कायेन
मनसा बुद्धया
केवलैरिन्द्रियैरपि।
योगिनः
कर्म कुर्वन्ति
सङ्गं त्यक्त्वात्मशुद्धये।।
11।।
इसलिए
निष्काम
कर्मयोगी
ममत्व बुद्धिरहित
केवल इंद्रिय, मन,
बुद्धि और
शरीर द्वारा
भी आसक्ति को
त्यागकर अंतःकरण
की शुद्धि के
लिए कर्म करते
हैं।
ममत्व
बुद्धि को
त्यागकर
अंतःकरण की
शुद्धि के लिए, जो
जानते हैं, वे पुरुष
शरीर, मन, इंद्रियों
से काम करते
हैं।
इस
संबंध में दोत्तीन
बातें खयाल
में ले लेनी
चाहिए।
एक, मनुष्य
ने जो भी किया
है अनंत जीवन
में, आज तक,
इस घड़ी तक, उस कर्म का
एक बड़ा जाल
है। और आज ही
मैं सब करना बंद
कर दूं, तो
भी मेरे पिछले
अतीत जन्मों
के कर्मों का
जाल टूट नहीं
जाता है। उसका
मोमेंटम
है। जैसे मैं
साइकिल चला
रहा हूं। पैडल
बंद कर दिए
हैं, अब
नहीं चला रहा
हूं, लेकिन
साइकिल चली जा
रही है--मोमेंटम
है।
दो मील से
चलाता हुआ आ
रहा हूं, साइकिल
के चाकों
ने गति पकड़ ली
है। अगर
दो-चार-पांच
मिनट मैं बंद
भी कर दूं, तो
भी साइकिल
चलती चली जाती
है। फिर अगर
उतार हो जीवन
में, तब तो
मीलों भी चली
जा सकती है। चढ़ाव हो, तो जल्दी
रुक जाएगी।
और
जीवन में
हमारे उतार है, चढ़ाव
नहीं है। जैसे
हम जीते हैं, वह सदा ही
उतार में जीते
हैं--और नीचे, और नीचे, और
नीचे। बच्चे
शिखर पर होते
हैं, बूढ़े
घाटियों में
पहुंच जाते
हैं। होना
नहीं चाहिए।
होना चाहिए
उलटा, होता
यही है। बच्चे
एकदम पवित्र
सुगंध लेकर आते
हैं, बूढ़े
सिवाय
दुर्गंध के और
कुछ भी लेकर जाते
हुए मालूम
नहीं पड़ते
हैं। जिंदगी
में हम कमाते
कम, लुटते
ज्यादा हैं।
पाते कम, खोते
ज्यादा हैं।
जिंदगी
एक उतार है
हमारी। रोज हम
नीचे उतरते जाते
हैं। कल जिसने
चोरी की थी, वह
आज और भी
ज्यादा चोरी
करेगा। कल जो
झूठ बोला था, आज वह और भी
ज्यादा झूठ
बोलेगा। कल जो
क्रोधी था, वह आज और
क्रोधी हो
जाएगा। और रोज
यह क्रोध, यह
हिंसा, यह
घृणा, यह
काम, यह
वासना, रोज
बढ़ते चले
जाएंगे। फिर
मन एक निश्चित
आदत बना लेता
है। फिर अपनी
आदतों को
दोहराए जाता
है, बढ़ाए चला जाता
है।
हम
उतार पर हैं।
बच्चे
श्रद्धा से
भरे होते हैं, बूढ़े
चालाकी से भर
जाते हैं।
बच्चे सरल
होते, बूढ़े
जटिल हो जाते
हैं। जिंदगी
के सारे अनुभव
उन्हें और गङ्ढों
में पहुंचा
देते हैं।
तो हम
उतार पर हैं, एक
तो यह बात
खयाल में ले
लें। और अनंत
जन्मों का
हमारे कर्मों
का मोमेंटम
है, गति
है। अगर मैं
आज सारे काम
बंद भी कर दूं,
तो कोई अंतर
नहीं पड़ता; मेरा मन फिर
भी उतरता चला
जाएगा।
इसलिए
कृष्ण ने
इसमें एक बहुत
अदभुत बात
कही। उन्होंने
कहा है कि ऐसे
पुरुष, जो
निष्काम कर्म
में जीते हैं,
वे अपने
पिछले कर्मों
की जो गति है, उसे काटने
के लिए कर्म
में रत होते
हैं। वह जो उन्होंने
गति दी है
पिछले जन्मों
में अपने
कर्मों की, वह जो किया
है, उसे अनडन
करने के लिए, उसे पोंछ
डालने के लिए,
कर्म में रत
होते हैं।
अगर
उन्होंने
क्रोध किया है
अतीत जन्मों
में,
तो वे क्षमा
के कर्म में
लग जाते हैं।
अगर उन्होंने
कठोरता और
क्रूरता की है,
तो वे करुणा
के कृत्य में
लीन हो जाते
हैं। अगर
उन्होंने
वासना और
कामना में ही
जीवन को
बिताया है
अनंत-अनंत बार,
तो अब वे
सेवा में जीवन
को लगा देते
हैं। ठीक जो
उन्होंने
किया है अब तक,
उससे
बिलकुल
विपरीत, उतार
की तरफ जाने
वाला नहीं, चढ़ाव की तरफ जाने
वाला कर्म वे
शुरू कर देते
हैं।
लेकिन
उसमें भी एक
शर्त कृष्ण की
है। और वह जिसे
खयाल में न
रहेगी, वह
भूल में पड़
सकता है। वह
शर्त यह है कि
ममत्व को
छोड़कर!
क्योंकि कोई
आदमी ममत्व के
साथ, और
ऊपर की यात्रा
करना चाहे, तो गलती में
है, यह
असंभव है।
ममत्व
नीचे की
यात्रा पर
सहयोगी है, ममत्व
ऊपर की यात्रा
पर बाधा है।
कर्म निर्मित
करने हों, तो
ममत्व कीमिया
है, केमिस्ट्री
है। उसके बिना
कर्म निर्मित
नहीं होते। और
कर्म काटने
हों, तो
ममत्व तत्काल
ही अलग कर
देना जरूरी है,
अन्यथा
कर्म कटते
नहीं।
ममत्व
से अर्थ क्या
है?
ममत्व से
अर्थ है, एक
तो हूं मैं, जैसे मैं
खड़ा हो जाऊं
धूप में, तो
एक तो मैं हूं
जो खड़ा हूं, और धूप में
मेरी एक छाया
बनेगी। वह
छाया मेरे चारों
तरफ, जहां
मैं जाऊंगा,
घूमती
रहेगी। मैं तो
ईगो है और
ममत्व ईगो की
छाया है, अहंकार
की छाया है।
मैं तो मेरा
खयाल है कि मैं
हूं; और
मैं अकेला
नहीं हो सकता,
इसलिए मैं
मेरे के एक
जाल को फैलाता
हूं अपने चारों
तरफ।
मेरे
के बिना मैं
के खड़े होने
में बड़ी
कठिनाई है।
इसलिए मेरे की
छाया जितनी
बड़ी हो, उतना
ही लगता है कि
मैं बड़ा हूं।
मेरा धन, मेरे
मित्र, मेरा
परिवार, मेरा
मकान, मेरा
महल, मेरे
पद जितने बड़े
हों...।
मैंने
सुना है, एक
दिन सुबह-सुबह
एक लोमड़ी
शिकार के लिए
निकली है। चली
है शिकार को।
देखा है कि
उसकी बड़ी लंबी
छाया बनती है।
सूरज निकल रहा
है पीछे, बड़ी
लंबी छाया है!
उस लोमड़ी
ने अपनी छाया
देखी और सोचा,
आज तो एक
ऊंट शिकार को
मिल जाए, तभी
काम चलेगा!
स्वभावतः, इतनी
बड़ी छाया बनती
है, तो लोमड़ी
छोटी नहीं हो
सकती! लोमड़ी
के तर्क में
कहीं कोई गलती
नहीं है। गणित
ठीक है। इतनी
बड़ी छाया बन
रही है कि एक
ऊंट मिले शिकार
में, तो ही
काम चल सकेगा,
लोमड़ी ने सोचा।
दिनभर
खोजते दोपहर
हो गई है।
शिकार मिला
नहीं। सूरज
सिर पर आ गया
है। लोमड़ी
भूखी है। नीचे
की तरफ देखा, छाया
बड़ी छोटी बनती
है, न के
बराबर। उसने
कहा, क्या
हुआ! क्या भूख
में मैं इतनी
सिकुड़ गई? अब
तो एक चींटी
भी मिल जाए, तो शायद काम
चल जाए!
लोमड़ी का
तर्क ठीक है।
हम अपनी छाया
से ही सोचते
हैं कि हम
कितने बड़े
हैं। छाया को
नाप लेते हैं, सोच
लेते हैं कि
इतने बड़े हैं।
अगर छाया बड़ी
है मेरे
की--मेरा मकान
बड़ा है, तो
मैं बड़ा; और
अगर मेरा मकान
छोटा है, तो
मैं छोटा।
मेरे धन का
ढेर बड़ा है, तो मैं बड़ा; और मेरे धन
का ढेर छोटा
है, तो मैं
छोटा। मुझे
नमस्कार करने
वाले लोग ज्यादा
हैं, तो
मैं बड़ा; और
मुझे नमस्कार
करने वाले लोग
थोड़े हैं, तो
मैं छोटा!
छाया!
और
जिंदगी के
शुरू में सभी
को वही भूल
होती है, जो उस लोमड़ी को
हुई थी। जब
जिंदगी शुरू
होती है, तो
हर आदमी सोचता
है कि मैं!
मेरे जैसा कोई
भी नहीं। सारी
जमीन भी छोटी
पड़ेगी। और जब
जिंदगी अंत
होने के करीब
आती है, तो
पता चलता है
कि अब तो कुछ
भी नहीं रहा, छाया सिकुड़
गई है!
हम
छाया को देखकर
जीते हैं, इसलिए
हम छाया को
बढ़ाते रहते
हैं, बड़ा
करने की कोशिश
में लगे रहते
हैं। मेरे का अर्थ
है, मैं की
छाया, शैडो
आफ दि ईगो।
मैं तो झूठा
है। ध्यान रहे,
कोई भी झूठ
खड़ा करना हो, तो और
पच्चीस झूठ का
सहारा लेना
पड़ता है। सत्य
को खड़ा करना
हो, तो
सत्य अकेला
खड़ा हो जाता
है, इंडिपेन्डेंट,
स्वतंत्र।
कोई झूठ अकेला
खड़ा नहीं
होता। किसी
झूठ को आप
अकेला कभी खड़ा
नहीं कर सकते;
उसको तो
बैसाखियां
लगानी पड़ती
हैं और नए
झूठों की।
झूठ को
खड़ा करना हो, तो
पच्चीस झूठों
का जाल खड़ा
करना पड़ता है।
और ऐसा नहीं
है कि बात
यहीं समाप्त
हो जाती है। वे
जो पच्चीस झूठ
आपने खड़े किए,
प्रत्येक
उनमें से एक
के लिए भी
पच्चीस। और यह
इनफिनिट रिग्रेस
है। और यह रोज
करते रहना
पड़ेगा।
मैं
बड़ा से बड़ा
झूठ है मनुष्य
की जिंदगी
में। अगर इस
अस्तित्व में
किसी को मैं
कहने का हक हो सकता
है न्यायसंगत, तो
वह सिवाय
परमात्मा के
और किसी को
नहीं हो सकता
है। लेकिन
उसने कभी कहा
नहीं कि मैं
हूं। लोग बहुत
दफे चिल्लाकर
पूछते हैं, कहां हो तुम?
