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शुक्रवार, 30 मई 2014

जिन सूत्र--(भाग-2) प्रवचन--15

त्‍वरा से जीना ध्‍यान है—प्रवचन—पंद्रहवां
जिन सूत्र--(भाग-2)
सूत्र:

सीसं जहा सरीरस्‍स, जहा मूलस दुमस्‍स य।
सव्‍वस्‍स साधुधम्‍मस्‍स, तहा झाणं विधीयते।। 117।।

लवण व्‍व सलिजजोए, झाणे चितं विलीयए जस्‍स
तस्‍स सुहासुहडहणो, अप्‍पाउणलो पयासेइ।। 118।।

जस्‍सविज्‍जदि रागो, दोसो मोहो व जोग परिक्‍कमो
तस्‍स सुहासुहडहाणो, झाणमओ जायए अग्‍गी।। 119।।

पलियंकं बंधेउं, निसिद्धमणवयणकायवावारो
नासग्‍गनिमियनयणो, मन्‍दीकयसासनीसासो।। 120।।


गरहियनियदुच्‍चरिओ,  खामियसत्‍तो नियत्‍तियपमाओ
निच्‍चलचित्‍तो तास झाहि, जाव पुरओव्‍व पडिहाइ।। 121।।

थिरकयजोगाणं पुण, मुणीणझाने सुनिच्‍चलमणाणं
गामम्‍मि जणाइण्‍णे, सुण्‍णे रण्‍णे व ण विसेसो।। 122।।

नुष्य कुछ खोज रहा है। मनुष्य खोज है। खोज को नाम हम कुछ भी दें। कहें आनंद, कहें महाजीवन, कहें परमात्मा, निर्वाण, मोक्ष; यह भेद नामों के हैं। एक बात सुनिश्चित है कि आदमी चाहे कैसा ही हो, खोज रहा है। ठीक-ठीक साफ भी न हो कि क्या खोज रहा हूं, फिर भी खोज रहा है। खोज जैसे मनुष्य का अंतर्तम है। बिना खोजे मनुष्य नहीं रह सकता। खोज में ही मनुष्य की मनुष्यता है।
पशु-पक्षी हैं। खोज नहीं रहे हैं। वृक्ष हैं, चट्टानें-पहाड़ हैं, हैं। खोज नहीं रहे हैं। कहीं जा नहीं रहे, कोई जिज्ञासा नहीं। अस्तित्व जैसा है, स्वीकार है। कोई रूपांतर करने की कामना नहीं। क्रांति का कोई स्वर नहीं। प्रकृति में विकास है, मनुष्य में क्रांति है। वहीं मनुष्य भिन्न है।
डार्विन का सिद्धांत सारी प्रकृति के संबंध में सही है, आदमी भर को छोड़कर। प्रकृति विकास कर रही है। कर रही है कहना ठीक नहीं, हो रहा है। विकास या "एवोल्यूशन' का अर्थ ही इतना है, जो तुम्हारे बिना किये हो रहा है। मनुष्य भर कुछ ऐसा है कि कुछ करता है। उस करने में क्रांति है। जो होता है, विकास है; जो किया जाता है, वही क्रांति है।
इस क्रांति की दृष्टि को बहुत गहरे में पकड़ लेना जरूरी है कि मनुष्य बिना किये नहीं रह सकता। कुछ करेगा, कुछ बदलेगा। कुछ मिटायेगा, कुछ बनायेगा। रूपांतरण, सुंदरतम, सत्यतर की खोज जारी रहती है। कोई छोटे पैमाने पर, कोई बड़े पैमाने पर। कोई दौड़ता है, कोई घसिटता है। लेकिन इस यात्रा में सभी सम्मिलित हैं।
मनुष्य खड़ा नहीं, जैसे वृक्ष खड़े हैं। मनुष्य रुका नहीं, जैसे पशु-पक्षी रुके हैं। टटोलता है, अंधेरे में सही। गिरता है, फिर उठता है। कहीं कोई एक अदम्य भरोसा है गहरे में कि कुछ पाने को है। जीवन जैसा दिखायी पड़ता है, उतने पर समाप्त नहीं। कुछ छिपा है। उसे उघाड़ना है। उसका आविष्कार करना है। यह जो दिखायी पड़ रहा है, यह केवल बाह्य रूप है। भीतर कुछ हीरे छिपे होंगे। जब परिधि है, तो केंद्र भी होगा। जब घर की बाहर की दीवाल है, तो भीतर का अंतर्तम मंदिर भी होगा। तो आदमी उघाड़ रहा है, पर्दे उघाड़ रहा है। घूंघट हटा रहा है। इस खोज के दो रूप हो सकते हैं। एक रूप, जिससे विज्ञान पैदा होता है। तब हम पर्दा उठाते हैं जरूर, अपने पर से नहीं उठाते; पर पर से उठाते हैं। विज्ञान भी घूंघट हटाता है, लेकिन वैज्ञानिक स्वयं घूंघट में रह जाता है। आइंस्टीन ने खोज लिया हो कोई सत्य सापेक्षता का प्रकृति में, अस्तित्व में, लेकिन खुद पर्दे में और घूंघट में रह गया।
मरते वक्त आइंस्टीन से किसी ने पूछा कि दुबारा जन्म हो, तो तुम क्या बनना चाहोगे? तो उसने कहा एक बात पक्की है, वैज्ञानिक न बनना चाहूंगा। प्लंबर भी बन जाऊंगा तो ठीक है, लेकिन वैज्ञानिक न बनना चाहूंगा। क्या कारण था आइंस्टीन को ऐसा कहने का कि वैज्ञानिक न बनना चाहूंगा? पूछा तो था क्या बनना चाहोगे, उत्तर में उसने कहा क्या नहीं बनना चाहूंगा। वैज्ञानिक नहीं बनना चाहूंगा। एक बात धीरे-धीरे उस मनीषी को दिखायी पड़ने लगी थी कि दूसरों पर से सब पर्दे भी उठ जाएं, और तुम अंधेरे में रह जाओ, तो सार क्या? सारे जगत में सूरज निकल आये और तुम्हारा भीतर का लोक अंधकार में दबा रह जाए, तो सार क्या? सब जान लो और अपने को न जान पाओ, तो इस जानने का मूल्य क्या? यह सब जानना भीतर के अज्ञान के सामने व्यर्थ हो जाएगा।
विज्ञान भी पर्दा उठाता है, धर्म भी। धर्म पर्दा उठाता है जाननेवाले पर से, ज्ञाता पर से। विज्ञान पर्दा उठता है ज्ञेय पर से। विज्ञान उठाता है आब्जेक्ट पर से पर्दा, विषय पर, जो दिखायी पड़ता है दृश्य उससे। धर्म उठाता है पर्दा द्रष्टा पर से, जो देखनेवाला है, जो जाननेवाला है, जो मैं हूं। और धर्म की ऐसी समझ है कि जिसने स्वयं को जान लिया, उसने सब जान लिया। अपना घर भीतर आह्लाद से, प्रकाश से भर गया, तो सारा जगत प्रकाश से भर गया।
अगर तुम प्रसन्न हो, तो तुमने खयाल किया, तुम्हारी प्रसन्नता के कारण फूल भी हंसते हुए मालूम होते हैं। तुम उदास हो, तो फूल भी उदास मालूम होते हैं। फूलों को तुम्हारी उदासी से क्या लेना-देना! तुम अगर दुखी हो, पीड़ित हो, तो चांद भी रोता मालूम पड़ता है। तुम अगर आनंदित हो, नाच रहे, तुम्हारा प्रिय घर आ गया, मित्र को खोजते थे मिल गया, तो चांद भी नृत्य करता मालूम होता है। चांद वही है। पृथ्वी पर हजारों लोग चांद को देखते हैं; लेकिन एक ही चांद को नहीं देखते। हर आदमी का चांद अलग है। क्योंकि हर आदमी की देखनेवाली आंख अलग है। कोई खुशी से देख रहा है--किसी का प्रियजन घर आ गया। कोई दुख से देख रहा है--किसी का प्रियजन छूट गया। कोई नाच रहा है खुशी में, सौभाग्य में; कोई रो रहा है, आंसू बहा रहा है। आंसुओं की ओट से जब चांद दिखायी पड़ता है, तो आंसुओं में दब जाता है। गीत की ओट से जब दिखायी पड़ता है, तो चांद में भी गीत उठने लगता है।
इसे खयाल लेना, तुम जैसे हो, वैसा तुम्हारा संसार हो जाता है। तुम जैसे नहीं हो, वैसा तुम्हारा संसार हो ही नहीं सकता। क्योंकि तुम ही मौलिक रूप से अपने संसार के निर्माता हो। तुम्हारी आंख, तुम्हारे कान, तुम्हारे हाथ प्रतिपल संसार को निर्मित कर रहे हैं। एक लकड़हारा इस बगीचे में आ जाए, तो वह देखेगा कि कौन-कौन से वृक्ष काटे जाने योग्य हैं। अनजाने ही! उसे फूल न दिखायी पड़ेंगे! उसे वृक्षों की हरियाली न दिखायी पड़ेगी। उसे केवल लकड़ी दिखायी पड़ेगी, जो बाजार में बिक सकती है। एक कवि आ जाए, तो उसे ऐसे रंग दिखायी पड़ेंगे जो तुम्हें दिखायी नहीं पड़ते। तुम्हें सब वृक्ष हरे मालूम पड़ते हैं। कवि को हर हरियाली अलग हरियाली मालूम पड़ती है। हर वृक्ष का हरापन अद्वितीय है। अलग-अलग है। तुम कहते हो फूल खिले हैं, लेकिन प्रगाढ़ता से तुम्हारी चेतना के सामने फूल प्रगट नहीं होते। क्योंकि वहां कोई प्रगाढ़ता नहीं है। कोई चित्रकार आये, कोई संगीतज्ञ आये, तो संगीतज्ञ सुन लेगा कोयल की कुहू-कुहू, इन पक्षियों का कलरव। हम जो होते हैं, वैसा हमें संसार दिखायी पड़ने लगता है। धर्म कहता है, जिसने स्वयं को जान लिया, उसने सब जान लिया। इक साधे सब सधे। और वह एक तुम्हारे भीतर है।
धर्म और विज्ञान दोनों एक ही खोज के दो पहलू हैं।
विज्ञान बहिर्मुखी खोज है, धर्म अंतर्मुखी। विज्ञान जाता है दूर अपने से, धर्म आता है पास और पास। उस पास आने का नाम ही ध्यान है।
महावीर के ये सूत्र ध्यान के सूत्र हैं। इन सूत्रों को बहुत गहरे में उतरने देना। क्योंकि ध्यान धर्म का सार है। कुंजी है। ध्यान को जिसने समझा, उसने धर्म को समझा। और ध्यान को छोड़कर जो सारे धर्मशास्त्र भी समझ ले, वह कुछ भी धर्म को नहीं समझा। उसका धर्म का जानना ऐसे ही है जैसे कोई भूखा पाकशास्त्र के शास्त्र पढ़ता रहे, या मिठाइयों की तस्वीरों को रखे बैठा रहे। उससे भूख न मिटेगी। ध्यान है धर्म का प्राण। ध्यान है धर्म की वास्तविकता। ध्यान है धर्म का अर्थ और अभिप्राय। ये सूत्र ध्यान के सूत्र हैं। पहला सूत्र--
"जैसे मनुष्य-शरीर में सिर और वृक्ष में उसकी जड़ उत्कृष्ट या मुख्य है, वैसे ही साधु के समस्त धर्मों का मूल ध्यान है।'
"सीसं जहा सरीरस्स--जैसे शरीर में सिर।' पैर काट दो, आदमी जी जाएगा। हाथ काट दो, आदमी जी जाएगा। सिर काट दो, आदमी नहीं जी सकेगा। अभी तो वैज्ञानिकों ने ऐसे प्रयोग किये हैं कि सिर को काटकर अकेला जिलाया रखा जा सकता है। यंत्रों के सहारे। यांत्रिक हृदय खून को गतिमान करता रहेगा। और यांत्रिक फेफड़े श्वास लेते रहेंगे। अकेला सिर जिलाये रखा जा सकता है। सारे शरीर को हटाकर भी। लेकिन सिर के हट जाते ही--सारा शरीर मौजूद है--लेकिन फिर जिलाया नहीं जा सकता। और जिलाये रखा भी जा सके, तो उस जीवन का कोई अर्थ न होगा। क्योंकि सारा अर्थ और अभिप्राय तो मनुष्य की प्रतिभा में है, प्रज्ञा में है। उसके बोध में है। गहन मस्तिष्क के अंतस्तलों में छिपा है जीवन का अर्थ।
तो महावीर कहते हैं--"सीसं जहा सरीरस्स'--जैसा सिर है शरीर में अत्यंत मुख्य, मालिक, राजा, सिंहासन पर बैठा। "जहा मूलम दुमस्स य।' और जैसे जड़ें हैं वृक्ष की। वृक्ष को काट दो, नया अंकुर आ जाएगा--जड़ें भर बचा लो। जड़ें काट दो, बड़े से बड़ा वृक्ष समाप्त हो जाएगा। इसीलिए तो उपनिषद कहते हैं कि आदमी उलटा वृक्ष है। उसकी जड़ें ऊपर की तरफ, सिर में हैं। उलटा लटका वृक्ष है मनुष्य।
