अगर यह प्रतीति और यह विचार और यह निरीक्षण निरंतर चलता रहे, तो विराग का जन्म होता है।
विराग दोरजे है। विराग एक वैज्ञानिक प्रक्रिया है अपने चारों तरफ, चित्त के चारों तरफ एक सुरक्षा की दीवाल निर्मित करने की। तिब्बत में जब भी कोई साधक गहरी साधना में जाना चाहता है, तो गुरु पूछता है, क्या तुझे दोरजे उपलब्ध हो गया? अगर दोरजे मिल गया हो, तो ही आगे बढ़; क्योंकि खतरे हैं बिना दोरजे के।
साधारण आदमी को इतना खतरा नहीं है जितना साधक को खतरा है। साधारण आदमी को इतनी सुरक्षा की जरूरत भी नहीं है, ठीक वैसे ही जैसे साधारण नागरिक को कोई रक्षा-कवच पहनने की जरूरत नहीं है। लेकिन सैनिक युद्ध के मैदान पर जाए, तो उसे रक्षा-कवच की जरूरत है। साधारण आदमी ठीक है, वासनाओं से बिंध जाता है। तीर छिद जाते हैं, चलता जाता है।
लेकिन साधक तो किसी बड़ी यात्रा पर निकला है, जहां उसकी शक्ति अगर इन क्षुद्र बातों में खोती है, तो यात्रा असंभव हो जाएगी। और पहाड़ियों से गिरने का खतरा है। समतल भूमि पर तो आदमी चल भी सकता है। तो तिब्बत में वे कहते हैं कि उस यात्रा पर निकलने के पहले रक्षा-कवच, दोरजे, वज्र-कवच चाहिए। बौद्धों का एक संप्रदाय है वज्रयान। पूरी परंपरा ही इस वज्र के निर्मित करने पर खड़ी है। और यह वज्र निर्मित होता है।
अब तक तो ऐसा था कि यह बात सिर्फ ऐसी लगती थी काल्पनिक होगी, लेकिन अब तो वैज्ञानिक जांच की भी सुविधा है। अब ऐसे यंत्र निर्मित हो गए हैं, जो आपके पास रख दिए जाएं, तो आपकी विद्युतत्तरंगों की खबर देते हैं। अगर आप क्रोध से भरे हैं, तो यंत्र खबर देता है। अगर आप प्रेम से भरे हैं तो यंत्र खबर देता है। अगर आप बैठे हैं और एक सुंदर स्त्री आपके पास से निकले तो यंत्र खबर देता है कि आप प्रभावित हुए कि नहीं। एक हीरा आपके सामने पड़ा हो तो यंत्र खबर देता है कि आप लालायित हुए या नहीं। क्योंकि जब आप लालायित होते हैं तो आपकी विद्युत-ऊर्जा उस हीरे की तरफ बहनी शुरू हो जाती है। और जब लालायित नहीं होते तो आपके पास से कोई विद्युत-ऊर्जा नहीं बहती। हीरा वहां पड़ा होता है, आप यहां होते हैं, दोनों के बीच कोई संबंध नहीं होता। इस अवस्था का नाम विराम है।
भर्तृहरि के संबंध में कथा है। वह सारा राज्य छोड़कर चले गए। और वह असाधारण व्यक्ति थे भर्तृहरि। क्योंकि उन्होंने राग को इतना जाना, जितना शायद ही किसी ने जाना हो। उन्होंने भोग को इतना जाना, जितना शायद ही किसी ने जाना हो। और स्वभावतः जो भोग को इतना जान लेगा वह उससे छूट जाएगा।
अज्ञान में ही बंधन है।
और भर्तृहरि इतना भोगे कि ऊब गए। किताब लिखी है "शृंगार शतक'। उसमें बड़ी प्रशंसा की है सौंदर्य की, भोग की, राग की। इस संसार की प्रशंसा में वैसे वचन फिर नहीं कहे गए। उतना अनुभव का आदमी भी नहीं हुआ, जिसने शरीर में, काम में, यौन में ऐसी गति पाई हो--संसार जैसे परम अर्थों में भोगा गया है। लेकिन व्यर्थ हो गया।
फिर भर्तृहरि छोड़कर चले गए। दो किताबें लिखी हैं उन्होंने। फिर दूसरी किताब लिखी "वैराग्य शतक'। एक था "शृंगार शतक'। फिर लिखा "वैराग्य शतक'
