ओशो
सत्य
के द्वार की कुंजी:
सम्यक—श्रवण—प्रवचन—पहला
सोच्चा जाणइ कल्लाणं,
सोच्चा जाणइ पावणं।
उभयं पि जाणए
सोच्चा,
जं छेपं
तं सम्मायरे।।
81।।
णाणाssणत्तीए पुणो,
दंसणतवनियमसंयमे
ठिच्चा।
विहरइ विसुज्झमाणी,
जावज्जीवं
पि निवकंपो।।
82।।
जह जह
सुयभोगाहइ,
अइसयरसपसरसंजुयमपुव्वं।
तह
तह पल्हाइ
मुणी,
नवनवसेवेगसद्धाओ।।
83।।
सूई
जहा सुसुत्ता,
न नस्सइ कयवरम्मि
पडिआ वि।
जीवो वि
तह ससुत्तो,
न नस्सइ गओ वि संसारे।।
84।।
फिर
हम महावीर के
तीर्थ की
चर्चा करें।
ऐसे सत्पुरुषों
को फिर-फिर
सोचना जरूरी
है। सोच-सोचकर
सोचना जरूरी
है। बार-बार
उनका स्वाद
हमारे प्राणों
में उतरे।
हमें भी वैसी
प्यास जगे।
जिस प्यास ने
उन्हें
परमात्मा
बनाया, वही
प्यास हमें भी
परमात्मा
बनाये।
क्योंकि अंततः
प्यास ही ले
जाती है।
जब
प्यास इतनी
सघन होती है
कि सारा प्राण
प्यास में
रूपांतरित हो
जाता है, तो
परमात्मा दूर
नहीं।
परमात्मा
पाने के लिए कुछ
और चाहिए
नहीं। ऐसी परम
प्यास चाहिए
कि उसमें सब
कुछ डूब जाए, तल्लीन हो
जाए।
तो फिर
महावीर की
चर्चा करें।
और महावीर की
फिर चर्चा
करने में यह
बात सबसे पहले
समझ लेनी
जरूरी है कि
महावीर ने
श्रवण पर बड़ा
जोर दिया है।
महावीर कहते
हैं, सोया है
आदमी, तो
कैसे जागेगा?
कोई पुकारे
उसे, कोई हिलाये-डुलाये,
कोई जगाये।
कोई उसे खबर
दे कि जागरण
का भी कोई लोक
है। सोया आदमी
अपने से कैसे जागेगा।
सोया तो जागने
का भी सपना
देखने लगता
है। सोया तो
सपने में भी
सोचने लगता है,
जाग गये!
भेद कैसे
करेगा सोया
हुआ आदमी कि
जो मैं देख
रहा हूं वह
स्वप्न है या
सत्य? कोई
जागा उसे जगाये।
कोई जागा उसे हिलाये।
इसलिए महावीर
कहते हैं, सुनकर
ही सत्य की
यात्रा शुरू
होती है।
महावीर
ने कहा है, मेरे चार
तीर्थ हैं।
श्रावक का, श्राविका का; साधु
का, साध्वी
का। लेकिन
पहले
उन्होंने कहा,
श्रावक का,
श्राविका का। श्रावक
का अर्थ है, जो सुनकर
पहुंच जाए।
साधु का अर्थ
है, जो
सुनकर न पहुंच
सके, सुनना
जिसे काफी न
पड़े जिसे कुछ
और करना पड़े।
साधुओं ने
हालत उल्टी
बना दी है।
साधु कहते हैं
कि साधु
श्रावक से ऊपर
है। ऊपर होता तो
महावीर उसकी
गणना पहले
करते। तो उसे
प्रथम रखते।
महावीर कहते
हैं, ऐसे
हैं कुछ धन्यभागी,
जो केवल
सुनकर पहुंच
जाते हैं।
जिन्हें कुछ और
करना नहीं
पड़ता। करना तो
उन्हें पड़ता
है जो सुनकर
समझ नहीं
पाते। तो
करनेवाला सुनने
से दोयम है, नंबर दो है।
इसे
समझना।
बुद्ध
कहते थे, ऐसे
घोड़े हैं कि
जिनको मारो तो
ही चलते हैं।
ऐसे भी घोड़े
हैं कि कोड़े
की फटकार
देखकर चलते
हैं, मारने
की जरूरत नहीं
पड़ती। ऐसे भी
घोड़े हैं कि कोड़े की
छाया देखकर चलते
हैं। फटकारने
की भी जरूरत
नहीं पड़ती।
श्रावक
को सुनना काफी
है। उतना ही
जगा देता है।
तुमने किसी को
पुकारा, कोई
जग जाता है।
पर किसी को
हिलाना पड़ता
है। किसी के
मुंह पर पानी
फेंकना पड़ता
है। तब भी वह करवट
लेकर सो जाता
है। श्रावक है
वह, जिसने
सुनी पुकार और
जाग गया। साधु
है वह, जो
करवट लेकर सो
गया। जिसको
हिलाओ, शोरगुल
मचाओ, आंखों
पर पानी
फेंको।
श्रवण--सम्यक-श्रवण--सुधी
व्यक्ति के
लिए पर्याप्त
है। इशारा
बहुत है बुद्धिमान
को।
पहला
सूत्र है आज
का--
सोच्चा जाणइ कल्लाणं, सोच्चा जाणइ पावगं।
उभयं पि जाणए
सोच्चा, जं छेयं तं समायरे।।
"सुनकर
ही कल्याण
का--आत्महित
का मार्ग जाना
जा सकता है।' सुनकर ही।
"सुनकर ही पाप
का मार्ग भी
जाना जा सकता
है। अतः सुनकर
ही हित और
अहित दोनों का
मार्ग जानकर
जो श्रेयस
हो उसका आचरण
करे।'
जाओ
उनके पास, जो जाग गये
हैं। बैठो
उनके पास, जो
जाग गये हैं। डूबो उनकी
हवा में, जो
जाग गये हैं।
उनकी तरंगें
तुम्हें जगायें।
सत्संग का
इतना ही अर्थ
है। सुनो
उन्हें, जिन्होंने
पाया है। उनके
शब्दों में भी
शून्य होगा।
उनकी आवाज में
भी मंत्र
होगा। उनके इशारे
में भी
तुम्हारे
जीवन की नाव
निर्मित हो जाएगी।
सुनकर ही। और
उपाय भी तो
नहीं है।
गुरजिएफ
कहता था--इस
सदी का एक
बहुत बड़ा
तीर्थंकर--कहता
था, हमारी
हालत ऐसे है
जैसे
रेगिस्तान
में, जंगल
में, निर्जन
में कुछ
यात्री रात पड़ाव
डालें। खतरा
है। बीहड़
है। जंगली पशु
हमला कर सकते
हैं।
डाकू-लुटेरे
छिपे हों।
अनजान जगह है।
अपना कोई नहीं,
पहचान
नहीं। ऐसा ही
तो संसार है।
तो क्या करे यात्रीदल?
एक को जागता
हुआ छोड़ देता
है कि कम से कम
एक जागता रहे,
बाकी सो
जाएं। फिर
पारी-पारी से
और लोग जागते रहते
हैं। जो जागा
है, वह खुद
के सोने के
पहले किसी और
को उठा देता
है। कम से कम
एक दीया तो
जलता रहे अंधेरे
में। कम से कम
कोई एक तो जागकर
देखता रहे।
खतरा आये तो
हमें सोया हुआ
न पाये।
सदगुरु
का इतना ही
अर्थ है कि
तुम जब सोये
हो तब कोई तुम्हारे
पास में बैठा
हुआ, जागा हुआ
है। तुम तो
सोये हो, तो
सपने में डूब
जाओगे। तुम तो
न-मालूम कितने
वासनाओं, कल्पनाओं
के लोक में
भटक जाओगे।
तुम तो
न-मालूम कितने
मन के खेलों
में डूब
जाओगे। लेकिन
जो जागा है, वह यथार्थ
को देखता
रहेगा। उसे
सुनो। जब जागा
हुआ कुछ कहे, तो सुनो, समझो।
जागे
हुए के साथ
तर्क का सवाल
नहीं है, क्योंकि
उसकी भाषा बड़ी
और है। उससे
तर्क करके तुम
कुछ भी न
पाओगे। उससे
तर्क करके
केवल तुम बंद
रह जाओगे।
जागे के साथ
तर्क नहीं हो
सकता। जागे के
साथ तो केवल श्रवण
हो सकता है।
उससे विवाद
नहीं हो सकता,
केवल सुनना
हो सकता है।
वह जो कहे, उसे
पीओ। वह जो
कहे, तुम्हारे
सोचने का सवाल
उतना नहीं है
जितना पीने का
सवाल है।
क्योंकि वह जो
कह रहा है, उसे
पीकर ही तुम
समझ सकोगे कि
सही है या गलत
है। और तो कोई
उपाय नहीं।
लेकिन
अगर ठीक से
सुना गया, तो सत्य की
महिमा है कि
ठीक से
सुननेवाले को
सत्य तत्क्षण
हृदय में चोट
करने लगता है।
कहा गया अगर
असत्य है, तो
ठीक से सुनते
समय ही साफ हो
जाता है कि
असत्य है। तय
नहीं करना
पड़ता, विचार
भी नहीं करना
पड़ता। असत्य
के कोई पैर ही
नहीं हैं। पैर
तो सत्य के
हैं। असत्य तो
तुम्हारे
हृदय तक जा ही
नहीं सकता।
असत्य तो लंगड़ा
है। असत्य तो
बाहर ही गिर
जाएगा। तुम
अगर शांत बैठे
सुनने को
तैयार हो, तो
घबड़ाओ मत
कि कहीं ऐसा न
हो कि असत्य
भीतर प्रवेश
कर जाए। असत्य
तो तभी प्रवेश
करता है जब
तुम शांत, मौन
श्रवण नहीं
करते।
तुम्हारी
नींद के द्वार
से ही असत्य
प्रवेश करता
है। तुम्हारी
मूर्च्छा से
ही प्रवेश
करता है।
अगर
तुम सजग होकर
सुनने बैठे हो, तो असत्य
गिर जाएगा
बाहर।
तुम्हारी आंख
का सामना न कर
सकेगा असत्य।
वह शांत
सुननेवाले के
प्राण
पर्याप्त हैं
असत्य को गिरा
देने को। जो
सत्य है, वही
चला आयेगा
चुंबक की तरह
खिंचता हुआ।
जो सत्य है
वही तुम्हारे
प्राणों में
तीर की तरह प्रवेश
कर जाएगा। जो
असत्य है, बाहर
रह जाएगा। तुम
सत्य हो, तुम
सत्य को ही
खींच लोगे।
लेकिन
अगर तुमने ठीक
से न सुना, अगर तुमने
विचार किया, तुमने सोचा,
तुमने कहा
यह ठीक है या
नहीं, मेरी
अतीत
मान्यताओं से
मेल खाता, नहीं
खाता, तो
संभव है कि
असत्य
तुम्हारे
भीतर प्रवेश
कर जाए। असत्य
बहुत तार्किक
है। जीवंत तो
जरा-भी नहीं, लेकिन बड़ा तर्कयुक्त
है।
सत्य
के पास कोई
तर्क नहीं, कोई प्रमाण
नहीं। सत्य
अस्तित्ववान
है, वही
उसका प्रमाण
है। इसलिए
शास्त्र कहते
हैं सत्य
स्वयं प्रमाण
है। असत्य
स्वयं
अप्रमाण है।
सुन लो ठीक
से। उस सुनने
में ही चुनाव
हो जाएगा।
"सोच्चा जाणइ कल्लाणं।'
सुनकर ही
कल्याण का पता
चल जाता है कि
क्या है
कल्याण। "सोच्चा
जाणइ पावगं।'
सुनकर ही
पता चल जाता
है कि पाप
क्या है, गलत
क्या है, अकल्याण
क्या है? और
महावीर की बड़ी
खूबी है; वे
कहते हैं मेरे
पास कोई आदेश
नहीं है। मैं
तुमसे नहीं
कहता कि तुम
ऐसा करो।
महावीर कहते हैं,
तुम सिर्फ
सुन लो।
"अतः
सुनकर हित और
अहित दोनों का
मार्ग जानकर जो
श्रेयस्कर हो
उसका आचरण
करना।'
महावीर
यह भी नहीं
कहते कि पाप
को छोड़ो।
कहने की जरूरत
नहीं। ठीक से
सुननेवाले को
पाप पकड़ता
ही नहीं।
महावीर यह भी
नहीं कहते कि
सत्य का अनुसरण
करो। यह बात
ही व्यर्थ
होगी। जिसने ठीक
से सुना है वह
सत्य के
अनुसरण में लग
जाता है।
अनुसंधान में
लग जाता है।
इसका यह अर्थ
हुआ--सम्यक-श्रवण
कुंजी है सत्य
के द्वार की।
जिसके हाथ में
सम्यक-श्रवण
है, वह पहुंच
जाएगा। उसे
कोई रोक न
सकेगा।
इसे हम
थोड़े
वैज्ञानिक
अर्थों में
समझें।
आदमी
के पास आंख है देखने
को, कान हैं
सुनने को। आंख
से जब तुम
देखते हो, तो
एक ही दिशा
में देख सकते
हो। आंख
बहु-आयामी नहीं
है।
"मल्टी-डायमेंशनल'
नहीं है। एक
तरफ देखो, तो
सब दिशाएं बंद
हो जाती हैं।
आंख एकांगी
है। आंख एकांत
है। इसलिए
महावीर का जोर
कान पर ज्यादा
है, आंख की
बजाय। कान
बहु-आयामी है।
आंख बंद करके
सुनो, तो
चारों तरफ की
आवाजें
सुनायी पड़ती
हैं। आंख समग्र
को नहीं ले
पाती। कान
समग्र को भीतर
ले लेता है।
यह पहली बात
खयाल में लेने
की!