तो भी बोलता
नहीं। लोग
खोजने भी निकल
जाते हैं, पहाड़
की कंदराओं को
खोद डालते हैं,
नदियों के
उदगम तक चले
जाते हैं, सारी
जमीन छान
डालते हैं, आकाश-पाताल
एक कर देते
हैं, फिर
भी उसका पता
नहीं चलता कि
कहां है वह!
जिसे
अधिकार है
कहने का कि कह
सके मैं, वह
चुप है। और
जिन्हें कोई
अधिकार नहीं
है, वे जिंदगीभर
सुबह से सांझ
तक बोलते रहते
हैं--मैं, मैं,
मैं। शायद
इसीलिए
परमात्मा
नहीं बोलता, क्योंकि वह
आश्वस्त है कि
है। और हम
इसीलिए बोलते
हैं कि हमें
कोई भरोसा
नहीं है। बोल-बोलकर
भरोसा पैदा
करते रहते हैं
कि हूं! चौबीस
घंटे दोहरा-दोहराकर
भरोसा पैदा
करते रहते हैं
अपने ही मन
में, आटोहिप्नोटिक,
खुद को
सम्मोहित
करते रहते हैं
कि मैं हूं।
इसलिए अगर कोई
आपके मैं को
जरा-सी भी चोट
पहुंचा दे, तो आप तिलमिला
उठते हैं।
क्योंकि आपका
झूठ बिखर सकता
है।
इस मैं
के बड़े झूठ को
खड़ा करने के
लिए मेरे का जाल
फैलाना पड़ता
है,
उसको कृष्ण
ममत्व कहते
हैं। मेरे का
जाल।
मैं
अकेला खड़ा
नहीं रह सकता।
अगर आपसे आपका
मकान छीन लिया
जाए,
तो आप यह मत
सोचना कि
सिर्फ मकान छिना, आपके
मैं की भी
दीवालें गिर
गई हैं। अगर
आपसे आपका धन
छीन लिया जाए,
तो सिर्फ तिजोड़ी
खाली नहीं
होती, आप
भी खाली हो
जाते हैं।
आपसे आपका पद
छीन लिया जाए,
तो पद ही
नहीं छिनता, आपके भीतर
की अकड़ भी छिन
जाती है।
वह मैं
मेरे के छिनने
से क्षीण होता
है। मेरे के
बढ़ने से बड़ा
होता है। तो
जिसे भी धोखे
में रखना है
अपने को कि
मैं हूं, उसे
मेरे को बनाए
जाना चाहिए, बढ़ाए जाना
चाहिए। और
जिसे धोखा
तोड़ना हो, उसे
ममत्व को
छोड़कर देखना
चाहिए कि मेरे
को छोड़कर मैं
बचता हूं?
जिसने
मेरे को छोड़ा, वह
अचानक पाता है,
मैं भी खो
गया। और जब तक
मैं न खो जाए, तब तक
कर्मों की
धारा बंद नहीं
होती। और जब
तक मेरा न खो
जाए और मैं न
खो जाए, तब
तक ऊर्ध्व
यात्रा, ऊपर
की यात्रा
शुरू नहीं
होती। मैं का
पत्थर हमारी
गर्दन में
लटका हुआ हमें
नीचे डुबाए
चला जाता है।
अहंकार
से बड़ा पाप
नहीं है। बाकी
सारे पाप उसी
से पैदा होते
हैं। संततियां
हैं। मूल
अहंकार है।
फिर लोभ, और
क्रोध, और
काम, सब उस
अहंकार के
आस-पास जन्म
लेते चले जाते
हैं।
इसलिए
कृष्ण कहते
हैं,
ममत्व को छोड़
दे जो!
मेरा
क्या है? हाथ, जब मैं विदा होंऊगा, बिलकुल खाली
होंगे। और
जिसे मैं ले
जा न सकूंगा, वह मेरा
कैसे है? और
जिसे मैं मेरा
कह रहा हूं, वह मेरे
पहले भी था; मैं उसे
लाया नहीं, वह मेरा
कैसे है? और
जिसे मैं मेरा
कह रहा हूं, मुझसे पहले
न मालूम कितने
लोगों ने उसे
मेरा कहा है।
वे सब खो गए।
वह अभी भी बना है।
हम भी खो
जाएंगे, वह
फिर भी बना
रहेगा।
जमीन
को हम कहते
हैं,
मेरी जमीन।
उस जमीन ने
हमारे जैसे
बहुत-से पागल
देखे हैं।
जिन्होंने
मेरे की घोषणा
की, लड़े, कटे और
मिट्टी में खो
गए। वह जमीन
हंसती होगी कि
दावेदार खोते
नहीं! वही
पुराना दावा
जारी रहता है!
कितने लोग
दावेदार हो
चुके हैं उस
जमीन के टुकड़े
के, जिसके
आप भी दावेदार
हैं! कितने
लोगों ने नहीं
कहा कि मेरा
है। फिर वे सब
मेरे का दावा
करने वाले लोग
खो गए; वह
जमीन अपनी जगह
पड़ी है। वह
जमीन हंसती
होगी, जब
आप अपने घर पर
तख्ती लगाते
होंगे कि मेरी
जमीन, तब
जमीन जरूर मुस्कुराती
होगी कि फिर
कोई पागल आ
गया! फिर वही
भूल!
इस
दुनिया में नई
भूलें करने
वाले लोग तक
खोजना
मुश्किल हैं।
लोग पुरानी
भूलें ही किए
चले जाते हैं।
नई भूल करना
है भी
मुश्किल।
आदमी सब भूलें
कर चुका है; हजारों
बार कर चुका
है।
कृष्ण
कहते हैं, ममत्व
छूट जाए, कर्म
जारी रहे, तो
ऊर्ध्व
यात्रा शुरू
हो जाती है।
अतीत के कर्म
कटते हैं और
आदमी ऊपर उठता
है।
लेकिन
ममत्व बहुत
गहरा है। धन
का तो है ही, पद
का तो है ही; ज्ञान का और
त्याग तक का
ममत्व होता
है। आदमी कहता
है, मैं इतना
जानता हूं।
जानने पर भी
मेरे को हावी
कर लेता है।
हद हो गई!
ममत्व अज्ञान
का हो, तो
समझ में आ
सकता है।
ज्ञान का भी
ममत्व!
इसलिए
उपनिषद कहते
हैं कि
अज्ञानी तो
भटकते ही हैं
अंधकार में, कभी-कभी
ज्ञानी महा
अंधकार में
भटक जाते हैं।
अगर किसी ने
ज्ञान पर कहा
कि मेरा, तो
वह अज्ञानी से
भी लंबी भटकन
में पड़ जाएगा।
क्योंकि
अज्ञानी
क्षमा किया जा
सकता है; ज्ञानी
क्षमा नहीं
किया जा सकता।
त्याग
को भी लोग
कहते हैं, मेरा।
आदमी बहुत
अदभुत है। एक
आदमी कहता है,
धन मेरा; एक आदमी
कहता है कि धन
मेरा था, अब
त्याग मेरा
है। मैंने लाख
रुपये त्याग
कर दिए! अब वह
त्याग पर भी
मेरे होने का
दावा करता है।
धन पर कोई
दावा करे, समझ
में आता है; पागल है।
लेकिन त्याग
का भी कोई
दावा करे, तब
तो महा पागल
है। एक आदमी
कहता है, मेरे
पास लाख रुपए
हैं। अकड़कर
चलता है
रास्ते पर।
दूसरा आदमी
कहता है, मैंने
लाख रुपए
त्याग कर दिए
हैं। वह और भी
ज्यादा अकड़कर
चलता है
रास्ते पर।
त्याग भी
मेरा! तब लगता
है कि आदमी के
पागलपन की कोई
सीमा नहीं है
और अहंकार की
तरकीबों का
कोई अंत नहीं
है। वह कहीं से
भी रास्ता खोज
लेता है।
इस
पृथ्वी पर जो
मान ले कि मैं
अज्ञानी हूं, समझना
कि उसने ज्ञान
का बहुत बड़ा
कदम उठाया। जो
मान ले कि मैं
भोगी हूं, समझना
कि उसने त्याग
का बहुत बड़ा
कदम उठाया। क्योंकि
यह मान्यता, यह समझ
विनम्र कर
जाती है और
अहंकार को तोड़ती
है। लेकिन इस
पृथ्वी पर कोई
मानने को राजी
नहीं है कि
मैं अज्ञानी
हूं।
मैंने
सुना है कि एक
ज्ञानी एक
चर्च में गया, एक
पादरी। और जो
भी
धर्मशास्त्र
पढ़ लेते हैं, वे ज्ञानी
हो जाते हैं!
ज्ञानी होना
बड़ा सरल है! है
नहीं, मान
लेना बहुत सरल
है। उस पादरी
को खयाल है कि मैं
जानता हूं।
आते ही उसने
पहली धाक
लोगों पर जमा
देनी चाही।
उसने खड़े होकर
लोगों से कहा
कि मैं तुमको
समझाऊंगा बाद
में, पहले
मैं यह पूछ
लूं कि तुम
में कोई
अज्ञानी हो, तो खड़ा हो
जाए।
कौन
खड़ा होता! लोग
एक-दूसरे की
तरफ देखने
लगे। जैसे मैं
आपसे पूछूं
कि कोई
अज्ञानी हो, तो
खड़ा हो जाए।
तो जो जिसको
अज्ञानी
समझता होगा--अपने
को छोड़कर ही
समझेगा
सदा--वह उसकी
तरफ देखेगा कि
फलां खड़ा हो
रहा है कि नहीं?
अब तक खड़ा
नहीं हुआ!
पत्नी पति की
तरफ देखेगी, पति पत्नी
की तरफ देखेगा;
बाप बेटे की
तरफ देखेगा, बेटा बाप की
तरफ देखेगा कि
अभी तक खड़े
नहीं हो रहे!
कोई खड़ा नहीं
होगा।
कोई
खड़ा नहीं हुआ।
उस पादरी ने
कहा,
कोई भी अज्ञानी
नहीं है? धक्का
लगा उसे।
क्योंकि वह
सोचता था, वह
ज्ञानी है। और
जब कोई भी खड़ा
नहीं होता, तो सभी
ज्ञानी हैं!
तभी एक डरा
हुआ सा आदमी, बहुत
दीन-हीन सा
आदमी झिझकता
हुआ, चुपचाप
उठकर खड़ा हो
गया। उस पादरी
ने कहा, आश्चर्य!
चलो, एक
आदमी तो
अज्ञानी
मिला। क्या
तुम अपने को
अज्ञानी
समझते हो? उसने
कहा कि नहीं
महानुभाव, आपको
अकेला खड़ा
देखकर मुझे
बड़ी शर्म
मालूम पड़ती है,
इसलिए मैं
खड़ा हो गया
हूं। आप अकेले
ही खड़े हैं!
अच्छा नहीं
मालूम पड़ता, शिष्टाचार
नहीं मालूम
पड़ता। आप
अजनबी हैं, बाहर से आए
हैं। इसलिए
मैं खड़ा हो
गया हूं, अज्ञानी
मैं नहीं हूं।
इस
पृथ्वी पर कोई
अपने को
अज्ञानी
मानने को राजी
नहीं है। कोई
अपने को भोगी
मानने को राजी
नहीं है। कोई
अपने को
अहंकारी
मानने को राजी
नहीं है। कोई
अपने को ममत्व
से घिरा है, ऐसा
मानने को राजी
नहीं है। और
सब ऐसे हैं।
और जब बीमारी
अस्वीकार की
जाए, तो
उसे ठीक करना
मुश्किल हो
जाता है।
बीमारी स्वीकार
की जाए, तो
उसका इलाज हो
सकता है, निदान
हो सकता है, चिकित्सा हो
सकती है।
देख
लेना ठीक से।
कृष्ण कहते
हैं,
ममत्व को
छोड़ देता है
जो!