भर्तृहरि जंगल में बैठे हैं एक दिन, तो एक बड़ी अदभुत घटना घटी। एक वृक्ष की आड़ में ध्यान कर रहे हैं। एक घुड़सवार दौड़ता हुआ आया। और जिस वक्त घुड़सवार की नजर नीचे गई, उसी वक्त भर्तृहरि की भी नजर नीचे गई। देखा कि बहुत बड़ा हीरा रास्ते पर पड़ा है। और उसी क्षण दूसरी तरफ से भी एक घुड़सवार आया और उसकी भी नजर हीरे पर पड़ी। एक क्षण में यह सब हो गया। और दोनों घुड़सवारों की तलवारें निकल गईं। क्योंकि वह हीरा दोनों को दिखाई पड़ गया था। और भर्तृहरि को भी दिखाई पड़ रहा है। दोनों ने तलवारें हीरे के पास टेक दीं और दोनों ने कहा कि नजर मेरी पहले पड़ी है और मालिक मैं हूं। थोड़ी ही देर में खून-खराबा हो गया। दोनों की छातियों में तलवारें घुस गईं। थोड़े ही क्षण में दोनों की लाशें पड़ी थीं और खून पड़ा था चारों तरफ। हीरा अपनी जगह पड़ा था।
भर्तृहरि हंसने लगे। उन्होंने कहा, अदभुत, जिसकी मालकियत की कोशिश की गयी और हीरे पड़े रह जाते हैं।
उस घड़ी अगर हम कुछ झांक सकते तो दो आदमी तीव्र वासनाओं से भरे हुए हीरे पर टिके थे। वे तलवारें ही हीरे के पास नहीं टिक गई थीं, उन दोनों की आत्माएं भी बाहर निकल कर उस हीरे के पास टिक गई थीं। तभी तो कोई अपनी जान दे को तैयार हो जाता है। वह हीरा उनके सारे जीवन के सत्व को खींच लिया। हीरे ने खींचा, ऐसा कहना ठीक नहीं, क्योंकि हीरे का कोई कसूर नहीं। हीरे को पता ही नहीं। वे खुद ही खिंच गए, असुरक्षित थे, कोई दोरजे उनके पास न था।
यह एक आदमी भर्तृहरि भी वहीं बैठा था। और यह हंसने लगा और इसे बड़ी हंसी आई, क्योंकि जीवन का सारा उपद्रव प्रत्यक्ष हो गया उस घटना से। यह सारा संघर्ष व्यक्तियों का, समाजों का, राष्ट्रों का, सब प्रगट हो गया--उस छोटी से घटना से। जिस पर हम लड़ते हैं, वह पड़ा रह जाता है और हम नष्ट हो जाते हैं।
भर्तृहरि ने आंखें बंद कर लीं। यह भर्तृहरि दोरजे में है। वह हीरा वहां पड़ा है, भर्तृहरि भी वहां हैं, लेकिन दोनों के बीच कोई संबंध निर्मित नहीं हो रहा है। भर्तृहरि यात्रा पर नहीं निकल रहे हैं हीरे की तरफ।
जीवन को जो जितना सजग होकर देखेगा, उतनी ही उसकी वासना क्षीण होती है और विराग का जन्म होता है।
विराग कोई राग की दुश्मनी नहीं, राग का अभाव है। इसलिए आप उनको विरागी मत समझ लेना, जो भागते हैं। यहां यह भी हो सकता था। भर्तृहरि देखते हीरे को और भाग खड़े होते वहां से कि यहां हीरा पड़ा है, यहां मैं नहीं रुक सकता--इसका मतलब था कि राग था, दोरजे नहीं था पास में। जो लोग भागते हैं संसार से, उनके पास दोरजे नहीं है, अन्यथा भागने की कोई जरूरत नहीं है। भागते इसलिए हैं कि डर है। अगर थोड़ी देर रुके तो हीरा जीत जाएगा और मैं हार जाऊंगा। इसलिए रुको ही मत। हीरा दिखे कि भाग खड़े होओ।
लेकिन भागने में ही तुमने खबर कर दी कि तुम्हारी यात्रा हीरे की तरफ हो गई। वह पत्थर का टुकड़ा न रहा, हीरा हो गया। और हीरा होते ही वासना प्रवेश कर गई। नहीं तो पत्थर का टुकड़ा है।
जो भागता है संसार से, वह विरागी नहीं है, वस्तुतः वह विपरीत रागी है। उसका भी राग है, लेकिन शीर्षासन करता हुआ राग है। वहां सिर टेक दिया है उसने, जहां आपके पैर टिके हैं। और मैं मानता हूं कि जहां पैर टिके हैं, वहां सिर टेकना कोई अच्छी बात नहीं। और उल्टा उपद्रव हो गया। पैर ही ठीक थे, हीरे पर सिर टेकने की क्या जरूरत?