बड़ा महत्वपूर्ण प्रतीक है उपनिषदों में। और सब वृक्ष की जड़ें जमीन में हैं, आदमी के सिर की जड़ें आकाश में। पैर आदमी की शाखाएं-प्रशाखाएं हैं। जड़ें उसके सिर में हैं। सूक्ष्म जड़ें हैं। ऐसा कहें कि मनुष्य की जड़ें आकाश में, अनंत आकाश में। या परमात्मा में, अगर धार्मिक शब्द प्रिय हो। लेकिन एक बात सुनिश्चित है कि किसी गहरे अर्थ में आदमी सिर से जुड़ा है जगत से। पैर से नहीं जुड़ा है।
इसीलिए तो ब्राह्मणों ने कहना चाहा कि हम सिर हैं और शूद्र पैर हैं। ऐसे यह बात दंभ की है लेकिन बात तो ठीक ही है। अगर ब्राह्मण ब्राह्मण हो, तो सिर है। क्योंकि ब्राह्मण का अर्थ होता है, जिसने ब्रह्म को जान लिया। वह जानने की घटना तो सहस्रार में घटती है, सिर में घटती है। जिसने ब्रह्म को जान लिया, वही ब्राह्मण है। तो ठीक है कि ब्राह्मण सिर है। और यह कहना भद्दा है और आज के लोकतांत्रिक युग में तो बहुत भद्दा है कि शूद्र पैर है, लेकिन बात सही है। इसे हम उलटाकर कहें तो बात ठीक हो जाती है। जो अभी पैर ही हैं, वे शूद्र हैं। शूद्र पैर हैं, यह कहना तो अभद्र है, लेकिन जो अभी भी पैर हैं और जिनका सहस्रार नहीं खुला, जिनके मस्तिष्क में छिपे कमल अभी बंद पड़े हैं, वे शूद्र हैं। प्राचीन दृष्टि ऐसी थी कि पैदा तो सभी शूद्र होते हैं--सभी--ब्राह्मण भी, पैदाइश से तो सभी शूद्र होते हैं, फिर कभी कोई साधना से ब्राह्मण होता है।
महावीर की क्रांति का यह अनिवार्य हिस्सा था। महावीर और बुद्ध दोनों की अथक चेष्टा थी कि ब्राह्मण का संबंध जन्म से छूट जाए। कोई व्यक्ति जन्म से ब्राह्मण नहीं होता। हो नहीं सकता। क्योंकि ब्राह्मणत्व अर्जित करना होता है। मुफ्त नहीं मिलता। जन्म से तो सभी शूद्र होते हैं, फिर कभी कोई, एकाध कोई विरला, कोई जाग्रत, जागा हुआ ब्राह्मण हो पाता है। ब्राह्मण तभी होता है, जब उसे अपनी जड़ों की स्मृति आती है। ब्राह्मण तभी होता है, जब अपनी सिर से फैली जड़ों को वह आकाश में खोज लेता है। जो सहस्रार तक पहुंचा है, वही ब्राह्मण है। अन्यथा कुछ और होगा।
महावीर कहते हैं, "जैसे सिर है मनुष्य के शरीर में और जैसे जड़ें हैं वृक्षों में।'
जड़ों को काट दो, कितना ही बलशाली वृक्ष मर जाएगा। या जड़ों को काटते रहो, तो वृक्ष दीनऱ्हीन हो जाएगा।
जापान में टोकियो के बड़े बगीचे में चार सौ साल पुराना एक पौधा है। वह अगर वृक्ष होता, तो एकड़ों जमीन घेरता। लेकिन वह एक छोटी-सी बसी में--चाय पीने की बसी में आरोपित है। चार सौ साल पहले जिस आदमी ने उसे आरोपित किया था--जरा-सी इंचभर पतली पट्टी है मिट्टी की, चाय पीने की बसी में, उसमें लगाया हुआ है। और बसी के नीचे छेद है, उन छेदों से वह जड़ें काटता रहा है। तो पौधा चार सौ साल पुराना है, लेकिन केवल कुछ इंच बड़ा है। जराजीर्ण हो गया है। बड़ा वृद्ध है। चार सौ साल लंबी यात्रा है। लेकिन ऐसा है जैसे अभी चार दिन का पौधा हो। जड़ें नीचे कटती गयीं, रोज-रोज जड़ों को माली छांटता रहा। फिर उनकी पीढ़ी दर पीढ़ी यह काम करती रही। वह पौधा अनूठा है। जड़ों को बढ़ने न दिया, नीचे जड़ें न बढ़ीं, ऊपर वृक्ष न बढ़ा। वृक्ष को काटो, फिर नया हो जाएगा। जड़ को काट दो, बस वृक्ष समाप्त हुआ। उसके प्राण जड़ में हैं।
आदमी की जड़ें कहां हैं। होनी तो चाहिए ही, क्योंकि आदमी बिना जड़ों के जी नहीं सकता--कोई नहीं जी सकता। हम अस्तित्व में किसी न किसी भांति अपनी जड़ों को फैला रहे होंगे। हमें पता हो, न पता हो--वृक्षों को भी कहां पता है कि उनकी जड़ें हैं। वृक्षों को भी कहां बोध है कि गहरे अतल अंधेरे में फैली उनकी जड़ें हैं। आदमी की भी जड़ें हैं--गहरे अतल प्रकाश में फैली, आकाश में फैली। ठीक कहते हैं उपनिषद, आदमी उलटा वटवृक्ष है। जड़ें ऊपर हैं, शाखाएं नीचे की तरफ फैली हैं।
तुमने सुना होगा, बेबीलोन में दुनिया के सात चमत्कारों में एक चमत्कार था, और वह था एक उलटा बगीचा। वृक्ष इस तरह लगाये गये थे कि नीचे लटक रहे थे। एक बड़ा सेतु बनाया गया था। सेतु के ऊपर मिट्टी डाली गयी थी। और वृक्षों को सेतु के नीचे लटकाया गया था। अब तो सिर्फ उसकी कथा रह गयी, कुछ खंडहर उसके बचे हैं, लेकिन अतीत में वह दुनिया के बड़े-बड़े चमत्कारों में से एक था।
जब भी कभी बेबीलोन के उस बगीचे के संबंध में मैंने पढ़ा है, या उसके खंडहरों के चित्र देखे, तो मुझे खयाल आया कि जरूर यह खयाल कहीं न कहीं उपनिषदों से तैरकर बेबीलोन तक पहुंचा होगा। क्योंकि उपनिषद अकेले शास्त्र हैं दुनिया में, जिन्होंने कहा--आदमी उलटा लटकता वृक्ष है। यह बगीचा सिर्फ बगीचा नहीं था। नहीं हो सकता। यह आदमी का प्रतीक रहा होगा। यह एक शिक्षण की पाठशाला रही होगी। आदमी ऐसा ही वृक्ष है, जिसकी जड़ें ऊपर हैं।
"जहा मूलम दुमस्स य। सव्वस्स साधुधम्मस्स, तहा झाणं विधीयते' वैसे ही साधु के समस्त धर्मों का मूल ध्यान है। यह जो अनुवाद है, दो तरह से हो सकता है। जैन-मुनि इसी तरह का अनुवाद करते रहे, जैसा मैं पढ़ रहा हूं--जैसे मनुष्य-शरीर में सिर और वृक्ष में उसकी जड़ उत्कृष्ट है वैसे ही साधु के समस्त धर्मों का मूल ध्यान है। खयाल देना आखिरी हिस्से पर--वैसे ही साधु के समस्त धर्मों का मूल ध्यान है। मूल का अनुवाद एक और तरह से भी हो सकता है। लेकिन जैन-मुनियों ने उसे शायद पसंद नहीं किया। "सव्वस्स साधुधम्मस्स...' सब साधुओं का धर्म। या तो हम कहें कि साधु के समस्त धर्मों का मूल ध्यान है। या सब साधुओं के धर्म का मूल ध्यान है।
"सव्वस्स साधुधम्मस्स, तहा झाणं विधीयते'
मैं दूसरे ही अर्थ को ज्यादा पसंद करूंगा। सभी साधुओं के धर्म का मूल ध्यान है। और इसलिए भी कि महावीर का बहुत जोर था इस बात पर कि सभी धर्म सही हैं। सभी साधुओं के धर्म सही हैं। इसलिए महावीर ने, महावीर के प्रसिद्ध महामंत्र ने सब साधुओं को नमस्कार किया है--"णमो लोए सव्व साहूणम' समस्त साधुओं को मेरा नमस्कार है।
लेकिन जैन-मुनि इसका अनुवाद ऐसा करते हैं जिसमें बाकी साधुओं को काटा जा सके। वे कहते हैं, वैसे ही साधु के समस्त धर्मों का मूल ध्यान है। क्योंकि जैन-साधु तो जैन-साधु को ही साधु मानता है। किसी और का साधु तो साधु नहीं है। महावीर इतने कृपण नहीं हो सकते। ऐसी कंजूसी उन्हें शोभा भी न देगी। महावीर ने निश्चित ही यही कहा होगा कि सभी साधुओं के धर्मों का मूल ध्यान है। और तब इस सूत्र का अर्थ और भी गंभीर हो जाता है। फिर चाहे ईसाई हों, या मुसलमान हों, या यहूदी हों, या हिंदू हों, या बौद्ध हों, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता।
और यह बात तथ्य की है कि चाहे धर्म कहीं पैदा हुआ हो, चाहे किसी रूप-रंग में जन्मा हो, चाहे कैसी ही भाषा धर्म ने चुनी हो, लेकिन जहां भी साधु पैदा हुआ है, वहां उसका मूल ध्यान है। वह ध्यान कहता हो या न कहता हो--कहे प्रार्थना, कहे पूजा, कहे ध्यान, या कुछ और, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। ध्यान का मूल तो रहेगा ही। चाहे वृक्ष देवदारू का हो, चाहे चिनार का; चाहे आकाश को छूनेवाला वृक्ष हो और चाहे छोटा-मोटा पौधा हो; चाहे गुलाब का पौधा हो, चाहे चांदनी का, चाहे चंपा का, क्या फर्क पड़ता है! एक बात सुनिश्चित है। सभी वृक्षों का मूल उनकी जड़ में है। बहुत फर्क है जैन-साधु में, बौद्ध-साधु में, हिंदू-साधु में, ईसाई-साधु में। वे सब फर्क ऊपर-ऊपर हैं। जड़ में तो कोई फर्क नहीं हो सकता। जड़ तो चाहिए ही होगी। जड़ के बिना वृक्ष नहीं हो सकता, ध्यान के बिना साधु नहीं हो सकता। ध्यान के बिना धर्म नहीं हो सकता।
इसलिए पहला अनुवाद ठीक है। उस अर्थ को स्वीकार करने में कुछ अड़चन नहीं। साधु के समस्त धर्मों का मूल ध्यान है। बिलकुल ठीक है। लेकिन दूसरा और भी ज्यादा ठीक है--सब साधुओं के धर्म का मूल ध्यान है।
ध्यान को हम समझें कि क्या है!
रंभाती नदियो,
बेसुध कहां भागी जाती हो?
वंशी-रव
तुम्हारे ही भीतर है!
ध्यान का पहला सूत्र है--जिसे तुम खोजने चले हो, वह खोजनेवाले में छिपा है। कस्तूरी कुंडल बसै। यह ध्यान के पाठ का प्रारंभ है कि पहले अपने घर को टटोल लो। आनंद को खोजने चले हो? जगत बहुत बड़ा है। पहले घर में खोज लो, वहां न मिले, तो फिर जगत में खोजना। कहीं ऐसा न हो कि आनंद की राशि घर में लगी रहे और तुम जगत में खोजते फिरो। अकसर ऐसा ही होता है। ऐसा ही हुआ है।
हम खोज रहे हैं, मिलता भी नहीं है वहां, तो हम और दूर निकलते जाते हैं खोज में। जितना ही पाते हैं कि मिलना नहीं हो रहा है, उतनी ही हमारी खोज बेचैन और विक्षिप्त होती जाती है। जितना ही हम पाते हैं कि दौड़कर नहीं पहुंच रहे हैं, हम दौड़ को और बढ़ाये जाते हैं। हमारे मन का तर्क कहता है कि शायद ठीक से नहीं दौड़ रहे, शायद जितनी शक्ति से दौड़ना चाहिए उतनी शक्ति से नहीं दौड़ रहे हैं। और दौड़ो, और उपाय करो; सारे लोग बाहर दौड़े जा रहे हैं, तो होगा तो जरूर बाहर, इतने लोग गलत थोड़े ही हो सकते हैं!