पर
ममत्व को
मानना पहले कि
ममत्व है आपकी
जिंदगी में, तभी
छोड़ सकेंगे।
जो बहुत चालाक
हैं, वे
कहेंगे, छोड़ना
क्या है!
ममत्व तो
हमारी जिंदगी
में है ही
नहीं। धोखा
पक्का हो गया।
ममत्व
है। लगता है, कोई
मेरा है--चाहे
पत्नी, चाहे
पिता, चाहे
मां, चाहे
बेटा, चाहे
मित्र, चाहे
शत्रु--मेरा
है! शत्रु तक
से ममत्व होता
है। इसलिए
ध्यान रखना, जब शत्रु
मरता है, तब
भी आप कुछ कम
हो जाते हैं, समथिंग लेस।
क्योंकि उसकी
वजह से भी
आपमें कुछ था।
वह भी आपको
कुछ बल देता
था। उसके
खिलाफ लड़कर
भी कुछ कमाई
चलती थी। वह
भी आपके ममत्व
का हिस्सा था।
ममत्व
जो छोड़ दे, फिर
भी कर्म में
संलग्न हो।
इंद्रियों और
शरीर के
कर्मों को
करता चला जाए,
इसलिए ताकि
पिछले कर्मों
की गति कटे और
कर्म-बंधन से
मुक्ति हो, ऐसे व्यक्ति
को कृष्ण
निष्काम
कर्मयोगी कहते
हैं।
युक्तः कर्मफलं त्यक्त्वा
शान्तिमाप्नोति
नैष्ठिकीम्।
अयुक्तः कामकारेण फलै सक्तो
निबध्यते।।
11।।
इसी
से निष्काम
कर्मयोगी
कर्मों के फल
को परमेश्वर
के अर्पण करके
भगवत
प्राप्ति रूप
शांति को
प्राप्त होता
है। और सकामी
पुरुष फल में
आसक्त हुआ
कामना के
द्वारा बंधता
है।
दो ही
प्रकार के
वर्ग हैं जगत
में,
दो ही
प्रकार के लोग
हैं जगत में, सकामी और निष्कामी।
आध्यात्मिक
अर्थों में दो
ही विभाजन हो
सकते हैं। वे,
जो कर्म में
लीन होते हैं
तभी, जब फल
की आकांक्षा
से
उत्प्रेरित
होते हैं। जब
तक फल की
आकांक्षा का
तेल न मिले, तब तक उनके
कर्म की
ज्योति जलती
नहीं। फ्यूल
जो है, वह
फल की
आकांक्षा से
मिलता है। वह
जो ईंधन है, उसके बिना
उनकी कर्म की
अग्नि जलती
नहीं। उनके
कर्म की अग्नि
को जरूरी है कि
ईंधन मिले फल
की आकांक्षा
का।
और
ध्यान रहे, फल
की आकांक्षा
बड़ी गीली चीज
है; सूखी
चीज नहीं है।
होगी ही गीली।
क्योंकि सूखी
चीज भविष्य
में कभी नहीं
होती। सूखी
चीज सदा अतीत
में होती है।
भविष्य में तो
गीली आकांक्षाएं
होती हैं। हो
सकता है, हो
भी जाएं; हो
सकता है, न
भी हों। पता
नहीं क्या
मार्ग लें, क्या फल आए।
कुछ पक्का
नहीं होता।
भविष्य
बहुत गीला है।
गीली लकड़ी की
तरह है; मुड़ेगा;
मुड़ सकता
है। अतीत सूखा
होता है, सूखी
लकड़ी की तरह; मुड़ नहीं
सकता। भविष्य
की
आकांक्षाओं
को जो ईंधन
बनाते हैं
अपने जीवन की
कर्म-अग्नि
में, धुएं
से भर जाते
हैं। गीला है
ईंधन। हाथ में
फल नहीं लगता
है, सिर्फ
धुआं लगता
है--दुख--आंखों
में आंसू भर
जाते हैं धुएं
से, और कुछ
परिणाम नहीं
लगता है हाथ
में।
एक तो
इस तरह के लोग
हैं जो कर्म
में इंचभर
भी न चलेंगे, जब
तक फल उनको
खींचे न। फल
उनको ऐसे ही न
खींचे, जैसे
कि कोई जानवर
की गर्दन में
रस्सी बांधकर खींचता
है। क्या आपको
पता है कि पशु
हम जानवर को
इसीलिए कहते
हैं। पशु
संस्कृत का
बहुत अदभुत
शब्द है। उसका
अर्थ है, जिसे
खींचना हो, तो गले में
पाश बांधना
पड़ता है, उसको
पशु कहते हैं।
जिसे खींचने
के लिए पाश
बांधना पड़े, वह पशु।
इसलिए बहुत
पुराने
ज्ञानी हमको
पशु ही
कहेंगे। जो भी
भविष्य की
आकांक्षा से
बंधे हुए चलते
हैं, वे
पशु हैं।
पशु का
मतलब, कर्म से
नहीं चलते, फल से बंधे
हुए चलते हैं।
गर्दन फंसी है
एक जाल में।
भविष्य के हाथ
में है वह
रस्सी। वह
खींच रहा है।
या तो भविष्य
खींचे, तो
हम चलते हैं; कोई हमारी
गर्दन में
रस्सी बांध
ले। और या अतीत
धक्का दे, तो
हम चलते हैं।
जैसे कोई
जानवर को पीछे
से लकड़ी मारे
या कोई बाहर
से रस्सी
खींचे आगे से।
या तो कोई पुल
करे या पुश
करे, तो ही
जानवर चले।
तो
पुराने
ज्ञानी कहते
हैं कि वह
आदमी पशु है, जो
या तो अतीत के
कर्मों के
धक्के की वजह
से चलता है और
या भविष्य की
आकांक्षाओं
के पाश में बंधकर
खिंचता है। वह
आदमी नहीं है
अभी।
आदमी
कौन है? आदमी
वह है, जो
अतीत के धक्के
को भी नहीं
मानता और जो
भविष्य की आकांक्षा
को नहीं मानता,
जो वर्तमान
के कर्म में
जीता है। जो
अतीत के धक्के
को भी स्वीकार
नहीं करता और
जो भविष्य के
आकर्षण को भी
स्वीकार नहीं
करता। जो कहता
है, मैं तो
अभी, यह जो
क्षण मिला है,
इसमें जीऊंगा।
लेकिन
यह जीना तभी
संभव है, जब
कोई अतीत को
और भविष्य को परमात्मा
पर समर्पित कर
दे। अन्यथा
अतीत धक्के
मारेगा, अन्यथा
भविष्य
खींचेगा।
आदमी
बहुत कमजोर
है। आदमी
स्वभावतः
बहुत सीमित
शक्ति का है।
आदमी भविष्य
को और अतीत को
बिना
परमात्मा के
सहारे के
छोड़ना बहुत
मुश्किल पाएगा।
लेकिन
परमात्मा को
समर्पित करके
आसान हो जाती है
बात। छोड़ देता
है कि जो तेरी
मर्जी होगी, कल
वह हो जाएगा।
अभी जो समय
मुझे मिला है,
वह मैं काम
में लगा देता
हूं। और मेरा
आनंद इतना ही
है कि मैंने
काम किया; फल
से मेरा कोई
प्रयोजन नहीं
है।
आनंद
जिसका कर्म बन
जाता है!
लेकिन तभी बन
पाता है, जब
कोई प्रभु पर
समर्पित करने
की सामर्थ्य
रखता है।
इसलिए कृष्ण
कहते हैं, फल
की आकांक्षा
को छोड़कर, निष्काम
होकर प्रभु को
समर्पित कर
देता है जो सारा
जीवन, वही
आनंद को
उपलब्ध होता
है। कामीजन,
सकामीजन कभी आनंद को
उपलब्ध नहीं
होते। दुख का
धुआं ही उनका फलश्रुति
है।
लेकिन
हम तो अगर
मंदिर में
परमात्मा पर
कुछ समर्पण भी
करने जाएं, तो
सकाम होते
हैं।
प्रार्थना भी
हम मुफ्त में नहीं
करते; प्रार्थना
में भी हम कुछ
पाना चाहते
हैं! हाथ भी जोड़ते
हैं परमात्मा
को, तो
शर्त, कंडीशन होती है।
कुछ मिल जाए।
जिसे कुछ नहीं
चाहिए, वह
मंदिर जाता
नहीं। जाता ही
तब है कोई, जब
उसे कुछ
चाहिए।
और
ध्यान रहे, जब
कोई कुछ
मांगने मंदिर
जाता है, तो
मंदिर पहुंच
ही नहीं पाता।
मंदिर पहुंच
ही नहीं सकता
है। मंदिर के
द्वार पर ही
निष्काम हो
जाए जो, वही
भीतर प्रवेश
कर सकता है।
आप
कहेंगे, हम तो
मंदिर में रोज
प्रवेश कर
जाते हैं।
आप
मकान में
प्रवेश करते
हैं,
मंदिर में
नहीं। मंदिर
और मकान में
बड़ा फर्क है।
जिस मकान में
भी आप निष्काम
प्रवेश कर
जाएं, वह
मंदिर हो जाता
है। और मंदिर
में भी सकाम
प्रवेश कर
जाएं, वह
मकान हो जाता
है।
यह आप
पर निर्भर
करता है कि
जहां आप
प्रवेश कर रहे
हैं,
वह मंदिर है
या मकान। जिस
भूमि पर आप
निष्काम होकर
खड़े हो जाएं, वह तीर्थ हो
जाती है। और
जिस भूमि पर
आप सकाम होकर
खड़े हो जाएं, वह पाप हो
जाती है। भूमि
पर निर्भर
नहीं है यह।
यह आप पर
निर्भर है।
लेकिन हम तो
पूरे समय कामवासना
से ही जीते
हैं। कुछ भी
करेंगे...।
एक मित्र
कल मेरे पास
आए। उन्होंने
कहा कि इस
भजन-कीर्तन से
क्या मिलेगा? मैं
भी करना चाहता
हूं, लेकिन
मिलेगा क्या?
