प्रश्न:
भगवान
श्री, सुबह
सैंतीसवें
श्लोक में कहा
गया है कि ज्ञानरूपी
अग्नि सर्व
कर्मों को
भस्म कर देती
है। कृपया
बताएं कि कर्म
ज्ञानाग्नि
से किस भांति
प्रभावित
होते हैं?
ज्ञानाग्नि
समस्त कर्मों
को भस्म कर देती
है। किस भांति
कर्म ज्ञानाग्नि
में भस्म होते
हैं?
पहले
तो यह समझ
लेना पड़े कि
कर्म किस
भांति चेतना
के निकट
संगृहीत होते
हैं! क्योंकि
जो उनके
संग्रह की
प्रक्रिया है, वही विपरीत
होकर उनके
विनाश का
उपक्रम भी है।
यह भी समझ
लेना जरूरी है
कि कर्म क्या
है। क्योंकि
कर्म का जो
स्वभाव है, वही उसकी
मृत्यु का भी
आधार बनता है।
कर्म
कोई वस्तु
नहीं है; कर्म
है भाव। कर्म
कोई पदार्थ
नहीं है; कर्म
है विचार।
कर्म का
जन्मदाता
व्यक्ति नहीं
है, कर्म
का जन्मस्रोत
आत्मा नहीं है;
कर्म का
जन्मदाता है
अज्ञान।
अज्ञान से
उत्पन्न हुआ विचार;
अज्ञान में
उठी भाव की
तरंग; अज्ञान
में भाव और
विचार के आधार
पर हुआ कृत्य।
सबके मूल में
आधार है
अज्ञान का।
ज्ञान
वस्तुतः
कर्मों का नाश
नहीं करता; परोक्ष में
करता है।
वस्तुतः तो
ज्ञान अज्ञान
का नाश करता
है। लेकिन
अज्ञान के नाश
होने से
कर्मों की
आधारशिला टूट
जाती है। जहां
वे संगृहीत
हुए, वह
आधार गिर जाता
है। जहां से
वे पैदा होते
हैं, वह
स्रोत नष्ट हो
जाता है। जहां
से वे पैदा हो सकते
थे भविष्य में,
वह बीज दग्ध
हो जाता है।
ज्ञान
वस्तुतः सीधे
कर्मों को
नष्ट नहीं करता; ज्ञान तो
नष्ट करता है
अज्ञान को। और
अज्ञान है
जन्मदाता
कर्मों के
बंधन का।
अज्ञान नष्ट
हुआ कि कर्म
नष्ट हो जाते
हैं।
ऐसा
समझें, अंधेरा
है भवन में।
भय लगता है
बहुत। जलाया
दीया। कहते
हैं हम, प्रकाश
जल गया, भय
नष्ट हो गया।
लेकिन सच ही
प्रकाश भय को
सीधा कैसे
नष्ट कर सकता
है? प्रकाश
तो नष्ट करता
है अंधेरे को।
अंधेरे के
कारण लगता था
भय; अंधेरा
नहीं है, इसलिए
भय भी नष्ट हो
जाता है।
प्रकाश
तो भय को छू भी
नहीं सकता; प्रकाश तो
अंधेरे को ही
विसर्जित कर
देता है। लेकिन
अंधेरा था
आधार, स्रोत।
गया अंधेरा; भय भी गया।
अगर उस भय से
बचाव के लिए
आपने हाथ में
बंदूक पकड़ रखी
थी, तो भय
गया, तो
बंदूक भी आपने
टिका दी कोने
में। प्रकाश
बंदूक को हाथ
से छुड़ा
नहीं सकता।
अंधेरा हटता
है; अंधेरे
से भय हटता है,
भय हटने से
बंदूक छूट
जाती है। ये
सब परोक्ष घटित
होती घटनाएं
हैं।
अज्ञान
है हमारे
समस्त
कर्म-बंध का
आधार। अनंत-अनंत
जन्मों में जो
भी हमने किया
है, उस सबके
पीछे अज्ञान
है आधार। अगर
अज्ञान न होता,
तो हमें यह
खयाल ही पैदा
न होता कि
मैंने किया है।
अगर अज्ञान न
होता, तो
हम जानते, हमने
कभी कुछ किया
नहीं है।
हमारा अपना
होना भी नहीं
है।
अज्ञान
में ही पता
चलता है कि
मैं हूं।
अज्ञान नहीं
है, तो
परमात्मा है।
अज्ञान नहीं
है, तो
मेरा कृत्य
जैसा कोई
कृत्य नहीं
है। सभी कृत्य
परमात्मा के
हैं। शुभ-अशुभ,
अच्छा-बुरा,
जो भी है, उसका है।
सभी उसको
समर्पित है, सभी उसको...।
अज्ञान
के कारण लगता
है कि मैं
करता हूं।
अज्ञान
संगृहीत करता
है कर्मों को
कर्ता बनकर।
फिर अज्ञान
कल्पना करके
योजना करता है
कर्मों की
भविष्य में; वासना बनता
है। अतीत में
अज्ञान बनता
है कर्म की
स्मृति, किया
मैंने।
भविष्य में
बनता है
स्वप्न, कर्म
की वासना, करूंगा
ऐसा। और इन
दोनों के बीच
में वर्तमान गुजरता।
दो अज्ञानों
के बीच में, अज्ञान की
स्मृति और
अज्ञान की
कल्पना, इन
दोनों के बीच
में वर्तमान
गुजरता।
ज्ञान
की किरण के
उतरते ही, ज्ञान की
अग्नि के जलते
ही, वह
अंधेरा हट
जाता है, जो
वासना करता है;
वह अंधेरा
हट जाता है, जो कर्ता
होने का भाव
रखता है। सब
कर्म तत्क्षण
क्षीण हो जाते
हैं। तत्क्षण!
ज्ञान के
समक्ष कर्म
बचता नहीं, वैसे ही
जैसे प्रकाश
के समक्ष
अंधकार बचता
नहीं।
इसलिए
कृष्ण कहते
हैं कि ज्ञानाग्नि
में भस्म हो
जाते हैं सब
कर्म।
यह सिंबालिक
है, प्रतीकात्मक
है।
ज्ञान-अग्नि;
कर्मों का
भस्म हो
जाना--सब
प्रतीक है।
सूचना इतनी है
कि कर्ता ज्ञान
में नहीं
टिकता है; अहंकार
ज्ञान में
नहीं टिकता
है। और अहंकार
नहीं, तो
अहंकार के
द्वारा संजोई
गई कर्म की
सारी
व्यवस्था टूट
जाती और नष्ट
हो जाती है।
ज्ञान
को उपलब्ध
व्यक्ति ऐसा
जानता ही नहीं
कि मैंने कभी
कुछ किया है।
ऐसा भी नहीं
जानता कि मैं
कभी कुछ
करूंगा। ऐसा
भी नहीं जानता
कि मैं कुछ कर
रहा हूं। ज्ञान
को उपलब्ध
व्यक्ति
कर्ता के भाव
से कहीं भी
ग्रसित नहीं
होता।
कर्म
आते हैं, जाते
हैं। ज्ञानी
पर भी कर्म
आते हैं, जाते
हैं। वह भी
उठता-बैठता, खाता-पीता, बोलता-सुनता।
ज्ञानी भी
कर्म तो करता
है। लेकिन
ज्ञानी पर कर्म
ऐसे हो जाते
हैं, जैसे
पानी पर खींची
गई लकीरें।
पानी पकड़ता
नहीं है; लकीरें
खिंचती हैं, खिंच भी
नहीं पातीं कि
खो जाती हैं।
अज्ञानी
पर कर्म ऐसे पकड़ते हैं, जैसे पत्थर
पर खींची गई
लकीरें। खिंच
जाती हैं, तो
मिटती मालूम
नहीं पड़तीं।
एक बार खिंच
जाती हैं, तो
और गहरी होती
चली जाती हैं!