आंख से
जब भी तुम
देखते हो, तो एक दिशा
में, एक
रेखा में।
उतनी रेखा को
छोड़कर शेष सब
बंद हो जाता
है। आंख है
जैसे टार्च।
एक दिशा में
प्रकाश की
धारा पड़ती है।
लेकिन शेष सब
अंधकार में हो
जाता है।
महावीर
कहते हैं, यह एकांगी
होगा; यह
एकांत होगा।
तुम एक पहलू
को जान लोगे, लेकिन शेष
पहलुओं से
अनजान रह
जाओगे। यह ऐसा
ही होगा जैसे
उन पांच अंधों
की कथा है, जो
हाथी को देखने
गये थे। सबने
हाथी के अंग
छुए, लेकिन
सभी का
दर्शन--अंधे
थे, सभी की
प्रतीति
एकांगी थी।
जिसने पैर छुआ
उसने सोचा कि
हाथी खंभे की
भांति है।
जिसने कान छुए
उसने सोचा कि
हाथी पंखे की
भांति है।
अलग-अलग। वे
सभी सत्य थे, लेकिन सभी
अधूरे सत्य
थे।
और
महावीर कहते
हैं, अधूरा
सत्य असत्य से
भी बदतर है।
क्योंकि असत्य
को तो पहचानने
में कठिनाई
नहीं, वह
तो निष्प्राण
है, वह तो
लाश की तरह
है। उसको तो
तुम समझ ही
जाओगे कि यह
मुर्दा है।
आधा सत्य
खतरनाक है।
क्योंकि आधे
सत्य में
थोड़ी-सी
प्राणों की
झलक है। श्वास
अभी चलती है, मरीज अभी
मरा नहीं।
लगता है जिंदा
है। अभी शरीर
थोड़ा गरम है, ठंडा नहीं
हो गया है।
खून अभी बहता
है। लगता है
जिंदा है। आधा
सत्य असत्य से
बदतर है।
इसलिए महावीर
का सारा
संघर्ष आधे
सत्यों के
खिलाफ है, असत्य
के खिलाफ
नहीं।
उन्होंने कहा
असत्य तो सुनकर
ही समझ में आ
जाता है कि
असत्य है।
लेकिन आधे
सत्य बड़े भरमाते
हैं।
महावीर
ने एक नये
जीवन-दर्शन को
जन्म दिया। उसे
कहा, स्यातवाद। उसे कहा, अनेकांतवाद।
उसे कहा कि
मैं सारे
एकांगी सत्यों
को इकट्ठा कर
लेना चाहता
हूं। ये
पांचों अंधों
ने जो कहा है
हाथी के संबंध
में, यह
सभी सच है। और
सत्य इन सभी
का इकट्ठा जोड़
है, समन्वय
है।
कान की
खूबी है कि
कान आंख से
ज्यादा समग्र
है। जब तुम
सुनते हो तो
चारों दिशाओं
से सुनते हो।
कान ऐसे हैं
जैसे दीया
जले। सब तरफ
प्रकाश पड़े।
आंख ऐसे हैं
जैसे टार्च।
एक दिशा में।
एकांगी।
महावीर कहते
हैं कि दर्शनशास्त्र
एकांगी है। श्रवणशास्त्र
बहु-अंगी है।
इसलिए महावीर
ने एक बड़ी
क्रांतिकारी
प्रज्ञा दी।
उन्होंने कहा
कि सुनो। अगर ध्यान
में जाना है, तो सुनकर
जल्दी जा
सकोगे, बजाय
देखकर। इसलिए
समस्त
ध्यानियों ने
आंख बंद कर
लेनी चाही है।
समस्त ध्यान
की प्रक्रियाएं
कहती हैं आंख
बंद कर लो।
यह भी
थोड़ा समझने
जैसा है कि
परमात्मा ने
आंख को ऐसा
बनाया है कि
चाहो तो खोल
लो, चाहो तो
बंद कर लो।
कान को ऐसा
नहीं बनाया।
कान खुला है।
बंद करने का
उपाय नहीं।
आंख तुम्हारे
हाथ में है।
कान अब भी
परमात्मा के
हाथ में है।
तुम्हारे वश
में नहीं कि
तुम उसे खोलो,
बंद करो।
सदा खुला है।
तुम्हारी
गहरी से गहरी नींद
में भी कान
खुला है। आंख
तो बंद है। जब
तुम मूर्च्छा
में खोये हो, तब भी कान
खुला है। आंख
तो बंद है।
नींद में पड़े
आदमी के पास
जागा आदमी खड़ा
रहे, तो
देख न पायेगा।
नींद में पड़ा
आदमी देखेगा
कैसे, आंख
तो बंद है।
लेकिन अगर वह
आदमी उसका नाम
ले, आवाज
दे, तो सुन
तो पायेगा।
हम
सोये हैं।
श्रवण से
रास्ता
मिलेगा। आंख
तो हमारी बंद
ही है। और
खुली भी हो तो
ज्यादा से ज्यादा
अधूरा सत्य
देख सकती है।
पूरा सत्य आंख
के वश में
नहीं है।
तुम्हारे हाथ
में मैं एक छोटा-सा
कंकड़ दे
दूं और तुमसे
कहूं इसे पूरा
एक-साथ देख लो, तो तुम न देख
पाओगे। आंख
इतनी कमजोर
है! एक हिस्सा
देखेगी, दूसरा
हिस्सा दबा रह
जाएगा। एक
छोटा-सा कंकड़
भी तुम पूरा
नहीं देख सकते,
तो पूरे
परमात्मा को,
पूरे सत्य
को कैसे देख
सकोगे? इसलिए
जिन्होंने
देखने पर जोर दिया
है, उन्होंने
अधूरे
दर्शनशास्त्र
जगत को दिये हैं।
महावीर का
दर्शनशास्त्र
परिपूर्ण है,
समग्र है।
जोर बड़ा भिन्न
है। सुनो!
सत्य को देखना
नहीं, सत्य
को सुनना है।
सत्य कोई
वस्तु थोड़े ही
है कि तुम उसे
देख लोगे।
सत्य तो किसी
व्यक्ति का
अनुभव है। वह
कहेगा तो तुम
सुन लोगे।
महावीर खड़े
रहें
तुम्हारे
समक्ष, तुम
कुछ भी न देख
पाओगे।
बहुतों ने
महावीर को देखा
था और कुछ भी न
देखा।
गांव-गांव खदेड़े
गये। पत्थर
मारे गये।
गांव-गांव
निकाले गये। महावीर
को देखने में
क्या अड़चन आती
थी?
इस महिमावान
पुरुष को ऐसा
तिरस्कार
क्यों झेलना
पड़ा? लोग अंधे
हैं। दिखायी
उन्हें पड़ता
ही नहीं। सुन
सकते हैं।
इसलिए सुनने
की कला को सीख
लेना धर्म के
जगत में पहला
कदम है।
क्या
है सुनने की
कला? कैसे सुनोगे?
जब सुनो, तो सोचना
मत। क्योंकि
तुमने अगर
सोचा सुनते समय,
तो तुम वह न
सुन पाओगे जो
कहा गया। कुछ
और सुन लोगे।
सुनते समय
पूर्व-धारणाओं
को लेकर मत चलना।
नहीं तो
पूर्व-धारणाएं
पर्दे का काम
करेंगी। रंग
घोल देंगी जो
कहा गया है
उसमें। तुमने
कभी खयाल किया,
रात तुम
अलार्म लगाकर
सो गये हो, चार
बजे उठना है
ट्रेन पकड़ने।
और जब अलार्म
बजता है, तो
तुम एक सपना
देखते हो कि
मंदिर की घंटियां
बज रही हैं।
अलार्म खतम!
तुमने एक सपना
बना लिया।
अब घड़ी
एलार्म
बजाती रहे, क्या करेगी
घड़ी? तुमने
एक तरकीब
निकाल ली।
तुमने कुछ और
सुन लिया!
सुबह तुम
हैरान होओगे
कि हुआ क्या? अलार्म भरा
था, अलार्म
बजा भी, मैं
चूक क्यों गया?
तुम्हारे
पास अपनी एक
धारणा थी, एक
सपना था। तो
अगर तुमने
सुना कोई
पक्षपात के
साथ, तो
तुम कुछ का
कुछ सुन लोगे।
मैंने
सुना है, एक
दिन मुल्ला नसरुद्दीन
अपने मित्र के
साथ ज्यादा
देर तक गपशप
में लगा रहा।
रात बहुत बीत
गयी। चौंककर
उठा, उसने
कहा बहुत देर
हो गयी, अब
घर जाऊं।
मित्र ने कहा,
आज भाभी तो
बहुत इत्र-पान
करेंगी।
मुल्ला ने कहा
तूने मुझे
समझा क्या है?
अगर घर जाते
ही पहला शब्द
पत्नी से
प्रीतम न निकलवा
लूं, तो
मेरा नाम बदल
देना। या तेरी
जिंदगी भर
गुलामी कर
दूंगा। मित्र
भलीभांति
मुल्ला की
पत्नी को
जानता है, उसने
कहा कोई फिक्र
नहीं, दो
मील चलना
पड़ेगा--इस
अंधेरी रात
में--लेकिन मैं
आता हूं, शर्त
रही!