स्वाभाविक।
न मिले, तो
नाहक परेशान
होने से कोई
सार नहीं।
मैंने उनसे
कहा कि जब तक
मिलने का खयाल
है, तब तक
कीर्तन न कर
पाओगे।
क्योंकि
मिलने के खयाल
से तो कीर्तन
का कोई संबंध
ही नहीं जुड़ता।
फिर दूकान
करो।
कीर्तन
का तो अर्थ ही
यह है कि कुछ
घड़ी ऐसी भी है, जब
हम कुछ भी
नहीं पाना
चाहते। कुछ दस
क्षण के लिए
हम ऐसे जीना
चाहते हैं कि
कुछ पाना नहीं,
नान-परपजिव,
कोई
प्रयोजन नहीं
है। जीवन मिला
है, इसके
आनंद में, इसके
उत्सव में नाच
रहे हैं।
श्वास चल रही
है, इसके
आनंद-उत्सव
में नाच रहे
हैं।
परमात्मा ने
हमें भी इस
योग्य समझा कि
जीवन दे, इसकी
खुशी में नाच
रहे हैं। कुछ
पाने के लिए नहीं,
धन्यवाद की
तरह, एक
आभार, ग्रेटिटयूड की तरह।
कीर्तन एक
आभार है, थैंक्स
गिविंग।
कुछ पाने के
लिए प्रयोजन
नहीं है। कुछ
मिलेगा नहीं
उससे।
ऐसा जब
मैं कहता हूं, कुछ
मिलेगा नहीं
उससे, तो
आप यह मत समझ
लेना कि जो
कीर्तन करते
हैं, उन्हें
कुछ मिलता
नहीं है। ऐसा
मत समझ लेना।
जब मैं कहता
हूं, कुछ
मिलेगा नहीं,
तो मैं यह
कहता हूं कि
कीर्तन में
आना हो, तो
मिलने का खयाल
छोड़कर आना। जो
आ जाता है, उसे
तो बहुत मिलता
है, जिसका
कोई हिसाब
नहीं है।
लेकिन उसका
खयाल रखकर जो
आएगा, उसको
नहीं मिलेगा।
यह कठिनाई है।
अगर आप
यह खयाल रखकर
आए कि बहुत
कुछ मिलेगा, तो
आप खाली हाथ
लौट जाएंगे।
और अगर आप
खाली मन आए; कुछ लेने
नहीं, सिर्फ
प्रभु को
धन्यवाद देने,
बेशर्त; हृदय
भर जाएगा किसी
अनूठे आनंद
से। एक नया ही द्वार
खुल जाएगा।
ध्यान
रहे,
कृष्ण यह
नहीं कह रहे
हैं कि जो
निष्काम कर्म करता
है, उसे फल
मिलता नहीं
है। इस भूल
में मत पड़
जाना कि उसको
फल नहीं
मिलता। और इस
भूल में भी मत
पड़ जाना कि जो
सकाम कर्म
करता है, उसको
फल मिलता है।
हालत बिलकुल
उलटी है।
जो
सकाम जीता है, उसे
फल कभी नहीं
मिलता। और जो
निष्काम जीता
है, उसके
जीवन पर
प्रतिपल फल की
वर्षा होती
है! लेकिन बड़ा
उलटा नियम है
जिंदगी का। जो
मांगता है, वह भिखारी
की तरह मांगता
रहता है, उसे
कभी नहीं
मिलता। और जो
नहीं मांगता,
वह सम्राट
की तरह खड़ा हो
जाता है और सब
उसे मिल जाता
है।
जीसस
ने कहा है, जो
बचाएगा, वह खो देगा; और जो खो
देगा, वह
पा लेगा।
अजीब-सी
बात कही है! जो बचाएगा, वह
खो देगा। हम
सब बचा रहे
हैं। आखिर में
खाली, शून्य
हाथ में रह
आएगा। और जो
खो देगा, वह
पा लेगा। उससे
फिर कुछ छीना
नहीं जा सकता
है।
कृष्ण
की बात को भी
ठीक से समझ
लें। वे कहते
हैं,
दो तरह के
लोग हैं। एक
कामना से जीने
वाले, सकामी। कुछ भी
करेंगे, पहले
पक्का कर
लेंगे, फल
क्या मिलेगा!
प्रेम तक करने
जाएंगे, तो
पहले पक्का कर
लेंगे, फल
क्या मिलेगा!
प्रार्थना
करने जाएंगे,
तो पहले
पक्का कर
लेंगे कि फल
क्या मिलेगा!
फल पहले, फिर
कुछ कदम
उठाएंगे।
इन्हें फल कभी
नहीं मिलेगा।
मेहनत ये बहुत
करेंगे। दौड़ेंगे
बहुत, पहुंचेंगे
कहीं भी नहीं।
इनकी हालत
करीब-करीब
वैसी होगी...।
मुझे
याद आता है कि
मेरे गांव के
पास वर्ष में
कोई दोत्तीन
बार मेला भरता
था। और बचपन
से ही एक बात
मेरी समझ में
कभी भी नहीं
आई कि उस मेले
में लकड़ी के घोड़ों की
चकरी लगती थी।
और जितने भी
लोग जाते, उस
पर बैठते; पैसे
खर्च करते; उस चक्कर
में गोल चक्कर
खाते। बच्चे
चक्कर खात थे,
तो ठीक। एक
दिन मैंने
देखा कि मेरे
स्कूल के
शिक्षक भी उस पर
बैठकर चक्कर
खा रहे हैं!
मैं बहुत
हैरान हुआ।
मैंने जाकर
उनसे
पूछा--काफी
चक्कर वे ले
चुके, उनकी
जेब के सब
पैसे खाली हो
गए उस चक्कर
में--मैंने
उनसे पूछा कि
आप पहुंचे
कहां? चले
तो बहुत।
उन्होंने कहा,
पहुंचे!
लकड़ी के घोड़े
पर बैठकर चकरी
में घूम रहे
हैं। पहुंच
कहीं भी नहीं
रहे, सिर्फ
चकरा रहे हैं।
अनेक
को उतरकर
चक्कर खाते
देखा। किसी को
वामिट
होते देखी।
समझ में मेरे
कभी न आया कि
यह हो क्या
रहा है! लेकिन
अब धीरे-धीरे
समझ में आता
है कि वह मेले
की चकरी तो
बहुत छोटी है, उस
पर तो कभी कोई
बैठता है।
संसार की चकरी
पर सब बैठे
रहते हैं।
कहीं पहुंचते
नहीं।
हालांकि हर पल
लगता है कि अब
पहुंचे, अब
पहुंचे! घोड़ा
बढ़ता ही चला
जाता है। लगता
है, अब
पहुंचे, अब
पहुंचे। कहीं
पहुंचते
नहीं। चक्कर
खाकर नीचे गिर
पड़ते हैं। और
लकड़ी के घोड़े
की चकरी पर से
तो उतरकर
अपने घर वापस
लौट आते हैं; लेकिन
जिंदगी की
चकरी से जब
चक्कर खाकर
गिरते हैं, तो कब्र में
वापस पहुंचते
हैं; घर-वर
नहीं
पहुंचते।
जिंदगीभर
कामना दौड़ाती
है--लकड़ी के
घोड़े ही हैं; कहीं
पहुंचाते
नहीं--दौड़ाती
है। शायद आपको
खयाल न हो, यह
संस्कृत का
शब्द संसार
बहुत अदभुत
है। इसका मतलब
होता है, चक्कर,
दि व्हील।
वह जो भारत के
राष्ट्रीय
ध्वज पर व्हील
बना हुआ है, वह नेहरू को
पता नहीं था, नहीं तो वे
कभी न बनाते।
उनको पता नहीं
था कि वह
बुद्ध का
प्रतीक है। और
अशोक ने अपने
स्तंभ पर खुदवाया
था इसलिए कि
यह संसार चकरी
की तरह है। इस
पर बैठकर
घूमते रहोगे
सदा, पहुंचोगे
कहीं नहीं।
उनको पता नहीं
था, नहीं
तो वे कभी न
बनवाते, क्योंकि
दिल्ली में तो
सिर्फ चकरी
वाले ही लोग
इकट्ठे होते
हैं। जिनको
अपने गांव
छोटे पड़ते हैं,
उनको जरा
बड़े घोड़े
चाहिए।
दिल्ली में
काफी सरकस
चलता है बड़े घोड़ों
वाला! उस पर
बैठकर वे
चक्कर खाते
रहते हैं। पांच
साल के बाद
फिर जनता से
कहते हैं कि
हमें पहुंचाओ;
हमें फिर
चक्कर खाना
है!
यह
पूरा का पूरा
संसार सकाम
चक्कर है, ए
व्हील आफ डिजायरिंग।
बस, इच्छा
होती है, यह
मिल जाएगा, यह मिल
जाएगा। चक्कर
लगा लेते हैं,
मिलता कभी
कुछ नहीं है।
मरते हुए आदमी
से पूछो कि
क्या मिला?
मैंने
उस शिक्षक से
पूछा था, कहां
पहुंचे? वे
चौंककर
खड़े हो गए।
उन्होंने
मुझसे उलटा ही
कहा। उन्होंने
कहा कि अभी
तुम न समझ
सकोगे, तुम्हारी
उम्र कम है।
उन्होंने
मुझसे कहा, अभी
तुम न समझ
सकोगे, तुम्हारी
उम्र कम है।
मैं अभी तक
नहीं समझा।
अभी भी गांव जाता
हूं, तो
उनके पास जाता
हूं कि अब जरा
मेरी उम्र तो
काफी हो गई, अब समझा
दें। उस चकरी
पर आप बैठे थे,
कहां
पहुंचे? अब
मुझसे इस बार
मैं गया, तो
वे कहने लगे, छोड़ो भी उस बकवास
को। तीस साल
हो गए! मैंने
कहा, उस
वक्त आपने कहा
था कि उम्र कम
है। अब तीस
साल...। कब? कहीं
ऐसा न हो कि
दुबारा मैं
आऊं और आप न
बचें, क्योंकि
आपकी उम्र अब
अस्सी साल
होती है। मुझे
कब बताइएगा
कि आप पहुंचे
कहां थे उस
चकरी पर
बैठकर!
वे
मुझे देखते
हैं कि डर
जाते हैं! वे
समझते हैं कि
मैं आया, वह
चकरी का सवाल
उठेगा। एक दफा
मैंने उनको
बैठा देख लिया!