विराग का अर्थ है: वह जो खींचता था, अब नहीं खींच पाता, क्योंकि मैं सुरक्षित हूं, क्योंकि मुझे दिखाई पड़ गई राग की व्यर्थता।
समझें इस फर्क को।
राग सार्थक है दोनों हालत में। अगर मैं हीरे को पकडूं, और राग सार्थक है विपरीत हालत में अगर मैं हीरे से भागूं। क्योंकि दोनों हालत में हीरा वजनी है और मैं कमजोर हूं। या तो हीरा अपनी तरफ खींच लेता है या अपने से हटा देता है। लेकिन दोनों हालत में हीरा पड़ा रहता है और मैं गतिवान हो जाता हूं। मैं कंपित हो जाता हूं, हीरा नहीं कंपता। एक पत्थर का टुकड़ा जीत जाता है, और मैं हार जाता हूं। इधर या उधर, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। लेकिन हीरे ने आपको चला दिया, चलायमान कर दिया। हीरे ने संसार निर्मित कर दिया।
यह मन का चलायमान हो जाना ही संसार है।
लेकिन एक और अवस्था भी है कि हीरा भी पड़ा है और आप भी हैं, लेकिन कोई गति नहीं हो रही आपके भीतर से। न हीरे की तरफ कुछ जा रहा है, न हीरे के विपरीत कुछ जा रहा है। कुछ हो ही नहीं रहा; हीरा ही पड़ा है, जैसे कोई भी पत्थर पड़ा हो। और हीरा पत्थर ही है। दिया हुआ मूल्य आदमी का है।
एक कोहिनूर को भी डालना और एक कंकड़ को भी डालना। कंकड़ जरा भी शर्मिदा न होगा कोहिनूर के सामने। और कंकड़ एक बार भी प्रार्थना न करेगा परमात्मा से कि मुझे कोहिनूर बना दो। कोहिनूर भी अकड़ कर नहीं बैठेगा कि मैं कोई हूं, कुछ खास हूं। पत्थर, पत्थर है।
अगर आदमी जमीन पर न हो, तो कोहिनूर में और कंकड़ में क्या फर्क होगा? कोई भी फर्क नहीं होगा। आदमी ने फर्क पैदा किया। आदमी को कोहिनूर पत्थर नहीं है। क्यों पत्थर नहीं है कोहिनूर? कोहिनूर में जो चमक है वह आदमी की वासना की चमक है। वह जो कोहिनूर में दिखाई पड़ रहा है, वह आदमी के भीतर का भाव है। आदमी अपने को उंडेल रहा है कोहिनूर में। और जो देख रहा है, वह अपनी ही सोई ऊर्जा है।
अगर व्यक्ति राग को ठीक से समझता जाए, तो विराग को उपलब्ध होता है। विराग वज्र है। और जब विराग की एक दीवाल चारों तरफ खड़ी हो जाती है तो आप इस भरे संसार में भी संसार से बाहर हो जाते हैं। फिर आप ठेठ बाजार में बैठे हुए हिमालय पर हो सकते हैं।
"अपनी आंखों को बंद मत कर, और दोरजे से अपनी दृष्टि को मत हटा'
संसार से आंखों को बंद मत कर, बंद करने से कुछ हल न होगा। संसार आंखों के भीतर खड़ा हो जाएगा। अगर कुछ करना ही है तो संसार से आंखों को हटा, दोरजे पर लगा; बंद मत कर। वह जो सुरक्षा हो सकती है, उस पर अपनी पूरी दृष्टि को लगा। विराग तेरी समस्त दृष्टि में बस जाए।
"काम के बाण उस व्यक्ति को बद्ध कर देते हैं, जो विराग को प्राप्त नहीं हुआ है। ' "कंपन से सावधान। भय की सांस के नीचे पड़ने से धैर्य की कुंजी में जंग लग जाता है और जंग लगी कुंजी ताले को नहीं खोल सकती। '