नसरुद्दीन
घर गया। उसने
जाकर द्वार पर
दस्तक दी और
जोर से बोला, "प्रीतम आ
गये हैं।' पत्नी
चिल्लायी
अंदर से, "प्रीतम
जाएं भाड़ में।'
उसने मित्र
से कहा, "देखा,
कहलवा लिया
न! पहला शब्द
प्रीतम
निकलवा लिया
न!'
अगर
कोई धारणा है, अगर पहले से
कोई पक्षपात
है, तो तुम
कुछ का कुछ
सुन लोगे। तुम
सत्य को अपने हिसाब
से ढाल लोगे।
तुम उसे असत्य
कर लोगे। ऐसे
ही तो लोग
चूके महावीर
को, बुद्ध
को, कृष्ण
को, जरथुस्त्र
को, जीसस
को। कुछ का
कुछ सुन लिया।
कहा था कुछ, सुन लिया
कुछ।
सुननेवाले के
पास अपना मन
था, अपना
मजबूत मन था, उसने मन के
माध्यम से
सुना। मन को
हटाकर सुनो, तो महावीर
का श्रवण समझ
में आयेगा। मन
को किनारे रख
दो, जहां
तुम जूते उतार
आये हो वहीं
मन को उतार आना।
एक बार जूते
भी मंदिर में
ले आओ तो इतना
अपवित्र नहीं,
मन को मंदिर
में मत लाना।
नहीं तो मंदिर
में कभी आ ही न
सकोगे।
"सुनकर
ही कल्याण का,
आत्महित का
मार्ग जाना जा
सकता है।
सुनकर ही पाप
का मार्ग जाना
जा सकता है।'
श्रवण
की कला आते ही
तुम दूध और
पानी को
अलग-अलग करने
में कुशल हो
जाते हो।
विवेक का जन्म
होता है। तुम
हंस हो जाते
हो। इसीलिए तो
हमने
ज्ञानियों को
परमहंस कहा
है। परमहंस का
अर्थ है, गलत
को और सही को
वे तत्क्षण
अलग कर लेंगे।
उनकी आंख, उनकी
दृष्टि, उनकी
भावदशा
बड़ी साफ है, निर्मल है।
जो जैसा है
उसे वे वैसा
ही देख लेते
हैं। जैसे को
तैसा देख लेते
हैं। उसमें कुछ
जोड़ते
नहीं। फिर कोई
भ्रांति खड़ी
नहीं होती।
बतानेवाले
वहीं पर बताते
हैं मंजिल
हजार
बार जहां से
गुजर चुका हूं
मैं
तुम भी
गुजरे हो।
मंदिर के
आसपास ही
परिक्रमा चल
रही है।
क्योंकि
परमात्मा सब
जगह मौजूद है।
कहीं भी जाओ, उसी के पास
परिक्रमा चल
रही है। कुछ
भी देखो, तुमने
उसी को देखा
है। कुछ भी
सुनो, तुमने
उसी को सुना
है। कोयल पुकारी
हो, कि
झरने की आवाज
हो, कि
जलप्रपात हो,
कि हवाएं
गुजरी हों
वृक्षों से, वही गुजरा
है। लेकिन, तुम उसे
पहचान नहीं
पाते।
बतानेवाले
वहीं पर बताते
हैं मंजिल
हजार
बार जहां से
गुजर चुका हूं
मैं
मंजिल
तो तुम्हारे
भीतर है; गुजर
चुके, यह
कहना भी ठीक
नहीं। जहां
तुम सदा से हो,
मंजिल वहीं
है। कसौटी
तुम्हारे पास
नहीं। सोने का
ढेर लगा है
चारों तरफ, तुम्हारे
पास सोने को कसने का
पत्थर नहीं।
हीरे-जवाहरात
बरस रहे हैं
चारों तरफ, तुम्हारे
पास जौहरी की
आंख नहीं।
और
महावीर कहते
हैं, श्रवण
पहला सूत्र
है। सुनो। ऐसा
कभी भी नहीं हुआ
है पृथ्वी पर
कि जागे पुरुष
न रहे हों।
ऐसा होता ही
नहीं। उनकी
शृंखला अनवरत
है। अनुस्यूत
हैं वे।
अस्तित्व में
प्रतिपल कोई न
कोई जागा हुआ
पुरुष मौजूद
है। अगर तुम
सुनने को तैयार
हो, तो परमात्मा
तुम्हें
पुकार ही रहा
है। कभी महावीर
से, कभी
कृष्ण से, कभी
मुहम्मद से।
वह तुम्हें
हजार ढंगों से
पुकारता है।
वह हजार
भाषाओं में
पुकारता है।
वह हजार तरह
से तुम्हारे
हाथ हिलाता
है। लेकिन तुम
हो कि तुम
सुनते नहीं।
मेहर
सदियों से
चमकता ही रहा अफ्लाक पर
रात
ही तारी रही
इंसान के इद्राक
पर
अक्ल
के मैदान में
जुल्मत का
डेरा ही रहा
दिल
में तारीकी दिमागों
में अंधेरा ही
रहा
और
मेहर सदियों
से चमकता ही
रहा अफ्लाक
पर, रात ही
तारी रही
इंसान के इद्राक
पर। सूरज
चमकता ही रहा
है, सदियों
से, सदा
से। सूरज इस
अस्तित्व का
अनिवार्य अंग
है। लेकिन
आदमी अंधेरे
में ही जीता
है। आदमी अपने
भीतर बंद है।
ऐसा समझो कि सूरज
निकला हो और
तुम घर के
भीतर
द्वार-दरवाजे बंद
किये बैठे हो।
फिर सूरज करे
भी तो क्या? द्वार-दरवाजे
खोलो, थोड़े
ग्रहणशील
बनो। कान का
यही अर्थ है।
कान प्रतीक है
ग्रहणशीलता
का।
इसे भी
समझ लेना।
आंख
आक्रामक है, कान ग्राहक
है। और महावीर
की अहिंसा
इतनी गहरी है
कि वह आंख का
उपयोग न
करेंगे।
क्योंकि आंख
में आक्रमण
है। जब मैं
तुम्हें
देखता हूं, तो मेरी आंख
तुम तक गयी।
जब मैं
तुम्हें
सुनता हूं, तब मैंने
तुम्हें अपने
भीतर लिया। जब
मैं तुम्हें
देखता हूं, तो देखने
में एक आक्रमण
है। इसलिए कोई
आदमी तुम्हें
घूरकर देखे, तो अच्छा
नहीं लगता।
कोई तुम्हें
गौर से सुने, तो बहुत
अच्छा लगता है,
खयाल किया?
गौर से
सुननेवाले को
तुम बड़ा प्यार
करते हो। लोग
तलाश में रहते
हैं, कोई
मिल जाए
सुननेवाला।
पश्चिम
में, जहां कि
सुननेवाले कम
होते चले गये
हैं, मनोविश्लेषक
है। वह
"प्रोफेशनल' सुननेवाला
है।
व्यवसायी।
उसे पैसे चुकाओ,
वह घंटे भर
बड़े गौर से
सुनता है। पता
नहीं सुनता है
कि नहीं सुनता,
लेकिन
जतलाता है कि
सुनता है।
लोग
बड़े प्रसन्न
लौटते हैं
मनोवैज्ञानिक
के पास से। वह
कुछ भी नहीं
करता। वह कहता
है सिर्फ तुम
बोलो, हम
सुनेंगे।
सुननेवाला
इतना भला लगता
है, इतना
ग्राहक!
तुम्हें
स्वीकार करता
है। लेकिन अगर
कोई तुम्हें
गौर से देखे, तो अड़चन आती
है। मनस्विद
कहते हैं तीन
सेकेंड तक
बर्दाश्त
किया जा सकता
है। वह सीमा
है। उसके आगे
आदमी लुच्चा
हो जाता है।
लुच्चे का
मतलब, गौर
से
देखनेवाला।
और कुछ मतलब
नहीं। जो मतलब
आलोचक का होता
है, वही
लुच्चे का
होता है।
दोनों एक ही
शब्द से बने
हैं--लोचन, आंख।
लुच्चे का
अर्थ है, जो
तुम्हें
घूरकर देखे।
आलोचक का भी
यही अर्थ होता
है कि जो
चीजों को घूर-घूरकर
देखे, कहां-कहां
भूल है।
लेकिन
तुम गौर से
सुननेवाले को
बड़ा आदर देते
हो। घूर के देखनेवाले
को बड़ा अनादर।
हां, किसी से
तुम्हारा
प्रेम हो, तो
तुम क्षमा कर
देते हो। वह
तुम्हें गौर
से देखे, चलेगा।
लेकिन जिससे
तुम्हारा कोई
संबंध नहीं, तो तीन
सेकेंड से ज्यादा
आंख नहीं टिकनी
चाहिए किसी
पर। वहां से
शिष्टाचार
समाप्त हो जाता
है। वहां से
बात अशिष्ट हो
जाती है। तो हम
रास्ते पर
आंखें बचाकर
चलते हैं।
देखते भी हैं,
नहीं भी
देखते हैं।
दुबारा लौटकर
नहीं देखते।
देखने का मन
भी हो, तो
भी आंखें
यहां-वहां कर
लेते हैं।
तुमने
कभी खयाल किया, लोग
एक-दूसरे की
आंखों में
आंखें डालकर
बात नहीं करते,
क्योंकि वह
बेहूदगी है।
लोग इधर-उधर
देखते हैं।
बात एक-दूसरे
से करते हैं, देखते
कहीं-कहीं
हैं। कोई आदमी
ठीक तुम्हारी आंखों
में देखकर बात
करे, तुम
बेचैनी अनुभव
करोगे, तुम्हें
पसीना आने लगेगा।
तुम थोड़े घबड़ाओगे
कि मामला क्या
है? कोई
जासूस है? सरकारी
आदमी है? मामला
क्या है, ऐसा
गौर से क्यों
देखता है? या
पागल है? प्रयोजन
होगा कुछ। कुछ
तलाश कर रहा
है, कुछ
खोज रहा है।
कान
ग्राहक है।
आंख सक्रिय
है। कान
निष्क्रिय-स्वीकार
है। कान ऐसे
है जैसे कोई
द्वार को
खोलकर अतिथि
की प्रतीक्षा
करे। सत्य निमंत्रित
करना है। सत्य
को बुलाना है।
सत्य को कहना
है, द्वार
खुले हैं, आओ।
आंखें बिछा
रखी हैं, आओ।
मैं तैयार हूं,
आओ। तुम
मुझे सोया हुआ
न पाओगे, आओ।
दरवाजे बंद न
होंगे, तुम्हें
दस्तक देने की
भी तकलीफ न
होगी, आओ।
आंख
खोजने जाती
है। कान
प्रतीक्षा
करता है। इसे
ऐसा समझो। आंख
पुरुष है। कान
स्त्री है।
पुरुष सक्रिय
है, आक्रामक
है। स्त्री
ग्राहक है।
पुरुष जन्म नहीं
दे सकता बच्चे
को, स्त्री
देती है। उसके
पास गर्भ है।
वह अपने भीतर
लेने को राजी
है। सत्य भी
तुम्हारे
गर्भ में प्रवेश
पाये, तो
ही जन्म हो
सकेगा। सत्य
को तुम्हें
जन्माना
होगा। यह कहीं
रखा नहीं है
कि गये और उठा
लिया और आ
गये। या बाजार
में बिकता है,
खरीद लिया,
या दाम चुका
दिये। यह तो
तुम्हें जन्म
देना होगा और
प्रसव की पीड़ा
से गुजरना
होगा।
तुम्हें स्त्री-जैसा
होना होगा। समस्त
धर्म के
खोजियों ने इस
बात पर बहुत
जोर दिया है
कि सत्य को
पाना हो, तो
स्त्रैण
ग्राहकता
चाहिए।
स्वीकार का