फिर लकीर पर
लकीर, और
लकीर पर लकीर पड़कर
पत्थरों पर
घाव बना जाती
हैं।
ज्ञानी
पर कर्म ऐसे
सरकता है, जैसे पानी
पर खींची गई
अंगुली, आप
खींच भी नहीं
पाए और पानी
सपाट है--खाली
और मुक्त, रेखा
से शून्य।
लौटकर देखते
हैं, रेखा
कहीं नहीं है;
जल की धार
वैसी ही
स्वच्छ बही
जाती है।
कितनी ही खींचें
लकीरें, और
पानी सब
लकीरों को
बहाकर फिर
वैसा का वैसा ही
हो जाता है।
ऐसा ही है
ज्ञानी।
कर्ता
का पत्थर भीतर
न हो, कर्ता का
अहंकार भीतर न
हो, तो
कर्म की
लकीरें
खिंचती नहीं।
जल की तरह तरल
हो जाता है
ज्ञानी; खिंचती
है पानी पर
रेखा, और
खो जाती है।
कहें
कि दर्पण की
भांति हो जाता
है। कोई आता है
सामने, तो
दिखाई पड़ता; दर्पण
झलकाता। फिर
विदा हो जाता,
दर्पण
मुक्त और खाली
और शून्य हो
जाता। दर्पण पर
कोई रूपरेखा
छूट नहीं
जाती।
अज्ञानी
का मन होता है
फोटो-प्लेट की
तरह, कैमरे के
भीतर सरकने
वाली फिल्म की
तरह। जो पकड़ लिया,
पकड़ लिया; उसे फिर
छोड़ता नहीं।
फोटो के कैमरे
में भी आदमी
की शकल दिखाई
पड़ती है, लेकिन
पकड़ी
जाती है।
दर्पण में भी
शकल दिखाई
पड़ती है, लेकिन
पकड़ी
नहीं जाती।
अज्ञानी का मन
पकड़ने
में बहुत कुशल
है। अज्ञान की
वजह से क्लिंगिंग
गहरी है, पकड़
गहरी है।
जल्दी से
मुट्ठी बांध
लेता और पकड़
लेता है।
इकट्ठा करता
चला जाता है।
ज्ञान
की रोशनी आती
है, मुट्ठी
खुल जाती है।
दर्पण हो जाता
है आदमी का
मन। फिर कुछ पकड़ता
नहीं। पिछले
अतीत में देखे
गए चित्र भी
नहीं पकड़ता,
आज देखे
जाने वाले चित्र
भी नहीं पकड़ता,
भविष्य में
देखे जाने
वाले चित्र भी
नहीं पकड़ता।
ऐसा हो जाता
है ज्ञानी का
मन, जैसे
बगुलों की
कतार सुबह उड़ी
हो झील के ऊपर
से।
एक झेन
फकीर बांकेई
ने कहा है, उड़ती देखी
बगुलों की
कतार सुबह झील
पर से; सूरज
की रोशनी में
चमकते वे
शुभ्र पंख, झलके क्षणभर
को झील में, और खो गए। न
तो बगुलों को
पता चला कि
झील में प्रतिबिंब
पकड़ा गया है, और न झील को
पता चला कि
बगुलों का
प्रतिबिंब मैंने
पकड़ा है।
ऐसा हो
जाता है
ज्ञानी का मन।
सब होता है
चारों तरफ, फिर भी कुछ
नहीं होता है।
पूरे जीवन के
बीत जाने के
बाद भी ज्ञानी
के पास उसके
मन में झांको,
कुछ भी
इकट्ठा नहीं
होता है; खाली
का खाली; रिक्त
का रिक्त; शून्य
का शून्य।
आया-गया सब; भीतर कुछ
छूट नहीं जाता
है।
ज्ञान
की अग्नि
कर्मों को जला
डालती, इसका
अर्थ इतना ही
है कि ज्ञान
की अग्नि में
अज्ञान नहीं
बचता है।
कर्म
नहीं है असली
सवाल; असली
सवाल है
कर्ता। कर्ता
ही कर्म को पकड़ता
और इकट्ठा
करता है। हम
सब कर्ता बन
जाते हैं, चौबीस
घंटे, ऐसी
चीजों के भी, जिनके कर्ता
बनना कतई उचित
नहीं है।
हम तो
यहां तक कहते
हैं कि श्वास
लेता हूं मैं, जैसे कि कभी
आपने श्वास ली
हो! श्वास आती
है, जाती है;
कोई लेता
नहीं। अगर आप
लेते होते, तो दूसरे
दिन सुबह फिर
कभी उठते ही
नहीं। रात नींद
में खो जाते; श्वास कौन
लेता फिर? नहीं,
श्वास हम
नहीं लेते।
श्वास आती है,
जाती है।
श्वास
जैसी जीवन की
गहरी
प्रक्रिया भी
हम नहीं करते
हैं। होती है।
पर आदमी कहता
है कि मैं श्वास
लेता हूं। हद
है! कभी किसी
ने श्वास नहीं
ली। न कोई कभी
श्वास लेगा।
श्वास बस आती
और जाती है।
आप ज्यादा से
ज्यादा देख
सकते हैं, जान सकते
हैं। ज्यादा
से ज्यादा भूल
सकते हैं, विस्मरण
कर सकते हैं; स्मरण रख
सकते हैं, होश
रख सकते हैं, बेहोश हो
सकते
हैं--लेकिन श्वास
ले नहीं सकते।
ज्ञाता हो
सकते, साक्षी
हो सकते, द्रष्टा
हो
सकते--कर्ता
नहीं हो सकते
हैं।
लेकिन
हम हर चीज में
जोड़ लेते हैं।
और गौर से देखते
चले जाएं, तो फिर किसी
चीज में नहीं
जोड़ पाएंगे।
खोजते चले
जाएं, तो
पाएंगे कि
कर्ता भ्रम है,
दि ग्रेटेस्ट
इलूजन। जो बड़े
से बड़ा भ्रम
है, वह
कर्ता का भ्रम
है।
मां
कहती है कि
मैं बेटे को
जन्म देती
हूं। किसी मां
ने कभी नहीं
दिया। होता
है। अगर पति
और पत्नी
सोचते हों कि
हम मिलकर बेटे
को जन्म देते
हैं, तो
प्रकृति उन पर
बहुत हंसती
है। क्योंकि
उनसे भी
प्रकृति जन्माने
का काम लेती
है, वे
जन्म देते
नहीं हैं।
इसीलिए
तो कामवासना
इतनी प्रगाढ़
है, आपके वश
में नहीं है।
इतनी प्रगाढ़
है, इतनी बायोलाजिकल
फोर्स है, इतना
जैविक भीतर से
धक्का है कि
आपके वश में नहीं
है। इसीलिए तो
ब्रह्मचर्य
बड़ी से बड़ी
चीज समझी गई
है।
ब्रह्मचर्य
के बड़े होने
का और कोई
मतलब नहीं है।
इतना ही मतलब
है कि ब्रह्मचर्य
को केवल वही
उपलब्ध हो
सकता है, जो
कर्ता के भाव
से मुक्त हो
गया हो।
क्योंकि कर्ता
से तो प्रकृति
बाप बनने का, मां बनने का
काम ले ही
लेगी। वह
अज्ञानी
पक्का है।
उसको तो भीतर
से धक्का दे
दिया जाएगा और
उससे काम ले लिया
जाएगा।
पशुओं
की जिंदगी में
अगर देखें, कीड़े-मकोड़ों
की जिंदगी में
अगर देखें, पौधों की
जिंदगी में
अगर देखें, तो सभी पैदा
कर रहे हैं; सभी बच्चे
पैदा कर रहे
हैं। लेकिन कम
से कम उनको
शायद पता नहीं
है कि वे
कर्ता हैं।
आदमी को यह
खयाल है कि वह
कर्ता है।
बाप बेटे
से कहता है, मैंने तुझे
जन्म दिया।
सारा जगत
हंसता होगा अगर
सुनता होगा कि
पागल हुए हो!
जन्म तुमने
दिया? या
कि जन्म की
प्रक्रिया
में तुम सिर्फ
उपकरण बनाए गए,
साधन बनाए
गए? पैदा
होना चाहता था
कोई। जगत, अस्तित्व
उसे पैदा करना
चाहता था; आप
सिर्फ उपकरण
बने हैं, आप
सिर्फ माध्यम
बने हैं।
लेकिन माध्यम अकड़कर
कहता है, मैंने
पैदा किया!
बुद्ध
ने बारह वर्ष
बाद घर लौटकर
जब गांव के द्वार
से प्रवेश
किया, तो
बुद्ध के पिता
ने कहा, मैंने
ही तुझे जन्म
दिया। बुद्ध
ने कहा, क्षमा
करें। आप नहीं
थे, तब भी
मैं था। मेरी
यात्रा बहुत
पुरानी है।
आपसे मेरा
मिलन तो
अभी-अभी हुआ, कुछ ही वर्ष
पहले। मेरी
यात्रा बहुत
पुरानी है
आपसे। आपकी भी
यात्रा उतनी
ही पुरानी है।
आपने मुझे
जन्म दिया, ऐसा मत कहें;
ऐसा ही कहें
कि आप एक
चौराहे बने, जिससे मैं
गुजरा और पैदा
हुआ। लेकिन
मैं गुजरा और
पैदा हुआ, ऐसा
भी कहना, बुद्ध
ने कहा, ठीक
नहीं; गुजारा
गया और पैदा
किया गया।
जैसे
कोई चौराहे से
गुजर जाए और
चौराहा कहे कि
मैंने ही
तुम्हें पैदा
किया; मेरे
चौराहे से तुम
गुजरे थे, अन्यथा
हो न सकते थे!
ऐसे ही
मां-बाप एक
चौराहे से
ज्यादा नहीं
हैं, जिनसे
बच्चा पैदा
होता है।
अनंत
हैं शक्तियां, जिनके कारण
यह घटना घटती
है। छोटी से
छोटी घटना
अनंत चीजों पर
निर्भर है।
मूलतः तो अनंत
परमात्मा पर
निर्भर है।
लेकिन हम कहते
हैं कि मैं...।
यह मैं
अज्ञान का गढ़
है। ज्ञान की
किरण, होश
का क्षण, जागरूकता
की एक झलक इस
पूरे गढ़
को गिरा देती
है। यह ताश के
पत्तों का गढ़
है। यह
पत्थरों का
नहीं है, नहीं
तो ज्ञान की
किरण इसे न
गिरा पाए। यह
ताश के पत्तों
का घर है।
जरा-सा झोंका
हवा का, और
सब बिखर जाता
है।
यह
अहंकार
बिलकुल ताश के
पत्तों का घर
है। जरा-सा
धक्का ज्ञान
का, और सब
गिरकर जमीन पर
पड? जाता
है। वर्षों की,
जन्मों की
मेहनत हो भला,
लेकिन है
ताश के घर का
खेल।
ज्ञान
क्या करता है? ज्ञान क्या
है?
ज्ञान
है स्मरण सत्य
का, अज्ञान
है विस्मरण
सत्य का।
अज्ञान है एक फार्गेटफुलनेस,
एक
विस्मृति।
ज्ञान है एक
स्मरण।
स्मरण
सत्य का जैसे
ही होता है, वैसे ही
अंधेरे में, अज्ञान में
पाली गई सारी
धारणाएं गिर
जाती हैं। गिर
ही जाएंगी।
जैसे रात के
अंधेरे में
हमने सपने
देखे और सुबह
के जागरण पर
सब खो गए। ऐसे ही।
इसलिए
कृष्ण कहते
हैं कि ज्ञान
की अग्नि में
समस्त कर्म जल
जाते हैं
अर्जुन! तू
चिंता ही मत कर
कर्मों की; तू चिंता कर
कर्ता की।
पूरा
जोर कृष्ण का
इस बात का है, कर्म की छोड़
फिक्र, फिक्र
कर कर्ता की।
अगर कर्ता है
तू, तो फिर
कर्म तुझे
बनते ही चले
जाएंगे। और
अगर कर्ता
नहीं है तू, तो फिर
चिंता छोड़।
फिर झील पर उड़े
हुए बगुलों की
कतार की भांति
कुछ भी तुझ पर
बनेगा नहीं।
यह महायुद्ध
जो तेरे सामने
खड़ा है, इससे
भी गुजर; कर्ता
भर मत हो। फिर
ये गिरी हुई
हजारों लाशें
भी, तेरे
ऊपर खून का एक
दाग न छोड़
जाएंगी।
इससे
बड़ी हिम्मत का
वक्तव्य
मनुष्य-जाति
के इतिहास में
दूसरा नहीं
है। सच ए
ग्रेट एंड
बोल्ड स्टेटमेंट!