हम जिस भीड़ में पैदा होते हैं, जन्म से ही हम पाते हैं कि भीड़ भागी जा रही है किसी के साथ। हम भी भीड़ के हिस्से हो जाते हैं। कोई धन खोज रहा है, कोई पद खोज रहा है, कोई यश खोज रहा है। लेकिन खोज बाहर है, सभी की बाहर है, तो हम भी उसमें लग जाते हैं, संलग्न हो जाते हैं। मनुष्य का मन भीड़ से चलता है। भीड़ का एक मनोविज्ञान है। तुम जहां बहुत लोगों को जाते देखते हो, तुम भी चल पड़ते हो। अनजाने यह बात स्वीकृत कर ली गयी है कि जहां इतने लोग जा रहे हैं, वह ठीक ही जा रहे होंगे।
इसीलिए तो दुनिया में बहुत-सी भ्रंात धारणाएं भी सदियों तक चलती हैं। पता भी चल जाता है कि गलत हैं, तो भी चलती हैं, क्योंकि भीड़ जब तक उन्हें न छोड़ दे तब तक नये लोग आते हैं और पुरानी धारणाओं को पकड़ते चले जाते हैं। जब तक भीड़ उन्हें पकड़े है तब तक नये बच्चे भी उन्हें पकड़ लेंगे, क्योंकि बच्चे तो अनुकरण करते हैं। हम सब अनुकरण में हैं।
इसलिए अलग-अलग संस्कृति, अलग-अलग समाज में, अलग-अलग चीजें मूल्यवान हो जाती हैं। किसी समाज में धन का बहुत मूल्य है। जैसे अमेरिका। तो अमेरिका में जो भीड़ है, वह धन की दीवानी है। और सब चीजें गौण हैं, धन प्रमुख है। हर चीज धन से खरीदी जा सकती है। इसलिए धन को पा लो। जिन समाजों में त्याग का बड़ा मूल्य रहा है उन समाजों में सदियों तक लोगों ने त्याग किया है। क्योंकि त्याग को सम्मान था। बचपन से ही व्यक्ति सुनता है त्याग की महिमा, उसके मन में भी भाव जगने शुरू होते हैं--यही मैं भी करूं।
भारत में ऐसा हुआ। सदियों तक त्याग की महिमा रही। उस त्याग की महिमा के कारण करोड़ों लोग त्यागी बने। लेकिन त्यागी बन जाओ कि धन की दौड़ में पड़ जाओ, कोई फर्क नहीं है, अनुकरण जारी है। जैसे पुराने दिनों में महात्मा का प्रभाव था और हर एक व्यक्ति महात्मा बनना चाहता था, वैसे अब अभिनेता का प्रभाव है। हर एक व्यक्ति अभिनेता बनना चाहता है। कोई फर्क नहीं पड़ा आदमी में।
तुम यह मत समझना कि पहले जो आदमी महात्मा बनना चाहते थे, वे बड़े महात्मा थे। कुछ फर्क नहीं है। वह उस भीड़ का मनोविज्ञान था, यह इस भीड़ का मनोविज्ञान है। उस दिन महात्मा पूज्य था, समादृत था, उसकी प्रतिष्ठा थी। महात्मा बनने में अहंकार की तृप्ति थी। अब अभिनेता बनने में अहंकार की तृप्ति है। बात वही की वही है।
क्रांति तो तब घटती है जब तुम भीड़ से हटते हो। जब तुम कहते हो, अनुकरण अब मैं न करूंगा। अब मैं अपने से सोचूंगा। तुम लाख दोहराओ, तुम करोड़ हो तो भी कोई फिकिर नहीं, मैं अपनी सुनूंगा, मैं अपनी अंतरात्मा की सुनूंगा। मैं अपने हृदय की वाणी से चलूंगा।
जैसे ही कोई व्यक्ति अपनी वाणी को सुनना शुरू करता है, वैसे ही समझ में ध्यान का सूत्र पड़ने लगता है। ध्यान के सूत्र का अर्थ है, जिसे हम खोजते हैं, वह कुछ भी क्यों न हो, उसे हम पहले अपने घर तो खोज लें।
सुना है, सूफी फकीर स्त्री हुई राबिया। वह एक सांझ अपने घर के सामने कुछ खोज रही थी, दो-चार लोग आते थे, उन्होंने पूछा, क्या खो गया? उसने कहा मेरी सुई गिर गयी। तो वे दो-चार भी उसको साथ देने लगे--बूढ़ी औरत है, आंखें भी कमजोर हैं! लेकिन फिर उनमें से किसी एक को होश आया कि सुई बड़ी छोटी चीज है, जब तक ठीक से पता न चले कहां गिरी, तो इतने बड़े रास्ते पर कहां खोजते रहेंगे? तो उसने पूछा कि मां, यह बता दे कि सुई गिरी कहां है? तो वहीं आसपास हम खोज लें, इतने बड़े रास्ते पर! उसने कहा बेटा! यह तो पूछो ही मत, सुई तो घर के भीतर गिरी है। वे चारों हाथ छोड़कर खड़े हो गये, उन्होंने कहा तू पागल हुई है! सुई घर के भीतर गिरी है, खुद भी पागल बनी, हमको भी पागल बनाया। जब सुई घर के भीतर गुमी है, तो भीतर ही खोज। उसने कहा, वह तो मुझे भी पता है। लेकिन भीतर अंधेरा है, बाहर रोशनी है--सूरज अभी ढला नहीं--अंधेरे में खोजूं भी कैसे? खोज तो रोशनी में ही हो सकती है।
वे हंसने लगे। उन्होंने कहा कि मालूम होता है बुढ़ापे में तेरा सिर फिर गया है! सठिया गयी तू! अगर घर में रोशनी नहीं है, तो भी खोजना तो घर में ही पड़ेगा। तो रोशनी भीतर ले जा। दीया मांग ला उधार पड़ोसी से, अगर तेरे घर में दीया नहीं।
अब हंसने की बारी उस बुढ़िया की थी। वह बड़ी महत्वपूर्ण सूफी फकीर औरत हुई। वह हंसने लगी। उसने कहा कि मैं तो सोचती थी कि तुम इतने समझदार नहीं हो जितनी समझदारी की बात कर रहे हो। मैं तो उसी तर्क का अनुसरण कर रही थी, जिसका तुम सब कर रहे हो। तुम सब भी बाहर खोज रहे हो, बिना बूझे कि खोया कहां? भीतर खोया है, खोज बाहर रहे हो। और कारण जो मैंने बताया, वही तुम्हारा है। क्योंकि आंखों की रोशनी बाहर पड़ती है, आंखें बाहर देखती हैं, बाहर सब साफ-सुथरा है, भीतर बड़ा गहन अंधकार है।
भीतर तुमने कभी आंख बंद करके देखा? कबीर को पढ़ो, दादू को पढ़ो, नानक को पढ़ो, तो वे कहते हैं, हजार-हजार सूरजों जैसा प्रकाश! तुम भीतर आंख बंद करते हो, सिर्फ अंधेरा। कुछ सूरज का प्रकाश वगैरह नहीं दिखायी पड़ता। सूरज तो दूर, मिट्टी का दीया भी नहीं टिमटिमाता। झट आंख खोलकर तुम फिर बाहर आ जाते हो। कम से कम रोशनी तो है! कम से कम रास्ते परिचित तो हैं। चीजें दिखायी तो पड़ती हैं। फिर खोज शुरू कर देते हो।
भीतर, जो आदमी बाहर का आदी हो गया है, जब पहली दफा जाएगा तो अंधेरा पायेगा। ऐसे ही जैसे तुम भरी दोपहरी में बाहर चलकर घर आते हो, एकदम अंधेरा मालूम पड़ता है। बैठ जाओ थोड़ा। थोड़ी देर में आंखें अभ्यस्त होंगी। आंख प्रतिपल बड़ी और छोटी होती रहती है। कभी धूप से आकर आईने में आंख को देखना, तो तुम पाओगे कि आंख बड़ी छोटी हो गयी है। क्योंकि इतनी धूप भीतर नहीं ले सकती, तो छोटी हो जाती है। जब अंधेरे में बैठेते हो, तो आंख बड़ी होती है। जैसे कैमरे का लेंस काम करता है, वैसे ही आंख काम करती है। थोड़ी देर बैठते हो तो घर में जहां पहले अंधेरा मालूम पड़ा था, अंधेरा समाप्त हो जाता है, रोशनी मालूम पड़ने लगती है।
अगर कोई व्यक्ति अंधेरे में देखने का अभ्यास करता ही रहे, जैसा कि चोर कर लेते हैं, तो दूसरे के घर में जहां बिलकुल अंधेरा है--घर का मालिक भी जहां बिना चीजों से टकराये नहीं चल सकता--वहां भी अपरिचित चोर दूसरे के अंधेरे घर में बड़ी व्यवस्था से चल लेता है, न तो चीज गिरती है, न आवाज होती है। जिस घर में शायद कभी भी न आया हो! चोर की आंखों को अंधेरे का अभ्यास हो गया है। उसने धीरे-धीरे अंधेरे में देखने की पटुता पा ली है। उसकी आंखें अंधेरे से सामंजस्य कर ली हैं। धूप से आते हो घर, अंधेरा मालूम पड़ता है। ऐसे ही बाहर जन्मों-जन्मों से भटके हो, जब आंख बंद करते हो तो भीतर अंधेरा मालूम पड़ता है। यह बिलकुल स्वाभाविक है।
कबीर और नानक और दादू गलत नहीं। हजार-हजार सूरज प्रतीक्षा कर रहे हैं। लेकिन थोड़ा अभ्यास!
ध्यान का अर्थ है, भीतर होने का अभ्यास। ध्यान का अर्थ है, बाहर से हटने का अभ्यास। ध्यान का अर्थ है, बाहर पर पर्दा डाल देने का अभ्यास। बाहर पर्दा डाला कि भीतर पर्दा उठा। भीतर पर्दा उठाने की और कोई तरकीब नहीं है, बस बाहर पर्दा डाल दो।
"जैसे मनुष्य-शरीर में सिर और वृक्ष में उसकी जड़ उत्कृष्ट, वैसे समस्त धर्मों का मूल ध्यान।'
जैन-मुनि से पूछो ध्यान के संबंध में। वह भूल ही गया है। और सब साध लिया है, ध्यान बिलकुल भूल गया है। अहिंसा साधता है, अस्तेय साधता है, अचौर्य साधता है, ब्रह्मचर्य साधता है, सब साधता है, सिर्फ ध्यान भूल गया है। यह दुर्घटना कैसे घटी होगी? क्योंकि महावीर चिल्ला-चिल्लाकर कहते हैं सब धर्मों का मूल ध्यान है।
मेरे पास जैन-मुनि आते हैं, वे कहते हैं, कैसे ध्यान करें? तुम मुनि कैसे हुए? क्योंकि मुनि तो कोई हो ही नहीं सकता बिना ध्यान के! मुनि का अर्थ है, जिसका चित्त मौन हो गया। चित्त मौन कैसे होगा बिना ध्यान के? अब तुम पूछने आये हो कि ध्यान कैसा! कितने वर्षों से मुनि हो? कोई कहता है तीस वर्ष से मुनि हैं, कोई कहता चालीस वर्ष से मुनि हैं। तो तुम मुनि शब्द का अर्थ भी भूल गये। मुनि का अर्थ ही ध्यानी होता है--मौन! जिसके भीतर चित्त में अब तरंगें नहीं उठतीं विचार की। जो निर्विचार हुआ, निर्विकल्प हुआ।
मगर खयाल ही भूल गया है। मुनि शब्द का अर्थ ही भूल गया है। ध्यान तो ऐसा लगने लगा जैसे जैन-धर्म से ध्यान का कोई संबंध नहीं है। और जैन-धर्म मौलिक रूप से ध्यान पर खड़ा है। सभी धर्म मौलिक रूप से ध्यान पर खड़े हैं। और कोई उपाय ही नहीं। जैन-धर्म उसी दिन मरने लगा, जिस दिन ध्यान से संबंध छूट गया। अब तुम साधो अणुव्रत और महाव्रत, अब तुम साधो अहिंसा, लेकिन तुम्हारी अहिंसा पाखंड होगी। क्योंकि ऊपर से आरोपित होगी। भीतर से आविर्भाव न होगा।
ध्यानी अहिंसक हो जाता है। होना नहीं पड़ता। ध्यानी में महाकरुणा का जन्म होता है। अपने को जानकर दूसरे पर दया आनी शुरू होती है। क्योंकि अपने को जानकर पता चलता है कि दूसरा भी ठीक मेरे जैसा है। अपने को जानकर यह स्पष्ट अनुभव हो जाता है कि सभी सुख की तलाश कर रहे हैं, जैसे मैं कर रहा हूं। अपने को जानकर पता चलता है, जैसे दुख मुझे अप्रिय है, वैसा सभी को अप्रिय है। जिसने अपने को जान लिया, वह अगर अहिंसक न हो, असंभव! और जिसने अपने को नहीं जाना, वह अहिंसक हो जाए, यह असंभव!
कल मैं महर्षि महेश योगी के गुरु का जीवन-चरित्र पढ़ रहा था। ब्रह्मानंद सरस्वती का। वह युवा थे। प्रकट, प्रगाढ़ खोजी थे। गुरु की तलाश में थे। किसी व्यक्ति की खबर मिली कि वह ज्ञान को उपलब्ध हो गया है, तो वह भागे हिमालय पहुंचे। वह आदमी मृगचर्म बिछाये, बिलकुल जैसा योगी होना चाहिए वैसा योगी दिखायी पड़ता था। प्रभावशाली आदमी मालूम पड़ता था। सशक्त, बलशाली! इस युवा ने--ब्रह्मानंद ने--पूछा कि महाराज! यहां कहीं आपकी झोपड़ी में थोड़ी अग्नि मिल जाएगी? अग्नि! हिंदू संन्यासी अग्नि नहीं रखते अपने पास। न अग्नि जलाते हैं। उन्होंने कहा, तुझे इतना भी पता नहीं है कि संन्यासी अग्नि नहीं छूते। फिर भी उस युवा ने कहा, फिर भी महाराज! शायद कहीं छिपा रखी हो। वह जो योगी थे, बड़े आग हो गये, बड़े नाराज हो गये, चिल्लाकर बोले कि नासमझ कहीं का! तुझे इतनी भी अकल नहीं कि हम और अग्नि चुराकर रखेंगे! क्या समझा है तूने हमें? तो ब्रह्मानंद ने कहा, महाराज! अगर अग्नि नहीं है, नहीं छुपायी, तो ये लपटें कहां से आ रही हैं? लपटें तो आ गयीं।
ऊपर से थोपकर कोई अभिनय कर सकता है। यह घटना मुझे प्रीतिकर लगी। अग्नि छुपाने का सूत्र भी इसमें साफ है। यह बाहर की अग्नि को छूने की बात नहीं, न बाहर की अग्नि रखने न रखने से कुछ फर्क पड़ता है, यह तो भीतर की आग संन्यासी न छुए। लेकिन ध्यान की जब तक वर्षा न हो जाए, भीतर की आग बुझती नहीं। जब तक ध्यान की रसधार न बहे, तब तक भीतर कुछ अंगारे-सा जलता ही रहता है, चुभता ही रहता है।
महावीर ने तो कहा कि मूल धर्म है--ध्यान। जिसने ध्यान साध लिया, सब साध लिया।
तो हम समझें, यह ध्यान क्या है? पहली बात, अंतर्यात्रा है। दृष्टि को भीतर ले जाना है। बाहर भागती ऊर्जा को घर बुलाना है। जैसे सांझ पक्षी लौट आता है, नीड़ पर, ऐसे अपने नीड़ में वापस, वापस आ जाने का प्रयोग है ध्यान।
जब सुविधा मिले, तब समेट लेना अपनी सारी ऊर्जा को संसार से--घड़ीभर को सही--सुबह, रात, जब सुविधा मिल जाए तब बंद कर लेना अपने को। थोड़ी देर को भूल जाना संसार को। समझना कि नहीं है। समझना कि स्वप्नवत है। अपने को अलग कर लेना। अपने को तो॰? लेना बाहर से। और अपने भीतर देखने की चेष्टा करना--कौन हूं मैं? मैं कौन हूं? यही एक प्रश्न। शब्द में नहीं, प्राण में। यही एक प्रश्न, बोल-बोल कर मंत्र की तरह दोहराना नहीं है, बोध की तरह भीतर बना रहे। एक प्रश्न-चिह्न खड़ा हो जाए भीतर अस्तित्व में--मैं कौन हूं?--और इसी प्रश्न के साथ थोड़ी देर रहना। एकदम से उत्तर न मिल जाएगा। और एकदम से जो उत्तर मिले, समझना कि थोथा है। एकदम से उत्तर मिल सकता है, वह उत्तर सीखा हुआ होगा। पूछोगे, मैं कौन हूं? भीतर से उत्तर आयेगा--तुम आत्मा हो। वह तुमने शास्त्र से पढ़ा है। इतनी सस्ती आत्मा नहीं है। किसी से सुन लिया है। भीतर से आयेगा--अहं ब्रह्मास्मि। वह उपनिषद में पढ़ लिया होगा, या सुन लिया होगा।
वर्षों की चेष्टा के बाद, वर्षों प्रश्न के साथ रहने के बाद--और प्रश्न के साथ रहने का अर्थ ही यह है कि तुम थोथे और उधार उत्तर स्वीकार मत करना, अन्यथा उत्तर फिर बाहर फेंक देगा। देख लेना कि ठीक है; यह कठोपनिषद से आता है, बिलकुल ठीक है; यह गीता से आता है, बिलकुल ठीक है; क्षमा कर गीता मैया! छोड़ पीछा! कुछ मुझे भी जानने दे! गीता बाहर है। असली गीता तो भीतर है। तुम्हारी गीता तो घटने को है, अभी घटी नहीं। अभी तुम्हारा महाभारत तो शुरू है। अभी तो तुम्हारा अर्जुन थका भी नहीं। अभी तो तुम्हारा अर्जुन कंपा भी नहीं। अभी तो तुम्हारे अर्जुन ने गांडीव छोड़ा भी नहीं और कहा कि मेरे गात शिथिल हुए जाते हैं। अभी तो तुम्हारे अर्जुन ने प्रश्न ही नहीं पूछा, तो तुम्हारा कृष्ण बोले कैसे?