भाव चाहिए।
श्रद्धा
स्वीकार है, तर्क खोज
है। विज्ञान
खोजता है।
धर्म प्रतीक्षा
करता है।
विज्ञान जाता
है कोने-कांतर,
उघाड़ता है, जबर्दस्ती
भी करता है। विज्ञान
एक तरह का
बलात्कार है।
अगर प्रकृति राजी
नहीं है अपने
पर्दे उठाने
को, अगर
प्रकृति राजी
नहीं है घूंघट
हटाने को, तो
विज्ञान
दुर्योधन-जैसा
है। वह
द्रौपदी को नग्न
करने की
चेष्टा करता
है। उसमें
बलात चेष्टा
है। आक्रमण
है।
धर्म
प्रतीक्षा
है। धर्म भी
उघाड़ लेता है
संसार को।
धर्म भी सत्य
को उघाड़ लेता है, लेकिन
प्रेमी की
तरह।
तुम्हारी
प्रेयसी तुम्हारे
सामने वस्त्र
गिरा देती है।
वस्त्र खींचने
नहीं पड़ते।
प्रेयसी खुद
ही उघड़ने
को राजी होती
है। आतुर होती
है। सत्य
स्वयं उघड़ने
को आतुर है, लेकिन प्रेम
से उघड़ेगा।
आक्रमण से
नहीं।
परमात्मा खुद
घूंघट उठाने
के लिए तैयार
है, तैयार
नहीं बड़ा
प्रतीक्षारत
है, लेकिन
जबर्दस्ती से
न होगा। आंख
में थोड़ी जबर्दस्ती
है। कान में
कोई भी
जबर्दस्ती
नहीं। कान
कहीं जा नहीं
सकता। ध्वनि
कान तक तैरकर
आती है।
कान
रिक्त है, आंख भरी हुई
है। आंख में
पर्त दर पर्त
विचारों की
हैं, पर्त
दर पर्त
बादलों की
हैं। आंख में
बड़े पर्दे
हैं। कान
बिलकुल खाली
है। कान के
पास कुछ भी नहीं
है, सिर्फ
एक तंतु-जाल
है। चोट होती
है, कान
सजग हो जाता
है, स्वीकार
कर लेता है।
महावीर
कहते हैं, जो
सुनेगा--ठीक
से सुनेगा, सम्यक-श्रवण,
"राइट लिसनिंग';
कृष्णमूर्ति
जिसको कहते
हैं "राइट लिसनिंग',
ठीक से जो
सुनेगा--सत्य
अपने-आप असत्य
से अलग हो
जाता है। दूध
दूध, पानी
पानी हो जाता
है। ठीक से
सुनने से तुम
परमहंस हो
जाते हो।
मेहर
सदियों से
चमकता ही रहा अफ्लाक पर
रात
ही तारी रही
इंसान के इद्राक
पर
और
आदमी के बोध
पर अंधेरा
छाया रहा, और सूरज था
कि चमकता ही
रहा।
अक्ल
के मैदान में
जुल्मत का
डेरा ही रहा
दिल
में तारीकी दिमागों
में अंधेरा ही
रहा
फिर
कभी-कभी किसी
महावीर के पास
थोड़ी-सी झलक मिलती
है।
कुछ
नहीं तो कम से
कम ख्वाबे-सहर
देखा तो है
जिस
तरफ देखा न था
अब तक उधर
देखा तो है
किसी
महावीर के पास, किसी महावीर
की वाणी को
सुनकर--जिस
तरफ कभी देखा
ही न था...भूल ही
गये थे, सोचा
ही न था कि वह
भी कोई आयाम
है...उस तरफ
देखा तो है।
माना कि अभी
यह सपना है।
पहली दफे जब
महावीर की
वाणी किसी के
हृदय में
उतरती है, नाचती,
घूंघर
बजाती, संगीत
की तरह मधुर, मधु की तरह
मीठी, जब
पोर-पोर हृदय
में प्रवेश
करती है, तो
एक नये स्वप्न
का
प्रादुर्भाव
होता है। सत्य
के स्वप्न का
प्रादुर्भाव।
पहली बार याद
आनी शुरू होती
है जिसको हम
भूले बैठे हैं
और जो हमारा
है। और जो
हमारा स्वभाव
है और जिसकी
तरफ हमने पीठ
कर ली है। और
जिसकी तरफ हमने
आंख उठानी बंद
कर दी है और
जिस तरफ हमने
पहुंचना ही
छोड़ दिया है।
हम भूल ही गये
हैं कि घर भी
लौटना है।
बढ़ते ही चले
जाते हैं
संसार में।
लेकिन
यह स्वप्न!
कुछ
नहीं तो कम से
कम ख्बाबे-सहर
देखा तो है
यह
सुबह का सपना
ही सही अभी, किसी की
वाणी से पहली
दफा तरंगें
उठी हैं, और
सुबह का भाव, सुबह का बोध
जगा है।
जिस
तरफ देखा न था
अब तक उधर
देखा तो है
लेकिन
यह तभी संभव
होगा, जब
तुम्हारा
हृदय शून्य और
शांत हो, मौन
हो।
मैंने
सुना है, मुल्ला
नसरुद्दीन
एक नदी के
किनारे से
गुजर रहा था।
सांझ घिरने
लगी। सूरज ढल
चुका है। और
एक आदमी डूब
रहा है; और
वह आदमी
चिल्लाया, सहायता
करो, सहायता
करो, मैं
डूब रहा हूं!
मुल्ला
किनारे पर खड़ा
है, वह
बोला हद्द हो
गयी; अरे, डूबने में
किसी से क्या
सहायता की
जरूरत, डूब
जाओ! इसमें
सहायता की
क्या जरूरत
है!
तुम
कुछ का कुछ
सुन ले सकते
हो। इससे
सावधान रहना।
लेकिन जब तक
तुमने मन को
बिलकुल हटाकर
न रखा हो, तुम
कुछ का कुछ सुनोगे
ही।
इसलिए
ध्यान श्रवण
के लिए मार्ग
बनाता है। ध्यान
का अर्थ है, मन की सफाई।
ध्यान का अर्थ
है, अ-मन की
तरफ यात्रा।
ध्यान का अर्थ
है, थोड़ी घड़ियों को
मन की धूल से
चित्त के
दर्पण को
बिलकुल साफ कर
लेना। महावीर
के पास लोग
आते, तो
महावीर
कहते--कुछ देर
ध्यान, फिर
सुनना।
इसलिए
मैं इतना जोर
देता हूं
ध्यान पर। तुम
मुझे
सीधा-सीधा न
सुन सकोगे। कई
बुद्धिमान आ
जाते हैं, वह कहते हैं
ध्यान वगैरह
से हमें कुछ
मतलब नहीं, हमें तो
आपको सुनने
में मजा आता
है। मर्जी आपकी!
लेकिन यह मजा
कहीं ले
जानेवाला
नहीं। यह बुद्धि
की खुजलाहट
है। खुजलाने
से थोड़ा अच्छा
लगता है, मीठा-मीठा
लगता है।
जल्दी ही
लहूलुहान हो
जाएंगे। नहीं,
इससे कुछ
सुनने से सार
न होगा।
क्योंकि सच तो
यह है, सुन तुम
पाओगे ही न
बिना ध्यान
के। ध्यान
तुम्हें तैयार
करेगा कि तुम
सुन सको।
फिर
महावीर कहते
हैं, "उभयं पि जाणए
सोच्चा।'
दोनों देख
लिये। क्या है
सत्य, क्या
असत्य। देख
लिया क्या है मंगलदायी,
क्या अमंगलदायी।
"जं छेयं
तं समायरे।'
यह उनकी बड़ी
अनूठी बात है।
वह जरा भी
किसी पर अपने
को आरोपित
नहीं करना
चाहते। वह
कहते हैं, फिर
तुम्हारी
अपनी इच्छा।
फिर तुम्हें
जो श्रेयस्कर
लगे। वह यह
नहीं कहते कि
तुम सत्य का अनुसरण
करना। यह तो
बात ही गलत हो
जाएगी। सत्य
को जानकर कभी
ऐसा हुआ है कि
किसी ने
अनुसरण न किया
हो? वह यह
नहीं कहते कि
असत्य का
त्याग करना।
ऐसा कभी हुआ
ही नहीं कि
असत्य को
जानकर और
त्याग न हो
गया हो। कंकड़-पत्थर
पहचान लिए कंकड़-पत्थर
हैं फिर कौन तिजोड़ी
में रखता है? हां, जब
तक हीरों का
भ्रम था तब तक तिजोड़ी
में संभाले
बैठे थे। जिस
दिन पहचान आ
जाती है कूड़ा-कर्कट,
कूड़ा-कर्कट है, उसे घर के
बाहर हम फेंक
आते हैं।
त्याग थोड़े ही
करना पड़ता है,
उद्घोषणा
थोड़े ही करनी
पड़ती है कि
देखो, आज
हम बड़ा त्याग
कर रहे हैं, सारा कूड़ा-कर्कट
कचरे-घर में
डाल रहे हैं।
जब कूड़ा-कर्कट
हो गया, तो
त्याग कैसा!
इसलिए
ध्यान रखना, महावीर
त्याग करने को
नहीं कहते। वह
तो कहते हैं
सिर्फ जागकर
देख लो; जो
ठीक है, वही
तुम्हारा
मार्ग हो
जाएगा, जो
गलत है, उस
पर कभी कोई
गया ही नहीं।
जानकर कभी कोई
ने दीवाल से
निकलने की
कोशिश की है? द्वार दिख
गया, फिर
लोग द्वार से
निकलते हैं, कौन सिर तोड़ता
है दीवाल से!
"फिर
जो श्रेयस्कर
हो उसका आचरण
करना।' फिर
तुम्हें जो
श्रेयस्कर
लगे, इतने
बलपूर्वक
महावीर कहते
हैं कि फिर जो
श्रेयस्कर हो,
क्योंकि वह
जानते हैं कि
सत्य
श्रेयस्कर
है। पहचान भर
की कमी है।
ज्ञान भर की
कमी है।
अक्सर
लोग मेरे पास
आते हैं, वह
कहते हैं हमें
पता है कि ठीक
क्या है, लेकिन
क्या करें गलत
हो जाता है।
पता संदिग्ध
है। कहते हैं
हमें मालूम है
कि क्रोध बुरा
है, लेकिन
हो जाता है।
कहते हैं, बहुत
बार कसम भी
खायी, व्रत
भी लिया, फिर
भी हो जाता
है। तो इसका
अर्थ इतना ही
है कि अभी
जाना नहीं कि
क्रोध बुरा
है। अभी क्रोध
की आग अनुभव
नहीं बनी। अभी
क्रोध का जहर
खुद के कंठ को
जलाया नहीं।
किसी और ने
कहा होगा, सुना
होगा, शास्त्र
में पढ़ा होगा,
लेकिन अभी
तुम्हारे
जीवन का अनुभव
नहीं बना। शास्त्र
से उधार लिया
होगा। सभी
शास्त्र कहते
हैं क्रोध
बुरा है।
सुनते-सुनते
तुम भी मानने
लगे हो कि
क्रोध बुरा
है। लेकिन, तुम्हारे
प्राणों ने
अभी इसकी
गवाही नहीं दी।
और जब तक तुम
गवाही न बनो, तब तक जीवन
में कोई
क्रांति नहीं
होती। उधार ज्ञान
से क्रांति
नहीं होती।
ज्ञान
तुम्हारा
होना चाहिए।
दूसरे जाग गये
इससे कुछ न
होगा, जाग
तुम्हारी
होनी चाहिए।
सुन लो उन्हें,
उनकी पुकार
से जागो, लेकिन जैसे
ही आंख खुलेगी
तत्क्षण तुम
देख लोगे कि
सपना सपना है,
सत्य सत्य
है। फिर कोई
सपने को थोड़े
ही चुनता है!