कृष्ण कहते
हैं, ये लाखों
लोग, इनकी
लाशें पट जाएं;
अगर तू
कर्ता नहीं है,
तो छोड़
फिक्र, खून
का एक दाग भी
तेरे ऊपर नहीं
पड़ेगा। और अगर
तू कर्ता है, तो तू शून्य
में से भी
गुजर जा, तो
भी तू कर्मों
से भर जाएगा
और लद जाएगा।
कर्ता
अगर सोया भी
रहे, तो भी
कर्म अर्जित
करता है; नींद
में भी कर्म
करता है। और
अगर अकर्ता जागकर
युद्धों में
भी उतर जाए, तो भी कर्म
फलित नहीं
होता है।
कर्ता की
मृत्यु कर्म
का समाप्त हो
जाना है।
इस
अर्थ में
ज्ञान की
अग्नि समस्त
कर्मों का विनाश
बन जाती है।
न
हि ज्ञानेन
सदृशं पवित्रमिह
विद्यते।
तत्स्वयं योगसंसिद्धिः
कालेनात्मनि
विन्दति।।
38।।
इसलिए
इस संसार में
ज्ञान के समान
पवित्र करने वाला
निस्संदेह
कुछ भी नहीं
है। उस ज्ञान
को कितने काल
से अपने आप समत्व
बुद्धिरूप
योग के द्वारा
अच्छी प्रकार शुद्धांतःकरण
हुआ पुरुष
आत्मा में
अनुभव करता
है।
ज्ञान
से श्रेष्ठ
कुछ भी नहीं
है। ज्ञान के
सदृश कुछ भी
नहीं है।
ज्ञान से
ज्यादा
पवित्र करने
वाला कोई
स्रोत, कोई
झरना नहीं है।
ज्ञान है
मुक्ति।
ज्ञान है अमृत।
ज्ञान
की यह जो
पवित्र करने
की क्षमता है, यह जो ज्ञान
की स्वच्छ
करने की
क्षमता है, यह जो ज्ञान
की
ट्रांसफार्म
करने की, रूपांतरित
करने की शक्ति
है, इसके
संबंध में
कृष्ण कह रहे
हैं। तीन
बातें कह रहे
हैं। ज्ञान से
श्रेष्ठ कुछ
भी नहीं। ज्ञान
के सदृश
पवित्र करने
वाला कुछ भी
नहीं। ज्ञान
को उपलब्ध हुआ
आत्मा में
प्रवेश कर
जाता है। इन
तीनों को
अलग-अलग
समझें।
अपवित्रता
क्या है? इंप्योरिटी क्या है? अपवित्र
क्यों है
मनुष्य? कौन-सी
है गंदगी उसके
प्राणों पर, जो भारी है।
कौन-सा है
अस्वच्छ कचरा,
जो उसके
चित्त पर बोझ
है? कौन-सी
अशुचि है? कौन
है, क्या
है, जो उसे
रुग्ण और
बीमार किए है?
मन में
जैसे ही उठती
है वासना, वैसे ही
अशुचि प्रवेश
कर जाती है।
मन में जैसे
ही उठती है
कामना, वैसे
ही मन गंदगी
से भर जाता
है। मन में
जैसे ही उठी
इच्छा कि ज्वर,
फीवर
प्रवेश कर
जाता है।
उत्तप्त हो
जाता है सब।
अस्वस्थ हो
जाता है सब।
कंपनशील हो
जाता है सब।
कामना ही--डिजायरिंग--कामना
ही अशुचि है, अस्वच्छता
है, अपवित्रता
है।
देखें; जब भी मन में
कुछ चाह उठती
है, तब
देखें। भीतर
से सुगंध खो
जाती और
दुर्गंध शुरू
हो जाती है।
जब भी मन में
कोई चाह उठती
है, तब
भीतर से शांति
खो जाती और
अशांति के
वर्तुल खड़े हो
जाते हैं, भंवर
खड़े हो जाते
हैं। जब भी मन
में कोई चाह
उठती है, तभी
दीनता पकड़
लेती है। आदमी
भिखारी की तरह
भिक्षापात्र
लेकर खड़ा हो
जाता है, भिक्षु
हो जाता है।
जब भी
मन में चाह
उठती है, तभी
दूसरे से
तुलना शुरू हो
जाती है;र्
ईष्या
निर्मित होती
है, जेलेसी। और जेलेसी
से ज्यादा
गंदी और कोई
चीज नहीं है
चित्त में। जेलेसी, जलन से, प्रतिस्पर्धा
से, तुलना
से भरा हुआ मन
ही कुरूप है, अग्ली है।
जैसे
ही वासना उठती
मन में, हिंसा
उठती है।
क्योंकि
वासना को पूरा
हिंसा के बिना
किया नहीं जा
सकता। फिर जो
पाना है, वह
किसी भी तरह
पाना है। फिर
चाहे कुछ भी
हो, फिर
उसे पा ही
लेना है। फिर
अंधा होता
आदमी। जब
वासना घनी
होती है, तब
ब्लाइंडनेस
पैदा होती है।
अंधा होता है।
फिर आंख बंद
करके दौड़ता
पागल की तरह!
क्योंकि
अकेला ही नहीं
दौड़ रहा है; और बहुत
अंधे भी दौड़
रहे हैं। कोई
और न छीन ले! संघर्ष
होता।
वैमनस्य
होता। क्रोध
होता। घृणा
होती।
और मजा
यह है कि सफल
हो जाए वासना, तो भी फ्रस्ट्रेशन,
तो भी विषाद
हाथ में आता
है। और असफल
हो जाए वासना,
तो भी विषाद
हाथ में आता
है। दोनों ही
स्थिति में
अंततः दुख के
आंसू हाथ में
पड़ते हैं।
इसे
थोड़ा खयाल में
ले लेना जरूरी
है। क्योंकि हमारा
मन कहेगा, नहीं; अगर
सफल हो जाए, फिर क्या? फिर तो सब
ठीक है!
यही है
राज कि सफल
होकर भी वासना
कहीं भी नहीं
ठीक करती।
असफल होकर तो
करती ही नहीं; सफल होकर भी
नहीं करती।
मैंने
सुना है कि एक
बड़े पागलखाने
में एक मनोवैज्ञानिक
अध्ययन के लिए
गया है।
चिकित्सक ने पागलखाने
के, उसे
पागलों को
दिखाया है। एक
कोठरी में एक
पागल बंद है, जो हाथ में
एक तस्वीर लिए
है। छाती से
लगाता है; फिर
देखता है; फिर
आंसू टपकाता
है। रोता है, चिल्लाता
है। पूछा उस
मनोवैज्ञानिक
ने चिकित्सक
को पागलखाने
के कि क्या हो
गया? क्या
कारण है इसके
पागलपन का? चिकित्सक ने
कहा, हाथ
में जो तस्वीर
लिए है, वही
कारण है। इस
स्त्री को
प्रेम करता
था। यह इसे
मिल नहीं पाई।
इसलिए दुखी और
पीड़ित है।
दिन-रात छाती
पीटता रहता है।
फिर वे
आगे बढ़े और
दूसरी कोठरी
के सामने एक
दूसरे आदमी को
बाल नोचते, चेहरे को
लहूलुहान
करते देखा।
पूछा मनोवैज्ञानिक
ने, इस
आदमी को क्या
हुआ है? उस
चिकित्सक ने
कहा, इस आदमी
को वह स्त्री
मिल गई, जो
उस आदमी को
नहीं मिल पाई।
यह उसकी वजह
से पागल हो
गया! एक पागल
है इसलिए कि
जो उसने चाहा
था, वह
नहीं मिला। एक
पागल है इसलिए
कि जो उसने चाहा,
वह मिल गया
है!
ऐसा ही
होता है। चाहा
हुआ मिल जाए, तो भी पता
चलता है, कुछ
भी नहीं मिला।
चाहा हुआ न
मिले, तब
तो फिर चित्त
दुखी और पीड़ित
होता ही है।
और दुख में
उठे आंसू
जितनी गंदगी
और अपवित्रता
लाते हैं, उतना
और कुछ भी
नहीं लाता।
ध्यान
रखें, आंसू
आनंद में भी
उठ सकते हैं।
लेकिन आनंद के
आंसू बड़े
पवित्र होते
हैं, उनकी
सुवास की कोई
सीमा नहीं है।
दुख में भी
आंसू गिरते
हैं, तब
उनकी
अपवित्रता, उनकी गंध का
कोई हिसाब
नहीं है। आंसू
वही होते हैं;
भीतर का
चित्त बदला
होता है।
वासना, कामना, इच्छा
कीड़ा है, जो
भीतर गंदगी को
पैदा करता है।
हम सब हजार इच्छाओं
में जीते हैं,
हजार तरह की
गंदगियों में
जीते हैं।
ज्ञान
की स्वच्छ
करने की शक्ति
यही है कि
ज्ञान के उतरते
ही इच्छा
तिरोहित होती
है। इच्छा की
जगह अस्तित्व
शुरू होता है।
डिजायरिंग
की जगह, एक्झिस्टेंशियल होता है
आदमी। फिर
मांगता नहीं
कि क्या मिले;
जो मिला है,
उसे परम
प्रभु को
धन्यवाद देकर
चुपचाप स्वीकार
करता है। दौड़ता
नहीं है उसका
चित्त कल के
लिए; आज
काफी है, पर्याप्त
है। आज ही मिल
गया है, यही
क्या कम है।
आज हूं, इतनी
भी तो मेरी
पात्रता नहीं
है। जो मिला, वह मेरी
योग्यता कहां
है?
लेकिन
कोई हममें से
नहीं सोचता यह
कि जो हमें मिला, उसकी हमारी
योग्यता है? अगर मुझे
आंखें न मिली
होतीं, तो
क्या मैं कह
सकता था कि
मेरी योग्यता
है, मुझे
आंखें दो! अगर
मेरे पास हाथ
न होते, तो
क्या था
प्रमाण मेरे
पास कि मेरी
योग्यता है, मुझे हाथ दो!