तो बाहर के कृष्ण और बाहर के अर्जुन को थोड़ा बाहर ही छोड़ देना। प्रश्न बनना, तो तुम अर्जुन बनोगे। और ध्यान रखना, जहां भी अर्जुन प्रगट होता है, वहां कृष्ण प्रगट हो ही जाएंगे। जहां प्रश्न है, वहां उत्तर आयेगा ही। तुम प्रश्न भर पैदा कर लो, लेकिन प्रश्न सच्चा हो, प्रगाढ़ हो, ज्योतिर्मय हो। तुम अपने को दांव पर लगाने को तैयार होओ। अर्जुन ने ऐसे ही पूछा होता--काम चलाऊ; ऐसे ही कृष्ण को प्रभावित करने के लिए, देखो मैं कितना धार्मिक हुए जा रहा हूं--अर्जुन ने ऐसे ही पूछा होता कि चलो, क्या हर्ज है, कृष्ण को भी तृप्ति मिल जाएगी कि कैसा महान शिष्य मेरा, कैसा महान साथी! अर्जुन कोई अभिनय नहीं कर रहा था। वही तो गीता का यथार्थ है। वस्तुतः उसके प्राण कंप गये देखकर।
तुमने अगर आंख खोलकर जगत को देखा है, तुम्हारे प्राण भी कंपने चाहिए। तुमने अगर गौर से देखा, तो युद्ध-पंक्तियां बंधी खड़ी हैं। हजारों तरह का युद्ध चल रहा है, संघर्ष चल रहा है, हिंसा हो रही है। तुम उसमें भागीदार हो। अर्जुन को इतना ही तो दिखायी पड़ा कि कम से कम मैं तो अलग हो ही जाऊं; जो हो रहा है, हो। कम से कम यह दाग मेरे उपर तो न पड़े। वह थककर बैठ गया। उसने कहा, मैं भाग जाऊं। छोड़ दूं सब। कुछ सार नहीं। इतनी मृत्यु! इतनी हिंसा! मिलेगा क्या? राज-सिंहासन पर बैठ जाऊंगा तो क्या होगा? इतनी लाशों के ऊपर राज-सिंहासन रखा जाएगा? नहीं, यह प्रतिस्पर्धा, यह प्रतियोगिता मेरे काम की नहीं। उस घड़ी तैयारी बनी। उस घड़ी जिज्ञासा उठी और यह जिज्ञासा कुतूहल न थी। यह ऐसे ही पूछ लिया प्रश्न न था चलते-चलते। इसके पीछे गहरे प्राण दांव पर लगाने की तैयारी थी। तुम अभी अर्जुन नहीं बने, तुम्हारी गीता पैदा नहीं हो सकती।
तो जब बाहर की गीता उत्तर देने लगे, कहना कि महाराज, हे कृष्ण महाराज, तुम बाहर रहो! अभी मुझे प्रश्न को जीने दो, अभी अर्जुन पैदा नहीं हुआ, तुम समय के पहले आ गये। उधार जो तुमने सीख लिया हो, बुद्धि में जो इकट्ठा कर लिया हो कूड़ा-कर्कट सब तरफ से बटोरकर, उसे बाहर रख देना।
ध्यान की प्रक्रिया थोथे ज्ञान से मुक्त होने की प्रक्रिया है। और जब कोई थोथे ज्ञान से मुक्त हो जाता है, तो वास्तविक का जन्म होता है। शायद वास्तविक तो मौजूद ही है, थोथे के कारण पता नहीं चलता।
एक बौद्ध भिक्षु हुआ--आर्य असंग। बड़ा बहुमूल्य भिक्षु हुआ। उसके जीवन में बड़ी अनूठी कथा है। नालंदा में आचार्य था। फिर समझ आयी संसार की व्यर्थता की तो सब छोड़कर चला गया। तय कर लिया कि अब तो ध्यान में ही डूबूंगा, हो गया ज्ञान बहुत। जान लिया सब, और जाना तो कुछ भी नहीं। पढ़ डाले शास्त्र सब, हाथ तो कुछ भी न आया। छोड़कर पहाड़ चला गया। एक गुफा में बैठ गया। तीन साल अथक ध्यान किया। लेकिन कहीं मंजिल करीब आती मालूम न पड़ी।
हतोत्साह, हताशा से भरा गुफा से बाहर निकल आया। सोचा लौट जाऊं। तभी उसने क्या देखा कि एक चिड़िया वृक्षों से पत्ते तोड़त्तोड़कर लाती है, पत्ते गिर-गिर जाते हैं, घोंसला बनता नहीं; मगर फिर चली जाती है, फिर ले आती है, फिर चली जाती है, फिर ले आती है। उसने सोचा क्या इस चिड़िया से भी कमजोर है मेरा साहस और मेरी आशा और मेरी आस्था? घोंसला बन नहीं रहा है, लेकिन इसकी कहीं भी आशा नहीं टूटती, हताशा नहीं आती। वह फिर वापस गुफा में चला गया। तीन साल तक कहते हैं, फिर उसने हिम्मत करके ध्यान किया। कुछ न हुआ। सब श्रम लगा दिया, लेकिन कुछ न हुआ। फिर घबड़ाकर एक दिन बाहर आ गया और कहा, अब बहुत हो गया!
फिर उस वृक्ष के नीचे बैठा था कि देखा एक मकड़ी जाला बुन रही है। गिर-गिर जाती है, जाले का धागा सम्हलता नहीं, फिर-फिर बुनती है। फिर उसे  खयाल आया कि आश्चर्य की बात है, ऐसी चीजें मुझे बाहर आते ही से दिखायी पड़ जाती हैं। अभी मकड़ी भी नहीं हारी, मैं क्यों हारूं? एक बार और कोशिश कर लूं। कहते हैं, वह फिर तीन साल ध्यान किया। कुछ न हुआ। बहुत परेशान हुआ। अब उसने  सोचा, अब बाहर निकलूंगा पता नहीं फिर कुछ हो जाए, तो अब की दफे आंख बंद करके ही चले जाना है। अब कुछ भी हो रहा हो बाहर--मकड़ी हो कि चिड़िया हो कि कुछ भी हो, परमात्मा कोई भी इशारे दे, अब बहुत हो गया, नौ साल कोई थोड़ा वक्त नहीं, सारा जीवन गंवा दिया!
वह आंख बंद करके भागा। वह जैसे ही पहाड़ से नीचे उतर रहा था, उसने देखा एक कुतिया, उसकी पीठ सड़ गयी है, उसमें कीड़े पड़ गये हैं--वह उसे दिखायी पड़ी। उससे न रहा गया। बैठा, उसके कीड़े अलग किये, जब वह उसके घाव धो रहा था, तभी ध्यान घटा। जो नौ साल में नहीं घटा था, वह घटा। अचानक, जैसे कुछ गहन में भीतर खींचे लिये चला गया। आंख बंद हो गयीं, वह भीतर पहुंच गया। जिसकी तलाश थी, वह रोशनी सामने खड़ी है। जिसकी तलाश थी, वह बुद्धत्व खिला। उसने कहा, हे प्रभु! इतने दिन तक खोजता था--नौ वर्ष अथक श्रम किये, तब तुम न दिखायी पड़े, तब यह रोशनी न मिली, अब! तो कहते हैं उस रोशनी से उत्तर आया कि मैं तो तब भी तेरे ही भीतर था, लेकिन तेरे ध्यान की चेष्टा बड़ी अहंकार-पूर्ण थी। तेरा अहंकार बाधा बन रहा था। इस कुतिया के घाव धोते वक्त एक क्षण को तेरा अहंकार मौजूद न रहा। करुणा हो, तो अहंकार मौजूद नहीं रहता। प्रेम हो, तो अहंकार समाप्त हो जाता है। मैं तो सदा से तेरे पास था--नौ महीने से भी और नौ सालों से भी, नौ जन्मों से भी । मैं तो भीतर था ही, मैं तेरा स्वभाव हूं, लेकिन तू भीतर नहीं आ पाता था। ध्यान भी कर रहा था तू, तो उसमें अकड़ थी--मैं पाकर रहूंगा। वह अहंकार की उदघोषणा थी।
भीतर जाना है जिन्हें उन्हें बाहर की दौड़ छोड़नी है। और बाहर की दौड़ का जो सूक्ष्म सूत्र है--अहंकार--वह भी तोड़ना है। स्वयं को मिटाये बिना कोई ध्यान को उपलब्ध नहीं होता। और स्वयं को मिटाये बिना कोई स्वयं को उपलब्ध नहीं होता। यह जिसको हमने अभी स्वयं समझा है, जिसको अभी हम कहते हैं--"मेरा', "मैं', यह हमारी आत्मा नहीं है। यह आत्मा ही होती, तो हम परम आनंद से भर गये होते। यह अहंकार है।
अहंकार का अर्थ है, यह हमने बाहर से इकट्ठा किया है। किसी स्कूल में "गोल्ड मेडल' मिल गया था, वह जुड़ गया। किसी अखबार में नाम छप गया था, वह काटकर चिंदी जोड़ ली। कोई आदमी ने हंसकर कह दिया कि तुम बड़े सुंदर हो, वह भी जोड़ लिया। किसी ने कहा कि तुम बड़े त्यागी हो, किसी ने कहा तुम बड़े सच्चरित्र हो, कहीं "पद्मश्री' मिल गयी, कहीं "भारतरत्न' हो गये, इस तरह के सब पागलपन इकट्ठे कर लिये, उन सबको जोड़कर अहंकार की थेगड़ी बनाकर बैठ गये हैं।
तुम जरा कभी सोचना कि "मैं कौन हूं', तो जो भी उत्तर आयें तुम हैरान होओगे, ये बाहर से दिये गये उत्तर हैं। कोई तुम्हारी मां ने दिया था, कोई तुम्हारे पिता ने, कोई तुम्हारे मित्र ने, कोई तुम्हारी पत्नी ने, कोई तुम्हारे शत्रु ने, कोई अपनों ने, कोई परायों ने। इन सबको इकट्ठा कर के तुमने एक घास-फूस की झूठी प्रतिमा खड़ी कर ली है। और निश्चित ही यह प्रतिमा प्रतिपल घबड़ायी रहती है, क्योंकि यह बिलकुल झूठी है। यह कभी भी गिर सकती है और बिखर सकती है। इसमें कोई बल नहीं है, कोई प्राण नहीं है।
ध्यान का अर्थ है, पहले बाहर से भीतर मुड़ना। और भीतर जाते वक्त तुम पाओगे दरवाजे पर अड़ा हुआ ताला। वह ताला है अहंकार का।
"जैसे पानी का योग पाकर नमक विलीन हो जाता है, वैसे ही जिसका चित्त निर्विकल्प समाधि में लीन हो गया, उसके चिरसंचित शुभाशुभ कर्मों को भस्म करनेवाली आत्मरूप अग्नि प्रगट होती है।'
"जैसे पानी का योग पाकर नमक विलीन हो जाता है।' नमक की डली पानी में डालते ही खो जाती है। विलीन हो जाती है। ऐसे ही जिसका चित्त निर्विकल्प ध्यान में लीन हो गया, जिसने बाहर को छोड़ा, बाहर से बने हुए प्रतिबिंबों के अहंकार को छोड़ा, निर्विकल्प हुआ, निशल्य हुआ, अपने एकांत में ठहरा, तत्क्षण जन्मों-जन्मों की चिरसंचित शुभ-अशुभ कर्मों की जो राशि है, वह विलीन हो जाती है।
महावीर बड़ी क्रांतिकारी घोषणा कर रहे हैं। वह कह रहे हैं, जन्मों-जन्मों की कर्म की शृंखला को मिटाने के लिए यह मत सोचना कि जन्म-जन्म लगेंगे अब शुभ कर्म करने में, एक-एक कर्म को काटना पड़ेगा। तब तो असंभव हो जाएगा। क्योंकि हम कितने अनंत काल से कर्म करते रहे। अगर एक-एक कर्म को काटना पड़े, तो अनंत काल लग जाएगा। तब तो मुक्ति असंभव है।
महावीर कहते हैं, एक क्षण में भी घट सकती है घटना, त्वरा चाहिए, तीव्रता चाहिए; अग्नि की प्रगाढ़ता चाहिए--एक क्षण में सारा अतीत भस्म हो सकता है। और तुम ऐसे ताजे हो सकते हो, जैसे तुम पहले क्षण जन्मे, जैसे इसके पहले तुम कभी थे ही नहीं। तुम्हारा सारा इतिहास ध्यान की एक गहरी झलक में विलीन हो सकता है, विदा हो सकता है। जन्मों-जन्मों की जमी धूल तुम्हारे दर्पण पर, हवा के एक झोंके में बिखर सकती है। झोंका बलशाली चाहिए!