एक तो कुंजी का मिलना मुश्किल है। और मिल भी जाए तो हम उसे जंग लगा लेते हैं। धैर्य की कुंजी में जंग लग जाता है कंपन से, भय से।
"जितना ही तू आगे बढ़ता है, उतना ही तेरे पांव को खाई-खंदकों का सामना करना होता है। और जो मार्ग उधर जाता है, वह एक ही अग्नि से प्रकाशित है--साधक के हृदय में जलने वाली अग्नि से।'
वहां कोई बाहर का दीया साथ न देगा। और वहां कोई बाहरी प्रकाश नहीं है उस रास्ते पर। रास्ता अंधेरा है। और अगर कोई बाहरी प्रकाश के आधार से जा रहा है वहां तो नहीं जा सकेगा। क्योंकि वह अंधकार बाहरी प्रकाश से नहीं मिट सकता। वह अंधकार और तरह का अंधकार है। आपके दीए उसे नहीं मिटा सकेंगे। उस अंधकार को मिटाने के लिए एक ही दीया है, और वह है, साधक के हृदय में जलने वाली साहस की अग्नि।
भय बाधा है, साहस सीढ़ी है।
भय से विपरीत है साहस। साहस का क्या मतलब होता है?
साहस का मतलब होता है, जो अभी नहीं हुआ है, जो अभी प्रकट नहीं, उसके लिए चेष्टा; जो अभी अज्ञात में है, उसके लिए प्रयास।
भय का मतलब है, जो ज्ञात है, उसको पकड़ कर बैठ जाना।
आपका एक पैर जमीन पर है, जब आप एक कदम उठाते हैं जमीन से, तो आप अज्ञात में कदम उठा रहे हैं। अब यह पैर उस जमीन पर पड़ेगा, जिससे आप परिचित नहीं हैं। अगर आप भयभीत आदमी हैं, तो जिस जमीन पर आप खड़े हैं, उसको पकड़े रहें। अगर साहस के आदमी हैं तो जिस जमीन को जान लिया, उसको छोड़ें।
ध्यान रहे, भय पकड़ है, साहस त्याग है।
जो जान लिया, उसे छोड़ें। जिसे पहचान लिया और जिसमें कुछ भी न पाया, अब उसको खोने में डर क्या है? ज्यादा से ज्यादा यही होगा कि जो जमीन पैर के नीचे है, वह खो जाएगी। लेकिन वह जान ली गई है, जी ली गई है। अब उसका सार क्या है? नई भूमि का खतरा है। पता नहीं भूमि हो भी या न हो। इस खतरे के कारण साहस की जरूरत है। और धर्म की यात्रा तो निरंतर अज्ञात से अज्ञात में है।
जो हम जानते हैं, वह संसार है।
और जो हम नहीं जानते हैं, वह ही परमात्मा है।
उस अनजान में तो साहस की जरूरत पड़ेगी। तो पहले तो भय को हटा देना जरूरी है और फिर साहस को जन्माना जरूरी है।
"एक ही अग्नि से प्रकाशित है वह मार्ग--साधक के हृदय में जलने वाली अग्नि से। जितना ही कोई साहस करता है, वह उतना ही पाता है। और जितना ही वह डरता है, उतनी ही वह ज्योति मंद पड़ जाती है।'
जैसे दीया जलता है बाहर का, तो आपको पता है, आक्सीजन से जलता है, नाइट्रोजन से बुझता है। आक्सीजन न हो पास दीए के हवा में, तो दीया बुझने लगता है। नाइट्रोजन ज्यादा