अगर मैं जीवित
ही न होता, तो
क्या था उपाय
कि मैं कहता
कि मैं जीवन
का अधिकारी
हूं, मुझे
जीवन दो! जो
हमें मिला है,
उसका हमें
कोई हिसाब
नहीं है, उसका
कोई अनुग्रह
नहीं है।
क्योंकि
वासना उसे
दिखाई ही नहीं
पड़ने देती, जो है।
वासना कहती है
वह, जो
नहीं है।
वासना
वैसी ही है, जैसे कभी
दांत टूट जाए,
तो जीभ
वहीं-वहीं
जाती है, जहां
दांत नहीं है।
सब दांतों को
छोड़ देती है। दिनभर
वहीं कुरेदती
चली जाती है, जहां दांत
नहीं है। उस
जीभ से पूछो
कि तू पागल हो
गई! दांत इतने
दिन था, तब
कभी तूने छुआ
भी नहीं। आज
तुझे क्या हो
गया है? खाली
गङ्ढे को
छूने में तुझे
क्या हो रहा
है? जो
नहीं है, उसमें
बड़ा रस है। जो
है, उससे
कोई प्रयोजन
नहीं है।
वासना
भी टूटे दांत
को छूती रहती
है दिन-रात, जो नहीं है।
और बहुत कुछ
है, जो
नहीं है। अनंत
है विस्तार
जीवन का। सभी
कुछ मेरे पास
नहीं है।
यद्यपि मेरे
पास जो है, वह
सभी कुछ से
जरा भी कम
नहीं है।
लेकिन उसको देखे
कौन? उसकी
तरफ नजर कौन
उठाए?
सुना
है मैंने, एक आदमी रो
रहा था रास्ते
पर खड़ा हुआ।
और एक फकीर से
उसने कहा कि
मुझे तो भगवान
उठा ही ले, तो
अच्छा। मेरे
पास कुछ भी
नहीं है। आज
सुबह की चाय
पीने के लिए
पैसे भी नहीं
हैं। उस फकीर
ने कहा, घबड़ा
मत। मैं समझता
हूं, तेरे
पास बहुत कुछ
है; मैं
बिक्री करवा
देता हूं।
उसने कहा, मेरे
पास कुछ भी
नहीं है इस चीथड़े
के सिवा, जो
मेरे शरीर पर
अटका हुआ है।
इसकी क्या
बिक्री होगी,
खाक! अगर
होती हो, तो
मैं बेचने को
तैयार हूं।
फकीर ने कहा, तू मेरे साथ
आ।
वह उसे
सम्राट के पास
ले गया गांव
के। दरवाजे पर
उसने कहा कि
मित्र, पहले
तुझे बता दूं;
ऐसा न हो कि
बाद में तू
बदल जाए। दाम
अच्छे मिल जाएंगे।
लेकिन बेचने
की तैयारी है?
उसने कहा, तू पागल तो
नहीं है! मेरे
पास कुछ है
नहीं, जो
बेचने योग्य
हो। और इस महल
में इन चीथड़ों
को खरीदेगा
कोई? चीथड़ों की वजह से
मुझे भी
निकालकर वे
बाहर फेंक
देंगे। भीतर
प्रवेश भी
मुश्किल है।
है क्या मेरे
पास? उस
फकीर ने कहा
कि देख, बाद
में बदल मत
जाना; दाम
अच्छे मिल
जाएंगे। वह
आदमी हंसने
लगा। उसने कहा
कि व्यर्थ
मेरी सुबह
खराब हुई
तुम्हारे साथ
आकर। तुम पागल
मालूम पड़ते
हो! फकीर ने कहा,
तेरी
मर्जी। अंदर
चल!
सम्राट
के पास जाकर
कहा कि यह
आदमी मैं ले
आया। इस आदमी
की दोनों आंखें
आप खरीद लें।
क्या दाम दे
देंगे? आदमी
घबड़ाया। उसने
कहा, आंख!
तुम बात क्या
कर रहे हो? सम्राट
ने कहा, लाख-लाख
रुपया मैंने
तय कर रखा है; जो भी आदमी
आंख बेचे।
वजीर को कहा, दो लाख रुपए
ले आओ। और उस
आदमी से कहा, सौदे में
कोई तुम्हें
एतराज तो नहीं
है? कम तो
नहीं हैं?
वह
भिखारी एकदम
भिखारी न रहा, एक क्षण
में। क्योंकि
भिखारी था वह
टूटे हुए दांत
पर जीभ मारने
की वजह से।
भिखारी न रहा।
क्योंकि अब
उसकी उन
दांतों पर जीभ
पड़ी, जो
थे। उसने कहा,
आप बात क्या
करते हैं? आंखें
मुझे बेचनी
नहीं हैं। उस
फकीर ने कहा, दो लाख
मिलते हैं
पागल! तू कहता
था, कुछ भी
मेरे पास नहीं
है। भगवान को
कोस रहा था।
सुबह-सुबह दो
लाख का सौदा
करवाए देते
हैं। तेरी
ज्यादा मर्जी
हो, तो
ज्यादा बोल।
कुछ ज्यादा भी
मिल सकता है।
उस आदमी ने
कहा कि मुझे
बाहर जाने का
रास्ता बताओ।
मुझे आंख बेचनी
नहीं है। उस
फकीर ने कहा, लेकिन लाखों
की आंख तेरे
पास हैं, कभी
तूने भगवान को
धन्यवाद दिया
है?
लेकिन
लाखों की आंख
देखे कौन? आंखें तो कौड़ियों
की इच्छाओं को
देख रही हैं।
आंखें तो कौड़ी
भर इच्छा के
पीछे दौड़ रही
हैं। लाखों की
आंख कौड़ियों
की इच्छा करती
है! करोड़ों का
मन--हिसाब
नहीं है दाम
का मन के
लिए--क्षुद्र
घास-पात के
लिए पीड़ित है
और तड़फता
है। अरबों की
विवेक-शक्ति--दाम
नहीं लगते, अरबों में
भी नहीं हो
सकते
दाम--किसी काम
नहीं पड़ती।
कोई जरा-सी
गाली दे जाता
है और करोड़ों
की
विवेक-शक्ति
हम जमीन पर लुढ़का
देते हैं।
असीम, अनंत,
अमूल्य
आत्मा क्षुद्रतम
के लिए दांव
पर लगा दी
जाती है।
नहीं; वह भिखारी
हमसे ज्यादा
होशियार था।
इनकार कर दिया,
नहीं बेचता
हूं आंख! हम तो
आत्मा बेच
देते हैं! आत्मा
बेचने में भी
देर नहीं
करते। टुकड़ों
पर बिक जाती
है आत्मा!
पैसों में बिक
जाती है।
तांबे के
ठीकरों में
बिक जाती है।
वासना
हमें बुरी तरह
भिखारी बना
देती है।
ज्ञान
स्वच्छ करता
है वासना से; तृप्त करता
है, जो है, उसमें। दौड़ाता
नहीं उसके
पीछे, जो
नहीं है। हृदय
से आलिंगन करा
देता है उसका,
जो है।
अदभुत है
तृप्ति, संतुष्टि
फिर। उस
संतुष्टि में
वासना के सारे
रोग और सारे
विकार विदा हो
जाते हैं; मन
स्वच्छ हो
जाता है। एकदम
स्वच्छ और
ताजा हो जाता
है।
क्षण
में जो जीता
है, कल का
जिसे हिसाब
नहीं है, बीते
कल का; आने
वाले कल की
जिसे अपेक्षा
नहीं है; जो
अभी और यहीं
है, हियर
एंड नाउ, उसकी स्वच्छता
का कोई अंत
नहीं है। वह
पवित्रतम है।
इसलिए
कृष्ण कहते
हैं, ज्ञान की
तरह पवित्र
करने वाला, ज्ञान के
सदृश पवित्र
करने वाली कोई
कीमिया, कोई
केमिस्ट्री
नहीं है।
इसलिए
अगर बुद्ध की
आंखों में
पवित्रता
दिखाई पड़ती है
ऐसी, कि जिससे
झीलें भी झेंप
जाएं। कि
बुद्ध के
चेहरे पर
रेखाएं दिखाई
पड़ती हैं ऐसी,
कि छोटे
बच्चे भी, नवजात
शिशु भी शर्माएं।
कि बुद्ध के
चलने में
चारों तरफ हवा
बहती है स्वच्छता
की, निर्मल,
कि मलय
पर्वत से उठी
हुई सुगंधित हवाएं भी
फिर से विचार
करें कि वे
मलय पर्वत से
आती हैं या
कहीं और से!
अगर महावीर की
नग्नता में भी
पवित्रतम के
दर्शन होते
हैं, तो
उसका कारण है।
अगर जीसस सूली
पर लटके हैं और
मृत्यु के
क्षण में भी
उनके भीतर से
जीवन की ऊर्जा
ही झलकती और
प्रकट होती
है।
अगर
मंसूर के
हाथ-पैर काटे
जा रहे हैं।
हाथ से गिरते
लहू में भी, पैर से
टपकते लहू में
भी मंसूर हाथ
के पंजों को
लहू में लगा
लेता; फिर
दोनों बाहुओं
पर लगाता है।
लोग भीड़ में
खड़े हैं जो
पत्थर फेंक
रहे हैं; वे
पूछते हैं कि
मंसूर यह तुम
क्या कर रहे
हो? तो
मंसूर कहता है,
मैं वजू कर
रहा हूं। नमाज
के पहले जैसे
मुसलमान हाथ
धो डालता है।
खून से वजू कर
रहा है। अपने
ही खून से!