"जो
श्रेयस्कर हो
उसका आचरण
करना चाहिए।'
महावीर ने
कहा है, मैं
कोई आदेश नहीं
देता, मैं
जो कहता हूं
वह सिर्फ
उपदेश है, आदेश
नहीं।
क्योंकि मैं
कौन हूं, जो
तुमसे कहूं
ऐसा करो। ऐसा
करना कहते ही
हिंसा हो
जाएगी। मैं
तुम्हें
दबाने लगा।
मैं तुम्हें
ढालने लगा।
महावीर कहते
हैं, तुम
परम
स्वातंत्र्य
हो। तुम्हारी
स्वतंत्रता
से ही
तुम्हारा
अनुशासन
निकले। और
तुम्हारे
अनुभव से ही
तुम्हारा
आचरण बने। तो
ही सार्थक है।
अन्यथा
जन्मों-जन्मों
तक धोखा चलता
रहता है। जैसे
ही समझ की जरा-सी
झलक आती है--
कोई
दम में हयाते-नौ
का फिर परचम
उठाता हूं
बईमां-ए-हमीयत
जान की बाजी
लगाता हूं
मैं
जाऊंगा, मैं जाऊंगा,
मैं जाता
हूं, मैं
जाता हूं
मुझे
जाना है इक
दिन तेरी बज्म?-नाज से आखिर
जैसे
ही समझ आनी
शुरू होती है, यात्रा
बदली। मैं जाऊंगा,
मैं जाऊंगा,
मैं जाता
हूं, मैं
जाता हूं; मुझे
जाना ही है इक
दिन तेरी बज्मे-नाज़
से आखिर। एक
दिन जाना ही
है, तो
रुकने का अर्थ
क्या? मौत
आनी ही है, तो
जीवन को पकड़ने
का सार क्या? जिस जीवन
में मौत घटनी
ही है, वह
जीवन मौत की
ही तैयारी है।
जिस जीवन में
मौत आती ही है,
वह जीवन मरा
हुआ है, वह
वास्तविक
जीवन नहीं। जो
मुझसे छीन ही
लिया जाना है,
उसे रोकने
की चेष्टा
करने से सार
क्या है? जो
मुझसे छिन ही
जाएगा, उस
साम्राज्य को
बनाने का
पागलपन बस पागलपन
ही है। मैं जाऊंगा,
मैं जाऊंगा,
मैं जाता
हूं, मैं
जाता हूं; मुझे
जाना है एक
दिन तेरी बज्मे-नाज़
से आखिर। जैसे
ही बोध जगना
शुरू होता है,
जीवन में
क्रांति आनी
शुरू होती है।
संन्यास
बोध की छाया
है। संन्यास
समझ की प्रगाढ़ता
है। संन्यास
सम्यक-बोध, केवल सम्यक-बोध
है। शुद्ध, सार बोध है।
चेष्टा नहीं
है। अगर तुमने
चेष्टा से कुछ
साधा, तो
तुम
जबर्दस्ती
करोगे। तुमने
चेष्टा से कुछ
साधा, तो
तुम खंड-खंड
हो जाओगे।
तुमने चेष्टा
से कुछ साधा, तो तुम दो टुकड़ों
में टूट
जाओगे। एक
टुकड़ा जिस पर
तुम जबर्दस्ती
कर रहे हो और
एक टुकड़ा जो
जबर्दस्ती कर
रहा है।
तुम्हारे
भीतर बड़ी आत्म-हिंसा
शुरू हो
जाएगी।
दूसरा
सूत्र—
णाणाssणत्तीए पुणो,
दंसणतवनियमसंयमे
ठिच्चा।
विहरइ विसुज्झमाणी,
जावज्जीवं
पि निवकंपो।।
"और
फिर ज्ञान के
आदेश द्वारा
सम्यक
दर्शन-मूलक तप,
नियम, संयम
में स्थित
होकर कर्म-मल
से विशुद्ध
जीवनपर्यंत
निष्कंप
(स्थिर चित्त)
होकर विहार
करता है।'
और
जिसने जान
लिया सत्य क्या
है, उसके
जीवन में एक
नयी ही ऊर्जा
का आविर्भाव
होता है।
निष्कंप हो
जाता है
चित्त। चित्त
कंपता तभी तक
है, जब तक
हमें सत्य और
असत्य का बोध
नहीं। तब तक डांवांडोल
होता है, यह
करूं या वह
करूं? यहां
जाऊं, या
वहां जाऊं? मंदिर कि
वेश्यालय? ऐसा
डोलता है। धन
कि ध्यान? ऐसा
डोलता है।
शरीर कि आत्मा?
ऐसा डोलता
है। जब तक
तुम्हारे
भीतर सत्य और
असत्य की
ठीक-ठीक
प्रतीति नहीं
है तब तक
तुम्हें
असत्य में
सत्य की
भ्रांति होती
रहती है। सत्य
में असत्य की
भ्रांति होती
रहती है। मन
डांवांडोल
रहता है। इस
डांवांडोल
चित्त के कारण
ही तो बेचैनी
है, अशांति
है। महावीर
कहते हैं--
णाणाऽऽणत्तीए पुणो, दंसणतवनियमसंयमे ठिच्चा।
विहरइ विसुज्झमाणी, जावज्जीवं पि निवकंपो।।
जिसने
सत्य की
प्रतीति की, वह निष्कंप
हो जाता है।
जिसको कृष्ण
ने गीता में
स्थितप्रज्ञ
कहा है। ठहर
जाती है उसकी
प्रज्ञा। ऐसी
ठहर जाती है, जैसे बंद घर
में दिया जलता
हो, जहां
हवा का कोई
झोंका न आता
हो। निष्कंप
हो जाती है वह
लौ। ऐसी भीतर
चेतना की लौ
निष्कंप हो
जाती है। कुछ
चुनने को न
रहा--चुनाव हो
गया, सत्य
को जानते ही
चुनाव हो गया।
सत्य को जानते
ही निर्णय हो
गया। जीवन की
दिशा उपलब्ध हो
गयी; अर्थ,
अभिप्राय आ
गया। अब कुछ
चुनाव नहीं
करना है। अब
व्यक्ति सत्य
की तरफ ऐसे ही
बहने लगता है
जैसे नदियां
सागर की तरफ
बह रही हैं।
हम
साधारणतः नदी
के विपरीत
तैरने का
प्रयास कर रहे
हैं। हमारी
कोशिश असंभव
को संभव बनाने
की है। हम
स्वभाव के
प्रतिकूल
चेष्टा में रत
हैं। हम इस
जीवन को, जो
केवल
क्षणभंगुर है,
शाश्वत
बनाने की
आयोजना कर रहे
हैं। हम मिट्टी-पत्थर
को
हीरे-जवाहरातों
की तरह छाती
से लगाने की
कोशिश कर रहे
हैं। हम
हड्डी-मांस-मज्जा
की देह को
अपना शाश्वत
घर समझने की, समझाने की
कोशिश कर रहे
हैं। हमारी
चेष्टा है कि
किसी तरह दो
और दो चार न
हों, पांच
हो जाएं। हो
नहीं सकता।
संसार में
असफलता मिलती
है, क्योंकि
सांसारिक मन
की चेष्टा
असंभव को पूरा
करने की
चेष्टा है।
जिस
व्यक्ति को
सत्य और असत्य
दिखायी पड़ने
शुरू हो गये, शुद्ध
निर्मल
प्रतीति होनी
शुरू हुई, उसके
जीवन में तप, नियम, संयम
अपने-आप उतर
आते हैं।
इन्हें लाना
नहीं पड़ता।
इन्हें
खींच-खींचकर
आयोजना नहीं
करनी पड़ती। एक
बात सूत्र की
तरह याद रखना,
जिसे
खींच-खींचकर
लाना पड़ता हो,
वह आएगा
नहीं। इस जगत
में
जबर्दस्ती
कुछ घटता ही
नहीं। सत्य
सहज है। इसलिए
जब तक साधना
सहज न हो, तब
तक तुम व्यर्थ
ही कष्ट अपने
को दे रहे हो।
न
मालूम कितने
लोग अकारण खुद
को पीड़ा देने
में लगे रहते
हैं। कोई
उपवास कर रहा
है, कोई धूप
में खड़ा है, कोई रात
सोता नहीं, कोई दिन-रात
खड़ा रहता
है--वर्षों से
खड़ा है, कोई
कांटों पर
लेटा है, ये
सारे के सारे
लोग रुग्ण लोग
हैं। यह तप
नहीं है। यह
तो एक तरह की
आत्महिंसा
है। ये लोग "मेसोचिस्ट'
हैं।
इन्हें स्वयं
को दुख देने
में रस आ रहा है।
कुछ लोग होते
हैं, जिनको
स्वयं के घाव
में अंगुलियां
डालकर दुख और
पीड़ा पैदा
करने में रस
आता है। ये
बीमार-चित्त
लोग हैं। ये
तपस्वी नहीं हैं।
यह तप क्रोध
से भरा है। यह
तप हिंसा से
डूबा हुआ है।
ऐसे तप से कोई
कभी सत्य को
उपलब्ध नहीं
हुआ। तप से
कोई सत्य को
उपलब्ध होता
ही नहीं; सत्य
की उपलब्धि से
तप उपलब्ध
होता है।
तप, संयम, नियम
तुम्हारी
सहजता से आने
चाहिए।
तुम्हारे
अनुभव से आने
चाहिए। तो मैं
तुमसे कहूंगा,
अगर क्रोध
हो तो कसम मत
खाना कि क्रोध
न करेंगे। अगर
क्रोध होता हो,
तो क्रोध को
ध्यानपूर्वक
समझने की
कोशिश करना
क्या है।
क्रोध को
बोधपूर्वक
करना। क्रोध में
उतरना। उस आग
को जलाने दो, क्योंकि
बिना जले तुम चेतोगे
नहीं। उस आग
को बुझाओ
मत, पानी
मत फेंको--व्रत
और नियम, कसमें,
इनका पानी
फेंककर
अंगारों को बुझाओ
मत--आग को जलने
दो, आग को
प्रज्वलित
होने दो, आग
को पूरी तरह
जलने दो, ताकि
तुम्हें दग्ध
कर जाए, ताकि
तुम्हें
अनुभव हो जाए
कि क्रोध कैसी
अग्नि है! वही
अनुभव
तुम्हें
क्रोध की तरफ
जाने से रोक
लेगा। फिर
जीवन में एक
नियम आता है।
वह नियम कसम
से आया नियम
नहीं है। वह
नियम बोध से
आया नियम है।
"और
संयम में
स्थित होकर
विशुद्ध साधक
जीवनपर्यंत
निष्कंप, स्थिर-चित्त
होकर विहार
करता है।'
महावीर
और बुद्ध के
कारण भारत के
वे भूमिखंड
जहां वे जीए, "विहार' कहलाने
लगा। लेकिन
विहार शब्द को
समझना। विहार
का मतलब है--विहार
बड़े सुख की, महासुख की दशा है--जब
चित्त बिलकुल
स्थिर हो जाता
है, जब कोई
चीज
डांवांडोल
नहीं करती, कोई विकल्प
मन में नहीं
रह जाते और
चित्त निर्विकल्प
होता है; जब
तुम्हारी
दिशा सत्य की
तरफ सीधी और
साफ हो जाती
है, जब तुम
रोज-रोज
रास्ते नहीं
बदलते, जब
तुम्हारा
प्रवाह संयत
हो जाता है, तब तुम्हारे
जीवन में एक महासुख का
आविर्भाव
होता है, वैसे
महासुखी
का जहां-जहां
विचरण होता है,
वह भूमिखंड
भी सुख से भर
जाता है; वह
भूमिखंड
भी, हवा के
कण भी, वृक्ष-पहाड़-पर्वत
भी, नदी-नाले
भी उसकी
आंतरिक-आभा को
झलकाने
लगते हैं।
कथाएं
हैं बड़ी
प्यारी कि
महावीर जहां
से निकल जाते, कुम्हलाये वृक्ष हरे
हो जाते।
महावीर जहां
से निकल जाते,
असमय में
वृक्षों में
फूल लग जाते।
ऐसा हुआ होगा,
ऐसा मैं
नहीं कहता
हूं। ऐसा होना
चाहिए, ऐसा
जरूर कहता
हूं। जिन्होंने
ये कहानियां गढ़ी हैं, उन्होंने
बड़े गहरे
काव्य को
अभिव्यक्ति
दी है।
उन्होंने
जीवन के सत्य
को बड़ी गहरी
भाषा दी है।
मानता नहीं कि
वृक्षों ने
ऐसा किया
होगा--आदमी
नहीं करते, वृक्षों की
तो बात क्या; आदमी नहीं
खिलते, तो
वृक्षों की तो
बात क्या
है--लेकिन ऐसा
होना चाहिए।
लेकिन अगर
वृक्षों में
फूल न खिले हों
तो जिन्होंने
कहानी लिखी
उनका कोई दोष
नहीं, वृक्षों
की भूल रही
होगी। वे चूक
गये। इसमें कवि
क्या करे! कवि
ने तो बात
ठीक-ठीक कह दी,
ऐसा होना
चाहिए था।
नहीं हुआ, वृक्ष
नासमझ रहे
होंगे। अगर
असमय फूल न
खिले, तो
चूक फूलों की
है; उसमें
महावीर क्या
करें? महावीर
ने स्थिति तो
पैदा कर दी
थी। वृक्षों में
थोड़ी भी समझ
होती तो फूल खिलने
चाहिए थे।
वातावरण
मौजूद था--और
मौसम क्या चाहिए,
महावीर
मौजूद थे! अब
किसकी और
प्रतीक्षा थी?