हो, तो दीया बुझने लगता है। अगर तूफान चल रहा हो, और आपके घर के दीए के लिए डर पैदा हो जाए कि तूफान में बुझ न जाए, तो एक कांच का बर्तन उस पर ढांक देना बचाने के लिए। तूफान शायद न बुझा पाता, वह कांच का
ढंकने वाला बर्तन उसे शीघ्र ही बुझा देगा। क्योंकि कांच के ढंके बर्तन के भीतर बहुत थोड़ी आक्सीजन है; जल्दी ही जल जाएगी दीए में। नाइट्रोजन बचेगी, वह नाइट्रोजन बुझा देगी।
भीतर के दीए में भय नाइट्रोजन है और साहस आक्सीजन। वह भीतर का दीया जलता है जितना साहस हो, बुझता है जितना भय हो। और जैसे नाइट्रोजन और आक्सीजन का अपना रासायनिक विज्ञान है, वैसा ही उस भीतर का भी अपना रासायनिक विज्ञान है। तो सब उपायों से, जिन-जिन उपायों से साहस बढ़े, बढ़ाना है। और जिन-जिन उपायों से भय कम हो, वे-वे उपाय करना। तो ही वह ज्योति जलेगी, जो वहां साथ देगी।
एक साधक अपने गुरु के घर से विदा हो रहा था। रात थी अंधेरी। और उस साधक ने कहा, मैं रात यहीं रुक जाऊं; रात अंधेरी है और रास्ता अजान है, फिर कोई संगी-साथी भी नहीं। तो गुरु ने कहा कि मैं तुझे दीया जलाकर दे देता हूं, तू यह दीया लेकर चला जा। दीया जला कर गुरु ने दे दिया। वह साधक अपने हाथ में दीया लेकर सीढ़ियां उतर गया, तो आखिरी सीढ़ी पर गुरु ने कहा, एक क्षण रुक, और फूंक मार कर दीया बुझा दिया! उस साधक ने कहा, यह क्या खेल करते हैं आप?
गुरु ने कहा, इस अंधेरे रास्ते पर तो मैं तुझे दीया दे दूंगा, लेकिन मैं तुझे उस अंधेरे रास्ते पर कैसे दीया दे सकता हूं? और इस अंधेरे रास्ते पर भी तू बिना दीए के ही चल, अपने ही पैर की रोशनी से। बेहतर है कम से कम तुझे यह तो पता चले, कि अंधेरे में भी चला जा सकता है। तेरा साहस तो बढ़े। और फिर उस रास्ते पर, जिसका तू पथिक है, मैं कोई दीया तुझे न दे सकूंगा। अचानक मुझे खयाल आया, इसलिए मैंने फूंक मारकर बुझा दिया, कि जब असली रास्ते पर दीया न दे सकूंगा, तो नकली रास्ते पर भी दीया देने से क्या सार है। और यह दीया देकर मैं तेरा भय बढ़ा रहा हूं। दीया बुझा कर तेरा साहस बढ़ा रहा हूं। तू अंधेरे में उतर जा, रास्ता मिल ही जाएगा। और खोजना, अंधेरा भी कट ही जाएगा। कोई अंधेरा शाश्वत नहीं है। और फिर मेरे जलाए दीए का भरोसा क्या, मेरी एक फूंक ने बुझा दिया! बाहर देख, कितनी आंधी चल रही है? और जो एक फूंक से बुझ गया है, वह आंधी में बुझ जाएगा। तो जो बुझ ही जानेवाला है, उसे देने का भी क्या प्रयोजन है! अगर मैं तुझे ऐसा दीया नहीं दे सकता, जो बुझे नहीं, तो जो बुझ सकता है, उसे देने का भी कोई अर्थ नहीं।
यह बात मूल्यवान है और ध्यान में रखने की है कि उस रास्ते पर आपके भीतर की ज्योति ही काम पड़ेगी। और भय अगर ज्यादा हुआ, तो ज्योति आपके भीतर की नहीं जग सकती। साहस हुआ, तो जग सकती है।