हंसता है और
कहता है, यह
खून भी
परमात्मा की
नसों में बहता
हुआ पानी है।
वह नदियों में
बहता हुआ पानी
भी परमात्मा
की नसों में
बहता हुआ खून
है। यह भी
उसकी ही धारा
है; वह भी
उसकी ही धारा
है। सौभाग्य
मेरा कि तुमने
आज इतने निकट
की धारा तोड़
दी और वजू
करने मुझे दूर
नहीं जाना पड़
रहा है। वहीं
खून से वजू कर
रहा है; हंस
रहा है; मुस्कुरा
रहा है।
लोग
पत्थर फेंक
रहे हैं और वह
हंस रहा है।
और मरते दम
किसी ने उससे
पूछा कि मंसूर, हम तुम्हें
काट रहे हैं
और तुम हम पर
प्रेम बरसा
रहे हो; मत झेंपाओ
हमें, मत
शर्माओ इतना।
तो मंसूर ने
कहा, इसलिए
ताकि तुम याद
रख सको कि
प्रेम को
पत्थरों से
पीड़ित नहीं
किया जा सकता
है। और
आत्माओं को
छुरों से, तलवारों
से भोंका नहीं
जा सकता है।
और प्रार्थना
को दुनिया की
कोई भी गाली
अपवित्र नहीं
कर सकती है।
ताकि तुम
स्मरण रखो।
यह जो
इन व्यक्तियों
के भीतर, और
ऐसे हजार-हजार
और व्यक्ति भी
हुए हैं, इन
सबके भीतर जो
पवित्रता
प्रकट होती है,
वह कृष्ण के
सूत्र का ही
प्रमाण है।
ज्ञान के सदृश
और कुछ पवित्र
करने वाला
नहीं है।
ज्ञान
ही एकमात्र
पवित्रता है, नालेज इज़ प्योरिटी।
साक्रेटीज
ने कहा है, नालेज इज़ वर्च्यू,
ज्ञान ही
एकमात्र
सदगुण है। वही
कृष्ण कहते हैं।
कृष्ण
कहते हैं, ज्ञान से
ऊपर कुछ भी
नहीं।
है भी
नहीं। परम
शिखर जीवन के
अनुभव का, जान लेना
है।
निकृष्टतम
खाई अज्ञान की,
न जानने में
पड़े रहना है।
आत्म-अज्ञान गहनतम
नर्क है; आत्म-ज्ञान
श्रेष्ठतम
स्वर्ग है। जो
नहीं जानता
अपने को, उससे
नीचे और कुछ
नहीं हो सकता।
जो जान लेता अपने
को, उसके
ऊपर कुछ और
नहीं है।
दो ही
छोर हैं, अज्ञान
और ज्ञान। इन
दो के
अतिरिक्त और
कोई पोल्स
नहीं हैं
अस्तित्व के।
एक तरफ अज्ञान
का छोर है, जहां
हम अपने को
नहीं जानते।
और जो अपने को नहीं
जानता, वह
और कुछ क्या
जानेगा, खाक!
कैसे जानेगा?
उपाय क्या
है? जो
अपने को ही
नहीं जानता, वह और क्या
जानेगा? उसका
सब जानना धोखा
है। और जो
अपने को जान
लेता है, उसे
और कुछ जानने
को बचता नहीं।
जिसने अपने को
जान लिया, उसने
सब जान लिया।
महावीर
ने कहा है, जाना जिसने
स्वयं को, जाना
उसने सब।
स्वयं को जाना,
तो सर्वज्ञ
हुआ। सभी कुछ
जान लिया।
क्यों? इतना
बड़ा वक्तव्य!
ऐसा कैटेगोरिकल,
ऐसा
निरपेक्ष
वक्तव्य, कि
जिसने अपने को
नहीं जाना, उसने कुछ भी
नहीं जाना।
निश्चय ही, क्योंकि
जानने की पहली
किरण स्वयं से
अगर न टूटे, तो और कहीं
से नहीं टूट
सकती।
जो
आदमी भीतर ही
अंधेरा है, जिसके अपने
ही घर का दीया
बुझा है, जिसको
अपना बुझा
दीया ही
जिंदगी बनी है,
अपना दीया
जलाने का
स्मरण भी जिसे
नहीं आया अब
तक, उसे
कहीं और
प्रकाश कहां
हो सकता है? उसके हाथ
में भी प्रकाश
दे दो, तो
बेमानी है।
मैंने
सुना है, एक
रात एक अंधा
एक घर में
मेहमान था।
लौटने लगा।
अमावस की रात।
घर से बाहर
निकला। मित्र
ने कहा, लालटेन
साथ लेते चले
जाएं। रास्ता
बहुत अंधेरा
है। अमावस की
रात! अंधे ने
कहा, मजाक
करते हैं! भूल
गए, मैं
अंधा हूं।
मुझे तो दिन
भी अमावस ही
है। क्या फर्क
पड़ता है? पर
मित्र भी
साधारण न था।
मजाक में बात
न कही थी; अर्थ
था, अभिप्राय
था। कहा कि वह
मैं जानता
हूं। अंधे की
मजाक करूं, इतना अंधा
मैं नहीं।
इतना कठोर मत
समझो। नहीं, इसलिए नहीं
कि तुम्हें
प्रकाश में
दिखाई पड़ने
लगेगा, इसलिए
नहीं कहता, लालटेन ले
लो। इसलिए
कहता हूं कि
अंधेरे में
कोई और तुमसे
न टकरा जाए।
हाथ में रहेगा
प्रकाश, तो
दूसरे को
टकराने में
थोड़ी असुविधा
पड़ेगी। हालांकि
प्रकाश रहते
भी जिसको
टकराना है, वह टकराता
है; फिर भी
थोड़ी सुविधा
कम होगी। थोड़ी
असुविधा, अड़चन
आएगी। इसलिए
लेते चले जाओ।
अंधे
को भी कठिन
हुआ। अब कोई
उत्तर भी न
था। ले ली
लालटेन और चल
पड़ा। और दस
कदम भी नहीं
चला होगा, सड़क के
किनारे पर
कोने पर
पहुंचा ही था
कि भड़ाम!
कोई उससे आकर
टकरा गया।
पूछा अंधे ने,
क्या कर रहे
हैं? मैं
नहीं गलत कर
पाया अपने
मित्र को, आप
किए दे रहे
हैं! दिखाई
नहीं पड़ती रोशनी?
हाथ में
लालटेन है!
दूसरे आदमी ने
कहा, क्षमा
करें! लालटेन
बुझ गई है, आपको
पता नहीं।
अंधे
को पता भी
कैसे चले कि
लालटेन बुझ
गई! अंधे के
हाथ में
लालटेन जैसा
अर्थ रखती है, ऐसा ही
स्वयं का
जिसके प्रति
अज्ञान है, उसके हाथ
में जगत का
सारा ज्ञान भी
हो, तो बस ऐसा
ही अर्थ रखता
है। टक्कर
होगी।
थोड़ी-बहुत देर
में लालटेन बुझेगी।
अंधे को पता
कैसे चले?
और मैं
अगर उस मित्र
की जगह होता, जिसने अंधे
को लालटेन दी,
तो अंधे को
लालटेन कभी न
देता।
क्योंकि अंधे
के हाथ में
लालटेन अगर न
होती, तो
मैं मानता हूं
कि वह उस दिन न
टकराता। आप
कहेंगे, कैसे?
इसलिए न
टकराता कि
अंधे के हाथ
में लालटेन न
होती, तो
वह टटोल-टटोलकर,
सम्हाल-सम्हालकर,
चिल्ला-चिल्लाकर,
आवाज
दे-देकर चलता।
लालटेन की वजह
से चला अकड़कर
कि लालटेन है
हाथ में; अब
कौन टकराने
वाला है!
टक्कर हो गई।
अज्ञानी
के हाथ में
सारे जगत का
ज्ञान दे दें, तो खतरा ही
है। अज्ञानी
के हाथ में
ज्ञान न हो, वही बेहतर।
आज यही तो हुआ
है सारी
दुनिया में।
विज्ञान ने
ज्ञान की राशि
लगा दी
अज्ञानी के हाथ
में। परिणाम
में हिरोशिमा,
नागासाकी!
परिणाम में
तीसरा
महायुद्ध
किसी भी दिन!
अज्ञानी के
हाथ में ताकत
है।
नादिरशाह
ने एक दफा एक
ज्योतिषी से
पूछा कि मैंने
एक किताब पढ़ी
है--धर्मग्रंथ!
उसमें लिखा है, ज्यादा देर
सोना अच्छा
नहीं। लेकिन
मैं सुबह दस
बजे सोकर
उठता हूं।
आपका क्या
खयाल है? किताब
ठीक कि मैं
ठीक? ज्योतिषी
ने कहा, किताब
ठीक नहीं है; आप ही ठीक
हैं। और मैं आपसे
प्रार्थना
करता हूं कि
आप चौबीस घंटे
सोए रहें, तो
बहुत अच्छा
है! नादिरशाह
ने कहा, तुम्हारा
मतलब? हिम्मत
का आदमी रहा
होगा वह
ज्योतिषी।
उसने कहा, मेरा
मतलब यह कि
किताब अच्छे
आदमियों को
ध्यान में
रखकर लिखी गई
है, बुरे
आदमियों को
ध्यान में
रखकर नहीं।
अच्छा आदमी
जितना जागे, उतना अच्छा;
बुरा आदमी
जितना सोए, उतना अच्छा।
क्योंकि वह
जितनी देर सोए,
उतनी देर
दुनिया के लिए
वरदान है।
जितनी देर जागे,
उतनी देर
उपद्रव; होगा
ही कुछ!
नादिरशाह
जागे, उपद्रव
न हो, ऐसा
नहीं हो सकता।
अज्ञानी के
हाथ में
अज्ञान ही
अच्छा है; अज्ञानी
के हाथ में
ज्ञान खतरनाक
है। ज्ञानी के
हाथ में
अज्ञान भी
खतरनाक नहीं
है, ज्ञान
की तो बात ही
क्या है!
यहां
ज्ञान की जो
बात कृष्ण कह
रहे हैं, वह
आत्मज्ञान
है। स्वयं का
ज्ञान
प्राथमिक, फाउंडेशनल,
मूलभूत
ज्ञान है। उस
ज्ञान को पा
लेने से, कृष्ण
कहते हैं, आत्मा
में प्रवेश हो
जाता है।
यह
आखिरी बात भी
समझ लेनी जैसी
है।
आत्मा
में प्रवेश हो
जाता है।
आत्मा से एकता
हो जाती है।
आत्मा में
द्वार मिल
जाता है। आत्मा
ही हो जाता है, वैसा जानने
वाला। तो क्या
हम आत्मा नहीं
हैं? हम
सभी आत्मा
हैं। सब
किताबों में
लिखा है! खुद कृष्ण
ही कहते हैं
कि सबके भीतर
आत्मा है, वह
मरती नहीं। जब
हम सभी आत्मा
हैं, तो अब
ज्ञान की और
क्या जरूरत है?