अभी तक इतनी
हिम्मत नहीं
जुटा पाए कि
वे मुझसे कह
दें कि कहीं
नहीं पहुंचा।
इतना कमजोर है
आदमी! एक दफा
मुझसे कह दें,
झंझट मिट
जाए। मैं तो
नहीं
छोडूंगा। मैं
तो जब भी जाता
हूं, पहले
उनके घर
पहुंचता हूं
कि अब बता दें।
एक साल और बीत
गया। अभी तक
मेरी समझ में
नहीं आया कि
आप कहां
पहुंचे थे।
वह
आदमी
शक्तिशाली है, जो
कमजोरी को
स्वीकार कर
लेता है, क्योंकि
तब कमजोरी के
पार हुआ जा
सकता है। सकाम
दौड़ता है
बहुत, पहुंचता
कहीं भी नहीं
है, सिवाय
दुख के।
निष्काम कहीं
भी नहीं
पहुंचना चाहता
है, और
जहां खड़ा होता
है, वही से
पहुंच जाता
है।
तो यह
मत सोचना आप
कि निष्काम
व्यक्ति को फल
नहीं मिलता।
निष्काम को ही
फल मिलता है।
लेकिन निष्काम
फल चाहता
नहीं। वह कर्म
को पूरा कर लेता
है और चुप रह
जाता है।
परमात्मा पर
छोड़ देता है।
इतने
भरोसे से जो
समर्पण कर
सकता है
परमात्मा पर, वह
अगर निष्फल
चला जाए, तो
इस पृथ्वी पर
धर्म की फिर
कोई जगह नहीं
है। जो इतने
भरोसे से
परमात्मा पर
छोड़ देता है
कि करूंगा मैं
और सो जाऊंगा,
फल तेरे ऊपर
रहा। अगर वह
भी निष्फल चला
जाए, तो
फिर इस पृथ्वी
पर धर्म की
कोई भी जगह
नहीं है।
लेकिन
वह कभी निष्फल
नहीं गया।
इसलिए धर्म का
कितना ही
ह्रास होता
चला जाए, धर्म
मर नहीं सकता।
और धर्म का
कितना ही
विरोध होता
रहे, कोई न
कोई उसे फिर
जगा लेता है, फिर
पुनरुज्जीवित
कर देता है।
जिसको
भी जिंदगी में
इस राज का पता
चल जाता है कि
बिना मांगे
मिलता है और
मांगने से
नहीं मिलता, वही
व्यक्ति
धार्मिक हो
जाता है। और
जब तक आपको इस
सीक्रेट का
पता नहीं है, आप चाहे
हिंदू हों, चाहे
मुसलमान, चाहे
जैन, चाहे
ईसाई, चाहे
आप कोई भी हों;
मंदिर जाते
हों, मस्जिद
जाते हों--कुछ
भी न होगा।
जिस
दिन आपको यह
पता चल जाएगा
कि जो नहीं
मांगता, उसे
मिलता है। जो
प्रभु पर छोड़
देता है, वह
पा लेता है।
और जो अपने ही
हाथ में सब
कुंजी रखता है,
वह सब गंवा
देता है। जब
तक आपको इसका
पता नहीं है।
तब तक आपकी
जिंदगी में
धर्म का अवतरण
नहीं हो सकता
है।
इस
सूत्र में
कृष्ण ने धर्म
की बुनियादी 'की',
कुंजी की
बात कही है।
प्रश्न:
भगवान
श्री, आपने
पिछली चर्चा
में कहा है कि
प्रार्थना बहिर्मुखी
लोगों की
साधना है और
ध्यान
अंतर्मुखी
लोगों की
साधना है। तब
तो आज के इस
बहिर्मुखी
युग को
प्रार्थना की
साधना में ले
जाना चाहिए।
लेकिन आप तो
ध्यान का
आंदोलन चलाते
हैं! आपकी नई
ध्यान पद्धति
अंतर्मुखी व
बहिर्मुखी
व्यक्तित्व
के लिए किस
ढंग से
संबंधित है? इन दोनों
बातों पर
प्रकाश
डालें।
निश्चित
ही,
ध्यान
अंतर्मुखी
व्यक्ति की
यात्रा रही है
और प्रार्थना
बहिर्मुखी
व्यक्ति की
यात्रा रही
है। लेकिन
ध्यान के
हजारों मार्ग
संभव हो सकते
हैं और प्रार्थना
के भी हजारों
रूप संभव हो
सकते हैं। और
ऐसा भी नहीं
है कि ध्यान
के जितने रूप
आज तक रहे हैं,
उनसे और
ज्यादा रूप
नहीं हो सकते।
और ऐसा भी नहीं
है कि जितनी
प्रार्थनाओं
की पद्धतियां
अब तक खोजी गई
हैं, उससे
और ज्यादा
पद्धतियां
नहीं खोजी जा
सकती हैं।
मैं
जिस ध्यान की
पद्धति की बात
करता हूं, वह
बहुत गहरे
अर्थों में
दोनों का जोड़
है। मैं जिसे
ध्यान कहता
हूं, वह
दोनों का जोड़
है। उसमें तीन
हिस्से
बहिर्मुखी
व्यक्ति के
लिए हैं और
चौथा हिस्सा
अंतर्मुखी
व्यक्ति के
लिए है। जो
तीन हिस्से उस
ध्यान के कर
लेगा
बहिर्मुखी
व्यक्ति भी, वह भी वहीं
पहुंच जाएगा,
जहां
अंतर्मुखी
व्यक्ति
पहुंचता है।
और अंतर्मुखी
व्यक्ति को
पहले तीन
हिस्सों को
करने की जरूरत
ही नहीं पड़ेगी,
वह पहले ही
हिस्से से
चौथे में छलांग
लगा जाएगा।
ध्यान
की ऐसी
प्रक्रिया
संभव है, जिसमें
बहिर्मुखी और
अंतर्मुखी
दोनों के लिए
द्वार खोजा जा
सके। और
प्रार्थना भी
ऐसी खोजी जा
सकती है, जिसमें
अंतर्मुखी और
बहिर्मुखी
दोनों के लिए
द्वार खोजा जा
सके।
उदाहरण
के लिए, आपने
यहां कीर्तन
देखा है। इस
कीर्तन में
अंतर्मुखी भी
सम्मिलित हो
सकता है, बहिर्मुखी
भी सम्मिलित
हो सकता है।
लेकिन थोड़ी ही
देर में फर्क
पड़ने शुरू हो
जाएंगे। बहिर्मुखी
नृत्य में
गहरा बढ़ता चला
जाएगा। उसकी आवाज
प्रकट होने
लगेगी, उसका
गीत झरने
लगेगा, उसका
नृत्य बढ़ने
लगेगा।
अंतर्मुखी
अगर गीत से
शुरू भी करेगा,
थोड़ी देर
में गीत खो
जाएगा। नृत्य
से शुरू भी करेगा,
थोड़ी देर
में नृत्य खो
जाएगा। अंततः
वह गिर पड़ेगा,
चुप हो
जाएगा, मौन
में डूब
जाएगा।
बहिर्मुखी
नृत्य की चरम
स्थिति में जो
अनुभव करेगा, वही
अंतर्मुखी
गिरकर, बिलकुल
मुर्दे की
भांति पड़कर
अनुभव करेगा।
दोनों
अपनी-अपनी
यात्रा पर
निकल जाएंगे।
और
मेरी अपनी समझ
ऐसी है कि
भविष्य के लिए
ऐसी विधियां
खोजी जानीं
चाहिए, जो
विधियां
दोनों के लिए
उपयोगी हो
सकें; और
जिस भांति का
व्यक्ति भी
उसमें प्रवेश
करे, वह
अपने लिए
द्वार खोज ले।
यह
कीर्तन है।
इसमें
अंतर्मुखी
थोड़ी ही देर
में गाना छोड़
देगा, नाचना
छोड़ देगा, डूब
जाएगा, खो
जाएगा कहीं।
बहिर्मुखी
नाच में गहरा
चला जाएगा, और इतना
गहरा चला
जाएगा, आखिर
में नाच ही
बचेगा, नाचने
वाला खो
जाएगा। तब फिर
वह भी वहीं
पहुंच जाएगा,
जहां वह नाच
खो गया और एक
आदमी शून्य हो
गया। फिर नाच
ही रह गया और
नृत्य करने
वाला खो गया, वह भी भीतर
शून्य हो गया।
दोनों की परम
स्थिति एक हो
जाएगी। लेकिन
दोनों एक ही
विधि से प्रवेश
कर पा सकते
हैं।
ठीक
ऐसा ही मेरा
ध्यान भी है।
उसमें तीन चरण
एक्सट्रोवर्ट
हैं। पहले चरण
में गहरी
श्वास है, वह
बहिर्मुखी के
लिए बड़ी
उपयोगी है।
दूसरे चरण में
नृत्य है, कूदना
है, चिल्लाना
है, वह भी
बहिर्मुखी के
लिए बड़ा
उपयोगी है।
तीसरे चरण में,
मैं कौन हूं,
इसकी इंक्वायरी,
जिज्ञासा
है। जोर से
पूछना है, मैं
कौन हूं। वह
भी बहिर्मुखी
के लिए बहुत
उपयोगी है। और
चौथे में
बिलकुल मौन हो
जाना है।
पूछेंगे
आप कि चार
चरणों में एक
रखा सिर्फ अंतर्मुखी
के लिए, तीन
रखे
बहिर्मुखी के
लिए? क्योंकि
मैं कहता हूं
कि आज का युग
बहिर्मुखी है।
सौ आदमी करने
आएंगे, तो
मुश्किल है कि
पच्चीस भी
अंतर्मुखी
हों, पचहत्तर
तो
बहिर्मुखी--निन्यानबे
की संभावना है
बहिर्मुखी होने
की और एक की
अंतर्मुखी
होने की। उसके
लिए भी जगह
बना रखी है।
इसलिए
अंतर्मुखी
व्यक्ति जब
मेरे पास आता
है,
तो वह कहता
है, सांस
लेते बनती ही
नहीं; नाचते
बनता ही नहीं;
पूछूं किससे? कौन
पूछे? कौन
पूछे, मैं
कौन हूं! वह
कहता है, हमें
तो सीधा चौथे
में जाना अच्छा
लगता है। मैं
उसको कहता हूं,
चौथे में
चले जाओ।
लेकिन
बहिर्मुखी
व्यक्ति से
कहें कि
चुपचाप बैठ
जाओ;
वह कहेगा, मुश्किल
मालूम पड़ता
है। कैसे
चुपचाप बैठे
जाएं? कुछ
तो चलता ही
रहता है! तो
मैं उससे कहता
हूं, पहले
खूब चला लो। चिल्लाओ
जोर से। रोओ, कूदो, नाचो, गाओ।
खूब चला लो।
इतना चला लो
कि तुम्हारा
चलने का जो मन
है, उसको
पूरी-पूरी
तृप्ति मिल
जाए। उसी
तृप्ति के
मार्ग से पहुंचो
वहां, जहां
चलना ठहर जाता
है।
मेरी
पद्धति में
बहिर्मुखी
अंतर्मुखी
दोनों के लिए
समान प्रवेश
है।
ये जो
अंतर्मुखता
और
बहिर्मुखता
के मार्ग हैं, ये
कोई विपरीत
मार्ग नहीं
हैं।
भिन्न-भिन्न
प्रकार के
लोगों के लिए
एक ही जगह
पहुंचा देने
वाले मार्ग
हैं।
प्रश्न:
भगवान
श्री, इस
गीता ज्ञान
यज्ञ से
नाचने-गाने का
क्या संबंध है,
इसे और
स्पष्ट
कीजिए। और इस
संकीर्तन में
नाचना
अस्तव्यस्त, डिसआर्डरली और मनमाना
क्यों है, इसे
भी साफ करें।
स्वभावतः, ऐसा
खयाल और
मित्रों को भी
उठा।
उन्होंने भी मुझे
पूछा है कि
गीता ज्ञान
यज्ञ से
कीर्तन का, धुन का, नृत्य
का क्या संबंध?
और फिर
नृत्य भी हो, तो
व्यवस्थित हो,
तालबद्ध हो!
डिसआर्डरली,
अव्यवस्थित,
अराजक, केआटिक, इसका क्या
मतलब है?
इसका
मतलब है।
एक तो
मैं आपको यह
जाहिर कर दूं
कि जो गीता
मैं समझा रहा
हूं,
आप समझने से
ही समझ लेंगे,
ऐसा मेरा
भरोसा नहीं।
समझने से केवल
बुद्धि तक बात
पहुंचती है, हृदय तक
नहीं
पहुंचती। और
गीता जिसे
समझनी हो, वह
अगर सिर्फ
बुद्धि से
समझने चलेगा,
तो पंडित तो
हो जाएगा, ज्ञानी
नहीं हो
पाएगा। इंटलेक्ट
बता सकती है, क्या अर्थ
है। विश्लेषण
कर सकती है। तोड़त्तोड़कर
तर्क
व्यवस्था दे
सकती है, लेकिन
हृदय को छूती
नहीं। तर्क से
हृदय के फूल
खिलते नहीं।
और न ही तर्क
और बुद्धि से
हृदय की वीणा
की झंकार पैदा
होती है।
जानता
हूं भलीभांति
कि आज की
दुनिया में
कोई उपाय नहीं
है कि आपसे
बुद्धि के
द्वारा कहा
जाए। बुद्धि
से कहना पड़ेगा, इसलिए
घंटे सवा घंटे
आपके साथ
बुद्धि के साथ
मेहनत करता
हूं आपकी। और
आखिर में
बिलकुल निर्बुद्धि
एक काम करवाता
हूं। बिलकुल
बुद्धिहीन!