ध्यान एक मशाल बने। दोनों छोरों से जले।
जर्मनी की एक बहुत विचारशील महिला रोज़ा लक्ज़ेंबर्ग कहती थी कि मैंने एक ही बात जीवन में पायी कि अगर तुम अपनी मशाल को दोनों तरफ से एक-साथ जलाओ, त्वरा से जीओ, सघनता से जीओ, तो परमात्मा दूर नहीं। हम ढीले-ढीले जीते हैं, सुस्त-सुस्त जीते हैं--कुनकुने-कुनकुने--कभी वह घड़ी नहीं आती जहां हमारा जल वाष्पीभूत हो जाए। हम लंबा जीना चाहते हैं, गहरा नहीं जीना चाहते। हम आशीर्वाद देते हैं कि सौ साल जीओ। सौ साल जीने से क्या होगा! जैसे मुर्दे की तरह जी रहे हो, ऐसे हजार साल भी जीओ तो कोई सार नहीं है। यह आशीर्वाद भ्रांत है। यह आशीर्वाद शुभ नहीं है। सौ साल जीने से क्या लेना! एक दिन भी जीओ, लेकिन जीओ! ऐसे सौ साल घसिटने से क्या होगा?
अब एक रात अगर कम जीये, तो कम ही सही
यही बहुत है कि हम मशालें जला के जीये
इससे क्या फर्क पड़ता है कि कितनी देर जीये! कितने गहरे जीये...!
ध्यान रखना, बाहर की तरफ जानेवाला व्यक्ति मात्रा और परिमाण पर जोर देने लगता है--सौ साल जीये। भीतर जानेवाला व्यक्ति कहता है, जीओ चाहे एक क्षण, लेकिन ऐसी परिपूर्णता से जीओ, ऐसी समग्रता से जीओ कि उस एक क्षण में शाश्वतता समाविष्ट हो जाए। और एक क्षण में शाश्वत समाविष्ट हो जाता है। एक छोटा-सा क्षण अनंत काल बन सकता है। सवाल गहराई का है। लंबाई का नहीं।
ऐसा समझो कि एक आदमी पानी में तैर रहा है। ऐसा तैरता चला जाता है एक किनारे से दूसरे किनारे, यह एक ढंग है। यह हम सबका ढंग है। सतह पर तैरने का। और एक आदमी डुबकी लगाता है, पानी में गहरे जाता है। गहराई में जाना ध्यान है, सतह पर तैरते रहना संसार है। सतह पर तैरनेवाले राजनीति में हैं। गहरे जानेवाले धर्म में।
"पानी का योग पाकर नमक जैसे विलीन हो जाता है, ऐसे ही निर्विकल्प समाधि में...।'
निर्विकल्प समाधि का अर्थ है, जब ध्यान सध गया। जब ध्यान अभ्यास न रहा, सिद्धि हो गयी। जब तुम्हारे भीतर निर्विचार रहना तुम्हारी सहज संपदा हो गयी--तुम जब चाहो तब आंख बंद करके निर्विचार हो गये। पहले तो बड़ा कठिन होगा। पहले तो उलटी हालत हो जाएगी। जब आंख बंद करोगे, विचारों का हमला होगा। उससे भी ज्यादा--दुकान पर बैठकर जितना नहीं होता उतना मंदिर में होता है, कभी खयाल किया? दुकान पर बैठकर काम में लगे रहते हो, उलझे रहते हो विचारों का कोई खास हमला पता नहीं चलता है। लेकिन मंदिर में जाकर बैठते हो कि चलो घड़ीभर शांति से बैठें, आंख बंद की कि न मालूम कहां-कहां के विचार खड़े हो जाते हैं। संगत-असंगत; अच्छे-बुरे; सार्थक-व्यर्थ; जिनसे कुछ भी नहीं लेना-देना, वे सब सिर उठाने लगते हैं। क्या हो जाता है?
मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं जब ध्यान करते हैं, तब विचार और ज्यादा आते हैं। इससे तो बिना ध्यान में कम आते हैं। बिना ध्यान में कम आते हैं, क्योंकि जब तुम बिना ध्यान में हो, तब तुम्हारा मन कहीं संलग्न होता है, कहीं लगा होता है। तो जिस तरफ तुम संलग्न हो, उसी सीमा से बंधे हुए विचार, उसी दिशा से बंधे हुए विचार आते हैं। जब तुम ध्यान में बैठे हो--असंलग्न, अव्यस्त--तो सभी दिशाओं से विचार आते हैं। तब तुम घबड़ा जाते हो। ध्यान लगता नहीं। शुरू-शुरू में यह स्वाभावकि है। बहुत-से विचार तुम्हारे भीतर पड़े हैं, जो तुमने दबा रखे हैं, वह उभरेंगे। इसलिए पहले ध्यान में रेचन होगा। सब कूड़ा-कबाड़ उठेगा। जैसे वर्षों तक किसी ने घर को बुहारा न हो, फिर एक दिन घर में आये तो धूल उठने लगे। धूल की पर्तें की पर्तें जमी हैं। हां, बाहर बैठे रहो, पोर्च में, तो भीतर सब शांति है, कोई धूल नहीं उठती। भीतर जाओ, तो धूल उठती है। ऐसे ही जन्मों-जन्मों तक हमने विचार की धूल को जमने दिया है--भीतर गये नहीं, बुहारी लगायी नहीं। भीतर कभी वर्षा होने न दी, स्नान होने न दिया, अब जब भीतर जाएंगे तो जन्मों-जन्मों का कचरा उठेगा।
इसकी सफाई करनी होगी। और जब कोई सफाई करता है, तो धूल बड़े जोर से उठती है। ऐसे ही ध्यान में विचार बड़े जोर से उठते हैं। लेकिन यह तो संक्रमण की बात है। सफाई हो जाएगी, विचार चले जाएंगे।
अगर कोई व्यक्ति शांतिपूर्वक प्रयोग करता जाए, तो धीरे-धीरे-धीरे कुछ करना नहीं होता, सिर्फ अपने विचारों के साक्षी-भाव बने रहने से; साक्षी, द्रष्टा बने रहने से; देखते रहो--अलिप्त--ठीक है, विचार आते हैं, जाते हैं; देखते रहो, आने भी दो, जाने भी दो; न रोको, धकाओ; रस मत लो; विरस, उदासी, तटस्थ; जैसे अपना कुछ लेना-देना नहीं; ऐसे देखते-देखते तुम पाओगे कि धीरे-धीरे अंतराल भी आने लगे। कुछ क्षण आ जाते हैं जब कोई विचार नहीं होता। उन्हीं अंतरालों में पहली दफा बदलियां छंटेंगी, सूरज की रोशनी उतरेगी। उन्हीं अंतरालों में पहली दफा निर्विकल्पता के थोड़े-थोड़े अनुभव होंगे--छोटे-छोटे, क्षणभंगुर--लेकिन वे क्षण बहुमूल्य हैं। जिन्होंने उन क्षणों को जान लिया, समझो कि उन्होंने स्वर्ग की यात्रा कर ली। थोड़ी देर को सही, लेकिन किसी और लोक में प्रवेश कर गये। फिर क्षण बड़े होने लगते हैं। धीरे-धीरे विचारों से छुटकारा होता चला जाता है। विचार दूर होते चले जाते हैं। और व्यक्ति अपने में लीन होता चला जाता है। इस लीनता को कहते हैं, निर्विकल्प। इस स्थिति को कहते हैं, समाधान, समाधि। और तब चिरसंचित शुभ-अशुभ कर्मों को भस्म करनेवाली आत्मरूप अग्नि प्रगट होती है।
"जिसके राग-द्वेष और मोह नहीं हैं तथा मन-वचन-काया रूप योगों का व्यापार नहीं रह गया है, उसमें समस्त शुभाशुभ कर्मों को जलानेवाली ध्यानाग्नि प्रगट होती है।'
ध्यान अग्नि है। क्योंकि जलाती है कचरे को। क्योंकि जलाती है व्यर्थ को, और असार को। ध्यान अग्नि है, क्योंकि जलाती है अहंकार को। ध्यान मृत्यु जैसी है। क्योंकि मारती है तुम्हें--तुम जैसे अभी हो, और जन्माती है उसे--जैसे तुम होने चाहिए। तुम्हारे भविष्य को प्रगट करती है, तुम्हारे अतीत को विदा करती है। तुम्हें संसार की पकड़ के बाहर ले जाती है और परमात्मा की सीमा में प्रवेश देती है। ध्यान के इस द्वार से खोज करनी है अपने असली स्वरूप की।
तुम कहां से आ रहे हो, नाम क्या है?
वह पुकारूं शब्द मत मुझको बताओ
जो तुम्हारा आवरण है।
पर कहो वह नाम
जिसको फूल और नक्षत्र ये कहते नहीं
नाम जो असहाय, मर जाता उसी दिन
जिस दिवस हम भूमितल पर जन्म लेते हैं
झेन फकीर कहते हैं कि बताओ अपना मौलिक चेहरा--वह चेहरा, जब तुम पैदा नहीं हुए थे तब तुम्हारा था। वह चेहरा, जब तुम मर जाओगे तब भी तुम्हारा होगा--बताओ वह मौलिक चेहरा। अभी तो हम जो चेहरे रखे हुए हैं, ये सब ओढ़े हुए चेहरे हैं।        
तुम कहां से आ रहे हो,
नाम क्या है?
वह पुकारूं, शब्द मत मुझको बताओ
जो तुम्हारा आवरण है।
कोई को हम कहते हैं राम, किसी को कृष्ण, किसी को कुछ, किसी को कुछ। यह तो पुकारू नाम है। तुम जब आये थे, तो कोई नाम लेकर न आये थे। तुम जब आये थे, तब खाली, अनाम आये थे। तुम जब आये थे, तब कोई लेबिल तुम पर लगा न था। न हिंदू थे, न मुसलमान थे, न जैन थे, न ईसाई थे। तुम जब आये थे, तब न सुंदर थे, न कुरूप थे। तुम जब आये थे, न बुद्धू थे, न बुद्धिमान थे। तुम जब आये थे, तब कोई विशेषण न लगा था। विशेषण-शून्य। तुम कौन थे तब?
ध्यान में उसकी फिर से खोज करनी है। ध्यान में फिर उस जगह को छूना है, जहां से संसार शुरू हुआ है, जहां से समाज शुरू हुआ; जहां तुम्हें नाम दिया गया, विशेषण दिये गये; शिक्षा दी गयी, संस्कार दिये गये; तुम्हें एक रूप, ढांचा दिया गया; उस ढांचे के पार कौन थे तुम? एक दिन मृत्यु आयेगी, यह देह छिन जाएगी। जब तुम्हारी चिता पर जलेगी यह देह, तो अग्नि इसकी फिकिर न करेगी--हिंदू हो, मुसलमान हो, जैन हो; सिक्ख, ईसाई, कौन हो? सुंदर हो, कुरूप; स्त्री हो, पुरुष; धनी हो, गरीब हो, अग्नि कोई चिंता न करेगी, बस भस्मीभूत ही कर देगी। मिट्टी तुम्हें अपने में मिला लेगी। तब तुम कौन बचोगे? जो तुमने इस संसार में जाना और माना था, वह सब तो फिर छिन जाएगा। उस सबके छिन जाने के बाद भी जो बच जाता है, वही हो तुम।
ध्यान में हम उसी की खोज करते हैं, जो जन्म के पहले था और मृत्यु के बाद भी होगा। तो ध्यान का अर्थ हुआ--किसी भांति इन सारी समाज के द्वारा दी गयी संस्कार की पर्तों को पार कर के अपने स्वभाव को पहचानना है। स्वभाव को पहचान लेना ध्यान है। इसलिए महावीर ने तो धर्म की परिभाषा ही स्वभाव की है। वत्थू सहावो धम्मं। वस्तु के स्वभाव को जान लेना धर्म है। तुम्हारा जो स्वभाव है, उसको जान लेना तुम्हारा धर्म है। जैन और हिंदू और मुसलमान नहीं, तुम कौन हो इसे पहचान लेना धर्म है।
तुम जवानी हो
कि शैशव
आप अपना पाठ फिर दोहरा रहा है?
जिंदगी हो,
या सुनहला रूप धर कर
मृत्यु विचरण कर रही है?
कौन हो तुम? क्या है तुम्हारा नाम? कहां से आते हो? कहां को जाते हो? तो एक तो हमारे ऊपर पड़ी हुई पर्तें हैं, कंडीशनिंग, संस्कार। इन पर्तों की गहरी गहराई में कहीं हमारा स्वरूप दब गया है। जैसे हीरे पर मिट्टी चढ़ गयी हो। मिट्टी पर मिट्टी चढ़ती चली गयी हो। हीरा बिलकुल खो गया हो। फिर भी खो तो नहीं जाता, मिट्टी हीरे को मिटा तो नहीं सकती, दब जाता है।
महावीर कहते हैं, आत्मा सिर्फ दब गयी है। ध्यान से उस दबे तक कुआं खोदना है। अपने भीतर सारी पर्तों को तोड़कर उस जगह पहुंचना है जहां तोड़ने को कुछ भी न रह जाए।
ऐसा समझो कि जो दूसरों ने तुम्हें बताया है कि तुम हो, वही छोड़ना है, वही बाधा है। स्वयं मैं कौन हूं, जानने के लिए वह सब छोड़ देना होगा, जो दूसरों ने तुम्हें बताया है कि तुम हो। दूसरों को अपना पता नहीं, तुम्हारा क्या पता होगा? दूसरों को तुम्हारा कोई पता नहीं है। नाम दे दिया है, क्योंकि नाम के बिना काम नहीं चलता। कोई नाम तो चाहिए। तो एक लेबिल लगा दिया है। सुविधा हो गयी। पुकारने में व्यवस्था हो गयी। चिट्ठी-पत्री लिखने के लिए आसानी हो गयी। एक पता-ठिकाना बना लिया है। यह सब कृत्रिम है। यह स्वभाव नहीं है। अगर तुम जंगल में रखे गये होते और किसी ने तुम्हारा नाम न पुकारा होता, तो तुम्हारे पास कोई नाम होता? तुम्हारे पास कोई नाम न होता। अगर तुम जंगल में पाले गये होते और किसी ने तुम्हें बताया न होता कि तुम हिंदू हो, कि मुसलमान, कि जैन, तो तुम कौन होते? न तुम हिंदू होते, न मुसलमान होते, न जैन होते। अगर तुम जंगल में पाले गये होते और कोई तुमसे कहता नहीं कि तुम सुंदर हो कि असुंदर, तो तुम कौन होते? सुंदर होते कि असुंदर होते? कोई तुमसे कहता नहीं कि बुद्धू हो कि बुद्धिमान, तो तुम कौन होते? यह सब तो सिखावन है। सिखावन की पर्तों को तोड़कर...तो ध्यान है कुदाली, खोद देना है सारे संस्कारों को, पहुंच जाना है जलस्रोत तक। जैसे ही तुम जलस्रोत तक पहुंचे कि एक अभिनव जगत का आविर्भाव होता है। पहली दफा अपने पर आंख पड़ती है। पहली दफा भराव आता है। पहली दफा परितृप्ति, परितोष।
सलिल कण हूं कि पारावार हूं मैं
स्वयं छाया, स्वयं आधार हूं मैं
बंधा हूं, स्वप्न हैं, लघु वृत्त में हूं
नहीं तो व्योम का विस्तार हूं मैं
यह जो बंधन है तुम्हारे ऊपर--
बंधा हूं, स्वप्न हैं, लघु वृत्त में हूं
तो एक छोटी-सी सीमा बन गयी है,
नहीं तो व्योम का विस्तार हूं मैं
नहीं तो आकाश-जैसे बड़े हो तुम।
सलिल कण हूं कि पारावार हूं मैं
स्वयं छाया, स्वयं आधार हूं मैं
समाना चाहती जो बीन उर में
विकल वह शून्य की झंकार हूं मैं
भटकता खोजता हूं ज्योति तम में
सुना है ज्योति का आगार हूं मैं
लेकिन कब तक सुनोगे? जानोगे कब?