जार्ज
गुरजिएफ कहा
करता था कि
जिन लोगों ने
लोगों को
समझाया कि
सबके भीतर
आत्मा है, उन्होंने
जगत की बड़ी
हानि की है।
और जब उसने यह
कहा, तो
उसने बहुत सोच-विचारकर
कहा है।
गुरजिएफ ने
उलटी बात कहनी
शुरू की। इस
बात को
भलीभांति
जानते हुए कि
सभी के भीतर आत्मा
है, गुरजिएफ
ने कहना शुरू
किया, सभी
के भीतर आत्मा
नहीं है। जो
आत्मा को पैदा
कर ले, उसी
के भीतर है; बाकी तो
बिना आत्मा के
हैं।
गुरजिएफ
का मतलब था।
गुरजिएफ कहता
था, सभी को यह
खयाल हो गया
है कि हमारे
भीतर आत्मा है।
जानें न जानें,
है ही; पाएं
न पाएं, है
ही। फिर क्या
फर्क पड़ता है?
है तो।
गुरजिएफ कहता
था, तब तक
है या नहीं
बराबर है, जब
तक जानी नहीं।
जब तक जानी
नहीं, तब
तक न होने के
बराबर है।
उसके होने का
क्या मतलब?
आपके
घर में खजाना गड़ा है और
आपको पता नहीं
कि कहां गड़ा
है। कुछ मतलब
है? कोई
बाजार में
क्रेडिट
मिलेगी उसकी?
भिखमंगा
हूं मैं और घर
में खजाना गड़ा
है। मेरा
भिखमंगापन
मिटेगा इससे?
गड़ा रहे घर में
खजाना; मुझे
कुछ पता नहीं
है, वह
कहां है! जो
खजाना पता न
हो, वह न होने
के बराबर है।
जिसका पता हो,
वही है।
इसलिए
कृष्ण कहते
हैं, जो जान
लेता, वही
आत्मा को
उपलब्ध होता
है। ज्ञान ही
आत्मा है।
अज्ञान का
क्या अर्थ है,
कि आत्मा है?
सुनी हुई
बातों की, खबरों
की कोई कीमत
है!
हम
सबने सुना है, आत्मा है, बड़े
निश्चिंत
हैं। सोचते
हैं, है
ही। फर्क क्या
है हममें और
ज्ञानी में? थोड़ा ही
फर्क है कि वह
जानता है और
हम नहीं जानते।
फर्क कुछ भी
नहीं है, हम
सोचते हैं।
फर्क बहुत बड़ा
है। क्योंकि
यह न जानना, न होने के
बराबर है, इक्वीवेलेंट,
बिलकुल
समतुल।
जब तक
अज्ञान है, तब तक अनात्मा
है। जब ज्ञान
है, तभी
आत्मा है।
ज्ञान के पहले
यह कहना कि
मेरे भीतर
आत्मा है, धोखा
है बड़े से
बड़ा। दूसरे के
लिए नहीं, अपने
लिए धोखा है।
क्योंकि हो
सकता है, दोहराते-दोहराते
कि मैं आत्मा
हूं, मैं
यह भूल ही
जाऊं कि मुझे
पता नहीं है
और मैं उधार
शब्द दोहरा
रहा हूं!
इस
मुल्क में ऐसी
दुर्घटना घटी
है। कभी-कभी
सौभाग्य भी
दुर्भाग्य हो
जाते हैं। इस
मुल्क ने
कृष्ण की वाणी
सुनी; इस
मुल्क ने
बुद्ध के वचन
सुने; इस
मुल्क ने
महावीर के
शब्द सुने; इस मुल्क ने
पतंजलि, शंकर,
नागार्जुन,
वसुबंधु,
धर्मकीर्ति,
दिग्नाग--न मालूम
कितने जानने
वाले लोगों की
वाणी को पीया।
सौभाग्य होना
चाहिए था यह; लेकिन हो
गया
दुर्भाग्य।
सुन-सुनकर हम
भी दोहराने
लगे, हम भी
कहने लगे, आत्मा
है; ब्रह्म
है।
पान की
दुकान पर भी ब्रह्मचर्चा
चलती है, विवाद
चलते हैं! पान
भी चलता है, ब्रह्मचर्चा भी चलती है!
ऐसी ब्रह्मचर्चा
महंगी पड़ी।
महंगी इसलिए
पड़ी कि
सुन-सुनकर, सुन-सुनकर
ऐसा लगा कि हम
जानते हैं। और
अज्ञान में
खयाल आ जाए कि
जानते हैं, तो आत्मा
में प्रवेश
कभी नहीं हो
पाता।
इसलिए
कृष्ण कहते
हैं, जो जानता
है, वही
आत्मा को
उपलब्ध होता
है, वही
प्रवेश कर
पाता है, वही
आत्मा हो पाता
है।
आत्मा
होना खेल नहीं
है, बड़ी से
बड़ी
तपश्चर्या
है। स्वयं को
जानना लंबी
यात्रा है।
लेकिन दूसरे
के उधार
शब्दों को कंठस्थ
कर लेना बड़ी
सुगम बात है।
स्कूल के बच्चे
कर सकते हैं।
बूढ़े भी वही
करते रहते
हैं।
मैं एक
अनाथालय में
गया था। बच्चे
मुझे बताए गए।
और शिक्षकों
ने कहा कि हम
इन्हें
धर्म-शिक्षा
देते हैं।
मैंने कहा, मैं भी
जानूं; क्योंकि
मैंने अब तक
सुना नहीं कि
धर्म की शिक्षा
हो सकती है।
उन्होंने कहा,
क्या बात
करते हैं? सब
बच्चे
परीक्षा में
उत्तीर्ण हो
गए हैं धर्म
की! मैंने कहा,
धर्म की कोई
परीक्षा हो
सकती है? फिर
भी मैं देखूं।
पूछा
एक बच्चे को
खड़ा करके
उन्होंने कि
बोलो, आत्मा
है? उसने
कहा, है।
परमात्मा है?
उसने कहा, है। और बाकी
बच्चे भी हाथ
हिलाने लगे।
फिर उन्होंने
पूछा, आत्मा
कहां है? सब
बच्चों ने
अपने हृदय पर
हाथ रख दिए कि
यहां।
मैंने
एक छोटे बच्चे
से पूछा कि
हृदय कहां है? उसने कहा, यह तो कोर्स
में ही नहीं
है। हृदय कहां
है, यह
लिखा ही नहीं
है। पढ़ाया
ही नहीं गया!
मैंने
उन शिक्षकों
से कहा कि यह
इनको तुमने कंठस्थ
करवा दिया; इनका तुमने
बड़ा अहित
किया। अब ये
याद कर-कर के जिंदगी
में बाद में
भूल ही जाएंगे
कि हमको पता
नहीं है। जब
भी सवाल उठेगा,
आत्मा है, बचपन में
सीखा गया हाथ
ऊपर हिलने
लगेगा, है।
कोई पूछेगा, आत्मा कहां
है? यंत्र
की तरह हाथ
छाती पर चला
जाएगा, यहां।
इन्हें कुछ भी
पता नहीं है
कि ये कहां हाथ
रख रहे हैं।
वहां क्या है,
उसका पता
नहीं है। जो
हाथ रख रहे
हैं, उस
हाथ में कौन
है, उसका
पता नहीं है।
जो उत्तर दे
रहा है, वह
कौन है, उसका
पता नहीं है।
कुछ भी इन्हें
पता नहीं है।
मैं
निरंतर सोचता
हूं कि इन
बच्चों में और
हमारे बूढ़ों
में कोई बहुत
फर्क है? उम्र
का फर्क है।
और उम्र के
फर्क की वजह
से याददाश्त धुंधली हो
जाती है कि
बचपन में हमने
याद की थीं
बातें। वह याद
की थीं, जानी
नहीं थीं।
बुढ़ापे तक
उनको दोहराते
चले जाते हैं।
ऐसे
नहीं होगा।
इतना सुगम
नहीं है। धर्म
गणित की भांति
नहीं है कि
सीख लिया, दो और दो
चार। धर्म फिजिक्स
की भांति, भौतिकशास्त्र की भांति
नहीं है कि
सीख लिया, ग्रेविटेशन क्या है, गुरुत्वाकर्षण
क्या है; कि
न्यूटन के
कानून क्या
हैं; कि
आइंस्टीन की
रिलेटिविटी, सापेक्षता
क्या है। सीख
लिया, पढ़
लिया और सीख
गए और जान गए।
धर्म विज्ञान,
साहित्य, काव्य, गणित,
भाषा--इनमें
से किसी की
भांति नहीं
है।
धर्म
है प्रेम की
भांति। वही
जानता है, जो करता है।
वही जानता है,
जो धर्म हो
जाता है। और
कोई उपाय नहीं
है। इसलिए
धर्म के हम
कोई
विश्वविद्यालय
खड़े नहीं कर सकते
हैं। हिंदू
विश्वविद्यालय
खड़ा कर सकते हैं,
मुस्लिम
विश्वविद्यालय
खड़ा कर सकते
हैं। धर्म का
विश्वविद्यालय
खड़ा नहीं कर
सकते। क्योंकि
धर्म का
विश्वविद्यालय
तो जीवन ही
है। और यही जीवन
नहीं, जो
बाहर दिखाई
पड़ता है; इससे
भी ज्यादा वह
जीवन, जो
भीतर डूबा है
और दिखाई नहीं
पड़ता। उसको ही
जान लेना
ज्ञान है। और
उस ज्ञान के
बाद जो फलित
होता है अनुभव,
वह आत्मा
है।
एक और
अंतिम बात, कि आत्मा का
जब अनुभव होता
है, तो ऐसा
नहीं होता कि
मेरी है।
आत्मा शब्द
थोड़ा-सा गलत
है। उसमें
अपने का खयाल
पैदा होता है।
आत्मा यानी
मेरी, अपनी,
स्वयं की!