"वह हृदय-ज्योति वैसी ही है, जैसे किसी ऊंचे पर्वत शिखर पर चमकने वाली सूर्य की अंतिम किरण, जिसके बुझने पर अंधेरी रात का आगमन होता है। जब वह ज्योति भी बुझ जाती है, तब तेरे ही हृदय से निकल कर एक काली और डरावनी छाया मार्ग पर पड़ेगी और तेरे भय-कं
चारों तरफ पड़ती है।
इस जगत और उस जगत के परमात्मा के नियम विपरीत हैं। ठीक ऐसे ही जैसे आप झील के किनारे जाकर खड़े हो जाएं और अगर मछलियां देखती हों झील की तो उन्हें आपका प्रतिबिंब जो दिखाई पड़ेगा, वह उलटा दिखाई पड़ेगा। सिर नीचे होगा और पैर ऊपर होंगे, और मछलियां समझेंगी कि आप उलटे खड़े हैं। लेकिन मछलियों को क्या पता कि झील के बाहर नियम उलटे हैं। झील के बाहर आदमी सीधा खड़ा है। जिनको हम सीधा कहते हैं झील के बाहर, वह झील में उलटा दिखाई पड़ता है। प्रतिबिम्ब उलटे हो जाते हैं। जिसे हम संसार कहते हैं, वह झील के भीतर पड़ा हुआ जगत है। यहां नियम उलटे हैं।
इस सूत्र को समझने के लिए कह रहा हूं कि यहां छाया तभी बनती है आपकी, जब आपके चारों तरफ रोशनी होती है। यहां प्रकाश होता है, तो ही छाया बनती है। वहां जब प्रकाश नहीं होता, तब छाया बनती है। वहां के नियम उलटे हैं। यहां अंधेरे में कोई छाया नहीं बनती। यहां आप अंधेरे में खड़े हो जाए८, तो कोई छाया नहीं बनेगी। इस जगत में छाया बनाने के लिए प्रकाश की जरूरत है। उस जगत का नियम उलटा है। वहां छाया बनती है तब, जब प्रकाश नहीं होता। और छाया मिट जाती है, जब प्रकाश होता है। अगर आपके आसपास अंधेरा पता चलता हो, तो भय को कम करना और साहस को बढ़ाना। यहां हम ध्यान में लगे हैं, वह भी भय कम करने और साहस को बढ़ाने का उपाय है। हजार तरह से यह हो सकता है। कभी छोटी-छोटी बातों से हो जाता है।
एक महिला ने, भारतीय महिला ने मुझे आकर कहा कि विदेशी महिलाएं नग्न हो जाती हैं, हमारी इतनी हिम्मत नहीं है। क्या बिना नग्न हुए घटना न घटेगी? नग्न होने से घटना घटने का कोई संबंध नहीं, संबंध किसी और बात से है। वह बात है भय और साहस की। वह जो सरलता से नग्न खड़ा हो गया, उसने बहुत सा भय छोड़ा है। वह कितना ही क्षुद्र मालूम पड़े कि कपड़े छोड़ने से क्या हुआ, कपड़ा नहीं छोड़ा उसने। कपड़े ही छोड़ा होता, तो कुछ भी न होता। लेकिन कपड़ा छोड़ने के पीछे कपड़े में छिपा हुआ जो भय है, वह भी छोड़ा।
लोग मुझसे आकर पूछते हैं, कपड़ा छोड़ने से क्या होगा? कपड़ा छोड़ने की बात ही नहीं है यहां। लेकिन कपड़ा पकड़े हुए क्यों हैं? और छोड़ने से कुछ नहीं होगा, तो पकड़ने से क्या हो जाएगा? वह जो पकड़ है, वह भय है भीतर। फिर बहाने हम कोई भी खोज ले सकते हैं। क्योंकि हम अपने भय को भी रेशनलाइज करते हैं, उसके भी तर्क बिठाते हैं। वह जो नग्न खड़ा हो जा रहा है, वह एक भय