सिर्फ यही
आपको खबर देने
के लिए कि
बुद्धि से जो
नहीं हो सकेगा,
वह बुद्धि
को छोड़कर हो
पाता है। और
यह भी खबर देने
के लिए कि घंटेभर
मैंने आपकी
बुद्धि को
समझाने की
कोशिश की, जिनकी
समझ में आ गया
होगा, उनको
इस नृत्य में
भी समझ में
आना चाहिए। और
अगर समझ में
इसमें न आए, तो उनके पास
केवल बौद्धिक
शब्द पहुंचे
और कुछ भी
नहीं पहुंचा
है।
अगर
मेरी बातें
समझ में आई
हैं,
तो आपका
हृदय खुलेगा,
नाचना
चाहेगा, प्रफुल्लित
होगा, प्रमुदित
होगा। आप यही
सोचते हुए
नहीं जाएंगे
कि जो बोला, वह
तर्कयुक्त
मालूम होता
है। आप ऐसा
अनुभव करते
जाएंगे कि जो
बोला, वह हृदय
को स्पर्शित
करता मालूम
पड़ता है।
हृदय
को स्पर्शित
करना और बात
है। इसलिए
चाहता हूं कि
अंत हृदय की
किसी घटना से
हो। इसलिए यहां
चाहा कि दस
मिनट, पांच
मिनट भूल जाएं
विचार को, शब्द
को; घंटेभर मैं बोलता
हूं, छोड़ें
उसे। शब्द
असमर्थ हैं।
शब्द की
असमर्थता
आपको बताना
चाहता हूं। और
यह भी बताना
चाहता हूं कि
शायद जो मैं न
कह पाया होऊं,
जो कृष्ण भी
न कह पाए हों, वह इन नाचते
हुए
संन्यासियों
के नृत्य से
आपको उसकी झलक
मिल जाए।
और
ध्यान रहे, अर्जुन
नहीं समझ पाया
कृष्ण से
जितना, उतना
कृष्ण से गोपियां
समझ गईं।
लेकिन गोपियों
को कृष्ण ने
कोई गीता नहीं
कही थी। उनके
साथ नाच लिए
थे। गोपियों
से कोई गीता
नहीं कही, बांसुरी
बजाकर नाच लिए
थे किसी वंशी
वट में, यमुना
के तट पर। और गोपियां
जितना समझीं,
उतना
अर्जुन नहीं
समझ पाया।
अर्जुन को
गीता कही है।
बड़ा बौद्धिक कम्युनिकेशन
है, बड़ा
बुद्धिगत
संवाद है।
आपसे
मैं भी बुद्धि
की बात कहता
हूं,
लेकिन
कृष्ण का और
भी गहरा पहलू
है, वह भी
आपसे छूट न
जाए। गीता
पढ़ने वाले
लोगों से
अक्सर छूट
जाता है।
कृष्ण सिर्फ
गीता कहने वाले
कृष्ण ही नहीं
हैं, कृष्ण
नाचने वाले
कृष्ण भी हैं।
और वह उनका असली,
और ज्यादा गहरा,
और ज्यादा
महत्वपूर्ण
रूप है।
गीता न
भी कही होती, तो
कोई और भी कह
सकता था, यह
मैं आपसे कहता
हूं। गीता
बुद्ध भी कह
सकते हैं, महावीर
भी कह सकते
हैं, क्राइस्ट
भी कह सकते
हैं। अगर
कृष्ण ने गीता
न कही होती, तो कोई और कह
सकता था।
लेकिन अगर
कृष्ण न नाचे होते,
तो न बुद्ध
नाच सकते, न
महावीर नाच
सकते, न
जीसस नाच
सकते। वह
अधूरा रह गया
होता। वह बात
और किसी से
होनी मुश्किल
थी।
इसलिए
कृष्ण के
व्यक्तित्व
का जो गहरा
रूप है, वह तो
उनका नाचता
हुआ, बांसुरी
बजाता हुआ रूप
है। गीता
सुनकर कहीं ऐसा
खयाल न हो कि
गीता सिर्फ एक
दर्शन
शास्त्र का
विवेचन है, एक मेटाफिजिक्स
है। गीता
सुनकर ऐसा भी
लगे कि वह एक
जीवन-संगीत भी
है। ऐसा भी
लगे कि वह
नाचने की एक
कला भी है।
इसलिए
मैंने जानकर, कंसीडर्डली,
पीछे
पांच-सात
मिनट--
पांच-सात मिनट
आपके अधैर्य
को देखकर; नहीं
तो मैं तो
चाहता कि घंटेभर
चर्चा हो, तो
घंटेभर
नृत्य हो।
लेकिन आपकी
हिम्मत बहुत
कमजोर है, इसलिए
पांच मिनट!
पांच मिनट में
ही कई की दम टूट
जाती है, वे
भागने की
तैयारी में हो
जाते हैं।
उन्हें पता
नहीं कि क्या
हो रहा है।
उन्हें पता
नहीं कि क्या
बंट रहा है।
उन्हें पता
नहीं कि क्या
घटना घट रही
है। उसे पांच
मिनट प्रेम से
देख लें; उसे
पी जाएं। और
मैं आपसे कहता
हूं कि जो
मेरे समझाने
से नहीं हो
सका होगा, जो
कृष्ण के कहने
से नहीं हो
सका होगा, वह
भी उस नृत्य
से हो सकता
है।
अव्यवस्थित
इसलिए कि
व्यवस्था का
संबंध बुद्धि
से है। हृदय
का व्यवस्था
से कोई संबंध
नहीं है। जिस
दिन नृत्य
व्यवस्थित हो
जाता है, बौद्धिक
हो जाता है, इंटेलेक्चुअल हो जाता है।
एक-एक पद है, एक-एक चाप
है। सब इंतजाम
है। वह गणित
हो जाता है।
शास्त्रीय
संगीत बिलकुल मैथमेटिकल
है। वह गणित
है। कहना
चाहिए, वह
गणित ही है।
यह कोई
संगीत नहीं है, यह
कोई गणित नहीं
है। यह तो
हृदय का
उन्मेष है।
हृदय के
उन्मेष में
हिसाब नहीं
होता। गणित में
दो और दो चार
होते हैं, प्रेम
में जरूरी
नहीं है।
प्रेम में दो
और दो पांच भी
हो सकते हैं।
प्रेम के पास
हिसाब नहीं
है। ये तो
प्रेम में आए
हुए संन्यासी
हैं, वे
नाच रहे हैं।
मुझे
कहा किसी ने
कि इनको थोड़ी
ट्रेनिंग दे
देनी चाहिए कि
ये थोड़ा ढंग
से नाचें।
तो ट्रेनिंग
से नाचने वाले
तो सारी
दुनिया में
बहुत हैं; कोई
कमी है! सो तो
आप जाकर थिएटर
में देख आते
हैं; सब
ट्रेनिंग से
नाच चल रहा
है। लेकिन
ट्रेनिंग से
जब कोई नाचता
है, तो शरीर
ही नाचता है; हृदय नहीं
नाचता।
ट्रेनिंग से
कहीं नाच हुए
हैं? हां, नाच हो
जाएगा, लेकिन
वह वेश्या का
होगा, अभिनेता
का होगा, एक्टर
का होगा, एक्ट्रेस का होगा।
संन्यासी का
नहीं होगा।
संन्यासी
के नृत्य में
कुछ भेद है।
वह नृत्य नहीं
है,
वह हृदय का
उन्मेष है। कुछ
चीज भीतर भर
गई है, वह
बाहर बह रही
है। शरीर नहीं
सम्हलता, इसलिए
नाच रहा है।
यह
नृत्य कोई लयत्तालबद्ध
व्यवस्था
नहीं है, इसलिए
डिसआर्डरली
है। इसमें कोई
व्यवस्था
नहीं है।
व्यवस्था होनी
भी नहीं चाहिए,
तभी उसकी
मौज है, तभी
उसकी नैसर्गिकता
है, तभी
उसकी स्पांटेनिटी
है, और तभी
आप उसमें भीतर
प्रवेश कर
पाएंगे। आज मैंने
यह कहा, तो
जरा आज फिर
गौर से देखना
आप। आप शायद
सोचते होंगे
कि ठीक है...।
एक
मित्र आए, वे
बोले, हम
तो कीर्तन बीस
साल से
करते-करते थक
गए। कुछ होता
नहीं। होगा भी
नहीं।
क्योंकि
कीर्तन कोई
किया थोड़े ही
जाता है। होना
चाहिए। वह
आनंद की
अभिव्यक्ति
बननी चाहिए।
वे कहते हैं, हमें कीर्तन
बीस साल हो गए
करते-करते, कुछ हुआ
नहीं। तो वे
कुछ फल की
आकांक्षा से
कर रहे होंगे;
कीर्तन
सकाम हो गया।
वे सोच रहे
होंगे, कुछ
हो जाए।
ये
संन्यासी जो
यहां बैठे हैं, कुछ
होने के लिए
नहीं कर रहे
हैं। इनका
आनंद है। गीता
घंटेभर
सुनी। अगर
इतने आनंद से
भी हृदय न भर
जाए, कि
नाच लें पांच
मिनट और फिर
विदा हो जाएं,
तो बेकार गई
बात।
इसलिए
जानकर यह
अव्यवस्थित
है। यह
अव्यवस्थित
ही रहेगा। फिर
भी आपके डर से, आपकी
मौजूदगी से नए
संन्यासी कोई
आते हैं, तो
वे तो हिम्मत
भी नहीं जुटा
पाते हैं। वे
धीमे-धीमे
करते रहते
हैं। लेकिन
मैं चाहता हूं
कि दो-चार
वर्ष में पूरे
मुल्क में इस
हवा को फैलाऊंगा।
पूरे मुल्क
में क्यों, सारी दुनिया
के कोने-कोने
तक फैलाने
जैसी है। और
वह जो फेस्टिव
डायमेंशन है
मनुष्य के
उत्साह का, उमंग का; उत्सव
का जो आयाम है
चित्त का, वह
खुलना चाहिए।
धर्म
बहुत गंभीर हो
गया है। और
जितना गंभीर
होगा धर्म, उतना
रुग्ण और
बीमार होगा।
गंभीर शकलों
को मंदिरों से
विदा कर दो।
मंदिर नृत्य
के और जीवन के
उत्सव के स्थल
हों, तो हम
धर्म को वापस
ला पाएंगे।
गंभीर
चेहरे, बीमार,
घबड़ाए हुए, जिंदगी
से परेशान, पीड़ित-- नहीं,
मंदिर को बेरौनक कर
गए हैं। मंदिर
तो जीवन के
नृत्य का क्षण
है। वहां तो
जिंदगी की
सारी गंभीरता
बाजार में छोड़कर
चले जाना
चाहिए। वहां
तो नाचते हुए
ही जाना
चाहिए। वहां
तो नाचना
चाहिए घड़ीभर
सब भूलकर, लोग-लिहाज,
लाज-लज्जा,
सब भूलकर।
कल एक
महिला ने मुझे
खबर दी कि कोई
बूढ़ी महिला पीछे
कह रही थी कि
यह क्या पाप
हो रहा है!
स्त्री और
पुरुष साथ नाच
रहे हैं!
कृष्ण को न
समझ पाएगी ऐसी
बुद्धि। अगर
नृत्य और
कीर्तन में भी
स्त्री-पुरुष
का खयाल बना
रहे,
तो अच्छा है
कि नृत्य-कीर्तन
मत करो। इतना
भी न भूलता हो!