सुना है ज्योति का आगार हूं मैं
सुना है कि परमात्मा हूं। सुना है कि आत्मा हूं। सुना है कि मोक्ष मेरे भीतर बसा है--
सुना है ज्योति का आगार हूं मैं
जानोगे कब? ध्यान जानने की प्रक्रिया है।
लवण व्व सलिलजोए, झाणे चित्तं विलीयए जस्स
तस्स सुहासुहडहणो, अप्पाअणलो पयासेइ।।
"जैसे नमक गल जाए, ऐसे ध्यान की अग्नि में सब अतीत कर्म जल जाते हैं।'
जस्सविज्जदि रागो, दोसो मोहोजोगपरिक्कमो
तस्स सुहासुहडहणो, झाणमओ जायए अग्गी।।
"और उस आग में समस्त शुभ-अशुभ कर्मों का विनाश हो जाता है। जहां न राग बचते हैं, न द्वेष बचते हैं, मन-वचन-काया रूप योगों का व्यापार नहीं बचता।'
इसको खयाल में ले लेना, यह ध्यान की अनिवार्य शर्त है। "मन-वचन-काया रूप व्यापार का न रह जाना।'
यह महावीर के ध्यान की पद्धति का अनिवार्य हिस्सा है। ध्यान की बहुत पद्धतियां हैं। महावीर की अपनी विशिष्ट पद्धति है। उसका पहला सूत्र है: मन-वचन-काया रूप योगों का व्यापार नहीं रह जाए।
जब तुम ध्यान करने बैठो, तो पहली चीज महावीर कहते हैं: शरीर थिर हो, कंपे न। इसके पीछे बड़ा विज्ञान है। क्योंकि शरीर और मन जुड़े हैं। जब शरीर कंपता है, तो मन भी कंपता है। जब मन कंपता है, तो शरीर भी कंपता है। तुमने देखा, जब क्रोध से भर जाते हो, तो हाथ-पैर कंपने लगते हैं। मन कंपा, शरीर कंपा। जब तुम भय से भर जाते हो, तो हाथ-पैर कंपित होने लगते हैं। मन कंपा, शरीर कंपा। जब तुम्हारा शरीर रुग्ण होता है, कंपता है, तो मन भी दीनऱ्हीन हो जाता है। तो मन भी साहस खो देता है, आत्मविश्वास खो देता है, हीनग्रंथि से भर जाता है। शरीर और मन एक-दूसरे पर निरंतर क्रिया-प्रतिक्रिया करते हैं। शरीर स्वस्थ होता है, तो मन भी स्वस्थ होता है। मन स्वस्थ होता है, तो शरीर भी स्वस्थ होता है।
वैज्ञानिक तो कहते हैं कि मन और शरीर दो चीजें नहीं हैं, एक ही चीज के दो पहलू हैं। और ठीक कहते हैं। पश्चिम में तो विज्ञान ने शरीर और मन ऐसा कहना ही बंद कर दिया, उन्होंने एक ही शब्द बना लिया: मनोशरीर। दो कहना ठीक नहीं, एक ही है।
महावीर को यह प्रतीति साफ रही होगी। इसलिए पहली बात वह कहते हैं--जब ध्यान में बैठो, तो शरीर को बिलकुल थिर कर लो। कभी कोशिश करना। जैसे-जैसे शरीर थिर होगा, वैसे-वैसे तुम पाओगे मन भी शांत होने लगा। फिर इसके बाद वचन को थिर करना। विचार को। शरीर को पहले, क्योंकि वह सब से स्थूल है। फिर विचार की तरंगों को धीरे-धीरे शांत करना। कहना, शांत हो जाओ। फिर जब मन-काया और वचन, तीनों शांत होने लगें--पहले काया, फिर वचन, फिर मन--मन का अर्थ है, सूक्ष्म तरंगें, जो अभी विचार भी नहीं बनीं। जिसको फ्रायड अनकांशस कहता है। जिसको फ्रायड कांशस माइंड कहता है, उसको महावीर वचन कहते हैं।
जो तुम्हारे भीतर विचार के तल पर आ गया, प्रगट हो गया, वह विचार--वचन। और जो अभी अप्रगट है, प्रगट होने के रास्ते पर है, अभी तैयार हो रहा है, अभी गर्भ में छिपा है--वह मन। सबसे ज्यादा प्रगट शरीर है, उससे कम प्रगट विचार है, उससे भी कम प्रगट मन है। क्रमशः स्थूल से सूक्ष्म की तरफ चलना और एक-एक को थिर करते जाना। जब इन तीनों का व्यापार नहीं रह जाता, तो जो घटना घटती है, उसका नाम ध्यान। "राग और द्वेष और मोह नहीं।' राग, द्वेष, मोह बाहर की यात्रा पर हैं। भीतर तो तुम अकेले हो, किससे करो राग? किससे करो द्वेष? किससे करो मोह? भीतर तो तुम्हारे अतिरिक्त कोई भी नहीं। तो अपने आप राग, द्वेष, मोह क्षीण हो जाते हैं। ध्यान की घड़ी में न तुम्हारा कोई अपना होता है, न पराया होता है। ध्यान की घड़ी में न तुम्हारा कोई परिग्रह होता है। ध्यान की घड़ी में तुम्हारी कोई मालकियत नहीं रह जाती है। और मजा यही है कि ध्यान की घड़ी में तुम पहली दफा मालिक होते हो। मालकियत कोई भी नहीं रह जाती, साम्राज्य सब खो जाता है और तुम सम्राट होते हो।
स्वामी रामतीर्थ अपने को बादशाह कहा करते थे। पास कुछ था नहीं। जब अमरीका गये, तो वहां भी वह अपने को बादशाह ही कहते थे। कहते हैं अमरीकी प्रेसीडेंट उनको मिला था तो उसने पूछा, और सब तो ठीक है, लेकिन आपकी बादशाहत समझ में नहीं आती। लंगोटी को छोड़कर आपके पास कुछ भी नहीं, आप कैसे बादशाह! राम तो बोलते थे तो भी वह कहते कि "बादशाह राम' ऐसा कहता है। उन्होंने किताब लिखी: "बादशाह राम के छह हुक्मनामे।' राम हंसने लगे। उन्होंने कहा कि इसीलिए तो मैं बादशाह हूं कि मेरे पास कुछ भी नहीं। जिनके पास कुछ है, उन्हें चिंता होती है। जिनके पास कुछ है, उन्हें फिक्र होती है। जिनके पास कुछ है, वह उस कुछ के गुलाम होते हैं। मैं बादशाह इसीलिए तो हूं कि मैं किसी का गुलाम नहीं, मेरे पास कुछ भी नहीं। पता नहीं अमरीकी प्रेसीडेंट को समझ में आयी यह बात, या नहीं आयी। शायद ही आयी हो! क्योंकि राजनीतिज्ञ को धर्म की बात शायद ही समझ में आये।
धर्म और राजनीति विपरीत दिशाएं हैं। राजधानी की तरफ जाना हो तो तीर्थ कभी न पहुंच सकोगे। तीर्थ जाना हो, तो राजधानी की तरफ पीठ कर लेना।
धर्म और राजनीति विपरीत हैं। एक दफा पापी भी पहुंच जाए स्वर्ग, राजनीतिज्ञ--संदिग्ध है बात!
मैंने सुना है, एक दफा स्वर्ग के द्वार पर दो आदमी साथ-साथ पहुंचे--एक फकीर और एक राजनीतिज्ञ। द्वार खुला, फकीर को तो बाहर रोक दिया द्वारपाल ने, राजनीतिज्ञ को बड़े बैंडबाजे बजाकर भीतर लिया। बड़े फूलहार, स्वागतद्वार! फकीर बड़ा चिंतित हुआ। उसने कहा यह तो हद्द हो गयी अन्याय की! वहां भी यही आदमी जमीन पर भी हार लेता रहा, हम सोचते थे कि कम से कम स्वर्ग में तो हमें स्वागत मिलेगा, सांत्वना थी, वह भी गयी। यहां भी इस आदमी को फिर अंदर पहले लिया गया, मुझे कहा कि रुको बाहर। यह कैसा स्वर्ग है! यहां भी राजनीतिज्ञ ही चला जा रहा है! बड़े फूल बरसाये, दुदुंभी बजी।
जब सब शोरगुल बंद हो गया, तब फिर द्वार खुला और द्वारपाल ने कहा, अब आप...आप भी भीतर आ जाएं। उसने सोचा कि शायद मेरे लिए भी कोई इंतजाम होगा, लेकिन वहां कोई नहीं था; न बैंड, न बाजा। वह थोड़ा चकित हुआ। उसने कहा, क्षमा करें, लेकिन यह मामला क्या है? हम जिंदगीभर परमात्मा की पूजा और प्रार्थना में लगे रहे, और यह स्वागत! और यह आदमी कभी भूलकर भी परमात्मा का नाम न लिया! तो उस द्वारपाल ने कहा, तुम समझे नहीं। तुम्हारे जैसे फकीर तो सदा से आते रहे, राजनीतिज्ञ पहली दफा आया है। और फिर सदियां बीत जाएंगी फिर शायद कभी आये! वह तो आता ही नहीं, इधर कभी आने का मौका ही नहीं मिलता।
बाहर का जगत है, वहां राग है, द्वेष है, स्पर्धा है। मोह है। मित्र हैं, शत्रु हैं। भीतर के जगत में तुम बिलकुल अकेले हो। शुद्ध एकांत है। उस शुद्ध एकांत में राग-द्वेष खो जाते हैं। मोह खो जाता। लेकिन तुम्हें ये शर्तें पूरी करनी पड़ें--काया, वचन, मन। इन तीनों को थिर करना पड़े। इस चेष्टा में लग जाओ। यह चेष्टा शुरू में बड़ी कठिन होती है। ऐसे जैसे आंखें कमजोर हों और कोई आदमी सुई में धागा डाल रहा हो। बस ऐसी ही कठिनाई है। आंखें हमारी कमजोर हैं। दृष्टि हमारे पास नहीं है, हाथ कंपते हैं। सुई में धागा डाल रहे हैं, कंप-कंप जाता है। सुई का छेद छोटा है, धागा पतला है। मगर अगर चेष्टा जारी रहे, तो आज नहीं कल, कल नहीं परसों धागा पिरोया जा सकता है। कठिन होगा, असंभव नहीं।
और महावीर कहते हैं, जिस सुई में धागा पिरो लिया गया, वह गिर भी जाए तो खोती नहीं। और जिस सुई में धागा नहीं पिरोया है, वह अगर गिर जाए तो खो जाती है।
यह ध्यान का धागा तुम्हारे प्राण की सुई में पोना ही है। इसे डालना ही है। यह ध्यान का सूत्र ही तुम्हें भटकने से बचायेगा। तुम गिर भी जाओगे, तो भी खोओगे नहीं; वापिस उठ आओगे। यह कठिन तो बहुत है। जो तुमसे कहते हैं, सरल है, वे तुम्हें धोखा देते हैं। जो तुमसे कहते हैं, सरल है, वे तुम्हारा शोषण करते हैं। यह सरल तो निश्चित नहीं है, यह कठिन तो है ही, लेकिन कठिनाई ध्यान के कारण नहीं है, कठिनाई तुम्हारे कारण है।
ध्यान अपने आप में तो बड़ा सरल है, सीधी-सी बात है। सब थिर हो जाए, शांत हो जाए, ध्यान घट जाता है। लेकिन तुमने कंपने का इतना अभ्यास किया है कि थोड़ा अभ्यास अकंपन का भी करना होगा। तुमने मन चलाने के लिए इतनी स्पर्धा की है अब तक, सारा शिक्षण, सारा संस्कार मन को ही चलाने का है। तुमने मन को तो खूब सीखा है, ध्यान को सीखा नहीं, बस यही अड़चन है। तुम्हारा सारा जीवन-व्यापार मन से चला है। और ध्यान के लिए तो कोई जीवन में जगह नहीं है। इसलिए तुम भूल गये। तुम्हारी ध्यान की क्षमता जंग खा गयी है। बस उतनी ही कठिनाई है। जिस दिन ध्यान देना शुरू करोगे, जंग थोड़ी साफ करोगे, फिर निखर आयेगा तुम्हारा स्वभाव।
"वह ध्यान, वह ध्याता आसन बांधकर और मन-वचन- काया के व्यापार को रोककर दृष्टि को नासाग्र पर स्थिर करके मंद-मंद श्वासोच्छवास ले।'
पहले शरीर को थिर कर लिया, फिर मन-वचन-काया को थिर किया, फिर शांत थिर आसन में बैठे हुए दृष्टि नासाग्र पर रखी। इसका उपयोग है। सिर्फ इतना ही उपयोग है, वह खयाल लेना। अगर तुम आंख खोलकर बैठो ध्यान में--पूरी आंख खोलकर बैठो--तो हजार व्यवधान होंगे। कोई निकला, कोई गया, पक्षी उड़ा, सड़क से कोई गुजरा--कुछ न कुछ होता रहेगा। तो आंख पर जब दृश्य बदलते रहते हैं, तो उनकी वजह से भीतर चित्त पर कंपन होते हैं। तो हम सोचते हैं, फिर बेहतर है आंख बंद कर लें। लेकिन आंख तुमने बंद की कि तुम्हारे आंख बंद करने के साथ सपने शुरू हो जाते हैं। तुमने जब भी आंख बंद की है, तो बस जब तुम सोने गये हो तभी बंद की है। और तो तुम कभी आंख बंद करते नहीं। तो ऐसोसिएशन, एक संबंध बन गया है। आंख बंद करते ही सपने शुरू हो जाते हैं। तुम बैठो कुर्सी पर आराम से आंख बंद करके, थोड़ी देर में तुम पाओगे, दिवास्वप्न शुरू हो गया। जागे हो और सपना देख रहे हो।
तो चाहे वास्तविक जगत में परिवर्तन हो रहे हों, तो भी तुम्हारे भीतर कंपन होता है; आंख बंद करके सपने देखो, तो भी कंपन होगा। क्योंकि दृश्य फिर उपस्थित हो गये। इन दोनों से बचने के लिए सभी ध्यानियों ने नासाग्र-दृष्टि पर जोर दिया है। तो मध्य में ठहरा लो। न तो आंख खोलकर देखो कि बाहर वस्तुओं का जगत दिखायी पड़े, न आंख बंद करके देखो, नहीं तो सपने का जगत दिखायी पड़ेगा। तुम नाक के नोक पर अपनी आंख को रोककर बैठ जाओ। आधी खुली आंख सपने को भी कठिनाई होगी, आधी खुल आंख बाहर की चीजें भी दिखायी नहीं पड़ेंगी। धीरे-धीरे जब अभ्यास सघन हो जाए, जब नासाग्र-दृष्टि में चित्त थिर होने लगे, रस बहने लगे, सुख की पुलक उठने लगे, तब तुम आंख बंद करके भी कर सकते हो। फिर सपना नहीं आयेगा। और जब आंख बंद करने में सपना न आये, तो फिर तुम खुली आंख से भी ध्यान कर सकते हो। फिर बाहर लोग चलते रहें, फिरते रहें, घटनाएं घटती रहें, तुम्हारे भीतर कोई अंतर न पड़ेगा। लेकिन प्रथम जो शिशु की भांति प्रविष्ट हो रहा है ध्यान के जगत में, उसके लिए नासाग्र-दृष्टि बड़ी उपयोगी है।