और किस वसंत
की अब अभीप्सा
है? वसंत
मौजूद था।
इससे बड़ा वसंत
कभी पृथ्वी पर
आया है? खिले
हों तो ठीक, न खिले हों, फूलों की
गलती; महावीर
का कोई कसूर
नहीं है।
तुममें
से भी बहुत
महावीर के पास
से गुजरे होंगे, क्योंकि नया
तो यहां कोई
भी नहीं है।
सभी बड़े पुराने
यात्री हैं।
जराजीर्ण!
सदियों-सदियों
चले हैं।
तुममें से भी
कुछ जरूर
महावीर के पास
गुजरे होंगे।
नहीं महावीर,
तो मुहम्मद
के पास गुजरे
होंगे। नहीं
मुहम्मद, तो
कृष्ण के पास
गुजरे होंगे।
ऐसा तो असंभव
है इस विराऽऽऽट
और अनंत की
यात्रा में
तुम्हें कभी
कोई महावीर-जैसा
पुरुष न मिला
हो। अगर
तुम्हारे फूल
न खिले, तो
कसूर तुम्हारा
है। मौसम तो
आया था, द्वार
पर खड़ा था, वसंत
ने तो दस्तक
दी थी, तुम
सोये पड़े रहे।
तालमेल बैठ
जाए, फूल
खिल जाते हैं।
मेरे
पास कुछ लोग
आते हैं, वे
कहते हैं हमें
भरोसा नहीं
आता कि दूसरे
लोग आपके पास
आकर इतने
आनंदित क्यों
हैं! जिसका तालमेल
बैठ जाता है, उसके फूल
खिल जाते हैं।
जिसका तालमेल
नहीं बैठता, वह तर्क की उधेड़बुन
में ही लगा रह
जाता है। वह
सोच-विचार में
लगा रहता है, क्या ठीक, क्या गलत? उसका तर्क
वसंत से मेल
नहीं खाने
देता। ऋतु आ जाती
है, वृक्ष
उदास ही खड़ा
रहता है, वह
सोचता ही रहता
है यह वसंत है
या नहीं? और
आए वसंत को
जाने में देर
कितनी लगती
है! वसंत आ
गया। वसंत आ, गया! इतनी
देर। चूके
तर्क में, संदेह
में कि जो था, नहीं हो
जाता है।
"जैसे-जैसे
मुनि अतिशय रस
के अतिरेक से
युक्त होकर अपूर्वश्रुत
का अवगाहन
करता है, वैसे-वैसे
नितनूतन वैराग्ययुक्त
श्रद्धा से
आह्लादित
होता है।'
वेद
कहते हैं--"रसो
वै सः।' वह परमात्मा
रसरूप
है। महावीर की
भाषा में
परमात्मा के
लिए कोई जगह
नहीं, लेकिन
रस से थोड़े ही
बच सकोगे? परमात्मा
छोड़ दो, रस
को थोड़े ही
छोड़ सकोगे? वेद कहते
हैं परमात्मा रसरूप है, महावीर कहते
हैं रसरूप
हो जाना परमात्मरूप
हो जाना है।
यह सिर्फ भाषा
का ही फर्क
है।
"जैसे-जैसे
मुनि अतिशय रस
के अतिरेक से।'
नारद भी अब
और क्या
करेंगे! यह
भाषा का ही
थोड़ा-सा भेद
है। महावीर
कहते हैं, जैसे-जैसे
मुनि अतिशय रस
के अतिरेक से,
ऐसे रस की
वर्षा होती
है।
स्थिरचित्त
होते ही द्वार
खुल जाता है।
बाढ़ आ जाती
है।
कूल-किनारे तोड़कर
बहती है चेतना
की धारा।
"अतिशय रस के
अतिरेक से।' अतिरेक हो
जाता है।
अतिशयोक्ति
हो जाती है। तुम्हारा
पात्र संभाल
नहीं पाता।
बहने लगता है।
देना ही पड़ता
है, बांटना
ही पड़ता है।
किसी को
साझेदार
बनाना ही पड़ता
है। जब तक
नहीं मिला तब
तक अकेले रह
जाओ, मिलते
ही ढूंढ़ना
पड़ेगा किसी को,
किसी
सुपात्र को जो
लेने को तैयार
हो।
महावीर
बारह वर्ष तक
मौन खड़े रहे, जंगलों में,
पर्वतों
में, पहाड़ों
में। जब अतिशय
रस का अतिरेक
हुआ, भागे
आए। भाग गये
थे जिस बस्ती
से, उसी
में वापिस लौट
आए; ढूंढ़ने
लगे लोगों को,
पुकारने
लगे, बांटने
लगे। अब घटा
था अब इसे
रखना कैसे
संभव है! जैसे
एक घड़ी आती है,
नौ महीने के
बाद, मां
का गर्भ
परिपक्व हो
जाता है। फिर
तो बच्चा पैदा
होगा। फिर तो
उसे नहीं गर्भ
में रखा जा सकता।
अब तक संभाला,
अब तो नहीं
संभाला जा
सकता। उसे
बांटना होगा।
शास्त्रों
ने बहुत कुछ
बात बहुत तरह
से महावीर, बुद्ध और
ऐसे पुरुषों
का संसार का
त्याग करके पहाड़ों
और वनों में
चले जाना, इसकी
कथा कही है।
लेकिन वह कथा
अधूरी है।
दूसरा हिस्सा,
जो ज्यादा
महत्वपूर्ण
है, उन्होंने
छोड़ ही दिया।
दूसरा हिस्सा
जो ज्यादा
महत्वपूर्ण
है, वह है
उनका वापिस
लौट आना
लोक-मानस के
बीच। एक दिन
जरूर वे जंगल
चले गये थे।
तब उनके पास
कुछ भी न था।
जब गये थे तब
खाली थे। खाली
थे, इसीलिए
गये थे, ताकि
भर सकें। इस
भीड़-भाड़ में, इस उपद्रव
में, इस
विषाद में, इस कलह में
शायद
परमात्मा से
मिलना न हो
सके। तो गये थे
एकांत में, गये थे मौन
में, शांति
में, ताकि
चित्त थिर हो
जाए, पात्रता
निर्मित हो
जाए। लेकिन
भरते ही भागे वापिस।
वह
दूसरा हिस्सा
ज्यादा
महत्वपूर्ण
है, क्योंकि
दूसरे हिस्से
में ही वह
असली में महावीर
हुए हैं। पहले
हिस्से में वर्द्धमान
की तरह गये
थे। जब लौटे
तो महावीर की
तरह लौटे। जब
बुद्ध गये थे
तो गौतम
सिद्धार्थ की
तरह गये थे।
जब आए तो
बुद्ध की तरह
आए। यह कोई और
ही आया। यह
कुछ नया ही
आया।
"जैसे-जैसे
मुनि अतिशय रस
के अतिरेक से
युक्त अपूर्वश्रुत
का अवगाहन
करता है...।' और
जिसे कभी नहीं
सुना उसे
सुनता है।
सत्य ऐसा है
जिसे कभी नहीं
सुना, जिसे
कभी नहीं
देखा। ऐसा
अनजान, ऐसा
अपरिचित, ऐसा
अज्ञेय है।
"उस अपूर्वश्रुत
का अवगाहन
करता है...।' जब
चित्त थिर
होता है, तो
शांति भी
बोलने लगती
है। तो मौन भी
मुखर हो जाता
है। जब भीतर
सब शून्य होता
है, तो
बाहर से शून्य
भी तरंगित होकर
भीतर प्रवेश
करने लगता है।
जब तुम ध्यान
की आखिरी
अवस्था में
आते हो, तो
अस्तित्व
तुमसे बोलता
है। परमात्मा
तुमसे बोलता
है। ध्यान की
परम अवस्था
में परमात्मा
की तरफ से, अस्तित्व
की तरफ से
तुम्हारी तरफ
संदेश आने शुरू
हो जाते हैं।
इसको
खयाल में
लेना।
प्रार्थना
में भक्त
भगवान को पातियां
भेजता है।
ध्यान में, भगवान भक्त
को।
प्रार्थना
में भक्त
भगवान से बोलता
है, कहता
है कुछ; ध्यान
में भगवान
साधक से बोलता
है, कहता
है कुछ।
महावीर का
मार्ग ध्यान
का मार्ग है।
"जह जह
सुयभोगाहइ।'
और
जैसे-जैसे उस
परम सुख में
डूबना होता है,
जैसे-जैसे
उस अतिशय रस
में उतरना
होता है..."अइसयरसपसरसंजुयमपुव्वं।'
और
जैसे-जैसे अपूर्वश्रुत
का अवगाहन
होता है।
जैसे-जैसे
सुनायी पड़ता
है शून्य का
स्वर, जिसको
झेन फकीर कहते
हैं "साउंडलेस
साउंड'--शून्य
का स्वर, एक
हाथ की ताली, कोई बोलता
नहीं है, कोई
बोलनेवाला
नहीं है, अस्तित्व
ही संदेश देता
है। जब
परमात्मा चारों
तरफ से
तरंगायित
होने लगता है--अपूर्वश्रुत
का
अवगाहन--"वैसे-वैसे
नितनूतन वैराग्ययुक्त
श्रद्धा से
आह्लादित
होता है'।
इसे
लक्षण समझना
साधु का। इसे
लक्षण समझना
संन्यासी का।
अगर आह्लाद न
हो, तो समझ
लेना कि कहीं
भूल हो गयी।
अगर नाचता न
मिले
संन्यासी, तो
समझ लेना कहीं
भूल हो गयी।
अब जाओ
जैन-आश्रमों
में, जैन-मंदिरों
में, जैन-पूजागृहों
में, जैन-मुनियों
को देखो, इस
सूत्र का कहीं
भी तुम्हें
कोई लक्षण
मिलेगा? रूखे-सूखे,
मरुस्थल-जैसे,
जहां कभी
कोई हरियाली
नहीं। कहीं
कुछ भूल-चूक
हो गयी। रूखे-सूखेपन को
उन्होंने
साधना समझ
लिया है। उनसे
तो संसारी भी
कभी ज्यादा
आनंदित
दिखायी पड़ता
है। यह तो
इलाज बीमारी
से महंगा पड़
गया। यह तो
औषधि रोग से
भी भयंकर
सिद्ध हुई।
संसारी
भी कभी हंसता
मिलता है, तुमने
जैन-मुनियों
को हंसते देखा?