दूसरे का शरीर
न भूलता हो, तो अपना
शरीर कैसे
भूलेगा? अगर
इसका भी खयाल
बना रहे कि
पास में
स्त्री खड़ी है,
इसलिए
बच-बचकर नाचो,
तो मत
नाचना।
क्योंकि फिर
अपने शरीर का
खयाल भूलने
वाला नहीं है।
कोई तो
घड़ी हो, जहां
आप शरीर न रह
जाएं और सिर्फ
वही रह जाएं, जो भीतर
हैं। वहां न
कोई स्त्री है,
न कोई पुरुष
है। किसी घड़ी
में तो सब भूल
जाना चाहिए।
लेकिन हमारे
मंदिर में भी
स्त्री-पुरुषों
के फासले बने
हुए हैं।
स्त्रियां
अलग बैठी हैं,
पुरुष अलग
बैठे हैं!
सुनी
है न आपने
घटना मीरा की
कि जब वह गई वृंदावन, तो
मंदिर के
पुजारी ने
भीतर न आने
दिया। उसने कहा
कि मैं स्त्री
को देखता ही
नहीं। तो मीरा
ने खबर भिजवाई
कि गोस्वामी
को कहो कि मैं
तो सोचती थी, एक ही पुरुष
है, कृष्ण!
तुम दूसरे
पुरुष कहां से
आ गए?
क्षमा
मांगी आकर कि
माफ कर दो।
भूल हो गई।
ये नासमझियां
धर्म के नाम
पर बहुत हैं।
ये तोड़ने जैसी
हैं। उन्मुक्त!
किसी घड़ी में
तो जीवन के
सारे थोथे नियमों
को एक तरफ
रखकर डूब
जाएं। और फिर
देखने वाली
दृष्टि कैसी
बेहूदी है!
जिस स्त्री को, जिस
पुरुष को यहां
कीर्तन नहीं
दिखाई पड़ा, कृष्ण का
नाम नहीं
सुनाई पड़ा, हरिनाम नहीं
सुनाई पड़ा, उसे दिखाई
पड़ा कि एक औरत
एक पुरुष के
पास नाच रही
है! उस स्त्री
की बुद्धि
कितनी है! उस
स्त्री की समझ
कैसी है! और
जिसने मुझे
खबर दी उसने
कहा कि वह
वृद्धा थी।
अगर वृद्ध
होकर भी अभी
यौन के इतने
अंतर भूले
नहीं, तो
फिर कब? कब्र
के बाद? अर्थी
उठ जाएगी तब? कब होगा? ये
भेद कब गिरेंगे?
ये कहीं तो
गिर जाने
चाहिए।
इसलिए
अव्यवस्थित
है,
कोई
व्यवस्था
नहीं है।
हरिनाम की कोई
व्यवस्था
नहीं होती, सिर्फ आनंद
होता है।
अराजक है, केआटिक
है। जानकर है,
क्योंकि
जितना अराजक
होगा, उतने
ही भीतर के
बंधन गिरेंगे।
और भीतर जो छिपी
आत्मा है, वह
प्रकट हो
सकेगी।
और
किसी पाने की
आकांक्षा से
नहीं है।
सिर्फ प्रभु
को धन्यवाद
देने की
आकांक्षा है। घंटेभर
सुनी गीता; हृदय
के कहीं फूल
खिले; कहीं
कोई वीणा का
तार छुआ और
बजा; कहीं
कोई भीतर बुझा
हुआ दीया जला,
तो बाद में
पांच मिनट
परमात्मा को
धन्यवाद देकर
विदा हो जाना
चाहिए। इसलिए
कि यह भी समझ
हमारी कहां, तेरी ही है!
उसको ही
समर्पित करके
चले जाना चाहिए।
यह भी हम कहां
समझ पाते!
तूने समझाना
चाहा, तो
हम समझ गए।
तूने दिखाना
चाहा, तो
दिखाई पड़ गया।
तूने इशारा
किया, तो
इशारा मिल
गया। तुझे
धन्यवाद दे
देते हैं और
चले जाते हैं।
थैंक्स
गिविंग
है। यह सिर्फ
आभार है। और
आज तो मैं
आपसे कहूंगा, अपनी
जगह बैठकर ही डोलें और
ताली बजाएं और
प्रभु का नाम
लें। और एक भी
आदमी जाए न।
एक
सूत्र और ले
लें।
सर्वकर्माणि
मनसा संन्यस्यास्ते
सुखं
वशी।
नवद्वारे पुरे देही नैव कुर्वन्न
कारयन्।।
13।।
और
हे अर्जुन, वश
में है
अंतःकरण
जिसके, ऐसा
सांख्ययोग
का आचरण करने
वाला पुरुष
निःसंदेह न
करता हुआ और न
करवाता हुआ, नौ द्वारों
वाले शरीररूप
घर में सब
कर्मों को मन
से त्यागकर, अर्थात
इंद्रियां
इंद्रियों के
अर्थों में बर्तती
हैं, ऐसा
मानता हुआ
आनंदपूर्वक, सच्चिदानंदघन परमात्मा
के स्वरूप में
स्थित रहता
है।
इसमें
एक ही नई बात
कही है, वह
समझ लें।
कहा है, अंतःकरण
वश में हुआ
जिसका! इस
संबंध में
हमने बात की
है। न करता है,
न कराता हुआ,
सच्चिदानंद
परमात्मा में
सदा स्थित
रहता है। यह
आखिरी बात इस
सूत्र में नई
है।
ऐसा
व्यक्ति, ऐसे
ज्ञान को
उपलब्ध, इंद्रियों
से अपने को
भिन्न जानता
है जो, वासनाएं
जिसके
अंतःकरण को
अशुद्ध और
कुरूप और
दुर्गंधित
नहीं करतीं; कर्म करता
हुआ भी जानता
नहीं, मानता
नहीं कि मैं
कर्म करता
हूं। प्रभु ही
करता है।
कराता हुआ भी
नहीं मानता कि
मैं कराता
हूं। प्रभु ही
कराता है। ऐसा
पुरुष
प्रतिपल, हर
घड़ी, सोते-जागते,
उठते-बैठते
सच्चिदानंद
परमात्मा में
ही स्थिर रहता
है। एक क्षण
को भी वह हटता
नहीं वहां से।
हटे तो हम भी
नहीं हैं, लेकिन
हमें इसका पता
नहीं है, उसे
पता होता है।
हटे तो हम भी
नहीं हैं।
सच्चिदानंद
परमात्मा
हमारा स्वरूप
है।
लेकिन
हमारी हालत
वैसी है, जैसा
मैंने सुना है,
एक मछली ने
एक दिन जाकर
सागर की रानी
मछली से पूछा
कि यह सागर
कहां है? बहुत
सुनती हूं
चर्चा! मछलियां
बड़ी बात करती
हैं! पुरखों
से सुनी है यह
बात कि सागर
है कोई। पर
कहां है? सागर
कहां है?
स्वभावतः, मछली
सागर में ही
पैदा होती है,
सागर में ही
जीती है और
सागर में ही
समाप्त हो जाती
है। जो इतना
निकट है और
सदा निकट है, वह दिखाई
नहीं पड़ता। जो
बहुत ऑबियस
है, जो
बिलकुल सदा ही
साथ है, वह
दिखाई नहीं
पड़ता। दिखाई
पड़ने के लिए
बीच-बीच में
खो जाना जरूरी
है।
मछली
को सागर से निकालो, तब
उसे पता चलता
है कि सागर
कहां है। डाल
दो तट पर मछली
को निकालकर, तब तड़फन
आती है। तब
पता चलता है, सागर कहां
है। अन्यथा
सागर में रही
मछली को कभी
पता नहीं चलता
कि सागर कहां
है। पता चलेगा
भी कैसे? दूरी
चाहिए पता
चलने को। पर्सपेक्टिव
चाहिए, फासला
चाहिए। थोड़ा
फासला हो तो
पता चलता है, नहीं तो पता
नहीं चलता।
तो
सागर की मछली
को पता न हो, आश्चर्य
नहीं है। हमको
भी पता नहीं
है कि हम परमात्मा
में ही जीते, पैदा होते, जन्मते, बड़े
होते, बिखरते,
विसर्जित
होते हैं। और
सागर की मछली
तो कोशिश करने
से कभी किनारे
पर भी आ सकती
है। हम परमात्मा
के किनारे पर
कभी नहीं आ
सकते, क्योंकि
कोई किनारा है
ही नहीं।
इसीलिए तो हमें
पता नहीं चलता
कि परमात्मा
कहां है।
लोग
पूछते हैं, परमात्मा
कहां है? अगर
परमात्मा कोई
चीज होती, तो
बताई जा सकती
थी, यह
रही। एक पत्थर
भी बताया जा
सकता है, यह
रहा; और
परमात्मा
नहीं बताया जा
सकता कि कहां
है! क्योंकि
परमात्मा
कहां है, यह
पूछना ही गलत
है। परमात्मा
का मतलब ही यह
होता है कि जो
सब जगह है, जो
सब कहीं है, एवरीव्हेयर। हर कहीं है
जो, उसका
नाम परमात्मा
है।
इसका
यह मतलब भी
होता है कि
जैसे हम दूसरी
चीजों को बता
सकते हैं कि यह
रही,
ऐसे हम
परमात्मा को
नहीं बता
सकते। इसलिए
हम यह भी कह
सकते हैं कि
परमात्मा का
मतलब है, वही,
जो कहीं भी
नहीं है, नोव्हेयर। कहीं नहीं
बता सकते कि
यह रहा। कहीं
भी अंगुली
निर्देश नहीं
कर सकती कि यह
रहा। सब चीजों
को बता सकते
हैं, यह
रही, परमात्मा
को नहीं बता
सकते। अगर
परमात्मा को बताना
हो, तो
अंगुली के
इशारे से नहीं
बता सकते; मुट्ठी
बंद करके
बताना पड़ेगा
कि यह रहा।
अंगुली से
इशारा करेंगे,
तो गलती हो
जाएगी।
क्योंकि फिर
अंगुली के अतिरिक्त
जो इशारे छूट
गए, वहां
कौन होगा? वहां
भी वही है।
भीतर भी वही
है, बाहर
भी वही है। सब
जगह वही है।
परमात्मा
का अर्थ है, अस्तित्व,
दि
एक्झिस्टेंस।
हम भी उसी में
जीते हैं, लेकिन
हमें पता नहीं
है। लेकिन जिस
व्यक्ति ने
अंतःकरण को
शुद्ध कर लिया,
उसे इसका
पता हो जाता
है। ठीक ऐसे
ही पता हो जाता
है, जैसे
कि दर्पण पर
धूल जमी हो और
चेहरा न बनता
हो। और किसी
ने दर्पण को
साफ कर लिया
और चेहरा बन
जाए। और दर्पण
में दिखाई पड़
जाए कि अरे, मैं तो यह
रहा! लेकिन जब
धूल जमी थी, तब भी दर्पण
पूरा दर्पण
था। धूल हट गई,
तब भी दर्पण
वही दर्पण है।
लेकिन जब धूल
पड़ी थी, तो
चेहरा बन नहीं
पाता था, प्रतिफलित
नहीं होता था;
अब
प्रतिफलित
होता है।
शुद्ध
अंतःकरण मिरर
लाइक, दर्पण
के जैसा हो
जाता है।
इसलिए कृष्ण
ने कहा, जिसका
अंतःकरण
शुद्ध है!