आत्मा शब्द
थोड़ा-सा गलत
है। शब्द तो सभी
थोड़े-से गलत
होंगे ही; क्योंकि
सत्य किसी
शब्द में बंधता
नहीं, अटता
नहीं।
इसलिए
बुद्ध ने तो
इस गलत शब्द
की वजह से
कहना शुरू
किया, आत्मा
नहीं, अनात्मा है। इसलिए
बुद्ध को
बिलकुल ही
नहीं समझा जा
सका।
आत्मवादी भी
नहीं समझ सके।
वादी तो समझेगा
क्या! वादी
सदा अज्ञानी
होता है।
ज्ञानी वादी
नहीं होता।
आत्मवादी भी
नहीं समझ सके।
उन्होंने कहा,
अरे बुद्ध कहते
हैं कि आत्मा
नहीं, अनात्मा,
अनत्ता,
नो सेल्फ!
यह आदमी तो
खतरनाक है; यह आत्मा को
इनकार करता
है!
बुद्ध
कह रहे थे बड़ी
गहरी बात। वे
कह रहे थे कि जब
आत्मा का
अनुभव होता है, तो ऐसा नहीं
लगता कि मेरी
है; इसलिए
आत्मा कहना
ठीक नहीं। ऐसा
नहीं लगता कि यह
मैं हूं; इसलिए
मैं का कोई भी
शब्द जोड़ना
ठीक नहीं। ऐसा
ही लगता है, सब है; आकाश
की भांति, आंगन
की भांति
नहीं। घर के
आंगन की भांति
नहीं, चहारदीवारी
में बंद; आकाश
की भांति, कोई
दीवाल नहीं, कोई सीमा
नहीं।
तो
बुद्ध ने कहा, आत्मा क्या
कहूं! कहता
हूं, अनात्मा है, नो
सेल्फ। है ही
नहीं सेल्फ
वहां। बड़ी
अजीब बात है!
बुद्ध कहते
हैं, इन दि नोइंग आफ
दि सेल्फ, देयर
इज़ नो
सेल्फ, आत्मा
के अनुभव में
आत्मा है ही
नहीं।
ठीक
कहते हैं।
एकदम ठीक कहते
हैं। वहां कोई
मैं का भाव
नहीं रह जाता
है। आत्मा
यानी परमात्मा।
जैसे ही किसी
ने जाना कि मैं
क्या हूं, वैसे ही
उसने जाना कि
मैं सब हूं।
जैसे
ही बूंद ने
पहचाना कि मैं
कौन हूं, कि
बूंद ने समझा
कि मैं सागर
हूं। जब तक
बूंद ने नहीं
जाना कि मैं
कौन हूं, तब
तक वह बूंद
है। जिस दिन
जाना कि मैं
कौन हूं, उस
दिन वह सागर
है। क्योंकि
एक छोटी-सी
बूंद में पूरा
का पूरा सागर
मौजूद है। एक
छोटी-सी बूंद
के गुणधर्म को
हम समझ लें, पूरे सागर
का गुणधर्म
समझ में आ
जाता है। छोटी-सी
बूंद मिनिएचर
ओशन है, छोटा-सा
सागर। कहीं
सागर छोटे
हुए! सागर तो
पूरा है।
छोटा-सा दिखाई
पड़ता है। है
पूरा का पूरा।
आत्मा
का जानना यानी
परमात्मा का
जानना है।
इसलिए
ज्ञान
सर्वोच्च है, क्योंकि उसी
से हम
सर्वोच्च
शिखर
परमात्मा को
स्पर्श कर
पाते हैं।
अज्ञान
निकृष्ट है, क्योंकि उसी
के कारण हम
सर्वोच्च के
प्रति पीठ कर
पाते हैं।
एक
प्रश्न और ले
लें।
प्रश्न:
भगवान
श्री, इस
श्लोक में कहा
गया है कि योग
संसिद्धि
अर्थात समत्वबुद्धिरूप
योग के द्वारा
अच्छी प्रकार
शुद्ध
अंतःकरण का
पुरुष ज्ञान
को आत्मा में
अनुभव करता
है। कृपया योग
संसिद्धि के
अनुवाद, समत्वबुद्धिरूप योग का अर्थ
स्पष्ट करें।
योग
संसिद्धि, जहां योग
सिद्ध हो जाता,
उस घड़ी में।
फिर सिर्फ
सिद्ध नहीं, संसिद्ध,
सम्यकरूप से सिद्ध हो
जाता, उस
घड़ी में। जहां
योग सम्यकरूप
से सिद्ध हो
जाता; मिलन,
जोड़, जहां
बूंद और सागर
जुड़ते, मिलते
सम्यकरूप
से, पूर्णरूप
से, समग्ररूप से; जहां
मिलन संसिद्ध
होता, उस
घड़ी में शुद्ध
हुआ अंतःकरण।
उसका रूपांतर ठीक
है, समत्वबुद्धि को उपलब्ध।
एक ही बात है।
बुद्धि
सम तभी होती, जब योग
सिद्ध होता।
जब व्यक्ति का
समष्टि से मिलन
होता, तभी
बुद्धि सम
होती। उसके
पहले बुद्धि
डोलती ही रहती;
विषम होती।
यहां से वहां,
इधर से उधर
डोलती रहती।
हमारी
बुद्धि सदा
विषम है, डोलती
रहती है। और
ऐसा भी नहीं
है कि एक ही
तरफ डोलती है,
सदा विपरीत
तरफ डोलती
रहती है, कंट्राडिक्टरी
डोलती रहती है,
घड़ी के पेंडुलम
की तरह।
घड़ी का
पेंडुलम
देखते हैं आप? कभी-कभी गौर
से देखना
चाहिए।
पुरानी
घड़ियां अच्छी
थीं, जिनमें
पेंडुलम
होता था; उससे
आदमी की खोपड़ी
का पता चलता
था। नई घड़ियां
बहुत चालाक
हैं, उनसे
कुछ पता नहीं
चलता।
पुरानी
घड़ी का पेंडुलम
डोलता रहता था
नीचे, टिक-टिक।
एक कोने से
दूसरे कोने, टिक-टिक।
कभी देखा खयाल
से? जब पेंडुलम
बाईं तरफ जाता
है, तब वह
दाईं तरफ जाने
का सामर्थ्य
इकट्ठा करता है।
जब वह बाईं
तरफ जाता है, तब वह दाईं
तरफ जाने का मोमेंटम
पैदा करता है।
असल में बाईं
तरफ जाकर, वह
दाईं तरफ जाने
की शक्ति
अर्जित करता
है। बड़ी उलटी
बात होती है।
जब दाईं तरफ
जाता है, तब
बाईं तरफ जाने
की तैयारी कर
रहा है।
जब कोई
आदमी आपकी
प्रशंसा करता
है, तब
सम्हलना, अब
वह थोड़ी देर
में निंदा
करेगा! पेंडुलम
गया प्रशंसा
की तरफ, वह
तैयारी है
निंदा की तरफ
जाने की।
हमेशा समझना
कि अब यह
बेचारा
मुश्किल में
पड़ता है थोड़ी-बहुत
देर में। अब
यह कहीं जाकर
निंदा करेगा।
तब लौटेगा पेंडुलम।
नहीं तो वह
लौटेगा कैसे?
जो कोई आदमी
प्रेम करता है,
वह घृणा की
तैयारी कर रहा
है। जो घृणा
करता है, वह
प्रेम की
तैयारी कर रहा
है। बड़ी उलटी
बात लगेगी।
लेकिन ऐसा ही
है।
कोई
आदमी मुझे आदर
दे जाता है, मैं समझ
जाता हूं कि
अब यह चौबीस
घंटे के भीतर निपटारा
करेगा। रात
बारह बजे तक जागकर
गाली देगा
किसी तालाब के
किनारे
बैठकर। बहुत मुश्किल
है। इसको कुछ करना
ही पड़ेगा।
इसको करना ही
पड़ेगा। यह कमिटमेंट
हुआ। यह बच
नहीं सकता। यह
प्रतिबद्ध
है।
इसलिए
जब मुझे कोई
दूसरे दिन
सुबह आकर खबर
देता है कि
फलां आदमी रात
बारह बजे तक
तालाब के किनारे
बैठकर आपको
गाली देता था, तो वह चकित
होकर आकर
बताता; मैं
कहता, मैं
भलीभांति जानता,
क्योंकि वह
कल शाम मेरी
प्रशंसा कर
गया था। नींद
कैसे आती? रात
हलका हो गया
होगा। पेंडुलम
वापस लौट गया।
वह घर आकर सो
गया होगा।
ऐसा ही
है। मन पूरे
समय ऐसा ही
है। विषम में
डोलता रहता है, विपरीत में
डोलता रहता
है। ऐसे मन को
लेकर प्रभु-मिलन
नहीं हो सकता।
क्यों नहीं हो
सकता? विषम
बुद्धि वाला
मन प्रभु-मिलन
को क्यों उपलब्ध
नहीं हो सकता?
क्योंकि
मंदिर में की
गई प्रार्थना,
दोपहर
बाजार में
इनकार की
जाएगी; मंदिर
में की गई
प्रार्थना, बाजार की
भीड़ में खंडित
की जाएगी।
टाल्सटाय
ने अपना एक
संस्मरण लिखा
है। एक दिन
सुबह-सुबह
जल्दी नींद
खुल गई। और टाल्सटाय
चल पड़ा चर्च
की ओर। पहुंच
गया। पांच बजे
थे, कुहासा
छाया था मास्को
नगर में।
चारों तरफ
अंधेरा था।
सूरज के उगने में
घंटों की देर
थी। चर्च के
भीतर गया।
आवाज सुनाई
पड़ी। आवाज कुछ
पहचानी मालूम
पड़ी, तो
चुपचाप
धीरे-धीरे
भीतर गया। कोई
प्रायश्चित्त
कर रहा है, कोई
रिपेंटेंस
कर रहा है।
आवाज पहचानी
हुई लगी कि
कोई परिचित
है।
टाल्सटाय
शाही घराने का
आदमी था; खुद
काउंट था। कौन
होगा? धीरे-धीरे
सरककर पीछे
पहुंचा। देखा,
गांव का, मास्को का सबसे बड़ा
धनपति खड़ा हुआ
परमात्मा से
कह रहा है
अंधेरे में कि
हे प्रभु, मैंने
बहुत पाप किए।
मैं चोर हूं, बेईमान हूं,
बुरा हूं।
मुझसे बुरा
कोई भी नहीं
है! टाल्सटाय
ने कहा, अरे,
यह आदमी
इतना बुरा!