छोड़ रहा है और एक साहस कर रहा है। हो सकता है, शरीर उसका कुरूप हो, और लोग क्या कहेंगे? जिस शरीर को हजारों-हजार--से खुद भी नहीं देखा है दूसरों के देखने का तो सवाल ही नहीं है। उसे लोग देख कर क्या कहेंगे! क्या सोचेंगे! शरीर की नग्नता भी तो अपने को अनावृत छोड़ देना है लोगों के लिए। पागल समझेंगे, अनैतिक समझेंगे, अधार्मिक समझेंगे, बुरा समझेंगे--क्या समझेंगे लोग! वह सारा भय भीतर पकड़ रहा है; उस भय को छोड़ने की बात है। वस्त्र के साथ वह भी कभी गिरता है; वस्त्र के गिरने के साथ कभी भीतर साहस का भी जन्म होता है।
मुझे याद आती है एक घटना। अमेरिका का एक युवा कवि है जिन्सबर्ग। बड़ी अजीब सी घटना उसके कवि सम्मेलन में घटी। केलिफोर्निया में एक कवि सम्मेलन में वह अपने गीत पढ़ रहा था। गीत में ऐसे शब्दों का भी उपयोग था, जिनको हम अश्लील कहते हैं। लेकिन जिन्सबर्ग का यह कहना है कि वे अश्लील शब्द नहीं हैं और हम उन्हें अश्लील इसलिए तो कहते हैं कि शरीर के कुछ अंगों को अश्लील कहते हैं, और वे हमारे अंग भी हैं। और जो है, उसकी कितनी ही निंदा करो, उससे कोई छुटकारा नहीं। जो है, वह है, यथार्थ है। इसलिए वह अश्लील शब्दों का भी सहज प्रयोग करता है। लोग गुस्से में आ गए। और एक आदमी ने खड़े होकर कहा कि क्या तुम यह समझ रहे हो कि अश्लील शब्दों का कविता में उपयोग कर लिया, तो कोई बड़ा साहस किया।
तो जिन्सबर्ग ने कहा कि अब साहस की ही बात आ गई, तो तुम आ जाओ मंच पर और नग्न हो जाओ, या मैं नग्न हो जाता हूं। वह आदमी घबड़ाया; क्योंकि उसने यह नहीं सोचा था कि मामला यहां आ जाएगा। और जिन्सबर्ग कपड़े उतार कर नग्न खड़ा हो गया। और उसने कहा कि जो मैं कविता में कह रहा हूं, वह कविता में नहीं कह रहा हूं, बल्कि मैं मनुष्य को उसके पूरे यथार्थ में स्वीकार करता हूं। मेरे मन में कोई निंदा नहीं है।
और कितने ही वस्त्र ढांको, आदमी भीतर नंगा है। वस्त्र ढांकने में कुछ भय है। तो उस महिला को मैंने कहा कि नहीं, ऐसी चिंता की कोई बात नहीं है। वस्त्र छोड़ना आवश्यक नहीं है। ध्यान बिना वस्त्र छोड़े भी हो जाता है; हो गया है बहुतों को। बुद्ध ने कभी वस्त्र नहीं छोड़े और ध्यान हो गया। महावीर ने छोड़े और ध्यान हो गया। कोई वस्त्र छोड़ने से ध्यान के होने न होने की बात नहीं है। वह महिला बहुत प्रसन्न हो गई। उसने कहा, तब बिलकुल ठीक है।
क्या बिलकुल ठीक है? कौन सी चीज बिलकुल ठीक है? ध्यान के बहाने भय है, बच गए। ऐसी जटिलता है आदमी के मन की। छोटे-छोटे भी भय छोड़ें। छोटे-छोटे भी साहस करें। एक-एक कदम उठाते-उठाते हजारों मील की यात्रा भी पूरी हो जाती है।

आज इतना ही।


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