जिसके
अंतःकरण से सारी
फलाकांक्षा
की धूल हट गई, वासनाओं का
सब जाल हट गया,
कूड़ा-करकट सब
फेंक दिया
उठाकर, कर्ता
का बोझ हटा
दिया, सब
परमात्मा पर
छोड़ दिया।
इतना शुद्ध और
हलका हुआ
अंतःकरण, शांत
और मौन, निर्भार
हुआ अंतःकरण,
जानता है
प्रतिपल कि
मैं
सच्चिदानंद
परमात्मा में
हूं। होता ही
उसी में है
सदा। लेकिन अब
जानता है। अब
ध्यानपूर्वक
जानता है। अभी
सोया हुआ था, अब जागकर
जानता है।
जैसे
आप सोए हों।
सूरज की रोशनी
बरसती है चारों
तरफ,
आप सोए हैं।
आपकी बंद
पलकों पर सूरज
की रोशनी टपकती
है, लेकिन
आपको कोई भी
पता नहीं, आप
सोए हैं, सूरज
चारों तरफ बरस
रहा है। आपके
खून में सूरज
की गर्मी जा
रही है, आपके
भीतर तक। आपका
हृदय सूरज की
गर्मी में धड़क
रहा है। सब
तरफ सूरज है, बाहर और
भीतर, लेकिन
आपको कोई पता
नहीं है; आप
सोए हैं।
फिर एक
आदमी उठ आया
और उसने जाना
और अब वह पाता है
कि हर घड़ी
सूरज में है।
सोया हुआ भी
सूरज में है, जागा
हुआ भी सूरज
में है। लेकिन
सोए हुए को पता
नहीं है, कांशसनेस
नहीं है।
अंतःकरण
जिसका शुद्ध
होता है, वह
जानता है
प्रतिपल, मैं
परमात्मा में
हूं। और जिसको
यह पता चल जाए
कि प्रतिपल
मैं परमात्मा
में हूं, स्वभावतः
सच्चिदानंद
की तिहरी घटना
उसके जीवन में
घट जाती है।
ये सत, चित,
आनंद, तीन
शब्द हैं। यह
भारत की मनीषा
ने जो
श्रेष्ठतम
नवनीत निकाला
है सारे जीवन
के अनुभव से, उनका इन तीन
शब्दों में
जोड़ है।
सत! सत
का अर्थ है, एक्झिस्टेंस;
जिसका
अस्तित्व है।
चित! चित का
अर्थ है, कांशसनेस,
जिसमें
चेतना है।
आनंद! आनंद का
अर्थ है, ब्लिस;
जो सदा ही
आनंद में है।
ये तीन शब्द भारत
की समस्त
साधना की निष्पत्तियां
हैं।
अस्तित्व
है किसका? पत्थर
का? पानी
का, जमीन
का? आदमी
का? दिखाई
पड़ता है, है
नहीं।
क्योंकि आज है
और कल नहीं हो
जाएगा। भारत
उसको
अस्तित्व
कहता है, जो
सदा है। जो
बदल जाता है, उसके
अस्तित्व को
अस्तित्व
नहीं कहता।
उसके अस्तित्व
का कोई मतलब
नहीं है।
अस्तित्व
उसका है, जो
अपरिवर्तनीय,
नित्य है।
वही है
अस्तित्ववान।
बाकी तो सब खेल
है छाया का।
बच्चे
थे आप, फिर
जवान हो गए, फिर बूढ़े हो
गए। न तो बचपन
का कोई
अस्तित्व है;
बचपन भी एक फेज है; एक्झिस्टेंस
नहीं, चेंज!
बचपन एक
परिवर्तन है।
इसे जरा
समझें।
हम
कहते हैं एक
आदमी से, यह
बच्चा है।
कहना नहीं
चाहिए।
वैज्ञानिक नहीं
है कहना। साइंटिफिक
नहीं है।
क्योंकि
बच्चा है, ऐसा
कहने से लगता
है, कोई
चीज स्टैटिक,
ठहरी हुई
है। कहना
चाहिए, बच्चा
हो रहा है।
जवान हो रहा
है। है की
स्थिति में तो
कोई जवान नहीं
होता, नहीं
तो बूढ़ा हो ही
नहीं सकेगा
फिर। बूढ़ा भी
बूढ़ा नहीं
होता। बूढ़ा भी
होता रहता है।
नदी बहती है, तो हम कहते
हैं, नदी
बह रही है।
कहते हैं, नदी
है। कहना नहीं
चाहिए है, है।
कहना चाहिए, नदी हो रही
है।
इस जगत
में इज़, है
शब्द ठीक नहीं
है। गलत है।
सब चीजें हो
रही हैं। हम
कहते हैं, वृक्ष
है। जब हम
कहते हैं, है,
तब वृक्ष
कुछ और हो
गया। एक नई
पत्ती निकल गई
होगी। एक
पुरानी पत्ती
टपक गई होगी।
एक फूल खिल
गया होगा। एक
कली आ गई
होगी। जब तक
हमने कहा, है,
तब तक वृक्ष
बदल गया।
बुद्ध
के पास एक
आदमी मिलने
आया और उसने कहा
कि अब मैं
जाता हूं। बड़ी
कृपा की आपने।
फिर आऊंगा
कभी। बुद्ध ने
कहा,
तुम दुबारा
अब न आ सकोगे।
और तुमसे मैं
कहता हूं कि
तुम जो आए थे, वही तुम जा
भी नहीं रहे
हो। घंटेभर
में गंगा का
बहुत पानी बह
चुका है।
यहां
कुछ भी ठहरा
हुआ नहीं है।
इसलिए
परमात्मा को
हम कहते हैं, एक्झिस्टेंस;
और जगत को
कहते हैं, चेंज।
संसार है
परिवर्तन और
परमात्मा है
अस्तित्व। सत
का अर्थ है, वह जो सदा
है।
जिस
व्यक्ति का
अंतःकरण
शुद्ध हुआ, वह
जानता है, मैं
सदा हूं। न
मैं कभी पैदा
हुआ और न कभी
मरूंगा। न मैं
बच्चा हूं, न मैं बूढ़ा
हूं, न मैं
जवान हूं। मैं
वह हूं, जो
सदा है, जो
कभी
परिवर्तित
नहीं होता है।
दूसरा
शब्द है, चित।
चित का अर्थ
है, चैतन्य।
जो व्यक्ति
जितना शुद्ध
होकर भीतर झांकता
है, उतना
ही पाता है कि
वहां चेतना ही
चेतना है; वहां
कोई मूर्च्छा
नहीं। और जब
कोई अपने भीतर
देख लेता है
कि सब चैतन्य
है, उसे
बाहर भी
चैतन्य दिखाई
पड़ने लगता है।
ध्यान
रहे,
जो हम भीतर
हैं, वही
हमें बाहर
दिखाई पड़ता
है। चोर को
चोर दिखाई
पड़ते हैं
बाहर।
ईमानदार को
ईमानदार
दिखाई पड़ते
हैं बाहर।
बाहर हमें वही
दिखाई पड़ता है,
जो हम भीतर
हैं। चूंकि
भीतर हम
मूर्च्छित
हैं, इसलिए
बाहर हमें
पदार्थ दिखाई
पड़ता है। जब
हम भीतर चेतना
को अनुभव करते
हैं शुद्ध
अंतःकरण में,
तो बाहर भी
चेतना का सागर
दिखाई पड़ने
लगता है। तब
सब चीजें चेतन
हैं। तब पत्थर
भी जीवंत और चेतन
है। तब इस जगत
में कुछ भी जड़
नहीं है। तो
ऐसा व्यक्ति
सदा चेतना में
थिर होता है।
और
तीसरी बात है, आनंद।
जिसे पता चल
गया अस्तित्व
का, उसका
दुख मिट जाता
है। दुख
परिवर्तन में
है। जहां
परिवर्तन है,
वहीं दुख
है। और जहां
परिवर्तन
नहीं है, वहीं
आनंद है। जिस
व्यक्ति को
पता चल गया कि
परिवर्तन के
बाहर हूं मैं,
उसके जीवन
से दुख विदा
हो जाता है।
मूर्च्छा
में दुख है।
जहां बेहोशी
है,
वहां दुख
है। ध्यान
रखें, इसलिए
दुखी आदमी
शराब पीने
लगते हैं। और
शराबी आदमी
दुखी हो जाते
हैं।
जहां-जहां दुख
है, वहां-वहां
बेहोशी की
तलाश होती है।
और जहां-जहां
बेहोशी है, वहां-वहां
दुख बढ़ता चला
जाता है, विशियस
सर्किल की तरह।
इसलिए दुखी
आदमी शराब
पीने लगेगा।
दुनिया में
जितना दुख
बढ़ेगा, उतनी
शराब बढ़ेगी।
जितनी शराब बढ़ेगी, उतना
दुख बढ़ेगा। और
एक-दूसरे को
बढ़ाते चले जाएंगे।
जितना ही आदमी
होश से भरता
है, उतना
ही दुख के
बाहर हो जाता
है।
नित्य
का पता चल जाए, चैतन्य
का अनुभव हो
जाए, आनंद
की घटना घट
जाती है। और
ध्यान रहे, यह आनंद
किसी से मिलता
नहीं। यह फर्क
है। सुख किसी
से मिलता है।
आनंद किसी से
मिलता नहीं है,
भीतर से आता
है। सुख सदा
बाहर से आता
है। सुख सदा
किसी पर
निर्भर होता
है। आनंद सदा
ही स्वतंत्र
होता है।
इसलिए सुख के
लिए दूसरे का
मोहताज होना
पड़ता है। आनंद
के लिए किसी
का मोहताज
होने की जरूरत
नहीं है।
अगर
मुझे सुखी
होना है, तो
मुझे समाज में
किसी के साथ
होना पड़ेगा।
और अगर मुझे
आनंदित होना
है, तो मैं
अकेला भी हो
सकता हूं। अगर
इस पृथ्वी पर
मैं अकेला रह
जाऊं और आप सब
कहीं विदा हो
जाएं, तो
मैं सुखी तो
नहीं हो सकता,
आनंदित हो
सकता हूं।
लेकिन
ध्यान रहे, जिनसे
हमें सुख
मिलता है, उनसे
ही दुख मिलता
है। जिसे आनंद
मिलता है, उसे
दुख का उपाय
नहीं रह जाता।
एक बात
अंतिम। आप सोच
न पाएंगे, मनुष्य
की भाषा में
सब भाषाओं के
विपरीत शब्द हैं,
आनंद के
विपरीत कोई
शब्द नहीं है।
सुख का ठीक
पैरेलल दुख है।
खड़ा है सामने।
प्रेम के
पैरेलल, समानांतर
खड़ी है घृणा।
दया के
समानांतर खड़ी
है क्रूरता।
सबके
समानांतर कोई
खड़ा है। आनंद
अकेला शब्द
है। क्योंकि
आनंद
स्वनिर्भर है,
द्वंद्व के
बाहर है, अद्वैत
है। सुख-दुख, प्रेम-घृणा,
सब द्वंद्व
के भीतर हैं, द्वैत हैं।
इसलिए
कृष्ण कहते
हैं,
अंतःकरण
शुद्ध हुआ
जिसका, वह
सच्चिदानंद
परमात्मा में
स्थिर, सदा
स्थिर होता
है।
शेष कल
हम बात
करेंगे। पर
बैठे रहें।
पांच मिनट अब
उस आनंद की
खबर को अपने
भीतर समा जाने
दें। देखें।
ताली बजाएं।
गा सकें, गाएं।
बैठे-बैठे डोल
सकें, डोलें। इस आनंद को
लें और फिर
पांच मिनट बाद
चुपचाप विदा
हो जाएं।
आज इतना
ही।
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