"और मंद-मंद श्वासोच्छवास ले।' खयाल किया तुमने कभी कि तुम्हारी श्वास तुम्हारे चित्त की दशाओं से बंधी है। जब तुम क्रोधित होते हो, श्वास ऊबड़-खाबड़ हो जाती है। जैसे ऐसे रास्ते पर चल रहे हो--कच्चे रास्ते पर। नीची-ऊंची हो जाती है, गति टूट जाती है। लय भंग हो जाता है। छंद बिखर जाता है। जब तुम प्रसन्न हो, तब खयाल किया, श्वास में एक लय होती है। एक संगीत होता है। जब तुम कामवासना से भरते हो, तब खयाल किया, श्वास विक्षिप्त हो जाती है। बड़े जोर से चलने लगती है। जब तुम्हारा चित्त बिलकुल कामवासना से मुक्त होता है, तब श्वास बड़ी शांत, धीमी, थिर हो जाती है।
मन के वेग श्वास को प्रभावित करते हैं। इससे उलटा भी सच है। श्वास का परिवर्तन मन को प्रभावित करता है। तुम कभी कोशिश करके देखो। क्रोध आ जाए, तब तुम धीरे-धीरे श्वास लेकर क्रोध करने की कोशिश करो, तुम बड़ी मुश्किल में पड़ जाओगे। तुम पाओगे, अगर श्वास धीमी लेते हो, क्रोध नहीं होता। अगर क्रोध होता है, तो श्वास धीमी नहीं रहती। तुम कभी बिलकुल श्वास धीमी लेकर संभोग में उतरने की कोशिश करो। मुश्किल पड़ जाएगी। कामऊर्जा उठती न मालूम पड़ेगी, क्योंकि श्वास की चोट चाहिए। श्वास का ताप चाहिए। कामवासना में उतरना तो एक तरह का बुखार है। जब तक श्वास जोर से ताप पैदा न करे, आक्सीजन जरूरत से ज्यादा शरीर में न दौड़े, तब तक शरीर की ऊर्जा बाहर फिंकने को राजी नहीं होती। उसको तो फेंकने के लिए भीतर से धक्के चाहिए श्वास के। आदमी की श्वास उसके मन को थिर करती है, या अथिर करती है।
तो महावीर ठीक कह रहे हैं, नासिकाग्र-दृष्टि हो, और श्वास धीमी-धीमी, आनंद-पूर्ण, मंद-मंद, मंद-मंद श्वांसोच्छवास। क्योंकि ध्यान की अवस्था तो ठीक संभोग से उलटी अवस्था है। ध्यान की अवस्था तो क्रोध से उलटी अवस्था है। ध्यान की अवस्था तो दौड़ने से उलटी अवस्था है। दौड़ने में श्वास तेज हो जाती है, और ध्यान की अवस्था तो थिर होना है, दौड़ना बिलकुल बंद करना है। शरीर को जरा कंपने भी नहीं देना है, तो श्वास की कोई जरूरत नहीं है। कभी-कभी तो ऐसा होगा, ध्यान करते-करते तुम डर भी जाओगे कि कहीं श्वास रुक तो नहीं गयी! घबड़ाना मत। वे बड़े कीमती क्षण हैं, जब तुम्हें ऐसा लगता है, श्वास रुक तो नहीं गयी! तुम ध्यान के करीब आ रहे, घर के करीब आ रहे। उस वक्त चौंककर घबड़ा मत जाना, नहीं तो घबड़ाते से ही श्वास का छंद फिर टूट जाएगा। जब ऐसा लगने लगे कि श्वास रुक रही है, बड़े आनंदित होना, बड़े अनुगृहीत होना। कहना, हे प्रभु, धन्यवाद! तो घर करीब आ रहा है!
जब कोई बिलकुल गहरे ध्यान में पहुंच जाता है, तो श्वास नाममात्र को रह जाती है। पता ही नहीं चलता कि चल रही है या नहीं चल रही है। क्योंकि अब कोई भी गति नहीं हो रही, तो श्वास की कोई जरूरत नहीं है। सब गति ठहर गयी। जरा-सी श्वास की जरूरत है, जितने से शरीर और आत्मा का धागा जुड़ा रहता है, बस। वह बड़ी धीमी है। इसीलिए योगी चाहते हैं तो जमीन के नीचे महीनों तक रुक जाते हैं। चमत्कार कुछ भी नहीं है। सिर्फ मंद-मंद श्वास लेने की कला है। आक्सीजन की जरूरत इतनी कम कर लेते हैं कि उस छोटी-सी गुहा में जमीन के भीतर जितनी आक्सीजन है, वह महीने-भर तक काम दे देती है।
हमारी आक्सीजन की जरूरत बहुत ज्यादा है। क्योंकि श्वास हम बहुत ले रहे हैं। शरीर में हजार तरह की क्रियाएं चल रही हैं। जो योगी जमीन के भीतर बैठता है, वह जो महावीर कह रहे हैं यही करता है। शरीर को थिर, वचन को थिर, मन को थिर, नासाग्र-दृष्टि और श्वास को धीरे-धीरे मंद करता जाता है। फिर एक ऐसी घड़ी आ जाती है कि श्वास करीब-करीब रुक जाती है। उस करीब-करीब श्वास रुकी हालत में योगी महीनों तक भी छोटी-सी जगह में रह सकता है। उस जगह में जितनी हवा है, उतनी पर्याप्त है।
तुम्हें पता होगा, मेढक वर्षा के बाद जमीन में छिप जाते हैं और श्वास बंद कर लेते हैं। वैज्ञानिक बहुत चकित रहे हैं। साइबेरिया में जो सफेद भालू होते हैं, वे भी छह महीने जब अंधेरा हो जाता है साइबेरिया में--छह महीने सूरज होता है, छह महीने रात--तो रात के समय में वे सब बर्फ में सोकर पड़ जाते हैं, श्वास बंद कर लेते हैं। मरते नहीं। छह महीने! इसको विज्ञान कहता है--हाइबरनेशन
योगियों ने यह कला बहुत पहले खोज ली, कि जब मेढक कर सकता है, रीछ कर सकते हैं, भालू कर सकते हैं, तो आदमी क्यों नहीं कर सकता? क्योंकि शरीर का शास्त्र तो एक ही जैसा है।
अगर सब थिर हो जाए, तो प्राणवायु की जरूरत कम हो जाती है। इसलिए ध्यान में अगर कभी तुम्हें ऐसा हो कि श्वास थिर हो जाए, तो घबड़ा मत जाना। घबड़ाने से तो बाहर फिंक जाओगे। बड़ी मुश्किल से जो पाया था, खो जाएगा। तब तो और भी राजी हो जाना, और भी श्वास को कह देना कि तू बिलकुल विदा होजा तो भी ठीक, अगर मृत्यु भी आती मालूम पड़े तो कहना कि ठीक है, मैं मरने को राजी हूं। क्योंकि ध्यान में मर जाने से बड़ा और सौभाग्य क्या! मरना तो होगा ही। लेकिन जो ध्यान में मर गया, उससे बड़ा सौभाग्य कोई भी नहीं है। जीवन से बड़ा सौभाग्य है ध्यान में मर जाना। मगर कोई मरता नहीं, ध्यान के क्षण में तो परम जीवन का द्वार खुलता है।
"अपने पूर्वकृत बुरे आचरण की गर्हा करे, सब प्राणियों से क्षमा-भाव चाहे, प्रमाद को दूर करे और चित्त को निश्चल करके तब तक ध्यान करे जब तक पूर्वबद्ध कर्म नष्ट न हो जाएं।'
तो ध्यान कोई सदा करने के लिए नहीं है। ध्यान औषधि है। बीमारी जब चली गयी, तो ध्यान को भी छोड़ देना। जब तक बीमारी है, तब तक औषधि है। जब ध्यान की भी जरूरत नहीं रह जाती, तभी समाधि फलती है।
समाधि का अर्थ है, आत्मा का स्वास्थ्य। मिल गया, वापिस। कांटा चुभा था, दूसरे कांटे से निकाल दिया, फिर दोनों कांटे फेंक दिये। विचार का कांटा चुभा है, ध्यान के कांटे से निकाल लेना है। फिर दोनों कांटे फेंक देने हैं। तो ध्यान कोई सदा नहीं करते रहना है। ध्यान तो सीढ़ी है। औषधि है। उपाय कर लिया, काम पूरा हो गया, ध्यान भी गया।
तो महावीर कहते हैं, जब तक पूर्वबद्ध कर्म नष्ट न हो जाएं। जब तक तुम्हें अतीत का सारा कचरा समाप्त होता हुआ न दिखायी पड़े। जब तुम्हें ऐसा दिखायी पड़े कि अतीत सब समाप्त हो गया, जैसे मैं कभी था ही नहीं, सब अतीत पोंछ डाला; जब तुम इतने नये हो गये जैसे सुबह ही ओस, जैसे तुम अभी-अभी पैदा हुए; जब तुम इतने नये और ताजे हो गये, तो फिर ध्यान की कोई जरूरत नहीं। अब तुम समाधि में जी सकते हो। अब  तुम्हारा उठना, बैठना, चलना, सब समाधि है।
"अपने पूर्वकृत बुरे आचरण की गर्हा करे। सब प्राणियों से क्षमाभाव चाहे...।'
यह सब बातें ध्यान में सहयोगी हैं। इनसे सहायता मिलेगी। जो बुरा किया है अतीत में, अब दुबारा न करूंगा। जो बुरा किया, वह बुरा था। तुमने खयाल किया, आमतौर से हम बुरा कर लेते हैं, हम जानते भी हैं कि बुरा हो गया, तो भी हम रेशनलाइज़ेशन करते हैं। हम हजार तर्क जुटाते हैं, हम कहते हैं वह मजबूरी थी। या इसके अतिरिक्त कुछ हो ही नहीं सकता था। अन्यथा कोई मार्ग ही न था। या हम सिद्ध करने की कोशिश करते हैं कि हमने जो किया, ठीक ही किया। आदमी बड़े तर्क जुटाता है, गलत को भी सही सिद्ध करने के लिए। लेकिन महावीर कहते हैं, अगर तुम गलत को सही सिद्ध करने की कोशिश में लगे हो, तो एक बात पक्की है, ध्यान में कभी न पहुंच सकोगे। गलत को गलत मान लेना, स्वीकार कर लेना, क्षमा मांग लेना, क्योंकि गलत को गलत की तरह जानते ही फिर उसके दुबारा दोहरने का कारण नहीं रह जाता।
"अपने पूर्वकृत बुरे आचरण की गर्हा करे, सब प्राणियों से क्षमाभाव चाहे।' सब प्राणियों से। महावीर कहते हैं, इसकी फिकर न करे कि किसके साथ मैंने बुरा किया, क्षमा ही मांगनी है तो इसमें क्या कंजूसी! इसके पीछे बड़ा राज है। क्योंकि महावीर कहते हैं, हम इतने जन्मों से इस पृथ्वी पर हैं कि करीब-करीब हम सभी के साथ बुरा-भला कर चुके होंगे। इतनी लंबी यात्रा है कि हम करीब-करीब सभी से मिल चुके होंगे। असंभव है यह बात कि कोई भी ऐसा पृथ्वी पर हो जिससे किसी जन्म में, किसी मार्ग पर, किसी चौराहे पर मिलना न हुआ हो। तो महावीर कहते हैं, इतना लंबा अतीत है, तुम कहां हिसाब करोगे किससे क्षमा मांगें, किससे न मांगें! और फिर क्षमा ही मांगनी है, तो इसमें क्या हिसाब-किताब रखना! सभी से क्षमा मांग लेना।
"सभी प्राणियों से क्षमाभाव चाहे। प्रमाद को दूर करे।' तंद्रा को तोड़े। निद्रा को तोड़े, आलस्य को छोड़े। क्योंकि जितने ही तुम तेजस्वी बनोगे, जागरूक बनोगे, उतनी जल्दी घर करीब आयेगा, उतनी जल्दी मंजिल करीब आयेगी। नींद-नींद में लथड़ाते-लथड़ाते, किसी तरह चलते-चलते तुम मंजिल तक पहुंच न पाओगे। तुम कहीं बीच में मार्ग पर सो जाओगे।
"और चित्त को निश्चल करके तब तक ध्यान करे जब तक पूर्वबद्ध कर्म नष्ट न हो जाएं।' संघर्ष है। हजार बाधाएं हैं। मन के पुराने तर्क हैं। पुरानी आदतें हैं। संस्कार हैं। गलत को ठीक करने की चेष्टा अहंकार की चेष्टा है। दूसरा ठीक भी करे, तो हम गलत मानने को तत्पर रहते हैं। खुद गलत भी करें तो ठीक सिद्ध करने का उपाय करते हैं। ये सब उपद्रव हैं। इन सब उपद्रवों को पार कर के ही कोई ध्यान तक पहुंचता है।
फजा में मौत के तारीक साये थरथराते हैं
हवा के सर्द झोंके कल्ब पर खंजर चलाते हैं
गुजश्ता इसरतों के ख्वाब आईना दिखाते हैं
मगर मैं अपनी मंजिल की तरफ बढ़ता ही जाता हूं
फजा में मौत के तारीक साये थरथराते हैं
हवा में सब तरफ मौत की अंधेरी छाया है। प्रतिक्षण मौत आ सकती है, किसी भी क्षण मौत आ सकती है।
हवा के सर्द झोंके कल्ब पर खंजर चलाते हैं
और हृदय प्रतिपल क्षीण हो रहा है, जैसे कि हवा का हर झोंका छुरी चला रहा हो। प्रतिपल हम मर रहे हैं। एक घड़ी गयी, एक घड़ी जिंदगी गयी। एक घड़ी गयी, एक घड़ी मौत करीब आयी।
गुजश्ता इसरतों के ख्वाब आईना दिखाते हैं
और इंद्रियों की कामवासना है, सुखभोग की आकांक्षाएं हैं, वे नये-नये सपने बुने रही हैं। इधर जीवन हाथ से जा रहा, उधर वासना सपने बुन रही है। इधर मौत पास आ रही है, उधर वासना खींचे चली जाती है। वह कहती है, आज की रात और!