न हंस
सकेंगे।
हंसना उन्हें
कठिन हो
जाएगा। हंसना
उन्हें
सांसारिक
मालूम पड़ेगा।
तुमने उन्हें
आह्लादित
देखा? तुमने
उन्हें देखा
किसी गहन
संगीत से भरे
हुए? तुमने
उन्हें
बांसुरी
बजाते, वीणा
बजाते देखा? तुमने
उन्हें नाचते
देखा? नहीं,
असंभव है।
कहीं कुछ भूल
हो गयी। और
भूल वहां हो
गयी--प्रथम
चरण
पर--उन्होंने
प्रतिज्ञा
लेकर संन्यास
लिया। सत्य को
जानकर नहीं, शास्त्र को
मानकर
संन्यास
लिया। अनुभव
से नहीं, विश्वास
से संन्यास
लिया। व्रत, अनुशासन
थोपा। अपने
ऊपर बलात्कार
किया। उसी में
सूख गये, खराब
हो गये।
"जैसे-जैसे
मुनि अतिशय रस
के अतिरेक से
युक्त होता है,
अपूर्वश्रुत का अवगाहन
करता है, वैसे-वैसे
नितनूतन वैराग्ययुक्त
श्रद्धा से
आह्लादित
होता है।'
न, अब यहां एक
बात खयाल ले
लेने जैसी है।
तुमने रागयुक्त
लोगों को तो
प्रसन्न
देखा। इससे
तुम यह भूल मत
कर लेना कि वैराग्ययुक्त
लोग तो कैसे
प्रसन्न हो
सकते हैं!
वैराग्य की
अपनी प्रसन्नता
है। और राग की
प्रसन्नता से
बड़ी ऊंची और
बड़ी गहरी। राग
की भी कोई
प्रसन्नता हो
सकती है!
सिर्फ मन को
समझा लेना है।
वैराग्य का भी
आनंद है।
तुमने क्या
किया? राग
से भरा हुआ
आदमी थोड़ा
प्रफुल्लित
दिखायी पड़ता
है, तो
तुमने उससे
विपरीत
वैराग्य की
प्रतिमा बना ली।
क्योंकि रागी
हंसता है, रागी
गीत गाता है, तो वैरागी
हंस नहीं सकता,
गीत नहीं गा
सकता।
तुम्हारा
वैरागी राग का
ही शीर्षासन
है। उल्टा खड़ा
कर दिया
वैरागी को। लेकिन
वास्तविक
वैराग्य परम
राग है।
वास्तविक
वैराग्य का तो
कैसे रागी
मुकाबला
करेंगे! उस
नृत्य को तो
कैसे रागी
पहुंच सकते
हैं! उस
आह्लाद को तो,
कमल के उन
फूलों को तो
तभी कोई छू
सकता है जब चित्त
सब भांति
निर्मल हुआ
हो। वैसी
मुस्कुराहट
तो केवल परम
शांत चित्त से
ही उठ सकती
है।
हो
गयी तश्ना-लबो
आज रहीने-कौसर
मेरे
लब पे लबे-लालीने
निगार आ ही
गया
तृष्णा
स्वर्ग की
अमृत-नदी से
कृतज्ञ हो गयी, प्रिय के
ओंठ मेरे
ओंठों पर आ
गये--
हो
गयी तश्ना-लबो
आज रहीने-कौसर
मेरे
लब पे लबे-लालीने
निगार आ ही
गया
वह तो
ऐसा है जैसे
परमात्मा ने
आलिंगन किया।
परम वैराग्य
का आह्लाद तो
ऐसे है जैसे परमात्मा
के ओंठ
तुम्हारे ओंठ
पर आ गये।
रागी तो असंभव
चेष्टा में
लगा है। रागी
तो ऐसी चेष्टा
में लगा है, जैसे कोई
रेत से तेल निचोड़
रहा हो। रागी
तो ऐसी चेष्टा
में लगा है कि
नीम के पौधों
को सींच रहा
हो और आम की
आशा कर रहा हो।
आग
को किसने
गुलिस्तां न
बनाना चाहा
जल
बुझे कितने
खलील आग
गुलिस्तां न
बनी
रागी
तो आग को फुलवाड़ी
बनाने में लगा
है। अंगारों
को फूल बनाने
में लगा है।
आग
को किसने
गुलिस्तां न
बनाना चाहा
जल
बुझे कितने
खलील आग
गुलिस्तां न
बनी
कभी आग
फुलवाड़ी
बनी है? कभी
अंगारे फूल
बने? साधारण
आदमियों से
लेकर सिकंदरों
तक चेष्टा
करते हैं और
हार जाते हैं।
पराजय संसार
का निचोड़
है। इसीलिए तो
हमने महावीर
को जिन कहा।
जिन अर्थात
जिसने जीत
लिया। जिन
अर्थात जिसने
पा लिया। जिन
अर्थात जो
वस्तुतः सफल
हुआ। सफल ही नहीं
सुफल भी हुआ।
जिसके जीवन
में फल लगे।
"जैसे-जैसे
अश्रुतपूर्व
का अवगाहन
करता है, वैसे-वैसे
नितनूतन...।'
और वैराग्य
भी नितनूतन
फूल खिलाता
है। तुम यह मत
सोचना कि
वैराग्य एक
बंधी-बंधायी
रूढ़ि है। तुम
यह मत सोचना
कि विरागी बस
उसी-उसी ढांचे
में बंधा हुआ
रोज जीता है।
वस्तुतः रागी
जीता है ढांचे
में, वैरागी
तो प्रतिपल
नये, और नये
में प्रवेश
करता है।
विरागी का न
तो कोई अतीत
है--वह अतीत को
नहीं ढोता--और
न उसकी कोई
अतीत को
पुनरुक्त
करने की
आकांक्षा है।
इसलिए कुछ भी
पुनरुक्त
नहीं होता।
वैरागी की
सुबह हर रोज
नयी है।
वैरागी की
सांझ हर सांझ
नयी है। वैरागी
का हर चांद
नया है, हर
सूरज नया है।
वह धूल को
संभालता ही
नहीं, इसलिए
प्रतिपल ताजा
है, निर्मल
है।
है कुफ्रोशर
तबियत में
मेरी टूटे हुए
साजों का
मातम
मुतरिबे-फर्दा
हूं "सागर' माजी के अजादारों
में नहीं
है कुफ्रोशर
तबियत में
मेरी टूटे हुए
साजों का
मातम--जो टूट
चुके साज, अतीत जो बीत
चुका, उसे
तो मैं पाप
समझता हूं।
उसकी बात ही
उठानी व्यर्थ
है। जो जा
चुका, जा
चुका।
है कुफ्रोशर
तबियत में
मेरी टूटे हुए
साजों का
मातम
मुतरिबे-फर्दा
हूं सागर--मैं
भविष्य का
गायक हूं।
माजी
के अजादारों
में नहीं--मैं
अतीत के लिए रोनेवालों
में नहीं।
विरागी, वीतरागी, स्वयं में
थिर हुआ
संन्यासी कोई
धूल लेकर नहीं
चलता। वह कोई
संग्रह लेकर
नहीं चलता। जो
बीत गया, बीत
गया। जो बीत
रहा है, बीत
रहा है। वह
सदा नया है।
सुबह की ओस की
भांति ताजा।
सदा स्वच्छ
है। क्योंकि
मन का संग्रह ही
अस्वच्छ करता
है, अपवित्र
करता है, बासा
करता है।
तुमने
कभी खयाल किया, जो तुम
अनुभव कर चुके
बार-बार, वे
बासे हो
जाते हैं।
छोटे बच्चे को
देखा, तितलियों
के पीछे
भागते! तुम
नहीं भाग
सकोगे। क्योंकि
तुम कहते हो
तितलियां हैं,
देख लीं
बहुत। छोटे
बच्चे को देखा,
छोटी-छोटी
चीजों से
चमत्कृत होते
हैं! छोटी-छोटी
चीजें उसे
आश्चर्य से भर
जाती हैं। घास
का फूल, और
छोटे बच्चे को
ऐसा आंदोलित
कर देता है, ऐसा
रस-विभोर कर
देता है कि वह
खड़ा है और देख
रहा है, आंखों
पर उसे भरोसा
नहीं आता कि
ऐसा चमत्कार हो
सकता है! छोटे
बच्चे को देखा,
सागर के
किनारे कंकड़-पत्थर-सीपी
बीन लेता है, ऐसे जैसे कि
हीरे-जवाहरात
हों, कोहिनूर
हों! क्या
मामला है? इस
छोटे बच्चे के
पास ताजा मन
है। इसके पास
कुछ अतीत का
संस्मरण नहीं
है। इसलिए ये
यह नहीं कह
सकता कि यह
पुराना है।
इसके पास
तौलने का कोई
उपाय ही नहीं
है कि कह सके
पुराना है।
वैराग्य
नया जन्म है।
फिर से छोटे
बच्चे की
भांति हो जाना
है। जीसस ने कहा
है, जो छोटे
बच्चों की
भांति होंगे,
वे ही केवल
मेरे प्रभु के
राज्य में
प्रवेश कर
सकेंगे।
हिंदू कहते
हैं द्विज
होना होगा, दुबारा जन्म
लेना होगा। एक
जन्म तो
मां-बाप से
मिलता है। वह
जन्म शरीर का
है। एक जन्म
तुम्हें
स्वयं ही अपने
को देना होगा।
वह आत्मसृजन
है। वही आत्मसाधना
है। तब फिर
व्यक्ति सदा
ताजा रहता है।
रोज-रोज
आह्लाद से भरा
हुआ।
ऐसी
कथा है, रामकृष्ण
को छोटी-छोटी
चीजों में रस
था। कभी-कभी
उनके भक्त भी
उनको रोकते थे
कि परमहंसदेव,
अच्छा नहीं
मालूम होता, लोग क्या
कहेंगे? उनकी
पत्नी भी
उन्हें
समझाती कि ऐसा
आप न करें।
ब्रह्मज्ञान
की चर्चा चल
रही हो, बीच
में उठकर वे
चौके में
पहुंच
जाते--क्या बना
है आज? अब
यह बात जमती
नहीं। दूसरों
तक को संकोच
होता।
शिष्यों को
लगता कि लोग
क्या कहेंगे?
फिर आकर
ब्रह्म-चर्चा
शुरू कर देते।
लेकिन बड़ी
सरलता की खबर
मिलती है।
जैसे उपनिषदों
के वचन "अन्नं
ब्रह्म' पर
टीका कर रहे
हों--जीवन से।
ब्रह्म की
चर्चा और अन्न
की चर्चा में
कुछ भेद नहीं।
बीच में उठकर
पूछ आए तो
हर्ज क्या!