क्योंकि इसको
तो हम सोचते थे,
बहुत अच्छा
है। इसको तो
गांव में लोग
धर्मवीर कहते
हैं। मंदिर
बनाता, चर्च
बनाता। यह
चर्च भी उसका
ही बनाया हुआ
है। और यह
आदमी पापी और
सबसे बुरा।
स्वभावतः, टाल्सटाय को लगा, भागूं
और जाकर बाजार
में खबर करूं
कि हम बड़ी भूल
में पड़े हैं।
पर कहा, थोड़ा
रुक जाऊं, इससे
मिलकर जाऊं।
उस
आदमी की
प्रार्थना
पूरी हुई।
सुबह की किरणें
फूटने लगीं।
उस आदमी ने
पीछे लौटकर
देखा; देखा,
लिओ टाल्सटाय!
घबड़ाया। और
उसने कहा, देखो
महाशय, जो
कुछ सुना है, उसे तत्काल
भूल जाओ। वह
मैंने कहा ही
नहीं। टाल्सटाय
ने कहा, आप
क्या कह रहे
हैं? अगर
आपने नहीं कहा,
तो किस चीज
को भूलने के
लिए कह रहे
हैं! उसने कहा,
ठीक से समझ
लो। ये शब्द
जो मैंने यहां
कहे, भूल
जाओ। समझो कि
मैंने कहे ही
नहीं। और अगर
कहीं इन
शब्दों को
मैंने सुना कि
तुमने किसी को
बताया, तो
अदालत में
मानहानि का
मुकदमा चलाऊंगा।
टाल्सटाय
ने कहा, गजब
कर रहे हैं आप!
अभी आप कह रहे
थे कि मुझसे
बड़ा पापी और
कोई भी नहीं!
टाल्सटाय
को पता नहीं, पेंडुलम घूम गया।
गया! बात खतम
हो गई। वह
आदमी मुकदमा चलाने
को उत्सुक है;
अभी
प्रायश्चित्त
करने को
उत्सुक था!
क्या हो रहा
है?
ऐसा
विषम मन कभी
भी आत्मा में
प्रवेश नहीं
कर सकता।
आत्मा के
प्रवेश की जो
पतली-सी
द्वार-रेखा
है--कहता हूं
द्वार-रेखा, डोर लाइन; दरवाजा तो
बहुत बड़ा होता
है; रेखा
मात्र है
प्रवेश की--वह
संतुलन है, वह बैलेंस
है, समत्व है।
जहां
चित्त न बाएं
होता, न
दाएं; मध्य
में होता है; इतने मध्य
में होता है
कि न तो हम कह
सकते दाएं है,
न हम कह
सकते बाएं है;
न हम कह
सकते पक्ष में,
न विपक्ष
में; न हम
कह सकते घृणा
में, न
प्रेम में; न हम कह सकते
क्षमा में, न क्रोध में;
न हम कह
सकते परिग्रह
में, न
अपरिग्रह में;
न राग में, न विराग
में। जहां
व्यक्ति इतने
बीच में खड़ा है
कि न विरागी
है, न रागी
है, उस समत्व
बुद्धि के
क्षण में योग
संसिद्धि
होती है। या
इस क्षण में
बुद्धि समत्व
को उपलब्ध
होती है। बस, उसी क्षण
में छलांग लग
जाती है और
व्यक्ति उस अपरिसीम
में डूब जाता
है।
ऐसी
संसिद्धि से
शुद्ध हुआ
अंतःकरण!
समत्व
में शुद्ध हो
जाता है सब, क्योंकि
अशुद्धि अति
से आती है।
अति अशुद्धि है,
एक्सट्रीम इज़ दि इंप्योरिटी।
एक अति एक तरह
की अशुद्धि है,
दूसरी अति
दूसरी तरह की
अशुद्धि है।
अनति, एक्सट्रीम
नहीं, मध्य,
जिसको
बुद्ध ने कहा,
मज्झिम निकाय, दि
मिडिल पाथ, बीच का
मार्ग, न
इस ओर, न उस
ओर, जहां
ठीक बीच में...।
एक छोटी-सी
कहानी और अपनी
बात मैं पूरी
करूं।
बुद्ध
के पास एक
युवक दीक्षित
हुआ। संगीत
में कुशल था।
अदभुत थी वीणा
की उसकी सामर्थ्य।
लेकिन आया। था
सम्राट; भोग
में पला; भोग
में जीया। आया
तो दूसरी अति
पर चला गया। दूसरे
भिखारी, दूसरे
भिक्षु, दूसरे
साधु-संन्यासी
रास्ते पर
चलते, तो
वह कांटों में
चलता। दूसरे
एक ही वस्त्र
पहनते, तो
वह नंगा खड़ा
होता। दूसरे
एक बार भोजन
करते, तो
वह दो दिन में
एक बार भोजन
करता।
छः
महीने में सूखकर
हड्डी हो गया।
पैर घाव से भर
गए। चेहरा
पहचानना
मुश्किल हो
गया। सुंदर थी
काया उसकी, बड़ी
स्वर्ण-काया
थी। आया था, तो कोई भी
मोहित हो जाए,
ऐसा शरीर
था। अब तो
देखकर
विरक्ति होती,
विकर्षण
होता। कोई पास
आता, तो
बदबू आती!
भिक्षुओं
ने बुद्ध से
कहा, क्या कर
रहा है
तुम्हारा वह
साधक? वह
अपने को मारे
डाल रहा है! हम
तो सोचते थे, इतने सुख
में पला! कहते
हैं, उसके
घर में कभी वह गद्दियों
से नीचे नहीं
उतरा; मखमल
के कालीनों से
नीचे नहीं
चला। कहते हैं,
कभी उसने
पैर पृथ्वी पर
नहीं रखा; धूल
नहीं छुई कभी
उसके पैरों
को। सुनते हैं,
उसके घर में
गुलाब के जल
से स्नान करता
था। सुनते हैं,
उसके घर में
वायु सदा
सुवासित रहती
थी दूर-दूर से
आए इत्रों से।
कहते हैं लोग,
कथाएं हैं
कि सीढ़ियां
चढ़ता था, तो नग्न
स्त्रियां
सीढ़ी के
किनारे खड़ी रहतीं
रेलिंग की तरह;
उन पर हाथ
रखकर कंधे पर,
ऊपर जाता
था। ऐसा यह
आदमी, इतना
कष्ट झेलता
है! असंभव
घटित होता है!
बुद्ध
ने कहा, नहीं
भिक्षुओ!
संभव घटित हो
रहा है। जो
आदमी एक अति
पर रुग्ण होता,
वह अक्सर
दूसरी अति पर
पुनः रुग्ण हो
जाता है। मध्य
में रुकना
मुश्किल है--पेंडुलम
की भांति।
पर
उन्होंने कहा, अब वह मर
जाएगा, जी
न सकेगा।
बिलकुल सूखकर
कांटा हो गया
है। पहचानना
मुश्किल है।
पास खड़े होने
में बदबू आती
है। स्नान
नहीं करता है
वह। कहता है, स्नान
करूंगा, तो
शरीर की सज्जा
हो जाएगी। वह
जो इत्रों से
नहाता था, अब
साधारण से
गांव के गंदे डबरे में
भी नहीं नहाता
है। कहता है, शुद्धि हो
जाएगी शरीर
की। शरीर को
सजाना क्या? शरीर के
सौंदर्य का
प्रयोजन क्या?
बुद्ध
उसके पास गए
सांझ और कहा, भिक्षु
श्रोण! मैंने
सुना कि तू जब
सम्राट था, तो तू वीणा
बजाने में बड़ा
कुशल था। एक
प्रश्न पूछने
आया हूं। वीणा
के तार अगर
बहुत ढीले हों,
तो संगीत
पैदा होता है?
भिक्षु
श्रोण ने कहा,
पागल हुए
हैं आप! आप
जैसा ज्ञानी
और ऐसे सवाल पूछता!
वीणा के तार
ढीले हों, तो
संगीत पैदा
कैसे होगा? टंकार ही
पैदा नहीं
होती। तो
बुद्ध ने कहा,
तार बहुत
कसे हों, तब
भिक्षु श्रोण
संगीत पैदा हो
सकता है? उसने
कहा, नहीं;
अगर तार
बहुत कसे हों,
तो टूट
जाएंगे।
संगीत पैदा
नहीं होगा।
तार चाहिए सम,
न बहुत कसे,
न बहुत
ढीले। तार
चाहिए मध्य, न इस तरफ, न
उस तरफ। तार
चाहिए ऐसे कि
न तो कहा जा
सके कि ढीले
हैं, न कहा
जा सके कि कसे
हैं।
तो
बुद्ध ने कहा
कि मैं जाता
हूं भिक्षु
श्रोण! तू
बुद्धिमान
है। तुझसे कुछ
कहने की मुझे
जरूरत नहीं
है। कुछ कहने
आया था, अब
नहीं कहता
हूं। इतना ही
कहता हूं कि
जो वीणा में
संगीत पैदा
होने का नियम
है, वही
प्राणों में
भी संगीत पैदा
होने का नियम
है। तार बहुत
कस मत, बहुत
ढीले भी मत
छोड़। समत्व
को उपलब्ध हो।
बीच में आ। मज्झिम
निकाय। अति को
छोड़।
कृष्ण
कहते हैं, समत्व बुद्धि को
उपलब्ध हुआ, योग
संसिद्धि को
उपलब्ध हुआ, शुद्ध
अंतःकरण उस
आत्मा से एक
हो जाता है।
शेष
सुबह हम बात
करेंगे।
अभी
संन्यासी धुन
में प्रवेश
करेंगे। तो आप
थोड़े पीछे हट
जाएं, जगह
खाली छोड़ दें।
और यहां मंच
पर कोई न आए, पीछे हट
जाएं। जिनको
देखना है, वे
देखें। बैठे
रहेंगे, तो
सबको देखना
संभव हो
जाएगा।
आज इतना
ही।
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