गुजश्ता इसरतों के ख्वाब आईना दिखाते हैं
मगर मैं अपनी मंजिल की तरफ बढ़ता ही जाता हूं
जमीं चीं-बर-जबीं है आसमां तखरीब पर माइल
रफीकाने-सफर में कोई बिस्मिल है कोई घायल
तआकुब में लुटेरे हैं, चट्टानें राह में हाइल
मगर मैं अपनी मंजिल की तरफ बढ़ता ही जाता हूं
बड़ी चट्टानें हैं। बड़ी बाधाएं हैं। हजार तरह के उपद्रव हैं। कोई हत्यारा है, कोई घायल है, कोई दुखी है, कोई दुखी कर रहा है। इन सबसे, इन सबके बीच से आसमान नाराज मालूम पड़ता है, जमीन क्रुद्ध मालूम पड़ती है, ऐसा लगता है हम अजनबी हैं और हर चीज हमारी दुश्मन है। फिर भी आदमी को बढ़ते ही जाना है।
चिरागे-दैर फानूसे-हरम कंदीले-रहबानी
ये सब हैं मुद्दतों से बेनियाजे-नूरे-इर्फानी
नाकूसे बिरहमन है, आहंगेऱ्हुदी-ख्वानी
मगर मैं अपनी मंजिल की तरफ बढ़ता ही जाता हूं
और इस सबसे भी ऊपर और एक मुश्किल खड़ी हो गयी है।
चिरागे-दैर फानूसे-हरम कंदीले-रहबानी
मंदिर का दीपक कभी का बुझ गया। काबे का फानूस मुर्दा है। उसमें कोई ज्योति नहीं।
चिरागे-दैर फानूसे-हरम कंदीले-रहबानी
गिरजे की मोमबत्ती में कोई रोशनी नहीं रही।
ये सब हैं मुद्दतों से बेनियाजे-नूरे-इर्फानी
न-मालूम कितनी सदियों से इनके साथ परमात्मा का संबंध छूट गया है। परमात्मा का नूर अब इनमें झलकता नहीं।
नाकूसे बिरहमन है--
न तो ब्राह्मण के शंखनाद की आवाज जगाने को है।
आहंगेऱ्हुदी-ख्वानी
और न कुरान का पाठ है। न सुबह पढ़नेवाली अजान है। कोई जगाने को नहीं। नींद के हजार उपाय हैं। जगानेवाले खुद गहरे सोये हैं।
मगर मैं अपनी मंजिल की तरफ बढ़ता ही जाता हूं।
लेकिन ध्यानी को इन सारी कठिनाइयों को पार करके बढ़ते ही जाना है। कठिनाइयों को बहाना मत बनाना। यह मत कहना, हम इस वजह से न कर सके।
मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं, क्या करें, समय नहीं है। ध्यान कब करें? ये वे ही लोग हैं, जो सिनेमा में भी बैठे हैं। ये वे ही लोग हैं, जो होटल में भी दिखायी पड़ते हैं। ये वे ही लोग हैं, जो सुबह रोज अखबार बड़ी तल्लीनता से पढ़ते हैं। ये वे ही लोग हैं जो रेडियो भी सुनते हैं, टेलिविजन भी देखते हैं। ये वे ही लोग हैं, जो ताश भी खेलते हैं। और जब ताश खेलते मिल जाते हैं, तो कहते हैं, क्या करें, समय काट रहे हैं। और इनसे कहो ध्यान, तो कहते हैं समय नहीं है। और इन्हें खयाल भी नहीं आता कि ये क्या कह रहे हैं! ये कैसा बहाना कर रहे हैं! कहो कि ध्यान, तो वह कहते हैं, अभी तो बहुत संसार में उलझनें हैं। संसार की उलझनें कब कम होंगी? कभी कम हुई हैं? बढ़ती ही जाती हैं। इनसे कहो ध्यान, तो तत्क्षण कोई तरकीब निकालते हैं। तरकीब केवल इतना ही बताती है कि इन्हें अभी पता ही नहीं कि ये क्या गंवा रहे हैं। मुश्किल तो यह है, विडंबना यह है कि पता हो भी कैसे। यह तो पाकर ही पता चलता है कि क्या गंवा रहे थे। यह तो ध्यान जिस दिन लगेगा, उस दिन पता चलता है कि अरे, हम किस चीज के लिए समय नहीं पा रहे थे! तब पता चलता है कि सब समय इसी पर लगा दिया होता तो अच्छा था। क्योंकि जो ध्यान में गया समय, वही बचा हुआ सिद्ध होता है। जो ध्यान के बिना गया, वह गया। वह रेगिस्तान में खो गयी नदी। ध्यान में जो लगा, वही सागर तक पहुंचता है। शेष सब रेगिस्तान में भटक जाता है।
"जिन्होंने अपने योग, अर्थात मन-वचन-काया को स्थिर कर लिया और जिनका ध्यान में चित्त पूरी तरह निश्चल हो गया, उन मुनियों के ध्यान के लिए घनी आबादी के ग्राम अथवा शून्य अरण्य में कोई अंतर नहीं रह जाता है।'
ध्यान जिसका सध गया, हिमालय सध गया भीतर। तुम गौरीशंकर पर विराजमान हो गये भीतर। फिर तुम बीच बाजार में बैठे रहो, तो अंतर नहीं पड़ता। जिसका ध्यान सध गया, उसे फिर कोई विघ्न न रहा, कोई बाधा न रही। ध्यान बड़ी से बड़ी संपदा है। शांति का, आनंद का एकमात्र आधार है।
तुम दूसरे के द्वारा जल्दी ही परेशान हो जाते हो। क्योंकि चैन से होने का पाठ तुमने सीखा नहीं। दूसरा तुम्हें जल्दी ही क्षुब्ध कर देता है। हालांकि तुम कहते हो, यह आदमी जिम्मेवार है। इसने गाली दी, इसलिए मैं क्रुद्ध हो गया। असली बात दूसरी है। तुम्हारे पास ध्यान नहीं है, इसलिए इसकी गाली काम कर गयी। तुम्हारे पास ध्यान होता, इसकी गाली कितनी ही आग से भरी आती, तुम्हारे पास आकर बुझ जाती। अंगारा नदी में फेंककर देखो। जब तक नदी को नहीं छूता, तब तक अंगारा है। जैसे ही नदी को छुआ कि राख हुआ।
तुम्हारे भीतर ध्यान की सरिता हो, तो न गालियां चुभतीं न क्रोध, न अपमान, न सम्मान, न सफलता न असफलता, न यश न अपयश, कुछ भी नहीं छूता। भीतर ध्यान हो, तो महावीर कहते हैं, तुम पहाड़ पर रहो कि भरे बाजार में, सब बराबर है।
रोम-रोम में नंदन पुलकित,
सांस-सांस में जीवन शत-शत
स्वप्न-स्वप्न में विश्व अपरिचित
मुझमें नित बनते-मिटते प्रिय!
स्वर्ग मुझे क्या, निष्क्रिय लय क्या!
स्वर्ग मुझे क्या, निष्क्रिय लय क्या!
जिसके भीतर ध्यान की कीमिया पैदा हो गयी, वह अपने स्वर्ग को खुद ही निर्मित करने लगता है। वह मिट्टी छू देता है, सोना हो जाती है। तुम सोना छुओ, मिट्टी हो जाता है। तुम प्यारे से प्यारे आदमी को मिल जाओ, जल्दी ही कटुता आ जाती है। तुम प्रीतम से प्रीतम व्यक्ति को खोज लो, जल्दी ही संघर्ष शुरू हो जाता है। ध्यानी मिट्टी को भी छुए, सोना हो जाता है। ध्यानी कुटिया में भी रहे, तो महल हो जाता है। ध्यानी के होने में कुछ राज है। उसके पास भीतर का जादू है। वह जादू है।
स्वर्ग मुझे क्या, निष्क्रिय लय क्या!
शून्य में भी लय बजती है। नर्क में भी फेंक दो ज्ञानी को, ध्यानी को, तो स्वर्ग बना लेगा।
तुम थोड़ा सोचो, अगर तुम्हें स्वर्ग भी किसी तरकीब से--पीछे के रास्ते से सही, रिश्वत के द्वारा, कोई तरकीब से--पहुंचा भी दिया जाए, तो स्वर्ग तुम भोग सकोगे? तुम नर्क बना ही लोगे। तुम्हारा नर्क तुम अपने भीतर लिये चलते हो।
तुम जानते सब बात हो,
दिन हो कि आधी रात हो,
मैं जागता रहता कि कब
मंजीर की आहट मिले,
मेरे कमल-वन में उदय
किस काल पुण्य प्रभात हो;
किस लग्न में हो जाए कब
जाने कृपा भगवान की!
ध्यान का केवल इतना ही अर्थ है--जागते रहना। सतत जागते रहना। भीतर अंधेरा न हो, निद्रा न हो।
तुम जानते सब बात हो,
दिन हो कि आधी रात हो,
मैं जागता रहता कि कब
मंजीर की आहट मिले,
कौन जाने कब परमात्मा पुकार दे! कौन जाने किस क्षण अस्तित्व बरस उठे! कौन जाने किस क्षण आकाश टूटे!
तुम जानते सब बात हो,
दिन हो कि आधी रात हो,
मैं जागता रहता कि कब
मंजीर की आहट मिले,
मेरे कमल-वन में उदय
किस काल पुण्य प्रभात हो;
किस लग्न में हो जाए कब
जाने कृपा भगवान की!
जीसस की कहानी। एक धनी तीर्थयात्रा को गया। उसने अपने नौकरों को कहा कि तुम जागे रहना, मैं कभी भी वापिस आ सकता हूं। घर लापरवाही में न मिले। तुम मुझे सोये न मिलो। तुम जागे रहना। मेरे आने की तिथि तय नहीं है। मैं कल आ सकता, मैं परसों आ सकता, मैं महीनेभर बाद आऊं, मैं सालभर बाद आऊं।
पुराने शास्त्र परमात्मा को अतिथि कहते हैं। अतिथि का मतलब, जो तिथि बिना बताये आता है। अतिथि शब्द बड़ा अदभुत है। "गेस्ट' शब्द में वह बात नहीं है। "मेहमान' में वह बात नहीं है। अब हमें अतिथि तो कहना ही नहीं चाहिए, क्योंकि अब तो सभी तिथि बताकर आते हैं। पहले ही चिट्ठीत्तार करके आते हैं कि आ रहे हैं। अब कोई अतिथि नहीं रहा। अतिथि का मतलब, जो अचानक आ जाए। अकस्मात! तुम्हें ख्याल भी न था। सपने में झलक न थी, और आ जाए!
परमात्मा अतिथि है। जागे रहना है। कब आ जाएगा, पता नहीं। किस क्षण तुम्हारी अंतरंग-वीणा उसकी वीणा के साथ बजने लगेगी, किस क्षण तुम नाचने लगोगे उसके साथ, किस क्षण उसके हाथ में हाथ आ जाएगा, कुछ पक्का नहीं है। इसकी कोई घोषणा नहीं हो सकती। एक ही उपाय है कि हम जागते रहें। हम एक क्षण भी न गंवायें। वह कभी भी आये, हमें जागा पाये। वह कभी भी आये, हमें स्वागत के लिए तैयार पाये।
जागो हे अविनाशी!
जागो किरण-पुरुष, कुमुदासन,
विधुमंडल के वासी,
जागो, हे अविनाशी!
रत्नजड़ित पथचारी जागो,
उडु, वन, वीथि-बिहारी जागो,
जागो रसिक विराग लोक के,
मधुबन के संन्यासी,
जागो, हे अविनाशी!
जागने की कला का नाम ध्यान है। सोये रहना--संसारी; जागे रहना--संन्यासी। भीतर की घटना है। उठो-बैठो, चलो-फिरो, जागरण न खोये।
जागो, हे अविनाशी!
जागो, मधुबन के संन्यासी!!
जागो, हे अविनाशी!!!

आज इतना ही।


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