छोटे
बच्चे-जैसी
सरलता। छोटा
बच्चा बार-बार
पहुंच जाता है
चौके के पास, पकड़ लेता है
मां का आंचल, क्या बन रहा
है?
सरल-चित्त
हो जाता है
विरागी। ऐसा
सरल कि रीति-नियम, व्यवस्था, अनुशासन, सब व्यर्थ
हो जाते हैं।
आंतरिक सहजता
से जीता है।
न अहदे-माजी
की यह रवायत
न
आज और कल की यह
हिकायत
हयात
है हर कदम पे
"सागर'
नयी
हकीकत नया
फसाना
जीवन उसके
लिए प्रतिपल
नया है। नयी
हकीकत नया
फसाना।
वीतरागी तो
गायक है जीवन
के नये स्वर
का, संगीतज्ञ
है जीवन की
वीणा का, नर्तक
है जीवन के महानृत्य
का। और
प्रतिपल उमंग
है, और
प्रतिपल नया
है।
"तह
तह पल्हाइ
मुणी।' बड़ा प्यारा
वचन है।
महावीर कहते
हैं--"जह जह सुयभोगाहइ'--जैसे-जैसे
वह महासुख
भरने लगता है,
रस बरसता है,
"तह तह पल्हाइ
मुणी'--और
पल्लवित होता
मुनि, आह्लादित
होता; उमंग
उठती है, उल्लास
उठता है, भीतर
नृत्य-गान
उठता है। जैसे
आषाढ़ में जब
बादल घिर जाते
हैं और मोर
नाचते हैं, ऐसे ही
आंतरिक-जीवन
में जब प्रकाश
के बादल चारों
ओर घिरने
लगते
हैं--आषाढ़ के
प्रथम दिवस
आते हैं--तो मन
का मोर नाचता
है। जह जह सुयभोगाहइ,
तह तह पल्हाइ
मुणी, नवनवसेवेगसद्धाओ। और
प्रतिपल
नये-नये पल्लव
खिलते, नये-नये
फूल, नयी-नयी
श्रद्धा। नितनूतन!
लोग
समझते हैं
श्रद्धा कोई
बंधा-बंधाया
ढांचा है। लोग
सोचते हैं कि
श्रद्धा कोई
हिंदू, जैन,
बौद्ध, ईसाई
हो जाना है।
श्रद्धा में
इतने नूतन फूल
लगते हैं कि
वह जैन ढांचे
में समा न
सकेगी। न बौद्ध
ढांचे में समा
सकेगी। न
हिंदू, न
मुसलमान के
ढांचे में समा
सकेगी।
श्रद्धा को
कौन समा पाया?
यह बड़ा आकाश
भी श्रद्धा के
आकाश से छोटा
है। श्रद्धा
को कौन कब
बांध पाया? कौन लकीरों
में बांध पाया?
श्रद्धा की
कौन कब
परिभाषा कर
पाया?
और
महावीर को
समझते समय यह
खयाल रखना, और धर्मों
ने कहा है, परमात्मा
पर श्रद्धा
करो, श्रद्धा
के बिना तुम
परमात्मा पर न
पहुंच सकोगे;
महावीर ने
कहा, परमात्मा
की तो फिकिर
छोड़ो--हो, न
हो--श्रद्धा
करो, क्योंकि
श्रद्धा ही
परमात्मा है।
औरों ने कहा
है परमात्मा
पर श्रद्धा
करो, महावीर
ने कहा
श्रद्धा पर
श्रद्धा करो। नवनवसेवेगसद्धाओ।
मेरी
मस्ती में अब
होश ही का तौर
है साकी
तेरे
सागर में ये सहबा नहीं
कुछ और है
साकी
मेरी
मस्ती में अब
होश का ही तौर
है साकी--अब
मेरी मस्ती में
भी होश का ही
रंग-ढंग है।
अब यह बेहोशी
भी बेहोशी
नहीं है, अब
इसमें होश का
ही दीया जलता
है। अब यह
मस्ती कोई
पागलपन नहीं
है, यह
मस्ती ही परम
बुद्धिमत्ता,
प्रज्ञा, प्रतिभा है।
मेरी
मस्ती में अब
होश का ही तौर
है साकी
तेरे
सागर में ये सहबा नहीं
कुछ और है
साकी
और
तेरे सागर में
शराब नहीं, अंगूरी शराब
नहीं।
कुछ
और है साकी...।
जब
तुम्हारा
ध्यान नयी-नयी
सीढ़ियां
और सोपान पार
करता है, तो
तुम एक दिन
पाते हो कि
परमात्मा ने
अपनी सुराही
से उंडेला कुछ
तुममें।
तेरे
सागर में ये सहबा नहीं
कुछ और है
साकी
और यह
शराब कुछ ऐसी
है, यह मस्ती
कुछ ऐसी है कि
जगाती है, सुलाती
नहीं। उठाती
है, गिराती
नहीं।
संभालती है, डगमगाती
नहीं। होश
लाती है, बेहोशी
काटती है। "तह
तह पल्हाइ
मुणी'।
और जैसे-जैसे
यह अंगूरी
शराब, यह
अमृत भीतर
उतरना शुरू
होता है, मुनि
पल्लवित होता,
प्रफुल्लित
होता, आह्लादित
होता। "नवनवसेवेगसद्धाओ'।
"जैसे
धागा पिरोयी
सुई गिर जाने
पर भी खोती
नहीं...।' बड़ा
प्यारा सूत्र
है..."जैसे
धागा पिरोयी
सुई गिर जाने
पर भी खोती
नहीं, वैसे
ही ससूत्र
जीव संसार में
नष्ट नहीं
होता।'
सूई
जहा ससुत्ता, न नस्सइ कयवरम्मि पडिआ वि।
जीवो वि
तह ससुत्तो, न नस्सइ गओ वि संसारे।।
सुई
गिर जाए बिना
धागा पिरोयी, तो खोजना
बड़ा मुश्किल
हो जाता है।
ऐसे ही हमारा
जीवन धागा
पिरोया नहीं
अभी। ध्यान का
धागा अनुस्यूत
नहीं किया
अभी। अभी
हमारा जीवन एक
बिखरी राशि
है। जैसे फूल
किसी ने लगा
दिये ढेर में।
अभी हमारा
जीवन एक माला
नहीं बना कि
फूलों को कोई पिरो दे एक
धागे में। जब
जीवन माला
बनता है, तो
ही जीवन में
अर्थवत्ता
आती है। ढेर
की तरह हम
क्षण-क्षण
जीते हैं, लेकिन
हमारे सारे
क्षणों को जोड़नेवाला
कोई अनुस्यूत
धागा नहीं है।
हमने अनंत जन्म
जीए हैं, लेकिन
सब ढेर की तरह
लगा है, उसके
भीतर कोई
शृंखला नहीं
है। शृंखला न
होने से हमारी
सरिता सागर तक
नहीं पहुंच
पाती।
तुम ही
हो वह जिसकी
खातिर
निशिदिन
घूम रही यह
तकली
तुम
ही यदि न मिले
तो है सब
व्यर्थ
कताई
असली-नकली
अब
तो और न देर
लगाओ,
चाहे
किसी रूप में
आओ,
एक
सूत भर की
दूरी है
बस
दामन में और
कफन में
ध्यान
का सूत्र, और जीवन महाजीवन
बन जाता है।
और मृत्यु
समाधि बन जाती
है। ध्यान का
सूत्र, और
पदार्थ में
परमात्मा
झलकने लगता
है। ध्यान का
सूत्र, और
जीवन का
क्षुद्र से
क्षुद्र अंग
भी विराट से
विराट की आभा
से
परिप्लावित
हो जाता है।
ध्यान से जीया
गया जीवन ही
जीवन है। शेष
भटकाव है। शेष
ऐसी यात्रा है
कि तुम्हें
पता नहीं
क्यों जा रहे,
कहां जा रहे,
किसलिए जा रहे? कौन
हो, यह भी
पता नहीं।
"जैसे
धागा पिरोयी
सुई गिर जाने
पर भी खोती
नहीं, वैसे
ही ससूत्र
जीव संसार में
नष्ट नहीं
होता है।' यहां
स्मरण दिला
दूं, जैन-शास्त्रकार
जब इस सूत्र
का अनुवाद
करते हैं, तो
वह ससूत्र
का अर्थ करते
हैं--शास्त्रज्ञानयुक्त
जीव, जो कि
बिलकुल ही गलत
है। मौलिक रूप
से गलत है। महावीर
के मूल वचन
में कहीं भी
शास्त्र का
उल्लेख नहीं
है। "सूई जहा
ससुत्ता'--सुई जहां
धागे के साथ
है--ससुत्ता--सूत्र
के साथ है, "न नस्सइ कयवरम्मि पडिआ वि', गिर भी जाए
तो खोती नहीं।
"जीवो वि
तह ससुत्तो'--और जो जीव भी
सूत्र के साथ
जुड़ा है, "न
नस्सइ गओ वि संसारे'--वह संसार
में कभी नष्ट
नहीं होता।
मौत आए, हजार
बार आए, ससूत्र जीव को जीवन
ही लाती है।
मृत्यु भी उसे
मारती नहीं। ससूत्र
जीव को जहर भी
अमृत हो जाता
है। इसमें शास्त्रयुक्तज्ञान
का कहीं कोई
उल्लेख नहीं
है।
लेकिन
जैन-मुनि इसका
अनुवाद करते
हैं--"जैसे धागा
पिरोयी
सुई गिर जाने
पर भी खोती
नहीं, वैसे
ही शास्त्रज्ञानयुक्त
जीव संसार में
नष्ट नहीं
होता है।' अब
उन्होंने कुछ
अपने हिसाब से
डाल लिया! शास्त्रज्ञान
की तरफ इशारा
नहीं है, अन्यथा
महावीर खुद ही
कह देते; मुनियों
के लिए न
छोड़ते।
ससूत्रता।
एक
क्रमबद्धता, एक शृंखला
बने जीवन, ऐसा
बिखरा-बिखरा न
हो। तुम अपने
जीवन को देखो,
एक पैर बायें
जा रहा है, दूसरा
पैर दायें जा
रहा है। आधा
मन मंदिर जा रहा
है, आधा
वेश्यालय में
बैठा है।
दुकान पर बैठे
हैं, राम-राम
जप रहे हैं; जब राम-राम
जप रहे हैं, दुकान भीतर
चल रही है।
ऐसे सूत्रहीन
नहीं काम
चलेगा। जीवन
में एक दिशा
हो, एक
गंतव्य हो, एक खोज, एक
अन्वेषण हो।
और जीवन में
एक शृंखला हो,
अन्यथा
शक्ति कम है, खोजना बहुत
है; समय कम
है, खोजना
बहुत है; ऐसे
तुम भटकते रहे
कभी बायें, कभी दायें; कभी यहां, कभी वहां, तो सब खो
जाएगा।
यह
अवसर खो मत
देना। यह अवसर
मुश्किल से
मिलता है।
महावीर ने
बार-बार कहा
है, मनुष्य
होना मुश्किल
से घटता है।
इसे ऐसे मत
गंवा देना। एक
सूत्रबद्धता
लाओ जीवन में।
एक दिशा-बोध।
जैसे-जैसे
दिशा आएगी, वैसे-वैसे
तुम पाओगे
कठिनाइयों
में भी आशीर्वाद
बरसने लगे।
दुख में भी
सुख की झलक
मिलने लगी।
तूफान में भी सकून, शांति
आने लगी।
लुत्फ
आने लगा जफाओं
में
वो कहीं
मेहरबां न हो
जाएं
आज
इतना ही।
THANK YOU GURUJI
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